________________
असीइमो संधि
३० दोनोंके निरन्तर प्रहारसे तीरजाल ऐसा प्रवाहित हो उठा मानो हिमालय और विन्ध्याचलके बीच में स्थित मेघप्रवाह हो ।।५-९||
[१०] एक दूसरेने एक दूसरेको तीरोंसे ढक दिया, परन्तु किसी प्रकार उन्हें आघात नहीं पहुंचा। एक दूसरेके कवच प्रताड़ित हो रहे थे, एक-दूसरेके ध्वज नष्ट कर रहे थे। एकदूसरेके अंग छिन्न-भिन्न हो रहे थे, एक-दूसरेके धनुष आहत थे, जल-थल भी घावोंसे सहित थे। एक दूसरेने एक दूसरेके साथीको घायल कर दिया और अश्य सहित यमलोक भेज दिया, एक दूसरेके प्रवर रथ खण्डित हो गये। अब वे मतवाले हाथियोंपर बैठे हुए असह्य हो उठे। राजा मधु और शत्रुघ्न ऐसे लग रहे थे, मानो आकाशका अतिक्रम करनेवाले महामेष हो, मानो दो सिंह गिरिशिखरपर चढ़ गये हों, मानो राम
और रावणमें भिड़न्त हो गयी हो। दोनों ईर्ष्यासे भरे थे, दोनोंके पास अस्त्र थे, दोनोंके हाथमें तलवारें थीं। ऐसा जान पड़ता था कि मलय और महेन्द्र महीधरोंमें दावानल लग गया हो ॥१-९||
[११] युद्धके लोभी महागज दौड़ पड़े। वे बलोद्धत महाकालकी तरह क्रुद्ध थे। विमुक्त अंकुश एकदम उन्मुख और सूंड जठाये हुए थे वे | उनके गीले गालोंवाले मस्तकपर सिन्दूर लगा था। अपने मवजलसे वे पासके पृक्षोंको सींच रहे थे, भ्रमरमालाओंने दिशाओंको नीरन्ध्र बना दिया था। दाँतोंकी कान्तिसे उनका शरीर ऐसा सफेद दिखाई दे रहा था, मानो बगुलोंकी कतारके साथ मेघमाला हो। उनके चलते ही शेष. नाग डिग गया। जब वे घूमते दो धरतीके भाग घूम जाते । बड़े-बड़े पहाड़ों की जगह समुद्र निकल आते । ऐसे उन महागजों