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घडरासीमो संधि को चिन्ता हुई। अपने भाग्यशाली पुत्र सुन्दरपतिको राज्यपट्ट बाँधकर श्रीचन्दने समाधिगत मुनिके पास तपश्चरण ले लिया ॥१-१क्षा
१४] वह श्रीचन्द्र अघ साधु था, परिप्रहसे शून्य । प्रने मैले बालोसे उनका झारीर आभूषित था। वे तीन रत्नोंस अत्यन्त मण्डित थे। उन्होंने पंचेन्द्रियोंके दुर्दम दानवको दण्डित कर दिया था। वे पाँच महानतोंका भार उठानेवाले थे, और मास, पक्ष, छठे आठं पारणा करते थे ! कन्दराओं, किनारों और उद्यानों में निवास करते थे। उन्होंने राग, द्वेष भय और मोहका विनाश कर दिया था | एकचित्त होकर, शुभभावनाओंका ध्यान करते थे। इस प्रकार उन्होंने जिनशासनकी ममताभरी प्रभाचना की। बहुत समयके अनन्तर मरकर वह ब्रह्मलोक स्वर्गमें उत्पन्न हुआ। मणि मोतियों और विममालाओंसे सुन्दर विशाला विमानमें अब वह इन्द्र था। वहाँ उसने दस सागर तक इन्द्रका सुख भोगा. और फिर च्युत होकर यहाँपर वह राजा दशरथके प्रथम पुत्रके रूपमें रामके नामसे उत्पन्न हुआ ।। ५.८ ।।
[१५] निरन्तर तपके प्रभावसे ही इसे यह पराक्रम और रूप मिला है। तीनों लोकों में उसको उपमा किसीसे नहीं दी जा सकती, और तो और, जिसके एक हजार आँखें हैं, ऐसा इन्द्र भी उसकी समानता नहीं कर सकता । और जो पुराना वृपभवज था वह भी ईशान स्वर्गमें देवता हुआ। वहाँ दो सागर तक रहकर कालान्तर में तारापति सुग्रीव नामसे उत्पन्न हुआ। विद्याधर राजा सूर्यरज का पुत्र और किष्किन्धा पर्वतका परमे. श्वर यह सुग्रीव अब तीनों लोकोंमें विख्यात है। वह बालिका अनुज और वानरध्वजी है। श्रीकान्त भी भारी दुःखोंकी खान