Book Title: Gnata Dharmkathangam
Author(s): Chandrasagarsuri
Publisher: Siddhchakra Sahitya Pracharak Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआनन्दचन्द्रग्रन्थान्धी( ग्रन्थरत्नाकरे ) ग्रन्थरत्नम्-१६. शाश्वतानन्ददायक-श्रीयन्त्राधिराजराजेश्वर-श्रीसिद्धचक्रेभ्यो नमो नमः । सकलसमीहितपूरक-श्रीशक्लेश्वरपार्श्वनाथो विजयतेतमाम् । शासनसञ्चालक-सूत्रकृचलीसुधर्मगणभृते नमो नमः ॥ वर्तमानशासनमान्यसूत्रकार-पञ्चमगणधरप्रवरश्रीसुधर्मस्वामिसंहब्धं, तत्सूत्रार्थरहस्यकार-श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिनिर्मितनियुक्तियुतं, __नवाङ्गीवृत्तिकार-श्रीमदभयदेवसरिविहितविवरणसुशोभितं; संपादकीयविविधप्रत्यन्तरपाठाद्यनेकपरिशिष्टसमलङ्कतं च ॥श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गम् ॥ [ तस्यायं श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गीय-प्रथम श्रुतस्कंधस्याष्टाध्ययनस्वरूपः प्रथमो विभागः1 संशोधकः सम्पादकश्च प्रातःस्मरणीयपूज्यानां गीतार्थसार्वभौमानामागमोद्धारकाणां श्रीवर्धमानजैनागममन्दिरसंस्थापकानां प्रावचीकधुरन्धरामा - स्व. श्रीआनन्दसागरसूरीश्वराणां विद्वद्विनेयः आचार्यश्रीचन्द्रसागरसूरिः । प्रकाशिका-"श्रीसिद्धचक्रसाहित्यप्रचारकसमिति" इति संस्था । वीरसंवत् २४७८ । विक्रमसंवत् २००८। पण्यम् ८-०- ० काइस्टाब्द १९ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवानी स्व०पू० गुरु आ. सुचावा। मीज्ञाता धर्मकथा 4 +5+ प्रकाशिकाश्रीलिचक्र-साहित्यप्रचारक-समिति प्रधानसञ्चालकपानाचन्द रूपसन्द झवेरी. २२४ शेतमेमणस्ट्रीट, मुम्बार ०२ ॥ स्व० पू० गुरुदेव-आगमोद्धारक-सुधावाक् ॥ मर्वव्यापक योग कयो, धर्मकथानुयोग. धर्मिष्ठोना चरित्रोनो संचय तेनुं नाम धर्मकथानुयोग छे. धर्मकथानुयोग ए एक व्यापक चीज छ, के जेओ शासनमान्यमार्गमा प्रवेशेला न होय, अने नवा दाखल थतां होय, ते वधाने प्रथम-देशनामा धर्मकथानुयोग कहेवो. (देशनानन्दसुधासिन्धु-देशना-६) 4+4+4+4 -- Зех RAKAR मुद्रक-शाह गुलाबचन्द लल्लुभाई, श्रीमहोदय प्रिन्टींग प्रेस. दाणापीठ-भावनगर. (सौराष्ट्र) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = आर्थिक-सहायक-नामावलि. = श्रीज्ञाताधर्मकथा-भा-१-२ ना मुद्रण माटे अगाऊथी मेट रकम आपनार पुण्यशालीओ। वडोदरा ५१) श्री शाहखाते ह. शान्तिभाइ जमनासस वैद्य. १००१) श्री जानीशेरी वडोदरा जैन उपाश्रयना ५१ शा दलसुखभाइ मोहनलाल अंगुरपायाला. ज्ञानखाता तरफथी. २५१) श्रीकोठीपोल बडोदरा जैन उपाश्रय तरफथी. ५१) गांधी कान्तिलाल ममृतलाल वेजलपुरकाला. २५१) शा मंगलदास लक्ष्मीचन्द बडुवाला. ५१) शा नगीनदास गुलाबचन्द घीया. १०१)शा छगनलाल रायचन्द ह० रंगीलदासभाइ. ५१) शा त्रिभोवनदास मोहोलाल हाथीपोलवाला. १०१) शा केसरीमलजी हीराचन्दजी नवापुरा. ५१) शा मोतीलाल मोहनलाल. १०१) शा अमृतलाल हरिलाल तरफथी. ४१) शेठ अम्बालाल हीराबंद. इ. चन्दुलाल परसोतमदास. १०१) श्री शाहखाते ह. मंगलदास शिवलाल. ३१) शा भायचन्दभाइ प्रिमोवनदास पटवा. १०१) शा नेमचन्द बेचरदास तरफथी भेट, ३१) शा भीखमचन्दजी फोजमलजी. ह. केशरीचन्द कल्याणचन्द. ३१) शा नगीनदास छोटालाल दोडकावाला. १०१) शा जमनादास जेठाभाइ छाणीवाला. ३१) शा मणिलाल मोतीलाल दोडकावाला. १०१) शा वाडीलाल केशवलाल काटवाला. २५) शा मगनलाल कस्तुरचन्द मेथीवाला. १०१) शा सुकनराज हीराचन्दजी. ५१) बाइ गंगाबेन ते त्रिभोवनदास दुर्लभदासनी दीकरी ११) शा सुन्दरलाल चुनीलाल. तरफथी इ. जमनादास कालीदास. ११) उपा-क्लोथ मरचन्ट इ. व्होरा भोगीलालभाइ. FACUAS AWARA Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गेप्रकाशिकानुं निवेदन. प्रकाशिकानुं निवेदन। भीमाता धर्मकथाओं ॥२॥ SNEHASHASABSCASTASHASHA श्रीसिद्धचक्रनो अने समितिनो जन्म प्रातःस्मरणीय, पूज्यपाद, तपागच्छगगनदिनमणि-श्रीदेवसूरसंघपरम्परासंरक्षक-आगमोद्धारक-श्रीआनन्दसागरसूरीश्वरजी महाराजश्रीनुं अनेक ठाणां सह वि. सं. १९८८ मुम्बाइ-मूलेश्वर-लालबागना उपाश्रये सकल संघनी विनंतिथी चातुर्मास थयु, अने ते अवसरे पू. मुनिश्री चन्द्रसागरजी ( हालमा पू० आचार्य-श्रीचन्द्रसागरसूरिजी) पण साथे हता.. ___आ चातुर्मास थयु ते अवसरे युवानीआओए शासनमान्य-दीक्षाना अस्खलित-प्रवाहने रोकवा कम्मर कसी हती, तन-मन अने धनद्वाराए दीक्षार्थिओने कनडगत करवानी अनेकविध कार्यवाहीओ शरू करी हती, मानव-जीवनने कलंक समान क्रान्तिमालाना लेखोनी हारमाला लखीने-प्रचारीने आगेवान युवकोए भद्रिक-युवान वर्गना मगज बहेकावी मूकवानी वेगभरी शरूमात करी हती, प्रव्रज्याना पवित्र प्रबल वेगने रोकवा गामे गाम युवकसंघनी स्थापना करी हती-थती हती; आवा विषम वातावरणमा सम्यक्त्व पामेलाओ सम्यक्त्वथी पतित थाय, नवा जीवो सम्यक्त्व पामे नहिं, अने सम्यकृत्वनी अभिमुख थयेलो वर्ग खसी जाय तेवां तेवां भाषणो थतां, तथा आत्मशक्तिना विकासने रुंधनारा अनेकविध प्रकाशनो, प्रबन्धो, लेखो, मासिको, पाक्षिको, साप्ताहिको दी उगे देखाव देतां ES AUSAHARA DU. ॥२ ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAROKARCHASEE हता; तेवा शासन ऊपरना भयंकर आक्रमण अवसरे प्रातःस्मरणीय पूज्यपाद आगमोद्धारक स्व. आ. श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजीनी संमतिने अनुसरीने तेओश्रीना विद्वद्विनेयरल-श्रीसिद्धचक्रतीर्थोद्धारक-श्रीसिद्धचक्र-नवपदआराधकसमाजसंस्थापक-वैयाकरणकेशरीश्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनमहाव्याकरण पर श्रीआनन्दबोधिनी वृत्तिना रचयिता, श्रीवर्द्धमानतपोमाहात्म्य, विंशति विशिंका-सारांशरहस्य, पंचाशकशास्त्रसारांश, सूत्रकृताङ्गसारांश, सुधावर्षादि विविध साहित्यना आलेखनकार पूज्यपाद आचार्यदेवश्री चन्द्रसागरसूरिजीनी शासनसंरक्षक प्रेरणाथी अने तेओश्रीनी पुनित देखरेख नीचे उपर जणावेला अनेकविध विघातक तत्त्वोने जडमूलथी नाबुद करवा माटे अने शासनरसिक-चतुर्विधसंघमां धर्मना जोमने प्रबलवेग आपवा माटे श्रीसिद्धचक्रपाक्षिकनो जन्म थयो. ते पाक्षिक, संचालन करवा माटे अने आराधकोनी आराधना आराध्यपदने अनुसरवा साथे उज्ज्वल बने ते हेतुथी तेने अनुसरतुं शासनमान्यसाहित्य- प्रकाशन करवा माटे साथे साथे श्रीसिद्धचक्र-साहित्य-प्रचारक-समितिनो पण जन्म थयो.. बन्नेनी प्रशंसनीय कार्यवाही____ आ शासनसंरक्षक-श्रीसिद्धचक्रपाक्षिकने प्रबळवेग आपीने पगभर बनावया माटे पू. आगमोद्धारकनी अमोघदेशनाओ, तथा तेओश्रीए आपेल समाधानोना संचयरूप श्रीसागरसमाधानद्वाराए जटिलपश्नोना प्रत्युत्तरो, आराधकोना जीवन आराधनामां ओतप्रोत बने अने विराधनाथी बचे ते सारु सुधानी गरज सारी शके तेवा तेओ श्रीमान्नाहृदयस्पर्शी सुधा समान वाक्योना संचयरूप, सुधासागर, शासन पर हुमला करनाराओने जडबातोड जवाब मली शके ते सारु समालोचना विगेरे सुन्दरविभागोने-सुन्दर-अतीव उपकारीक सामग्रीओथी, अने तेओश्रीना विद्वद्विनेयश्रीचन्द्रसागरसूरिजीना प्रेरणात्मक सदुपदेशे आर्थिकसहायको मलवाथी समिति CARROCARRACAN RMA Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संचालनk पुण्यकार्य। नवाङ्गीइ. वृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ROCHOLARSONAGACHUCHC34 अने पाक्षिक शासनसंरक्षकना कामने निर्विघ्ने आगल वधारवाने समर्थ थया. आ पाक्षिकनुं अने समितिर्नु संचालन करवानुं काम संभाली लेवानी जबाबदारी शरूआतथी जे में उपाडी लीधी हती अने ते जबाबदारी अद्यापि पर्यन्त सेवाभाविपणाथी हुँ बजावी रखो छु. आ श्रीसिद्धचक्रपाक्षिके अने श्री सि० सा०प्र० समितिए शासनमान्य सुप्रसिद्ध सेवाओ शासन पर आवी पडेली आपत्तिकालमां बजावी छे के-जे सेवाओ माटे अद्यापिपर्यन्त श्रीचतुर्विधसंघनी दरेक व्यक्ति ते बन्ने माटे ( पाक्षिक-समिति माटे) हार्दिक | आशीर्वाद आपी रही छे, अने मुक्त कण्ठे प्रशंसा गाई रही छे. संचालन- पुण्यकार्य उपर जणान्या मुजबनो शासन पर आवेलो विषम जुवाल लगभग शमी गयेल होवाथी, शासनमा अनेकविध कार्योनी जवाबदारी पू० आ० श्री चन्द्रसागरसूरिमहाराजने होवाथी, अने श्रीसिद्धचक्र-पाक्षिक माटेनी प्रेस मेटर नियमित अवसरसर मेलववामां | मुश्केली थती होवाथी, आ पाक्षिकने मासिकना रूपमा प्रकाशन करवानुं समितिए नक्की कर्यु, अने ते पछी सत्तर वर्षनी परिसमाप्ति सुधी नियमित मासिकरूपे आ सिद्धचक्रनुं प्रकाशन थयुं छे, अने वांचको, विचारको, अभ्यासको तेनो सारो लाभ ले छे. हालमा चतुर्विध संघना सहकार साथे आ श्री सिद्धचक्र-मासिके अढारमा वर्षमा प्रवेश करेलो छे. वांचको-विचारको अने अभ्यासकोने शासनमान्य साहित्य मलतुं रहे ते हेतुथी समिति तरफथी लगभग म्हें पंदर ग्रन्थो मुद्रण करावीने प्रसिद्ध कर्या छे, अने प० पू० आ० श्रीचन्द्रसागरसूरिजीनी महेरबानीथी आ श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्ग नामना छट्ठा अंगना प्रथम विभागर्नु (ग्रन्थरल नं. १६मार्नु) प्रकाशन करवा अमारी समिति तरफथी हुँ भाग्यशाळी थयो ढु. खरेखर ! दुःषम कालमा शासनहितकर-मासिकनुं अने समितिनुं SOCIALCHAKRMORECAUC4 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Е + + + + ECORICAREERENA + संचालन करवान कार्य प्रबल पुण्यनी अनुकूलता बगर बनी शकतुं ज नथी. आ ग्रन्थना बे विभाग| आ ग्रन्थनी प्रथम आवृत्ति प्रातःस्मरणीय पू० आगमोद्धारक आचार्यदेवेश स्व० गुरुदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी तरफथी प्रकाशन थयेल छे, ते पछी पू० श्रमण भगवन्तोनी संख्यामां वधारो थवाथी दशगुणी किंमते पण ते ग्रन्थ मेलववानुं मुश्केल थई | जवाथी आ ग्रन्थ- द्वितीय आवृत्तिरूपे हस्तलिखितप्रतिओ साथे मेलवीने अभ्यासीयोनी सवळता माटे प्रत्यन्तर पाठो-प्रस्तावना| परिशिष्टो-सारांश विगेरेथी सुशोभित बनावीने आ अन्थनो प्रथम विभाग प्रसिद्ध कराय छे. प्रस्तावना परिशिष्टो विगेरेथी आ ग्रन्थy कद मोटुं थइ जवाथी आ ग्रन्थने बे विभागमा व्यवस्थित रीतिए ब्हार पाडवामां आवे छे. हवे आ ग्रन्थना प्रथम विभागमां-प्रथमश्रुतस्कंधना प्रथमअध्ययनथी आठ अध्ययनो संपूर्ण छे तथा प्रस्तावना-परिशिष्टो, अध्ययनोनो सारांश विषयानुक्रम पण तेटला ज अध्ययनोनो तेनी साथे छे. बीजा विभागमा प्रथमश्रुतस्कंधना नवमा मध्ययनथी १९ अध्ययनो संपूर्ण छे, अने तेनी साथे बीजाश्रुतस्कंधना सर्व अध्ययनो छे. आ बीजा भागनी साथे पण प्रस्तावना-परिशिष्टोसारांश-विषयानुक्रम हवे पछी आपवामां आवनार छे. ग्रन्थप्रकाशननुं निमित्त___ वडोदरा शहरमां-प० पू० पन्न्यासप्रवर श्री चन्द्रसागरगणीन्द्रश्री- ( वर्तमानमा आ० श्री चन्द्रसामरबरिजीनु ) माठ ठाणा सह चातुर्मास (वि० सं० २००६) हतु. पू० पंन्यासप्रवरश्रीजीने अने तेओश्रीना शिष्य प्रशिष्यादिने आ दरम्यान वर्षीतप + + + + + Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे 11811 चालु हतो तेथी ते तपना पारणा निमिते आ ग्रन्थनुं प्रकाशन थाय अने तेनी थोडी नकलो पूज्य साधु साध्वीजीओने वर्षीतपना पारणा निमित्ते मेट अपाय ते हेतुथी श्रीसंघे ते अवसरे चञ्चल लक्ष्मीने स्थिर करवा माटे श्रीसंघनी उदार चित्तवाळी जुदी जुदी व्यक्तिओए पैसा आप्या के जेओश्रीना मुबारक नामो आर्थिक सहायकोनी नामावलिमां छे. प्रथम आवृत्तिरूपे प्रकाशन थयेला श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गमन्थने हस्तलिखित प्रतो साथे मेळववामां अने प्रत्यन्तरपाठो आपवामां, प्रेसमेटर तैयार करवामां धारणा करतां वधु विलम्ब थयो तेथी प्रेस पर मुद्रण कराववा माटे मोकलवामां विलम्ब थवाथी वर्षी तपना पारणाना अवसर पर ते ग्रन्थ तैयार थइ शक्यो नहिं, परन्तु ते अवसरे दानवीर श्रेष्ठिवर्य श्रीचीमनलाल डाह्याभाई परीख तरफथी 'देशनानन्द सुधासिन्धु' के जेनी अंदर श्रीभगवतिसूत्रनी शरुआतनी शास्त्र प्रस्तावना अने सूत्रो उपर स्त्र० आगमोद्धारकश्रीनी १०१ देशनाओ बहार पडी, अने ते प्रन्थ ६५ फर्मा उपरांतनो दलदार अने पाका बाइन्डींगनो ग्रन्थ वर्षीतपना पारणा निमित्त मेट आपवामां तेओश्रीनी संमति आववाथी आप्यो; आ रीते प्राप्त थयेला प्रसंगने साचवीने ते ओश्रीमाने अखण्ड पुण्य उपार्जन कर्यु. हवे आ ग्रन्थप्रकाशनरूपे प्रसिद्ध थाय छे, तेना मूल निमित्तरूप श्रीवडोदरा श्रीसंघना आगेवानो छे. चातुर्मासना अवसरे श्री वडोदरासंघना माननीय गृहस्थोनी ग्रन्थ प्रकाशनमां आपेली आर्थिक मददने सफलीभूत बनाववा माटेनो उपर जणान्या मुजब प्रथम प्रसंग साचवी न शकायो, छतां पालीताणा खुशालभुवन मां चातुर्मास बिराजमान पू० आचार्यमहाराज श्री चन्द्रसागरसूरिजी पोताना शिष्यप्रशिष्यादि विशाल परिवार साथे शाश्वत तीर्थनी नवाणुं यात्रा करे छे, तेथी तेनी परिसमाप्तिना आ बीजा शुभ प्रसंगे पूर्वे नियत थयेल ग्रन्थनी नकलो भेट तरीके व्हेंचीने पुण्यना भागीदार श्रीवडोदरा श्रीसंघना आर्थिक सहायको बनशे आ हेतुने अत्र स्पष्ट करवामां आवे छे. 59 ग्रन्थप्रकाशन नुं निमित्त | ॥ ४ ॥ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAGICHAVA FI उपसंहारजा आ ग्रन्थने प्रकाशन करवानी प्रथमतः पहेल करनार तरीके वडोदरा शहेरना श्रीसंघना आर्थिक सहायकोनो, हस्तलिखित ग्रन्थनी | प्रतिओ साथे मेळवबाचें काम करनार पू० उपा० श्रीदेवेन्द्रसागरगणीवरना शिष्य पू० मुनिश्रीदोलतसागरजी म. नो, प्रेस | मेटर तैयार करवानु, प्रेस प्रूफो संशोधन करवानु, परिशिष्टो तैयार करवानुं अने शुद्धिपत्रक तैयार करवानु शुभ कार्य करनार पू. मुनिश्रीचन्दनसागरजी म. नो, बनती त्वराए सुन्दर काम करी आपनार प्रेस मालीक शा गुलाबचन्द लल्लुमाईनो, तेमज तेओश्रीना प्रेसना कंपोझीटर वगेरेनो अने संशोधननु तथा अन्य सम्पादन- सर्वोत्तम कार्य प.पू. आ. श्रीचन्द्रसागरपरिजीनी | पुनित नजरतळे थयेल होवाथी तेओश्री आदिनो हार्दिक आभार मानुं छु. वांचको-विचारको अभ्यासको वांचवा पहेलां शुद्धिपत्रकथी | अशुद्धस्थलो शुद्ध करीने वांचे-विचारे अने परिशीलन करे एज एक शुभेच्छा... . . निवेदक:२२४ शेखमेमणस्ट्रीट पानाचन्द रूपचन्द झवेरी. मुंबाइ नं. २ श्रीसिद्धचक्र-मासिकना तन्त्री तथा २००८ सौभाग्य पञ्चमी. श्रीसिद्धचक्र-साहित्य-प्रचारक-समितिना प्रधान-संचालक. MERABARKARAN Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि०१ नवाङ्गी०पू० श्रीवाताधर्मकथाओं वाचना मेद पाठान्तरसंग्रहः। परिशिष्ट-१। ॥ वाचनामेद-पाठान्तर-संग्रहः ॥ . पृ. पंक्ति अथवा संकृष्टादिविशेषानि० कैम्वित्पुनरेवं संभावितमिदं 'सरसच्छधाउहरितालाभ इति वृद्धाः वलवबरइएति. पाठान्तरापेक्षया चन्दनवरकनककलशैः वलयाथाक्रान्तत्वादिति वृद्धाः इह अन्थे वाचनाद्ववमस्ति, तत्रैका बृहत्तरां व्याख्या बाचनान्तरे त्वेवं दृश्यते 'जाव सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा' तत्र यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम् १७ स्यामो, द्वितीया तु मायः सुगमैन; यच्च तत्र अत्र वट्टतट्ट-इत्येतावदेव पुस्तके दृष्टं संभावनया तु दुरवगमं तदितरव्याख्यानतोऽवबोद्धव्यमिति । ७ वृत्ततति इति व्याख्यातमिति पाठान्तरेण तु 'वपडिकचिद्राजगृहे गुणसिलके इति दृश्यते, स चापपाठ पुण्णपसत्थनिद्धमहुगुलियपिंगलच्छं स्फुटचायं पाठः १८ - इति मन्यते तथा शिरसावर्त इत्येके, शिरसा अप्राप्त इत्यन्ये १९ वृद्धव्याख्या तु कनकस्य, न लोहादेयः पुलकः० १० १७ | पाठान्तरेण 'कुलहेउं' कुलकारणं, द्वारमित्यन्ये स्तम्भविशेषणमिदमित्यन्ये १६ ६ | क्वचिवृत्तिकरमित्यपि दृश्यते वृत्तिश्च निर्वाहः, २० शत मन्यत १६ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAACAC पृष्ठ. पंक्ति। छेकैः-अवसर xिसप्ततिकलापण्डितैरिति वृद्धाः २४ २६ | अथवा “सामत्तिपाठः, तत्र श्यामा पियङ्गुः," प्रष्ठैः-वाग्मिभिरिति वृद्धव्याख्या २४ २७ | पाठान्तरे नगेषु पर्वतेषु व्याख्यान्तरं तु छेकैः प्रयोग दक्षैः शीघ्रकारिमिः, २५ २ पाठान्तरेण परिभ्रामिताः कृतप्रभामंशाः ३० पाठान्तरे 'समत्तजालाभिरामेति तत्र समस्तैर्जालकैर तथा-"कुंडलोज्जोतितानना वरपायपत्तनेउरमणिमेहभिरामो यः स तथा, पाठान्तरेण 'ससुत्तजालाभिरामे' लाहाररइयउविय कडगखुड्डयएगावलिकंठमुरयतिसरसहमुक्ताजालयों वर्ततेऽभिरामश्च स तथा तत्र. २५ ७ यवखलयहेमसुतकुंडलुज्जोवियाणणाओत्ति मतान्तरेणाणिमाद्यैश्वर्ययुक्ताः पाठान्तरे “सर्वतकसुरभिकुसुमैः सुरचिता प्रलभाण्डागारिका इति वृद्धाः; २६ म्बमाना शोभमाना कान्ता विकसन्ती चित्रा माला तथा क्वचित् 'सिद्धत्थयहरियालियाकयमंगलमुद्धाणा यासां तास्तथ।, एवमन्यान्यपि पदानि बहुवचनाएवं पाठः २६ २८ न्तानि संस्करणीयानि, इह वर्णके बृहत्तरो वाचनाक्वचि 'द्विण्णय'ति पाठः स च व्याख्यात एव, २५ ९| भेदः " ३० १८ वाचनान्तरे. "सनस्थाने काञ्चनं सर्पपस्थाने अयमेवार्थो वाचनान्तरे इस्थमधीतः ३० २१ सरिसगोत्ति पठ्यते" २८ २४ | वाचनान्तरे तु 'ओलोएमाणीओ २, आहिँडेमाणीओ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ. परि०१ वाचना । मेद नवाङ्गी ___ पृष्ठ. पंक्ति । १०० २, डोहलं विणिति' विनयन्त्यपनयन्तीत्यर्थः, नियविमलकणगपयरगवडेंसगपर्कपमाणचललोलश्रीज्ञाता- 'तं जति णं अहमवि मेहेसु अब्भुग्गएमु जाव डोहलं. ललियपरिलंबमाणनरमगरतुरगमुहसयविणिग्गधर्मकथाओं विणेज्जामि' विनयेयमित्यर्थः, संगतश्चायं पाठ इति ३१ ११ उग्गिन्नपवरमोत्तियविरायमाणमउडुक्कडाडोवदरिवाचनान्तरे तु 'जेणेव धारणीदेवी तेणेवेत्यतः सणिजे" पहारेत्थ गमणाए' इत्येतद् दृश्यते एकस्तावदेष गमः पाठः, अन्योऽपि-द्वितीयोगमो 'किण्ह किन्न' मिति वा पाठो । वाचनाविशेषः पुस्तकान्तरेषु दृश्यते क्वचित्करिष्यामीति पाठः ३७ २० अयं च द्वितीयो गमो जीवामिगमसूत्रवृत्त्यनुसारेण पाठान्तरे उत्पत्ति वा तस्यैवेत्यर्थः ३७ २२ लिखितः क्वचिन्नाधीयत इति; पाठन्तरेण हृदेषु च कक्षेषु च गहनेषु च, वाचनान्तरे 'पूर्वभवजनितस्नेहप्रीतिबहुमानजनित अंकिला इत्येके शोभस्तत्र राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये II वाचनान्तरे 'धरणीतलगमनसंजनितमनःप्रचार, इति ३८ २० | वाचनान्तरे 'दसदिवसियं ठियवडिय'न्ति । वाचनान्तरे-पुनरेवं विशेषणत्रयं दृश्यते । “वाधु वाचनान्तरे शतिकांश्चेत्यादि पाठान्तरसंग्रह। SEARC%AC-%AE% CONTRIES Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐ5% Check पृष्ठ० पछि पाठान्तरे तु प्रथमदिवसे स्थितिपतितां ४४ २६ | पुरुषारूढः पुरुष इत्यन्ये, स्वस्तिकपञ्चकमित्यन्ये, 'निवते सुइजायकम्मकरणे 'त्ति, वा पाठान्तरं ४४ २७ प्रासादविशेष इत्यन्ये, पाठान्तरे तु ' उवणचिजमाणे २, उवगाइजमाणे २, अन्ये तु 'भायल' ति मन्यन्ते, उबलालिजमाणे २, अवगूहिज्जमाणे ' २, ४५ २० क्वचिद्वरा इति पाठः, अन्ये वाहुः-नंद-वृत्तं लोहासनं १७ कचित् रहसंगेल्लीति पाठः, वाचनान्तरे रथानन्तरमश्वा हस्तिनश्वाभिधीयन्ते, तत्र पाठान्तरेण बलिका-दृढा बद्धा कक्षा येन स तथा ६४ ते वाहनभूताः-ज्ञेयाः। पाठान्तरे अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारं मूल्यगुरुकं ६६ कचिद्वियोसरणयेति पाठः, पाठान्तरे 'पच्छाउरस्स 'ति क्वचिदेगत्तभावेण ति पाठः, वाचनान्तरे विशेषणद्वयमिदं० वाचनान्तरे तु जीविउस्सइएत्ति | पर्वतदेशेष्वित्यन्ये वाचनान्तरे-मेघकुमारभार्यावर्णक एवमुपलभ्यते, ५५ ५ | कचित् ' किमवत्ति' पाठः पाठान्तरेण-एकान्ता एकविभागाश्रया धारा यस्य तत्तथा ५६ ६ | वाचनान्तरे-खरपरुषरिष्ठव्याहृतानि० अन्ये त्वाहुः अष्टसंख्यानि अष्टमङ्गलसंज्ञानि वस्तूनीति, ६२ ५ | 'कचितितुले 'त्ति० ES CASSES Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० भज्ञाता धर्मकथाज्ञे ॥ ७ ॥ कचित् 'दम्भिताणकारण 'सि पाठान्तरे तु ममरेनी-वजयांची कचित् 'उबकुसुम 'ति पाठः, पृष्ठ० पहि ७४ २० 08 २७ ७५ ७५ ७५ ७५ ७५ ७५ ७६ ८ पठान्तरे- परिवीषितानि तरुवरशिखराणि ० पाठान्तरे-उक्तविशेषमेन प्रतिभारुतेनादिग्धं पाठान्तरे शब्दो यः स तथा पाठान्तरेण ' आयचा लोच 'सि, पाठान्तर सत्राभोगो - विस्तरः, वाचनान्तरे तु सित एवासाचिति, पाठान्तरे - निरुपहतशरीरमाप्तश्वासौ लब्धपचेन्द्रियच्छेति समासः, पामन्तरे - स्मारितपूर्वभवः, चिटिकाकच्छक इति तु जीवाभिगमचूर्णिकारः, ८४ कचित्-हरितः शुकपिच्छवत्, हरितालाभ इति वृद्धाः वाचाक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः १ बापासरे त्विदमधिकं पठ्यते पत्तिए पुष्फिए फलिए हरिगरेरियमाणे हरितकश्वासौ रेरिज्जमाणे चि ५ ७७ ९ ७७ १५ ९३ १३ १६ २० | १४० पनि ० ८४ १८ ८४ ४ भृशं राजमानश्व यः स तथा ८४ २१ कचित् ' कूषिरहिप ति पाठः, ८४ २३ पाठान्तरेण - ' खचएहिं 'ति-स्वातैरित्यर्थः, ८४ २४ ठान्तरे - जिससे सि नृम् - नरान् शंसति- हिनस्तीति नृशंसः मिः शंसो वा विगतश्लाघः, अथवा वर्मितशब्दः ८६ ११ कपिलधीयत एव ९१ ८ वाचनाम्सरे- त्विदं नाभीयत एव, ९३ ९ १२ ९३ ९३ २० पाठान्तरेण ' भरेह 'ति पूरयति पाठान्तरेण भोजनपिटके करोति अशनादीनि १- परि० पाठान्तर वाचना मेद संग्रहः । 119 11 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐऊ पृष्ठ. पकि०] पृष्ठ पति कचित् सो एति रखते ९७ १८ / कचिदेवं पाठः 'संछनपत्तपुप्फपलासे' १०४ २५ पाठान्तरे- संहिच ति संहत्य सहसंभूब ९९ १० | कचित्सामुदाथिकीमिति पाठः, वाचनान्तरे-त्विदमधिक सुंदरथणजघणवयणचरण मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमना इत्यर्थः इतिवृद्धव्याख्या; नयणलावण्णरूवजोवणविलासकलिया' केचित्त्वाहुः उच्छ्रितः-अर्गलास्थानादपनीय ऊवीकृतो न तिरश्चीनः कपाटपबाभागाइफ्नीत इत्यर्थः ११६ ९ पाठान्तरेण-गहुकरणजुचएहिं 'ति ' अबगुपदुवारे '......अस्थगितगृहद्वार इत्यर्थः इत्येकीयं वाचनान्तरे जंबूणयबयकलावजुत्तपइविसिट्ठएहिं ' ९९ । व्याल्यानं, वृद्धानां-तु भावनावाक्यमेवं यदुत० ११६ १२ वाचनान्तरेऽधिकमिदं 'सुजासत्रुगत ९९ २७ वाचनान्तरे तु यावत्करणादेवमिदमगन्तव्यं, ११६ २२ कचित्कदलीगृहादिपदानि यावच्छब्देन सूच्यन्त इति,१०२ ३ | कचित्काञ्चमिका करोटिका वाऽधीयेते ते च १९७ २ वाचनान्तरे विचित्राः पिच्छेष्वसक्ताः १०२ १४ | 'वेयणा पाउन्भूया' इत्यस्य स्थाने रोगायंकेत्ति कचित् कचिदिवमधिकं दृश्यते अच्छमिलसालिलपलिच्छन्ने'१०४ २३ । कचित्त संछने त्यादिसूचनादिदं दृश्यं 'संछन्नपउम पाठान्तरेण- सइया व ' ति सञ्जातत्वच इत्यर्थः; १२५ पत्तभिसमुणाले' १०४ २३ गमनिकैवेयं पाठान्तरेण शल्यकिताः AGARASHARMA १२६ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी०१० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे -परि० पाठान्तरवाचना. मेद संग्रहः। %AMACROSECAUSESSOC पृष्ठ० पङ्कि० पृष्ठ० पति प्रन्थान्तरे-नलिनावतीत्युच्यते १२९ २२ | प्रत्यंतरे च कर्मधारयेण १४५ पाठान्तरे तु ' एसो' ति एष महाबलो० १३० १४ | अन्ये त्वाहुः आमूषितानि-संकुटितानि १४५ ३ वाचनान्तरे तु गिम्हाणं पढमे इत्यादि दृश्यते, १३२ ९| संलग्नौ सम्बद्धावित्येके १४५ १० पाठान्तरेण-धवलदन्तश्रेणिका १३६ ३ | पाठान्तरेण-भृकुटितं-कृतभृकुटिललाटं यस्य स तथा तं १४५ वाचनान्तरेण-वरकमलकोमलाजीत्यनवद्यमेव, १३६ ७ पाठान्तरेण-अप्रस्थितः सन् यः प्रस्थित इव मुमूर्षुपाठान्तरेण 'पउमुप्पलुप्पलगंधनीसास' ति १३६ ८ रित्यर्थः, । १४६ ३ पाठान्तरेण 'भुग्गभग्गे'-अतीववक्रे १४४ ३ | अन्ये त्वेवं विलासमाहुः "स्थानासनगमनानां हस्तĀनेत्रवाचनान्तरे 'विगयभुग्गभुमय.' १४४ ७ कर्मणां चैव। उत्पद्यते विशेषो यः लिष्टोऽसौ गमान्तरं-'आगासदेवयाओ नचंति,' १४४ १४ विलासः स्यात् ॥" १५० २४ अत एव वाचनान्तरे नेदमुपलभ्यते, १४४ १५ | इह च किमंग पुण 'ति यत्कचिद् दृश्यते, ततः । इमस्स 'अवच्छियं' ति प्रसारितमित्येके, अन्ये तु यकारस्या-' । पुण' ति पठनीयं वाचनान्तरे तथादर्शनात् । १५६ १२ लुप्तत्वात् , 'अवयच्छियं' प्रसारितमुखत्वेन दृश्य- | कचित् प्रेषितेभ्य इत्यर्थः, १५९ २१ मानमित्याहुः, १४४ २५ | कचित् 'कायकोडियाणं 'ति १५९ २२ CACASSOCAL ॥८॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 564 १६२ %िA4%A4%ASHISHASE पृष्ठ० पकि० पृष्ठ० पडि० 'एवमेगं हत्थामासं 'ति वाचनान्तरे दृश्यते, १५९ २४ | 'दुमासपरियाए ' इति कचित्, कचिच 'चउमास'सुरासुरियं 'ति वाचनान्तरे दृश्यते, १६० ४ परियाए', परिशिष्ट-२. श्रीज्ञाताधर्मकथावृत्तौ आगताः आर्षप्रयोग-निपातन-व्याकरणपाठाः । ते इत्यत्र च य एकारः प्राकृतशैलीप्रभवो. १ १६ | ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, अधिकरणे चेयं सप्तमी, १ १७ | राजदन्तादिदर्शनात् सा अथवा-तृतीयवेयं । बहवो येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, राजदन्तादिदर्शनादाकीर्णजनमनुष्येत्युक्तं; इह च प्राकृतत्वेन ' उल्लोयचित्तियतले'. . संतोषवतीति कर्मधारयो० २ १७ | इह चार्षत्वादेकरेफलोपेन 'पुरत्तावरत्ते 'त्युक्तं, शुभा च वेति कर्मधारयः, २ १८ | ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, उप-अप-इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादि ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, दर्शनादकारलोपे उपपेतेति भवतीति, २ २७ | छान्दसत्वात्। C HARLESION Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी पृष्ठ० पति ४६ २४ | ९१ २५ भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥९॥ एवं सर्वत्र सप्तमी योग्या, तानि तथा ततः कर्मधारयः, ततः पदवयस्य कर्मधारयः, वरपादप्राप्तसूपुरादीनां कर्मधारयः, 'मणु 'ति मकारस्य प्राकृतशैलीप्रभवत्वात्। २-परि० आर्षप्रयोगादिसंग्रहः। १३८ १५६ BA%ARE पृष्ठ. पशि० ३८ १८ | आर्यत्वाचैवंविधः समास इति, २९ २८ | वरचिहपट्टो यैस्ते तथा ततः कर्मधारयः, ३० ७ | करणे तृतीया वेय. . ३० ११ | इह आई शब्दो भाषायां, ३८ २३ | ततः पदचतुष्कस्य कर्मधारयः, परिशिष्ट-३. साक्षिपाठाः। १ १६ | कणगावलिरयणावलि. ८ १३ | सिरिहिरिधिइ० हत्थी आणा जुग्गा० १८ २२ | किंकरकमुहमयहर० ७ . पावीढ भिसिय० SARAGRICALCASSA%3A 'करेमि भंते !' इत्यादिषु यदाह-" पिंडविसोही समिई भावण" "वयसमणधम्मसंममधेयायचं." वका हर्षमयादिभिरा. अट्ठ हिरण्णसुवन्नय. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हंसे १ कुंचे २ मण्डे ० तेल्ले कोट्ठसमुष्णा • खुजा बिछाइ० लासिय लउसिय० छत्तधरी चेडीओ० अमहियाओ ० उच्छाविया उ तह० वलकारिय० अवणे पंच ककुहाणि ० arat मुखविकारः ० अनुलापो मुहुर्भाषा • माणा द्वित्रिचतुः प्रकाः ० पडवज्जइ एयाओ ० पृष्ठ० परि० ४७ ११ ४७ ११ ४७ १२ ४७ १३ ४७ १४ ४७ १५ ४७ ४७ १७ ५० ६१ २१ २२ ६१ ६७ ७८ २ गच्छेचिय निम्माओ० वोसच सदेहो ० १५ महुरेहिं निउणेहिं० सो होइ साइजोगो ० १५ सिवसाहणेसु आहारविरहिओ ० जिणवर भासिय० मिस्संदेह गुण० कत्थद महदुष्ण हेऊदाहरणासंभवे ० २४ दुट्ठस्सहस्थिमाइ ० पण्णरसवीसचउवीस चेव० तीस तेत्तीसावि य० पनरसदसट्ट छप्पं च० पृष्ठ० पंडि० ७८ २५ ७८ २६ ७८ ७९ ७९ ७९ ८३ ८६ * * * * * * * * * * * * * * ९६ १०२ २७ ८ ९ १० १७ २० २१ १०९ २० २० ९०२ २१ १०२ २२ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि०३-परि० साक्षि १२७ नवाङ्गी१०० भीज्ञाताधर्मकथाले 4 १२७ १२७ पाठाः। ॥१०॥ %AC अणुवकयपराणुम्गहपरायणा० विसएसु इंदिआई० अबरे उ अणस्थपरंपरा उ० सिदिलियसंजमकज्जावि० जह मिउलेवालित्तं० तं चेव तन्विमुक्कं० दो असईओ पसई० जह सेट्ठी तह गुरुणो. जह सा उज्झियनामा० तह भब्वो जो कोई० सो इह चेव भवंमी. " धम्माओ भट्टे" वुत्तं " इहेवऽहम्मो" वुत्तं जह वा सा भोगवती तह जो महत्वयाइं० FACERCISC पृष्ठ पति १०२ २३ | सो एत्थ जहिच्छाए. १०५ ६ जह वा रक्खियवहुया. तह जो जीवो सम्म० १२. ८ सो अप्पहिएक्करई १२१ १७ जह रोहिणी उ सुहा० १२१ तह जो भव्वो पाविय० १२६ सो इह संघपहाणो. १२६ २१ तित्थस्स बुट्टिकारी १२६ २२ | पउमाभवासुपुजा रत्ता० १२६ २३ हावो मुखविकारःस्याद् १२६ २४ स्थानासनगमनानां १२६ २५ | इष्टानामर्थानां० १२६ २६ उग्गतवसंजमवओ० १२७ १ जह मल्लिस्स महाबलभवंमि. १२७ १२७ १२७ १२७ १२७ १३६ १५० १५० १५० १६२ "REGMPsem % C5% १६२ ॥१०॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिपत्रकम् । पृष्ठ. पकि. मशुद्धम् १६ | तोकतानि ४५] स्तम्म० शुखम् भशुखम् एकारः प्राक० पुरातनं भूत्ततत्० ०इगुलयः CHASOKHUSHMA एकारः स प्राकृ० पुरातनं भूततत् गुलयः तोक्कानि स्तम्भ० कैश्चित् तद्भूते कश्चित् तदूभूते हट्ठा ०वाहण वाहणे सेणिए सेणीए वृन्दककल्पे दुखगमं कुणिकनाम प्रधान तत्र ०त्सुक्यभाव० छति वृन्दकल्पे दुरवगमं कुणिकनामा प्रधानस्तत्र त्सुक्याभाव. ०णामे. ०छत्ति प्रकाश्ये ये न वगएम २५ । करबुडुय० प्राकाश्ये येन ०वग्गएम ०खुड्डय० •णामे ऊर्दू Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०१० श्रीज्ञाता पत्रकम्। मशुद्धत •पात्यः बनाया शियाइ दर्शन शुद्धम् धारयः व्यापमाषा शिवायह यदर्शन यचं ३. ३९ ३. धर्मकथा ॥११॥ उKॐ ११ नमी० १५ दकि० ९ मज्झ० भावस० ११ वाजलं १९ काहिक. २३ वेत्थेबं चिट्टि वट्टी वधि मम्झं० भामय साबलं कारिक चेत्येवं ४६ ५२ कदम्ती वाजता कदन्ती कर्षिता कोर्डबिक० गुलसिलए कोडंबिव० गुणसेलए भट्टितं धर्मामा० धर्ममा० ५९६ संस्कारकाः वाचनायै संस्तारकाः शय्या संस्तारकाः वाचनायै ५९ ९८ सुम ६७ भत्ति तुम २ ॥११॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Firsttri अशुद्धम् चिक उ० सस्व: सम्यगू रमणी णण बिप्रकीण ० पवई० शुद्धम् पुर्वा० वाल्यया उद्धव ० चिकट्टु उर्द्ध० स्पर्थः ० सत्य ० सम्यग् मुवि रयणीए णूण विप्रकीर्ण ० पाह० शृट. ७० ७५ ७५ ७६ ७६ ७७ ७८ ७८ ७९ ७९ ८० ८२ ८३ पङ्कि ३ ९ १२ ३ ७ अनुदम् बच्छाइए ग् पॅण ० कुटुंबे जाव ० कारक० ०कारक० ० सट्टमु० तम्हा २३ २८ २८ १७ २१ ि १५० सुति २६ ० वेसेति ६ रूचा शुजन् ०बच्छछाइए स्निग्धो ८४ ण ० ८४ कुटुंबे सुय मंतेसुय जाब ८५ ० दारक० ८६ ०दारक० ८६ ० सट्टमु० जम्हा ति ● सुपेति • वेसेति लता पृष्ठ. ८४ T ८८ ८९ ८९ ९३ ९.३ ९३ ३ १९ २० २५ २५ २३ १४ २७ १० १२ २२ 3545 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धम्। पृष्ठ पृष्ठ अशुद्धम् ४२. शुद्धि १०२ नवाङ्गी१०० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे पतिः। अशुद्धम् ३ | यन्तस्तक ३ ०तवितथं ११ | बहु प्रापि० - .०० MME नाभिमा० 'संगारं'त्ति ॥१२॥ शुद्धम् यत्ततस्त० तमक्ति बहुउ प्राप्ति मुठ्ठियं. पडिबंधे ०स्वभावे ०माणे १० मुट्ठियं - १०० SAALKAROGRAHASE ४८ ४९ नामिमा० 'संगारंति ॥१० ॥ मऊर० त्यर्थः प्रवेशनेन दुब्बलेण •णेणं ना. दएणं च ॥ BHASHANKARACHAR १०१ मउर०. त्यर्थः ११७ १०२ २ १२० प्रवेशेन पडिबधं १८ ०खभावे ०माणं दभः वहूर्ण २२ एतमद्वं २२ दुःस्व० २२ | सुखो १०२ १०२ बहूर्ण दुबल्लेण णेणं च ना. दएणं । १२१ १२२ १२४ २ एतमढे १२६ PI इह १०२ सुखी १२७ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D . पृष्ठ.. । १४४ १४८ अशुद्धम् मंइ. उकिट्ठा णिस्सम जाब विदेह. युष. शुखम् मेह. उक्किट्ठा णिसम्म जाव विदेह. १३३ १३८ पति. अशुखम् १० | अबि. कुंडल. प्पिणत्ति , परूखे | प्रहणं शुखम् अव. कुंडल. प्पिणति १५७ पक्खे १४२ ग्रहणं १६० . RECESSARKAR न्युप० SEARCHASKAR - - Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P नवाडी-1 परिशिष्ट-४। वर्णक यावत् श्रीवाताधर्मकथाओं अन्दातिदिष्टपाठा। ARACCORRECIRC वर्णक(वण्णओ )यावत् ( जाव)शब्दातिदिष्टपाठाः । परिशिष्ट-४। ज्ञा. पृ.प. शा.पृ.प. ज्ञा.पृ.प. १-१५ चंपानाम नयरी होत्था; वण्णओ १२-११ रायगिहे नामं नयरे होत्था, वण्णओ उव. सू. १, पृ.१ थी ३ उव. सू. १, पृ. १ थी ३ ३-२७ पुण्णभद्दे नामं चेहए होत्था; वण्णओ १२-११ चेतिए, वन्नओ उव. सू. २ थी ५, पृ. ४ थी ३ | उव. सू. २ थी ५, पृ. ४ थी १० १२-१२ महाहिमवंत० वन्नओ उव. सू. ६, पृ. ११ ५.४- १ कोणिको नामं राया होत्था; वण्णो १२-१३ सुकुमालपाणिपाया वण्णओ उव. सू. ७, पृ. १२ उब. सू. ६ पृ. ११ १२-१५ अहीण जाव सुरूवे १२-२६ १०- ३-६ भगवता महवीरेणं जाव संपत्तेणं १४- ७ धारिणी नाम देवी होत्था जाव उव. सू. १२, पृ. १५ | सेणियस्स रखो इट्ठा जाव विहरइ १५- ९ १२- ९ जति णं भंते जाव संपत्तेणं उव. सू. १२, पृ. १५, १५- ५ सालिंगणवहिए जाव नियगवयण. १४-३ १२-९ उक्खित्तणाए जाव पुंडरीएत्ति. ज्ञा. पृ. १०, पं.७ १५-६,२२, १० उरालस्स जाव सुमिणस्स १४-२१ 5555 ॥१६ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञा. पृ. प. १९- १२ हट्ठ जाव हियये १९- १६ धारिणि देवीं ताहिं जाव हियय० १९- ८ सुकुमालपाणिपायं जाव दारयं १९-२४/२३-१०/१५ सुमिणे दिट्ठे जाव आरोग्ग ० १९-२६/२२/१५/२३/२२ हट्ठतुट्ठा जाव हिय्या १९ - २६ करतलपरिग्गहियं जाव अंजलिं २१- ३ / २२/११ समाणा हट्ठतुट्ठा जाव पञ्चप्पिर्णति २२-२४ उराउल्स जाव सस्सियस्स २२- १६ कम्मा जाव पायच्छित्ता २३ - १२ पडिपुन्नाणं जाव दारयं २३ - १६ हट्ट जाव हियये २३ - २१ सुमिणा जाव एगं ज्ञा. पृ. प. १४-२२ १४-२५ १५-९ १९-१६ १४-२२ १५- ४ २०-२७ १४ - ११ २६-२६ १९-१९ १४-२२ २३- १ ज्ञा. पृ. प. २८ - १० ओवलितं जाव सुगंधवरगंघियं २८ - १२ मेसु अन्भुवगएसु जाव दोहलं ३१ - १८ ओह मणसंकप्पा जाव झियायइ ज्ञा. पृ. प. २१- १ ३१ - १४ कल्पसू० सूत्र ९२ ! ३१ - १९ ओलुग्गं जाव झियायमार्णि ० ३१ - २० / २४ ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि, ३१-१४ १५- ४ ३१-१४ ३२- १ करतलपरिग्गहियं जाव कट्टु जपणं ० ३२- २ / ६ ओलुग्गसरीरा जाव अट्टझाणोवगया ० ३१-१४ ३२- ५ ओलुग्गसरीरं जाव अट्टझाणोवमयं • ३२- ७ नो आढाइ जाव तुसिणीया ० ३१-२४ ३१-१४ ३२ - ८ ओलुग्गा जाव झियायसि ? १४-२१ २७-११ २७-१३ ३२ - १३ उरालस्स जाव महासुमिणस्स ० ३२- १६ अम्मयाओ जाव वैभारगिरिपायमूलं • Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ०पू० ज्ञा.पृ.प. १४-२५ १४-२२ श्रीज्ञाताधर्मकथाओं परिशिष्ट-४॥ वर्णकयावत् शब्दातिदिष्टपाठाः। ॥१४॥ ज्ञा.पृ.प. शा.पृ.प. ज्ञा.पृ.प. ३२-१६ अहमवि जाव डोहलं. ३१-१४ | ३३-२२ इटाहिं कंताहिं जाव समासासेइ, ३२-१७/१८ ओलागा जाव अदृज्झाणोवगया. ३३-२३ हद्वतुढे जाव अभयकुमारं. ३२-२० ओलुग्गा जाव झियाहि, ३१-१४ ३३-२६/३४-८ अब्भस्थिए जाव समु३२-२५ ओहयमणसंकप्पे जाव झियायति, कल्पसू.सू. ९२ प्पजित्था, ३२-२६ कयबलिकम्मे जाव सबालंकार ३४- १ महिड्डीए जाव महासोक्खे, विभूसिए, ३४-७ बंभयारी जाव पुत्वसंगतियं. ३३-१ ओहयमणसंकप्पं जाव पासइ, क. सू. ९२ ३५- ६ करयल० अंजलि. ३३-१७ अम्मयाओ तहेव निरवसेसं भाणियवं ३५-८ अम्मयाओ तहेव पुवगमेणं जाव जाव विणिति, २७,२१ विणिज्जामि, ३३-१८ ओहयमणसंकप्पे जाव झियायामि, क. सू. ९२ ३५- ९ हट्टतुट्ठ० अभयकुमार० ३३-१९ ओहय० जाब झियामि, क. सू. ९२ ३५-२३ हट्टतुट्ठ० कोडुंबियपुरिसे० ३३-२० हट्ट जाव हियए, १४-२२| ३५-२४ आसित्तसित जाव सुगंधवरगंधियं० ३३-२० ओहयमण० जाब झियायह, क. सू. ९२ | ३५-२५ कोडुंबियपुरिसा जाव पञ्चप्पिणंति, क.सू. १५० ३८-३ ३४- १ क.सू. SAGAAUCERAPRA २७-११ १४-२२ १४-२२ २८-१० ३५-२३ IP॥१४॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CH ज्ञा. पृ. प. ३५-२७ तहेव जाव पचप्पिणंति, ३६ - १ सगज्जिया जाव पाउससिरी, ३६ - ४ वरपायपत्तणेउर जाव आगास० ३६ - ६ कयबलिकम्मे जाव सस्सिरीए ! ३६ - ९ सबजुइए जाब दुंदभि० ३६ - १९ हयगय जाव रहेणं (1) ४० - १२ सुकुमालपाणिपादं जाव सवंगसुंदरगं, ४० - १३/१५ नवहं मासाणं जाव दारगं, ४० - २० रायगिहं नगरं आसिय जाव परिगयं, ४०-२१ पञ्चप्पिणह जाव आमन्त्रेति, ४० - २५ तहेव पञ्चप्पिणंति, ४१ - ३ दंडणायण जाव आमन्तेति, ४१ - ४ कयकोउय जाव सबालंकार ० क. सू., १०२ ज्ञा. पू. प. ३५-२५ ३५-१३ २८- १ 19 १५-९ १९-१९ ४३-१८ ४०-२० ४०-२१ क. सू. ६२ ९५ " ज्ञा. पृ. प. ४१- ५ मित्तनातिगणणायग जाव सद्धि, ४१ - ९ बावचरिकलापंडितं जाव वियालचारी, ४१ - १६ इहामिय जाव भतिचितं, ४१ - १९ लाउलोइयमहियं जाव गंधवट्टिभूयं, ४३ - १ धणकणग जाव परिभाइउं, ४३ - १ दलयति जाव एगमेगं (1) ४३ - ५ चेतिए जाव विहरति, ज्ञा. पृ. प. क. सू. १०४ ४२- ७ क. सू. ४४ उव. सू. २९, पृ. ६१. ४२-२५ ४३ - ६ सिंघाडग० महया बहुजणसदेति जाव बहवे उग्गा भोगा जाव रायगिहस्स, ४३ - ८ मुयंगमत्थएहि जाव माणुस्सए (1) ४३ - ९ उग्गे भोगे जाव एगदिसामुहे ( ! ) ७ - २५ उव. सू. २७, पृ. २८. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ १५ ॥ P ज्ञा. पृ. प. ४३ - १२/१४ उग्गा भोगा जाव एगदिसि (1) ४३ - १४ इंदमहेति जाव गिरिजताओ, ४३ - १६ अहापडि० जाव विहरति, ५०- ८ व्हाते जाव सवालंकारविभूसिए, ५० - १९ धम्मका भाणियचा, जाव परिसा ज्ञा. पृ. प. ५३ - ५ एगे पुत्ते तं चैव जाव निरावयक्खे, ५३ - ५ / १२ समणस्स ३ जाव पवइस्ससि, ५३ - १४ सरिसियाओ जाव समणस्स ० ५३ - १८ अम्मयाओ ! जाव पचतित्तए, ५३-२४ अज्जगपज्जग० जाव तओपच्छा० ५३ - २५ सुवण्णे य जाब सावतेज्जे, ५३ - २६ अग्गिसामने जाव मच्चुसामने, ४३-१० ७ - २५ क. सू. ९५ पगिया, उव. सू. ३४/३५ पृ. ७७ थी ८२ ५२-२५ ५३- २ ५३-१० ५१-१८ ५३ - १९ ५३-२० ५३-२५ ज्ञा. पृ. प. ५३ - २७ अम्मयाओ ! के जाव गमणाए तं, ५३ - २७ इच्छामि णं जाव पद्यतित्तए, ५४ - १२ समणस्स ३ जाव पवइस्ससि, ५४ - १८ भगवओ जाव पवइत्तए० ५७ - २ कोडुंबियपुरिसा जाव तेवि तहेव, ५७ - ३ ०णायगेहि य जाव संपरिवुडे, ५७ - ७ सबबलेणं जाव दुंदुभिनिग्धोस० ५७- ७ करयल जाव कट्टु० ५७- ९ मित्तपक्खं जाव भरहो ० ५७ - १० गामागरनगर जाव सन्निवेसाणं, ५७ - ११ महया जाव विहरति, ५७ - २० हट्ठे जाव हयहियए, ५७ -२५ हट्ठ जाव हियए, ज्ञा. पृ. प. ५३- ८ ५१--१८ ५१-१९ ५१-१९ ५७-२-! क. सू. ६२ क. सू. १०२ १५- ४ ५९-२६ ५९-२७ उब. सू. ६ पृ. ११ १४-२२ १४-२२ परिशिष्ट-४। वर्णक यावत् शब्दाति दिष्टपाठाः । ॥ १५ ॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAGAESARSHAA%% ज्ञा.पृ.प. झा. पृ.प. ज्ञा.पृ.प. ज्ञा. पृ.प. ५८- ८ नासानीसासवायबोझं जाव हंसलक्खणं० २८- २ ६५-२२ आयार जाव धम्ममातिक्खइ, ६५-२१ ५८-१८ हट्टतुट्ठा जाब उवट्ठवेंति, ५८-१३ ६६- ६ अब्भत्थिए जाव समुपज्जित्था, क. सू. १५ ५८-२० कयवलिकम्मा जाब अप्प० ६६-७ मेहे, जाव समणयाए (1) ५८-२६ सिंगारागारचारुवेसाओ जाव ६६-११ समणा नो आढायंति; जाव नो संलवंति० ६६-८ कुसलाओ, ५८-२३ ६६-१२, ६७, १९ पुच्छणाए जाव महालियं० ६६- २ ५९- १ सिंगास जाव कुसला, ५८-२३ ६६-१३/१५. ८०-७/१२ रयणीए जाव ५९- ३ वरतरुणी जाव सुरुवा, ५८-२३ तेयसा जलंते, । २१-४ ५९- ६ सद्दावेह जाब सद्दावंति, १४-२२ ६६-१६ वंदइ नमसइ जाव पज्जुवासइ, ५९- ७ हट्ठा, बहाया जाव एगाभरण क. सू. ९५ ६७-२१ आढायंति जाव परियाणंति, ५९-१४ दप्पण जाव बहवे अत्यात्थिया ६७-२२ आढायंति जाव न परियाणंति, ६६जाव ताहिं इटाहिं जाव अण ६७-२३ वायणाए जाव पायरेणुगुंडियं० वरयं अभिणंदता य० ६२-७] ६७-२५ अट्टदुहट्टवसट्टमाणसे जाव रयणी. ६४-२३ कंते जाव जीवियाउसासए, ५२-२५ / ६८- ८/१३/२५ हत्थिहिय जाव परिवुडे. 643441C1 ९-२० orrur rur -5 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाणी-18 ज्ञा. पृ.प. परिशिष्ट HAR । | वर्णक । भीज्ञाताधर्मकथाले यावत्शन्दातिदिष्टपाठाः। ॥१६॥ SAARAKSHARIES ज्ञा. पृ.प. झा.पृ.प. शा.प्र.प. ६९-१० कक्खडा जाव दुरहियासा (1) ७१-८ पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए, ६९-११ उज्जलं जाव दुरहियासं० ७१-१० सीहाय जाव चिल्लला, ६९-२१ तहेव जाव पडिरूवे, ६७-२८ ७१-१० तं वणदवं निट्ठियं जाव विज्झायं, ६९-२३ दिसासु जाव मंडलवाएव, ६८-१६ ७१-१२ हत्थि जाव छुहाए. ६९-२४ तत्थे जाव संजायभए, ६८-२७ ७१-१६ उज्जला जाव दाहवतंतिए. ७०- २ मूले जाव तत्थ णं महया० ६७-२७ ७१-१७ तं उज्जलं जाव दुरहियासं० ७०- ३ सत्तुस्सेहे जाव सन्निजाइस्सरणे, ६७-२८ ७६-११ पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा० ७०- ४ अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था, क. सू. १५ ७६-१४ वायणाए जाव धम्माणुओगचिंताए, ७०-८ हत्थीहिं जाव कलभियाहि. ६८-१६ ७६-२१ मुंडावियं जाव सयमेव० ७०-१२ गिरीसु य जाब विहरसि, ७६-२५ पवावेद जाव जायामायावत्तियं. ७०-१५ तणं वा जाव सुहंसुहेणं, ७०- ९ ७७-१ तह चिट्ठति जाव संजमेण संजमति, ७०-२७ पायवसंघसमट्टिएणं जाव संघट्टिएम० ६८-१५ | ७७- २ अणगार वन्नओ भणियो, ' ७१- ४ बहिं सीहेहिं जाव चिल्ललएहिं, ७१-१ ७८-१८ अहासुत्तं जाव सम्म. ७१-९ ६८-४ ६९- ९ ६९-९ ७१-७ ६६-२ ६५-२० ६५-२० ६५-२३ ७७-१७ ७७-२६ KASAROSAGARCASHAIRS ॥१६॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञा. पृ. प. ७८ - १९ अहाकप्पं जाव किट्टेत्ता ० ७९ - २७ तित्थयरे जाव पुवाणुपुर्वि ० ७९-१७ ८०- ४ उब. सू. १०, पृ. १४ थी २१ ८०-३/१५ अज्झत्थिते जाव समुपज्जित्था, क. सू. १५ ८०- ३ उरालेणं तहेब जाव भासं ० ८०- ५ संवेगे जाव इमे, ८०-१६ ओरालेणं जाव जेणेव ० ८०-२० हट्ठ जाव हियए० ८०-३३ भगवंताणं जाव संपत्ताणं८०-२४ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स ० ८०- १ पच्चक्खामि जाव मिच्छादंसणसलं, ८१- ३ पियं जाव विविहा० ! ज्ञा. पृ. प. ७७-२७ ७९-१७ १४-२२ उव. सू. १२, पृ. २५ उब. सू. १०, पृ. १४ ८०-२६ ज्ञा. पृ. प. ८१-१२ / १९ पगइभहुए जाव विणीते, ८१-२१ तहारूवेहिं जाव विउलं० ८२ - ५ तित्थगरेणं जाव संपतेणं • इति प्रथममध्ययनम् । ज्ञा. पृ. प. ८३- ५ ८०-२२ उव. सू. २२, पृ. २५ ८३ - २७ रायगिहे णामं नयरे ८४ - २ गुणसिलए नामं चेतिए, ८४ - ५ किण्होभासे जाव रम्मे० ८४-२७ दिते जाव विउलभतपाणे० ८५- ३ चारुवेसा जाव पडिरूवा ८५- ६/७ जाव चक्खुभूते मंतेसु य० ८५-२५ छिद्देसु व जाव एवं ० ८७-१९ अज्झत्थिए जाव समुपज्जित्था, उब. सू. १ उव. सू. २, पृ. ४ ८४-१४ ८५-२६ ५८-२३ १२-१८ ८५-१८ क. सू. १५ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाडी- भीमाताधर्मकथाओं परिशिष्ट-४॥ वर्णकयावत्शब्दातिदिष्टपाठा। RECOACT460 ज्ञा.पृ.प. ज्ञा.पृ.प. ८७-२१ अम्मयाओ जाव सुलद्धे २७-११ ८७-२५ रयणीए जाव जलंते. २१-४ ८८-१ नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य, ८७-२८ ८८-४, ८९-३ कल्लं जाव जलते, २१-४ ८८- ६ वासाति जाव देंति, ८७-१९ ८८- ७ असणं ४ जाव अणुवड्डेमि, ८८- ३ ८८-१० हट्टतुट्ठ जाव हयहियया, १४-२२ ८८-१४ उप्पलाई जाव सहस्सपत्ताई (1) ८८-१५ नागधरए जाव वेसमणघरए, ८७-२८ ८८-१७ नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण, ८७-२८ ८८-१९ करेति २, जाव धूर्व डहति २ (1) ८८-२१ अहं जायं च जाव अणुवड्डेमि, ज्ञा.पृ.प. ज्ञा.पृ.प. ८८-२१ विपुलं असणं आसाएमाणी जाव, क. सू. १०४ ८८-२२ जिमिया जाव सुइया, क. सू. १०५ ८८-२२ नागाय जाव वेसमणाय आयमाणी जाब विहरति! ८७-२८ ८८-२६ अम्मयाओ जाव कयलक्खणाओ, २७-११ ८९- २ आसाएमाणीओ जाव पडिमुंजेमाणीओ, क. सू. १४ ८९-४ गम्भस्स जाव विणेति, ८८-२४ ८९- ५ समाणी जाव विहरितए, । ८७-२६ ८९- ६ हट्टतुट्ठा जाव विपुलं. १४-२२ ८९-६ जाव व्हाया जाव उल्लपडसाडगा. ८८-११ ८९- ७ नागघरते जाव धूवं डहति, ८८-१५ ८९-८ मित्तनाति जाव नगरमहिलाओ० ८७-२७ ८९-१० असणं ४ जाव परिमुंजमाणी० ८८-२७ %95% ८८- ३ I ॥१७॥ का Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % A%A0 ज्ञा.पृ.प. ज्ञा.पृ.प. ८९-११ संपुन्नडोहला जाव तं गमं० क. सू. ९५ ८९-१२ सुकुमालपाणिपादं जाव दारगं० उव.सू.७, पृ.१२ ८९-१३ तहेव जाव विपुलं असणं ४ उवक्खडावेंति, ४१- १ ८९-८५ नागपडिमाणय जाव वेसमणपडिमाण य० ८७-२८ ९०- ९ डिभियाहिय जाव कुमारियाहिय० ९०- ५ ९०-१० डिभिएहिय जाव कुमारियाहिय. ९०- ५ ९०-१२ तहेव जाव आभोएमाणे, ८५-१४ ९०-२५ दारयं व्हायं जाव मम हत्थंसि. ९०-६ ९०-२५ गिहामि जाव मग्गणगवेसणं. ९०-८ ९१- ५ इढे जाव उंबरपुप्फपिव (1) ९१- ६ पंथगस्स हत्थे दलाति जाव पायवडिए. ९०- ७ ज्ञा.पृ.प. ज्ञा.पू.प. ९१-८ उप्पीलियसरासणवट्टिया जाव गहियाउहपयहरणा० ९१-२४ ९१-१० अतिगमणाणि य जाव पवासु य० ८५-१४ ९२- ६ तक्करे जाव गिद्धे विव आमिसभक्खी० ८५ ७ ९२-९ तिसंझं कसप्पहारे जाव निवाएमाणा० ९२-४ ९२-१० रोयमाणे जाव विलवमाणे ९०११ कल्लं जाव जलंते विपुलं० । २१-४ ९३- ३ कसप्पहारेहिय जाव लयापहारेहिय (1) ९३-१६/९४, २१ पुत्तघायगस्स जाव पच्चामित्तस्स० ९२-२४ । ९४- ५ रुट्ठा जाव मिसिमिसेमाणा, ६९-७ ९४- ९ कयवलिकम्मे जाव रायगिहं० क.सू. ९५ ९४-२५ हट्टं जाव आसणतो. १४-२२ A5A5A5%Aॐ ॐ %ACA4%AR कार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञा. पृ.प. परिशिष्ट | वर्णक नवाङ्गी१०० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥१८॥ ८४-५ यावत् शब्दातिमादिष्टपाठाः। ८५-२६ CAREASEX ज्ञा.पृ.प. बा. पृ.प. | ज्ञा. पृ.प. ९४-२५ ण्हाया जाव पायच्छिता. क. सू. ९५ | इति द्वितीयमध्ययनम् । ९४-२७ कसप्पहारेहिय जाव तण्हाए य. ९४-२८ कालोभासे जाव वेयणं० ९५-११ ९३- ८ मालुयाकच्छए वन्नओ, ९५-१९ जातिसंपन्ना २ जाव पुवाणुपुवि०७ -१८ ९८- ६ अड्डा जाव भत्तपाणा, ९५-२० चेतिए जाव अहापडिसवं० ७ -२५ ९९-८ संगयगयहसिय० ९५-२२ अज्झस्थिते जाव समुपज्जित्था, क. सू. १५ ९८-११ आहेवच्चं जाव विहरति, ९५-२६ पावयणे जाव पवतिए जाव बहूणि वासाणि, ५१- ५ | ९८-१२ कल्लं जाव जलंते विपुलं० ९६- २ सिज्झिहिति जाव सबदुक्खाणमंतं. ८२-४ ९८-१८ सुगंध जाव कलियं करेह, ९६- ३ धम्मोत्तिव वा जाव विजयस्स० ९४-२२ ९८-१८ चिट्ठह जाव चिट्ठति, ९६- ५ अम्हं निग्गंथे वा २, जाव पवतिए, ९५- २ ९८-२२ व्हाया जाव सरीरा० | ९६-१० अणवदग्गं दीहं जाव वीतियतिस्सति, ९५- १ | ९८-२८ पवर जाव सिरिसमाणवेसा० ९६-१० समणेणं जाव दोच्चस्स० उव. सू.१२, पृ. २६ | १००-१२ परियागये जाव पासिता (1) । १००-१८ पक्खिवह जाव तेवि पक्षिति ९९-१३ ५९-२७ २१-४ क. सू. १०० ९८-१५ क. सू. ९५ २८-१ *CRICASSOCIRCLERS . १००-१६ ।॥१८ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झ० पृ० प० १०० - २३ कलं जाव जलते ० १०१- २ ओहतमणं जाव झियायति, ज्ञा० पृ० प० २१- ४. क० सू० ९२ १०१ - ३ पंचमहवएसु जाव छज्जीवनिकाएस (1) ज्ञा० पृ० प० १०१ - ४ संकिते जाब कलुससमावन्ने, १००-२४ १०१ - ६ दंडणाणि य जाव अणुपरियट्टए (!) १०१ - ८. उबश्वेति जात्र नो टिट्टिया वेति १०१- ९ अणुवचिजमाणे जाव अटिट्टिया विज्जमाणे १०१ - १४ मयूरपोयगं जाव नहुलग० १०१-१७. उम्मुक्त जाब- करेमाण ०. १०१-१९ पीतिदाणं जाच' पडिविसज्जेइ, १०:१ - २२ सिंघाडग जाव पहेसु, १००-२६ १००-२६. १०१-११ १०१-१४ २३-२८ क० सू० १००. [झा० पृ० प० इति तृतीयाध्ययने । १०३ - ५ वाणारसी नाम-नयरी होत्या, क्न्नाओ, १०३- ८ पासादीए ४ . १०३-११ मालमाकच्छ होत्था वण्णभो, १०२-१८ आहारस्थी जाब आहारं (!) १०३ - २६ / १०४ - ५ उद्यर्चेति जाव नो चेव चाइन्ति १०४ - ६ चचारि वि पाया जान सणिम्यं. १०४-१०- दंडगाणं जाव अणुपरिमदृति (1) १०४ - १२ उद्यति 'जाच दंतेहिं अक्खुडेंति' जाव करेतए, १०४-१२ व नो संचारन्ति १०४ - १३ विवाहं वा जाव छविच्छेयं. उव० सू० १५० १०५-३० ज्ञा० ८४-५ १०३ - २३ १०४-२ १०३-२३ १०३-२३ १०३-२५ 3% Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी १० १० भीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ १९ ॥ ज्ञा० पृ० प० १०४ - १५ ताए उक्किट्ठाए १०४ - १८ गुतातिं भवंति जाव जहा उसे, ( 1 ) इति चतुर्थाध्ययने । १०६ - १६ ईसरतलवर जाव सत्थवाहपभिईणं, १०६ - १७ आहेवच्च जाव पालेमाणे, ज्ञा० पृ० प० १०५-१२ २१-२६ ५९-२७ ८५-२६ १०६ - २६ अड्डा जाव अपरिभूता, १०७-२७ सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे, उव०सू० ७५, पृ. १२ ज्ञा० ४१-२३ १०७- २ उवर्णेति जाव भोगसमत्थं ० १०७ - ३ दाओ जाव बत्तीसाए, १०७ - ३ सफरिसरसरूपवन्नगंधे जाव भुंजमाणे १०७- ४ अरहा अरिट्ठनेमी, सो चेव वण्णओ, उव० सू० १०, पृ० १०७- ६ चरभाणे जाव जेणेव, ४३- ३ १५, पं० ४ ७- २४ ज्ञा० पृ० प० १०७-११ हट्ठ जाव मत्थए अंजलि ० १०७-१२ तहत्ति जाव पडिसुर्णेति, १०७-१८ दसदसारा जाव गणिया सहस्साई १०७ - २२ दसदसारे जाव अंतियं ० १०७-२३ हठ्ठतुट्ठ जाव कोडुं बियपुरिसे ० १०८-१३ मिस जाव संपरिवुडा. १०८ - १६ इट्ठे जाव से णं० १०८ - १७ अरिट्ठनेमिस्स जाव पचतित्तए, १०९ - ४ ० चच्चर जाव हस्थिखंधवरगया (1) १०९ - ९ घोसेह जाव घोसंति, १०९ - १३ जाव अरहतो अरिट्ठनेमिस्स • १०९-१४ विज्जाहरचारणे जाव पासिता, १०९ - १९ लोयं करेति जाब पचतिए, ज्ञा० पृ० प० १४-२२ १०७-१० १०६-१२ १०६ - १२ १४-२२ क० सू० १०४ ज्ञा० ६४-२२ ५१-१९ २८- ९ १०९- ५ ५८- ६ ५०-११ ६५-१४ परिशिष्ट४- वर्णक यावत् शब्दातिदिष्टपाठाः । ।। १९ ।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञा० पृ०प० ८०-२६ ८०-२६ ११२-१७ १११-१२ ज्ञा०पृ०१० ज्ञा०पू०प० | ज्ञा०पृ०प० १०९-२० भासासमिए जाव विहरति । ११०- ७ | ११२-१५ तुब्भपि पाणातिवाएणं जाव १०९-२१ बहुहिं जाव चउत्थेणं. मिच्छादसणसल्लेणं, १११-११ भोगा जाव चइता. उव० सू०१४, पं. १६ | ११२-२० पाणाइवायावेरमणेणं जाव १११-११ हिरन्नं जाव पञ्चइता. उव० स० १४, पं. १६ मिच्छादसणवेरमणेणं, १११-१२ पंचाणुवइयं जाव समणोवासए, ज्ञा० ११५-२४ ११२-२१ वत्थस्स जाव सुद्धणं वारिणा. १११-१२ जीवाजीवे जाव अप्पाणं. ११५-२६ | ११२-२३ जाणित्तए जाव समणोवासए, १११-१४ सोगंधिया नाम नयरी ११२-२३ अहिगयजीवाजीवे जाव समु. .. होत्था, वनओ, । उव० सू०१५, पं. १ प्पज्जित्था, १११-१५ अड्ढे जाव अपरिमते, ज्ञा०८५-२६ ११३- ३ अन्मुढेसि जाव वंदसि इयाणि.. १११-२२ हवमागते जाव विइरइ, १११-१६ ११३- ४ पासित्ता जाव णो वंदसि० ११२- १ पडिलामेमाणे जाव विहरति, ११६-१७ | ११३- ७ अणगारे जाव इहमागए (1) ११२-१२ सोयमूले धम्मे पन्नते जाव ११३-१० अट्ठाति जाव वागरति, सम्गं गच्छंति, १११-२४ | ११४-१३ अहासुहं जाव उत्तरपुरच्छिमे० ११५-२६ ११३-१ ११३-१ ११३- ९ ५१/९. ६५, ३ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०० भीज्ञाता का पृ०प० ५७-२ परिशिष्टP -वर्णकAMI यावत् शब्दातिदिष्टपाठाः। R ७८-१९ क. सू० १२४. ज्ञा० ६९-९ ७-२४ -ॐॐॐॐ ज्ञा०पू०प० झा०पू०प० ज्ञा०पू०प० ११४-२० तिडंडय जाव धाउरताओ य (1) १११-१८. ११५-१८ महत्थं जाव निक्स्चमणामिसेयं० ११४-२१ भवित जाव पवत्तिए, ६५-२७ / ११५-१९ तहेव जाब सामातियमातियार्तिक ११४-२५ पुढविसिलापट्टयं जाव पाओवगमणं (1) ११५-२० बहूर्हि चउत्थ जाच विहरति, ११४-२६ अणसणाए जाव केवलवरनाणदंसणं. ८१-८ | ११५-२३: पबए जाव सिद्धे, ११४-२७ पच्छासिद्धे जाव पहीणे, क० सू०.११४ ११८- १ उज्जका जाब दुरहियासा० ११५- ६ संसारभयउबिग्गे जाव पचयामि, ज्ञा० ६४-२७ | ११४- ३ चरमाणे जाव जेणेक० ११५-७/११ संसार जाव पवाह, ६४-२७७११८- १. अणगारं जाव वंदति (!) ११५- ९ कारणेसु य जाव तहा. १२-१६ | ११४- ५ भुकं जाच-सबाबाई. ११५- ९ संसारभयउबिम्गा जाव पञ्चयामो, ६४.२७ | ११८-११ फासु पीढ जब विहरति, ११५-१० बहुमजाव चक्खु भूते. १२-१६ १९८-१९ जाव तेगिच्छं आउट्टेह, ११५-१४ महल्थं जाव रायामिसेयं. ५७- २:११८-१४ अहापबत्तेहिं जाब मज्जपाणेण. ११५-१५ अमिसिंचति जाव राया विहरति, ५६- ७-११९-२० सहियाणं जाव पुखरतापरत११५-१६ आसित जाब गंधवट्टिभूतं. २१-१० । कालसमयसि (1) ७९-१८ ११६-१७ ११८- ६ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % ज्ञा०पू०.५० झा०पू०प० ज्ञा०पू०प० ११८-२१ अब्भत्थिए जाब समुपज्जित्था, क. सू० १५. ११९-१३ कल्लं जाव विहरति, २१-४ ११८-२१ रज जाव पचलिए, उव० सू० १४, पृ. २७ ११९-१३ समणाउसो जाव निग्गंथो वा (!) ११८-२२ नो संचाएति विहरित्तए, ज्ञा० ११८-१७ | ११९-१३ ओमन्ने जाव संथारए. ११८-१७ ११८-२४ अब्णुज्जएणं जाव विह रित्तए, ११८-१९ ११९-१६ पंथएणं बहिया जाव विहरति, ११८-१३ ११८-२५ पीढ० पञ्चप्पिणंति, ११८-१८ | ११९-१९ जो निस्पंथो वार, जाब विहरिस्सति, ११८-२६ बहिया जाव विहरंति, ११८-१९ इति पञ्चमाध्ययने । ११९- ३ आसुरते जाव मिसिमिसेमाणे. १२०-१८/१९ समणेणं जाव संपत्तेणं, उक०-सू०१२, पृ०२५. ११९-४ अप्पत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए. १२०-२० अदूरसामंते जाव सुकन्झाणो११९- ५ करयल० कट्ट, १५-४ बगए (!) उव० सू०.३८, पृ. ११९- ९ अयमेयारवे जाव समुप्पज्जित्था, क.सू०१५ | १२०-२६ सुकोमाणे जाव अट्ठहिं. ज्ञा० १२०-२३ ११९- ९ रजं जाव ओसन्नो. उव० सू० १४, पृ. २७ | १२१- २ पाणातिवाएणं जाव मिच्छा११९-१० ओसन्नो जाव उउबद्धपी. ज्ञा० ११८-१७ दसणसल्लेणं. ८०-२६ ११९-१२ अब्भुजएणं जाव जणवयविहारेणं. ११८-१९ | १२१- ६ मट्टियालेवे जीव उप्पतित्ता. BA%AE%ER-541 Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी १०० भीमाताधर्मकथाले परिशिष्ट४-वर्णक यावत् शब्दाति*दिष्टपाठा। ॥२१॥ ज्ञा०पू०प० ज्ञा०पू०प० ज्ञा०पू०प० . .. ज्ञा०पृ०प० १२१- १ तिन्नेसु जाव विमुक्कबंधणे. १२२-१५ असण ४ जाव सक्कारेति, १२२-१० १२१- ९ पाणातिवातवेरमणेणं जाव १२२-२६ हत्याओ जाब पडिदिज्जाएजासि, १२२-१६ मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं. ८०-२६ | १२३- १ मित्त जाव चउत्थि रोहिणीयं. १२२-१५ __इति षष्ठाध्ययने । | १२३- २ जाव तं भवियचं. १२२-२६ १२३-११ किण्होभासा जाव निउर१२१-२२/२४ समणेणं जाव संपत्तेणं, उव० सू० १२, पृ. १५ बभूया. ५-२ थी ६-१८ सुधी १२१-२६ पंचेंदिय० जाव सुरूवा, १२-२६/८५-२६ | १२३-१३ पत्तिए जाव सल्लइए. १२३-१२ १२२- ३ अब्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था, क. सू०१५ | १२३-१९ उक्खयणिहए जाव लुणेति, १२३-१२ १२२-४ ईसर जाव पभिईणं, ज्ञा०२१-२७.! | १२३-१९ जाब चलणतलमलिए. १२३-१३ १२२-८/१२३ कल्लं जाव जलंते, २१- ४ | १२३-२० कुडवा जाव एगदेसंसि. १२३-१६ १२२-१०, २५/२७ धुवपुप्फवस्थगंध १२३-२१ केदारे सुपरि जाव लुणेति, १२३-१९ जाव सकारेता, २३-१८ | १२३-२१ मलेति, जाव बहवे कुंभा जाया; १२३-१४ १२२-१३ कल्लं जाव मित्तणाति. २१- ४ | १२३-२२ पक्खिवंति जाब विहरंति, १२३-१६ RECORECASSAGAR ॥२१॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SACROCESSORICKS |ज्ञा०पू०प० ज्ञा०पृ०प०|ज्ञा०पू०प० ज्ञा०पृ०५० १२३-२६ परिजाइत्तए जाव जाणामि ताव १२५- ६ मित्त जाव बहवे कुंभसया. १२१-१/२१ काए किहं सारक्खिया, १२२-१२ | १२५-१० सिंघाडग जाव बहुजणो. उव० सू० २७ १२३-२७ सुण्हाणं, कुलघर जाव सम्माणिचा. १२२- ९ १२५-१४ कजेसु य जाव रहस्सेसु य. १२२-४ १२४-११ कुल० जाव विहरामि, | १२५-१५ आपुच्छणिजं जाव वट्टावितं. १२२- ५ १२४-१४ आसुरुते जाब मिसिमिसेमाणे. ६९-७ | १२५-१७ समणाउसो जाव पंच महावया, १२४-१७ निग्गंथो वा २ जाव पवतिते, ९५- २ | १२५-१७ समणाणं जाव वीतीवइस्सइ १२४-१८ समणाणं ४ जाव अणुपरि जहा रोहिणीया, यट्टइस्सइ, ' ९५- १ इति सप्तमाध्ययने । १२४-२१ समणाणं ४ जाव हील ४ (1) १२७-२३ नवजोयणविच्छिन्ना जाव पञ्चक्खं. १०६- ३ १२४-२६ पंचमंमि जाव भवियवं. १२४-१० | १२७-२८ उम्मुक्त जाव भोगसमत्थे (1) १२४-२७ वत्थे जाव तिसंझं. १२२-१८ | १२८- १ पंचसतो दातो जाव विहरति, ४२-२३ । १२५-१ समाणाउसो ! जाव पंच. ९५- २ | १२८- ३ ठावेति जाव एक्कारसंगवी. ११५ १/१९ १२५- २ समणाणं ४ अचणिजे जहा जाव सा. ९६-२ | १२८- ४ सीहं सु० जाव बलभद्दो. ज्ञा० सूत्र ९/१९ KACHAKRABAR Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नकाङ्गी१०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे परिशिष्ट४-वर्णक| यावत् |शब्दातिदिष्टपाठाः। ॥२२॥ ज्ञा० पृ०प० १२८- ६. सहजायया जाव संहिच्चाते. १२८- ८ ठावेमि जाव छप्पिय बालवयंसए. १२८- ९ अन्ने आहारे वा जाव पश्चयामो, १२८-१० सद्धिं जाव पश्वयह. १२८-११ दुरूढा जाव पाउन्भवंति, १२८-१३. जाव महया इहीए, १२८-१४ चउत्थ जाव भावेमाणे, १२८-१७/१२९-२६ चउत्थ जाब विहरति, १२८-२६ विहरंति जाब एगराइयं. १२९- ९ अहासुत्ता जाव आराहिया भवइ, १२९-१२ अहासुत्तं जाव आणाए. १२९-१४ जहा खुड्डाग नवरं, १२९-१७ अहासुतं जाव आराहेत्ता, ज्ञा०पू०प०] ज्ञा०पृ०५० ज्ञा० पृ०प० ९७/१२ | १२९-१९ भुक्खा जाव खंदओ, श्री भगवती सू. ७९-१८ ११५- १ | १२९-१९ दुरूहति जाब-दोमासियाए. ८०-२० ११५- ८ | १३१-१४ चोद्दस महासुमिणा, वनभो, क. सू० ३३ थी ४५ ६४-२७ | ६३२-१५ सुमिणपाढगपुच्छा जाव १२८-१० विहरति, क० सू० ६९ थी ९५ ६२ | १३१-२० जलथलय० जाव दसद्धवन्नमल्लं. ज्ञा० १३१-१६ ७७- ४ | १३१-२१ सिरिदामगंडं जाव मुयंसः १३१-१७ ७७-४. १३१-२२ जलथलम जाव मल्लेणं. १३१-१६ ७७/७८ | १३१-२२ पसस्थहोहला जाव-विहरइ, क० सू० ९५ ७७-२६ . १३१-२४. उच्चट्ठाण जाव पमुइयः क० सू० ९६ ७७-२६ | १३२-२१ जहा जम्बूद्दीवपन्नतीए जम्मणं १२९- १ सबं. जम्बू. प्र. वक्ष. २, सू. ११२ थी १२३. ७७-२६ । १३३ १५ थी १३५ २२ ॥8॥ २२॥ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PROCESRCCOREC ज्ञा०पृ०प० झा पृ०५० ज्ञा०पू०प० १३२-२२ जान नंदीसरवरे, १३७-१७ आसितसम्मज्जितोवलितं जाव जम्बू. प्र. वक्ष. २. सू. ३३. पञ्चप्पिणंति, २१-१/२८-१० १३२-२३ तित्थयर० जाव कम्मं जाव १३७-१८ लहुकरणजुत्तं जाव जुत्तामेव. ९८-१९ नामकरणं. क. सू०९९ थी १०७. | १३७-१९ व्हाया जाव धम्मियं. क० सू० ९५ १३२-२४ जहा महाबले नाम जाव परिवहिया, १२७-२६. | १३७-२१ जलमजणं जाव परमसहभूया, ज्ञा०८८-१३ ३२-२८ उम्मुक्कबालभावा जाव रुवेण. क. सू०७९ | १३७-२२ उप्पलातिं जाव गेण्हति (1) १३३- २ पडिबुद्धि जाव जियसत्तु. ज्ञा० १३१-७ | १३७-२७ सकोरंट जाव सेयवरचामराहिं. ६६-२२ १३३- ५ करेह २ जाव पञ्चप्पिणंति, १३३- ३ | १३८- २. गामागर जाव सन्निवेसाई. ५९-२७ १३३-८ मत्थयछिड्डाए जाव पडिमाए. १३३- ६ | १३८- २ रायईसर जाव गिहार्ति. २१-२७ १३३-९ कणगमतीए जाव मत्थयछिड्डाए, १३३- ६.! १३८-१० सुपट्ठियकुम्मुन्नयचारुचरणा वन्नओ, (1) १३३-१० अहिमडे ति जाव एतो. १३६-१७ १३८-१५ दुरूढे जाव हयगय (1) १३७-१५ (सेरिदामगंडं जाव गंधद्धणि, १३१-१७ | १३९- ३ अड्डा।जाब अपरिभूया, ८५-२६ १३७-१६ कोडुंबिया जाव चिटुंति, १३७-१०/१३९- ३ अहिगयजीवाजीवे वन्नओ, ११५-२६ A SS Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी भीज्ञाताधर्मकथा) ॥२३॥ परिशिष्ट४-वर्णकयावत् शब्दातिदिष्टपाठा। SRAHASCARCOALOCIRCLEAR ज्ञा०पृ०प० ज्ञा०पू०प० ज्ञा०पू०प० ज्ञा०पू०प० * १३९- ८ मुंजावेंति जाव आपुच्छंति २, (1) १४१-११ हं भो अरहन्नगा ! १३९-१० गणिमस्स जाव चउविहस्स. १४१-१३ सत्तट्ठतलाई जाव अरहनगं. १४१-४ क० सू० ८९, वि० टीका. १४१-१४ सीलबय तहेव जाव धम्म१३९-१४ अरहन्नग जाव वाणियगाणं ज्झाणोवगए, १४१-२/१० परियणो. ज्ञा० १३९-४ । १४१-१५ उवसंते जाव निश्चिन्ने, १०३-२७ १३९-२० उक्किट्ठिसीहनाय जाव रवेणं. ४९-१ | १४१-१७ सखिखिणियाइं जाव परिहिते. ३५- २ १३९-२१ एगदिसिं जाव वाणियगा (1) १३९-४ १४१-१८ देवाणुप्पिया ! जाव जीवियफले, २७-११ १४०-२४ अरहंताणं जाव संपत्ताणं, उव० सू० १२ १४१-२२ चालित्तए जाव विपरिणामेत्तए, १४१-८ १४१- १ अपत्थियपत्थिया जाव परिवज्जिया, ज्ञा०१४६- ३ १४१-२४ किं चालेति जाव परिचयति, १४१-८ १४१- ४ सीलवयं जाव ण परिचयसि, १४१- २ | १४१-२८ जसे जाव परकमे, १४६-२५ । १४१- ७ देवेण वा निग्गंथाओ (1) १४२-४ अरहन्नपामोक्खा जाव वाणियगा. १३९- २ १४१- ९ अभीए जाव अभिन्नमुहरागण १४२- ८ संजत्तगाणं जाव पडिच्छइ २, १३९- २ यणवन्ने (1) ६८-२७ | १४२-११ वत्थगंध जाव उस्सुकं. २३-१७ RAJIRAON ॥२३॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 डा० पृ० प० १४२ - १४ संकार्मेति २ जाव महत्थं. १४२ - १५ महत्थं जाव उवर्णेति, १४२-१७ गामागार जाव आहिंडह, १४२ - २० अहिणमतिरितं जाव कुंभगस्स. १४२ - २३ देवकन्ना वा जाव जारिसिया. १४२ - २४ सहावेति जाव जइविय. १४२-२५ हट्ठे जाव पहारेत्थ. १४७ - ६ सुकुमाल० रूवेण य १४७ - १० साहरेह, जाव सिरिदामगंडे. १४७ - १३ पट्ट र २ जाव पञ्चपिणंति, १४७-१९ लाव० जाव० बिम्हिए ( 1 ) १४७-२२ रुप्पि करयल ० ज्ञा० पृ० प० १४२- ५ १४२- ७ ५९-२७ १३९ थी १४२ - ८ १४७- २ १३८-१० १३८-१२ उव. सू. ७ ज्ञा० १४७-१२ १३७-९ १५- ४ ज्ञा० पृ० प० १४७ - २५ सेसं तहेव० १४८ - ४ आएहि य जाव परिणामेमाणा, १४८ १४८ ६ सद्दावेह २ जाव संधि, ७ सुवन्नगारभिसियाओ जाव नो संचाएमो. १४८ १५ महत्थं जाव पाहुडं. १४८ १६ करयल० जाव एवं. १४८ २१ सदावेति २ जाव निविसया. १४८ २४ गंध कन्नगा वा जाव जारिसिया. १४८ २५ सहावेत जाव तहेव, १४९ ३ राया होत्था जाव विहरति, ४ कुमारे जाव जुवराया (1) १४९ १४९ ६ अग जाव पच्चपिणह ज्ञा० पृ० प० १३८-११ ३२-२३ १४७ १ १४७ ३ १४२ ७ १५ ४ १४८ ६ थी ११ १४७ २ १३८ ११ उव० सू० ६ ज्ञा० १४९ ७ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ २४ ॥ ज्ञा० पृ० प० १४९ ७ चितेह २ जाव पञ्चप्पिण, १४९ १० हावभाव जाव चित्तेउ, १४९ १३ इमेयारूवे जाव सेयं. १४९ १४ सरिसगं जाव गुणोववेयं (1) १४९ १५ चित्तसमं जाव हावभावे, १४९ १६ तेणेव २. जाव एतमाणातियं. १४९ २१ अब्भथिए, जाव समुप्पज्जित्था, १४९ २७ अपत्थियपत्थिए जाव परिवज्जिए. १४९ २८ देवभूयाए जाक निर्वाचिए, १५० १/९. १५२२८. करयलपरिग्गहियं जाब बढाबे २, ३. दुपयस्स वा जाव णिवति, ८ महस्थं जाव पाहुडं गेण्डर २ १५० १५० ज्ञा० पृ० प० १४९ ७ १४९ ७ क० सू० १५ ज्ञा० १४९ ७ ७ १४९ क०सू० १५. ज्ञा० १४६ ४ २४९ २४ १५ ४ १४९ ११ १४७ ७ ज्ञा० पृ० प० १५० १२ बाहुच्छायापरिम्ाहिए जाव परिवसित्तए ( ! ) १५० १५ मम चित्तसमं तं चैव सवं भाणियां. जाव मम संडासगं छिंदा २, १५० २१ तहेव जाव पहारेत्थ गमणाए, १५१- ३ रिउब्वेद जाव परिणिट्ठिया, ज्ञा० पृ० प० १४९६ थी १५० ४ १३८ ११ १५१ - ४ राईसर जाव सत्थवाह पभितीणं, १५१- ६. कुंडियं च जाव घाउरचाओ, १५१ - ९ दाणधम्मं च जाव विहरति, १५१ - ११ मट्टियाए जाब अविग्घेणं, १५१ - १४ पाणाइवाएणं जाव मिच्छादंसणसल्लेणं, १५१ - २० दासचेडियाहिं जाव गरहिज्ज माणी, १११-१६ २१-२७ १११-१८ १५१- ४ १११-२४. ८०-२६ १५१-१७ परिशिष्ट४- वर्णक यावत् शब्दातिदिष्टपाठाः ● ॥ २४ ॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3%A3 ज्ञा०पू०प० ज्ञा०पू०प०ज्ञा० पृ०५० ज्ञा०पृ०५० १५१-२० आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणी, ६९-७ १५२-२३ करयल० साणं० २, १५-४ १५१-२३ राइसर जाब परूवेमाणी, १५२-२४ आसुरत्ते जाव तिवलियं० ६९-७ १५१-२४ परियालसद्धिं संपरिवुडे एवं जाव १५३- १ मिहिला जाव अवदारेणं० १५२-२१ विहरति (1) १५३- ४ जमगसमगं चेव जाव निच्छूढा० १५२-२१ १५१-२७ उदगपरिफासियाए जाब भिसियाए. १५१-८१५३- ७ सकोरंट मल्लदामया जाव सेयवर० ६६-२२ १५१-२८ रज्जे य जाव अंतेउरे य कुसलो दंतक (1) १५३- ७ नगरेहितो जाव निग्गच्छंति (!) १५२- १ दाणधम्मं जाव अंतेउरे० १५१- ४ | १५३- ८ सविड्डीए जाव रवेणं ४९-१/६२-२६ १५२- २ गामागर जाव अडह, ५१-२७ | १५३- ९ हय जाव सेण्णं सन्नाहेह, जाव पच्चप्पिणंति, १५३-९ १५२- ३ रन्नो वा जाव एरिसए (1) १५३-१० हत्यिखंध. १३७-२५ १५२- ७ अगडे वा जाव सागरे वा, १५३-१० सकोरंट. ६२-२२ १५२-१५ राईसर जाव सत्थवाइपभिईणं, ११-२७ | १५३-१० महया. ६२-२६ १५२-१७ जुवणेण जाव नो खल, १३२-२८ | १५३-१५ हयमहित जाव पडिसेहिए १५५-२६ १५२-२० सद्दावेति २, जाव पहारेत्थ गमणाए० १३८-११ | १५३-१६ अवीरिए जाब अधारिणिज्जामि (1) %9C %A4%ASAAL Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K नवाडी भीज्ञाताधर्मकथाओं परिशिष्ट-वर्णकयावत् शब्दातिदिष्टपाठाः। ज्ञा०पृ०५० ज्ञा०पू०प०] ज्ञा०पृ०५० ज्ञा०पू०प० १५३-१६ तुरियं, जाव वेइयं (1) १५४-१२ अहिमडेति जाव असुभतराए. १३६-१७ १५३-२२ ओहतमणसंकप्पे जाव झियायति, क. सू. ९२ १५४-१४ उत्तरिजेहिं जाव परम्मुहा० १५४-१३ १५३-२३ ण्हाया जाव बहुर्हि. क. सू. ९५ १५४--१६ सएहिं जाव चिट्ठामो, १५४-१३ १५३-२५ एजमाणं, जाव निवेसेह, १५३-२४ १५४-१७ कणग जाव पडिमाए, १३३-६ १५३-२७ असकारिया जाव निच्छूढा, १५२-२५ १५४-१९ सडण जाव धम्मस्स० ५३-१७ १५३-२८ निस्संचारं जाव चिटुंति, १५३-१८ १५४-२३ सहजाया जाव पचतिता, १२८-६/१३ १५४- १ अलभमाणे जाव झियामि, १५३-२० १५४-२५ सेसं तहेव सवं, १२८-१८ थी १२९-२१ १५४- २ ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह, क. सू. ९५, १५४-२७ जंबुद्दीवे २ जाव साइं० । १३१-६ १५४-६ तं चेव जाव पवेसेति, . १५४- ३ | १५४-२८ आउक्खएणं जाव दारियत्तए, क. सू. ३ १५७- ७ पाउन्भूया जाव जालंतरेहिं० १५४-४ | १५५- ३ ईहावूह, जाव सणिज्जाइसरणे, ७६-१८ । १५४- ९ गिद्धा जाब अज्झोववण्णा (1) १५५- ९ संसार जाव पवयह, ६४-२७ १५४-१० व्हाया जाव पायच्छित्ता, क. सू. १५ | १५५-१० मेढी पमाणं जाव धम्मधुरा, १२१- ५ १५४-११ खुजाहिं जाव परिक्खिता (1) | १५५-११ इण्हिपि जाव भविस्सह, १५५-१० AROSAUG Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A%AAAAESH | ज्ञा०पृ०प० ज्ञा०पू०प० ज्ञा० पृ०५० ज्ञा०पू०प० १५५-१२ संसारभउबिग्गा जाव भीया, ६४-२७ १५७ १८ सुहासणवरगत० (1) १५५-१२ मुंडा भवित्ता, जाव पचयामो, ६५-२७ | १५७ १९ सिंघाडग जाव बहुजणो, १. सू. १०० १५५-१३ तुब्भे संसार जाव मए सद्धि, ६४-२७ १५७ २३ समणाण य जाव परिवेसिज्जनि (!) १५५-१८ सक्कारेति, जाव पडिविसज्जेति, २३-१८ १५७ २७ ०गीयवाइय जाव रवेणं, क. सू. १५७-२६ अब्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था, क. सू. १५ १५६ १ तहेव जाव अरहंताणं. १५६ २७ १५७- ३ भारहे वासे जाव असीति० १५६-२६ १५८ ४ जंभगा जाव जेणेव मिहिला. १५७ ५ करयल जाव पडिसुणेइ २, १५-४ १५८ ५ सखिखिणियाइं जाव वत्थाति० १५७ ८ वेसमणेणं जाव सुणेत्ता (1) १५८ ५ करयल०, ताहिं इट्ठा० १५ ४/१४ २५ १५७ १ अवक्कमति २, जाव उत्तर १५८ १० भविता जाव पवतित्तए, वेउधियाई. १५७ ९ ताए उक्किट्ठाए जाव वीइयवमाण १५८-११ सोवणियाणं जाव भोमेजाणति १५७ ११ कोडिसया जाव साहरंति, १५७ १ १५८ ११ महत्थं जाव तित्थयराभिसेयं० १५७ ०२/१३ करयल जाव पच्चप्पिणंति, १५ ४ | १५८ ११/१३ उवट्ठवेह जाव उवट्ठवेंति; १५८ KARANASANCHARG Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०० श्रीज्ञाताधर्मकथाओं परिशिष्ट -वर्णक| यावत् शब्दातिदिष्टपाठा ॥२६॥ 9754IES ज्ञा०पृ०प० १५८ १२ चमरे असुरिंदे जाव अच्चुय पज्जवसाणा (1) १५८ १३ सोवणियाणं जाव अण्णं च तं० १५८ १५ सोवणियाणं जाव अभिसिंचति. १५८ १७ उत्तरावक्कमणं जाव सबालंकार विसियं (1) १५८ १९ अणेगखंभ० जाव मणोरमं० १५८ १९ उवट्ठवेह सा वि सीया० १५८ २२ ण्हाया जाव सबालंकार १५८ २३ परिवहह जाव परिवहंति, ज्ञा०पू०प० | ज्ञा०पृ०५० १५९ १ निम्गमो जहा जमालिस्स, भग. श. ९, उ. ३३ १५९ २ अभितरवासविहि गाहा जाव १५८ ११ परिधावंति (1) १५८ ११ | १५९ १४ अट्ठाहियं करेंति २, जाव पडिगया, (1) १५९ १७ अणंते जाव केवलनाणदंसणे. क. सू. १२ १६० २७ अट्ठाहियमहा० नंदीसरं० (1) १६१ १ मल्ली जाव पज्जुवासति, १५८ १८ | १६१ ४ भंते 1 जाव पवइया, ६५ १५ क. सू., ९५ | १६१ १८ सिद्धे एवं परिनिवाणमहिमा १५८ १२ । भणियबा, जम्बू. प्र. वक्ष. २, सू. ३३ ___औप. सू. ३२ - -- V॥२६॥ आ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ .. श्रीशलेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । ॥ प्रथम-श्रीउत्क्षिप्त(मेघकुमार)-अध्ययन-सारांशः॥ कथाप्रारम्भ-दोहदवर्णन-मेघकुमारविवाह जम्बूद्वीपना दक्षिणार्द्धभरतमा राजगृही नामनी नगरीमां श्रेणिकमहाराजा राज्य करता हता, अने तेओने धारिणी वगेरे राणीओ हती. अभयकुमार नामनो पुत्र, सकलबुद्धिनिधान बधा मंत्रीओ विषे मुख्य हतो. एकदा सुन्दर वासगृहमा पलंग विषे पोढेली धारिणी राणीए अर्धजागृत-अवस्थामां मध्य रात्रिए पोताना मुखमा अवतरता भव्य, सुन्दर, लक्षणोपेत हाथीनुं स्वप्न जोयु, अने जागृत थई. आनन्दथी पूर्ण हृदये श्रेणिक महाराजानी पासे गई, अने जय-विजय-सूचक वाणीथी वधावी जागृत कर्या, अने स्वप्ननी बात कही. आ स्वमनी वात सांभळी हर्षान्वित थयेला राजाए स्वक्षयोपशम अनुसार प्राप्त थयेल बुद्धिना आधारे सम्यग् ऊहापोहपूर्वक तेनो विचार करी धारिणी राणीने जोयेला स्वप्ननुं अभिनन्दन आपवापूर्वक--कल्याण--मङ्गल-दीर्घायु अने आरोग्यादि विशिष्ट फलो सूचववा साथे अपूर्व भाग्यशाली पुत्ररत्ननी प्राप्ति जणावी. आ सांभली वधु आनन्दित बनेल धारिणीदेवीए शकुननी गांठ वाळी, अने शेष रात्रि निद्राथी प्राप्त थयेल महास्वप्ननो विघात न थाय ते हेतुथी धर्मकथा आदि द्वाराए पूर्ण करी. सवारे राजाए व्यायामशालामा अंग-श्रम करी, तैलादिथी विशिष्ट प्रकारनी मालीश आदि करावी स्नान करी अंगभूषा करी, प्रधानआप्तजनोना परिवार साथे विशेष प्रकारे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०० भीबाताधर्मकथाङ्गे परिशिष्ट५-उत्क्षिप्त अध्ययनसारांशः। ॥२७॥ ARCH CAROASTERNA सजावेल बाह्य आस्थान-सभा(कचेरी)मां सिंहासन उपर बेसी अष्टांग निमित्तने जाणनारा स्वप्नपाठकोने( ज्योतिषीओने) तेडाव्या अने धारिणीराणीने ओझलपडदामा बेसाडी. स्वप्नपाठको आवीने श्रेणिक महाराजाने आशीर्वादोथी नवाजी योग्य आसन पर बेठा. राजाए धारिणीराणीना स्वप्ननी वात जणावी अने तेना फलादेश श्रवणनी जिज्ञासा करी. पंडितोए तेनो योग्य विचार करी ( कल्पसूत्रमा वर्णव्या मुजब) स्वप्नशास्त्रनो सामान्यथी परिचय आपीने छेवटे प्रस्तुत स्वप्ननो फलादेश जणावतां का के--" धारिणी राणी योग्य समये सर्व लक्षणोथी युक्त पुत्ररत्नने जन्म आपशे, ते पुत्र--विशालसमृद्धिथी शोभता महाराज्यनो भोक्ता थशे, अगर आत्मकल्याण साधी कृतार्थताभर्यु जीवन गुजारनार विशिष्ट अनगार ( साधु ) थशे!" आ सांभली राजाए तेओनो योग्य सत्कार कर्यो, पारितोषिक-इनाम वगेरेथी संतोषी स्वप्नपाठकोने विदाय करी पोते धारिणीराणी पासे गया, स्वप्नना फलादेशनी वात कही, अने तेणे तेणीनी भाग्यशालिता | सूचवी. धारिणी पण पोते उत्तमपुत्रनी माता थवानुं सौभाग्य मल्याथी आनन्दित बनी योग्य रीतिए गर्भनुं पालन करवा लागी. बे महिना जेटलो समय पसार थया बाद धारणीने “सघनमेघघटायुक्त, विजलीओना चमकारा सह मेघनी गर्जनाओथी व्याप्त | सुन्दर चौमासानी ऋतु पूर बहारथी खीली होय अने हुं वैभारगिरिनी गिरिकन्दराओनी वनराजिओमां चतुरंग सैन्यना ठाठ साथे श्रेणिक महाराजा सह विहरण करुं" आवो दोहद प्रगट थयो. धारिणीए अकाले आवी मेघघटा वगेरेनो असंभव विचारी पोताना दोहदनी पूर्णता न थाय तेम होवाथी वात कोईने करी नहीं, किन्तु दोहदनी पूर्ति न थवाथी दिवसे दिवसे धारिणीनुं शरीर कृश थवा लाग्यु अने बेचेनी वधी. आ हकीकत दासदासीओए राजाने कही, अने श्रेणिकमहाराजाए आवीने ज्यारे आग्रहपूर्वक पूछयुं त्यारे ॥२७॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनिच्छाए पण धारिणीए पोताना दोहदनी बात कही. राजाए राणीने आश्वासन आप्यु, अने पोते सभामां बेसीने मन्त्रीओ साथे विचारणा चलावी. परन्तु आ दोहद तो कुदरती बनावरूप होई मानव शक्तिओथी बहार होवाथी केवी रीते बने !, आ कारणथी सहु चिन्तातुर बन्या. आ समये आवी पहोंचेला अभयकुमारे पिताश्रीनी गमगीनी जोई कारण पूछतां वातनो मर्म जाणी लई कयु के-पिताश्री। दिव्यशक्ति आगल आ वात शी विसातमा छे ! हुं हमणां ज आनो उपाय करुं छु ! एम जणावी पूर्ण विचार करी अट्ठमनो तप करी पूर्व सांगतिक-सौधर्मकल्पवासी देवनो संकल्प करी पौषधशालामा ध्यान धरी बेठो, पुण्यबले ते देव- आसन चलायमान भयु. अवधिज्ञानना उपयोगथी अभयकुमारे याद कर्यानुं जाणी दिव्य रूप धारण करीने तुरतज अभयकुमार पासे हाजर थयो, अने मने शा माटे याद कर्यो छे !, ते पूछवापूर्वक पोताना लायक काम फरमाववा कछु. अभयकुमारे "धारिणीमाताना अकाल मेघ संबंधी थयेल दोहदने पूर्ण करवा " सूचव्यु. देवे तुरत वैक्रिय शक्तिथी अकाले पण सघन चौमासानी ऋतुनो देखाव करी दोहद पूर्ण थाय तेवी गोठवण करवानें कबूल कयु अने अदृश्य थई गयो. क्षणवारमा देवना कह्या प्रमाणे ऋतुनो पलटो निहाली श्रेणिक महाराजाने वधामणीपूर्वक धारिणी-राणीन। दोहदने पूर्ण करवा योग्य तैयारी कराववा विनंति करी. राजाए पण धामधूमपूर्वक राणीनी इच्छामुजब दोहद पूर्ण करावी यथायोग्य रीते गर्भन सन्मान कर्यु तेम विविध अनुकूल गर्भने योग्य आहारविहार सेवता क्रमशः योग्य समये धारिणी राणीए | विशिष्ट लक्षणो युक्त तेजस्वी पुत्रने जन्म आप्यो. तेनी वधामणीना समाचार आपवा अहमहमिकापूर्वक आवेली दासीओने मारहाजा श्रेणिके तेणीओना जीवनभरना दासीपणाने | दूर कयुं, अर्थात्-प्रमाणातीत इनाम (बक्षीस) आप्यु. राजाए आज्ञाकारी सेवको द्वारा पुत्रजन्मनी खुशालीमा आखाये राजगृहनगरने FACOCIRCRECORRECIRC3% Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ २८ ॥ शणगार्यु, विविध मनोरंजक -आयोजनो ठेर ठेर योज्यां, बंदीखानाओमांथी केदीओने मुक्त कर्या. एकंदर आखुं गाम नाच-गानतानथी प्रमुदित बनी गयुं. राजमर्यादाने उचित वेपारीओ वगेरेने छूट आपवामां आवी ( श्री कल्पसूत्रमां वर्णव्या मुजब ) दश दिवसनी कुल मर्यादा अनुसार थती विधि पतावी, अशुचि निवारण थयेथी बारमे दिवसे सहु-ज्ञाति स्वजन - मित्र परिवारादिने एकठा करी जमाडी सन्मान-सत्कार करी, अकाले मेघ सम्बन्धी दोहद थवाना कारणे पुत्रनुं शुभमुहूर्ते मेघकुमार एवं नाम पाड्युं. ते पछी पांचधावमाताओथी लालनपालन कराता मेघकुमारे योग्य वय प्राप्त थये उपाध्याय ( गृहशिक्षक ) पासे व्होंतेर कलाओ शीखी विचक्षण थयो युवावस्थामां पगलुं मांडतां मातापिताए होंशमेर उत्तमकुलनी आठ राजकन्याओ साथे एकज दिवसे लम कराव्यां, अने प्रमाणाधिक- अनर्गल धन-सम्पदाओथी भरपूर सुन्दर राजमहेल विषे ते मेघकुमार दोगुंदक देवनी जेम तेमनी साथे यथेच्छ सांसारिक सुखोने अनुभववा लाग्यो. मेघकुमार दीक्षा वर्णन - एकदा श्रमण भगवान्-श्रीमहावीर - देव राजगृहनगरनी बहार गुणशील चैत्यमां समोसर्या, प्रभुनुं पधारखं सांभली नगरना सहु लोको वन्दनार्थे जवा लाग्या. लोकोना समुहने उत्साहमेर जतां जोइने मेघकुमारे जिज्ञासाथी कंचुकी पुरुषने ( महेलना द्वार उपर रहेनार नोकरने) पूछयुं के शुं छे !, आ वधा क्यां जाय छे !; एटले कंचुकी पुरुषे तपास करीने प्रभुश्री महावीरस्वामी पधार्यानी वात करी, तूरतज नोकरो द्वारा सुन्दर चारघोडाथी जोडेला रथने मंगावी तेमां बेसी मेघकुमार पण प्रभु पासे गयो, अने विनयपूर्वक नमस्कार करी प्रभुनी मधुरदेशना श्रवण करवा बेठो. अखण्डदेशना सांभली भवनिर्वेदथी तुरत प्रभु पासे मातापिताने पूछीने संयम छ परिशिष्ट५- उत्क्षिप्त अध्ययनसारांशः । ॥ २८ ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** * OCRAACHAK लेवा आववानी भावना प्रगट करी. प्रभुए पण “जहा सुहं देवाणुप्पिया” कही, " श्रेयांसि बहुविनानि" सूचवी धर्मना कार्यमां ढील न ६] करवा जणाव्युं. घरे आवी मातापिताने वात करी अने संयम स्वीकारवा माटे अनुमति मांगी. धारिणीमाता तो आ सांभळी शोकथी विह्वल बनीने मूर्छा पामी बेभान थई गई. मूर्छा दूर थये मोहना आवेशथी अनेक प्रकारना रागोत्पादक वचनोथी मेधकुमारने संयमना बिचारोथी खसेडवा प्रयत्न कर्यो, किन्तु मेषकुमारे तो अस्थिमजानुगतपणे प्रगटेला धर्मरागथी आत्मकल्याण साधवानी तालावेलीभरी तमन्ना बतावनारा विविध उत्तरोथी पोतानो भवनिर्वेद सूचव्यो; त्यारबाद माताए संयमनी दुष्करता अने शरीरनी सुकुमालता वगेरे जणावी संयम न लेवा सचव्यु. मेधकुमारे स्वाधीनपणे संयममा आवता परीषहोपसर्गादि तथा सामाचारी पालननी दुःशक्यताओने सामी छातीए सामनो करवाथी, नरकादिमा पराधीनपणे अनन्तगुण भोगवी पडेल वेदनाओनी जेम निःसारपणुं नथी एम जणावी संयम स्वीकार माटेमो अटल-अणनम दृढ संकल्प जाहेर कर्यो. आथी निरूपाय थईने मातापिताए फक्त एक दिवसर्नु राज्य भोगवी लेवानो आग्रह कर्यो, एटले मातापितानुं मन प्रसन्न करवा खातर मेधकुमारे मौनपणाथी संमति आपी. तुरतज विपुल तैयारीपूर्वक धामधूमथी मेघकुमारनो राज्याभिषेक कर्यो. त्यारपछी सिंहासने बेठेल मेधकुमारने महाराजा श्रेणिक पूछे छे के-शी आज्ञा छे ! जवाबमां तुरतज ओघो-पात्रां मंगाववानुं अने हजामने बोलाववानी इच्छा दर्शावी. श्रेणिकराजाए आप्तपुरुषोद्वारा एक लाखना | मूल्यथी ओघो, एक लाखना मूल्यथी पात्रां मंगाव्या अने एक लाखना मूल्ये नावी-हजामने तेडाव्यो, अने विधि सहित हजाम पासे मस्तकना केशर्नु चार आंगुलनी शिखा वर्जीने मुंडन कराव्यु. देदीप्यमान-स्वर्ण-रजतना कलशोथी स्नानविधि करावी, शुद्ध महामूलां वखोर्नु परिधान करावी, एक हजार माणस उपाडे तेवी मनोरमा-शिबिका(पालखी) मां बेसाड्या. वर्णकमा वर्णित धामधूमपूर्वक * * Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी०पू० | परिशिष्ट५-उत्थितअध्ययनसारांशः। भीज्ञाताधर्मकथाले ॥२९॥ प्रभुमहावीर पासे मेघकुमार-मातापिता स्वजन मेला सह हाजर थया. धारिणीमाताए विनयपूर्वक प्रभुने नमस्कार--वंदना करी विनंती करी के-अमारा प्राण करतां पण व्हाला, अनेक मनोरथोथी प्राप्त थयेल, काळजानी कोर सरखा आ मारा पुत्रने आपने शिष्य तरीके व्होरावु छु, तो आप कृपा करी स्वीकारो ! मेघकुमारे ईशान खूणे जई आभरणादि उतारी सर्प जेम कांचली उतारे तेम संसारनो मोह उतारवानो अभिनय को. आ समये मातानुं शोकना आवेशथी हृदय भराई आव्युं, अने विलापादि करवा मांडी. आ छतांये आत्मकल्याण साधी जीवनने उजालनार पुत्रने संयममार्गे विचरवानी शुभाशिष अने अप्रमत्तपणे सावध रहेबानी भलामणरूपे बे शब्दो कह्या. त्यारबाद मेघकुमारे प्रभु महावीरने त्रण प्रदक्षिणा करी अंजलि बांधी प्रार्थना करी के-हे प्रभु! आ संसार विषय कषाय अग्निथी व्याप्त छे. हे प्रभु! तेमाथी बचवा माटे मने संयम-दीक्षानु प्रदान करो ! स्वयं प्रभुए सामायिक उच्चरावी संयमनी महत्तानो तथा तेनी साचवणी वगेरेनो उपदेश करी मेघकुमारने अणगारधर्मनो पथिक बनाव्यो. मेषकुमारनु आर्तध्यान, अने प्रभुए करेलं तेना पूर्वमवर्नु वर्णन दीक्षापर्यायना अनुक्रमे मेघकुमारनो संथारो साधुओना जवा-आववाना प्रवेशद्वार पर आव्यो, आथी रात्रिए वाचना-पृच्छनादि अने अने ठल्ले मात्रादि माटे जता आवता साधुमहात्माओना पादरजथी संथारो भराई गयो अने रात्रिए ते महात्माओना पगनी ठोकरो वागी, अंधाराने लई शरीरना अवयवो पर पण पग लाग्या. आ हेतुए सुंवाली मखमलनी पथारी पर आलोटेल होवाथी शरीरनी अति कोमलताना कारणे मेघकुमारने क्षणवार पण निद्रा न आवी, अने नवदीक्षित होवाना कारणे आध्याने चढी दुर्ध्यान थयु के-'अहो ! GEE ROCIAॐॐ NAGAUR है मम । तेमाया महावीरने मार्ग विचरवाना । J॥२९॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % A 4% A 5 -15 CASSAGROCERA आ साधुओ में दीक्षा लीधी न हती त्यांसुधी राजकुमार तरीके मने आदर-सन्मानथी बोलावता हता, अने हवे तो मारो संथारो जवा आववाना बारणा पर खसेडी जता आवता साधुओनी ठोकरो अने घूल मने खवडावे छे !, माटे हवे आपणाथी तो आ संयम (साधुपगुं) नहीं पलाय, सवारे भगवान्ने पूछी घरे चाल्यो जाउं, आवी विचारणाओनी घटमालमा नरकनी वेदना सरखं कष्ट-वेदना सहन करतो आर्तध्यान करतां रात्रि पूरी करी. सवार थतांज प्रभुए पोतेज मेघकुमारने रात्रिनी बधी बीना जणावी अने पूछयु के-हे मेघकुमार ! में कबु ते साचुं छे ! मेघकुमारे कयु के-हे प्रभु! साचुं छे. त्यारपछी मेघकुमारने स्थिर करवा माटे प्रमुए तेना पूर्वभवो जणाव्या हे मेघ । अहीथी त्रीजा भवे तुं वैताब्य पर्वतनी तलेटीमा सुन्दर लक्षणो युक्त अंगोपांगथी शोभतो सुमेरुप्रभ नामनो छ दंतशलवालो हस्ती हतो. अनेक हाथणीओथी अने बच्चाओथी परवरेलो गिरिकंदराओ, सघन-झाडीओ विगेरेमा यथेच्छ तुं विचरतो हतो. एकदा ग्रीष्मऋतुमा जेठ महिना विष वांस आदि झाडोना घसाराथी अचानक भयंकर दावानल प्रगट्यो, ते जोई प्राण बचाबवा तारा परिवार साथे ते नाशभाग करी तेना परिणामे श्वासमेर दोडधाम करतां स्वयूथथी विखूटो पड्यो. दोडवाना अति परिश्रमथी अने दावानलना तापथी तेम जेठ मासना तापथी तृषातुर बनेलो दोडतां सख्त कीचड अने सामान्य जलवाला एक सरोवरमां पाणी पीवा माटे पड्यो, उपरथी देखाता पाणीना मोहमां पडतानी साथे ज सरोवरना कोहायेल-चीकणा कादवमां तारुं विशाल शरीर झुंची गयु. प्रचंड तापथी उकळी गयेलं तेनुं पाणी महामुश्केलीथी थोडं पीने ज्यां तुं बहार निकलवा मथे छे त्यां तो तुं भारे शरीरना कारणे वधु खुंचवा लाग्यो, अने निकलवा माटे अशक्त थयो. निरुपाये भीषण कीचडनी भीसमां असा कलतरनी वेदना ) Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी पृ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ ३० ॥ भोगघवा लाग्यो. आ समये तारा यूथमांथी यूथपति भविष्यमां थई जशे तेवी आशंकाथी पहेलां हांकी काढेल एक हाथी तेज सरोवरमां पाणी पीवा आव्यो. ते तो स्थाननो भोमियो होवाथी कीचडरहित किनारेथी पाणी पीने तृप्त थयो. त्यारबाद एक बाजु तने खुंचेलो देखी पूर्ववैरनुं स्मरण करी 'आ ठीक लाग छे' एम विचारी एक बाजुथी दावानल आदि अनेक असह्य पीडाओथी बनेला तने पोताना दंतुशलना प्रहारथी मारीने पहाड जेवी तारी कायाने जर्जरित करी नाखी. परिणामे आखा शरीरमां भीषण दाह ज्वर प्रगट्यो. पराधीनपणे कायाने जर्जरित करी नांखी. परिणामे अने न छूटके असा ते वेदनाओ तें सात दिवस सुधी अखण्डपणे भोगवी. छेवटे आर्त्त- रौद्रध्यानना संक्लिष्ट परिणामथी काल करी विंध्यपर्वतनी तलेटीमां एक हाथिणीनी कुक्षिमां उत्पन्न थयो. क्रमे करी जन्म थया बाद सारा लक्षणोथी शोभता, सुन्दर अंगोपांगवाला, देदीप्यमान कान्तिवाला अने चार दांतवाला एवा तारुं नाम वनचरोए मेरुप्रभ पाडयुं क्रमे करी तुं युवावस्थामां यूथाधिपति थई यथेच्छपणे विचरवा लाग्यो. एक समये दावानलना कारणे पूर्वभवमां पोतानी थयेली दुर्दशा जातिस्मरण ज्ञानथी जाणी, आ वर्तमान भवमां हवे तेवी हाडमारी भोगववी न पडे तेथी पोताना रहेठाणभूत स्थाननी चारे दिशाए जोजनप्रमाण भूमि साफ करी अने तेमांथी झाड-पान-तणखला-धास वगेरे जे थाय ते बधुं भावी दावानल न फेलाइ शके माटे दूर करवा लाग्यो. भवितव्यताना योगे त्यां जंगलमां दावानल प्रगटयो, आथी तुं त्रास पामी बचवा माटे पहेलेथी साफ करेला मांडलामां पोताना परिवार साथै पेट्यो, भयथी जीव बचाववा बीजा पण प्राणीओ वैर-विरोध भूली जई ते मांडलामां आववा लाग्या. चारे बाजुथी त्रास पामीने आवता जंगलना पशुओना समूहथी ते मांडलं खीचोखीच भराइ गयुं, जरापण जग्या रही नहीं, आ समयमां एक बिचारुं ससलं पोताना प्राण बचाववा बीजे जग्या न मलवाथी आमतेम दोडी रहेलं परिशिष्ट ५- उत्क्षिप्त अध्ययनसारांश: । ॥ ३० ॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CATEGOROCESSAR हतुं तेवा अवसरे खंजबाळवा माटे तारो एक पग तें ऊंचो को एटले ते खाली पडेली जम्यामां जग्या मळवानी आशाए ते ससलं त्यां आवी गद्यु, खंजवाळ्या पछी पग मूकवा जता तारी नजर पग नीचे रहेल ससला उपर पडी. दयाथी तें पग अद्धरज राख्यो, ते वखते अपूर्व जीवदयाना माहात्म्यथी-प्रभावथी-संसार परित्त (अप) कयों अने मनुष्यनुं आयुष्य बांध्यु. अढी दिवस पछी दावानल शान्त थयो त्यारे सर्व जीवो-प्राणीओ पोतपोताना स्थाने चाली गया. ते अढी दिवस सुधी अद्धर राखेला पगने ज्यां भूमि पर मूकवानी तैयारी करी त्यां तो ते पग साठ कलाक सुधी वाळी राखेल होइ अकडाइ गयेलो होवाथी तुरतज तुं तो ते पग पर ढली पढ्यो, आखा शरीस्मां दाह आदि पीडा थवा लागी, किन्तु ते पीडाओ समतापूर्वक सहन करी ससलाना बचाव्याना शुभ ध्यानथी पवित्र भावनी श्रेणीए काल करी श्रेणिकमहाराजाने त्यां धारिणीराणीनी कुक्षिए तुं पुत्रपणे उत्पन्न थयो. अनुक्रमे युवावस्था पामी मारी पासे तुं अणगार(संयमी) थयो छे. हे मेघ ! पूर्वभवमा ते तिर्यंचयोनिमां सम्यक्त्वनी प्राप्ति न छतां पण ससलाने बचाववा आवी | | असम पीडा सहन करी, तेथी संसार परित कर्यो अने मनुष्यनुं आयुष्य बांध्यु. अने आ भवमा सम्पत्य अने उसमोत्तम चारित्र | आदिने मेळव्यां छे, तो पछी आ महात्माओ-साधुभगवंतोनी चरणरजथी कंटाली स्थानभ्रष्ट थवा केम मागे छे ! मा दुःख तो तेनी आगल यत्किचित् छे, विगेरे प्रभुए उपदेश आप्यो. मेषकुमारनी सद्गति प्रभु महावीरनी अमृत सरखी वाणीनुं पाम करवाथी मेधकुमारमुनिने उहापोह करतां जातिस्मरणज्ञान थयुं अने पूर्व भवो | प्रमुए करेळ वर्णन प्रमाणे साक्षात् ते ज्ञानथी जोतां पोतानी मूल तस्त ज समजागी अने थवेली भूल माटे पश्चाजप करतो प्रभुने SAXCARRC -साधुभयनुं आयुष्य बांधुबनी प्राप्ति न छतां परम युवावस्था पामा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवङ्गी ० ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ ३१ ॥ बंदन-- नमस्कार करी कहेवा लाग्यो के - हे प्रभु! आजथी मांडी हुं मारी चक्षु सिवाय बाकीनुं शरीर वोसरावी दउं लुं. अर्थात् चक्षु फरकवा सिवायना मारा शरीरनी हुं दरकार नथी राखतो 111 एम कही फरीथी दीक्षा ग्रहण करी. स्थविरो पासे ग्रहण - आसेवनशिक्षाथी मेघकुमार महात्मा तैयार थई एकादशांगपाठी बनी छट्ठ--अट्टम आदि घोर तपस्या करी क्लिष्ट कर्मोने खपावबा लाग्या. योग्य समये प्रभु पासेथी आज्ञा प्राप्त करी साधुनी बार पडिमाओने विधिपूर्वक सेवी तेम लागट सोल मासनी उत्कृष्ट तपस्यावालो गुणरत्नसंवत्सरतप आराध्यो. छेवटे तप आदिथी शरीर अति कृश थयुं जाणी संलेखनापूर्वक अनशन स्वीकारवानी प्रभुनी आज्ञा प्राप्त करी वैभारगिरि पर्वत पर स्थविर मुनिओ साथै जई शुद्धशिलातल पर बेसी, चारे आहारनां पञ्चकखाण करी, अढारे पापस्थानको ने आलोची, शुद्ध वैराग्यना वधता भावपूर्वक क्षमापना अने सुकृतनी अनुमोदना करी, एक महिना सुधी अनशन करी, विशुद्ध भावे कालधर्म पामी पांचमा अनुत्तर विमानमां विजय नामना विमानमा तेत्रीससागरोपमनी स्थितिना देवपणे मेघकुमारमुनि उत्पन्न थया. त्यांथी च्यवीने महाविदेहक्षेत्रमां मनुष्यपणे जन्मी संयम प्राप्त करी मोक्षे जशे. । उपसंहार । पोताना आत्माने संयममांथी चलविचल थता परिणामोथी बचाववा आदर्श--नमूनेदार उदाहरणरूपे आ मेघकुमारनं अध्ययन ज्ञातासूत्रमां प्रथम जणावेल छे. आमां मेघकुमारना पूर्वभवमां हाथीए जीवदया खातर पग ऊंचो राख्यो तेमां मनुष्य आयुष्य बांध्युं, अने जीवदयानुं उत्कृष्ट पुण्य बंधार्युं तेथी मुख्यताए आ अध्ययननुं मुख्य नाम उत्क्षिप्त अध्ययन छे. आ रीतिए प्रथम उत्क्षिप्त नामना अध्ययननो सारांश समाप्त थाय छे. परि० ५ प्रथम उत्क्षिप्त अध्ययन सारांशः । ॥ ३१ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीय - श्रीसंघाटकाध्ययनसारांशः ॥ कथाप्रारम्भ - पुत्रप्राप्ति - राजगृहनगरीमा विपुल धनधान्यादिनी समृद्धिवालो धन्य नामनो सार्थवाह हतो, तेने भद्रा नामनी स्त्री हती. घणा वर्ष विषयानन्दमां व्यतीत थया छतां मद्राशेठाणीने कंह संतान थयुं नहीं. एक समये भद्राशेठाणी आ सम्बन्धी विचारधाराए चढी अने पुत्रादिनी अप्राप्ति माटे खूब आर्चध्यान करवा लागी, प्राप्त थयेला धन-संपत्ति अने वैभवोने अने स्वजिंदगीने निष्फल मानी दिनप्रतिदिन वधु ने वधु चिन्तातुर थई. आ चिन्ताना परिणामे अनेक देव-देवीओनी मान्यताओ - पूजाओ करवा लागी पुत्रप्राप्ति करवानी तीव्र अभिलाषा जागी, पोताना आ अभिप्रायनी वात धन्यशेठने करी संमति मेळवी पुष्कल आडम्बर- धामधूमयुक्त सखीओना परिवार साथे तमाम देवायतनो-मन्दिरोमां जई भावभक्तिपूर्वक सेवा-पूजा आदि करी पोतानी वर्षोजूनी आशाने फलवती बनाववा दृढ संकल्पपूर्वकनी मान्यताओ करी तथाप्रकारनी भवितव्यताना योगे थोडा समयबाद शेठाणी गर्भवती थई, अने तेणीने योग्य सारसंभाल करतां योग्य समये पुत्ररत्ननो जन्म थयो, घणा हर्ष - प्रमोदथी महोत्सवपूर्वक देवताओनी बाधा - आखडीओथी आ पुत्र प्राप्त थयेलो छे तेम मानी तेनुं गुणनिष्पन्न एवं देवदिन्न नाम पायुं. विजयचोरना हाथे देवदिनपुत्रनुं मोत, अने विजयचोरनुं पकडाव - एकदा तहेवारना प्रसंगने पामी भद्रा शेठाणीए पोताना आ एकना एक पुत्रने अति प्रेमथी स्नान करावी, किंमती वस्त्रो पहेरावी अति मूल्यवान आभूषणो पहेरावी, बालकनी सारसंभाल माटे राखेल अति विश्वासु पंथक नामना नोकरने विनोद माटे शहरमां फेर Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे परि०५द्वितीयश्रीसंघाटकाध्ययनसारांश ॥३२॥ SAMACHCCCCCCCCCX बवा माटे सोंप्यो. एक स्थाने अन्य शेठीयाओना बच्चाओ साथै रमवामां तल्लीन बनेला शेठना पुत्रने देखी त्यां तेने रमतो राखी आजुबाजुमां ते लटार मारवा लाग्यो. आवा अवसरने पामी भलभला चतुर राज्याधिकारीओने पण थाप आपी नाशी जनार धाडपाडु विजयनामना चोरनी चकोर दृष्टिए ते आव्यो. धननी तीव्र लालसाने वश थई बराबर समय जोई कोई न जाणे तेवी रीते तेनुं हरण करी मारी नाखी ते बालकनां तमाम आभूषणो-वस्त्रो लई लीघां अने नगरबहारना गुणशीलचैत्यनी नजदीकना प्राचीन बगीचानी गाढ-झाडीमा जीर्ण कूवामां ते बालकनी लाश फेंकी पोताना स्थाने जइ संताइ गयो. आ बाजु थोडीवारमा पंथकनुं ध्यान रमता बालको तरफ जतां पोताना शेठना पुत्रने तेमां न जोतां तेम ज आजुबाजु न जोतां खूब ज बेबाकळो थई गयो. बचे तपास करी लोकोने पूज्यु पण तेनो कई पत्तो लाग्यो नहीं त्यारे अति दीनभावे रडतो शेठनी पासे गयो अने सर्व वात कही. आ सांभळतां ज शेठ वज्राघात लाग्यानी जेम एकदम बेभान थइ जमीन उपर पड्या अने मूर्छा वल्या पछी खूब तपास करावी पण कई पत्तो लाग्यो नहीं. आथी भेटणुं लई श्रेणिक महाराजा पासे गयो अने फरियाद करी पोलीसनी मदद मागी, राजाए तुरतज तेनो प्रबंध कर्यो. पोलिसोए चांपती तपास करी, पगेरुं शोधतां तेओ नगर बहारना जूना बगीचामां जूना कूवा पासे आवी पहोंच्या. दुर्गन्ध आदिथी शंकित थयेला पोलिसोए शोधखोल करतां परिणामे जीर्ण कूवामांथी ते बालकनी लाश मली आवी अने ते लाशने बहार काढी धन्यशेठने सोंपी. शेठे अतिशोकव्याप्त हैये ते बालकना अमिसंस्कारादि विधि करी. पोलिसोए खूनीनी पूरती तपास करी अने खून करनार विजयचोरने पकडी श्रेणिकराजानी समक्ष हाजर कर्यो, तेनो इन्साफ करावी आखा नगरमा फेरव्यो PJ अने चाबूक आदिथी मार मारता अनेक प्रकारे कर आपता पोलिसोए एने जेलमां-(केदखानामा ) पूर्यो अने बेडी नाखी चाबूकना ॥३२॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1594 HISUCHANA मार मारवा लाग्या. एक समये सामान्य अपराध आवतां धन्यशेठने जेलमा पूर्या अने विजयचोरनी ज लोखंडी बेडीयी शेठने केव कर्या. भद्राशेठाणी हमेशां सारं सारं खावानुं तैयार करी पंथक नोकर साथे जेलमा शेठने मोकले छे. ते खोराक शेठ एकला खाय छे, भूख्यो विजयचोर शेठ पासे खोराक मागे छे पण शेठ पोताना पुत्रना खून करनार खूनी विजयचोरने आपता नथी अने तेने हलका-तुच्छ शब्दोथी तिरस्कारे छे, विजयचोरने असम मारनी वेदना अने पेटपूर खोराकना अभावथी घणुं लागी आवे छे. धणी वखत शेठने कालावाला करे छे परन्तु शेठ पुत्रना खूनी विजयचोरने कई आपता नथी. थोडा समय बाद धन्यशेठने हाजत लागतां एक ज बेडीमां शेठ अने चोर बन्ने होवाथी शेठे हाजत माटे जवा साथे आववा कयुं त्यारे विजयचोरे तमे आहार-पाणी ज्यो छो एटले तमने हाजत थाय परन्तु मारे तो चाबूकना मारनी असह्य वेदना अने अल्पाहार मलवाथी क्षुधा-तृषाथी हाजतनी शंका थती नथी माटे हुं आवीश नहीं. थोडीवारमा शेठने हाजतनी उतावल थई एटले नम्रता सह कालावाला कर्या त्यारे विजयचोरे शेठने आवता आहारमाथी भाग आपवानी कबुलात मांगी, निरुपाय बनेला शेठे तेनी मागणी कबूल करी पोतानु कार्य पताब्युं, ज्यारे ज्यारे पंथक आहार आदि शेठने आपबा लावे छे त्यारे त्यारे शेठ तेनो भाग आपी पोते खाय छे. आ वात पंथके शेठाणीने कही, शेठाणीने अंदरना रहस्यनी खबर न होवाथी घणुं माटुं लाग्यु. ज्यारे जेलनी सजानी अवधि-मर्यादा पूरी थई एटले शेठ छूटीने पोताना निवासे आव्या. शेठना छूटकाराथी अति हर्षित बनेला स्वजनसम्बन्धीओ हर्षथी शेठने मेटी पढ्या, परन्तु नाराज थयेली शेठाणीए तो शेठनी स्हामुं पण न जोयु, आथी शेठने आश्चर्य थयु. शेठे आम करवानुं कारण शेठाणीने पूछयु, त्यारे केदखानामां पुत्रना खूनी दुश्मनने खावान आप्याना दुःखनी वात करी, शेठे त्यां बनेली हकीकतथी तेने वाकेफ करी. शेठाणी आ श्रवण करी पोतानी तुच्छ बुद्धि माटे घणो % C4kter Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाड़ी ०वृ० मीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ ३३ ॥ पस्तावो करवा लागी. विजयचोर आखी जिंदगी केदखानामां रही घोर वेदना भोगवी लोभना प्रतापे आ भवमां पण दुःखी थयो अने अन्तकाले काल करी नरकादिनां दुःख भोगवतो चारे गतिनां दुःख भोगवशे ! तेवी रीते हे जम्बू ! जे साधु अथवा साध्वी आचार्य उपाध्यायो पासे संयम जीवन अंगीकार करी उत्तम संयम प्राप्त कर्या छतां लोभना प्रतापे घन आदिथी लोभाय छे ते पण आ भवमां दुःखी थई परभवमां पण नरकादिनां दुःखो भोगवतो चारे गतिनां दुःखो पामतो संसारमां रखडशे ! भटकशे ! एक समये राजगृह नगरनी बहार गुणशील चैत्यविषे धर्मघोष नामना आचार्य पधार्या हता, तेओने वंदना - नमस्कार अने धर्मनुं श्रवण करवा घणा लोको गया. धन्यश्रेष्ठी पण वंदना - नमस्कार करवा गया अने तेमनी वाणीनुं श्रवण करी जिनवचनविषे श्रद्धालु थई संयम ग्रहण कर्यु, घणा वर्ष संयमनुं पालन करी अंते एक मासनुं अनशन करी समाधिपूर्वक काल करी सौधर्मदेवलोकमां चारपल्योपमनी स्थितिवाळा देवपणे उत्पन्न थया त्यांथी च्यवीने महाविदेहक्षेत्रमां मोक्षने पामशे. योजना - राजगृहनगरना सरखं मनुष्यक्षेत्र, धन्यशेठना समान साधुनो जीव, विजय चोरना सरखुं शरीर, पुत्रना सरखं निरुपम निरन्तर आनन्दना कारणे संयम ( खराब वृत्तिमां प्रवर्तेल शरीरथी संयमनो घात थाय छे.) आभरण सरखा शब्द-रूप-रस- गन्ध-स्पर्श आदि विषयो. (तेने माटे प्रवर्त्तेला शरीरथी संयमनो घात थाय छे.) बन्नेनुं एक बेडीमा रहेवाना सरखं जीव शरीरने एकमेकपणे रहे, राज्यपुरुषो समान कर्मना परिणाम, पोताना थोडा अपराध सरखा मनुष्य आयुष्यना बन्धना हेतुओ, मूत्र वगेरे मल सरखा पडिलेहण वगैरे व्यापारो, जे कारणथी आहारादिना अभावे जेवी रीते ते विजयचोर मात्रु वगेरे करवामां प्रवत्यों नहीं तेवी रीते आ शरीर पण आहार विना पडिलेहणादि क्रियाओमां प्रवर्त्तवा शक्तिवंत थतुं नथी पन्थक तुल्य मुग्ध साधु, सार्थवाहीना स्थाने परि० ५ द्वितीय श्रीसंघाट काध्ययन सारांश । ॥ ३३ ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्यो. ते जेनी विवक्षा करवामां आवे छे एवा साधुने आहारादिथी शरीरने टेकाभूत करवान जुदी रीते श्रवण करी आचार्यों ठपको आपे छे ज्यारे वेदना वैयावच्चादिनुं पुष्ट कारण तेओने जणावे छे त्यारे आचार्यों तुष्ट थाय छे. उपसंहार-आ दृष्टान्तथी धन्यशेठनो जेम जेलमा विजयचोरने खावा- आपवामां फक्त हेतु शरीरनी बाधा दूर करवा पूरतो अने पोतानी अनुकूलता साचववा पूरतोज हतो, तेवी रीते साधु साध्वीओए फक्त धर्मनी आराधनामां टेकाभूत थाय तेज हेतुथी 3 शरीरने पोषणकारी आहारादि ले परन्तु वर्णरूप-बलादिनी पुष्टिमाटे आहार वगेरे ले तो तेओ धन्यशेठनी जेम उत्तरोत्तर कस्याण साधी मुक्तिसुखने पामे छे: आ रीतिए द्वितीय अध्ययननो सारांश समाप्त थाय छे. तृतीय-श्रीअण्डकाध्ययन-सारांशः। कथाप्रारम्भ अने बे श्रेष्ठिपुत्रोनी वनविहारI ते काले ते समये (प्रभु जे समये आ कथा कही रह्या छे ते काल अने समये ) अतिसमृद्धिथी भरपूर चंपा नामनी नगरी IN का विषे धनिक तरीके प्रसिद्ध जिनदत्त अने सागरदत्त नामना सार्थवाहना बे पुत्रो जिगरजान मित्ररूपे एकचित्तवाला हता. बन्ने मित्रो है सांसारिक आदि कार्योमां अने सुख-दुःखमां दिलचोरी वगर एकएकना सहकारी बनीने नाना मोटा तमाम कार्यों साथे मलीनेज करवानो दृढ संकेत-निश्चय कर्यो, ते ज नगरीमां अनेक युवकजनोना हृदयने प्रमोद आपनारी स्त्रीओनी चोसठकलाओमां निपुण देवदत्ता नामनी गणिका रहेती हती. 67 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ ३४ ॥ एक प्रसंगे बन्ने मित्रोए मनोविनोद अर्थे देवदत्ता गणिका साथै नगर बहारना रमणीय बगीचामां स्वैरविहार करवानी, आनन्दविलास भोगववानी अभिलाषा थतां खानपाननी विपुल तैयारीओ करावी बगीचाओमां तंबू ठोकावी विशिष्ट प्रकारना वस्त्र आभरणो पहेरी देवदत्ता गणिकाने घेरे जइ देवदत्ताने आमन्त्रण कर्यु अने तेनी साथे अनेक मित्रमण्डलयुक्त खुब आडंबरपूर्वक ते चंपानगरीनी बहार इशानखूणे आवेल सुभूमिभाग नामना बगीचामां पहोंच्या. यथेच्छ रीते विविध विलासो करता वनना निकुंजो अने लताकुंजोमां फरतां फरतां ते बगीचाना उत्तर विभाग विषे रहेल एक घाडी झाडीमां प्रवेश्यां त्यां एक मयूरी देवदत्ता गणिका सह बन्नेने पोतानी बाजुमां आवता जोइ भयथी त्रास पामी पांखोने फफडावती नजीकना एक झाड उपर जइने बेसी अनिमिषदृष्टिए पोताना ताजा - तुरतमां प्रसवेला बे इंडाओने जोबा लागी. सार्थवाहना पुत्रो मयुरीनुं फफडाट सह उडी वृक्ष पर बेसवुं अने एकी नजरे एक बाजु मोरलीनुं जोवुं जोइ कुतूहलथी तपासतां सुन्दर-मनोहर रूपाळां मोरनां बे इंडां जोयां. पोताना क्रीडाना मोर बनाववानी लालचे परस्पर बने मित्रोए निर्णय कर्यो के आ इंडा आपणे कुकडीना इंडा मेगुं मेली दइशुं अने भद्रिक कुकड़ी पोतानां पारकां इंडां ओलख्या बिना सेवशे अने कालक्रमे सुन्दर बे मोर तैयार थशे अने आपणा अपूर्व मनोविनोदनुं साधन थशे. आ प्रमाणे बन्ने मित्रो परस्पर निश्चय करी पोताना सेवको पासे ते बन्ने इंडां लेवरावी कुकडीनां इंडां मेगां मूकावी दीघां. देवदत्ता गणिकाने घेर बोलावी यथायोग्य सत्कार करी तेनुं विसर्जन कर्यु, नोकरो द्वारा बन्ने इंडांओनी पूरती सारसंभाल करावी परन्तु तेमांना एक श्रेष्ठपुत्रे पोताना इंडाने सारो मोर आमांथी थशे के केम ? परिपक्क थयुं छे के केम ! आदि शंकाथी कलुषित हृदयथी ते इंडांने उंचुं नीचुं करे छे, आंगलीओथी गोदा-टकारो मारी जुवे छे, आम करतां एक दिवस अपक अवस्थामां ते इंड फूटी गयुं जेथी ते श्रेष्ठपुत्र ने हार्दिक परि० ५ तृतीय भीअण्ड काध्ययन सारांशः । ॥ ३४ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OCOCCTOCUCUCUSSES दुःख थयुं, अरे! मारी मूलना परिणामे आ इंड फूटी गयुं, अरे ! मारा मनने विनोद आपनार मोर आमांथी तैयार न करी शक्यो अने तेनुं मोत थयुं, आथी हृदयमां बलतरा करवा लाग्यो. बीजा सार्थवाहना पुत्रे योग्य दरकार-संभाल पोताना भागमां आवेल इंडानी रखावी योग्य काले इंडामाथी बहार नीकळेल नाना मयूरने प्रेमपूर्वक व्हालभर्यो आवकार आपी मयूरोने उछेरनारने बोलावी कधु के-आ बालमयूरने तमे लई जई तेने योग्य रीते पालनपोषण करी नृत्यकलादि अने मनरंजक विविधकलादि शिखवाडी लोकरंजन करवामां निपुण बनावो ! आ सांभळी मयूरपोषकलोकोए शेठना पुत्रना कहेवा प्रमाणे कबूल करी ते बालमोरने उछेरी मनोहर कलाओ शिखवाडी लोकरंजन करवामां अति निपुण बनाव्यो अने श्रेष्ठिपुत्रने पाछो सोंप्यो. श्रेष्ठिपुत्रे पण ते मोरनी सर्वप्रकारे हृदयहारी पीछाने फेलाववानी अने नाच करवानी विविध कलाओ करतो जोई हर्षित थई मयूरपालकोने धनादिथी सारी रीते संतोषी विदाय कर्या. श्रेष्ठिपुत्र पोते चंपानगरीना जाहेर जनसमवायोना प्रसंगे बीजाओना | मोरोनी कला नृत्यादि साथे पोताना मोरनी कला वगेरेने ख्यातिमती साबित करी आपवा हजारोना दाव-होड करी बीजाओने हरावे | छे अने हजारो द्रव्य ले छे. आवी रीते ते श्रेष्ठिपुत्र घणी रुद्धिसमृद्धिवालो थयो अने सुखी बन्यो. उपसंहार हे जंबू ! जे साधु साध्वी दीक्षित थया पछी प्रभुशासनना प्ररूपेला सिद्धान्तोमा शंका आदि राखे छे ते प्रथम श्रेष्ठिनो पुत्र जेवी रीते मयूरप्राप्ति न करी शक्यो तेम मोक्षनी प्राप्ति करी शकतो नथी, अने जे साधु साध्वी प्रभुशासनना प्ररूपेला सिद्धान्तोमा विश्वासहढश्रद्धा राखे छे ते बीजा श्रेष्ठिना पुत्रे जेवी रीते मयूरनी प्राप्ति करी, लोकरंजन करीने पोतानी ख्याति मेळवी, तथा धन आदिथी Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ।। ३५ ।। अति समृद्ध बन्यो अने सुखी थयो; तेवी रीते आ भवमां ख्याति अने उत्तरोत्तर सुख संपदाओ पामी क्रमे करी मोक्षसुखने पामे छे. आ रीतिए तृतीय अध्ययननो सारांश समाप्त थाय छे. fetea । चतुर्थ - श्रीकुर्माध्ययन - सारांशः । कथाप्रारम्भ वाणारसी शहेरनी बहार ईशानखूणे गंगा नामनी महा नदी अने मयं गतीरडह नामनुं मोटुं सरोवर छे. तेमां अनेक प्रकार जलजंतुओ आनन्द कल्लोल करी रखा हता. ते सरोवरनी नजीकमां घाढी एक झाडी हती, तेमां मांसाहारी - मांसलोलुपी बे शियालो हता. ते रात्रिनो लाभ लइ शीकार करी पोतानी लोलुपता पूर्णं करता हता. एक वखत ते सरोवरमांथी वे काचबाओ (कूर्मो) सूर्यना अस्त थवा पछी विकालवेलाए जनसंचार ओछो थयेथी आहारनी शोध माटे बहार आवी सरोवरनी चारे बाजु आमतेम फरवा निकल्या इता; तेवामां पेला बे शियालो आहारनी लालसाए अने मांसनी लोलुपता तृप्त करवा माटे झाडीमांथी निकली सरोवरनी नजीक आमतेम भटकतां पेला बे काचबाओने यथेच्छ फरता जोया. तेने जोई तेनो शिकार करवा माटे घीमेथी तेनी तरफ जवा लाग्या. बन्ने काचबाओए तेमने आवता जोई भय पामी पोतानुं शरीर संकोची लीधुं, बन्ने शियालोए ते बन्नेनी पीठ उपर घणाए नहोर मार्या, बचकां भर्यां पण तेनी पीठ दृढ वज्र समान होवाथी कंह वळी शक्युं नहिं. छेवटे थाकी एक बाजु छूपी रीते लपाइ गया. केटलोक समय गया बाद एककाचबाए ते शियालो गयां हशे एम धारी एक पग बहार काढ्यो एटले छूपी रीते लपाइ गयेल शीबालाओ परि० ५ चतुर्थ श्रीकुर्माध्य यन सारांशः । ॥ ३५ ॥ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवी तेनो पग पकडी लीधो अने तेनुं भक्षण करी गया अने पाछा लपाइ गया, फरी पण ज्यां तेणे बीजो पग काबो एटले तेनी दशा पूर्वनी जेम थई. यावत् एवी रीते पगो, ग्रीवा वगेरेनुं भक्षण करी गया. आम एक काचबानो नाश थयो ज्यारे बीजा काचबाए तो पोताना संकोचेला पग वगेरेने जरा पण फरकाव्या नहीं परन्तु शियालिआओ थाकीने चाली जाय त्यां सुधी पोताना अंगो स्थिर राख्या. शियालो ज्यारे चाली गयां त्यारे खूब शीघ्रताथी दोडी सरोवरमा प्रवेशी गयो अने दीर्घकाल सुघी सुखी थयो. उपसंहार हे जंबू ! जे साधु-साध्वी संयम प्राप्त कर्या पछी पांचे इन्द्रियोने गोपवे नहिं, संयमित राखे नहिं, असंयममां प्रवर्तावे ते साधुसाध्वी प्रथम काचबानी जेम आ भवमां पण साधुपुरुषोने गर्हणीय-निंदणीय आचारवालो थई अनेक भवोमां रखडे छे अने दुःखी थाय छे, तेम जे साधु-साध्वी संयम प्राप्त कर्या पछी पांचे इन्द्रियोने गोपवे छे, संयमित राखे छे अने असंयममां प्रवर्तावता नथी अने जितेन्द्रिय थाय छे ते साधु-साध्वी आ भवमां पण साधुपुरुषोथी वखणाय छे, पूजनीय थाय छे तेम उत्तरोत्तर सुखसंपदाओने पामी मोक्षसुखने प्राप्त करे छे. आ रीतिए चोथा अध्ययननो सारांश समाप्त थाय छे. -964 | पंचम - श्रीशैलकाध्ययन - सारांशः । कथाप्रारम्भ - श्रीकृष्णवासुदेव - आ भारतवर्षनी शोभामां अनेरो वधारो करती, बारयोजन लांबी, नवयोजन पहोकी अने जेनी उत्तर पश्चिम दिशामां रैवताचल Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ।। ३६ ।। पर्वत एवी द्वारका नगरीमां त्रणखंडना स्वामी श्रीकृष्णवासुदेव हता, तेओ-समुद्रविजय वगेरे दश दशाहों, बलदेव आदि पांच महान् वीरो, उग्रसेन बिगेरे सोलहजारराजाओ, प्रद्युम्न आदि साडान्रणक्रोडकुमारो, शांब आदि साठ हजारभडवीर योद्धाओ, वीरसेन वगेरे एकवीशहजारसुभटो, महासेन विगेरे छप्पनहजारबलवानलडवैयाओ, ऋक्मिणी विगेरे बत्रीशहजारराणीओ, अनंगसेना आदि हजारो विलासिनीओ वगेरे बृहत् परिवार साथै परम सुखने विलसी रह्या हता. थावच्चात्रनुं वर्णन - तेज द्वारिकामां था वच्चा नामनी परम धनिक शेठाणी रहेती हती, तेणीने सुन्दररूपादिगुणोथी मनोहर थावचा नामनो पुत्र हतो. योग्य वय थये ते पुत्र कलाओ ग्रहण करी व्यवहारनिपुण थयो. हर्षित थयेली माताए एकज दिवसे ३२ कन्याओ साथै परणाव्यो. एक समय द्वारिका नगरीना सीमाप्रान्ते ईशानखूणे शोभता रैवताचल पर्वतनी समीपना नंदनवन विषे सूरप्रिययक्षना मन्दिरमां आवेला अशोकवृक्षनी नीचे चालीसहजारसाध्वी, तथा अढारहजारसाधुओथी परिवरेला श्रीनेमनाथप्रभु समवसर्या छे तेवं श्रवण करी हर्षान्वित थई परिवारसह आडम्बरपूर्वक वंदना करवा माटे कृष्ण महाराजा गया, प्रभुनी देशनामृतनुं पान कयुं. भावच्चापुत्र पण आवात सांभली सपरिवार प्रभु पासे वंदना करवा गयो अने देशनाने श्रवण करी हळुकर्मी एवा थावचाकुमार बैराग्यवासित बनी, मातानी अनुमति लेवा तुरत घरे आव्यो माताए - अनुकूल-प्रतिकूल वचनभंगी द्वारा घणी रीते समजाव्यो छतां पुननी दृढ वैराग्यता जाणी दीक्षा महोत्सव उजववानो पोतानो मनोरथ कह्यो, पुत्रे त्यां सुधी टकवानुं मौनपणे कबुल कर्यु. थावण्यामाता कृष्ण महाराजनी पासे जइ विशिष्ट मेटणु करी राजशाही ठाठपूर्वक दीक्षा आपवा माटे छत्र, चामर वगेरे योग्य सामग्रीनी मागणी करी. सम्यकूत्वथी शुद्ध हृदयी कृष्णनरेशे भरयौवनमां बत्रीशसुन्दरीओने तथा अनर्गल लक्ष्मी - वैभवने तृणनी जेम त्याग परि० ५ पंचम श्रीशैलका ध्ययनसारांशः । ॥ ३६ ॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करता थावण्यापुत्रनी वारंवार अनुमोदना करता तेनो दीक्षा महोत्सव पोतेज उजववा माटे उत्सुकता दर्शावी अने पोते चतुरंग सेना साथै हस्ति उपर बेसी थावच्चापुत्रने घेर आव्या अने थावच्यापुत्रनी दृढता तपासवा मांडी. श्रीकृष्णमहाराजे थावच्चापुत्रनी करेली परीक्षा - हे महानुभाव ! तुं मारी निश्रामां रहे, हुं तने तारे जोइए तेवी भोगसामग्री मेळवी आपुं ! तुं तारी इच्छाप्रमाणे भोग भोगव ! तने कोइ पीडा अथवा मननुं दुःख होय ते मने कछे, हुं ते दुःख दूर करूं । हुं उपरथी जता वायुने रोकवा समर्थ नथी बाकी बची वाते समर्थ लुं ! तुं दीक्षा न लेइश ! आना जवाबमां थावयवापुत्र कहेवा लाग्या के - हे राजन् ! मारा जीवनने अन्तकरवा आवता मृत्यु रोकी शको तथा शरीरना रूपनो विनाश करनारी जराने अटकावी शको तो तमारी निश्रामां तमे कहो छो ते प्रमाणे रहुं अने करूं. थावच्चापुत्रनो आबो स्पष्ट उत्तर श्रवणकरी कृष्णमहाराजे कधुं के - हे देवानुप्रिय ! अति बलवान् देव के दानव कोईनाथी पण आ निवारी शकवा शक्य नथी. फक्त पोताना कर्मना क्षयथीज ते अटकी शके ! आ प्रमाणे कही तेनो दृढ निश्चय जाणी हर्षित थया. थावच्चापुत्रो दीक्षामहोत्सव अने दीक्षा कृष्णमहाराजे आखी द्वारकानगरीमा उद्घोषणा करावी के-" थावखापुत्रनी साथे जे कोइने दीक्षा - संयम प्राप्त करवा उत्सुकता होय, इच्छा होय अने पोतानी पाछलना कुटुंबपरिवारना योगक्षेमनी अगवडताना लीधे पोतानी भावना सफलता न करी शकता होय ते सर्वे दीक्षाना मनोरथवाळाओने कृष्णनरेश तरफथी जणावाय छे के-तेओ सुखेथी दीक्षा अंगीकार करी आत्मकल्याण साधे ! तेमनी पाछलना तमाम परिवारनी मारा पोताना परिवारनी जेम आजीवनपर्यंत कृष्णमहाराजा सारसंभाल राखशे !!! " थावच्चापुत्रविषे Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि०५ पञ्चमश्रीशैलकअध्ययनसारांशः। नवाङ्गी- अनुरागथी एकहजारमनुष्यो दीक्षा लेवा तैयार थवा. कृष्ण नरेशे अतिउत्साहथी एकहजारपुरुषो सह थावच्चापुत्रनो वरघोडो शिबिकामां १० वृ० बेसाडी काढ्यो अने नेमिनाथप्रभु पासे आव्या. दीक्षाना अर्थी थावच्चापुत्रादिए संसारसमुद्रमांथी पार उतारवानी प्रभु पासे मागणी करी. भीज्ञाता-18 | थावच्चापुत्रथी त्याग करातां आमरण-अलंकार वगेरे माता थावच्चाश्रेष्ठिनीए हंसलक्षणवस्त्रवडे गृहण कर्यां अने मोतीना सदृश् आंसुओनी धर्मकथाङ्गे धार छोडती थावच्चापुत्रने हितशिक्षा आपवा लागी के-हे पुत्र ! तमे संयम जीवनमा पराक्रमी थजो ! हे पुत्र ! तमे तमारा आत्म हितमा अप्रमादी थजो! आवा अनेक उत्तम हितशिक्षा स्वरूप आशीर्वादो आप्या. थावच्चापुत्रे एकहजारपुरुषो साथे पंचमुष्टिलोच ॥३७॥ करी प्रवज्या ग्रहण करी. ते वार पछी थावच्चापुत्र अणगार थया, ईर्यासमिति आदिवाला थया. अरिष्टनेमिप्रभुए अभ्यासआदि माटे स्थविरोने सोंप्या. स्थविरो पासेथी चौदपूर्व भण्या अने घणी कठीन तपस्याओ करवा लाग्या. एक समये हजार शिष्यसंपत्सहित विहार करवानी प्रभुपासे आज्ञा मागी अने प्रभुए विचरवानी आज्ञा आपी. ते वार पछी हजार शिष्यो सहित प्रामानुग्राम विचरवा लाग्या. शैलकराजा-थावच्चापुत्रआचार्य विचरता विचरता शेलकपुर नामना नगरना सुभूमिभाग नामना उद्यानमां पधार्या, शेलकपुरनो | राजा शैलक नामनो छे. तेने पद्मावती नामनी राणी छे, मंडुक नामनो युवराज छे, अने पंथक वगेरे पांचसो मन्त्रिओ छे. शैलकराजाथावच्चाआचार्य समोवसर्यानुं श्रवण करी सपरिवार वंदनार्थे आव्यो अने धर्मकथानुं श्रवण कयु. आ वखते घणाओए दीक्षा ग्रहणकरी, शैलक-नरपति संयम ग्रहण करवा शक्तिवान न थवाथी पंचअणुव्रतो वगेरे लई श्रमणोपासक थया अने जीब-अजीव आदि तत्त्वोने भण्या. पंथक वगेरे पांचसो मन्त्रिओ पण श्रमणोपासक थया. सुदर्शनशेठ-थावच्चा चार्य त्यांथी विचरता २ सोगंधिका नामनी नगरीना नीलाशोक नामना उद्यानमां पधार्या. ते नगरीमा घणो | AROSAROKARANA CALCOCCASNAACC |३७॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐॐॐॐॐॐ4% धनान सुदर्शन नामनो मगरशेठ वसे छे. त्यां एक वखत शुकनामनो सांख्यमतनो परिव्राजक एकहजारना परिवार साथे आवेलो. तेनो उपदेश सांभळी सुदर्शनशेठे ते परिव्राजकनो शौचमूल धर्मने अंगीकार को हतो, ते सुदर्शनशेठ थावच्चापुत्रआचार्यने पधारेला जाणी तेमनी देशना सांभळवा गयो अने देशना श्रवण करी देशनान्ते विनीतभावे पूछवा लाग्यो के-हे भगवन् ! आफ्नो धर्म किं मूलक छे! थावच्चाआचार्ये तेना जवाबमा जणाव्यु के-विनयमूलक अमारो धर्म छे. ते विनय पण बे प्रकारनो छे, १ अगारविनय-२ अणगारविनय. १ अगारविनय एटले-पांचमहाव्रत, सात शिक्षात्रत, अग्यार उपासकपडिमाओ. २ अणगारविनय एटले-पांचमहाव्रत, अढार पापस्थानकोनो त्याग, दश प्रकारे पच्चक्खाण अने भिक्षुनी बार प्रतिमाओ. आ बे जातना विनयथी यावत् आठे जातिना कर्मो दूर करी लोकोत्तर-अनुपम मोक्षपदनी प्राप्ति थाय छे. थावच्चापुत्रआचार्ये-सुदर्शनशेठने पूछयु के हे महानुभाव ! तमारो धर्म किं मूलक छे ! सुदर्शनशेठे कयु के-अमारो धर्म शौचमूलक छे, एम कही पोताना धर्मने विस्तारपूर्वक वर्णव्यो, आ सांभळी थावच्चापुत्रआचार्ये तेने जणाव्यु के-हे सुदर्शन ! हुँ एक वात पूर्छ ! के-कोई माणस लोहीथी खरडायेल वस्त्रने लोहीथी धोवे तो शुं ते वन शुद्ध थाय ! सुदर्शने उत्तरमा जणाव्यु के-ना! ना! एतो कदी न बने ! त्यारे थावच्चापुत्रे कयु के तमारो धर्म अढारपापस्थानकोना परिहार विनानो कर्ममलथी खरडायल छे ते आत्माने केवी रीते शुद्ध करनारो थाय ! वगेरे विस्तारथी समजायं. आथी तुरत प्रतिबोध पामेला सुदर्शनशेठे जिनमतनी सद्दहणा स्वीकारी अने परमश्रावक बन्या अने जीवादितत्त्वने पाम्या. सुदर्शनशेठे विनयमूलधर्म स्वीकार्यों छे तेवू जाणी शुकपरिव्राजक सपरिवार त्यां आव्यो अने थोडा शिष्यो सहित सुदर्शनशेठने त्यां गयो पण सुदर्शनशेठे तेनुं सन्मान न कर्यु. आजोई शुकपरिव्राजके पूछयु शेठ तमारी श्रद्धा केम फरी गई ! सुदर्शनशेठे उत्तरमां कछु RECAUSAUGARCARECORRECROCHAK Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |परि०५ नवाजी-16 १०० भीझाताधर्मकथाओं NEHARSA श्रीशैलकअध्ययन | सारांशः। ॥३८॥ में थावश्चापुत्र नामना जैनाचार्यनी पासे जैनधर्म स्वीकार्यो छे वगेरे विस्तृत बीना कही. शुकपरिव्राजके पोताने साथे लई त्यां जवानी मनोकामना दर्शाक तेथी शुकपरिव्राजकनी साथे सुदर्शनशेठ गया. शुकपरिव्राजके थावच्चापुत्रआचार्य साथे विविध प्रश्नोनी छणावटपूर्वक विचारणा करी अने शौचमूलक सांख्यमतनी असारता जाणी तुरत त्रिदंडकनो त्याग कर्यो, पंचमहाव्रत उच्चरी अणगार धर्मनो स्वीकार कर्यो अर्थात् तेओ जैनसाधु थया, गुरु पासे विनयपूर्वक अध्ययन आदि करी चौदपूर्वी थया अने गीतार्थपणे हजार शिष्यो साथे प्रामानुगाम विचरवा लाग्या. -थावच्चापुत्रआचार्य घणा वर्षो सुधी भव्यजीवोने प्रतिबोध करी शत्रूजयगिरि उपर महिनानुं अनशन करी सर्व कर्मनो क्षय करी केवलज्ञान प्राप्त करी मोक्षे पधार्या. एकदा शुकाचार्य हजार शिष्योना परिवार साथे विचरता विचरता शेलकपुर नगरमां सुभूमिभाग नामना उद्यानमां समोवसर्या. द्वादशव्रतधारक श्रमणोपासक शैलकराजा पांचसो मन्त्रीओ आदि परिवारसह वंदना अर्थे आव्या, देशना श्रवण करी भव नेर्वेद थवाथी मंडुकपूत्रने राज्य पर बेसाडी दीक्षा लेवानो विचार कर्यो, महेले आवी पंथक आदि पांचसो मन्त्रीने स्व अभिप्राय जणाव्यो अने पूछयु के तमारो शो अभिप्राय छे ! मन्त्रीओए पोते पण साथे जीवननी सफलता मेलववा चारित्रने अंगीकार करवानो अभिप्राय दर्शाव्यो. त्यारपछी राज्याधिकारीओद्वारा योग्य व्यवस्था करावी मंडुककुमारनो राज्याभिषेक करी बहोळा आडम्बरपूर्वक पांचसो मन्त्रीओ सहित शैलकराजाए शुकाचार्य पासे दीक्षा ग्रहण करी, गीतार्थोनी निश्रामां अग्यार अंग भणी बन्ने प्रकारनी शिक्षा प्राप्त करी RSARKAR ॥३८॥ ा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UNCACICIACCOCOCCU अनुक्रमे गीतार्थ थया. पंथग विगेरे पांचसो शिष्यो साथ-प्रामानुग्राम विहार करता, ज्ञान-ध्यान-संयम वगेरेमा तत्पर रहेता अनेक भव्यजीवोने प्रतिबोधवा लाम्या. शुकाचार्य हजार शिष्योना परिवार साथे पुंडरीकगिरि पर पधारी अनशन स्वीकारी मोक्षे गया. शैलकराजर्षिनी शिथिलता-एक समय शैलकराजर्षिने अन्तप्रान्त-लखा-शुष्क-आहारआदिना कारणे दाहज्वरनो रोग उत्पन्न थयो, किन्तु शरीरविषे ममत्वरहित निष्पतिक्रमता गुणनी दृढता प्राप्त करेला तेओ कोई पण जातनी चिकित्सा करावता नथी. अनुक्रमे विचरता विचरता शैलकपुर विषे पधार्या, त्यां तेमनो सांसारिकपुत्र-मंडुकराजाने तेमना आगमननी खबर पडतां सपरिवार वन्दना करवा आव्यो. धर्मकथा श्रवण कर्या पछी शरीरना रोगनी चिकित्सा कराववानो आग्रह को अने तेनी वैयावच्चादिनो लाभ पोताने आपवा विनंति करी. शैलकाचार्ये तेनी विनंतिनो स्वीकार कयों अने शिष्योना परिवार सहित शैलकपुरनगरमां पधार्या अने यानशालामा उतर्या. राजाना बोलाववाथी आवेला चिकित्सकवैद्योए चिकित्सा करी अने दवा करी तेमा मद्यपान- अनुपान उपदेश्यु. भवितव्यताना योगे शैलकाचार्ये ते प्रमाणे करतां रोगनी शान्ति थई गई अने रोग जवाथी तेम राज्यना आहारादिथी ऋष्ट-पुष्ट थया पण तेमांथी | परिणाम ए आव्यु के तेओ मद्यपान अने राज्यना आहार वगेरेमा अति आसक्त थया तथा शिथिलविहारी थया, अर्थात् त्यांज स्थिरता करी. तेमनी शिथिलता अने आसक्ति जोई पंथकने गुरु भळावी, बाकीना शिष्यो विहार करी गया. पंथकमुनि अनन्य भक्तिपूर्वक गुरुनी साथे रह्या पण स्व आचारमा शिथिलता लाववा दीधी नहीं अने गुरुभक्तिमा तत्पर रखा. EMOCROCHECIROMCAESOCIENCES Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ ३९ ॥ एक समय कार्तिक चौमासीने दिने पण तेओ मद्यादिना नशामा उन्मत्तनी जेम सुतेला छे. - पंथकमुनि देवसिकप्रतिक्रमणना क्षामणा पछी कार्तिक चौमासीना क्षामणा करवा आचार्यने पगे हाथ मूकतां मद्यना घेन साथे आवेली निद्रामां भंग थवाथी आचार्य क्रोधाय - मानथया छतां पंथकमुनि विनीतभावे निद्रामां करेल स्खलनाना बदले क्षमापना करवा लाग्या अने चौमासीना क्षामणानी हकीकत जणावी. शैलराजर्षिनो पश्चात्ताप अने मोक्षमार्गनुं साध भवितव्यताना योगे पंथकमुनिए करेली क्षमापनाए शैलकराजर्षिना अध्यवसाय पलटी गया अने पोतानी शिथिलता आदिनी आत्मसाक्षीए निंदा करवा लाग्या अने पंथकने खमावी उद्यत विहार करवा तन्मय थया अने मंडुकराजाने जणावी वस्ति मळावी उद्य बिहार कर्मों अने प्रमादने दूर करी ग्रामानुग्राम बिचरवा लाग्या . आ श्रवण थवाथी हर्षित थयेला पहेलां शिथिलता जोईने छूटा पडेला शिष्यो पाछा आवीने मल्या. घणा वर्ष संयम पर्याय पाळी स्वशिष्यो सह श्रीपुंडरीकगिरि जइ महीनानुं अनशन करी आठे कर्मो खपावी केवळज्ञान पामी मोक्षे गया. उपसंहार साधु साध्वी प्राप्त थयेला शिथिलतादिदोषोनो त्याग करी शैलकाचार्यनी जेम स्वदोषोनो त्याग करशे ते आत्मकल्याण साधी मोक्षसुखने पामशे ! आ रीतिए पांचमा शैलकराजर्षि अध्ययननो सारांश समाप्त थाय छे. -he परि० ५पश्चम श्रीशैलक अध्ययन सारांशः ॥ ३९ ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ षष्ठ-सुम्बकाध्ययन-सारांशः॥ ते काले, ते समये चरमतीर्थकरप्रभु महावीरदेव एकदा विचरता विचरता राजगृहीनगरमां पधार्या, प्रभुने पधारेला जाणी श्रेणिक-18 राजा सपरिवार वंदना करवा आव्या अने धर्मदेशना श्रवण करी सहु स्व स्व स्थाने गया, ते समये प्रथम गणविभु श्रीगौतम-17 स्वामीजीए प्रभुने विनयपूर्वक वन्दना-नमस्कार करी पूछयु के-हे भगवन् ! जीवो भारे अने हलका शाथी थाय छे ! प्रभुए जणाव्यु | के-हे गौतम ! जेवी रीते कोइ माणस बराबर सुकायेला तुम्बडाने डाभना घासथी वीटी माटीनो लेप करी त्यारबाद तडके सुकवे, अने बरावर सुकाया बाद फरी तेना उपर डाभना घासथी वींटी माटीनो लेप करी बराबर सुकबे, एवी रीते यावत् आठवार लेपादि करवानुं करे त्यारबाद तेने अगाध ऊंडा पाणी विषे तरतु मेले तो ते तुम्बड्डु स्वाभाविक तरवा योग्य वजनवाळु होवा छतां घास अने माटीना लेपोना वजनथी डुबी जाय अर्थात् ते पाणीना तलीए जाय छे, तेज तुम्बडु पाणीमा रहेबाथी भीजाई माटी दूर थवाथी अने वीटळायेल धासना कोहवाइने दूर थवाथी जल उपर तरे छे अर्थात् ए स्व स्वभावथी तरवा मांडे छे. तेवी रीते हे गौतम ! संसारमा रहेला जीवो प्राणातिपातादि अढारपावस्थानकोथी उपार्जेला आठप्रकारना कर्मोना लेपथी भारे । थयेला अगाध संसारसमुद्रमा डुबे छे किन्तु धीमे धीमे धर्मना उत्तम अनुष्ठानोद्वारा आठे कर्मोने दूर करतो हलकापणाने प्राप्त थइ यावत् लोकना अप्रभागे-मोशे पहोंचे छे. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परि०५. सप्तमश्रीरोहिणीअध्ययन| सारांश नवाङ्गी ॥सप्तम-श्रीरोहिणीअध्ययन-सारांशः॥ ... राजगृहीनगरमां धन्यनामे सार्थवाह हतो, तेने भद्रानामनी स्त्री हती, धनपाळ,-धनदेव-धनगोप-धनरक्षित नामना चारपूत्रो श्रीज्ञाता हता, तेओने अनुक्रमे उज्झिता-भोगवती-रक्षिका अने रोहिणी नामनी स्त्रीओ हती. एक समये पोतानी पाकेटवय थवाथी विचार धर्मकथाले । आव्यो के-कोणजाणे क्यारे पक्कथवाथी सुकायेल पान(पत्र)नी जेम हुँ खरी पहुं अने पाछळ आ म्हारुं विशाळ कुटुम्ब व्यवस्था ॥४०॥ विनाना वहीवटो करीने हतविहत न थाय माटे सहु-सहुनी लायकात प्रमाणे नववधुओने कार्योनी वहें चण करीने व्यवस्था करुं जेथी म्हारी मेळवेली आबरु वगेरे सचवाय अने कुटुम्ब-परिवार दुःखी न थाय. आवो विचार करी पूत्रवधूमोनी परीक्षा करवा माटे ज्ञातिबंधुओने बोलावी योग्य सत्कार करीने भोजन आदि करावी पहेरामणी अर्पण करी. सहु स्वजनोनी समक्ष पुत्रवधूओने बोलावी अखण्ड डांगरना पांच पांच दाणाओ भारपूर्वक भलामण करी अर्पण कर्या, अने कयु के-हुं ज्यारे मागुं त्यारे मने आपजो. आवा ससराजीना वचनो श्रवण करी सहु सहुनी योग्यता प्रमाणे तेनो (डांगरना पांच दाणा सबंधनो) विचार कर्यो. प्रथम पूत्रवधूए ससराजी आपे छे माटे आ नजीवी चीज छे छतां लेवी जोइए एम धारी लीधा अने विचार करवा लागी के आटलो समारंभ करी ससराजी कंह अमूल्य वस्तु अर्पशे पण आ तेमने वृद्धावस्थामा शुं सुझ्यु के डांगरना दाणा आप्या, ससराजी | ज्यारे मांगशे त्यारे भरेला डांगरना कोठारमाथी आपी दइश एम करी ते दाणाने कचरामा फेंकी दीधा. बीजी पुत्रवधूए ससराजी वृद्ध छे, माननीय छे, घणा अनुभवी छे. आ तेमनी नानी शी पण प्रासादी छे, आने साचववानी जरुर नथी एम करी पोते वडीलनी प्रासादी धारी खाई गई. OSHOCABBAGESHDCHUCAUGUST 55453 ॥४०॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रीजी पुत्रवधूए पोतानी बुद्धिने दोडावी के लाख्खोनो वेपार करनार, व्यवहारकुशल एवा ससराजीए आवा विशाल समारम्भने योजी विना कारणे कंइ आ दाणा आपे नहीं तेम साचववानी पाकी भलामण पण करे नहीं माटे प्राणनी जेम साचवी राखवा एम बिचारी एक डबीमां राखी बरोबर साचववा लागी. चोथी पुत्रवधू स्वबुद्धिवैभवथी विचार कर्यो के ससराजीनुं आ कार्य बुद्धिनी परीक्षा माटे जरूर होवु जोइए. ते पांचे दाणा पोताना विश्वासु माणसोने बोलावी केटलीक भलामण करी तेमनी द्वाराए पीयरमां मोकल्या. पीयरीया ओए पुत्रीनी भलामण मुजब जुदा खेतरमां वाव्या, अने तेमांथी उत्पन्न थयेला दाणाओने दरवर्षे वारंवार वाववा मांड्या, पांच वर्षे तो ते दाणानो कोठार थयो छे. ज्यारे पांचवर्ष थयां त्यारे धन्यसार्थवाहे विचार करी चारे पुत्रवधूओने सर्वज्ञातिजनोनो पूर्वनी माफक समारम्भ करी बोलावी अने सर्बनी समक्ष ते दाणानी मागणी करी. प्रथम पुत्रवधूर तूरतज कोठारमांथी पांच दाणा लावी ससराजीने अर्पण कर्या, ससराजीए तेने पुछयुं त्यारे पोतानी सत्य हकीकत कही अने कोठारमांथी लाव्यानी जाहेरात करी, शेठे जरा गुस्सो बतावी घरमां वाळवानुं, कचरो साफ करवा विगेरेनुं काम तेने सुप्रत क. बीजी पुत्रवधूए आपनी प्रासादीमानी खाई गई छु, तेम जणान्युं तेने ससराजीए रसोडानो तमाम कारभार सुप्रत कर्यो. श्रीजी पुत्रवधू प्राणनी माफक आपनी प्रासादी मानी ते दाणा साचवी राख्यानुं जणावी रजु कर्या, तेने ससराजीए धरना खजानचीपणाए स्थापी पेढीना पटारा वगेरेनी चावीओ सोंपी. Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाजी परि०५ भीज्ञाताधर्मकथा सप्तमश्रीरोहिणीअध्ययन| सारांशः। + ॥४१॥ चोथी पुत्रवधूए कह्यं के-पिताजी ! म्हारा पीयरे ते पांच दाणा लेवा माटे गाडा मोकलावो. आवा प्रकारना जुवाबथी आश्चर्य पामेला ससराजीए खुलासो पूछयो एटले तेणीए ते पांच दाणाथी भरायेल कोठारोनी विगत जणावी अने तूरत गाडा मोकली मंगाव्या. ससराजीए अतिआनन्दित बनी तेना खुब वखाण करी सर्वजन समक्ष आखा घरनी मुख्य स्वामिनी नीमी अने तेनाज हुकममा बधाने रहेबानी भलामण करी, पोताने पण चोथी पुत्रवधूना प्रतापे आखं कुटुम्ब सुखी थशे एवी खात्री थई. उपसंहार___आवी रीते जे साधु पांचमहाव्रतोने प्रथमवहूनी जेम फेंकी दे छे, दीक्षाने छोडी दे छे ते आभव अने परभवमां दुःखी थाय छे. जे साधु बीजीवहूमी जेम पांचमहानतनो दुन्यवी भोगो मेळववामा उपयोग करे छे, ते पण निंदनीय बने छे अने भव रखडे छे. जे साधु त्रीजी वहूनी जेम महावतोने साचवी राखे छे ते वखाणवा लायक बनी परभवमां सुख पामे छे. जे साधु चोथी बहुनी जेम उत्तरोत्तर संयमगुणनी वृद्धि करी निरतिचार संयम पाळे छे, ते अहिं पण माननीय-पूजनीय थाय छे अने थोडा भवोमा मोक्ष लक्ष्मी पामे छे. + + + + ॥ अष्टम-श्रीमल्लीअध्ययन-सारांशः ॥ हे जंबू ! ते काले अने ते समये जम्बूद्वीप नामना द्वीपमा महाविदेहक्षेत्रमा सलिलावति नामना विजयमां वीतशोका नामनी देवलोकना सदृश नगरी हती, ते नगरीनी बहार इंद्रकुम्भ नामर्नु उद्यान हतुं अने बल नामनो राजा हतो. ते नृपतिना अन्तेपुरीमा ॥४१॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAARCRECCASSAGE धारणी वगेरे १००० एक हजार राणीओ हती. एक समये धारिणी राणीए अर्धजाग्रतअवस्थामा सीहनुं स्वप्नुं जोयुं अने जाग्रत थई, यावत् तेणीने महाबल नामनो पुत्र थयो, युवावस्था प्राप्त थये तेमना मातापिताए पांचसो राजकन्याओ साथे पाणीग्रहण (लम) कयुं तेओ साथे महाबलकुमार सुखानन्द मोगवी रह्यो छे. तेवामां स्थविर महात्माओ इन्द्रकुम्भ उद्यानमा समवसर्या, बलराजा सपरिवार तेमनी वाणी श्रवण करवा पधार्या अने तेमनी वाणी श्रवण करी वैराग्य प्राप्त थवाथी महाबलकुमारने राज्यविषे स्थापन करी दीक्षा ग्रहण करी. अगीआर अंगी थया, घणा वर्षो संयमजीवन पाली चारुपर्वत उपर मासना उपवास करी मोक्षे पधार्या. राज्यसिंहासने विराजेल महाबल राजाने कमलश्री राणीथी बलभद्र नामनो पुत्र थयो तेने युवराजपणे स्थाप्यो, महाबलराजाने | बालमित्र राजाओ-१ अचल २ धरण ३ पूर्ण ४ वसु ५ वेसमण ६ अभिचन्द्र हता आ साते मित्रोए अंदरोअंदर एक साथे संयम ग्रहण करवानुं नक्की करी राखेल, एक समये इन्द्रकुम्भ उद्यानमा स्थविरमहात्माओ पधार्या तेमनी वाणी श्रवणकरी बलभद्रकुमारने राज्यसिंहासने स्थापन करी साते मित्रोए संयम ग्रहण कर्यु. अगीआर अंगना अभ्यासी थया अने घणा वर्षो संयममा गया पछी एकसमये आपणे सातेये एक सरखो तप करवो तेवू नक्की कयु अने विंशस्थानकनी आराधना करवा लाग्या किन्तु कपटथी कईक ब्हान काढी महाबलमुनी महात्मा वधु तप करे छे आथी तेमने स्त्रीनामगोत्रकर्म उपार्जन कर्यु अने विंशस्थानकतपथी तीर्थकरनामकर्म बांध्यु. सीहनिष्क्रीडित नामनो महान् तप सातेय मित्रे कर्यो यावत् बे महिनाना उपवास करी चारुपर्वत उपर अनशन करी कंडक न्यून ACCUCARRORECASTE Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ ४२ ॥ ८४ लक्षवर्षनुं साधुपणुं पाळी ८४ लाखपूर्वनुं आयुष्य पूर्णकरी कालधर्मपामी जयंतनामना विमानमां देवपणे उत्पन्न थया. जयन्त-विमानविषे बत्रीससागरोपमनी उत्कृष्टस्थिति छे. महाबलदेव सिवायना छ मित्रदेवोनुं आयुष्य बत्रीससागरोपममां कंईक न्यून छे अने महाबलदेवनुं आयुष्य बत्रीससागरोपम पूर्ण छे, देवभवनो क्षय थये छते च्यवीने छए जणा सुद्ध माता-पितावाळा वंशोमां जुदाजुदा राजाओने त्यां जन्म्या. मल्लीकुमारीनो जन्म भरतक्षेत्रमां मिथिला नामनी राजधानी छे त्यां कुम्भकनामनो राजा छे, ते राजाने प्रभावती नामनी राणी छे. सदरहु राणीनी कुक्षिविषे हेमंतऋतुना चोथे मासे, आठमापखवाडीए फाल्गुनसुदिचतुर्थिदिने मध्यरात्रिविषे जयन्तविमानथी महाबलदेवनो जीव च्यवी उत्पन्न थयो अर्थात् गर्भपणे उत्पन्न थयो, प्रभावतीराणीने अर्धजाग्रत अवस्थामां चौद महास्वप्नाओ आव्या ( अत्र सविस्तर हकीकत वर्णन वीरप्रभुना वर्णन समान जाणवी ) प्रभावतीदेवीने गर्भना प्रभावे जे जे दोहदो थाय छे, ते ते दोहदो पूर्ण कर्या, नवमास - साडासात दिवस पूर्ण थये छते, हेमंतऋतुना प्रथममासे मागशर सुदि अगीआरसे मध्यरात्रिए अश्विनी नक्षत्रनो योग आव्ये छते निरोगी एवा ओगणीसमा तीर्थंकर श्रीमल्लीनाथने जन्म आप्यो. (अत्र दिग्कुमारीओनो महोत्सव, चोसठ इन्द्रोनु मेरुशिखरपर लइ जवु, नंदीश्वरद्वीपे महिमा करवो वगेरे वीरप्रभुना वर्णन समान जाणवुं ). ते पुत्रीनुं मातापिताए मल्लीकुमारी एवं पवित्र नाम पाड्युं, अनुपम शोभावाली ते कुमारी बालभाव मुक्त थतां योवन - लावण्यथी उत्कृष्टरूप अने शरीरवाळी थइ, कंइक न्यून एवा सो वर्ष थये विपुल एवा अवधिज्ञानथी छए प्रतिबुद्धि यावत् जितशत्रूराजाने उत्पन्न थयेला पूर्वना छये मित्रराजाओने जोया, ते वार छ परि० ५ अष्टमश्रीमल्लीअध्ययन सारांशः । ॥ ४२ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAAGRA असोकवणिकाविषे एक अनेकस्तम्भवाळु मोहनधर कराव्यु अने तेना मध्यभागमा छगर्मघर कराव्यां, ते मोहनधरना मुख्य दरवा| जानी नजीक मोहनघरमा एक मणीपीठिका रचीने ते उपर पोताना सरखा रूप लावण्यवाळी योवनअवस्थाए दीपती मस्तकना भागमा छिद्रवाळी अने उपर सुन्दर कमलोना ढंकणवाळी प्रतिमा करी, ते प्रतिमाना पोलाणमां उपरथी हमेशा सुन्दर एवो आहार नांखी ढंकण बंध करे छे. ज्यारे ज्यारे आहार नाखवा ढांकण खोले छे त्यारे त्यारे मरेलासर्पकरतां पण अनिष्ट गंध नीकले छे. ।१ प्रतिबुद्धि । (१) कौशलदेशविषे साकेत नामनी नगरी छे, त्या प्रतिबुद्धि नामनो इक्ष्वाकुराजा राज्य करता हता, पद्मावती नामनी राणी अने सुबुद्धी नामनो प्रधान हतो. नागपूजानो दिवस आध्ये छते स्वपति प्रतिबुद्धराजाने पद्मादेवी राणीए विनंती करी के-हे स्वामी ! काले नागपूजानो दिवस छे तो आपनी आज्ञाथी त्यां महोत्सवमां आपनी साथे जवा इच्छुछु, राजाए तेनी विनंतिनो स्वीकार कर्यो अने महोत्सवने वधु दीपाचवा माटे अने आववा माटे कुटुम्बिओने जणाव्युं, अने मालीने जणाव्यु के-पंचवर्णना पुष्पोनो अति शोभावाळो दडो अने विविधपकारना चित्रोथी आश्चर्ययुक्त पुष्पनो मंडपने तुं बनाव ! मालीए पण राजानी आज्ञा प्रमाणे बधुंये तैयार कयु. नगरनी अंदर अने वहार सारी रीते विभूषा करावी, प्रतिबुद्धिराजा तथा पद्मावतीराणी सपरिवार अति पवित्र थई आडम्बरसह नागमन्दिरे पधार्या. त्यां योग्य रीते पुजा बिगेरे करी पुष्पमंडपमां पधार्या त्यारे मालिए बनावेलो अतिशोभायुक्त पुष्पनो दडो राणीनो जोई आश्चर्यमय बनेल राजाए प्रधानने पूछ्यु के-हे प्रधानजी ! आ राणीना दडा सरखो कोई जगोए तमे दडो जोयो छे ! प्रधाने उत्तर आपतां जणाब्यु । के-हे राजन् ! हुं ज्यारे आपनी आज्ञाथी-दूतपणाथी मिथिलानगरीए गयो हतो त्यारे कुंभकराजानी पूत्री मल्लीनी पासे जे दडो में ACARECRes Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथा ॥ ४३ ॥ जोगीहतों से दंड आ दडा करतां हजारगुणी तेजस्वी हतो, तेम ते कुमारी पण अंतिरूपलावण्यना तेजथी शोभती हती. प्रतिबुद्धिराजाए दूर्तने बोलावी मल्लीकुमारी मारी साथे वरावे तेंयुं कथन करी कुम्मराजा पास मोकल्या. ते पण मिथिलानगरीमां गयो अने कुम्भराजानी राजसभामा गयो. । २ चन्द्रच्छं । ते काल अने समये अंगदेशमां चंपानामनी नगरी हती. त्यां चन्द्रच्छ नामनो राजा हतो, तें चंपानगरीमां अँरहन्नप्रमुख नाववाणिज्य करनारा वहेपारीओ वसे छे, अरईन्न-धनाढ्य श्रमणोपासक — धावक हतो, ते जौवादितस्वोने जाणनारो धर्मिष्ठ हतो. atra श्रमणोपासकनी परीक्षा अरहन्न श्रावक एक समये घणा नाववाणिज्यना व्हेपारीओने लई अनेक प्रकारनां करी आणानां वाहणो मेरी शुभमुहूर्ते समुद्रनी मुसाफरी करवावाळा धंधा अर्थे जतां सेंकडो गाउ समुद्रनुं उल्लंघन कर्या बाद - अतिउत्पादोने करतो अने अतिभयंकरस्वरूपथी भय उत्पन्न करतो आवतो पिसाच जोइ अरहन्न श्रावक सिवायनां तमाम मनुष्यो भयथी कंपवा लाग्या अने पोतपोताना देवोनुं शरण करवा लाग्या. अरहनश्रावकं ते पिशाचने जोइ अने थता उत्पादौ देखी वहांणना एक मागने वस्त्रयी प्रमार्जी मय पाभ्यो विना हस्तकमल जोडी अरिहंतनुं स्मरण करी ज्यांसुधी आ उपसर्गथी न मुक्त थेवाय त्यांसुधीनुं सांगारिक भक्तपञ्चकखाण करी काउस्सग्गमां रह्यो पिशाच अरहनश्रावकने कहेवा लाग्यो के - हे रहन्न ! हुं शीलवंत - गुणव्रत पापनापश्च खाण अने पोषघउपवासवाळो तु होवाथी चलायमान कराक्षोम पाडवा ने फेंकी देवा विगेरेमा अशक्त छु, परन्तु वे ऑगलीयी वहाणने पकडी आकाशमां घणे ऊंचे उछाळी नीचे परि० ५ ८- श्रीमल्ली अध्ययन सारांशः । ॥ ४३ ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -%AGAR पाडी अनेकवार एम करी तने दुःखीओ करी आध्यान रौद्रध्यानयी असमाधिपणे अकोले नाश करवा समर्थ छै!!!आम कहेवा छतां से अरहन्नने निश्चल देखी पिसाचे अनेक प्रकारना दुःसह उपसर्गो करवा मांड्या अने सन्मार्गमाथी चलायमान करवाना तेना ते बघाये उपसर्गो निष्फल गया त्यारे पोता पिसाचरूप सहरी लई पोतार्नु दिव्यरूप विकुर्वी अरहन्न श्रावकने तेनी निश्चलतानां सौधर्मइन्द्रे करेलांटू वखाण अने पोतानुं ते वखाणर्नु सही न शकवू अने परिक्षा करवा आवq तेम पोताना तमाम प्रयोगोनू निष्फल थयार्नु जणावी विनयपूर्वक वन्दना-नमस्कार करी वारंवार खमावी जैनधर्मनी श्रद्धा करतो अरहनश्रावकने दिव्य वैकुंडलो अर्पण करी पोते अदृश्य थयो. चन्द्रच्छराजाए मोकलेल दुत___अमुकूलवायुना प्रतापे अरहनश्रावक वगेरेना वहाणो मिथिलानगरीए आवी पहोंच्या. त्यांना राजा कुंभ पासे मेटणां लइने गया अने भेटणां सादरसमर्पण करी राज्यने योग्य कुण्डलो मानौ ते दिव्यकुण्डली मेट धों. कुम्भराजाए मल्लीकुमारीने आप्या. तेने ते कुण्डलो पहेरी पाछां आप्यां. खुश थयेला राजाए जगात मुक्त करवाथी अने वेपारनी छूट आपवाथी सारी रीते धंधो करी सर्वे पाछा चम्पानगरी आवी गया. चन्दच्छराजाने योग्य बन्न दिव्यकुण्डलो मेट तरीके अर्पण कयों ते चन्द्रच्छराजाए सादर स्वीकार्यो, अने देशान्तरनां आश्चर्यो पूठ्यां. अरहन्नश्रावके मिथिलानगरीना कुम्भराजानी पुत्री मल्लीकुमारीना आश्चर्यमर्या रूप अने गुणोनुं वर्णन कर्यु. आथी उत्पन्न थयेला आश्चर्ययी तेम रागोत्पत्तिथी कुंभराजा पासे मल्लीकुमारीनुं मागु करवा दूत मोकल्यो. ।३ संप्पी मृपति । ते काल अने ते समये कुणालानामना देशमा सावस्ति नामनी नगरी हती. त्या रुप्पी नामनो राजा राज्य करतो हतो, तेने RANGARAA% Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IA नवाङ्गी१०० भीमाताधर्मकथाङ्गे परि०५ -श्रीमल्लीअध्ययनसारांशः। ॥४४॥ ARRABASAROKAR धारिणी नामनी राणी हती अने सुबाहु नामनी पुत्री हती. चातुर्मासना स्नाननो महोत्सव आव्ये छते सुबाहुकुमारीए महोत्सव उजववा माटे पोतानो विचार रुप्पीराजाने जणाव्यो, रुप्पीराजाए कुटुम्बिपुरुषोने बोलाची सविस्तर महोत्सव उजववानी वात जणावी. अति उत्साहथी महोत्सव उजवता आनंद पामेला राजाए पोताना दूतने पूछ्यु के-वारंवार दूतपणे फरतां तें आवो चातुर्मासना स्नाननो महोत्सव जोयो छे ! दूते जणाव्यु के-हुं एक वखत दूतपणे मिथिलानगरी गयो हतो त्यारे त्यां कुम्भराजानी मल्लीनामनी कुमारीनो जे चौमासी स्नान महोत्सव में जोयेलो तेना लाखमे मागे पण आ नथी. आ श्रवण करी तूरत मल्लीकुमारीने पोतानी साथे वराववानु कहेवा माटे कुम्भराजा पासे दूतने रवाना कयों.. . ।४ संख राजा। ते काल भने समये काशीनामना देशमा वणारसीनगरीमा काशीदेशनो संख नामनो राजा राज्य करतो हतो. मल्लीकुमारीनां दिव्य कुण्डलोनी संघी खुली जवाथी कुंभराजाए सोनीओना समूहने बोलाव्यो अने दिव्यकुण्डलोनी सांधो फरी सांघी आपवा जणावी. सोनी लोको ते कुण्डलो लइ जइने घणा उपायो कयों पण ते सांधो सांधी न शकाइ त्यारे राजा पासे जइ आवां बीजां कुण्डलो हमे करी आपीए पण आनी सांधो हमे सांधी शकीये तेम नथी. आ सांभली कोपायमान थयेला कुम्भराजाए तेओने देशपार कर्या, तेओ पण पोतानी घरवखरी सर्वे लई वणारसीनगरीए गया अने नगरी बहार घरबखरी राखी, संखराजा पासे त्यां वसवानी आज्ञा लेवा गया. संखराजाए देशांतरथी आवेला ते सोनारोने प्रश्न कर्यो के तमोने मिथिलाना राजाए शा माटे हदपार कर्या छे ! आवा प्रकारना प्रश्नना जवाबमां ते सोनीओए कुण्डलनी संधीओनी बीना अने मल्लीकुमारीनुं वर्णन कर्यु. सोनारो पासेथी सांभळेल हकीकतने कारणे संखराजा CALCUSA तीनामना देशमा वणारसीनगीन बोलाव्या अने दिव्याइसा पास जइ आवां बीजधार का, तेल ॥४४॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्लीकुमारी प्रत्ये रागवाळो थयो अने पोतानी साथे तेनुं लग्न थाय तेवुं कहेण करवा शीघ्रताथी पोताना दूतने मिथिलानगरी विषे कुम्भराजा पासे मोकल्यो. । ५ अदीनशत्रू । ते काल अने समये कुरुदेश नामनो देश हतो. तेमां हस्तिनापुरनामनुं नगर हतुं स्यां अदीनशत्रूनामनो राजा राज्य करतो हतो. मिथिलानगरीना राजा कुम्भने मल्लीकुमारीथी लघुवयनो मल्लदीन नामनो युवराज कुमार हतो. एक बखत ते कुमारने गृहउद्यानविषे चित्रसभा चितरावानी प्रबल भावना थह आथी चित्रकारोना समूहने बोलाव्यो अने चित्रसभा चितरवानी आज्ञा करी, सर्वे चित्रकारोए प्रथम भीतरूपपीठिका शुद्ध करी जुदा जुदा प्रकारना रूपो चितरवा लाग्या. आ चित्रकारोमां एक चित्रकारने एवी लब्धि हती के कोह पण वस्तुनो एक अंश देखे एटले आखंय तेनुं रूप पोते आलेखी शके छे. एक वखत ओझलपडदामां रहेली मल्लीकुमारीना पगनो अंगुठो तेना जोवामां आवतां तेना रूप प्रमाणेनुं चित्र आलेखवानो भाव थयो आथी तेनुं आबेहुब रूप चितर्यु. चित्रकाम सर्वे पुरुं थया पछी कार्य समाप्त थयानी जाण मल्लदिनने चित्रकारोए करी, हर्षित बनेला मल्लदिन्नयुबराजे सर्व राज्यपरिवार सहित चित्रसभा जोवा मांडी, जेम जेम जुवे छे तेम तेम आनन्दनी वृद्धि थाय छे. आगल जतां चित्रेली मल्लीकुमारीने आबेहुब जोतां अनेक विकल्प करतां आ मारी वडील बहेन मल्लीकुमारीनुंज चित्र छे तेवुं मनमां नक्की करी अति कोप पामेला युवराजे ते चित्रकारनो वध करवानो हुकम कर्यो. चित्रकारनो वध थवानो आदेश थयानी वात बीजा चित्रकारोए सांभळी तेथी मेटं लई युवराज पासे सदर हु चित्रकारनी लब्धिनी हकीकत जणावी अने वध सिवायनो दंड-सजा करवानी विनंति करी, युवराजे तेनो अंगुठो छेदवो अने हदपार करवो आबो हुकम Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R नवाङ्गी- को. अंगूठाना छेदन पामेली ते चित्रकार पोतानी घरवखरी सर्वे लई कुरुदेशमा हस्तिनापुरनगरविषे आव्यो अने पोतानो सर्वे सामान परि०५ १०. नगर बहार राखी अदीनशत्रू राजा पासे आवी वसवानी रजी आपवा विनंति करी. Fle-श्रीमल्लीभीज्ञाता-18 ___अदीनशत्रु राजाए तेने पूछयु के तमने मल्लदिन्नयुवराजे कया गुन्हाथी देशपार कर्या ! आवा प्रश्नना जवाचा त्यां बनेल सर्व अध्ययनधर्मकथाङ्गे वृत्तांत को अने पोते फरीथी एक पाटीआ उपर चीतरेली मल्लीकुमारीनुं दृश्य बताव्युं अने ते पाटीउ राजाने मेट कयु. मल्लीकुमारीना सारांशः। रूपने जोइ मोहित थयेला अदीनशत्रुराजाए तेनी साथै परणवानो मनसूबो करी ते मागु करवा पोताना दूतने मिथिलानगरी विषे | ॥४५॥ कुम्भराजा पासे रवाना कयों. ।६ जितशत्रू राजा। ते काल अने समये पंचाल देशमा कांपिस्यपुरनामनी राजधानी विषे जितशत्रू नामनो राजा राज्य करतो हतो तेने धारिणी आदि एकहजार राणीओनुं अंतेउर हतुं. मिथिलानगरीमा चोक्खा नामनी परिवाजिका आवी छे ते ऋग्वेद आदिमां पारंगत छे. अनेक क्षत्रियो अने श्रेष्ठिओ आगल | पोताना शोचमूल धर्मने उपदेशे छे, एक वखत ते परिव्राजिका पोताना सामान्य परिवारने साथे लेइ राजमहेले गइ अने ज्यां मल्लीकुमारी छे त्यां गइ. मल्लीकुमारी आगल पोतानो धर्म अने तेनु फल सविस्तर प्ररूप्या, त्यारे मल्लीकुमारीए तेणीने प्रश्न कर्यो के-हे चोक्खा ! लोहीथी खरडायेल बस्न लोहीथी घोवामां आवे तो ते शुं धोवाय ! शुद्ध थाय ! चोक्खा परिब्राजिकाए जणाव्यु के शुद्ध न थाच तेम ते वस्त्र तेवी रीते धोवाय पंण नहीं. त्यार पछी मल्लीकुमारीए तेने जणाव्यु के-प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनथी मलिन -C4 CALARISHNA ॥४५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * % % 100% थथल तारा शीचधर्मथौ तेवी रीते आत्मा शुद्ध थइ शके नहीं! आ प्रमाणेना जणावाथी शंकित थयेली चोक्खा परिव्रांजिका कई पण जवाब न आपी शकी अने मौन रही, आथी मल्लीकुमारीनी | दासीओ अनेक-अनेकप्रकारे तेनी हांसी करवा लागवाथी क्रोधथी धमधमती त्यार्थी ते निकली गामानुगाम फरती कांपिल्यपुरनगरमा आवी अने जितशत्रू राजा आगल शोचमूलधर्मनी प्ररूपणा करी राज्य अने अन्तेपुरीनी कुशलतानो वृत्तांत पूछ्यो. जितशत्रू राजाए कुशलता जणावी. अने पूछयु के-तमे घणा गामो नगरो वगेरेमा फरतां मारा जेवो स्त्रीओनो रूपवंतपरिवार कोइनो जोयो छे ! आवा प्रश्नंना जवाबमां जितशत्रू राजाने कुवाना देडका समान तेनी अन्तेउरी जणावी मल्लीकुमारीना एक पगना अंगूठानारूपना लाखमा भागे पण तारी कोइ राणीनु रूप नथी, आम कही ते परिव्राजिका गइ. आथी आश्चर्यने पामेला जितशत्रूराजाए पोतानी साथे लग्न करवानी कबूलात माटे पोताना दूतने मिथिलानगरीए कुम्भराजा पासे मोकल्यो. जितशत्रू वगेरे छए राजाओना दूतो मिथिलानगरीनी बहारना उद्यानमा आवी पोतपोताना तंबुओमां उतर्या पछी ज्यां कुम्भराजानी राजसभा छे त्यां गया अने बे हाथ जोडी विनयपूर्वक छए दूतोए पोतपोताना राजाओंनी वात जणावी, आ श्रवण करी अति कोपायमान थयेला कुम्भराजाए छए दूतोनो तिरस्कार को अने अपमान करी पाछले दरवाजेथी काढी मूक्या. अपमानित थयेला दूतोए पोताना स्थाने जई रूबरूमा पोताना अपमानो वगेरेनुं निवेदन पोतपोताना नृपतिने जणाव्यु. आ सांभळी छए राजाओए सलाह करी एकी साथे कुम्भराजा साथे युद्ध करी अपमाननो बदलो लेवा ठराव्यु. छए राजाओ युद्ध करवा माटे प्रयाण करी मिथिला राज्यना सीमाडे आव्या. HIREC%20%ASS A5 COST Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी | परि० ५ -श्रीमल्लीअध्ययन| सारांशः। श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे RECECAUC4%AE ॥४६॥ कुम्भराजा पण युद्ध करवा माटे सन्मुख आव्यो अने युद्ध चाल्यु. छए राजाओना सामटा हल्लाथी हताहत थयेल कुम्भराजाए मिथिलाना दरवाजा बंध करावी दीधा. आथी छए राजाओए घेरो धाल्यो, कुम्भराजा तेओना घणा प्रकारे छिद्रोने जुवे छे पण छिद्र न प्राप्त थवाथी चिन्तातुर अवस्थामा एक वखत बेठा छे एवामां मल्लीकुमारी पिताजी पासे आवी विनीतभावे उभी रहेवा छतां चिन्ताग्रस्त अवस्थाना प्रतापे कुम्भराजाए आव्यानुं जाण्यु नहीं, मल्लीकुमारीए आवी अवस्था माटे पिताजीने प्रश्न कर्यो आथी आघन्त वृत्तान्त तेणीने नृपतिए कह्यो, मल्लीकुमारीए निर्भय थवानुं जणावी छए राजाओ पासे जुदा जुदा छुपी रीते दूतने मोकलो अने तमने आपशु एम कही गुप्तमागें प्रवेश करावो अने दरवाजा बन्ध छे तेमने तेम रहेवा द्यो, मल्लीकुमारीनी सलाहथी कुम्भराजाए तेम कराव्यु अने छए राजाने तेवी रीते प्रवेश कराव्यो.. पूर्वे ओझल-पडदामा राखेली सुवर्णमय-मस्तके छिद्रवाळी अने तेना पर कमलोना ढांकणवाळी प्रतिमाने आ मल्लीकुमारी छे एम धारी एकी नजरे जोता छतां उभा रह्या छे एवामा स्नान आदिथी पवित्र बनी तमाम अलंकारो पहेरेली घणी एवी दासीओथी परिवरेली मल्ली त्यां आवी अने प्रतिमा उपरर्नु कमलोनू ढांकण दूर कयु, ढांकण दूर था मरेला सर्प करतां पण अधिकतर दुर्गन्ध निकलवाथी छए राजाओ पराकमुख थया अने उत्तरीयवस्थी नाक बन्ध कर्या. ___ मल्लीकुमारी, जितशत्रुराजा वगेरेने पूछवा लागी के उत्तरीय वस्त्रथी नाक बन्ध करी परागमुखबाळा केम थया ! आ प्रश्नना उचरमां तेओ कहेवा लाग्या के-आ अशुभ गन्धथी अमे आम थया छीए । मल्ली कहेवा लागी के-आ प्रतिमामां ताजां अने मनोहर आहारादिनो पिण्ड हमेशां नाखतां आवा अशुभ परिणामवाळा पुद्गलो थई जाय छे, तो आ औदारिक शरीर-खेलाश्रव, वंताश्रव, %EOCRACK ॥४६॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिताश्रव, शुक्र-लोही- पूताश्रव, खराब श्वासोश्वास अने पेसाब झाडाथी भरेलं अने सडेला धर्मवाळु केवा परिणामवालुं हशे ! आवा मनुष्य सम्बन्धी कामभोगमां आसक्ति न करो ! वळी आधी श्रीजा भवमां अपरविदेहमां सलिलावतिनामना विजयविषे वितशोक नामनी राजधानीमां महाबल वगेरे साते आपणे बालमित्र राजाओ हता, साथै दीक्षा लीधी हती, अने में मायाए करी स्त्री नामगोत्र कर्म बांधेलं, ते भवमांथी काळ करी आपणे सातेय देवलोकमां जयंत नामना विमानमां उत्पन्न थयेला, त्यांथी च्यवीने आ जम्बूद्वीपमां उत्पन्न थया छीए तेनुं तमने विस्मरण केम थयुं छे ! आ प्रमाणे मल्ली पासेथी श्रवण करी शुभ परिणाम, शुभ अध्यवसाय अने शुद्ध श्यावाळा परिणामथी तथाप्रकारना आवरणो दूर थये जातिस्मरणज्ञान उत्पन्न थयुं. आधी मल्लीए कथन करेली हकीकत बरोबर छे तेवो निश्चय थयो. अरहामल्लीए तेमने तथाप्रकारनं जातिस्मरणज्ञान थयेलं जाणी दरवाजा खुल्ला करावी दीघा. अरहामल्लीए छए राजाओने हुं संयम ग्रहण करीश ! तमारी शुं इच्छा छे ! छए राजाओए जणान्युं के अमे पण संसारभयथी उद्वेग पामेला मोटा पूत्रोने राज्य विषे स्थापन करी दीक्षाने तमारी पासे ग्रहण करीशुं. छए राजाओ कुम्भराजाने पगे पढ्या, कुंभराजाए तेओनो योग्य सत्कार करी विसर्जन कर्या. अरहामल्लीए संवत्सरीदान ( वीर चरित्र प्रमाणे बधुंये वर्णन अहिं जाणवुं फक्त एमां मिथिलानगरी, कुम्भराजा अने मल्ली अरहानुं नाम तेमां जोडी देवुं, आगळ पण तेवुं वर्णन हशे त्यां वीरवर्णननी जेम अहिं जाणवुं तेवुं सूचन थाय त्यां पण आवी रीते नामो फेरफार करी वांचवुं ) दीधुं. लोकान्तिदेवोए तीर्थ प्रवर्ताववा विनंती करी अने जेवी रीते आव्या तेवी रीते गया. ( अत्र वर्णन बीरप्रभुनी जेम जाणवुं ) मल्लीअरहाए दीक्षा माटे मातापिता पासे आज्ञा मागी अने मली. तेमने अभिषेक आदि करी मनोरमा नामनी शिबिकामां बेसाड्या ( अत्र इन्द्रोनुं आववु, शिबिकानुं प्रवेशवं वगैरे वर्णन वीरप्रभुनी जेम जाणवुं ) यावत् दीक्षानो वरघोडो Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१० वृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥४७॥ निकळ्यो अने सहस्राम्बवन नामना उद्यानमा अशोकवृक्ष नीचे शिबिका उतारी, अरहामल्लीए सर्व अलंकार उतार्या अने पंचमुष्टि लोच दि परि०५ कयों यावत् णमोत्थुण सिद्धाणं कही सर्वसामायिकने उच्चयु. ( अत्र पण वीरप्रभुनी जेम जाणवू ) आ समये तेओने चोथु मनःपर्याय- alk-श्रीमल्लीज्ञान उत्पन्न थयु, मल्लीअरहाए जे हेमन्तऋतुनो बीजो मास चोथु पखवाडीयुं एटले पोषसुदिमां अगीआरसना दीने अश्विनी नक्षत्रनो अध्ययनयोग आव्ये छते पूर्वाहकालना समये दीक्षा ग्रहण करी, त्रणसों स्त्रीओनी अभ्यन्तरपर्षदा, अने त्रणसो पुरुषोनी बाह्यपर्षदाए तेमनी सारांश साथे दीक्षा लीधी हती, त्यारबाद आठ राजकुमारोए दीक्षा लीधी, अरहामल्लीने तेज दिवसे पूर्वावरण्यकालसमये अनंत एवं केवलज्ञानदर्शन उत्पन्न थयु. त्यारबाद जितशत्रू वगेरे छए राजाए संयम ग्रहण कर्यु, कुम्भराजार श्रावकधर्म अंगीकार को. अरहामल्लीने भिषग् वगेरे अठ्ठावीस गणधरो, चोत्रीसहजार श्रमणी, बंधुमति वगेरे पंचावनहजार साध्वीओ, एकलाखचौरासीहजार श्रमणोपासको, त्रणलाखपांसठहजार श्रमणोपासिका, सोलसो चौदपुर्वीओ, बेहजार अवधिज्ञानीओ अने बत्रीसो केवलज्ञानीओनी संपदा हती. ____ अरहामल्ली समेतशैलशिखरविषे पादोपगमनयुक्त, सो वर्ष गृहस्थावस्था अने चोपनहजारनवसो वर्षनो केवलिपर्याय एम करी पंचावनहजारवें संपूर्ण आयुष्य करी उनाळानो प्रथममास बीजुं पखवाडीउं एटले चैत्रसुदिनी चोथनी रात्रिविषे भरणिनक्षत्र आव्ये छते मध्यरात्रिए पांचसो स्त्रीओनी अभ्यन्तरपर्षदा अने पांचसो अणगारोनी बाह्यपर्षदा सहित मासना उपवास करी मोक्षे सीधाव्या (अत्र निर्वाण महिमा वीरप्रभुनी जेम जाणवो) श्रमणभगवन्तमहावीरे कहेल ज्ञातासूत्रना आठमा अध्ययननो सारांश परम पूज्य आचार्यदेव श्रीचन्द्रसागरमरिजीनी पुण्यनिश्राए शुभ आशीर्वाद पामी वेरावळबन्दरे मुनिश्रीचन्दनसागरे वि. सं. २००८ पोषवदी द्वितीयावासरे समाप्त कर्यो. ॥ एवं ज्ञातासूत्र धर्मकथाले प्रथमविभागस्य अष्टाध्ययनस्य सारांश समाप्तः ॥ ॥४७॥ SALESEARCANARAS Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4%AA । शाश्वतानन्ददायक-सकलमत्रतन्त्रयन्त्राधिराजराजेश्वर-श्रीसिद्धचक्रेभ्यो नमो नमः । सकलसमोहितपूरक-धीशद्वेश्वरपाश्चमाथी विजयतेतमीम् । । सूत्रकृतणघरेभ्यो नमः । ॥ ज्ञाताधर्मकथोङ्ग-प्रस्तावना ॥ - मनिषजीवनी महचा अनादि अनंतकालयों परिग्रमण करनारा जीवोने जन्म-जरा-मरण-दुःख-दरिद्रता-दौंग्यि-आधि-व्याधि-उपाधि आदि अनेकविध दुःखदायि-मवचक्रनी परेपरामा मानवजीवन मलव॑ ते दुर्लभ छे. औं दुर्लभताने दशदृष्टान्तोथीं शास्त्रकारोए ठाम ठाम द्रढीमूत करेली छे, ते दशद्रष्टान्ती श्रीउपदेशपदादिप्रन्थोद्वारा अभ्यासकीने वधु स्पष्ट थाय छे. जुगारखानामां जुगारीओना | दोवनी जेम अनेक जीवीने अनेक दावे प्रसंगों निष्फल जाय छे, तेवी रीते आ जीवने चारे गतिमां चोराशी लाख जीवायोनीमां मटेकतां मनुष्यजीवनने अनुसरतुं आयुष्य बांधवानों दाव अनेक वखत निष्फल गयो छे, अने जाय छे. अत्र याद राखq जोइए के तथामन्यता-पुरुषार्थ-पुण्यादिनी अनुकूलताना प्रभावे कषायोनी मन्दता, दान देवानी रुची अने मध्यम गुणोनी प्राप्ति करीने A%AA8%88%% Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाजी खाताधर्म वृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाले | कथाङ्गप्रस्तावना। ॥४८॥ ARRIERCE कदाच कोइ जीव मनुष्यना आयुष्यनो बन्ध विगेरे बांधीने मनुष्य थाय छे, परन्तु मानवजीवनने सफल करवानां साधन-सामग्रीसंयोगो प्राप्त करवां ते अतीव दुर्लभ छ, आथी शास्त्रकारो जणावे छ के-सानुकूल साधन-सामग्री-संयोगो प्राप्त थया छतां ते सर्वेने सफलीभूत बनावीने शासनमान्यरीतिए मानवजीवन सफल करवू एज मानवजीवन पाम्यानी महत्ता छ. पवित्र पुण्यनो प्रवाह अस्खलित जेना जीवनमा वह्या करे छे तेज महानुभावो आर्यदेश, उत्तमकुल, उत्तमज्ञाति, दीर्घआयुष्य, निरोगिशरीर, इन्द्रियोनी पूर्णता-पटुता, देवगुरुधर्मनी जोगवाई, वीतरागवाणीनुं श्रवण, विवेक अने विनयादि गुणगण संपदाओने प्राप्त करी शके छे, अन्यथा नहिं, एटलं ज नहिं पण प्राप्त थयेल सानुकूल संयोग-साधन-सामग्रीओद्वारा मोक्षमार्गनुं गमन अस्खलित थयां करे तेवी रीते तेने सफलीभूत बनाववी तेमा ज मानवजीवननी महत्ता साथे विशिष्ट बुद्धिमत्ता छे. भवणनी आवश्यकता मानवजीवननी महत्ता समजनारे अफर निर्णय करवो घटे छे के-“वीर्योल्लासपूर्वक संयममार्गे कूच कर्या विना अने विविध तपोधर्मने सेव्या विना मनुष्यजीवनना अंतिमसाध्यनी सिद्धि कोई पण जीवे करी नथी, करतो नथी; अने करशे पण नहींज." संयममार्गे कूच करनारने तथा विविध तपो धर्मनु सेवन करनारने सम्यक्ज्ञाननी अनिवार्य जरूर छे. कारणके ए त्रणेना ( सम्यज्ञान संयम-तपोधर्मना) सिवाय शासनकथित-मोक्ष थतोज नथी, जे माटे चौदपूर्वधर-श्रुतकेवलि-भगवान्-श्रीभद्रबाहुस्वामिजी जणावे छेनाणं पयासगं सोहओ, तबो संजमो अगुत्तिधरी। तिण्हंपि समायोगे मुक्खो, जिनशासणे भणिओ ॥ आ०नि० गाथा ॥ भावार्थ:-शासनमान्यमार्गने प्रकाश करनारुं ज्ञान, अनादि अनंतकालयी संचित करेलां कर्मने शोधक-कर्ममलने दूरनारो AE%AAAAE%ES Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LEC%% तपोधर्म, अने संवरभावने धारण करवावाळो संजम ए त्रण जे जीवने शासनमान्य मर्यादापूर्वक प्राप्त थाय छे त्यारे जिनेश्वरभगवंतना शासनमा कथन करेलो मोक्ष थयो एम कहेवाय छे. अंतिम साध्यनी सिद्धि करनारने संयम-तपोधर्मने स्वीकार्या छतां सम्यग्ज्ञान वयर अथवा तो सम्यग्ज्ञानी भगवन्तनी निश्रा स्वीकार्या विना इष्टफलनी प्राप्ति थतीज नथी. “आश्रवना अनेक द्वारोथी आवतां कर्मोने रोकवा माटे संवररूप संयमनी सेवना अने अन्मदि अनंतकालथी भेगां करेलां क्लिष्टकोने निर्मूलन करवा माटे अमोघसाधनरूप तपोधर्मनी आराधना वगरनुं जीवन निरर्थक छे, निरर्थक नहिं पण अनर्थकारी छे. " आ श्रद्धा थकी, आ प्रतीति थवी अने आवीज रुचीना रंगमा रंगाइ जवु-ओतप्रोत थर्बु ते वीतराय वाणीना अवम उपर आधार राखे छे. अत एव मनुष्यमां वास्तविक-मनुष्यपणा तरीकेनी माणसाई आविर्भाव करवा माटे अने श्रद्धादि मुणोने विकस्वर करवा माटे वीतरागप्रणीत श्रवणनी अनिवार्य जरुर छे. "चचारि परमंगाणि, दुल्लहाणि इह जंतणो माणुसत्तं० इति उत्तराध्ययने"-चउरङ्गाध्ययने । भावार्थः-आ पद्यनो भावार्थ आ प्रमाणे छे-अब संसारमा परिभ्रमण करनारा जीकोने आ चार उस्कृष्ट साधनो प्राप्त करवा ते दुर्लभ छे. १ मनुष्यपणुं, २ श्रवण, ३ श्रद्धा अने ४ वीर्योल्लासनी वृद्धिपूर्वक संयमनु सेक्न. आधी मनुष्यपणामा उच्च-उच्चतम-उच्चतम पदनी प्राप्ति अर्थे आत्महितकर संस्कारशून्यात्माने संयमादिची सौरमथी सुवासिक राख्वामा सशकथित वाणीना श्रवणमनन-परिशीलननी अवश्यमेव जरूर छे. समर्थवक्तानो योग अनेक पल्चर साथे मिश्रित क्येल हीरानी खाणग्रंथी नीकळे होशे मुगटयां जली शकस्तो नयी, सोनानी खाममांकी नीकळेल, Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ ४९ ॥ मी साधेनुं सुवर्ण अलंकारने योग्य बनी शकतुं नथी, बजारमांथी वेचातां लावेल शाक- अनाजनो भोज्य तरीके भोगवटो करी शकतो नथी, तेवी रीते माताना गर्भमांथी जन्मेलो बालक स्व-पर जीवन माटेनी योग्यता धरावी शकतो नथी. स्वच्छ हीरा साथे मिश्रित • पत्थरा माटी विगेरेने विवेकपूर्वक दूर कर्या विना, शाकादिना सडेला भागो अने दींटा वगेरेने विवेकपूर्वक दूर कर्या सिवाय, अने 1. अनाज साथेना माटी - कांकरा - तणखलां-फोतरां-सडेल दाणा विगेरेने विवेकपूर्वक दूर कर्या विना क्रमशः शोभाववा तरीकेनो अने भोगवा माटेनो उपयोग थवो ए लगभग नकामो छे, तेवी रीते जन्मेला बालकने समर्थ वक्ताना योग साधे वीतरागनी वाणीना श्रवण-मनन- परिशीलनथी हेय-उपादेयरूप पवित्र संस्कारोथी संस्कारिक थवानी साथै विशिष्ट विवेकने वर्तनमां मूक्या वगर मलिन संस्कारो दूर थतां नथी, अने जीवनमां स्वपर हितकर संस्कारो आविर्भाव थतां नथी. समर्थवताना समागममां आव्या सिवाय श्रद्धालु श्रोताओ कल्याणकारी मार्गमां अविरत कूच करी शकतोज नथी. व्यवहारमां पण जेवी रीते हुंशियार कारीगरना हाथमां आवेल निर्माल्य वस्तु अमोघ मूल्यवाळी बने छे, तेवीरीते समर्थ वक्ता तीर्थंकर गणधर - पूर्वघर श्रमणादि भगवंतो पण नीच-नीचतरनीचतम उत्थानमा रहेला जीवोने उच्च उच्चतर उच्चतम स्थान प्राप्त करावे छे. आथीज “ श्राद्धश्रोता ० " वीतरागस्तोत्रना आ पद्यनो परमार्थ अत्र सफलभूत बने छे. सर्वज्ञकथित उपदेशामृतनुं आस्वादन करावनार शासनमान्य श्रमण भगवन्तोनो योग मले छे त्यारे आत्मा अनादिकालनी रखडपट्टीना प्रभावे करेला अनेकानेक जन्म-मरणरूप अनंतभवोनी परंपरानुं नियमन करवाने भाग्यशाली बने छे. अनंतानन्त जन्ममरणनी परंपराने भोगवनारा तीर्थंकरोने पण मर्यादित भवोनुं नियमन करावनार पण श्रमण भगवन्तोना योगनोसमागमनो प्रभाव छे. प्रस्तावना समर्थ वानो योग । ॥ ४९ ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %ACHALEGAROO नयसारने अने धनासार्थवाहने अनुक्रमे २७-१३ तेरभवनी नियमित मर्यादा पर लावनारा श्रमणभगवंतरूप समर्थवक्तानो योग लाभदायी नीवव्यो छे, समर्थवक्तास्वरूप श्रमणभगवन्तोनी अने श्रद्धालु एवा श्रोताओनी परंपरा पण अनादिकालनी छे, ते 15|| मान्या वगर छूटको नथी. ते माटे सूत्रकृताङ्ग भा. १ लानी प्रस्तावनामा १ उपदेशक प्रथम के उपदेश प्रथम !, २ उपदेशकपणानी योग्यतावाला तीर्थकर, अने ३ उपदेशक तथा उपदेश पण अनादिना, आत्रण पेरेयाक पृ. ६-७वांचकोऐ वाचवा-विचारवानी जरुर छे. आथी शासनसंस्थापक श्रीवर्द्धमानस्वामीजीन जीवन स्मृतिपथमा स्थिर थाय छे.. . आधसदुपदेशक शासनमान्यप्रणालिका प्रमाणे अनन्तानन्त चोवीशीओ थयेली छे अने भाविमा थशे, तेथी दरेक दरेक चोवीशीमां ते ते शासनना आधसदुपदेशक तरीके ते ते तीर्थंकरोनेज मानी शकाय. शासननी स्थापनामा अर्थात् गणधरभगवन्तोनी गणधरपदे स्थापनामां अने चतुर्विधसंपनी स्थापनामा विश्ववन्ध तीर्थकरोनो महान् हिस्सो छे. “हुं पाम्यो ते रीतिए जगत्ना जीवो म्हारी विद्यमानतामा अने म्हारो मोक्ष थया पछी पण तेज रीतिने अनुसरवावाळा नीवो पामता रहे ते माटे आ शासननी स्थापना तेओश्री करे छे. तीर्थकरनामकर्मनो वास्तविक पुण्योदय तो गर्भथी शरु छे, पण तीर्थकरनामकर्मनी वास्तविक प्रवृति तो केवलज्ञाननी प्राप्ति | थया पछी शरु थाय छे. ____ जगत्ना जीवोने सदुपदेशद्वाराए तारवानी अने शासनरसिक बनाववानी भावनाथी जे तीर्थकरनामकर्म बांध्यु छे, तेनी । वास्तविक प्रवृत्ति २८ वर्ष समय उपरांतनी लगभग छे. साथे साथे शासनमर्यादा पण समजी लेवानी जरुर छे के-च्हाय जेटलो SECORKSHARABAR A5% Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना आद्यसदु पदेशक। % नवाङ्गी-ता सदुपदेशथी लाभ थवानो होय परन्तु तीर्थंकरो कैवल्यज्ञान पामीनेज उपदेश दई शके छे, अन्यथा सदुपदेशक तरीके सदुपदेश [ १०. देवानुं पारमार्थिक कार्य पण करताज नथी. आ प्रसंगने सूत्रकृतांगना प्रथम भागनी प्रस्तावनामां विस्तारपूर्वक आलेखेल छे... भीबाता- आद्यसंचालकधर्मकथाङ्गे वर्तमानशासननी स्थापना करनार श्रीवर्द्धमानस्वामीने वैशाखसुद १० ना दिवसे ऋजुवालिकानदीना किनारे केवलज्ञान थयु. | केवलज्ञानी श्रीवर्द्धमानस्वामीए तीर्थकरनामकर्मनी वास्तविकप्रतिरूप देशना दीधी, अने ते देशनानुं शासनमान्य फल बेसबुं ॥५०॥ जोईए ते न बेहुं तेथी ते देशना निष्फल गई, बीजे दिवसे एटले वैशाखसुदि ११ ना दिवसे प्रभु विहार करीने महसेन वनमा गया, समक्सरणनी रचना थया बाद चौदशो चुम्मालीश साथे अप्रेसर अगीआर ब्राह्मणो( इन्द्रभूति विगेरे ब्राह्मणो )नु आवq थयुं, वेदना पारंगत ते ब्राह्मणोने रही गयेली शंकानुं समाधान थतां तेओ बधा विश्ववन्यप्रभु पासे अनुक्रमे दीक्षा ग्रहण करे छे. दीक्षित थयेला अगीआर अग्रेसरो शासनमान्य विधि प्रमाणे अनुक्रमे तेओ " उपन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा;" आ त्रिपदी पामीने अन्तमुहूर्तमा द्वादशाङ्गीनी रचना करे छे, अने प्रभु चतुर्विधसंघनी स्थापना करे छे. शासननु संचालन कार्य श्रुतज्ञानने अवलंबीने छे, अने तेथी शासन संचालनमा पंचमगणधरभगवंत तथा तेओश्रीनी द्वादशांगी मुख्य भाग भजवे छे ते भूलवा जेवू नथी. वर्तमान-शासनपति-श्रीमहावीरमहाराजाना समयमां नवगणधरो केवलज्ञान पामीने मोक्षे जवानी तैयारीमा हता त्यारे ते बधाए पोताना सघलाए परिवारने दीर्घायुषी-पञ्चमगणधर भगवन्त श्रीसुधर्मास्वामीने सुपरत कों, अने शासनपतिना कालधर्म पछी ( मोक्षे गया पछी) प्रथम गणधर श्रीइन्द्रभूतिए( गौतमे) पण कालधर्म पाभीने पोताना सधळाए परिवारने पण पक्षमागणधस्ने सुपरत कर्यो. CRECORRC-13 A5 % Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4. 4 CK % % 4% आधी श्रीमहावीस्महाराजाना समयची अने कालधर्म पाम्या पछी पण सर्व साधु-साध्वीओ तेओभीमा सन्तानीयापणे वर्ने छ ए शास्वप्रसिद्ध वात छे. एटलं ज नहिं पण दशगणधरो मोक्षे गया पछी शासनमा तेओश्रीनी ( पञ्चमगणधर श्रीसुधर्मास्वामीनी ) द्वादशाङ्गी प्रवर्ती छे-के जेना प्रभावे २४७८ वर्षना व्हाणां वही गयां अने लयभग हजु बीजां अढार हजार उपरान्तना व्हाणां वावां बाकी छे, छतां पण पू. आचार्य भगवन्तो वर्तमानमा स्वपरकल्याणार्थे ते द्वादसंगीना सूत्रादिनी अमोघ वर्षा वर्षाकी रह्या छे अने वर्षावशे ते बधो प्रताप पंचमगणधरभगवंतनी द्वादशांगीनो छे. मोक्षमार्गना अभिलाषी साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाए स्वपरहितकर मोक्षमार्गनी आराधनामां अस्खलितगमन करीने इष्ट रिद्धिसिद्धि साधवी होय तेओने आ द्वादशाङ्गी अने द्वादशाङ्गीने अनुसरनारा जैनागमो एज परमाधार छे. आ भलामणथी सदा सजाग रहेवानी अनिवार्य जरुर छे. आथीज शासनना संचालनना मुख्य हेतुरूप पंचमगणधरनी द्वादशांगी छे, अने तेथीज शासनना आद्यसंचालक तरीके तेओश्रीन आदरसत्कार--बहुमानादि करीए तेटलां ओछांज छे. सुधर्मास्वामीजीनु जीवन... .. आसन्नोपकारी-अन्तिम-श्रीवीरविभुना सुशिष्य-पंचमगणधर-भगवान् श्रीसुधर्मास्वामीजी छे, अने आ अन्धमां आवेला सर्व सूत्रोना रचयिता पण तेओ छे, एटले तेओश्रीना जीवननी संक्षिप्त नोंधने स्मृतिपथमा लईने वीर्योल्लासनो वेग वधारतापूर्वक आगळ वधीए. प्रभुश्रीमहावीर-महाराजानी पाटपरम्पसमां ते पांचमी पाटे छे, अने तेओश्रीन स्वरूप आ प्रमाणे छे, कुल्लागामना एक लगाममां अग्निवैश्यायन गोत्रवाळा धम्मिल बामण रहेता हता, अने तेमने भदिला नामनी स्त्री हती. आ बन्नेने संसारनी लीलाना अनुभवमा आगळ वधतां भद्दिलाए एक पुत्रने जन्म आम्यो, अने तेओए ते पुवने विद्याभ्यासादिमा अति कुशलता प्रास करवा माटे ******** Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी पृ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥५१ ।। विद्यागुरुने सुपरत कर्यो. पितानी आज्ञाथी पोते विद्यागुरु पासे रहीने विवेक - विनयपूर्वक चौद विद्यानो पारंगत बन्यो एटलुंज नहिं पण तेओनी ( आर्यसुधर्मानी ) निश्रामां रहीने विद्या संपादनना अर्थी - पांचसो शिष्यो अध्ययन करता हता. पचास वर्ष लगभग पठनपाठन, वादविवाद अने ब्राह्मणकुळने अनुसरती क्रियाकाण्डमां व्यतीत कर्या. एक अवसरे अपापा नामनी नगरीमां सोमिल ब्राह्मणने घेर यज्ञहोमनी क्रिया करवा कराववा माटे देशपरदेशथी ब्राह्मणो आवेला छे, ते सर्व ब्राह्मणोमां आर्यइन्द्रभूति, आर्य अग्निमूति, आर्यवायुभूति, आर्य व्यक्त अने आर्यसुधर्मादि अगीआर ब्राह्मणो आदि मोटी संख्यामां अनेक जातिना ब्राह्मणो एकठा मझ्या छे, आ अवसरे केवलज्ञानी विभु श्रीमहावीर - महाराजा ऋजुवालिकानदी पासेना क्षेत्रमांथी विहार करीने महसेनवनमां पधार्या छे, - एटले देवोए प्रभुश्रीवीर पधारे छे माटे समवसरणनी रचना करी छे. आकाशमार्गे आवता जता विमानोने अने देवदेवीओना परिवारने निहाळीने यज्ञनी महत्ता माननारा आगेवान ब्राह्मणो अने तेमनो सघलोए परिवार आश्चर्य चकित थाय छे, एटलं ज नहिं पण आ बधां विमानो, देवेन्द्रो, देवो, देवीओ अने सघलोर जनसमुदाय अमारा यज्ञमां नहिं आवतां भगवान श्रीमहावीर महाराजाने वन्दन करवाने अने वाणी श्रवण करवाने जाय छे, आ वातनो निर्णय करीने आगेवान ब्राह्मणगौतम गोत्र वाळा आर्यइन्द्रभूति सर्वज्ञपणाना अहंभाव साथे भगवान् श्रीमहावीर महाराजा साथै वाद करीने जीतवा माटे जाय छे, अने छेवटे केवी रीते जीताह जाय छे तेनुं संक्षिप्तवर्णन श्रीकल्पसूत्रना गणधरवाद नामना प्रसिद्ध व्याख्यानावसरे चतुर्विधसंघ नियमित श्रवण करे छे, गणधरवाद-विवाद सम्बन्धी शंका समाधान विस्तारथी जाणवानी अभिलाषावाळाए श्री आवश्यक सूत्र, श्रीविशेषावश्यका दि प्रौढगन्थोनुं वांचन, मनन, परिशीलन करवुं जरूरी छे, आर्यइन्द्रभूति पोतानी घणा वर्षोनी जूनी शंकानुं समाधान पामी प्रस्तावना सुधर्मास्वामीजीनुं जीवन । ॥ ५१ ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 जीताइ गया पछी पोताना पांचसो शिष्योनी साथे दीक्षित थाय छे, अने प्रथम गणधर तरीके प्रसिद्ध थाय छे. त्यारपछी अनुक्रमे पोताना भाइ अग्निभूति पोताना ज्येष्ठ बान्धवने पाछो लइ जवाने जीतवानी मुरादथी भगवान् श्रीमहावीर पासे आवे छे. अने तुरत पोतानी शङ्काना समाधान साथे ते पण जीताइ जाय छे. पोताना पांचसो शिष्य साथे दीक्षा लइने बीजा गणधर तरीके प्रसिद्ध थाय छे, ते पछी अमारा वडील भाइ आर्य-इन्द्रभूति अने आर्य अग्निभूतिए " जेओने मुरब्बी तरीके स्वीकार्या तेओश्री म्हारा पण मुरब्बी छे " ए भावथी अनुक्रमे आर्यवायुभूति, आर्यव्यक्त अने आर्यसुधर्मा विगेरे आगेवान ब्राह्मणो आवे छे, तेओना हृदयना खूणामा छुपाइ रहेली शंकाओने प्रभु महावीर जणावे छे, अने सर्वनी शङ्काना समाधान तेओना वेदना ते ते शंकितपदोद्वारा वास्तविक अर्थन अनुस्यूत सम्बन्ध साथे निवेदन करीने शंकाना निरसनपूर्वक समजावे छे, अन्ते आगेवान अगीआर ब्राह्मणो पोताना शिष्यादि ४४००) ना परिवार साथे दीक्षित थाय छ; ए वात शासनमान्य-शास्त्र सुप्रसिद्ध छे. आ अवसरे अनुक्रमे चार गणधरोनी जेम सकल अंगादिना रचयिता आ पञ्चमगणधर भगवान् श्रीसुधर्मास्वामीजी छे तेओनी उम्मर पचास वर्षनी छे. दीक्षा लीधा पछी तेओए श्रीस वर्ष पर्यन्त श्रीवीरविमुना चरणकमलनी उपासना करी छे, अने श्रीमहावीरमहाराजाना निर्वाण पछी बाणुं वर्षे एटले बाणु वर्षनी उम्मरे विशुद्ध भावनाथी भावित थयेला ते पञ्चमगणधर भगवानने चारघनघातीकर्म तूटवाथी केवलज्ञान प्रगट थाय छे, केवलज्ञानना पर्यायथी विभूषित थयेला भगवान् श्री सुधर्मास्वामीजीए ग्रामानुग्राम विहार करीने अनेक भव्योनो उद्धार कर्यो, | अने आठ वर्ष सुधी केवली पर्याय पूर्ण करीने एक महिनाना चोविहार उपवासनी घोर तपश्चर्या तपीने, पादपोपगमन नामना अनशनने अनुसरीने, अने सकल कर्मनो क्षय करीने भगवान् श्रीसुधर्मास्वामीजी मोक्षे गया, अने भगवान् श्रीमहावीरमहाराजना HIGHLAUCICHOCHURIG % C4%A1-%A5% ** Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HA नवाङ्गी ० ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे 4% A4% प्रस्तावना अंतिम| केवलीनी जीवन % चर्या। % % मोक्षगमन पछी बे गणधरो जीवता हता, जेमां १ आर्य श्रीइन्द्रति प्रथम गणधर अने २ आर्य श्रीसुधर्मास्वामीजी पंचमगणधर | हता. पूर्वना नवगणधरोए जेम पोतानो शिष्य-परिवारादि श्रीसुधर्मास्वामीजीने भळाव्यो हतो, तेम प्रथमगणधरभगवन्ते पण पोताना सघला परिवारने श्री सुधर्मास्वामीजीने भळावीने पोते मोक्षे गया, एटले ते अवसरनी शरूआतथी अद्यापि पर्यन्तना जे साधुसाध्वीओ छे ते बधाए श्रीआर्यसुधर्मास्वामिजीना शिष्य-संतानो छे. जुओ-स्थविरावलिमां आ प्रमाणे उल्लेख छ-" जे इमे अज्जताए समणानगंथा विहरति । एएणं सवे अजसुहम्मस्स अणगारस्स आवचिजा ॥" श्रीद्वादशाङ्गीना रचनावसरे-स्थले स्थले भगवान् श्रीसुधर्माजी पोताना शिष्य श्रीजंबूस्वामीने उद्देशीने कथन करे छे, माटे | तेओश्रीना जीवनने वांचीने, विचारीने अने परिशीलन करीने अनुमोदनरूप अमृतनुं आस्वादन करीए !!! अंतिमकेवलीनी जीवनचर्या पञ्चमगणधर भगवान् श्री सुधर्मास्वामीजीना प्रथम सुशिष्य के जे वर्तमान शासनमां अंतिम केवली श्री जम्बूस्वामीजी कहेवाय छे, सूत्रकार श्रीपञ्चमगणधर छे, अने सूत्रथी अनन्तर आगमने प्राप्त करनार श्रीजम्बूस्वामीजी होवाथी तेओश्रीनु जीवन जाणवू जरूरी जाणीने अत्र विचाराय छे. लगभग २४७७ वर्षोना व्हाणां वीती गयां, छतां पण आ महापुरुषोनी जीवन गाथाओना यशागान माइए छीए, त्यारे भृतकालने भृली जबाय छ, अने तेओर्नु भृतकालनु जीवन वर्तमानकालना साक्षात्कारोनो अनुभव कराचे छे. आ जम्बूद्वीपना दक्षिणाई भरतक्षेत्रमा मगधनामनो देश छे, अने तेनी राज्यधानी राजगृहनामना नगरमा हती ते नगरमां अति धनवान अने ओट वगरनी संपत्चिना भव्यतरंगोना अबुझ्चो अभिधीऋषम अने धारिकी करम हतां. संसारनी लीलानो अनुभव % % AASHAR %e F ॥५२॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करतां धारिणीनी कुक्षिमां देवलोकमांथी च्यचीने एक देव गर्भपणे उत्पन्न थयो, अने ते गर्भनो परिपक्ककाले पुत्रपणे जन्म थयो. स्वप्ना अने दोहदना भाक्चे अनुसरतुं श्रेष्ठिना सगांवहालांए मळी जम्बू एवं नाम स्थान कयुं. अने ते जम्बूकुमारे श्रीसुधर्मास्वामिजीनी प्रथमतः देशना श्रवण करीने सम्यक्त्वसहित शीलव्रत अंगीकार कर्यु. श्रीजम्बूस्वामिने परणवानी इच्छा नहोती, छतां मातपिताना अतिआग्रहथी तेओ आठ कन्याओने परण्या, परन्तु ते नवोढा स्त्रीओनी स्नेहवर्धक वाणीथी लेशभर व्यामोहित थया नहिं, कारण के संसारसमुद्रनो पार पामवा माटे जेणे सम्यक्त्व अने शील नामना बे तुंबडा ग्रहण कर्या छे, ते श्रीजम्बूस्वामीजी स्त्रीरूपसरिताओमां डूबी शकता ज नथी. हवे रात्रिमां ते स्त्रीओ साथै संसार छोडवा नहिं छोडवा सम्बन्धनी अनेक प्रकारनी शंकाओना समाधान आपीने, अने सुन्दर विचारविनिमय करीने ते आठे स्त्रीओने प्रतिबोध पमाडीने दीक्षानी अर्थिनी बनावी, एटलुंज नहिं पण तेज अवसरे पोताना मकानमां रात्रिमां प्रभवनामनो चोर बीजा पांचसो चोरो साथे चोरी करवा माटे आव्यो हतो, ते बधाए स्त्रीओ साथ थतो विनिमय श्रवण करीने अने स्त्रीओसहित ९९ नवाणुं क्रोडनी संपत्तिने छोडी जनार छे ते ए वातने विवेकपूर्वक जाणीने हृदयमां ते संबंधी विवेकपूर्वकनो विचार करीने चोरी करवा आवेला ते चोरे विनाशिसंपत्तिओनो मोहमूकीने अविनाशि- महामूल्यबालां त्रण रत्नोरूपी संपत्तिनी चोरी करवानो निर्णय कर्यो, सवारमां पांचसो चोर, आठ स्त्रीओ, आठे स्त्रीओना मातपिता, पोतानाये मातपिता अने पोते मलीने कुल्ले ५२७ पांचसो सत्तावीसनी संख्यामां दीक्षित थया भगवान् सुधर्मास्वामीजीनी पासे श्रीजम्बूस्वामी प्रथम शिष्य थया, अने तेम्नी ( जम्बूस्वामीजीनी ) पाटे श्रीप्रभवस्वामीजी आव्या श्रीजंबूस्वामीजी सोल वर्ष गृहस्थाश्रममां रहीने, ते पछी दीक्षा लईने, वीश वर्ष सुधी श्रीसुधर्मास्वामीजीना चरणकमलनी उपासना करीने Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाडी- १०० भीवाता CAR धमकथा ॥५३॥ ACCIAAEXRANG चुम्मालीश वर्ष केवलिपर्याय पालीने, समग्र एंशी वर्षनुं आयुष्य पूर्ण करीने परमपदने पाम्या, श्रीजम्बूस्वामीजी मोक्षे गया पछी कोई प्रस्तावना पण केवलज्ञान पाम्युं नथी, अर्थात् केवलज्ञान पामीने मोक्षे गयुं नथी, माटे तेओश्रीने शासनमा अन्तिमकेवलीना नामथी पिछाणे छे. सूत्ररचनानी मर्यादा. 18 रचनानी मानवजीवननी महत्ता समजनारने ज्यारे शासनमान्य-समर्थवक्ता समान महापुरुषोनो समागम थाय छे, अने ते समागममां तिमर्यादा। | तेओश्रीना मुखमाथी नीकलती वीतरागनी वाणीनुं वास्तविक रीतिए पान थाय छे, त्यारे ते ते योग्य भव्यात्माओना विवेकनेत्रो विकसित थाय छे साथे साथे शासनना संस्थापक प्रत्ये आदर-बहुमानपूर्वक सर्वस्वसमर्पणनी सुन्दर भावनाओ जागृत थाय छे. आ शासननी संस्थापना शी रीते थई , केवा संजोगोमां थई !, कोणे करी!, केवी रीते करी !, अने ते रीतिने प्रथम अनुसरनाराओनो सुमेल केवी रीते सधायो, विगेरे अनेकविध प्रश्नोना खुलासा थइ जाय छे, छतां पण श्रद्धाना डगमगता पायाने अतीव द्रढीभूत 12 बनावनारा होय तो शासनमान्य महापुरुषोना जीवनप्रसंगो छे. सघलाए महापुरुषोना जीवनप्रसंगोरूप पवित्र प्रासादना सुवर्णकलश. समान शासनमान्य-शासनसंस्थापक-श्रीमहावीरप्रभु छे, शासनसंचालक श्रीसुधर्मास्वामी छे, अने शासनना परमरहस्योने झीलनार श्रीजम्बूस्वामीजी छे; आ त्रण व्यक्तिओ अग्रगण्य छे, अने तेथी त्रण पुरुषोना जीवनने संक्षिप्तथी समजीने ते पछी आ त्रण पैकि आ महापुरुष पञ्चमगणधरे एकवीस हजार वर्षना शासननी संचालना माटे सूत्रोनी रचनानो प्रारम्भ केवी रीतिए कर्यो ते विचारीए. आसन्नोपकारी अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीरमहाराजा पासे सुधर्मास्वामीनु आवq थयु, अने भगवाने नामगोत्रथी सम्बोधीने का हृदयगतवेदना परस्पर विसंवादिपदोथी थयेल शहाओ जणावीने तेज पदोना वास्तविक अर्थोथी शबानुं निरसन करवा साथे ते ॥५३॥ CCCCCC Izi Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रेसर ब्राह्मण पोताना परिवार साथ दीक्षित थयेला ते सुधर्मास्वामिजी गणधरपदे स्थित थाय छे, गणधरपदे स्थित थयेला गणधर भगवन्त पूछे छे के - हे भयवं ! किं तवं ! ( आ प्रश्नने प्रदक्षिणा दई वन्दन नमस्कार करीने नतमस्तके पूछे छे ) अने त्रण वखत आ प्रश्न उपरनी रीतिए पूछे छे अने भगवान् श्रीमुखे अनुक्रमे उपनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा प्रत्युत्तररूपे कथन करे छे. सर्वज्ञ पासेथी समाधानना सुधास्वरूपे आ त्रण पदो बीजरूपे पामीने बीजबुद्धि अने कोष्ठबुद्धिना धणी द्वादशाङ्गीनी रचना करे छे. रचनानी आदिमां " सुयं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खायं " अने अन्तमां " तिवेत्ति " ए पदो मूकीने गणधरभगवन्तो पोतानी लघुताने प्रतिपादन करे छे, कारणके- ज्यारे पोताना शिष्यने सूत्रसंदर्भने आपे छे त्यारे हुं तने जणावुं छु एम कहता नथी परन्तु भगवान् महावीर पासेथी म्हें सांभळ्युं छे तेज तने हुं अनुवादरूप जणावुं हुं. आथी हुं कहेतो नथी, म्हारा घरनुं कहेतो नथी, ते मनोधडत कल्पनाओ पण ठालवतो नथी; ए उपरना प्रथम जणावेला " सुयंमे० " इत्यादि पदोथी ध्वनित थाय छे, अने " तिबेमि ” पदोथी स्वमनीषिकानो भारपूर्वक परिहार सूचवे छे. अध्ययनो आदिमां अगर सूत्रोनी समाप्तिमां उपर जणावेलां पदोन होय तो पण अवश्यमेव उपर जणावेलां ते ते पदो छेज, एम वांचकोर अने विचारकोए तेम अभ्यासकोए अवश्यमेव समजी लेवुंज जोइए एवी आ शासननी मर्यादा छे. आ मर्यादा अनुसरनाराओने प्रातःस्मरणीय पूज्य श्रीतीर्थंकरोए कथन करेला अर्थनुं अमृतास्वादन अने पूज्य गणधर भगवन्तना सूत्रोनुं सुधास्वादन स्पष्टपणे निरंतर थयुं छे थाय छे, अने थशे ए निःशंक बीना छे. श्रुतसंपदाना मालीक वर्तमान जैनशासनमां वर्तती द्वादशाङ्गीना रचयिता पञ्चम गणधर भगवन्त श्रीसुधर्मास्वामीजी हता, अने छे. पू. गणधर भगवन्तो Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना संपदाना मालीक । A% नवाङ्गी-पटाद्वादशांगी स्चवानो प्रारम्भ कइ रीते करे छे! ते पूर्व विचारी गया छीए. अने तेथी त्रिपदी पामीने तेओश्री अंगोनी रचना करवाना १० वृ० अवसरे अनुक्रमे आचारांग-सूत्रकृताङ्ग-स्थानाङ्ग-समवायाङ्ग-भगवतीजी अने छट्टे अंग श्रीज्ञाताधर्मकथाननी रचना करे छे. शासननी भीज्ञाता-18 मर्यादा समजनारे समजवू जोइए के सूत्र सिवायना भाष्य-नियुक्ति-चूर्णि-वृत्ति विगेरे वर्तती सकलश्रुतसंपदाना मालीक तेओश्री धर्मकथा) (पञ्चम गणधर भगवन्त ) हता अने छे, कारणके अर्थथी अने सूत्रथी-आत्मागम, अनन्तरामम अने परम्परागमना भेदोने विवेक- पूर्वक समजनारने उपरनी बीना समजाववी पडे तेम नथी. " सर्व श्रुतसम्पदाना मालीक पश्चम गणधर भगवन् श्री सुधर्मास्वामी हता, ॥५४॥ अने छे" आ वातने स्मृतिपथमांथी कोई विसरी जाय नहीं अने ते स्मरण जागतुं, जीवतुं रहे ते माटे चौमासी-सांवत्सरिक प्रतिक्रमणमां त्रीजा खामणा प्रसने, चतुर्विधसंघ ते प्रसंगने अवश्यमेव याद करे छे. एटले अक्खरं वा, पयं बा, गाहं वा, सिलोगं वा इत्यादि पदोद्वारा स्पष्टपणे सूचवाय छे. आ शासननी परम्परामां हमने अक्षर के पद, गाथा के श्लोक विगेरे जे मळ्युं छे, ते तमने अपाय छे, अने अपाती चीजमां अमारी मालीकी नथी पण ते पूर्व पुण्य पुरुषोनी छे. आथी समजनारने हवे स्पष्ट थशे के चौदपूर्वधरनी के दशपूर्वधरनी रचनाओ होय, नियुक्तिकारनी के भाष्यकारनी रचनाओ होय, चूर्णिकारनी के वृत्तिकारोनी रचनाओ होय, सूरिपुन्दरोनी के वाचकवर्योनी रचनाओ होय, प्रकरणकारोनी के संग्रहकारोनी रचनाओ होय तो पण दरेके दरेक रचनाओनी परम्पराना उंडाणने तपासीए तो शासनमान्य-सर्वश्रुत सम्पदाना मालीक श्रीसुधर्मास्वामी हता, छे, अने आ शासननी परिसमाप्ति पर्यन्त तेओश्रीज रहेशे. अंबोबो अनुस्यूत सम्बन्ध_ शासनमान्य श्रीआचाराङ्गमां अर्थिओ माटे पांच आचारोनु, तेना मेदोनु, अने श्रमणपणुं पामेला श्रमणभगवन्तोने श्रमणजीवन SARANAS Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीववाना आचारोनुं सुन्दर रीतिए दिग्दर्शन कराव्युं छे. शासनमान्य- आचारोथी वासित थयेलो आत्मा बांधेला कर्मना स्वरूपने जाणीने ते कर्मोने जडमूलथी तोडवा कटिबद्ध थाय तेथीज सूत्रकार, श्री सूत्रकृतांगना प्रथम अध्ययनना प्रथम उद्देशानुं प्रथम सूत्र आ प्रमाणे जणावे छे. ' बुज्झिज्जइ ' ' तिउज्जइ' इत्यादि पदोद्वारा कर्मबंधनना स्वरूपने, नवा आवतां कर्मोंना स्वरूपने, अने तोडवाना स्वरूप जाणीने नाश करवा उद्यमवन्त थाय छतां विविध इतरदर्शनकारोनी विविध मान्यताओथी व्यामोहित न थाय ते मांटे स्वसमयना सिद्धान्तोथी आत्माने केवो लाभ छे !, अने परसमयना सिद्धान्तोने तथा आचारोने मानवाथी - आचरवाथी केटलं नुकशान छे !, ते सम्बन्धमां विस्तारथी समजावीने आ सूत्रकृतांगमां ठाम ठाम शासनमान्य श्रद्धा-प्रतीति- रुचिने अतीव द्रढीभूत बनावत्रा माटेना बे श्रुतस्कन्धो २३ अध्ययनो अनेकभावथी भरपूर भरेला छे. श्री आचाराङ्गना सूत्रोनुं सुधास्वादन करीने, आचारथी वास्तविकरीतिए वासित थइने, अने श्री सूत्रकृताङ्गना अध्ययनोना सूत्रोनुं अमृतपान करीने श्रद्धा दृढीभूत बनेली होय तेवाओनें पण शासनमान्य पदार्थोना वर्गीकरण समजवानी अवश्यमेव जरुर छे. वर्गीकरण एटले एकत्ववाची, द्वित्ववाची विगेरे पदार्थो केटला छे !, अने कया कया छे, ते समजवाथी बुद्धिवैभव विशालताने पामे छे. कोई पुस्तकालयमां जाओ, परन्तु वर्गीकरणरूपे ते प्रन्थोनी नोंध मले तो आर्थओना उत्साहमां वृद्धि थाय छे. जेम कोई अर्थ पूछे के न्याय विभागना प्राथमिक कक्षाना, मध्यमकक्षाना अने अन्तिमकक्षाना ग्रन्थो तमारा पुस्तकालयमां केटला छे !, जो वर्गीकरणरीतिए नोंध राखी होय तो ( विषयवार प्रन्थोनी नोंघ राखी होय तो ) तुरत नोंघपोथी आगल धरे छे, अने ते अवसरे मागनारने संतोष थाय छे; तेवी रीते आ शासनमा विषयवार एक संख्यावाचक बे, त्रण एम अनुक्रमे दश संख्या सुघीना पदार्थोंना समुच्चय तरीके त्रीजुं अंग स्थानांग ठाणांगं नामना अंगमां अने वधु संख्याना वर्गीकरणरूपे Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी १० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ।। ५५ ।। करेली नोंध चोथा श्रीसमवायांगसूत्रमां आवे छे. आ चार अंगनो निष्णात थया पछी साथे दश वर्षनो दीक्षापर्याय थयो होय अने योगोद्वहनकर्या होय तेने विवाहपत्ति ( पू. सुधर्मास्वामीजीए आपेल नाम ) के जेनुं नाम चतुर्विधसंघे श्रीभगवतीजी राखेल छे, तेने अंगने भणवा - भणाववानी योग्यता प्राप्त थाय छे. कारण के चारे अनुयोगने अनुसरता अनेकविध प्रसंगो प्रश्नोत्तररूपे आ पंचम (अंगमां ) भर्या छे, अने आ पांचमा अंगना विधि विधान साथै योगोद्वहनपूर्वक अभ्यासी बननारने सर्व श्रुत भणवा भणाववानी आज्ञा अपाय छे, तेथी तेनुं ( भगवतीजीनुं ) अतीव महार्द्धकपणुं छे. आ रीतिए अंगोनी अनुक्रम रचना अने तेओनो अनुस्यूतसम्बन्ध विचारवाथी समजाशे के पांचमा अंगने भण्या पछी जैनशासनना सिद्धान्तो जेना जीवनमां पची गया होय तेवा महापुरुषोने लाभ केवो थाय छे ! अने तेनो विरोध करवाथी केतुं नुकशान थाय छे !, ते जाणवानी जरुर छे. आ शासनना वास्तविक - ऐतिहासिक - प्रसंगोने जणावनार होय तो आ छहूं अंग - श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्ग मुख्य छे. आ रीतिए प्रथम श्री आचारांगथी छट्ठा श्रीज्ञाताधर्मकथांग सुधीना अनुस्यूत-संबंधने अत्र प्रासंगिक जणाव्यो. आ ग्रन्थनुं नाम अने सामग्रीओ पञ्चमगणधर भगवन्त श्रीसुधर्मास्वामीजीए पांचे अंगनां नामो ते ते अंगमां भरेला भव्य भावने अनुसरीने यथार्थ आपेलां छे, तेवी रीते तेओश्रीए आ छट्ठा अंगनुं नाम श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्ग तरीके आपलं छे. ज्ञाताशब्दनी वृत्ति लखतां श्रीहरिभद्रसूरीश्वरजी श्रीदशवैकालिकमां जणावे छे - ' ज्ञायतेऽस्मिन् अतिदान्तिकोऽर्थ ' इति आथी तेनुं नाम यथार्थ गुणनिष्पन छे. श्री जम्बूस्वामी पंचमगणधर भगवन्तने पूछे के के-हे भगवंत ! ज्ञाताधर्मकथाङ्गमां क्या भावो छे !, एटले ते ज्ञाताधर्मकथाक्रमां प्रस्तावना । ॥ ५५ ॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ%A5%AECARRC-%%% भगवान् श्रीमहावीरप्रभुए क्या भावो वर्णव्या छे!; आ प्रश्नना समाधानमा श्रीसुधर्मास्वामीजी जणावे छे के-हे जम्बू! भगवान् श्रीमहावीरे आ छट्ठा अंगना बे श्रुतस्कंध-"णायाणि-ज्ञातानि" एटले दार्टान्तिक अर्थनी सिद्धि माटे आपेला दृष्टान्तोना उदाहरणोना नामथी, अने बीजो श्रुतस्कंध बनेला बनाववानी नोधरूप धर्मकथाओना नामथी शास्त्रमा सुप्रसिद्ध छे, ज्ञाता नामना प्रथम श्रुतस्कंधना १९ ओगणीस अध्ययनो छे, अने धर्मकथा नामनो बीजो श्रुतस्कंध छे तेना १० वर्गो छ, अने बीजा श्रुतस्कंधना २०६ अध्ययनो छे. प्रथम श्रुतस्कंधना १९ अध्ययनोना नाम अनुक्रमे आ प्रमाणे छे. अनुक्रमे ज्ञात शब्दथी १ उरिक्षप्त, २ संघाटक, ३ अण्डक, | ४ कूर्म, ५ शैलक, ६ तुम्ब, ७ रोहिणी, ८ मल्ली, ९ माकन्दी, १० चन्द्र, ११ दावद्रव, १२ उदक, १३ दर्दुर, १४ तेतलीपुत्र, १५ नन्दीफल, १६ अपरकका, १७ आकीर्ण, १८ सुसुमा; अने १९ पुण्डरीक आ नामना ओगणीस अध्ययनो छे. अत्र आ ग्रन्थना प्रथम विभागमा प्रथम उरिक्षप्त नामना अध्ययनथी मल्ली अध्ययन सुधीना आठे अध्ययनो लीधेला छे, तेथी अत्र आठ अध्ययनोनो सारांश आपेलो छे. अने ते सिवायना प्रथम श्रुतस्कंधना अगीआर अध्ययनो तथा बीजा श्रुतस्कंधना दशवर्गो अने तेना सर्व अध्ययनोनो सारांश आ ग्रन्थना बीजा विभागमा आवशे... ___आ प्रथम-विभागरूप ग्रन्थनी सामग्रीओमा लगभग जैनशासननो झलकतो इतिहास छे, धर्मनी सन्मुख थनाराओने माटे अने पूर्वे धर्म पामेलाओने वधु स्थिर करवा माटे आ सामग्रीओ अमोघ साधनरूप छ; अने द्वितीय विभाग जे हवे पछी प्रकाशन करवामां आवशे ते पण पूर्व जणावेल बीना माटे मशहूर छे, अने रहशे. SALAAAAAACANCanca Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % * नवाङ्गी % १०० पीज्ञाताधर्मकथाङ्गे % % % आ ग्रन्थना वृत्तिकार प्रस्तावना। आ श्रीज्ञाताधर्मकथाजना वृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी छे. अगीआर अंगो पैकी श्रीआचारांगनी अने श्री सूत्रकृताङ्गनी (पूर्व जणावेला | आ बे अंगोनी ) वृत्ति करनार श्रीशीलांकसूरिजी छे. आ बे अंगनी वृत्ति करेली होवाथी श्रीअभयदेवसूरिजीए त्रीजा श्रीस्थानाङ्गसूत्रनी | वृत्ति करवानो प्रारम्भ कर्यो, अने ते पछी अनुक्रमे श्रीसमावायाङ्गसूत्रथी अगी आरमा श्रीविपाक सुधीना नवे अंगोनी वृत्ति तेओश्रीए | करी; आथी तेओश्रीने नवाङ्गीवृत्तिकार तरीके चतुर्विध संघ सारी रीते पीछाणे छे. शासनमान्य सूत्रोनी वृत्ति करतां वृत्तिकारोना हृदय विशाल होय छे, अने तेवी विशालताने श्रीअभयदेवसूरिजी अनुसर्या छे. अंग-उपांग-सूत्रादि पर पूर्वाचार्योए नियुक्ति-भाष्य| चर्णि विगेरे जे जे रचनाओ करी होय ते ते रचनाओना भावो स्मृतिपथमां स्थिर करीने-वृत्ति आलेखन अवसरे बन्धबेसता ते | पूर्वाचार्यप्रणीत-भावोने आलेखवामा लेशभर संकोच राखताज नथी, ते हार्दिक-विशालतानुं प्रतीक छे. "पूर्वाचार्योए जे कयुं ते ज13 कहे छे, पूर्वाचार्यप्रणीत केटलीक पतिओ एक सरखी छे. लखाणना भावो लगभग सरखा छे तेम नवीन आलेखन घणुंज ओछं छे. विगेरे " कहेवू अने उपरथी वधु पडतुं कहेवू के पूर्व आलेखनमाथी चोरी करी छे, आवी रीते कहेवानी अने समजवानी उतावल कोई पण वांचके, विचारके के अभ्यासके करवीज नहिं. तत्त्वदृष्टिए विचारीए तो पूर्वपुरुषो प्रत्येर्नु आ बहुमान सूचवे छ. मार्गानुसारिना गुणोनुं वर्णन करतां कलिकालसर्वज्ञे पूर्वाचार्यना आलेखननुं अनुकरण कर्यु छे. आधीज विशालहृदयना वृत्तिकारोनो ए स्पष्ट निर्णय हतो के-" पूर्वपुरुषोए जे बाबतनो खूलासो न कर्यो होय ते सम्बन्धमा खूलासो करवानो होय, परन्तु जे विषयमा पहेलानु मले त्यां | सुधी म्हारी बुद्धिन कहेवूज नहिं आ हृदय-विशालतानुं वास्तविक प्रतीक छे. HE4%9C% %a सके करवीज आलेखननु असम्बन्धमा खुला 4 Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्वना वृद्धपुरुषो प्रत्ये नवाशी वृत्तिकारने अतिशय बहुमान हतुं, अने तेथीज पंचमाङ्ग श्रीविवाहपन्नचिनी वृचिना प्रारम्भमां हृदयना भाव ध्वनित करे छे - " एतट्टीका चूर्णि जीवाभिगमादिवृत्तिलेशां च संयोज्य पञ्चमानं विवृणोमि विशेषतः किञ्चित्० " इत्यादि । आ रीतिए ग्रंथना वृत्तिकारने ओळखवाथी ग्रंथस्थित भावोने जाणतां हृदयना हार्दिक बहुमान वृद्धि पामे छे. ग्रन्थसामग्रीना प्रकारो आ ग्रन्थनी सर्व सामग्रीओ कथास्वरूपे छे, तेथी कथाना प्रकारो समजवानी अत्र आवश्यकता छे; माटे ते प्रकारोने अत्र विचारीए । आ चराचर विश्वमां मुख्यतः कथाओ ने प्रकारनी प्रवर्ते छे, एक बनेला बनावोरूप कथाओ प्रवर्ते छे, अने बीजी कल्पनाओनी जमावटरूपे कथाओ प्रवर्त्ते छे. आथीज- अनुक्रमे चरित अने कल्पित ए वे विभागमां कथाओ बर्हेचायली होय छे; तेवी रीते शास्त्रोमां. पण ते बे विभागरूपे कथाओ आवे छे. कल्पित कथाओ रमूज साथे बोध आपे छे. जेम-श्री उत्तराध्ययनना द्रुमपत्रीयअध्ययननो भाव विचारीए तो साक्षररत्न - डाह्याभाइ धोळशाजीना वचनोमां जणावाय छे के "पीपल पान खरंत हसती कुंपलीयां मुज वीती तुज वीतशे धीरी बापुडीयां " आज भावने अनुसरतां उत्तराध्ययनना ते अध्ययनना पथमां " जह तुम्मे " विगेरे पदो छे ते तेने पुष्ट करे छे. आवी घटनाओ द्वारा उपदेश अपाय छे, छतां ते कथा कल्पित छे, कारण के पांदडुं शीखामण आपे अने कुंपलोनुं इस थाय ए बुद्धिने असंगत छे, छतां कथाना भावने समजीए तो घटना युक्तियुक्त छे. आवां आवां अनेक कल्पित दृष्टान्तो शास्त्रोमां आवे छे. आ प्रसिद्ध थता ग्रंथमां प्रथम श्रुतस्कन्धना ओगणीस अध्ययनोमां चरितो अने कल्पितोने अनुरूप ज्ञातानि - दृष्टान्तो आवे छे. चरित्रो बनेला बनावो उपर आधार राखे छे. बनेलो बनाव वांचनकाले अगर श्रवणकाले चमत्कारिक लागे अगर Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ताप्रस्तावना। पुरुषचरित्रमा बनेला बनावोने स्था. ए भावी प्रजाणी कालमा वर्ण-गन्ध CA1% शीखवानु, घणु धण कोण पचाव्यां!, शासनार शासनमान नवाङ्गी- न लागे ते चरित आलेखन करनारने जोवान होतुंज नथी. श्रीत्रिषष्ठिशलाकापुरुषचरित्रमा बनेला बनावोने स्थान छे, पण आश्चर्य उत्पन्न करवा माटे रमूजने स्थान नथी, अवसर्पिणी कालमा वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शना घसारा अनुभवीए छीए तेवा विषमकालमा श्रीज्ञाता- बनेला बनावोनी नोंध राखवी ए भावी प्रजा माटे अतीव हितकर कार्य छे. पूर्वपुरुषना सम्बन्धमा बनेला बनावोनी कथाओरूप धर्मकथाले ले साहित्य ए जैनोनो झलकतो इतिहास छे, ते उपरथी घणु घणुं शीखवानु, घj घणु विचारवान, अने घणुं धणुं समजवानु, बोध लेवानु, अने अनुकरण करवानुं तेमांथी मळी आवे छे. शासनमान्य सिद्धान्तो अने कथनो कोणे कोणे पचाव्यां!, शासननी मान्यतामां कोण द्रढ ॥ ५७॥ रघु !, तेमां द्रढ रहेवाथी शो लाभ मल्यो !, मान्यता विरुद्ध वर्तन करवाथी क्यो गेरलाम मल्यो, आ विगेरे शासनमान्य अनेक MII सिद्धान्तो-वर्तनोने जीवनमा ओतप्रोत बनावनार अने डामाडोल चित्तवालाने दृढ बनावनार होय तो धर्मकथानुयोग छे. आ ज्ञाताधर्म कथाना बन्ने श्रुतस्कंधोना अध्ययनोने सांगोपांग वांचवाथी, विचारवाथी अने परिशीलन करवाथी मार्गाभिमुखादि आराधकोने नवनवीन मार्गदर्शन मले छे. आ अंगना अध्ययनोनी अंदर ठांसी ठांसीने चरितविभागीय चरितो अने कल्पनामय करुिपतोने वांचवाथी सारभूत रहस्य पचावनाराओ इष्टमार्गनी सिद्धि करी शके छे, ते निःशंक सत्य सर्वदा आदरणीय छे. आ ग्रन्थना प्रथम विभागमा एकथी आठ अध्ययनो एटले श्रीउत्क्षिप्त-अध्ययनथी श्रीमल्लीअध्ययन सुधीना आठ अध्ययनोनो सारांश पूर्वे जणाव्यो छे, एटली प्रासंगिक नोंध जणावीने अध्ययनोनो सारांश ते स्थळेथी वाचवानी भलामण अत्र कराय छे. आ प्रस्तावनानो प्रारंभ " मानवजीवननी महत्ता" ए नामना पेरेग्राफथी शरू करीने क्रमशः " श्रवणनी आवश्यकता, समर्थ वकानो योग, आद्य-सदुपदेशक, आद्य-संचालक, सुधर्मास्वामिजी- जीवन, अंतिम केवलीनी जीवनचर्या, सूत्ररचनानी मर्यादा, श्रुतसंपदाना मालीक, SAKSE % % % % % % % ॥ ५७॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगोनो अनुस्यूत-संबंध, आ ग्रंथनुं नाम अने सामग्रीओ, आ प्रन्धना वृत्तिकार; अने अंतमां ग्रन्थसामग्रीना प्रकारो " ए पैरेग्राफोथी आ प्रस्तावनाना उपसंहार साथै परिसमाप्ति थाय छे. आ प्रस्तावनानी परिसमाप्ति साथै अभ्यासकोए वांचकोए, अने विचारकोए एक प्रसंग हृदयपट स्थिर करवा जेवो छे. अने ते प्रसंग ज्ञानाचाना आठ आचारो पैकी उपधान एटले योगोद्वहन वगर सूत्रना पठन-पाठन करावनार बन्नेने ते पठन-पाठनादि नुकशानकारक नीवडे छे. आ संबंधमां वृहद्योगविधि नामना ग्रंथनी प्रस्तावना वांचवानी आग्रहपूर्वक भलामण छे. सूत्रना रहस्य पचाववानी योग्यता योगोद्वहन वगर नथी, अने ज्ञानाचारना ते आचार प्रत्ये आंखमींचामणा निन्दादि करवामां कराववामी, करनारकरावनारा ओर अद्यापि पर्यंत नुकशान अनुभव्युं छे. भने श्रुतधर्मनी आशातनानुं भारी पाप प्राप्त कर्यु छे ते भूलबा जेवुं नथी, माटे जे पुण्यात्माओ ज्ञानाचारना आठे आचारनुं सेवन करीने सूत्रादि लेवा-मेलवानो खप करशे ते आत्माओ जरूर श्रेय साधीने उत्तरोत्तर सुंदर साधन-सामग्री - संयोगो पामीने भाविमां कल्याणमंगलनी मालाओ प्राप्त करशे एवी शुभेच्छापूर्वक अत्र विरमुं हुं. श्रीचन्द्रप्रभासपत्तनतीर्थ, जैनउपाश्रय, (वेरावल समीपे ) श्रीचन्द्रप्रभस्वामिप्रासादस्य प्रतिष्ठापनादिने ता. १-२-५२ माह सुद ६ शुक्रवार. लि० स्व० आगमोद्धारक - श्री आनन्दसागरसूरीश्वरचरणारविंदचश्वरीक - चन्द्रसागरसूरि. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A नवाङ्गी अनु. कमधिका। A १० . श्रीज्ञाता धर्मकथाले ॥ ५८॥ % % श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे प्रथमविभागस्य अनुक्रमणिका. १ आर्थिकसहायकनामावलि अध्ययनोनी अनुक्रमणिका । २ प्रकाशिका निवेदन पृ.