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सत्तसप्तरिमो संधि भी जिसे सहन नहीं करती, नदी काँपती है कि क्यों मेरा शोषण करते हो, खायी जाती हुई औषधि दहाड़ मारकर रो पड़ती है, छीजती हुई वनस्पति जिसके बारे में घोषणा करती है, जो आशा शून्य है उस का मरण ही कब होता है, उसे पवन नहीं कृता, सूर्य भी उसे अपने अधीन नहीं करता, राजकुल रूपी चोरोंसे जो धन इकट्ठा करता रहता है, जो अपने खोटे वचनोंसे काँटोंकी भाँति वेध देता है, और स्वजन जिसे विपवृक्ष मानते हैं। जो धर्मसे रहित है, पापपिण्ड है, जिसका कोई ठौर-ठिकाना नहीं, जिसका नाम महिप, पभ और मेषके मामपर हो, उसे रोना चाहिए ।।१-१॥
[३] परन्तु यह (रावण ) तो अस्खलित मान था । उसने निरन्तर दान दिया है, याचकजनोंकी उसने आशा पूरी की है, ऐसे रावण के लिए तुम नाहक रोते हो। तुम उसके लिए क्यों रोते हो, जिसने त्रिभुवनको वश में कर लिया था। जिसने निशाचर कुलका उद्धार किया । कुवेरका नाश करनेवालके लिए तुम क्यों रोते हो, जिसने यम और महिपके सींग उखाड़ दिये, जिसने कैलास पर्वतका उद्धार किया, उसके लिए तुम क्यों रोते हो ? जिसने सहस्रकिरण और नल-कूबरका प्रतिकार किया, जिसने इन्द्रको बन्दी बनाया, जिसने ऐरावतके घमण्डको चूर-चूर कर दिया, उसके लिए तुम क्या रोते हो, जिसने सूर्यका रथ मोड़ दिया, जिसने चन्द्रमाके सिंह के अयालको तोड़ डाला, जिसने साँपके फणमणिको उखाड़ दिया और वरुणके अभिमानको चलता किया, ऐसे उस निधियों और रत्नोंको उत्पन्न करनेवाले रावणके लिए तुम क्यों रोते हो ? जिसने समुचे निशाचर कुलको अपना बना लिया, बहुरूपिणी विद्याकी सिद्धि करनेवाले और अनेक भयंकर समरांगणोंके