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छायासीमो संधि
२७५ है। जलरेखाकी भौति प्रेम देखते ही देखते नष्ट हो जाता है। यह जानकर भी देखो मोहजाल में मैं कैसा फंसा हुआ हूँ। मैं कल ही सूर्योदय होनेपर इस पहाड़ पर दीक्षा ग्रहण काँगा १।१-५॥
[१८] हृदयमें इस प्रकार सोचते-सोचते रात कुबुद्धिके समान बीत गयी। ऊगा हुआ सूर्य आकाशमें ऐसा शोभित हो रहा था, मानो वह हनुमानकी दीक्षा-विधि देखने के लिए आया हो। उसने अपनी प्रिय पत्नियोंसे पूछा और परम्परामें अपने पुत्रको नियुक्त किया। पवनपुत्र अपने विमानसे निकल कर मणियोंसे अड़ित एक शिक्षिकामें बैठ गया। श्रेष्ठ मनुष्योंके साथ जिनमन्विरके लिए गया। वहाँ उसने धर्मरत्न चारणऋषिके दर्शन किये । पहले प्रदक्षिणा, और सब जिनवंदना कर उसने दो प्रकारका परिमाह छोड़ दिया। सातसौ पचास विद्याधरोंके साथ उसने प्रेमपूर्वक दीक्षा ग्रहण की। इसी प्रकार बन्धुमति के पास जाकर सुप्रीव राजाके पुत्र सुपद्म राजाने दीक्षा ग्रहण कर ली। इसी प्रकार, खरकी चेटी अनंगकुसुभ, नलकी विनीत पुत्री श्रीमालिनी, गुणोंकी राशि लंकासुन्दरी, (कि जिसका पाणिग्रहण असने लंकापुरीमें किया था) और भी दूसरी-दूसरी आठ हजार सुन्दरियोंने दीक्षा ग्रहण कर ली। जब हनुमानकी एकसे-एक प्राणोंसे प्यारी प्रमुख स्त्रियाँ दीक्षा ले बैंठी, तो फिर उन सबको कौन जान सकता है, जो उस अवसर पर संसारसे विरक्त हुई ॥१-१२॥
[१९] यह खबर पाकर पवन और अंजना रोने लगे "हे रामका मनोरंजन करनेवाले, हे जुभयवंशोंको बढ़ावा देनेवाले, हे वरुणके सौ सौ पुत्रोंको बाँधनेवाले, हे महेन्द्र और माहेन्द्र