२ थी पृ. ५१ उत्क्षिप्ताध्ययनम् पृ. १ थी पृ. ८३ परिशिष्टो। २ श्रीसंघाटकाख्यमध्ययनम् पृ. ८३ थी पृ. ९६ | ३ परिशिष्ट १ वाचनामेद-पाठान्तरसंग्रह पृ. ५ थी पृ. ८ | ३ श्रीअण्डकाख्यमध्ययनम् पृ. ९७ थी पृ. १०२ १ परि० २ आर्षप्रयोग-निपातन-व्याकरणपाठाः पृ. ९/४ श्रीकूख्यिमध्ययनम् पृ. १०३ थी पृ. १०५ ५ परि० ३ साक्षिपाठाः पृ.९ थी पृ. १०५ श्रीशैलकाख्यमध्ययनम् पृ. १०५ थी पृ. ११९ ६ शुद्धिपत्रकम् पृ. ११ थी पृ. १३ | ६ श्रीतुम्बकाख्यमध्ययनम् पृ. १२० थी पृ.१२१ ७ परि०४ वर्णक-यावत् शब्दातिदिष्टपाठाः पृ. १३ थी पृ. २६ | . श्रीरोहिणी-अध्ययनम् पृ: १२१ थी पृ. १२६ ८ परि०५ प्रथमविभागस्य अध्ययनानां सारांश पृ.२७थी पृ.४७/८ श्रीमल्ली-अध्ययनम् पृ. १२७वी पृ. १६२ ९ प्रस्तावना-अनुक्रमणिका पृ. ४८ थी पृ. ५८ % % ॥५८॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । 36 । - % এ69 ।। सकलमन्त्रतन्त्रयन्त्राधिराजराजेश्वर - श्री सिद्धचक्रेभ्यो नमो नमः ।। ॥ सकलसमीहितपूरक- श्रीशङ्गेश्वर पार्श्वनाथो विजयते तमाम् ॥ । शासनप्रभावक - श्री गणधराय नमः । नवाङ्गीवृत्तिकारक श्रीमदभयदेवसूरिवरविहितवृत्तियुते, पञ्चमगणधर गुम्फि श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे- fetc १ - श्रीउत्क्षिप्ताख्यं प्रथममध्ययनम् । | 'नत्वा श्रीमन्महावीरं, प्रायोऽन्य ग्रन्थवीक्षितः । ज्ञाताधर्मकथाङ्गस्यानुयोगः कचिदुच्यते ॥ १ ॥ तत्र च फलमङ्गला'दिवः स्थानान्तरादवसेयः । केवलमनुयोगद्वारविशेषस्योपक्रमस्य प्रतिभेदरूपक्रान्तशास्त्रस्य वीरजिनवरेन्द्रापेक्षयाऽर्थतः आत्मगमत्वं तच्छष्यं तु पश्चम गणधरं सुधर्मस्वामिनमाश्रित्यानन्तरागमत्वं, तच्छिष्यं च जम्बुस्वामिनमपेक्ष्य परम्परागमतां प्रतिषिपादयिषुः; अथवा - अनुगमाख्यस्य तृतीयस्यानुयोगद्वारस्य भेदभूताया उपोद्घातनिर्युक्तेः प्रतिभेदभूतनिर्गमद्वारस्वभाव प्रस्तुत ग्रन्थस्यार्थतो महावीरनिर्गतत्वमभिधित्सुः सूत्रकारः - 'ते णं कालेण 'मित्यादिकमुपोद्घातग्रन्थं तावदादावाह १ एर्द। । एँ नमः नत्वा० अ । २ ० दिवचः अ । ३ 'वीर जिने xxन्द्रा० अ । ४ त भा• अ । उछन Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० वृ० श्रीज्ञाता धर्मकथा ॥ १ ॥ 66 ॐ नमः सर्वज्ञाय । ते णं काले णं, ते णं समए णं, चंपानामं नयरी होत्था; वण्णओ || सूत्रम् - १ ॥ तत्र योऽयं शब्दः स वाक्यालङ्कारार्थः, ते इत्यत्र च य एकारः प्राकृतशैलीप्रभवो यथा- 'करेभि भंते " इत्यादिपुः ततोऽयं वाक्यार्थो जातः- तस्मिन् काले, तस्मिन् समये, यस्मिन्नसौ नगरी बैभूवेति, अधिकरणे चेयं सप्तमी । अथ कालसमययोः कः प्रतिविशेषः १, उच्यते - काल इति सामान्यकालः, अवसप्पिण्याश्चतुर्थविभागलक्षणः, समयस्तु तद्विशेषोः यत्र सा नगरी, स राजा, सुधर्मस्वामी च बभूव; अथवा तृतीयैवेयं, ततस्तेन कालेन - अवसर्पिणीचतुर्थारकलक्षणेन हेतुभूतेन तेन समयेन, तद्विशेषभूतेन हेतुना 'चंपा नाम नयरी होत्थ'त्ति अभवत् - आसीदित्यर्थः । ननु चेदानीमपि साऽस्ति किं पुनरधिकृतग्रन्थकरकाले १, तत्कथमुक्तमासीदिति ; उच्यते-अवसर्पिणीत्वात् कालस्य वर्णकग्रन्थवर्णितविभूतियुक्ता तदानीमासीद्, इदानीं नास्तीति । 'वण्णओ'त्ति - चम्पानगर्या वर्णक ग्रन्थोऽत्रावसरे वाच्यः स चायं - 'ऋद्धत्थिमियसमिद्धा' - ऋद्धा-भवनादिभिर्वृद्धिसुपगता, स्तिमिता - भयवर्जितत्वेन स्थिरा, समृद्धा- धनधान्यादियुक्ताः ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः । 'पमुइयजणजाणवया'प्रमुदिताः प्रमोद कारणवस्तूनां सद्भावाञ्जनाः- नगरीवास्तव्य लोकाः, जानपदाश्च - जनपदभवास्तत्रायाताः सन्तो यस्यां सा प्रमु दितजनजानपदा; 'आइण्ण जण मणुस्सा' - मनुष्यजनेनाकीर्णा - संकीर्णा, मनुष्यजनाकीर्णेति वाच्ये राजदन्तादिदर्शनादाकीर्णजनमनुष्येत्युक्तं ; 'हलसय सहस्स संकिटुविट्ठलट्ठपन्नत्त सेउसीमा' - हलानां - लाङ्गलानां शतैः सहस्रैश्च शतसहस्त्रैर्वा १ वण्उ अ । २ विभूतेति० अ ३०ष ? उ० अ । ४ ० तेनxxस० अ ५ वर्णx अ६ ऋद्धित्थिमियास ० अ । ७०मुपागता० अ । ८ • विकिट्ट० अ १ - उत्क्षिप्ताध्य० चम्पा वर्णनम् । ॥ १ ॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्षःसंकृष्टा-विलिखिता विकृष्टं-दूरं यावदविकृष्टा वा-आसन्ना लष्टा, मनोज्ञा कर्षकाभिमतफलसाधनसमर्थत्वात् , 'पण्णत्तेतियोग्या कृता वीजवपनस्य सेतुसीमा-मार्गसीमा यस्याः सा तथा; अथवा-संकृष्टादिविशेषणानि सेतूनि-कुल्याजलसेक्यक्षेत्राणि द सीमासु यस्याः सा, तथा-अनेन तजनपदस्य लोकबाहुल्य क्षेत्रबाहुल्यं चोक्तं, कुक्कुडसंडेयगामपउरा'-कुक्कुटा:-ताम्रचूडा पाण्ढेयाः-पण्डपुत्रकाः षण्ढा एव तेषां ग्रामाः-समूहास्ते प्रचुराः-प्रभृता यस्यां सा, तथा-अनेन लोकप्रमुदितत्वं व्यक्तीकृतं, प्रमुदितो हि लोकः क्रीडाथं कुक्कुटान् पोषयति, पण्डांश्च करोतीति; 'उच्छुजवसालिकलिया'-अनेन च जनप्रमोदकारणमुक्तं, । न ह्येवंप्रकारवस्त्वभावेन प्रमोदो जनस्य स्यादिति । 'गोमहिसगवेलगप्पभूया'-गवादयःप्रभूताः-प्रचुरा यस्यामिति वाक्यं, गवेलका-उरभ्राः। 'आयारवंतचेइयजुवइविविहसण्णिविट्ठबहुला-आकारवन्ति-सुन्दराकाराणि यानि, चैत्यानि-देवतायतनानि, युवतीनां च-तरुणीनां पण्यतरुणीनामिति हृदयं यानि विविधानि संनिविष्टानि-संनिवेशनानि पाटकास्तानि बहुलानि-बहनि यस्यां सा, तथा-'उक्कोडियगायगंठिभेयभडतकरखंडरक्खरहिया'-उक्कोडा-उत्कोटा-लश्चेत्यर्थः, तया ये व्यवहरन्ति ते उत्कोटिका:,गात्रान्-मनुष्यशरीरावयवविशेषान् कट्यादेः सकाशाद्रन्थिकार्षापणादिपोडलिकां,मिन्दन्ति-आच्छिन्दन्तीति गात्रग्रन्थिभेदाः,भटाः-चारभटा बलात्कारप्रवृत्तयः,तस्कराः-तदेव-चौर्य कुर्वन्तीत्येवंशीलास्तस्कराः,खण्डरक्षा-दण्डपाशिकाःशुल्कपाला वा एभी रहिता या सा। तथा-अनेन तत्रोपद्रवकारिणामभावमाह-खेमा'-अशिवाभावात् निरुवद्दुवा'निरुपद्रुता अविद्यमानराजादिकृतोपद्रवेत्यर्थः। 'सुभिक्षा'-सुष्ठु-मनोज्ञा प्रचुरा भिक्षा, भिक्षुकाणां यस्यां सा सुभिक्षा, अत एव १ . कारवस्त्वभावेxप्र. अ । २ आयारइत्तचे० अ । ३ खेमा क्षेमा अ० अ । ४ वि आ । ४ भिक्षाकाणां य० अ । TAITICARICA Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % १-उत्क्षिप्ताध्य० नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे वर्णनम् । ॥२॥ | पाखण्डिकानां गृहस्थानां च 'वीसत्थसुहावासा'-विश्वस्तानां निर्भयानामनुत्सुकानां वा सुखः-सुखस्वरुपः शुभो वा आवासो यस्यां सा । तथा-'अणेगकोडीकोटुंबियाइएणनिव्वुयसुहा'-अनेकाः कोटयो द्रव्यसंख्यायां खरूपपरिमाणे वा येषां ते अनेककोटयः, तैः कौटुम्बिकैः-कुटुम्बिंभिचाकीर्णा-संकुला या सा, तथा-सा चासौ निर्वृता च-संतुष्टजनयोगात् संतोषवतीति कर्मधारयोऽत एव सा चासौ सुखा च शुमा च वेति कर्मधारयः। 'नड-नदृग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबग-कहक-पवक-लासकआइक्खय-लंख-मंख-तृणइल्ल-तुंबवीणिय-अणेगतालाचराणुचरिया'-नटा-नाटकानां नाटयितारो, नर्चका-ये नृत्यन्ति, अंकोल्ला-इत्येके; जल्ला-वरनाखेलकाः,राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्येन्ये; मल्ला:-प्रतीताः,मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिमिः प्रहरन्ति, विडम्बका-विदूषकाः, कथकाः-प्रतीता, प्लवका-ये उत्प्लवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति, लासका ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डा इत्यर्थः आख्यायिका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति,लङ्खा-महावंशाग्रेखेलका, मङ्खा:-चित्रफलकहस्ता भिक्षाकाः, तूणइल्ला-तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः, तुम्बवीणिका-वीणावादका, अनेके च ये तालाचराः-तालादानेन प्रेक्षाकारिणस्तैरनुचरिताआसेविता या सा। तथा-'आरामुजाण-अगड-तलाय-दीहिय-वप्पिण्ण-गुणोववेया'-आरमन्ति येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः,उद्यानानि-पुष्पादिमवृक्षसंकुलान्युत्सवादी बहुजनभोग्यानि, 'अगड'त्ति-अवटा:-कूपास्तडागानि-प्रतीतानि, दीर्घिकाः-सारण्यः; 'वप्पिण'त्ति-केदाराः, एतेषां ये गुणा-रम्यतादयस्तैरुपपेता-युक्ता या सा; तथाउप-अप-इत-इत्येतस्य शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादकारलोपे उपपेतेति भवतीति । 'उव्विविपुलगंभीरखाय 1 णनिब्बुइसु० अ । २ ०भिराकीर्णा० अ । ३ •प्रलेखकाः• अ । लानाNFRICAFE Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROCK REGREECHECENECTORIES फलिहा'-उद्विद्ध-उण्डं, विपुलं-विस्तीर्ण, गम्भीरम्-अलब्धमध्यं, खातम्-उपरि विस्तीर्ण अधः संकटं, परिखा च-अध उपरि च समखातरूपा यस्याः सा; तथा-'चक्क-गय-मुसुंढि-ओरोह-सयग्घि-जमलकवाडघणदुप्पवेसा'-चक्राणि-अरघट्टेयन्त्रिकाचक्राणि, गदाः-प्रहरणविशेषाः, मुसुण्ढ्योऽप्येवं, अवरोधः-प्रतोलीद्वारेष्ववान्तरप्राकारः संभाव्यते,शतघ्न्यो-महायथ्यो महाशिलामय्यः याः पातिताः शतानि पुरुषाणांघ्नन्ति, यमलानि-समसंस्थितद्वयरूपाणि यानि कपाटानि, धनानि च-निश्छिद्राणि तैर्दुष्प्रवेशा या सा। तथा-'धणुकुटिलवंकपागारपरिखित्ता'-धनुः कुटिलं-कुटिलधनुः, ततोऽपि वक्रेण प्राकारेण परिक्षिप्ता या सा;तथा-'कविसीसयवट्टरइयसंठियविरायमाणा'-कपिशीर्षकैर्वृत्तरचितैः-वर्तुल कृतैः संस्थितैः-विशिष्टसंस्थानवद्भिविराजमाना-शोभमाना या सा,तथा-'अद्यालय-चरिय-दार-गोपुर-तोरण-उन्नयसुविभत्तरायमग्गा'-अट्टालकाः-प्राकारोपरिवाश्रयविशेषाः,चरिका-अष्टहस्तप्रमाणो नगरप्राकारान्तरालमार्गः,द्वाराणि-भवनदेवकुलादीनां,गोपुराणि-प्राकारद्वाराणि, तोरणानि-प्रतीतानि, उन्नतानि-गुणवन्ति उच्चानि च यस्यां सा; तथा-सुविभक्ता-विविक्ता राजमार्गा यस्यां सा, तथा ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः। 'छेयायरियरइयदढफलिहइंदकीला'-छेकेन-निपुणेनाचार्येण-शिल्पिना रचितो दृढो-बलवान् परिघा-अर्गला इन्द्रकीलश्च-गोपुरावयवविशेषो यस्यां सा । तथा-'विवणिवणिछेत्तसिप्पियाइण्णनिव्वुयसुहा'-विपणीनां-वणिपथानां हट्टमार्गाणां वणिजां च-वाणिजकानां क्षेत्रं-स्थानं या सा, तथा शिल्पिभिः-कुम्भकारादिमिराकीर्णा सुनिवृतैः सुखैश्च--सुखिभिर्या राजदन्तादिदर्शनात् सा । तथा-'सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चरपणियावण-विविहवत्थुपरि१ "दृगंत्रि० अ । २ समस्थित० अ । ३ ०भिःxकी अ । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी-15 मंडिया'-शृङ्गाटकं-त्रिकोणं स्थानं, त्रिक-यत्र रथ्यात्रयं मिलति, चतुष्कं-रथ्याचतुष्कमीलका,चत्वरं-बहुरथ्यापातस्थानम् , ||१-उत्क्षि पणितानि-भाण्डानि, तत्प्रधाना आपणा-हट्टाः,विविधवस्तूनि-अनेकविधद्रव्याणि, एभिः परिमण्डिता या सा। तथा-'सुरम्मा'- प्ताध्य. श्रीज्ञाता- अतिरमणीया, 'नरवइपविहन्नमहिवइपहा'-नरपतिना-राज्ञा, प्रविकीर्णो-गमनागमनाम्यां व्याप्तः, महीपतिपथो-राज- द्वितीयधर्मकथाङ्गे मागों यस्यां सा । तथा-अथवा-नरपतिना प्रविकीर्णा--विक्षिप्ता निरस्ता शेषमहीपतीनां प्रभा यस्यां सा । तथा-'अणेगवरतुरगमत्तकुंजररहपहकरसीयसंदमाणीआइन्नजाणजुग्गा'-अनेकैर्वरतुरगैमत्त कुञ्जरैः, 'रहपहयर'त्ति-स्थनिकरैः वणेनम्। शिविकाभिः स्यन्दमानाभिराकीर्णा-व्याप्ता यानयुग्येश्च या सा; तथा-तत्र शिविका:-कूटाकारेण छादिता जम्पानविशेषा स्यन्दमानिका:-पुरुषप्रमाणजम्पानविशेषाः, यानानि-शकटादीनि, युग्यानि-गोल्लविषयप्रसिद्धानि द्विहस्तप्रमाणानि वेदिकोपशोभितानि जम्पानान्येवेति: 'विमउलनवनलिणिसोभियजला'-विमुकुलाभिः-विकसितकमलाभिर्नवाभिनलिनीभिःपमिनीभिः शोभितानि जलानि यस्यां सा, तथा-'पंडुरवरभवणसन्निमहिया'-पाण्डुरैः-सुधाधवलैर्वरभवनैः-प्रासादैः सम्यक् नितरां महितेव महिता-पूजिता या सा, तथा-'उत्ताणनयपेच्छणिज्जा'-सौभाग्यातिशयादुत्तान:-अनिमिषनयनैःलोचनैः प्रेक्षणीया या सा, तथा-'पासाईया'-चित्तप्रसत्तिकारिणी, 'दरिसणिज्जा'-यां पश्यच्चक्षुः श्रमं न गच्छति, 'अभिरूपा'-मनोज्ञरूपा, 'पडिरूवा'-प्रतिरूपा द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा तथेति । तीसेणं चपाए नयरीए, बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, पुण्णभद्दे नाम चेइए; होत्था। वण्णओ।सूत्रम्-२॥ १ •तुरंगमम० अ । २ ०तुरंगमैः । %ACTE CAIMIRACLES BOYFRIC5953 Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्थ णं चंपाए नयरीए, कोणिको नाम राया होत्था; वण्णओ | सूत्रम् - ३ ॥ तस्या णमित्यलङ्कारे, चम्पाया नगर्य्या, 'उत्तरपुरत्थि मे 'त्ति - उत्तरपौरस्त्ये उत्तरपूर्वायामित्यर्थः; 'दिसी भाए'त्तिदिग्भागे पूर्णभद्रं नाम चैत्यं - व्यन्तरायतनम् | 'वण्णओ'त्ति चैत्यवर्णको वाच्यः, स चायं-- 'चिराइए पुत्र्वपुरिसपन्नत्ते'चिरः- चिरकाल आदि:-निवेशो यस्य तच्चिरादिकं, अत एव पूर्वपुरुषैः - अतीत नरैः प्रज्ञप्तं - उपादेयतया प्रकाशितं पूर्वपुरुषप्रज्ञतं । 'पुराणे 'ति - चिरादिकत्वात् पुरातनं, 'सद्दिए' - शब्दः - प्रसिद्धिः स संजातो यस्य तच्छब्दितं, 'वित्तए' - वित्तं द्रव्यं तदस्ति यस्य तद्वित्तिकं वृत्तिं वा आश्रितलोकानां ददाति यत्तद्वृत्तिदं, 'नाए' - न्यायनिर्नायकत्वात् न्यायः ज्ञातं वा-ज्ञातसामर्थ्यमनुभूततत्प्रसादेन लोकेनेति । 'सच्छत्ते - सज्झए - सघंटे - सपडागाइ पडागमं डिए' सह पताकया वर्तत इति सपताकं एकां पताकामतिक्रम्य या पताका सातिपताका तथा मण्डितं यत्तत्तथा तच्च तच्चेति कर्मधारयः, 'सलोमहत्थे ' - लोममयप्रमार्जनकयुक्तं, 'कयवेयय (हि)ए'-कृतं वितर्द्दिकं रचितवेदिकं, 'लाउल्लोइयमहिए' -लाइयं यद्भूमेश्छगणादिनोपलेपनं उल्लोइयं-कुड्यमालानां सेटिकादिभिः संसृष्टीकरणं ततस्ताभ्यां महितमित्र महितं पूजितं यत्तत्तथा 'गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचगुलितले' - गोशीर्षेण - सरसरक्तचन्दनेन च दर्दरेण बहलेन चपेटाकारेण वा दत्ताः पंचकुलास्तला - हस्तकाः यत्र तत्तथा; 'उवचियचंदणकल से'- उपचिता- निवेशिताः चन्दनकलशा- मैङ्गल्यघटा यत्र तत्तथा, 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेस भागे'- चन्दनघटाश्च सुष्ठु कृतास्तोरणानि च द्वारदेशभागं प्रति यस्मिंस्तच्चन्दन घटसुकृततोरणप्रतिद्वारदेश १०त्तिये ० अ 8 $ एतदतरगतः पाठः 'अ' प्रतौ नास्ति । २ इगुलयः त अ ३ माङ्ग' अ 6 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथा) १-उत्क्षिप्ताध्य. द्वितीय सूत्रवर्णनम् । ॥४ ॥ INCHOREOGRECEROSCOS भागं, देशभागाश्च देशा एव । 'आसत्तोसत्तविपुलबट्टवग्धारियमल्लदामकलावे'-आसक्तो-भूमौ संबद्धा, उत्सक्त-उपरि 14 संबद्धः, विपुलो-विस्तीर्णः, वृत्तो-वर्तुलः; 'वग्धारियत्ति-प्रलम्बमानः माल्यदामकलापः--पुष्पमालासमूहो यत्र तत्तथेति । 'पंचवण्णसुरभिमुक्कपुप्फपुञ्जोवयारकलिए पंचवर्णेन सुरभिणा मुक्तेन-क्षिप्तेन, पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं यत्तत्तथा; 'कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवमघमघंतगंधुध्धुयाभिरामे'-कालागरुप्रभृतीनां धूपानां यो मघमघायमानो गन्ध उद्धृत-उद्भूतस्तेनाभिरामं यत्तत्तथा,तत्र कुंदुरुकं-चीडा. तुरुकं-सिल्हकं, 'सुगंधवरगंधगंधिए'-सद्गन्धा ये वरगन्धावासास्तेषां गन्धो यत्रास्ति तत्तथा, 'गंधवभूिए'-सौरभ्यातिशयात् गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पमित्यर्थः, 'नड-नट्टक-जल्ल-मल्लमुट्ठिय-वेलंबग-पवक-कहक-लासक-आइक्खय-लंख-मंख-तूणइल्ल तुंबवीणिय-भुयग-मागह-परिगए'-पूर्ववन्नवरं भुजगा-भोगिन इत्यर्थः, भोजका वा,तदर्चका; मागधा-भट्टाः। 'बहुजणजाणवयस्स विस्सुयकित्तिए'-बहोर्जनस्य पौरस्य जानपदस्य च-जनपदभवलोकस्य विश्रुतकीर्तिकं, प्रतीतख्यातिकं । 'बहुजणस्स आहुस्स आहुणिज्जे-आहोतु:-दातुः आहवनीयं-संप्रदानभृतं, पाहुणिजे'-प्रकर्षण आहवनीयमिति गमनिका, अच्चणिज्जे-चन्दनगन्धादिभिः, 'वंदणिज्जे-स्तुतिभिः, 'पूणिज्जे-पुष्पैः, 'सक्कारणिज्जे'-वस्त्रैः, 'सम्माणणिज्जे'-बहुमानविषयतया, 'कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पज्जुवासणिजे कल्याणमित्यादिधिया विनयेन पर्युपासनीय; 'दिव्वे'-दिव्यं प्रधानं, 'सच्चे'-सत्यं सत्यादेशत्वात् , 'सच्चोवाए'-सत्यावपातं, 'सत्यसेवं'-सेवायाःसफलीकरणात, 'सन्निहियपाडिहेरे'-विहितदेवताप्रातिहाय, 'जागसहस्सभागपडिच्छए'-यागा:--पूजाविशेषा ब्राह्मणप्रसिद्धास्तत्सहस्राणां भागम्--अंशं प्रतीच्छति, आभाव्यत्वात् यत्तत्तथा, 'बहुजणो नानाFUCPIRITSAROKAR ॥ ४॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SASAHESCORECACCASI अचेह आगम्म पुण्णभई चेइ। से णं पुण्णभद्दे चेहए, एक्कणं महया वणसंडेण, सव्वओ समंता संपरि। खित्ते'-सर्वतः--सर्वदिक्षु, समन्तात--विदिक्षु च; 'से णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे -कृष्णावभास:-कृष्णप्रम:-कृष्ण एवं वाऽवमासत इति कृष्णावभासः, 'नीले नीलोभासे'-प्रदेशान्तरे, 'हरिए हरिओभासे'-प्रदेशान्तर एव, तत्र नीलो मयूरगलवत् , हरितस्तु शुक्रपिच्छवत् , हरितालाम इति वृद्धाः 'सीए सीओभासे'-शीतः स्पर्शापेक्षया वल्ल्याद्याक्रान्तत्वादिति वृद्धः, 'निद्धे निद्धोभासे-स्निग्धो न तु रूक्षः, 'तिब्वे तिव्वोभासे-तीत्रो वर्णादिगुणप्रकर्षवान्, 'किण्हे. किण्हच्छाए'-इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता, तथाहि-कृष्णः सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशेषः, एवं 'नीले नीलच्छाए, हरिए हरियच्छाए,सीए सीयच्छाए,निद्धे निद्धच्छाए, तिब्वे तिव्वच्छाए,घणकडियकडिच्छाए'-अन्योऽन्य शाखानुप्रवेशाबहलनिरन्तरच्छायः,'रम्मे महामेहनिकुरंबभूए'-महामेघवृन्दककल्पे इत्यर्थः, 'तेणं पायवा मूलमतो कंदमंतो'-कन्दो-मूलानामुपरि, 'खंधमंतों-स्कन्धः--स्थुडं,'तयामंतो' 'सालमंतों-शाला--शाखा, 'पवालमंतों-प्रवाल:-पल्लवाकरः, 'पत्तमंतो पुष्फमंतो फलमंतो बीयमंतो; 'अणुपुव्वसुजायरुइलबट्टभावपरिणया'-आनुपूर्येण-मूलादिपरिपाट्या सुष्ठु जाता रुचिराः वृत्तभावं च परिणता ये ते तथा, 'एक्कखंधा अणेगसाला अणेगसाहप्पसाहविडिमा'-अनेकशाखाप्रशाखो विटपस्तन्मध्यभागो वृक्षविस्तारो येषां ते । तथा-'अणेगणरवामसुप्पसारियअगेज्झघणविपुलवदृखंधा'-अनेकाभिर्नरवामाभिः सुप्रसारिताभिग्राह्यो घनो-निविडो १ "एxवावभास अ। २ स्तारो वा येषां अ। RECORIECCANFECIA%AHA Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाले सूत्र AAAAASANA विपुलो-विस्तीर्णो वृत्तश्च स्कन्धो येषां ते, तथा-'अच्छिद्दपत्ता'-नीरन्ध्रपर्णा, 'अविरलपत्ता'-निरन्तरदलाः, 'अ-12 | १-श्री वाईणपत्ता'-अवाचीनपत्रा:-अधोमुखपलाशाः, अवातीनपत्रा वा-अबातोपहतबर्हाः 'अणईइपत्ता'-ईतिविरहितच्छदाः, उत्क्षि'निद्धयजरठपंडुरयपत्ता'-अपगतपुराणपाण्डुरपत्राः, 'नवहरियभिसंतपत्तभारंधकारगंभीरदरिसणिज्जा'-नवेन प्ताध्य हरितेन, 'भिसन्त'त्ति-दीप्यमानेन पत्रभारेण-दलसंचयेनान्धकारा-अन्धकारवन्तः, अत एव गम्भीराश्च दृश्यन्ते ये ते तथा द्वितीय'उवनिग्गयनवतरुणपत्तपल्लवकोमलउज्जलचलंतकिसलयसुकुमालपवालसोहियवरंकुरग्गसिहरा'-उपनिर्गतैनवतरुणपत्रपल्लवैरिति--अमिनवपत्रगुच्छैः, तथा कोमलोज्ज्वलैश्चलद्भिः किशलय:--पत्रविशेषस्तथा सुकुमालप्रवालैः शोमितानि वर्णनम् । वरातराण्यग्रशिखराणि येषां ते, तथा-इह चारप्रवालकिशलयपत्राणां अल्पबहुबहुतरादिकालकृतावस्थाविशेषाद् विशेषः संभाव्यत इति, निचं कुसुमिया निचं माइया'-मयूरिताः, 'निचं लवइया'-पल्लविताः, 'निच्चं थवइया'-स्तवकवन्तः, 'निचं गुल्लइया'-गुल्मवन्तः, 'निच्चं गोच्छिया-जातगुच्छाः, यद्यपि स्तबकगुच्छयोरविशेषो नामकोशेऽधीतस्तथाऽपीह विशेषो भावनीयः, 'निच्चं जमलिया'-यमलतया समश्रेणितया व्यवस्थिताः, 'निचं जुयलिया'-युगलतया स्थिताः, 'निच्चं विणमिया'-विशेषेण फलपुष्पभारेण नताः, 'निचं पणमिया'-तथैव नन्तुमारब्धाः, 'निच्चं कुसुमियमाइय. लवइयथवइयगुलइयगोच्छियजमलियजुवलियविणमियपणमियसुविभत्तपिडिमंजरिवंडेंसगधरा' केचित कुसुमितायेककगुणयुक्ताः, अपरे तु समस्तगुणयुक्तास्ततः कुसुमिताश्च ते इत्येवं कर्मधारयः, नवरं सुविभक्ताः-विविक्ताः सुनिष्प, 'वृतःxस्कं. अ। एतदन्तर्गत: पाठः 'अ' प्रतौ नास्ति । २ वडिंस• अ। 9. ॥५ ॥ KAKSHRIRAIGAD% Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9%A4325ॐखर बतया पिण्ड्यो--लुम्म्यः मञ्जयश्च प्रतीतास्ता एवावतंसकाः--शेखरकास्तान् धारयन्ति ये ते; तथा-'सुयवरहिणमयणसालकोइलकोभंडकभिगारककोमलकजीवंजीवकनंदीमुहकविलपिंगलक्खगकारंडचक्कवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिणविरइयसदुण्णइयमहरसरनाइए'-शुकादीनां सारसान्तानां अनेकेषां शकुनगणानां मिथनैविरचितं शन्दोबतिकं च उन्नतशब्दकं मधुरस्वरं च नादित--लपितं यस्मिन् स, तथा-वनखण्ड इति प्रकृतं; 'सुरम्मे संपिडियदरियभमरमहकरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमहुरगुमगुमिंतगुंजंतदेसभागे-संपिण्डिता दृप्तभ्रमरमधुकरीणां वनसत्कानामेव, 'पहकर'त्ति-निकरा यत्र स तेथा, तथा-परिलीयमाना--अन्यत आगत्य लयं यान्तो मतपटपदाः कुसुमासवलोला:--किञ्जल्कलम्पटाः, मधुरं गुमगुमायमानाः, गुञ्जन्तश्च-शब्दविशेषं विदधानाः, देशभागेषु यस्य स तथा, ततः कर्मधारयः, 'अभितरपुप्फफला बाहिरपत्तुच्छन्ना पत्तेहि य पुप्फेहि य उच्छन्न पलिच्छन्ना'-अत्यंतमाच्छादिता इत्यर्थः, एतानि पुनर्वृक्षाणां विशेषणानि 'साउफले मिट्ठफले' इत्यतो वनषण्डस्य भूयो विशेषणानि, 'निरोयए'-रोगवर्जितः, 'नाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिए विचित्तसुहकेउभूए'-विचित्रान्-शुभान् , केतून-वजान् , भृतः- प्राप्तः, 'वाविपुक्खरिणीदीहियाँसुनिवेसियरम्मजालहरए'-वापीषु--चतुरस्रासु,पुष्करिणीषु-वृत्तासु पुष्करवतीषु वा, दीपिकासु-ऋजुसारणीषु, सुष्टु निवेशितानि रम्याणि जालगृहकाणि यत्र सा तथा-'पिंडिमनीहारिमसुगंधिसुहसुरभिमणहरं च महया गंधद्धर्णि'-मुयंता पिंडिमनिर्हारिमा पुद्गलसमूहरूपां दूरदेशगामिनी च सद्गन्धि-सुगन्धिको शुभसुरमिभ्यो गन्धा१ कोभंगकभिंगारककोडलकजीव० अ। २ तथाxxपरि० । ३ अभंतर अ। ४ यासुयनिये' अ। ५ °सुगन्धिको-सद्गन्धि अ। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3 नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १-श्री उत्विप्ताध्य द्वितीय % A1 | वर्णनम् । - न्तरेभ्यः सकाशान्मनोहरा या सा, तथा ता-च महता मोचनप्रकारेण विभक्तिव्यत्ययात् महतीं वा गन्ध एव ध्राणहेतुत्वात-- तृप्तिकारित्वाद्गन्धधाणिस्तां मुश्चन्त इति, वृक्षविशेषणमेवमितोऽन्यान्यपि; 'नाणाविहगुच्छगुम्ममंडवकघरकसुहसेउकेउ बहुला'-नानाविधाः गुच्छा गुल्मानि मण्डपका गृहकाणि च येषां सन्ति ते तथा, तथा-शुभाः सेतवो-मार्गा आलवालपाल्यो वा केतवश्व--ध्वजा-बहुला-बहवो येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, 'अणेगरहजाणजोग्गसिबियपविमोयणा'-अनेकेषां स्थादीनामघोऽतिविस्तीर्णत्वात प्रविमोचनं येषु ते, तथा-'सुरम्मा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तस्स णं वणसंडस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महं एक असोगवरपायवे पण्णत्ते, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूले-कुशा-दर्मा, विकुशा--बल्वजादयस्तैर्विशुद्धं-विरहितं वृक्षानुरूपं मूलं--समीपं यस्य स, तथा-'मूलमंते' इत्यादिविशेषणानि पूर्ववद्वाच्यानि यावत् पडिरूवे, 'से णं असोगवरपायवे अन्नेहिं बहहिं तिलएहिं, लउएहिं, छत्तोएहिं, सिरिसेहिं, सत्तवण्णेहिं, दहिवण्णेहिं, लोहिं, धवेहि, चंदणेहि, अज्जुणेहिं, निंबेहिं, कुडएहिं, कलंबेहिं, सव्वेहिं,फणसेहिं, दाडिमेहिं, सालेहिं, तालेहिं,तमालेहिं,पिएहि,पियंगूहिं,पुरोवएहिं,रायरुक्खेहिं, नंदिरुक्खेहिं; सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, ते णं तिलया लउया जाव नंदिरुक्खा, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो' इत्यादि पूर्ववत् , यावत्, पडिरूवा, 'ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा, अन्नाहिं बहुहिं पउमलयाहिं, नागलयाहिं, असोगलयाहिं, चंपयलयाहिं, चूयलयाहिं, वणलयाहिं, वासंतियलयाहिं, 1 °तथाxxशु० अ। २ ° रहितं अ। ३ °पियएहि° अ। ४ लवइया औ। CAC HECIPIERRENCE %A A %A5%) Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंदलयाहिं, सामलयाहिं; सब्बओ समता संपरिक्खित्ता, ताओ णं पउमलयाओ निश्चं कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ, तस्स णं असोगवरपायवस्स हेट्ठा ईसिस्वधंसमल्लीणे' -स्कन्धासन्नमित्यर्थः, 'एत्थ णं महं एके पुढविसिलापट्टए पण्णत्ते' - 'एत्थ णं तिशब्दोऽशोकवरपादपस्य यदधोत्रेत्येवं संबन्धनीयः; 'विक्वं भायाम सुप्पमाणे किन्हे अंजणकवाणकुवलय हलहरको सेज्जआगा सकेस कज्जलंगीखंजण सिंग भेयरिट्ठयजं बूफल असणकसणबंघणनीलुप्पलपत्तनिकर अयसिकुसुमप्पयासे'- नील- इत्यर्थः अञ्जनको वनस्पतिः, हलधरको शेयं-बलदेववस्त्रं, कजलाङ्गी - कजलगृहं, शृङ्गभेदो-महिषादिविषाणच्छेदः, रिष्ठकं-रत्नं, असनको - बियकाभिधानो वनस्पतिः, सनबन्धनं- सनपुष्पवृन्तं 'मरकतमसारकलित्तनयणकीयरासिवन्ने' - मरकतं - रत्नं, मसारो-मसृणीकारकः - पाषाणविशेषः, 'कडितं'तिकडित्रं - कृत्तिविशेषः, नयनकीका- 'नेत्रमध्यतारा तद्राश्चिवर्णः काल इत्यर्थः; 'निघणे'- स्निग्धघनः, 'अट्ठसिरे' - अष्टशिरा:-अष्टकोण इत्यर्थः, 'आयंसतलोवमे सुरम्मे इहामिग-उसभ-तुरग-नर-मगर - वालग किन्नर रुरुसर भचमरवणलय पउमलयभत्तिचित्ते' - ईहामृगाः- वृकाः, व्यालकाः- श्वापदाः भुजगा वा; 'आईणग-रुप - बूरणवणीय- तूलफासे' - आजिनकं - चर्ममयं वस्त्रं, रूतं प्रतीतं, बुरो-वनस्पतिविशेषः, तूलम् - अर्कतूलं; 'सीहासणसंठिए पासाईए जाव पडिवे' त्ति । इह ग्रन्थे वाचनाद्वयमस्ति तत्रैकां बृहत्तरां व्याख्यास्यामो, द्वितीया तु प्रायः सुगमैव; यच्च तत्र दुखगमं तदितरव्याख्यानतोऽवबोद्धव्यमिति । 'कूणिए नामं राय'त्ति- कुणिकनाम-श्रेणिकराजपुत्रो राजा, 'होत्थ' १ मध्वनेत्र मध्यतारा तद्भासिककालः कालः अ । २ 1945 Shikএ66ঃ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EOS नवाजी मीज्ञाताधर्मकथाले ARRAHASRA-NER १-श्री उत्क्षिप्ताध्य. श्रीसुधर्म| स्वामि| वर्णनम् । त्ति-अभवत् । 'वन्नओ'त्ति-तद्वर्णको वाच्यः, सच 'महया हिमवंतमहतमलयमंदरमहिंदसारे' इत्यादि; 'पसंतडिंबडमरं रज्ज पसासेमाण विहरति' इत्येतदन्तः, तत्र महाहिमवानिव महान् शेषराजापेक्षया, तथा-मलयः-पर्वतविशेषो, मन्दरो-मेरुर्महेन्द्रः-शक्रादिदेवराजस्तद्वत्सार:-प्रधानो यः स तथा, तथा प्रशान्तानि डिम्बानि-विघ्नाः डमराणिराजकुमारादिकृतविड्वरा यस्मिस्तत्तथा 'प्रसाधयन्'-पालयन् 'विहरति-आस्ते स्मेति, समग्रं पुनरग्रे व्याख्यास्यामः। तेणं काले णं, ते णं समए णं, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अजसुहम्मे नाम थेरे, जातिसंपन्ने, कुलसंपण्णे, बलरूवविणयणाणदंसणचरित्तलाघवसंपण्णेओयंसी, तेयंसी, वचसी, जसंसी; जियकोहे, जियमाणे, जियमाए, जियलोहे, जियइंदिए, जियनिहे, जियपरिसहे; जीवियासमरणभयविप्पमुके, तवप्पहाणे, गुणप्पहाणे; एवं करणचरणनिग्गहणिच्छयअन्जवमहवलाघवखंतिगुत्तिमुत्ति १०, विजामंतबंभवयनयनियमसच्चसोयणाणदंसण २०, चारित्त०, ओराले, घोरे, घोरव्वए, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी; उच्छूढशरीरे, संखित्तविउलतेयल्लेसे, चोदसपुवी, चउणाणोवगते, पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडे, पुवाणुपुब्बि चरमाणे, गामाणुगामं दूतिजमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे; जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेतिए तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता; अहापडिरूवं उग्गहं, उग्गिहित्ता, संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ।। सूत्रम्-४॥ , बभचर नय० अ । ३ तेउलसे अ। HESAनाजानाKHES ॥ ७ ॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'थेरे 'ति श्रुतादिभिर्वृद्धत्वात् स्थविरः, 'जाति संपन्न' इति उत्तममातृकपक्षयुक्त इति प्रतिपत्तव्यमन्यथा मातृकपक्षसंपन्नत्वं पुरुषमात्रस्यापि स्यादिति नास्योत्कर्षः कश्चिदुक्तो भवेद्, उत्कर्षाभिधानार्थं चास्य विशेषण कलापोपादानं चिकीर्षितमिति, एवं कुलसंपन्नोऽपि, नवरं कुलं - पैतृकः पक्षः तथा बलं संहननविशेषसमुत्थः प्राणः, रूपम् - अनुत्तरसुररूपादगुणं शरीरसौन्दर्य, विनयादीनि प्रतीतानि; नवरं लाघवं द्रव्यतोऽल्पोपधित्वं भावतो गौरवत्रयत्यागः, एभिः संपन्नो यः स तथा 'ओयंसि' त्ति-ओजो - मानसोऽवष्टम्भस्तद्वानोजस्वी, तथा - तेजस्वी तेजः - शरीरप्रभा तद्वांस्तेजस्वी, वचो - वचनं सौभाग्याद्युपेतं यस्यास्ति स वचस्त्री; अथवा – वर्चः - तेजः - प्रभाव इत्यर्थस्तद्वान् वर्चस्वी, यशस्वी - ख्यातिमान्, इह विशेषणचतुष्टयेऽपि अनुस्वारः प्राकृतत्वात् जितक्रोध इत्यादि तु विशेषणसप्तकं प्रतीतं, नवरं क्रोधादिजय उदयप्राप्तक्रोघादिविफलीकरणतोऽवसेयः; तथा जीवितस्य- प्राणधारणस्याशा - वाञ्छा मरणाच्च यद्भयं ताभ्यां विप्रमुक्तः; जीविताशामरणभयविप्रमुक्तस्तदुभयोपेक्षक इत्यर्थः तथा-तपसा प्रधानः- उत्तमः शेषमुनिजनापेक्षया तपो वा प्रधानं यस्य स तपःप्रधानः, एवं गुणप्रधानोऽपि, नवरं गुणाः- संयमगुणाः, एतेन च विशेषणद्वयेन तपःसंयमौ पूर्वबद्धाभिनवयोः कर्मणोर्निर्जरनानुपादान हेतू मोक्षसाधने मुमुक्षूणामुपादेयावुपदर्शितौ; गुणप्राधान्ये प्रपञ्चार्थमेवाह - 'एवं करणे' त्यादि, यथा-गुणशद्धेन प्रधानशोत्तरपदेन तस्य विशेषणमुक्तमेवं करणादिभिरेकविंशत्या शबै रेकविंशतिविशेषणान्यध्येयानि, तद्यथा-करण प्रधानश्च - रणप्रधानो यावच्चरित्रप्रधान तत्र करणं-पिण्डविशुद्ध्यादिः, यदाह - "पिंडविसोही समिई भावण" इत्यादि, चरणं महाव्रतादि, आइ च-'वयसमणधम्मसं जमवेयावच्चं च' इत्यादि, निग्रहः - अनाचारप्रवृत्तेर्निषेधनं, निश्वयः तच्चानां निर्णयः, विहितानु Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाडी-1₹ ठानेषु वाऽवश्यकरणाभ्युपगमः आर्जवं-मायानिग्रहो, मार्दवं-माननिग्रहो, लाघवं-क्रियासु दक्षचं, शान्तिः-क्रोधनिग्रहः, १-उत्क्षिवृ० वृ० गुप्तिमनोगुत्यादिका, मुक्तिनलोभता, विद्याः-प्रज्ञाप्यादिदेवताधिष्ठिता वर्णानुपूर्व्यः, मन्त्रा:-हरिणेगमिष्यादिदेवताधिष्ठि- प्ताध्य. श्रीज्ञाता तास्ता एव, अथवा-विद्याः ससाधनाः, साधनरहिताः मन्त्राः, ब्रम-ब्रह्मचर्य सर्वमेव वा कुशलानुष्ठान, वेदः-प्रागमो श्रीसुधर्मधर्मकथाङ्गे लौकिकलोकोत्तरकुप्रावचनिकमेदः, नया:-नैगमादयः सप्त प्रत्येकं शतविधाः, नियमा:-विचित्रा अभिग्रहविशेषाः, सत्य- स्वामि वचनविशेष, शौचं-द्रव्यतो निलेपता, भावतोऽनवद्यसमाचारता; ज्ञान-मत्यादि, दर्शनं-चक्षुर्दर्शनादि सम्यक्त्वं वा, चारित्रं- पवर्णनम्। ॥८॥ बाह्यं सदनुष्ठानं, यच्चेह करणचरणग्रहणेऽपि आर्जवादिग्रहणं तदार्जवादीनां प्राधान्यरूयापनार्थम् ननु जितक्रोधवादीनां आर्जवादीनां च को विशेषः १, उच्यते-जितक्रोधादिविशेषणेषु तदुदयविफलीकरण मुक्तं, मार्दवप्रधानादिषु तु उदयनिरोधः अथवा-यत एव जितक्रोधादिरत एव क्षमादिप्रधान इत्येवं हेतुहेतुमद्भावात् विशेषः, तथा-ज्ञानसंपन्न इत्यादी ज्ञानादिमवमात्रमुक्तं ज्ञानप्रधान इत्यादौ तु तद्वता मध्ये तस्य प्राधान्यमित्येवमन्यत्राप्यपौनरुत्यं भावनीयं, तथा-'ओराले' त्तिमीमो भयानकः, कथम् ?-अतिकष्टं तपः कुर्वन् पार्थवर्तिनामल्पसच्चानां भयानको भवति, अपरस्त्वाह 'उराले'त्तिउदार:-प्रधानः, 'घोरे'त्ति-घोरो निघृणः परिषहेन्द्रियकरायाख्यानां रिपूणां विनाशे कर्तव्ये, अन्ये त्वात्मनिरपेक्षं घोरमाहुः, तथा-'घोरव्वए'त्ति-घोराणि-अन्यैर्दुरनुचराणि व्रतानि-महाव्रतानि यस्य स तथा, घोरस्तपोभिस्तपस्वी च, तथा-घोरं च तद्ब्रह्मचर्य चाल्पसवैखं यदनुचर्यते तस्मिन् घोरब्रह्मचर्ये वस्तुं शीलमस्येति घोरब्रह्मचर्यवासी; 'उच्छूढ दिदेधि । CHANNECONOR Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ENOGRASACROCK शरीरे-'उच्छ्'ति-उज्झितमिवोज्झितं शरीरं येन से तमत्कार प्रति निःस्पृहत्वात् , तथा-'संखित्त'त्ति-संक्षिप्ता शरीरान्तर्वर्तिनी विपुला अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्था तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविषयप्रभवा तेजो-|| वाला यस्य स संक्षिप्तविपुलतेजोलेश्यः, तथा-चतुर्दशपूर्वीति वेदप्रधान इत्येतस्यैव विशेषाभिधानं, चतुझेनोपगत: केवलवर्जज्ञानयुक्त इत्यर्थः, अनेन च ज्ञानप्रधान इत्येतस्य विशेषोऽभिहितः पञ्चभिरनगारशतैः-साधुशतैः 'साई'-सेह समन्तात् परिकरित इत्यर्थः, तथा-'पुव्वाणुपुब्बिन्ति-पूर्वानुपूर्व्या ने पश्चानुपूर्ध्या अनानुपूर्व्या वेत्यर्थः, क्रमेणेति हृदयं, 'चरन्'-संचरन् । एतदेवाह-'गामाणुगामं दइन्जमाणे'त्ति ग्रामश्चानुग्रामश्च विवक्षितग्रामानन्तरग्रामो ग्रामानुग्रामं तत् द्रवन्-गच्छन् एकस्मादामादनन्तरं ग्राममनुल्लामन्यन्तीत्यर्थः, अनेनाप्यप्रतिबद्धविहारमाह, तत्राप्यौत्सुक्यभावमाह-तथा सुहंसुहेणं विहरमाणे'त्ति-अत एव सुखंसुखेन शरीरखेदाभावेन संयमबाधाऽभावेन च विहरन्-स्थानात स्थानान्तरं गच्छन् ग्रामादिषु वा तिष्ठन् , 'जेणेव'त्ति-यस्मिन्नेव देशे चम्पा नगरी, यस्मिन्नेव च प्रदेशे पूर्णभद्रं चैत्यं; 'तेणामेवेति-तस्मिन्नेव देशे उपागच्छति । क्वचिद्राजगृहे गुणसिल के इति दृश्यते, स चापपाठ इति मन्यते । उपामत्य च यथाप्रतिरूपं-यथोचितं मुनिजनस्य अवग्रहम्-आवासमवगृह्य-अनुज्ञापनापूर्वकं गृहीत्वा ॥ १३ ॥ संयमेन तपसा चात्मानं भावयन् विहरति-आस्ते स्म । तएणं चंपानयरीए परिसा निग्गया, कोणिओ निग्गओ, धम्मो कहिओ; परिसा जामेव दिसं १ ससत्कार अ । २ °रान्तनिलोना वि अ । ३ 'ब्धिविशेष प्र.अ। ४ इत्येतस्य x वि० अ । ५ सहसपरिवृतः-सम० अ । ६ न तु प° अ। RECENSIBामा-NER Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाडी बासी, अजमाणकोट्टोबगाले, संजातसमपन्नकोउहतिवृत्तो । श्रीज्ञाता धर्मकथाने जायसड्ढे, जाय समुप्पन्नसट्टे, समुपात', अन्नसुहम्म वासने नातिदूरे सुस्त III- पाउन्भूया, तामेव दिसिं पडिगया। तेणं कालेणं; तेणं समयेणं, अन्जसुहम्मस्स अणगारस्स जेढे अंतेवासी, अजजंबू णाम अणगारे, कासवगोत्तेणं, सत्नुस्सेहे जाव अजसुहम्मस्स थेरस्स अदूरसामंते उद्धंजाण, अहोसिरे झाणकोहोवगते, संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति; तते णं से अजजंबूणामे जायसड्डे, जायसंसए, जायकोउहल्ले; संजातसड्डे, संजातसंसए, संजायकोउहल्ले; उपपन्नसड्ढे. उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले समुप्पन्नसड्डे, समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्नकोउहल्ले; उहाए उढेति, उट्ठाए उद्वित्ता, जेणामेव अजसुहम्मे थेरे तेणामेव उवागच्छति २; अजसुहम्मे थेरे तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २; वंदति, नमसति वंदित्ता, नमंसित्ता अजसुहम्मस्स थेरस्स णचासन्ने नातिदूरे सुस्ससमाणे, णमंसमाणे, अभिमुहं पंजलिउडे, विणएणं पज्जुवासमाणे; एवं क्यासी-जति ण भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं आइगरेणं, तित्थग०, सयंसंबु पुरिसु०, पुरिससी०, पुरिसव०, पुरिसवरगं०, लोगु०, लोगनाहे०, लोगहिएणं, लोगप०, लोगपज्जोय०, अभयद०, सरणद०, चक्खुद०, मार्गद०, बोहिद०, धम्मद०, धम्मदे, धम्मना०, धम्मसा०, धम्मवरचा०. अप्पडिह०, सणध वियदृछ०, जिणेणं जाणएणं, तिन्नेणं तार०, | बुद्धेणं बोहएण, मुत्तेणं मोअगेणं; सव्वण्णेणं, सव्वद, सिवमयलमरुतमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावि तए । २ जंबुणामो जा० अ । ००एतदन्तर्गतः पाठः अ०. प्रतौ नास्ति । ३ •मुहे पं० । ००एतदन्तर्गतः पाठः अ० प्रतौ नास्ति । ४ हे. xxxxx लो० । ५०द. xxxxच. अ। ६ द. xxxप० । ७ दे० xxx .xxx ध० अ । ८० xxxxxxx • सि• अ। १५. जंबुइ. अ। १-श्री उत्क्षिप्ताध्य आर्यजम्बू स्वामिवर्णनम् । ॥९॥ अलाया-CANFECRE ॥ ९ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ toCANCC- CARRORECARENARIES त्तियं सासयं ठाणमुवगतेणं, पंचमस्स अंगस्स अयमढे पन्नत्ते, छदुस्स णं अंगस्स णं भंते ! णायाधम्मकहाणं के अहे पं० १, जत्ति , तए णं अजसुहम्मे थेरे अजजंबूणामं अणगारं एवं व०एवं खलु जंबू! सभणेणं भगवता महावीरेणं जाव संपत्तेणं, छट्ठस्स अंगस्स दो सुयकखंधा पन्नत्ता; तंजहा-णायाणि य धम्मकहाओ य । जति णं भंते ! समणेणं भगवता महावीरेणं जाव संपत्तेणं, छट्ठस्स अंगस्स दो सुयखंधा प०, तं०-णायाणि य । धम्मकहाओ य । पढमस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स समणेणं जाव संपत्तेणं, णायाणं कति अज्झयणा पन्नत्ता ?, एवं खलु जंबू! समणेणं जाव संपत्तेणं, णायाणं एगूणवीसं अज्झयणा पं०, तं०-उखित्तणाए १, संघाडे २, अंडे ३, कुम्मे य ४, सेलगे ५। तुंथे य ६, रोहिणी ७, मल्ली ८, मायंदी ९, चंदिमा इय १० ॥१॥ दावहवे ११, उदगणाए १२, मंडुके १३, तेयलीविय १४ । नंदीफले १५, अवरकंका १६, अतिने १७, सुंसुमा इय १८ ॥२॥ अवरे य पुंडरीयणायए १९ एगुणवीसतिमे ॥ सूत्रम्-५॥ .... 'तए णं'ति-ततोऽनन्तरं, णमित्यलंकारे, चम्पाया नगर्याः परिषत्-कूणिकराजोदिका निर्गता-निःसृता, सुधर्मस्वामिवन्दनार्थ, 'जामेव दिसिं पाउन्भूया, तामेव दिसि पडिगए'ति-यस्या दिशः सकाशात् प्रादुर्भूता-आविर्भूता | आगता इत्यर्थः, तामेव दिशं प्रतिगतेति । तस्मिन् काले, तस्मिन् समये, आर्यसुधर्मणोऽन्तेवासी आर्यजम्बूनामानगारः, IIICE १ .जादिलोका• ब Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे आर्यः ॥१०॥ काश्यपगोत्रेण 'सत्तुस्सेहे'त्ति-सप्तहस्तोच्छुयो यावत्करणादिदं दृश्य, 'समचउरंससंठाणसंठिए बजरिसहनाराय- १-उत्वि. संघयणे कणगपुलगनिघसपम्हगोरे-' कनकस्य-सुवर्णस्य, 'पुलग'त्ति-यः पुलको लवस्तस्य यो निकषः-कषपट्टे प्ताध्य० रेखालक्षणः, तथा-'पम्ह'त्ति-पगर्भस्तद्वत् गौरो यः स तथा, वृद्धव्याख्या तु-कनकस्य, न लोहार्यः पुलकः-सारो वर्णातिशयः, तत्प्रधानो यो निकषो-रेखा तस्य यत्पक्ष्मबहुलत्वं, तद्वद्यो गौर: स कनकपुलकनिकषपक्ष्भगौरा, तथा- जम्बू 'उग्रतपा'-उग्रम-अपधृष्यं तपोऽस्येतिकृत्वा, तथा-'तत्ततवे'-तप्तं-तापितं तपो येन स तप्ततपाः, एवं तेन तत्तपस्तप्तं येन स्वामिकर्माणि संताप्य तेन तपसा स्वात्मापि तपोरूपः संतापितो यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति, तथा-महातपाः- वर्णनम् । प्रशस्ततपा बृहत्तपा वा, तथा-दीप्तं तपो यस्य स दीप्ततपाः, दीप्तं तु हुताशन इव ज्वलत्तेजः कर्मेन्धनदाहकत्वादः तथा'उराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छृढसरीरे संखित्तविउलतेयलेसे' इति पूर्ववत् । एवंगुणविशिष्टो जम्बूस्वामी भगवान् , आर्यसुधर्मणः स्थविरस्य 'अदूरसामंतेत्ति-दर-विप्रकर्षः, सामन्तं-समीपं, उभयोरभावोऽदरसामन्तं, तस्मिन्नातिदरे नातिसमीपे उचिते देशे स्थित इत्यर्थः कथं ?-'उजाणू इत्यादि, शुद्धपृथिन्यासनवर्जनाद , औपग्रहिकनिवद्याभावाच्च, उत्कदुकामनः सनपदिश्यते, ऊद्ध जानुनी यस्य स ऊ जानुः, 'अधःशिराः'अधोमुखो नोड़ तिर्यग् वा विक्षिप्तरष्टिः, किं तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरिति भावना । 'झाणकोट्ठोवगए'त्ति-ध्यानमेव कोष्ठो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतो ध्यानकोष्ठोपगतः, यथा हि कोष्ठ के धान्यं प्रक्षिप्तमविप्रकीर्ण भवत्येवं, स भगवान् धर्मध्यानकोष्ठकमनुप्रविश्यन्द्रियमनास्यधिकृत्य संवृतात्मा भवतीति भावः; संयमेन-संवरेण, तपसा-ध्यानेनात्मानं भावयन्-वासयन् 15॥१०॥ Makke 453 - Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विहरति-तिष्ठति । 'तए णं से' इत्यादि, तत इत्यानन्तर्ये, तस्मात् ध्यानादनन्तरं, णमित्यलंकारे, 'स' इति पूर्वप्रस्तुतपरामर्थः, तस्य तु सामान्योक्तस्य विशेषावधारणार्थ आर्यजम्बूनामेति, स च उत्तिष्ठतीति संवन्धः किम्भूतः समित्याह'जायसद्धे' इत्यादि, जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छाऽस्येति जातश्रद्धः, क-वक्ष्यमाणानां पदार्थानां तत्त्वपरिज्ञाने स तथा, जातः संशयोऽस्येति जातसंशयः; संशयस्त्वनिर्धारितार्थ ज्ञानमुभयवस्त्वंशावलम्बितया प्रवृत्तं, स त्वेवं तस्य भगवतो जात:यथा-भगवता श्रीमन्महावीरवर्द्धमानस्वामिना त्रिभुवनमवनप्रकाशप्रदीपकल्पेन पञ्चमस्यांगस्य समस्तवस्तुस्तोमव्यतिकराविर्भावनेनार्थोऽमिहित एवं षष्ठस्याप्युक्तोऽन्यथा वेति; तथा 'जातकुतूहलो'-जातं कुतूहलं यस्य स तथा, जातौत्सुक्य इत्यर्थः विश्वस्यापि विश्वम्यतिकरस्य पञ्चमाले प्रतिपादिवत्वात् षष्ठानस्य कोऽन्योऽर्थो भगवताऽभिहितो भविष्यतीति, संजातश्रद्ध इत्यादी समुत्पन श्रद्धा इत्यादौ च संशब्दः प्रकर्षादिवचनः, तथा-उत्पन श्रद्धा प्रागभूता उत्पमा श्रद्धा यस्ये. त्युत्पन्नश्रद्धः । अथोत्पन्नश्रद्धत्वस्य जातश्रद्धत्वस्य च कोऽर्थमेदो, न कश्चिदेव, किमर्थ तत्प्रयोगः १, हेतुत्वप्रदर्शनार्थ, तथाहि-उत्पन्नश्रद्धत्वाजातश्रद्धः प्रवृत्तश्रद्ध इत्यर्थः, अपरस्त्वाह-जाता श्रद्धा यस्य प्रष्टुं स जातश्रद्धः, कथं जातश्रद्धो', यस्माजातसंशयः, षष्ठानार्थः पञ्चमानार्थवत् प्रज्ञप्तः उतान्यथेति, कथं संशयोऽजनि ?, यस्मात् जातकुतूहलः, कीदृशो नाम षष्ठाङ्गस्यार्थो भविष्यति ?, कथं च तमहमवमोत्स्ये इति ?, तावदवग्रहः, एवं संजातोत्पन्नसमुत्पन्नश्रद्धादय ईहापायधारणाभेदेन वाच्या इति । 'उहाए उढेइ 'त्ति-उत्थानमुत्था-ऊर्दू वर्तनं तया उत्थया उत्तिष्ठति उत्थाय च, 'जेणे 'त्यादि प्रकटं, 'अजसुहम्मे थेरे' इत्यत्र षष्ठ्यर्थे सप्तमीति, 'तिखुत्तो' त्ति-विकृत्वस्त्रीन वारान् , 'आदक्षिण saytcाजYCI|||%ACANCY Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी मुस्सूसमातिन, 'पज्जयागादि प्रकटं, नवरं ?, अथोत्तर भीज्ञाताबमकथाओं ॥११॥ १-उत्क्षि|प्ताध्य शिष्यप्रश्नपृच्छा. विधिदू वर्णनम् । HockC%ETECARECEC%AM | प्रदक्षिणां'-दक्षिणपार्थादारम्य परिभ्रमणतो दक्षिणपार्श्वप्राप्तिरादक्षिणप्रदक्षिणा तां, 'अनसुहम्मं थेरं'-इत्यत्र पाठान्तरे आदक्षिणात्प्रदक्षिणो-दक्षिणपार्श्ववर्ती यः स, तथा-तं 'करोति'-विदधाति, वन्दते-वाचा स्तौति, नमस्यति-कायेन प्रणमति, नात्यासन्ने नातिरे उचिते देशे इत्यर्थः, 'सुस्सूसमाणे'त्ति-श्रोतुमिच्छन् , 'नमंसमाणे'त्ति-नमस्यन् प्रणमन् अभिमुखः, 'पंजलिउडे'त्ति-कृतप्राञ्जलिः विनयेन प्रणमति-उक्तलक्षणेन, 'पज्जुवासमाणे'त्ति-पर्युपासनां विदधानः, | 'एव'मिति-वक्ष्यमाणप्रकार, 'वदासित्ति-अवादी ; यदवादीत् तदाह-'जई त्यादि प्रकटं, नवरं यदि भदन्त ! श्रमणेन पश्चमाङ्गस्यायमर्थ:-अनन्तरोदितत्वेन प्रत्यक्षः प्रज्ञप्तस्ततः षष्ठाङ्गस्य कोऽर्थः प्रज्ञप्त इति प्रश्नवाक्यार्थः ?, अथोत्तरदानार्थ 'जम्बूनामेत्ति हे जम्बू! इति-एवंप्रकारेणामन्त्रणवचसाऽऽमन्य आर्यसुधर्मा स्थविरः आर्यजम्बूनामानं अनगास्मेवमवादीव-नायाणि'त्ति-ज्ञातानि-उदाहरणानीति प्रथमः श्रुतस्कन्धः, 'धम्मकहाओ'त्ति-धर्मप्रधानाः कथाः धर्मकथा इति द्वितीयः। . . ___ 'उखित्ते'त्यादि श्लोकद्वयं सार्द्ध, तत्र मेघकुमारजीवेन हस्तिभवे वर्तमानेन यः पाद उक्षिप्तस्तेनोरिक्षप्तेनोपलक्षितं मेघकुमारचरितमुवक्षिप्तमेवोच्यते, उत्क्षिप्तमेव ज्ञातम्-उदाहरणं विवक्षितार्थसाधनमुक्षिप्तज्ञातं, ज्ञातता चास्यैवं भावनीया, दयादिगुणवन्तः सहन्त एव देहकष्ट, उत्क्षिप्तकपादो मेघकुमारजीवहस्तीवेति एतदर्थाभिधायकं सूत्रमधीयमानत्वादध्ययनमुक्तमेवं सर्वत्र ॥१॥ तथा-संघाटक:-श्रेष्ठिचौरयोरेकनन्धनबद्धत्वमिदमप्यमीष्टार्थज्ञापकत्वात् ज्ञातमेव, एवमौचित्येन १ मन् अभिमुहे त्ति अभिभ। नजारा Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ OS सर्वत्र ज्ञातशब्दो योज्यः, यथायथं च ज्ञातत्वं प्रत्यध्ययनं तदर्थावगमादवसेयमिति ॥२॥ नवरं अण्डकं-मयूराण्डं ॥३॥ कृर्मश्च-कच्छपः ।। ४ ।। शैलको-राजर्षिः॥५॥ तुम्बं च-अलाबुः ॥६॥ रोहिणी-श्रेष्ठिवधूः ॥ ७॥ मल्ली-एकोनविंशतितमजिनस्थानोत्पमा तीर्थकरी ॥ ८॥ माकन्दी नाम वणिक, तत्पुत्रो माकन्दीशब्देनेह गृहीतः ॥ ९ ॥ चन्द्रमा इति च ॥ १० ॥ 'दावद्दवे'त्ति-समुद्रतटे वृश्चविशेषाः ॥ ११॥ उदकं-नगरपरिखाजलं, तदेव ज्ञातम्-उदाहरणं-उदक ज्ञातम् । १२ ।। मण्डूकः-नन्दमणिकारश्रेष्ठिजीवः ॥१३॥ 'तेयली इयत्ति-तेतलिसुताभिधानोऽमात्य इति च ॥१४॥ 'नंदीफल'त्ति-नन्दिवृक्षाभिधानतरुफलानि ॥१५॥ 'अवरकंका'-धातकीखण्डभरतक्षेत्रराजधानी ॥ १६ ॥ 'आइण्णो'त्ति-आकीर्णा-जात्या: समुद्रमध्यवर्तिनोऽश्वाः ॥१७॥ 'सुंसुमा इय' त्ति-सुसुमाभिधाना अष्ठिदुहिता ॥ १८ ॥ अपरं च पुण्डरीकज्ञातमेकोनविंशतितममिति ।। १९ ॥ जति णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं, णायाणं एगूणवीसा अज्झयणा पं०, तं-उकरिवत्तणाए जाव पुंडरीएत्ति य । पढमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अढे पन्नत्ते , एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं २, इहेव जंबुद्दीवे दीवे, भारहे वासे, दाहिणभरहे, रायगिहे णामं नयरे होत्था, वण्णओ; चेतिए वन्नओ। तत्थ il रायगिहे नगरे, सेणिए नाम राया होत्था, महताहिमवंत० वन्नओ; तस्स णं सेणियस्स रन्नो नंदा नाम देवी होत्था, सुकुमालपाणिपाया वण्णओ ।। सूत्रम्-६ ॥ 1 गुणसिलए चे० । SAI||FECCAIGARH Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथा) १-उरिक्ष प्ताध्य. अभयकुमारस्वरूपम् । लमजल ॥१२॥ SAHARSAA% तस्स णं सेणियस्स पुत्ते नंदाए देवीए, अत्तए अभए नाम कुमारे होत्था, अहीण जाव सुरूवे, सामदंडभेयउवप्पयाणणीतिसुप्पउत्तणयविहिन्नू, ईहावूहमम्गणगवेसणअत्थसत्थमइविसारए, उप्पत्तियाएवेणझ्याए-कम्मियाए-पारिणामिआए-चउब्विहाए-बुद्धिए उववेए, सेणियस्स रण्णो बहुसु कजेसु य, कुडुंबेसु य, मंतेसु य, गुज्झेसु य, रहस्सेसु य, निच्छएसु य, आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे मेडी पमाणं, आहारे, आलंवणं, चक्खू, मेढीभूए, पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभूए, चक्खूभूए, सव्वकब्जेसु, सब्धभूमियासु लद्धपच्चए, विइण्णवियारे, रजधुरचिंतए यावि होत्था सेणियस्स रनो रजं च, रहें च, कोसं च, कोट्ठागारं च, बलं च, वाहणं च, पुरं च, अंतउरं च; सयमेव समुवेकखमाणे २ विहरति ।। सूत्रम्-७॥ यदि प्रथमश्रुतस्कन्धस्यैतान्यध्ययनानि भगवतोक्कतानि, ततः प्रथमाध्ययनस्य कोऽर्थो भगवता प्रज्ञप्तं १, इति शास्त्रार्थप्रस्तावना । अथैवं पृष्टवन्तं जम्बूस्वामिनं प्रति सुधर्मस्वामी यथाश्रुतमर्थ वक्तुमुपक्रमते स्मेति । 'एव'मित्यादि सुगम, नवरं 'एव'मिति वक्ष्यमाणप्रकारार्थः प्रजप्त इति प्रक्रमः, खलुक्यिालङ्कारे, जम्बूरिति शिष्यामन्त्रणे, 'इहैवेति देशतः प्रत्यक्षासने, न पुनरसंख्येयत्वात् । जम्बूद्वीपानामन्यत्रेतिभावः मारते वर्ष-क्षेत्रे, 'दाहिणभरहे'त्ति-दक्षिणार्धभरते, नोत्तरार्द्धमरते । 'देवी'ति-राजमार्या, 'वण्णओ'त्ति-वर्णको वाच्यः, स च वक्ष्यमाणधारिण्या इव दृश्यः । 'अत्तए'त्ति-आत्मजः-अङ्गज इत्यर्थः, 'अहीण जाव सुरूवेत्ति-इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं, 'अहीणपंचिंदिय , विहन्नु• अ। २ 'जे xxxxxx में अ। ३ °xxaxxआ I ४ भारतव• 'अ । Hd प्रक्रमः, खलुवा क्षेत्रे, 'दाहिणा इव दृश्यः ||SAGARLS % % Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BAHRAICIA सरीरे-अहीनानि-अन्यूनानि लक्षणतः स्वरूपतो चा, पञ्चापीन्द्रियाणि यस्मिस्तत्तथाविधं शरीरं यस्य स तथा 'लक्खणवं. जणगुणोववेए'-लक्षणानि-स्वस्तिकचक्रादीनि, व्यञ्जनानि-मपतिलकादीनि, तेषां यो गुणः-प्रशस्तता तेनोपपेतोयुक्तो यः स तथा, उप-अप-इत-इति शब्दत्रयस्य स्थाने शकन्ध्वादिदर्शनादुपपेत इति स्यात् ; 'माणुम्माणपमाण| पडिपुण्णसुजायसव्वंगसुंदरंगे'-तत्र मान-जलद्रोणप्रमाणता, कथं १,-जलस्यातिभृते कुण्डे पुरुषे निवेशिते यज्जलं निस्सरति, तद्यदि द्रोणमानं भवति, तदा स पुरुषो मानप्राप्त उच्यते; तथा उन्मानं-अर्द्धभारप्रमाणता, कथं ?-तुलारोपितः पुरुषो यद्यर्द्धमारं तुलति, तदा स उन्मानप्राप्त इत्युच्यते; प्रमाण-स्वाङ्गुलेनाष्टोत्तरशतोच्छ्रयता, ततश्च मनोन्मानप्रमाणैः प्रतिपूर्णानिअन्यूनानि, सुजातानि-सुनिष्पनानि, सर्वाणि अङ्गानि-शिरःप्रभृतीनि, यस्मिन् तत्तथाविधं सुन्दरमंगं-शरीरं यस्य स तथा; 'ससिसोमाकारे कंते पियदसणे'-शशिव सौम्याकार, कान्तं-कमनीयमत एव प्रियं द्रष्टणां दर्शन-रूपं यस्य स तथा; अत एव 'सुरुवे'त्ति-सुरूप इति, तथा-सामदण्ड मेदउपप्रदानलक्षणा या राजनीतयः, तासां सुष्टु प्रयुक्त-प्रयोगो व्यापारणं यस्य स तथा नयानां-नैगमादीनां उक्तलक्षणनीतीनां च या विधा-विधयः प्रकारास्तान जानाति यः स तथा, पश्चात्पदद्वयस्य कर्मधारयः तत्र परस्परोपकारप्रदर्शनगुणकीर्तनादिना शत्रोरात्मवशीकरण साम, तथाविधपरिक्लेशे धनहरणादिको दण्डः, विजिगीषितशत्रुपरिवर्गस्य स्वाम्यादिस्नेहापनयनादिको भेदः, गृहीतधनप्रतिदानादिकमुपादानं; नयविधयस्तु सप्त नैगमादयो नया: प्रत्येकं शतभेदा, नीतिभेदास्तु सामनीतेः पञ्च, दण्डस्य त्रयः, भेदस्य उपप्रदानस्य च पश्च कामन्दकादिप्रसिद्धा इति । तथा ईहा च-स्थाणुरयं पुरुषो वेत्येवं सदालोचनामिमुखा मतिचेष्टा, अपोहन-स्थाणुरेवायमित्यादिरूपो निश्चयः, FOCACANCI||GFRIA Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी पृ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ १३ ॥ मार्गणं च-इह वल्ल्युत्सर्पणादयः स्थाणुधर्मा एवं प्रायो घटन्ते इत्याद्यन्वयधर्मालोचनरूपं, गवेषणं च-इह शरीरकण्डूयनादयः पुरुषधर्माः प्रायो न घटन्त इति व्यतिरेकधर्मालोचनरूपं ईहाव्यूहमार्गणागवेषणानि तैरर्थशास्त्र - अर्थोपायन्युत्पादग्रन्थे कौटिल्यराज [धा]नीत्यादौ या मतिर्बोधस्तया विशारदः - पण्डितो यः स ईहाव्यूहमार्गणगवेषणार्थशास्त्र मतिविशारदः । तथौत्पत्ति क्यादिकया बुद्ध्या उपपेतो- युक्तः, तत्रौत्पत्तिकी - अदृष्टाश्रुताननुभूतार्थविषयाऽऽकस्मिकी, वैनयिकी - गुरुविनयलभ्यशास्त्रार्थसंस्कारजन्या, कर्म्मजा - कृषिवाणिज्यादिकर्माभ्यासप्रभवाः पारिणामिकी- प्रायो वयोविपाकजन्या । तथा-श्रेणिकस्य राज्ञः बहुषु कार्येषु च-भक्तसेवकराज्यादिदानलक्षणकृत्येषु विषयभूतेषु, तथा कुटुम्बेषु च - स्वकीय परकीयेषु विषयभूतेषु ये मन्त्रादयो निश्चयान्तास्तेषु आप्रच्छनीयः, तत्र मन्त्रा-मन्त्रणानि पर्यालोचनानि तेषु च गुह्यानीव गुह्यानि-लञ्जनीयव्यवहारगोपितानि तेषु च रहस्यानि - एकान्तयोग्यानि तेषु निश्वयेषु वा इत्थमेवेदं विधेयमित्येवंरूपनिर्णयेषु । अथवा स्वतन्त्रेषु कार्यादिषु षट्सु विषयेषु चकाराः समुच्चयार्थाः, आप्रच्छनीयः - सकृत् प्रतिप्रच्छनी यो द्वित्रिकृत्वः किमिति १ - यतोऽसौ 'मेटि'ति खलकमध्यवर्त्तिनी स्थूणा, यस्यां नियमिता गोपतिर्धान्यं गाहयति, तद्वद्यमालम्ब्य सकलमन्त्रिमडलं मन्त्रणीयार्थान् धान्यमिव विवेचयति सा मेढी; तथा प्रमाण- प्रत्यक्षादि, तद्वद्यः तद्दृष्टार्थानामव्यभिचारित्वेन तथैव प्रवृत्तिनिवृत्तिगोचरत्वात् स प्रमाणं तथा-'आधारे ' - आधारस्येव सर्वकार्येषु लोकानामुपकारित्वात् तथा - 'आलंबनं' रज्ज्वादि, तद्वदापद्गर्त्तादिनिस्तारकत्वादालम्बनं तथा चक्षुः- लोचनं तद्वल्लोकस्य मन्त्रयमात्यादिविविध कार्येषु प्रवृत्तिनिवृत्तिविषयप्रदर्शकत्वाच्चक्षुरिति । एतदेव प्रपञ्चयति-' मेढिभूए ' इत्यादि, भूतशब्द उपमार्थः, सर्वकार्येषु - सन्धिविग्रहादिषु सर्वभूमिकासु- मन्त्रि अमात्यादि |||| १ - उत्क्षिप्ताध्य● अभय कुमार स्वरूपम् । ॥ १३ ॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HOCCSECSECSECCANA स्थानकेषु लन्धः-उपलब्धः, प्रत्ययः-प्रतीतिरविसंवादिवचनं च यस्य स, तथा-'विइण्णवियारेति वितीर्णो-राज्ञाऽनुज्ञातो विचार:-अवकाशो यस्य विश्वसनीयत्वात् असौ वितीर्णविचारः सर्वकार्यादिग्विति प्रकृतं; अथवा-'विण्णवियारे' विज्ञापिता राज्ञो लोकप्रयोजनानां निवेदयिता, किंबहुना ?,-राज्यधुरश्चिन्तकोऽपि-राज्यनिर्वाहकश्चाप्यभूव। एतदेवाहश्रेणिकस्य राज्ञो राज्यं च-राष्ट्रादिसमुदायात्मकं, राष्ट्रं च-जनपदं, कोशं च-भाण्डागारं, कोष्ठागारं च-धान्यगृहं, बलं चहस्त्यादिसैन्यं, वाहनं च-वेसरादिकं, पुरं च-नगरं, अन्तःपुरं च-अवरोधनं, स्वयमेव-आत्मनैव समुत्प्रेक्षमाणो-निरूपयन् समुत्प्रेक्षमाणो वा-व्यापारयन् इह च द्विवचनमामीक्ष्ण्येऽवसेयं, "विहरति'-आस्ते स्म । तस्स णं सेणियस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था, जाव सेणियस्स रन्नो इट्ठाजाव विहरइ ।।सूत्रम्-८॥ तए णं सा धारिणी देवी, अन्नया कयाइ तंसि तारिसैगंसि, छक्कट्ठकलट्ठमट्ठसंठियखंभुग्गयपवरसालभं| जियउज्जलमणिकणगरतणभूमियंविडकजालद्धचंदर्णितहकंतरकणयालिचंदसालियाविभत्तिकलिते, सर सच्छधाऊवलवण्णरइए, बाहिरओ दूमियघट्ठमटे, अम्भितरओ पत्तसुविलिहियचित्तकम्मे, णाणाविहपंचवण्णमणिरयणकोहिमतले, पउमलयाफुल्लवल्लिवरपुप्फजातिउल्लोयचित्तियतले, वंदणवरकणगकलस सुविणिम्मियपडिपुंजियसरसपउमसोहंतदारभाए, पयरगालंबंतमणिमुत्तदामसुविरइयदारसोहे, सुगंधपूश १ कयाई अ। २ ०गसि घठलठमठसंठियखंभुग्गतप. अ। ३ रयणथुभियविडंग० अ। ४ ०णीज्जहतरकणतालि० अ। ५ ० भत्तिकलिये अ। IFEAजाना |GALOS ". जायि. अ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १-उत्विप्ताध्य. धारिण्या: स्वप्नदर्शनादिवर्णनम् । ॥१४॥ AAAAAAACCOLLEC वरकुसुममउयपम्हलसयणोवयारे, मणहिययनिव्वुइयरे, कप्पूरलवंगमलयचंदनकालागुरुपवरकुंदुरुकतुरुक्कधूवडज्झंतसुरभिमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे, सुगंधवरगंधिए, गंधवभूिते, मणिकिरणपणासियंधारे किंबहुणा ?, जुइगुणेहिं सुरवरविमाणवेलंबियवरघरए, तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि, सालिंगणवहिए, उभओ बिब्बोयणे, दुहओ उन्नए, मजेणयगंभीरे, गंगापुलिणवालुयाउद्दालसालिसए, उयचियखोमदुगुल्लपपडिच्छण्णे, अच्छरयमलयनयतयकुसत्तलिंबसीह केसरपच्चुत्थए, सुविरइयरयत्ताणे, रत्तंसुयसंवुए, सुरम्मे, आइणगरूयबूरणवणीयतुल्लफासे; पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी २ एगं, महं, सत्तुस्सेहं, रययकूडसन्निहं, नहयलंसि सोमं, सोमागारं, लीलायंत, जंभायमाणं, मुहमतिगयं; गयं पासित्ता णं पडिबुद्धा ॥९॥ तते णं सा धारिणी देवी, अयमेयास्वं, उरालं, कल्लाणं, सिवं, धन्नं, मंगल्लं, सस्सिरीयं, महासुमिणं; पासित्ता णं पडिबुद्धासमाणी, हहतुट्ठा चित्तमाणंदिया, पीइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमा| णहियया, धिाराहयकलंबपुप्फगंपिव समृससियरोमकूवा, तं सुमिणं ओगिण्हइ २ सयणिज्जाओ उद्देति २; पायपीढातो पच्चोरुहइ, पच्चोरुहइत्ता; अतुरियमचवलमसंभंताए, अविलंबियाए, रायहंससरिसीए गतीए, जेणामेव से सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता सेणियं रायं ताहिं इटाहिं, कंताहिं, पिया , भूये अ । २ ०यारे. अ । ३ या अवदाल सा अ । ४ वरत्तसम० अ । ५ मइग' अ I + एतदन्तर्गतः पाठः अप्रतौ नास्ति । SEनानाला ||RARY ॥१४॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिं, मणुन्नाहिं, मणामाहिं, उरालाहिं, कल्लाणाहिं, सिवाहिं, धन्नाहिं, मंगल्लाहिं, सस्सिरियाहिं, हिययगमणिज्जाहि. हिययपल्हायणिजाहिं, मियमहुररिभियगंभीरसस्सिरीयाहिं, गिराहिं संलवमाणी २, पडिबोहेइ, पडिवोहेत्ता सेणिएणं रन्ना अन्भणुन्नाया समाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्तंसि, भद्दासणंसि, निसीयति २त्ता; आसत्था, विसत्था, सुहासणवरगया, करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु, सेणियं रायं एवं वदासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया! अज तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि, सालिंगणवहिए जाव नियगवयणमइवयंतं गयं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तं एयस्स णं देवाणुप्पिया! उरालस्स जाव सुमिणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सति ?, ॥ सूत्रम्-१०॥ _ 'धारणी नामं देवी होत्था जाव सेणियस्स रन्नो इट्ठा जाव विहरई'-इत्यत्र द्विर्यावच्छन्दकरणादेवं द्रष्टव्यम् । 'सुकुमालपाणिपाया, अहीणपंचेंदियसरीरा, लक्खणवंजणगुणोववेया, माणुम्माणपमाणसुजायसव्वंगंसुंदरंगी, ससिसोमाकारा, कंता, पियदसणा, सुरूवा, करतलपरिमिततिवलियबलियमज्झा'-करतलपरिमितो-मुष्टिग्राह्यस्त्रिवलीको-रेखायोपेतो बलितो-बलवान् मध्यो-मध्यभागो यस्याः सा तथा । 'कोमुईरयणिकरविमलपडिपुन्नसोमवयणा'-कौमुदीरजनी करवत्-कार्तिकीचन्द्र इव विमलं-प्रतिपूर्ण सौम्यं च वदनं यस्याः सा, तथा'कुंडलुल्लिहियगंडलेहा'-कुण्डलाम्यामुल्लिखिता-घृष्टा गण्डलेखा:-कपोलविरचितमृगमदादिरेखा यस्याः सा । तथा१यदशनह' सि । BAF%ाजार Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ०० श्रीज्ञाताधर्मकथा) 'सिंगारागारचारूवेसा'-शृङ्गारस्य-रसविशेषस्यागारमिवागारं, अथवा-अङ्गारो-मण्डनभूषणाटोपः, तत्प्रधानः आकार:- १-उत्थिआकृतिर्यस्याः सा, तथा चारुषो-नेपथ्यं यस्याः सा, तथा-ततः कर्मधारयः । तथा-'संगयगयहसियभणियविहिय- सप्ताध्य. विलाससललियसंलावणिउणजुत्तोवयारकुसला'-संगता-उचिता गतहसितमणितविहितविलासा यस्याः सा, तथा- धारिण्या: तत्र विहितं-चेष्टितं, विलासो-नेत्रचेष्टा, तथा सह ललितेन-प्रसन्नतया ये संलापा:-परस्परमाषणलक्षणास्तेषु निपुणा या शृङ्गारादिसा, तथा-युक्ता-संगता ये उपचारा-लोकव्यवहारास्तेषु कुशला या सा, तथा-ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। 'पासाईया' वर्णनम् । चित्तप्रसादजनिका, 'दरिसणिज्जा-यां पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यति, 'अभिरूपा'-मनोजरूपा, 'पडिरूवा'-द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं यस्याः सा, तथा-'सेणियस्स रन्नो इट्ठा वल्लभा कांता'-काम्यत्वात् , प्रिया-प्रेमविषयत्वात् , मणुन्नासुन्दरत्वात 'नामधेजा'-नामधेयवती प्रशस्तनामधेयवतीत्यर्थः, नाम वा धार्य-हृदि धरणीयं यस्याः सा; तथा'वेसासिया-विश्वसनीयत्वात् , 'सम्मया-तत्कृतकार्यस्य सम्मतत्वाद्वहुमता-बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशान्मता, बहुमता, बहुमानपात्रं वा; 'अणुमया'-विप्रियकरणस्यापि पश्चात्मता अनुमता, 'भंडकरंडगसमाणा'-आमरणकरण्डकसमानोपादेयत्वात् , 'तेल्लकेला इव सुसंगोविया'-तेलुकेला-सौराष्ट्रप्रसिद्धो मृन्मयस्तैलस्य भाजनविशेषः, सच भङ्गभयाल्लोच(ठ)नभयाच सुष्ठु संगोप्यते एवं साऽपि; तथोच्यते 'चेलपेडा इव सुसंपरिगिहीया' वस्त्रमञ्जूषेवेत्यर्थः, 'रयणकरंडगोविव सुसारविया'-सुसंरक्षितेत्यर्थः, कुत इत्याह-'मा णं सीयं, मा.णं उण्हं, मा णं दंसा, मा णं १ द्रष्टार xxx प्रति• अ। २ प्रिया सदाने. भा 95 ॥१५॥ बाजEERICA Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CARS 40+CROCRACCORRECR906 मसगा, मा णं वाला, मा णं चोरा, मा णं वाइयपित्तियसंभियसन्निवाइयविविहरोगायंका, फुसंतुत्तिक सेणिएणं रन्ना सद्धिं विउलाई भोग भोगाई भुंजमाणा विहरति' । माशब्दा निषेधार्थाः, शंकारा वाक्यालङ्कारार्थाः; अथवा-'माणं'ति-मैनामिति प्राकृत्तवात् , व्यालाः-श्वापदभुजगाः, रोगा:-कालसहाः, आतङ्काः-सद्योघातिनः; इतिकट्ठइतिकृत्वा इतिहेतोर्नोगभोगान्-अतिशयवद्धोगानिति । 'तए णं'ति-ततोऽनन्तरं, 'तंसि तारिसयंसित्ति-यदिदं वक्ष्यमाणगुणं तस्मिस्तादृशके, यादृशमुपचितपुण्यस्कन्धानामङ्गिनामुचितं, 'वरघरए'त्ति-संबन्धः वासभवने इत्यर्थः कथंभूते ?,'षटकाष्ठकं'-गृहस्य बाह्यालन्दकं पड्दारुकमिति यदागमप्रसिद्धं, द्वारमित्यन्ये; स्तम्मविशेषणमिदमित्यन्ये तथा-लष्टामनोज्ञा, मृष्टा-मसृणाः, संस्थिता-विशिष्टसंस्थानवन्तो ये स्तम्भास्तथा उद्गता-ऊधंगता स्तम्भेषु वा उद्गता-व्यवस्थिताः स्तम्भोद्गताः, प्रवराणां वरा:-प्रवरवरा:-अतिप्रधाना याः शालभञ्जिका:-पुत्रिकास्तथा उज्वलानां मणीनां-चन्द्रकान्तादीनां कनकस्य रत्नानां-कर्केतनादीनां या स्तूपिका-शिखरं; तथा-विटङ्कः-कपोतपाली वरण्डिकाधोवर्ती अस्तरविशेषः, जालंसच्छिद्रो गवाक्षविशेषः, अर्द्धचन्द्रः-अर्द्धचन्द्राकारं सोपानं नियुहक-द्वारपार्श्वविनिर्गतदारु अंतरं-अस्तरविशेष एव पानीयान्तरमिति सूत्रधारैर्यद् व्यपदिश्यते नियुहकद्वयस्य यान्यन्तराणि तानि वा नियुहकान्तराणि कणकाली-अस्तरविशेषश्चन्द्रसालिका च-गृहोपरि शाला एतेषां गृहांशानां या विभक्तिः-विभजनं विविक्तता तया कलितं-युक्तं यत्तत्तथा तस्मिन् ; 'सरसच्छवाडवडंबसरइए'त्ति-स्थाप्यं, कश्चित् पुनरेवं संभावितमिदं-'सरसच्छधाउबलवन्नरइए'त्ति-तत्र १ यदेवं व. अ। २ ष एव तथा चन्द अ। ३ वाऽवलंबत्तरए त्ति अ। A FAII|| ॐ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी %A5% वृ० वृ० श्रीज्ञातीधर्मकथाले सरसेन-अच्छेन धातूपलेन-पाषाणधातुना गैरिकविशेषेणेत्यर्थः वर्णो रचितो यत्र तत्तथा, 'बाहिरओ दूमियघट्ठमढे'त्तिमित-धवलितं घृष्टं-कोमलपाषाणादिना अत एव मृष्टं-महणं यत्तत्तथा तस्मिन् , तथा अभ्यन्तरतः प्रशस्तं-स्वकीय | R २ कर्मव्यापृतं शुचि-पवित्रं लिखितं चित्रकर्म यत्र तत्तथा-तस्मिन् ; तथा-नानाविधानां जातिभेदेन पश्चवर्णानां मणिरत्नानां |प्ताध्य. सत्कं कुट्टिमतलं-मणिभूमिका यस्मिंस्तत्तथा तत्र, तथा-पझैः-पद्माकारैरेवं लताभिरशोकलताभिः पद्मलताभिर्वा मृणालिकाभिः धारिण्या: पुष्पवल्लीभिः-पुष्पप्रधानाभिः पत्रवल्लिभिः, तथा-वराभिः पुष्पजातिभिः-मालतीप्रमृतिभिश्चित्रितमुल्लोकतलं-उपरितनभागो भोगयस्मिन् तत्तथा तत्र, इह च प्राकृतत्वेन 'उल्लोयचित्तियनले' इत्येवं विपर्ययनिर्देशो द्रष्टव्य इति; अथवा-पद्मादिभिरुल्लो-ला . कस्य चित्रितं तलं-अधोभागो यस्मिन्निति, तथा-वन्द्यन्त इति वन्दना-मङ्गल्याः, ये वरकनकस्य कलशाः, सुष्ठु-निम्मिय'त्ति वर्णनम् । न्यस्ताः प्रतिपूजिता-चन्दनादिचर्चिताः, सरसपद्याः-सरसमुखस्थगनकमलाः शोभमाना द्वारभागेषु यस्य, पाठान्तरापेक्षया चन्दनवरकनककलशैः सुन्यस्तैस्तथा प्रतिपूजितैः-पुञ्जीकृतैः सरसपः शोभमाना द्वारभागा यस्य तत्तथा तस्मिन् ; तथाप्रतरकाणि-स्वर्णादिमया आभरणविशेषास्तवप्रधानमणिमुक्तानां दामभिः-स्रग्भिः सुष्ठ विरचिता द्वारशोभा यस्य तथा तस्मिन्, तथा-सुगन्धिवरकुसुमैर्मृदुकस्य-मृदोः पक्ष्मलस्य च-पक्ष्मवतः शयनस्य-तूल्यादिशयनीस्य यः उपचार:-पूजा उपचारो वा स विद्यते यस्मिन् मण इत्यस्य मत्वर्थीयत्वात , तत् सुगन्धिवरकुसुममृदुपक्ष्मलशयनीयोपचारवत्तच, यद् हृदयनितिकरं च-मन:स्वास्थ्यकरं तत्तथा तस्मिन्, तथा-करिश्च लवङ्गानि च-फलविशेषाः, मलयचन्दनं च-पर्वत "नैर्लबमानैः म । %AFRICAIHERE ॥१६॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SACCHEA5%% विशेषप्रभवं श्रीखण्डं, कालागुरुश्च-कृष्णागरुः, प्रवरकुन्दुरुकं च-चीडाभिधानो गन्धद्रव्यविशेषः, तुरुष्कं च-सिल्हकं, धूपश्चगन्धद्रव्यसंयोगज इति द्वन्द्वः, एतेषां वा संबन्धी यो धूपः, तस्य दद्यमानस्य सुरभियों मघमघायमानः-अतिशयवान् गन्धः उद्धृतः-उद्भूतः-तेनाभिरामम्-अभिरमणीयं यतत्तथा तस्मिन् । तथा-सुष्टु गन्धवराणां-प्रधानचूर्णानां गन्धो यस्मिन् अस्ति तत् सुगन्धवरगन्धिकं तस्मिन् , तथा-गन्धवत्तिः-गन्धद्रव्यगुटिका कस्तूरिका वा गन्धस्तद्गुटिका गन्धवर्तिस्तद्भूते-सौरम्यातिशयात्तत्कल्पे, तथा-मणिकिरणप्रणाशितान्धकारे; किंबहुना वर्णकेन ?,-वर्णकसर्वस्वमिदं छुत्या गुणैश्च सुरवरविमानं विडम्बयति-जयति यदरगृहकं तत्तथा तत्र, तथा-तस्मिन् तादृशे शयनीये सहालिङ्गनवा -शरीरप्रमाणोपधानेन यत्त त्सालिङ्गनवर्चिकं तत्र, 'उभओ विव्वोयणे'त्ति-उभयतः उभौ-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य, 'विव्वोयणे'त्ति-उपधाने यत्र तत्तथा तस्मिन्, 'दुहओ'त्ति-उभयतः उन्नते मध्ये नतं च तन्निम्नत्वाद्गभीरं च महचानतगम्भीरं, अथवा मध्येन च भागेन तु गम्भीरे-अवनते गङ्गापुलिनवालुकायाः अवदातः-अबदलनं पादादिन्यासेऽधोगमनमित्यर्थः तेन 'सालिसएत्ति सदृशकमतिनम्रत्वायत्तत्तथा तत्र, दृश्यते च हंसतूल्यादिप्वयं न्याय इति । तथा-'उयचियत्ति-परिकर्मितं यत् क्षौमं दुकूलंकार्पासिकमतसीमयं वा वस्त्रं तस्य युगलापेक्षया यः पट्टः-एकः शाटकः स प्रतिच्छादनम्-आच्छादनं यस्य तत्तथा तत्र, | तथा-आस्तरको मलको नवतः कुशक्तो लिम्बः सिंहकेसरश्चैते आस्तरणविशेषास्तैः प्रत्यवस्तृतम्-आच्छादितं यत्तत्तथा, इह चास्तरको लोकप्रतीत एव, मलककुशक्तौ तु रूढिगम्पो, नवतस्तु ऊर्णाविशेषमयो जीनमिति लोके यदुच्यते, लिम्बो-बालोरभ्रस्योर्णायुक्ता कृतिः, सिंहकेसरो-जटिलकम्बलः, तथा-सुष्ठु विरचितं शुचि वा रचितं रजत्राणं-आच्छादनविशेषोऽपरि RAJESIजI SCARROCON Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स उत्क्षि * नवाङ्गी- भोगावस्थायां यस्मिस्तत्तथा तत्र, रक्तांशुकसंवृते-मशकगृहाभिधानवस्त्रावृते सुरम्ये, तथा-आजिनक-चर्ममयो वस्त्रविशेषः, १-श्री वृ० वृ० स च स्वभावादतिकोमलो भवति । तथा-रूतं-कर्पासपक्ष्म, बृरो-वनस्पतिविशेषः, नवनीतं-प्रवण, एभिस्तुल्यः सपर्टी श्रीज्ञाता- IP यस्य; तूलं वा-अर्कतूलं, तत्र पक्षे एतेषामित्र स्पर्शो यस्य तत्तथा तत्र, पूर्वरात्रश्वासावपररात्रश्च-पूर्वरात्रापररात्रः, स एव বা धर्मकथाओं काललक्षणः समयः, न तु सामाचारादिलक्षणः पूर्वरात्रापररात्रकालसमयस्तत्र, मध्यरात्रे इत्यर्थः; इह चार्षत्वादेकरेफलोपेन धारिण्या: 'पुव्वरत्तावरत्त'त्युक्तं, अप[२] रात्रशब्दो वाऽयमिति । सुप्तजागरा-नातिसुप्ता नातिजापती, अत एवाह-'ओहीर स्वप्नवर्णमाणी त्ति-वारं वारमीपनिद्रां गच्छन्तीत्यर्थः; एकं महान्तं सतोत्सेधमित्यादिविशेषणं मुखमतिगतं गजें दृष्ट्वा, प्रतिबुद्धति वर्णनम् । योगः तत्र सप्तोत्सेवं सप्तसु-कुम्भादिषु स्थानेषूनतं सप्तहस्तोच्छ्रितं वा 'रययंति-रूप्यं, 'नहयलंसित्ति-नमस्तलान्मुख-12 मतिगतमिति योगः। वाचनान्तरे त्वेवं दृश्यते-'जाव सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा'-तत्र यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम् । 'एकं च णं महंत पंडुरं धवलयं सेयं-एकार्थशब्दत्रयोपादानं चात्यन्तशुक्लताख्यापनार्थ, एतदेवोपमाने-2 नाह-'संखउलविमलदहियणगोखीर(विमल )फेणरयणिकरपगास'-शंखकुलस्येव विमलदन इव धनगोक्षीरस्येव विमलफेनस्येव रजनीकरस्येव प्रकाशः-प्रभा यस्य स तथा तं, अथवा-'हाररजतखीरसागरदगरयमहासेलपंडुरतरोरुरमणिजदरिसणिज्जं'-हारादिभ्यः पाण्डुरतरो यः स तथा, इह च महाशैलो-महाहिमवान् , तथा उरुः-विस्तीर्णः, रमणीयो-रम्योऽत एव दर्शनीय इति पदचतुष्टयस्य कर्मधारयोऽतस्तं, तथा-'थिरलट्ठपउट्ठपीवरसुसिलिट्ठविसिट्ठहै तिक्खदाढाविडंबियमुहं'-स्थिरौ-अप्रकम्पो, लष्टौ-मनोज्ञौ, प्रकोष्ठौ-कूर्पराग्रेतनमागौ यस्य स तथा; तथा-पीवरा:- ॥१७ ।। UCARRONICICIAOCAYESHA % Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R ४) स्थूलाः, सुश्लिष्टा:-अविसर्वरा विशिष्टा-मनोहरास्तीक्ष्णा या दंष्ट्रास्ताभिः कृत्वा, 'विडंबियंति-विवृतं मुखं यस्य स तथा, ततः कर्मधारयस्तं; तथा-'परिकम्मियजच्चकमलकोमलमाईयसोहंतलहउटुं'-परिकम्मित-कृतपरिकर्मा, 'माइयत्तिमात्रावान् परिमित इत्यर्थः, शेषं प्रतीतं; तथा-'रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुनिल्लालियग्गजीहं'-रक्तोत्पलपत्रमिव मृदुकेभ्यः सुकुमारमतिकोमलं तालु च निर्लालिताना-प्रसादिताया जिह्वा च यस्य स तथा तं, तथा-'महुरगुलिया भिसंतपिंगलच्छं-मधुगुटिकेव-क्षौद्रवतिरिव, 'भिसंतत्ति-दीप्यमाने पिङ्गले-कपिले अक्षिणी यस्य स तथा तं; तथा'मूसागयपवरकणयतावियआवत्तायंतवद्दतडियविमलसरिसनयणं'-मूषागतं मृन्मयभाजनविशेषस्थं यत्प्रवरकनकं तापितमनिधमनात् , 'आवत्तायंत'त्ति-आवर्त कुर्वत् तद्वत् तथा वृत्ते च तर्दिते-विवृत्ते विमले च सदृशे च-समाने नयने यस्य स तथा तं; अत्र च 'वत'-इत्येतावदेव पुस्तके दृष्टं संभावनया तु वृत्ततर्दित इति व्याख्यातमिति, पाठान्तरेण तु 'वपडिपुण्णपसत्थनिद्धमहुगुलियपिंगलच्छं' स्फुटश्चायं पाठः। तथा-'विसालपीवरभमरोरूपडिपुण्णविमलखंध-विशालो-विस्तीर्णः, पीवरो-मांसलः, 'भ्रमरोरू.'-भ्रमरा-रोमावर्चा उरवो-विस्तीर्णा यत्र स तथा, परिपूर्णो विमलश्च स्कन्धो यस्य स तथा तं; अथवा-'पडिपुण्णसुजायखधं', तथा-'मिदुविसदसुहमलक्खणपसत्थविच्छिन्नकेसरसडं'-मृद्व्यो विशदा-अविमूढाः सूक्ष्मा लक्षणप्रशस्ताः-प्रशस्तलक्षणा विस्तीर्णाः, कसरसटा:-स्कन्धकेशरजटा यस्य स तथा तं; अथवा-'निम्मलवरकेसरधरं', तथा-'ऊसियसुनिम्मियसुजायअप्फोडियलंगूलं'-उच्छ्रितम्-ऊर्द्ध नीतं सुनिर्मितं सुष्ठु भंगुरतया न्यस्तं सुजातं सद्गुणोपपेततया आस्फोटितं भुवि लाङ्गुलं-पुच्छं येन स तथा तं, सौम्यं ASICALE Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१० वृक श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥१८॥ CATROCCALCRECIRC-%EO उपशान्तं सौम्याकार-शान्ताकृति, 'लीलायत'ति-लीलां कुर्वन्तं, 'जंभायंत'-विजृम्भमाणं शरीरचेष्टाविशेषं विदधानं; १-उत्वि'गगणतलाओ ओवयमाणं सीहं अभिमुहं मुहे पविसमाणं पासित्ता पडिबुद्ध'त्ति'-'अयमेयारूवंति इमं साप्ताच्या महास्वममिति संबंधः, एतदेव-वर्णितस्वरूपं रूपं यस्य स्वप्नस्य, न कविकृतमूनमधिकं वा स तथा तं; 'उरालं'ति-उदारं । शिष्यप्रधानं, कल्याणं-कल्याणानां शुभसमृद्धिविशेषाणां कारणत्वात् कल्ये वा-वीरोगत्वमणति-गमयति कल्याणं तद्धेतुत्वात् , धारिण्याः शिवम्-उपद्रवोपशमहेतुत्वात् , धन्यं धनावहत्वात् , 'मंगल्यं'-मङ्गले दुरितोपशमे साधुत्वात् सश्रीकं-सशोभनमिति, | 'समाणी'त्ति-सती हृष्टत्तुष्टा-अत्यर्थ तुष्टा; अथवा-दृष्टा-विस्मिता, तुष्टा-तोषवती; 'चित्तमाणंदिय'त्ति-चित्तेनानन्दिता | वर्णनम् । आनन्दितं वा चित्तं यस्याः सा चित्तानन्दिता, मकारः प्राकृतत्वात् , प्रीतिर्मनसि यस्या सा प्रीतिमना; 'परमसोमणस्सिया'-परमं सौमनस्य संजातं यस्याः सा परमसौमनस्थिता, हर्षवशेन विमर्पद्-विस्तारयायि हृदयं यस्याः सा तथा, सर्वाणि प्राय एकाथिकान्येतानि पदानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थत्वात् स्तुतिरूपत्वाच्च न दुष्टानिः आह च-"वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनास्तथा स्तुवन्निन्दन् । यत्पदमसकृद्यात्तत्पुनरुक्तं न दोपाय ॥१॥ इति, 'पचोरुहात्तिप्रत्यवरोहति, अत्वरित-मानसौत्सुक्यौमावेनाचपलं, कायतः-असंभ्रान्त्याऽस्खलन्त्या अविलम्बितया-अविच्छिन्नतया, राजहंससरिसीए'त्ति-राजहंसगमनसदृश्या गत्या, 'ताहिं'ति-या विशिष्टगुणोपेतास्ताभिर्गीभिरिति संवन्धः इष्टाभि:तस्य वल्लभाभिः, कान्तामिः-अभिलषिताभिः, सदैव तेन प्रियाभि:-अद्वेष्याभिः, सर्वेषामपि मनोज्ञाभि:-मनोरमाभिः, विकृत- । २ 'क्याभावात् न च । ३ 'असंभ्रातया• थ। ४ रायई. । जादॐ%% ८ ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ISRAECTORSEENEष्ट्र मनःप्रियामिश्चिन्तयापि; उदाराभिः-उदारनादवर्णोच्चारादियुक्ताभिः, कल्याणाभिः-समृद्धिकारिकाभिः-शिवाभि:-गीदोषानुपटुताभिः, धन्याभिः-धनलम्भिकाभिः, मङ्गल्याभि:-मङ्गलसाचीभिः, सश्रीकाभिः-अलङ्कारादिशोभावद्भिः, हृदयगमनीयाभिः-हृदये या गच्छन्ति कोमलत्वात् सुबोधत्वाच्च तास्तथा ताभिः, हृदयप्रहादिकाभिः-हृदय प्रह्लादनीयाभिः, आह्लादजनकाभिः; 'मितमधुररिभितगंभीरसश्रीकाभिः'-मिताः-वर्णपदवाक्यापेक्षया परिमिताः, मधुराः-स्वरतः, रिभिताः-स्वरघोलनाप्रकारवत्यः, गम्भीराः-अर्थतः शन्दतश्च, सह श्रिया-उक्तगुणलक्ष्म्या यास्तास्तथा, ततः पदपञ्चकस्य कर्मधारयस्ततस्ताभिः; गीर्भिः वाग्भिः, संलपन्ती-पुनः पुनर्जल्पन्तीत्यर्थः, नानामणिकनकरत्नानां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रं-विचित्रं यत्तत्तथा, तत्र भद्रासने-सिंहासने, आश्वस्ता गतिजनितश्रमापगमात् , विश्वस्ता संक्षोभाभावात् अनुत्सुका वा; 'सुहासणवरगयत्ति-सुखेन शुमे वा आसनवरे गता-स्थिता या सा तथा, करतलाम्यां परिगृहीत:-आत्तः करतलपरिगृहीतस्तं शिरस्यावर्त्त आवर्तनं-परिभ्रमण यस्य स, तथा-शिरसावत इत्येके, शिरसा अप्राप्त इत्यन्येः तमञ्जलिं मस्तके कृत्वा, एवमवादीत-'किं मन्ने' इत्यादि, को मन्ये-कः कल्याणफलवृत्तिविशेषो भविष्यति ?,-इह मन्ये वितर्कार्थो निपातः, 'सोच'तिश्रुत्वा श्रवणतः, निशम्य-अवधार्य हृष्टतुष्टो यावद्विसर्पद्धृदयः । तथा-वाचनान्तरे पुनरिह राशीवर्ण के चेदमुपलभ्यते ॥ ९ ॥ ___ तते णं सेणिए राया, धारिणीए देवीए अंतिए एयमढे सोचा, निसम्म, हट्ठ जाव हिंयये, धाराहयनीवसुरभिकुसुमचु(च)चुमालइयतणुऊससियरोमकूवे, तं सुमिणं उग्गिण्डइ, उग्गिण्हइत्ता; ईहं पविसत्ति २, १०वतीभिः अ । २ हिययसि. भ++ एतदन्तर्गतः पाठः 'अ' प्रतौ नास्ति । lrlhDI ४. Indu Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० वृ. श्रीज्ञाताधर्मकथाने ॥१९॥ १-उत्विप्ताध्य. स्वप्नफलसूत्रप्रद र्शनम् । 3545A5% A4%95 अप्पणो साभाविएण,मइपुव्वएणं, बुद्धिविन्नाणेणं, तस्स सुमिणस्स अत्थोग्गहं करेति २,धारणिं देवीं ताहि जाव हिययपल्हायणिजाहिं,मिउमहुररिभियगंभीरसस्सिरियाहिं, वग्गूहिं, अणुवूहेमाणे २, एवं वयासीउराले णं तुमे देवाणुप्पिए !, सुमिणे दिढे कल्लाणा; णं तुमे देवाणुप्पिए !, सुमिणे दिढे, सिवे, धन्ने, मंगल्ले, सस्सिरीए; णं तुमे देवाणुप्पिए !, सुमिणे दिढे, आरोग्गतुहिदीहाउयकल्लाणमंगल्लकारए; णं तुमे देवी सुमिणे दिडे, अत्थलामो ते देवाणुप्पिए !, पुत्तलाभो ते देवा०, रज्जलाभो०, भोगसोक्खलाभो ते देवाणुप्पिए; एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए!, नवण्हं मासाणंबहुपडिपुन्नाणं, अट्ठमाण यरादि(ई)दियाणं विइकंताणं; अम्हं कुलकेलं, कुलदीवं, कुलपव्वयं, कुलवडिंसयं, कुलतिलकं, कुलकित्तिकर, कुलवित्तिकर, कुलणंदिकरं, कुलजसकर, कुलाधारं, कुलपायवं, कुलविवद्धणकरं; सुकुमालपाणिपायं जाव दारयं पयाहिसि । से वि य णं दारए उम्मुकबालभावे, विनायपरिणयमेत्ते, जोव्वणगमणुपत्ते, सूरे, वीरे, विकते, विच्छिन्नविपुलबलवाहणे, रज्जवती राया भविस्सइ; तं उराले णं तुमे देवीए !, सुमिणे दिढे जाव, आरोग्गतुट्टिदीहाउकल्लाणकारए, णं तुमे देवी!, सुमिणे दिटेत्तिक? भुजो २ अणुव्हेइ ॥ सूत्रम्-१०॥ तते णं सा धारणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी, हतुट्ठा जाव हियया करतलपरिग्गहियं जाव अंजलि कडु एवं वदासी-एवमेयं देवाणुप्पिया!, तहमेयं, अवितहमेयं, असंदिद्धमेयं, इच्छियमेयं दे०, पडिच्छियमयं, इच्छियपडिच्छियमेयं, १ देवि । २ देवाणुपिए सुअ। ३ ०मागराइ• अ। ४ वईरा० अ। ||AHIk ॐॐनानगाना ॥१९॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सचे णं एसमट्ठे, जं णं तुज्झे वदहत्तिकद्दुः तं सुमिणं सम्मं पडिच्छर, पडिच्छत्ता; सेणिएणं रन्ना अन्भगुणाया समाणी णाणामणिकणगरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अब्भुट्ठेह, अन्मुट्ठेत्ता; जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उबागच्छद् २ त्ता, सयंसि सयणिनंसि निसीयह, निसीयइत्ता; एवं वदासी - मा मे से उत्तमे, पहाणे, मंगले, सुमिणे; अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिह मिहित्ति कट्टु, देवयगुरुजणसंबद्धाहिं, पसत्थाहिं, धम्मियाहिं- कहाहिं सुमिणजागरियं; पडिजागरमाणी विहरइ ।। सूत्रम् - ११ ॥ ' धाराहयनीय (व) सुरभिकुसुमचंचु मालइयत णुऊस वियरोमकूवे 'ति तत्र नीयः - कदम्बः, धाराहतनीय ( प ) - सुरभिकुसुममिव चंचुमालइय 'त्ति- पुलकिता तनुर्यस्य स तथा, किमुक्तं भवति ?, - ' ऊसविय'त्ति - उत्सुता रोमकूपारोम - रन्ध्राणि यस्य स तथा तं स्वमवगृह्णाति अर्थावग्रहतः, ईहामनुप्रविशति -सदर्थप्रर्या ( पर्याय ) लोचनलक्षणां, ततः 'अप्पणो 'त्ति - आत्मसंबन्धिना स्वाभाविकेन - सहजेन, मतिपूर्वेण- आभिनिबोधिकप्रभवेन, बुद्धिज्ञानेन - मतिविशेषभूतौत्पत्तिक्यादिबुद्धिरूपपरिच्छेदेन, अर्थावग्रहं स्वप्नफलनिश्चयं करोति, ततोऽवादीत् 'उराले ण' मित्यादि; अर्थलाभ इत्यादिषु भविष्यतीति शेषो दृश्यः, एवं उपबृंहयन्- अनुमोदयन्; 'एवं खलु' ति एवंरूपादुक्तफलसाधनसमर्थात् स्वमात् दारकं प्रजनिष्यसीति संबन्धः । 'बहुपडिपुण्णाणं' त्ति- अतिपूर्णेषु षष्ठ्याः सप्तम्यर्थत्वात्, अर्द्धमष्टमं येषु तान्यर्द्धाष्टमानि तेषु रात्रिन्दिवेषु - अहोरात्रेषु व्यतिक्रान्तेषु । कुलकेत्वादीन्येकादश पदानि -तत्र केतु - चिह्न-ध्वज इत्यर्थः केतुरिव केतुरद्भुतत्वात् १ "तुझे अ । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N १-उत्थि नवाङ्गी-1 वृ० वृ०1 श्रीज्ञाताधर्मकथा) माप्ताध्यस्वप्नफलसूत्रव्याख्यानम्। ॥२०॥ ASALAA %ENA कुलस्य केतुः-कुलकेतुः, पाठान्तरेण-'कुलहेउं'-कुलकारणं, एवं दीप इव दीपः प्रकाशकत्वात् , पर्वतोऽनभिभवनीयस्थिराश्रयसाधात् । अवतंस:-शेखरः, उत्तमत्वात्तिलको-विशेषकः भूषकत्वात् । कीर्तिकरः-ख्याति करः, क्वचिद्वृत्तिकरमित्यपि दृश्यते, वृत्तिश्व-निर्वाहः, नन्दिकरो-वृद्धिकरः, यशः-सर्वदिग्गामिप्रसिद्धिविशेषस्तत्करः, पादपो-वृक्ष आश्रयणीयच्छायत्वात् ; विवर्द्धनं-विविधैः प्रकारैर्वृद्धिरेव तत्करम् । 'विण्णायपरिणयमेत्तेत्ति-विज्ञकः परिणतमात्रश्च कलादिष्विति गम्यते, तथा-शूरो दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहणतो वा, वीरः-संग्रामतः, विक्रान्तो भूमण्डलाक्रमणतः; विस्तीर्णे विपुले-अतिविस्तीर्णे बलवाहने-सैन्यगवादिके यस्य स तथा, राज्यपती राजा स्वतन्त्र इत्यर्थः । 'त'मिति यस्मादेवं तस्मादुदारादिविशेषणः स्वमः, 'तुमे त्ति-स्वया दृष्ट इति निगमनम् । 'एवमेतदिति-राजवचने प्रत्ययाविष्करणम् , एतदेव स्फुटयति'तहमेयंति-तथैव तद्यथा भवन्तः प्रतिपादयन्ति, अनेनान्वयतस्तद्वचनसत्यतोक्ता, 'अवितहमेय'ति-अनेन व्यतिरेकभावतः, 'असंदिद्धमेय'मित्यनेन संदेहाभाषतः, 'इच्छियंति-इष्ट ईप्सितं वा, 'पडिच्छियंति-प्रतीष्टं प्रतीप्सितं वा, अभ्युपगतमित्यर्थः इष्टप्रतीष्टम् ईप्सितप्रतीप्सितं वा धर्मद्वययोगात ;-अत्यन्तादरख्यापनाय चैवं निर्देशः 'इति कत्तिइति मणित्वा, 'उत्तमे त्ति-स्वरूपतः, 'पहाणेत्ति-फलतः, एतवाह-'मंगल्ले त्ति-मंगले साधुः स्वम इति, 'सुमिणजागरियं'ति-स्वमसंरक्षणार्थ जागरिका ता 'प्रतिजागती'-प्रतिविदधती ॥१०-११ ॥ तए णं सेणिए राया पच्चूसकालसमयसि कोडुंबियपुरिसे सहावेह, सदावहत्ता; एवं वासीखिम्पामेव भो देवाणुपिया!, वाहिरियं उवट्ठाणसालं अज सविसेसं, परमरम्म.गंधोदगसित्तसुइयसंमजि- FASE ASOISISA ॥२०॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | SEACHESARKARIHARANG 'ओकलितं, पंचवन्नसरससुरभिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं, कालागरुपवरकुंदुरुक्कतुरुकधूवडज्झतमघमघंतगंधुद्धयाभिरामं, सुगंधवरगंधियं, गंधवट्टिभूतं, करेह य, कारवेह य २, एवमाणत्तियं पञ्चप्पिणहा तेते णं ते कोडुंबियपुरिसा सेणिएणं. रन्ना एवं वुत्ता, समाणा, हट्ठा-तुट्ठा जाव पञ्चप्पिणंति; तते णं सेणिए राया कलं पाउप्पभायाए रयणीए, फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियंमि, अहापंडुरे पभाए, रत्तासोगपगासकिंसुयसुयमुहगुंजद्धरागबंधुजीवगपारावयचलणनयणपरहुयसुरत्तलोयणजासुयणकुसुमजलियजलणतव. णिज्जकलसहिंगुलयनिगररूवाइरंगरेहन्तसस्सिरीए दिवागरे, अहकमेण उदिए, तस्स दिण[कर-करपरपरावयारपारदमि अंधयारे बालातवकुंकुमेण खइयव्व जीवलोए, लोयणविसआणुआसविगसंतविसददंसियमि लोए, कमलागरसंडयोहए, उढियंमि सूरे, सहस्सरस्सिमि दिणयरे, तेयसा जलंते, सयणिज्जाओ उद्देति २; जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छह २, अदृणसालं अणुपविसति २; अणेगवायामजोगवग्गणवामद्दणमल्लजुद्धकरणेहिं संते, परिस्संते; सयपागेहिं, सहस्सपागेहिं, सुगंधवरतेल्लमादि| एहिं, पीणणिजहिं, दीवणिज्जेहिं. दप्पणिज्जेहिं, मदणिज्जेहिं, विहणिजेहि, सविदियगायपल्हायणिज्जेहिं; अभंगएहिं अन्भंगिए, समाणे तेल्लचम्मंसि; पडिपुण्णपाणिपायसुकुमालकोमलतलेहिं, पुरिसेहिं छेएहिं, दक्खेहिं, पढेहिं, कुसलेहिं, मेहावीहिं, निउणेहिं, निउणसिप्पोवगतेहिं, जियपरिस्समेहिं, अन्भंगण १ तए ण अ। २ जासुमण अ। ३ परंपरा' अ। ४ माइएहिं । ५. मणिज्जैहि° भ.। ६ पत्तद्वेहिं अ। FLIST Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० वृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ २१ ॥ परिमद्दव्वलणकरण गुणनिम्माएहिं अट्ठिसुहाए, मंससुहाए, तयासुहाए, रोमसुहाए, चउबिहाए, संवाहणाए संबाहिए, समाणे; अवगयपरिस्समे, नरिंदे अट्टणसालाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्ख महत्ता; जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता; मज्जणघरं अणुपविसति, अणुपविसित्ता; समंत( मुत्त )जालाभिरामे, विचित्तमणिरयणको हिमतले, रमणिजे- न्हाणमंडवंसि, णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि, पहाणपीढंसि, सुहनिसन्ने; सुहोदगेहिं, पुष्फोदएहिं गंधोदएहिं सुद्धोदएहि य पुणो पुणो कल्लागपवरमज्जणविहीए मज्जिए; तत्थ- कोउयसएहिं, बहुविहेहिं, कल्लाणगपवरमज्जणावसाणे, पम्हलसुकुमाल गंधकासाईयलूहियंगे, अहतसुमहग्घदूसरयण सुसंवुए, सरससुरभिगोसीसचंदणाणुलित्तगत्ते, सुइमालायन्नगविलेवणे, आविद्धमणिसुवन्ने, कप्पियहारद्धहार तिसरयपालंच पलंब माणक डिसुत्तसुकयसोहे, पिद्धगेवज्जे, अंगुलेजगललियंगल लियकयाभरणे, णाणामणिकडगतुडियर्थभियभुए, अहियरुवसस्सिरीए, कुंडलज्जोइयाणणे, मउडवित्तसिरए, हारोत्थयसुकतरइयवच्छे, पालंबलंबमाणसुकयपडउत्तरिज्जे, मुद्दियापिंगलंगुलीए, णाणामणिकणगरघण विमलम हरिह्नि उणोवियमिसिमि संत विरइय सुसिलिट्ठविसिठ्ठलसंठियप सत्य आविद्धवीरवलए; किं बहुना ? - कप्परूक्खए चेव सुअल कियविभूसिए नरिंदे, सकोरिंट मल्लदामेणं, छत्तेणं धरिज्जमाणेणं, उभओ चउचामरवालवीइयंगे, मंगलजयसद्दकयालोए, अणेगगणनायगदंडणाय गराईसरत लवर माडंबिय कोडुंबिय मंतिमहामंतिगणगदोवारियअमञ्चचेडपीड मद्दनगर णिगमसेट्ठिसे १-उत्क्षिप्ताध्य० श्रेणिकनृप स्य मञ्जन विध्यादि वर्णनम् । ॥ २१ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHOONARROCARA%* णावइसत्यवाहदयसंधिवाल-सद्धिं संपरिवुडे, धवलमहामेहनिग्गएविव, गहगणदिपंतरिक्खतारागणाण मज्झे ससिव्व पियदंसणे नरवई मजणघराओ पडिनिक्खमति, पडिनिक्खमित्ता; जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता, सीहामणवरगते पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने। तते णं से सेणिए राया अप्पणो अदूरसामंते, उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे, अट्ठ भद्दासणाई सेयवत्थपच्चुत्थुयातिं सिद्धत्थमंगलोवयारकतसंतिकम्माई रयावेइ, रयावित्ता; णाणामणिरयणमंडियं, अहियपेच्छणिज्जरूवं, महग्घवरपट्टणुग्गयं, सहबहुभत्तिसयचित्तट्ठाणं; ईहामियउसभतुरयणरमगरविहगवालगकिंनररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलय भत्तिचित्तं, सुखचियवरकणगपवरपेरंतदेसभाग, अभितरियं जवणियं अंछावेइ, अंछावइत्ता अच्छरगमउअमसूरगउच्छइयं, धवलबत्थपञ्चत्थुयं, विसिटुं अंगसुहफासयं सुमउयं धारिणीए देवीए भद्दासणं रयावेइ, रयावइत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता; एवं वदासी-"खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया, अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थपाढए, विविहसत्थकुसले, सुमिणपाढए सद्दावेह, सद्दावइत्ता; एयमाणत्तियं खिप्पामेव पञ्चप्पिणह" । तते णं ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं बुत्ता समाणा हट्ठ जाव हियया, करयलपरिग्गहियं दसनहं, सिरसावत्तं. मत्थए अंजलिं कटु एवं देवोतहत्ति आणाए, विणएणं वयणं पडिसुणेति २, सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमंति २. रायगिहस्स नगरस्स मझमज्झेणं जेणेव सुमिणपाढगगिहाणि तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता; सुमिणपाढए सद्दाति । तते णं ते COACHICATEGaye Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥२२॥ सुमिणपाढगा सेणियस्स रन्नो कोडंबियपुरिसेहिं सद्दाविया समाणा, हट्ठ २ जाव हियया बहाया कयबलि- १-उत्क्षिकम्मा जाव पायच्छित्ता, अप्पमहग्याभरणालंकियसरीरा, हरियालियसिद्धत्थयकयमुद्धाणा, सतेहिं सतेहिं प्तिाध्य. गिहेहिंतो पडिनिक्खमंति २, रायगिहस्त मज्झमज्झेणं जेणेव सेणियस्स रनो भवणवडेंसगदुवारे तेणेव स्वप्नपाठउवागच्छंति २, एगतओ मिलयंति २, सेणियस्स रन्नो भवणवडेंसगदुवारणं अणुपविसंति, अणुपवि कानामासित्ता; जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला, जेणेव सेणिए राया, तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेणियं गमनरायं जएणं विजएणं बद्धावेंति, सेणिएणं रन्ना अच्चिय, वंदिय, पूतिय, माणिय, सकारिया, सम्मा- 15 मित्यादिणिया, समाणा, पत्तेयं २, पुवन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति; तते णं सेणिए राया जवणियंतरियं - वर्णनम् । धारणी देवीं ठवेइ, ठवेत्ता; पुप्फफलपडिपुण्णहत्थे, परेणं विणएणं ते सुमिणपाढए; एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया!, धारिणीदेवी अज तंसि तारिसयंसि सयणिज्जसि जाव महासुमिणं पासित्ता, णं पडिबुद्धा, तं एयस्स णं देवाणुप्पिया!, उरालस्स जाव सस्सिरीयस्स महासुमिणस्स, के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविससे भविस्सति ?, तते णं ते सुमिणपाढगा सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमढे सोचा, णिसम्म, हट्ठ जाव हियया, तं सुमिणं सम्मं ओगिण्हंति २, ईहं अणुपविसंति २, अन्नमन्नेण सद्धिं संचालेंति, #संचालित्ता तस्स सुमिणस्स लट्ठा, गहियट्ठा, पुच्छियट्ठा, विणिच्छियट्ठा, अभिगयट्ठा सेणियस्स रनो18 १ देविं अ। हा ॥२२॥ CREDICAL-IIIMURGA Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरओ सुमिणसत्थाई उच्चारेमाणा २, एवं वदासी एवं खलु अम्हं सामी !, सुमिणसत्यंसि वायालीसं सुमिणा, तीसं महासुमिणा, बावन्तरिं सव्वसुमिणा दिट्ठा; तत्थ णं सामी !, अरिहंतमायरो वा, चक्कवहिमातरो वा, अरहंतंसि वा, चक्कवहिंसि वा, गन्भं वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुमिगाणं, इमे चोदस महासुमिणे पासित्ताणं, पडिवुज्झंति, तंजहा- “ गयउस भसीहअभिसेयदामससिदिणयरं झयं कुंभं । पउमसरसागरविमाण भवणरयणुच्चय सिंहिं च ॥ १ ॥ " वासुदेव मातरों वा, वासुदेवंसि गन्भं वक्कममाणंसि, एएसि चोदसहं महासुमिणाणं, अन्नतरे सत्त महासुमिणे पासित्ता, णं पडिवुज्झंति; बलदेवमातरो वा, बलदेवसि गर्भ वक्कममाणंसि, एएसिं चोहसन्हं महासुमिणाणं, अण्णतरे चत्तारि महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झंति; मंडलियमायरो वा, मंडलियंसि गर्भ वक्कममाणंसि, एएसि चोदसण्हं महासुमिणाणं, अन्नतरं एवं महासुमिणं पासित्ताणं, पडिबुज्झति इमे य णं सामी !, धारणीए देवीए एग महासुमिणे दिडे, तं उराले णं सामी !, धारणीए देवीए सुमिणे दिट्ठे, जाव आरोग्गतुट्ठिदीहाउकल्लामंगलकार णं सामी !, धारिणीए देवीए सुमिणे दिट्ठे: अत्थलाभो सामी !, सोक्खलाभो सामी !, भोगलाभो सामी !, पुत्तलाभो, रज्जलाभो, एवं खलु सामी ; धारिणीदेवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं • जाव दारग पयाहिसि, सेवि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विज्ञाय परिणयमित्ते, जोग्वणगमणुपत्ते, सूरे, वीरे, . विकते, विच्छिन्नविउलबलवाहण रज्जवती राया भविस्सर, अणगारे वा भावियप्पाः तं उराले णं सामी ! ||| : Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाओं ॥ २३॥ FEBCATION १-उत्क्षिप्ताध्य. श्रेणिकस्योचितदानसूत्रवर्णनम् । 144554ॐ धारिणीए देवीए सुमीण दिढे, जाव आरोग्गतुहिजावदिट्टेत्तिकटु भुज्जो २ अणुव्हेंति । तते णं सेणीए राया तेसिं सुमिणपाढगाणं अंतिए एयमढे सोचा, णिसम्म, हट्ठ जाव हियए करयल जाव; एवं वदासी-एवमेयं देवाणुप्पिया!, जाव जन्नं तुम्भे वदह त्ति कह, तं सुमिणं सम्म पडिच्छत्ति २, ते सुमिणपाढए विपुलेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेति, सम्माणेति २, विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं दलयति २, पडिविसजेइ । तते णं से सेणिए राया सीहासणाओ अन्भुट्टेति २, जेणेव धारिणी देवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता; धारिणीदेवीं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिए !, सुमिणसत्थंसि बायालीसं सुमिणा जाव एगं महासुमिणं जाव भुज्जो २, अणुवूहति; तते णं धारिणिदेवी सेणियस्स रन्नो अंतिए एयमढे सोचा, णीसम्म, हट्ट जाव हियया, तं सुमिणं सम्म पडिच्छति २, जेणेव सए वासघरे तेणेव उवागच्छति २, पहाया कयबलिकम्मा जाब विपुलाहिं जाव विहरति ।। सूत्रम्-१२॥ 'पच्चसे'त्यादि, प्रत्यूषकाललक्षणो यः समय:-अवसरः स तथा, तत्र कौटुम्बिकपुरुषान्-आदेशकारिणः, 'सहावेईत्ति| शब्दं करोति-शब्दयति, 'उपस्थानशाला'-आस्थानमण्डपं; 'गन्धोदकेने'त्यादि-गन्धोदकेन सिक्ता, शुचिका-पवित्रा, संमार्जिता-कचरापनयनेन, उपलिप्ता-छगणादिना या सा तथा तां, इदं च विशेषणं गन्धोदकसिक्तसंमार्जितोपलिप्तशुचि| कामित्येवं दृश्यं, सिक्ताधनन्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्य; तथा-पञ्चवर्णः सरसः सुरभिश्च मुक्तः-क्षिप्तः पुष्पपुञ्जलक्षणो य: उपचार:-पूजा तेन कलिता या सा तथा तां, 'काले'त्यादि-पूर्ववत् ; 'आणत्तियं पञ्चप्पिणहति-आइप्तिम्-आदेश ॥२३॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ENERASACS प्रत्यर्पयत-कृतां सती निवेदयत । 'कल्ल'मित्यादि,-'कल्ल'मिति-श्वःप्रादुः-प्रकाश्ये, ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्यां; 'फुल्लो. ल्प(त्प)लकमलकोमलोन्मीलितं' फुल्लं-विकसितं, तच्च तदुत्पलं च-पचं, फुल्लोत्पलं, तच्च कमलश्च-हरिणविशेषः, फुल्लोत्पलकमलौ, तयोः कोमलम्-अकठोरमुन्मीलितं-दलानां नयनयोश्चोन्मीलनं यस्मिस्तत्तथा तस्मिन् । अथ रजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे-शुक्ल, प्रभाते-उपसि, 'रत्तासोगे'त्यादि रक्ताशोकस्य प्रकाशः-प्रभा, स च किंशुकं च-पलाशपुष्पं, शुकमुखं च, गुञ्जा-फलविशेषो रक्तकृष्णस्तदर्ध, बंधुजीवकं च-बन्धूकं, पारापतः-पक्षिविशेषः, तच्चलननयने च; परभृतः-कोकिला, तस्य सुरक्तं लोचनं च; 'जासुमिण' इति-जपा वनस्पतिविशेषः, तस्याः कुसुमं च, ज्वलितज्वलनश्च, तपनीयकलशश्च, हिङ्गुलकोवर्णकविशेषस्तन्निकरश्च-राशिरिति द्वन्द्वः,तत एतेषां यद्रूपं ततोऽतिरेकेण-आधिक्येन, रेहंत'त्ति-शोभमानास्वा स्वकीया,श्री:वर्णलक्ष्मीर्यस्य स तथा तस्मिन् , 'दिवाकरे'-आदित्य अथ-अनन्तरं क्रमेण-रजनीक्षयपाण्डुरप्रभातकरणलक्षणेन 'उदिते'उद्गते, 'तस्स दिण[कर]करपरंपरावयारपारद्धंमि अंधकारे'त्ति-तस्य-दिवाकरस्य, दिने-दिवसे, अधिकरणभृते, दिनाय वा यः करपरम्पराया:-किरणप्रवाहस्यावतारा-अवतरणं तेन प्रारब्धम्-आरब्धमभिभवितुमिति गम्यते, अपराद्धं वा-विनाशितं दिनकरपरम्परावतारपारब्धं तस्मिन् सति, इह च तस्येति सापेक्षत्वेऽपि समासः तथा-दर्शनादन्धकारे-तमसि, तथा-बालातप एव कुडम तेन खचिते इव जीवलोके सति तथा लोचनविषयस्य-दृष्टिगोचरस्य योऽणुयासोत्ति-अनुकाशो विकाशः प्रसर इत्यर्थस्तेन विकसंश्चासौ वर्द्धमानो विशदश्च-स्पष्टः स चासो दर्शितश्चेति लोचनविषयानुकाशविशददर्शित SARI||-%AFFAIRS १ जासुमण भ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० वृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ २४ ॥ स्तस्मिन् कस्मिन्नित्याह- लोके अयमभिप्रायः अन्धकारस्य क्रमेण हानौ लोचेनविषयविकाशः क्रमेणैव भवति, स च विकसन्तं लोकं दर्शयत्येव; अंधकारसद्भावे दृष्टेरप्रसरणे लोकस्य संकीर्णस्येव प्रतिभासनादिति, तथा कमलाकरा - इदादय स्तेषु षण्डानि - नलिनीषण्डानि तेषां बोधको यः तस्मिन् उत्थिते उदयानन्तरावस्थावासे 'सूरे'- आदित्ये, किंभूते ?, - सहस्ररsमौ, तथा - 'दिनकरे'- दिनकरणशीले तेजसा ज्वलति सतीति । 'अट्टणसाल'सि-अड्डनशाला - व्यायामशालेत्यर्थः, अनेकानि यानि व्यायामानि योग्या च-गुणनिका वल्गनं च-उल्ललनं, व्यामर्दनं च परस्परेण बाह्वाद्यङ्गमोटनं, मल्लयुद्धं च प्रतीतं, करणानि च- बाहुभङ्गविशेषा मल्लशास्त्रप्रसिद्धानि तैः श्रान्तः सामान्येन, परिश्रान्तो अङ्गप्रत्यङ्गापेक्षया सर्वतः शतकृत्वो यत्पक्कं शतेन वा कार्षापणानां यत्पक्कं तच्छतपक्कमेवमितरदपि, सुगन्धित्ररतैलादिभिरभ्यंगैरिति योगः आदिशब्दात् घृतकर्पूरपानीयादिग्रहः । किम्भूतैः १, - 'प्रीणनीयैः ' - रसरुधिरादिधातु समताकारिभिर्दीपनीयै:- अग्निजननैः, दर्पणीयै:- बलकरैः, मदनीयैः - मैन्मथ बृंहणीयै म सोपचयकारिभिः, सर्वेन्द्रियगात्रप्रह्लादनीयैः, अभ्यंगैः- स्नेहनैः, अभ्यंगः क्रियते यस्य सोऽभ्यङ्गितः सन् ततस्तैलचर्मणि-तैलाभ्यक्तस्य संबाधना करणाय यच्चर्म तत्तैलचर्म तस्मिन् संवाहिते 'समाणे 'ति - योगः, कैरित्याह ?, - पुरुषैः, कथम्भूतैः ? - प्रतिपूर्णानां पाणिपादानां सुकुमालकोमलानि अतिको मलानि, तलानि - अधोभागा येषां ते तथा तैः, छेकैः-अवसरज्ञैर्द्विसप्ततिकला पण्डितैरिति च वृद्धाः, दक्षैः - कार्याणामविलम्बितकारिभिः प्रष्ठैः- वाग्मिभिरिति वृद्धव्याख्या, अथवा - प्रष्ठैः - अग्रगामिभिः, कुशलैः - साधुभिः, संबाधनाकर्मणि मेधाविभिः१. लोचनxxxविकाश: अ आ । २ स्थाप्राप्ते अ । ३ "व्यायामयो' अ । ४ हुxxअंगभंग० अ ५ मन्मथवर्धनैः बृ० अ । ६ क्रियते स्म य० अ । SCESSE | १ - उत्क्षि प्ताध्य० प्रभातादिप्रसङ्ग वर्णनम् । ॥ २४ ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपूर्वविज्ञानग्रहणशक्तिनिष्ठैः, निपुणैः-क्रीडाकुशलैनिपुणशिल्पोपगतैः-निपुणानि-सूक्ष्माणि यानि शिल्पानि-अङ्गमर्दनादीनि तान्युपगतानि-अधिगतानि यस्ते तथा तैर्जितपरिश्रमः, व्याख्यान्तरं तु छेकैः-प्रयोगर्दक्षः-शीघ्रकारिभिः, 'पत्तटेहिं 'ति-प्राप्ताथै रधिकृतकर्मणि निष्ठां गतः कुशलैः-आलोचितकारिभिः, मेधाविभिः-सकृच्छ्तदृष्टकमज्ञैः, निपुणैः-उपायारम्भिभिः, निपुणशिल्पोपगतैः-सूक्ष्मशिल्पसमन्वितैरिति, अभ्यङ्गनपरिमर्दनोद्वलनानां करणे ये गुणास्तेषु निर्माते, अस्मां सुखहेतुत्वादस्थिसुखा तया; 'संवाहनये'ति-विश्रामणया अपगतपरिश्रमः, 'समंत-जालाभिरामेति-समन्तात्-सर्वतो जालकैर्विच्छित्तिभिः छिद्रवद्गृहावयवविशेषैरभिरामो-रम्यो यः स्नानमण्डपः स तथा, पाठान्तरे 'समत्तजालाभिरामेत्ति-तत्र समस्तैर्जालकैरभिरामो यः स तथा, पाठान्तरेण 'समुत्तजालाभिरामे'-सह मुक्काजालैयों वर्ततेऽभिरामश्च स तथा तत्र । शुभोदकैः-पवित्रस्थानाहतैः, गन्धोदकैः-श्रीखण्डादिमित्रैः, पुष्पोदकैः-पुष्परसमिश्रः, शुद्धोदकैश्च स्वाभाविको, कथं मजितः , इत्याह-'तत्र'-स्नानावसरे यानि कौतुकशतानि रक्षादीनि तैः, 'पक्ष्मले' त्यादि,पक्ष्मला-पक्ष्मवती, अत एव सुकुमाला गन्धप्रधाना काषायिका-कषायरक्ता शाटिका तया लूषितमङ्गं यस्य स तथा, अहतंमलमूषिकादिभिरनुपद्रुतं प्रत्यग्रमित्यर्थः, सुमहाघ दृष्यरत्नं-प्रधानवस्त्रं तेन सुसंवृतः-परिगतस्तद्वा सुष्ठु संवृतं-परिहितं येन स तथा, शुचिनी-पवित्रे माला च-पुष्पमाला वर्णकविलेपनं च-मण्डनकारि कुलमादि विलेपनं यस्य स तथा, आविद्धानिपरिहितानि मणिसुवर्णानि 'येन स तथा, कल्पितो-विन्यस्तो हारः-अष्टादशसरिका, अर्द्धहारो-नवसरिका, त्रिसरिकं च १ यस्य स. अ. आ.। SAFAGARIOSIKHARA Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० पू० श्रीज्ञाताधर्मकथा) ॥२५॥ १-श्रीउत्क्षिप्ताध्य. राज्यमान्यालकारादि प्रतीतमेव यस्य स तथा, पालम्बो-मुम्बनकं प्रलम्बमानो यस्य स तथा, कटिसूत्रेण-कट्यामरणविशेषेण सुष्टु कृता शोभा | यस्य स तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, अथवा-कल्पितहारादिभिः सुकृता शोभा यस्य स तथा, तथा पिनद्धानि-परि. हितानि अवेयकाङ्गुलीयकानि येन स तथा, तथा-ललिताङ्गके अन्यान्यपि ललितानि कृतानि-न्यस्तानि आभरणानि यस्य स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, तथा-नानामणीनां कटकत्रुटिकैः-हस्तवाहाभरणविशेषैर्बहुत्वात् स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ यस्य स तथा, अधिकरूपेण सश्रीका-सशोभो यः स तथा, कुण्डलोद्योतिताननः मुकुटदीप्तशिरस्कः हारेणावस्तृतम्-आच्छादितं तेनैव सुष्टु कृतरतिकं वक्षः-उरो यस्यासो हारावस्तृतसुकृतरतिकवक्षाः, मुद्रिकापिङ्गलालीका-मुद्रिका हल्यामरणानि ताभिः पिङ्गला:-कपिला अङ्गुलयो यस्य स तथा, प्रलम्बेन-दीपेण प्रलम्बमानेन च सुष्टु कृतं पटेनोसरीयम्-उत्तरासङ्गो येन स तथा, नानामणिकनकरत्नैर्विमलानि महार्हाणि-महा_णि, निपुणेन शिल्पिना; 'उविय'त्तिपरिकर्मितानि, 'मिसिमिसंत'त्ति-दीप्यमानानि यानि विरचितानि-निर्मितानि, सुश्लिष्टानि सुगन्धीनि विशिष्टानि-विशेषवन्त्यन्येभ्यो लष्टानि-मनोहराणि, संस्थितानि प्रशस्तानि च आविद्धानि-परिहितानि, वीरवलयानि येन स तथा; सुभटो हि यदि कश्चिदन्योऽप्यस्ति वीरव्रतधारी तदाऽसौ मां विजित्य मोचयत्वेतानि वलयानीति स्पर्द्धयन् यानि परिदधाति तानि वीरवलयानीत्युच्यन्ते । किंबहुना ?,-वर्णितेनेति शेषः, कल्पवृक्ष इव सुष्टु अलङ्कतो विभूषितश्च फलपुष्पादिभिः कल्पवृक्षो, राजा तु मकुटादिभिरलङ्कतो विभूषितस्तु वस्त्रादिभिरिति, सह कोरण्टकप्रधानर्माल्यदामभिर्यच्छत्रं तेम ध्रियमाणेन, कोरण्टका1°हुलत्त्वात् आ। वर्णनम् । LOCACROSSARK ROCKh1 RAG4 ।।२५॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % A पुष्पजातिः, सत्पुष्पाणि मालान्तेषु शोभा दीयन्ते, मालायै हितानि-माल्यानि-पुष्पाणि दामानि-माला इति, चतुर्णां चामराणां प्रकीर्णकानां वाले/जितमहं यस्येति वाक्यं, मङ्गलभूतो जयशब्दः कृत आलोके-दर्शने लोकेन यस्य स तथा, पद तथा-अनेके ये गणनायका:-प्रकृतिमहत्तराः, दण्डनायकाः-तन्त्रपालाः, राजानो-माण्डलिकाः, ईश्वराः-युवराजानो। मतान्तरेणाणिमाद्यैश्वर्ययुक्ताः, तलवरा:-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिताः राजस्थानीयाः, माडम्बिका:-छिन्नमड-18 म्बाधिपाः, कौटुम्बिका:-कतिपयकुटुम्बप्रभवोऽवलगकाः, मन्त्रिणः-प्रतीताः, महामन्त्रिणो-मन्त्रिमण्डलप्रधानाः, | हस्तिसाधनोपरिका इति श्रद्धा, गणका:-गणितज्ञाः, भाण्डागारिका इति वृद्धाः; दौवारिकाः-प्रतीहाराः राजद्वारिका या, अमात्या-राज्याधिष्ठायकाः, चेटा:-पादमूलिकाः, पीठमर्दाः-आस्थाने आसनासीनसेवकाः, वयस्या इत्यर्थः 'नगरं'नगरवासिप्रकृतयो, निगमा:-कारणिकाः, श्रेष्ठिन:-श्रीदेवताध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोसमाङ्गाः, सेनापतया-नृपति. निरूपिताश्चतुरङ्गसैन्यनायकाः, सार्थवाहाः-सार्थनायकाः, दूताः-अन्येषां गत्वा राजादेशनिवेदकाः, सन्धिपाला-राज्य-15 | सन्धिरक्षकाः, एपो द्वन्द्वः ततस्तैः, इह तृतीयाबहुवचनलोपो द्रष्टव्यः, सार्द्ध-सह, न केवलं तत्सहितत्वमेवापि तु तैः समितिसमन्तात् परिवृतः-परिकरित इति, नरपतिर्मजनगृहात प्रतिनिष्क्रामतीति संबन्धः, किंभूतः,-प्रियदर्शना, क इव:धवलमहामेघनिर्गत इव शशी, तथा-'ससिव्व'सि-वत्करणस्यान्यत्र संबन्धस्ततो ग्रहगणदीप्यमानऋवतारागणानां मध्ये इव वर्तमान इति । सिद्धार्थकप्रधानो यो मङ्गलोपचारस्तेन कृतं शान्तिकर्म-विघ्नोपशमकर्म येषु तानि तथा । 'णाणामणी'स्यादि-यवनिकामाञ्छयतीति संबन्धः, अधिकं प्रेक्षणीय रूपं यस्यां रूपाणि वा यस्यां सा तथा तां, महार्षा चासौ वरपत्तने FECILITARAICHES SSIC Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० वृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ २६ ॥ वरवस्त्रोत्पत्तिस्थाने उद्गता च-व्यूता तां लक्ष्णानि बहुमक्तिशतानि यानि चित्राणि तेषां स्थानं, तदेवाह - ईहामृगाः- वृकाः, ऋषभाः- वृषभाः, तुरगनर मगरविहगाः प्रतीताः, व्यालाः- श्वापद भुजगाः, किन्नराः - व्यन्तरविशेषाः, रुरवो - मृगविशेषाः, सरभाः- आटव्याः महाकायपशवः, पराशरेतिपर्यायाः चमरा:-आटव्या गावः कुञ्जराः- दन्तिनः, वनलताःअशोकादिलताः, पद्मलता :- पद्मिन्यः एतासां यका भक्तयो - विच्छित्तयस्ताभिश्चित्रा या सा तथा तो, सुष्ठु खचिता| मण्डिता वरकनकेन प्रवरपर्यन्तानाम्-अञ्चल कर्णवर्त्तिलक्षणानां देशभागा - अत्रयवा यस्यां सा तथा तां, आभ्यन्तरिकींआस्थानशालाया अभ्यन्तरभागवर्त्तिनीं - यवनिकां - काण्डपटं, 'अंछावे 'ति - आयतां कारयति, आस्तरकेण प्रतीतेन मृदुकमसूरकेण च प्रतीतेनावस्तृतं यत्तत्तथा, धवलवस्त्रेण प्रत्यवस्तृतम् - आच्छादितं विशिष्टं - शोभनं अङ्गस्य सुखः स्पर्शो .यस्य तत्तथा, अष्टाङ्गम् - अष्टभेदं दिव्योत्पातान्तरिक्षादिभेदं यन्महानिमित्तं - शास्त्रविशेषः तस्य सूत्रार्थपाठका ये ते तथा तान्, 'विणयेण वयणं पडिसुर्णेति' चि-प्रतिशृण्वन्ति - अभ्युपगच्छन्ति वचनं, विनयेन किम्भूतेनेत्याह - 'एव' मिति, थैव यूयं भणथ, तथैव 'देवो'ति; हे देव !, 'तहत्ति' ति नान्यथा आज्ञया-भवदादेशेन करिष्याम इत्येवमभ्युपगमसूचकपदचतुष्टयभणनरूपेणेति, जाव हिययत्ति- 'हरिसवसविसप्पमाणहियया' - स्वानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते, तथा - 'जाव पायच्छित्त'त्ति, 'कयकोउयमंगल पायच्छित्ता :- तत्र कृतानि कौतुकमंगलान्येवेति प्रायश्चित्तानि दुःस्वप्रादिविघातार्थमवश्यं करणीयत्वाद्यैस्ते तथा, तत्र कौतुकानि-मपीतिलकादीनि, मंगलानि तु सिद्धार्थकदध्यक्ष तदूर्वारादीनि, हरितालिका - दूर्वा, सिद्धार्थका अक्षताश्च कृता मूर्द्धनि यैस्ते, तथा - क्वचित् 'सिद्धत्थयहरियालियाकयमंगल १-श्री उत्क्षि प्ताध्य० दर्शनीय यवनि कादि वर्णनम् । ॥ २६ ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्धाणा' एवं पाठः, स्वकेम्य आत्मीयेम्य इत्यर्थः । 'जएणं विजएणं बद्धान्ति'-जयेन विजयेन च वर्चस्व त्वमित्याचक्षत इत्यर्थः, तत्र जया-परैरनमिभ्यमानता प्रतापवृद्धिश्च, विजयस्तु-परेषामभिभव इति, अर्चिताः-चर्चिताश्चन्दनादिना, वन्दिताः-सद्गुणोत्कीर्तनेन, पूजिताः-पुष्पर्मानिता-दृष्टिप्रणामतः, सत्कारिताः-फलवस्त्रादिदानतः, सन्मानितास्तथाविधया प्रतिपच्या 'समाण'ति-सन्तः, 'अण्णमण्णेण सद्धि'ति-अन्योऽन्येन सह इत्येवं 'संचालति'त्ति-संचालयन्ति-संचारयन्तीति, पर्यालोचयन्तीत्यर्थः; लब्धार्थाः स्वतः पृष्टार्थाः, परस्परतः गृहीतार्थाः, पराभिप्रायग्रहणतः, तत एवं विनिश्चितार्थाः, अत एव अभिगतार्था अवधारितार्था इत्यर्थः, 'गन्भं वक्कममाणंसित्ति-गर्भ 'व्युत्क्रामति'-उत्पद्यमाने, अभिषेक इति-श्रियाः संबन्धी। विमानं यो देवलोकादवतरति तन्माता पश्यति, यस्तु नरकादुदृत्योत्पद्यते तन्माता भवनमिति चतुर्दशव स्वमाः; विमानभवनयोरेकतरदर्शनादिति । 'विण्णायपरिणयमेत्ते-विज्ञात-विज्ञानं परिणतमात्रं यस्य स तथा, क्वचिद्विण्णय'त्ति पाठः स च व्याख्यात एव, 'जीवियारिहं'ति-आजन्मनिर्वाहयोग्यम् ॥ १२ ॥ तते णं तीसे धारिणीए देवीए दोसु मासेसु वीतिकंतेमु, ततिए मासे वहमाणे, तस्स गन्भस्स दोहलकालसमयंसि अयमेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भवित्था-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ, सपुन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ, कयपुन्नाओ, कयलक्खणाओ, कयविहवाओ; सुलद्धे ण तासिं माणुस्सए जम्मजीवियफले, जाओ णं मेहेसु, अन्भुग्गतेसु, अन्भुज्जुएसु, अन्भुन्नतेसु, अन्भुट्टिएसु, सग एतदन्तर्गतः पाठः 'अ'प्रतौ नास्ति। RECORIALIS Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथा) १-श्रीउरिक्षप्ताध्य. धारिण्या: दोहदसूत्रवर्णनम् । 445% ॥२७॥ NAGAR जिएसु,सविज्जुएसु,सफुसिएसु,सथणिएसुधंतधोतरुप्पपट्टअंकसंखचंदकुंदसालिपिट्ठरासिसमप्पभेसु,चिउरहरियालभेयचंपगसणकोरंटसरिसयपउमरयसमप्पभेसु, लक्खारससरसरत्तकिंसुयजासुमणरत्तकंधुजीव. गजातिहिंगुलयसरसकुंकुमउरभससरुहिरइंदगोवगसमप्पभेसु, बरहिणनीलगुलियसुगचासपिच्छभिंगपत्तसासगनीलुप्पलनियरनवसिरीसकुसुमणवसद्दलसमप्पभेसु,जचंजभिगभेयरिदृगभमरावलिगवलगु. लियकज्जलसमप्पभेसु, फुरंतविज्जुतसगजिएसु, वायवसविपुलगगणचवलपरिसकिरेसु,निम्मलवरवारिधा. रापगलियपयंडमारुयसमाहयसमोत्थरंत उवरिउवरितुरियवासं पवासिएसु, धारापहकरणिवायनिव्वाविय मेइणितले, हरियगणकंचुए, पल्लविय पायवगणेसु, वल्लिवियाणेसु, पसरिएसु, उन्नएसु, सोभग्गमुवागएसु नगेसु, नएसु वा, वेभारगिरिप्पवायतडकडगविमुक्कसु, उज्झरेसुः तुरियपहावियपलोहफेणाउलं सकलुसं जलं वहंतीसु गिरिनदीसु, सज्जज्जुणनीवकुडयकंदलसिलिंधकलिएम, उववणेसु मेहरसियहद्वतुट्ठचिट्ठिय हरिसवसपमुझकंठकेकारवं मुयंतेसु वरहिणेसु, उउवसमयजणियतरुणसहयरिपणचितेसु, नवसुरभिसि. लिंधकुडयकंदलकलंयगंधद्धणिं मुयंतेसु उववणेसु, परहुयरुयरिभितसंकुलेसु, उद्दायतरत्तइंदगोवयथोवय. कारुनविलवितेसु, ओणयतणमंडिएसु, दगुरपयंपिएसु, संपिंडियदरियभमरमहुकरिपहकरपरिलिंतमत्तछप्पयकुसुमासवलोलमधुरगुंजंतदेसभाएसु उववणेसु, परिसामियचंदसूरगहगणपणट्ठनक्खत्ततारगपहे इंदाउहबद्धचिंधपट्टसि अंबरतले, उड्डीणवलागपंतिसोभंतमेहविंदे, कारंडगचक्कवायकलहंसउस्सुयकरे संपत्ते |||NITIES Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACC- A पाउसंमि काले; पहाया कयबलिकम्मा, कयकोउयमंगलपायच्छित्ताओ, किंते वरपायपत्तणेउरमणिमेहलहाररइयकडगखुड्यविचित्तवरवलयभियभुयाओ, कुंडलउज्जोरियाणणाओ, रयणभूसियंगाओ, नासानीसासवायवोज्झं, चक्खुहरं, वण्णफरिससंजुत्तं, हयलालापेलवाइरेयं, धवलकणयखचियन्तकम्म, आगास फलिहसरिसप्पभं, अंसुयं पवर परिहियाओ, दुगुल्लसुकुमालउत्तरिजाओ सव्वोउयसुरभिकुसुमपवर* मल्लसोभितसिराओ, कालागरूधूवधूवियाओ, सिरिसमाणवेसाओ, सेयणयगंधहत्थिरयणं दुरूढाओ समाणीओ सकोरिटमल्लदामेणं छत्तणं धरिज्जमाणेणं, चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडसंखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निगासचउचामरवालवीजितंगीओ सेणिएणं रन्ना सद्धिं, हथिखंधवरगएणं पिट्ठओ समणुगच्छमाणीओ चाउरंगिणीए सेणाए, महता हयाणीएणं, गयाणिएणं, रहाणिएणं, पायत्ताणीएणं, सव्वड्डीए सव्वज्जुइए जाव निग्घोसणादियरवेणं; रायगिहं नगरं सिंघाडगतियचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहपहेसु आसित्तसित्तसुचियसंमजिओवलितं जाव सुगंधवरगंधियं गंधवट्टीभूयं अवलोएमाणीओ नागरजणेणं, अभिणंदिजमाणीओ गुच्छलयारुक्खगुम्मवल्लिमुन्छओच्छाइयं सुरम्मं वेभारगिरिकडगपायमूलं सव्वओ समंता आहिंडेमाणीओ २, दोहलं विणियंति; तं जइ णं अहमवि मेहेसु अन्भुवगएसु जाच दोहलं विणिमामि ॥ सूत्रम्-१३॥ 'दोहलो पाउभवित्वाति-दोहदो-मनोरथः प्रादुर्भुतवान् , तथाहि-धनं लब्धारो धन्यास्ता या अकालमेघदोहदं चाउरंगिणादियरवेण; CHAषागारागारSWAS गंधवरगांध WAADISHA Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥२८॥ NROSAROK विनयन्तीति योगः; 'अम्मयाओ'त्ति-अम्बाः पुत्रमातरः, त्रिय इत्यर्थः। संपूर्णाः-परिपूर्णाः आदेयवस्तुभिः (सपुण्याः), कृतार्था:-कृतप्रयोजना, कृतपुण्या:-जन्मान्तरोपातसुकृताः; कृतलक्षणा:-कृतफलवच्छरीरलक्षणाः, कृतविभवा:कृतसफलसंपदः, सुलब्धं तासां, मानुष्य-मनुष्यसंबन्धि जन्मनि भवे; जीवितफलं-जीवितव्यप्रयोजनं जन्मजीवितफलं, सापेक्षत्वेऽपि च समासः छान्दसत्वात् , या मेघेषु अभ्युद्गतेषु-अरवदुत्पबेषु सत्सु, एवं सर्वत्र सप्तमी योज्या; अभ्युद्यतेषु-वद्धितुं प्रवृत्तेषु, अभ्युन्नतेषु-गगनमण्डलव्यापनेनोनतिमत्सु, अभ्युत्थितेषु-प्रवर्षणाय कृतोद्योगेषु, सगर्जितेषुमुक्तमहाध्वनिषु, सविद्युत्केषु-प्रतीतं, 'सफुसिएसुत्ति-प्रवृत्तप्रवर्षणबिन्दुषु, सस्तनितेषु-कृतमन्दमन्दध्वनिपु, ध्मातेनअग्नियोगेन यो धौत:-शोधितो रूप्यपट्टो-रजतपत्रकं स तथा; अङ्को-रत्नविशेषः, शङ्खचन्द्रौ-प्रतीतो, कुन्दः-पुष्पविशेषः, शालिपिष्टराशि:-व्रीहिविशेषचूर्णपुञ्जः, एतत्समा प्रभा येषां ते तथा तेषु, शुक्लेवित्यर्थः; तथा-चिकुरो-रागद्रव्यविशेष एव, हरितालो-वर्णकद्रव्यं भेदस्तद्गुटिकाखण्ड, चम्पकसनकोरण्टकसर्षपग्रहणात्तत्पुष्पाणि गृह्यन्ते, पद्मरजः-प्रतीतं तत्सम प्रमेषु, वाचनान्तरे-" सेनस्थाने काञ्चनं सर्षपस्थाने सरिसगोत्ति पठ्यते"। तत्र-चिकुरादिभिः सहशाश्च ते पद्मरजासमप्रभाश्चेति विग्रहोऽतस्तेषु पीतेष्वित्यर्थः, तथा-लाक्षारसेन सरसेन सरसरक्तकिंशुकेन जपासुमनोभिः रक्तबन्धुजीवकेन, बन्धुजीवकं हि पश्चवर्ण भवतीति रक्तत्वेन विशिष्यते; जातिहिङ्गुलकेन-वर्णकद्रव्येण, स कृत्रिमोऽपि भवतीति जात्या विशेषितः, सरसकुमेन,-नीरसं हि विवक्षितवर्णोपेतं न भवतीति सरसमुक्तं; तथा-उरभ्र:-ऊरणः, शश:-शशकस्तयो १ समस्था० अ। १-श्रीउत्वि|प्ताध्य० धारिण्या: दोहदस्वरूपव्याख्यानम् । AR IrbhaSHASHA +5+%A5% ॥ २८॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्णकद्रव्यं शुक्रवार र समा प्रभा येषां ने पीयकनामा SECTOR रुधिरेण-रक्तेन, इन्द्रगोपको-वर्षासु कीटकविशेषस्तेन च समा प्रभा येषां ते तथा तेषु रक्तेष्वित्यर्थः। तथा-बहिणोमयूराः, नीलं-रत्नविशेषः, गुलिका-वर्णकद्रव्यं शुकचाषयोः पक्षिविशेषयोः, पिच्छ-पत्रं, भृङ्ग:-कीटविशेषस्तस्य पत्रंपक्षः, सासको-बीयकनामा वृक्षविशेषः, अथवा-"सामत्ति पाठः, तत्र श्यामा-प्रियङ्गुः" नीलोत्पलनिकर:-प्रतीतः, नवशिरीषकुसुमानि च नवशाडलं-प्रत्यग्रहरितं एतत्समप्रमेषु नीलप्रभेष नीलवर्णेष्वित्यर्थः; तथा-जात्यं-प्रधानं यदञ्जनं-सौवीरकं, भृङ्गमेद:- भृङ्गाभिधानः कीटविशेषः, विदलिताङ्गारो वा; रिष्ठकं-रत्नविशेषः, भ्रमरावली-प्रतीता, गवलगुलीका-महिषशृङ्गगोलिका, कज्जलं-मपी, तत्समप्रमेषु कृष्णेष्वित्यर्थः स्फुरद्विद्युत्काश्च सगर्जिताच ये तेषु, तथा वातवशेन विपुले गगने चपलं यथा भवत्येवं, 'परिसकिरेसुत्ति-परिवष्कितुं शीलं येषां ते तथा तेषु, तथा निर्मलवरवारिधाराभिः प्रगलित:-क्षरितः प्रचण्डमारुतसमाहतः सन्, 'समोत्थरंत'ति-समवस्तृणंश्च-महीपीठमाक्रामन् उपर्युपरि च सातत्येन त्वरितश्च शीघ्रो यो वर्षों-जलसमृहः स, तथा-तं प्रवृष्टेषु-वर्षितुमारब्धेषु मेघेष्विति प्रक्रमा, धाराणां 'पहकरोत्तिनिकरस्तस्य निपातः-पतनं तेन निर्वापितं-शीतलीकृतं यत्तत्तथा तस्मिन् , निर्वापितशब्दाच सप्तम्येकवचनलोपो दृश्या, कस्मिन्नित्याह-मेदिनीतले-भूतले, तथा हरितकानां-इस्वतृणानां यो गणः, स एव कञ्चको यत्राच्छादकत्वात् तत्तथा तत्र, 'पल्लविय'त्ति-इह सप्तमीबहुवचनलोपो दृश्यः, ततः पल्लवितेषु पादपगणेषु तथा वल्लीवितानेषु प्रसृतेषु-जातप्रसरेवित्यर्थः, तथोभतेषु भूप्रदेशेष्विति गम्यते सौभाग्यमुपगतेषु अनवस्थितजलत्वेनाकर्दमत्वात् पाठान्तरे नगेषु-पर्वतेषु, नदेषु वा-हदेषु, तथा वैभाराभिधानस्य गिरेः ये प्रपाततटा:-भृगुतटाः, कटकाच-पर्वतैकदेशास्तेभ्यो ये, विमुक्ताः SACRIFSAJIBITECLASS ARE Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न नवाजी-1 पृ० वृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ २९ ॥ SCREC%ACANCER प्रवृत्तास्ते तथा तेषु: केषु,-'उज्झरेसुति-निर्झरेषु त्वरितप्रधावितेन यः, 'पल्लोतिः -प्रवृत्तः-उत्पन्नः फेनस्तेन आकुलंव्याप्तम् । 'सकलसं'ति-सकालुष्यं जलं वहन्तीषु मिरिनदीपु सर्जार्जुननीपकुटजानां वृक्षविशेषाणां यानि कन्दलानिप्ररोहाः, शिलन्ध्राश्च-छत्रकाणि, तैः कलितानि यानि तानि तथा तेषु उपवनेषु; तथा-मेघरसितेन हृष्टतुष्टा:-अतिहृष्टाश्वेष्टिताश्व-कृतचेष्टा ये ते तथा तेषु, इदं च सप्तमीलोपात, हर्षवशात् प्रमुक्तो-मुकलीकृतः कण्ठो-गलो यस्मिन् स तथा स चासौ केकारवश्च तं मुश्चत्सु बहिणेषु-मयूरेषु, तथा-ऋतुवशेन-कालविशेषवलेन यो मदस्तेन जनितं तरुणसहचरीभिः-युवतिमयूरीभिः सह प्रनृत्तं-प्रनर्तनं येषां ते तथा तेषु, बर्हिणेष्वित्यन्वयः, नवः सुरभिश्च यः शिलीन्ध्रकुटजकन्दलकदम्बलक्षणानां पुष्पाणां गन्धस्तेन या ध्राणिः-वृप्तिस्तां मुञ्चत्सु गन्धोत्कर्षता विदधानेष्वित्यर्थः उपक्नेषुभवनासन्नवनेषु, तथा-परभृतानां-कोकिलानां यद्रुतं-रवो रिभितं-स्वरघोलनावत्तेन संकुलानि यान्युपवनानि तानि तथा तेषु, 'उद्दाइंत'त्ति-शोभमाना रक्ता इन्द्रगोपका:-कीटविशेषाः, स्तोककानां-चातकानां कारुण्यप्रधान विलपितं च येषु तानि तथा तेषूपवनेवित्वन्वयः, तथा-अवनततृणैर्मण्डितानि यानि तानि तथा तेषु, दर्दुराणां प्रकृष्टं जल्पितं येषु तानि तथा तेषु; संपिण्डिता-मिलिताः, हप्ता-दर्पिताः, भ्रमराणां मधुकरीणां च; 'पहकर'त्ति-निकरा येषु तानि तथा, 'परिलिन्त'त्ति-परिलीयमानाः संश्लिष्यन्तो मत्ताः षट्पदाः, कुसुमासवलोला:-मकरन्दलम्पटाः,मधुरं-कलं, गुञ्जन्त:भन्दायमानाः देशभागेषु येषां समि तथा तत्तः कर्मधारयः ततस्तेषु उपवनेषु, तथा-परिश्यामिता:-कृष्णीकृताः सान्द्र १-श्रीउत्क्षिप्ताध्य. धारिण्या: दोहदस्वरूपव्याख्यानम् । ॥२ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ मेघाच्छादनाद, पाठान्तरेण परिभ्रामिता:-कृतप्रभादंशाः, चन्द्रसूरग्रहाणां यस्मिन् प्रनष्टा च नक्षत्रतारकप्रभा यस्मिस्तत्तथा, तस्मिन्नम्बरतले इति योगः, इन्द्रायुधलक्षणो बद्ध इव बद्धः, चिहपहो-ध्वजपटो यस्मिस्तत्तथा तत्राम्बरतले-गगने उडीनबलाकापतिशोभमानमेघवृन्देऽम्बरतले इति योगः, तथा-कारण्डकादीनां पक्षिणां मानससरोगमनादि प्रत्यौत्सुक्यकरे, संप्राप्ते-उक्तलक्षण योगेन समागते प्रावृषि काले; किंभृता अम्मयाओ?;-इत्याह-'पहायाओं इत्यादि, किं ते इति किमपरमित्यर्थः, वरी पादप्राप्तनू पुरौ मणिमेखला-रत्नकाञ्ची हारश्च यासा तास्तथा रचितानि-न्यस्तानि, उचितानि-योग्यानि, कटकानि-प्रतीतानि, खुडकानि च-अङ्गुलीयकानि यासां तास्तथा विचित्रैर्वरवलयैः स्तम्भिताविव स्तम्भितौ भुजौ यासा तास्तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। तथा-"कुंडलोजोतितानना बरपायपत्तनेउरमणिमेहलाहाररहयउचियकडगखुडुयएगावलिकंठमुरयतिसरयवरवलयहेमसुत्तकुंडलुजोवियाणणाओत्ति-पाटान्तरं तंत्र वरपादप्राप्त नूपुरमणिमेखलाहारास्तथा रचितान्युचितानि कटकानि च खुड्डकानि च एकावली च-विचित्रमणिकृता एकसरिका कण्ठमुरजश्च-आमरणविशेषः त्रिसरकं च वरवलयानि च हेमसूत्रकं च-संकलकं यासा तास्तथा, तथा-कुण्डलोद्योतिताननास्ततो वस्पादप्राप्तन पुरादीनां कर्मधारयः, रत्नविभूषिताङ्गयः नासानिःश्वासवातेनोद्यते यल्लघुत्वात्तत्तथा चक्षुर्हरं दृष्ट्याक्षेपकत्वात् , अथवा-प्रच्छादनीयाङ्गदर्शनाचक्षुर्हरति धरति वा निवर्तयति यावत्वात्तत्तथा, वर्णस्पर्शसंयुक्तं वर्णस्पर्शातिशायीत्यर्थः हयलालाया-अश्वलालायाः सकाशात् , 'पेलव'त्ति-पेलवत्वेन मृदुत्वलघुत्वलक्षणेनातिरेक:-अतिरिक्तत्वं यस्य परिष्यामिताः अ । २ तत्र तु व. । ३ न्युपचितकटकानि अ। stik-II|* नमक -The*%-l Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SH नवाङ्गी- तत् तथा धवलं, च तत् कनकेन खचित-मंडितमन्तयोः-अञ्चलयोः कर्म वानलक्षणं यस्य तत्तथा तच्चेति वाक्यं, आकाशपृ०० स्फटिकस्य सदृशी प्रभा यस्य धवलत्वात्तत्तथा, अंशुकं-वस्त्रविशेषं प्रवरमिहानुस्वारलोपो दृश्यः, परिहिता:-निवसिताः, उत्क्षिश्रीज्ञाता- दुकूलं च वस्त्रं, अथवा-दुकूलो वृक्षविशेषः, तद्बल्कलाजातं दुकूलं-वस्त्रविशेष एव तत् सुकुमालमुत्तरीयम्-उपरिका. प्ताध्य. धर्मकथाओं याच्छादनं यास तास्तथा, सर्वर्तुकसुरभिकुसुमैः प्रवरैर्माल्यैश्च-प्रथितकुसुमैः शोभितं शिरो यासा तास्तथा, पाठान्तरे धारिण्या: "सर्वतुकसुरभिकुसुमैः सुरचिता प्रलम्बमाना शोममाना कान्ता विकसन्ती चित्रा माला यामां तास्तथा, एवमन्यान्यपि- दोहदानुपदानि बहुवचनान्तानि संस्करणीयानि; इह वर्णके बृहत्तरो वाचनाभेदः" । तथा चन्द्रप्रमौरवैडूर्यविमलदण्डाः शङ्क- ला सारिकुन्ददकरजोऽमृतमथितफेनपुञ्जसन्निकाशाच ये चत्वारश्चामराः-चामराणि तद्वालै जितमङ्ग यासां तास्तथा, अयमेवार्थो सामग्र्यादि. वाचनान्तरे इत्थमधीत:-'सेयवरचामराहिं उद्धव्वमाणीहिं' २, 'सव्विड्डीए'त्ति-छत्रादिराजचिह्वरूपया, इह याव- लवर्णनम् । करणादेवं द्रष्टव्यं-'सव्वज्जुइए'-मर्वद्युत्या-आभरणादिसंबन्धिन्या, सर्वयुक्त्या वा-उचितेष्टवस्तुघटनालक्षणया, 'सर्व. बलेन'-सर्वसैन्येन, 'सर्वसमुदायेन'-पौरादिमीलनेन, 'सर्वादरेण'-सर्वोचितकृत्यकरणरूपेण, 'सर्वविभूत्या'-सर्वसंपदा, | 'सर्वविभूषया'-समस्तशोभया, 'सर्वसंभ्रमेण '-प्रमोदकृतौत्सुक्येन, सर्व पुष्पगन्धमाल्यालङ्कारेण, 'सर्वतूर्यशब्द&| संनिनादेन'-तूर्यशब्दानां मीलनेन यः संगतो नितरां नादो-महान् घोषस्तेनेत्यर्थः; अल्पेष्वपि ऋयादिषु सर्वशब्द प्रवृत्तिर्दृष्टा अत आह-'महया इड्डीए, महया जुईए, जुत्तीए वा; महया बलेणं, महया समुदएणं, महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं;-'यमकसमकं'-युगपत् एतदेव विशेषेणाह-'संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिहु ॥३०॥ SARKARISHRA%ARNERes Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ICROSHAASHRSCIE डकमुरवमुइंगदुंदुहिनिग्घोसनाइयरइवेणं'-तत्र शङ्कादीनां नितरां घोषो निर्घोषो-महाप्रयत्नोत्पादितः शब्दो नादितंध्वनिमात्रमेतद्वयलक्षणो यो रवः स तथा तेन, 'सिंघाडेत्यादि,-सिंघाडकादीनामयं विशेषः, सिंघाडकं-जलजबीजं फलविशेषः, तदाकृतिपथयुक्तं स्थानं सिंघाटकं त्रिपथयुक्तं स्थानं-त्रिकं, चतुष्पथयुक्तं-चतुष्कं, त्रिपथमेदि चत्वरं-चतुमुख-देवकुलादि, महापथो-राजमार्गः, पथ:-पथमात्रं, तथा आसिक्तं-गन्धोदकेनेषसिक्तं सकृद्वा सिक्तं सिक्तं त्वन्यथा शुचिक-पवित्रं, संमार्जितम्-अपहृतकचवरं, उपलिप्तं च गोमयादिना यत्तत्तथा यावत्करणादुपस्थानशालावर्णकः पूर्वोक्त एव वाच्यः, एवंभूतं नगरमवलोकयन्त्यो गुच्छा वृन्ताकीप्रभृतीनां लताः, सहकारादिलता वृक्षाः-सहकारादयः, गुल्मा वंशीप्रभृतयः, वल्लया-त्रपुष्यादिकाः एतासां ये, गुच्छा:-पल्लवसमूहास्तै यत् , 'ओच्छवियंति-अवच्छादितं वैभारगिरेर्ये कटका:-देशास्स्तेषां ये पादा-अधोमागास्तेषां यन्मूलं-समीपं तत्तथा तत्सर्वतः समन्तात् , 'आहिंडन्ति'त्तिआहिण्डन्ते, अनेन चैवमुक्तव्यतिकरभाजां सामान्येन स्त्रीणां प्रशंसाद्वारेणात्मविषयोऽकालमेघदोहदो धारिण्याः प्रादुरभृदि-| त्युक्तम् , वाचनान्तरे तु-'ओलोएमाणीओ २, आहिंडेमाणीओ २, डोहलं विणिति'-विनयन्त्यपनयन्तीत्यर्थ 'तं जति णं अहमवि मेहेसु अन्भुग्गएसु जाव डोहलं विणेजामि'-विनयेयमित्यर्थः, संगतश्चायं पाठ इति ॥ १३ ॥ उक्तदोहदाप्राप्तौ यत्तस्याः संपन्नं, तदाहतए णं सा धारिणी देवी, तंसि दोहलंसि अविणिजमाणसि; असंपन्नदोहला, असंपुन्नदोहला, असं SHAYRECHITIHASHIBIRH + Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी- पृ. वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॐॐॐॐॐ माणियदोहला मुक्का, भुक्खा, णिम्मंसा, ओलग्गा, ओलुग्गसरीरा, पमइलदुब्बला, किलंता, ओमंथिय- १-उरिक्षवयणनयणकमला, पंडुइयमुही करयलमलियव्य, चंपगमाला णित्तेया, दीणविवण्णवयणा, जहोचियपुप्फ- सप्ताध्य. गंधमल्लालंकारहारं अणभिलसमाणी, कीडारमणकिरियं च परिहावेमाणी, दीणा, दुम्मणा, निराणंदा, * असंपूर्ण भूमिगयदिट्ठीया, ओहयमणसंकप्पा जाक झियायइ तते णं तीसे धारिणीए देवीए अंगपडियारियाओ, का दोहदअभितरियाओ; दासचेडीयाओ; धारिणीं देवीं ओलुग्गं जाव झियायमाणिं पासंति, पासित्ता; एवं स्थितिवदासी-किण्णं तुमे देवाणुप्पिए !, ओलुग्गा, ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि तते णं साधारणी देवी | वर्णनम् । ताहिं अंगपडियारियाहिं अभितरियाहिं दासचेडियाहिं एवं वुत्ता समाणी नो आढाति, णो य परियाणाति; अणादायमाणी, अपरियाणमाणी, तुसिणिया संचिट्ठतितते णं ताओ अंगपडियारियाओ अभितरियाओ दासचेडियाओ धारिणीं देवीं दोचंपि तचंपि एवं वयासी-"किन्नं तुमे देवाणुप्पिए, ओलग्गा ओलुग्गसरीरा जाव झियायसि ?;" तते णं सा धारिणीदेवी ताहिं अंगपडियारियाहिं अभितरियाहिं दासचेडियाहिं दोचंपि तच्चपि एवं वुत्ता समाणी णो आढाति, णो परियाणति; अणाढायमाणा, अपरियायमाणा, तुसिणिया संचिट्ठति; तते णं ताओ अंगपडियारियाओ, दासचेडियाओ; धारिणीए देवीए अणाढातिजमाणीओ, अपरिजाणिजमाणिओ, तहेव संभंताओसमाणीओ धारणीए देवीए अंतियाओ पडिओलुग्गा । अ। ॐ ॥३१॥ CAFEIAS Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BRECORG निक्वमंति २; जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छंति २, करतलपरिग्गहियं जाव कटु जएणं विजएणं बद्धावेंति, बद्धावइत्ता; एवं व.-एवं खलु सामी, किंपि अज्ज धारिणीदेवी ओलुग्गा, ओलुग्गसरीरा जाव | अदृझाणोवगया झियायति तते णं से सेणिए राया, तासिं अंगपाडियारियाणं अंतिए एयमढे सोचा, णिसम्म, तहेव संभंते समाणे सिग्धं, तुरियं, चवलं, वेइयं जेणेव धारिणीदेवी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता; धारणी देवी ओलुग्गं ओलुग्गसरीरं जाव अदृझाणोवगयं झियायमाणिं पासइ, पासित्ता; एवं वदासी-"किन्नं तुमे देवाणुप्पिए ! ओलुग्गा ओलुग्गसरीरा जाव अट्टझाणोवगया झियायसि" ?, तते णं सा धारणी देवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिट्ठति, तते णं से | सेणिए राया धारिणीं देवीं दोचंपि तचंपि एवं वदासी-"किन्नं तुमे देवाणुप्पिए ओलुग्गा जाव झियायसि ?," तते णं सा धारिणीदेवी सेणिएणं रन्ना दोचंपि तचंपि एवं वुत्ता समाणी णो आढाति; णो परिजाणाति, तुसिणीया संचिट्ठइ तते णं सेणिए राया, धारणिं देविं सवहसावियं करेइ २ त्ता; एवं वयासी-किण्णं तुमं देवाणुप्पिए!, अहमेयस्स अट्ठस्स अणरिहे सवणयाए, ता णं तुम ममं अयमेयारूवं मणोमाणसियं दुक्खं रहस्सी करेसि, तते णं सा धारिणीदेवी, सेणिएणं रन्ना सबहसाविया समाणी सेणियं रायं, एवं वदासी-एवं खलु सामी!, मम तस्स उरालस्स जाव महासुमिणस्स तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अय HARIFICAFECIATEGARH AOCALGC99 Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-उत्वि CA नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे प्ताध्य. श्रेणिक समीपे ॥३२॥ धारिण्या: कथनम् । मेयारूवे अकालमेहेसु दोहले पाउन्भूए-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ कयत्थाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव वेभारगिरिपायमूलं आहिंडमाणीओ डोहलं विणिंति, तं जइ णं अहमवि जाव डोहलं विणिज्जामि; तते णं हं सामी., अयमेयारूवंसि, अकालदोहलंसि, अविणिज्जमाणंसि, ओलुग्गा जाव अदृज्झाणोवगया झियायामि; एएणं अहं कारणेणं सामी!, ओलुग्गा जाव अदृज्झाणोवगया झियायामि, तते णं से सेणिए राया धारिणीए देवीए अंतिए एयमढे सोचा, णिसम्म धारिणिं देविं; एवं वदासी-मा णं तुमं देवाणुप्पिए!, ओलुग्गा जाव झियाहि, अहं णं तहा करिस्सामि, जहा णं तुम्भं अयमेवारूवस्स अकालदोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सह त्ति कटुः धारिणीं देवीं इट्ठाहिं, कंताहिं, पियाहिं, मणुन्नाहिं, मणामाहिं, वग्गूहिं समासासेइ २, जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणामेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता; सीहासणवरगते, पुरत्थाभिमुहे सन्निसन्ने, धारिणीए देवीए एयं अकालदोहलं बहूहिं आएहि य, उवाएहि य, उप्पत्तियाहि य, वेणइयाहि य, कम्मियाहि य, परिणामियाहि य, चउब्विहाहिं बुद्धीहिं अणुचिंतेमाणे २, तस्स दोहलस्स आयं वा, उवायं वा, ठिइं वा, उप्पत्तिं वा, अविंदमाणे; ओहयमणसंकप्पे जाव झियायति ।। सूत्रम्-१४ ॥ तदाणंतरं अभए कुमारे पहाते कयवलिकम्मे जाव सव्वालंकारविभूसिए पायवंदते, पहारेत्थ गमणाए; तते णं से अभयकुमारे जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छइत्ता; सेणियं १ तयाणतरं च । R RITALKAHES +J॥३२॥ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णो इटाहिं, कंताहिं, पिया, संकप्पे झियायतिति, नो अद्धासणेणं रायं ओहयमणसंकप्पं जाव पासइ २त्ता, अयमेयारूवे अन्भथिए, 'चिंतिए, मणोगते संकप्पे, समुप्पज्जित्था;-"अन्नया य ममं सेणिए राया एजमाणं पासति, पासइत्ता आढाति, परिजाणति, सक्कारेइ, सम्माणेइ, आलवति, संलवति, अद्धासणेणं उवणिमंतेति, मत्थयंसि अग्घाति; इयाणिं ममं सेणिए राया णो आढाति, णो परियाणइ, णो सक्कारेइ, णो सम्माणेइ णो इटाहिं, कंताहिं, पियाहिं, मणुन्नाहिं, ओरालाहिं, वग्गूहिं आलवति, संलवति, नो अद्धासणेणं उवणिमंतेति, णो मत्थयंसि अग्घाति; य किंपि ओहय. मणसंकप्पे झियायतितं भवियव णं एत्थ कारणेणं, तं सेयं खलु मे सेणियं रायं एयमढें पुच्छित्तए," एवं संपेहेइ २, जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छइ २, करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्ट, जएणं विजएणं वद्धावेइ, वद्धावइत्ता एवं वदासी-"तुम्भे णं ताओ!, अन्नया ममं एजमाणं पासित्ता, आढाह, परिजाणह जाव मत्थयंसि अग्घायह, आसणेणं उवणिमंतेह; इयाणिं ताओ, तुम्भे ममं नो आढाह, जाव नो आसणेणं उवणिमंतेह; किंपि ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह, तं भवियव्वं ताओ!, एत्थ कारणेणं, तओ तुम्भे मम ताओ!, एयं कारणं अगूहेमाणा, असंकेमाणा, अनिण्हवेमाणा, अप्पच्छाएमाणा, जहाभूतमवितहमसंदिद्धं एयमट्ठमाइक्खहः तते णं हं तस्स कारणस्स अंतगमणं गमिस्सामि;" तते णं से सेणिए राया अभएणं कुमारेणं एवं वुत्ते समाणे, अभयकुमारं एवं वदासी-एवं खलु संकप्पं शियायमाणं जा° अ। २ चिंतिते पत्थिते म. अ। CARCI||FICE Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ ३३ ॥ पुत्ता !, तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए तस्स गन्भस्स दोसु मासेसु अकंतेसु, तइयमासे वट्टमाणे दोहलका समयंसि, अयमेयारूवे दोहले पाउन्भवित्था-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव विर्णिति, तते णं अहं पुत्ताः धारिणीए देवीए तस्स अकालदोहलस्स बहूहिं आएहि य, उवाएहिं जाव उपत्तिं अविंदमाणे, ओहयमणसंकप्पे जाव झियायामि तुमं आगयंपि न याणामि तं एतेणं कारणं अहं पुत्ता !, ओहय जाव शियामि; तते णं से अभयकुमारे सेणियस्स रन्नो अंतिए एय म सोचा, णिसम्म, हट्ट जाव हियए सेणियं रायं; एवं वदासी- मा णं तुन्भे ताओ !, ओहयमण० जाव झियायह, अहणं तहा करिस्सामि, जहा णं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवरस अकालडोहलस्स मणोरहसंपत्ती भविस्सह त्तिकद्दुः सेणियं रायं, ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव समासासेइ; तते णं सेणिए या अभयेणं कुमारणं एवं वृत्ते समाणे, हट्ठतुट्ठे जाव अभयकुमारं सकारेति, संमाणेति २; पडिविसज्जेति ॥ सूत्रम् - १५॥ तते णं से अभयकुमारे सकारिय सम्माणिए पडिविसज्जिए समाणे सेणियस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ २, जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २, सीहासणे निसन्ने; तते णं तस्स अभयकुमारस्स अयमेयारूवे अम्भस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-नो खलु सका माणुस्सएणं उवाएणं मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अकालडोहलमणोरह संपत्ति करेत्तए, णन्नत्थ दिव्वेणं उवाएणं; अस्थि १ भवेत्था अ० । 1649 १ - उत्क्षि प्ताध्य० श्रेणिक समीपे अभय कुमारागमनम् । ॥ ३३ ॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AFRI C CCTOCOCCAR णं मझ सोहम्मकप्पवासी, पुव्वसंगतिए देवे महिड्डीए जाव महासोक्खे; तं सेयं खलु मम पोसहसालाए पोसहियस्स, बंभचारिस्स, उम्मुक्कमणिसुवन्नस्स, ववगयमालावन्नगविलेवणस्स, निक्खित्तसत्थमुसलस्स, एगस्स अबीयस्स, दम्भसंथारोवगयस्स, अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता, पुब्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणस्स विहरित्तए; तते णं पुठ्वसंगतिए देवे मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालमेहेसु डोहलं विणेहिति,एवं संपेहेति २,जेणेव पोसहसाला तेणामेव उवागच्छति २,पोसहसालं पमजति २,उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ २, दन्भसंथारगं पडिलेहेइ २, डन्भसंथारगं दुरूहइ २, अट्ठम भत्तं परिगिण्हइ २, पोसहसा. लाए पोसहिए बंभयारी जाव पुव्वसंगतियं देवं मणसि करेमाणे २, चिट्ठः तते णं तस्स अभयकुमारस्स अट्टमभत्ते परिणममाणे पुव्वसंगतिअस्स देवस्स आसणं चलति,तते णं पुव्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे आसणंचलियं पासति २, ओहिं पउंजतिततेणं तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स अयमेयारूवे अभत्थिए जाव समुप्पन्जित्था-एवं खलु मम पुव्वसंगतिए जंबूद्दीवे २, भारहे वासे, दाहिणड्डभरहे वासे, रायगिहे नयरे; पोसहसालाए पोसहिए अभए नाम कुमारे अट्ठमभत्तं परिगिण्हित्ता णं मम मणसि करेमाणे २, चिट्ठति तं सेयं खलु मम अभयस्स कुमारस्स अंतिए पाउन्भवित्तए, एवं संपेहेइ २, उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवक्कमति २, वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणति २, संखेन्जाइं जोयणाई दंड निसिरति; तंजहा-रयणाणं १ भरहे' अ। २ "पुरस्थिम ।। ATEGORRBOAR Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-उत्विप्ताध्य० अमयकुमारसमीपे देवागमनम् । ||| नवाङ्गी- १, वइराणं २, वेरुलियाणं ३, लोहियक्खाणं ४, मसारगल्लाणं ५, हंसगम्भाणं ६, पुलगाणं ७, सोगंधियाणं १० वृ०1८, जोइरसाणं ९, अंकाणं १०, अंजणाणं ११, रयणाणं १२, जायरूवाणं १३, अंजणपुलगाणं १४, फलिश्रीज्ञाता- हाणं १५, रिट्ठाण १६; अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ २, अहासुहुमे पोग्गले परिगिण्हति, परिगिण्हइत्ता; धर्मकथाङ्गे अभयकुमारमणुकंपमाणे देवे पुब्वभवजणियनेहपीइबहुमाणजायसोगे तओ विमाणवरपुंडरीयाओ, रयणु त्तमाओ, धरणियलगमणतुरितसंजणितगमणपयारो, वाघुणितविमलकणगपयरगवडिंसगमउडुक्कडा॥३४॥ डोवदंसणिज्जो, अणेगमणिकणगरतणपहकरपरिमंडितभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगजणियहरिसे खोलमाणवरललितकुंडलुजलियवयणगुणजनितसोमरूवे उदितोविव कोमुदीनिसाप, सणिच्छरंगारउज्जलियमज्झभागत्थे, णयणाणंदो, सरयचंदो, दिव्वोसहिपज्जलजलियदसणाभिरामो, उउलच्छिसमत्तजायसोहे पइट्ठगंधुद्धयाभिरामो, 'मेरुरिव नगवरो, विगुब्वियविचितवेसे दीवसमुद्दाणं, असंखपरिमाणनामधेजाणं, मज्झंकारेणं वीइवयमाणो उज्जोयंतो पभाए विमलाते जीवलोग, रायगिहं पुरवरं च अभयस्स य तस्स पासं उवयति दिव्वरूवधारी ॥ सूत्रम्-१६।। तते णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाई, सखिंखिणियाई पवरवत्थाइं परिहिए, एक्को ताव एसो गमो अण्णोऽवि गमो-ताए उकिटाए, तुरियाए, चवलाए, चंडाए, सीहाए, उद्धृयाए, जतिणाए, छेयाए, दिवाए, देवगतीए; जेणामेव जंबुद्दीवे २, भारहे वासे जेणामेव सोहागरुवो भ। २ मेरु विव' अ । |||GRAHAL ॥३४॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दाहिणभरहे, रायगिहे नगरे, पोसहसालाए, अभयए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ २, अंतरिक्खपडिवन्ने दसद्धवन्नाई सखिखिणियाइं पवरवत्थाई परिहिए, अभयं कुमारं; एवं वयासी-"अहन्नं देवाणुप्पिया, 3 पुव्वसंगतिए सोहम्मकप्पवासी देवे महड्डिए जण तुमं पोसहसालाए अट्ठमभत्तं पगिण्हित्ता णं मम मणसि करेमाणे चिट्ठसितं एस णं देवाणुप्पिया! अहं इहं हव्वमागए, संदिसाहि णं देवाणुप्पिया!, किं करेमि ?, किं दलामि ,किं पयच्छामि ?, किं वा तं हियइच्छितं ," तते णं से अभए कुमारे तं पुव्वसंगतियं देवं अंतलिक्खपडिवनं पासइ, पासित्ता, हहतुढे पोसहं पारेइ २, करयल० अंजलिं कटु एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिया!, मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारूवे अकालडोहले पाउन्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ तहेव पुव्वगमणं जाव विणिजामि, तन्नं तुमं देवाणुप्पि. मम चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए, अयमेयारूवं अकालडोहलं विणेहि तते णं से देवे अभएणं कुमारेणं, एवं वुत्ते समाणे हट्टतुट्ठ अभयकुमारं; एवं वदासी-तुमण्णं देवाणुप्पिया! सुणिव्यवीसत्थे अच्छाहि, अहण्णं तव चुल्लमाउयाए धारिणीए देवीए अयमेयारुवं डोहलं विणेमीति कट्ट, अभयस्स कुमारस्स अंतियाओ पडिणिक्खमति २, उत्तरपुरच्छिमे णं वेभारपव्वए वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णति २, संखेज्जाई जोयणाई दंड निस्सरति जाव दोचंपि वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहण्णति २, खिप्पामेव सगज्जतियं, सविज्जुयं, सफुसियं, १ भयकु अ। २ तए से णं. अ। ३ "रुवं अकालडो. अ। CARRIGAR EER Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ ३५ ॥ तं पंचवन्न मेहणिणाओवसोहियं दिव्वं पाउससिरिं बिउब्वेइ २, जेणेव अभए कुमारे तेणामेव उवागच्छइ २, अभयं कुमारं एवं वदासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए तव पियट्टयाए सगज्जिया, सफुसिया, सविज्जुया, दिव्वा पाउससिरी विउब्विया; तं विणेउ णं देवाणुपिया !, तव चुल्लमाउया धारिणीदेवी, अयमेयारूवं अकालडोहलं; तते णं से अभयकुमारे तस्स पुव्वसंगतियस्स देवस्स सोहम्मकप्पवासिस्स अंतिए एयमहं सोच्चा, णिसम्म, हट्टतुट्ठे सयातो भवणाओ पडिनिक्खमति २, जेणामेव सेपिए राया तेणामेव उवागच्छति, करयल० अंजलिं कहु एवं वदासी एवं खलु ताओ !, मम पुत्रवसंगतिएणं सोहम्मकप्पवासिणा देवेणं खिप्पामेव सज्जिता, सविज्जुता, पंचवन्नमेहनिना ओवसोभिता, दिव्वा पाउससिरी विउब्विया; तं विणेउ णं मम चुल्लमाउया धारिणी देवी अकालदोहलं । तते णं से सेणिए राया अभयस्स कुमारस्स अंतिए एतमहं सोचा, णिसम्म, हट्टतुट्ठ० कोडुंबियपुरिसे सहावेति २, सावहत्ता एवं वदासी - खिप्पामेव भो देवाप्पिया !, रायगिहं नयर, सिंघाडग-तिय- चउक्क-चच्चर० आसित्तसित्त जाव सुगंधवरगंधियं गंधभूयं करेह य २, मम एतमाणत्तियं पञ्चप्पिणह; तते णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पञ्चप्पियंति, तते से सेएि राया दोचंपि कोडुंबियपुरिसे २ वदासी - खिप्पामेव भो देवाणुपिया !, हयगयरहजोहपवरकलितं, चाउरंगिणिं सेन्नं सन्नाहेह, सेयणयं च गंधहत्थि परिकप्पेह, तेवि तहेव जाव पञ्चपिणंति, तते से सेणिए राया जेणेव धारिणीदेवी तेणामेव उवागच्छति २, धारिणीं देवीं; एवं वदासी एवं खलु তঃত १ - उत्क्षि प्ताध्य० अभयकुमारं प्रति देवकथनम् । ।। ३५ ।। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ %ERECRACKERA देवाणुप्पिए!, सगजिया जाव पाउससिरी पाउन्भूता, तण्णं तुम देवाणुप्पिए; एयं अकालदोहलं विणेहि। तते णं साधारणीदेवी सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणी हट्टतुट्ठा जेणामेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छति २, मजणघरं अणुपविसति २, अंतो अंतेउरंसि पहाता कतबलिकम्मा कतकोउयमंगलपायच्छित्ता किं ते वरपायपत्तणेउर जाव आगासफालियसमप्पभं अंसुयं नियत्था सेयणयं गंधहत्थिं दूरूढा समाणी, अमयमहियफेणपुंजसण्णिगासाहिं सेयचामरवालवीयणीहिं वीइन्जमाणी २, संपत्थिता तते णं सेणिए राया पहाए कयबलिकम्मे जाव सस्सिरीए, हथिवंधवरगए, सकोरंटमल्लदामेणं, छत्तेणं धरिजमाणेणं, चउचामराहिं वीइज्जमाणेणं, धारिणीदेवी पिढतो अणुगच्छति। तते णं सा धारिणीदेवी, सेणिएणं रन्ना हथिखंधवरगएणं पिट्ठतो पितो समणुगम्ममाणमग्गा हयगयरहजोहकलियाए, चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपेरिखुए, महता भडचडगरवंदपरिखित्ता सव्विड्डीए सव्वजुइए जाव दुंदुभिनिग्घोसनादितरवेणं; रायगिहे नगरे, सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर जाव महापहसु, नागरजणेणं अभिनंदिज्जमाणा २, जेणामेव वेभारगिरिपव्वए तेणामेव उवागच्छति २७ वेभारगिरिकडगतडपायमूले आरामेसु य, उजाणेसु य, काणणेसु य, वणेसु-वणसंडेसु य, रुक्खेसु य, गुच्छेसु य, गुम्मेसु य, लयासु य, वल्लीसु य, कंदरासु य, दरीसु य, चुण्डीसु य, दहेसु य, कच्छेसु य, नदीसु य, संगमेसु य, विवरतेसु य; अच्छमाणी य, पेच्छ 'परिशुद्धा. । AURनाजाना Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीपृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ ३६ ॥ माणी य, मजमाणी य; पत्ताणि य, पुष्फाणि य, फलाणि य, पल्लवाणि य, गिण्हमाणी य, माणेमाणी य, अग्घायमाणी य, परिभुंजमाणी य, परिभाएमाणी, यः वे भारगिरिपायमूले दोहलं विणेमाणी सव्वतो समता आहिंडति; तते णं धारिणी देवी विणीतदोहला, संपुन्नदोहला, संपन्नडोहला जाया यावि होत्था; तणं से धारिणीदेवी सेयणयगंधहरिंथ दूरूढा समाणी सेणिएणं हत्थिखंधवरगएणं पिट्ठओ २, समणुगम्ममाणमग्गा हयगय जाव रहेणं जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छइ २, रायगिहं नगरं मज्झमज्झेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २ त्ता; विउलाई माणुस्साई भोग भोगाई जाव विहरति ॥ सूत्रम्१७ ॥ तते णं से अभए कुमारे जेणामेव पोसहसाला, तेणामेव उवागच्छइ २: पुव्वसंगतियं देवं सकारेइ, सम्माणे २, पडिविसज्जेति २; तते णं से देवे सगज्जियं, पंचवन्नं मेहोवसोहियं दिव्वं पाउससिरिं, पडिसाहरति २: जामेव दिसिं पाउन्भूए, तामेव दिसिं पडिगते ॥ सूत्रम् - १८ ॥ तते णं सा धारिणीदेवी, तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि सम्माणियडोहला, तस्स गन्भस्स अणुकंपणट्टाए जयं चिट्ठति, जयं आसयति, जयं सुवतिः आहारंपिय णं आहारेमाणी णाइतित्तं, णातिकडुयं, णातिकसायं, णातिअंबिलं, णाति महुरं; जं तस्स गन्भस्स हियं, मियं, पत्थयं, देसे य काले य आहारं आहारेमाणी; णाइचिन्तं, णाइसोगं, णाइदेणं, णाइमोहं, णाइभयं, णाइपरितासं, भोयणच्छायणगंध मल्लालंकारेहिं तं गर्भः १ "भयं ववगयचितासोयमोह भयपरितासं अ । 196 १- उत्क्षिप्ताध्य० दोहदपरि समाप्ति - स्थिति वर्णनम् । ॥ ३६ ॥ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुहंसुहेणं परिवहति ॥ सूत्रम्-१९ ॥ 'सए णमित्यादि, 'अविणिजमाणंसित्ति-दोहदे अविनीयमाने-अनपनीयमाने सति, असंप्राप्तदोहदा मेघादीनामजातत्वात् असंपूर्णदोहदाः, तेषामजातत्वेनैवासंपूर्णत्वात् , अत एव असन्मानितदोहदा तेषामननुभवनादिति; ततः शुष्का मनस्तापेन शोणितशोषात् , 'भुक्ख'त्ति-बुभुक्षाक्रान्तेव अत एव निर्मासा, 'ओलुग्ग'त्ति-अवरुग्णा-जीर्णेव कथमित्याह'ओलग्गति अवरुग्णमिव-जीर्णमिव शरीरं यस्याः सा तथा, अथवा-अबरुग्णा चेतसा अबरुग्णशरीरा तथैव प्रमलित| दुर्वला-सानभोजनत्यागात , क्लान्ता-ग्लानीभूता, 'ओमंथिय'त्ति-अधोमुखीकृतं वदनं च नयनकमले च यया सा तथा, पांडुकितमुखी-दीनास्येव विवर्ण वदनं यस्याः सा तथा, क्रीडा-जलक्रीडादिका, रमणमक्षादिभिः तक्रियां च परिहापयन्ती, दीना-दुःस्था दुःस्थं मनो यस्याः सा तथा, यतो निरानन्दा उपहतो मनसः संकल्पा-युक्तायुक्तविवेचनं यस्याः सा तथा, यावत्करणात् 'करतलपल्हत्थमुही अज्झाणोवगया झियाइ'त्ति-आध्यानं ध्यायतीति, 'नो आढाइत्ति-नाद्रियते-नादरं करोति, नो परिजानाति-न प्रत्यभिजानाति विचित्तत्वात , 'संभंताउत्ति-आकुलीभृताः, शीघ्रमित्यादीनि चत्वार्यकार्थिकानि अतिसंभ्रमोपदर्शनार्थ; 'जेणेवेत्यादि, यत्र धारिणी देवी तत्रोपागच्छति, स्मागत्य चावरुग्णादिविशेषणां धारणी देवीं पश्यति । वाचनान्तरे तु-'जेणेव धारणीदेवी तेणेवेत्यतः पहारेत्थ गमणाए' इत्येतदृश्यते । तत्र-'पहारेत्थ '-संप्रधारितवान्-विकल्पितवानित्यर्थः, गमनाय-गमनार्थ; तथा-तए णं से सेणिए राया जेणेव १°स्मोपागल्य अ। HAREाशाॐॐEX Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न श्राविता-बालसावियत्ति-अपयति सामान्येन ततोऽ Mावर्णनम। नवाजी- &ा धारणीदेवी तेणेव उवागच्छति २, पासइत्ति-पश्यति सामान्येन ततोऽवरुग्णादिविशेषणां पश्यतीति 'दोचंपित्ति- 1१-उत्वि१० ० द्वितीयामपि वारामिति गम्यते, 'सवहसाविय'त्ति-शपथान्-देवगुरुद्रोहिका भविष्यसि, त्वं यदि विकल्पं नाख्यासी- प्तिाध्यक भीज्ञाता- त्यादिकान् वाक्यविशेषान् श्राविता-श्रोत्रेणोपलम्भिता शपथैर्वा श्राविता शपथश्राविता शपथशापिता वा तां करोति । | असंपूर्ण धर्मकथाओं 'किण्हं किन्न मिति वा पाठो देवानुप्रिये ! एतस्यार्थस्थानहः श्रावणताया, 'मणोमाणसियंति-मनसि जातं मानसिकं, दोहदमनस्येव यद्वर्तते मानसिकं-दुःखं, वचनेनाप्रकाशितत्वान्मनो मानसिक रहस्यीकरोषि-गोपयसीत्यर्थः, 'तिण्ह'मित्यादि, तिण्हमित्यादि,५ स्थिति. त्रिषु मासेषु, 'बहुपडिपुन्नाणं'ति-ईषदनेषु 'जत्तिहामित्ति-यतिष्ये । 'कचित्करिष्यामीति' पाठः। 'अयमेयारुवस्स'त्ति-अस्यैवरूपस्य, 'मणोरहसंपत्ती'ति मनोरथप्रधाना प्राप्तिर्यथा विचिन्तितेत्यर्थः, आयैः-लाभैरीप्सितार्थहेतूनामुपायैः-अप्रतिहतलाभकारणैः, आयं वा उवायं वा ठियं वा-स्थितं वा क्रम वा स्थिरहेतुदोहदानां वेप्सितार्थस्य पाठान्तरे उत्पत्ति वा तस्यैवेत्यर्थः । 'अविंदमाणे'त्ति-अलभमानः, 'अयमेयारूवेत्ति-अयमेतद्रूपः, आध्यात्मिकः-आत्माश्रयः, चिन्तितः-स्मरणरूपा, प्रार्थितो-लब्धुमाशंसितः, मनोगत:-अवहिः प्रकाशितः, संकल्पो-विकल्पः, 'संपेहेति'त्तिसंप्रेक्षते-पर्यालोचयति, 'ताओ'त्ति-हे तात!, इत्यामन्त्रण, 'एयं कारणं'ति-अपध्यानहेतुं दोहदापूर्तिलक्षणमितिभावःकारणमिति, क्वचिन्नाधीयत इति; एवं 'अगूहमाणे'ति-अगोपायन्तः आकारसंवरेण, अशङ्कमानाः-विवक्षितप्राप्तौ संदेहमविदधतः, अनिनुवाना-अनपलपन्तः, किमुक्तं भवति ?,-अप्रच्छादयन्ता यथाभूतं-यथावृत्तं अवितथं नत्वन्यथाभूतं, श्रवण अ। ||३७॥ CCIॐ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंदिग्धम्-असंदेहं, 'एयम8'ति-प्रयोजनं दोहदपूरणलक्षणमिति भावः । 'अंतगमणं गमिस्सामिपति-पारगमनं गमिष्यामीति, 'चुल्लमाउयाए'त्ति-लघुमातुः, 'पुव्वसंगइय'त्ति-पूर्व-पूर्वकाले संगतिः-मित्रत्वं येन सह स पूर्वसंगतिका, महर्द्धिको-विमानपरिवारादिसंपदुपेतत्वाधावत्करणादिदं दृश्य, महाद्युतिका-शरीराभरणादिदीप्तियोगात् , महानुभागोवैक्रियादिकरणशक्तियुक्तत्वात, महायशाः-सत्कीर्तियोगात् , महाबल:-पर्वताद्युत्पाटनसामोपेतत्वात् , महासौख्योविशिष्टसुखयोगादिति, 'पोसहसालाए'ति-पौषधं-पर्वदिनानुष्ठानमुपवासादि तस्य शाला-गृहविशेष:-पौषधशाला तस्यां, पौषधिकस्य-कृतोपवासादेः व्यपगतमालावर्णकविलेपनस्य, वर्ण-चन्दनं, तथा-निक्षिप्तं-विमुक्तं, शस्त्रं-क्षुरिकादि मुशलं च येन स तथा, तस्य एकस्य-आन्तरव्यक्तरागादिसहायवियोगात् , अद्वितीयस्य तथाविधपदात्यादिसहायविरहात् , 'अट्ठमभत्तंति-समयभाषयोपचासत्रयमुच्यते, 'अट्ठमभत्ते परिणममाणे'त्ति-पूर्यमाणे परिपूर्णप्राय इत्यर्थः, 'वेउब्वियसमुः ग्याएण'मित्यादि, वैक्रियसमुत्पातो वैक्रियकरणार्थो जीवव्यापारविशेषः, तेन समुपहन्यते-समुपहतो भवति, समुपहन्ति वाक्षिपति प्रदेशानिति गम्यते, व्यापारविशेषपरिणतो भवतीति भावः तत्स्वरूपमेवाह-'संखेज्जाई' इत्यादि, दण्ड इव दण्ड:ऊधि आयतः शरीरवाहल्यो जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूहः, तत्र च विविधपुद्गलानादत्ते इति दर्शयन्नाह- तद्यथा-रत्नानां-कर्केतनादीनां संबन्धिनः १, तथा वैराणां २, वैडूर्याणां ३, लोहिताक्षाणां ४, मसारगल्लाणां ५, हंसगर्भाणां ६, पुलकानां ७, सौगन्धिकानां ८, ज्योतीरसानां ९, अङ्कानां १०, अञ्जनानां ११, रजताना १२, जातरूपाणां १३, अञ्जनपुलकानां १४, स्फटिकानां १५, रिष्ठानां १६; किमत आइ-यथा बादरान्-अपारान् , यथा सूक्ष्मान्-सारान् , ततो चैक्रियं करोति; CREATIOCAFRICANAYE% Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० वृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे 11 36 11 'अभयकुमार मणुकंपमाणे 'त्ति - अनुकम्पयन् हा !, तस्याष्टमोपवासरूपं कष्टं वर्त्तते इति विकल्पयन्नित्यर्थः, पूर्वभवे - पूर्वजन्मनि जनिता-जाता या स्नेहात्प्रीतिः प्रियत्वं न कार्यवशादित्यर्थः, बहुमानश्च - गुणानुरागस्ताभ्यां सकाशात्, जातः शोकः - चित्तखेदो विरहसद्भावेन यस्य स पूर्वजनितस्नेहप्रीति बहुमानजातशोकः, वाचनान्तरे - 'पूर्वभव जनित स्नेहप्रीतिबहुमानजनितशोभ' स्तत्र शोभा - पुलकादिरूपा, तस्मात्स्वकीयात् विमानवरपुण्डरीकात्, पुण्डरीकता च विमानानां मध्ये उत्तमत्वात्, 'रयणुत्तमाउ'त्ति रत्नोत्तमात् रचनोत्तमाद्वा; 'घरणीतलगमनाय' - भूतलप्राप्तये, त्वरितः शीघ्रं, संजनितःउत्पादितो, गमनप्रचारो - गतिक्रियावृत्तिर्येन स तथा; वाचनान्तरे - ' धरणीतलगमन संजनितमनःप्रचार' इति प्रतीतमेव, व्याघूर्णितानि - दोलायमानानि यानि विमलानि कनकस्य, प्रतरकाणि च प्रतरवृत्तरूपाणि आभरणानि चकर्णपूरे मुकुटं च-मौलिः, तेपामुत्कटो य आटोपः-स्फारता तेन दर्शनीयः- आदेयदर्शनो यः स तथा, तथा - अनेकेषां मणिकनकरत्नानां 'पहकर 'त्ति-निकरस्तेन परिमण्डितो - भक्तिभिचित्रो, विनियुक्तकः-कट्यां निवेशितो, 'मणु'ति-मकारस्य प्राकृतशैली प्रभवत्वात्, योऽनुरूपो गुणः -कटिसूत्रं तेन जनितो हर्षो यस्य स तथा, प्रेङ्खोलमानाभ्यां - दोलायमानाभ्यां वरललितकुण्डलाभ्यां यदुज्वलितम् - उज्वलीकृतं वदनं मुखं तस्य यो गुणः - कान्तिलक्षणः तेन जनितं सौम्यं रूपं यस्य स तथा । वाचनान्तरे- पुनरेवं विशेषणत्रयं दृश्यते । "वाघुन्नियविमलकणगपयरगवडेंसग पकंपमाणचललो लललियपरिलंबमाणनर मगर तुरगमुहसयविणिग्गउग्गिन्नपवर मोत्तियविरायमाणमउडुक्कडाडोवदरिस णिजे " - तत्र व्याघूर्णितानि चञ्चलानि विमलकनकप्रतरकाणि च अवतंसके च प्रकम्पमाने चललोलानि - अतिचपलानि, ललितानि - शोभा 181 SEX १- उत्क्षि प्ताध्य० पूर्वसंगति कदेवगमनप्रवृत्ति- ' वर्णनम् । ॥ ३८ ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECIPSCIENCAIज वन्ति, परिलम्बमानानि-प्रलम्बमानानि, नरमकरतुरगमुखशतेभ्यो-मुकुटाग्रविनिर्मिततन्मुखाकृतिशतेभ्यो विनिर्गतानि-निःसृ. तानि, उद्गीर्णानीव-वान्तानीवोद्गीर्णानि यानि प्रवरमौक्तिकानि-वरमुक्ताफलानि, तैर्विराजमान-शोभमानं यन्मुकुटं तच्चेति द्वन्द्वः, तेषां य उत्कट आटोपस्तेन दर्शनीयो यः स तथा; तथा-'अनेगमणिकणगरयणपहकरपरिमंडियभागभत्तिचित्तविणिउत्तगमणगुणजणियखोलमाणवरललितकुंडलुजलियअहियआभरणजणियसोभे'-अनेक मणिकनकरत्ननिकरपरिमण्डितभागे, भक्तिचित्रे-विच्छित्तिविचित्रे, विनियुक्त-कर्णयोर्निवेशिते गमनगुणेन-गतिसामर्थेन जनिते-कृते, प्रेढोलमाने-चञ्चले ये वरललितकुंडले ताभ्यामुज्वलितेन-उद्दीपनेनाधिकाम्यामाभरणाम्यामुज्वलिताधिकss. भरणैश्च कुण्डलव्यतिरिक्तैर्जनिता शोभा यस्य स तथा; तथा-'गयजलमलविमलदसणविरायमाणरूवे'-गतजलमलविगतमालिन्यं विमलं दर्शनम्-आकारो यस्य स तथा, अत एव विराजमान रूपं यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, अयमेवोपमीयते-उदित इव कौमुदीनिशायां-कार्तिकपौर्णमास्यां शनीश्वराङ्गारकयोः-प्रतीतयोरुज्ज्वलित:-दीप्यमानः सन् यो मध्य भागे तिष्ठति स तथा, नयनानन्दो-लोचनाहादकः शरच्चन्द्र इति, शनीश्वरांगारकवत्कुण्डले चन्द्रवञ्च तस्य रूपमिति, तथाऽयमेव मेरुणोपमीयते-दिव्यौषधीनां प्रज्वलेनेव मुकुटादितेजसा उज्ज्वलितं यदर्शन-रूपं तेनाभिरामो-रम्यो यः स तथा, ऋतुलक्ष्म्येव-सर्वर्तुककुसुमसंपदा समस्ता-सर्वा समस्तस्य बा जाता शोभा यस्य स तथा, प्रकृष्टेन गन्धेनोद्भूतेन-उद्गतेनाभिरामो यः स तथा, मेरुरिव नगवरः विकुर्वितविचित्रवेषः सबसौ वर्तते इति; 'दीवसमुदाण'ति-द्वीपसमुद्राणां, 'असंखपरिमाणनामधेजाणं'ति-असंख्यं परिमाणं नामधेयानि च येषां ते तथा तेषां 'मध्यकारेण'-मध्यमागेन, 'बीइवयमाणे' I CAL Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी १-उत्विप्ताध्या ० ० भीखाताधर्मकथाङ्गे संगतिक देवादागमनम्। ॥३९॥ ISHERLASS ति-व्यतिव्रजन् गच्छन् उद्योतयन् विमलया प्रभया जीवलोकं, 'ओषयह'त्ति-अवपतति अवतरति, अन्तरिक्षप्रतिपन्न:- आकाशस्थः दशार्द्धवर्णानि सकिङ्किणीकानि-क्षुद्रघण्टिकोपेतानि; एकस्तावदेष गमः-पाठः, अन्योऽपि-द्वितीयो गमो- वाचनाविशेष: पुस्तकान्तरेषु दृश्यते, 'ताए'-तया उत्कृष्टया गत्या, त्वरितया-आकुलया न स्वाभाविक्या, आन्तराकूततोऽप्येषा भवत्यत आह-चपलया कायतोऽपि, चण्डया-रोद्रेयाऽत्युत्कर्षयोगेन, सिंहया-तदायस्थैर्येण, उद्धतया-दर्पा तिशयेन, जयिन्या-विपक्षजेतृत्वेन, छेकया-निपुणया, दिव्यया-देवगत्या; अयं च द्वितीयो गमो जीवाभिगमसूत्रवृश्यनुसारेण लिखितः, 'किं करेमिति-किमहं करोमि भवदभिप्रेतं कार्य किंवा, 'दलयामिति-तुभ्यं ददामि, किंवा प्रयच्छामि भवत्संगतायान्यस्मै, किंवा ते हृदयेप्सितं-मनोवाञ्छितं वर्तत इति प्रश्नः, 'सुनिव्वुयवीसत्थे'त्ति-सुष्ठ निर्वृतःस्वस्थात्मा, विश्वस्तो-विश्वासवान् निरुत्सुको वा यः स तथा, 'तातोत्ति-हे तात!। 'परिकप्पेह'ति-सन्नाहवन्तं कुरुत, 'अंतोतेउरंसित्ति-अन्तरन्तःपुरस्य, 'महयाभडचडगरवंदपरिखित्त'त्ति-महाभटानां यच्चटकरप्रधानं विच्छईप्रधान वृन्दं तेन संपरिक्षिप्ता, वैभारगिरेः कटतटानि-तदेकदेशतटानि पादाश्व-तदासनलघुपर्वतास्तेषां यन्मूलं तत्र, तथा-आरामेषु च आरमन्ति, येषु माधवीलतागृहादिषु दम्पत्या(दी)नि ते आरामास्तेषु पुष्पादिमवृक्षसंकुलानि उत्सवादी बहुजनभोग्यानि उद्यानानि तेषु च तथा, सामान्यवृक्षवृन्दयुक्तानि नगरासनानि काननानि तेषु च; नगरविप्रकृष्टानि वनानि तेषु च तथा, वनखण्डेषु-च-एकजातीयवृक्षसमृहेषु वृक्षेषु चैकैकेषु गुच्छेषु च-घृन्ताकीप्रभृतिषु, गुल्मेषु च-वंशजालीप्रभृतिषु, लतासु नि पंचवर्णानि स अ । २ रौद्रयागत्यु. अ । SEEDOसानागाजार Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नि-दोहरू विजय चिहान बेति, हिवन्त तथा, 4545455555 च-सहकारलतादिषु, वल्लीषु च-नागवल्ल्यादिषु च, कन्दरासु च-गुहासु, दरीषु च-शुगालादिउत्कीर्णभूभिविशेषेषु, 'चुंडीसु यत्ति-अखाताल्पोदकविदरिकासु यूथेषु च-वानरादिसम्बन्धिषु, पाठान्तरेण-हदेषु च कक्षेषु च गहनेषु च, नदीषु च-सरित्सु, संगमेषु च-नदीमीलकेषु च, विदरेषु च-जलस्थानविशेषेषुः 'अच्छमाणी य'त्ति-तिष्ठन्ती, प्रेक्षमाणा चपश्यन्ती, दृश्यवस्तूनि मजन्ती च-स्त्रान्ती, 'पल्लवाणि यत्ति-पल्लवान किशलयानि, 'माणेमाणी यत्ति-मानयन्ती स्पर्शनद्वारेण, 'विणेमाण'त्ति-दोहलं विनयन्ती, 'तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसित्ति-अकालमेघदोहदे विनीते सति सम्मानितदोहदा पूर्णदोहदेत्यर्थः, 'जयं चिट्ठईत्ति-यतनया यथा गर्भवाधा न भवति, तथा तिष्ठति ऊर्द्धवस्थानेन; 'आसयइत्ति-आस्ते आश्रयति वा आसनं स्वपिति चेति, हितं-मेधायुरादिवृद्धिकारणत्वान्मितमिन्द्रियानुकूलत्वात् , पथ्यमरोगकारणत्वात् ; 'नाइचिंत'ति-अतीव चिन्ता यस्मिंस्तदतिचिन्तं तथा, यथा न भवतीत्येवं गम्भं परिवहतीति संबन्धः नातिशोकं, नातिदैन्यं, नातिमोह-नातिकामासक्ति, नातिभयमेतदेव संग्रहवचनेनाह-'व्यपगते'त्यादि, तत्र भयं-भीतिमात्र, परित्रासोऽकस्मात् ; ऋतुषु यथायथं भज्यमानाः सुखायेति ऋतुभज्यमानसुखाः । तते णं सा धारिणीदेवी, नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं, अट्ठमाणरातिदियाणं, वीतिकंताणं, अद्धरत्तकालसमयंसि सुकुमालपाणिपादं जाव सव्वंगसुंदरंग दारगं पयाया; तएणं ताओ अंगपडियारिआओ धारिणी देवी नवण्हं मासाणं जाव दारगं पयायं पासन्ति २; सिग्धं, तुरियं, चवलं, वेतिय; जेणेव सेणिए राया तेणेव उवागच्छति २, सेणियं रायं जएणं विजएणं वद्धावति २, करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं बाजाISGAR Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी पृ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ ४० ॥ मत्थए अंजलि क; एवं वदासी एवं खलु देवाणुपिया !, धारिणीदेवी णवण्हं मासाणं जाव दारगं पयाया; अम्हे देवाप्पाणं पियं णिवेदेमो, पियं मे भवउ; तते णं से सेणिए राया तासिं अंगपडियारियाण अंतिम सोचा, णिसम्म, हट्ठतुट्ट० ताओ अंगपडियारियाओ महुरेहिं वयणेहिं विपुलेण य पुष्कगंधमलालंकारेण सक्कारेति, सम्माणेति २, मत्थयधोयाओ करेति, पुत्ताणुपुत्तियं वित्तिं कप्पेति २१ पडिविसज्जेति । तते णं से सेणिए राया कोटुंबियपुरिसे सहावेति २, एवं वदासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया !, यहिं नगरं आसिय जाव परिगयं करेह २, चारगपरिसोहणं करेह २ त्ता, माणुम्माणवणं करेह २, एतमाणत्तियं पञ्चपिणह जाव पञ्चपिणंति । तते णं से सेणिए राया अट्ठारससेणीप्पसेणीओ सद्दावेति २, एवं वदासी - गच्छह णं तुभे देवाणुप्पिया !, रायगिहे नगरे अभितरबाहिरिए उस्सुकं, उक्रं, अभडप्पवेलं, अदंडिमकुडंडिमं, अधरिमं, अधारणिज्जं, अणुद्धयमुइंगं, अमिलायमल्लदामं, गणियावरणाडइजकलियं, अणेगताला यराणुचरितं, पमुइय पक्कीलियाभिरामं, जहारिहं ठिइवडियं, दसदिवसिय करेह २१ एयमाणत्तियं पञ्चपिणह तेवि करिति २, तहेव पञ्चप्पिणंति; तए णं से सेणिए राया बाहिरियाए उबट्ठासालाए, सीहासणवरगए, पुरत्थाभिमुहे, सन्निसन्ने सहएहि य, साहस्सिएहि य, सयसाहस्सेहि य जाहिं, दाहिं, भागेहिं दलयमाणे २, पडिच्छेमाणे २, एवं च णं विहरति; तते णं तस्स अम्मापियरो I १ ते भ० अ । १ - उत्क्षि प्वाध्य० पुत्रजन्म वर्णन सूत्रम् । ॥ ४० ॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढमे दिवसे जातकम्मं करेंति, २,वितियदिवसे जागरियं करेंति २,ततिए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेंति २, एवामेव निव्वत्ते सुइजातकम्मकरणे संपत्ते वारसाहदिवसे विपुलं असणं, पाणं, खातिमं, सातिमं उवक्खडावेंति २, मित्तणातिणियगसयणसंबंधिपरिजणं बलं च बहवे गणणायग, दंडणायग जाव आमन्तेति; ततो पच्छा पहाता कयबलिकम्मा, कयकोउय जाव सव्वालंकारविभूसिया, महतिमहालयसि भोयणमंडवंसि, तं विपुलं असणं, पाणं, खाइम, सातिमं मित्तनातिगणणायग जाव सद्धिं आसाएमाणा; विसाएमाणा, परिभाएमाणा, परिभुंजेमाणा, एवं च णं विहरति जिमितभुत्तुतरागतावि य णं समाणा आयंता चोक्खा परमसुइभूया, तं मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरितणगणणायग. विपुलेणं पुप्फवस्थगंधमल्लालंकारेणं, सकारेंति, सम्माणति २; एवं वदासी-जम्हा णं अम्हं इमस्स दारगस्स गन्भत्थस्स चेव समाणस्स अकालमेहेसु डोहले पाउन्भूते, तं होउ णं अम्हं दारए मेहे नामेणं-'मेहकुमारे तस्स दारगस्स, अम्मापियरो अयमेयारूवं गोण्णं गुणनिप्फन्नं नाणधेनं करेंति । तए णं तते णं से मेहकुमारे पंचधातीपरिग्गहिए, तंजहा-खीरधातीए, मंडणधातीए, मजणधातीए, कीलावणधातीए, अंकधातीए, अन्नाहि य बहूहिं खुजाहिं, चिलाइयाहिं, वामणिवडभिषब्यरिबउसिजोणियपल्हविणइसिणियाचाधोरुगिणिलासियलउसियदमिलिसिंहलिआरविपुलिंदिपक्कणिवहलिमहंडिसवरिपारसीहिं, णाणादेसीहिं, विदेसपरिमंडियाहिं, १ साइमं अ। २ चेव वस० । याजासाठF% Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नबाङ्गी००। मीज्ञातावर्मकथाले जेमणं च; एवं चकातिरंगट्ठवासजातगाओगणितप्पहाणा ॥४१॥ इंगितचिंतियपत्थियवियाणियाहिं, सदेसणेवस्थगहितसाहिं, निउणकुसलाहिं, विणीयाहिं चेडियाचक- १-उरिक्षवालवरिसधरकंचुइअमहयरगवंदपरिखित्ते हत्थाओ हत्थं संहरिजमाणे, अंकाओ अंक परिभुजमाणे, परि- ४ाप्ताध्य० गिजमाणे, चालिजमाणे, उवलालिजमाणे, रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि परिमिजमाणे २,णिव्वायणिव्वा- "मेघघायंसि गिरिकंदरमल्लीव चंपगपायवे सुहं सुहेणं वइ । तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो कुमार" अणुपुब्वेणं नामकरणं च, पजेमणं च; एवं चंकम्मणगं च, चोलोवणयं च महता महया इड्डीसकारस इति नाममुदएणं करिंसु । तते णं तं मेहकुमारं अम्मापियरो सातिरेगहवासजातगं चेव गन्भट्ठमे वासे सोहणंसि दस्थापनम् । तिहिकरणमुहत्तंसि कलायरियस्स उवणेति, ततेणं से कलायरिए मेहं कुमारं लेहाइयाओ गणितप्पहाणाओ सउणरुतपज्जवसाणाओ बावत्तरिं कलाओ सुत्तओ य, अत्थओ य, करणओ य सेहावेति, सिक्खावेति: तं०-लेहं, गणियं, रूवं, नई, गीयं, वाइयं, सरम(ग)यं, पोक्खरगयं, समतालं, जूयं १०७ जणवाय, पासयं, अट्ठावयं, पोरेकचं, दगमट्टियं, अन्नविहिं, पाणविहिं, वत्थविहिं, विलेवणविहिं, सयणविहिं २०, अजं. से पहेलियं, मागहियं, गाई, गीइयं, सिलोयं, हिरणजुत्ति, सुवन्नजुत्ति, चुन्नजुत्ति, आभरणविहिं ३० तरुणी पडिकम्म, इथिलक्खणं, पुरिसलक्खणं, हयलक्खणं, गयलक्खणं, गोणलक्खणं, कुकुडलक्षण, छत्तलक्खणं, डंडलक्खण, असिलक्खणं ४०, मणिलक्खणं, कागणिलक्खणं, वत्थुविजं, खंधारमाणं, नगरमाण, वृहं, परिवूह, चारं, परिचारं, चक्कवूहं ५०, गरुलवूह, सगडवूह, जुद्धं, निजुद्धं, जुद्धातिजुद्धं, अद्दियुद्धं, CREA5% Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुट्टियुद्धं, पाहुयुद्धं, लयाजुद्धं, ईसत्थं ६०, छरुप्पवायं, धणुव्वेयं, हिरन्नपागं, सुवन्नपागं, सुत्तखेडं, वहखेड, नालियाखेडं, पत्तच्छेज्ड, कडच्छेज्ज, सजीव ७०, निज्जीवं सऊणरुयमिति ।। सूत्रम्-२०॥ तते णं से कलाय. रिए मेहं कुमारं लेहादीयाओ, गणियप्पहाणाओ, सउणरुयपज्जवसाणाओ बावत्तरि कलाओ, सुत्तओ य, अस्थओ य, करणओ य, सिहावेति, सिक्खावेह; सिहावेत्ता, सिक्खा अम्मापिऊणं उवणेति । तते णं मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरोतं कलायरियं, मधुरेहि-वयणेहिं, विपुलेणं-वत्थगंधमल्लालंकारेणं, सक्कारेति, सम्माणति २त्ता; विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयंति २त्ता; पडिविसज्जेति ।। सूत्रम्-२१॥ तते ण से मेहे कुमारे बावत्तरिकलापंडिए, णवंगसुत्तपडिबोहिए, अट्ठारसविहिप्पगारदेसीभासाविसारए, गीइ. रई, गंधव्वनदृकुसले, हयजोही, गयजोही, रहजोही, बाहुजोही, बाहुप्पमद्दी; अलं भोगसमत्थे साहसिए वियालचारी जाते यावि होत्था; तते णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं बावत्तरिकलापंडितं जाव वियालचारी जायं पासंति २ त्ता, अट्ट पासातवडिंसए करेंति, अन्भुग्गयमुसियपहसिए विव मणिकणगरयणभत्तिचित्ते, वाउद्धृतविजयवेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिए, तुंगे, गगणतलमभिलंघमाणसिहरे, जालंतररयणपंजरुम्मिल्लियव्व मणिकणगथूभियाए, वियसितसयपत्तपुंडरीए, तिलयरयणद्धयचंदचिए, नानामणिमयदामालंकिते, अंतो बहिं च सण्हे, तवणिजरुइलवालुयापत्थरे, सुहफासे, सस्सिरीयरूवे, पासादीए जाव पडिरूवे, एगं च णं महं भवणं करेंति; अणेगखंभसयसन्निविटं, लीलट्ठियसालभंजियागं, ROCEADCAसाना नान-CRE Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी पृ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ ४२ ॥ अन्भुग्गयसुकयवहरवेतियातोरणव ररइय सालभंजियासुसिलिट्ठविसिठ्ठलट्ठसंठित पसत्थवे रुलियखंभनाणामणिकणगरयणखचितउज्जलं, बहुसमसुविभत्तनिचियरमणिज भूमिभागं, ईहामिय जाव भत्तिचित्तं, खंभुगयवयवेड्या परिगयाभिराभं, विज्जाहरजमलजुयलजुत्तंपिव अच्चीसहस्समालणीयं, रूवगसहस्सकलियं, भिमाणं भिभिमाणं, चक्खुल्लोयणलेसं सुहफासं, सस्सिरीयरूवं, कंचणमणिरयणथूभियागं, नाणाविहपंचवन्नघंटापडागपरिमंडियग्गसिंरं, धवलमिरीचिकवयं, विणिम्मुयंतं, लाउल्लोइयमहियं जाव गंधवट्टिभूयं, पासादीयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं ॥ सूत्रम् - २२ ॥ तते णं तस्स मेहकुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं सोहणंसि-तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तंसि सरिसियाणं, सरिसव्वयाणं, सरित्तयाणं, सरिसलावन्नरूवजोब्वणगुणोववेयाणं; सरिसएहिंतो रायकुलेर्हितो आणिअल्लियाणं, पसाहणहंगअविहवबहुओवयणमंगलसुजंपियाहिं अट्ठहिं रायवरकण्णाहिं सद्धिः एगदिवसेणं पाणिं गिण्हाविंसु । तते णं तस्स मेहस्स अम्मापितरो इमं एतारूवं पीतिदाणं दलयइ अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ सुवण्णकोडीओ गाहाणुसारेण भावियव्व जाव पेसणकारियाओ, अन्नं च विपुलं घणकणगरयणमणिमोत्तिय संखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावतेज्जं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउं, पकामं भोक्तुं, पकामं परिभाएउं; तते णं से मेहे कुमारे एगमंगाए भारियाए एगमेगं हिरण्णकोडिं दलयति, एगमेगं सुवन्नकोडिं १ सिह अ । २ दलयंति अ ३ भाणिअ० अ । | १ - उत्क्षि प्ताध्य० मेघकुमारकलाभ्या सवर्णनम् । ।। ४२ ।। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAFRAI हैदलयति, जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति, अन्नं च विपुलं धणकणग जाव परिभाएउ दलयति; तते णं से मेहे कुमारे उप्पि पासातवरगते फुडमाणेहिं, मुइंगमथएहिं, वरतरुणिसंपउत्तेहिं, वत्तीसइबद्धएहिं | नाडएहिं, उवगिजमाणे उ० २, उवलालित्रमाणे २, सद्दफरिसरसरूवगंधविउले माणुस्सए कामभोगे पच्चणुभवमाणे विहरति ॥ सूत्रम्-२३ ।। तेणं कालेणं २, समणे भगवं महावीरे पुवाणुपुट्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे, जेणामेव रायगिहे नगरे, गुणसिलए चेतिए जाव विहरति | तते णं से रायगिहे नगरे सिंघाडग० महया बहुजणसद्देति वा जाव बहवे उग्गा भोगा, जाव रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं, एगदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छंति, इमं च णं मेहे कुमारे उपि पासातवरगते फुट्टमाणेहिं मुयंगमस्थएहिं जाव माणुस्सए कामभोगे मुंजमाणे रायमग्गं च ओलोएमाणे २, एवं च णं विहरति । तए णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे भोगे जाव एगदिसाभिमुहे निग्गच्छमाणे पासति, पासित्ता; कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति, एवं वदासी-किन्नं भो देवाणुप्पिया!, अज्ज रायगिहे नगरे इंदमहेति वा, खंदमहेति वा, एवं रुद्दसिववेसमणनागजक्खभूयनईतलायरुक्खचेतियपव्वयउजाणगिरिजत्ताइ वा; जओ णं बहवे उग्गा भोगा जाव एगदिसिं एगाभिमुहा णिग्गच्छंति, तते णं से कंचुइज्जपुरिसे समणस्स भग. महावीरस्स गहियागमणपवत्तीए मेहं कुमार, एवं वदासी-नो खलु देवाणुप्पिया!, अन्ज रायगिहे नयरे इंदमहेति वा, जाव गिरिजत्ताओ वा, जन्नं एए उग्गा जाव एगदिसिं एगाभिमुहा निग्गच्छन्ति; एवं खलु IIII Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १-श्रीउरिक्षप्ताध्य. राजगृहनगरवर्णनम्। AARAK देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे, आइकरे, तित्थकरे, इहमागते इह संपत्ते, इह समोसढे; इह चेव रायगिहे नगरे, गुणसिलए चेहए; अहापडि जाव विहरति ।। सूत्रम्-२४ ॥ ___'मत्थयधोयाउ'त्ति-धौतमस्तकाः करोति अपनीतदासस्वा इत्यर्थः, पौत्रानुपुत्रिकां पुत्रपौत्रादियोग्यामित्यर्थः, 'वृत्ति'जीविका कल्पयतीति । 'रायगिहं नगरं आसिय'-इह यावस्करणादेवं दृश्यं, 'आसियसंमजिओवलित-आसिक्तमुदकच्छटेन संमार्जितं कचवरशोधनेन उपलिप्तं गोमयादिना, केषु ?,-'सिंघाडगतिगचउक्कचञ्चरचउमुहमहापहपहेसुः । तथा-सित्तसुइयसंमट्ठरत्थंतरावणवीहियं'-सिक्तानि जलेनात एव शुचीनि-पवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनयनेन है रथ्यान्तराणि आपणवीथयश्च हट्टमार्गा यस्मिन् तत्तथा, 'मंचातिमंचकलित'-मञ्चा-मालकाः प्रेक्षणकद्रष्ट्रजनोपवेशन निमित्तं अतिमश्चा:-तेषामप्युपरि ये तैः कलितं, 'णाणाविहरागभूसियज्झयपडागमंडियं'-नानाविधरागैः कुसुम्भादिभिर्भूषिता ये ध्वजाः सिंहगरुडादिरूपकोपलक्षितबृहत्पटरूपाः पताकाश्च तदितरास्ताभिमंडितं, 'लाउल्लोइयमहियंलाइयं-छगणादिना भूमौ लेपनं उल्लोइयं-सेटिकादिना कुड्यादिषु धवलनं ताभ्यां महित-पूजितं ते एव वा महित-पूजनं यत्र तत्तथा, 'गोसीससरसरत्तचंदणदहरदिन्नपंचंगुलिसलं'-गोशीर्षस्य-चन्दनविशेषस्य सरसस्य च-रक्तचन्दनविशेषस्यैव दर्दरेण-चपेटारूवेण दत्ता-न्यस्ताः, पञ्चाङ्गुलयस्तला-हस्तका यस्मिन् कुड्यादिषु तत्तथा, 'उवचियचंदणकलसं'है उपचिता-उपनिहिता, गृहान्तःकृतचतुष्केषु चन्दनकलशा:-मङ्गल्यघटाः, यत्र तत्तथा; 'चंदणघडसुकयतोरणपडिदु| वारदेसभाग'-चंदनघटाः सुष्ठुकताः तोरणानि च प्रतिद्वारं द्वारस्य २, देशभागेषु यत्र तत्तथा; 'आसत्तोसत्तविपुल AFRAबाजाAFRICA ॥४३॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EFECCASIT RESEARCH ववग्धारियमल्लदामकलावं-आसक्तो-भूमिलग्नः, उत्सत्तश्च-उपरिलग्नो विपुलो वृत्तो; 'वग्धारिय'त्ति-प्रलम्बो माल्यदाम्नां-पुष्पमालानां, कलापः-समूहो यत्र तत्तथा; 'पंचवन्नसरससुरभिमुक्कपुप्फजोवयारकलियं-पञ्चवर्णाः सरसाः सुरभयो ये मुक्ताः-करप्रेरिताः पुष्पपुञ्जास्तैर्य उपचारा-पूजा भूमेः तेन कलितं, 'कालागरुपवरकुंदुरुतुरुकधूवडझंतमघमघंतगंधुद्धयाभिरामं'-कुंदुरुकं-चीडा तुरुकं-सिल्हकं, 'सुगन्धवरगन्धियं गंधवहिभूयं नडनगजल्लमल्लगमुट्ठियवलंबगकहकहगपवगलासगआइक्खगलंखमंखतूणइल्लतुंबवीणियअणेगतालायरपरिगीयं-तत्र नटा-नाटकानां नाटयितारः, नर्तका-ये नृत्यन्ति, अंकिला इत्ये के; जल्ला-वस्त्राखेलका, राज्ञः स्तोत्रपाठका इत्यन्ये मल्ला:प्रतीताः, मौष्टिका-मल्ला एव ये मुष्टिभिः प्रहरन्ति, विडम्बका:-विरकाः, कथाकथका:-प्रतीताः, प्लवका ये उत्प्लवन्ते नद्यादिकं वा तरन्ति, लासका:-ये रासकान् गायन्ति, जयशब्दप्रयोक्तारो वा भाण्डा इत्यर्थः; आख्यायका-ये शुभाशुभमाख्यान्ति, लङ्क्षा-वंशखेलकाः, मङ्खा:-चित्रफलकहस्ता भिक्षाटाः, तूणइल्ला:-तूणाभिधानवाद्यविशेषवन्तः, तुम्बवीणकावीणावादकाः, अनेके ये तालाचराः-तालाप्रदानेन प्रेक्षाकारिणः, तेषां परि-समन्ताद्गीत-ध्वनितं यत्र तत्तथा कुरुत, स्वयं कारयतान्यैस्तथा चारगशोधनं कुरुत, कृत्वा च, मानोन्मान वद्धनं कुरुत; तत्र-मान-धान्यमानं सेतिकादि, उन्मानं-तुला मानं कर्षादिकं, श्रेणयः-कुम्भकासदिजातयः, प्रश्रेणयः-तत्प्रभेदरूपाः । 'उस्सुक'मित्यादि,-उच्छुल्का-उन्मुक्तशुल्का * स्थितिपतितां कुरुतेति संबन्धः, शुल्कं तु विक्रेतव्यं भाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यं, उत्करां-उन्मुक्तकरां, करस्तु गवादीनां का प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यं, अविद्यमानो भटानां-राजपुरुषाणां आज्ञादायिनां प्रवेशः कुटुम्बिमन्दिरेषु यस्यां सा तथा A RY Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAFE नवाङ्गीवृ० वृ. भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १-श्रीउत्क्षिप्ताध्य. जन्मसंकन्धिकुलमर्यादावर्णनम् । ॥१४॥ CARICORREGASAX तामभटप्रवेशां, दण्डेन निवृत्तं दण्डिम, कुदण्डेन निवृत्तं कुदण्डिम-राजद्रव्यं, तन्नास्ति यस्यां सा तथा तामदंडिमकुदंडिमां; तत्र-दण्डोऽपराधानुसारेण राजग्राह्यं द्रव्यं, कुदण्डस्तु कारणिकानां प्रज्ञाद्यपराधान्महत्यप्यपराधिनोऽपराधे अल्पं राजग्राझं द्रव्यम्, अविद्यमानं 'धरिमंति-ऋणद्रव्यं यस्यां सा तथा तां, अविद्यमानो धारणीयः-अधमर्णो यस्यां सा तथा तां; अणुद्धयमुइंग'त्ति-अनुभूता-आनुरूप्येण वादनार्थमुत्क्षिप्ता अनुद्धता वा-वादनार्थमेव वादकैरत्यक्ता मृदङ्गा-मईला । यस्यां सा तथा तां, 'अम्मायमिलायमल्लदाम'न्ति-अम्लानपुष्पमाला गणिकाव:-विलासिनीप्रधानैर्नाटकीयैःनाटकप्रतिवद्धपात्रः कलिता या सा तथा तां, अनेकतालाचरानुचरितां-प्रेक्षाकारिविशेषः सेवितां प्रमुदिता-दृष्टः प्रक्रीडितैश्च-क्रीडितुमारब्धैर्जनैरभिरामा या सा तथा तां, 'यथाही'-यथोचिता, 'स्थितिपतितां'-स्थितीकुलमर्यादायां पतिता-अन्तर्भूता या प्रक्रिया पुत्रजन्मोत्सवसंवन्धिनी सा स्थितिपतिता तां; वाचनान्तरे-'दसदिवसियं | ठियपडिय'न्ति-दशाहिकमहिमानमित्यर्थः कुरुत कारयत वा ।'सएहि'ति-शतपरिमाणैः,'दायेहिं ति-दानः,वाचनान्तरेशतिकांश्चेत्यादि; यागान्-देवपूजाः, दायान्-दानानि, भागान्-लब्धद्रव्यविभागानिति, प्रथमे दिवसे जातकर्मप्रसवकर्म, नालच्छेदननिखननादिकं, द्वितीयदिने जागरिकां-रात्रिजागरणं, तृतीये दिवसे चन्द्रसूर्यदर्शनं उत्सवविशेष एतं इति, पाठान्तरे-तु प्रथमदिवसे स्थितिपतितां, तृतीये चन्द्रसूर्यदर्शनिका, षष्ठे जागरिकां; 'निव्वत्ते असुइजायकम्मकरणे'त्ति-निवृत्ते-अतिक्रान्ते-अशुचीनां जातकर्मणां करणे, 'निव्वत्ते सुइजायकम्मकरणे'त्ति, वा पाठान्तरं, तत्र १न्ति तत्र द.अ। २ एव अ । CARIES ॥४४॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर CARSA | निवृत्ते-कृते शुचीनां जातकर्मणां करणे; 'बारसाहे दिवसे'त्ति-द्वादशाख्ये दिवसे इत्यर्थः, अथवा-द्वादशानामा समाहारो द्वादशाहं तस्य दिवसो येन द्वादशाहः पूर्यते तत्र तथा, मित्राणि-सुहृदा, ज्ञातयो-मातापितृमात्रादयः, निजकाःस्वकीयाः पुत्रादयः, स्वजना:-पितृव्यादयः, संबन्धिन:-श्वशुरपुत्रश्वशुरादयः, परिजनो-दासीदासादिः, बलं चसैन्यं च, गणनायकादयस्तु प्रागभिहिताः, 'महइमहालईत्ति-अतिमहति, आस्वादयन्तावास्वादनीयं, परिमाजयन्तौ अन्येभ्यो यच्छन्तौ मातापितराविति प्रक्रमः, 'जेमिय'त्ति-जेमितौ भुक्तवन्तौ, 'भुत्तुत्तर'त्ति-भुक्तोत्तरं-मुक्तोत्तरकालं, 'आगय'त्ति-आगतावुपवेशनस्थाने इति गम्यते, 'समाणे'त्ति-सन्तो, किंभृतौ भृत्वेत्याह ?, आचान्तौ शुद्धोदकयोगेन चोक्षौ लेपसिकथाद्यपनयनेन अत एव परमशुचिभूताविति, 'अयमेयारूवे'त्ति-इदमेतद्रूपं गौणं, कोऽर्थो १,-गुणनिष्पन्न नामधेयं-प्रशस्तं नाम मेघ इति । क्षीरधाच्या-स्तन्यदायिन्या, मण्डनधाच्या-मण्डिकया, मज्जनधान्या-नापिकया, क्रीडनधात्र्या-क्रीडनकारिण्या, अङ्कधात्र्या-उत्सङ्गस्थापिकया, कुब्जिकाभिः-वक्रजङ्घाभिः, चिलातीभिः-अनार्यदेशोत्पन्नाभिः, वामनाभि:-इस्वशरीराभिः, वटभाभिः-महत्कोष्ठाभिः, बर्बरीभिः-चर्बरदेशसंभवामिः, बकुसिकामियोनकाभिः, पल्हविकाभिः, ईसिनिकाभिः, घोरुकिनिकाभिः, लासिकाभिः, लकुसिकाभिर्द्राविडीभिः, सिंहलीभिः, आरबीभिः, पुलिन्द्रीभिः, पक्कणीभिः, बहलीभिः, मुरुंडीभिः, शबरीभिः, पारसीभिः, 'नानादेशीभिः'-बहुविधाभिः अनार्यप्रायदेशोत्पन्नाभिरित्यर्थः; विदेशः-स्वकीयदेशापेक्षया राजगृहनगरदेशस्तस्य परिमण्डिकाभिः, इङ्गितेन-नयनादिचेष्टाविशेषेण, १ महतिमहालए । KAHESAIXIISRAESS Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SSIFA नवाङ्गीवृ०० श्रीज्ञाताधर्मकथाने १-श्रीउत्क्षिप्ताध्य 'मेषकुमार ॥४५॥ ACCASIOS चिन्तितं च-अपरेण हृदि स्थापितं, प्रार्थितं च-अभिलषितं विजानन्ति यास्ताः तथा ताभिः, स्वदेशे यन्नेपथ्य-परिधानादिरचना तद्वगृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः, निपुणानां मध्ये कुशलायास्तास्तथा ताभिः, अत एव विनीताभियुक्त इति गम्यते, तथा चेटिकाचक्रवालेन अर्थात् स्वदेशसंभवेन वर्षधराणां-बद्धितकरिंथनरुन्धनप्रयोगेण नपुंसकीकृतानामन्तःपुरमहल्लकानां, 'कंचुइज्जत्ति-कंचुकिनामन्तःपुरप्रयोजननिवेदकानां प्रतीहाराणां वा, महत्तरकाणां च-अन्तःपुरकार्यचिन्तकानां वृन्देन परिक्षिप्तो यः स तथा, हस्ताद्धस्तं-हस्तान्तरं संहियमाणः, अङ्कादक-उत्सङ्गादुत्सङ्गान्तरं, परिभोज्यमानः, परिगीयमानः, तथाविधबालोचितगीतविशेषैः उपलाल्यमानः, क्रीडादिलालनया, पाठान्तरे तु 'उवणचिजमाणे २, उवगाइजमाणे २, उवलालिजमाणे २, अवमूहिजमाणे २, आलिङ्गथमान इत्यर्थः, 'अवयासिन्जमाणे २, कथञ्चिदालिङ्गयमान एव, 'परिवंदित्रमाणे २, स्तूयमान इत्यर्थः, 'परिचुंबिजमाणे २ इति प्रचुम्ब्यमानः, चंक्रम्यमाणः, निर्वाते-निर्व्याघाते, 'गिरिकन्दरे'त्ति-गिरिनिकुञ्ज आलीन इव चम्पकपादपः सुखं सुखेन वर्द्धते स्मेति, प्रचङ्कमणकं-भ्रमणं, चूडापनयनं-मुण्डनं 'महया इड्डीसकारसमुदएणं'ति-महत्या ऋख्या एवं सत्कारेण पूजया समुदयेन च जनानामित्यर्थः, 'अर्थत' इति व्याख्यानतः, 'करणत:'-प्रयोगतः, 'सेहावए'त्ति-सेधयति-निष्पादयति, शिक्षयति-अभ्यासं कारयति; ' नवंगसुत्तपडियोहिए 'त्ति-नवाङ्गानि द्वे द्वे श्रोत्रे नयने नासिके जिढका त्वगेका मनश्चकं सुप्तानीव सुप्तानि-पाल्यादव्यक्तचेतनानि प्रतिबोधितानि-यौवनेन व्यक्तचेतनावन्ति कृतानि यस्य स तथा, आह च व्यवहारभाष्ये-'सोत्ताई नव मुत्ता' इत्यादि, अष्टादश विधिप्रकारा:-प्रवृत्तिप्रकाराः अष्टादशभिर्वा नामस्थापनम्। LAFAIRITERARE ॥ ४५॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHEKH &ा विधिमिा-मेदैः प्रचार:-प्रवृत्तिर्यस्याः सा तथा तस्या, देशीभाषायां-देशमेदेन वर्णावलीरूपायां, विशारदः-पण्डितो यः स तथा, गीतिरतिगंधर्वे-गीते नाट्ये च कुशलः, हयेन युध्यत इति हययोधी, एवं स्थयोधी, बाहुयोधी, बाहुभ्यां । प्रमृद्गातीति बाहुप्रमर्दी; साहसिकत्वाद्विकाले चरतीति-विकालचारी । 'पासायवडिसएत्ति-अवतंसका इवावतंसकाः | शेखराः प्रासादाश्च तेऽवतंसकाश्च प्रासादावतंसका प्रधानप्रासादा इत्यर्थः, 'अम्भुग्गयमूसिय'त्ति-अभ्युद्गतोच्छ्रितान् अत्युच्चानित्यर्थः, अत्र च द्वितीयाबहुवचनलोपो दृश्यः, 'पहसिएविव'त्ति-प्रहसितानिव श्वेतप्रभाप्रबलपटलतया हसन्त इवेत्यर्थः,-तथा-मणिकनकरत्नानां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रा ये ते तथा वातोद्धता याः विजयसूचिका वैजयन्त्यभिधानाः पताकाः छत्रातिच्छत्राणि च तैः कलिता येते तथा, ततः कर्मधारयस्ततस्तान : तुङ्गान् कथमिव ?,-गगनतलममिलकस्यच्छिस्वरान , 'जालंतररयणपंजरुमिल्लियव्य'त्ति-जालान्तेषु-मत्तालम्बपर्यन्तेषु जालान्तरेषु वा-जालकमध्येषु रत्नानि येषां ते तथा, ततो द्वितीयाबहुवचनलोपो दृश्यः पञ्जरोन्मीलितानि च-पृथक्कृतपञ्जराणि च प्रत्यग्रच्छायानित्यर्थः; अथवा-जालान्तररत्नपञ्जरैः-तत्समुदायविशेषेरुन्मीलितानीवोन्मीलितानि चोन्मीषितलोचनानि चेत्यर्थः, मणि| कनकस्तूपिकानिति-प्रतीतं, विकसितानि शतपत्राणि पुण्डरीकाणि च प्रतिरूपापेक्षया साक्षाद्वा येषु ते तथा तान् , तिलकैः पुण्डैः, रत्नैः-कर्केतनादिभिः, अर्द्धचन्द्रः-सोपानविशेषैः, भित्तिषु वा-चन्दनादिमयैरालेख्यैः अर्चिता ये ते तथा तान् , पाठान्तरेण-'तिलकरत्ना चन्द्रचित्रान्'; नानामणिमयदामालङ्कृतान् अन्तर्बहिश्च श्लक्ष्णान-मसृणानू तपनीयस्य या रुचिरा वालुका तस्याः प्रस्तर:-प्रतरः प्राङ्गणेषु येषां ते तथा तान् , सुखस्पर्शान् , सश्रीकाणि-सशोभनानि रूपाणि LFISTRAGRA AHARAS - Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथा ॥ ४६ ॥ रूपकाणि येषु ते तथा तान्, प्रसादीयान् चित्ताह्लादकान् - दर्शनीयान् यान् पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यति, अभिरूपान्-मनोज्ञरूपान् द्रष्टारं द्रष्टारं प्रति रूपं येषां ते तथा तान् एकं महद्भवनमिति । अथ भवनप्रासादयोः को विशेषः १, उच्यतेभवनमायामापेक्षया किश्चिदन्यूनोच्छ्रायमानं भवति, प्रासादस्तु आयामद्विगुणोच्छ्राय इति । अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्टं यत्तत्तथा, लीलया स्थिताः शालभञ्जिकाः - पुत्रिका यस्मिन् तत्तथा, अभ्युद्गता-सुकृता वज्रस्य वेदिका - द्वारमुण्डिकोपरि वेदिका तोरणं च यत्र तत्तथा, वराभिः रचिताभी रतिदाभिर्वा शालभञ्जिकाभिः सुश्लिष्टाः संबद्धाः विशिष्टा लष्टाः संस्थिताः प्रशस्ताः वैडूर्यस्य स्तम्भा यत्र तत्तथा, नानामणिकनकरत्नैः खचितं च उज्ज्वलं च यत्तत्तथा ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः; 'बहुसम'त्ति-अतिसमः सुविभक्तो निचितो - निबिडो रमणीयश्च भूमागो यत्र तत्तथा, ईहामृगवृषभ तुरगनरमकरविहगव्यालकिन्नररुरुसरभ च मरकुञ्जरवन लतापद्मलता भक्तिचित्रमिति यावत्करणात् दृश्यं तथा स्तम्भोद्गतया - स्तम्भो परिवर्तिन्या वज्रस्य वेदिकया, परिगृहीतं-परिवेष्टितमभिरामं च यत्तत्तथा, 'बिज्जा हरजमलजुयल जंत जुत्तं' त्ति-विद्याधरयो - र्यत् यमलं समश्रेणीकं युगलं-द्वयं तेनैव यन्त्रेण-संचरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्तं यत्तत्तथा, आर्षत्वाच्चैवंविधः समास इति, तथा अर्चिषां-किरणानां सहस्रैर्मालनीयं- परिवारणीयं, 'भिसमाणं' ति-दीप्यमानं, भिन्भिसमाणं' ति - अतिशयेन दीप्यमानं चक्षुःकर्तृलोकने-अवलोकने दर्शनं सति लिशतीव- दर्शनीयत्वातिशयात् श्लिष्यतीव यत्र तत्तथा, नानाविधाभिः पञ्चवर्णाभिर्घण्टाप्रधानपताकाभिः परिमण्डितमग्रशिखरं यस्य तत्तथा धवल मरीचिलक्षणं, कवचं- कङ्कटं तत्समूहमित्यर्थः, विनिर्मुञ्चन् - विक्षिपन् सहशीनां शरीरप्रमाणतो मेघकुमारापेक्षया परस्परतो वा सहग्वयसां समान कालकृतावस्थाविशेषाणां, सहकृत्व चां सदृशच्छवीनां |||* १-भी उत्क्षि प्वाध्य० मेघकुमार प्रासादादिवर्णनम् ॥ ४६ ॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहशेविण्यरूपयौवनगुणैरुपपेताना, तत्र लावण्यं-मनोजता, रूपम्-आकृतिर्योवनं-युवता, गुणा:-प्रियभाषित्वादयः तथा-प्रसाधनानि च-मण्डनानि अष्टासु चाङ्गेषु अविधववधूभिः-जीवत्पतिकनारीभिर्यदवपदनं-प्रोजनकं तच्च मङ्गलानि च दध्यक्षतादीनि गानविशेषो वा, सजल्पितानि च-आशीर्वचनानीति द्वन्द्वस्तैः करणभृतैरिति इदं चास्मै प्रीतिदानं दत्ते स्म, तद्यथा-अष्टौ हिरण्यकोटीः, हिरण्यं च-रूप्यं, एवं सुवर्णकोटीः, शेषं च प्रीतिदानं गाथाऽनुसारेण भणितव्यं, यावत्प्रेक्षणकारिकाः, गाथावेद नोपलभ्यन्ते केवलं ग्रन्थान्तरानुसारेण लिख्यन्ते-" अदुहिरण्णसुवनय कोडीओ, मउडकुंडला | हारा । अट्ठट्ठहार एकावली उ मुत्तावली अद्व ॥१॥ कणगावलिरयणावलिकडगजुगा तुडियजोयखोमजुगा । वडजुगपट्टजुगाई दुकूलजुगलाई अट्ट(वग्ग)? ॥२॥ सिरिहिरिधिइकित्तीउ बुद्धी लच्छी य होंति अट्ट । नंदा भद्दा य तला झय वय नाडाई आसेव ॥ ३ ॥ हत्थी जाणा जुग्गा उ सीया तह संदमाणी गिल्लीओ। थिल्लीइ वियडजाणा रह गामा दास दासीओ ॥४॥ किंकरकंचुइ मयहर वरिसधरे तिविह दीव थाले य । पाई थासग पल्लग कतिविय अवएड अवपक्का ॥५॥ पावीढ मिसिय करोडियाओ पल्लंकए य पडिसिजा । हंसाईहिं विसिट्ठा आसणभेया उ अट्ठट्ठ ॥६॥ हंसे १ कुंचे २ गरुडे ३ ओणय ४ पणए ५ य दीह ६ भद्दे ७ य । पक्खे ८ मयरे ९ पउमे १० होइ दिसासोथिए ११ क्वारे ॥७॥ तेल्ले कोट्ठसमुग्गा पत्ते चोए य तगर एला य । हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासव समुग्गे ॥ ८ ॥ खुजा चिलाइ वामणि वडभीओ बब्बरी | उ वसियाओ । जोणिय पहवियाओ ईसिणिया घोरुहणिया य ॥९॥ लासिय लउसिय दमिणी सिंहलि तह आरची पुलिंदी ४] य । पक्कणि वहणि मुरंढी सवरीओ पारसीओ य ॥१०॥ छत्तधरी चेडीओ चामरधरतालियंटयधरीओ। सकरोडियाधरीउ 94%ACEAChie Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीपृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे COCA १-श्रीउत्क्षिप्ताध्य. प्रीतिदान| वर्णनम् । -मुक्ताफलमयाक निसरीमय, पादादीनां लोकता ॥४७॥ खीराती पंच धावीओ ॥ ११ ॥ अटुंगमदियाओ उम्मद्दिगविगमंडियाओ य । वण्णयचुण्णय पीसिय कीलाकारी य दवमारी ॥१२॥ उच्छाविया उ तह नाडइल्ल कोडंविणी महाणसिणी । भंडारि अजधारि पुष्फवरी पाणीयधरी य ॥ १३ ॥ वलकारिय सेजाकारियाओ अभंतरी उ बाहिरिया । पडिहारी मालारी पेसणकारीउ अट्ठट्ठ ॥ १४ ॥" अत्र चायं पाठक्रमः, स्वरूपं च-'अदु मउडे मउडपवरे अट्ठ कुंडले कुंडलजोयप्पवरे,' एवमौचित्येनाध्येयं, हारार्द्धहारौ-अष्टादशनवसरिको, एकावली-विचित्रमणिका, मुक्तावली-मुक्ताफलमयी, कनकावली-कनकमाणिकमयी, कटकानि-कलाचिका मरणानि, योगोयुगलं, तुटिका-बाहुरक्षिका, क्षौम-कार्यासिकं, वटकं-त्रिसरीमयं, पढें-पट्टसूत्रमयं, दुकूलं-दुकूलामिधानवृक्षनिष्पन्न, वल्कंवृक्षवल्कनिष्पन, श्रीप्रभृतयः षट् देवताप्रतिमाः संभाव्यन्ते, नन्दादीनां लोकतोऽर्थोऽवसेयः, अन्ये वाहुः-नंद-वृत्तं लोहासनं, भद्र-शरासनं, मूढक इति यत्प्रसिद्धं, 'तल'त्ति-अस्यैवं पाठः, "अट्ठ तले तलप्पवरे सबरयणामए नियगवरभवणकेऊ" ते च तालवृक्षाः संभाव्यन्ते, ध्वजाः-केतवो 'वए'-त्ति गोकुलानि दशसाहस्रिकेण गोव्रजेनेत्येवं दृश्य, 'नाडय' त्ति-'बत्तीसइबद्धेणं नाडगेणमिति दृश्य, द्वात्रिंशद्वर्दू-द्वात्रिंशत्पात्रबद्धमिति व्याख्यातारः, 'आसे'त्ति-आसे आसप्पवरे सबरयणामए सिरिघरपडिरूवे-श्रीगृहं भाण्डागारं, एवं हस्तिनोऽपि, यानानि-शकटादीनि, युग्यानि-गोल्लविषये प्रसिद्धानि, जम्पानानिद्विहस्तप्रमाणानि चतुरस्राणि वेदिकोपशोभितानि शिविकाः-कूटाकारणाच्छादिताः,स्यन्दमानिका:-पुरुषप्रमाणायामा जम्पानविशेषाः, गिल्लयः-हस्तिन उपरि कोल्लररूपा मानुषं गिलन्तीवेति गिल्लयः, लाटानां यानि अड्डपल्यानानि तान्यन्यविष. येषु थिलीओ अभिधीयन्ते, वियडजाणत्ति-अनाच्छादितानि वाहनानि रहत्ति-संग्रामिकाः परियानिकाचाष्टाष्ट, तत्र-संग्रामर +%EC%A4G RECASICAFRAISISAFE ॥४७॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ +35 थानां कटीप्रमाणाफलकवेदिका भवन्ति, वाचनान्तरे स्थानन्तरमश्वा हस्तिनश्वाभिधीयन्ते, तत्र ते वाहनभूताः ज्ञेयाः । | 'गाम'त्ति-दशकुलसाहनिको ग्रामः, तिविहदीवत्ति-त्रिविधा दीपाः, १ अवलंबनदीपाः शृङ्गलाबद्धा इत्यर्थः, २ उत्कम्पनदीपा:-ऊर्ध्वदण्डवन्तः, ३ पञ्जरदीपा-अभ्रपटलादिपञ्जरयुक्ताः, त्रयोऽप्येते त्रिविधाः सुवर्णरूप्यतदुभयमयत्वादिति एवं स्थालादीनि सौवर्णादिमेदात् त्रिविधानि वाच्यानि, कइविका-कलाचिका अवएज इति-तापिकाहस्तकः, 'अवपतिअवपाक्या तापिकेति संभाव्यते, भिसियाओ-आसनविशेषाः; करोटिकाधारिका:-स्थगिकाधारिकाः, द्रवकारिकाः-परिहासकारिकाः, शेष रूढितोऽवसेय; 'अन्नं चेत्यादि, विपुलं-प्रभूतं धनं-गणिमधरिममेयपरिच्छेद्यभेदेन चतुर्विधः कनकं च-सुवर्ण, रत्नानि च-कर्केतनादीनि, स्वस्वजातिप्रधानवस्तूनि वा, मणयश्चन्द्रकान्ताधा मौक्तिकानि च; शङ्खाश्च प्रतीता एव, शिलाप्रवालानि च-विद्रुमाणि, अथवा-शिलाच-सजपट्टा, गन्धपेषणशिलाच, प्रवालानि च-विद्रुमाणि, रक्तरत्नानि च-पञ्चरागादीनि एतान्येव; 'संत'त्ति-सत् विद्यमानं यत्सारं-प्रधानं स्वापतेयं-द्रव्यं तद्दन्तवन्ताविति प्रक्रमः, किंभृतं ?,'अलाहित्ति-अलं-पर्याप्तं परिपूर्ण भवति, 'यावत्ति-यावत्परिमाणं आसप्तमात् कुललक्षणे वंशे भवः कुलवंश्यस्तस्मात्सप्तमं पुरुष यावदित्यर्थः, प्रकाम-अत्यर्थ दातुं-दीनादिभ्यो दाने, एवं भोक्तुं-स्वयं भोगे, परिभाजयितुं-दायादादीनां परिभाजने, तत्परिमाणं दत्तवन्ताविति प्रकृतं; 'उप्पिति-उपरि, 'फुट्टमाणेहिं मुयंगमत्थएहि-स्फुटद्भिरिवातिरभसाऽऽस्फालनात मृदङ्गमस्तकः-मर्दलमुखपुटैः, 'रायगिहे नगरे सिंघाडग'-इत्यनेनालापकांशेनेदं द्रष्टव्यं-'सिंघाडगतिगचउक्कचचरचउम्मुहमहापहपहेसु', 'महया जणसद्देइ वा' इह यावत्करणादिदं दृश्यं; 'जणसमूहेइ वा, जणबोलेइ वा, जणकलकलेह aytCI||%AECIGARE 404-SCARE Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PC १-श्रीउत्क्षि नवाङ्गीवृ० वृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे प्ताध्य. श्रीतीर्थकरागमनादि ॥४८॥ वा, जणुम्मीइ वा, जणुकलियाइ वा, जणसनिवाएइ चा; बहुजनो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ एवं पनवेइ, एवं भासइ, एवं | परूवेद-एवं खलु देवाणुप्पिया!, समणे ३, आइगरे, तित्थगरे जाव संपाविउकामे, पुवाणुपुत्विं चरमाणे, गामाणुगाम दुइजमाणे, इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव रायगिहे नगरे, गुणसिलए चेइए, अहापडिरूवं उग्गई उम्पिण्डित्ता, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ,-तं महाफलं खलु भो देवाणुप्पिया !, तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नाम- | गोयस्सवि सवणयाए, किमंग !, पुण अभिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपञ्जवासणयाए; एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग!, पुण विउलस्स अदुस्स गहणयाए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया 1, समणं भगवं महावीरं वंदामो, नमसामो, सक्कारेमो, सम्माणेमो, कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामो एवं नो पेच्चभवे हियाए, सुहाए, खमाए, निस्सेसाए, अणुगामित्ताए भविस्सइ'त्ति कट्ट त्ति, 'बहवे उग्गा'-इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं-उग्गपुत्ता, भोगा, मोगपुत्ता एवं राइना, खत्तिया, माहणा, भडा, जोहा, मल्लई, लेच्छई। अन्ने य बहवे राईसरतलवरमाडंबियकोडुंबियइन्भसेडिसेणावइसस्थवाहप्पभियओ अप्पेगइया वंदणवत्तियं, अप्पेगइया पूयणवत्तियं, एवं सकारवत्तियं, सम्माणवत्तियं, कोउहल्लवत्तियं, असुयाई सुणिस्सामो, सुयाई निस्संकियाई करिस्सामो, अप्पे० मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइस्सामो, अप्पे० पंचाणुवइयं सचसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजिस्सामो, अप्पेगइया जिणमत्तिरागेणं, अप्पेगइया जीयमेयंति कट्ट, हायाकयवलिकम्मा, कयकोउयमंगलपायच्छित्ता, सिरसाकंठेमालकडा, आविद्धमणिसुवना, कप्पियहारदहारतिसरयपालवपलंबमाणकडिसुत्तयसुकयसोभामरणा, पवरवत्थपरिहिया, चंदणोवलितगायसरीरा, अप्पेगइया हयगया एवं गयरहसिवियासंद वर्णनम् । %ACAFEIAARA ॥४८॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E4E4 %b4-45 E5+4+4+4+41 माणिगया, अप्पेगइया पायविहारचारिणो पुरिसवग्गुरापरिखित्ता महया उक्किद्विसीहणायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूयपिव करेमाणा रायगिहस्स नगरस्स मज्झं मझेणं'ति । अस्थायमर्थः-शृङ्गाटिकादिषु यत्र महाजनशब्दादयः, तत्र बहुजनोऽन्योsन्यमेवमाख्यातीति वाक्यार्थः; 'महया जणसद्देइ वाति-महान् जनशब्दः-परस्परालापादिरूपः, इकारो वाक्यालङ्कारार्थः।वाशब्दः पदान्तरापेक्षया समुच्चयार्थः, अथवा-सदेह वत्ति-इह संधिप्रयोगादितिशब्दो द्रष्टव्यः, स चोपप्रदर्शने, यत्र महान् जनशब्द इति वा, यत्र जनव्यूह इति वा तत्समुदाय इत्यर्थः; जनबोला-अव्यक्तवर्णो धनिः, कलकल:-स एवोपलभ्यमानवचनविभागः, उम्मिः-संबाधः, एवमुत्कलिका-लघुतरः समुदायः, एवं सन्निपातः-अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं तत्र, बहुजनोऽन्योऽन्यस्याख्याति सामान्येन, प्रज्ञापयति विशेषेण, एतदेवार्थद्वयं पदद्वयेनाह-भाषते प्ररूपयति चेति; अथवा-आख्याति सामान्यतः, प्रज्ञापयति विशेषतो, बोधयति वा भाषते व्यक्तपर्यायवचनतः प्ररूपयति उपपत्तिता; 'इह आगएत्ति-राजगृहे, 'इह संपत्ते'त्ति-गुणशिलके, 'इह समोसढे'त्ति-साधूचितावग्रहे । एतदेवाह-'इहेव रायगिहे' इत्यादि, 'अहापडिरूवं'ति-यथाप्रतिरूपमुचित इत्यर्थः, 'त'मिति-तस्मात् , 'महफलं'ति-महत्फलं-अर्थो भवतीति गम्यं, 'तहारूवाणं'ति-तत्प्रकारस्वभावानां महाफलजननस्वभावानामित्यर्थः, 'नामगोयस्स'त्ति-नाम्नीयादृच्छिकस्याभि- 13 धानकस्य गोत्रस्य-गुणनिष्पन्नस्य, 'सवणयाए'त्ति-श्रवणेन, 'किमङ्ग पुण'त्ति-किमङ्ग पुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थः, अङ्गेत्यामन्त्रणे, अथवा-परिपूर्ण एवायं शब्दो विशेषणार्थ इति, अभिगमनं-अभिमुखगमनं-वन्दनं-स्तुतिः, नमस्यनंप्रणमनं, प्रतिप्रच्छनं-शरीरादिवार्ताप्रश्नः, पर्युपासनं-सेवा एतद्भावस्तता तया, तथा एकस्याप्यायस्य आर्यप्रणेतकत्वात , SAREEKASIRAHI|ॐ तस्मात् , 'महकमति-नाम्नोयाणि विशेषयोः । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी- वृ०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे LVOLVa CAFECALI १-उत्विप्ताध्य. श्रीवीरें प्रति जनसमुदाय गमनवर्णनम् । ॥४९॥ CASTORICA धार्मिकस्य-धर्मप्रतिबद्धत्वात् वन्दामोति-स्तुमो, नमस्यामः-प्रणमामः, सत्कारयामः-आदरं कुर्मो, वस्त्राद्यर्चनं वा; सन्मानयामा-उचितप्रतिपत्तिमिः, कल्याण-कल्याणहेतुं, मङ्गलं-दुरितोपशमहेत, दैवतं-दैवं, चैत्यमिव चैत्यं पर्युपासयामःसेवामहे, एतत् णो-अस्माकं, प्रेत्यभवे-जन्मान्तरे, हिताय पथ्यात्रवत् , सुखाय-शर्मणे, क्षमाय-संगतत्वाय, निःश्रेयसायमोक्षाय, आनुगामिकत्वाय-भवपरम्परासुखानुबन्धिसुखाय भविष्यतीतिकृत्वा-इतिहेतोहव उग्रा-आदिदेवावस्थापितारक्षवंशजाः, उग्रपुत्रा:-त एव कुमाराद्यवस्थाः, एवं भोगा:-आदिदेवेनैवावस्थापितगुरुवंशजाताः, राजन्या-भगवदयस्यवंशजाः, क्षत्रिया:-सामान्यराजकुलीनाः, मटा:-शौर्यवन्तो, योधाः-तेम्यो विशिष्टतराः; मल्लकिनो लेच्छकिनश्च राजविशेषाः, यथाहै। श्रयन्ते चेटकरामस्याष्टादशगणराजानो नव मल्लकिनो नव लेच्छकिन इति, लेच्छइत्ति-क्वचिद्वणिजो व्याख्याता: लिप्सव I इति संस्कारेणेति, राजेश्वरादयः प्राग्नन्, 'अप्पेगइय'त्ति-अप्येके केचन, 'वंदणवत्तिय'त्ति-वन्दनप्रत्ययं वन्दनहेतोः शिरसा कण्ठे च कृता-धृता माला यैस्ते शिरसाकण्ठेमालाकृताः, कल्पितानि हाराद्वहारत्रिसरकाणि पालम्बश्च-प्रलम्बमानः कटिसूत्रकं च येषां ते तथा, तथाऽन्यान्यपि सुकृतशोभान्याभरणानि येषां ते तथा, ततः कर्मधारयः, चन्दनावलिप्तानि गात्राणि, यत्र तत्तथाविधं शरीरं येषां ते तथा, पुरिसवग्गुरत्ति-पुरुषाणां वागुरेव वागुरा-परिकरं च महया-महता ५ उत्कृष्टिश्च-आनन्दमहाध्वनिः-गम्भिरचनिः-सिंहनादश्च, बोलश्च-वर्णव्यक्तिवर्जितो चनिरेव, कलकलश्च-व्यक्तवचनः, स एव एतल्लक्षणो यो स्वस्तेन समुद्ररवभूतमिव-जलधिशन्दप्राप्तमिव तन्मयमिवेत्यर्थो नगरमिति गम्यते कुर्वाणा:, 'एगदिसिं'ति-एकया दिशा पूर्वोत्तरलक्षणया एकाभिमुखा-एकं भगवन्तं अभि मुखं येषां ते एकाभिमुखा निर्गच्छन्ति, 'इम FECII-KAR-SA शा॥४९॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ *% च 'ति-वृतश्च 'रायमग्गं च ओलोएमाणे एवं च णं विहरइ, तते णं से मेहे कुमारे ते बहवे उग्गे जाव एगदिसाभिमुहे निगच्छमाणे पासइ पासित्ता' इत्यादि स्फुटं, इन्द्रमहा-इन्द्रोत्सवः, एवमन्यान्यपि पदानि नवरं स्कन्दा-कार्तिकेयः, रुद्र: प्रतीतः, शिवो-महादेवः, वैश्रमगो-यक्षराट् , नागो-भवनपतिविशेषः, यक्षो भृतश्च व्यन्तरविशेषौ, चैत्यं-सामान्येन प्रतिमा, | पर्वतः-प्रतीतः, उद्यानयात्रा-उद्यानगमनं, गिरियात्रा-गिरिगमनं; 'गहियागमणपवित्तिएति-परिगृहीतागमनप्रवृत्तिको गृहीतवार्त इत्यर्थः ॥२४॥ तते णं से मेहे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एतमहं सोचा, णिसम्म, हतुढे कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति २, एवं वदासी-खिप्पामेव मो देवाणुप्पिया!, चाउग्घंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह, तहत्ति उवणेति; तते णं से मेहे पहाते जाव सव्वालंकारविभूसिए, चाउग्घंटं आसरहं दूरूढे समाणे, सकोरंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं, महया भडचडगरविंदपरियालसंपरिवुडे, रायगिहस्स नगरस्स मज्झं मझेणं निग्गच्छति २, जेणामेव गुणसिलए चेतिए, तेणामेव उवागच्छति २त्ता; समणस्स भगवओ महावीरस्स छत्तातिछत्तं, पडागातिपडाग, विजाहरचारणे भए य देवे ओवयमाणे उप्पयमाणे पासति, पासित्ता; चाउग्घंटाओ आसरहाओ पचोरुहति २, समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति तंजहा-सचित्ताण दव्वाणं विउसरणयाए, अचित्ताणं दव्वाणं अविउसरणाए, एगसाडियउत्तरासंगकर १ मेहेकुमारे अ । २ एयम• अ। MORECACH % 8 2 INCAREL % Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-उत्क्षिप्ताध्य० नवाङ्गीपृ० ० श्रीज्ञाताधर्मकथा) श्रीवीर प्रति मेघ कुमार ॥५०॥ णणं, चक्चुप्फासे अंजलिपग्गहेणं, मणसो एगत्तीकरणेणं, जेणामेव समणे भ. महावीरे तेणामेव उवाग. च्छति २, समणं ३, तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेति २, वंदति, णमंसह २, समणस्स ३, णच्चासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे, नमसमाणे अंजलियउडे, अभिमुहे विणएणं पज्जुवासति; तए णं समणे ३, मेहकुमारस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए मज्झगए विचित्तं धम्ममातिक्खति जहा जीवा बुज्झति, मुचंति, जह य संकिलिस्संति, धम्मकहा भाणियव्वा, जाव परिसा पडिगया ॥ सूत्रम्-२५॥ ___ 'चाउग्धंट आसरह'ति-चतस्रो घण्टा अवलम्बमाना यस्मिन् स तथा, अश्वप्रधानो रथोऽश्वरथः, युक्तमेव अश्वादिभिरिति, 'दूरूढे'त्ति-आरूढः, 'महया' इत्यादि, महद् यत् भटानां चटकरं वृन्दं विस्तारवत्समूहस्तल्लक्षणो यः परिवारस्तेन संपरिवृतो यः स तथा। जम्भकदेवास्तिर्यग्लोकचारिणः, 'ओवयमाणे'त्ति-अवपततो-व्योमाङ्गणादवतरतः, 'उप्पयंते'त्ति-भृतलादुत्पततो दृष्ट्वा 'सचित्ते'त्यादि, सचित्तानां द्रव्याणां पुष्पताम्बूलादीनां, 'विउसरणयाए'त्ति-व्यवसरणेनव्युत्सर्जनेनाचित्तानां द्रव्याणामलङ्कारवस्त्रादीनामव्यवसरणेन-अव्युत्सर्जनेन; क्वचिद्वियोसरणयेति पाठः,-तत्र अचेतनद्रव्याणां छत्रादीनां व्युत्सर्जनेन परिहारेण, उक्तं च-" अवणेह पंच कहाणि रायवरवसभचिंधभूयाणि । छत्तं खग्गोवाहण मउडं तह चामराओ य ॥१॥"त्ति; एका शाटिका यस्मिंस्तत्तथा तच्च तदुत्तरासङ्गकरणं च-उत्तरीयस्य न्यासविशेषस्तेन, चक्षुःस्पर्श-दर्शने, अञ्जलिप्रग्रहेण-हस्तजोटनेन, मनस एकत्वकरणेन, एकाग्रत्वविधानेनेति भावः, क्वचिदे अयाहि । गमनवर्णनम् । ACCESCANCS RESCRITICISISEX ॥५०॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | गत्तमावेणंति पाठः, अभिगच्छतीति प्रक्रमः, 'महइमहालयाए'ति-महातिमहत्याः, धर्म-श्रुतचारित्रात्मकं आख्याति, स च यथा जीवा बध्यन्ते कर्मभिः मिथ्यात्वादिहेतुभिर्यथा मुच्यन्ते तैरेव ज्ञानाद्यासेवनतः, यथा संक्लिश्यन्ते अशुभपरि. णामा भवन्ति, तथा-आख्यातीति; इहापसरे धर्मकथा उपपातिकोक्ता भणितव्या, अत्र च बहुम्रन्थ इति न लिखितः ॥२५॥ तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा, णिसम्म, हतुट्टे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेति २, वंदति, नमसइ २, एवं वदासी-सद्दहामि णं भंते !, णिग्गंथं पावयण; एवं पत्तियामि णं, रोएमि णं, अब्भुढेमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं; एवमेयं भंते ! तहमेयं, अवितहमेयं, इच्छितमेयं, पडिच्छियमयं भंते !, इच्छितपडिच्छियमेयं भंते !; से जहेव तं तुब्भे वदह जं, नवरं देवाणुप्पिया!, अम्मापियरो आपुच्छामि, तओ पच्छा मुंडे भवित्ता ण पव्वइस्सामि; अहासुहं देवाणुप्पिया!, मा पडिबंधं करेह तते णं से मेहे कुमारे समणं ३, वंदति, नमंसति २; | जेणामेव चाउग्घंटे आसरहे तेणामेव उवागच्छति २ त्ता, चाउग्घंटं आसरहं दूरूहति २, महया भडचड गरपहकरणं रायगिहस्स नगरस्समझ मज्झेणं जेणामेव सए भवणे तेणामेव उवागच्छति २त्ता, चाउग्धंटाओ आसरहाओ पचोरूहति २, जेणामेव अम्मापियरो तेणामेव उवागच्छति २त्ता, अम्मापिऊण पायवडणं करेति २; एवं वदासी-एवं खलु अम्मयाओ!, मए समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए १ आयाहि० अ । २ इचिळ्यमे० अ । CAFEIATICAE% Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीपृ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ५५१ ॥ धम्मे सिंते, से वि य मे धम्मे इच्छिते, पडिच्छिते अभिरुइए; तते णं तस्स मेहस्स अम्मापियरो एवं वदासी धन्नेसि तुमं जाया ! संपुन्नो०, कयत्थो०, कयलक्खणोऽसि तुमं जाया !, जन्नं तुमे समणस्स ३ अंतिए धम्मे णिसंते, से विय ते धम्मे इच्छिते, पडिच्छिते, अंभिरुइए; तते णं से मेहे कुमारे अम्माfपयरो दोचंपि तचंपि एवं वदासी एवं खलु अम्मयातो !, मए समणस्स ३ अंतिए घम्मे निसंते, सेविय मे धम्मे० इच्छियपडिच्छिए, अभिरुइए; तं इच्छामि णं अम्मयाओ !, तुम्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ताणं आगारातो अणगारियं पव्वत्तए, तते णं सा धारिणी देवी तमणिहं, अकंत, अप्पियं, अमणुन्नं, अमणाणं, असुयपुब्वं, फरुसं गिरं सोचा, णिसम्म, इमेणं एतारूवेणं मणोमाणसिएणं महया-पुत्तदुक्खेणं अभिभूता समाणी सेयागयरोमकूप पगलंतविलीणगाया, सोयभरपवेवियंगी, णित्तेया, दीणविमणवयणा, करयलमलियव्व कमलमाला, तक्खणउ लुगदुब्ब लसरीरा, लावन्न सुन्ननिच्छायगयसिरीया, पसिढिल भूसणपडंत खुम्मि यस चुन्नियधवलवलय पन्भट्ठउत्तरिजा, १० सूमालविकिन्नके सहत्था, मुच्छावसणटुचेयगरुई, परसुनियत्तव्व चंपकलया, निव्वत्तमहिमन्व इंदलही, विमुकसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि, सव्वंगेहिं धसत्ति पडिया; तते णं सा धारिणी देवी ससंभमोवत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुह विणिग्गयसी यल जलविमलधाराए परिसिंचमाणा, निव्वावियगायलट्ठी उक्खेवण १ मेहस्वकुमा• अ । २ अभिरुतिते अ । k १- उत्क्षि प्ताध्य० मेघकुमारस्य दीक्षाभिलाषवर्णनम् । ॥ ५१ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 ACTO तालवंटवीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी मुत्तावलिसन्निगासपवडतअंसुधाराहिं सिंचमाणी पओहरे कलुणविमणदीणा रोयमाणी, कंदमाणी, तिप्पमाणी, सोयमाणी, विलवमाणी मेहं कुमार; एवं वयासी-सूत्रम्-२६ ॥ 'सद्दहामी'त्यादि, श्रद्दधे- अस्तीत्येवं प्रतिपद्ये नैग्रन्थं प्रवचन-जैनं शासनं, एवं 'पत्तियामित्ति-प्रत्ययं करोम्य-18 वेति भावः, रोचयामि -करणरुचिविषयीकरोमि-चिकीर्षामीत्यर्थः किमुक्तं भवति ?,-अभ्युत्तिष्ठामि-अभ्युपगच्छामीत्यर्थः तथा-एवमेवैतत् यद्भवद्भिः प्रतिपादितं तत्तथैवेत्यर्थः, तथैव तद्यथा वस्तु किमुक्तं भवति ?, अवितथं सत्यमित्यर्थः, अत 'इच्छिए' इत्यादि, प्राग्वत् : 'इच्छिए'त्ति-इष्टः, 'पडिच्छिए'त्ति-पुनः पुनरिष्टः भावतो वा प्रतिपन्नः, अभिरुचितःस्वादुभावमिवोपगतः; 'आगाराओ'त्ति-गेहात निष्क्रम्यानगारितां-साधुतां प्रवजितुं मे, 'मणोमाणसिएणं'ति-मनसि भवं यन्मानसिकं, तन्मनोमानसिकं, तेन अबहिर्वृत्तिनेत्यर्थः, तथा--स्वेदागताः-आगतस्वेदा रोमकूपा येषु तानि स्वेदागतरोमकूपाणि, तत एव प्रगलन्ति-क्षरन्ति, विलीनानि च-क्लिन्नानि गात्राणि यस्याः सा, तथा-शोकमरेण प्रवेपिताङ्गीकम्पितगात्रा या सा तथा, निस्तेजा, दीनस्येव-विमनस इव वदनं वचनं वा यस्याः सा तथा, तत्क्षणमेव-प्रव्रजामीति वचनश्रवणक्षणे एव अवरुग्ण-म्लानं दुर्बलं च शरीरं यस्याः सा तथा, लावण्येन शून्या-लावण्यशून्या, निश्छाया-गतश्रीका च या सा तथेति, पदचतुष्टयस्य कर्मधारयः, दुर्बलत्वात् प्रशिथिलानि भूषणानि यस्याः सा तथा, कृशीभूतवाहुत्वात् पतन्तिविगलन्ति, खुम्मियत्ति-भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि चूर्णितानि च- भूपातादेव भग्नानि धवलवलयानि B Ceoc बाजाI-ASHF% % % OSS Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी AF% श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ५२॥ यस्याः सा तथा, प्रभ्रष्टमुत्तरीयं च यस्याः सा तथा, ततः प्रदत्रयस्य कर्मधारयः; सुकुमारो विकीर्णः केशहस्त:- |१-उत्क्षि| केशपाशो यस्याः सा तथा, मृविशाचष्टे चेतसि सति गुर्वी-अलघुशरीरा या सा तथा, परशुनिकत्तेव चम्पकलता | ४प्ताध्य. कुट्टिमतले पतितेति संबन्धः, निवृत्तमहेवेन्द्रयष्टिः-इन्द्रकेतुर्वियुक्तसन्धिवन्धना-श्लथीकृतसन्धाना धसतीत्यनुकरणे | मूर्छाव. ससंभ्रमं व्याकुलचित्ततया, 'उवत्तियाए'त्ति-अपवर्तितया क्षिप्तया त्वरित-शीघ्रं काश्चनभृङ्गारमुखविनिर्गता या स्थित शीतलजलविमलधारा तया परिषिच्यमाना निर्वापिता-शीतलीकृता गात्रयष्टियस्याः सा परिषिच्यमाननिर्वापितगात्रयष्टिः, धारिण्या: उतक्षेपको-वंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यो दण्डमध्यभागः, तालवृन्तं-तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं पत्तछोटन इत्यर्थः, तदाकारं शरीरवा चर्ममयं वीजनकं तु-वंशादिमयमेवान्ताह्यदण्डं एतैर्जनितो यो वातस्तेन, 'सफुसिएणं'-सोदकबिन्दुना अन्तःपुरजनेन वर्णनम् । समाश्वासिता सती मुक्तावलीसन्निकाशा याः प्रपतन्त्योऽश्रुधारास्ताभिः सिञ्चन्ती पयोधरौ, करुणा च विम नाश्च दीना च या सा तथा, रुदन्ती-साश्रुपातं शब्दं विदधाना, दन्ती-ध्वनिविशेषेण, तेपमाना-स्वेदलालादि क्षरन्ती; शोचमाना-हृदयेन विलपन्ती-आर्चस्वरेण ॥ २६ ॥ तुमं सि णं जाया!, अम्हं एगे पुत्ते इढे, कंते, पिए, मणुन्ने, मणामे, थेले वेसासिए, सम्मए, बहुमए, | अणुमए, भंडकरंडगसमाणे रयणे, रयणभूते, जीवियउस्सासय, हिययाणंदजणणे, उंवरपुप्फ व दुल्लभे सवणयाए, किमंग! पुण पासणयाए णो खल जाया!, अम्हे इच्छामो खणमवि विप्पओगं सहित्तते, १त्तए । ॥५२॥ OITTARAIIT-CHAHRESTIN Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A %AEGORRRORECASARASWAROOR तं भुंजाहि ताव जाया!, विपुले माणुस्सए कामभोगे जाव ताव वयं जीवामो, तओ पच्छा अम्हेहिं कालगतेहिं, परिणयवए वड्डियकुलवंसतंतुकजंमि निरावयक्खे, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे | भवित्ता, आगारातो अणगारियं पब्वइस्ससि । तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापियरो, एवं बदासी-तहेव णं तं अम्मतायो, जहेव णं तुम्हे ममं एवं वदह तुमंसि णं जाया!, अम्हं एगे पुत्ते तं चेव जाव निरावयक्खे समणस्स ३ जाव पब्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! माणुस्सए भवे अधुवे, अणियए, असासए, वसणसउवद्दवाभिभूते, विज्जुलयाचंचले, अणिच्चे, जलवुब्बुयसमाणे, कुसग्गजलबिंदुसन्निभे, संझम्भरागसरिसे, सुविणदसणोवमे, सडणपडणविद्धंसणधम्मे, पच्छा पुरं च णं अवस्स विप्पजहणिज्जे, सेकेणं जाणति अम्मयाओ!, के पुध्विगमणाए?, के पच्छा गमणाए; तं इच्छामि णं अम्मयाओ!, तुम्भेहिं अन्भणुनाते समाणे समणस्स भगवतो. जाव पव्वतित्तए; ततेणं तं मेहं कुमार अम्मापियरो एवं वदासी-इमातो ते जाया., सरिसियाओ, सरिसत्तयाओ, सरिसव्वयाओ, सरिसलावन्नरुवजोव्वणगुणोववेयाओ, सरिसेहितो रायकुलेहिंतो आणियल्लियाओ भारियाओ, तं भुंजाहिणं जाया !, एताहिं सद्धिं विपुले माणुस्सए कामभोगे, तओ पच्छा भुत्तभोगे समणस्स ३, जाव पव्वस्ससि; तते णं से मेहे कुमारे अम्मापितरं, एवं वदासी-तहेव णं अम्मयाओ!, जन्नं तुम्भे मम; एवं बदह-इमाओ ते जाया, सरिसियाओ जाव समणस्स ३ पव्वइस्ससि एवं खलु अम्मयाओ!, माणुस्सगा Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी- 18 वृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥५३॥ १-उत्क्षिप्ताध्य. दीक्षार्थिमेघकुमारं प्रति प्रश्नोत्तरसूत्रम् । I कामभोगा असुई, असासया, बंतासवा, पित्तासवा, खलासवा, सुक्कासवा, सोणियासवा, दुरुस्सासनी- सासा, दुरुयमुत्तपुरिसपूथबहुपडिपुन्ना, उच्चारपासवणखेलजल्लसिंघाणगवंतपित्तसुक्कसोणितसंभवा, अ- धुवा, अणितिया, असासया, सडणपडणविद्धंसणधम्मा, पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जासे के णं अम्मयाओ! जाणंति के पुब्बि गमणाए ?, के पच्छा गमणाए?; तं इच्छामि णं अम्मयाओ!, जाव पव्वतित्तए । तते णं तं मेहं कुमारं अम्मापितरो, एवं वदासी-इमे ते जाया., अजयपज्जयपिउपज्जयागए सुबहु हिरने य, सुवणे य, कंसे य, दूसे य, मणिमोत्तिए य, संखसिलप्पबालरत्तरयणसंतसारसावतिजे य, अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पगामं दाउं; पगामं भोत्तुं, पकामं परिभाएउं, तं अणुहोहि ताव जाव जाया ! विपुलं माणुस्सगं इड्डिसकारसमुदयं, नओ पच्छा अणुभूयकल्लाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पव्वइस्ससितते णं से मेहे कुमारे अम्मापियरं,एवं वदासी-तहेवणं अम्मयाओ! जपणं तं वदह इमे ते जाया!, अजगपज्जगपि०, जाव तओपच्छा अणुभूयकल्लाणे पव्वइस्ससि, एवं खलु अम्मयाओ! हिरन्ने य, सुवणे य, जाव सावतेजे अग्गिसाहिए, चोरसाहिए, रायसाहिए, दाइयसाहिए, मच्चुसाहिए; अग्गिसामने जाव मच्चुसामने, सडणपडणविद्धंसणधम्मे; पच्छा पुरं च णं अवस्सविप्पजहणिजे, से के णं जाणइ अम्मयाओ!, के जाव गमणाए तं इच्छामि णं जाव पव्वतित्तए । तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो जाहे नो संचाएइ मेहं कुमारं बहहिं विसयाणुलोमाहिं आघवणाहि य, II114ॐॐ ॥५३॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAHILOCA4 CATEGORI पनवणाहि य, सन्नवणाहि य, विनवणाहि य; आघवित्तए वा, पन्नवित्तए वा, सन्नवित्तए वा, विनवित्तए पा, ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभउब्वेयकारियाहिं पन्नवणाहिं पन्नवेमाणा; एवं वदासी-एस णं जाया!, निग्गंथे पावयणे सच्चे, अणुत्तरे, केवलिए, पडिपुन्ने, णेयाउए, संसुद्धे, सल्लगत्तणे, सिद्धिमग्गे, मुत्तिमग्गे, निजाणमग्गे, निबाणमग्गे, सव्वदूक्खप्पहीणमग्गे, अहीव एगंतदिट्ठीए, खुरो इव एगंतधाराए, लोहमया इव जवा चावेयव्या, वालुयाकवले इव निरस्साए, गंगा इव महानदी पडिसोयगमणाए, महासमुद्दो इव भूयाहिं दुत्तरे, तिक्खं चकमियवं, गरुअं लंबेयव्वं, असिधारव्य संचरियव्वं, णो य खलु कप्पति जाया !, समणाणं निग्गंथाणं आहाकम्मिए वा, उद्देसिए वा, कीयगडे वा, ठवियए वा, रइयए वा, दभिक्खभत्ते वा, कंतारभत्ते वा, वद्दलियाभत्ते वा, गिलाणभत्ते वा, मूलभोयणे वा, कंदभोयणे वा, फलभोयणे वा, बीयभोयणे वा, हरियभोयणे वा, भोत्तए वा, पायए वा; तुमं च णं जाया, सुहसमुचिए, णो चेव णं दुहसमुचिए; णालं सीयं, णालं उण्हं, णालं खुहं, णालं पिवास; णालं वाइयपित्तियसिभियः सन्निवाइयविविहे रोगायके, उच्चावए, गामकंटए, बावीसं परीसहोवसग्गे, उदिन्ने सम्मं अहियासित्तए; भुंजाहि ताव जाया 1, माणुस्सए कामभोगे, ततो पच्छा भुत्तभोगी समणस्स ३, जाव पव्वतिस्ससि; तते णं से मेहे कुमारे अम्मापिऊहिं एवं वुत्ते समाणे अम्मापितरं, एवं वदासी-तहेव णं तं अम्मयाओ!, जनं तुब्भे ममं एवं वदह-"एस णं जाया !, निग्गंथे पावयणे सच्चे, अणुत्तरे०; पुणरवि तं चेव जाव तओ %AROCECRECOCK ||CA-%DIRECAYFAC Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स ३, जावा , परलागारं करणया १-उरिक्ष E% प्ताध्य० नवाङ्गीवृ० वृ. श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे % दीक्षार्थिमेषकुमारं प्रति प्रश्नोचरवर्णनम्। % || ॥५४॥ % पच्छा भुत्तभोगी समणस्स ३, जाव पव्वइस्ससि;" एवं खल अम्मयाओ!, णिग्गंथे पावयणे कीवाणं, कायराणं, कापुरिसाणं, इहलोगपडिबद्धाणं, परलोगनिप्पिवासाणं, दुरणुचरे पाययजणस्स; णो चेव णं धीरस्स, निच्छियस्स (च्छया )ववसियस्सः एत्थं किं दुक्करं करणयाए, तं इच्छामि णं अम्मयाओं, तुम्भेहिं अन्भणुनाए समाणे समणस्स भगवओ० जाव पव्वइत्तए ।। सूत्रम् ॥ २७ ॥ 'जाय'त्ति--हे पुत्र !, इष्टः-इच्छाविषयत्वात् , कान्तः-कमनीयत्वात् , प्रियः-प्रेमनिवन्धनत्वात् ,मनसा ज्ञायसे उपादेयतयेति मनोज्ञः,मनसा अम्यसे-गम्यसे इति मनोऽमः,स्थैर्यगुणयोगाव स्थर्यो वैश्वासिको-विश्वासस्थानं संमतः,कार्यकरणे बहुमत:बहुष्वपि कार्येषु बहुर्वाऽनल्पतयाऽस्तोकतया मतो बहुमतः, कार्यविधानस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः; 'भाण्डकरण्डकसमानो'भाण्ड-आमरणं, रत्नमिव रत्नं मनुष्यजातावुत्कृष्टत्वात् रजनो वा रजक इत्यर्थः, रत्नभूत:-चिन्तामणिरत्नादिकल्पो, जीवितमस्माकमुच्छ्वासयसि-वर्द्धयसीति जीवितोच्छ्वासः स एव जीवितोच्छ्वासः, स एव जीवितोच्छ्वासिकः, वाचनान्तरे-तु जीविउस्सइएत्ति-जीवितस्योत्सव इव जीवितोत्सवः स एव जीवितोत्सविकः, हृदयानन्दजननः, उदुम्बरपुष्पं ह्यलम्यं भवति, अतस्तेनोपमानं; 'जाव ताव अम्हेहिं जीवामोत्ति-इह मुझव तावद्भोगान् यावद्वयं जीवाम इत्येतावतैव विवक्षितसिद्धौ यत्पुनः तावत्शब्दस्योच्चारणं तद्भापामात्रमेवेति, परिणतवया 'वड्डियकुलवंसतंतुकजंमि' वर्द्धिते-वृद्धिमुपागते पुत्रपौत्रादिभिः कुलवंश एव-संतान एव तंतुः दीर्घत्वसाधर्म्यात कुलवंशतन्तुः स एव कार्य-कृत्यं तस्मिन् , ततो 'निरवएक्खेति-निरपेक्षः सकलप्रयोजनानां, 'अधवे'त्ति-न ध्रुवः सूर्योदयवतन प्रतिनियतकाले अवश्यमावी, अनियतः ईश्वरा % |||| FE ॥ ५४॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAIR देरपि दरिद्रादिभावात् , अशाश्वतः-क्षणविनश्वरत्वाद्, व्यसनानि-तचौर्यादीनि तच्छतैरुपद्रवैः स्वपरसंभवैः सदोपद्रवैर्वाs. भिभूतो-व्याप्तः, शटनं-कुष्ठादिना अङ्गुल्यादेः, पतनं-बाह्वादेः, खड्गच्छेदादिना विध्वंसनं-क्षयः, एते एव धर्मा यस्य स तथा; पश्चात्-विवक्षितकालात् परतः, 'पुरं च'त्ति-पूर्वतश्च, णमलंकृतो, 'अवस्सविप्पजहणिज्जे-अवश्यत्याज्यः। 'से के णं जाणइत्ति-अथ को जानाति !, न कोऽपीत्यर्थः; अंबतातक !, पूर्व पित्रोः पुत्रस्य चान्योऽन्यतः गमनाय परलोके उत्सहते, कः पश्चाद्गमनाय तत्रैवोत्सहते इति; कः पूर्व को वा पश्चाम्रियते इत्यर्थः । वाचनान्तरे-मेघकुमारभार्यावर्णक एव. मुपलभ्यते, 'इमाओ ते जायाओ विपुलकुलबालियाओ कलाकुसलसबकाललालियसुहोइयाओ मद्दवगुणजुत्तनिउणविणओवयारपंडियवियक्खणाओ'-पण्डितानां मध्ये विचक्षणा:-पण्डितविचक्षणाः, अतिपण्डिता इत्यर्थः; 'मंजुलमियमहुरमणियहसियविप्पेक्खियगइविलासवट्ठियविसारयाओ-मन्जुलं-कोमलं शब्दतः, मितं-परिमितं, मधुरं-अकठोरमर्थतो यद्भणितं तत्तथा| ऽवस्थित--विशिष्टस्थितिशेष कण्ठथं; 'अविकलकुलसीलसालिणीओ विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धणपगम्भुन्भवप्पभाविणीओ'-- विशुद्धकुलवंश एव सन्तानतन्तुः--विस्तारवत्तन्तुः तद्वर्द्धना ये प्रकृष्टा गर्भाः-पुत्रवरगर्भास्तेषां य उद्भवः--संभवस्तल्लक्षणो यः प्रमावो-माहात्म्यं स विद्यते यासां ताः,तथा-'मणोणुकूलहिययइच्छियायो'-मनोऽनुकूलाश्च ताहृदयेनेप्सिताश्चेति कर्मधारयः, 'अट्ठ तुज्झगुणवल्लहाओ'-गुणैवल्लभा यास्तास्तथा, भज्जाओ उत्तमाओ निच्च भावाणुरत्ता सवंगसुंदरीओ'त्ति, माणुस्सगा काम मोग'ति-इह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यभिप्रेतानि अशुचयः अशुचिकारणत्वात् वान्तं-वमनं, तदाश्रवन्तीति वान्ताश्रवाः एवमन्यान्यपि । नवरं पित्तं प्रतीतं, खेलो-निष्ठीवनं, शुक्र-सप्तमो धातुः, शोणितं-रक्तं, दुरूपाणि AFRICAFERIANTRA - लहाओ'-गुणैवलमा तथा-'मणोणुचलाहियष्टा गर्भाः-पुत्रवणातत्वद्धणपगभुमवप्पभापत तत्तथा 15 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथा ।। ५५ ।। विरूपाणि यानि मूत्रपुरीषपूयानि तैर्बहुप्रतिपूर्णाः; उच्चार:- पुरीषं प्रखवणं-मूत्रं, खेल :- प्रतीतः, सिवानो - नासिकामलः, वान्तादिकानि प्रतीतान्येतेभ्यः संभवः - उत्पत्तिर्येषां ते तथा । 'इमे य ते' इत्यादि, इदं च ते आर्यक : - पितामहः, प्रार्थक:-- पितुः पितामहः, पितृप्रार्थकः- पितुः प्रपितामहः, तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्तथा; अथवा आर्यक प्रार्यकपितॄणां यः पर्यायः परिपाटिरित्यनर्थान्तरं तेनागतं यत्तत्तथा । 'अग्गिसाहिए' त्यादि, अग्नेः स्वामिनश्र साधारणं, 'दाइय'त्ति- दायादाः पुत्रादयः, एतदेव द्रव्यस्यातिपारवश्यप्रतिपादनार्थं पर्यायान्तरेणाह -- 'अग्गिसामण्णे' इत्यादि, शटनं वस्त्रादेरतिस्थगितस्य पतनं--वर्णादिविनाशः, विध्वंसनं च प्रकृतेरुच्छेदः धर्म्मो यस्य तत्तथा, 'जाहे नो संचाएति'त्ति यदा न शक्नुवन्तौ, 'बहूहिं विसए'त्यादि, - बह्वीभिः विषयाणां - शब्दादीनामनुलोमा:- तेषु प्रवृत्तिजनकत्वेन अनुकूला विषयानुलोमास्ताभिः, आख्यापनाभिश्च सामान्यतः प्रतिपादनैः, प्रज्ञापनाभिश्च - विशेषतः कथनैः, संज्ञापनाभिश्च संबोधनाभिर्विज्ञापनाभिश्व-विज्ञ प्तिकाभिश्च सप्रणयप्रार्थनैः, चकाराः - समुच्चयार्थाः, आख्यातुं वा, प्रज्ञापयितुं वा, संज्ञापयितुं वा; विज्ञापयितुं वा न शक्नुत इति प्रक्रमः । ' ताहे 'ति तदा विषयप्रतिकूलाभिः शब्दादिविषयाणां परिभोगनिषेधकत्वेन प्रतिलोमाभिः संयमाद्भयमुद्वेगं च - चलनं कुर्वन्ति यास्ताः संयम भयोद्वेगकारिकाः - संयमस्य दुष्करत्वप्रतिपादनपरास्ताभिः प्रज्ञापनाभिः प्रज्ञापयन्तौ एवमवादिष्टाम्- 'निग्गन्थे'त्यादि - निर्ग्रन्थाः - साधवस्तेषामिंद नैर्ग्रन्थं प्रवचनमेव प्रावचनं, सद्द्भ्यो हितं सत्यं सद्भूतं वा नास्मादुत्तरं - प्रधानतरं विद्यत इत्यनुत्तरं, अन्यदप्यनुत्तरं भविष्यतीत्याह - कैच लिकं केवलं अद्वितीयं, केवलिप्रणीतत्वाद्वा कै लिकं प्रति पूर्ण - अपवर्गप्रापकैर्गुणैर्भृतं, नयनशीलं नैयायिकं, मोक्षगमकमित्यर्थः; न्याये वा भवं नैयायिकं मोक्षगमकमित्यर्थः; ঃ6 १-श्रीउत्क्षि प्ताध्य० स्त्रीपुरुष शरीरा शुचित्वम् । ॥ ५५ ॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RACROCCASSOCHOCOSC% संशुद्धं--सामस्त्येन शुद्धमेकान्ताकलङ्कमित्यर्थः, शल्यानि-मायादीनि कुन्ततीति शल्यकर्तनं, सेधनं सिद्धिः-हितार्थप्राप्ति स्तन्मार्गः, सिद्धिमार्गः मुक्तिमार्गः--अहितकर्मविच्युतेरुपायः, यान्ति तदिति यानं, निरुपम यानं, निर्याणं-सिद्धिक्षेत्रं तन्मार्गो | निर्याणमार्गः, एवं निर्वाणमार्गोऽपि, नवरं निर्वाण-सकलकर्मविरहज सुखमिति, सर्वदुःखप्रक्षीणमार्गः-सकलाशर्मक्षयोपायः, अहिरिव एकोऽन्तो-निश्चयो यस्याः सा एकान्ता सा दृष्टि:-बुद्धिर्यस्मिन्निग्रन्थे प्रवचने-चारित्रपालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकं, ४ अहिपक्षे-आमिषग्रहणैकतानतालक्षणा एकान्ता-एकनिश्चया दृष्टिः-दृक् यस्य स एकान्तदृष्टिकः, क्षुरप्र इव एकधारा, द्वितीयधाराकल्पाया अपवादक्रियाया अभावात् ; पाठान्तरेण-एकान्ता-एकविभागाश्रया धारा यस्य तत्तथा, लोहमया इव यवाः चयितव्याः प्रवचनमिति प्रक्रमः, लोहमययवचर्वणमिव दुष्करं चरणमिति भावः, वालुकाकवल इव निरास्वादं वैषयिकसुखास्वादनापेक्षया प्रवचनं, गङ्गेव महानदी प्रतिश्रोतसा गमनं-प्रतिश्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता तया, प्रतिश्रोतोगमनेन गङ्गेच दुस्तरं प्रवचनमनुपालयितुमिति भावः, एवं समुद्रोपमानं प्रवचनमिति, तीक्ष्णं खड्गकुन्तादिकं चंक्रमितव्यं--आक्रमणीयं यदेतत्प्रवचनं तदिति, यथा-खड्गादि क्रमितुमशक्यमेवमशक्यं प्रवचनमनुपालयितुमिति भावः, गुरुकं महाशिलादिकं लम्बयि. तव्य--अवलम्बनीयं प्रवचनं गुरुकलम्बनमिव दुष्करं तदिति भावः, असिधारायां सचरणीयमित्येवं रूपं यद्वतं-नियमस्तदसिधाराव्रतं चरितव्यं--आसेव्यं यदेतत्प्रवचनानुपालनं तदेतदुष्करमित्यर्थः, कस्मादेतस्य दुष्करत्वमत उच्यते-'नो य कप्पई' त्यादि, 'रइए वति-ौदेशिकभेदस्तच्च मोदकचूर्णादि पुनर्मोदकतया रचितं भक्तमिति गम्यते, दुर्भिक्षभक्तं यद्भि १ ०लकर्मक्ष० अ। AFRICORNITIONFERIISE Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० वृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ ५६ ॥ क्षुकार्थं दुर्भिक्षे संस्क्रियते, एवमन्यान्यपि; नवरं कान्तारं - अरण्यं वद्दलिका--वृष्टिः, ग्लानः सन्नारोग्याय यद्ददाति तद् ग्लानभक्तं, मूलानि - पद्मसिनाटिकादीनां कन्दाः- सूरणादयः, फलानि - आम्रफलादीनि, बीजानि - शाल्यादीनि, हरितं - मधुरतृणकभाण्डादि भोक्तुं वा पातुं वा नालं न समर्थः, शीताद्यधिसोदुमिति योगः; रोगाः - कुष्ठादयः, आतङ्काः- आशुघातिनः शूलादयः, उच्चावचान्- नानाविधान् ग्रामकण्टकान् इन्द्रियवर्गप्रतिकूलान् एवं खलु अम्मयाओ !' इत्यादि - यथा लोहचर्वणाद्युपमया दुरनुचरं - दुःखासेव्यं नैर्ग्रन्थं प्रवचनं मवद्भिरुक्तमेवं-- दुरनुचरमेव, केषां :- क्लीवानां - मन्दसंहननानां कातराणां - चित्तावष्टम्भवर्जितानामत एव कापुरुषाणां कुत्सितनराणां, विशेषणद्वयं तु कण्ठथः पूर्वोक्तमेवार्थमाह--दुरनुचरं-दुःखासेव्यं नैर्ग्रन्थं प्रवचनमिति प्रकृतं कस्येत्याह-- प्राकृतजनस्य, एतदेव व्यतिरेकेणाह-- 'नो चेव णं' नैव धीरस्य - साहसिकस्य दुरनुचरमिति प्रकृतं एतदेव वाक्यान्तरेणाह - निश्चितं निश्चयवद् व्यवसितं - व्यवसायः कर्म्म यस्य स तथा तस्य, 'एत्थ त्ति--अत्र नैर्ग्रन्थे प्रवचने किं दुष्करं १, - न किञ्चित् दुरनुचरमित्यर्थः कस्यामित्याह -- 'करणतायां' करणानां -- संयमव्यापाराणां भावः करणता तस्यां संयमयोगेषु मध्ये इत्यर्थः, तत् तस्मादिच्छाम्यम्बतात ! ।। २७ ।। तणं तं मेहं कुमारं अम्मापियरो जाहे नो संचाइंति बहूहिं विसयाणुलो माहि य, विसयपडिकूलाहि य, आघवणाहि य, पन्नवणाहि य, सन्नवणाहि य, विन्नवणाहि य; आघवित्तए वा, पन्नवित्तए वा, सन्नवित्तए वा, विन्नवित्तए वा; ताहे अकामए चेव मेहं कुमारं एवं वदासी - इच्छामो ताब जाया !, एगदिवसमवि ते रायसिरिं पासित्तए, तते णं से मेहे कुमारे अम्मापितरमणुवत्तमाणे तुसिणीए संचि १- श्री. उत्क्षि प्ताध्य० दीक्षार्थि मेघकुमार स्य संयमविषयकः मनोरथ वर्णनम् । ॥ ५६ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति, तते णं से सेणिए राया कोहुंबियपुरिसे सहावेति २ त्ता, एवं वदासी - खिप्पामेव भो देवाणुपिया !, मेहस्स कुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं बिउलं रायाभिसेयं उबट्टवेह, तते णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव तेवि तहेव उबट्टवेंति; तते णं से सेणिए राया बहूहिं गणणायगदंडणायगेहि य जाव संपरिवुडे मेहं कुमारं असणं सोवन्नियाणं कलसाणं, एवं रूप्पमयाणं कलसाणं, सुवन्नरुप्पमयाणं कलसाणं, मणिमयाणं कलसाणं, सुवन्नमणिमयाणं०, रुप्पमणिमयाणं, सुवन्नरुप्पमणिमयाणं०, ओमेजाणं०; सव्वोदएहिं, सव्वमद्दियाहिं, सव्वपुष्फेहिं, सव्वगंधेहिं, सव्वमल्लेहिं सव्वोसहिहि य, सिद्धत्थएहि यः सव्बिड्डीए, सव्वजुईए, सव्वबलेणं जाव दुंदुभिनिग्घोसणादितरवेणं महया २ रायाभिसेएणं अभिसिंचति २, करयल जाव कट्टु एवं वदासी- जय जय णंदा !, जय २ भद्दा !, जय णंदा० भदं ते अजियं जिणेहि, जियं पालयाहि जियमज्झे साहि, अजियं जिणेहि, सत्तुपक्खं जियं च पालेहि, मित्तपक्खं जाव भरहो इव मणुयाणं; रायगिहस्स नगरस्स, अन्नेसिं च बहूणं गामागरनगरजाव सन्निवेसाणं आहेवचं जाव विहराहित्ति कहु, जय २ सद्दं पउंजंति, तते णं से मेहे राया जाते महया जाव विहरति तते णं तस्स मेहस्स रनो अम्माfपतरो एवं वदासी-भण जाया !, किं दलयामो, किं पयच्छामो, किं वा ते हियइच्छिए सामत्थे ( मन्ते ) ?; तते णं से मेहे राया अम्मापितरो एवं वदासी - इच्छामि णं अम्मयाओ !, कुत्तियावणाओ रयहरणं, पडिग्गहगं च उवणेह; कासवयं च सद्दावेह; तते णं से सेणिए || এ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीपृ० वृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ ५७॥ FACCORRECARECARRENA १-श्रीउत्क्षिप्ताध्य. मेघकुमारनृपस्य श्रेणिक प्रत्यादेशम्। राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेति सद्दावेत्ता; एवं वदासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया!, सिरिघरातो तिन्नि सयसहस्सातिं गहाय, दोहिं सयसहस्सेहिं कुत्तिवावणाओ रयहरणं पडिग्गहगं च उवणेह, सय. सहस्सेणं कासवयं सद्दावेहः तते ण ते कोडुबियपुरिसा सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ता समाणा हट्ठ-तुट्ठा सिरिघराओ तिन्नि सयसहस्सातिं गहाय, कुत्तियावणातो दोहिं सयसहस्सेहिं रयहरणं पडिग्गहं च उवणेति; सयसहस्सेणं कासवयं सहावेंति; तते णं से कासवए तेहिं कोडंबियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हेतु जाव हयहियए पहाते, कतवलिकम्मे, कयकोउयमंगलपायच्छित्ते, सुद्धप्पावेसातिं वत्थाई भंगलाई पवरपरिहिए, अप्पमहग्याभरणालंकितसरीरे, जेणेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छति २. सेणियं रायं करयलमंजलिं कट्ठ एवं वयासी-संदिसह ण देवाणुप्पिया!, जं मए करणिजं । तते णं से सेणिए राया कासवयं एवं वदासी-गच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिया!, सुरभिणा गंधोदएणं णिक हत्थपाए पक्खालेह, सेयाए चउप्फालाए पोत्तीए मुहं बंधेत्ता, मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलबजे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पेहिः तते णं से कासवए सेणिएणं रन्ना एवं वुत्ते समाणे हह जाव हियए जाव पडिसुणेति २, सुरभिणा गंधो. दएणं हत्थ-पाए पक्खालेति २, सुद्धवत्थेणं मुहं बंधति २ त्ता, परेणं जत्तेणं मेहस्स कुमारस्स चउरंगुलवजे णिक्खमणपाउग्गे अग्गकेसे कप्पति; तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया महरिहेणं हंसलकखणेणं १ हहतुट्ठजा० अ । २ कयव० भ । ३ मुहं बंधेति बं० । SikOCHOCKI||CHRI|| 140CASHAN Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडसाडएणं अग्गकेसे पडिच्छति २, सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेति २, सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चाओ दलयति २, सेयाए पोतीए बंधेति २, रयणसमुग्गयंसि पक्खिवति २, मंजूसाए पक्खिवति २, हारवारिधारसिंदुवारछिन्नमुत्तावलिपगासाइं अंसूई विणिम्मुयमाणी २, रोयमाणी २, कंदमाणी २, विलवमाणी २, एवं वदासी-एस णं अम्हं मेहस्स कुमारस्स अब्भुदएसु य, उस्सवेसु य, पब्वेसु य, तिहीसु य, छणेसु य, जन्नेसु य, पब्वणीसु य, अपच्छिमे दरिसणे भविस्सइत्तिकट्ठ, उस्सीसामूले ठवेति तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापितरो उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयाति, मेहं कुमारं दोचंपि तचंपि सेयपीयएहिं कलसेहिं पहावेति २, पम्हलसुकुमालाए गंधकासाइयाए गायातिं लूहेंति २, सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायातिं अणुलिंपति २, नासानीसासवायवोझ जाव हंसलक्खणं पडगसाडगं नियंसेंति २, हारं पिणद्धति २, अद्वहारं पिणद्वंति २; एगावलिं, मुत्तावलिं, कणगावलिं, रयणावलिं, पालंबं पायपलंब, कडगाई, तुडिगाई, केउरातिं, अंगयाति, दसमुद्दियार्णतयं, कडिसुत्तयं, कुंडलाति, चूडामणिं, रयणुक्कडं मउडं पिणद्वंति२; दिव्वं सुमणदाम पिणटुंति २, दद्दरमलयसुगंधिए गंधे पिणटुंति; तते णं तं मेहं कुमारं गंठिमवेढिमपूरिमसंघाइमेण चउविहेणं मल्लणं कप्परुक्खगंपिव अलंकितविभूसियं करेंति । तते णं से सेणिए राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेति २, एवं वयासी खिप्पामेव भो देवाणुपिया!, अणेगखभसयसन्निविट्ठ, लीलट्ठियसालभंजियागं, ईहामिगउसभतुरयनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलय भत्तिचित्तं, ACHIIIIIIMARYEAR Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी OCIENCE . COAS- I भीज्ञाताधर्मकथा) १-श्रीउत्क्षिप्ताध्य मेघकुमारस्य दीक्षावर्णनम् । ॥५८॥ घंटावलिमहुरमणहरसरं, सुभकंतदरिसणिज्जं, निउणोवियमिसिमिसिंतमणिरयणघंटियाजालपरिखित्तं, अन्भुग्गयवइरवेतियापरिगयाभिरामं, विजाहरजमलजंतजुत्तंपिव अच्चीसहस्समालणीयं, रूवगसहस्सकलियं, भिसमाणं भिब्भिसमाणं, चक्खुलोयणलेस्सं, सुहफासं, सस्सिरीयरूवं, सिग्धं, तुरितं, चवलं, वेतियं, पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं उवट्ठवेह; तते णं ते कोडंबियपुरिसा हह-तुट्ठा जाव उवट्ठति । तते णं से मेहे कुमारे सीयं दूरूहति २ त्ता, सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्न; तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स माया पहाता कयवलिकम्मा जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा सीयं दूरूहति २, मेहस्स कुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणंसि निसीयति; तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अंबधाती रयहरणं च पडिग्गहगं च गहाय सीयं दूरूहति २, मेहस्स कुमारस्स वामे पासे भद्दासणंसि निसीयति । तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिट्ठतो एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा, संगयगयहसियभणियचेट्ठियविला. ससलावुक्लावनिउणजुत्तोवयारकुसला, आमेलगजमलजुयलवडियअन्भुन्नयपीणरतियसंठितपओहरा; हिमरययकुंदेंदुपगासं, सकोरेंटमल्लदामधवलं आयवत्तं गहाय, सलीलं ओहारेमाणी २ चिट्ठति; तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स दुवे वरतरुणीओ सिंगारागारचारुवेसाओ जाव कुसलाओ सीयं दुरूहंति २, मेहस्स कुमारस्स उभओ पासिं नाणामणिकणगरयणमहरिहतवणिज्जुजलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ सुहुमवरदीहवालाओ संखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निगासाओ चामराओ गहाय सलील ओहारेमाणीओ २ AYEHRIDITORIES गा॥५८॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C CCASI|| चिट्ठति । तते णं तस्स मेहकुमारस्स एगा वरतरुणी सिंगारा जाव कुसला सीयं जाव दूरूहति २, मेहस्स कुमारस्स पुरतो पुरत्थिमेणं चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडं तालविंटे गहाय चिट्ठति; तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स एगा वरतरुणी जाव सुरूवा सीयं दूरूहति २, मेहस्स कुमारस्स पुव्वदक्खिणेणं सेयं रययामय विमलसलिलपुन्नं मत्तगयमहामुहाकितिसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठति । तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पिया कोडुषियपुरिसे सद्दावेति २त्ता, एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!, सरिसयाणं, सरिसत्तयाणं, सरिव्बयाणं, एगाभरणगहितनिजोयाणं, कोडंबियवरतरुणाणं सहस्सं, सदावेह जाव सहावंति; तए णं कोडंबियवरतरुणपुरिसा सेणियस्स रन्नो कोडुंबियपुरिसेहिं सदाविया समाणा, हट्ठा, बहाया जाव एगाभरणगहितणिज्जोया; जेणामेव सेणिए राया तेणामेव उवागच्छंति २, सेणियं रायं एवं वदासीसंदिसह णं देवाणुप्पिया!, जन्नं अम्हेहिं करणिजं; तते णं सेणिए तं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं एवं वदासीगच्छह णं देवाणुप्पिया, मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणिं सीयं परिवहेहः तते णं तं कोडुंबियवरतरुणसहस्सं सेणिएणं रन्ना एवं वुत्तं संतं हटुं तुटुं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं परिवहति, तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं दुरूढस्स समाणस्स इमे अट्ठमंगलया तप्पढमयाए पुरतो अहाणुपुवीए संपट्टिया, तं०-सोत्थिय, सिरिवच्छ, णंदियावत्त, वद्धमाणग, भद्दासण, कलस, मच्छ, दप्पण जाव बहवे अत्यत्थिया जाव ताहिं इटाहिं जाव अणवरयं अभिणंदंता य, 5 | 5% Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथा) CACA ॥५९॥ CHECRECIRCCCCCCCARRECSC अभिथुणता य; एवं वदासी-जय २ णंदा!, जय २णंदा, जय २ भद्दा !; भई ते अजियाई जिणाहि, इंदियाई जियं च, पालेहि समणधम्म, जियविग्धोऽविय वसाहि, तं देव, सिद्धिमज्झे, निहणाहि रागदोसमल्ले, तवेणं धितिधणियबद्धकच्छ, महाहि य अट्टकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तो, पावय, वितिमिरमणुसरं केवलं नाणं, गच्छ य मोक्खं परमपयं सासयं च अयलं, हंता परीसहचमुंणं अभीओ परीसहोवसग्गाणं, धम्मे ते अविग्धं भवउ ति कडु; पुणो २, मंगलजय २, सई पउंजंति; तते णं से मेहे कुमारे रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झणं निग्गच्छति २, जेणेव गुलसिलए चेतिए, तेणामेव उवागच्छति २, पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पच्चोरुभति ॥ सूत्रम्-२८॥ 'महत्थंति-महाप्रयोजन, महा-महामूल्यं, महाह-महापूज्यं महतां वा योग्य; राज्याभिषेक-राज्याभिषेकसामग्री उपस्थापयत-सम्पादयत । सौवर्णादीनां कलशानामष्टौ शतानि चतुःषष्ट्यधिकानि, 'भोमेजाणं'ति-मौमानां पार्थिवानामित्यर्थः । सर्वोदकैः-सर्वतीर्थसंभवैः, एवं मृत्तिकाभिरिति । 'जय जयेत्यादि, जय जय त्वं-जयं लभस्व, नन्दति नन्दयतीति वा नन्दः-समृद्धः समृद्धिप्रापको वा तदामन्त्रणं हे नन्द , एवं भद्र-कल्याणकारिन् ।, हे जगन्नन्द !, भद्रं ते भवत्विति शेषः, इह गमे यावत्करणादिदं दृश्यम्-"इन्दो इव देवाणं, चमरो इव असुराणं, धरणो इव नागाणं, चन्दो इव ताराण"ति । 'गामागर'-इह दण्डके यावत्करणादिदं दृश्यम्-"नगर-खेड-कबड-दोणमुह-मडंव-पट्टण-संबाह-सन्निवेसाणं आहेवचं, पोरेवच्चं, सामित्तं, भत्तितं, महत्तरगत्तं, आणाईसर-सेणावच्चं; कारेमाणे, पालेमाणे; महयाहयनट्टमीयवाइयतंतीतलतालतुडिय १-श्रीउत्क्षिप्ताध्य. | मेषकुमारं | प्रत्याशीर्वाद वचनानि। CAFEOCAIIMGROCE Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणमुईंगपडुप्पवाइयरवेणं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहराहि"त्ति । तत्र करादिगम्यो ग्रामः, आकरो - लवणाद्युत्पत्तिभूमिः, अविद्यमानकरं नगरं, धूली प्राकारं-खेटं, कुनगरं - कर्बटं, यत्र जलस्थलमार्गाभ्यां भाण्डान्यागच्छन्ति तद् द्रोणमुखं, यत्र योजनाभ्यन्तरे सर्वतो ग्रामादि नास्ति तन्मडम्बं पत्तनं द्विधा - जलपत्तनं स्थलपत्तनं चः -- तत्र जलपत्तनं यत्र जलेन भाण्डान्यागच्छन्ति, यंत्र तु स्थलेन तत् स्थलपत्तनं; यत्र पर्वतादिदुर्गे लोका धान्यानि संवहन्ति स संवाहः, सार्थादिस्थानं सन्निवेशः, आधिपत्यं अधिपतिकर्म रक्षेत्यर्थः, 'पोरेवच्च'- पुरोवर्त्तित्वमग्रे सरत्वमित्यर्थः, स्वामित्वं नायकत्वं भर्तुत्वं पोष कत्वं, महत्तरकत्वं-- उत्तमत्वं; आज्ञेश्वरस्य- आज्ञाप्रधानस्य सतः तथा सेनापतेर्भाव:- आज्ञेश्वरसेनापत्यं कारयन्, अन्यैनियुक्तकैः पालयन् स्वयमेव महता प्रधानेन; 'अहय'त्ति - आख्यानक प्रतिबद्धं नित्यानुबन्धं वा यन्नाटयं च--नृत्यं, गीतं च-गानं तथा-वादितानि यानि तन्त्री च-वीणा, तलौ च हस्तौ तालश्च - कंसिका, तुडितानि च वादित्राणि तथा घनसमानध्वनियों मृदङ्गः पटुना पुरुषेण प्रवादितः स चेति द्वन्द्वः, ततस्तेषां यो वस्तेनेति, इति कटु--इति कृत्वा एवमभिधाय जय २ शब्दं प्रयुङ्क्ते श्रेणिकराज इति प्रकृतं, ततोऽसौ राजा जातः, 'महया' - इह यावत्करणात् एवं वर्णको वाच्यः-"महाहिमवन्तमहंत मलय मंदरम हिंदसारे, अच्चंत विसुद्ध दीह राय कुलवंसप्पसूए, निरंतरं रायलक्खणविराइयंगमंगे, बहुजणबहुमाणपूए, सवगुणसमिद्धे, खत्तिए, मुदिए, मुद्धाभिसित्ते"-- पित्रादिभिर्मूर्द्धन्यभिषिक्तत्वात्, "माउपिउसुजाए दयपत्ते " -- दयावानित्यर्थः, सीमंकरे मर्यादाकारित्वात्, सीमंधरे कृतमर्यादापालकत्वात् ; एवं खेमंकरे, खेमंधरे;-क्षेमं - अनुपद्रवता १ गः सधनमृदङ्गः प° अ माछ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ ६० ॥ " मणुसिदे जणवयपिया"-- हितत्वात्, 'जणवय पुरोहिए' - शान्तिकारित्वात् से उकरे - मार्गदर्शक:, केउकरे अद्भुत कार्यकारित्वात्, केतु:- चिह्न 'नरपवरे' - नराः प्रवराः यस्येति कृत्वा, 'पुरिसवरे'-- पुरुषाणां मध्ये वरत्वात्, 'पुरिससीहे' - शूरत्वात्, 'पुरिस आसी विसे' - शापसमर्थत्वात्, 'पुरिमपुंडरीए'- सेव्यत्वात्, 'पुरिसवरगंधहत्थी'--प्रतिराजगजभञ्जकत्वात्, 'अड्डे'-- आढ्यः, 'दित्ते'--दर्पवान्, 'वित्ते' - प्रतीतः; 'विच्छिन्नविउलभवणसयणा सण जाणवाहणाइनं' - विस्तीर्णविपुलानि - अति विस्तीर्णानि भवनशयनासनानि यस्य स तथा यानवाहनान्याकीर्णानि गुणवन्ति यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, 'बहुधणबहुजायरूवरयए' - बहु धनं-गणिमादिकं बहुनी च जातरूपरजते यस्य स तथा, 'आयोगपयोगसंपत्ते' - आयोगस्यअर्थलाभस्य प्रयोगा- उपायाः संप्रयुक्ता-व्यापारिता येन स तथा 'विच्छड्डियपउरभत्तपाणे'- विच्छर्दिते- त्यक्ते बहुजनभोजनदानेनावशिष्टच्छिष्टसंभवात् संजातविच्छेद वा नानाविधभक्ति के भक्तपाने यस्य स तथा, 'बहुदासीदासगो महिसगवेलगप्पभूए'- बहुदासीदासश्वासौ गोमहिषीग वेलगप्रभूतश्चेति समासः, गवेलका - उरभ्राः, 'पडिपुण्णजंतकोसकोट्ठागाराउहागारे' - यन्त्राणि - पाषाणक्षेपयन्त्रादीनि कोशो-भाण्डागारं कोष्ठागारं धान्यगृह, आयुधागारं प्रहरणशाला; 'बलवं दुब्बलपच्चामित्ते'- प्रत्यमित्राः - प्रातिवेशिकाः, 'ओहयकंटयं निहयकंटयं गलियकंटयं उद्भियकंटयं अकंटयं' - कण्टकाः -प्रतिस्पर्द्धिनो गोत्रजाः उपहता विनाशनेन निहताः समृद्ध्यपहारेण गलिताः मानभङ्गेन उद्धृता देशनिर्वासनेन अत एवाकण्टकमिति, एवं 'उवहसन्तु' मित्यादि, नवरं शत्रवो गोत्रजा इति, 'ववगयदुभिक्खमारिभयविप्यमुकं खेमं सिवं सुभिक्खं पसंतडिंबडमरं' - अन्वयव्यतिरेकाभिधानस्य शिष्टसंमतत्वात् न पुनरुक्ततादोषोऽत्र 'रअं पसाहेमाणे विहरह'ति । 'जाया' ভঃতভ १-श्री उत् प्ताध्य० मेघकुमार स्य दीक्षावर्णकन्याख्यानम् । ॥ ६० ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति-हे जात ! पुत्र 'किं दलयामोति-भवतोऽनभिमतं किं विघटयामो विनाशयाम इत्यर्थः। अथवा-भवतोऽभिमतेभ्यः किं दमः, तथा भवते एव किं प्रयच्छामः १, 'किं वा ते हियइच्छियसामत्थे'त्ति-को वा तव हृदयवाञ्छितो मन्त्र इति, 'कुत्तियावणाउ'त्ति देवताधिष्ठितत्वेन स्वर्गमर्यपाताललक्षणभूत्रितयसंभविवस्तुसंपादक आपणो-हट्टा-कुत्रिकापणः तस्मात् आनीतं काश्यपकं च-नापित शब्दितुं-आकारितुमिच्छामीति वर्तते, श्रीगृहात-भाण्डागारात् , 'निकेत्ति सर्वथा विगतमलान् , 'पोत्तियाइ'त्ति-वस्त्रेण, 'महरिहे'त्यादि 'महरिहेणं'त्ति-महतो योग्येन महापूजेन वा हंसस्येव लक्षणस्वरूपं शुक्लता हंसा वा लक्षणं-चिह्नं यस्य स तथा तेन शाटको-वस्त्रमानं स च पृथुला पटोऽभिधीयत इति पटशाटकस्तेन, 'सिंदुवारे'त्ति-वृक्षविशेषो निर्गुण्डीति केचित् तर्कुसुमानि सिन्दुवाराणि तानि च शुक्लानि । 'एस गं'ति-एतत् दर्शनमिति योगः; णमित्यलंकारे, अभ्युदयेषु-राज्यलाभादिषु उत्सवेषु प्रियसमागमादिमहेषु प्रसवेषु-पुत्रजन्मसु तिथिषु-मदनत्रयो दशीप्रभृतिषु क्षणेषु-इन्द्रमहादिषु यज्ञेषु-नागादिपूजासु पर्वणीषु च कार्तिक्यादिषु अपश्चिम-अकारस्यामङ्गलपरिहारार्थत्वात् पश्चिमं दर्शनं भविष्यति, एतत्केशदर्शनमपनीत केशावस्थस्य मेघकुमारस्य यद्दर्शनं सर्वदर्शनपाश्चात्यं तद्भविष्यतीति भावः; अथवा न पश्चिममपश्चिमं-पौनःपुन्येन मेघकुमारस्य दर्शनमेतदर्शनेन भविष्यतीत्यर्थः। 'उत्तरावक्कमणं'ति-उत्तरस्यां दिश्यपक्रमण-अवतरणं यस्मात्तदुत्तरापक्रमण-उत्तराभिमुखं राज्याभिषेककाले पूर्वाभिमुखं तदासीदिति, 'दोचंपि'-द्विरपि, 'तचंपि'-त्रिरपि, 'श्वेतपीतैः'-रजतसौवणः, 'पायपलंब'ति-पादौ यावद् यः प्रलम्बतेऽलङ्कारविशेषः स पादप्रलम्बा, 'तुडियाईति-बाहुरक्षकाः, केयूराङ्गदयोर्यद्यपि नामकोशे बाहाभरणतया न विशेषः तथापीहाकारभेदेन मेदो दृश्यः, R-ANING Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी-1 १०० श्रीज्ञाताधर्मकथाले १-उत्थिप्वाध्य दीक्षावर्णकन्या ख्यानम् । PROCHNICARRI|| ॥ ६१॥ SARKARKALGAACHAR 'दशमुद्रिकानन्तक'-हस्ताङ्गलिसंबन्धि मुद्रिकादशकं, 'सुमणदाम'ति-पुष्पमालां पिनद्ध्यता-परिधत्तः दर्दर:-चीवरावनद्धकुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पक्का वा ये, 'मलय'त्ति-मलयोद्भवं श्रीखण्डं तत्संबन्धिनः सुगन्धयो-गन्धास्तान् पिनद्ध्यतः, हारादिस्वरूपं प्राग्वत् , ग्रन्थिम-यद्थ्यते सूत्रादिना वेष्टिमं-यद्थितं सद्वेष्ट्यते यथा पुष्पलम्बूसक: गेन्दुक इत्यर्थः, परिमं-येन वंशशलाकामयपञ्जरकादि कूर्चादि वा पूर्यते सांयोगिक-यत्परस्परतो नालसंघातनेन संघात्यते अलङ्कतंकुतालङ्कार, विभूषित-जातविभूषं । 'सद्दावेह जाव सदाविति' 'एगा वरतरुणी'त्यादि शृङ्गारस्यागारमिव शृङ्गारागारं अथवाशृङ्गारप्रधान आकारो यस्याश्चारुश्च वेषो यस्याः सा तथा, सङ्गतेषु गतादिषु निपुणा युक्तेषूपचारेषु कुशला च या सा तथा, तत्र विलासो-नेत्रविकारो, यदाह-" हावो मुखविकारः स्याद्भावश्चित्तसमुद्भवः। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो भ्रूसमुद्भवः ॥१॥" संलापो-मिथो भाषा उल्लापः-काकुवर्णनं, आह च-"अनुलापो मुहर्भाषा, प्रलापोऽनर्थक वचः । काका वर्णनमुल्लापः, संलापो भाषणं मिथः ॥ १॥" इति । 'आमेलग'त्ति-आपीड:-शेखरः स च स्तनः-प्रस्तावाचुचुक. स्तत्प्रधानौ आमेलको वा-परस्परमीपत्सम्बद्धौ यमलौ-समश्रेणिस्थिती युगलौ-युगलरूपी द्ववित्यर्थः वर्तितौ-वृत्ती अभ्युन्नतौउच्चौ पीनौ-स्थूलो रतिदौ-सुखप्रदौ संस्थितौ-विशिष्टसंस्थानवन्तौ पयोधरौ-स्तनौ यस्याः सा तथा, हिमं च रजतं च कुन्द. श्वेन्दुश्चेति द्वन्द्वा, एषामिव प्रकाशो यस्य तत्तथा, सकोरेण्टानि-कोरेण्टकपुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदामानि-पुष्पमाला यत्र तत्तथा, धवलमातपत्रं-छत्रं, नानामणिकनकरत्नानां महाईस्य महाघस्य तपनीयस्य च सत्कावुज्वलो विचित्रौ दण्डौ ययोस्ते तथा, अत्र कनकतपनीययोः को विशेषः, उच्यते कनकं पीतं तपनीयं रक्तं इति, 'चिल्लियाओत्ति-दीप्यमाने लीने इत्येके। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CH सूक्ष्मवरदीर्घवाले शङ्खकुन्ददकरजसां अमृतस्य मथितस्य सतो यः फेनपुंजस्तस्य च सन्निकाशे-सदृशे ये ते तथा, चामरे चन्द्रप्रभवज्रवैडूर्यविमलदण्डे, इह चन्द्रप्रभा-चन्द्रकान्तमणिः, तालवृन्त-व्यजनविशेषः मत्तगजमहामुखस्य आकृत्याआकारेण समानः-सदृशो यः स तथा तं भृङ्गार, 'एगे' त्यादि, एके:-सदृश: आभरणलक्षणो गृहीतो निर्योग:-परिकरो यैस्ते तथा तेषां कौटुम्बिकवरतरुणानां सहस्रमिति । 'तए णं ते कोडुबियवरतरुणपुरिसा सहाविय'त्ति-शब्दिताः, 'समाण'त्ति-सन्ता, 'अट्ठमंगलय'त्ति-अष्टावष्टाविति वीप्सायां द्विर्वचनं मङ्गलकानि-माङ्गल्यवस्तूनि, अन्ये वाह:-अष्टसंख्यानि अष्टमङ्गलसंज्ञानि वस्तूनीति 'तप्पढमयाए'त्ति तेषां विवक्षितानां मध्ये प्रथमता तत्प्रथमता तया; 'वद्धमाणयंतिशरावं, पुरूषारूढः पुरुष इत्यन्ये, स्वस्तिकपश्चकमित्यन्ये, प्रासादविशेष इत्यन्ये । 'दप्पण'त्ति-आदर्शः, इह यावत्करणादिदं दृश्य-'तयाणतरं च णं पुण्णकलसभिंगारा दिवा य छत्तपडागा सचामरा देसणरइयआलोइयदरिसणिजा वाउद्धयविजयंती य ऊसिया गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुबिए संपडिया, तयाणंतरं च वेरुलियभिसंतविमलदंडं पलंबकोरेंटमल्लदामोवसोहियं चंदमंडलनिभं विमलं आयवत्तं परं सीहासणं, च मणिरयणपायपीढं सपाउयाजोयसमाउत्त, बहुकिंकरकम्मकरपुरिसपायत्तपरिखित्तं, पुरओ अहाणुपुखिए संपट्टियं; तयाणंतरं च णं वहवे लडिग्गाहा, कुंतग्गाहा, चावग्गाहा, धयग्गाहा, चामरग्गाहा, | कुमरग्गाहा, पोत्थयग्गाहा, फलयग्गाहा, पीढयग्गाहा, वीणग्गाहा, कुबग्गाहा, हडप्फग्गाहा, पुरओ अहाणुपुबीए संपडिया तयाणंतरं च णं बहवे दंडिणो, मुंडिगो, सिहंडिणो, पिंछिणो, हासकहा, डमरकरा, चाडुकरा कीडता य, वायंता य, गायंता २ चणके. अ। ३ °गमंडियंपाय अ । E CAFERICAF-CAR Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवानी १० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १-उत्थिप्ताभ्य० दीक्षावर्णकव्याख्यानम्। ॥६२॥ य, नचंता य, हासता य, सोहिंता य, साविता य, रखता य, आलोयं च करेमाणा जयजयसदं च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुविए संपद्विया; तयाणंतरं च णं जच्चाण, तरमल्लिहायणाणं, थासगअहिलाणाणं, चामरंगंडपरिमंडियकडीणं, अट्ठसयं वरतुरगाणं, पुरओ अहाणुपुदिए संपट्ठियं; तयाणतरं च णं ईसिदन्ताणं, ईसिमत्ताण, ईसिउच्छंगविसालधवलदंताण, कंचणकोसिपविट्ठदंताणं, अट्ठसयं गयाणं, पुरओ अहाणुपुत्वीए संपट्ठियं तयाणंतरं च णं सछत्ताण, सज्झयाणं, सघंटाणं, सपडागाण, सतोरणवराणं, सनंदिघोसाणं, सखिखिणीजालपरिखिचाणं, हेममयचिचतिणिसकणकनिज्जुत्तदारुयाण, कालायससुकयनेमिजंतकम्माण, सुसिलिट्ठवित्तमंडलधुराणं, आइण्णवरतुरगसंपउत्ताण, कुसलनरछेयसारहिसुसंपरिग्गहियाण, बत्तीसतोणपरिमंडियाण, संकंकडवडंसकाणं, सचावसरपहरणावरणभरियजुद्धसज्जाणं, अट्ठसयं रहाण, पुरओ अहाणुपुबीए संपट्ठियं तयाअंतरं च णं असिसत्तिकोंततोमरसूललउडभिंडिमालवणुपाणिसजं, पायताणीयं, पुरओ अहाणुपुबीए संपट्ठियं; तए णं से मेहे कुमारे हारोत्थयसुकयरइयवच्छे, कुंडलुजोइयाणणे, मउडदित्तसिरए, अन्महियरायतेयलच्छीए, दिप्पमाणे सकोस्टमल्लदामेणं छत्तेण धरिजमाणेणं, सेयवरचामराहिं उद्धव्वमाणीहि, हयगयपवरजोहकलियाए, चाउरंगिणीए सेणाए समणुगम्ममाणमग्गे, जेणेव गुणसिलए चेहए तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तए णं तस्स मेहस्स कुमारस्स पुरओ महं आसा, आसपरा, उभओ पासे नागा, नागधरा, करिवरा, पिडओ रहा, रहसंगेल्ली; तए ण से मेहे कुमारे अब्भागयभिंगारे, पग्गहियतालियंटे, ऊसवियसेयच्छत्ते, पवीजियवालवियणीए, सविड्डीए, सबजुईए, सबवलेणं, सबसमुदएणं, सबादरेणं, सबविभूए, सबविभूसाए, सबसंभमेण, सवगंध १ तेत्ती• अ। २ भभुग्ग० अ । %ाज||CHARSHA Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुप्फमलालंकारेणं, सङ्घतुडियसद्दस न्निनाएणं, महया इड्डीए, महया जुईए, महया बलेणं, महया समुदपणं, महया वरतुडियजमगमगप्पवाहणं, संखपणवपड हमे रिझल्लरिखर मुहिहुडुक मुरख मुइंग दुंदुभिनिग्घोसना इयरवेणं, रायगिहस्स नगरस्स मज्झ मज्झेणं णिग्गच्छ तर णं तस्स मेहस्स कुमारस्स रायगिहस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं निग्गच्छमाणस्म बहवे अत्थस्थिया, कामत्थिया, भोगत्थिया, लाभत्थिया, कीब्बिसिया, करोडिया, कारवाहिया, संखिया, चकिया, लंगलिया, मुहमंगलिया, पूसमाणवा, माणगा; ताहिं इट्ठाहिं, कंताहिं, पियाहिं, मणुनाहिं, मणामाहिं, मणाभिरामाहिं, हिययगमणिजाहिं वग्गूहिं'ति, अयमस्यार्थः तदनन्तरं च छत्रस्योपरि पताका छत्रपताका सचामरा - चामरोपशोभिता तथा दर्शनरतिदा-दृष्टिसुखदा आलोके -दृष्टिविषये क्षेत्रे स्थिताऽत्युच्चतया दृश्यते या सा आलोकदर्शनीया, ततः कर्मधारयः, अथवा दर्शने - दृष्टिपथे मेघकुमारस्य रचिताधृता या आलोकदर्शनीया च या सा तथा वातोद्भूता विजयसूचिका च या वैजयन्ती - पताकाविशेषः सा तथा सा च ऊसियाउच्छ्रितऊर्द्धाकृता पुरतः - अग्रतः यथानुपूर्वी - क्रमेण सम्प्रस्थिता - प्रचलिता, 'भिसंत'त्ति - दीप्यमानः, मणिरत्नानां सम्बन्धि पादपीठं यस्य सिंहासनस्य तत्तथा, स्वेन-स्त्रकीयेन मेघकुमारसम्बन्धिना पादुकायुगेन समायुक्तं यत्तत्तथा, बहुभिः किङ्करैःकिंकुर्वाणैः कर्मकरपुरुषैः पादातेन च पदातिसमूहेन शस्त्रपाणिना परिक्षिप्तं यत्तत्तथा 'कूय'त्ति - कुतुपः, 'हडप्फो' त्ति - आभ रणकरण्डकं, 'मुंडिणो' - मुण्डिताः, 'छिडिणो' - शिखावन्तः, 'डमरकरा:'- परस्परेण कलहविधायकाः, 'चाटुकरा:'प्रियंवदाः, 'सोहंता य'त्ति-शोभां कुर्वन्तः, 'सावंता य'त्ति - श्रावयन्तः आशीर्वचनानि रक्षन्तः न्यायं आलोकं च कुर्वाणाः * * एतदन्तर्गतः पाठः अप्रतौ नास्ति । ১ : Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी १० वृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥६३॥ HALAHARMA मेषकुमारं तत्समृद्धिं च पश्यन्तः, जात्यानां-काम्बोजादिदेशोद्भवानां तरोमल्लिनो-पलाधायिनो वेगाधायिनो वा हायना:-[१-उत्विसंवत्सरा येषां ते तथा तेषां, अन्ये तु 'भायल'त्ति मन्यन्ते, तत्र भायला-जात्यविशेषा एवेति गमनिकैवैषा, थासका- प्ताध्य दर्पणाकाराः अहिलाणानि च-कविकानि येषां सन्ति ते तथा, मतुब्लोपात् , 'चामरगंडा'-चामरदण्डास्तैः परिमण्डिता कटी दीक्षायेषां ते तथा तेषां, ईषादान्तानां-मनाग् ग्राहितशिक्षाणामीषन्मत्तानां,-नातिमत्तानां, ते हि जनमुपद्रवयन्तीति, ईषत्-मना. वर्णकन्यागुत्सङ्गः इवोत्सङ्गः-पृष्ठिदेशस्तत्र विशाला-विस्तीर्णा धवलदन्ताश्च येषां ते तथा तेषां, कोशी-प्रतिमा, नन्दियोपः-तूर्यनादः, ख्यानम्। अथवा सुनंदी-सत्समृद्धिको घोषो येषां ते तथा तेषां, सकिङ्किणि-सक्षुद्रघण्टिकं यजालं-मुक्ताफलादिमयं तेन परिक्षिप्ता ये ते तथा तेषां, तथा हैमवतानि-हिमवत्पर्वतोद्भवानि चित्राणि तिनिशस्य-वृक्षविशेषस्य सम्बन्धीनि कनकनियुक्तानि-हेमखचितानि दारूणि-काष्ठानि येषां ते तथा तेषां, कालायसेन-लोहविशेषेण सुष्टु कृतं नेमेः-गण्डमालायाः यन्त्राणां च-रथो. पकरणविशेषाणां कर्म येषां ते तथा तेषां, सुश्लिष्टे विचत्ति-वत्रदण्डवत् मण्डले वृत्ते धुरौ येषां ते तथा तेषां, आकीर्णा-वेगा: दिगुणयुक्ताः ये वरतुरगास्ते संप्रयुक्ता-योजिता येषु ते तथा तेषां, कुशलनराणां मध्ये ये छे का:-दक्षाः सारथयस्तैः सुसंप्रगृहीता येते तथा तेषां, तोणत्ति-शरभत्राः सह कण्टकैः-कवचैवैशेश्च वर्तन्ते ये ते तथा तेषा, सचापा:-धनुर्युक्ता ये शराः प्रहरणानि च-खगादीनि आवरणानि च-शीर्षकादीनि तेर्ये भृता युद्धसज्जाश्च-युद्धप्रगुणाश्च ये ते तथा तेषां, 'लउड'त्तिलकुटाः, अस्यादिकानि पाणौ हस्ते यस्य तत्तथा तच्च तत्सजं च-प्रगुणं युद्धस्येति गम्यते, पादातानीक-पदातिकटकं हारावस्तृतं सुकतरतिक-विहितसुखं वक्षो यस्य स तथा, मुकुटदीप्तशिरस्का, 'पहारेत्थ गमणयाए'-ति-गमनाय प्रधारितवान् ॥६३॥ ICCIRCISECSI Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 संप्रधारितवान्, 'मह' चि- महान्तः अश्वाः, अश्ववराः ये अश्वान् धारयन्ति, नागा- हस्तिनः, नागधरा ये हस्तिनो धारयन्ति, कचिद्वरा इति पाठः तत्राश्वा नागाश्व किंविधाः १ अश्ववरा अश्वप्रधानाः, एवं नागवराः, तथा रथा रथसंगिणेल्ली - रथमाला क्वचित् रहसंगल्लीति पाठः, तत्ररथसङ्गेली-रथसमूहः । 'तए णं से मेहे कुमारे अन्भागसभिंगारे' इत्यादिवर्णकोपसंहारवचनमिति न पुनरुक्तं, 'सविड्डीए'त्यादि, दोहदात्रसरे व्याख्यातं, शङ्खः प्रतीतः, पणवो - भाण्डानां पटहः पटहस्तु प्रतीत एव, मेरी - ढक्काकारा, झल्लरी- वलयाकारा, खरमुद्दी - काहला, हुडका - प्रतीता; महाप्रमाणो मद्दलो, मुरजः, स एव लघुर्मृदङ्गो; दुन्दुभिः - भेर्याकारा सङ्कटमुखी एतेषां निर्घोषो महाध्वानो नादितं च- घण्टायामिव वादनोत्तरकालभावी स तथा तद्वनि स्तलक्षणो यो वस्तेन, अर्थार्थिनो- द्रव्यार्थिनः, कामार्थिनः - शब्दरूपार्थिनः, भोगार्थिनः - गन्धरसस्पर्शार्थिनः लाभार्थिनःसामान्येन लाभेप्सवः, किल्बिषिकाः - पातकफलवंतो निःस्वान्धपवादयः, कारोटिका :- कापालिकाः, करो - राजदेयं द्रव्यं तद्वन्ति ये ते कारवाहिकाः, करेण वा बाधिताः पीडिता ये ते करवाधिताः शंखवादनशिल्पमेषामिति शाङ्खिकाः शङ्खो वा विद्यते येषां मङ्गल्यचन्दनाधारभूतः ते शाङ्खिकाः, चक्रं प्रहरणमेषामिति चाक्रिका:-योद्धारः, चक्रं - वाऽस्ति येषां ते चाक्रिका:कुम्भकारतैलिकादयः, चक्रं वोपदर्श्य याचन्ते ये ते चाक्रिका:- चक्रधरा इत्यर्थः, लाङ्गलिका:- हालिकाः, लाङ्गलं वा प्रहरणं येषां गले वा लम्बमानं सुवर्णादिमयं तद्येषां ते लाङ्गालिका:- कार्यहिकविशेषाः, मुखमङ्गलानि चाटुवचनानि ये कुर्वन्ति ते मुखमङ्गलिकाः, पुष्पमाणवा - नग्नाचार्या, वर्द्धमानका :- स्कन्धारोपित पुरुषाः, 'इडाही' त्यादि पूर्ववत्, 'जियविग्धोविय १ अब्भुग्ग० अ । ভঃ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ०० श्रीज्ञाताधर्मकथाले । वसाहि'-त्ति-इहैव सम्बन्धः, अपि च जितविघ्नः त्वं हे देव ! अथवा-देवानां सिद्धेश्च मध्ये वस-आस्व, 'निहणाहिति विनाशय रागद्वेषौ मल्लौ, केन करणभूतेनेत्याह-तपसा-अनशनादिना, किंभूतः सन् १-धृत्या-चित्तस्वास्थ्येन । 'धणिय'तिअत्यर्थं पाठान्तरेण बलिका-दृढा बद्धा कक्षा येन स तथा, मल्लं हि प्रतिमल्लो मुट्यादिना करणेन वस्त्रादिरढवद्धकक्षः समिहन्तीति एवमुक्तमिति, तथा मर्दय अष्टौ कर्मशत्रून् ध्यानेनोत्तमेन-शुक्लेनाप्रमत्तः सन्, तथा 'पावय'ति-प्राप्नुहि वितिमिरंअपगताज्ञानतिमिरपटलं नास्मादुस्तरमस्तीति अनुत्तरं-केवलज्ञान, गच्छ च मोक्षं परं पदं शाश्वतमचलं चेत्येवं चकारस्य सम्बन्धः, किं कृत्वा ?-हत्वा परीषहचमूं-परीषहसैन्यं, णमित्यलंकारे, अथवा-किंभूतस्त्वं ?-हन्ता-विनाशकः परीषहचमूनाम् ॥२८॥ तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो मेहं कुमारं पुरओ कट्ट, जेणामेव समणे भगवं महावीरे, तेणामेव उवागच्छंति २त्ता समणं भगवं महावीरं तिखुत्तोआयाहिणं पयाहिणं करेंति २त्ता, वंदंति नमसंति २त्ता; एवं वदासी-एस णं देवाणुप्पिया!, मेहे कुमारे अम्हं एगे पुत्ते इढे, कंते जाव जीवियाउसासए, हिययणदिजणए, उंबरपुप्पंपिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण दरिसणयाए?; से जहा नामए उप्पलेति वा, पउमेति वा, कुमुदेति वा, पंके जाए जले संवडिए, नोवलिप्पई पंकरएणं, णोवलिप्पइ जलरएणं; एवामेव मेहे कुमारे कामेसु जाए भोगेसु संवुड्डे नोवलिप्पति, कामरएणं नोवलिप्पति भोगरएणं; एस णं देवाणुप्पिया, संसारभउव्विगे, भीए जम्मणजरमरणाणं, इच्छइ देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ २ हिययाणंदज. अ।३ पुष्प॑विव. भ। ४ 'प्पए । १-उत्थिप्ताध्य. श्रीवीरसमीपे मेघकुमारागमनम् । ॥६४P II- HEIII/ASSIS ॥६४॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SES CACE अणगारियं पव्वतित्तए; अम्हे णं देवाणुप्पियाण सिस्सभिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया!, सिस्सभिक्ख तते ण से समणे भगवं महावीरे मेहस्स कुमारस्स अम्मापिऊएहिं एवं वुत्ते समाणे एयमटुं सम्म पडिसुणेति, तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ उत्तरपुरच्छिम दिसिभागं अवक्कमति २त्ता, सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयति; तते णं से मेहकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छति २, हारवारिधारसिंदुवारछिन्नमुत्तावलिपगासातिं अंसूणि विणिम्मुयमाणी २,रोयमाणी २, कंदमाणी २,विलवमाणी २,एवं वदासी-जतियव्वं जाया! घडियव्वं जाया ! परक्कमियव्वं जाया !, अस्सि च णं अढे नो पमादेयव्वं, अम्हंपिणं एमेव मग्गे भवउ त्ति कद्दु, मेहस्स कुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति २, जामेव दिसि पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया ॥ सूत्रम्-२९ ॥ 'एगे पुत्ते' इति-धारिण्यपेक्षया, श्रेणिकस्य बहुपुत्रत्वात् ; जीवितोच्चासको हृदयनंदिजनका, उत्पलमिति वा-नीलोत्पलं पथमिति वा-आदित्यबोध्यं, कुमुदमिति वा--चन्द्रबोध्यम् । 'जइयव्व'मित्यादि, प्राप्तेषु संयमयोगेषु यत्नः कार्यों हे जात !,-पुत्र!; घटितव्यं-अप्राप्तप्राप्तये घटना कार्या पराक्रमितव्यं च-पराक्रमः कार्यः, पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्तव्य इति भावः, किमुक्तं भवति १,-एतस्मिन्नर्थे प्रव्रज्यापालनलक्षणे न प्रमादयितव्यमिति । | तते णं से मेहे कुमारे सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति २, जेणामेव समणे ३, तेणामेव उवागच्छति बाजारनामा S-500 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी पृ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथा ॥ ६५ ॥ २, समणं भगवं महावीरं तिखुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति २, वंदति नम॑सति २, एवं वदासी-आलित्ते णं भंते !, लोए पलित्ते णं भंते! लोए आलित्तपलित्ते णं भंते !, लोए जराए मरणेण य, से जहाणामए केई गाहावती आगारंसि झियायमाणंसि, जे तत्थ भंडे भवति अप्पभारे मोल्लगुरुए तं गहाय आयाए एतं अवक्कमति एस मे णित्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए जिस्सेसाए आणुगामियता भविस्सति एवामेव ममवि एगे आयाभंडे इट्ठे, कंते, पिए, मणुन्ने, मणामे, एस मे नित्थारिए समाणे संसारवोच्छे करे भविस्सति तं इच्छामि णं देवाणुप्पियाहिं सयमेव पव्वावियं, सयमेव मुंडावियं, सेहावियं, सिक्खावियं, सयमेव आयारगोयरविणयवेणइय चरण करणज । यामायावत्तियं, धम्ममाइक्खियं; तते णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पव्वावेति, सयमेव आधारजाव धम्ममातिक्खइः- एवं देवाणुपिया !, गंतव्वं, चिट्टितव्वं, णिसीयन्वं, तुयहियव्वं, भुंजियब्वं, भासियव्वं एवं उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं, भूतेहिं, जीवेहि, सत्तेहि, संजमेणं संजमितव्वं, अरिंस च णं अट्ठे णो पमादेयव्वं तते णं से मेहे कुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए इमं एयारूवं धम्मियं उवएसं णिसम्म सम्मं पडिवज्जह, तमाणाए तह गच्छह, तह चिट्ठह जाव उट्ठाए उट्ठाय पाणेहिं भूतेहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमइ ॥ सूत्रम् - ३० ॥ जं दिवसं चणं मेहे कुमारे मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए, तस्स णं दिवसस्स पुव्वावरण्ह १ "ओ पडिणिसमेति । २° अ ঃ | १ - उत्क्षि प्ताध्य० मेघकुमारस्य दीक्षा ग्रहण विधि वर्णनम् । ।। ६५ ।। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालसमयंसि, समणाणं निग्गंथाणं अहारातिणियाए, सज्जासंधारएसु, विभज्जमाणेसु, मेहकुमारस्स दारमूले सेवासंधारए जाए यावि होत्थाः तते णं समणा णिग्गंथा पुत्र्वरत्तावर त्तकालसमयंसि वायणाए, पुच्छtry, परियहणाए, धम्माणुजोगचिंताए य; उच्चारस्स य पासवणस्स य अइगच्छमाणा य निग्गच्छमाणा य अप्पेगतिया, मेहं कुमारं हत्थेहिं संघद्वंति, एवं पाएहिं सीसे पोहे कार्यसि अप्पेगतिया ओलंडति, अप्पेगइया पोलंडेइ, अप्पेगतिया पायरयरेणुगुंडियं करेंति; एवंमहालियं च णं रयणीं मेहे कुमारे णो संचाएति, खणमवि अच्छि निमीलित्तए; तते णं तस्स मेहस्स कुमारस्स अयमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु अहं सेणियस्स रन्नो पुत्ते, धारिणीए देवीए अत्तए मेहे, जाव समणयाए तं जया णं अहं अगारमज्झे वसामि, तया णं मम समणा णिग्गंथा आढायंति, परिजाणंति, सकारेंति, सम्मार्णेति, अट्ठाई, ऊर्ति, पसिणातिं, कारणारं, वाकरणाई, आतिक्खंति; इट्ठाहिं, कंताहिं, वग्गूहिं, आलवेंति, संलवेंति; जप्पभिति च णं अहं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वइए, तप्पभितिं च णं मम समणा नो आढायंति, जाव नो संलवंति; अदुत्तरं च णं मम समणा णिग्गंथा राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए, पुच्छणाए जाब महालियं च णं रतिं नो संचाएमि, अच्छि णिमिलावेत्तए; तं सेयं खलु मज्झ कलं पाउष्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलते, समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगार मज्झे वत्ति त्ति कट्टु एवं संपेहेति २, अट्टदुहहवसहमाणसगए णिरयपडिरूवियं च णं तं रयणि खवेति २, JAN || Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CA नवाङ्गी कल्लं पाउप्पभायाए सुविमलाए रयणीए जाव तेयसा जलंते जेणेव समणे भगवं० तेणामवे उवागच्छति २, १००४ तिखुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेइ २, वंदइ नमसइ २७ जाव पज्जुवासह ॥ सूत्रम्-३१ ॥ श्रीज्ञाता- आदीप्त-ईषद्दीप्तः प्रदीप्तः-प्रण दीप्त आदीप्तप्रदीप्तोऽत्यन्तप्रदीप्त इति भावः, 'गाहावइ'त्ति-गृहपतिः, 'झियाय- | धर्मकथाले माणंसित्ति-मायमाने माण्डं-पण्यं हिरण्यादि अल्पभारं, पाठान्तरे अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारं मूल्यगुरुक; 'आयाए'त्तिआत्मना, पच्छापुरा यत्ति-पश्चादागामिनि काले पुरा च पूर्वमिदानीमेव लोके-जीवलोके, अथवा-पश्चाल्लोके-आगामिजन्मनि पुरालोके-इहैव जन्मनि:-पाठान्तरे-पच्छाउरस्स'त्ति, पश्चादग्निमयोत्तरकालं; आतुरस्य-वमुक्षादिभिः पीडितस्येति । 'एगे भंडे'त्ति-एकं-अद्वितीयं माण्डमिव भाण्डं, 'सयमेवे'त्यादि, स्वयमेव प्रताजितं वेषदानेन आत्मानं इति गम्यते भावे वा तः प्रत्ययः प्रव्राजनमित्यर्थः, मुण्डितं शिरोलोचेन सेधितं-निष्पादितं करणप्रत्युपेक्षणादिग्राहणतः, शिक्षितं सूत्रार्थग्राहणतः, आचारो-ज्ञानादिविषयमनुष्ठानं कालाध्ययनादि गोचरो-भिक्षाटनं, विनयः- प्रतीतो, वैनयिक-तत्फलं कर्मक्षयादि, चरण--- व्रतादि, करणं-पिण्डविशुध्ध्यादि, यात्रा--संयमयात्रा मात्रा-तदर्थमेवाहारमात्रा, ततो द्वन्द्वः तत एषामाचारादीनां वृत्तिःवर्तन, यस्मिन्नसो आचारगोचरविनयवैनयिकचरणकरणयात्रामात्रावृत्तिकस्तं धर्मामाख्यातं-अभिहित; ततः श्रमणो भगवान् महावीर स्वयमेव प्रव्राजयति यावत् धर्ममाख्याति, कथमित्याह-एवं गन्तव्यं-युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्या , 'एवं चिट्ठियवं'त्ति-शुद्धभूमौ ऊर्द्धस्थानेन स्थातव्यं, एवं निषीदितव्यं-उपवेष्टव्यं संदंशकभूमिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः, एवं त्वग्वर्तितव्यं-शयनीयं,-सामायिकााच्चारणापूर्वकं शरीरप्रमार्जनां विधाय संस्तारकोत्तरपट्टयोहपधानेन वामपावत इत्यादिना ९-उरिक्षप्ताध्य. दीक्षित. मेषकुमाराशुभाध्यवसायवर्णनम्। %A5%% %%%ASS F ॥६६॥ % % Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यायेनेत्यर्थः। भोक्तव्यं-वेदनादिकारणतो अल्गारादिदोषरहितमित्यर्थः, भाषितव्यं-हितमितमधुरादिविशेषणतः, एवमुत्थायोत्थाय-प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुध्य २ प्राणादिषु विषयेषु संयमो-रक्षा तेन संयंतव्यम्-संयतितव्यमिति, तत्र-"प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रिया याः, शेषाः सत्त्वा उदीरिताः ॥१॥" किं बहुना ?,-अस्मिन् प्राणादिसंयमे न प्रमादयितव्यमुद्यम एव कार्य इत्यर्थः। प्रत्यपराह्नकालसमयो-विकालः, 'अहाराइणियाए'त्ति-यथारत्नाधिकतया यथाज्येष्ठमित्यर्थः, शय्या-शयनं, तदर्थ संस्तारकभूमयः, अथवा-शय्यायां-वसतौ संस्ता रकाः; वाचनायै-वाचनार्थ धर्मार्थमनुयोगस्य-व्याख्यानस्य चिन्ता धर्मानुयोगस्य वा-धर्मव्याख्यानस्य चिन्ता धर्मानुयोगचिन्ता तस्यै अतिगच्छन्तः प्रविशन्तो निर्गच्छन्तश्चालयादिति गम्यते, 'ओलंडिंति'ति-उल्लङ्घयंति, 'पोलंडेन्ति'त्तिप्रकर्षेण द्विस्लिोल्लघयंतीत्यर्थः, पादरजोलक्षणेन रेणुना पादरयाद्वा-तद्वेगात् रेणुना गुण्डितो यः स तथा तं कुर्वन्ति । 'एवं महालियं च णं रयणिन्ति-इतिमहतीं च रजनी यावदिति शेषः, मेघकुमारी 'नो संचाएति'त्ति-न शक्नोति क्षणमप्यक्षि निमीलयितुं निद्राकरणायेति, आध्यात्मिकः-आत्मविषयश्चिन्तितः-स्मरणरूपः, प्रार्थितः-अभिलाषात्मकः मनोगत:-मनस्येव वर्तते यो न बहिः स तथा, सङ्कल्पो-विकल्पः, समुत्पन्नः आगारमध्ये-गेहमध्ये वसामि-अधितिष्ठामि; पाठान्तरतो अगारमध्ये आवसामि, 'आदति'-आद्रियन्ते, 'परिजानन्ति'-यदुतायमेवंविध इति, 'सकारयति सत्कारपन्ति च वस्त्रादिभिरम्यर्चयन्तीत्यर्थः, 'सन्मानयन्ति'-उचितप्रतिपत्तिकरणेन, अर्थान्-जीवादीन् , हेतून-तद्गमकानन्वय| व्यतिरेकलक्षणान् , प्रश्नान्-पर्यनुयोगान्, कारणानि-उपपत्तिमात्राणि, व्याकरणानि-परेण प्रश्ने कृते उत्तराणीत्यर्थः, ||-%FECIIII Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी भीज्ञाताधर्मकथाले ॥६७॥ 5A4%AE आख्यान्ति-ईषत संलपन्ति-मुहुर्मुहुः 'अदुत्तरं च णं'ति-अथवा परं 'एवं संपेहेइ'ति-संप्रेक्षते-पर्यालोचयति, 'अहदुहवसहमाणसगए'ति-आर्तेन-ध्यानविशेषेण दुःखार्त-दुःखपीडितं वशार्त-विकल्पवशमुपगतं यन्मानसं, तद्गत:प्राप्तो यः स तथा, निरयप्रतिरूपिकां च-नरकसदृशीं दुःखसाधात् ता रजनी क्षपयति-गमयति । तते णं मेहाति समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं, एवं वदासी-से णूणं तुम मेहा!, राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि समणेहिं निग्गंथेहिं वायणाए पुच्छणाए जाव महालियं च णं राई णो संचाएमि, मुहत्तमवि अच्छि निमिलावेत्तए; तते णं तुम्भं मेहा !, इमे एयारूवे अन्भथिए. समुपजित्था-जया णं अहं अगारमझे बसामि, तया णं मम समणा निग्गंथा आढायंति जाव परियाणंति; जप्पभितिं च णं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वयामि, तप्पभितिं च णं मम समणा णो आढायंति जाव नो परियाणंति, अदुत्तरं च णं समणा निग्गंथा राओ अप्पेगतिया वायणाए जाव पायरयरेणुगुंडियं करेंति; तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए समणं भगवं महावीरं आपुच्छित्ता पुणरवि आगारमज्झे आवसित्तए त्ति कटु एवं संपेहेसि २, अदृदुहवसहमाणसे जाव रयणी खवेसि २, जेणामेव अहं तेणामेव हव्वमागए, से गूणं महा!, एस अत्थे समढे', हंता अत्थे समढे, एवं खलु मेहा !, तुम इओ तच्चे अईए भवग्गहणे वेयङ्कगिरिपायमूले वणयरेहिं णिव्वत्तियणामधेजे, सेते संखदलउज्जलविमलनिम्मलदहियणगोखीरफेणरयणियरप्पयासे, सत्तुस्सेहे,णवायए, दसपरिणाहे, सत्तंगपतिहिए, १-श्री६ उरिक्षप्तिाध्य. मेषकुमारप्रतिसदुपदेशकथनसूत्रम् । ||||AFAIRSAR ॥६७ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SOCIAAAAAAACITOCATE सोमे, समिए, सुरूवे पुरतो उदग्गे समूसियसिरे सुहासणे, पिट्ठओ वराहे अतियाकुच्छी, अच्छिद्दकुच्छी, अलंबकुच्छी, पलंबलंबोदराहरकरे, धणुपट्टागिइविसिट्ठपुढे, अल्लीणपमाणजुत्तवहियापीवरगत्तावरे, अल्लीणपमाणजुत्तपुच्छे, पडिपुनसुचारुकुम्मचलणे, पंडुरसुविसुद्धनिणिरुवयविसतिणहे, छदंते, सुमेरुप्पमे नामं हत्थिराया होत्था; तत्थ णं तुम मेहा!, बहहिं हत्थीहि य, हत्थीणियाहि य, लोहएहि य, लोहियाहि य, कलभेहि य, कलमियाहि य सद्धिं संपरिवुडे; हत्थिसहस्सणायए देसए पागट्ठी से पट्ठवए जूहबई वंदपरियहए, अन्नेसिं च बहूणं एकल्लाणं हथिकल भाणं आहेवचं जाव विहरसि; तते णं तुम मेहा !, णिचप्पमत्ते सई पललिए, कंदप्परई, मोहणसीले, अवितण्हे, कामभोगतिसिए, बहहिं हत्थीहि य; जाव संपरिवुडे, वेयड्डगिरिपायमूले गिरीसु य, दरीसु य, कुहरेसु य, कंदरासु य, उज्झरेसु य, निज्झरेसु य, वियरएसु य, गद्दासु य, पल्लवेसु य, चिल्ललेसु य, कडयेसु य, कडयपल्ललेसु य, तडीसु य, वियडीसु य, टंकेसु य, कूडेसु य, सिहरेसु य, पब्भारेसु य, मंचेसु य, मालेसु य, काण- | | णेसु य, वणेसु य, वणसंडेसु य, वणराईसु य, नदीसु य, नदीकच्छेसु य, जूहेसु य, संगमेसु य, वावीसु य, पोक्खरिणीसु य, दीहियासु य, गुंजालियासु य, सरेसु य, सरपंतियासु य, सरसरपंतियासु य, वणयरएहिं दिनवियारे बहूहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं संपरिवुडे, बहुविहतरुपल्लवपउरपाणियतणे निभए, निरुव्विग्गे, सुहंसुहेणं विहरसि । तते णं तुमं मेहा, अन्नया कयाई पाउसवरिसारत्तसरयहेमंतवसंतेसु USAKजामा AGAR Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवानी १-श्री उत्थि बीज्ञाताधर्मकथाओं SAIR कमेण पंचसु उऊसु समतिकतेसु गिम्हकालसमयंसि, जेट्टामलमासे पायवघंससमुट्ठिएणं, सुक्कतणपत्तकय. वरमारुतसंजोगदीविएण, महाभयंकरेणं, हुयवहेणं; वणदवजालासंपलित्तेसु वर्णतेसु धूमाउलासु दिसासु महावायवेगेणं संघट्टिएम, छिन्नजालेसु, आवयमाणेसु, पोल्लरुक्खेसु अंतो २ झियायमाणेसु, मयकुहित. विणिविट्ठकिमियकद्दमनदीवियरगजिण्णपाणीयंतेसुवर्णतेसु,भिंगारकदीणकंदियरवेसु,खरफरुसअणिट्ठरिट्ठवाहितविहुमग्गेसु दुमेसु, तण्हावसमुकपक्खपयडियजिन्भतालुयअसंपुडिततुंडपक्खिसंघेसु, ससंतसु गिम्हउम्हउण्हवायखरफरुसचंडमारुयसुक्कतणपत्तकयवरवाउलिभमंतदित्तसंभंतसावयाउलमिगतण्हावद्धचिण्हपहेसु गिरिवरेसु, संवहिएम, तत्थमियपसवसिरीसिवेसु अवदालियवयणविवरणिल्लालियग्गजीहे | महंततुंबइव पुन्नकन्ने संकुचियथोरपीवरकरे ऊसियलंगले पीणाइयविरसरडियसद्देणं फोडयंतेव अंबरतलं पायदद्दरएणं कंपयंतेव मेइणितलं विणिम्मुयमाणे य सीयारं सव्वतो समंता वल्लिवियाणाइं छिंदमाणे | रुक्खसहस्सातिं तत्थ सुबहणि णोल्लायते विणद्वरद्वेव्व णरवरिंदे वायाइव्व पोए मंडलवाएव्व परिन्भमंते अभिक्खणं २, लिंडणियरं पमुंचमाणे २, बहहिं हत्थीहि य जाव सद्धिं दिसोदिसि विप्पलाइत्था; तत्थ णं तुम मेहा!, जुन्ने जराजजरियदेहे आउरे झंझिए, पिवासिए, दुव्यले, किलंते, नदुसुइए, मूढदिसाए, सयातो जूहातो विप्पाहणे, वणदवजालापारद्धे उण्हेण तण्हाए य, छहाए य, परम्भाहए समाणे भीए, तत्थे तसिए, १ मेयणि । |प्ताध्य. मेघकुमारस्यपूर्वभववर्णनसूत्रम् । ॥६८॥ EC % A5-5-%* AHUAEX ॥६८॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5SGACASSA%A9A उविग्गे, संजातभए, सव्वतो समंता आधावमाणे, परिधावमाणे, एगं च णं महं सरं अप्पोदयं पंकबहुलं अतित्थेणं पाणियपाए उइन्नो; तत्थ णं तुम मेहा, तीरमतिगते पाणियं असंपत्ते, अंतरा चेव सेयंसि विसन्ने तत्थ ण तुम मेहा!, पाणियं पाइस्सामि तिकटु हत्थं पसारेसि, सेवि य ते हत्थे उदगं न पावति; तते णं तुम मेहा!, पुणरवि कार्य पच्चुरिस्सामी तिकट्ट पलियतरायं पंकसि खुत्ते । तते णं तुमे मेहा!, अन्नया कदाइ एगे चिरनिज्जूढे गयवरजुवाणए सगाओ जहाओ करचरणदंतमुसलप्पहारेहिं विप्परद्धे समाणे, तं चेव महद्दहं पाणीयं पादेउं समोयरेति; तते णं से कलभए तुमं पासति २, तं पुव्ववेरं सेमरति २, आसुरुत्त रुटे, कुविए, चंडिक्किए, मिसिमिसेमाणे; जेणेव तुमं तेणेव उवागच्छति २, तुमं तिक्खेहिं दंतमुः। सलेहिं तिक्खुत्तो पिट्ठतो उच्छुभति, उच्छुभित्ता; पुव्यवेरं निजाएति २: हद्वतुढे पाणियं पियति २, जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए; तते णं तव मेहा!, सरीरगंसि वेयणा पाउन्भवित्था, उज्जला विउला तिउला कक्खडा जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहव कंतीए यावि विहरित्था। तते णं तुम मेहा !, तं उज्जलं जाव दुरहियासं सत्तराईदियं वेयणं वेदेसि, सवीसं वाससतं परमाउं पालइत्ता, अहवसदृदुहट्टे कालमासे कालं किचा, इहेव जंबुद्दीवे भारहे वासे, दाहिणड्डभरहे, गंगाए महाणदीए, दाहिणे कूले, विंझगिरिपायमूले, एगेणं मत्तवरगंधहत्थिणा एगाए गयवरकरेणूए कुञ्छिसि गयकलभए जणिते; सुम० । SAFECIजाना || GAR Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीप.पु. श्रीज्ञाताधर्मकथाने ॥६९॥ SC-SSOCTORSCOREGAON तते णं सा गयकलभिया णवण्हं मासाणं वसंतमासंमि तुमं पयाया, तते णं तुम मेहा !, गम्भवासाओ विप्पमुक्के समाणे गयकलभए यावि होत्था, रत्तुप्पलरत्तसूमालए जासुमणारत्तपारिजत्तयलक्खारससरसकुंकुमसंझन्भरागवन्ने इट्टे णिगस्स जूहवइणोगणियायारकणेरुकोत्थहत्थी अणेगहत्थिसयसंपरिवुडे रम्मसु गिरिकाणणेसु सुहंसुहेणं विहरसि । तते णं तुम मेहा !, उम्मुकचालभावे, जोव्वणगमणुपत्ते, जूहवाणा कालधम्मुणा संजुत्तेणं तं जूहं सयमेव पडिवज्जसि; तते णं तुम मेहा !,-वणयरेहिं निव्वत्तियनामधेजे जाव चउदंते मेरुप्पो, हत्थिरयणे होत्था; तत्थ णं तुम मेहा !, सत्तंगपइट्ठिए तहेव जाव पडिरूवे, तत्थ णं तुम मेहा!, सत्तसइयस्स जूहस्स आहेवचं जाव अभिरमेत्था तते णं तुमं अन्नया कयाइ गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामूले वणदवजालापलित्तेसु वर्णतेसु सुधूमाउलासु दिसासु जाव मंडलवाएव तते णं परिभमंते, भीते, तत्थे जाव संजाय भए बहहिं हत्थीहि य जाव कलभियाहि य सद्धिं संपरिवुडे, सव्वतो समंता दिसोदिसि विप्पलाइत्था; तते णं तव मेहा!, तं वणदवं पासित्ता अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-" कहिणं मन्ने मए अयमेयारूवे अग्गिसंभवे अणुभूयपुवे ?," तवं मेहा !, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं, अज्झवसाणेणं सोहणणं, सुभेणं परिणामेणं, तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं, ईहापूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुब्वे जातिसरणे समुपज्जित्था तते णं तुमं मेहा !, एयमढे सम्म १ "वे ततेणं । १ तव अ । १-श्रीउत्विप्ताध्य. मेषकुमारस्य पूर्वभववर्णनसूत्रम् । - CITICAFAIRS Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिसमेसि; एवं खलु मया अतीए दोचे भवग्गहणे इहेव जंबुद्दीवे २, भारहे वासे वियड्डगिरिपायमूले जाव तत्थ णं महया अयमेयारूवे अग्गिसंभवे समणुभूए; तते णं तुमं मेहा !, तस्सेव दिवसस्स पुब्वावरण्हकालसमयंसि नियपूणं जूहेणं सद्धिं समन्नागए यावि होत्था; तते णं तुमं मेहा !, सत्तुस्सेहे जाव सन्निजाइस्सरणे चउदंते मेरुपभे नाम हत्थी होत्था, तते णं तुज्झं मेहा अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपज्जित्था - " तं सेयं खलु मम इयाणि गंगाए महानदीए दाहिणिल्लंसि कूलंसि विंझगिरिपायमूले दवग्गिसंताणकारणट्ठा सएणं जूहेणं महालयं मंडलं घाइत्तए, त्ति कहु, एवं संपेहेसि २; सुहंसुहेणं विहरसि तते णं तुमं मेहा !, अन्नया कदाई पढमपाउसंसि महावुट्ठिकार्यसि सन्निवइयंसि गंगाए महानदीए अदूरसामंते बहूहिं हत्थीहिं जाव कलभियाहि य सत्तहि य हत्थिसएहि संपरिवुडे एगं महं जोयण परिमंडल महति महालयं मंडलं घाएसि, जं तत्थ तणं वा, पत्तं वा, कट्टं वा, कंटए वा, लया वा, वल्ली वा, खाणुं वा, रुक्खे वा, खुवे वा तं सव्वं तिखुत्तो आहुणिय एगते एडेसि २, पाएण उद्ववेसि हत्थे हसि[ २त्ता ] तते णं तुमं मेहा !, तस्सेव मंडलस्स अदूरसामंते गंगाए महानदीए दाहिणिल्ले कूल विंझगिरिपायमूले, गिरीसु य जाव विहरसि; तते णं मेहा !, अन्नया कदाइ मज्झिमए वरिसारत्तंसि महाविट्ठकार्यसि सन्निवइयंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २, दोचंपि तचंपि मंडल घाएसि २, एवं चरिमे वासारत्तंसि महावुट्ठिकार्यसि सन्निवइयमाणंसि जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २, - Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०० मीज्ञाताधर्मकथाओं SAFECI पि मंडलघायं करेसि, जं तत्थ तणं वा जाव सुहंसुहेणं विहरसि; अह मेहा, तुम गइंदभावंमि वट्टमाणो, कमेणं नलिणिवणविवहणगरे हेमंते, कुंदलोद्धउद्धततुसारपउरंमि अतिकते, अहिणवे गिम्हसमयंसि पत्ते, वियट्टमाणेसु वणेसु वणकरेणुविविहदिण्णकयपंसुघाओ तुम उउयकुसुमकयचामरकन्नपूरपरिमंडियाभिरामो मयवसविगसंतकडतडकिलिन्नगंधमदवारिणा सुरभिजणियगंधो करेणुपरिवारिओ उउसमत्तज णितसोभो काले दिणयरकरपयंडे परिसोसियतरुवरसिहरभीमतरदंसणिजे भिंगाररवंतभेरवरवे णाणा विहपत्तकट्ठतणकयवरुद्धतपइमारुयाइद्धनहयलदुमगणे वाउलियादारुणतरे तण्हावसदोसदसियभमंतविविहसावयसमाउले भीमदरिसणिजे वहृते दारुणंमि गिम्हे; मारुतवसपसरपसरियवियंभिएणं, अब्भहियभीमभेरवरवप्पगारेणं; महुधारापडियसित्तउद्धायमाणधगधगधगतसद्दद्धएणं, दित्ततरसफुलिंगेणं, धूममालाउलेणं, सावयसयंतकरणणं, अब्भहियवणदवेणं; जालालोवियनिरुद्धधूमंधकारभीयो आयवालो यमहंततुंबइयपुन्नकन्नो आकुंचियथोरपीवरकरो भयवसभयंतदित्तनयणो वेगेण महामेहोव्व पवणोल्लियमहल्लरूवो जेणेव कओ ते पुरा दवग्गिभयभीयहियएणं अवगयतणप्पएसरुक्खो रुक्खोद्देसो दवग्गिसंता कारणवाए जेणेव मंडले तेणेव पहारेत्थ गमणाए, एको ताव एस गमो। तते णं तुम मेहा!, अन्नया कदाई कमेणं पंचसु ऊउसु समतिकतेसु, गिम्हकालसमयंसि जेट्ठामले मासे, पायवसंघससमुट्ठिएणं जाव संवहिएम, मियपसुपक्खिसिरीसिवे दिसो दिसि विप्पलायमाणेसु, तेहिं बहहिं हत्थीहि य सद्धिं; जेणेव उत्थिप्ताध्य. स्व-पररक्षणार्थमण्डलादिकरण| सूत्रम् । C E Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAAAAAG मंडले तेणेव पहारेत्य गमणाए। तत्थणं अण्णे यहवे सीहा य, वग्धा य, विगया, दीविया, अच्छा य, तरच्छा य, पारासरा य, सरभा य, सियाला, विराला, सुणहा, कोला, ससा, कोकंतिया, चित्ता, चिल्लला, पुव्वपविट्ठा अग्गिभयविहुया एगयाओ बिलधम्मेण चिट्ठति तए ण तुमं मेहा 1, जेणेव से मंडले तेणेव उवागच्छसि २त्ता, तेहिं बहहिं सीहेहिं जाव चिल्ललएहि य एगयओ पिलधम्मेणं चिट्ठसि; तते णं तुम मेहा!, पाएणं गत्तं कंडुइस्सामीति कडु, पाए उक्खित्ते, तसिं च ण अंतरंसि अन्नेहिं बलवन्तेहिं सत्तेहिं पणोलिज्जमणे २, ससए अणुपवितु। तते णं तुम मेहा !, गायं कंडुइत्ता पुणरवि पायं पडिनिक्खमिस्सामि त्तिकद्द तं ससयं अणुपविठं पाससि २, पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपाए, जीवाणुकंपाए, सत्ताणुकंपयाए, सो पाए अंतरा चेव संधारिए, नो चेव णं णिक्खित्ते तते ण तुम मेहा!, ताए पाणाणुकंपयाए जाव सत्ताणुकंपयाए, संसारे परित्तीकते, माणुस्साउए निबद्ध ततेणं से वणदवे अड्डातिजाति रातिदियाइं तं वर्ण झामेइ २, निहिए, उवरए उवसंते विज्झाए यावि होत्था; तते णं ते बहवे सीहा य जाव चिल्लला य, तं वणदवं निट्ठियं जाव विज्झायं पासंति २त्ता, अग्गिभयविप्पमुक्का तण्हाए य, छुहाए य, परम्भाहया समाणा मंडलातो पडिनिक्खमंति २, सव्वतो समंता विप्पसरित्था, [तए णं ते बहवे हत्थि जाव छुहाए य परब्भाहया समाणा तओ मंडलाओ पडिनिक्खमंति २ दिसो दिसिं विप्पसरित्था] तए णं तुम मेहा, जुन्ने जराजजरियदेहे, सिढिलवलितयापिणिद्धगत्ते, दुबले, किलंते, गँजिए,पिवासिते,अत्थामे,अबले, अपरक्कमे, २, निहिए, वझायं पासंति २ तासमता विप्पसरियादसि विप्पसरित्सन,अत्यामे,अबले, सानासाना-CASE Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥१॥ अचंकमणो वा ठाणुखंडे वेगेण विपसरिस्सामि त्ति कडे पाए पसारेमाणे, विज्जुहते विव रयतगिरिपम्भारे धरणितलंसि सव्वंगेहि य सन्निवइए; तते णं तव मेहा, सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूता, उज्जला जाव दाहवकतिए यावि विहरसि तते णं तुम मेहा!, तं उज्जलं जाव दुरहियासं तिन्नि राइंदियाई वेयणं वेएमाणे विहरित्ता एगं वाससतं परमाउं पालहत्ता, इहेव जंबुद्दीवे २, भारहे वासे रायगिहे नयरे; सेणितस्स रन्नो धारिणीए देवीए कुच्छिसि कुमारत्ताए पचायाए ॥ सूत्रम्-३२ ।। | 'मेहाइ'ति-हे मेघ इति, एवममिलाप्य महावीरस्तमवादीत् । 'से णूण मित्यादि, अथ नूनं-निश्चितं मेघ !, अस्ति &ा एषोऽर्थः १, "हंते' ति-कोमलामन्त्रणे, अस्त्येषोऽर्थ इति मेघेनोत्तरमदायि, वनचरकैः-शवरादिभिः, 'संखे'त्यादि, विशेषणं प्रागिव सत्तुस्सेहे-सप्तहस्तोच्छितः, नवायतो-नवहस्तायतः, एवं दशहस्तप्रमाणः मध्यभागे सप्ताङ्गानि-पादकरपुच्छलिङ्गलक्षणानि प्रतिष्ठितानि भूमौ यस्य स तथा समः-अविषमगात्रः, सुसंस्थितो-विशिष्टसंस्थानः, पाठान्तरेण सौम्यसम्मितः । तत्र सोम्या-अरौद्राकारो नीरोगो वा सम्मित:-प्रमाणोपेताङ्गः । पुरत:-अग्रतः उदग्रा-उच्चः समुच्छ्रितशिराः शुभानि सुखानि वा आसनानि-स्कन्धादीनि यस्य स तथा, पृष्ठतः-पश्चाद्भागे वराह इव-शूकर, इव वराह अवनतत्वात् , अजिकाया इवोलतत्वात् कुक्षी यस्य स तथा, अच्छिद्रकुक्षी मांसलत्वात् अलम्बकुक्षिरपलक्षणवियोगात पलम्बलंबोयराहरकरेत्ति-प्रलम्बं च लम्बौ च क्रमेणोदरं च-जठरमधरकरौ च-ओष्ठहस्तौ यस्य स तथा पाठान्तरे [प्र] लम्बी लम्बो. १ सय, अ। 54545RAO १-श्रीउत्थिप्वाध्य मेषकुमारसंबन्धिपूर्वभववर्णनम् । RELATECHIRCIIIॐॐ ॥७१॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दरस्येव - गणपतेरिव अधरकरौ यस्य स तथा धनुःपृष्ठा कृति - आरोपितज्यधनुराकारं विशिष्टं प्रधानं पृष्ठं यस्य स तथा, लीनानि सुलिष्टानि प्रमाणयुक्तानि वर्त्तितानि वृत्तानि पीत्रराणि - उपचितानि, गात्राणि - अङ्गानि, अपराणि - वर्णितगात्रे - योऽन्यानि अपरभागगतानि वा यस्य स तथा, अथवा आलीनादिविशेषणं गात्रं - उरः अपरश्व-पश्चाद्भागो यस्य स तथा, वाचनान्तरे विशेषणद्वयमिदं-अम्युद्गता - उन्नता मुकुलमल्लिकेत्र - कोरका वस्थ विच किलकुसुमवेद्भवलाश्च दन्ता यस्य सोऽभ्युद्गतमुकुलमल्लिकाघवलदन्तः, आनामितं यच्चापं - धनुस्तस्येव ललितं-विलासो यस्याः सा तथा च संवेल्लिता च-संवेल्लन्ती सङ्कोचिता वा अग्रमुण्डा - सुण्डाग्रं यस्य स आनामितचापललित संवेल्लिताग्रसुण्डः, आलीन प्रमाणयुक्त पुच्छः प्रतिपूर्णाः सुचारवः कूर्म्मचरण यस्य स तथा, पाण्डुराः शुक्काः, सुविशुद्धा: - निर्मलाः खिग्धाः - कान्ता निरुपहताः- स्फोटादिदोषरहिता विंशतिर्नखा यस्य स तथा, तत्र त्वं हे मेघ !, बहुभिईस्त्यादिभिः सार्द्धं संपरिवृतः आधिपत्यं कुर्वन् विहरसीति सम्बन्धः । तत्र हस्तिनः - परिपूर्णप्रमाणाः लोडकाः कुमारकावस्थाः, कलभाः - चालकावस्थाः, हस्तिसहस्रस्य नायकः - प्रधानः, न्यायको वा देशको हितमार्गादिः प्राकर्षी - प्राकर्षको अग्रगामी, प्रस्थापको - विविधकार्येषु प्रवर्तको, यूथपतिः- तत्स्वामी, वृन्दपरिवर्द्धकः-तद्वृद्धिकारकः, 'सई पललिए' चि-सदा प्रललितः - प्रक्रीडितः कन्दर्परतिः - केलिप्रियः, मोहनशीलोनिधुवनप्रियः, अवितृप्तो - मोहने एवानुपरतवाञ्छः, तथा सामान्येन कामभोगेऽतृषितः गिरिषु च पर्वतेषु, दरीषु च - कन्दरविशेषेषु, कुहरेषु च पर्वतान्तरालेषु, कन्दरासु च-गुहासु, उज्झरेषु च - उदकस्य प्रपातेषु, निर्झरेषु च स्यन्दनेषु, विदरेषु च १ "लाभ । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बवाङ्गी बीज्ञाताधर्मकथाङ्गे fe*** ॥७२॥ क्षुद्रनद्याकारेषु, नदीपुलिनस्यन्दजलगतिरूपेषु वा गर्तासु च-प्रतीतासु, पखलेषु-च प्रह्लादनशीलेषु, चिल्ललेषु च-चिक्खि- १-श्रील्लमिश्रेषु, कटकेषु च-पर्वततटेषु, कटकपल्बलेषु-पर्वततटव्यस्थितजलाशयविशेषेषु, तटीषु च-नद्यादीनां तटेषु, क्तिटीयु- उत्क्षिच-तास्वेव विरूपासुः अथवा-वियडिशब्देन लोके अटवी उच्यते, टकेषु च-एकदिशि छिन्नेषु पर्वतेषु, कुटकेषु च अधो- प्ताध्य. विस्तीर्णेषपरि संकीर्णेषु वृत्तपर्वतेषु, हस्त्यादिवन्धनस्थानेषु वा; शिखरेषु च-पर्वतोपरिवर्तिकूटेषु, प्राग्भारेषु च-ईवदवनतपर्वत मेघमार भागेषु, मश्चेषु च-स्तम्भन्यस्तफलकमयेषु नद्यादिलङ्घनार्थेषु, मालेषु च-श्वापदादिरक्षार्थेषु तद्विशेषेष्वेव मञ्चमालकाकारेषु, पर्वत संबन्धिदेशेष्वित्यन्ये; काननेषु च-स्त्रीपक्षस्य पुरुषपक्षस्य चैकतरस्य भोग्येषु वनविशेषेषु, अथवा-यत्परतः पर्वतोष्टवी वा भवति पूर्वमवतानि काननानि जीर्णवृक्षाणि वा तेषु वनेषु च-एकजातीयवृक्षेषु, वनखण्डेषु च-अनेकमातीयवृशेषु वनराजीषु च-एकानेक- वर्णनम् । जातीयवृक्षाणां पतिषु, नदीषु च-प्रतीतासु, नदीकक्षेषु च-तद्गहनेषु, यथेषु च वानरादियूथाश्रयेषु, सङ्गमेषु च-नदीमीलकेषु, वापीषु च-चतुरस्रासु, पुष्करिणीषु च-चर्तुलासु, पुष्करवतीषु वा दीपिकासु च-ऋजुसारिणीषु, गुंजालिकासु च-बक्रसारि. णीषु, सरस्सु च-जलाशय विशेषेषु, सरपतिकासु च-सरसा पद्धतिषु, सरासरःपति कासु च-यासु सरम्पतिषु एकस्मात्सरसोऽ. न्यस्मिन्नन्यस्मादन्यत्रैवं सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरति तासु बहुविधास्तरुपल्लवाः प्रचुराणि पानीयतृणानि च यस्य भोग्यतया स तथा, निर्भयः शूरत्वात् , निरुद्विमः सदैव अनुकूलविषयप्राप्तेः सुखंसुखेन-अकृच्छ्रेग । 'पाउसे'त्यादि, प्रावट-आषाढश्रावणौ, वर्षारात्रो-भाद्रपदाश्वयुजौ, शरत्-कार्तिकमार्गशीर्षों, हेमन्त:-पोषमाघौ, वसन्तः-फाल्गुनचैत्रौ, एतेषु पञ्चसु ऋतुषु समतिक्रान्तेपु; 'ज्येष्ठामूलमासे'ति-ज्येष्ठमासे पादप्रपर्षणसमुत्थितेन शुष्कतणपत्रलक्षणं कचवरं मारुतश्च तयोः संयोगेन दीप्तो H७२ ** Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यः स तथा तेन, 'महाभयंकरेण' - अतिभयकारिणा, 'हुतवहेन' अग्निना यो जनित इति हृदयस्थं, 'वनदवो' - वनाग्निः, तस्य ज्वालाभिः संप्रदीप्ता ये ते तथा तेषु वनान्तेषु सत्सु अथवा - 'पायवससमुट्ठिएण' मित्यादिषु णंकाराणां वाक्यालङ्कारार्थत्वात्सप्तम्येकवचनान्तता व्याख्येया, तथा धूमाकुलासु दिक्षु, तथा महावायुवेगेन संघट्टितेषु छिन्नज्वालेषु - त्रुटितज्वालासमूहेषु आपत्सु - सर्वतः संपतत्सु तथा 'पोल्लरुक्खेसु' ति - शुषिरवृक्षेषु अन्तरन्तः - मध्ये मध्ये ध्मायमानेषु - दह्यमानेषु तथा - मृतैर्मृगादिभिः कुथिताः - कोथमुपनीता, विनष्टाः - विगतस्त्रभावाः, 'किमिणकद्दम 'त्ति - कृमिवत्कर्दमाः नदीनां विवरकाणां च क्षीणपानीयाः अन्ताः - पर्यन्ता येषु, क्वचित् - 'किमवत्ति' पाठः, तत्र मृतैः कुथिताः विनष्टक्रमिकाः कर्दमाः नदीविदरकलक्षणाः क्षीणा जलक्षयात्पानीयान्ता - जलाशया येषु ते तथा तेषु वनान्तेषु - वनविभागेषु सत्सु तथा भृङ्गारकाणां - पक्षिविशेषाणां दीनः क्रन्दितरवो येषु ते तथा तेषु वनान्तेष्विति वर्तते, तथा खरपरुपं - अति कर्कशमनिष्टं रिष्टानां काकानां व्याहृतं - शब्दितं येषु ते तथा, विद्रुमाणीव - प्रवालानीव लोहितानि अग्नियोगात्पल्लवयोगाद्वा अग्राणि येषां ते विद्रुमा ग्रास्ततः पदद्वयस्य २ कर्म्मधारयः, ततस्तेषु द्रुमाग्रेषु वृक्षोत्तमेषु सत्सु; वाचनान्तरे - खरपरुपरिष्ठव्याहृतानि विविधानि द्रुमाग्राणि येषु ते खरपरुषरिष्टव्याहृत विविधद्रुमाग्रास्तेषु वनान्तेष्विति, तथा तृष्णावशेन मुक्तपक्षाः श्लथीकृतपक्षाः प्रकटितजिह्वाता - लुका: असंपुटिततुण्डाय - असंवृतमुखाः ये पक्षिसङ्घास्ते तथा तेषु 'ससंतेसु' त्ति - श्वसत्सु - श्वासं मुञ्चत्सु तथा ग्रीष्मस्य ऊष्मा च - उष्णता उष्णपातश्च - रविकरसन्तापः खरपरुषचण्डमारुतश्च - अति कर्कश प्रबलवातः शुष्कतृणपत्रकच वरप्रधानवातोली चेति द्वन्द्वः ताभिर्भ्रमन्तः - अनवस्थिता दृप्ताः संभ्रांता ये श्वापदा:- सिंहादयः तैराकुला ये ते तथा, मृगतृष्णा-मरीचिका 13 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० वृ० श्रीज्ञाता नमकथाङ्गे ॥ ७३ ॥ तल्लक्षणो बद्धः चिह्नपट्टो येषु ते तथा, ततः पदद्वयस्य कर्म्मधारयोऽतस्तेषु सत्सु गिरिवरेषु - पर्वतराजेषु, तथा - संवर्तकतेषु संजात संवर्तकेषु त्रस्ता - मीता ये मृगाश्च प्रसयाश्च - आटव्य चतुष्पदविशेषाः, सरीसृपाश्च - गोधादयस्तेषु ततश्वासौ हस्ती अवदारितवदनविवरो निर्लालिताग्रजिह्नश्च य इति कर्म्मधारयः 'महंत तुंबइयपुण्णकपणे' - महान्तौ तुम्ब कितौ भयादरतुम्बाकारौ कृतौ स्तब्धावित्यर्थः, पुण्यौ-व्याकुलतया शब्दग्रहणे प्रवणौ कर्णौ यस्य स तथा संकुचितः 'थोर'तिस्थूलः, पीवरो- महान् करो यस्य स तथा उच्छ्रितलाङ्गुलः; 'पीणाइय'त्ति- पीनाया - मड्डा तया निर्वृत्तं पैनायिकं तद्विधं यद्विरसं रटितं तल्लक्षणेन शब्देन स्फोटयन्निवाम्बरतलं पाददर्दरेण-पादघातेन कम्पयन्निव 'मेदिनीतल' मित्यादि, कण्ठथं; 'दिसो दिसिं 'ति - दिक्षु चापदिक्षु च विपलायितवान्, आतुरो-व्याकुलः 'जुंजिए 'ति- बुभुक्षितः, दुर्बल:- क्लान्तो ग्लानः, नष्टश्रुतिको मूढदिकः, 'परब्भाहए' ति - पराभ्याहतो बाधितो भीतो जातभयः, त्रस्तो - जातक्षोभः; 'तसिए' त्ति - शुष्क आनन्दरसशोषात्, उद्विग्नः कथमितोऽनर्थान्मोक्ष्येऽहमित्यध्यवसायवान्, किमुक्तं भवति १ - संजातभयः - सर्वात्मनोत्पन्नभयः आधावमान - ईपत् परिघावमानः समन्तात्, 'पाणियपाए त्ति पानं पायः पानीयस्य पायः पानीयपायस्तस्मिन्, जलपानायेत्यर्थः; 'सेयंसि विसन्ने' त्ति पङ्के निमग्नः, कार्य प्रत्युद्धरिष्यामीति कृत्वा कायमुद्धर्त्तुमारब्ध इति शेषः, 'बलियतरायं'ति - गाढतरं । 'तर ण' मित्यादि, इत्रमक्षरघटना - त्वया हे मेघ !, एको गजवरयुवा करचरणदन्तमुशलप्रहारैर्विप्रालब्धो विनाशयितुमिति गम्यते, विपराद्धो वा हतः सन् अन्यदा कदाचित् स्वकाय्थात् चिरं, 'निज्जूढे' ति-निर्धाटितो यः स पानीयपानाय तमेव महाइदं समवतरति स्मेति, 'आसुरुत्ते 'त्ति-स्फुरितको पलिङ्गः रुष्टः- उदितक्रोधः कुपितः - प्रवृद्धकोपोदयः पुति 36 १ - उत्क्षिप्ताध्य० श्रीमेघ कुमारपूर्वभववर्णनम् । ॥ ७३ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ALSAASALOCACCIECCASIA चाण्डिक्यितः-संजातचाण्डिक्यः प्रकटितरौद्ररूप इत्यर्थः, 'मिसिमिसीमाणे'त्ति-क्रोधाग्निना देदीप्यमान इव, एकाथिका वैते शब्दाः कोपप्रकर्षप्रतिपादनार्थ नानादेशजविनेयानुग्रहार्थ वा, 'उच्छुहई'-अवष्टम्नाति विध्यतीत्यर्थः, 'निजाए'त्तिनिर्यातयति-समापयति, वेदना किंविधा ?,-उज्वला विपक्षलेशेनापि अकलङ्गिता, विपुला शरीरव्यापकत्वात् , 'कचित्तितुले'त्ति पाठस्तत्र त्रीनपि मनोवाकायलक्षणानांस्तुलयति-जयति, तुलारूढानिव वा करोतीति त्रितुला; कर्कशा-कर्कशद्रव्यमिवानिष्टत्यर्थः, प्रगाढा-प्रकर्षवती, चण्डा-रौद्रा, दुःखा-दुःखरूपान सुखेत्यर्थः किमुक्तं भवति ?-दुरधिसह्या, 'दाहवक्रतीए'त्ति-दाहो व्युत्क्रान्त-उत्पन्नो यस्य स तथा स एव दाहव्युत्क्रान्तिकः 'अट्टवसदृदुहट्टे'त्ति-आवश-आर्तध्यानवशतामृतो-गतो दुःखार्तश्च यः स तथा, 'कणेरुए'त्ति-करेणुकायाः, 'रत्तुपल्ले त्यादि,-रक्तोत्पलवद्रक्तः सुकुमारकश्च यः स तथा, जपासुमनश्च आरक्तपारिजातकश्च वृक्षविशेषौ लाक्षारसश्च सरसकुमं च सन्ध्यारागश्चेति द्वन्द्वः, एतेषामिव वर्गों यस्य स तथा, 'गणियार'त्ति-गणिकाकारा:-समकायाः करेणवस्तासां, 'कोत्थं'ति-उदरदेशस्तत्र हस्तो यस्य कामक्रीडापरायणत्वात् स तथा, इह चेत्समासान्तो द्रष्टव्यः। 'कालधंमुण'त्ति-काल:-मरणं स एव धर्मो-जीवपर्यायः कालधर्म: 'निव्वत्तियनामधेजो'-इह यावत्करणेन यद्यपि समग्रः पूर्वोक्तो हस्तिवर्णकः सूचितस्तथापि श्वेततावर्णकवजों द्रष्टव्यः, इह रक्तस्य तस्य वर्णितत्वादत एवाग्रेः 'सत्तुस्सेहे इत्यादिकमतिदेशं वक्ष्यति, यत् पुनरिह दृश्यते; 'सत्तंगे'त्यादितद्वाचनान्तरं, वर्णकापेक्षं तु लिखितमिति । 'लेसाहीत्यादि, तेजोलेश्याद्यन्यतरलेश्यां प्राप्तस्येत्यर्थः, अध्यवसानं-मानसी बाजार १ मुणा, अ। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०० श्रीज्ञाताधर्मकथाले १-उत्थिप्ताध्य. श्रीमेषकुमार पूर्वभव ॥७४॥ वर्णनम् । परिणतिः, परिणामो-जीवपरिणतिः, जातिस्मरणावरणीयानि कर्माणि-मतिज्ञानावरणीयभेदाःक्षयोपशम:-उदितानां क्षयोs- नुदितानां विष्कम्भितोदयत्वं, ईहा-सदाभिमुखो वितर्क इत्यादि प्राग्वत् , संजिनः पूर्वजातिः-प्राक्तनं जन्म तस्या यत् स्मरणं तत्संज्ञिपूर्वजातिस्मरणं व्यस्तनिर्देशे तु संञी पूर्वो भवो यत्र तत्संन्त्रिपूर्व, संझीति च विशेषणं स्वरूपज्ञापनार्थ, न यसंझिनो जातिविषयं स्मरणमुत्पद्यत. इति, 'अभिसमेसित्ति-अवबुध्यसे प्रत्यपराह्ना-अपरातः, 'तए ण'मित्यादिको ग्रन्थो जातिस्मरणविशेषणमाश्रित्य वर्णितः, 'दवग्गिसंजायकारणहत्ति-दवानेः संजातस्य कारणस्य-मयहेतोनिवृत्तये इदं दवाग्निसंजातकारणार्थ, अर्थशब्दस्य निवृत्त्यर्थत्वात् । क्वचित्-'दवग्गिसंताणकारणहत्ति दृश्यते, तत्र दवाग्निसन्त्राणकारणायेति व्याख्येय; 'मंडलं घाएसि'-वृक्षाद्यपघातेन तत्करोतीत्यर्थः, 'खुवेतयति वत्ति-क्षुवो इस्वशिखः शाखी, 'आहुणिय'त्ति-२ प्रकम्प्य चलयित्वेत्यर्थः, 'उहवेसित्ति-उद्धरसि, 'एडेसित्ति-छईयसि, 'दोचंपि'-द्वितीयं तस्यैव | मण्डलस्य घातं, एवं तृतीयमिति; नलिनीवनविवधनकरे, इह विवधनं-विनाश, 'हेमंतेत्ति-शीतकाले कुन्दा:-पुष्पजातीय विशेषाः, लोध्राश्च-वृक्षविशेषास्ते च शीतकाले पुष्यन्त्यतस्ते उद्धताः-पुष्पसमृद्ध्या उद्धरा इव यत्र स तथा, तथा-तुषारं हिम, तत् प्रचुरं यत्र स तथा, ततः कर्मधारयः ततस्तत्र; ग्रीष्मे-उष्णकाले विवर्तमानो-विचरन् वनेषु वनकरेणूनां तामिर्वा विविधा 'दिन्न'त्ति-दत्ताः कजप्रसवैः-पद्मकुसुमैर्धाता:-प्रहारा येषु यस्य वा स तथा, 'वणरेणुविविहदिनकयपंसुधाओ'त्तिपाठान्तरे तु वनरेणवो-वनपांशवो विविध-अनेकधा, 'दिन्नति-दत्ता दिक्ष्वात्मनि च क्रीडापरतया क्षिप्ता येन स तथा, तथा क्रीडयैव कृताः पाशुपाता येन स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, 'तुम'ति त्वं, तथा कुसुमैः कृतानि यानि चाम- ॥ ७४ ॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रवत्कर्णपूराणि तैः परिमण्डितोऽमिरामश्च यः स तथा, कचित्-'उउयकुसुम'त्ति पाठः, तत्र ऋतुजकुसुमैरिति व्याख्येयं, तथा मदवशेन विकसन्ति कटतटानि-गण्डतटानि, क्लिन्मानि-आर्द्राकृतानि येन तत्तथा, तच्च तद्गन्धमदवारि च तेन सुरभिजनि. तगन्धः-मनोज्ञकृतगन्धः करेणुपरिवृतः ऋतुभिः समस्ता समाप्ता वा-परिपूर्णा जनिता शोभा यस्य स तथा, काले किंभूते,दिनकरः करप्रचण्डो यत्र स तथा तत्र, परिशोषिता:-नीरसीकृताः तरुवराः श्रीधराः-शोभावन्तो येन परिशोषिता वा 12 तरुवराणां श्रीः-संपद्धरायां-भुवि वा येन, पाठान्तरे-परिशोषितानि तरुवरशिखराणि येन स तथा स चासौ भीमतरदर्शनीयश्चेति, तत्र भृङ्गाराणां-पक्षिविशेषाणां रुवतां-वं कुर्वतां भैरवो-भीमो रव:-शब्दो यस्मिन् स तथा तत्र, नानाविधानि पत्रकाष्ठवणकचवराण्युद्धतानि-उत्पाटितानि येन स तथा स चासौ प्रतिमारुतश्च-प्रतिकूलवायुस्तेन आदिग्धं-व्याप्तं नभस्तलं-व्योम 'पडुममाणे'ति-पटुत्वादुपतापकारि यस्मिन् पाठान्तरे-उक्तविशेषणेन प्रतिमारुतेनादिग्धं नभस्तलं दुमगणश्च यस्मिन् स तथा, तत्र वातोल्या-वात्यया दारुणतरो यः स तथा तत्र, तृष्णावशेन ये दोषा-वेदनादयस्तैदोषिता-जातदोषा दृषिता वा भ्रमन्तो विविधा ये श्वापदास्तैः समाकुलो यः स तथा तत्र; भीमं यथा भवत्येवं दृश्यते यः स भीमदर्शनीयः तत्र वर्तमाने दारुणे ग्रीष्मे, केनेत्याह-मारुतवशेन यः प्रस:-प्रसरणं तेन प्रस्तो विजृम्भितश्च-प्रबलीभूतो यः स तथा तेन, वनदवेनेति योगः, अभ्यधिक यथा भवत्येवं भीमभैरवः-अतिभीष्मो रवप्रकारो यस्य स तथा तेन, मधुधाराया यत्पतितं-पतनं तेन सिक्त उद्धाबमान:प्रवर्द्धमानो धगधगायमानो-जाज्वल्यमानः स्पन्दोद्धतश्च-दह्यमानदारुस्पन्दप्रबला, पाठान्तरे-शब्दोद्धतश्च यः स तथा, तेन दीप्ततरो यः सस्फुलिङ्गश्च तेन, धूममालाकुलेनेति प्रतीतं, श्वापदशतान्तकरणेन-तद्विनाशकारिणा ज्वालाभिरालोपितः BARSOCIASIRAHA Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी- १० श्रीज्ञाताधर्मकथाओं ७५॥ १-उत्विप्ताध्य. श्रीमेघकुमारपूर्वभववर्णनम् । AURA कृताच्छादनो निरुद्धश्च-विवक्षितदिग्गमनेन निवारितो धूमजनितान्धकारादीतश्च यः स तथा, आत्मानमेव पालयतीत्यात्मपालः, पाठान्तरेण-'आयवालोय'त्ति-तत्र आतपालोकेन-हुतबहतापदर्शनेन महान्तौ तुम्बकिती स्तब्धतया अरघट्ट. तुम्बाकृती ससंभ्रमौ कौँ यस्य स तथा, आकुश्चितस्थूलपीवरकरभयवशेन भजन्ती दिश इति गम्यते दीप्ते नयने यस्य स तथा । 'आकुंचियथोरपीवरकराभोयसबभयंतदित्तनयणो'त्ति-पाठान्तरं-तत्रामोगो-विस्तरः, सर्वा दिशो भजन्ती दीप्ते नयने यस्येति वेगेन महामेघ इव वातेनोदितमहारूपः, किमित्याह-येन यस्यां दिशि कृतो-विहितस्ते-स्वरा पुरा-पूर्व दवाग्निभयभीतहृदयेन अपगतानि तृणानि तेषामेव च प्रदेशा-मृलादयोऽवयवा वृक्षाश्च यस्मात्सोऽपगततृणप्रदेशवृक्षा, कोऽसौ ?-वृक्षोद्देश:-वृक्षप्रधानो भूमेरेकदेशो रूक्षोद्देशो या किमर्थ ?-दवानिसन्त्राणकारणार्थ-दवाग्निसन्त्राणहेतुरिद भवत्वित्येतदर्थ, तथा येनैव-यस्यामेव दिशि मण्डलं तेनैव-तत्रैव प्रधारितवान् गमनाय, कथं बहुभिहस्त्यादिभिः | साईमित्ययमेको गमः। यत् पुनः 'तए णं तुम मेहा !, अण्णया कयाई कमेण पंचसु' इत्यादि दृश्यते तद्गमान्तरं मन्यामहे, तच्च एवं द्रष्टव्यं 'दुचपि मंडलघायं करेसि जाव सुहंसुहेणं विहरसि, तए णं तुम मेहा!, अन्नया कयाइ पंचसु उऊसु अइकंतेसु' इत्यादि, यावत् 'जेणेव मण्डले तेणेव पहारेत्थ गमणाए'चि, सिंहादयः प्रतीता; नवरं वृका-वरुक्षाः, द्वीपिका:-चित्रकाः, अच्छत्ति-रिक्षाः, तरच्छा-लोकप्रसिद्धाः, परासरा:-शरमाः शृगालविरालशुनकाः | प्रतीताः, कोला:-शूकराः, शशका:-प्रतीताः, कोकन्तिका-लोमटका:, चित्राः, चिल्ललगा-आरण्या जीवविशेषाः एतेषां मध्येऽधिकृतवाचनायां कानिचिन्न दृश्यन्ते, अग्निभयविद्वता:-अग्निभयाभिभूता 'एगओत्ति-एकतो बिलधर्मेण-विलाचारेण RAFCRAFACAD NGACASS Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LAB SH-उत्पाटित पयन्निति शेषः, परतोऽनालिङ्गितमाला वलिप्रधाना नपादितर ASIRSARASWASAR यथैकत्र बिले यावन्तो मर्कोटकादयः समान्ति तावन्तस्तिष्ठन्ति एवं तेऽपीति, ततस्त्वया हे मेघ !, गात्रेण गात्रं कण्डूयिष्ये इतिकृत्वा-इतिहेतोः पाद उत्क्षिप्तः-उत्पाटितः, तंसि च णं अंतरंसि-तस्मिंश्चान्तरे पादाक्रान्तपूर्वे अन्तराले इत्यर्थः । 'पादं निक्खेविस्सामि त्तिक?'-इह भुवं निरूपयन्निति शेषः, 'प्राणानुकम्पयेत्यादि पदचतुष्टयमेकार्थ दयाप्रकर्षप्रतिपादनार्थ, 'निट्ठिएत्ति-निष्ठां गतः, कृतस्वकार्यों जात इत्यर्थः; उपरतोऽनालिङ्गितेन्धनाद् व्यावृत्तः उपशान्तो-ज्वालोपशमात् विध्यातोऽङ्गारमुर्मुराद्यभावात् , 'वापी'ति-समुच्चये, 'जीर्ण' इत्यादि, शिथिला वलिप्रधाना पा त्वक तया पिनद्धं गानं शरीरं यस्य स तथा, अस्थामा-शारीरबलविकलत्वात् , अबल:-अवष्टम्भवर्जितत्वात् , अपराक्रमो-निष्पादितस्त्रफलाभिमानविशेषरहितत्वात् । अचंक्रमणतो वा 'ठाणुखंडे'त्ति-ऊर्द्धस्थानेन स्तम्भितगात्र इत्यर्थः, 'रययागिरिपन्भारे'त्ति-इह प्राग्-भार-ईषदवनतं खण्डं, उपमा चानेनास्य महत्तयैव, न वर्णतो, रक्तत्वात्तस्य, वाचनान्तरे तु सित एवासाविति ॥३२॥ तते णं तुभं मेहा!, आणुपुब्वेणं गम्भवासाओ निक्खंते समाणे उम्मुकबाल भावे जोव्वणगमणुपत्ते मम अंतिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पब्वइए; तं जति जाव तुमे मेहा !, तिरिक्खजोणियभावमुवगएणं अपडिलद्धसंमत्तरयणलंभेणं से पाणे पाणाणुकंपयाए जाव अंतरा चेव संधारिते नो चेव णं निक्खित्ते, किमंग पुण तुम मेहा !, इयाणिं विपुलकुलसमुन्भवेणं निरुवहयसरीरदंतलद्धपंचिदिएणं एवं उहाणवलवीरियपुरिसगारपरकमसंजुत्तेणं मम अंतिए मुंडे भवित्ता आगारातो 'अणगारियं पव्वतिए समाणे समणाणं निग्गंथाणं राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि वायणाए जाव धम्माणुओगचिंताए य E CARCISIGARH Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १-उत्क्षिप्ताध्य. श्रीवीरप्रभुकृतश्रीमेषप्रतिबोधवर्णनम् । ॥७६॥ उच्चारस्स वा पासवणस्स वा अतिगच्छमाणाण य निग्गच्छमाणाण य हत्यसंघट्टणाणि य पायसंघट्टणाणिय जाव रयरेणुगुंडणाणि य नोसम्मं सहसि, खमसि, तितिक्खसि; अहियासेसि । तते णं तस्स मेहस्स अणगारस्स समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए एतमढे सोचा, णिसम्म, सुभेहिं परिणामेहिं, पसत्थेहिं अज्झवसाणेहिं, लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं; तयावरणिजाणं कम्माणं, खओवसमेणं ईहोवूहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्निपुग्वे जातीसरणे समुप्पन्ने, एतमटुं सम्म अभिसमेति । तते णं से मेहे कुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुग्वजातीसंभरणे दुगुणाणीयसंवेगे आणंदयंसुपुन्नमुहे हरिसवसेणं धाराहयकदंबकं पिव समुस्ससितरोमकूवे समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति २त्ता; एवं वदासीअन्जप्पभिती णं भंते !, मम दो अच्छीणि मोत्तूणं अवसेसे काए समणाणं णिग्गंथाणं निसट्टे तिकटु पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदति, नमसति, २, एवं वदासी-इच्छामि णं भंते !, इयाणिं सयमेव दोचंपि सयमेव पव्वावियं सयमेव मुंडावियं जाव सयमेव आयारगोयरं जायामायावत्तियं धम्ममातिक्खह । तए णं समणे भगवं महावीरे मेहं कुमारं सयमेव पवावेइ जाव जायामायावत्तियं धम्ममाइक्खइ, एवं देवाणुप्पिया !, गन्तव्वं एवं चिट्ठियव्वं, एवं णिसीयव्वं, एवं तुयट्टियब्वं, एवं भुंजियव्वं, भासियव्वं, उट्ठाय २, पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं संजमेणं संजमितव्वं तते णं से मेहे समणस्स हापोहम• भ। नानाला AAG Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HAR भगवतो महावीरस्स अयमेयारूवं धम्मियं उपएसं सम्म पडिच्छति २, तह चिट्ठति जाव संजमेणं संजमति; तते णं से मेहे अणगारे जाए ईरियासमिए अणगारवन्नओ भणियव्वो, तते णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतिए एतारूवाणं थेराणं सामातियमातियाणि एक्कारस अंगाति अहिजति २त्ता, बहूहिं चउत्थछट्ठहमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरति तते णं स. भ. महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेतियाओ पडिनिक्खमति २, बहिया जणवयविहारं विहरति ॥ सूत्रम्-३३॥ 'अपडिलद्धसंमत्तरयणलंभेणं'ति-अप्रतिलब्ध:-असंजातः, 'विपुलकुलसमुन्मवेण'मित्यादौ, णकारा-वाक्यालङ्कारे, | निरुपहतं शरीरं यस्य स तथा दान्तानि-उपशमं नीतानि प्राकाले लब्धानि सन्ति पञ्चेन्द्रियाणि येन स तथा, ततः कर्म- | धारयः, पाठान्तरे-निरुपहतशरीरप्राप्तश्चासौ लब्धपश्चेन्द्रियश्चेति समासः। 'एवं'मित्युपलभ्यमानरूपैरुत्थानादिभिः संयुक्तो यः स तथा, तत्र उत्थानं-चेष्टाविशेषः बलं-शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं पुरुषकारा-अभिमानविशेषः पराक्रमः-स एव साधित. फल इति । नो सम्यक् सहसे भयाभावेन क्षमसे क्षोभाभावेन तितिक्षसे दैन्यानवलम्बनेन अध्यासयसि अविचलितकायतया, | एकाथिकानि वैतानि पदानि तस्य मेघस्यानगारस्य जातिस्मरणं समुत्पन्नमिति सम्बन्धः, समुत्पन्ने च तत्र किमित्याह-एतमर्थपूर्वोक्तं वस्तु सम्यक् 'अभिसमेह'त्ति-अभिसमेति-अवगच्छतीत्यर्थः । 'संभारियपुव्वजाईसरणे'त्ति-संस्मारितं पूर्व १ क्रोधाभा० । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० ० श्रीज्ञाताधर्मकथाओं ECAYS ||ज | १-उत्थिप्ताध्य. भीमेषकुमारस्य जातिस्मृतिसंवेगादिवर्णनम् । ७७॥ जात्योः-प्राक्तनजन्मनोः सम्बन्धि सरण-गमनं पूर्वजातिसरणं यस्य स तथा, पाठान्तरे-संस्मारितपूर्वभवः, तथा प्राकालापेक्षया द्विगुण आनीतः संवेगो यस्य स तथा, आनन्दाश्रुभिः पूर्ण भृतं प्लुतमित्यर्थो मुखं यस्य स तथा 'हरिसवसत्ति-अनेन 'हरिसवसविसप्पमाणहियए'त्ति द्रष्टव्यं, धाराहतं यत्कदम्बकं-कदम्बपुष्पं तद्वत् समुच्छ्रितरोमकूपो रोमाञ्चित इत्यर्थः; 'निसट्टे'त्ति-निःसृष्टो दत्तः । अनगारवर्णको वाच्यः, स चाय-'ईरियासमिए, भासासमिए, एसणासमिए, आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए, उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्लपरिट्ठावणियासमिए, मणसमिए वयसमिए; कायसमिए मणगुत्ते ३,'-मन:प्रभृतीनां समितिः-सत्प्रवृत्तिः, गुप्तिस्तु-निरोधः, अत एव 'गुत्ते गुतिदिए गुत्तभयारी' ब्रह्मगुप्तिभिः; चाई-सङ्गानां वण्णे लज्जू-रज्जुरिवावक्रव्यवहारात् लजालुर्वा, संयमेन लौकिकलजया वा, 'तवस्सी खंतिखमे' क्षान्त्या क्षमते यः स तथा; 'जिंहदिए सोही'-शोधयत्यात्मपराविति शोधी, शोभी वा, 'अणिदाणे अप्पुस्सुए'-अल्पौत्सुक्योऽनुत्सुक इत्यर्थः, 'अबहिल्लेसेसंयमादवहितचित्तवृत्तिः,'सुसामण्णरए इणमेव निग्गंथं पावयणं पुरोत्तिक विहरई'-निर्ग्रन्थप्रवचनानुमार्गेण इत्यर्थः॥३३॥ तते णं से मेहे अणगारे अन्नया कदाइ समणं भगवं. वंदति, नमसति २; एवं वदासी-इच्छामिणं भंते :, तुम्भेहिं अब्भणुनाते समाणे मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया, मा पडिबन्धं करेह; तते णं से मेहे समणेणं भगवया० अब्भणुन्नाते समाणे मासियं भिक्खुपडिम उवसंपन्जित्ताणं विहरति, मासियं भिक्खुपडिमं अहासुत्तं, अहाकप्पं, अहामग्ग०, सम्मं कारणं फासेति, पालेति, सोभेति, तीरेति, किद्देति सम्म कारण फासेत्ता, पालित्ता, सोभेत्ता, तीरेत्ता, किदृत्ता, CASSESAKAL |GAO ज ॥७७॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8| पुणरवि समणं भगवं महावीरं वंदति, नमंसति २ ता; एवं वदासी-इच्छामि णं भंते !, तुन्भेहिं अब्भ गुन्नाते समाणे पदोमासियं भिक्खुपडिमं उवसंपजित्ता णं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबन्धं करेह जहा पढमाए अभिलावो तहा दोचाए, तच्चाए, चउत्थाए, पंचमाए, छम्मासियाए, सत्तमासियाए, पढमसत्तराइंदियाए, दोचं सत्तरातिदियाए, तइयं सत्तरातिदियाए, अहोरातिदियाएवि, एगराइंदियाएवि; तते णं से मेहे अणगारे वारस भिक्खुपडिमाओ सम्मं कारणं फासेत्ता, पालेत्ता, सोभेत्ता, तीरेत्ता, किद्देत्ता; पुणरवि वंदति, नमसइ २.त्ता; एवं वदासी-इच्छामि णं भंते !, तुम्भेहिं अन्भणुन्नाए समाणे गुणरतणसंवच्छरं तवोकम्म उवसंपजिता णं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया!, मा पडिबंघ करेह; तते णं से मेहे अणगारे पढमं मासं चउत्थंचउत्थेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुए की सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं, अवाउडतेणं, दोचं मासं छटुंछट्टेणं, तचं मासं अट्ठमंअट्ठमेणं. चउत्थं मासं दसम २ अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुड़ए, सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्तिं वीरासणेणं अवाउडतेणं; पंचम मास दुवालसमं २, अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुक्कुडूए सूराभिमुहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे रत्तिं वीरासणेणं अवाउडतेणं एवं खलु एएणं अभिलावेणं छटे चोदसमं २, सत्तमे सोलसमं २, अट्ठमे अट्ठारसमं २, नवमे 55 एतदन्तर्गतः पाठः 'अ' प्रतौ नास्ति.. TRAIजIनागरिक Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ECAF- नवाङ्गी१०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥७८॥ ALARAKASHAKAKKARX वीसतिमं २, दशमे बावीसतिम २, एक्कारसमे चउव्वीसतिमं २, बारसमे छब्बीसतिमं २, तेरसमे अट्ठा- १-उत्क्षिवीसतिमं २, चोइसमे तीसइमं २, पंचदसमे बत्तीसतिम २, सोलसमे चउत्तीसतिमं अणिक्खित्तेणं तवो प्ताध्य० कम्मेणं दिया ठाणुक्कुडुएणं, सूराभिमूहे, आयावणभूमीए आयावेमाणे, रत्ति वीरासणेण य, अवा- श्रीमेघउडतेण य; तते णं से मेहे अणगारे गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं अहासुत्तं जाव सम्मं काएक फासेइ, कुमारस्य पालेह, सोभेइ, तीरेइ, किडेह अहासुत्तं, अहाकप्पं, जाव कित्ता समण भगवं महावीरं वदति, नमं. प्रतिमासति २; बहूहिं छट्ठमदसमदुवालसेहि, मासद्धमासखमणेहिं, विचित्तेहि, तवोकम्मेहिं; अप्पाणं भावे. ४ वहनादिमाणे विहरति ॥ सूत्रम्-३४॥ वर्णनम् । ___ 'अहासुहं'ति-यथासुखं सुखानतिक्रमेण मा पडिबन्ध-विधातं विधेहि विवक्षितस्येति गम्यं । 'भिक्खुपडिम'तिअभिग्रहविशेषः, प्रथमा एकमासिकी, एवं द्वितीयाद्याः सप्तम्यन्ताः क्रमेण द्वित्रिचतुष्पश्चषट्सप्तमासमाना: अष्टमीनवमीदशम्यः प्रत्येकं सप्ताहोरात्रमानाः, एकादशी अहोरात्रमाना, द्वादशी एकरात्रमानेति, तत्र-"पडिवजइ एयाओ संघयणधिहजुः | ओ महासत्तो । पडिमाओ भावियप्पा सम्मं गुरुणा अणुनाओ ॥ १॥ गच्छेच्चिय निम्माओ जा पुवा दस भवे असंपुण्णा । नवमस्स तइय वत्थू होइ जहन्नो सुयाहिगमो ॥२॥ वोसढचत्तदेहो उवसग्गसहो जहेब जिणकप्पी । एसण अभिग्गहिया भत्तं च अलेवडं तस्स ॥३॥ दुस्सहत्थिमाइ तओ भएणं पयंपि नोसरह । एमाइ नियमसेवी विहरह जाऽखंडिओ मासो॥४॥" ___ सा० प्रतिपद्यते एताः संहननधृतियुतो महासत्वः । प्रतिमा भावितात्मा सम्यगू गुरुणाऽनुज्ञातः ॥1॥ गच्छ एव निर्मातो यावत्पूर्वाणि दश भवन्ति ।। ॥ ७८॥ बाजाॐHARIRIKA Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादिग्रन्थान्तराभिहितो विधिरासां द्रष्टव्यः । यच्चेह एकादशाङ्गविदोऽपि मेघानगारस्य प्रतिमानुष्ठानं भणितं, तत्सर्ववेदिसमुपदिष्टत्वादनवद्यमव सेयमितिः 'यथासूत्र' - सूत्रानतिक्रमेण, 'यथाकल्प' - प्रतिमाचारानतिक्रमेण, 'यथामार्ग' - ज्ञानाद्यनतिक्रमेण क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा, कायेन न मनोरथमात्रेण; 'फासेइ'त्ति - उचितकाले विधिना ग्रहणात्, 'पालयति' - असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात्, 'शोभयति' - पारण कदिने गुरुदत्तशेषभोजन करणात् शोधयति वा - अतिचारपङ्कक्षालनात्, 'तीरयति' - पूर्णेऽपि काले स्तोककालमवस्थानात्, 'कीर्त्तयति' - पारण कदिने इदं चेदं चैतस्याः कृत्यं कृतमित्येवं कीर्त्तनात् । गुणानां - निर्जराविशेषाणां रचना करणं, संवत्सरेण - सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तत्तपो गुणरचनसंवत्सरं, गुणा एव वा रत्नानि यत्र स तथा गुणरत्नः संवत्सरो यत्र तपसि तद्गुणरत्न संवत्सरमिति, इह च त्रयोदश मासाः सप्तदश दिनाधिकास्तपः कालः, त्रिसप्ततिश्च दिनानि पारणककाल इति एवं चायं - " पण्णरस वीस चउवीस चेव चउवीस पणवीसा य । चउवीस एकवीसा चउवीसा सत्तावीसा य ॥ १ ॥ तीसा तेत्तीसावि य चउवीस छवीस अट्ठवीसर य । तीसा बत्तीसावि य सोलस मासेसु तवदिवसा ॥ २ ॥ पनरसदसठ्ठ छप्पंच चउर पंचसु य तिष्णि तिणित्ति । पंचसु दो दो य तहा सोलसमासेसु पारणगा || ३ |" इह च यत्र मासे अष्टमादितपसो यावन्ति दिनानि न पूर्यन्ते, तावन्त्यग्रेतनमासादाकृष्य पूरणीयान्यधिकानि चाग्रेतनमासे क्षेतव्यानीति । 'चउत्थ' मित्यादि, चत्वारि मक्तानि यत्र त्यज्यन्ते तच्चतुर्थ, इयं चोप असंपूर्णानि, नवमस्य तृतीयं वस्तु भवति श्रुताधिगमो जघन्यः ॥ २ ॥ व्युत्सृष्टत्यतदेह उपसर्गसहो यथैव जिनकल्पी । एषणाऽभिप्रहयुता भक्तं वालेपकृतस्य ॥ ३ ॥ दुधश्वहस्त्यादयः ( आगच्छेयुः ) ततो भयेन पदमपि नापसरति । एवमादि नियमसेवी विहरति यावदखण्डितो मासः ॥ ४ ॥ पश्य, पृ. ७८ तमे । ૧૪ ||: JPE Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी १०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १-श्रीउत्विप्ताध्य. मेषकुमारस्थानशनविचारः। ॥७९॥ वासस्य संज्ञा, एवं षष्ठादिरूपवासद्यादेरिति, 'अणिक्खित्तेणं'ति-अविश्रान्तेन, 'दिया ठाणुक्कुडुएणं-दिवा-दिवसे स्थान-आसनमुक्कुटुकं आसनेषु पुतालगनरूपं यस्य स तथा, आतापयन्-आतापनां कुर्वन् 'वीरासणणं ति-सिंहासनोपविष्टस्य भुवि न्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्येव यदवस्थानं तद्वीरासनं तेन व्यवस्थित इति गम्यते । किंभूतेन अप्रावृतेनअविद्यमानप्रावरणेन स एव वा अप्रावृतः, णकारस्तु अलङ्कारार्थः ॥ ३४ ॥ तते णं से मेहे अणगारे तेणं उरालेणं, विपुलेणं, सस्सिरीएणं, पयत्तेणं, पग्गहिएणं, कल्लाणेणं, सिवेणं, धन्नेणं, मंगल्लेणं, उदग्गेणं, उदारएणं, उत्तमेणं, महाणुभावेणं, तवोकम्मेण; सुक्के, भुक्खे, लुक्खे, निम्मंसे, निस्सोणिए, किडिकिडियाभूए, अढिचम्मावणद्धे, किसे धमणिसंतए जाते यावि होत्था; जीवं जीवेणं गच्छति, जीवं जीवेणं चिट्ठति; भासं भासित्ता गिलायति, भासं भासमाणे गिलायति, भासं भासिस्सामित्ति गिलायति; से जहा नामए इंगालसगडियाइ वा, कट्ठसगडियाइ वा, पत्तसगडियाइ वा, तिलसगडियाइ वा, एरंडकट्ठसगडियाइ वा, उण्हे दिन्ना सुक्का समाणी ससई गच्छइ, ससई चिट्ठति; एवामेव मेहे अणगारे ससई गच्छइ, ससई चिट्ठ; उवचिए तवेणं, अवचिते मंससोणिएणं, हुयासणे इव भासरासिपरिच्छन्न, तवेणं तेएणं तवतेयसिरीए; अतीव अतीव उवसोभेमाणे २ चिट्ठति । तेणं कालेणं, तेणं समएणं, समणे भगवं महावीरे आइगरे, तित्थगरे जाव पुव्वाणुपुर्दिव चरमाणे, गामाणुगाम दुतिजमाणे, सुहंसुहेणं विहरमाणे; जेणामेव रायगिहे नगरे, जेणामेव गुणसिलए चेतिए, तेणामेव CATARA ॥७९॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IACASSEX ROCRACROSAROKAR उवागच्छति २ त्ता; अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरतिर तते णं तस्स मेहस्स अणगारस्स राओ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झस्थिते जाव समुपज्जित्था-एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं तहेव जाव भासं भासि. स्सामीति गिलामि, तं अस्थि ता मे उहाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसकारपरकमे; सद्धा धिई संवेगे तं जाव ता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे, बले, वीरिए; पुरिसगारपरक्कमे, सद्धा धिई संवेगे जाव इमे धम्मायरिए, धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहस्थी विहरति, ताव ताव मे सेयं कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव तेयसा जलंते सूरे समणं ३, वंदित्ता, नमंसित्ता; समणेणं भगवता महावीरेणं अन्भणुन्नायस्स समाणस्स सयमेव पंच महव्वयाइं आरुहित्ता, गोयमादिए समणे निग्गंथे निग्गंधीओ य खामेत्ता, तहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विउलं पव्वयं २ सणियं सणियं दुरूहित्ता, सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहेत्ता, संलेहणाझूसणाए झूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खितस्स पाओवगयस्स कालं अणवखमाणस्स विहरित्तए; एवं संपेहेति २, कल्लं पाउप्पभायाए रयणी जाव जलंते जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २, समणं ३, तिक्खुत्तो आदाहिणं पदाहिणं करेइ २ त्ता, वंदति, नमसति २, नचासन्ने नातिदूरे सुस्सूसमाणे, नमसमाणे, अभिमुहे विणएण पंजलियपुडे पज्जुवासति; मेहेत्ति समणे भगवं महावीरे मेहं अणगारं एवं वदासी-से णणं तव मेहा ! नाना Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी १०० बीज्ञाताधर्मकथाले १-श्रीउत्विप्ताध्य. मेघकुमारस्याराधना। ॥८ ॥ CHORRINHO राओ पुम्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिते जाव समु. पन्जित्था-एवं खलु अहं इमणं ओरालेणं जाव जेणेव अहं तेणेव हव्वमागए, से ण मेहा अढे समढे १, हंता अत्थि, अहासुहं देवाणुप्पिया!, मा पडिबंधं करेह तते णं से मेहे अणगारे समणेणं भगवया० अन्भणुनाए समाणे हह जाव हियए उट्ठाइ उद्वेइ २ त्ता, समणं ३, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २त्ता, वंदह, नमंसह २त्ता, सयमेव पंच महव्वयाई आरुभेइ २ त्ता, गोयमातिसमणे निग्गंथे, निग्गंथीओ य खामेति, खामेत्ता य, तहारूवेहिं कडाईहिं थेरेहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं सणिय २, दुरूहति २, सयमेव मेहघणसन्निगासं पुढविसिलापट्टयं पडिलेहति २, उच्चारपासवणभूमि पडिलेहति २, दन्भसंथारंग संथरति,२, दब्भसंथारगं दुरूहति २, पुरत्थाभिमुह, संपलियंकनिसन्ने; करयलपरिग्गहियं सिरसा. वत्तं मत्थए अंजलिं कटु, एवं वदासी-नमोऽत्थु णं अरिहंताणं, भगवंताणं, जाव संपत्ताणं; णमो थु णं समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस्स; वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे भगवं तत्थगते इहगतं तिकट्ठ वंदति, नमंसह २ त्ता; एवं वदासी-पुब्बिपिय णं मए समणस्स ३, अंतिए सव्वे पाणाइवाए पञ्चक्खाए, मुसावाए, अदिनादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे, माणे, माया, लोभे, पेज्जे, दोसे, कलहे, अन्भक्खाणे, पेसुन्ने, परपरिवाए, अरतिरति, मायामोसे, मिच्छादसणसल्ले, SCIENCAFEIANE १ उट्ठाए २त्ता भा . Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पञ्चकखाते; इयाणिपि णं अहं तस्सेव अंतिए सव्वं पाणातिवायं पञ्चक्वामि जाव मिच्छादंसणसलं पचक्खामि सव्वं असणपाणखादिमसातिमं चउव्विपि आहारं पञ्चक्खामि जावज्जीवाए; जंपि य इमं सरीरं इटुं कपियं जाव विविहा रोगायंका परीस होवसग्गा फुसंती तिकडु, एयंपिय णं चरमेहिं ऊसासनिस्सा से हिं वोसिरामित्तिकद्दु, संलेहणा झूसणा झूसिए भत्तपाणपडियाइ क्खिए पाओवगए कालं अणवकखमाणे विहरति; तते णं ते घेरा भगवंतो मेहस्स अणगारस्स अगिलाए वैयावडियं करेंति । तते णं से मेहे अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एकारस अंगाई अहिजित्ता, बहुपडिन्नाई दुवालस वरिसाई सामन्नपरियागं पाउणित्ता, मासियाए संदेहणाए अप्पाणं झोसेत्ता, सद्वि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता, आलोतियपडिकंते, उद्धियसल्ले, समाहिपत्ते, आणुपुव्वेणं, कालगए; तणं तेरा भगवंतो मेहं अणगारं आणुपुत्र्वेणं कालगयं पार्सेति २, परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सगं करेंत २, मेहस्स आयारभंडयं गेण्हंति २, विउलाओ पव्वयाओ सणियं २, पचोरुहंति २; जेणामेव गुण सिलए चेइए, जेणामेव समणे भगवं महावीरे, तेणामेव उवागच्छति २ त्ता, समणं ३, बंदंति, नमसंति २त्ता एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी मेहे णामं अणगारे पगइभद्दए जाव विणीते, से णं देवापिएहिं अन्भणुन्नाए समाणे गोतमातिए समणे निग्गंथे निरगंथीओ य खामेत्ता, अम्हेहिं सद्धि विलं पव्वयं सणियं २, दुरूहति २ सयमेव मेघघणसन्निगासं पुढविसिलं पट्टयं पडिलेहेति २, Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १-श्रीउत्क्षिप्ताध्य. मेषकुमारस्य गतिः। 1८१॥ RAKAASARAGARH भत्तपाणपडियाइक्वित्ते अणुपुव्वेणं कालगए, एस णं देवाणुप्पिया मेहस्स अणगारस्त आयारभंडए ।। सूत्रम्-३५ ॥ भंतेत्ति भगवं गोतमे समणं ३, उ वंदति नमंसति २त्ता एवं वदासी-एवं खलु देवाणुपियाणं अंतेवासी मेहे णाम अणगारे से णं भंते !, मेहे अणगारे कालमासे कालं किचा, कहिं गए? कहिं उववन्ने ?, गोतमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं-वयासी एवं खलु गोयमा!, मम अंतेवासी मेहे णाम अणगारे पगतिभद्दए जाव विणीए से णं तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमाझ्यातिं एक्कारस अंगाति अहिज्जति २, बारस भिक्खुपडिमाओ, गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं कारणं, फासेत्ता जाव किदृत्ता; मए अब्भणुनाए समाणे गोयमाइ थेरे खामेइ २, तहारूवेहिं जाव विउलं पब्वयं दुरूहति २, दभसंथारगं संथरति २, दम्भसंथारोवगए सयमेव पंच महव्वए उच्चारेइ, बारस वासाति सामण्णपरिगाय पाउणित्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झुसित्ता, सहि भत्तातिं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइयपडिकते, उद्धियसल्ले, समाहिपत्ते, कालमासे कालं किच्चा; उद्धं चंदिमसूरगहगणणक्खत्ततारारूवाणं बहुई जोयणाई, बहई जोयणसयाई, बहूइं जोयणसहस्साइं, बहुइं जोयणसयसहस्साई, बहूइ जोयण. कोडीओ, बहूइ जोयणकोडाकोडीओ; उ8 दूरं उप्पइत्ता सोहंमी-साण-सणंकुमार-माहिद-बंभ-लं-लगमहासुक-सहस्सारा-णय-पाणया-रण-च्चुते, तिणि य अट्ठारसुत्तरे गेवेजविमाणावाससए वीइवइत्ता, .१ गोयभाएहि स० अ। CIAFIRST पहा॥८१ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECASS A विजए महाविमाणे देवत्ताए उववण्णे; तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं तेत्तीसं सागारोवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं मेहस्सवि देवस्स तेत्तीसं सागरोवमातिं ठिती पं०; एस णं भंते !, मेहे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं, ठितिक्खएणं, भवक्खएणं; अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छिहिति ?, कहिं उववजिहिति ?; गो.! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, बुज्झिहिति, मुचिहिति, परिनिव्वाहिति, सब्वदुक्खाणमंतं काहिति। एवं खलु जंबू !, समणेणं भगवया महावीरेणं, आइगरेणं, तित्थगरेणं जाव संपत्तेणं अप्पोपालंभनिमित्तं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्तिबेमि ।। सूत्रम्-३६ ॥ पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ 'उरालेण' मित्यादि, उरालेन-प्रधानेन विपुलेन-बहुदिनत्वाद्विस्तीणन सश्रीकेण-सशोभेन, 'पयत्तेणं'ति-गुरुणा प्रदतेन प्रयत्नवता वा प्रमादरहितेनेत्यर्थः, प्रगृहीतेन-बहुमानप्रकर्षाद्गृहीतेन, कल्याणेन-नीरोगताकरणेन, शिवेन शिवहेतुत्वात् , धन्येन-धनावहत्वात , मङ्गल्येन-दुरितोपशमे साधुत्वात् , उदग्रेण-तीव्रण, उदारेण-औदार्यवता, निःस्पृहत्वातिरेकात् । 'उत्तमेणं'ति-ऊर्द्ध तमसा-अज्ञानाद्यत्तत्तथा तेन अज्ञानरहितेनेत्यर्थः, महानुभागेन-अचिन्त्यसामर्थ्येन शुष्को नीरसशरीरत्वात् , 'भुक्खे'त्ति-बुभुक्षावशेन रूक्षीभूतत्वात् किटिकिटिका-निर्मासास्थिसम्बन्धी उपवेशनादिक्रियाभावी शब्दविशेषः तां भूत:-प्राप्तो यः स तथा, अस्थीनि चर्मणाऽवनद्धानि यस्य स तथा, कृशो-दुर्बलो धमनीसन्ततः-नाडीव्याप्तो जातश्चाप्यभुत्, 'जीवं जीवेणं गच्छति'-जीवचलेन-शरीरबलेनेत्यर्थः, 'भासं भासित्ता' इत्यादौ कालत्रयनिर्देशः, 'गिलायति'ति-ग्लायति | ग्लानो भवति'सेइति अथार्थः, अथशब्दश्च वाक्योपक्षेपार्थः, यथा-दृष्टान्तार्थः, नामेति संभावनायां एवेति वाक्यालङ्कारे CATEDCRICARICA CROCESCASEARCate Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी मीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १-श्रीउत्थिप्ताध्य. | मेषकुमा रस्याराधना। ॥८२ ॥ RECORRESCARSHAN अङ्गाराणां भृता शकटिका-गन्त्री अङ्गारशकटिका, एवं काष्ठानां पत्राणां पर्णानां 'तिलति-तिलदण्डकानां एरण्डशकटिकाएरण्डकाष्ठमयी, आतपे दत्ता शुष्का सतीति विशेषणद्वयं, आर्द्रकाष्ठपत्रभृतायाः तस्या न (शब्दः) संभवति इतिशब्द उपप्रदर्शनार्थः, वाशब्दा विकल्पार्थाः, सशब्दं गच्छति तिष्ठति वा, एवमेव मेघोऽनगार: सशब्दं गच्छति, सशब्दं तिष्ठति, हुताशन इव भस्मराशिप्रतिच्छन्नः, 'तवेणं'ति-तपोलक्षणेन तेजसा, अयमभिप्रायो-यथा भस्मच्छन्नोऽग्निर्बहिवृत्त्या तेजो. रहितोऽन्तर्वृपया तु ज्वलति एवं मेघोऽनगारोऽपि बहिवृत्त्याऽपचितमांसादित्वानिस्तेजा अन्तया तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति; उक्तमेवाह-तपस्तेजःश्रिया अतीवातीव उपशोभमानः २, तिष्ठतीति । 'तं अस्थि ता मे'त्ति-तदेवमस्ति तावन्मे उत्थानादि न सर्वथा क्षीणं तदिति भावः, 'तं जाव ता मेत्ति-तत्-तस्मात् यावन्मेऽस्ति उत्थानादि ता इति भाषामात्रेण यावच्च मे धर्माचार्यः, 'सुहत्थी'ति-पुरुषवरगन्धहस्ती शुभाः वा थायिकज्ञानादयोऽर्था यस्य स तथा, 'ताव ताव'त्ति-तावच्च तावच्चेति वस्तुद्वयापेक्षा द्विरुक्तिः, 'कडाईहिं'ति-कृतयोग्यादिभिः, 'मेहघणसन्निगासं' ति-घनमेघसदृशं कालमित्यर्थः, 'भत्तपाणपडियाइक्खियस्स'त्ति-प्रत्याख्यातभक्तपानस्य, 'कालं'ति-मरणं, 'जेणेव इहं'ति-इहशब्दविषयं स्थानं इदमित्यर्थः; 'संपलियंकनिसणे'ति-पद्मासनसन्निविष्टः, 'पेजे'त्ति-अभिष्वङ्गमात्रं, 'दोस' त्ति-अप्रीतिमात्र, अभ्याख्यान-असदोषारोपणं, पैशून्यं-पिशुनकर्म, परपरिवाद:-विप्रकीर्णपरदोषकथा, अरतिरती-धर्माधर्माङ्गेषु, मायामृषा-वेषान्तरकरणतो लोकविप्रतारण: संलेखनां-कषायशरीरकशा स्पृशतीति संलेखनास्पर्शकः । पाठान्तरेण १ तस्याः सं० । ICADAILASS Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिनिव्वाणवृत्तियाचय, किल दिने २३ समाजमा, अप्पाणं । 'संलेहणाभूसणाभूसिय'त्ति-संलेखनासेवनजुष्टः इत्यर्थः। 'मासियाए'त्ति-मासिक्या मासपरिमाणया, 'अप्पाणं भूसितेत्ति-क्षपयित्वा षष्टिं भक्तानि, 'अणसणाए'त्ति-अनशनेन, छिवा-व्यवच्छेद्य, किल दिने २ द्वे वे भोजने लोकः कुरुते, एवं च त्रिंशता दिनैः षष्टिभक्तानां परित्यक्ता भवतीति; 'परिनिव्वाणवत्तिय'त्ति-परिनिर्वाणमुपरतिमरणमित्यर्थः, तत्प्रत्ययो-निमित्तं यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययः मृतकपरिष्ठापनाकायोत्सर्ग इत्यर्थः, तं कायोत्सर्ग कुर्वन्ति; 'आयारभंडगं'तिआचाराय-ज्ञानादिभेदभिन्नाय भाण्डक-उपकरणं, वर्षाकल्पादि आचारभाण्डकं, 'पगइभद्दए' इत्यत्र यावत्करणादेवं दृश्यं, 'पयइउवसन्ते पगइपयणुकोहमाणमायालोमे मिउमद्दवसंपन्ने आलीणे भद्दए विणीए'त्ति-तत्र प्रकृत्यैव-स्वभावेनैव, भद्रकाअनुकूलवृत्तिः, प्रकृत्येवोपशान्त:-उपशान्ताकारा मृदु च तन्माईवं च मृदुमाईवं-अत्यन्तमार्दवं इत्यर्थः, आलीन:-आश्रितो गुर्वननुशासनेऽपि सुभद्रक एव यः स तथा, 'कहिं गए'त्ति-कस्यां गतौ गतः १, क च देवलोकादौ उत्पन्नो ?, जातः १; विजयविमानमनुत्तरविमानानां प्रथमं पूर्व दिग्भागवर्ति, तत्रोत्कृष्टादिस्थितेर्भावादाह-'तत्थे त्यादि, आयुःक्षयेण-आयुर्दलिकनिर्जरणेन, स्थितिक्षयेण-आयुःकर्मणः स्थितेवेदनेन भवक्षयेण-देवभवनिबन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेनेति । अनन्तरं देवभवसम्बन्धिनं चयं-शरीरं 'चइत्त'त्ति-त्यक्त्वा, अथवा च्यवं-च्यवनं कृत्वा सेत्स्यति । निष्ठितार्थतया विशेषतः सिद्धि| गमनयोग्यतया महर्द्धिप्राप्त्या वा भोत्स्यते केवलालोकेन, मोक्ष्यते सकलकर्माशै, परिनिर्वास्यति-स्वस्थो भविष्यति, सकलकर्मकृतविकारविरहिततया किमुक्तं भवति ?,-सर्वदुःखानामन्तं करिष्यतीति । 'एवं खल्वि'त्यादि, निगमनं ' अप्पोपालंभनिमित्तं'-आप्तेन हितेन गुरुणेत्यर्थः, उपालम्भो-विनेयस्याविहितविधायिनः आप्तोपालम्भः स निमित्तं यस्य नानाAFECIRITERRICALHRIS Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०० श्रीज्ञाताधर्मकथाते AARAKAR प्रज्ञापनस्य तत्तथा। प्रथमस्य ज्ञाताध्ययनस्याय-अनन्तरोदितः मेषकुमारचरितलक्षणोऽर्थोऽभिधेयः, प्रज्ञप्त:-अभिहितः। अविधिप्रवृत्तस्य शिष्यस्य गुरुणा मार्ग स्थापनाय उपालम्भो देयो, यथा भगवता दत्तो मेघकुमारयेत्येवमर्थ प्रथम मध्ययनमित्यभिप्रायः । इह गाथा-महुरेहिं निउणेहिं वयणेहिं चोययंति आयरिया। सीसे कहिंचि खलिए जह मेहमुर्णि महावीरो ॥१॥ ___इतिशब्दः समाप्तौ, ब्रवीमीति-प्रतिपादयाम्येतदहं तीर्थकरोपदेशेन, न स्वकीयबुद्ध्या, इत्येवं गुरुवचनपारतन्त्र्यं सुधर्मस्वामी आत्मनो जम्बूस्वामिने प्रतिपादयति एवमन्येनापि मुमुक्षणा भवितव्यमित्येतदुपदर्शनार्थमिति ॥ जाताधर्मकथायां प्रथममुक्षिताध्ययनं ज्ञातविवरणं मेघकुमारकथानकाख्यं समाप्तम् ॥ उत्विप्ताध्य० अध्ययनोपसंहारः। ॥८३॥ SAFECASIRFECE २-अथ श्रीसंघाटाख्यं ज्ञाताध्ययनम्॥ अस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः, पूर्वस्मिन्ननुचितप्रवृत्तिकस्य शिष्यस्य उपालम्म उक्त इह त्वनुचित्तप्रवृत्तिकोचितप्रवृत्तिकयोरनर्थार्थप्राप्तिपरम्पराऽभिधीयते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमुपक्षेपसूत्रम् जति भंते !, समणेणं भगवया महावीरेणं पढमस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते; वितीयस्स णं भंते !, नायज्झयणस्स के अहे पन्नत्ते, एवं खलु जंबू, तेणं कालेणं, तेणं समएणं, रायगिहे णाम सा. 'मधुरैनिपुणैर्वचनैः स्थापयन्ति भाचार्याः । शिष्य कचित् स्खलिते यथा मेघमुनि महावीरः ॥ १॥ ॥ ८३॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयरे होत्था वन्नओ; तस्स णं रायगिहस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गुणसिलए नाम चेतिए होत्था वन्नओ, तस्स णं गुणसिलयस्स चेतियस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे जिण्णुज्जाणे यावि होत्था, विणट्ठदेवउले परिसडियतोरणघरे नाणविहगुच्छगुम्मलयावल्लिवच्छाइए अणेगवालसयसंकणिज्जे यावि होत्था, तस्स णं जिन्नुजाणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगे भग्गकूवए यावि होत्था, तस्स णं भग्गवस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए यावि होत्था, किण्हे किण्होभासे जाव रम्मे महामेहनिउरंवभूते बहहिं रुक्खेहि य, गुच्छेहि य, गुम्मेहि य, लयाहि य, वल्लीहि य, कुसेहि य, खाणएहि य संच्छन्ने, पलिच्छन्ने, अंतो झुसिरे याहिं गंभीरे अणेगवालसयसंकणिज्जे यावि होत्था ॥ सूत्रम्-३७ ॥ 'जइ 'मित्यादि, कण्ठ्य एवं खल्वि'त्यादि तु प्रकृताध्ययनार्थसूत्रं सुगम चैतत्सर्व नवरं जीर्णोद्यानं चाप्यभूत् । चापीति समुच्चये, अपिचेत्यादिवत् विनष्टानि देवकुलानि परिसटितानि तोरणानि प्राकारद्वारदेवकुलसम्बन्धीनि गृहाणि च | यत्र तत्तथा, नानाविधा ये गुच्छा-वृन्ताकीप्रभृतयः, गुल्मा-वंशजालीप्रभृतयः, लताः-अशोकलतादयः, वल्लया-त्रपुषीप्रभृतयः, वृक्षाः-सहकारादयः, तैः छादितं यत्तत्तथा; अनेकालशतैः-श्वापदशतैः शङ्कनीयं-भयजनकं चाप्यभूत्, शङ्क: नीयमित्येद्विशेषणसम्बन्धत्वात्क्रियावचनस्य न पुनरुक्तता, 'मालुकाकच्छए'ति-एकास्थिफलाः वृक्षविशेषाः मालुकाः प्रज्ञापनाभिहितास्तेषां कक्षो-गहनं मालुकाकक्षः, चिटिकाकच्छक इति तु जीवाभिगमचूर्णिकारः। 'किण्हे किण्हो. भासे इह यावत्करणादिदं दृश्यं, "नीले नीलोमासे, हरिए हरिओमासे, सीए सीओभासे, निद्धे निद्धोभासे, तिव्वे तिब्बो ACANCIECCASE SARKABIRGAFRAIIT-%AF-CA Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी- १०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥८४॥ २-श्रीसंघाटकाध्य. जीर्णोद्यानवर्णनम् । AS भासे किण्हे किण्हच्छाए, नीले नीलेच्छाए, हरिए हरियच्छाए, सीये सीयच्छाए, निद्धे निद्धच्छाए, तिचे तिबच्छाए; धण कडियडच्छाए'त्ति कृष्णा-कृष्णवर्णः अञ्जनवत् स्वरूपेण कृष्णवर्ण एवावभासते-द्रष्ट्रणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः, | किल किश्चिद्वस्तु स्वरूपेण भवत्यन्यादृशं प्रतिभासते तु सन्निधानविप्रकर्षादेः कारणादन्यादृशमिति, एवं कचिदसौ नीलो मयूरग्रीवेव, कचित्-हरितः शुकपिच्छवत्, हरितालाभ इति श्रद्धाः, तथा शीतः स्पर्शतः वल्ल्याद्याक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः, स्रिग्धो न रूक्षः तीव्रो वर्णादिगुणप्रकर्षवान् तथा कृष्णः सन् वर्णतः कृष्णच्छायः, छाया च-दीप्तिरादित्यकरावरणजनिता वेति; एवमन्यत्रापि 'धणकडियडच्छाए'त्ति-अन्योऽन्यशाखाप्रशाखानुप्रवेशात् घननिरन्तरच्छायो रम्यो महामेघानां निकुरम्बः-समूहस्तद्वद् यः स महामेघनिकुरम्बभूतः, वाचनान्तरे त्विदमधिकं पठ्यते-'पत्तिए पुफिए फलिए हरियगरेरिजमाणे' हरितकश्चासौ रेरिजमाणेत्ति-भृशं राजमानश्च यः स तथा, "सिरीए अईव २ उबसोमेमाणे चिट्ठति श्रिया-वनलक्ष्म्या अतीव २ उपशोभमानस्तिष्ठति 'कुसेहि यत्ति दमै, क्वचित्-'कूविएहि यति पाठः, तत्र कूपिकाभिः लिङ्गव्यत्ययात् 'खाणुएहिन्ति-स्थाणुभिश्च, पाठान्तरेण-'खत्तएहिति-खातगतरित्यर्थः, अथवा-'कृविएहिति चोरगवेषकैः ‘खत्तएहिति खातकैः क्षेत्रस्येति गम्यते चौररित्यर्थः, अयमभिप्रायो-गहनत्वात् तस्य तत्र चौराः प्रविशन्ति तद्गवेषणार्थमितरे चेति, संछनो-व्याप्तः परिछन्नः-समन्तात अन्तः-मध्ये शुषिरः सावकाशत्वात् बहिर्गमीरो दृष्टेरप्रक्रमणात् । तत्थ णं रायगिहे नगरे, धपणे नामं सत्यवाहे, अड्डे दित्ते जाव विउलभत्तपाणे; तस्स णं धण्णस्स सत्यवाहस्स भद्दा नामं भारिया होत्था, सुकुमालपाणिपाया, अहीणपडिपुण्णपंचिंदियसरीरा, लक्खण जाशा ॥८४॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंजणगुणोववेया, माणुम्माणष्पमाणपडि पुन्नसुजात सब्वंग सुंदरंगी, ससिसोमागारा, कंता, पियदंसणा, सुरूवा, करयल परिमियतिवलियमज्झा, कुंडलुल्लिहिय गंडलेहा, कोमुदिरयणियर पडिपुण्णसोमवयणा, सिंगारागार चारुवेसा जाव पडिरूवा, वंझा अवियाउरी जाणुकोप्परमाया यावि होत्था || सूत्रम् ३८|| तस्स i aorte सत्थवाहस्स पंथए नाम दासचेडे होत्था, सव्वंग सुंदरंगे मंसोवचिते बालकीलावणकुसले यावि होत्या; तते णं से धण्णे सत्थवाहे, रायगिहे नयरे बहूणं नगरनिगमसेट्ठिसत्थवाहाणं अट्ठारसह य सेणियपसेणीण बहुसु कज्जेसु य कुटुंबेसु य जाव चक्खुभूते यावि होत्था, नियगस्सवि य णं कुटुंबस्स बहु य कज्जे जाव चक्खुभूते यावि होत्था || सूत्र ३९ ॥ तत्थ णं रायगिहे नयरे, विजए नाम तकरे होत्था, पावे चंडालरूवे, भीमतर रुद्द कम्मे, आरुसियदित्तरत्तनयणे, खरफरुस महल्लविगयबी भत्थ (छ) दाढिए, असंपुडितउट्ठे, उद्धय पइन्नलंबंतमुद्धए, भमरराहुवन्ने, निरणुकोसे, निरणुतावे, दारुणे, पइभए, निसंसतिए, निरणुकंपे, अहिव्व एगंतदिट्ठिए, खुरेव एगंतधाराए, गिद्धेव आमिसतल्लिच्छे, अग्गिमिव सव्वभंखे, जलमिव सव्वगाही, उक्कंचणवंचणमायानिय डिकूड कवडसाइसंपओगबहुले, चिरनगरविणट्टदुट्ठसीलायारचरिते; जूयपसंगी, मज्जपसंगी, भोजपसंगी, मंसपसंगी; दारुणे, हिययदारए, साहसिए, संधिच्छेयए, उहिए विस्संभघाती आलीयगतित्थभेयलहुहत्थ संपउत्ते परस्स दव्वहरणंमि निचं अणुबद्धे, तिब्ववेरे; १ क्खी अ । १५ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे श्रीसंघाटकाध्य. विजयतस्करवर्णनम् । 1८५॥ BROADCARDASCALCIA रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अहगमणाणि य, निग्गमणाणि य, दाराणि य, अवदाराणि य, छिडिओ य, खंडीओ य, नगरनिद्धमणाणि य, संवट्टणाणि य, निव्वदृणाणि य, जूवखलयाणि य, पाणागाराणि य, वेसागाराणि य, तद्दारहाणाणि य, तकरहाणाणि य, तकरघराणि य, सिंगाडगाणि य, तियाणि य, चउकाणि य, चच्चराणि य, नागघराणिय, भूयघराणि य, जक्खदेउलाणि य, सभाणि य, पवाणि य, पणियसालाणि य, सुन्नघराणि य; आभोएमाणे २ मग्गमाणे, गवेसमाणे; बहुजणस्स छिद्देसु य, विसमेसु य, विहुरेसु य, वसणेसु य, अब्भुदएसु य, उस्सवेसु य, पसवेसु य, तिहीसु य, छणेसु य, जन्नेसु य, पव्वः | णीसु य; मत्तपमत्तस्स य, वक्खित्तस्स य, वाउलस्स य, सुहितस्स य, दुक्खियस्स विदेसत्थस्स य, विप्पवसियस्स य, मग्गं च, छिई च, विरहं च, अंतरं च मग्गमाणे, गवेसमाणे एवं च ण विहरति; बहियावि यण रायगिहस्स नगरस्स आरामेसु य, उज्जाणेसु य, वावि-पोक्खरणी-दीहिया-गुंजालिया-सरेसु य, सरपंतिसु य, सरसरपंतियासु य, जिण्णुजाणेसु य, भग्गकूवएसु य, मालुयाकच्छएसु य, सुसाणएसु | य, गिरिकंदरलेणउवट्ठाणेसु य, बहुजणस्स छिद्देसु य जाव एवं च णं विहरति ।। सूत्रम्-४०॥ । 'अड्डे दित्ते'-इह यावत्करणादिदं द्रष्टव्यम् । “विच्छिण्ण विउलभवणसयणासणजाणवाहणाइन्ने बहुदासदासीगोमहि. सगवेलगप्पभूए बहुधणबहुजायरूवरयए आओगपओगसंप उत्ते विच्छड्डियविउलमत्तपाणे"त्ति-व्याख्या त्वस्य मेघकुमारराजवर्णकवत् । भद्रावर्णकस्य तु धारिणीवर्णकान्नवरं । 'करयल'त्ति अनेन करयलपरिमियतिबलियमज्झा इति दृश्यं, ॥८५॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACROSSAGACANCERec 'वंझत्ति-अपत्यफलापेक्षया निष्फला, 'अवियाउरित्ति-प्रसवानन्तरमपत्यमरणेनापि फलतो बन्ध्या भवतीत्यत उच्यतेअवियाउरित्ति-अविजननशीला अपत्यानामत एवाह-जानुकूर्पराणामेव माता-जननी जानुकूपरमाता, एतान्येव शरीरांशभूतानि तस्याः स्तनौ स्पृशन्ति नापत्यमित्यर्थः, अथवा जानुकूर्पराण्येव मात्रा-परप्रणोदे साहाय्ये समर्थ उत्सङ्गनिवेशनीयो वा परिकरो यस्या न पुत्रलक्षणः सा जानुकूपरमात्रा । 'दासचेडे'त्ति-दासस्य-भृतकविशेषस्य चेट:-कुमारका दासचेटः अथवा दासश्चासौ चेटश्चेति दासचेटः । 'तक्करे'ति-चौरा, 'पापस्य'-पापकर्मकारिणः, चाण्डालस्येव रूप-स्वभावो यस्य स तथा, चण्डालकर्मापेक्षया भीमतराणि-रौद्राणि कर्माणि यस्य स तथा; 'आरुसिय'त्ति-आरुष्ट स्येव दीप्ते-रक्ते नयने यस्य स तथा, खरपरुषे-अतिकर्कशे महत्यौ विकृते-चीभत्से दंष्ट्रिके-उत्तरोष्ठकेशगुच्छरूपे दशनविशेषरूपे वा यस्य स तथा, असंपुटितौ असंवृतौ वा परस्परालामौ तुच्छत्वाद्दशनदीर्घत्वाच्च ओष्ठौ यस्य स तथा उद्भूता-वायुना प्रकीर्णा लम्बमाना मूर्द्धजा यस्य स तथा, भ्रमरराहुवर्णः कृष्ण इत्यर्थः, 'निरनुक्रोशो-निर्दयो, 'निरनुताप:'-पश्चात्तापरहितः, अत एव 'दारुणो' रौद्रः, अत एव 'प्रतिभयो' भयजनकः, 'निःसंशयिक'-शौर्यातिशयादेव तत्साधयिष्याम्येवेत्येवंप्रवृत्तिका, पाठान्तरे-'निसंसेति-नृन्-नरान् शंसति-हिनस्तीति नृशंसः निःशंसो वा-विगतश्लाघः । 'निरणुकंपेत्ति-विगतप्राणि-| रक्षः निर्गता वा जनानामनुकम्पा यत्र स तथा, अहिरिव एकान्ता-ग्राह्यमेवेदं मयेत्येवमेवनिश्चया दृष्टिर्यस्य स तथा, 'खुरेव एगंतधाराए'सि-एकत्रान्ते-वस्तुभागेऽपहर्तव्यलक्षणे धारा परोपतापप्रधानवृत्तिलक्षणा यस्य स तथा, यथा क्षुरप्रा-एकधारः, मोषकलक्षणैकप्रवृत्तिक एवेति मावः, 'जलमिव सव्वगाहित्ति-यथा जलं सर्व स्वविषयापनमभ्यन्तरीकरोति तथाऽ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णनम् । नवाङ्गी यमपि सर्व गृहातीति भावः, तथा उत्कञ्चनवश्चनमायानिकृतिकूटकपटैः सह योऽतिसंप्रयोगो-गाय तेन बहुल:-प्रचुरो ||२-श्रीसंघ वृ० वृक यः स तथा, तत्र ऊर्ध्व कञ्चनं मूल्याधारोपणार्थ उत्कश्चनं हीनगुणस्य गुणोत्कर्षप्रतिपादनमित्यर्थः वचनं-प्रतारणं माया- |टकाध्य. श्रीज्ञाता-18| परवञ्चनबुद्धिः निकृतिः-बकवृत्त्या गलकर्तकानामिवावस्थानं कूट-कार्षापणतुलादेः परवञ्चनार्थ न्यूनाधिककरणं कपट- विजयधर्मकथाङ्गे हैं नेपथ्यभाषाविपर्ययकरणं एभिरुत्कश्चनादिभिस्सहातिशयेन यः संप्रयोगो-योगस्तेन यो बहुलः स तथा, यदिवा सातिशयेन तस्कर द्रव्येण कस्तूरिकादिना परस्य द्रव्यस्य संप्रयोगः सातिसंप्रयोगः, ततश्चोत्कश्चनादिभिः सातिसंप्रयोगेण च यो बहुलः स ॥८६॥ तथा, उक्तं च सातिप्रयोगशब्दार्थाय-'सो होई साइजोगो दवं जं छुहिय अन्नदवेसु । दोसगुणा वयणेसु य अत्थविसंवायणं कुणइ ॥१॥"-त्ति एकीय व्याख्यानं, व्याख्यानान्तरं पुनरेवं-उत्कोचनं उत्कोचः निकृति:-वश्चनप्रच्छादनार्थ कर्म साति:अविश्रम्भः एतत्संप्रयोगे बहुलः, शेषं तथैव; चिरं-बहुकालं यावत् नगरे नगरस्य वा विनष्टो-विप्लुतः चिरनगरविनष्टः, बहुकालीनो यो नगरविनष्टो भवति स किलात्यन्तं धृतो भवतीत्येवं विशेषितः, तथा दुष्टं शीलं-स्वभावः आकार:-आकृतिचरित्रं च-अनुष्ठानं यस्य स तथा ततः कर्मधारयः, द्यूतप्रसङ्गी-छूतासक्तः एवमितराणि, नवरं भोज्यानि-खण्डखाद्यादीनि, पुनरुणग्रहणं हृदयकारक इत्यस्य विशेषणार्थत्वान्न पुनरुक्तं, लोकानां हृदयानि दारयति-स्फोटयतीति हृदयकारका, पाठान्तरेण 'जणहियाकारए'-जनहितस्याकत्यर्थः, 'साहसिक'-अवितर्कितकारी, 'सन्धिच्छेदक:-क्षेत्रखानका, 'उपधिको'-मायित्वेन प्रच्छन्नचारी, 'विश्रम्भघाती'-विश्वासघातकः, आदीपका-अग्निदाता, तीर्थानि-तीर्थभूतदेवसः १ स भवति सातियोगो यद् द्रव्यमन्यद्रव्येषु क्षिप्त्वा । दोषगुणान् वचनेषु च अर्थविसंवादन करोति ॥ १ ॥ ॥८६॥ CHAITORECASSAL Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैद्रोण्यादीनि मिनत्ति-द्विधा करोति तद्रव्यमोषणाय तत्परिकरभेदनेनेति तीर्थभेदः, लघुभ्यां-क्रियासु दक्षाभ्यां हस्ताभ्यां संप्रयुक्तो यः स तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, परस्य द्रव्यहरणे नित्यमनुबद्धः प्रतिबद्ध इत्यर्थः, 'तीव्र वैर:-अनुबद्धविरोधः, 'अतिगमनानि'-प्रवेशमार्गान् 'निर्गमनानि'-निस्सरणमार्गान् , 'द्वाराणि'-प्रतोल्यः, 'अपरद्वाराणि'द्वारिकाः, 'छिण्डी:'-छिण्डीका:-वृत्तिच्छिद्ररूपाः, 'खण्डी'-प्राकारच्छिद्ररूपा, नगरनि मनानि-नगरजलनिर्गमक्षा. लान्, 'संवर्तनानि'-मार्गमिलनस्थानानि, 'निवर्तनानि'-मार्गनिर्घटनस्थानानि, 'चूतखलकानि'-द्यूतस्थण्डिलानि, 'पानागाराणि'-मद्यगेहानि, 'वेश्यागाराणि'-वेश्याभवनानि, 'तस्करस्थानानि'-शून्यदेवकुलागारादीनि, 'तस्कर गृहाणि'-तस्करनिवासान, शृङ्गाटकादीनि प्राग व्याख्यातानि, सभा:-जनोपवेशनस्थानानि, प्रपा:-जलस्थानानि, लिङ्गव्यत्ययश्च प्राकृतत्वात् । 'पणितशाला'-हट्टान् शून्यगृहाणि-प्रतीतानि, 'आभोगयन्'-पश्यन् , 'मार्गयन्'अन्वयधर्मपर्यालोचनतः, 'गवेषयन्'-व्यतिरेकधर्मपर्यालोचनतः, बहुजनस्य, 'छिद्रेषु'-प्रविरलपरिवारत्वादिषु चौरप्रवेशावकाशेषु, 'विषमेषु'-तीव्ररोगादिजनितातुरत्वेषु, 'विधुरेषु'-इष्टजनवियोगेषु, 'व्यसनेषु'-राज्याधुपप्लवेषु, तथा'अभ्युदयेषु'-राज्यलक्ष्म्यादिलाभेषु, 'उत्सवेषु'-इन्द्रोत्सवादिषु, 'प्रसवेषु'-पुत्रादिजन्मसु, 'तिथिषु'-मदनत्रयोदश्यादिषु, 'क्षणेषु'-बहुलोकभोजनदानादिरूपेषु, 'यज्ञेषु'-नागादिपूजासु, 'पर्वणीषु'-कौमुदीप्रभृतिषु; अधिकरणभूतासु मत्तः, पीतपद्यतया प्रमत्तश्च-प्रमादवान् यः स तथा तस्य बहुजनस्येति योगः, 'व्याक्षिप्तस्य'-प्रयोजनान्तरोपयुक्तस्य ब्याकुलस्य च नानाविधकार्याक्षेपेण सुखितस्य दु:खितस्य च, विदेशस्थस्य च-देशान्तरस्थस्य, विप्रोषितस्य च-देशान्तरं SACARRIAGRICA BOOKSAIRRORNERAL Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी | २-श्रीसंघाटकाध्य० भद्रा| विमर्शः। भीडाताधर्मकथाङ्गे गन्तुं प्रवृत्तस्य, 'मार्ग च'-पन्थानं, 'छिद्रं च'-अपद्वारं, 'विरहं च'-विजनं, अन्तरं च-अवसरमिति आरामादिपदानि प्राग्वत् । 'सुसाणेसु यत्ति-श्मशानेषु, 'गिरिकन्दरेषु'-गिरिरन्ध्रेषु,-'लयनेषु'-गिरिवर्तिपाषाणगृहेषु, 'उपस्थानेषु'तथाविधमण्डपेषु बहुजनस्य छिद्रेष्वित्यादि पुनरावर्तनीयं यावद्, 'एवं च णं विहरइ'त्ति । तते णं तीसे भद्दाए भारियाए, अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियं जागरमाणीए, अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुपन्जित्था,-अहं धण्णेण सत्थवाहेण सद्धिं बहूणि वासाणि सद्दफरिसरसगंधरूवाणि माणुस्सगाई कामभोगाइं पच्चणुभवमाणी विहरामि, नो चेव णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि तं धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव सुलद्धे णं माणुस्सए जम्मजीवियफले, तासिं अम्मयाणं जासिं मन्ने णियगकुच्छिसंभूयाति, थणदुद्धलुद्धयाति, महुरसमुल्लावगाति, मम्मणपयंपियाति थणमूलकक्खदेसभागं अभिसरमाणाति,मुद्धयाइं थणयं पिवंतिततोय कोमलकोमलोवमेहिं हत्थेहिं गिहिऊणं उच्छंगे निवेसियाई देंति, समुल्लावए पिए सुमहुरे पुणो २ मंजुलप्पभणिते; तं अहन्नं अधन्ना, अपुन्ना, अलक्खणा, अकयपुन्ना, एत्तो एगमवि न पत्ता; तं सेयं मम कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव जलंते, धणं सत्थवाहं आपुच्छित्ता, धणेणं सत्थवाहेणं अन्भणुनाया समाणी सुबहुं विपुलं असणपाणखातिमसातिम उवक्खडावेत्ता, सुबहुं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं गहाय बहहिं मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरिजणमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा जाइं इमाई रायगिहस्स नगरस्स बहिया णागाणि य, भूयाणि य, CATEGORIES ॥८७॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्खाणि य, इंदाणि य, खंदाणि य, रुद्दाणि य, सेवाणि य, वेसमणाणि यः तत्थ णं बहूणं नागपडिमाण , जाव वेसण डिमाण य, महरिहं पुष्पचणियं करेत्ता; जाणुपायपडियाए एवं वहत्तए-जइ णं अहं देवाणुपिया !, दारगं वा, दारिगं वा पयायामि, तो णं अहं तुग्भं जायं च दायं च, भायं च अक्खयणिहिं च अणुवड्डेमित्ति कहु उवातियं उवाहत्तए; एवं संपेहेति २ कल्लं जाव जलते जेणामेव घण्णे सत्थवाहे तेणामेव उवागच्छति, उवागच्छित्ता; एवं वदासी एवं खलु अहं देवाणुप्पिया !, तुम्भेहिं सद्धिं बहूई | वासातिं जाव देति समुल्लावए सुमहुरे पुणो २ मंजुलप्पभणिते तण्णं अहं अहन्ना अपुन्ना अकलक्खणा एत्तो एगमवि न पत्ता, तं इच्छामि णं देवाणुपिया !, तुम्भेहिं अन्भणुन्नाता समाणी विपुलं असणं ४ जाव अणुवड्डेमि उवाइयं करेत्तए, तते णं घण्णे सत्थवाहे भद्दं भारियं एवं वदासी - ममंपि य णं खलु देवापिए !, एस चैव मणोरहे- कहं णं तुमं दारगं दारियं वा पयाएजसि १ भद्दाए सत्थवाहीए एयम मणुजाति, तते णं सा भद्दा सत्यवाही धण्णेणं सत्थवाहेणं अन्भणुन्नाता समाणी हट्ठतु जाव हयहियया विपुलं असणपाणखातिमसातिमं उवक्खडावेति २ त्ता, सुबहुं पुष्पंगधवत्थमल्लालंकारं गेण्हति २, सयाओ गिहाओ निगच्छति २, रायगिहं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २ त्ता, जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २, पुक्खरिणीए तीरे सुबहुं पुष्कजावमल्लालंकारं ठवेह २, पुक्खरिणि ओगाहह २, जलमजणं करेति, जलकीड करेति २१ व्हाया कयबलिकम्मा उल्लपडसाडिगा जाई तत्थ उप्पलाई जाव सहस्स ঃ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LOCAL नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधमकथाङ्गे ॥८८॥ %BCIRECAUTOCADCIDC पत्ताई ताई गिण्हइ २, पुक्खरिणीओ पच्चोरुहइ २, तं सुबहुं पुप्फगंधमल्लं गेण्हति २, जेणामेव नागघरए य जाव वेसमणघरए य, तेणेव उवागच्छति २७ तत्थ णं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य आलोए संघाटकापणामं करेइ, ईसि पच्चुन्नमइ २, लोमहत्थगं परामुसह २, नागपडिमाओ य जाव वेसमणपडिमाओ य₹ध्य० भद्रालोमहत्थेणं पमज्जति, उदगधाराए अन्भुक्खेति २; पम्हलसुकुमालाए गंधकासाईए गायाई लूहेइ २, या उपयामहरिहं वत्थारुहणं च मल्लारुहणं च गंधारुहणं च चुन्नारुहणं च वन्नारुहणं च करेति २, जाव धूवं डहति २, चितकादिजानुपायपडिया पंजलिउडा एवं वदासी-जइ णं अहं दारगं वा दारिगं वा पयायामि, तो णं अहं जायं | करणम् । च जाव अणुवड्दुमि त्ति कटु उवातियं करेति २, जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २, विपुलं असणं ४ आसाएमाणी जाव विहरति जिमिया जाव सुइभूया जेणेव सए गिहे तेणेव उवागया अदुत्तरं च णं भद्दा | सत्थवाही चाउद्दसट्टमुद्दिडपुन्नमासिणीसु विपुलं असण ४ उवक्खडेति २, बहवे नागा य जाव वेसमणा य उवायमाणी जाव एवं च णं विहरति ॥ सूत्रम्-४१॥ तते णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाइ केणति | कालंतरेणं आवन्नसत्ता जाया यावि होत्था, तते णं तीसे भद्दाए सत्थवाहीए दोसु मासेसु वीतिकंतेसु ततिए मासे वहमाणे इमेयारूवे दोहले पाउन्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाव कयलक्खणाओ | णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं विउलं असणं ४, सुबहुयं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारं गहाय, मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणमहिलियाहि य सद्धिं संपरिवुडाओ रायगिहं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छंति ॥८८॥ -%AF%ाजाIRTHASHAN Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DOCUMSUSHMAKASk २, जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छंति २ पोक्खरिणीं ओगाहिंति २, पहायाओ कयवलिकम्माओ सव्वालंकारविभूसियाओ विपुलं असणं ४ आसाएमाणीओ जाव पडिभुजेमाणीओ दोहलं विणेति, एवं संपेहेति २, कलं जाव जलते जेणेव धणे सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति २, धण्णं सत्थवाहं एवं वदासीएवं खलु देवाणुप्पिया, मम तस्स गन्भस्स जाव विणेति तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया!, तुम्भेहिं अन्भणुन्नाता समाणी जाव विहरित्तए; अहासुहं देवाणुप्पिया!, मा पडिबंधं करेह; तते णं सा भद्दा सत्यवाही धण्णेणं सत्थवाहेणं अब्भणुन्नाया समाणी हहतुट्ठा जाव विपुलं असणं ४ जाव ण्हाया जाव उल्लपडसाडगा जेणेव नागघरते जाव धूवं दहति २, पणामं करेति, पणामं करेत्ता जेणेव पोक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २; तते ण ताओ मित्तनाति जाव नगरमहिलाओ भई सत्यवाहिं सव्वालंकारविभूसितं करेति, तते णं सा भद्दा सत्थवाही ताहि मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरिजणणगरमहिलियाहिं सद्धिं तं विपुलं असणं ४ जाव परिभुंजमाणी य दोहलं विणेति २, जामेव दिसि पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया; तते णं सा भद्दा सत्थवाही संपुन्नडोहला जाव तं गन्भं सुहंसुहेणं परिवहति, तते णं सा भद्दा सत्यवाही, णवण्हं मासाणं, बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण राइंदियाणं, सुकुमालपाणिपादं जाव दारगं पयाया; तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे जातकम्मं करेंति २, तहेव जाव विपुलं असणं ४ 51 उवक्खडावेंति २, तहेव मित्तनाति. भोयावेत्ता, अयमेयारूवं गोन्नं गुणनिप्फन्नं नामधेनं करेंति तम्हा बाजधाRES Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी- णं अम्हं इमे दारए बहणं नागपडिमाण य जाव वेसमणपडिमाण य उवाइयलद्धे णं ते होउ णं अम्हं २-श्री१०० इमे दारए देवदिन्ननामेणं, तते णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नामधिकं करेंति देवदिन्नेत्ति, तते णं तस्सटघाटकामीज्ञाता- दारगस्स अम्मापियरो जायं च दायं च भायं च अक्खयनिहिं च अणुवडेति ॥ सूत्रम्-४२॥ ध्य० भद्राधर्मकथाङ्गे 'कुडुबजागरियं जागरमाणीए'त्ति-कुटुम्बचिन्ताया जागरण-निद्राक्षय कुटुम्बजागरिका, द्वितीयायास्तृतीयार्थत्वात , या उपयातया 'जाग्रत्या-विबुध्यमानया; अथवा कुटुम्बजागरिकां, जाग्रत्याः 'पयायामित्ति-प्रजनयामि, 'यासि मन्ने'-इत्यत्र ॥८९॥ चितकादितासां सुलब्धं जन्म जीवितफलं अहं 'मन्ये'-वितर्कयामि यासां निजककुक्षिसंभूतानीत्येवमक्षरघटना कार्या, निजकुक्षि- विमर्शः। संभूतानि डिम्मरूपाणि इति गम्यते; स्तनदुग्धलुब्धकानि मधुरसमुल्लापकानि मन्मनं-स्खलत्प्रजल्पितं येषां तानि तथा स्तनमूलात्कक्षादेशमागमभिसरन्ति-संचरन्ति स्तनजं पिबन्ति, ततश्च कोमलकमलोपमाभ्यां हस्ताभ्यां गृहीत्वा उत्सले निवेशितानि ददति समुल्लापकान् सुमधुरान्, 'एत्तो एगमवि न पत्त'त्ति-इतः पूर्व एकमपि-डिम्भकविशेषणकलापादेकमपि विशेषणं न प्राप्ता, 'बहिया नागघराणि ये' इत्यादि प्रतीतं, 'जण्णुपायवडिय'त्ति-जानुभ्यां पादपतिता जानुपादपतिता जानुनी भुवि विन्यस्य प्रणतिं गतेत्यर्थः । 'जायं वेत्यादि, यागं-पूजां दाय-पर्वदिवसादौ दानं भागं-लाभांशं अक्षयनिधि| अव्ययं भाण्डागारं अक्षयनिधिं वा-मूलधनं येन जीर्णीभूतदेवकुलस्योद्धारा करिष्यते अक्षीणिकां वा प्रतीतां वर्द्धयामि-पूर्वकाले | अल्पं सन्तं महान्तं करोमीति भावः । 'उववाइयंत्ति-उपयाच्यते-मृग्यते स्म यत्तत् उपयाचित-ईप्सितं वस्तु, 'उपयाPJ चितुं'-प्रार्थयितुं, 'उल्लपडसाडय'त्ति-मानेनाट्टै पटशाटिके-उत्तरीयपरिधानवस्त्रे यस्याः सा तथा, 'आलोए'त्ति-दर्शने IAC-AWAIIANEE Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 35415-नव &ा नागादिप्रतिमानां प्रणामं करोति, ततः प्रत्युन्नमति, लोमहस्तं-प्रमार्जनीकं, 'परामृशति'-गृह्णाति ततस्तेन ताः प्रमार्जयति 'अन्भुक्खइत्ति-अभिषिञ्चति वस्त्रारोपणादीनि प्रतीतानि । 'चाउद्दसी'त्यादौ 'उहिहिति-अमावस्या 'आवन्नसत्ते'तिआपन्न:-उत्पन्नः सच्चो-जीवो गर्भे यस्याः सा तथा । तते णं से पंथए दासचेडए देवदिन्नस्स दारगस्स बालग्गाही जाए, देवदिन्नं दारयं कडीए गेहति २, बहहिं डिभएहि य, डिंभगाहि य, दारएहि य, दारियाहि ये; कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवडे अंभिर ममाणे अभिरमति । तते णं सा भद्दा सत्थवाही अन्नया कयाई देवदिन्नं दारयं पहायं कयवलिकम्म कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सवालंकारभूसियं करेति, पंथयस्स दासचेडयस्स हत्थयंसि दलयति; तते णं से पंथए दासचेडए भद्दाए सत्थवाहीए हत्थाओ देवदिन्नं दारगं कडिए गिण्हति २, सयातो गिहाओ पडिनिक्खमति २, बहूहि डिभएहि य, डिभियाहि य जाव कुमारियाहि य सद्धिं संपरिवुडे जेणेव रायमग्गे तेणेव उवागच्छइ २, देवदिन्नं दारगं एगते ठावेति २, बहूहिं डिभएहि य जाव कुमारियाहि य सद्धिं संपरिबुडे पमत्ते यावि होत्था विहरति इमं च णं विजए तक्करे रायगिहस्स नगरस्स बहूणि बाराणि य, अवदाराणि य तहेव जाव आभोएमाणे, मग्गेमाणे, गवेसेमाणे जेणेव देवदिन्ने दारए तेणेव उवागच्छइ है|२, देवदिन्नं दारगं सव्वालंकारविभूसियं पासति, पासित्ता, देवदिन्नस्स दारगस्स आभरणालंकारेसु १य कुमारएहिं कुछ भी CHECKाजबा Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी-3 वृ०० श्री ज्ञाताधर्म कथाने २-श्रीसंघाटका ध्य देवदिनस्य विजयतस्करकृतमपहरणम्। ॥९ मुच्छिए गढिए गिद्धे अज्झोववन्ने पंथयं दासचेडं पमत्तं पासति २, दिसालोयं करेति, करेत्ता; देवदिन्नं दारगं गेण्हति २, कक्खंसि अल्लियावेति २, उत्तरिजेणं पिहेइ २, सिग्धं तुरियं चवलं चेतियं रायगिहस्स नगरस्स अवदारेणं निग्गच्छति २, जेणेव जिण्णुज्जाणे जेणेव भग्गकूवए तेणेव उवागच्छति २, देवदिन्नं दारयं जीवियाओ ववरोवेति २, आभरणालंकारं गेण्हति २, देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निप्पाणं, निच्चेहें, जीवियविप्पजढं भग्गकूवए पक्खिवत्ति २, जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव उवागच्छति २, मालुयाकच्छयं अणुपविसति २, निच्चले निष्फंदे तुसिणीए दिवसं खिवेमाणे चिट्ठति ॥ सूत्रम्-४३॥ तते णं से पंथए दासचेडे तओ मुहुत्तंतरस्स जेणेव देवदिन्ने दारए ठविए तेणेव उवागच्छति २, देवदिन्नं दारगं तंसि ठाणंसि अपासमाणे, रोयमाणे, कंदमाणे, विलवमाणे, देवदिन्नदारगस्स सव्वतो समंता मग्गणगवेसणं करेइ २, देवदिन्नस्स कत्थइ सुतिं वा, खुतिं वा, पउत्ति वा अलभमाणे जेणेव सए गिहे जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति २, धणं सत्यवाहं एवं वदासी एवं खलु सामी!, भद्दा सत्यवाही देवदिन्नं दारयं ण्हायं जाव मम हत्थंसि दलयति, ततेणं अहं देवदिन्नं दारयं कडीए गिण्हामि २, जाव मग्गण गवेसणं करेमि तं न णज्जति णं सामि !, देवदिन्ने दारए केणइ हते वा, अवहिए वा, अवखित्ते वा, पायवडिए धण्णस्स सत्यवाहस्स एतमढे निवेदेति; तते णं से धण्णे सत्यवाहे पंथयदासचेडयस्स एतम8 सोचा णिसम्म तेण य महया पुत्तसोएणाभिभूते समाणे परमणियत्तेव चंपगपायवे धसत्ति, धरणीयलसि ॥ नानालाSAFERE ॥९ ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सव्वंगेहिं सन्निवइए; तते णं से धण्णे सत्थवाहे ततो मुहुत्तंतरस्स आसत्थे पच्छागयपाणे देवदिन्नस्स दारगस्स सव्वतो समता मग्गणगवेसणं करेति, देवदिन्नस्स दारगस्स कत्थइ सुई वा खुरं वा, पउत्ति बा अलभमाणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छ २, महत्थं पाहुडं गेण्हति २, जेणेव नगरगुत्तिया तेणेव वागच्छति २, तं महत्थं पाहुडं उवणति, उवणतित्ता; एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! मम पुत्ते भद्दा भारियाए अत्तए देवदिने नाम दारए, इट्ठे जाव उंबरपुप्कंपिव दुल्लहे, सवणयाए, किमंग पुण पासणयाए ?; तते णं सा भद्दा देवदिन्नं हायं सव्वालंकारविभूसियं पंथगस्स हत्थे दलाति जाव पायase तं मम निवेदेति, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! देवदिन्नदारगस्स सव्वओ समंता मग्गणगवेसणं कयं । तए णं ते नगरगोत्तिया घण्णेणं सत्थवाहेणं एवं वृत्ता समाणा सन्नबद्धवम्मियकवया, उप्पीलियसरासणवहिया जाव गहियाउहपहरणा, घण्णेणं सत्थवाहेणं सद्धिं रायगिहस्स नगरस्स बहूणि अतिगणाणि जाव पवासु य, मग्गणगवेसणं करेमाणा रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खिमंति २, जेणेव जिष्णुजाणे, जेणेव भग्गकूवए, तेणेव उवागच्छति २१ देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरगं निष्पाणं, निचेहूं, जीवविजढं पासंति २; हा हा अहो अकज्जमिति कट्टु देवदिनं दारगं भग्गवाओ उत्तारेंति २ घण्णस्स सत्यवाहस्स हत्थे णं दलयंति ॥ सूत्रम्-४४ ॥ डिम्भदारककुमारकाणामल्पबहुबहुतरकालकृतो विशेषः मूच्छितो- मूढो गतविवेकचैतन्य इत्यर्थः, 'ग्रथितो' - लोभ १६ এछ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 495-6NTEG २.-श्रीसंघाटकाध्य श्रेष्ठिपुत्रस्य गवेषणा 4% शब प्राप्तिश्च । नवाङ्गी- तन्तुमिः संदर्मितः, 'गृद्ध आकाङ्क्षावान् 'अभ्युपपन्नः'-अधिकं तदेकाग्रतां गत इति, शीघ्रादीनि एकार्थिकानि शीघ्रताति ० ० शयख्यापनार्थानि निष्प्राण-उच्छ्वासादिरहित, निश्चेष्ट-व्यापाररहितं, 'जीवविप्पजदंति-आत्मना विप्रमुक्तं, निश्चलोभीज्ञाता-४ गमनागमनादिवर्जितः, निष्पन्दो-हस्ताद्यवयवचलनरहितः, तूष्णीको-वचनरहितः, 'क्षेपयन्'--प्रेरयन् , 'श्रुति'-वार्तामात्र, धर्मकथाङ्गे है। 'क्षुतं'-तस्यैवसंबन्धिनं शन्दं तचिल वा, 'प्रवृत्ति'-व्यक्ततरवार्ता, नीतो मित्रादिना स्वगृहे अपहृतश्चौरेण आक्षिप्तः-उप लोभितः । 'परसुनियत्तव्य'त्ति-परशुना-कुठारेण निकृत्तः-छिन्नो यः स तथा तद्वत् , 'नगरगोत्तियत्ति-नगरस्य गुप्टिं१९१॥ रक्षां कुर्वन्तीति नगरगुप्तिका:-आरक्षकाः, 'सन्नद्धबद्धवम्मियकवय'त्ति-सन्नद्धाः-संहननीभिः कृतसन्नाहाः, बद्धाः-कसाबन्धनेन, वर्मिताश्च-अङ्गरक्षीकृताः, शरीरारोपणेन, कवचा:-ककटा यैस्ते तथा ततः कर्मधारयः, अथवा-वर्मितशब्दः क्वचिन्नाधीयत एव । 'उप्पीलियसरासणपट्टिया'-उत्पीडिता-आक्रान्ता गुणेन शरासन-धनुस्तल्लक्षणा पट्टिका यैस्ते तथा, अथवा-उत्पीडिता-बद्धा शरासनपट्टिका-बाहुपट्टको यैस्ते तथा, दृश्यते च धनुर्धराणां बाहौ चर्मपदृवन्ध इति, इह स्थाने यावत्करणादिदं दृश्य; "पिणद्धगेवेजा बद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टा"-पिनद्धानि-परिहितानि |वेयकाणि-ग्रीवारमाणि यैस्ते तथा, बद्धो गाढीकरणेन आविद्धा-परिहितो मस्तके विमलो वरचिह्नपट्टो यैस्ते तथा ततः कर्मधारयः, 'गहियाउहपहरणा'-गृहीतान्यायुधानि प्रहरणाय-प्रहारदानाय यैस्ते तथा; अथवाऽऽयुधप्रहरणयोः क्षेप्याक्षेप्यकृतो विशेषः । . तते णं ते नगरगुत्तिया विजयस्स तक्करस्स पयमग्गमणुगच्छमाणा जेणेव मालुयाकच्छए तेणेव | उवागच्छंति २, मालुयाकच्छयं अणुपविसंति २, विजयं तकरं ससक्खं सहोढं सगेवेन्नं जीवग्गाहं गिण्हंति R AAES AHESAR Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २, अट्ठमुट्ठिजाणुकोप्परपहारसंभग्गमहियगत्तं करेंति २, अवउडाबन्धणं करेंति २, देवदिन्नगस्स दारगस्स आभरणं गेहति २, विजयस्स तकरस्स गीवाए बंधति २, मालुयाकच्छगाओ पडिनिक्खमंति २, जेणेव रायगिहे नगरे तेणेव उवागच्छति २, रायगिहं नगरं अणुपविसंति २, रायगिहे नगरे सिंघाडगतियचक्कचच्चर महापहपहेसु कसप्पहारे य, लयप्पहारे य, छिवापहारे य, निवाएमाणा २ छारं च धूलिं च, कयवरं च, उवरिं परिमाणा २; महया २ सद्देणं उग्घोसेमाणा एवं वदंति - एस णं देवाणुप्पिया !, विजए नाम तक जाव गिद्धे विव आमिस भक्खी, बालघायए बालमारए; तं नो खलु देवाणुप्पिया !, एयरस केति राया वा, रायपुत्तेवा, रायमचे वा, अवरज्झति एत्थट्ठे अप्पणो सयातिं कम्माई अवरज्यंति त्तिकद्दु जेणामेव चारगसाला तेणामेव उवागच्छति २, हड़िबंधणं करेति २, भत्तपाणनिरोहं करेंति २, तिसंझं कसप्पहारे य जाव निवाएमाणा २ विहरंति; तते णं से धण्णे सत्थवाहे मित्तनातिनियगसयण संबंधिपरियणेण सद्धिं रोयमाणे जाव विलवमाणे, देवदिन्नस्स दारगस्स सरीरस्स महया इड्डीसक्कारसमुदएणं हिरणं करेंत २, बहुई लोतियातिं मयगकिचाई करेंति २, केणइ कालंतरेणं अवगयसोए जाए यावि होत्था । सूत्रम् - ४५ ॥ तते णं से घण्णे सत्थवाहे अन्नया कयाई लह्रसयंसि रायावराहंसि संपलत्ते जाए यावि होत्था, तते णं ते नगरगुत्तिया घण्णं सत्यवाहं गेण्हति २, जेणेव चारगे तेणेव उवागच्छति २, चार अणुपवेसंति २; विजएणं तकरेणं सद्धिं एगयओ हडिबंधणं करेंति । तते णं सा भद्दा भारिया कल्लं Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी- जाव जलंते विपुलं असणं ४ उवक्खडेति २, भोयणपिंडए करेति २, भोयणाई पक्खिवति लंछियमुद्दियं प.पु. करेइ २, एगं च सुरभिवारिपडिपुन्नं दगवारयं करेति २, पंथयं दासचेड सहावेति २; एवं वदासी-गच्छ णं श्रीज्ञाता- तुमं देवाणुप्पिया!, इमं विपुलं असणं ४ गहाय चारगसालाए धण्णस्स सत्थवाहस्स उवणेहि; तते णं से धर्मकथाले दापंथए भद्दाए सत्यवाहीए एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे तं भोयणपिंडयं तं च सुरभिवरवारिपडिपुन्नं दगवारयं गेण्हति २, सयाओ गिहाओ पडि निक्खमति २, रायगिहे नगरे मज्झमज्झेणं जेणेव चारगसाला जेणेव ॥९२॥ धन्ने सत्थवाहे तेणेव उवागच्छति २, भोयणपडियं ठावेति २, उल्लंछति २त्ता, भायणाई गेण्हति २, भायणाई धोवेति २, हत्थसोयं दलयति २, धणं सत्यवाहं तेणं विपुलेणं असण. ४ परिवेसति, तते णं से विजए तकरे धणं सत्थवाहं एवं वदासी-तुमण्णं देवाणुप्पिया!, मम एयाओविपुलातो असण.४ संविभागं करेहि तते ण से धपणे सत्यवाहे विजयं तकरं एवं वदासी-अवि याई अहं विजया! एवं विपुलं असणं ४ कायाणं वा, सुणगाणं वा दलएजा, उकुरुडियाए वा णं छड्डेजा, नो चेव णं तव पुत्तघायगस्स, पुत्तमारगस्स, अरिस्स, वेरियस्स, पडिणीयस्स, पच्चामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असण. ४ संविभागं करेन्जामि तते णं से धण्णे सत्थवाहे तं विपुलं असणं ४ आहारेति २, तं पंथयं पडिविसज्जेति, तते णं से पंथए दासचेडे तं भोयणपिडगं गिण्हति २, जामेव दिसिं पाउन्भूते तामेव दिसि पडिगए; तते णं तस्स धण्णस्स सत्यवाहस्स तं विपुलं असणं ४, आहारियस्स समाणस्स उच्चारपासवणे णं उव्वाहित्था, तते णं | २-श्रीसंघाटका ध्य० एकमहडिनिपति तष्ठितस्करयोरनुनयप्र. त्यनुतिः। FeekSCRIजाऊISACSIR CAREECHESEARCHESTROGook ॥ ९२॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAHA RECAPACKAGARCANE+KA | से धणे सत्यवाहे विजयं तकरं एवं वदासी-एहि ताव विजया! एगंतमवकमामो जेणं अहं उच्चारपासवणं परिवेमि, तते णं से विजए तकरे धणं सत्थवाहं एवं वयासी-तुम्भं देवाणुप्पिया! विपुलं असणं ४ आहारियस्स अस्थि उच्चारे वा पासवणे वा ममन्नं देवाणुप्पिया! इमेहिं बहहिं कसप्पहारेहि य जाव लयापहारेहि य तण्हाए य छुहाए य परब्भवमाणस्स णस्थि केह उच्चारे वा पासवणे वा तं छदेणं तुम देवाणुप्पिया! एगते अवक्कमित्ता उच्चारपासवणं परिहवेति तते णं से धणे सत्यवाहे विजएणं तकरणं | एवं वुत्ते समाणे तुसिणीए संचिट्ठति तते णं से धण्णे सत्थवाहे मुहुत्तंतरस्स बलियतराग उच्चारपास. वणेणं उव्वाहिज्जमाणे विजयं तकरं एवं वदासी-एहि ताव विजया! जाव अवकमामो, तते णं से विजए धण्णं सत्यवाहं एवं वदासी-जइ णं तुम देवाणुप्पिया! ततो विपुलाओ असण० ४ संविभागं करेहि, ततोऽहं तुमहिं सद्धिं एगंतं अवकमामि; ततेणं से धणे सत्थवाहे विजयं एवं वदासी-अहन्नं तुम्भं ततो विपुलाओ असण० ४ संविभागं करिस्सामि, तते णं से विजए धण्णस्स सत्यवाहस्स एयमदं पडिसुणति, तते णं से विजए धण्णेणं सद्धिं एगते अवक्कमेति उच्चारपासवणं परिहवेति, आयंते चोक्खे परमसुइभूए तमेव ठाणं उवसंकमित्ता णं विहरति;तते णं सा भद्दा कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं ४ जाव परिवेसेत्ति, तते णं से धणे सत्थवाहे विजयस्स तकरस्स ततो विपुलाओ असण० ४ संविभागं करेति, तते णं से धण्णे सत्यवाहे पंथयं दासचेडं विसजेति, तते ण से पंथए भोयणपिडयं गहाय चारगाओ पडिनिक्ख RITRA Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१. वृ० बीज्ञाताधर्मकथाले २-श्रीसंघाटका ध्यक तस्करस्या नुक्र्थ ॥९३ ॥ मति २, रायगिहं नगरं मझमझेण जेणेव सए गेहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवागच्छइ २त्ता, भई सत्थवाहिणि एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! धणे सत्थवाहे तव पुत्तघायगस्स जाव पञ्चामित्तस्स ताओ विपुलाओ असण. ४ संविभागं करेति ॥ सुत्रम्-४३॥ ___'ससक्खंति-ससाक्षि ससाक्षिणोऽध्यक्षान् विधायेत्यर्थः । 'सहोढं'ति-समोष, 'सवेगेज्ज'ति-सह अवेयकेण-ग्रीवाबन्धनेन यथा भवति तथा गृह्णन्ति, 'जीवग्गाहं गिण्हंति'त्ति-जीवतीति जीवस्तं जीवन्तं गृह्णन्ति, अस्थिमुष्टिजानुकूपरैस्तेषु वा ये प्रहारास्तैः संभग्न-मथितं मोटितं-जर्जरितं गात्रं-शरीरं यस्य स तथा तं कुर्वन्ति, 'अवउडगबंधण'तिअवझोटनेन-अवमोटनेन काटिकायाः बाह्वोश्च पश्चाद्भागनयनेन बन्धनं यस्य स तथा तं कुर्वन्ति, 'कसप्पहारे यत्तिवर्धताडनानि, 'छिवनि-श्लक्ष्णः कषः, 'लत्ता'-कम्बा 'बालघातक'-प्रहारदानेन, 'बालमारक:'-प्राणवियोजनेन । 'रायमचे'ति-राजामात्यः, 'अवरज्झईत्ति अपराध्यति अनर्थ करोति; 'नन्नत्थति-नत्वन्यत्रेत्यर्थः, वाचनान्तरे-त्विदं नाधीयत एव, स्वकानि निरुपचरितानि नोपचारेणात्मनः सम्बन्धीनि, 'लहुस्सगंसित्ति-लघुः स्व-आत्मा स्वरूप यस्य स लघुस्तका-अल्पस्वरूपः रानि विषये अपराधो राजापराधस्तत्र 'संप्रलप्त'-प्रतिपादितः पिशनैरिति गम्यते । 'भोयणपडिय'त्ति भोजनस्थालाद्याधारभूतं वंशमयं भाजनं पिटकं तत् करोति, सजीकरोतीत्यर्थः पाठान्तरेण-'भरेइ'त्ति पूरयति, पाठान्तरेण भोजनपिटके करोति अशनादीनि । 'लाञ्छितं'-रेखादिदानतो, मुद्रितं-कृतमुद्रादिमुद्रं, 'उल्लंछेह'त्तिविगतलाञ्छनं करोति, 'परिवेशयति'-भोजयति,-'आवियाई-ति-अपिः-संभावने, आइति भाषायां अरे:-शत्रोर्वैरिण: जा मेकहडिपतितस्य भेष्ठिनो युक्तिः । ॥९३ ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | सानुबन्धशत्रुभावस्य प्रत्यनीकस्य-प्रतिकूलवृत्तेः प्रत्यमित्रस्य-वस्तु २ प्रति अमित्रस्य 'धण्णस्स'त्ति-कर्मणि षष्ठी उच्चार|प्रश्रवणं कर्तु, णमित्यलकारे 'उब्वाहित्य'त्ति-उदाधयति स्म 'एहि तावे'त्यादि, आगच्छ तावदिति भाषामात्रे हे विजय!, एकान्तं-विजनमपक्रमामो-यामः, 'जेणं'ति-येनाहमुच्चारादि परिष्ठापयामीति 'छंदेणं'ति-अभिप्रायेण यथारुचीत्यर्थः । तते णं सा भद्दा सत्थवाही पंथयस्स दासचेडयस्स अंतिए एयमढे सोचा आसुरुत्ता रुट्ठा जाव | मिसिमिसेमाणा धण्णस्स सत्थवाहस्स पओसमावजति, तते णं से धणे सत्थवाहे अन्नया कयाई मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणेणं सएण य अत्थसारेणं रायकज्जातो अप्पाणं मोयावेति २, चारगसालाओ पडिनिक्खमति २, जेणेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छति २, अलंकारियकम्मं करेति २, जेणेव पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २, अह धोयमट्टियं गेण्हति पोक्खरिणी ओगाहति २, जलमजणं करेति २, पहाए कयबलिकम्मे जाव रायगिहं नगरं अणुपविसति २, रायगिहनगरस्स मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गिहे तेणेव पधारेत्थ गमणाए । तते णं तं धणं सत्यवाहं एजमाणं पासित्ता रायगिहे नगरे बहवे निय. गसेढिसत्थवाहपभितओ आदति, परिजाणंति, सक्कारेंति, सम्माणति; अन्मुटुंति सरीरकुसलं पुच्छंति । तते णं से धणे जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छति २, जाविय से तत्थ बाहिरिया परिसा भवति तंदासातिवा, पेस्सातिवा,भियगाइ वा भाइल्लगाइ वा;सेविय णं धणं सत्यवाहं एजंतं पासति २,पायवडियाए खेमकुसलं पुच्छति, जावि य से तत्थ अन्भंतरिया परिसा भवति तं०-मायाइ वा, पियाइ वा, भायाति CARBOADलाजाI CATFEEG Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥९४॥ 5-655555555 वा, भगिणीति वा; सावि य णं धणं सत्यवाहं एन्जमाणं पासति २, आसणाओ अन्भुढेति २, कंठा १-श्री| कंठियं अवयासिय बाहप्पमोक्खणं करेति; तते णं से धण्णे सत्थवाहे जेणेव भद्दा भारिया तेणेव उवाग- संघाटकाच्छति, तते णं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एजमाणं पासति, पासित्ता; णो आढाति, नो परियाणाति, ध्य० अणाढायमाणी, अपरिजाणमाणी, तुसिणीया परम्मुही संचिट्ठति; तते णं से धणे सत्यवाहे भई तस्करस्य भारियं एवं वदासी-किन्नं तुम्भं देवाणुप्पिए !, न तुट्ठी वान हरिसे वा नाणंदे वा जं मए सएणं अत्थ भक्तादिसारेणं रायकजातो अप्पाणं विमोतिए, तते णं सा भद्दा धणं सत्थवाहं एवं वदासी-कहन्नं देवाणुप्पिया, संविभागे मम तुट्ठी वा जाव आणंदे वा भविस्सति जेणं तुम मम पुत्तघायगस्स जाव पञ्चामित्तस्स ततो विपुलातो श्रेष्ठिन: असण०४ संविभागं करेसि, तते णं से धण्णे भई एवं वदासी-नो खलु देवाणुप्पिए !, धम्मोत्ति वा, रहस्यतवोत्ति वा कयपडिकइया वा, लोगजत्ताति वा, नायएति वा, घाडिएति वा, सहाएति वा, सुहितिवा वर्णनम् । ततो विपुलातो असण. ४ संविभागे कए नन्नत्थ सरीरचिंताए; तते णं सा भद्दा घण्णणं सत्थवाहेणं एवं वुत्ता समाणी हट्ट जाव आसणातो अन्भुट्टेति कंठाकंठिं अवयासेति खेमकुसलं पुच्छति २ ण्हाया जाब पायच्छित्ता विपुलातिं भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरति । तते णं से विजए तक्करे चारगसालाए तेहिं बंधेहि वहेहिं कसप्पहारेहि य जाव तण्हाए य, छुहाए य, परभवमाणे कालमासे कालं किचा नरएसु नेरइयत्ताए उववन्ने । से णं तत्थ नेरइए जाते काले कालोभासे जाव वेयणं पचणुभवमाणे विहरह, का॥ ९४॥ SAI Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R OCUSACROUSociety से णं ततो उब्वहित्ता अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं अणुपरियहिस्सति; एवामेव जंबू, जेणं अम्हं निग्गंथो वा, निग्गंधी वा, आयरियउवज्झायाणं अंतिए मुंडे भवित्ता, आगाराओ अणगारियं पव्वतिए समाणे विपुलमणिमुत्तियधणकणगरयणसारेणं लुम्भति, सेविय एवं चेव ॥ सूत्रम्-४२॥ 'अलंकारियसहन्ति-यस्यां नापितादिभिः शरीरसत्कारो विधीयते अलङ्कारिककर्म-नखखण्डनादि, दासा-गृहदासी. पुत्राः, प्रेष्या-ये तथाविधप्रयोजनेषु नगरान्तरादिषु प्रेष्यन्ते, भृतका-ये आबालत्वात्पोषिताः, 'भाइल्लग'त्ति-ये भागं लाभस्य लमन्ते ते, क्षेमकुशलं-अनर्थानुद्भवानर्थप्रतिषातरूपं, कण्ठे च कण्ठे च गृहीत्वा कण्ठाकण्ठि, यद्यपि व्याकरणे युद्धविषय एवैवंविधोऽव्ययीभाव इष्यते, तथापि-योगविभागादिमिरेतस्य साधुशब्दता दृश्येति; 'अवयासियत्ति-आलि. अथ वाष्पप्रमोक्षण-आनन्दाश्रुजलप्रमोचनम् । 'नायए वे'त्यादि, नायका-प्रभुायदो वा-न्यायदर्शी ज्ञातको वा स्वजनपुत्रक इतिरुपदर्शने वा विकल्पे, 'घाडिय'त्ति-सहचारी सहायः-साहाय्यकारी सुहृद्-मित्रम् । 'बंधेहि य'त्ति-बन्धो रज्वादिबन्धनं, 'वधो' यष्ट्यादिताडनं, कशप्रहारादयस्तु तद्विशेषाः 'काले कालोभासे इत्यादि, काला-कृष्णवर्णः काल एवावभासते द्रष्टणां कालो वाऽवभासो दीप्तिर्यस्य सः कालावभासः, इह यावत्करणादिदं दृश्यं, 'गम्भीरलोमहरिसे भीमे उत्तासणए परमकण्हे वण्णेणं, सेणं तत्थ निचं भीए निचं तत्थे निच्चं तसिए निच्चं परमसुहसम्बद्धं नरगति-तत्र गम्भीरो-महान् रोमहर्षो-भयसंभूतो रोमाञ्चो यस्य यतो वा सकाशात् स तथा, किमित्येवमित्याह-'भीमो-भीष्मः, अत एवोत्रासकारित्वादुत्रासका, एतदपि कुत इत्याह-परमकृष्णो वर्णेनेति, परां-प्रकृष्टां अशुभसंबद्धां-पापकर्मणोपनीता; 'अणाइय'मित्यादि, IFIERRAHA Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MPSC श्रेष्ठि नवाङ्गी- अनादिकं, 'अणवदग्गं"ति-अनन्तं, 'दीहमद्धं ति दीर्घाद्धं-दीर्घकालं, दीर्घाध्वं वा-दीर्घमार्ग, चातुरंत-चतुर्विभागं संसार | २-श्री१० वृ० एव कान्तारं-अरण्यं संसारकान्तारमिति । इतोऽधिकृतं ज्ञातं ज्ञापनीये योजयत्राह-एवमेव-विजय चौरवदेव 'सारे 'ति- दू संघाटकाश्रीज्ञाता |3| सारे, णमित्यलङ्कारे, करणे तृतीया वेयं, लुभ्यते-लोभी भवति; 'सेवि एवं चेव'त्ति-सोऽपि प्रबजितो विजयवदेव नरका- ध्या ज्ञातधर्मकथाङ्गे दिकमुक्तरूपं प्राप्नोति। स्य प्रकृते तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसा नाम थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना २, जाव पुव्वाणुपुद्वि चरमाणे ॥९५॥ योजना जाव जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेतिए जाव अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता, संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणा विहरंति; परिसा निग्गया धम्मो कहिओ, तते णं तस्स धण्णस्स सत्यवाहस्स | प्रव्रज्याच। बहुजणस्स अंतिए एतमढे सोचा णिसम्म इमेतारूवे अज्झत्थिते जाव समुपजित्था-एवं खलु भगवंतो | जातिसंपन्ना इहमागया इह संपत्ता तं इच्छामि ण थेरे भगवते वंदामि नमसामि पहाते जाव सुद्धप्पावेसाति मङ्गल्लाई वत्थाई पवरपरिहिए पायविहारचारेण जेणेव गुणसिले चेतिए जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति २, वंदति, नमसति। तते णं थेरा धण्णस्स विचित्तं धम्ममातिक्खंति, तते णं से धणे सत्यवाहे धम्म सोचा, एवं वदासी-सदहामि णं भंते!, निग्गंथे पावयणे जाव पव्वतिए जाव बहणि वासाणि सामन्न परियागं पाउणित्ता भत्तं पञ्चक्खातित्ता मासियाए संलेहणाए सहिं भत्ताई अणसणाए छेदेइ २ त्ता, कालमासे कालं किच्चा, सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ॥ ९५ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं धण्णस्स देवस्स चत्तारि पलिओ माई ठिती पण्णत्ता, से णं धण्णे देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खणं, ठितीक्खएणं, भवक्खएणं; अनंतरं चयं चत्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव सव्वदुक्खाणमंतं करेहिति ॥ सूत्रम् - ४७ ॥ जहा णंजंबू !, घण्णेणं सत्थवाहेणं नो धम्मोत्ति वा जाव विजयस्स तरस ततो विपुलाओ असण० ४ संविभागे कए नन्नत्थ सरीरसारक्खणट्ठाए; एवामेव जंबू 1, जेणं अहं निग्थे वा २, जाव पव्वतिए समाणे ववगयण्हाणुम्मद्दणगंधमल्लालंकारविभूसे इमस्स ओरालियसरीरस्स नो वन्न वा, रूवहेडं वा, विसयहेउं वा, असणं ४ आहारमाहारेति नन्नत्थ णाणदंसणचरिताणं वणयाए; सेणं इहलोए चेव बहूणं समणाणं, समणीणं, सावगाण य, साविगाण य, अचणिजे जाव पज्जुवासणिजे भवति परलोएवि य णं नो बहूणि हत्थच्छेयणाणि य, कन्नच्छेयणाणि य, नासाछेयणाणि य, एवं हिययउपायणाणि य, वसणुप्पाडणाणि य, उल्लंबणाणि य, पाविहिति अणातीयं च अणवदग्गं दीहं जाव वीतिवतिस्सति जहा व से धपणे सत्थवाहे । एवं खलु जंबू !, समणेणं जाव दोच्चस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्तेत्तिबेमि ॥ सूत्रम् ४८ ॥ बितीयं अज्झयणं समत्तं ॥ २ ॥ 'जहा ण'मित्यादिनाऽपि ज्ञातमेव ज्ञापनीये नियोजितं, 'नन्नत्थ सरीरसारक्खणट्ठाए 'ति न शरीरसंरक्षणार्थादन्यत्र तदर्थमेवेत्यर्थः 'जहा व से धपणे' त्ति - दृष्टान्तनिगमनम् । इह पुनर्विशेषयोजनामिमामभिदधति बहुश्रुताः - इह राजगृह - नगरस्थानीयं मनुष्यक्षेत्रं, धन्यसार्थवाहस्थानीयः साधुजीवः, विजय चौरस्थानीयं शरीरं, पुत्रस्थानीय निरुपम निरन्तरानन्द *৩ । এ||| : Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी- पु. पृ. श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥९६॥ निवन्धनत्वेन संयमो, भवति यसत्प्रवृत्तिकशरीरात्संयमविपातः, आभरणस्थानीया:-शब्दादिविषयाः, तदर्थप्रवृत्तं हि शरीर संयमविधाते प्रवर्तते, हडिबन्धस्थानीयं जीवशरीरयोरविभागेनावस्थानं, राजस्थानीयः कर्मपरिणामः, राजपुरुषस्थानीयाः कर्मभेदाः, लघुस्वकापराधस्थानीया मनुष्यायुष्कबन्धहेतवः, मत्रादिमलपरिस्थानीयाः प्रत्युपेक्षणादयो व्यापाराः, यतो भक्तादिदानाभावे यथासौ विजयः प्रश्रवणादिव्युत्सर्जनाय न प्रवर्तितवान् , एवं शरीरमपि निरशनं प्रत्युपेक्षणादिषु न प्रवर्तते; पान्थकस्थानीयो मुग्धसाधुः, सार्थवाहीस्थानीया आचार्याः; ते हि विवक्षितसाधु भक्तादिभिः शरीरमुपष्टम्भयन्तं साध्वन्तरादुपश्रुत्योपालम्भयन्ति, विवक्षितसाधुनैव निवेदिते वेदनावैयावृत्यादिके भोजनकारणे परितुष्यन्ति चेति, पठ्यते च-"सिवसाहणेसु आहारविरहिओ जं न वट्टए देहो। तम्हा धण्णोब विजय साहू तं तेण पोसेजा ॥" एवं खल्वि'त्यादि निगमनं' इतिशब्दः समाप्तौ ब्रवीमीति पूर्ववदेवेति || ज्ञाताधर्मकथायां विवरणतो द्वितीयमध्ययनं समाप्तमिति । २-श्रीसंघाटकाध्य० अध्ययनार्थोपसंहारः। AA5+5CASSES +बाजामा |RARE सा० १ शिवसाधनेषु माहारविरहितो यन्न प्रवर्तते देहः । तस्मात् धन्य इव विजयं साधुस्तत् तेन पोषयेत् ॥1॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAFEBCA GEOGASAROSAGAR ॥३-अण्डकाख्यं ज्ञाताध्ययनम् ॥ अथ तृतीयमण्डकाख्यमध्ययनं, तस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः-अनन्तराध्ययने साभिष्वङ्गस्य निरभिष्वङ्गस्य च दोषगुणानभिदधता चारित्रशुद्धिर्विघेयतयोपदिष्टा, इह तु शङ्कितस्य निःशङ्कस्य च तानभिदधता संयमशुद्धेरेव हेतुभूता सम्यक्त्वशुद्धिविधेयतयोपदिश्यते, इत्येवं संबन्धस्यास्येदमुपक्षेपसूत्रम् जति ण भंते !, समणेणं भगवया महावीरेणं दोचस्स अज्झयणस्स णायाधम्मकहाणं अयम? पन्नत्ते, तहअस्स अज्झयणस्स केअढे पण्णत्ते , *एवं खलु जंबू !, तेणं कालेणं २, चंपा नाम नयरी होत्या, वन्नओतीसे ण चंपाए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए सुभूमिभाए नाम उजाणे होत्था, सम्वोउय. सुरम्मे नंदणवणे इव सुहसुरभिसीयलच्छायाए समणुबद्धे, तस्स णं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उत्तरओ एगदेसंमि मालुयाकच्छए वन्नओ, तत्थ णं एगा वरमऊरी दो पुढे परियागते पिटुंडीपंडुरे निव्वणे निरुवहए भिन्नमुढिप्पमाणे मऊरीअंडए पसवति२, सतेणं पक्खवाएणं सारक्खमाणी संगोवमाणी संविटे. माणी विहरति तत्थ णं चंपाए नयरीए दुवे सत्थवाहदारगा परिवसंति, तं०-जिणदत्तपुत्ते य सागरदत्तपुत्ते य, सहजायया सहवड्डियया सहपंसुकीलियया सहदारदरिसी अन्नमन्नमणुरत्तया अन्नमन्नमणुब्वयया अन्न१ नं व्याख्यायते त० अ । • • एतदन्तर्गतः पाठः 'अ' प्रतौ नास्ति । २ ° मयुरी. अ। %AIRCRACHA Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-श्रीअण्ड काध्य. | अध्ययनोप्रक्रमः। नवाडी- ला मन्नच्छंदाणुवत्तया अन्नमन्नहियतिच्छियकारया अन्नमन्नेसु गिहेसु किच्चाई करणिज्जाइं पचणुभवमाणा १०० विहरन्ति ॥ सूत्रम्-५०)॥ मीज्ञाता- ___'जइ णमित्यादि, 'एवं खल्वि'त्यादि, प्रकृताध्ययनसूत्रं च समस्तं कण्ठथं नवरं, 'सव्वोउए'त्ति-सर्वे ऋतवोबर्मकथाङ्गे| वसन्तादयः, तत्संपाद्यकुसुमादिभावानां वनस्पतीनां समुद्भवात् यत्र तत्तथा; कचित्-'सव्वोउय'त्ति दृश्यते, तेन च १९७॥ 'सबोउयपुष्फफलसमिद्धे इत्येतत्सूचितं, अत एव सुरम्यं नन्दनवनं-मेरोर्द्वितीयवनं तद्वत् शुमा सुखा वा सुरभिः शीतला च या छाया तया समनुबद्धं-व्याप्तं 'दो पुढे'त्यादि, द्वे-द्विसंख्ये पुष्टे-उपचिते पर्यायेण-प्रसवकालक्रमेणागते पर्यायागते प्राकृतत्वेन यकारलोपात् परियागएत्ति भणितं, पिष्टस्य-शालिलोदृस्य उण्डी-पिण्डी पिष्टोण्डी तद्वत् पाण्डुरे ये ते तथा, निर्बणे-व्रणकै रहिते निरूपहते-वातादिमिरनुपहते भिन्ना-मध्यशुषिरा या मुष्टिः सा प्रमाणं ययोः ते भिन्नमुष्टिप्रमाणे मयूर्या अण्डके मयूराण्डके न कुकव्या अण्डके प्रसूते-जनयति, संरक्षयन्ती-पालयन्ती, सङ्गोपायन्ती-स्थगयन्ती, संवेष्टयन्तीपोषयन्ती, सहजातौ जन्मदिनस्यैकत्वात् सहवृद्धौ-समेतयोवृद्धिमुपगतत्वात् सहपांशुक्रीडितको समानवालभावत्वात् सहदारदर्शिनी समानयौवनारम्भत्वात् सहैव-एकावसर एव जातकामविकारतया दारान्-स्वकीये२, मायें तथाविधदृष्टिभिदृष्टवन्तौ, अथवा-सह-सहितौ सन्तौ अन्योऽन्यगृहयोारे पश्यतः तत्प्रवेशनेनेत्येवंशीलौ यौ तौ तथा, एतच्चानन्तरोक्तं स्वरूपमन्योsन्यानुरागे सति भवतीत्याह-अन्योऽन्यमनुरक्तौ-स्नेहवन्तौ अत एवान्योऽन्यमनुव्रजत इत्यन्योन्यानुब्रजौ, एवं छन्दोऽनुवर्त्तकौ-अभिप्रायानुवर्तिनौ एवं हृदयेप्सितकारको, 'किचाई करणीयाईति-कर्त्तव्यानि यानि प्रयोजनानीत्यर्थः। अथवा CASSACROMAA HAजाबाKARKAR मा अन्योऽन्यगृहयोरेि पक्षमता अत एवान्योऽन्यमनुव्रजत इत्यापनि प्रयोजनानीत्यर्थः, अर्थ ॥९७ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृत्यानि - नैत्यिकानि करणीयानि - कादाचित्कानि 'प्रत्यनुभवन्तौ ' - विदधानौ । तणं तेसिं सत्यवाहदारगाणं अन्नया कयाई एगतओ सहियाणं समुवागयाणं सन्निसन्नाणं सन्निविद्वाणं इमेयारूवे मिहो कहा समुल्लावे समुप्पज्जित्था - जन्नं देवाणुपिया !, अम्हं सुहं वा, दुक्खं वा, पव्वज्जा वा विदेसगमणं वा समुप्पज्जति तन्नं अम्हेहिं एगयओ समेचा णित्थरियव्वं तिकडु अन्नमन्नमेयारूवं संगारं पडिसुर्णेतिर, सकम्मसंपउत्ता जाया यावि होत्था || सूत्रम् - ५१ ॥ तत्थ णं चंपाए नयरीए देवदत्ता नामं गणिया परिवसह, अड्डा जाव भत्तपाणा, चउसट्ठिकलापंडिया, चउसद्विगणियागुणोववेया, अउणत्तीसं विसेसे रममाणी एकवीसरतिगुणप्पहाणा, बत्तीसपुरिसोवयारकुसला, णवंगसुत्तपडिवोहिया, अट्ठारसदेसी भासाविसारया, सिंगारागारचारुवेसा, संगयगयहसिय० ऊसियझया सहस्सलभा विदिन्नछत्तचामरबालवियणिया कन्नीरहप्पयाया यावि होत्था, बहूणं गणियासहस्साणं आहेवचं जाव विहरति; तते णं तेसिं सत्थवाहदारगाणं अन्नया कदाइ पुव्वावरण्हकालसमयंसि जिमियभुतत्तरागयाणं समाणाणं आयन्ताणं चोक्खाणं परमसुतिभूयाणं सुहासणवरगयाणं इमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुपज्जित्था, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया !, कल्लं जाव जलते विपुलं असणं ४ उक्खडावेत्ता, तं विपुलं असणं ४ धूवपुष्पगंधवत्थं गहाय देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पञ्चणुभवमाणाणं विहरित्तए त्तिकद्दु अन्नमन्नस्स एयमहं पडिसुर्णेति २, कल्लं Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - दासी-खिप्पा चिट्ठह जावाहूणह २, आदापुक्खरिणी |||| नवाङ्गी- है। पाउन्भूए कोडंबियपुरिसे सद्दावेंति २; एवं वदासी-गच्छह णं देवाणुप्पिया!, विपुलं असणं ४ उव-1373-श्रीअण्डवृ० वृ० | क्खडेह २, तं विपुलं असणं ४ धूवपुष्कं गहाय जेणेव सुभूभिभागे उजाणे जेणेव णंदापुक्खरिणी तेणा-181 काध्य. श्रीज्ञाता-15 मेव उवागच्छह २, नंदापुक्खरिणीतो अदूरसामंते थूणामंडवं आहणह २, आसितसम्मजितोवलितं श्रेष्ठिपुत्रद्वधर्मकथाओं सुगंध जाव कलियं करेह २, अम्हे पडिवालेमाणा २ चिट्ठह जाब चिटुंति; तए णं सत्थवाहदारगा दोचंपि यस्य गणि॥९८॥ कोडुंबियपुरिसे सद्दावेंति २, एवं वदासी-खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोतियं समखुरवालिहाणं समलिहिय कया सहोतिक्खग्गसिंगएहिं रययामयघंटसुत्तरज्जुपवरकंचणखचियणस्थपग्गहोवग्गहितेहिं नीलुप्पलकयामेलएहिं द्यानकेलि पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिरयणकंचणघंटियाजालपरिक्खित्तं पवरलक्षणोववेयं जुत्तमेव पवहणं उवणेह, तेऽवि तहेव उवणेति तते णं से सत्थवाहदारगा पहाया जाव सरीरा पवहणं दुरूहंति २, जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहं तेणेव उवागच्छंति २त्ता, पवहणातो पचोरुहति २, देवदत्ताए गणियाए गिहं अणुपविसेंति; तते णं सा देवदत्ता गणिया सत्थवाहदारए एजमाणे पासति २, हट्ट २ आसणाओ अन्भुहेति २, सत्तट्ट पदाति अणुगच्छति २, ते सत्यवाहदारए एवं वदासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया!, किमिहागमणप्पतोयणं; तते ण ते सत्यवाहदारगा देवदत्तं गणियं एवं वदासी-इच्छामोणं देवाणुप्पिए!, तुम्हेहिं सद्धिं सुभूमिभागस्स उज्जाणस्स उज्जाणसिरिं पञ्चणुब्भवमाणा विहरित्तए, तते णं सा देवदत्ता तेसिं| सत्थवाहदारगाणं एतमट्ठ पडिसुणेति २, ण्हाया कयकिच्चा किं ते पवर जाव सिरिसमाणवेसा जेणेव ॥९८॥ णएहिं नाणामामुत्तरज्जुपवरकंचणखाचरणजुत्तजोतियं समखुरवात्यवाहदारगा दोचंपि SIMIDCSCR Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S HARASHI OCIEOCOG सत्यवाहदारगा तेणेव समागया; तते णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं जाणं दुरूहति २, चंपाए नयरीए मझमझेणं जेणेव सुभूमिभागे उजाणे जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छति २, पवहणातो पचोरुहंति २, नंदापोखरिणी ओगाहिंति २, जलमजणं करेंति जलकीडं करेंति पहाया देवदत्ताए सद्धिं पच्चुत्तरंति जेणेव थूणामंडवे तेणेव उवागच्छंति २, शृणामंडवं अणुपविसंति २, सव्वालं. कारविभूसिया आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया देवदत्ताए सद्धिं तं विपुलं असणं ४ धूवपुप्फगंधवत्थं आसाएमाणा, वीसाएमाणा, परिभुजेमाणा, एवं च णं विहरंति; जिमियभुत्तुत्तरागयाविय णं समाणा देवदत्ताए सद्धिं विपुलाति माणुस्सगाई कामभोगाई भुंजमाणा विहरंति ॥ सूत्रम्-५२ ।। __'एगउत्ति-क्वचिदेकस्मिन् देशे सहितयो-मिलितयोः समुपागतयोरेकतरस्य गृहे सनिषण्णयो:-उपविष्टयोः संनिविष्टयो:संहततया स्थिरसुखासनतया च व्यवस्थितयोमिथःकथा-परस्परकथा तस्यां समुल्लापो-जल्पो यः स तथा समुदपद्यत, 'समेच' त्ति-समेत्य, पाठान्तरे-'संहिचत्ति संहत्य सह संभृय, 'संगारंति-सङ्केत, 'पडिसुणेति'ति-अभ्युपगच्छतः।'चउसट्ठीत्यादि, चतुःपष्टिकलाः गीतनृत्यादिकाः स्त्रीजनोचिता वात्स्यायनप्रसिद्धाः, चतुःषष्टिगणिकागुणाः आलिङ्गनादिकानाम टानां क्रियाविशेषाणां प्रत्येकमष्टभेदत्वात , एतेऽपि वात्स्यायनप्रसिद्धा एवं विशेषादयोऽपि, 'नवंगसुत्तपडियोहिय'त्ति प्राग्वत् नवयौवनेति भावः । 'संगयगयहसिय' इत्येनेनेदं सूचितं, 'संगयगयहसियभणियविहियविलाससललियसंला १ ०ति, २, भाण्हा अ। SHISITERASARG Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केलि नवाजी-14] पनिउणजुत्तोवयारकुसला' व्याख्या वस्य पूर्ववत् , वाचनान्तरे-त्विदमधिकं 'सुंदरथणजघणवयणचरणनयणलावण्णरूवजोवण-15 ३-श्री विलासकलिया' उच्छ्रितध्वजा सहस्रर्भाव्या लाभो यस्याः सा तथा, वितीर्णानि राज्ञा छत्रचामराणि वालवीजनिका च-16 अण्डभीज्ञाता- चामरविशेषो यस्याः सा तथा, कीरथ:-प्रवहणविशेषस्तेन प्रयातं-गमनं यस्याः सा तथा कीरथो हि ऋद्धिमतां केषां- काध्यक धर्मकथाङ्गे चिदेव भवतीति सोऽपि तस्या अस्तीत्यतिशयप्रतिपादनार्थोऽपिशब्द इति, स्थूणाप्रधानो वस्त्राच्छादितो मण्डपः स्थूणामण्डपः श्रेष्ठिपुत्र. 'आहणह'त्ति-निवेशयतेति भावः, 'लघुकरणे'त्यादि, लघुकरणं गमनादिका शीघ्रक्रिया दक्षत्वमित्यर्थः तेन युक्ता ये ॥९९॥ उद्यानपुरुषास्तैयोजित-यन्त्रयूपादिभिः सम्बन्धितं यत्तत्तथा प्रवहणमिति सम्बन्धः, पाठान्तरेण-'लहुकरणजुत्तएहिंति तत्र लपकरणेन-दक्षत्वेन युक्तौ-योजितौ यौ तौ तथा ताभ्यां, ककार इह स्वार्थिका, गोयुवभ्यां युक्तमेव प्रवहणमुपनयतेति | समारंभः। सम्बन्धः, समखरवालधानी-समानशफपुच्छौ समे-तुल्ये लिखिते-शस्त्रेणापनीतबाह्यत्वक्के तीक्ष्णे श) ययोस्ती तथा, ततः कर्मधारयः, ताभ्यां वाचनान्तरे- 'जंबूणयमयकलावजुत्तपइविसिट्ठएहि जम्बूनदमयौ-सुवर्णमयौ कलापौ-कण्ठाभरणविशेषौ योकत्रे च-यपेन सह कण्ठसंयमनरज्जू प्रतिविशिष्ट ययोस्तो च तथा ताभ्यां, रजतमयौ-रूप्यविकारौ घण्टे ययोस्तौ तथा, सूत्ररज्जुके-कार्यासिकसूत्रदवरकमय्यौ वरकनकखचिते ये नस्ते-नासिकान्यस्तरज्जुके तयोः प्रग्रहेण-रश्मिना अवगृहीतकोबद्धौ यो तथा ततः कर्मधारयोऽतः ताभ्यां, नीलोत्पलकृतापीडाभ्यां आपीडः,-शेखरः, प्रवरगोयुवभ्यां, नानामणिरत्नकाश्चनघण्टिकाजालेन परिक्षिप्तं प्रवरलक्षणोपेतं, वाचनान्तरेऽधिकमिदं 'सुजातजुगजुत्तउज्जुगपसत्थसुविरइयनिम्मिय'ति तत्र सुजातं-सुजातदारुमयं युग-यूप: युक्तं-संगतं ऋजुकं-सरलं प्रशस्तं-शुभं सुविरचितं-सुघटित निम्मितं-निवेशितं यत्र तत्तथा, RRCाजाBA% ॥ ९९ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAROKAROIROACHAR युक्तमेव-सम्बद्धमेव प्रवहणं-यानं परिदक्षगन्त्रीत्यर्थः, 'किन्ते जाव सिरी' त्यादि व्याख्यातं धारिणीवर्णके । तते ण ते सत्यवाहदारगा पुव्वावरणहकालसमयंसि देवदत्ताए गणियाए सद्धिं थूणामंडवाओ पडिनिक्खमंति २, हत्थसंगेल्लीए सुभूमिभागे बहूसु आलिघरएसु य, कयलीघरेसु य, लयाघरएसु य, अच्छणघरएसु या पेच्छणघरएसु य, पसाहणघरएसु य, मोहणघरएसु य, सालघरएसु य, जालघरएसु य, कुसुमघरएसु य; उज्जाणसिरिं पचणुभवमाणा विहरंति ॥ सूत्रम्-५३ ॥ तते णं ते सत्यवाहदारया जेणेव से मालुयाकच्छए तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तते णं सा वणमऊरी ते सत्यवाहदारए एजमाणे पासति २ भीया तत्था० महया २ सद्देणं केकारवं विणिम्मुयमाणी २, मालुयाकच्छाओ पडिनिक्खमति २, एगंसि रुक्ख- | मालयंसि ठिच्चा ते सत्यवाहदारए मालुयाकच्छयं च अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी२, चिट्ठति । तते णं ते सत्थवाहदारगा अण्णमन्नं सद्दावति २, एव बदासी-जहा ण देवाणुप्पिया!, एसा वणमऊरी अम्हे एजमाणा पासित्ता भीता तत्था तसिया उब्बिग्गा पलाया महता २, सद्देणं जाव अम्हे मालुयाकच्छयं च | पेच्छमाणी २, चिट्ठति तं भवियव्वमेत्थ कारणेणं तिकट्ठ मालुयाकच्छयं अंतो अणुपविसंति २, तत्थ णं दो ४. पुढे परियागये जाव पासित्ता अन्नमन्नं सदाति २, एवं वदासी-सेयं खलु देवाणुप्पिया!, अम्हे इमे वण| मऊरीअंडए साणं जाइमंताणं कुक्कुडियाणं अंडएसु अ पक्खिवावेत्तए, तते णं ताओ जातिमन्ताओ १ कुडालयंसि. अ। बाजामा Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ROCCC भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ३-श्रीअण्डकाध्यक श्रेष्ठिपुत्रकृतं मयूर्यण्डहरणम् । ॥१०॥ कुक्कुडियाओ ताए अंडए सए य अंडए सएणं पक्खवाएणं सारक्खमाणीओ संगोवेमाणीओ विहरिस्संति, तते णं अम्हं एत्थं दो कीलावणगा मऊरपोयगा भविस्संति त्तिकहु अन्नमन्नस्स एतमढे पडिमुणेति २, सए सए दासचेडे सद्दावेंति २ एवं वदासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुणुप्पिया!, इमे अंडए गहाय सगाणं जाइमंताणं कुक्कुडीणं अंडएसु पक्खिवह जाव तेवि पक्खिवेंति, तते णं ते सत्यवाहदारगा देवदत्ताए गणियाए सद्धिं सुभूमिभागस्स उजाणस्स उजाणसिरिं पञ्चणुभवमाणा विहरित्ता तमेव जाणं दुरूढा समाणा जेणेव चंपानयरीए जेणेव देवदत्ताए गणियाए गिहे तेणेव उवागच्छंति २, देवदत्ताए गिहं अणुपविसंति २, देवदत्ताए गणियाए विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयति २, सक्कारेंति २, सम्माणति २, देवदत्ताए I गिहातो पडिनिक्खमंति २; जेणेव सयाई२, गिहाई तेणेव उवागच्छति २, सकम्मसंपउत्ता जाया यावि | होत्था ॥ सूत्रम्-५४ ॥ तते णं जे से सागरदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए से णं कल्लं जाव जलते जेणेव से वणमऊरीअंडए तेणेव उवागच्छति २, तंसि मऊरीअंडयंसि संकिते कंखिते वितिगिच्छासमावन्ने भेय समावन्ने कलुससमावन्ने किन्नं ममं एत्थ किलावणमऊरीपोयए भविस्सति उदाहु णो भविस्सइ त्तिकद्द, तं मउरीअंडयं अभिक्खणं २, उव्वत्तति, परियत्तेति, आसारेति, संसारेति, चालेति, फंदेह, घट्टेति, खोभेति, अभिक्खण २, कन्नमूलंसि टिहियावेति; तते णं से मऊरीअंडए अभिक्खणं २, उब्बत्तिज्जमाणे जाव टिट्टियावेजमाणे पोचडे जाते यावि होत्था; तते णं से सागरदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए अन्नया कयाई SAEOSEOCOCIENCE C ॥१०॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A 4ॐकार R- 14ॐॐॐ-15% जेणेव से मऊरअंडए तेणेव उवागच्छति २ तं मऊरीअंडयं पोचडमेव पासति २, अहो णं ममं एस कीलावणए मऊरीपोयए ण जाए तिकट्ट ओहतमण जाव झियायति । एवामेव समणाउसो!, जो अम्हं निग्गंथो वा, निग्गंथी वा, आयरियउवज्झयाणं अंतिए पव्वतिए समाणे पंचमहव्वएसु जाव छज्जीवनिकाएसु निग्गंथे पावयणे संकिते जाव कलुससमावन्ने से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं बहणं समणीणं सावगाणं साविगाणं हीलणिज्जे, निंदणिजे, खिसणिजे, गरहणिजे, परिभवणिजे, परलोएविय णं आगच्छति बहूणि दंडणाणि य जाव अणुपरियहए ॥ सूत्रम्-५५॥ तते णं से जिणदत्तपुत्ते जेणेव से मऊरीअंडए तेणेव उवागच्छति२, तंसि मउरीअंडयंसि निस्संकिते, सुवत्तए णं मम एत्थ कीलावणए मऊरीपोयए भविस्सती तिकट्ट तं मऊरीअंडयं अभिक्खणं२, नो उव्वत्तेत्ति जाव नो टिहियावेति तते णं से मरीअंडए अणुव्वत्तिजमाणे जाव अटिहियाविजमाणे तेणं कालेणं तेणं समएणं उन्भिन्ने मऊरिपोयए एत्थ जाते, तते णं से जिणदत्तपुत्ते तं मऊरपोययं पासतिर हट्ट तुढे मऊरपोसए सद्दावेति २, एवं वदासी-तुम्भे णं देवाणुप्पिया!, इमं मऊरपोययं बहहिं मऊरपोसणपाउग्गेहिं दव्वेहिं अणुपुषेणं सारक्खमाणा संगोवेमाणा संवड्डह नढुल्लगं च सिक्खावेह; तते णं ते मऊरपोसगा जिणदः । त्तस्स पुत्तस्स एतमढे पडिसुणेति २, तं मउरपोययं गेण्हंति जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छंति २, तं मयूरपोयगं जाव नदुल्लगं सिक्खावेंति । तते णं से मऊरपोयए उम्मुक्कबालभावे विन्नाय० जोव्वणग० IRCRAFER Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P OS नवाङ्गी- लक्खणवंजण माणुम्माणप्पमाणपडिपुन्न पक्खपेहुणकलावे विचित्तपिच्छे सतचंदए नीलकंठए नच्चण- ३-श्री१०० सीलए एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए अणेगाति नदुल्लगसयाति केकारवसयाणि य करेमाणे विह- अण्डकाभीज्ञाता-10 रति, तते णं ते मऊरपोसगा तं मऊरपोयगं उम्मुक्त जाव करेमाणं पासित्तार, तं मऊरपोयगं गेण्हंति२, ध्य० अधर्मकथाले जिणदत्तस्स पुत्तस्स उवणेति, तते णं से जिणदत्तपुत्ते सत्यवाहदारए मउरपोयगं उम्मुक जाव करेमाणं ध्ययनार्थपासित्ता हहतुढे तेसिं विपुलं जीवियारिहं पीतिदाणं जाव पडिविसज्जेइ, तए णं से मऊरपोतए जिणद॥११॥ |स्य प्रकृते त्तपुत्तेणं एगाए चप्पुडियाए कयाए समाणीए णंगोलाभंगसिरोधरे सेयावंगे गिण्हइ अवयारियपइन्नपक्खे तसंगतिः। उक्खित्तचंदकातियकलावे केकाइयसयाणि विमुच्चमाणे णचइ, तते णं से जिणदत्तपुत्ते तेणं मउरपोयएणं चंपाए नयरीए सिंघाडग जाव पहेसु सतिएहि य साहस्सिएहि य सयसाहस्सिएहि य पणिएहि य जयं करेमाणे विहरति । एवामेव समणाउसो, जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा पव्वतिए समाणे पंचसु महब्बएसु छसु जीवनिकाएसु निग्गंथे पाववणे निस्संकिते निकंखिए निव्वितिगिच्छे से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं समणीणं जाव वीतिवतिस्सति । एवं खलु जंबू, समणेणं णायाणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्तेत्ति बेमि ॥ सूत्रम्-५६ ॥ तचं नायज्झयणं समत्तं ॥३॥ 'हत्थसंगेल्लीए'त्ति-अन्योऽन्यं हस्तावलम्बनेन, 'आलिघरसु य कयलिघरएसुय-आलीकदल्यौ-वनस्पतिविशेषौ, 'लताघरऐसु य लता:-अशोकादिलताः 'अच्छणघरएसुय'-अच्छणंति-आसनं, 'पेच्छणघरएसु य'-प्रेक्षणं-प्रेक्षणकं, II १०१॥ नाबा + +KACCE Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'पसाहणघरएसु य'-प्रसाधनं-मण्डनं, मोहणधरएम य-मोहन-निधुवनं, 'सालघरएसु य-साला-शाखाः, अथवाशाला-वृक्षविशेषाः, 'जालघरएसु य'-जालगृह-जालकान्वितं, 'कुसुमघरएसु य-कुसुमप्रायवनस्पतिगृहेष्वित्यर्थः, क्वचित्कदलीगृहादिपदानि यावच्छब्देन सूच्यन्त इति, शङ्कितः-किमिदं निष्पत्स्यते न वेत्येवं विकल्पवान् कासितःतत्फलाकासावान् कदा निष्पत्स्यते इतो विवक्षितं फलमित्यौत्सुक्यवानित्यर्थः, विचिकित्सितः-जातेऽपीतो मयूरपोतेऽतः, किं मम क्रीडालक्षणं फलं भविष्यति न वेत्येवं फलं प्रति शङ्कावान् । किमुक्तं भवति !,-भेदसमापन्नो मतेधाभावं प्राप्तः सद्भावासद्भावविषयविकल्पव्याकुलित इति भावः, कलुषसमापनो-मतिमालिन्यमुपगतः, एतदेव लेशत आह-'किन्न'मित्यादि, उद्वर्तयति-अधोदेशस्योपरिकरणेन परिवर्तयति-तथैव पुनः स्थापनेन 'आसारयति'-ईषत्स्वस्थानत्याजनेन, 'संसारयति'पुनरीषतस्वस्थानात् स्थानान्तरनयनेन चालयति-स्थानान्तरनयनेन स्पन्दयति-किंचिच्चलनेन, घट्टयति-हस्तस्पर्शनेन, क्षोभयति-ईषभूमिमुत्कीर्य तत्प्रवेशेन, 'कण्णमूलंसित्ति-स्वकीयकर्णसमीपे धृत्वा, 'टिहियावेति'-शब्दायमानं करोति, 'पोचडंति-असारं, हीलनीयो गुरुकुलाद्युद्धट्टनतः निन्दनीयः कुत्सनीयो-मनसा खिंसनीयो-जनमध्ये गर्हणीयः-समक्षमेव च परिभवनीयोऽनभ्युत्थानादिभिः, मयूरपोषका ये मयूरान् पुष्णन्ति । 'नट्टल्लगं'ति-नाटय, 'विनाये'त्यादौ 'विनायपरिणयमेव जोवणगमणुपत्ते लक्खणवंजणगुणोववेए' इत्येवं दृश्य, मानेन-विष्कम्भतः उन्मानेन-बाहल्यतः प्रमाणेन चआयामतः परिपूर्णौ पक्षौ 'पेहुणकलावित्ति-मयूराङ्गकलापश्च यस्य स तथा, विचित्राणि पिच्छानि शतसंख्याश्च चन्द्रका यस्य स तथा, वाचनान्तरे विचित्रा:-पिच्छेष्ववसक्ताः संबद्धाश्चन्द्रका यस्य स विचित्रपिच्छावसक्तचन्द्रका नीलकण्ठको ROCHEDCALIFICAA5 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३-श्री नवाङ्गीवृ०० श्रीज्ञाताधर्मकथाले । अण्डकाध्य० अध्यय ॥१०२॥ नर्त्तनशीलकः चप्पुटिका-प्रतीता केकायित-मयूराणां शब्दः एकस्यां चप्पुटिकायां कृतायां सत्यां 'णंगोलाभंगसिरोहरित्ति-लालाभङ्गवत्-सिंहादिपुच्छवक्रीकरणमिव शिरोधरा-ग्रीवा यस्य स तथा, स्वेदापनो-जातस्वेदः श्वेतापाङ्गो वा सितनेत्रान्तः अवतारितौ-शरीरात्पृथकृतौ प्रकीर्णी-विकीर्णपिच्छौ पक्षौ यस्य स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, उत्क्षिप्त:ऊर्कीकृतश्चन्द्रकादिक:-चन्द्रकप्रभृतिकमयूराङ्गकविशेषोपेतश्चन्द्रकै रचितैर्वा कलापा-शिखण्डो येन स तथा, केकायितशतंशब्दविशेषशतं, 'पणिएहिति-पणितैः-व्यवहारोंदादिभिरित्यर्थः। एवमेवे'त्यादि उपनयवचनमिति, भवन्ति चात्र गाथा:'जिणवरभासियभावेसु भावसच्चेसु भावओ मइमं । नो कुजा संदेहं संदेहोऽणत्थहेउत्ति ॥ १॥ निस्संदेहत्तं पुण गुणहेउं जं तओ तयं कजं । एत्थं दो सिद्विसुया अंडयगाही उदाहरणं ॥ २॥ कत्थइ मइदुब्ल्लेण तबिहायरियविरहओ वा वि । नेयगहणतणेणं च नाणावरणोदएणं ॥ ३॥ हेऊदाहरणासंभवे य सइ सुटू जंन बुज्झिज्जा । सबन्नुमयमवितह तहावि इह चितए मइमं ॥ ४ ॥ अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा जगप्पवरा । जियरागदोसमोहा य णनहावाइणो तेण ॥ ५॥". विवरणतः समाप्तमिदं तृतीयमध्ययनं ॥ SAHEBCARCISHAFERIE नार्थोप संहारा। . सा. जिनवरभाषितेषु भावेषु भावसत्येषु भावतो मतिमान् । न कुर्यात् संदेहं संदेहोऽनर्थहेतुरिति ॥ १॥ निस्संदेहत्वं पुनर्गुणहेतुर्यत्तस्तकत् कार्य अत्र द्वौ घेष्टिसुतौ अण्डकग्राहिणाबुदाहरणं ॥ २॥ कचित् मतिदौर्बल्येन तद्विधाचार्यविरहतो वापि । शेयगहनत्वेन ज्ञानावरणोदयेन च ॥ ३ ॥ हेतू. दाहरणासंभवे च सति सुष्ठु यन्न बुध्येत । सर्वज्ञमतवितथं तथापि इति चिन्तयेत् मतिमान् ॥ ४ ॥ अनुपकृतपरानुग्रहपरायणा यद् जिना जगत्प्रवराः । जितरागद्वेषमोहाच नान्यथावादिनस्तेन ॥ ५॥ S Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CACARAC%EC%834 ॥४-श्रीकूर्माख्यं ज्ञाताध्ययनम् ॥ - - अथ कूर्मामिधानं चतुर्थमध्ययनं विवियते, अस्य चायं पूर्वेण सहाभिसम्बन्धः-अनन्तराध्ययने प्रवचनार्थेषु शङ्किता. शङ्कितयोः प्राणिनोर्दोषगुणावुक्ताविह तु पश्चेन्द्रियेषु गुप्तागुप्तयोस्तावेवाभिधीयते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमुपक्षेपादिसूत्रम् जति णं भंते !, समणेणं भगवया महावीरेणं नायाणं तच्चस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, चउस्थस्स णं णायाणं के अढे पन्नत्ते १; एवं खलु जंबू, तेणं कालेणं २, वाणारसी नाम नयरी होत्था, वन्नओ; तीसे णं वाणारसीए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे, गंगाए महानदीए, मयंगतीरहहे, नामं दहे होत्था; अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजले, [अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने, संछन्नपत्तपुप्फपलासे, बउहुप्पलपउमकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहसपत्तकेसरपुष्फोवचिए, पासादीए ४, तत्थ णं बहणं मच्छाण य कच्छभाण य गाहाण य मगराण य सुंसुमाराण य सइयाण य साहस्सियाण य सयसाहस्सियाण य जूहाई निम्भयाइं निरुव्विग्गाइं सुहंसुहेणं अभिरममाणगाति २ विहरंति, तस्स णं मयंगतीरद्दहस्स अदूरसामंते एत्थ णं महं एगे मालुयाकच्छए होत्था वन्नओ, तत्थ णं दुवे पावसियालगा परिवसंति, पावा चंडा, रोहा, तल्लिच्छा, साहसिया, लोहितपाणी, आमिसत्थी, आमिसाहारा, आमिसप्पिया, आमिसलोला, आमिसं गवेसमाणा, रत्तिं वियालचारिणो, दिया पच्छन्नं चावि, चिटुंति; YEA%ाजEEIREDA Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बवाङ्गी मीज्ञाताधर्मकथाङ्गे र दहे ते पावसियाला ते ण पासंति २, भीता तत्ष्कदा तुसिणीया संचि ०३॥ UGCSCGEOGRESSECORROREOGACAS तते ण ताओ मयंगतीरदहातो अन्नया केदाइं सूरियंसि चिरस्थमियंसि लुलियाए संझाए पविरलमाणु- ४-श्रीसंसि णिसंतपडिणिसंतंसि समाणंसि दुवे कुम्मगा आहारत्थी आहारं गवेसमाणा सणियं २, उत्तरंति; कूर्माध्य. तस्सेव मयंगतीरदहस्स परिपेरंतेणं सब्बतो समंता परिघोलेमाणा २, वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति: तय- कूर्मयोर्गाणंतरं च णं ते पावसियालगा आहारत्थी जाव आहारं गवेसमाणा मालुयाकच्छयाओ पडिनिक्खमंति २ शत्रोपसंहतिः त्ता, जेणेव मयंगतीरे दहे तेणेव उवागच्छंति तस्सेव मयंगतीरद्दहस्स परिपेरंतेणं परिघोलेमाणा २, वित्ति शृगालकप्पेमाणा विहरंति; तते णं ते पावसियाला ते कुम्मए पासंति २, जेणेव ते कुम्मए तेणेव पहारेत्थ गम प्रस्तत्वं णाए, तते णं ते कुम्मगा ते पावसियालए एजमाणे पासंति २, भीता तत्था तसिया उव्विग्गा संजात. भया हत्थे य पादे य गीवाए य सरहिं २, कारहिं साहरंति २, निचला निष्फंदा तुसिणीया संचिट्ठति तते णं ते पावसियालया जेणेव ते कुम्मगा तेणेव उवागच्छंति २ ते कुम्मगा सवतो समन्ता उव्वतेंति, परियत्तेति, आसारेंति, संसारेंति चालेंति, घट्टेति, फंदेति, खोभेति; नहेहिं आलुपंति, दंतेहि य अक्खोडेंति, नो | चेव णं संचाएंति तेसि कुम्मगाणं सरीरस्स आवाहं वा, पवाहं वा, वावाहं वा, उप्पाएत्तए छविच्छेयं वा करेत्तए; तते णं ते पावसियालया एए कुम्मए दोबंपि तचंपि सव्वतो समंता उव्वतेंति जाव नो चेवणं संचाएन्ति करेत्तए, ताहे संता तंता परितंता निम्विन्ना समाणा सणियं २, पचोस केंति, एगंतमवकमंति, ||LOCAFECI A १ कयाई अ। E % Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECEk% A E RAAAAAAA निचला निष्फंदा तुसिणीया संचिटुंति; तत्थ णं एगे कुम्मगे ते पावसियालए चिरंगते दूरंगए जाणित्ता सणियं २, एगं पायं निच्छु भति; तते णं ते पावसियाला तेणं कुम्मएणं सणियं २ एग पायं नीणियं पासंति २, ताए उकिट्ठाए गईए सिग्धं चवलं तुरियं चंडं जतिणं वेगितं जेणेव से कुम्मए तेणेव उवागच्छंति २, तस्स णं कुम्मगस्स तं पायं नहिं आलुंपंति, दंतेहिं अक्खोडेंति, ततो पच्छा मंसं च सोणियं च आहारेंति २, तं कुम्मगं सव्वतो समंता उन्वतेंति जाव नो चेव णं संचाइन्ति करेत्तए ताहे दोचंपि अवकमंति एवं चत्तारिवि पाया जाव सणियं २, गीवं जीणेति, तते णं ते पावसियालगा तेणं कुम्मएणं गीवं णीणियं पासंति २, सिग्धं चवलं ४ नहेहिं दंतेहि कवालं विहाडेंति २,तं कुम्मगं जीवियाओ ववरोति २ मंसं च सोणियं च आहारैति, एवामेव समणाउसो! जो अम्हं निग्गंथो वा २, आयरियउवज्झायाणं अंतिए पब्वतिए समाणे पंच( से) इंदिया अगुत्ता भवंति से णं इह भवे चेव बहूणं समणाणं ४ हीलणिज्जे परलोगेऽविय णं आगच्छति बहणं दंडणाणं जाव अणुपरियति, जहा से कुम्मए अगुत्ति। दिए, तते ण ते पावसियालगा जेणेव से दोच्चए कुम्मए तेणेव उवागच्छंति २ तं कुम्मगं सव्वतो | समंता उव्वतेंति जाव दंतेहिं अक्खुडेंति जाव करेत्तए, तते णं ते पावसियालगा दोचंपि तचंपि जाव नो संचाएन्ति तस्स कुम्मगस्स किंचि आवाहं वा विवाहं वा जाव छविच्छेयं वा करेत्तए ताहे संता तंता परितंता निविना समाणा जामेव दिसिं पाउन्भूता तामेव दिसि पडिगया, तते णं से कुम्मए ते -% AITERACCID Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिरंगए दूरंगप उनिहाए कुममा अभिसमजाव जहा || ॥१०४॥ नवाङ्गी- पावसियालए चिरंगए दूरंगए जाणित्ता सणियं २ गीवं नेणेति २ दिसावलोयं केरइ २ जमगसमगं १०० चत्तारिवि पादे नीति २ ताए उकिट्ठाए कुम्मगईए वीइवयमाणे २ जेणेव मयंगतीरद्दहे तेणेव उवागच्छइ कूर्माध्य. श्रीज्ञाता- २ मित्तनातिनियगसयणसंबंधिपरियणेणं सद्धिं अभिसमन्नागए यावि होत्था, एवामेव समणाउसो ! जो अध्ययनोंधर्मकथाङ्गे अम्हं समणो वा २ पंच से इंदियाति गुत्तातिं भवंति जाव जहा उ से कुम्मए गुत्तिदिए । एवं खलु पसंहारः। जंबू !समणेणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्ति बेमि ॥ सूत्रम्-५७ ।। चउत्थं नायज्झयणं समत्तं ॥४॥ ____ 'जई'त्यादि, सुगर्भ सर्व, नवरं 'मयंगतीरहहे'त्ति-मृतगङ्गातीरहदः मृतगङ्गा यत्र देशे गङ्गाजलं व्यूढमासीदिति, 'आनुपूर्येण'-परिपाव्या सुष्टु जाता वप्राः-तटा यत्र स तथा गम्भीरं-अगाधं शीतलं जलं यत्र स तथा ततः पदद्वयस्य र कर्मधारयः, क्वचिदिदमधिकं दृश्यते 'अच्छविमलसलिलपलिच्छन्ने' प्रतीतं नवरं भृतत्वात्प्रतिच्छन्ना-आच्छादितः, कचित्तु'संछन्ने' त्यादिसूचनादिदं दृश्यं 'संछन्नपउमपत्चमिसमुणाले संछन्नानि आच्छादितानि पौः पत्रैश्व-पद्मिनीदले: विशानिपमिनीमूलानि मृणालानि च-नलिननालानि यत्र स तथा; कचिदेवं पाठ:-'संछन्नपत्तपुप्फपलासे' संछन्नैः पत्रे:-पमिनीदलैः पुष्पपलाशैश्व-कुसुमदलैयः स तथा 'बहुउप्पलकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्त केसरफुल्लो. वइए' बहुभिरुत्पलादिभिः केसरप्रधानः फुल्लै:-जलपुष्पैरुपचितः-समृद्धो यः स तथा,तत्रोत्पलानि नीलोत्पलादीनि कुमुदानिमचन्द्रबोध्यादीनि पुण्डरीकाणि-सितपमानि शेषाणि लोकरूब्याऽवसेयानि 'छप्पयपरिभुजमाणकमले अच्छविमल- I|१०४। 5453 |||| Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सलिलपत्थपुणे-अच्छे च विमलं च यत्सलिलं-जलं पथ्य-हितं तेन पूर्णः, 'परिहत्थभमतमच्छकच्छभअणेगस. उणगणमिहुणपविचरिए'-'परिहत्य'त्ति दृप्ता भ्रमन्तो मत्स्याः कच्छपाश्च यत्र स तथा अनेकानि शकुनगणानां मिथुनानि | प्रविचरितानि यत्र स तथा,ततः पदद्वयस्य कर्मधारयः, पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे' इति प्राग्वत् , 'पावे'त्यादि, पापौ पापकारित्वात् चण्डौ क्रोधनत्वात रौद्रौ भीषणाकारतया तत्तद्विवक्षितं वस्तु लन्धुमिच्छत इति तल्लिप्सू साहसिकौसाहसात् प्रवृत्तौ लोहितौ पाणी-अग्रिमौ पादौ ययोस्तौ तथा, लोहितपानं वा अनयोरस्तीति लोहितपानिनौ, आमिपं-मांसादिकमर्थयत:-प्रार्थयतो यौ तौ तथा, आमिषाहारी-मांसादिभोजिनौ आमिषप्रियौ-बल्लभमांसादिको आमिषलोलौ आमिपलम्पटौ | आमिषं गवेषयमाणौ सन्तौ रात्रौ-रजन्यां विकाले च-सन्ध्यायां चरत इत्येवंशीलौ यौ तौ तथा, दिवा प्रच्छन्नं चापि तिष्ठतः। 'सूरिए' इत्यादि, सूर्य-भास्करे 'चिरास्तमिते' अत्यन्तास्तं गते 'लुलितायां' अतिक्रान्तप्रायायां सन्ध्यायां 'पविरलमाणुस्संसि निसंतपडिनिसंतसित्ति कोऽर्थः-प्रविरलं किल मानुषं सन्ध्याकाले यत्र तत्र देशे आसीत् तत्रापि निशान्तप्रतिनिशान्ते-अत्यन्तं भ्रमणाद्विरते निशान्तेषु वा-गृहेषु प्रतिनिश्रान्ते-विश्रान्ते निलीने अत्यन्तजनसञ्चारविरह इत्यर्थः 'समाणसि'त्ति सति आवाधा-ईषद्वाघां प्रवाधा-प्रकृष्टां बाधां व्याबाधां वा छविच्छेद-शरीरच्छेद, श्रान्तौ-शरीरत: खिन्नौ तान्तौ-मनसा परितान्तौ-उभयतः, 'ताए उक्ट्ठिाए'-इह एवं दृश्य-'तुरियाए, चवलाए, चंडाए, सिग्याए, उद्धृयाए, जयणाए, छेयाए'त्ति तत्र उत्कृष्टा-कूर्माणां यः स्वगत्युत्कर्षः तद्वती त्वरितत्वं, मनस औत्सुक्यात् चपलत्वं, १ कोदत्वात्, अ। HTRAIHIIICAE% Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSESARI बवाङ्गी- कायस्य चण्डत्वं, संरम्भारब्धत्वात् शीघ्रत्वं, अत एव उद्धृतत्वं अशेषशरीरावयवकम्पनात् , जयनीत्वं शेषकूर्मगतिजेतृत्वात् छकत्वमपायपरिहास्नैपुण्यादिति । ज्ञातोपनयनिगमने च कण्ठये, केवलं 'आयरियउवझायाणं अंतिए पवइए समाणे' इत्यत्र कूर्माध्य. मीज्ञाता- | विहरतीति शेषो द्रष्टव्यः, विशेषोपनयनमेवं कार्य-इह कूर्मस्थानीयौ साधू शृगालस्थानीयौ रागद्वेषौ, ग्रीवापञ्चमपादचतुष्टय- TM अध्ययधर्मकथाङ्गेल स्थानीयानि पश्चेन्द्रियाणि, पादग्रीवाप्रसारणस्थानीयाः शब्दादिविषयेष्विन्द्रियप्रवृत्तयः, शृगालप्राप्तिस्थानीयो रागद्वेषोद्भवः, नार्थोंपादादिच्छेदकूर्ममरणस्थानीयानि रागादिजनितकर्मप्रभवानि तिर्यग्नरनरकजातिभवेषु नानाविधदुःखानि, पादादिगोपनस्था॥१०५॥ पनयः। नीया इन्द्रियसंलीनता, शृगालाग्रहणलक्षणा रागायनुत्पत्तिः, मृतगङ्गानदप्रवेशतुल्या निर्वाणप्राप्तिरिति । इह गाथा-'विसएसु इंदिआई रुमंता रागदोसनिम्मुक्का । पावंति निव्वुइसुहं कुम्मुव मयंगदहसोक्ख ॥१॥ अवरे उ अणस्थपरंपरा उ पार्वति पापकम्मवसा । संसारसागरगया गोमाउग्गसियकुम्मोच ।। २॥" इति ज्ञातधर्मकथायां समाप्तमिदं चतुर्थमध्ययनम् ॥ ४ ॥ - 54--- ॥५-श्रीशैलकाख्यं ज्ञाताध्ययनम् ॥ अथ पञ्चमं शैलकाख्यं ज्ञाताध्ययनं विवियते, अस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्ध:-पूर्वत्रासलीनेन्द्रियेतरयोरनार्थावुक्तौ इह | तु पूर्वमसंलीनेन्द्रियो भूत्वाऽपि यः पश्चात्सलीनेन्द्रियो भवति तस्यार्थप्राप्रिरभिधीयत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्र . सा-विषयेभ्य इन्द्रियाणि रुन्धन्तो रागद्वेषविमुक्काः। प्राप्नुवन्ति निर्वृतिमुखं कूर्म इव तग'इदसौख्यम् ॥1॥ अपरे त्वनर्थपरम्परास्तु प्राप्नुवन्ति पापकर्मवचाः । संसारसागरगता मोमायुप्रस्तकूर्म इव ॥२॥ ॥१०५॥ बाजाIFRIRECASI E S Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जति णं भंते !, समणणं भगवया महावीरेणं चउत्थस्स नायज्झणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते; पंचमस्स णं भंते! णायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते ?; एवं खलु जंबू 1, तेणं कालेणं २ वारवती नामं नयरी होत्था; पापडीणाया, उदीणदाहिणविच्छिन्ना, नवजोयणविच्छिन्ना, दुवालसजोयणायामा, घणवइमतिनिम्मिया, चामीयरपवरपागारणाणामणिपंचवन्नकविसी सगसोहिया, अलयापुरिसंकासा, पमुतिय पक्कीलिया, पञ्चक्खं देवलोयभूता; तीसे णं बारवतीए नयरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए रेवतगे नाम माम पव्वर होत्था, तुंगे, गगणतलमणुलितसिहरे, णाणाविहगुच्छगुम्मलयावल्लिपरिगते, हंसमिगमयूरकोंचसारसचकवाय मयणसालको इलकुलोववेए, अणेगतडकडगवि परउज्झरयपवाय पन्भारसिहर पउरे, अच्छर गणदेवसंघ चारणविज्जाहर मिहुणसंविचिन्ने, निचच्छणए, दसारवरवीर पुरिसते लोकब लवगाणं सोमे सुभगे पिपदंसणे सुरूवे पासातीए ४; तस्स णं रेवयगस्स अदूरसामंते एत्थ णं णंदणवणे नामं उज्जाणे होत्था, सव्वोयफफलसमिद्धे रम्मे नंदणवणप्पगासे पासातीए ४; तस्स णं उज्जाणस्स बहुमज्झदेस भाए सुरपिए नाम जक्खाययणे होत्था, दिव्वे वन्नओ; तत्थ णं बारवतीए नयरीए कण्हे नामं वासुदेवे राया परिवसति, से णं तत्थ समुद्दविजय पामोक्खाणं दसण्हं दसाराणं, बलदेवपामोक्खाणं, पंच महावीराणं उग्गसेण पामोखाणं, सोलसण्हं राईसहस्साणं पज्जुन्नपामोक्खाणं, अद्भुट्ठाणं कुमारकोडीणं संवपामोक्खाणं, सट्ठीए दुदंतसाहस्सीणं वीरसेणपामोक्खाणं, एकवीसाए वीरसाहस्सीणं महासेनपामोक्खाणं, Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी भीज्ञाताधर्मकथाओं छप्पन्नाए बलवगसाहस्सीणं, रुप्पिणीपामोक्स्वाणं बत्तीसाए महिलासासाहस्सीणं, अणंगसेणापामोक्खाणं ५-भीअणेगाणं गणियासाहस्सीणं, अन्नसिं च बहणं ईसरतलवर जाव सत्थवाहपभिईणं वेयडगिरिसायरपेरंतस्स || शैलकाय दाहिणड्डभरहस्स [य] चारवतीए नयरीए आहेवचं जाव पालेमाणे विहरति । सूत्रम्-५८॥ ध्य. 'जह ण'मित्यादि, सर्व सुगम, नवरं 'धणवइमइनिम्माय'ति-धनपतिः-वैश्रमणस्तन्मत्या निर्मापिता-निरूपिता, द्वारिकाअलकापुरी-वैश्रमणपुरी प्रमुदितप्रक्रीडिता तद्वासिजनानां प्रमुदितप्रक्रीडितत्वात् बैतका-उज्जयन्तः 'चक्कवाग'त्ति-चक्र- रैवतावाकः, 'मयणसाल'त्ति-मदनसारिका अनेकानि तटानि कटकाच-गण्डशैला यत्र स तथा; 'विअर'त्ति-विवराणि च चलअवज्झराश्च-निर्झरविशेषाः प्रपाताश्च-भृगवः प्राग्भाराश्च-ईषदवनता गिरिदेशाः शिखराणि च-कूटानि प्रचुराणि यत्र स || कृष्णादितथा, ततः कर्मधारयः। अप्सरोगणैः-देवसः, चारण:-जङ्घाचारणादिभिः, साधुविशेपैविद्याधरमिथुनैश्च, 'संविचिण्णे'- वर्णनम् । त्ति-संविचरित आसेवितो यः स तथा; 'नित्यं-सर्वदा, 'क्षणा'-उत्सवा यत्रासौ नित्यक्षणिकः केषामित्याह-'दशारा' -समुद्रविजयादयः तेषु मध्ये वरास्त एव वीरा-धीरपुरुषा ये ते तथा 'तेलोकवलवगाणं'-त्रैलोक्यादपि बलवन्तोऽतुलबलनेमिनाथयुक्तत्वात् ये ते तथा ते च ते चेति तेषां । तस्स णं बारवईए नयरीए थावचा णाम गाहावतिणी परिवसति अड्डा जाव अपरिभूता, तीसे णं थावचाए गाहावतिणीए पुत्ते थावच्चापुत्ते णाम सत्यवाहदारए होत्था सुकुमालपाणिपाए जाव सुरूवे, तते णं १.णयक्षपु० । १०६॥ FORITERASHA Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECE%A5 सा थावचागाहावइणी तं दारयं सातिरेगअहवासजाययं जाणित्ता सोहणसि तिहिकरणणखत्तमुहुत्तंसि कलायरियस्स उवणेति, जाव भोगसमत्थं जाणित्ता बत्तीसाए इभकुलबालियाणं एगदिवसेणं पाणिं गेण्हावेंति बत्तीसतो दाओ जाव बत्तीसाए इन्भकुलबालियाहिं सद्धिं विपुले सद्दफरिसरसरूपवनगंधे जाव भुंजमाणे विहरति । तेणं कालेणं २, अरहा अरिहनेमी सो चेव वण्णओ; दसघणुस्सेहे नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासे, अट्ठारसहिं समणसाहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे, चत्तालीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धिं संपुरिवुडे, पुव्वाणुपुब्वि चरमाणे जाव जेणेव बारवती नगरी, जेणेव रेवयगपव्वए, जेणेव नंदणवणे उजाणे, जेणेव सुरप्पियस्स जक्खस्स जक्खाययणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवागच्छइ २, अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ । तते णं से कण्हे वासुदेवे इमीसे कहाए लद्धडे समाणे कोडुबियपुरिसे सहावेति २, एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!, सभाए सुहम्माए मेघोघरसियं गंभीरं महुरसई, कोमुदितं भेरिं तालेह तते णं ते कोडुंबियपुरिसा कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ट जाव मत्थए अंजलिं कटु-एवं सामी, तहत्ति जाव पडिसुणेति २, कण्हास वासुदेवस्स अंतियाओ पडिनिक्खमंति २, जेणेव सहा सुहम्मा जेणेव कोमुदिया मेरी तेणेव उवागच्छंति तं मेघोघरसियं गंभीरं महुरसई कोमुदितं भेरि तालेति । ततो निद्धमहुरगंभीरपडिसुएणंपिव सारइएणं बलाहएणपिव अणुरसियं भेरीए, तते णं तीसे कोमुदि %9FAIजIनI SACR % Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SEA नवाङ्गी०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ५-श्रीशिलकाध्यक श्रीनेमिवन्दनार्थ कृष्णस्य ॥१०७॥ GAUSA सजी याए भेरियाए तालियाए समाणीए बारवतीए नयरीए, नवजोयणविच्छिन्नाए, दुवालसजोयणायामाए, सिंघाडगतियचउक्कचच्चरकंदरदरीए, विवरकुहरगिरिसिहनगरगोउरपासातदुवारभवणदेउलपडिसुयासय. सहस्ससंकुलं सई करेमाणे, बारवति नगरिं सब्भितरबाहिरियं सव्वतो समंता से सद्दे विप्पसरित्था; तते ण बारवतीए नयरीए नवजोयणविच्छिन्नाए, बारसजोयणायामाए, समुद्दविजयपामोक्खा, दसदसारा जाव गणियासहस्साई कोमुदीयाए भेरीए सदं सोचा, णिसम्म, हतुन्ना जाव पहाया आविद्धवग्यारिय. मल्लदामकलावा अहतवत्थचंदणोकिन्नगायसरीरा अप्पेगतिया हयगया एवं गयगया रहसीयासंदमाणीगया अप्पेगतिया पायविहारचारेणं पुरिसवग्गुरापरिखित्ता कण्हस्स वासुदेवस्स अंतियं पाउभवित्था । तते | णं से कण्हे वासुदेवे, समुद्दविजयपामोक्खे दस दसारे जाव अंतियं पाउन्भवमाणे पासति, पासित्ता, हतुह जाव कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति २; एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!, चाउरिंगिणीं सेणं सब्जेह विजयं च गंधहत्थि उवट्ठवेह, तेवि तहत्ति उवट्ठवेंति; जाव पज्जुवासंति ॥ सूत्रम्-५९ ॥ 'बत्तीसओ दाओ'-द्वात्रिंशत्प्रासादाः, द्वात्रिंशद्धिरण्यकोट्यः, द्वात्रिंशत्सुवर्णकोट्य इत्यादिको दायो-दानं वाच्यो | यथा मेषकुमारस्य 'सो चेव वण्णओ'त्ति । आइगरे, तित्थगरे इत्यादियों महावीरस्य अभिहितः। 'गवल'त्ति-महिष्यशृङ्गं गुलिका-नीली गवलस्य वा गुलिका गवलगुडिका अतसी-मालवकप्रसिद्धो धान्यविशेषः, 'कोमुइयंति-उत्सववाद्य क्वचित्सामुदायिकीमिति पाठः तत्र सामुदायिकी-जनमीलकप्रयोजना। 'निद्धमहुरगंभीरपडिसुएणंपिवत्ति-निग्धं भवनम् । R Caye Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिक मधुरं गम्भीरं प्रतिश्रुतं-प्रतिशब्दो यस्य स तथा तेनेव, केनेत्याह-'शारदिकेन'-शरत्कालजातेन, 'बलाहकेन'-मेघेनातुरसिंत-शब्दायित मेर्याः, शृङ्गाटकादीनि प्राग्वत् ; गोपुर-नगरद्वारं, प्रासादो-राजगृहं, द्वाराणि प्रतीतानि, भवनानिगृहाणि, देवकुलानि-प्रतीतानि तेषु याः 'पडिसुयति-प्रतिश्रुताः-प्रतिशब्दकास्तासां यानि शतसहस्राणि-लवास्तैः संकूला या सा तथा तां कुर्वन् , कामित्याह-द्वारकावतीं नगरी; कथंभूतामित्याह-सभितरवाहिरियंति-सहाम्यन्तरेणमध्यभागेन पाहिरिकया च-प्राकारादहिनगरदेशेन या सा तथा साभ्यन्तरवाहिरिका तां, 'से'-इति स भेरीसम्बन्धी शब्दः, 'विप्पसरित्थति-विनासरत् 'पामोक्खाई' ति-प्रमुखाः, 'आविद्धवग्घारियमल्लदामकलाव'ति-परिहितप्रलम्बपुष्पमालासमूहा इत्यादिवर्णकः प्राग्वत् । 'पुरिसवग्गुरापरिखित्ता'-वागुरा-मृगवन्धनं वागुरेव वागुरा समुदायः। थावच्चापुत्तवि णिग्गए जहा मेहे तहेव धम्म सोचा, णिसम्म जेणेव थावचा गाहावतिणी तेणेव उवागच्छति २, पायग्गहणं करेति जहा मेहस्स तहा चेव णिवेयणा जाहे नो संचाएति, विसयाणुलोमाहि य, विसयपडिकूलेहि य, बहुहिं आघवणाहि य, पन्नवणाहि य, सन्नवणाहि य, विनवणाहि य आघवित्तए वा ४ ताहे अकामिया चेव थावच्चापुत्तदारस्स निक्खमणमणुमन्नित्था नवरं निक्खमणाभिसेयं पासामो; तए णं से थावच्चापुत्ते तुसिणीए संचिट्ठइ, तते णं सा थावच्चा आसणाओ अब्भुटेति २, महत्थं, महग्छ, महरिहं, रायरिहं पाहुडं गेण्हति २, मित्त जाव संपरिबुडा जेणेव कण्हस्स वासुदेवस्स भवणवरपडिदुवारदेसभाए तेणेव उवागच्छति २, पडिहारदेसिएणं मग्गेणं जेणेव कण्हे वासुदेवे तेणेव उवाग AFRAcलाजाIA%A5 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०० भीज्ञाताधर्मकथाले -श्रीशैलकाध्य. | श्रीथाव चापुत्र. निष्क्रमणवर्णनम् । वं वदासी-अस्स छत्तमउडचामराओ मणसकार करेमि, इच्छामिवणे इच्छति च्छति २, करयलब्बद्धवावेति २तं महत्थं, महग्छ, महरिहं, रायरिहं पाहुडं उवणेइ २, एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया !, मम एगे पुत्ते थावच्चापुत्ते, नामं दारए इढे जाव से णं संसारभयउम्बिग्गे इच्छति अरहओ अरिहनेमिस्स जाव पवतित्तए; अहण्णं निक्खमणसकारं करेमि, इच्छामि णं देवाणुप्पिया 1, थावच्चापुत्तस्स निक्खममाणस्स छत्तमउडचामराओ य विदिनाओ; तते णं कण्हे वासुदेवे थावच्चागाहावतिणीं एवं वदासी-अच्छाहि णं तुमं देवाणुप्पिए!, सुनिव्वुया वीसत्था, अहण्णं सयमेव थावच्चापुत्तस्स दारगस्स निक्खमणसक्कारं करिस्सामि तते णं से कण्हे वासुदेवे चाउरंगिणीए सेणाए विजयं हत्थिरयणं दुरूढे समाणे जेणेव थावच्चाए गाहावतिणीए भवणे तेणेव उवागच्छति २, थावचापुत्तं एवं वदासी मा णं तुमे देवाणुप्पिया !, मुंडे भवित्ता पव्वयाहि, भुंजाहि णं देवाणुप्पिया! विउले माणुस्सए कामभोए। मम बाहुच्छायापरिग्गहिए; केवलं देवाणुप्पियस्त अहंणो संचाएमि, वाउकार्य उवरिमेणं गच्छमाणं निवारित्तए, अण्णे णं देवाणुप्पियस्स जे किंचिवि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएति तं सवं निवारेमिः तते णं से थावच्चापुत्ते कण्हेणं वासुदेवेणं एवं वुत्ते समाणे, कण्हं वासुदेवं एवं वयासी-जाणं तुमं देवाणुप्पिया, मम जीवियंतकरणं मच्छं एज्जमाणं निवारेसि, जरं वा सरीररूवविणासिणि सरीरं बा अइवयमाणिं निवारेसि, तते णं अहं तव बाहुच्छायापरिग्गहिए विउले माणुस्सए कामभोगे भुंजमाणे विह रामिः तते णं से कण्हे वासुदेवे थावचापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे थावच्चापुत्तं एवं वदासी-एए णं देवाणु. ||ॐIFICK १०८॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SuskSASUSMSSAGESS प्पिया!, दुरतिक्कमणिज्जा णो खलु सक्का सुबलिएणावि देवेण वा, दाणवेण वा, णिवारित्तए णन्नत्थ अप्पणो कम्मक्खएणं, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया!, अन्नाणमिच्छत्तअविरइकसायसंचियस्स अत्तणो कम्मक्खयं करित्तए, तते ण से कण्हे वासुदेवे धावचापुत्तेणं एवं वुत्ते समाणे कोडंबियपुरिसे सहावेति २, एवं वदासीगच्छह ण देवाणुप्पिया, बारवतीए नयरीए सिंघाडगतियगचउक्कचच्चर जाव हत्थिखंधवरगया महया २, सद्देणं उग्रोसेमाणा २, उग्घोसणं करेह-एवं खलु देवा. थावच्चापुत्ते संसारभउविग्गे भीए जम्मणमरणाणं इच्छति अरहतो अरिट्ठनेमिस्स अंतिए मुंडे भवित्ता पव्वइत्तए, तं जो खलु देवाणुप्पिया !, राया वा, जुयराया वा, देवी वा, कुमारे वा, ईसरे वा, तलवरे वा, कोडुंबिया, माडंबिय०, इन्भसेडिसेणावइस स्थवाहे वा, थावच्चापुत्तं पव्वयंतमणुपव्वयति तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणति, पच्छातुरस्सविय से मित्तनातिनियगसंबंधिपरिजणस्स जोगखेमं वद्यमाणं पडिवहति त्ति कह घोसणं घोसेह जाव घोसंति, तते णं थावच्चापुत्तस्स अणुराएणं पुरिससहस्सं निक्खमणाभिमुहं पहायं सव्वालंकारविभूसियं पत्तेयं २, पुरिससहस्सवाहिणीसु सिवियासु दुरूढं समाणं मित्तणातिपरिवुडं थावच्चापुत्तस्स अंतियं पाउन्भूयं तते णं से कण्हे वासुदेवे पुरिससहस्समंतियं पाउन्भवमाणं पासति २, कोडुंबियपुरिसे सद्दावेति २, एवं वदासी जहा मेहस्स निक्खमणाभिसेओ तहेव सेयापीएहिं ण्हावेति २, जाव अरहतो अरिट्टनेमिस्स छत्ताइच्छत्तं पडागातिपडार्ग पासंति २, विजाहरचारणे जाव पासित्ता, सीवियाओं पचोरहति; तते णं से कण्हे १९ RECEऊजERHITOCAR - Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाङ्गी ० पृ० बीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ १०९ ॥ वासुदेवे धावच्चापुत्तं पुरओ काउं जेणेव अरिहा अरिट्ठनेमी सव्वं तं चैव आभरणं, तते णं से थावचागावणी हंसल खणेणं पडगसाडएणं आभरणमल्लालंकारे पडिच्छइ हारवारिधार छिन्नमुत्तावलिप्पगासातिं अंसूणि विणिम्मुंचमाणी २; एवं वदासी-जतियव्वं जाया !, घडियव्वं जाया !, परिक्कमियव्वं जाया !, असि च णं अट्ठे णो पमादेयव्वं, जामेव दिसिं पाउन्भूता तामेव दिसिं पडिगया; तते णं से थावच्चापुत्ते पुरिससहस्सेहिं सद्धिं सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति जाव पव्वतिए । तते णं से धावच्चापुत्ते अणगारे जाते, ईरियासमिए भासासमिए जाव विहरति, तते णं से थावच्चापुत्ते अरहतो अरिट्ठनेमिस्स तहारूवाणं राणं अंतिए सामाइयमाइयातिं चोदस पुण्वाइं अहिज्जति २, बहुहिं जाव चउत्थेणं विहरति । तते णं अरिहा अरिट्ठनेमी थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स तं इन्भाइयं अणगारसहस्सं सीसत्ताए दलयति, तते णं से थावच्चापुते अन्नया कयाई अरहं अरिट्ठनेमिं वंदति, नम॑सति २; एवं वदासी - इच्छामि णं भंते !, तुन्भेहिं अन्भन्नाते समाणे सहस्सेणं अणगारेणं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए; अहासुहं देवाप्पि !, तते णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं तेणं उरालेणं [ उरालेणं ] उग्गेणं पयतेणं पग्गहिएणं बहिया जणवयविहारं विहरति ॥ सूत्रम् - ६० ॥ 'नन्नत्थ अपणो कम्मखएणं' ति-न इति यदेतन्मरणादिवारणशक्तेर्निषेधनं तदन्यत्रात्मना कृतात् आत्मनो वा सम्बन्धिनः कर्मक्षयात्, आत्मना क्रियमाणं आत्मीयं वा कर्मक्षयं वर्जयित्वेत्यर्थः; 'अज्ञाने'त्यादि, 'अपणा अप्पणी वा ५- श्रीशैलकाव्य ० थावच्चापुत्रं प्रति मातुः हितशिक्षा । ॥ १०९ ॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मक्खयं करित्तए 'त्ति-कर्मण इह षष्ठी द्रष्टव्या 'पच्छाउरस्से' त्यादि पश्चाद् अस्मिन् राजादौ प्रब्रजिते सति आतुरस्यापि च द्रव्याद्यभावादुःस्थस्य 'से' - तस्य तदीयस्येत्यर्थः मित्रज्ञातिनिजकसम्बन्धिपरिजनस्य योगक्षेमवार्त्तमान प्रतिवहति, तत्रालब्धस्येप्सितस्य वस्तुनो लाभो योगो लब्धस्य परिपालनं क्षेमस्ताभ्यां वर्तमानकालभवा वार्तमानी वार्ता योगक्षेमवार्त्तमानी, तां - निर्वाहं राजा करोतीति तात्पर्य; 'इतिकहु' - इतिकृत्वा इति हेतोरेवंरूपामेव वा घोषणां घोषयत-कुरुत, 'पुरिससहस्स' मित्यादि, इह पुरुषसहस्रं स्नानादिविशेषणं यावच्चापुत्रस्यान्तिके प्रादुर्भूतमिति सम्बन्धः। ' विज्जाहर चारणे' तिइह 'जभए य देवे वीड़वयमाणे इत्यादि' द्रष्टव्यं एवमन्यदपि मेघकुमारचरितानुसारेण पूरयित्वाऽध्येतव्यमिति । 'ईरियासमिए' इत्यादि, इह यावत्करणादिदं दृश्यं, "एसणासमिए आयाणभंड मत्तनिक्खेवणास मिए " - आदानेन - ग्रहणेन सह भाण्डमात्राया - उपकरण लक्षण परिच्छदस्य या निक्षेपणा - मोचनं तस्यां समितः - सम्यक्प्रवृत्तिमान्, 'उच्चारपासवण खेल सिंघाणजल्लपारिट्ठावणियासमिए' - उच्चारः पुरीषं प्रश्रवणं मूत्रं, खेलो निष्ठीवनं सिङ्घानो - नासामलः, जल्लः - शरीरमलः; 'मणसमिए, वयसमिए, कायसमिए; ' - चित्तादीनां कुशलानां प्रवर्तक इत्यर्थः; 'मणगुत्ते, वइगुत्ते, कायगुत्ते - चित्तादीनामशुभानां निषेधकः अत एवाह-गुत्ते-योगापेक्षया, गुतिदिए-इन्द्रियाणां विषयेष्वसत्प्रवृत्तिनिरोधात्, 'गुत्तबंभचारी' - वसत्यादि. नवब्रह्मचर्य गुप्तियोगात्, अकोहे ४, कथमित्याह-सन्ते-सौम्यमूर्तित्वात्, पसन्ते - कषायोदयस्य विफलीकरणात्, उपसन्ते कषायोदयाभावात्, परिनिव्वुडे - स्वास्थ्यातिरेकात्, अणासवे-हिंसादिनिवृत्तेः अममे ममेत्युल्लेखस्याभिष्वङ्गतोऽप्यसद्भावात्, 'अकिंचणे'- निर्द्रव्यत्वात्, छिन्नग्गंथे - मिध्यात्वादिभावग्रन्थिच्छेदात्, निरुव लेवे - तथाविधबंधहेत्वभावेन तथा ||5||||| Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० भीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ ११० ॥ विधकर्मानुपादानात् एतदेवोपमानैरुच्यते- 'कंसपाईव मुकतोए' बन्धहेतुत्वेन तोयाकारस्य स्नेहस्याभावात् ; 'संखो इव निरंजणे' - रञ्जनस्य रागस्य कर्तुमशक्यत्वात्, 'जीवो विव अप्पडियगई - सर्वत्रौचित्येनास्खलितविहारित्वात् 'गगणमिव निरालंबणे' - देशग्रामकुलादीनामनालम्बकत्वात्, 'वायुरिव अपडिबद्धे' - क्षेत्रादौ प्रतिबन्धाभावेनौचित्येन सततविहारित्वात्, 'सारयसलिलंब सुद्धहियए' - शाव्यलक्षणगडुलत्ववर्जनात् 'पुक्खरपत्तंपिव निरुलेवे' - पद्मपत्रमिव भोगाभिलापाभावात्, कुम्मो इव गुतिदिए' कूर्मः - कच्छपः, 'खग्गिविसाणं व एगजाए' - खङ्गिः - आरण्यः पशुविशेषः, तस्य विषाणं गृङ्गं तदेकं भवति, तद्वदेकीजातो योऽसंगतः सहायत्यागेन स तथा 'विहग इव विप्यमुके' - आलयाप्रतिबन्धेन, 'मारंडपक्खीव अप्पमते' -भारण्डपक्षिणो हि एकोदराः पृथग्ग्रीवा अनन्यफलमक्षिणो जीवद्वयरूपा भवन्ति, ते च सर्वदा चकितचित्ता भवन्तीति, 'कुंजरो इव सोंडीरे' - कर्मशत्रुसैन्यं प्रति शूर इत्यर्थः, 'वसमो इव जायथा मे - आरोपितमहाव्रतभारवहनं प्रति 'जातबलो निर्वाहकत्वात् 'सीहो इव दुद्धरिसे' - दुर्द्धर्षणीयः उपसर्गमृगैः, 'मंद इव निष्पकंपे' - परीषहपवनैः, 'सागरो इव गंभीरे' - अतुच्छचित्तत्वात्, 'चंदो इव सोमले से' - शुभपरिणामत्वात्, 'सूरो इव दित्तत्तेए'- परेषां क्षोभकत्वात्, 'जच्चकंचणं व जायरूवे' - अपगतदोषलक्षण कुद्रव्यत्वेनोत्पन्नस्वस्वभावः, 'वसुंधरा इव सबफासविसहो' - पृथ्वीवत् शीतातपाद्यनेकविधस्पर्शक्षमः, 'सुहुहुयासणोद्य तेजसा जलते' - घृतादितपितवैश्वानरवत् प्रभया दीप्यमानः, 'नत्थि णं तस्स भगवंत कत्थइ पडिबंधो भव' - नास्त्ययं पक्षो यदुत तस्य (भगवतः) प्रतिबन्धो भवति 'से य पडिबंधे चउविहे पण्णचे, तंजाओ ४, 'दओ - सचित्ताचित्तमीसेसु, खेतओ-गामे वा नगरे वा, रण्णे वा, खले वा, अंगणे वा'; खलं धान्य मलनादिस्थ ५-भीशैलकाध्य० श्रीकृष्ण वासुदेव कृतथावच्चापुत्र परीक्षा । ॥ ११० ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहोरते वा, पक्खे वा, मासे वा, वा हास्ये हर्षे वा', एवं तमाम संवत्सरे वा, 'अवतरे वा दोहका ण्डिलं, 'कालो समए वा आवलियाए वा-असंख्यातसमयरूपायां, 'आणापाणए वा'-उच्छासनिश्वासकाले, थोवे वा-सप्तोसासरूपे, खणे वा-बहुतरोच्लासरूपे, लवे वा-सप्तस्तोकरूपे, मुहूर्ते वा-लवसप्तसप्ततिरूपे; 'अहोरत्ते वा, पक्खे वा, मासे वा, अयणे वा दक्षिणायनेतररूपे प्रत्येकं षण्मासप्रमाणे संवत्सरे वा, 'अनतरे वा दीहकालसंजोए' युगादौ । 'भावओ कोहे वा ४, मये वा हासे वा हास्ये हर्षे वा', 'एवं तस्स न भवई'-एवमनेकधा तस्य प्रतिवन्धो न भवति, 'से थे भगवं वासीचंदणकप्पे'-वास्यां चन्दनकल्पो यः स तथा, अपकारिणोऽप्युपकारकारीत्यर्थः, वासी वा अङ्गछेदनप्रवृत्तां चन्दनं कल्पयति यः स तथा, 'समतिणमणिलेड्मुकंचणे समसुहदुक्खे'-समानि उपेक्षणीयतया तृणादीनि यस्य स तथा, 'इहलोगपरलोगऽपडिबद्धे * जीवियमरणे निरवकंखे संसारपारगामी कम्मनिग्घायणढाए अन्भुट्ठिए एवं च णं विहरति ।। तेणं कालेणं, तेणं समएणं, सेलगपुरे नाम नगरं होत्था, सुभूमिभागे उज्जाणे, सेलए राया, पउमावती देवी, मंडुए कुमारे जुवराया; तस्स णं सेलगस्स पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया होत्था, उप्पत्तियाए वेणइ. याए ४ उववेया, रज्जधुरं चिंतयति । थावच्चापुत्ते सेलगपुरे समोसढे, राया णिग्गतो धम्मकहा, धम्मं सोचा, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा भोगा जाव चइत्ता हिरन्नं जाव पव्वइत्ता, तहा णं अहं नो संचाएमि पव्वत्तिए, अहन्नं देवाणुप्पियाणं अतिए पंचाणुव्वइयं जाव समणोवासए जाव अहिगयजीवाजीवे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति; पंथगपामोक्खा पंच मंतिसया समणोवासया जाया, थावचापुत्ते पहिया जणवयविहारं विहरति । तेणं कालेणं २, सोगंधिया नाम नयरी होत्था, वन्नओ; नीलासोए कियाजावाशा Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाड़ी १० १० श्रीज्ञाता पर्यकथाङ्गे ॥ १११ ॥ उज्जाणे वन्नओ, तत्थ णं सोगंधियाए नयरीए सुदंसणे नामं नगर सेट्ठी परिवसति अड्डे जाव अपरिभूते । तेणं काले २, सुए नामं परिव्वायए होत्था; रिउब्वेयजजुब्वेय सामवेय अथव्वणवेय सद्वितंतकुसले, संखसमए लद्धट्ठे, पंचजमपंच नियमजुत्तं सोयमूलयं दसप्पयारं परिव्वायगधम्मं दाणधम्मं च, सोयधम्मं च, तित्थाभिसेयं च, आघवेमाणे पन्नवेमाणे धाउरत्तवत्थपवरपरिहिए तिदंडकुंडियछेत्तछलु ( करोडियछण्णाल) यंकुसपवित्तय केसरीहत्थगए परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे जेणेव सोगंधियानगरी, जेणेव परिव्वायगावसहे, तेणेव उवागच्छइ २ परिव्वायगावसहंसि भंडगनिक्खेवं करेह २ त्ता, संखसमए अप्पा भावेमाणे विहरति । तते णं सोगंधियाए सिंघाडग० बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ - एवं खलु सुए परिव्वायए इह हव्वमागते जाव विहरह, परिसा निग्गया सुदंसणो निग्गए; तते णं से सुए परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्स य अन्नेसिं च बहूणं संखाणं परिकहे ति एवं खलु सुदंसणा !, अम्हं सोयमूल धम्मे पन्नत्ते सेsविय सोए दुविहे पं० तं० दव्वसोए य, भावसोए यः दव्वसोए य उदएणं महियाए य, भावसोए दन्भेहि य मंतेहि य; जन्नं अम्हं देवाणुप्पिया!, किंचि असुई भवति तं सव्वं सज्जो पुढवीए आलिप्पति, ततो पच्छा सुद्धेण वारिणा पक्खालिज्जति, ततो तं असुई सुई भवति; एवं खलु जीवा जलाभिसेयपूयप्पाणो अविग्घेणं सग्गं गच्छति, तते णं से सुदंसणे सुयस्स अंतिए धम्मं सोचा छछण्णालयं भ । म १ । छ् । 23456 ५-श्री | शैलकाध्य• शुकपरियाजकाचार्य धर्मकथया सुदर्शन श्रेध्यतुरागः । ॥ १११ ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCOLOCA CARRORAGAR हवे सुयस्स अंतियं सोयमूलयं धम्मं गेण्हति २, परिव्वायए विपुलेणं असण ४ वत्थ पडिलामेमाणे जाव विहरति । तते णं से सुए परिव्वायगे सोगंधियाओ नगरीओ निगच्छति २त्ता, बहिया जणवयविहारं विहरति । तेणं कालेणं २, थावचापुत्तस्स समोसरणं, परिसा निग्गया, सुदंसणोवि णीइ, थावच्चापुत्तं | वंदति, नमसति २; एवं वदासी-तुम्हाण किं मूलए धम्मे पन्नत्ते, तते णं थावच्चापुत्ते सुदंसणेण एवं वुत्ते समाणे सुदंसणं एवं बदासी-सुदंसणा!, विणयमूले धम्मे पन्नत्ते, सेविय विण. दुविहे पं०, तं०-अगारविणए, अणगारविणए य: तत्थ णं जे से अगारविणए से णं पंच अणुव्वयाति, सत्त सिक्खावयाति, एकारस उवासगपडिमाओ; तत्थ ण जे से अणगारविणए से णं पंच महब्वयाई, तंजहा-सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिन्नादाणातो बेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ बेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वाओ राइभोयणाओ बेरमणं जाव मिच्छादसणसल्लाओ वेरमणं, दसविह पच्चक्वाणे बारस भिक्खुपडिमाओ, इच्चेएण दुविहेणं विणयमूलएणं धम्मेणं अणुपुब्वेणं अट्ठकम्मपगंठीओ खवेत्ता लोयग्गपइहाणे भवंति; तते णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वदासी-तुम्भेणं सुदसणा!, किंमूलए धम्मे पन्नत्ते ?, अम्हाणं देवाणुप्पिया!, सोयमूले धम्मे पन्नत्ते जाव सग्गं गच्छंति, तते णं थावच्चापुत्ते सुदंसणं एवं वदासी-सुदंसणा!, से जहा नामए केइ पुरिसे एग महं रुहिरकयं वत्थं रुहिरेण चेव धोवेजा, तते णं सुदंसणा!, तस्स कहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेण चेव T EACFG Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीपू. वृ० भीमाताधर्मकथाले ॥११२॥ RAMESHAAGAMASTARA पक्खालिज्जमाणस्स अस्थि काइ सोही , णो तिणढे समहे; एवामेव सुदंसणा!, तुम्भंपि पाणातिवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि सोही जहा तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव पक्खालिन्जमाणस्स नथि सोही; सुदंसणा!, से जहा णामए के पुरिसे एगं महं रुहिरकयं वत्थं सजियाखारेणं अणुलिंपति २, पयणं आरुहेति २, उण्हं गाहेइ २त्ता, ततो पच्छा सुद्धणं वारिणा धोवेज्जा से पूर्ण सुदंसणा !, तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स सज्जियाखारेणं अणुलित्तस्स पयणं आरुहियस्स उण्हं गाहितस्स सुद्धणं वारिणा | पक्खालिजमाणस्स सोही भवति , हंता भवइ एवामेव सुदंसणा!, अम्हंपि पाणाइवायवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणेणं अस्थि सोही; जहा बीयस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स जाव सुद्धेणं वारिणा पक्खालिजमाणस्स अत्थि सोही; तत्थ णं से सुदंसणे संबुद्ध थावच्चापुत्तं वंदति, नमंसति २,एवं वदासी-इच्छामि णं भंते !, धम्म सोचा जाणित्तए जाव समणोवासए जाते अहिगयजीवाजीवे जाव समुप्पजित्थाएवं खलु सुदंसणेणं सोयं धम्मं विप्पजहाय विणयमूले धम्मे पडिवन्ने, तं सेयं खलु मम सुदंसणस्स दिलुि वामेत्तए. पुणरवि सोयमूलए धम्मे आघवित्तए तिकट्ट एवं संपेहेति २, परिव्वायगसहस्सेणं सद्धि जेणेव सोगंधिया नगरी,जेणेव परिव्वायगावसहे, तेणेव उवागच्छति २, परिव्वायगावसहंसि भंडनिक्खेवं करेति २, धाउरत्तवत्थपरिहिते पविरलपरिव्वायगेणं सद्धिं संपरिवुडे परिव्वायगावसहाओ पडिनिक्खमति २, सोगंधियाए नयरीए मझमझेणं जेणेव सुदसणस्स गिहे, जेणेव सुदंसणे, तेणेव उवाग ५-श्रीशैलकाध्य. थावच्चापुत्रकुता सुदर्शनपरिब्राजकहितानुशास्तिः । FRESSIONISTEREST ॥११२॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छति तते णं से सुदंसणे तं सुयं एनमार्ण पासति २, नो अन्मुढेति नो पच्चुग्गच्छति, णो आढाइ, नो परियाणाइ, नो वंदति, तुसिणीए, संचिट्ठति, तए णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं अणन्भुठियं० पासित्ता, एवं वदासी-तुमं णं सुदंसणा!, अन्नदा मम एजमाणं पासित्ता अन्भुट्टेसि जाव वंदसि इयाणि सुदंसणा! तुम ममं एन्जमाणं पासित्ता जाव णो वंदसि, तं कस्स णं तुमे सुदंसणा 1, इमेयारूवे विणयमूलधम्मे पडिवन्ने; तते णं से सुदंसणे सुएणं परिव्वायएणं एवं वुत्ते समाणे आसणाओ अन्भुढेति २, करयल. सुयं परिवायगं एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! अरहतो अरिट्टनेमिस्स अंतेवासी थावच्चापुत्ते नामं अणगारे जाव इहमागए इह चेव नीलासोए उज्जाणे विहरति, तस्स णं अंतिए विणयमूले धम्मे पडिवन्ने। तते णं से सुए परिव्वायए सुदंसणं एवं वदासी-तं गच्छामो णं सुदंसणा, तव धम्मायरियस्स थावचा. पुत्तस्स अंतियं पाउन्भवामो, इमाइं च णं एयारूवाति अट्ठाई हेऊई पसिणाति कारणातिं वागरणातिं पुच्छामो; तं जहणं मे से इमाई अट्टातिं जाव वागरति, तते ण अहं वंदामि, नमसामि, अह मे से इमातिं अट्ठातिं जा नो से वाकरेति तते णं अहं एएहिं चेव अटेहिं हेऊहिं निप्पट्ठपसिणवागरणं करिस्सामि, तते णं से सुए परिवायगसहस्सेणं सुदंसणेण य सेट्टिणा सद्धिं जेणेव नीलासोए उजाणे जेणेव थावच्चापुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छति २त्ता, थावच्चापुत्तं एवं वदासी-जत्ता ते भंते !, जवणिज ते १०ति २ ता त• अ। SHAFEबाजाकलामा%ASARA Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी अब्वाबाहंपि ते फासुयं विहारं ते, तते णं से थावच्चापुत्ते सुएणं परिवायगेणं एवं बुत्ते समाणे सुयं परिवायगं एवं वदासी-सुया !, जत्तावि मे जवणिज्जंपि मे अव्वाबाहंपि मे फासुयविहारंपि मे; तते थे जीवाता से सुए थावच्चापुत्तं एवं वदासी-किं भंते !, जत्ता!; सुया ! जन्नं मम णाणदंसणचरित्ततवसंजममातिएहिं जोएहि जोयणा से तं जत्ता, से किं तं भंते !, जवणिज्जं १, सुया., जवणिज्जे दुविहे पं०, तं०-इंदिया जवणिज्जे य, नोइंदियजवणिज्जे य; से किं तं इंदियजवणिज्ज, सुया, जन्नं ममं सोतिंदियचक्खिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियाई निरुवहयाई वसे वदंति से तं इंदियजवणिज्जं, से किं तं नोइंदिया जवणिज्जे ?, सुया!, जन्नं, कोहमाणमायालोभा खीणा उवसंता नो उदयंति से तं नोइंदियजवणिजे; | से किं तं भंते, अव्वाबाहं १, सुया!, जन्नं मम वातियपित्तियसिंभियसन्निवाइया विविहा रोगातका Sणो उदीरेंति सेत्तं अव्वाबाहं से कितं भंते!, फासुयविहारं, सुया, जन्नं आरामेसु, उज्जाणेसु, देवउलेसु, सभासु, पव्वासु, इत्थिपसुपंडगविवजियासु, वसहीसुः पाडिहारियं पीठफलगसज्जासंथारयं उग्गिण्हित्ताणं विहरामि सेत्तं फासुयविहारं । सरिसवया ते भंते, किं भक्खेया अभक्खेया ?; सुया!, सरिसवया भक्खेयावि अभक्खेयावि; से केणटेणं भंते !, एवं वुचइ ?-सरिसवया भक्खेयावि अभक्खे. यावि?; सुया!, सरिसवया दुविहा पं०, तं०-मित्तसरिसवया, धन्नसरिसवया य; तत्थ णं जे ते * मित्तसरिसवया ते तिविहा पं०, तं०-सहजायया, सहवड्डियया, सहपसुंकीलियया; ते ण समणाणं ५-श्रीशैलकाध्य | शुक्रस्य थावच्चापुत्रेण सह धर्मवार्तालापः। CHECCAवाजाला GAAUCCCRA भते !, फासुयविहायसिभियसन्निवाया वासु, इथिप Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA M ||| णिग्गाणं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवया ते दुविहा पं०, तं०-सत्थपरिणया य, असत्थ. परिणया य; तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया ते समणाणं निग्गंथाणं अभक्खया, तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पं०, तं०-फासुगा य, अफासुगा य; अफासुया णं सुया!, नो भक्खेया, तत्थ णं जे ते फासुया ते दुविहा पं०, तं०-जातिया य, अजातिया य; तत्थ णं जे ते अजातिया ते अभक्खया, तत्थ णं जे ते जाइया ते दुविहा पं०, तं०-एसणिज्जा य, अणेसणिज्जा य; तत्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं अभक्खेया, तत्थ णं जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पं०, तं०-लद्धा य; अलद्धा य; तत्थ णं जे ते अलद्धा ते अभक्खेया, तत्थ णं जे ते लद्धा ते निग्गंथाणं भक्खेया, एएणं अटेणं सुया ! एवं वुचति-सरिसवया | भक्खेयावि अभक्खेयावि, एवं कुलत्थावि भाणियव्वा, नवरि इमं णाणत्तं-इत्थिकुलत्था य, धन्नकुलत्था य, इथिकुलत्था तिविहा पं०, तं०-कुलवधुया य, कुलमाउया इय, कुलधूया इय, धनकुलत्था तहेव, एवं मासावि; नवरि इमं नाणतं-मासा तिविहा पं०, तं०-कालमासा य, अस्थमासा य, धन्नमासा य; तत्थ णं जे ते कालमासा ते णं दुवालसविहा पं०, तंजहा-सावणे जाव आसाढे, ते णं अभक्खया, अत्थमासा दुविहा-हिरन्नमासा य सुवण्णमासा य, ते णं अभक्खेया धन्नमासा तहेव । एगे भवं, दुवे भवं, अणेगे भवं, अक्खए भवं, अव्वए भवं, अवट्ठिए भवं, अणेगभूयभावे भविएवि भवं?; सुया ! एगेवि अहं, दुवेवि अहं, जाव अणेगभूयभावभविएवि अहं, से केणटेणं भंते !, एगेवि अहं जाव सुया,, ||||-% Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E -E%E | ५-श्री नवाङ्गी१०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे E शैलकाध्य. शुकपरिव्राजकस्य प्रतिबोधः सिद्धिगमनश्च। ॥११४॥ %+4+4+4 दवट्ठयाए एगे अहं, नाणदंसणट्ठयाए दुवेवि अहं, पएसट्टयाए अक्खएवि अहं, अब्बएवि अहं, अवढिएवि अहं, उवओगट्ठयाए अणेगभूयभावभविएवि अहं; एत्थ णं से सुए संबुद्धे थावचापुत्तं वंदति, नमसति २, एवं वदासी-इच्छामि णं भंते !, तुम्भे अंतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं निसामित्तए धम्मकहा भाणियव्वा, तए णं से सुए परिव्वायए थावच्चापुत्तस्स अंतिए धम्म सोचा णिसम्म एवं वदासी-इच्छामि णं भंते !, परिव्वायगसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता पब्वइत्तए, अहासुहं जाव उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे तिडंडयं जाव धाउरत्ताओ य एगंते एडेति २, सयमेव सिहं उप्पाडेति २, जेणेव थावच्चापुत्ते. मुंडे भवित्ता जाव पव्वतिए सामाइयमातियाई चोदस पुवाति अहिज्जति तते णं थावचा. पुत्ते सुयस्स अणगारस्सहस्सं सीसत्ताए वियरति, तते णं थावच्चापुत्ते सोगंधियाओ नीलासोयाओ पडिनिक्खमति २, बहिया जणवयविहारं विहरति; तते णं से थावच्चापुत्ते अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे, | जेणेव पुंडरीए पव्वए तेणेव उवागच्छह २, पुंडरीयं पव्वयं सणियं २ दुरूहति २, मेघघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलापट्टयं जाव पाओवगमणं गुवन्ने; तते णं से थावचापुत्ते बहूणि वासाणि सामन्नपरि. यागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए सर्हि भत्तातिं अणसणाए जाव केवलवरनाणदंसणं समुप्पाडेत्ता, ततो पच्छा सिद्धे जाव पहीणे ॥ सूत्रम्-६१ ।। तते णं से सुए अन्नया कयाई जेणेव सेलगपुरे नगरे, जेणेव सुभूमिभागे उजाणे समोसरणं, परिसा निग्गया, सेलओ निग्गच्छति; धम्मं सोचा, जं नवरं देवाणु ॐना ICAFERIMECHINHECK +4+4+4° anl॥११४॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिया !, पंथगपामोक्खातिं पंच मंतिसयातिं आपुच्छामि, मण्डुयं च कुमारं रज्जे ठावेमि; ततो पच्छा वेवाणुप्पियाणं अन्तिए मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पव्वयामि, अहासुहं; तते णं से सेलए राया सेलगपुरं नयरं अणुपविसतिर, जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छ२, सीहासणं सन्निसन्ने तते णं से सेलए राया पंथयपामोक्खे पंच मंतिसए सद्दावेह, सहावेत्ता; एवं वदासीएवं खलु देवाणुया !, मए सुयस्स अंतिए घम्मे णिसंते सेवि य धम्मे इच्छिए, पडिच्छिए, अभिरुतिए; अहं णं देषाणुप्पिया !, संसारभयउब्विग्गे जाव पव्वयामि, तुम्भे णं देवाणुप्पिया किं करेंह १, किं ववसह ?, किंवा ते हियइच्छंति ?; तते णं तं पंथयपामोक्खा सेलगं रायं एवं वदासी, जइ णं तुग्भे देवा० संसार जाव पव्वयह; अम्हाणं देवाणुप्पिया !, किमन्ने आहारे वा, आलंबे वा, अम्हेऽविध णं देवा० संसारभव्विग्गा जाव पव्वयामो, जहा देवाणुपिया !, अम्हं बहुसु कज्जेस य कारणेसु य जाव तहा णं पव्वतियाणवि समाणाणं बहुसु जाव चक्खुभूते; तते णं से सेलगे पंथगपामोक्खे पंच मंतिसए एवं व०-जति णं देवाणु तुम्भे संसार जाव पव्वयह तं गच्छह णं देवा० सएस २ कुटुंबे जेट्ठे पुत्ते कुटुंबमझे ठावेत्ता पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउन्भवहत्ति, तहेव पाउन्भति; तते णं से सेलए राया पंच मंतिसयाई पाउन्भवमाणातिं पासति२, हट्टतुट्ठे कोडुंबिय पुरिसे सहावेति२, एवं वदासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया !, मंडुयस्स कुमारस्स महत्थं जाव रायाभिसेयं उवह २० Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ ११५ ॥ वेह० अभिसिंचति जाव राया विहरति । तते णं से सेलए मंडुयं रायं आपुच्छह, तते णं से मंडुए राया कोटुंबिय पुरिसे० एवं वदासी- खिप्पामेव सेलगपुरं नगरं आसित जाव गंधवहिभूतं करेह य, कारवेह य २, एवमाणत्तियं पञ्चपिणह; तते णं से मंडुए दोपि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ २, एवं वदासी - खिप्पामेव सेलगस्स रन्नो महत्थं जाव निक्खमणाभिसेयं जहेव मेहस्स तहेव णवरं पउमावतीदेवी अग्गकैसे पडिच्छति सव्वेवि पडिग्गहं गहाय सीयं दुरुहंति, अवसेसं तहेव जाव सामातियमातियातिं एक्कारस अंगाई अहिज्जतिर, बहूहिं चउत्थ जाव विहरति तए णं से सुए सेलयस्स अणगारस्स ताई पंथयपामोक्खातिं पंच अणगारसयाई सीसत्ताए वियरति, तते णं से सुए अन्नया कयाई सेलगपुराओ नगराओ सुभूमिभागाओ उज्जाणाओ पडिनिक्खमतिर त्ता, बहिया जणवयविहारं विहरति; तते णं से सुए अणगारे अन्नया कयाई तेणं अणगारसहस्सेणं सद्धिं संपरिवुडे, पुण्वाणुपुर्वि चरमाणे, गामाणुगामं विहरमाणे, जेणेव पोंडरीए पव्वए जाव सिद्धे ॥ सूत्रम् - ६२ ॥ ५ - श्रीशैलकाध्य० शैलक दीक्षादि वर्णनम् । एवमीर्या समित्यादिगुण योगेनेति । 'पंचाणुवइयं' - इह यावत्करणात् एवं दृश्यं, 'सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्मं पवित्र अहासु देवाणुपिया !, मा पडिवधं काहिसि । 'तए णं से सेलए राया, थावच्चापुत्तस्स अणगारस्स अंतिए पंचाणुवयं जाव उवसंपअर, तए णं से सेलए राया समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे' इह यावत्करणादिदं दृश्यं, 'उवलद्धपुणपावे आसव संवरनिअर किरिया हिगरण बंध मोक्खकुसले'- क्रिया- कायिकयादिका, अधिकरण- खड्ग निर्वर्त्तनादि ॥ ११५ ॥ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ STHA SARALA एतेन च शानिनोक्ता, 'असहेज्जे-अविद्यमानसाहाय्यः कुतीर्थिकप्रेरितः सम्यक्त्वविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षते इति भावः, अत एवाह 'देवासुरनागजक्खरक्खसकिन्नरकिंपुरुसगरुलगंधवमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणतिकमणि' देवा-वैमानकज्योतिष्कार, शेषा भवनपतिव्यन्तरविशेषाः गरुडा:-सुवर्णकुमाराः, एवं चैतयतो 'निग्गंथे पावयणे निस्संकिए'-निःसंशयः, निखिए-मुक्तदर्शनान्तरपक्षपातो, निवितिगिच्छे-फलं प्रति निःशङ्कः, लद्घ8-अर्थश्रवणतः, गहियडे-अवधारणेन, पुच्छियद्वे-संशये सति, अहिगयटे-बोधात्, विणिच्छियटे-ऐदम्पर्योपलम्भात् । अत एव अहिमिंजपेम्माणुरागरत्तेत्ति-अस्थीनि च प्रसिद्धानि मिञ्जा च-तन्मध्यवर्ती चातुरस्थिमिञास्ताः प्रेमानुरागेणसर्वज्ञप्रवचनप्रीतिलक्षणकुसुम्मादिरागेण रक्ता इव रक्ता यस्य स तथा, केनोल्लेखेनेत्याह-'अयमाउसो 1, निग्गंथे पावयणे अढे अयं परमढे सेसे अण्णढे,' 'आउसो'त्ति-आयुष्मनिति, पुत्रादेरामन्त्रणं शेषं-धनधान्यपुत्रदारराज्यकुप्रवचनादि, उस्सियफलिहे-उच्छितं स्फटिकमिव स्फटिक-अन्तःकरणं यस्य स तथा, मौनीन्द्रप्रवचनावाच्या परितुष्टमना इत्यर्थः, इति वृद्धव्याख्या केचिच्चाहुः-उच्छ्रित:-अर्गलास्थानादपनीय ऊर्चीकृतो न तिरश्चीनः कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः, उत्सृतो वा-अपगतः परिधः-अर्गला गृहद्वारे यस्यासौ उत्सृतपरिधः उच्छ्रितपरिघो वा औदार्यातिरेकादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुप्रवेशार्थमनर्गलितगृहद्वार इत्यर्थः, 'अवंगुयदुवारे'-अप्रावृतद्वारः कपाटादिभिर्मिक्षुकप्रवेशार्थमेव अस्थगितगृहद्वार इत्यर्थः इत्येकीयं व्याख्यानं, वृद्धानां-तु भावनावाक्यमेवं यदुत सद्दर्शनलोमेन कस्माञ्चित्पापण्डिकान विमेति शोमनमार्गप्रतिग्रहेणोद्घाटशिरास्तिष्ठतीति भावः, 'चियत्तंतेउरघरदारप्पवेसे'-चियत्तत्ति-नाप्रीतिकरः अन्तःपुरगृहे द्वारेण प्रवेशः NIHASHRSS Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाड़ी ० ० श्रीज्ञाता धर्मकथा ॥१९६॥ शिष्टजनप्रवेशनं यस्य स तथा, अनीर्ष्यालुत्वं चास्यानेनोक्तं, अथवा चियत्तोत्ति-लोकानां प्रीतिकर एव अन्तःपुरे गृहद्वारे वा प्रवेशो यस्य स तथा अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीयत्वादितिः 'चाउद्दसमुद्दिट्ठपुण्णिमासिणीसु पडि पुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे उद्दिष्टा - अमावास्या पौषधं आहारपौषधादिचतुरूपं 'समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थ डिग्गहकंबल पायपुंछणेणं' - पतग्रहः- पात्रं, पादप्रोञ्छनं-रजोहरणं, 'ओसह मेसजेण' - मेषजं - पथ्यं 'पाडिहारिएणं पीढफलगसेआसंथारएणं पडिला भेमाणे' प्रातिहारिकेण पुनः समप्पणीयेन पीठ: - आसनं फलकम् - अवष्टम्भार्थं शय्या - वसतिः शयनं वा यत्र प्रसारितपादैः सुप्यते संस्तारको - लघुतरः, 'अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरह' 'सुए परिवागे 'त्ति-शुको व्यासपुत्रः ऋग्वेदादयश्चत्वारो वेदाः, षष्टितन्त्रं - साङ्ख्यमतं, सांख्यसमये - साङ्ख्य समाचारे लब्धार्थो वाचनान्तरे तु यावत्करणादेवमिदमवगन्तव्यं, ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेदाथर्वणवेदानामितिहासपश्चमानां इतिहास :- पुराणं निर्घण्टुषष्ठानां' - निर्घण्टुः - नामकोशः, 'साङ्गोपाङ्गानां' - अङ्गानि - शिक्षादीनि, उपाङ्गानि तदुक्तप्रपश्चनपराः प्रबन्धाः सरहस्यानां - ऐदम्पर्ययुक्तानां, सारकः - अध्यापनद्वारेण प्रवर्तकः, स्मारको वा अन्येषां विस्मृतस्य स्मारणात्, वारको शुद्ध पाठनिषेधकः पारगः - पारगामी, पडङ्गवित् । पष्टितन्त्रविशारदः - षष्टितन्त्र- कापिलीयशास्त्रं षडङ्गवेदकत्वमेव व्यनक्ति; सङ्ख्याने गणितस्कन्धे, 'शिक्षाकल्पे ' - शिक्षायां अक्षरस्वरूपनिरूपके शास्त्रे, कल्पे - तथाविधसमाचारप्रतिपादके, व्याकरणे - शब्दलक्षणे, छन्दसि - पद्यवचनलक्षणनिरूपके, निरुक्ते शब्दनिरुक्तप्रतिपादके, ज्योतिषामयने - ज्योतिः शास्त्रे, अन्येषु च - ब्राह्मणकेषु शास्त्रेषु सुपरिनिष्ठित इति वाचनान्तरं - 'पश्चयमपश्चनियमयुक्तः, ' तत्र पश्च यमाः - प्राणातिपातविरमणादयः, नियमास्तु-शौचसंतोष ५-श्रीशैलकाभ्य• शैलकस्प श्राद्धधर्म पालनम् । J॥ ११६ ॥ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि शौचमूलकं यमनियममीलनाद्दशप्रकारं, धातुरक्तानि वस्त्राणि प्रवराणि परिहितो यः स तथा, त्रिदण्डादीनि सप्त हस्ते गतानि यस्य स तथा तत्र कुण्डिका - कमण्डलूः, कचित्काश्चनिका करोटिका वाऽधीयेते ते च क्रमेण रुद्राक्षकृतमाला मृद्भाजनं चोच्यते, छण्णालकं-त्रिकाष्ठिका अशो-वृक्षपल्लवच्छेदार्थः पवित्रकं ताम्रमयमङ्गुलीयकं केसरीचीवरखण्डं प्रमार्जनार्थे, 'संखाणं' ति - साङ्ख्यमतं, 'सज्जपुढवि'त्ति - कुमारपृथिवी । 'पयणं आरुहेई' - पाकस्थाने चुल्ल्यादावारोपयति, उष्माणं - उष्णत्वं ग्राहयति, 'दिट्ठि वमित्तए - मतं वमयितुं, त्याजयितुमित्यर्थः । 'अट्ठाई' ति अर्थान् अर्यमाणत्वादधिगम्यमानत्वादित्यर्थः, प्रार्ध्यमानत्वाद्वा याच्यमानत्वादित्यर्थाः, वक्ष्यमाणयात्रायापनीयादीन्, तथा तानेव 'हेऊई' ति- हेतून्, अन्तर्वर्त्तिन्यास्तदीयज्ञानसम्पदो गमकत्वात् ; 'पसिणाई'ति-प्रश्नान् पृच्छ्रयमानत्वात्, 'कारणाई' तिकारणानि विवक्षितार्थनिश्चयस्य जनकानि, 'वागरणाई' ति - व्याकरणानि प्रत्युत्तरतया व्याक्रियमाणत्वादेषामिति, 'निष्पट्ट पसिणवागरणं' ति-निर्गतानि स्पष्टानि स्फुटानि प्रश्नव्याकरणानि प्रश्नोत्तराणि यस्य स तथा, 'खीणा उवसंत'तिक्षयोपशममुपगता इत्यर्थः एतेषां च यात्रादिपदानामागमिक गम्भीरार्थत्वेनाचार्यस्य तदर्थपरिज्ञानमसम्भावयताऽपभ्राजनार्थ प्रश्नः कृत इति, 'सरिसवय'त्ति - एकत्र सदृशवयसः - समानवयसः, अन्यत्र सर्षपाः - सिद्धार्थकाः 'कुलत्थि त्ति - एकत्र कुले तिष्ठन्तीति कुलस्थाः, अन्यत्र कुलत्थाः धान्यविशेषाः; सरिसवयादिपदप्रश्नः छलग्रहणेनोपहासार्थं कृत इति । 'एगे भवं'तिएको भवान् इति, एकत्वाभ्युपगमे आत्मनः कृते सूरिणा श्रोत्रादिविज्ञानानामवयवानां चात्मनोऽनेकतोपलब्ध्या एकत्वं दूषयिष्यामीत्तिबुद्ध्या पर्यनुयोगः शुकेन कृतः, 'दुवे भवं' ति द्वौ भवानिति च, द्वित्वाभ्युपगमे अहमित्येकत्वविशिष्टस्यार्थस्य छाल Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाजीप.पू० भीज्ञाताधर्मकथाले ॥११७॥ द्वित्वविरोधेन द्वित्वं दूषयिष्यामीतिबुझ्या पर्यनुयोगो विहितः, अक्षयः अव्ययः अवस्थितो भवाननेन नित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः, अनेके भूता-अतीता भावाः-सत्ताः परिणामा वा भव्याश्च-माविनो यस्य स तथा, अनेन चातिक्रान्तभावि. सचाप्रश्नेन अनित्यात्मपक्षः पर्यनुयुक्तः, एकतरपरिग्रहे अन्यतरस्य दूषणायेति । तत्राचार्येण स्याद्वादस्य निखिलदोषगोचरातिक्रान्तत्वात्तमवलम्ब्योत्तरमदायि-एकोऽप्यई, कथं १, द्रव्यार्थतया जीवद्रव्यस्यैकत्वात्, न तु प्रदेशार्थतया, तथा ह्यनेकत्वान्ममेत्यवयवादी (मश्रोत्राद्यवयवा) नामनेकत्वोपलम्भो न बाधकः, तथा कश्चित् स्वभावमाश्रित्यैकत्वसङ्घयावि. शिष्टिस्यापि पदार्थस्य स्वभावान्तरद्वयापेक्षया द्वित्वमपि न विरुद्धमित्यत उक्तं-द्वावप्यहं ज्ञानदर्शनार्थतया, न चैकखभावे भेदो न दृश्यते, एको हि देवदत्तादिपुरुषः एकदैव तत्तदपेक्षया पितृत्वपुत्रत्वभ्रातृत्वपितृव्यत्वमातुलत्वभागिनेयत्वादीननेकान् खभावांल्लभत इति, तथा प्रदेशार्थतया असङ्ख्यातान् प्रदेशानाश्रित्याक्षयः, सर्वथा प्रदेशानां क्षयाभावात् , अव्ययः किया तामपि च व्ययाभावात् , किमुक्तं भवति ?-अवस्थितो नित्यः, असङ्खयेयप्रदेशता हि न कदाचनापि व्यपैति अतो नित्यताभ्युपगमेऽपि न दोषः, उपयोगार्थतया-विविधविषयानुपयोगानाश्रित्य अनेकभूतभावभविकोऽपि, अतीतानागतयोहि कालयोरनेकविषयबोधानामात्मनः कथंचिदभिन्नानामुत्पादाद्विगमाद्वाऽनित्यपक्षो न दोषायेति । पुण्डरीकेण-आदिदेवगणधरेण निर्वाणत उपलक्षितः पर्वतः, तस्य तत्र प्रथमं निर्वृतत्वात् पुण्डरीकपर्वतः-शत्रुञ्जयः। तते णं तस्स सेलगस्स रायरिसिस्स तेहिं अंतेहि य, पंतेहि य, तुच्छेहि य, लूहेहि य, अरसेहि य, विरसेहि य, सीएहि य, उण्हेहि य, कालातिकतेहि य, पमाणाइतेहि य, णिचं पाणभोयणेहि य; |५-श्रीशिलकाध्यक शुकस्य थावच्चापुत्रेण सहालापादिकम् । RROTOCOGRAPS CHILOPIECCASS 91 Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AALA| ECRECISCESCCESECRECCHECCC पयइसुकुमालयस्स सुहोचियस्स सरीरगंसि वेयणा पाउन्भूता उज्जला जाव दुरहियासा कंडया दाहपित्तज्जरपरिगयसरीरे यावि विहरति; तते णं से सेलए तेणं रोयायंकेण सुक्के जाए यावि होत्था, तते णं सेलए अन्नया कदाई पुब्वाणुपुर्दिव चरमाणे जाव जेणेव सुभूमिभागे जाव विहरति, परिसा निग्गया, मंडुओवि निग्गओ, सेलयं अणगारं जाव वंदति, नमं० २, पज्जुवासति; तते ण से मंडुए राया सेलयस्स अणगारस्स सरीरयं सुकं भुकं जाव सव्वाबाहं सरोगं पासति २, एवं वदासी-अहं णं भंते !, तुभ अहापवित्तेहिं, तिगिच्छएहिं, अहापवित्तेणं, ओसहमेसज्जेणं, भत्तपाणेणं, तिगिच्छं आउंटावेमि; तुम्मे णं भंते !, मम जाणसालासु समोसरह, फासुअं एसणिज्जं पीढफलगसज्जासंथारगं ओगिण्हित्ताणं विहरहः तते णं से सेलए अणगारे मंडयस्स रन्नो एयमहं तहत्ति पडिसुणेति, तते णं से मंडए सेलयं वंदति, नमसति २, जामेव दिसि पाउन्भूते तामेव दिसिं पडिगए । तते णं से सेलए कल्लं जाव जलंते सभंडमत्तोवगरणमायाए पंथयपामोक्खहिं पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं, सेलगपुरमणुपविसति २, जेणेव मंडयरस जाणसाला तेणेव उवागच्छति २, फासुयं पीढ जाव विहरति तते णं से मंडुए चिगिच्छए सहावेति २, एवं वदासी-तुम्मे णं देवाणुप्पिया!, सेलयस्स फासुएसणिज्जेणं जाव तेगिच्छं आउद्देहः तते णं तेगिच्छया मंडुएणं रन्ना एवं वुत्ता हट्ट सेलयस्स अहापवित्तेहिं ओसहभेसजभत्तपाणेहिं तेगिच्छं आउदृति, मजपाणयं च से उवदिसंति; तते णं तस्स सेलयस्स अहापवत्तहिं जाव मज्जपाणेण रोगायंके | SHES Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१०० भीज्ञाताधर्मकथाओं है |५-श्रीशैलकाध्य. शैलकस्य शैथिल्यादिकम् । ॥११८॥ उवसंते होत्था हटे मल्लसरीरे जाते ववगयरोगायके, तते णं से सेलए तंसि रोयायकसि उवसंतंसि समाणंसि तंसि विपुलंसि असण ४ मज्जपाणए य मुच्छिए, गढिए, गिद्धे, अज्झोववन्ने ओसन्नो ओसन्नविहारी, एवं पासत्थे २, कुसीले २, पमत्ते, संसत्ते, उउबद्धपीढफलगसेज्जासंथारए पमत्ते यावि विहरति; नो संचा. | एति फासुएसणिज पीढं पञ्चप्पिणित्ता, मंडुयं च रायं आपुच्छित्ता, बहिया जाव (जणवयविहारं अब्भुजएण पवत्तेण पग्गहिएण) विहरित्तए । सूत्रम्-६३ ॥ तते णं तेसिं पंथयवजाणं पंचण्हं अणगारसयाणं अन्नया कयाई, एगयओ सहियाणं जाव पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणाणं अयमेयारूवे अब्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु सेलए रायरिसी चहत्ता रजं जाव पव्वतिए, विपुलेणं असण ४, मजपाणए मुच्छिए, नो संचाएति जाव विहरित्तए, नो खल कप्पइ देवाणुप्पिया!, समणाणं जाव पमत्ताणं विहरित्तए, तं सेयं खलु देवा० अम्हं कल्लं सेलयं रायरिसिं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलगसेजा. संथारगं पञ्चप्पिणित्ता सेलगस्स अणगारस्स पंथयं अणगारं वेयावञ्चकरं ठवेत्ता बहिया अन्भुजएणं जाव विहरित्तए, एवं संपेहेंति २, कल्लं जेणेव सेलए आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढ० पञ्चप्पिणति २, पंथयं अणगारं वेयावच्चकरं ठावंति २, पहिया जाव विहरंति ॥ सूत्रम्-६४ ॥ तते णं से पंथए सेलयस्स सेज्जासंथारउच्चारपासवणखेलसंघाणमत्तओसहभेसजभत्तपाणएणं अगिलाए विणएणं यावडिय करेइ, तते णं से सेलए अन्नया कयाई कत्तियचाउम्मासियसि विपुलं असण.४, आहारमाहारिए सुषहुँ मज्जपाणयं पीए नानाASKAR 5 Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुवावरण्हकालसमयंसि सुहप्पसुत्ते, तते णं से पंथए कत्तियचाउम्मासियंसि कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिकमणं पडिकते, चाउम्मासियं पडिकमिउं कामे सेलयं रायरिसिं खामणद्वयाए सीसेणं पाएमु संघट्टेड तते णं से सेलए पंथएणं सीसेणं पाएसु संघहिए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उद्देति२, एवं वदासी-से केस णं भो एस अप्पत्थियपस्थिए जाव परिवज्जिए जेणं ममं सुहपसुत्तं पाएसु संघद्देति', तते णं से पंथए सेलएणं एवं वुत्ते समाणे भीए तत्थे तसिए करयल• कद्द, एवं वदासी-अहण्णं भंते !, पंथए कयकाउस्सग्गे देवसियं पडिक्कमणं पडिकते, चाउम्मासिय पडिक्कते, चाउम्मासियं खामेमाणे देवाणुप्पियं वंदमाणे सीसेणं पाएसु संघमि, तं खमंतु ण देवाणुप्पिया, खमन्तु मेऽवराहं तुमण्ण देवाणुप्पिया !, णाइभुजो एवं करणयाए त्तिकड्ड सेलयं अणगारं एतमटुं सम्म विणएणं भुजो २, खामेति; ततेद णं तस्स सेलयस्स रायरिसिस्स पंथएणं एवं वुत्तस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पजित्था-एवं खलु अहं रज्ज च जाव ओसन्नो जाव उउबद्धपीढ० विहरामि, तं नो खलु कप्पति समणाणं णिग्गंथाणं अपसत्वाणं | जाव विहरित्तए, तं सेयं खलु मेकल्लं मंडुयं रायं आपुच्छित्ता पाडिहारियं पीढफलगसेज्जासंथारयं पचप्पिणित्ता पंथएणं अणगारेणं सद्धिं बहिया अब्भुजएणं जाव जणवयविहारेणं विहरित्तए, एवं संपेहेति २, कल्लं जाव विहरति ॥ सूत्रम्-६५ ॥ एवामेव समणाउसो, जाव निग्गंथो वा २, ओसन्ने जाव संथारए पमत्ते विहरति, से णं इह लोए चेव बहणं समणाणं ४, हीलणिजे संसारो भाणियव्यो। तते ण ते पंथग EAFबाजालामा Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाओ ॥ ११९ । बज्जा पंच अणगारसया इमीसे कहाए लद्धट्ठा समाणा अन्नमन्नं सहावेति २, एवं वयासी-सेलए रायरिसी veer बहिया जाव विहरति, तं सेयं खलु देवा० !, अम्हं सेलयं उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, एवं संपे हेति २ त्ता, सेलयं रायं उवसंपज्जित्ताणं विहरति । सूत्रम् - ६६ ।। तते णं ते सेलयपामोक्खा पंच अणगारसया बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं पाउणित्ता जेणेव पोंडरीये पव्वए तेणेव उवागच्छंत २, जहेब थावच्चापुत्ते तव सिद्धा । एवामेव समणाउसो !, जो निरंगंथो वा २, जाव विहरिस्सति एवं खलु जंबू १, समणेणं पंचमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्ति बेमि ॥ सूत्रम् - ६७ ॥ पंचमं नायज्झयणं समत्तं ॥ 'अंतेहि' इत्यादि, अन्तैः - वल्लचणकादिभिः, प्रान्तैः तैरेव शुक्तावशेषैः पर्युषितैर्वा रुक्षैः- निःस्नेहस्तुच्छैः - अल्पैः, अरसैः-हिऋग्वादिभिरसंस्कृतैर्विरसैः - पुराणत्वाद्विगतरसैः, शीतैः- शीतलैः, उष्णैः प्रतीतेः, कालातिक्रान्तैः - तृष्णावुभुक्षाकालाप्राप्तैः, प्रमाणातिक्रान्तैः - बुभुक्षापिपासा मात्रानुचितैः चकाराः समुच्चयार्थाः, एवंविधविशेषणान्यपि पानादीनि निष्ठुरशरीरस्य न भवन्ति बाधायै अत आह- 'प्रकृतिसुकुमारकस्ये' त्यादि' वेयणा पाउन्भूया इत्यस्य स्थाने रोगायंकेत्ति कचित् दृश्यते, तत्र रोगाश्वासावातङ्कय-कृच्छ्रजीवितकारीति समासः कण्डू:- कण्डूतिः, दाहः- प्रतीतस्तत्प्रधानेन पित्तज्वरेण परिगतं शरीरं यस्य स तथा, 'तेइच्छं' ति - चिकित्सां, 'आउहावे मि' नि - आवर्त्तयामि कारयामि । 'सभंड मत्तोवगरणमाया'चि भाण्डमात्रा- पतग्रहं परिच्छदश्च उपकरणं च वर्षाकल्पादि भाण्डमात्रोपकरणं स्वं च तदात्मीयं भाण्डमात्रोपकरणं च स्वभाण्डमात्रोपकरणं तदादाय गृहीत्वा 'अभ्युद्यतेन' - सोद्यमेन, 'प्रदत्तेन' - गुरुणोपदिष्टेन 'प्रगृहीतेन' ५-श्रीशैलकाध्य• अध्यय नाथप संहारः । ॥ ११९ ॥ UZ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AKADASAR गुरुसकाशादङ्गीकृतेन 'विहारेण' साधु वर्तनेन 'विहर्तुं'-वर्तितुं, पार्श्वे-शानादीनां बहिस्तिष्ठतीति पार्श्वस्थ:-गाढग्लानत्वादिकारण विना शय्यातराम्याहृतादिपिण्डभोजकत्वाद्यागमोक्तविशेषणः, सच सकृदनुचितकरणेनाल्पकालमपि भवति, तत उच्यतेपार्थस्थानां यो विहारो-पहनि दिनानि यावत्तथा वर्चेनं स पार्श्वस्थविहार, सोऽस्यास्तीति पार्थस्थविहारी, एवमवसम्मादिविशेषणान्यपि, नवरमवसनो-विवक्षितानुष्ठानालसः, आवश्यकस्वाध्यायप्रत्युपेक्षणाध्यानादीनामसम्यकारीत्यर्थी कुत्सितशील:-कुशील-कालविनयादिमेदमिन्नानां ज्ञानदशेनचारित्राचाराणां विराषक इत्यर्थ: प्रमत्तः-पवविधप्रमादयोगात, संसक्तः कदाचित्संविग्नगुणानां कदाचित्पार्श्वस्थादिदोषाणां सम्बन्धात् गौरवत्रयसंसजनाचेति, ऋतुषद्वेऽपिअवर्षाकालेऽपि पीठफलकानि शय्यासंस्तारकार्थ यस्य स तथा 'नाइभुजो एवं करणयाए'त्ति-नैवः भूयः-पुनरपि एवंइत्थंकरणाय प्रवर्तिष्ये इति शेषा, 'एवमेवे'त्यादिरुपनयः, इह गाथा-"सिविलियसंजमकजावि होइउं उजमति जइ पच्छा। संवेगाओ तो सेलउद आराहया होति ॥१॥" इति पञ्चमशैलकज्ञातविवरणं समाप्तमिति ॥ SIRECAानाकामा - - - १ सा. शिथिलितसंयमकार्या अपि भूलोद्यच्छन्ति यदि पश्चात् । संवेगात् तर्हि शैलक इव ते आराधका भवन्ति ॥१॥ % Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.श्रीतुम्बकाध्य. नवाङ्गी१० वृ० श्रीमाताधर्मकथाङ्गे ॥ १२०॥ रूपकवर्णनम् । ECESSAKSSSC ॥६-श्रीतुम्बकाख्यं ज्ञाताध्ययनम् ॥ पश्चमानन्तरं षष्ठं व्याख्यायते, तस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः, अनन्तराध्ययने प्रमादवतोऽप्रमादवतश्चानर्थेतरावुक्तो, इहापि तयोरेव तावेवोच्यते इत्येवसम्बद्धमिदम् जति णं भंते, समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स णायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते, छट्ठस्स णं भंते, नायझयणस्स समजेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते; एवं खलजंबू, तेणं कालेणं २, रायगिहे समोसरणं, परिसा निग्गया, तेणं कालेणं २, समणस्स जेढे अंतेवासी इंदभूती, अदूरसामंते जाव सुक्कझा. णोवगए विहरति तते णं से इंदभूती जायसड्डे समणस्स ३, एवं वदासी-कहणं भंते!, जीवा गुरुयत्तं बा, लहुयत्तं वा हवमागच्छंति; गोयमा!, से जहा नामए के पुरिसे एगं, महं, सुकं, तुंब; णिच्छिई, निरुवहयं, दन्भेहिं कुसेहिं वेढेह २,महियालेवेणं लिपति, उण्हे दलयति २, सुकं समाणं दोचंपि दन्भेहि य, कुसेहि य, वेढेति २, महियालेवेणं लिंपति २, उण्हे सुक्कं समाणं तचंपि दन्भेहि य, कुसेहि य, वेदेति २, |महियालेवेणं लिंपति; एवं खरल एएणुवाएणं अंतरा वेढेमाणं, अंतरा लिंपेमाणे, अंतरा सुक्कवेमाणे जाय 'अहहिं मटियालेवहिं आलिंपति, अत्याहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेजा से पूर्ण गोयमा, "ति २ सा. 3. अ। काजामा । १२०॥ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - बाजा से तुंबे तेसिं अट्ठण्हं महियालेवेणं गुरुययाए, भारिययाए, गुरुयभारिययाए; उप्पि सलिलमतिवइत्ता अहे धरणियलपइटाणे भवति; एवामेव गोयमा !, जीवावि पाणातिवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं अणुः द्रपुब्वेणं अट्ठ कम्मपगडीओ समजिणन्ति; तासिं गरुययाए, भारिययाए, गरुयभारिययाए, कालमासे कालं किच्चा, धरणियलमतिवतित्ता, अहे नरगतलपइट्ठाणा भवंति; एवं खलु गोयमा !, जीवा गुरुयत्तं | का हब्वमागच्छति । अहण्णं गोतमा, से तुंबे तंसि पढमिल्लुगंसि, महियालेवंसि, तिन्नंसि कुहियंसि परिसडियंसि, इसिं धरणियलाओ उप्पतित्ता णं चिट्ठति; ततोऽणंतरं च णं दोच्चंपि महियालेवे जाव उप्पतित्ता णं चिट्ठति, एवं खलु एएणं उवाएणं, तेसु अट्ठसु मट्टियालेवेसु तिन्नेसु जाव विमुक्कपंधणे, अहेधरणियलमहवइत्ता उपि सलिलतलपइहाणे भवति; एवामेव गोयमा !, जीवा पाणातिवातवेरमणेणं जाव मिच्छादसणसल्लवेरमणणं, अणुपुवणं अट्ठ कम्मपगडीओ खवेत्ता, गगणतलमुप्पइत्ता उप्पि लोयग्गपतिहाणा भवंति; एवं खलु गोयमा!, जीवा लहुयत्तं हव्वमागच्छंति । एवं खलु जंबू!, समजाणेणं भगवया महावीरेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्तिमि ॥ सूत्रम्-६८॥ छ8 नायज्झयणं समत्तं ॥ ६॥ सर्व सुगम, नवरं, निरुपहतं-वातादिभिः, दमा-अग्रभृतः, कुश:-मूलभूतैः जात्या दर्मकुशमेद इत्यन्ये, 'अत्थाहंसि PIत्ति-अस्थाये, अगाधे इत्यर्थः पुरुषः परिमाणमस्येति पौरुषिक, तनिषेधादपौरुषिक; मृल्लेपानां सम्बन्धात् गुरुकतया, I CGTEHREST Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गवाङ्गी-: ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ १२१ ॥ ॥ ७ - श्रीरोहिणीज्ञाताध्ययनम् ॥ अथ सप्तमं विव्रियते, अस्य च पूर्वेण सहायं सम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने प्राणातिपातादिमतां कर्मगुरुताभावेनेतरेषां च लघुताभावेन अनर्थप्राप्तीतरे उक्ते, इह तु प्राणातिपातादिविरतिभञ्जक परिपालकानां ते उच्येते; इत्येवंसम्बद्धम् — गुरूकतैव कुतः १ - भारिकतया, मृल्लेपजनित भारवच्चेनेति भावः, गुरुकमारिकतयेति तुम्बक धर्मद्वयस्याप्य घोमञ्जनकारणता - प्रतिपादनायोक्तं, 'उपि’- उपरि, 'अइवइत्ता' - अतिपत्यातिक्रम्य, 'तिन्नंसि 'चि - स्तिमित आर्द्रतां गते, ततः 'कुथिते'कोथमुपगते; ततः 'परिसटिते' - पतिते इति । इह गाथे- "जहे मिउलेवालितं गरुयं तुंबं अहो वयह एवं । आसवकयकम्मगुरू जीवा वच्चति अहरगयं ॥ १ ॥ तं चैव तविमुकं जलोवरिं ठाइ जायलहुभावं । जह तह कम्मविमुक्का लोयग्गपइडिया सार्थवाहहोति ॥ २ ॥ " श्री षष्ठतुम्बकज्ञातविवरण समाप्तमिति ॥ ६ ॥ ज्ञाताध्य० जति णं भंते!, समणेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स नायज्झयणस्स अयमट्टे पन्नत्ते, सत्तमस्स णं भंते !, नायज्झयणस्स के अट्ठे पन्नत्ते ?; एवं खलु जंबू !, तेणं कालेणं २, रायगिहे नाम नयरे होत्था, सुभूमिभागे उज्जाणे; तत्थ णं रायगिहे नगरे धण्णे नामं सत्थवाहे परिवसति, अड्डे, भद्दा भारिया, अहीणपंचेंदि० जाव सुरूवा; तस्स णं घण्णस्स सत्थवाहस्स पुत्ता, भद्दाए भारियाए अत्तयां चत्तारि सत्थवा যওষ। এশততলঃজ सा०—१—२ यथा मृक्पलिप्तं गुरु तुम्बमधो ब्रजति एवं । आश्रवकृतकर्मगुरुत्वा जीवा व्रजन्ति अधोगतिं ॥ १ ॥ तदेव तद्विमुक्तं लो जातलघुभावं । यथा तथा कर्मविमुक्ता लोकाग्रे प्रतिष्ठिता भवन्ति ॥ २ ॥ ७-श्री रोहिणी कुटुम्बादिवर्णनम् । ॥ १२१ ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ACCORECACIA||SA हदारया होत्था तंजहा-धणपाले, धणदेवे, धणगोवे, धणरक्खिए; तस्स णं धण्णस्स सत्यवाहस्स चउण्हं पुत्ताणं भारियाओ चत्तारि सुहाओ होत्था, तं०-उज्झिया, भोगवतिया, रक्वतिया, रोहिणिया; तते णं तस्स धण्णस्स अन्नया कदाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि इमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पजित्थाएवं खलु अहं रायगिहे वहणं ईसर जाव पभिईणं सयस्स कुटुंबस्स बहूसु कजेसु य, करणिजेसु कोडंबेसु य, मंतणेसु य, गुज्झे, रहस्से, निच्छए, ववहारेसु य; आपुच्छणिज्जे, पडिपुच्छणिज्जे मेढी; पमाणे, आहारे, आलंबणे, चक्खुमेढीभूते, कज्जवद्यावए; तं ण णज्जति जं मए गयंसि वा, चुयंसि वा, मयंसि वा, भग्गंसि वा, लुग्गंसि वा, सडियंसि वा, पडियंसि वा, विदेसत्थंसि, वा, विप्पवसियंसि वा, इमस्स कुडुंबस्स किं मन्ने आहारे वा, आलंबे वा, पडिबंधे वा भविस्सति तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलंते विपुलं असणं ४, उवक्खडावेत्ता मित्तणाति, चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेत्ता, तं मित्तणाइणियः गसयण य चउण्ह सुण्हाणं कुलघरवग्गं विपुलेणं असणं ४, धुवपुप्फवस्थगंध जाव सकारेत्ता सम्माणेत्ता, तस्सेव मित्तणाति० चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरतो चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणट्टयाए पंच २, सालिअक्खए दलइत्ता: जाणामि ताव का किहं वा सारक्खेह वा, संगोवेइ वा, संवड्डेति वा ?; एवं संपेहेइ २, कल्लं जाव मित्तणाति०, चउण्हं सुण्हाणं कुलघरवग्गं आमंतेइ २, विपुलं असणं ४, उवक्खडावेह; ततो पच्छा पहाए भोयणमंडवंसि सुहासण, मित्तणाति०, चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गेणं सद्धिं तं 5A4%A1 I RAOCAFE "त०, चउण्ह , विपुलं अति वापर Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१. वृ. श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ १२२॥ -COCCASHOCIECCAREEK विपुलं असण ४, जाव सकारेति २, तस्सेव मित्तनाति०, चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो पंच ७-श्रीसालिअक्खए गेण्हति २, जेट्ठा सुण्हा उज्झितिया तं सद्दावेति २, एवं वदासी-तुमं णं पुत्ता मम हत्थाओ रोहिणीइमे पंच सालिअक्खए गेण्हाहि २, अणुपुव्वेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी विहराहि जया णंऽहं पुत्ता!, ज्ञाताध्य. तुम इमे पंच सालिअक्खए जाएज्जा तया णं तुमं मम इमे पंच साालिअक्खए पडिदिजाएजासि त्तिकद्दु शालिसुण्हाए हत्थे दलयति २, पडिविसज्जेति; तते णं सा उज्झिया धण्णस्स तहत्ति एयमढे पडिसुणेति २, समर्पणधण्णस्स सत्थवाहस्स हत्थाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हति २, एगंतमवक्कमति, एगंतमवक्कमियाए || विधिइमेयारूवे अभत्थिए०-एवं खलु तायाणं कोट्ठागारंसि बहवे पल्ला सालीणं पडिपुण्णा चिट्ठति, तं जया वर्णनम्। णं मम ताओ इमे पंच सालिअक्खए जाएस्सति, तया णं अहं पल्लंतराओ अन्ने पंच सालिअक्खए गहाय दाहामि त्तिकहु एवं संपेहेइ २, तं पंच सालिअक्खए एगते एडेति २, सकम्मसंजुत्ता जाया यावि होत्था । एवं भोगवतियाएवि, णवरं सा छोल्लेति २, अणुगिलति २, सकम्मसंजुत्ता जाया । एवं रक्खियावि, नवरं गेण्हति २, इमेयारूवे अन्भत्थिए०-एवं खलु ममं ताओ इमस्स मित्तनाति०, चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स य पुरतो सद्दावेत्ता, एवं वदासी-तुमण्णं पुत्ता मम हत्थाओ जाव पडिदिजाएजासि त्तिकद्द मम हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयति, तं भवियव्वमेत्य कारणेणं तिकडे एवं संपेहेति २, ते पंच सालिअक्वए सुद्धे वत्थे बंधइ २, रयणकरंडियाए पक्विवेइ २, ऊसीसामूले ठावेइ २ तिसंझं पति- ॥ १२२ ॥ जाफाश Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जागरमाणी विहरह । तए णं से घण्णे सत्थवाहे तस्सेव मित्त जाव चउत्थि रोहिणीयं सुण्हं सहावेति २, जातं भविव्वं एत्थ कारणेणं तं सेयं खलु मम एए पंच सालिअक्खए सारक्खेमाणीए, संगोवेमाणीए, संवडेमाणीए त्तिकट्टु एवं संपेहेति २, कुलधरपुरिसे सहावेति २; एवं वदासी - तुम्मे णं देवाणुप्पिया !, एते पंच सालिअक्खए गेहह २, पढमपाउसंसि महावुट्टिकायंसि निवइयंसि समाणंसि खुड्डागं केयारं सुपरिकम्मियं करेह २ त्ता, इमे पंच सालिअक्खए वावेह २, दोचंपि तच्चपि उक्खयनिहए करेह २, वाडिपक्वेवं करेह २, सारक्खेमाणा, संगोवेमाणा, अणुपुब्वेणं संवढेह; तते णं ते कोडुंबिया रोहिणी एतम पडणंति, ते पंच सालिअक्खए गेण्हति २, अणुपुब्वेणं सारक्वंति, संगोवंति, विहरंति; तए जं ते कोटुंबिया पढमपाउसंसि, महावुट्ठिकार्यसि, णिवयंसि, समाणंसि; खुड्डायं केदारं सुपरिकम्मियं करेंति २, ते पंच सालिअक्खए ववंति, दुच्चपि, तर्च्चपि, उक्स्वयनिहए करेंति २, वाडिपरिक्खेवं करेंति २, अणुपुवेणं सारक्खमाणा, संगोवेमाणा, संवड्डेमाणा, विहरंति तते णं ते साली अणुपुव्वेणं सारक्खिज्ज माणा, संगोविजमाणा, संबडिज्जमाणा, साली जाया किण्हा किन्होभासा जाव निउरंबभूया पासादीया ४; तते णं साली पत्तिया, बत्तिया, गब्भिया, पसूया, आगयगंधा, खीराइया, बद्धफला, पक्का, परियागया, सल्लइया, पत्तइया, हरियपव्वकंडा जाया यावि होत्था; तते णं ते कोडुंबिया ते सालीए पत्तिए जाव सल्लइए पत्तइए जाणित्ता, तिक्स्नेहिं णवपज्जणएहिं, असियएहिं लुर्णेति २, करयलमलिते करेंति २, पुणंति तत्थ छঃ Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A SCS नवाङ्गी१. वृ० भीमाताधर्मकथाङ्गे ॥१२३॥ ७-श्रीरोहिणीज्ञाताध्य. रोहिणी| वर्णनम् । TEACASSEMARA णं चोक्खाणं सूयाणं, अक्खंडाणं, अफोडियाणं, छड्डुछडापूयाणं, सालीणं मागहए पत्थए जाए; तते णं ते कोडंबिया ते साली णवएसु घडएसु पक्खिवंति २, उपलिंपंति २, लंछियमुहिते करेंति २, कोडागारस्स एगदेसंसि ठावेंति २, सारक्खेमाणा, संगोवेमाणा, विहरंति तते णं ते कोडुंबिया दोचंमि वासारत्तंसि, पढमपाउसंसि,महावुट्टिकायंसि, निवइयंसि खुड्डागं, केयारं, सुपरिकम्मिय करेंति; ते साली ववंति, दोचंपि, तचंपि, उक्खयणिहए जाव लुणेति, जाव चलणतलमलिए करेंति २, पुणंतितत्थ णं सालीणं बहवे कुडवा (मुरला) जाव एगदेसंसि ठावेंति २, सारक्ख०, संगो०, विहरंति;तते ण ते कोडुंबिया तचंसि वासारतसि महाबुट्टिकायंसि, बहवे केदारे सुपरि० जाव लुणेति २, संवहंति २, खलयं करेंति २, मलेति जाव बहवे कुंभा जायाः तते णं ते कोडंबिया साली कोट्ठागारंसि पक्खिवंति, जाव विहरंति, चउत्थे वासारत्ते बहवे कुंभसया जाया । तते णं तस्स धण्णस्स पंचमयंसि संवच्छरंसि परिणममाणंसि पुन्वरत्तावरत्तकालसमयसि, इमेयारूवे अन्भथिए जाव समुप्पज्जित्था:-एवं खलु मम इओ अतीते पंचमे संवच्छरे, चउण्हं सुण्हाणं परिक्खणट्टयाए, ते पंच सालिअक्खता हत्थे दिन्ना, तं सेयं खलु मम कल्लं जाव जलते पंच सालिअक्खए परिजाइत्तए जाव जाणामि, ताव काए किहं सारक्खिया वा, संगोविया वा, संवड़िया जाव त्तिक एवं संपेहेति २ कल्लं जाव जलंते विपुलं असण ४, मित्तनाय, चउण्ह य सुण्हाणं कुलघर जाव १पंचपंच सा.अ . CCUR ॥१२३॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ सम्माणित्ता; तस्सेव मित्त०, चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स पुरओ जेटं उज्झियं सदावेइ २त्ता, एवं वयासी-एवं खलु अहं पुत्ता , इतो अतीते पंचमंसि संवच्छरंसि इमस्स मित्त०, चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरवग्गस्स या पुरतो तव हत्थंसि पंच सालिअक्खए दलयामि, जया णं अहं पुत्ता!, एए पंच सालियअक्खए जाएजा तया णं तुम मम इमे पंच सालिअक्खए पडिदिज्जाएसि त्तिकद्दुतं हत्थंसि दलयामि से नूणं पुत्ता!, अत्थे समढे ?, हंता अस्थि, तन्नं पुत्ता, मम ते सालिअक्खए पडिनिजाएहि तते णं सा उज्झितिया एयमट्ट धण्णस्स पडिसुणेति २, जेणेव कोट्ठागारं तेणेव उवागच्छति २, पल्लातो पंच सालिअक्खए गेण्हति २, जेणेव धण्णे सत्यवाहे, तेणेव उवागच्छति २, धण्णं० एवं वदासी-एए णं ते पंच सालिअक्खए त्तिकदु, धण्णस्स हत्थंसि ते पंच सालिअक्खए दलयति तते णं धण्णे उज्झियं सवहसा. वियं करेति २, एवं वयासी किण्णं पुत्ता!, एए चेव पंच सालिअक्खए उदाहु अन्ने?, तते.णं उज्झिया धणं सत्यवाहं, एवं बयासी-एवं खलु तुम्भे तातो!, इओस्तीए पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त०, नाति०, चउण्ह य कुल०, जाव विहरामि, तते णंऽहं तुम्भं एतमट्ठ पडिसुणेमि २, ते पंच सालिअक्खए गेण्हामि एगंत. मवकमामि, तते णं मम इमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु तायाणं कोडागारंसि.सकम्मसंजुत्ता तं णो खलु ताओ! ते चेव पंच सालिअक्खए एए णं अन्ने, तते णं से धण्णे उझियाए अंतिए एयम, सोचा, णिसम्म, आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे उज्झितियं तस्स मित्तनाति०चउण्ह य सुण्हाणं बाजामा Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ७-श्रीरोहिणीज्ञाताध्य. उपनयादिस्वरूपम् । CACA||SUIII ॥१२४॥ CRORECASHRAWALCREAK कुलघरवग्गस्स य पुरओ तस्स कुलघरस्स छारुज्झियं च, छाणुज्झियं च, कयवरुज्झियं च, समुच्छियं च, सम्मजिअंच, पाउवदाई च, पहाणोवदाई च, बाहिरपेसणकारिं ठवेति; एवामेव समणाउसो!, जो अम्हं निग्गंथो वा २ जाव पव्वतिते पचं य से महव्ययाति उज्झियाइं भवंति, से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४, जाव अणुपरियदृइस्सइ, जहा सा उज्झिया । एवं भोगवइयावि, नवरं तस्स कंडिंतियं वा, कोदंतियं च, पीसंतियं च, एवं रुचंतियं, रंधतियं, परिवेसंतियं च, परिभायंतियं च, अन्भंतरियं च, पेसणकारिं, महाणसिणिं ठवेंति; एवामेव समणाउसो !, जो अम्हं समणो पंच य से महब्बयाई फोडि. याई भवंति, से णं इह भवे चेव बढणं समणाणं ४, जाव हील ४, जहा व सा भोगवतिया । एवं रक्खितियावि, नवरं जेणेव वासघरे तेणेव उवागच्छइ २, मंजूसं विहाडेइ २, रयणकरंडगाओ ते पंच सालिअक्खए गेण्हति २, जेणेव धण्णे तेणेव उवा० २, पंच सालिअक्खए धण्णस्स हत्थे दलयति; तते णं से धणे रक्खितियं, एवं वदासी-किन्नं पुत्ता ते चेव ते पंच सालिखक्खया उदाहु अन्नेत्ति, तते | णं रक्खितिया धण्ण एवं० ते चेव ताया!, एए पंच सालिअक्खया णो अन्ने, कहन्नं पुत्ता !, एवं खलु ताओ!, तुब्भे इओ पंचमंमि जाव भवियव्वं एत्थ कारणेणं तिकट्ठ ते पंच सालिअक्खए सुद्धे वत्थे जाव तिसंझं पडिजागरमाणी य विहरामि ततो एतेणं कारणेणं ताओ!, ते व ते पंच सालिअक्खए णो अन्ने, तते णं से धण्णे रक्खितियाए अंतिए एयमटुं सोचा हहतुह तस्स कुलघरस्स हिरन्नस्स १२४॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ य कंसदूसविपुलधणजावसावतेजस्स य भंडागारिणिं ठवेति, एवामेव समणाउसो! जाव पंच य से महन्वयाति रक्खियाति भवंति, से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं ४, अचणिजे जहा जाव सा रक्खिया। रोहिणियावि एवं चेव, नवरं तुम्भे ताओ मम सुबहुयं सगडीसागडं दलाहि, जेणं अहं तुभ ते पंच सालिअक्खए पडिणिज्जाएमि; तते णं से धण्णे रोहिणिं एवं वदासी-कहणं तुमं मम पुत्ता!, ते पंच सालिअक्खए, सगडसागडेणं निजाइस्ससि ?, तते णं सा रोहिणी धणं एवं वदासी-एवं खलु तातो !, इओ तुम्भे पंचमे संवच्छरे इमस्स मित्त जाव बहवे कुंभसया जाया तेणेव कमेणं एवं खलु ताओ, तुन्भे ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाएमिः तते णं से घण्णे सत्यवाहे रोहिणीदयाए सुबहुयं सगडसागडं दलयति, तते णं रोहिणी सुबहुं सगडसागडं गहाय जेणेव सए कुलघरे तेणेय उवागच्छई, कोट्ठागारे विहाडेति २, पल्ले उभिदति २, सगडीसागडं भरेति २, रायगिहं नगरं मज्झंमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव धण्णे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छति, तते णं रायगिहे नगरे सिंघाडग जाव बहुजणो अन्नमन्नं एवमातिक्खति०-धन्ने ण देवा०1, धण्णे सत्यवाहे जस्स णं रोहिणिया सुण्हा जीए णं पंच सालिअक्खए सगडसागडिएणं निज्जाएतितते णं से धणे सत्थ० ते पंच सालिअक्खए सगडसागडेणं निज्जाएतिते पासति २, हट्ट, पडिच्छति २, तस्सेव मित्तनाति०, चउण्ह य सुण्हाणं कुलघरपुरतो रोहि१२ आ. को अ। बाजागा Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाजी१०० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे णीयं सुण्हं तस्स कुलघरस्स बहुसु कजेसु य जाव रहस्सेसु य आपुच्छणिजं जाव बहावितं पमाणभूयं ७-श्रीठावेति; एवामेव समणाउसो !, जाव पंच महव्वया संवड्डिया भवंति, से णं इह भवे चेव बहणं समणाणं रोहिणीजाव वीतीवइस्सइ जहा व सा रोहिणीया । एवं खलु जंबू, समणेणं भगवया महावीरेणं सत्तमस्स | ज्ञाताध्य० नायज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते तिबेमि ॥ सूत्रम्-६९।। सत्तमं नायज्झयणं समत्तं ॥ ७ ॥ विषमइदमपि सुगमम् , नवरं 'मए'ति-मयि, 'गयंसित्ति-गते ग्रामादौ, एवं 'च्युते-कुतोऽप्यनाचारात् स्वपदात् पतिते पदार्थ'मृते-परासुतां गते, 'भग्ने-वात्यादिना कुब्जखञ्जत्वकरणेनासमर्थीभूते, 'लुग्गंसि वत्ति-रुग्ने जीर्णतां गते, 'शटिते' | वर्णनम् । व्याधिविशेषाच्छीर्णतां गते, 'पतिते'-प्रासादादेर्मश्चके वा ग्लानभावात् , 'विदेशस्थे विदेशं गत्वा तत्रैव स्थिते, 'विप्रो षिते' स्वस्थानविनिर्गते देशान्तरगमनप्रवृत्ते, आधार:-आश्रयो भृरिव, आलम्बन-वस्त्रादिकमिव, प्रतिबन्धः-प्रमार्जनिका. शलाकादीनां लतादवरक इव कुलगृहं-पितृगृह, तद्वर्गो मातापित्रादिः संरक्षति, अनाशनतः सङ्गोपयति, संवरणतः संवर्द्धयति, बहत्वकरणतः 'छोल्लेइ'त्ति-निस्तुषीकरोति, 'अणुगिलइ'त्ति भक्षयति, क्वचित्फोल्लेईत्येतदेव दृश्यते, तत्र च भक्षयतीत्यर्थः | 'पत्तियत्ति सञ्जातपत्राः, 'वत्तियत्ति व्रीहीनां पत्राणि मध्यशलाकापरिवेष्टनेन नालरूपतया वृत्तानि भवन्ति, तद्वत्ततया जातवृत्तत्वाद्वर्तिताः शाखादीनां वा समतया वृत्तीभृताः सन्तो वर्तिता अभिधीयन्ते, पाठान्तरेण-'तइया वत्ति-सञ्जातत्वच इत्यर्थः। गर्भिता-जातगर्भा, डोडकिता इत्यर्थः, प्रसूताः कणिशानां पत्रगर्भेम्यो विनिर्गमात् आगतगन्धा-जातसुरभिगन्धाः आयातगन्धा वा दयायिगन्धा इत्यर्थः, क्षीरकिताः सजातक्षीरकाः, बद्धफलाः क्षीरस्य फलतया बन्धनात् जातफला इत्यर्थः पहा १२५॥ CASIA'ला ॥१२५॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAEECTI|| ISGARHWASE पक्काः काठिन्यमुपगताः, पर्यायागताः पर्यायगता वा सर्वनिष्पन्नतां गता इत्यर्थः, 'सल्लइपत्तय'त्ति-सल्लकी पक्षविशेषस्तस्या इव पत्रकाणि दलानि कुतोऽपि साधात् सञ्जातानि येषां ते तथेति, गमनिकैवेयं पाठान्तरेण शल्यकिताः शुष्कपत्रतया सञ्जात शलाका पत्रकिताः सञ्जातकुत्सितकाऽल्पपत्राः, 'हरियपव्वकंड 'त्ति हरितानि-हरितालवर्णानि, नीलानि पर्वकाण्डानिनालानि येषां ते तथा, जाताधाप्यभूवन् , 'नवपज्जाणएहिंति नवं प्रत्यग्र, पायनं लोहकारेणातापितं कुट्टितं तीक्ष्णधारीकृतं पुनस्तापितानां जले निबोलनं येषां तानि तथा तेः, 'असिएहिंति दात्रैः, 'अखंडाणं'ति सकलानां, अस्फटितानां असञ्जातराजीकानां, छड २ इत्येवमनुकरणतः सूपादिना स्फुटा:-स्फुटीकृता शोधिता इत्यर्थः, स्पृष्टा वा पाठान्तरेण पूता वा ये ते तथा तेषां, 'मागहए पत्थए'त्ति "दो' असईओ पसई दो पसइओ उ सेइया होइ । चउसेइओ उ कुडओ चउकुडओ पत्थओ नेउ ॥१॥"त्ति अनेन प्रमाणेन मगधदेशव्यवहृतः प्रस्थो मागधप्रस्थः, 'उपलिंपति' घटकमुखस्य तत्पिधानकस्य च गोमयादिना रन्ध्र भञ्जन्ति 'लिंपेंति' घटमुखं तत्स्थगितं च छगणादिना पुनर्मसृणीकुर्वन्ति, लाञ्छितं रेखादिना, मुद्रितं मृन्मयमुद्रादानेन तत्कुर्वन्ति, मुरलो मानविशेषः, खलकं धान्यमलनस्थण्डिलं, चतुष्प्रस्थं आढकः, आढकानां षष्ट्या जघन्यः कुम्भः अशीत्या मध्यमः शतेनोत्कृष्ट इति, 'क्षारोष्ट्रिकां'-मस्मपरिष्ठापिका, 'कचवरोज्झिका' अबकरशोधिकां 'समुक्षिका' प्रातहाङ्गणे जलच्छटकदायिका, पाठान्तरेण 'संपुच्छिय'त्ति तत्र सम्प्रोच्छिका पादादिलूषिकां, 'सम्माणिका' गृहस्यान्तर्बहिश्च बहकरिकावाहिका, 'पादोदकदायिका पादशौचदायिकां स्नानोदकदायिकां प्रतीता, बाह्यानि प्रेषणानि कर्माणि सा० १ द्वे अमृती प्रसूतिः दे प्रसूती तु सेतिका भवति । चतुःसेतिकः कुडवश्चतुष्कुडवः प्रस्थको ज्ञेयः ॥१॥ ||| SAHECC Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ७-श्री| रोहिणीज्ञाताध्य. प्राकृतपद्योपनयनवर्णनम् । ॥१२६॥ करोति या सा, 'बाहिरपेसणगारियत्ति भणिया, 'कंडयंतिका 'मिति अनुकम्पिता कण्डयन्तीति-तन्दुलादीन उखलादौ क्षोदयन्तीति कंडयन्तिका तां, एवं 'कुट्यन्तिकां तिलादीनां चूर्णनकारिका, 'पेषयन्तिकां गोधूमादीनां घरट्टादिना पेषणकारिका, 'रुन्धयंतिका' यन्त्रके व्रीहिकोद्रवादीनां निस्तुषत्वकारिका, 'रन्धयन्तिका ओदनस्य पाचिका, 'परिवेषयन्तिका भोजनपरिवेषणकारिका, 'परिभाजयन्तिकां' पर्वदिने स्वजनगृहेषु खण्डखाद्याथैः परिभाजनकारिकां महानसे नियुक्ता महानसिकी तां स्थापयति, 'सगडीसागडंति शकट्यश्व-गन्त्र्यः शकटानां समृहः शाकटं च शकटीशाकटं गडीओ गडिया यत्ति उक्तं भवति, 'दलाह'त्ति दत्त प्रयच्छतेत्यर्थः; 'जाणंति येन 'ण'मित्यलकारे 'प्रतिनिर्यातयामि'समर्पयामीति, अस्य च ज्ञातस्यैवं विशेषेणोपनयनं निगदति, यथा-'जह सेट्ठी तह गुरुणो जह णाइजणो तहा समणसंघो । जह वहुया तह भवा जह सालिकणा तह वयाई ॥१॥ जह सा उज्झियनामा उज्झियसाली जहत्थममिहाणा। पेसणगारित्तेणं | असंखदुक्खक्खणी जाया ॥२॥ तह भवो जो कोई संघसमक्खं गुरुविदिन्नाई। पडिवजिउं समुज्झइ महत्वयाई महामोहा ॥३॥ सो इह चेव भवंमी जणाण धिक्कारमायणं होइ । परलोए उ दुहत्तो नाणाजोणीसु संचरइ ॥४॥ उक्तं च-"धम्माओ भ?" वुत्तं, "इहेवऽहम्मो"वुत्तं "जह वा सा भोगवती जहत्थनामोवमुत्तसालिकणा । पेसणविसेसकारितणेण पत्ता दुहं चेव सा०-१-१४ । यथा श्रेष्ठी तथा गुरवो यथा ज्ञातिजनस्तथा श्रमणसंघः । यथा वध्वस्तथा भव्या यथा शालिकणास्तथा ब्रतानि ॥ १॥ यथा सोनितनाम्नी उज्झितशालियथार्थाभिधाना प्रेषणकर्तृत्वेनासंख्यदुःखखनिर्जाता ॥२॥ तथा भव्यो यः कोऽपि संघसमक्षं गुरुवितीर्णानि प्रतिपद्य समुज्झति | महाव्रतानि महामोहात् ॥ ३॥ स इहैव भवे जनानां धिक्कारभाजनं भवति । परलोके तु दुःखा? नानायोनिषु संचरति ॥ ४ ॥ (अत्रत्यं यदतिदिष्टं | | धम्माओ भटुं० इहेबऽहम्मो• इति वृत्तद्वयं तदप्रसिद्धत्वान्नोल्लिखितुं शक्यं )। यथा वा सा भोगवती यथार्थनानी उपभुक्तशालिकणां । प्रेषणविशेषकारित्वेन SHAILE SSE ॥१२६। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECORCHANA ॥५॥ तह जो महावयाई उचभुंजइ जीवियत्ति पालितो। आहाराइसु सत्तो चत्तो सिवसाहणिज्छाए ॥६॥ सो एत्थ जहिच्छाए पावह आहारमाइ लिंगित्ति । विउसाण नाइपुज्जो परलोयम्मी दुही चेव ॥ ७॥ जह वा रक्खियवहुया रक्खियसालीकणा जहत्थक्खा । परिजणमण्णा जाया भोगसुहाई च संपत्ता ।। ८॥ तह जो जीवो सम्म पडिवज्जिता महत्वए पंच । पालेइ निरइयारे पमायलेसंपि वळतो ॥९॥ सो अप्पहिएकरई इहलोयंमिवि विऊहिं पणयपओ। एगंतसुही जायइ परंमि मोक्खंपि पावेइ ॥१०॥ जह रोहिणी उ सुण्हा रोवियसाली जहत्थमभिहाणा । वड्डित्ता सालिकणे पत्ता सवस्ससामित्॥११॥ तह जो भयो पाविय वयाई पालेह अप्पणा सम्मं । अन्नेसिवि भवाण देइ अणेगेसि हियहेउं ॥१२॥ सो इह संघपहाणो जुगप्पहाणेत्ति लहइ संसदं । अप्पपरेसिंकल्लाणकारओ गोयमपहुच ॥ १३ ॥ तित्थस्स बुड्डिकारी अक्खेवणओ कुतित्थियाईणं । विउसनरसेवियकमो कमेण सिद्धिपि पावेह ॥ १४॥"त्ति समाप्तमिदं सप्तमश्रीरोहिणीज्ञाताध्ययनम् ।। | प्राप्ता दुःखमव ॥५॥ तथा यो महाव्रतानि उपभुनकि जीविकेतिकृत्वा पालयन् । आहारादिषु सक्तस्त्यतः शिवसाधनेच्छ्या ॥ ६॥ सोऽत्र यथेच्छं प्राप्नोत्याहारादि लिल्गीति । विदुषां नातिपूज्यः परलोके दुःख्येव ॥ ७॥ यथा वा रक्षिता वधू रक्षितशालिकणा यथाख्या। परिजनमान्या जाता भोगसुखानि च संप्राप्ता ॥ ८॥ तथा यो जीवः सम्यक् प्रतिपद्य महाव्रतानि पञ्चव पालयति निरतिचाराणि प्रमादळेशमपि वर्जयन् ॥९॥ स आत्महितेकरतिरिहलोकेऽपि विद्वत्प्रणतपादः । एकान्तसुखी जायते परस्मिन् मोक्षमपि प्राप्नोति ॥ १०॥ यथा रोहिणी तु स्नुषा रोपितशालियथार्थाभिधाना वर्धयित्वा शालिकणान् प्राप्ता सर्वस्वस्वामित्वं ॥१॥ तथा यो भव्यो व्रतानि प्राप्य पालयति आत्मना सम्यक् । अन्येषामपि भव्यानां ददात्यनेकेषां हितहेतोः ॥ १२ ॥ स इह संघप्रधानो युगप्रधान इति लभते संशब्दम् । आत्मपरेषां कल्याणकारको मौतमप्रभुवत् ॥ १३ ॥ तीर्थस्य वृद्धिकारी आक्षेपकः कुतीर्थिकादीनां । विद्वानरसेवितक्रमः क्रमेण सिधिमपि प्राप्नोति ॥ १४ ॥ SAFECIFICALC Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाडी ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ १२७ ॥ ॥ ८- श्रीमल्लीज्ञाताध्ययनम् ॥ अथाष्टमं ज्ञातं व्याख्यायते, अस्य च पूर्वेण सहायमभिसम्बन्धः - पूर्वस्मिन् महाव्रतानां विराधनाविराधनपोरनर्थार्थावुक्तौ, इह तु महाव्रतानामेवाल्पेनापि मायाशल्येन दूषितानामयथावत्स्वफलसाधकत्वमुपदर्श्यते इत्यनेन सम्बन्धेन सम्बद्धमिदम् - जति णं भंते!, समणेणं० सत्तमस्स नायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, अट्टमस्स णं भंते!, के अट्ठे पण्णत्ते ; एवं खलु, जंबू ! तेणं कालेणं, तेणं समएणं, इहेव जंबूदीवे दीवे, महाविदेहे वासे २, मंदरस्स पव्यस्स पञ्चत्थिमेणं निसदस्स वासहरपव्वयस्स, उत्तरेणं सीयोयाए महाणदीए, दाहिणेणं सुहावहस्स वक्खारपव्वतस्स, पच्चत्थिमेणं पञ्चत्थिमलवणसमुद्दस्स, पुरच्छिमेणं एत्थ णं सलिलावती नामं विजए पन्नत्ते; तत्थ णं सलिलावतीविजए वीयसोगा नामं रायहाणी पं०, नवजोयणविच्छिन्ना जाव पञ्चकखं देवलोग भूया; तीसे णं वीयसोगाए रायहाणीए उत्तरपुरच्छिमे दिसिभाए इंदकुंभे नामं उज्जाणे, तत्थ णं वीयसोगाए रायहाणीए बले नामं राया, तस्सेव धारणीपामोक्खं देविसहस्सं उबरोधे होत्या; तते णं सा धारिणी देवी अन्ना कदाइ सीहं सुमिणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, जाव महब्बले नाम दारए जाए, उम्मुक्क जाव भोगसमत्थे; तते णं तं महब्बलं अम्मापियरो सरिसियाणं कमलसिरीपामोक्खाणं पंचण्डं रायवरक ড় । তভলঃ ८ - श्री मल्ली ज्ञाताध्य० पूर्वापरसंबंध वर्णनम् । ॥ १२७ ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHREECI 554535AEC नासयाणं एगदिवसेणं पाणि गेण्हावेंति, पंच पासायसया पंचसतो दातो जाव विहरति, थेरागमणं इंदकुंभे उजाणे समोसढे, परिसा निग्गया, बलोवि निग्गओ, धम्मं सोचा, णिसम्म जं नवरं महब्बलं कुमारं रज्जे ठावेति, जाव एकारसंगवी बहूणि वासाणि सामण्णपरियायं पाउणित्ता, जेणेव चारुपव्वए मासिएणं भत्तेणं सिद्धेः तते णं सा कमलसिरी अन्नदा सीहं सु० जाव बलभद्दो कुमारो जाओ, जुवराया यावि होत्था, तस्स णं महब्बलस्स रन्नो इमे छप्पिय बालवयंसगा रायाणो होत्था, तंजहा-अयले धरणे पूरणे वसुं वेसमेणे अभिचंदे सहजायया जाव संहिचाते णित्थरियव्वे त्तिकद्द अन्नमन्नस्सेयमढे पडिसुणेति तेणं कालेणं २, इंदकुंभे उजाणे थेरा समोसढा, परिसा० महब्बले णं धम्मं सोचा जं नवरं छप्पिय बालवयंसए आपुच्छामि बलभदं च कुमारं रज्जे ठावेमि जाव छप्पिय बालवयंसए आपुच्छति; तते ण ते छप्पिय महन्बलं रायं एवं क्यासी-जति णं देवाणुप्पिया!, तुम्मे पव्वयह अम्हं के अन्ने आहारे वा जाव पव्वयामो तते णं से महब्बले राया ते छप्पिय एवं०-जति णं तुम्भे मए सद्धिं जाव पव्वयह तो णं गच्छह, जेठे पुत्ते सरहिं २, रजेहिं ठावेह पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूढा जाव पाउन्भवंति तते णं से महब्बले राया छप्पिय बालवयंसए पाउन्भूते पासति २, हट्ट. कोडुषियपुरिसे० बलभद्दस्स अभिसेओ, आपुच्छति; तते णं से महब्बले जाव महया इड्डीए पव्वतिए एक्कारस अंगाई बहहिं चउत्थ जाव भावेमाणे विहरति, तते णं तेसिं महब्वलपामोक्खाणं सत्तण्हं अणगाराणं अन्नया कयाइ एग A ASA Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-श्री मल्ली नवाङ्गी- यओ सहियाणं इमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पन्जित्था-जण्णं अम्हं देवाणु० एगे तवोकम्म उव्वसं१०० पजित्ता णं विहरति, तण्णं अम्हेहिं सव्वेहिं तवोकम्म उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए त्तिकट्ठ अण्णमण्णस्स मीज्ञाता- एयमटुं पडिसुणेति २, बहूहिं चउत्थ जाव विहरति तते णं से महब्बले अणगारे इमेणं कारणेणं इत्थिधर्मकथाङ्गे णाममोयं कम्मं निव्वत्तेसु-जति णं ते महब्बलवजा छ अणगारा चउत्थं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति, ततो ॥१२८॥ से महब्बले अणगारे छठें उवसंपन्जित्ता णं विहरइ, जति णं ते महब्बलवजा अणगारा छ8 उवसंपजित्ता गं बिहरंति, ततो से महब्बले अणगारे अट्ठमं उवसंपज्जित्ता णं विहरति; एवं अट्ठमं तो दसमं अह दसमं तो दुवालसं, इमेहि य णं वीसाएहि य कारणेहिं आसेवियबहुलीकरहिं तित्थयरनामगोयं कम्मं निव्वतिसु, तं०-"अरहंत १ सिद्ध २ पवयण ३ गुरु ४ थेर ५ बहुस्सुए ३ लवस्सीसुं७। वच्छल्लया य तेसिं अभिक्ख णाणोवओगे य८॥१॥दसण ९विणए १० आवस्सए य ११ सीलव्वए निरइयारं १२ । खणलव १३ तव १४ चियाए १५ वेयावचे १६ समाही य १७॥२॥ अप्पुब्वणाणगहणे १८ सुयभत्ती १९ पवयणे पभावणया २० । एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीओ ॥३॥" तए णं ते महाब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा मासियं भिक्खुपडिमं उवसंपन्जित्ताणं विहरंति जाव सा. १ अर्हत्सिवप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विवत्सलता अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च ॥१॥ - दर्शनं विनय आवश्यकानि च शीलवतं निरतिचार * क्षणलवः तपः त्यागः वैयावृत्त्यं समाधिश्च ॥ २ ॥ अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचने प्रभावना एतैः कारणैः तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥ ३॥. ज्ञाताध्य. महाबलादिश्रमणानां तपोधर्मसूत्रवर्णनम् । GANGACASAR ॥ १२८॥ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CANCIEOASANACHER एगराइयं उव०, तते णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्म उवसंपजि. त्ताणं विहरंति, तं०-चउत्थं करेंति २, सव्वकामगुणियं पारेंति २, छटुं करेंति २, चउत्थं करेंति २, अहम करेंति २, छटुं करेंति २, दसमं करेंति २ अट्ठमं करेंति २, दुवालसमं करेंति २, दसमं करेंति २, चाउद्दसम करेंति२, दुवालसमं करेंति२, सोलसमं करेंति२, चोद्दसमं करेंति २, अट्ठारसमं करेंति २, सोलसमं करेंति २, वीसइमं करेंति २, अट्ठारसमं करेंति२, वीसइमं करेंति२, सोलसमं करेंति२, अट्ठारसमं करेंति२, चोदसमं करेंति२, सोलसमं करेंतिर, दुवालसमं करेंति२, चाउद्दसमं करेंति२, दसमं करेंतिर दुवालसमं करेंति२, अट्ठमं करेंति२, दसमं करेंति२, छटुं करेंति२, अट्ठमं करेंति२, चउत्थं करेंति२, छटुं करेंति२, चउ. क. सव्वत्थ सव्वकामगुणिएणं पारेंति; एवं खलु एसा खुड्डागसीहनिक्कीलियस्स तवोकम्मस्स पढमा परिवाडी छहिं मासे हिं, सत्तहि य, अहोरत्तेहि य, अहासुत्ता जाव आरहिया भवइ; तयाणंतरं दोचाए परिवाडीए चउत्थं करेंति, नवरं विगइवजं पारेंति; एवं तच्चावि परिवाडी नवरं पारणए अलेवाडं पारेंति, एवं चउस्थावि परिवाडी नवरं पारणए आयंबिलेण पारेंति, तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा खुड्डागं सीहनिक्कीलियं तवोकम्मं दोहिं संवच्छरेहिं अट्ठावीसाए अहोरत्तेहिं अहासुत्तं जाव आणाए आराहेत्ता, जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति२, थेरे भगवंते वंदति नमसंति २; एवं वयासी-इच्छामो णं भंते, महालयं सीहनिकीलियं तहेव जहा खुड्डागं नवरं चोत्तीसइमाओ नियत्तए एगाए परिवाडीए कालो एगेणं SAIजISAROKAR Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाडी.. | मल्ली श्रीज्ञाता ज्ञाताच्या पर्यकथाओं ॥ १२९॥ ACARSA | संवच्छरेणं छहिं मासेहि, अट्ठारसहि य अहोरत्तेहिं समप्पेति सव्वंपि सीहनिक्कीलिय छहिं वासेहिं, दोहि य मासेहिं, बारसहि य अहोरत्तेहिं, समप्पेति तए णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा महालयं सीहनिकीलियं अहामुत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव थेरे भगवंते तेणेव उवागच्छंति२, थेरे भगवंते वंदति नमसंति२, बहणि चउत्थ जाव विहरंति; तते णं ते महब्बलपामोक्खा सत्त अणगारा तेणं ओरा. लेणं सुक्का भुक्खा जहा खंदओ नवरं थेरे आपुच्छित्ता चारुपव्वयं दुरुहंति २ जाव दोमासियाए संलेहणाए सवीसं भत्तसयं चतुरासीतिं वाससयसहस्सातिं सामण्णपरियागं पाउणंति२, चुलसीतिं पुन्वसय. सहस्सातिं सव्वाउयं पालइत्ता जयंते विमाणे देवत्ताए उववन्ना ॥ सूत्रम्-७० ॥ | सर्व सुगम, नवरं शीतोदायाः पश्चिमसमुद्रगामिन्या दक्षिणे कूले सलिलावतीति यदुक्तमिह तद् ग्रन्थान्तरे-नलिनावतीत्युच्यते, चक्रवर्तिविजयं-चक्रवर्तिविजेतव्यं क्षेत्रखण्डं, 'इमेणं कारणेणं'ति-अनेन वक्ष्यमाणेन हेतुनाऽन्यथाप्रतिज्ञायान्यथाकरणलक्षणेन, मायारूपत्वादस्य, माया हि स्त्रीत्वनिमित्तं तत्र श्रूयते, तस्य चैतदन्यथाभिधानान्यथाकरणं किल कुतोऽपि मिथ्याभिमानादहं नायक एते त्वनुनायकाः इह च को नायकानुनायकानां विशेषो यद्यहमुत्कृष्टतरतया न भवामीत्येवमादे. स्सम्भाव्यते, 'इत्थीनामगोय'न्ति-स्त्रीनामः-स्त्रीपरिणामः, स्त्रीत्वं यदुदयाद्भवति गोत्रं-अभिधानं यस्य तत् स्त्रीनामगोत्र, अथवा यत् स्त्रीप्रायोग्यं नामकर्म गोत्रं च तत् स्त्रीनामगोत्रं कर्म निर्वर्तितवान् , तत्काले च मिथ्यात्वं सास्वादनं वा अनुभूतवान् , स्त्रीनामकर्मणो मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिप्रत्ययत्वात् ; 'आसेवियबहुलीकएहिति-आसेवितानि सकृत्करणात् बहुली जयन्तविमानोत्पत्तिस्त्रवर्णनम्। CARSHASTRITISARSHISHES 5॥१२ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AUGUAGAROO कृतानि बहुशः सेवनात् यानि तेः, 'अरहंतगाहा'-अर्हदादीनि सप्तपदानि, तत्र प्रवचन-श्रुतज्ञानं, तदुपयोगानन्यत्वाद्वा सङ्घः गुरवो धर्मोपदेशकाः, स्थविराः-जातिश्रुतपर्यायभेदभिन्नास्तत्र जातिस्थविरः षष्टिवर्षः, श्रुतस्थविरः समवायधरः, | पर्यायस्थविरो विंशतिवर्षपर्यायः, बहुश्रुताः परस्परापेक्षया तपस्विनः-अनशनादिविचित्रतपोयुक्ताः सामान्यसाधवो वा, इह | च सप्तमी षष्ट्यर्थे द्रष्टव्याः, ततोऽर्हसिद्धप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विनां वत्सलतया-वात्सल्येनानुरागयथावस्थितगुणो. कीर्तनानुरूपोपचारलक्षणया तीर्थकरनामकर्म बद्धवानिति सम्बन्धः, 'तेसिं'ति-ये एते जगद्वन्दनीया अहंदादयस्तेषां, अभीक्ष्ण-अनवरतं ज्ञानोपयोगे च सति तद् वध्यते इत्यष्टौ, 'दसण'गाहा, दर्शन-सम्यक्त्वं ९, विनयो ज्ञानादिविषयः, तयोनिरतिचारः संस्तीर्थकरत्वं बद्धवान् १०, आवश्यक-अवश्यकर्त्तव्यं संयमव्यापारनिष्पन्न तस्मिंश्च निरतिचारः सन्निति ११, तथा शीलानि च-उत्तरगुणा ब्रतानि च-मूलगुणास्तेषु पुनर्निरतिचार इति १२, क्षणलवग्रहणं कालोपलक्षणं, क्षणलवादिषु संवेगभावनाध्यानासेवनतश्च निर्वर्जितवान् १३, तथा तपस्त्यागयोः सतो निर्वर्तितवान् , तत्र तपसा चतुर्थादिना १४, त्यागेन च यतिजनोचितदानेनेति १५, तथा वैयावृत्त्ये सति दशविधे निवर्तितवान् १६, समाधौ च गुर्वादीनां कार्यकरणद्वारेण चित्तस्वास्थ्योत्पादने सति निर्वर्तितवान् १७, द्वितीयगाथायां नव, 'अप्पुव्वगाहा-अपूर्वज्ञानग्रहणे सति निर्वतितवान् १८, श्रुतभक्तियुक्ता प्रवचनप्रभावना श्रुतभक्तिप्रवचनप्रभावना तया च निर्वर्तितवान् श्रुतबहुमानेन १९, यथाशक्ति मार्गदेशनादिकया च प्रवचनप्रभावनयेति भावः २०, तीर्थकरत्वकारणतायामुक्ताया हेतुर्विशतेः सर्वजीवसाधारणतां दर्शयत्राह-एतैः कारणैस्तीर्थकरत्वं अन्योऽपि लभते जीव इति, पाठान्तरे तु 'एसोति एष महाबलो लब्धवानिति 'जाव AFAIRAT-CITERACH Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी१. वृ० मीज्ञाताधर्मकथाङ्गे १३०॥ NASHASHAIRCRAKASIRCRAKA एगरायंति-इह यावत्करणात् , 'दोमासियं तेमासियं चउम्मासियं पंचमासियं छम्मासियं सत्तमासियं पढमसत्तराईदियं ८-श्री| बीयसत्तराईदियं तच्चसत्तराइंदियं अहोराइंदिय'ति द्रष्टव्यमिति, 'सीहनिक्कीलिय'ति-सिंहनिष्क्रीडितमिव सिंहनिष्क्रीडितं, |श्रीमल्लीसिंहो हि विहरन् पश्चाद्भागमवलोकयति एवं यत्र प्राक्तनं तप आवोत्तरोत्तरं तद् विधीयते तत्तपः सिंहनिष्क्रीडितं, तच्च ज्ञाताध्य. द्विविधं-महत् क्षुद्रकं चेति, तत्र क्षुल्लकमनुलोमगतौ चतुर्भक्तादि विंशतितमपर्यन्तं प्रतिलोमगतौ तु विंशतितमादिकं चतु- विविध र्थान्तं, उभयं मध्येऽष्टादशकोपेतं चतुर्थषष्ठादीनि तु एकैकवृद्ध्ये कोपवासादीनि, स्थापना चेयं भवति इह चत्वारि २ चतुर्था- | तपोधर्मदीनि त्रीण्यष्टादशानि द्वे विंशतितमे तदेवं चतुष्पश्चाशदधिकं शतं तपोदिनानां त्रयस्त्रिंशच्च पारणकदिनानामेवमेकस्यां परि- वर्णनम् । पाट्यां षण्मासाः सप्तरात्रिन्दिवाधिका भवन्ति, प्रथमपरिपाट्यां च पारणकं सर्वकामगुणिक, सर्वे कामगुणा:-कमनीयपर्याया विकृत्यादयो विद्यन्ते यत्र तत्तथा, द्वितीयायां निर्विकृतं तृतीयायामलेपकारि चतुर्थ्यामायामाम्लमिति, प्रथमपरिपाटीप्रमाणं चतुर्गुण सर्वप्रमाणं भवतीति । महासिंहनिष्क्रीडितमप्येवमेव भवति, नवरं चतुर्थादि चतुस्त्रिंशत्पर्यन्तं प्रत्यावृत्तौ चतुस्विंशादिकं चतुर्थपर्यन्तं मध्ये द्वात्रिंशोपेतं सर्व स्वयमूहनीयं, स्थापनों चास्य 'खंदओ'त्ति-भगवत्यां द्वितीयशते इहैव वा यथा पशारापानापानाचा | |२४|३/५/ ५||६| | TR||३RIY५ ६/५/ बारा१०९१११०/१२/११/१३/१२/१४|१३|१५/१४१६ ||२|1|३|२|४|२|५|४|६|५| | 10|1015/2010/१२/11/१३/१२/१४/१३/१५१४१ AFFECIAGRICISM ॥१३ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N AGAROSAMACHAR मेषकुमारो वर्णितस्तथा तेऽपि, नवरं 'थेर'त्ति स्कन्दको महावीरमापृष्टवानेते तु स्थविरानित्यर्थः, प्रतिदिनं द्विभॊजनस्य प्रसिद्धत्वात् मासद्वयोपवासे विंशत्युत्तरभक्तशतविच्छेदः कृतो भवतीति, जयन्तविमानं अनुत्तरविमानपञ्चके पश्चिमदिग्वति । तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं बत्तीसं सागरोवमाई ठिती, तत्थ णं महब्बलवजाणं छण्हं देवाणं देसूणाई बत्तीसं सागरोवमाई ठिती, महब्बलस्स देवस्स पडिपुन्नाई बत्तीसं सागरोवमाइं ठिती । तते णं ते महब्बलवजा छप्पिय देवा ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, ठिइक्खएणं, भवक्खएणं, अणंतरं चयं चइत्ता इहेव जंबुद्दीवे २, भारहे वासे विसुद्धपितिमातिवंसेसुरायकुलेसु पत्तेयं २, कुमारत्ताए पञ्चायायासी; तंजहा-पडिबुद्धी इक्खागराया, चंदच्छाए अंगराया, संखे कासिराया, रुप्पी कुणालाहिवती, अदीणसत्तू कुरुराया, जितसत्तू पंचालाहिवई;ततेणं से महब्बले देवे तीहिंणाणेहिं समग्गे उच्चहाणट्ठिएसु गहेसु,सोमासु दिसासु, वितिमिरासु, विसुद्धासु, जइतेसु, सउणेसु, पयाहिणाणुकूलंसि, भूमिसपिसि, मारुतंसि, पवायंसि, निष्फन्नसस्समंइणीयसि कालंसिपमुइयपक्कीलिएसु,जणवएसु,अद्धरत्तकालसमयंसि; अस्सिणीणक्खत्तेणं जोगमुवागएणं जे से हेमंताणं चउत्थे मासे, अट्ठमे पक्खे, फग्गुणसुद्धे तस्स णं फग्गुणसुद्धस्स चउत्थिपक्खेणं, जयंताओ विमाणाओ, बत्तीसं सागरोवमद्वितीयाओ अणंतरं चयं चइत्ता, इहेव जंबुद्दीवे २, भारहे वासे मिहिलाए रायहाणीए कुंभगस्स रन्नो पभावतीए देवीए कुञ्छिसि आहारवकंतीए, सरीरवकंतीए, भववकंतीए, गब्भत्ताए वक्रते; तं रयणिं च णं चोद्दस महासुमिणा वन्नओ, भत्तारकहणं, SAFECEजाना |SARKARCH Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्वाङ्गी ८-श्री १०० बीज्ञातापर्वकथाङ्गे मल्लीज्ञाताध्य. श्रीमल्ली जन्म KARNAKASHANKARANG वर्णनम् । सुमिणपाढगपुच्छा जाव विहरति । तते णं तीसे पभावतीए देवीए तिण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं इमेयारूवे डोहले पाउन्भूते-धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं जलथलयभासुरप्पभूएणं दसद्धवन्नणं मल्लेणं अत्थुयपच्चत्थुयंसि सयणिज्जंसि सन्निसन्नाओ सण्णिवन्नाओ य विहरंति एगं च महं सिरीदामगंड | पाडलमल्लियचंपयअसोगपुन्नागनागमरुयगदमणगअणोजकोजयपउरं परमसुहफासदरिसणिज्जं महया गंधद्धणि मुयंत अग्घायमाणीओ डोहलं विणेति, तते णं तीसे पभावतीए देवीए इमेयारूवं डोहलं पाउब्भूतं पासित्ता, अहासन्निहिया वाणमंतरा देवा खिप्पामेव जलथलय० जाव दसद्धवन्नमल्लं कुंभग्गसोय भारग्गसो य कुंभगस्स रनो भवणंसि वा. साहरंति, एगं च णं महं सिरिदामगंडं जाव मुयंतं उवणेति. तए णं सा पभावती देवी जलथलय जाव मल्लेणं डोहलं विणेति, तए णं सा पभावतीदेवी पसत्थडोहला जाव विहरइ, तए णं सा पभावतीदेवी नवण्हं मासाणं अट्ठमाण य रतिदियाणं जे से हेमंताणं पढमे मासे दोचे पक्खे मग्गसिरसुद्धे तस्स णं. एक्कारसीए पुव्वरत्तावरत्त० अस्सिणीनक्खत्तेणं उच्चट्ठाण जाव पमुइयपक्कीलिएसु जणवएसु आरोयाऽऽरोयं एकूणवीसतिमं तित्थयरं पयाया ॥ सूत्रम्-७१ ॥ 'इक्खागराय'त्ति-इक्ष्वाकूणां-इक्ष्वाकुवंशजानां, अथवा इक्ष्वाकुजनपदस्य राजा; स च कोशलजनपदोऽप्यभिधीयते यत्र अयोध्या नगरीति, 'अंगराय'त्ति-अङ्गा-जनपदो यत्र काम्पिल्य (चम्पा) नगरी, एवं काशीजनपदो यत्र वाराणसी नगरी, कुलाणा यत्र श्रावस्ती नगरी, कुरुजनपदो यत्र हस्तिनागपुरं नगरं, पाश्चाला यत्र काम्पिल्यं नगरं, 'उच्चट्ठाणट्ठि जाACAFE ॥ १३१ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एस' नि - उच्चस्थानानि ग्रहाणामादित्यादीनां मेषादीनां दशादिषु त्रिंशांशकेष्वेवमवसेयानि - 'अजवृषमृगाङ्गना कर्क मी नवणिजोश केष्विनाद्युच्चाः । दश १० शिख्य ३ ष्टाविंशति २८ तिथि १६ इन्द्रिय ५ त्रिधन २७ विंशेषु २० ॥ १ ॥” इति, 'सोमासु' इत्यादि, 'सौम्यासु' - दिग्दाहाद्युत्पातवर्जितासु, 'वितिमिरासु' - तीर्थकर गर्भाधानानुभावेन गतान्धकारासु, 'विशुद्धासु' - अरजस्वलत्वादिना, 'जयिकेषु' - राजादीनां विजयकारिषु शकुनेषु यथा 'काकानां श्रावणे द्वित्रिचतुः शब्दाः शुभावा' इति, प्रदक्षिणः प्रदक्षिणावर्च[मान] त्वात् अनुकूलश्च यः सुरभिशीतमन्दत्वात् स तथा तत्र 'मारुते' -वायौ 'प्रवाते' - वातुमारब्धे निष्पन्नशस्या मेदिनी-भूर्यत्र काले, अत एव प्रमुदितप्रक्रीडितेषु - हृष्टेषु क्रीडावत्सु च जनपदेषु-विदेहजनपदवास्तव्येषु जनेषु, 'हेमंताणं 'ति - शीतकालमासानां मध्ये चतुर्थो मासः, अष्टमः पक्षः कोऽमावित्याह- फाल्गुनस्य शुद्धः - शुक्लः - द्वितीय इत्यर्थः, तस्य फाल्गुनशुद्धस्य पक्षस्य या चतुर्थी तिथिस्तस्याः पक्षः - पार्श्वोऽर्द्धरात्रिरिति भावः तत्र 'ण' मित्यलङ्कारे, वाचनान्तरे, -तु गिम्हाणं पढमे इत्यादि दृश्यते, तत्रापि चैत्रसितचतुर्थ्यां मार्गशीर्षसितैकादश्यां तज्जननदिने नव सातिरेका मासाः अभिवर्द्धितमासकल्पनया भवन्तीति तदपि सम्भवति, अतोऽत्र तच्छं विशिष्टज्ञानिगम्यमिति, 'अणंतर चयं चत्त' त्ति-अव्यवहितं व्यवनं कृत्वेत्यर्थः, अथवा - अनन्तरं चयं शरीरं देवसम्बन्धीत्यर्थः, ' चइत्ता' - त्यक्त्वा 'आहारे' त्यादि, आहारापक्रान्त्या - देवाहारपरित्यागेन, भवापक्रान्त्या - देवगतित्यागेन, शरीरापक्रान्त्या - वैक्रियशरीरत्यागेन अथवा - आहारव्युत्क्रान्त्या - अपूर्वाहारोत्पादेन मनुष्योचिताहारग्रहणेणेत्यर्थः एवमन्यदपि पदद्वयमिति, गर्भतया व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नः; ‘मल्लेणं' ति-मालाभ्यो हितं माल्यं कुसुमं जातावेकवचनं, 'अत्थुयपचत्थुयंसि' त्ति - आस्तृते छঃ65 Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी मल्ली भीज्ञाताधर्मकथा) ज्ञाताध्य. जन्ममहो|त्सवादिवर्णनम्। ॥१३२ ॥ - ॐॐॐॐASSES आच्छादिते प्रत्यवस्तृते पुनः पुनराच्छादिते इत्यर्थः; शयनीये निषण्णा निवन्नाः-सुप्ताः, 'सिरिदामगंड'ति-श्रीदाम्नांशोभावन्मालानां काण्डं-समूहः श्रीदामकाण्डं, अथवा गण्डो-दण्डः तद्वद्यत्तद् गण्ड एवोच्यते, श्रीदाम्नां गण्डः श्रीदामगण्डः, पाटलाद्याः पुष्पजातयः प्रसिद्धार, नवरं मल्लिका-विचकिला मरुबकः-पत्रजातिविशेषः, 'अणोज'त्ति अनवद्यो-निर्दोषः कुब्जकः-शतपत्रिकाविशेषः एतानि प्रचुराणि यत्र तत्तथा, परमशुभदर्शनीयं परमसुखदर्शनीयं वा 'महया गधंद्धणि मुयंत'तिमहता प्रकारेण गंधभ्राणि-सुरभिगन्धगुणं तृप्तिहेतुं पुद्गलसमूहं मुश्चत् आजिघ्रन्त्यः-उत्सिङ्घन्त्यः, 'कुंभग्गसो यत्ति-कुम्भपरिमाणतः 'भारग्गसो यत्ति-भारपरिमाणतः, 'आरोग्गारोग्ग'ति-अनावाधा माता अनाबाधं तीर्थकरम् । तेणं कालेणं २, अहोलोगवत्थव्वाओ अट्ठ दिसाकुमारीओ मयहरीयाओ जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सव्वं, नवरं मिहिलाए कुंभयस्स पभावतीए अभिलाओ संजोएव्वो जाव नंदीसरवरे दीवे महिमा, तया णं कुंभए राया बहूहिं भवणवति ४, तित्थयर० जाव कम्मं जाव नामकरणं, जम्हा णं अम्हे इमीए दारियाए माउए मल्लसयणिज्जसि डोहले विणीते तं होउ णं णामेणं मल्ली, जहा महाबले नाम जाव परिवड्डिया-सा वद्धती भगवती दियलोयचुता अणोवमसिरीया। दासीदासपरिवुडा परिकिन्ना पीढमद्देहिं ॥१॥ असियसिरया सुनयणा बिंबोडी धवलदंतपंतीया । वरकमलकोमलंगी फुल्लप्पलगंधनीसासा ॥२॥" ॥ सूत्रम्-७२॥ तए णं सा मल्ली विदेहवररायकन्ना उम्मुक्कबालभावा जाव रुवेण जोव्वणेण य लावन्नेण य अतीवर FECASICADA 6॥ १३२ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sang sagसरीरा जाया यावि होस्था, तते णं सा मल्ली देसूणवाससयजाया ते छप्पि रायाणो विपुओहिणा आभोमाणी२, विहरति, तं०-पडिबुद्धिं जाव जियसत्तुं पंचालाहिवई, तते णं सा मल्ली कोबि० तुभेणं देवा० असोगवणियाए एवं महं मोहणघरं करेह, अणेगखं भसयसन्निविद्वं, तस्स मोहण रस्स बहुमज्झदेसभाए छ गन्भघरए करेह, तेसि णं गन्भघरगाणं बहुमज्झदेसभाए जालघरयं करेह, तस्स णं जालघरयस्स बहुमज्झदेस भाए मणिपेढियं करेह २ जाव पञ्चप्पिति, तते णं मल्ली मणिपेढियाए उafi अपणो सरिसियं सरित्तयं सरिव्वयं सरिसलावन्नजोब्वणगुणोववेयं कणगमहं मत्थयच्छि पउमुप्पलप्पिहाणं पडिमं करोति जं विपुलं असणं ४, आहारेति; ततो मणुन्नाओ असण४, कल्लाकलि एगमेगं पिंडं गहाय तीसे कणगामतीए मत्थयछिड्डाए जाव पडिमाए मत्थयंसि पक्खिवमाणी२, विहरति तणं ती कणगमतीए जाव मच्छयछिड्डाए पडिमाए एगमेगंसि पिंडे पक्खिप्पमाणे२, ततो गंधे पाउब्भवति; से जहा नामए अहिमडेत्ति वा जाव एत्तो अणिइतराए अमणामतरए || सूत्रम् - ७३ ॥ 'अहोलोयवत्थव्वाओ' त्ति - गजदन्त कानामधः अधोलोकवास्तव्या अष्टौ दिकुमारी महत्तरिकाः इह चावसरे यदभिधेयं तन्महतो ग्रन्थस्य विषय इतिकृत्वा सङ्क्षेपार्थमतिदेशमाह- 'जहा जंबुद्दीवपन्नत्तीए जम्मणं सव्वं ति - यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञायां सामान्यतो जिनजन्मोक्तं तथा मल्लीतीर्थकृतो जन्मेति - जन्मवक्तव्यता सर्वा वाच्येति, नवरमिह मिथिलायाँ नगर्यां कुम्भस्य राज्ञः प्रभावत्या देव्याः इत्ययमभिलापः संयोजितथ्यो, जम्बूद्वीपप्रज्ञायां तु नायं विद्यते इति, २३ नএ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ १३३ ॥ किं पर्यवसानं जन्म वक्तव्यमित्याह - यावन्नन्दीश्वरे 'महिम 'त्ति - अतिदिष्टग्रन्थथार्थत एवं द्रष्टव्यो; यथा अष्टौ दिक्कुमारीमहत्तरिका:, भोगङ्कशप्रभृतयस्तत्समय मुपजात सिंहासनप्रकम्पाः प्रयुक्तावधिज्ञानाः समवसितै कोनविंशतितमतीर्थ नाथ जननाः, ससम्भ्रममनुष्ठितसमवायाः समस्तजिननाय कजन्मसु महामहिमविधानमस्माकं जीतमिति विहितनिश्चयाः, स्वकीय स्वकीयाभियोगिक देवविहितदिव्यविमानारूढाः सामानिकादिपरिकरवृताः सर्वर्ध्या मल्लिजिन जन्मनगरीमागम्य जिनजन्म भवनं यानविमानैस्त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि यानविमानानि चतुर्भिरङ्गुलैर्भुवमप्राप्तानि व्यवस्थाप्य जिनसमीपं जिनजननीसमीपं च गत्वा त्रिः प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्राञ्जलिपुटाः; इदमवादिषुः- नमोऽस्तु ते रत्नकुक्षिधारिके !, नमोऽस्तु ते जगत्प्रदीपदायिके !, वयमधोलोकवास्तव्या दिकुमार्यो जिनस्य जन्ममहिमानं विधास्यामः, अतो युष्माभिर्न भेतव्यमिति अभिधाय च विहितसंवर्त्तवाताः जिनजन्मभवनस्य समन्ताद्योजन परिमण्डलक्षेत्रस्य तृणपत्रकच वरादेरशुचिवस्तुनोऽपनयनेन विहितशुध्योजिनजनन्योरदूरतो जिनस्यासाधारण म गणित गुणगण मागायन्त्यस्तस्थुः, एवमेवोलोकवास्तव्या नन्दनवन कूटनिवासिन्य इत्यर्थः, अष्टौ दिकुमारी महत्तरिकास्तथैवागत्य विरचिताभ्रवईलिकाः आयोजनमानक्षेत्रं गन्धोदकवर्षं पुष्पवर्ष धूपघटीच कृत्वा जिनसमीपमागत्य परिगायन्त्य आसां चक्रुः, तथा पौरस्त्यरुचकवास्तव्या रुचकाभिधानस्य त्रयोदशस्य द्वीपस्य मध्यवर्त्तिनः प्राकाराकारेण मण्डलव्यवस्थितस्योपरि पूर्वदिग्व्यवस्थितेष्वष्टासु कूटेषु कृतनिवासा इत्यर्थः आगत्य तथैवादर्शहस्ता गायन्त्यस्तस्थुः, एवं दक्षिणरुचकवास्तव्या जिनस्य दक्षिणेन भृङ्गारहस्ताः पश्चिमरुचकवास्तव्या जिनस्य पश्चिमेन ताल १० मागत्य अ । ||| ex ८- श्री मल्ली ज्ञाताध्य० दिक्कुमारि - काकृतमहोत्सवम् । ॥ १३३ ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृन्तहस्ता उत्तररुचकवास्तव्याचामरहस्ता जिनस्य उत्तरेण, एवं चतस्रो रुवकस्य विदिग्वास्तव्या आगत्य दीपिका हस्ता जनस्य चतसृषु विदिक्षु तथैव तस्थुः, मध्यमरुचकत्रास्तभ्या रुवकद्वीपस्याभ्यन्तरार्द्धवासिन्य इत्यर्थः चतस्रस्तास्तथैवागत्य जिनस्य चतुरङ्गुलवर्जनाभिनालच्छेदनं च वित्ररखननं च नाभिनालनिधानं च विवरस्य रत्नपूरणं च तदुपरि हरितालिकापीठबन्धं च पश्चिमावर्जदिकत्रये कदलीगृहत्रयं च तन्मध्येषु चतुःशालभवनत्रयं च तन्मध्यदेशे सिंहासनत्रयं च दक्षिणे सिंहासने जिनजनन्योरुपवेशनं च शतपाका दितैलाभ्यङ्गनं च गन्धद्रव्योद्वर्त्तनं च पुष्पोदकं च पूर्वत्र पुष्पोदकगन्धोदकशुद्धोदकमखनं च सर्वालङ्कारविभूषणं च उत्तरत्र गोशीर्षचन्दनकाष्ठैर्वयज्वलनं चाग्निहोमं च भूतिकर्म च रक्षापोट्टलिकां च मणिमपाषाणद्वयस्य जिन कर्णाभ्यर्णे प्रताडनं च भवतु भगवान् पर्वतायुरिति भणनं च पुनः समातृकजिनस्य स्वभवननयनं च शय्याशायनं च चक्रुः कृत्वा च गायन्त्यस्तस्थुरिति । सौधर्मकल्पे च शक्रस्य सहसा आसनं प्रचकम्पे अवधि चासौ प्रयुयुजे तीर्थंकरजन्म चालुलोके ससंभ्रमं च सिंहासनादुत्तस्थौ पादुके च मुमोच उत्तरासङ्गं च चकार, सप्ताष्टानि च पदानि जिनाभिमुखमुपजगाम भक्तिभरनिर्भरो यथाविधि जिनं च ननाम, पुनः सिंहासनमुपविवेश हरिणे. गमेषीदेवं पदात्यनीकाधिपतिं शब्दयांचकारः तं चादिदेश, यथा सुधर्मायां सभायां योजनपरिमण्डलां सुघोषाभिधानां घण्टां त्रिस्ताडन्नुद्धोषणां विधेहि, यथा भो भो देवा !, गच्छति शक्रो जम्बूद्वीपं तीर्थकरजन्ममहिमानं कर्तुमतो यूयं सर्वसमृद्ध्या शीघ्रं शक्रस्यान्तिके प्रादुर्भवतेति स तु तथैव चकार, तस्यां च घण्टायां ताडितायामन्यान्येकोनद्वात्रिंशद्घण्टालक्षाणि समकमेव रणरणारत्रं चक्रुः; उपरते च घण्टारवे घोषणामुपश्रुत्य यथादिष्टं देवाः सपदि AUঃ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी C भीमाताधर्मकथाङ्गे ८-श्रीमल्लीज्ञाताध्य. देवदेवेन्द्रकृतमहोत्सवम् । |||| १३४॥ ARCISCARCIRCRECIRCLICK विदधुः, ततो पालकाभिधानाभियोगिकदेवविरचिते, लक्षयोजनप्रमाणे, पश्चिमावर्जदिनयनिवेशिततोरणद्वारे, नानामणिमयूखमञ्जरीरञ्जितगगनमण्डले; नयनमनसामतिप्रमोददायिनि महाविमानेऽधिरूढः, सामानिकादिदेवकोटीभिरनेकामिः परिवृतः, पुरःप्रवतिपूर्णकलशभृङ्गारच्छत्रपताकाचामराधनेकमङ्गल्यवस्तुस्तोमः, पञ्चवर्णकडभिकासहस्रपरिमण्डितयोजनसहस्रोच्छुितमहेन्द्रध्वजप्रदर्शितमार्गों नन्दीश्वरद्वीपे दक्षिणपूर्वे रतिकरपर्वते कृतावतारो दिव्यविमानचिमुपसंहरन् मिथिला नगरीमाजगाम, विमानारूढ एव भगवतो जिनस्य जन्मभवनं त्रिः प्रदक्षिणीकृतवान् , उत्तरपूर्वस्यां दिशि चतुर्भिरजुलैर्भुवमप्राप्तं विमानमवस्थापितवान् , ततोऽवतीर्य भगवन्तं समातृकं दिक्कुमारीवदमिवन्ध जिनमातरमवस्वाप्य जिनप्रतिबिम्ब तत्सनिधौ विधाय पञ्चधाऽऽत्मानमाधाय एकेन रूपेण करतलपल्लवावधृतजिना, अन्येन जिननायकोपरिविधृतच्छत्रा, अन्याभ्यां करचालितप्रकीर्णकः, अन्येन च करकिशलयकलितकृलिशः पुर प्रगन्ता सुरगिरिशिखरोपरिवर्चिपण्डकवनं गत्वा तव्यवस्थितातिपाण्डुकम्बलाभिधानशिलासिंहासने पूर्वाभिमुखो निषण्ण एवमन्ये ईशानादयो वैमानिकेन्द्रा. चमरादयो भवनपतीन्द्रा कालादयो व्यन्तरेन्द्राः चन्द्रसूर्यादयो ज्योतिष्काः सपरिवाराः मन्दरेऽवतेरुः, ततश्चाच्युतदेवराजो जिनाभिषेकमत्याऽऽभियोगिकदेवानादिदेश, ते चाष्टसहस्रं सौवर्णिकानां, कलशानामेवं रूप्यमयानां मणिमयानां एवं द्विकसंयोगवतां त्रीण्यष्टसहस्राणि, त्रिसंयोगवतामष्टसहस्रं भोमेयकानां च, तथाऽष्टसहस्रं चन्दनकलशानां भृङ्गाराणामादर्शानां स्थालानामन्येषां च विविधानामभिषेकोपयोगिनां भाजनानामष्टसहसं २ विचः। तेश्च कलशादिभाजनैः क्षीरोदस्य निधा. अ। |CORCHECCAE १३४॥ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A ANSAURUSALAMAUSA समुद्रस्य पुष्करोदस्य च मागधादीनां च तीर्थानां गङ्गादीनां च महानदीनां पद्मादीनां महाइदानामुदकमुत्पलादीनि मृत्तिका च हिमवदादीनां च वर्षधराणां वर्तुलविजया नां च पर्वतानां भद्रशालादीनां च वनानां पुष्पाणि गन्धान् सर्वोषधी: तूवराणि सिद्धार्थकान् गोशीर्षचन्दनं चानिन्युः, ततोऽसावच्युतदेवराजोऽनेकैः सामानिकदेवसहस्रैः सह जिनपतिमभिषिषेच, अभिषेके च वर्तमाने इन्द्रादयो देवाः छत्रचामरकलशधूपकडुच्छुकपुष्पगन्धाधने कविधाभिषेकद्रव्यव्यग्रहस्ताः, वज्रशूलाधनेकायुधसम्बन्धबन्धुरपाणयः, आनन्दजललवप्लुतगण्डस्थला, ललाटपघटितकरसम्पुटा जयजयारवमुखरितदिगन्तराः, प्रमोदमदिरामन्दमदवशविरचितविविधचेष्टाः, पर्युपासांचक्रिरे तथा केचित्-चतुर्विधं वाचं वादयामासुः केचिचतुर्विधं गेयं परिजगुः, केचिच्चातुर्विधं नृत्तं ननृतः, केचिच्चतुर्विधमभिनयममिनिन्युः, केचिद्-द्वात्रिंशद्विधं नाट्यविधिमुपदर्शयामासुरिति; ततो गन्धकापायिकया गात्राण्यलूपयन् , ततश्चाच्युतेन्द्रो मुकुटादिभिर्जिनमलश्चकार, ततो जिनपतेः पुरतो रजतमयतन्दुलैर्दपणादीन्यष्टाष्टमङ्गलकान्यालिलेख, पाटलादिबहलपरिमलकलितकुसुमनिकरं व्यकिरत् , शुभसुरमिगन्धवन्धुरं धूपं परिददाह, अष्टोत्तरेण वृत्तशतेन च सन्तुष्टस्तुष्टाव-नमोऽस्तु ते सिद्ध !, बुद्ध !, नीरजः, श्रमण!, समाहित समस्तसम !, योगिन् शल्यकर्तन !, निर्भय !, नीरागद्वेष !, निर्मम !, निःशल्य !, निःसङ्ग !, मानमरणागण्यगुणरत्न!, शीलसागर!, अनन्ताप्रमेयभव्यधर्मवरचतुरन्तचक्रवर्तिन् !, नमोऽस्तु तेर्हते, नमोऽस्तु ते भगवते इत्यभिधाय वन्दते स्म ततो नातिरे स्थितः पर्युपासांचक्रे, एवं सर्वेऽप्यभिषिषेचुः, केवलं सर्वान्ते शक्रोऽभिषिक्तवान् , तदभिषेकावसरे च ईशानः शक्रवदात्मानं पश्चधा विधाय जिनस्योसङ्गधरणादिक्रियामकरोत् , ततः शक्रो जिनस्य चतुर्दिशि चतुरो धवलवृषभान् विचकार, तेषां च शृङ्गाग्रेभ्योऽष्टौ तोयधारा IRAISION-C+ MA Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ।। १३५ ।। युगपद्विनिर्ययुः वेगेन च वियति समुत्पेतुः एकत्र च मिलन्ति स्म भगवतो मूर्द्धनि च निपेतुः शेषमच्युतेन्द्रवदसावपि चकार; ततोऽसौ पुनर्विहितपञ्चकारात्मा तथैव गृहीतजिनश्वतुर्निकाय देव परिवृतः तूर्यनिनादापूरिताम्बरतलो जिननायकं जिनजनन्याः समीपे स्थापयामास, जिनप्रतिबिम्बमवस्वापं च प्रतिसञ्जहार, क्षोमयुगलं कुण्डयुगलं च तीर्थकरस्योच्छीर्षकमूले स्थापयति स्म, श्रीदामगण्डकं च नानामणिमयं जिनस्योल्लो के दृष्टिनिपातनिमित्तमतिरमणीयं निचिक्षेप, ततः शक्रो वैश्रमणमवादीत् - भो देवानुप्रिय !, द्वात्रिंशद्धिरण्यकोटी र्द्वात्रिंशत्सुवर्णकोटीश्च जिनजन्मभवने यथा संहरेति, तदादेशाच्च जृम्भका देवास्तथैव चक्रुः शक्रः पुनर्देवैर्जिन जन्मनगर्यां त्रिकादिष्वेवं घोषणं कारयामास यथा इन्त !, भुवनवास्यादिदेवाः !, शृण्वन्तु भवन्तो यथा यो जिने जिनजनन्यां वाऽशुभं मनः सम्प्रधारयति, तस्यार्जक मञ्जरीव सप्तधा मूर्द्धा स्फुटतु; ततो देवा नन्दीश्वरे महिमानं विदधुः स्वस्थानानि च जग्मुरिति । मालायै हितं तत्र वा साध्विति माल्यं - कुसुमं तद्गत दोहदपूर्वकं - जन्मत्वेनान्वर्थतः शब्दतस्तु निपातनात् मल्लीति नाम कृतं यस्तु स्त्रीत्वेऽपि तस्यार्हजिनस्तीर्थकर इत्यादिशब्दैर्व्यपदेशः, सोऽर्हदादिशब्दानां बाहुल्येन पुंस्स्वेव प्रवृत्तिदर्शनादिति 'यथा महाबल 'इति भगवत्यां महाबलोऽभिहित इहैव वा यथा मेघकुमार इति, 'सा बढए भगवती 'त्यादि गाथाद्वयं, आवश्यक नियुक्तिसम्बन्धि ऋषभ महावीरवर्णकरूपं बहुविशेषणसाधर्म्यादिहाधीतं न पुनर्गाथाद्वयोक्तानि विशेषणानि सर्वाणि मल्लिजिनस्य घटन्त एव तच्च दर्शयिष्यामः, ततः सा वर्द्धते - वृद्धिमुपगच्छति स्म भगवती ऐश्वर्यादिगुणयोगात् देवलोकाच्युता अनुत्तरविमानावतीर्णत्वात् अनुपमश्रीका - निरुपमानशोभा दासीदास परिवृतेति प्रतीतं, परिकीर्णा - परिकरिता पीठमर्दै: - वयस्यैरिति एतत्किल प्रायः स्त्रीणामसम्भवि, ८ - श्री मल्ली ज्ञाताध्य० क्षोम युगलादिसमपर्णम् । ।। १३५ ।। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वा-अलौकिकचरितत्वेन पीठमसाल्हाभिधानफलविशेषाकाराष्ट्र वर्णवर्णत्वात AC+ ACCARRA I||| 164464% वयस्यिकानामेव तासां सम्भवात् , अथवा-अलौकिकचरितत्वेन पीठमईसम्भवेऽपि निर्दषणत्वेन भगवत्या नेदं विशेषणं न सम्भवति, असितशिरोजा-कालकुन्तला सुनयना-सुलोचना बिम्बोष्ठी-पक्कगोल्हाभिधानफलविशेषाकारोष्ठी धवलदन्तपतिका पाठान्तरेण-धवलदन्तश्रेणिका वरकमलगर्भगौरीत्येतद्विशेषणं न सम्भवति, तस्याः कमलगर्भस्य सुवर्णवर्णत्वात् भगवत्याश्च मल्ल्याः प्रियङ्गुवर्णत्वेन श्यामत्वाद् , उक्तं च-"पउमाभ वासुपुजा रत्ता, ससिपुष्कदंत ससिगोरा । सुब्बयनेमी काला, पासो मल्ली पियंगाभा । १॥” इति, अथवा-वरकमलस्य-प्रधानहरिणस्य गर्भ इव गौ जठरसम्भूतत्वसाधात वरकमलगर्भ:-कस्तूरिका तद्वद् गौरी-अवदाता वरकमलगभगौरी श्यामवर्णत्वात् , कस्तूरिकाया इव श्यामेत्यर्थः, पाठान्तरेण वरकमलगर्भवर्णा, तत्रापि श्यामवर्णेत्यर्थः वाचनान्तरेण-वरकमलकोमलाङ्गीत्यनवद्यमेव । फुल्लं-विकसितं, यदुत्पलं-नीलोस्पलादि तस्य यो गन्धस्तद्वनिःश्वासो गन्धसाधायस्याः सा तथा सुरभिनिःश्वासेत्यर्थः, पाठान्तरेण-'पउमुप्पलुप्पलगंधनीसास 'त्ति-तत्र पद्म-शतपत्रादि गन्धद्रव्यविशेषो वा, उत्पलं-नीलोत्पलमित्यादि, उत्पलकुष्ठं च-गन्धद्रव्यविशेष इति; 'विदेहरायवरकन्न'ति-विदेहा-मिथिलानगरीजनपदस्तस्या राजा कुम्भकस्तस्य वरकन्या या सा तथा 'उक्किट्ठा उकिट्ठसरीर 'त्ति-रूपादिभिरुत्कृष्टा, किमुक्तं भवति ?,-उत्कृष्टशरीरेति, 'देसूणवाससयजाय'त्ति-देशोनं वर्षशतं जाताया यस्याः सा तथा, 'मोहणघरयं 'ति-सम्मोहोत्पादकं गृहं रतिगृहं वा, 'गम्भघरए 'ति-मोहनगृहस्य गर्भभूतानि वासभवनानीति केचित् , 'जालघरगं'ति-दादिमयजालकप्रायकुड्यं यत्र मध्यव्यवस्थितं वस्तु बहिःस्थितैदृश्यते, 'से जहा नामए अहिमडे इव'ति-स गन्धो यथेति दृष्टान्तोपन्यासे यादृश इत्यर्थः, नामए इत्यलङ्कारे अहिमृते-मृत |||%ASHREEDS Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CCE Cast ८-श्री मल्ली नवाङ्गीवृ० वृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाले ५१३६ ॥ जाताध्य. मोहनगृहादि वर्णनम् । सप्पै सर्पकलेवरस्य गन्ध इत्यर्थः, अथवा-अहिमृतं-सर्पकलेवरं तस्य यो गन्धः, सोऽप्युपचारात् तदेव; इतिरुपदर्शने वा विकल्पे, अथवा-' से जह'त्ति-उदाहरणोपन्यासोपक्षेपार्थः; 'अहिमडे इव 'ति-अहिमृतकस्येव अहिमृतकमिव वेति, यावत्करणादिदं दृश्यं-'गोमडेइ वा, सुणगमडेइ वा, दीवगमडेइ वा, मजारमडेइ वा, मणुस्समडेइ वा, महिसमडेह वा, मूसगमडेइ वा, आसमडेइ वा, हस्थिमडेइ वा, सीहमडेइ वा, वग्घमडेति वा, विगमडेइ वा, दीवियमडेइ वा,' द्वीपिक:-चित्रकः, किंभूते अहिकडेवरादौ किंभृतं वा तदित्याह-' मयकुहियविणद्वदुरभिवावण्णदुम्मिगंधे' मृतंजीवविमुक्तमानं सत् यत् कुथितं-कोथमुपगतं तत् मृतकुथितमीषदुर्गन्धमित्यर्थः। तथा विनष्टं-उच्छ्नत्वादिभिर्विकारैः स्वरूपादपेतं सत् यदुरभि-तीव्रतरदुष्टगन्धोपेतं तत्तथा व्यापन-शकुनिभृगालादिभिर्मक्षणाद्विरूपां विभत्सामवस्था प्राप्तं सद्यद् दुरभिगन्धं-तीव्रतमाशुभगन्धं तत्तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः। तत्र तदेव वा 'किमिजालाउलसंसत्ते'-कृमिजालेराकुलैः-व्याकुलैः आकुलं वा-सङ्कीर्ण यथा भवतीत्येवं संसक्तं-सम्बद्धं यत्र तत्तथा, तत्र तदेव वा 'असुइविलीणविगयधिभच्छदरिसणिज्जे'-अशुचि-अपवित्रमस्पृश्यत्वात् , विलीन-जुगुप्सासमुत्पादकत्वात् , विकृत-विकारवचात , बीभत्संद्रष्टुमयोग्यत्वात् , एवंभूतं दृश्यते इति दर्शनीयं, ततः कर्मधारयः, तत्र तदेव वा भवेतारूवे सिया'-यादृशः सर्पा| दिकलेवरे गन्धो भवेत् , यादृशं वा सर्पादिकलेवरं गन्धेन भवेत् , एतद्रूपस्तद्रूपो वा स्याद्-भवेत्तस्य भक्तकवलस्य गन्ध इति सूत्रकारस्य विकल्पोल्लेखः', 'नो इणढे समडे'-नायमर्थः समर्थः-सङ्गत इत्ययं तु तस्यैव निर्णयः, निर्णीतमेव गन्धस्वरूपमाह-'एत्तो अणिहतराए चेव'-इत:-अहिकडेवरादिगन्धात सकाशादनिष्टतर एव-अभिलाषस्याविषय एव IFICCARECIPICHAR ॥ १३६॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MehtactOCH ACADAICHOCOCCASPE% | अकान्तरक:-अकमनीयतरस्वरूपः, अप्रियतर:-अप्रीत्युत्पादकत्वेन, अमनोज्ञतरका-कथयाऽप्यनिष्टत्वात् , अमनोज्ञतरश्चिन्तयाऽपि मनसोऽनभिगम्य इत्यर्थः। तेणं कालेणं २, कोसला नाम जणवए, तत्थ णं सागेए नाम नयरे, तस्स णं उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए, एत्थ णं महं एगे णागघरए होत्था, दिव्वे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे; तत्थ णं नगरे पडिबुद्धिनाम इक्खागुराया परिवसति, पउमावती देवी, सुबुद्धी अमच्चे, सामदंड०, तते णं पउमावतीए अन्नया कयाई नागजन्नए यावि होत्था, तते ण सा पउमावती नागजन्नमुवट्टियं जाणित्ता जेणेव पडिबुद्धि करयल एवं वदासी-एवं खलु सामी!, मम कल्लं नागजन्नए यावि भविस्सति, तं इच्छामि णं सामी !, तुब्भेहिं अन्भ. गुन्नाया समाणी नागजन्नयं गमित्तए: तुम्भेऽवि णं सामी!, मम नागजन्नयंसि समोसरहा तते णं पडिबुद्धी पउमावतीए देवीए एयमढे पडिसुणेति, तते णं पउमावती पडिबुद्धिणा रन्ना अब्भणुन्नाया हट्ट, कोडुंबिय०, सद्दावेति २, एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया !, मम कल्लं नागजण्णए भविस्सति, तं तुम्भे मालागारे सद्दावेह २, एवं वदह-एवं खलु पउमावईए देवीए कलं नागजन्नए भविस्सइ, तं तुम्मे णं देवाणुप्पिया!, जलथलय०, दसद्धवन्नं मल्लं णागघरयंसि साहरह, एगं च णं महं सिरिदामगंड उवणेह, तते णं जलथलय० दसद्धवन्नेणं मल्लेणं, णाणाविहभत्तिसुविरइयं हंसमियमउरकोंचसारसचक्कवायमयणसालकोइलकुलोववेयं, ईहामियजावभत्तिचित्तं, महग्छ, महरिह, विपुलं पुप्फमंडवं विरएह तस्स णं बहुमज्झ ACKS Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी १० वृ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ८-श्रीमल्लीज्ञाताध्य कोशल देशादि वर्णन देसभाए एगं महं सिरिदामगंडं जाव गंधद्धणि मुयंत उल्लोयसि ओलंबेह २, पउमावतिं देवि पडिवालेमाणा २, चिट्ठह; तते णं ते कोडुंबिया जाव चिटुंति, तते णं सा पउमावती देवी कलं, कोडुबिए एवं वदासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!, सागेयं नगरं सम्भितरबाहिरियं आसितसम्मजितोवलितं जाव पञ्चप्पिणंति, तते णं सा पउमावती दोचंपि कोडुंबिय०, खिप्पामेव लहुकरणजुत्तं जाय जुत्तामेव उवढावेह तते णं तेऽवि तहेव उवट्ठाति, तते णं सा पउमावती अंतो अंतेउरंसि पहाया जाव धम्मियं जाणं दूरूढा, तए णं सा पउमावई नियगपरिवालसंपरिवुडा सागेयं नगरं मझमज्झेणं णिजति२, जेणेव पुक्खरणी तेणेव उवागच्छति२, पुक्खरणिं ओगाहह२, जलमजणं जाव परमसूइ भूया उल्लपडसाडया जाति तत्थ उप्पलाति जाव गेण्हति२, जेणेव नागघरए तेणेव पहारेत्थ गमणाए; तते णं पउमावतीए दासचेडीओ, बहूओ पुप्फपडलगहत्थगयाओ, धूवकडुच्छुगहत्थगयाओ, पिट्ठतो समणुगच्छतिः तते णं पउमावती सव्विढ़िए जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छति२, नागघरयं अणुपविसतिर, | लोमहत्थगं जाच धूवं डहति२, पडिबुद्धिं पडिवालेमाणी२, चिट्ठति तते णं पडिबुद्धी पहाए हथिखंधवरः | | गते सकोरंट जाव सेयवरचामराहिं हयगयरहजोहमहयाभडगचडकरपहकरेहिं साकेयनगरं० णिग्गच्छति २, जेणेव नागघरे तेणेव उवागच्छति२, हत्थिखंधाओ पचोरुहति२, आलोए पणामं करेइ२, पुप्फमंडवं | अणुपविसति २, पासति तं एगं महं सिरिदामगंडं; तए णं पडिबुद्धी तं सिरिदामगंडं सुइरं कालं सूत्रम् । CALCCALCASSACROCENCE ॥ १३७ ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SABीयाज|| SASARASWARASHARE निरिक्खइ२, तंसि सिरिदामगंडसि जायविम्हए सुबुद्धिं अमचं एवं वयासी-तुमन्नं देवाणुप्पिया !, मम PI दोघेणं बहूणि गामागर जाव सन्निवेसाई आहिंडसि बहणि रायईसर जाव गिहातिं अणुपविससितं अत्थि णं तुमे कहिंचि एरिसए सिरिदामगंडे दिट्ठपुब्वे जारिसए णं इमे पउमावतीए देवीए सिरिदामगंडे ?, तते णं सुबुद्धी पडिबुद्धिं रायं एवं वदासी-एवं खलु सामी! अहं अन्नया कयाइं तुभं दोचेणं मिहिलं रायहाणिं गते, तत्थ णं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए पउमावईए देवीए अत्तयाए मल्लीए संवच्छरपडिलेहणगंसि दिव्वे सिरिदामगंडे दिट्ठपुब्वे तस्स णं सिरिदामगंडस्स इमे पउमावतीए सिरिदामगंडे सयसहस्सतिमं कलं ण अग्घति, तते णं पडिबुद्धी सुबुद्धिं अमचं एवं वदासी-कैरिसिया णं देवाणुपिया! मल्ली विदेहरायवरकन्ना जस्स णं संवच्छरपडिलेहणयंसि सिरिदामगंडस्स पउमावतीए देवीए सिरिदामगंडे सय. सहस्सतिमंपि कलं न अग्घति ?, तते णं सुबुद्धी पडिबुद्धिं इक्खागुरायं एवं वदासी-विदेहरायवरकन्नगा सुपइट्ठियकुमुन्नयचारुचरणा बन्नओ, तते णं पडिबुद्धी सुवुद्धिस्स अमच्चस्स अतिए सोचा णिस्सम सिरिदामगंडजणितहासे दूयं सहावेइ२, एवं व०-गच्छाहि ण तुम देवाणुप्पिया! मिहिलं रायहाणिं, तत्थ णं कुंभगस्स रन्नो धूयं, पभावतीए देवीए अत्तियं मल्लिं, विदेहवररायकण्णगं, मम भारियत्ताए वरेहि, जतिविय णं सा सयं रजसुंका; तते णं से दूए पडिबुद्धिणा रन्ना एवं वुत्ते समाणे हह, पडिसुणेति२, जेणेव सए गिहे जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छति२, चाउग्घंटं आसरहं पडिकप्पा ||- 4 Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ १३८॥ पदार्थ 15513159) वेतिर, दुरूढे जाव हयगयमहयाभडचडगरेणं साएयाओं णिग्गच्छतिर, जेणेव विदेहजणवए जेणेव है मिहिला रायहाणी, तेणेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सूत्रम्-७४ ॥ मल्ली'नागघरए'त्ति-उरगप्रतिमायुक्तं चैत्यं, 'दिव्वेत्ति-प्रधान, 'सच्चे'त्ति-तदादेशानामवितथचात, 'सच्चोवाए'त्ति- ज्ञाताध्यक सत्यावपातं सफलसेवमित्यर्थः, 'संलिहियपाडिहेरे'त्ति-सन्निहित-विनिवेशितं, प्रातिहार्य-प्रतीहारकर्म तथाविधव्यन्तर- नागदेवेन यत्र तत्तथा देवाधिष्ठितमित्यर्थः, 'नागजण्णए'त्ति-नागपूजा, नागोत्सव इत्यर्थः, 'सिरिदामगंड'मित्यादौ याव- गृहादि करणात् , 'पाडलमल्लि' इत्यादिवर्णको दृश्यः, 'दोचेणं'ति दौत्येन दतकर्मणा, 'अत्थियाईति-इह आइंशब्दो भाषायां, 'संवच्छरपडिलेहणगंसित्ति-जन्मदिनादारभ्य संवत्सरः प्रत्युपेक्ष्यते-एतावतिथः संवत्सरोऽद्य पूर्ण इत्येवं निरूप्यते वर्णनम् । महोत्सवपूर्वकं यत्र दिने तत्संवत्सरप्रत्युपेक्षणकं, यत्र वर्ष वर्ष प्रति सङ्ख्याज्ञानार्थ ग्रन्थिबन्धः क्रियते, यदिदानीं वर्षग्रन्थि. रिति रूढं तस्येत्यादेश्यमर्थ:-मल्लीश्रीदामकाण्डस्य पद्यावतीश्रीदामकाण्डं शतसहस्रतमामपि कला-शोभाया अंशं नाति-न प्रामोति, कर्मोन्नतचारुचरणा इत्यादिस्त्रीवर्णको जम्बूद्वीपप्रज्ञयादिप्रसिद्धो मल्लीविषये अध्येतव्यः, 'सिरिदामगंडजणि- | यहासे'त्ति-श्रीदामकाण्डेन जनितो हर्षः-प्रमोदोऽनुरागो यस्यः स तथा, 'अत्तियन्ति-आत्मजां, 'सयं रज्जसुंक'त्तिस्वयं-आत्मना स्वरूपेण निरुपमचरिततयेतियावत राज्यं शुल्क-मूल्यं यस्याः सा तथा, राज्यप्रास्येत्य; तथापि विति सम्बन्धः, 'चाउग्घंटे'त्ति-चतस्रो घण्टाः पृष्ठतोऽग्रतः पार्श्वतश्च यस्य स तथा अश्वयुक्तो रथोऽश्वरथः, 'पडिकापावेईत्तिसञ्जयति, 'पहारेत्थ गमणाए'त्ति-प्रधारितवान्-विकल्पितवान् गमनाय-गमनार्थम् । है॥ १३८॥ CRAI जानाACHERS Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क-%AICC4%AC%-5 - तेणं कालेणं २, अंगानाम जणवए होत्था, तत्थ णं चंपानामे णयरी होत्था, तत्थ णं चंपाए नयरीए चंदच्छाए अंगराया होत्था, तत्थ णं चंपाए नयरीए अरहन्नगपामोक्खा बहवे संजत्ता णावावाणियगा परिवसंति, अड्डा जाव अपरिभूया तते णं से अरहन्नगे समणोवासए यावि होत्था, अहिगयजीवाजीवे वन्नओ; तते णं तेसिं अरहन्नगपामोक्वाणं संजुत्ताणावावाणियगाणं अन्नया कयाह एययओ सहिआणं इमे एयारूवे मिहो कहासंलावे सुमुप्पज्जित्था-सेयं खलु अम्हं गणिमं, धरिमं च, मेजं च, पारिच्छेलं च, भंडगं गहाय लवणसमुद्दपोतवहणेण ओगाहित्तए त्तिकटु अन्नमन्नं एयमढे पडिसुणेतिर, गणिमं च ४, गेण्हंति२, सगडिसागडियं च सज्जेतिर, गणिमस्स४, भंडगस्स सगडसागडियं भरेंति२, सोहणंसि तिहि करणनक्खत्तमुहत्तंसि विपुलं असण४, उवक्खडावेंति, मित्तणाइभोअणवेलाए मुंजावेंति जाव आपुच्छंतिर, सगडिसागडियं जोयंति२, चपाए नयरीए मज्झमज्झेणं जेणेव गंभीरए पोयपणे तेणेव उवा०२, सगडिसागडियं मोयंति२, पोयवहणं सजेतिर; गणिमस्स य जाव चउब्विहस्स भंडगस्स भरेंति तंदुलाण य, समितस्स य, तेल्लयस्स य, गुलस्स य, घयस्स य, गोरसस्स य, उदयस्स य, उदयभायणाण य, ओसहाण य, भेसज्जाण य, तणस्स य, कट्ठस्स य, आवरणाण य, पहरणाण य, अन्नसिं च बहणं पोयवहणपाउग्गाणं दवाणं पोतवहणं भरेंति,सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तंसि विपुलं असण४,उवक्खडावेंति२,मित्तणातिं आपुच्छंति२; जेणेव पोतट्ठाणे तेणेव उवागच्छति । तते णं तेसिं अरहन्नग जाव वाणियगाणं परियणो CACANCHAYAR Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नपाङ्गी • वृ० श्रीज्ञातापर्वकथाङ्गे ८-भीमल्ली 45 न ज्ञाताध्य. | अंगदेशादिसत्रवर्णनम् । ।१३९॥ | जाव तारिसेहिं वग्गूहिं अभिणंदंता य, अभिसंधुणमाणा य; एवं वदासी-अन्ज ताय भाय माउल भाइ णज्जे भगवता समुद्देणं अनभिखिज्जमाणा२, चिरं जीवह भई च मे पुणरवि लट्टे कयकज्जे अणहसमग्गे नियगं घरं हव्वमागए पासामो त्तिकटु, ताहिं सप्पिवासाहिं पप्पुयाहिं दिट्ठीहिं निरीक्खमाणा मुहुत्तमेत्तं संचिट्ठति, तओ समाणिएसु पुप्फबलिकम्मेसु दिन्नेसु, सरसरत्तचंदणदद्दरपंचंगुलितलेसु, अणुक्खित्तंसि धूवंसि पूतिएसु, समुद्दवाएसु, संसारियासु वलयबाहासु, ऊसिएसु सिएसु, झयग्गेसु, पडुप्पवाइएसु, तुरेसु जइएसु, सव्वसउणेसु, गहिएसु रायवरसासणेसु, महया उक्किट्ठिसीहणाय जाव रवेणं पक्खु. भितमहासमुहरवभूयंपिव मेइणिं करेमाणा, एगदिसिं जाव वाणियगा णावं दुरूढा; ततो पुस्समाणवो वक्कमुदाहु-हं भो!, सब्वेसिमवि अत्यसिद्धी उवहिताई कल्लाणाई पडिहयाति सव्वपावाई जुत्तो पूसो विजओ मुहुत्तो अयं देसकालो, ततो पुस्समाणएणं वक्के मुदाहिए हडतुड़े कुच्छिधारकन्नधारगभिजसंजत्ताणावावाणियगा वावारिंसु तं नावं पुन्नुच्छंगं पुण्णमुहिं बंधणेहिंतो मुंचंति, तते णं सा नावा विमुक्कबंधणा पवणवलसमाहया उस्सियसिया विततपक्खा इव गरुडजुबई गंगासलिलतिक्खसोयवेगेहिं संखु भमाणी२, उम्मीतरंगमालासहस्साई समतिच्छमाणी२, कइवएहिं अहोरत्तेहिं लवणसमुई अणेगातिं जोयणसतातिं ओगाढा; तते ण तेसिं अरहन्नगपामोक्खाणं संजुत्तानावावाणियगाणं लवणसमुई अणेगाई जोयणसयाई ओगाढाणं समाणाणं वहति उप्पातियसताति पाउन्भूयाई, तंजहा-अकाले गजिते, अकाले ECAUSEKESO AAAA Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LOSSARICA विज्जुते, अकाले थणियस अभिक्खणं२, आगासे देवताओ नचंति, एगं च णं महं पिसायरूवं पासंति, तालजंघं दिवं गयाहिं बाहाहिं, मसिमूसगमहिसकालगं, भरियमेहवन्नं, लंबोडे, निग्गयग्गदंत, निल्लालियजमलजुयलजीहं, आऊसियवयणगंडदेस, चीणचिपिटनासिय, विगयभुग्गभग्गभुमयं, खजोयगदित्तचक्खुरागं, उत्तासणगं, विसालवच्छं, विसालकुञ्छि, पलंबकुञ्छि, पहसियपयलियपयडियगत्तं, पणचमाणं, अप्फोडतं, अभिवयंतं, अभिगजंतं बहुसो २, अदृहासे विणिम्मुयंत, नीलुप्पलगवलगुलियअयसिकुसुमप्पगासं, खुरधारं असिं गहाय अभिमुहमावयमाणं पासंति । तते णं ते अरहण्णगवजा संजुत्ताणावावाणियगा एगं च णं महं तालपिसायं पासंति, तालजंघं दिवं गयाहिं बाहाहि, फुद्दसिरं भमरणिगरवरमासरासिमहिसकालगं, भरियमेहवन्नं, सुप्पणहं, फालसरिसजीहं, लंबोढें, धवलवअसिलिट्ठतिक्खथिरपीणकुडिलदाढोवगूढवयणं, विकोसियधारासिजुयलसमसरिसतणुयचंचलगलंतरसलोलचवलफुरफुरेंतनिल्लालियग्गजीहं, अवयच्छियमहल्लविगयबीभत्सलालपगलंतरत्ततालुयं; हिंगुलुयसगम्भकंदरबिलंव अंजणगिरिस्स, अग्गिजालुग्गिलंतवयणं, आऊसियअक्खचम्मउइहगंडदेसं, चीणचिपिडवंकभग्गणासं, रोसागयधम्मधर्मतमारुतनिहरखरफरुसझुसिरं, ओभुग्गणासियपुडं, घाडुब्भडरइयभीसणमुहं, उद्धमुहकन्नसकुलियमहंतविगयलोमसंखालगलंयंतचलियकन्न, पिंगलदिप्पंतलोयणं, भिउडितडियनिडालं, हं पिसायंरुवं पा. अ। Vवाना Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-श्रीश्रीमल्लीज्ञाताध्य. पिशाच नवाङ्गी नरसिरमालपरिणद्धचिद्धं, विचित्तगोणससुबद्धपरिकर, अवहोलंतपुप्फयायंतसप्पविच्छुयगोधुंदरनउलसर१० वृ० डविरइयविचित्तवेयच्छमालियागं, भोगाकूरकण्हसप्पधमधमेतलंबंतकन्नपूरं, मज्जारसियाललइयवंधं, भीमाता-18 दित्तघुघुयंतघूयकयकुंतलसिरं, घंटारवेणभीम, भयंकरं, कायरजणहिययफोडणं, दित्तमहासं, विणिं. धर्मकथाङ्गे म्मुयंत, वसारुहिरपूयमंसमलमलिणपोचडत', उत्तासणयं, विसालवच्छं पेच्छंता भिन्नणहमुहनयण॥१४०॥ कन्नवरवग्धचित्तकत्तीणिवसणं, सरसरुहिरगयचम्मविततऊसवियबाहुजुयलं ताहि य खरफरुसअसिणिद्धअणिट्ठदित्तअसुभअप्पिय [अमणुन्न ] अकंतवग्गूहि य तज्जयंतं पासंति; तं तालपिसायरुवं एजमाणं पासंति२, भीया संजायभया अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमाणा२, बहूणं इंदाण य, खंदाण य, रुद्दसिववेसमणणागोणं भूयाण य, जक्वाण य, अन्जकोहकिरियाण य, बहणि उवाइयसयाणि ओवातियमाणा २ चिटुंति; तए ण से अरहन्नए *समणोवासए तं दिव्वं पिसायरूवं एन्जमाणं पासति२, अभीते, अतत्थे, अचलिए, असंभंते, अणाउले, अणुब्बिग्गे, अभिन्नमुहरागणयणवन्ने, अदीणविमणमाणसे, पोयवहणस्स एगदेसंसि वत्थतेणं भूमि पमज्जतिर, ठाणं ठाइ२, करयलओ एवं वयासि-नमोऽत्यु णं अरहंताणं जाव संपत्ताणं; जहणं अहं एत्तो उवसग्गातो मुंचामि, तो मे कप्पति, पारित्तए अह णं एत्तो *उवसग्गाओ ण मुंचामि, तो मे तहा पच्चक्वाएयव्वे तिकट्ट सागारं भत्तं पचक्खातिः तते णं से पिसायरूवे जेणेव १णामाणं अ। * * एतदन्तर्गतः पाठः अ प्रतौ नास्ति । रूपादिस्त्र| वर्णनम् । SERIESRIMECL THISSARKASHAKACTRE मञ्जतिर, ठाणं ठाडू२, काम कप्पति, पारित गण से पिसार ॥१४॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरहनए समणोवासए तेणेव उंबा० २, अरहन्नगं एवं वदासी-हं भो ! अरहन्नगा, अपत्थियपत्थिया जाव परिवज्जिया, णो खलु कप्पति तव सीलब्धयगुणवेरमणपचक्खाणे पोसहोववासातिं चालित्तए वा एवं खोत्तर वा खंडित्तए वा, भंजित्तए वा, उज्झित्तए वा परिचइत्तए वा; तं जति णं तुमं सीलव्वयं जाव ण परिचयसि, तो ते अहं एयं पोतवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गेण्हामि २, सत्तट्टतलप्पमाणमेत्तातिं हा हामि २, अंतो जलंसि णिच्छोलेमि, जेणं तुमं अहदुहट्टवसट्टे असमाहिपत्ते अकाले चैव जीवियाओ ववरोविज्जसि; तते णं से अरहन्नते समणोवासए, तं देवं मणसा चैव एवं वदासी - अहं णं देवigo !, अरहन्नए णामं समणोवासए अहिगयजीवाजीवे नो खलु अहं सक्का केणह देवेण वा जाव निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा, खोमेत्तए वा, विपरिणामेत्तए वा, तुमं णं जा सद्धा तं करेहि, free, अभी जा अभिन्नमुहरागणयणवन्ने, अदीणविमणमाणसे, निश्चले, निष्फंदे, तुसिणीए, धम्मझाणोवगते विहरति; तए णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं समणोवासगं दोचंपि तचंपि एवं वदासीहूं भो अरहन्नगा !• अदीणविमणमाणसे, निचले, निष्फंदे, तुसिणीए, धम्मज्झाणोवगए विहरति तते णं से दिव्वे पिसायरूवे अरहन्नगं धम्मज्झाणोवगयं पासति २, पासित्ता बलियतरागं आसुरुत्ते तं पोयवहणं दोहिं अंगुलियाहिं गिण्हति २, सत्तट्ठतलाई जाब अरहन्नगं एवं वदासी-हं भो अरहन्नगा !, अप्पथियपत्थिया णो खलु कप्पति, तव सीलव्वय तहेव जाव धम्मज्झाणोवगए विहरति; तते गं से पिसा 1236 Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाजी- यरूवे अरहन्नगं जाहे नो संचाएह निग्गंथाओ० चालित्तए वा ताहे उवसंते जाव निम्विन्ने तं पोयवहणं ०० सणियं २, उरि जलस्स ठवेति २, तं दिव्वं पिसायरूवं पडिसाहरइ२, दिव्वं देवरूवं विउव्वइ२, अंतबीज्ञाता-18 लिक्खपडिवन्ने सखिखिणियाइं जाव परिहिते अरहन्नगं स. एवं वयासी-हं भो! अरहन्नगा:, धन्नोऽसि पर्यव्याङ्गे | णं तुम देवाणुप्पिया!, जाव जीवियफले जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, एवं खलु देवाणुप्पिया!, सके देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसए ॥१४१॥ विमाणे सभाए सुहम्माए, बहणं देवाणं मज्झगते, महया सद्देणं आतिक्खति४, एवं खलु जंबूद्दीवे२, भारहे वासे, चंपाए नयरीए, अरहन्नए सम०, अहिगयजीवाजीवे नो खलु सक्का केणति देवेण वा, दाणवेण वा, णिग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा जाव विपरिणामेत्तए वा; तते णं अहं देवाणु०!, सक्कस्स णो एयमहूं सदहामि०, तते णं मम इमेयारूवे अभत्थिए ५, गच्छामि णं अरहन्नयस्स अंतियं पाउब्भवामि जाणामि ताव अहं अरहन्नगं किं पियधम्मे णो पियधम्मे , दढधम्मे नो दढधम्मे?, सीलव्वयगुणे किं चालेति जाव | परिचयति, णो परिपञ्चयति तिकडु, एवं संपेहेमि२, ओहिं पउंजामिर, देवाणु० !, ओहिणा आभोएमिर, उत्तरपुरच्छिमं२, उत्तरविउव्वियं० ताए उकिटाए जेणेव समुद्दे जेणेव देवाणुप्पिया तेणेव उवागच्छामिर, देवाणु उवसरगं करेमि; नो चेव णं देवाणुप्पिया भीया वा०, तं जपणं सक्के देविंदे देवराया वदति, सच्चे णं एसमढे तं दिढे णं देवाणुप्पियाणं इड्डी जुई जसे जाव परक्कमे लद्धे पत्ते अभिसमन्नागए तं खामेमि, ८-श्री. मल्लीज्ञाताध्य. अरहन५ श्राद्धस्य | परीक्षादिसत्रवर्णनम्। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AUGUGARCADOCCA%A9%ES | णं देवाणु० ! खमंतु, मरहंतु, णं देवाणुप्पिया !, णाइभुजो २, एवंकरणयाए त्तिकट्ठ पंजलिउडे पायवडिए एयमढे विणएणं भुजो२, खामेइ२, अरहन्नयस्स दुवे कुंडलजुयले दलयतिर, जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेव पडिगए । सूत्रम्-७५ ॥ तते णं से अरहन्नए निरुवसग्गमि तिकट्ट पडिम पारेति, तए ण ते अरहन्नमपामोक्खा जाव वाणियगा दक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेव उवागच्छंति२, पोयं लंबेतिर, सगडसागडं सजेति२, तं गणिमं४, सगडि० संकाति२, सगडी. जोएंति२, जेणेव मिहिला तेणेव उवा०२, मिहिलाए रायहाणीए बहिया अग्गुजाणंसि, सगडीसगडं मोएइ२, मिहिलाए रायहाणीए तं महत्थं, महग्छ, महरिहं, विउलं, रायरिहं पाहुडं, कुंडलजुयलं च गेण्हंति२, अणुपविसतिर, जेणेव कुंभए तेणेव उवा०२, करयल० तं महत्थं दिव्वं कुंडलजुयलं उवणेतिर, तते णं कुंभए तेसिं संजत्तगाणं जाव पडिच्छइ२, मल्लीं विदेहवररायकन्नं सद्दावेतिर, तं दिव्वं कुंडलजुयलं मल्लीए विदेहवररायकन्नगाए पिणद्धति२, पडिविसजेति; तते णं से कुंभए राया ते अरहन्नगपामोक्खे जाव वाणियगे विपुलेणं असणवत्थगंध जाव उस्सुकं वियरति२, रायमग्गमोगाढेह आवासे वियरति, पडिविसज्जेति; तते णं अरहन्नगसंजत्तगा जेणेव रायमग्गमोगाढे आवासे तेणेव उवागच्छंतिर, भंडववहरणं करेंतिर, पडिभंडं गेहंतिर, | सगडी० भरेंति जेणेव गंभीरए पोयपट्टणे तेणेवर, पोतवहणं सजेतिर, भंडं संकाति, दक्खिणाणु० जेणेव चंपा पोयट्ठाणे तेणेव पोयं लंबेति२, सगडी० सजेतिर, तं गणिमं४, सगडी० संकामेंति२, जाव SARGA अनाजHI||ॐॐ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्ली ज्ञाताध्य. कुंडलयुगलादिस्त्र| वर्णनम् । नवाङ्गी महत्थं पाहुडं दिव्वं च कुंडलजुयलं गेहंति२, जेणेव चंदच्छाए अंगराया तेणेव उवातं महत्थं जाव १०० उवणेति तते णं चंदच्छाए अंगराया तं दिव्वं महत्थं च कुंडलजुयलं पडिच्छति२, ते अरहन्नगपामोक्खे | श्रीज्ञाता- एवं वदासी-तुब्भेणं देवा०!, बहूणि गामागार जाव आहिंडह लवणसमुदं च अभिक्खण२, पोयवहणेहिं धर्मकथाओं है| ओगाहेह गाहह तं अत्थियाई भे केह कहिंचि अच्छेरए दिट्ठपुब्वे , तते णं ते अरहन्नपामोक्खा चंदच्छायं अंगराय, एवं वदासी-एवं खलु सामी!, अम्हे इहेव चंपाए नयरीए अरहन्नपामोक्खा बहवे संजत्तगा ॥ १४२॥ णावावाणियगा परिवसामो, तते णं अम्हे अन्नया कयाइं गणिम च४, तहेव अहीणमतिरित्तं जाव कुंभगस्स रन्नो उवणेमो, तते णं से कुंभए मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए तं दिव्वं कुंडलजुयलं पिणद्वेति२, पडिव्विसजेतिः तं एस ण सामी !, अम्हेहिं कुंभरायभवणंसि मल्ली विदेहे अच्छेरए दिढे तं नो खलु अन्ना कावि तारिसिया देवकन्ना वा जाव जारिसिया णं मल्लीविदेहा, तते णं चंदच्छाए ते अरहन्नगपामोक्खे सक्कारेति सम्माणेति२, पडिवसज्जेति; तते ण चंदच्छाए वाणियगजणियहासे दूतं सद्दावेति जाव जइविय णं सा सयं रजसुक्का, तते णं ते दूते हढे जाव पहारेत्थ गमणाए२ ॥ सूत्रम्-७६ ॥ ___ 'संजत्ताणावावाणियगा'-सङ्गता यात्रा-देशान्तरगमनं संयात्रा, तत्प्रधाना नौवाणिजका:-पोतवणिजः, संयात्रानौवाणिजकाः, 'अरहण्णगे समणोवासगे आवि होत्य'त्ति-न केवलमाढ्यादिगुणयुक्तः श्रमणोपासकश्चाप्यभूत् , 'गणिमं चेत्यादि, गणिमं-नालिकेरपूगीफलादि यद् गणितं सत् व्यवहारे प्रविशति, धरिमं-यत्तुलाधृतं सत् व्यवहियते, ACADCHODAE%ी FEBCAMIRREGISISECRAFFAIRS ॥ १४२॥ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेयं यत्सेसिकापल्यादिना मीयते, परिच्छेद्यं यद् गुणतः परिच्छेद्यते-परीक्ष्यते वस्त्रमण्यादि, 'समियस्स य'त्ति कणिकायाथ, 'ओसहाणं' ति - त्रिकटुकादीनां, 'भेसखाण य'त्ति - पथ्यानामाहारविशेषाणां, अथवा - ओषधानां - एकद्रव्यरूपाणां, भेषजानां - द्रव्यसंयोगरूपाणां, आवरणानां - अङ्गरक्षकादीनां बोधिस्थप्रक्षराणां च; 'अज्बे'त्यादि, आर्य !, हे पितामह !, तात !हे पितः !, हे भ्रातः !, मातुल !, हे भागिनेय !, भगवता समुद्रेण अभिरक्ष्यमाणा यूयं जीवत, भद्रं च 'मे'त्तिभवतां भवत्विति गम्यते, पुनरपि लब्धार्थान् कृतकार्यान् अनघान् समग्रान्, अनघत्वं - निर्देषणतया, समग्रत्वम् - अहीनधनपरिवारतया, निजकं गृहं 'हव्वं' ति - शीघ्रमागतान् पश्याम इतिकृत्वा - इत्यभिधाय, 'सोमाहि' ति-निर्विकारत्वात्, 'निद्धाहिं'ति- सस्नेहत्वात्, 'दीहा हिं'ति दूरं यावदवलोकनात्, 'सप्पिवासाहिं' ति - सपिपासाभिः पुनर्दर्शनाकाङ्क्षावतीभिर्दर्शनातृप्ताभिर्वा 'पप्याहिं' ति - प्रप्लुताभिः अनुजलार्द्राभिः, 'समाणिएसु' त्ति - समापितेषु दत्तेषु नावीति गम्यते, सरसरक्तचन्दस्य दर्दरेण - चपेटाप्रकारेण पश्चाङ्गुलितलेषु हस्तकेष्वित्यर्थः, 'अणुक्खित्तसी'ति - अनूत्क्षिप्ते - पश्चादुत्पाटिते धूपे पूजितेषु समुद्रवासेषु नौसांयात्रिकप्रक्रियया समुद्राधिपदेवपादेषु वा, 'संसारियासु वलयवाहासु'ति - स्थानान्तरादुचितस्थाननिवेशितेषु दीर्घकाष्ठलक्षणबाहुषु आवल्लकेष्विति सम्भाव्यते, तथा उच्छ्रितेषु ऊर्द्धकृतेषु, सितेषु ध्वजाग्रेषुपताकाग्रेषु पटुभिः पुरुषैः पटु वा यथा भवतीत्येवं प्रवादितेषु तूर्येषु जयिकेषु जयावहेषु, सर्वशकुनेषु - वायसादिषु गृहीतेषु राजवरशासनेषु - आज्ञासु पट्टकेषु वा प्रक्षुभितमहासमुद्ररवभूतमिव तदात्मकमिव तं प्रदेशमिति गम्यते; 'तओ पुस्समाणवो चकमुयाहुति - ततोऽनन्तरं मागधो मङ्गलवचनं ब्रवीति स्म इत्यर्थः तदेवाह सर्वेषामेव ' भे' - भवतामर्थसिद्धिर्भवतु, उप ৬৭৬ মেলান তলে তলোঃ ভয়ে ভে Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मागधादि नवाङ्गी-16 स्थितानि कल्याणानि प्रतिहतानि सर्वपापानि-सर्वविघ्नाः, 'जुत्तो'त्ति-युक्तः, 'पुष्यों-नक्षत्रविशेषः, चन्द्रमसा इहावसरे प.पू. इति गम्यते; पुष्यनक्षत्रं हि यात्रायां सिद्धिकरं, यदाह-"अपि द्वादशमे चन्द्रे, पुष्यः सर्वार्थसाधन" इति, मागधेन तदुपन्यस्तं, दमल्लीभीमाता-13 विजयो मुहर्त्तस्त्रिंशतो मुहूर्तानां मध्यात, अयं देशकाल:-एष प्रस्तावो गमनस्येति गम्यते, 'वके उदाहिए'त्ति-वाक्ये उदा. ज्ञाताध्य. पकवाओं हते हृष्टतुष्टाः कर्णधारो-निर्यामकः, कुक्षिधारा-नौपार्थनियुक्तकाः, आवेल्लकवाहकादयः गर्भे भवाः गर्भजा:-नौमध्ये उच्चाव चकर्मकारिणः, संयात्रानौवाणिजका-माण्डपतयः, एतेषां द्वन्द्वः 'वावरिसुत्ति-व्यापृतवन्तः स्वस्वव्यापारेविति, ततस्तां ॥१४३ ॥ पदार्थनावं पूर्णोत्सङ्गा-विविधभाण्डभृतमध्यां पण्यमध्यां वा मध्यभागनिवेशितमङ्गल्यवस्तुत्वात् पूर्णमुखीं पुण्यमुखी वा तथैव स्वरूपम् । बन्धनेभ्यो विसर्जयन्ति-मुञ्चन्ति, पवनबलसमाहता-वातसामर्थ्यप्रेरिताः, 'ऊसियसिय'ति-उच्छितसितपटा, यानपात्रे हि वायुसहाथ महान् पट उच्छूितः क्रियते, एवं चासावुपमीयते विततपक्षेव गरुडयुवतिः गङ्गासलिलस्य तीक्ष्णाः ये श्रोतो. वेगा:-प्रवाहवेगास्तैः सक्षुभ्यती २,-प्रेर्यमाणा समुद्र प्रतीति, ऊर्मयो-महाकल्लोलाः, तरङ्गा-इस्वकल्लोलास्तेषां माला:समूहाः तत्सहस्राणि; 'समतिच्छमाणि'त्ति-समतिक्रामन्ती, 'ओगाढ'त्ति-प्रविष्टा, 'तालजंघ'मित्यादि, तालोवृक्षविशेषः, स च दीर्घस्कन्धो भवति, ततस्तालवजो यस्य तत्तथा; 'दिवंगयाहिं बाहाहिं'ति-आकाशप्राप्ताभ्यामतिदीर्घाभ्यां बाहुभ्यां युक्तमित्यर्थः, 'मसिमूसगमहिसकालगं'ति मषी-कजलं, मूषकः-उन्दुरविशेषः, अथवा-मषीप्रधाना मृषा-ताम्रादिधातुप्रतापनभाजनं मषीभूषा महिषश्च प्रतीत एव तद्वत्कालकं यत्तत्तथा 'भरियमेहवणं'ति-जलभृतमेघवर्णमित्यर्थः, तथा लम्बोष्ट 'निग्गयग्गर्दत'ति निर्गतानि मुखादग्राणि येषां ते तथा निर्गताग्रा दन्ता यस्य तत्तथा, 'निल्लालिय-12॥१४३ ॥ बाजालाBHARY Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RSS4344% 9CCI जमलजुयलजीह'ति-निलालितं-विवृतमुखानिःसारितं यमलं-समं युगलं-द्वयं जिलयोन तत्तथा, 'आऊसियवयण. गंडदेसं'ति-आऊसियत्ति-प्रविष्टौ वदने गण्डदेशी-कपोलभागौ यस्य तत्तथा, 'चीणचिपिडनासियंति-चीना-हस्वा चिपिटा च-निम्ना नासिका यस्य तत्तथा, 'विगयभुग्गभुमयंति-विकृते-विकारवत्यौ, भुग्ने-मग्ने इत्यर्थः; पाठान्तरेण'भुग्गभग्गे'-अतीव चक्रे भ्रवौ यस्य तत्तथा; 'खजोयगदित्तचक्खुरागं'ति-खद्योतका-ज्योतिरिङ्गणाः, तद्वदीप्तश्चथुरागो-लोचनरक्तत्वं यस्य तत्तथा, उपासनक-भयंकर, विशालवक्षो-विस्तीर्णोर:स्थलं, विशालकुक्षि-विस्तीर्णोदरदेशं, एवं प्रलम्बकुक्षि 'पहसियपयलियपयडियगत्तं'ति-प्रहसितानि-हसितुमारब्धानि, प्रचलितानि च स्वरूपात् प्रवलिकानि वाप्रजातवलीकानि-प्रपतितानि च-प्रकर्षेण श्लथीभूतानि गात्राणि यस्य तत्तथा; वाचनान्तरे-'विगयभुग्गभुमयपहसियपपलियपयडियफुलिंगखज्जोयदित्तचक्खुरागं'ति पाठः, तत्र विकृते भग्ने भ्रुवौ प्रहसिते च प्रचलिते प्रपतिते यस्य स्फुलिङ्गवत् खद्योतकवच्च दीप्तश्चक्षुरागश्च यस्य तत्तथा; 'पणचमाण मित्यादि, विशेषणपश्चकं प्रतीतं, 'नीलुप्पले त्यादौ, | गवलं-महिषशृङ्गं अतसी-मालवकदेशप्रसिद्धो धान्यविशेषः, 'खुरहारंति-क्षुरस्येव धारा यस्य स तथा, तमसिं-खड्ग, क्षुरो ह्यतितीक्ष्णधारो भवत्यन्यथा केशानाममुण्डनादिति क्षुरेणोपमा खड्गधारायाः कृतेति, अभिमुखमापतत् पश्यन्ति सर्वेऽपि सांया. त्रिकाः, तत्राहकवर्जा यत् कुर्वन्ति तदर्शयितुमुक्तमेव पिशाचस्वरूपं सविशेषं तेषां तद्दर्शनं चानुवदन्निदमाह-'तएण'मित्यादि, में ततस्ते अहमकवर्जाः सांयात्रिकाः पिशाचरूपं वक्ष्यमाणविशेषणं पश्यन्ति, दृष्ट्वा च बहूनामिन्द्रादीनां बहून्युपयाचितशता-न्यु| पयाचितवन्तस्तिष्ठन्तीति समुदायार्थः, अथवा-'तए णति 'अरहन्नगवजा' इत्यादि, गमान्तरं-'आगासदेवयाओनचंति' SAFERIC A Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवानी ८-श्री मल्ली. ज्ञाताध्य. १०० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ १४४॥ SE%E5%A3%ESAR इतोऽनन्तरं द्रष्टव्यम्, अत एव वाचनान्तरे नेदुमुपलभ्यते, उपलभ्यते चैवम्-'अभिमुहं आवयमाणं पासंति, तए णं ते अरहन्नगवजा नावावाणिगया भीया' इत्यादि, तत्र 'तालपिसायंति-तालवृक्षाकारोऽतिदीर्घत्वेन पिशाचः | तालपिशाचः तं, विशेषणद्वयं प्रागिव, 'फुदृसिरंति-स्फुटितम्-अवन्धत्वेन विकीर्ण शिर इति-शिरोजातत्वात् केशा यस्य | स तथा तं भ्रमरनिकरवत् वरमाषराशिवत् महिषवच्च कालको यः स तथा तं, भृतमेघवर्ण तथैव, सूर्पमिव-धान्यशोधक- तालपिशाभाजनविशेषवत् नखा यस्य स सूर्पनखः तं, 'फालसदृशजिह्वमिति-फालं-द्विपञ्चाशत्पलप्रमाणो लोहमयो दिव्यविशेषस्तच्च चादिवहिप्रतापितमिह प्राचं वत्साधम्यं चेह जिह्वाया वर्णदीप्तिदीर्घत्वादिभिरिति, लम्बोष्ठं प्रतीतं धवलामिवृत्ताभिरश्लिष्टाभिर्वि- पदार्थव्याशरारुत्वेन तीक्ष्णाभिः स्थिराभिः निश्चलत्वेन पीनाभिरुपचितत्वेन कुटिलाभिश्च वक्रतया दंष्ट्राभिरवगूढ-व्याप्तं वदनं यस्यख्यानम् । स तथा तं, विकोशितस्य-अपनीतकोशकस्य निरावरणस्येत्यर्थः धारास्यो-धाराप्रधानखड्गयोर्ययुगलं-द्वितयं तेन समसदृश्यौअत्यन्ततुल्ये तनुके-प्रतले चञ्चल-विमुक्तस्थैर्य यथा भवत्यविश्राममित्यर्थों गलन्त्यौ-रसातिलोल्यात् लालाविमुश्चन्त्यौ रसलोले-मक्ष्यरसलम्पटे चपले-चञ्चले फुरुफुरायमाणे-प्रकम्प निर्लालिते-मुखाग्निष्काशिते अप्रजिह्वे-अग्रभूते जिहे जिह्वाने इत्यों येन स तथा तं, 'अविच्छिय'ति-प्रसारितमित्येके, अन्ये तु यकारस्यालुप्तत्वात् , 'अवयच्छियं'-प्रसारितमुखस्वेन दृश्यमानमित्याहुः, 'महल्लं'ति-महत--विकृतं-बीमत्सं लालाभिः प्रमलत् रक्तं च तालु-काकुन्दं यस्य स तथा तं, तथा हिलकेन-वर्णकद्रव्यविशेषेण सगम कन्दरलक्षणं बिलं यस्य स तथा तमिव, 'अंजणगिरिस्स'त्ति-विभक्तिविषरिणामादञ्जनगिरि-कृष्णवर्णपर्वतविशेष तथाऽग्निज्वाला उद्गिरत् वदनं यस्य स तथा तं, अथवा-'अवच्छियेत्यादि शबानालामाकर ।१४५ ॥ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CHECCA NROCRASACH पट यस्य तथा त, हिंगलुए' त्यादि, अग्निज्वाले' त्यादि प्रत्यंतरे च कर्मधारयेण वक्ष्यमाणवदनपदस्य विशेषणं कार्य यस्य तमित्येवंरूपश्च वाक्य शेषो द्रष्टव्या, तथा अग्निज्वाला उद्गिरद्वदनं यस्य स तथा तं, 'आऊसिय'त्ति-सङ्कचितं यदक्षचर्म-जलाकर्षणकोशस्तद्वत् 'उइट्टत्ति अपकृष्टौ अपकर्षवन्तौ सङ्कचितौ गण्डदेशौ यस्य स तथा तं, अन्ये वाहुः-आमूषितानि-सङ्कटितानि अक्षाणि-इन्द्रियाणि च चर्म च ओष्ठौ च गण्डदेशौ च यस्य स तथा तं, चीना इस्वा 'चिवड'त्ति-चिपटा-निम्ना वंका-वक्रा भग्नेव भना-अयोधनकुट्टितेवेत्यर्थो नासिका यस्य स तथा तं, रोषादागतो, 'धमधमेंत'त्ति-प्रबलतया धमधमेंतत्ति शब्द कुर्वाणो मारुतो-वायुनिष्ठुरो-निर्मरः, खरपरुष:-अत्यन्तकर्कशः, शुषिरयोः-रन्ध्रयोर्यत्र तत्तथा, तदेवंविधमवमुग्न-वर्क नासिकापुटं यस्य तथा तं, इह च पदानामन्यथा निपातः प्राकृतत्वादिति, घाताय-पुरुषादिवधाय घाटाम्यां वा-मस्तकावयवविशेषाम्या उद्भट-विकरालं रचितमत एव भीषणं मुखं यस्य स तथा तं, ऊर्द्ध मुखे कर्णशष्कुल्यौ-कर्णावती ययोस्ती तथा तो च महान्ति-दीर्घाणि विकृतानि लोमानि ययोस्तौ तथा तौ च, 'संखालगति-शतवन्तौ च शायो:-अक्षिप्रत्यासावयवविशेषयोः संलग्नौ-सम्बद्धावित्येके, लम्बमानौ च-प्रलम्बौ चलितो-चलन्तौ कर्णौ यस्य स तथा तं, पिङ्गले-कपिले दीप्यमानेभासुरे लोचने यस्य स तथा तं, भृकुटि:-कोपकृतो भूविकारः सैव तडिद्-विद्युद्यस्मिस्तत्तथा तथाविध, पाठान्तरेण-भ्रकटितंकृतभृकुटि ललाटं यस्य स तथा तं, नरशिरोमालया परिणद्धं-वेष्टितं चिन्ह-पिशाचकेतुर्यस्य स तथा तं, अथवा-नरशिरो मालया यत्परिणद्ध-परिणहनं तदेव चिन्हें यस्य स तथा तं, विचित्रैः-बहुविधैर्गोनसैः-सरीसृपविशेषैः सुबद्धः परिकरासबाहो येन स तथा तं, 'अवहोलंत'ति-अवघोलयन्तो डोलायमानाः, 'फुप्फुयायंत'त्ति-फूत्कुर्वन्तो ये सर्पाः वृश्चिका म एव भीषण च, 'संखालगाय स तथा त, PITA Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथा ॥ १४५ ।। गोधाः उन्दुश नकुलाः सरटाच तैर्विरचिता विचित्रा - विविधरूपवती वैकेक्षण - उत्तरासङ्गेन मर्कटबन्धेन स्कन्धलम्बमात्र तया वा मालिका - माला यस्य स तथा तं भोगः-फणः स क्रूरो- रौद्रो ययोस्तौ तथा तौ च कृष्णसप च तौ घमघमायमानौ 'च तावेव लम्बमाने कर्णपूरे- कर्णाभरणविशेषौ यस्य स तथा तं, मार्जारशृगालौ लगितौ नियोजितौ स्कन्धयोर्येन स तथा तं दी - दीप्तस्वरं यथा भवत्येवं, ' घुघुयंत 'ति घूत्कारशब्दं कुर्वाणो यो घूकः- कौशिकः स कृतो विहितो, 'कुंतल' तिशेखरकः शिरसि येन स तथा तं, घण्टानां श्वणं शब्दस्तेन भीमो यः स तथा स चासौ भयङ्करथेति तं कातरजनानां हृदयं स्फोटयति यः स तथा तं दीप्तमट्टट्टहासं घण्टारवेण भीमादिविशेषणविशिष्टं विनिर्मुश्चन्तं वसारुधिरपूयमांसमलैर्मलिना, ' पोचड 'त्ति-विलीना च तनुः शरीरं यस्य स तथा तं, उत्रासनकं विशालवक्षसं च प्रतीते, 'पेच्छंत'त्ति-प्रेक्ष्यमाणादृश्यमाना अभिन्ना - अखण्डा नखाश्व-नखरा रोम च मुखं च नयने च कर्णौ च यस्यां सा तथा सा चासौ वरव्याघ्रस्य चित्रा - कर्बुरा - कृत्तिश्च - चर्मेति सा तथा सैव निवसनं परिधानं यस्य स तथा तं सरसं रुधिरप्रधानं यद्गजचर्म तद्विततंविस्तारितं यत्र तत्तथा तदेवंविधं, 'ऊसवियं 'ति उच्छृतं ऊर्द्धकृतं बाहुयुगलं येन स तथा तं ताभिश्च तथाविधाभिः खरपरुषा- अतिकर्कशाः अस्निग्धा: - स्नेहविहीना दीप्ता - ज्वलन्त्य इवोपतापहेतुत्वात् अनिष्टा - अभिलाषाविषयभूताः अशुमाः स्वरूपेण अप्रिया: अप्रीतिकरत्वेन अकान्ताथ विश्वरत्वेन या वाचस्ताभिः त्रस्तान् कुर्वाणं- त्रस्तयन्तं तर्जयन्तं च पश्यन्ति स्म, पुनस्तत्तालपिशाचरूपं, ' एजमाणं 'ति नावं प्रत्यागच्छत् पश्यन्ति, ' समतुरंगेमाणे 'ति - आश्लिष्यन्तः, स्कन्दःकार्त्तिकेयः, रुद्रः - प्रतीतः शिवो- महादेवः, वैश्रमणो यक्षनायकः, नागो-भवन पतिविशेषः, भूतयक्षाः - व्यन्तरभेदाः ॥ १४५ ॥ ८-श्री मल्ली ज्ञाताध्य० कुंतलादिपदार्थ स्वरूपम् ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाजा आा-प्रशान्ता प्रसन्नरूपा, दुर्गा-कोट्टक्रिया-सैव महिषारूढरूपा, पूजाभ्युपगमपूर्वकाणि प्रार्थनानि उपयाचितान्युच्यन्ते, उपयाचितवन्तो-विदधतस्तिष्ठन्ति स्मेति, अन्नकवर्जानामियमितिकर्तव्यतोक्ता, अधुनाईनकस्य तामाह-'तएण' मित्यादि, 'अपस्थियपत्थिय 'त्ति अप्रार्थितं-यत्केनापि न प्रार्थ्यते तत्प्रार्थयति यः स तथा, तदामन्त्रणं पाठान्तरेणअप्रस्थितः सन् यः प्रस्थित इव मुमूर्षुरित्यर्थः, स तथोच्यते, तस्यामन्त्रणं हे अप्रस्थितप्रस्थित !; यावत्करणात 'दुरंतपंतल. क्खणे'ति-दुरन्तानि-दुष्टपर्यन्तानि, प्रान्तानि-अपसदानि लक्षणानि यस्य स तथा तस्यामन्त्रणं 'हीणपुण्णचाउद्दसी' इति हीना-असममा पुण्या-पवित्रा चतुर्दशी तिथिर्यस्य जन्मनि स तथा, चतुर्दशीजातो हि किल भाग्यवान् भवतीति, आक्रोशे तदभावो दर्शित इति, 'सिरिहिरिधीकित्तिवज्जिय'त्ति-प्रतीतं, 'तवसीलव्वए 'त्यादि, तत्र शीलव्रतानि-अणुव्रतानि, गुणा:-गुणव्रतानि, विरमणानि-रागादिविरतिप्रकाराः प्रत्याख्यानानि-नमस्कारसहितादीनि, पौषधोपवास:-अष्टम्यादिषु | पर्वदिनेषूवसनं आहारशरीरसत्काराब्रह्मव्यापारपरिवर्जनमित्यर्थः, एतेषां द्वन्द्वः, 'चालित्तए 'ति-भङ्गकान्तरगृहीतान् भङ्गकान्तरेण कत्तुं क्षोभयितुं-एतान्येवं परिपालयाम्युतोज्झामीति क्षोभविषयान् कत्तु खण्डयितुं-देशतः भक्तुं सर्वतः उज्झितुंसर्वस्या देशविरतेस्त्यागेन परित्यक्तुं-सम्यक्त्वस्यापि त्यागत इति, 'दोहिं अंगुलीहिं 'ति-अङ्गुष्ठकतर्जनीभ्यां, अथवातर्जनीमध्यमाभ्यामिति; 'सत्तट्टतलप्पमाणमेत्तायं 'ति-तलो-हस्ततलः तालाभिधानो वाऽतिदीर्घवृक्षविशेषः स एवं प्रमाणं-मानं तलप्रमाणं सप्ताष्टौ वा सप्ताष्टानि तलप्रमाणानि परिमाणं येषां ते सप्ताष्टतलप्रमाणमात्रास्तान् गगनभागान् यावदिति गम्यते, 'उड्डे वेहास'ति-ऊर्दू विहायसि-गगने, 'उव्विहामित्ति-नयामि, 'जेणं तुमंति-येन त्वं, 'अदृदु Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० ० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ १४६ ॥ हट्टव सट्टे 'ति - आर्त्तस्य- ध्यानविशेषस्य यो, 'दुहट्ट 'ति-दुर्घटः दुःस्थगो दुर्निरोधो वशः- पारतन्त्र्यं तेन ऋत: - पीडितः आर्त्तदुर्घटवशार्त्तः; किमुक्तं भवति ? - असमाधिप्राप्तः, 'ववरोबिज्जसि 'त्ति - व्यपरोपयिष्यसि अपेतो भविष्यसीत्यर्थः 'चालि तर ति इह चलनमन्यथाभावत्वं कथं ? ' खोभित्तए 'ति क्षोभयितुं संशयोत्पादनतः तथा, 'विपरिणामित्त 'त्तिविपरिणामयितुं विपरीताध्यवसायोत्पादनत इति, 'संते ' इत्यादौ, यावत्करणात्, ' तंते परितंते' इति द्रष्टव्यं तत्र श्रान्तः शान्तो वा मनसा तान्तः कायेन खेदवान् परितान्तः सर्वतः खिन्नः निर्विण्ण- तस्मादुपसर्गकरणादुपरतः, 'लद्धेत्यादि, तत्र लब्धा - उपार्जनतः प्राप्ता-तत्प्राप्तेरभिसमन्वागता - सम्यगासेवनतः, 'आइक्वइ' इत्यादि, आख्याति सामान्येन भाषते विशेषतः, एतदेव द्वयं क्रमेण पर्यायशब्दाभ्यामुच्यते- प्रज्ञापयति, प्ररूपयति; ' देवेण वा दाणवे 'त्यादाविदं द्रष्टव्यमपरं 'किन्नरेण वा किंपुरिसेण वा महोरगेण वा गंधव्वेण व 'त्ति-तत्र देवो वैमानिको ज्योतिष्को वा, दानवो भवनपतिः, शेषा व्यन्तरभेदाः, 'नो सद्दहामि' इत्यादि, न श्रघे - प्रत्ययं न करोमि, 'नो पत्तियामि' तत्र प्रीतिकं प्रीतिं न करोमि, न रोचयामि - अस्माकमप्येवंभूता गुणप्राप्तिर्भवत्वेवं न रुचिविषयीकरोमीति; ' पियधम्मे 'त्ति धर्मप्रियो, दृढधर्मा आद्यपि धर्मादविचलः, यावत्करणात् ऋद्ध्यादिपदानि दृश्यानि तत्र ' इड्डि 'त्ति-गुणर्द्धिः, द्युतिः- आन्तरं तेजः, यशःख्यातिः, बलं- शारीरं वीर्य-जीवप्रभवं, पुरुषकारः - अभिमानविशेषः, पराक्रमः स एव निष्पादितस्वविषयः, लब्धादिपदानि तथैव, 'उस्सुकं वियर'ति-शुल्काभावमनुजानातीत्यर्थः, 'गामागरे 'त्यादाविदं द्रष्टव्यं - 'नगरखेड कब्बड मडंबदोणमुहपट्टणनिगमसन्निवेसाई' इति तत्र ग्रामो-जनपदाध्यासितः, आकरो-हिरण्याद्युत्पत्तिस्थानं, नगरं - करविरहितं खेटं-धूली ঃउ ত6 ८- श्री. मल्ली ज्ञाताध्य० आ ध्यानादिपदार्थ - वर्णनम् । ॥ १४६ ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AAAAAACARSA प्राकार, कर्बट-कुनगरं-मडम्ब-दूरवर्तिसनिवेशान्तरं, द्रोणमुख-जलपथस्थलपथयुक्तं, पत्तनं-जलपथस्थलपथयोरेकतरयुक्तं, | निगमो वणिग्जनाधिष्ठितः, सनिवेश:-कटकादीनामावासः 'देवकन्नगा वे'-त्यादाविदं दृश्य 'असुरकमा वा, नागकना | वा, जक्खकन्ना वा, गंधवकन्ना वा, रायका वेति-वाणियगजणियहासे'त्ति नैगमोत्पादितमल्लीविषयानुराग इत्यर्थः।।७६।। तेणं कालेणं २, कुणाला नाम जणवए होत्था; तत्थ णं सावत्थी नाम नगरी होत्या, तत्थ णं रुप्पी कुणालाहिवई नाम राया होत्था, तस्स णं रुप्पिस्स धुया धारिणीए देवीए, अत्तया सुबाहुनाम, दारिया होत्था; सुकुमाल० रूवेण य, जोवणेणं लावण्णेण य, उकिट्ठा उक्किट्ठसरीरा जाया यावि होत्था; तीसे णं सुबाहुए दारियाए अन्नदा चाउम्मासियमजणए जाए यावि होत्था, तते णं से रुप्पी कुणालाहिवाई सुबाहुए दारियाए चाउम्मासियमजणयं उवडियं जाणति२, कोडुंबियपुरिसे सहावेतिर, एवं बयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया !, सुबाहुए दारियाए कल्लं चाउम्मासियमजणए भविस्सति, तं कल्लं तुन्भे णं रायमग्गमोगाढंसि चउकंसि जलथलयदसद्धवन्नमल्लं साहरेह, जाव सिरिदामगंडे ओलइन्ति तते णं से रुप्पी कुणालाहिवती सुवन्नगारसेणिं सदावेतिर, एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया!, रायमग्गमोगाहंसि पुप्फमंडवंसि णाणाविहपंचवन्नेहिं तंदुलेहिं णगरं आलिहह, तस्स बहुमज्झदेसभाए पट्टयं रएह२, जाव पञ्चप्पिणंति; तते णं से रुप्पी कुणालाहिवई हत्थिखंधवरगए, चाउरंगिणीए सेणाए, महया भड०, अंतेउरपरियाल संपरिबुडे, सुबाहुं दारियं पुरतो कड्ड जेणेव रायमग्गे, जेणेव पुप्फमण्डवे, तेणेव उवा CALCASPITHAISA Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥ १४७ ॥ गच्छतिर, हत्थिखंघातो पञ्चोरूहति२, पुष्फमंडवं अणुपविसति२, सीहासणवरगए, पुरत्थाभिमु सन्निसन्ने; तते णं ताओ अंतेउरियाओ सुबाहुं दारियं पट्टयंसि दुरूहेंति२, सेयपीतएहिं कलसेहिं हाति२, सव्वालंकारविभूसियं करेंति२, पिउणो पायं वंदिउं उवर्णेति; तते णं सुबाहुदारिया जेणेव रुपी राया, तेणेव उवागच्छति२, पायग्गहणं करेति; तते णं से रूप्पी राया सुबाहुं दारियं अंके निवेसेतिर, सुबाहुए दारियाए रुवेण य जो० लाव० जाव विम्हिए वरिसघरं सहावेति २, एवं वयासीतुमण्णं देवाणुपिया !, मम दोचेणं बहूणि गामागरनगरगिहाणि अणुपविससि; तं अस्थि याई ते कसह रन्नो वा, ईसरस्स वा, कर्हिचि एयारिसए मज्जणए दिट्ठपुत्र्वे जारिसए णं इमीसे सुबा हृदारियाए मज्जणए १, तते णं से वरिसधरे रुप्पि करयल० एवं व० एवं खलु सामी !, अहं अन्नया तुम्भेणं दोघेण मिहिलं गए तत्थ णं मए कुंभगस्स रन्नो धूयाए पभावतीए देवीए अतयाए मल्लीए विदेहरायकन्नगाए मज्जणए दिट्ठे, तस्स णं मज्जणगस्स इमे सुबाहुए दारियाए मज्जणए समसहस्सइपि कलं न अग्वेति, तए णं से रूप्पी राया वरिसधरस्स अंतिए एयमहं सोचा, णिसम्म, सेसं तहेब मज्जणगजतिहासे दूतं सहावेति २, एवं वयासी० - जेणेव मिहिला नयरी, तेणेव पहारित्थगमणाए ३ ॥ सूत्रम्-७७|| ते काले २, कासी नाम जणवए होत्था, तत्थ णं वाणारसीनाम नगरी होत्था, तत्थ णं संखे नाम कासीराया होत्था, तते णं तीसे मल्लीए विदेहरायवरकन्नाए अन्नया कयाई तस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधी मल्ली ज्ञाताध्य० कुणाल देशादिसूत्रवर्णनम् । ॥ १४७ ॥ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विसंघडिए या होत्था, तते णं से कुंभए राया सुवन्नागारसेणि सहावेति २, एवं वदासी-तुम्भे णं देवाणुपिया !, इमस्स दिव्वस्स कुंडलजुयलस्स संधि संघाडेह, तए णं सा सुवन्नागारसेणी एतम तहत्ति पडिसुर्णेति २, तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेण्हति २, जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ तेणेव उवागच्छंत २, सुवन्नागारभिसियासु णिवेसेति २, बहुहिं आएहि य जाव परिणामेमाणा इच्छंतिं, तस्स दिवस्स कंडलजुयलस्स संधिं घडित्तए, नोव णं संचाएंति संघडित्तए, तते णं सा सुवन्नागारसेणी जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छति २, करयल० वृद्धावेत्ता एवं वदासी एवं खलु सामी ! अज्ज तुग्भे अम्हे सहावेह २, जाव संधि संघाडेत्ता एतमाणं पञ्चप्पिह, तते णं अम्हे तं दिव्वं कुंडलजुयलं गेव्हामो जेणेव सुवन्नगारभिसियाओ जाव नो संचाएमो संघाडि - तर, तते णं अम्हे सामी !, एयस्स दिव्वस्स कुंडलस्स अन्नं सरिसयं कुंडलजुयलं घडेमो, तते णं से कुंभए राया तीसे सुवन्नागारसेणीए अंतिए एयमहं सोचा, निसम्म, आसुरुत्ते तिवलियं भिउडीं निडाले एवं साहद्दुः वदासी - से केणं तुम्भे कलायाणं भवह १, जे णं तुग्भे इमस्स कुंडलजुयलस्स नो संचाएह, संधि संघाडेत; ते सुवन्नागारे निव्विसए आणवेति; तते णं ते सुवन्नगारा कुंभेण रण्णा निव्विसया आणत्ता समाणा जेणेव सातिं २, गिहातिं तेणेव उवा०२, सभंडमत्तोवगरणमायाओ मिहिलाए, रायहाणीए, मज्झमज्झेणं निक्वमंति२, विदेहस्स जणवयस्स मज्झंमज्झेणं जेणेव कासी जणवए, जेणेव वाणारसी नयरी, तेणेव १ ति २ सात० अ । । ঃতণত Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ० पृ० श्रीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ १४८ ॥ उवा०, अग्गुज्जाणांस सगडीसागडं मोएन्ति२, महत्थं जाव पाहुडे गेण्हंतिर त्ता, वाणारसीनयरी मज्झंमज्झणं जेणेव संखे कासीराया, तेणेव उवागच्छंति२, करयल० जाव एवं अम्हे णं सामी ! मिहिलातो नयरीओ कुंभणं रत्ना निव्विसया, आणत्ता समाणा, इहं हव्वमागताः तं इच्छामो णं सामी !, तुभं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया, निरुब्बिग्गा, सुहंसुहेणं परिवसिउं; तते णं संखे कासीराया ते सुव नगारे एवं वदासी - किन्नं तुन्भे देवा ! कुंभएणं रन्ना निव्विसया आणत्ता ?, तते णं ते सुवन्नगारा संख एवं वदासी एवं खलु सामी- कुंभगस्स रन्नो धूयाए पभावतीए देवीए अत्तयाए मल्लीए, कुंडलजुयलस्स संधी विसंघडिए; तते णं से कुंभए सुवन्नगारसेणि सहावेति २, जाव निव्विसया आणत्ता, तं एएणं कार णं सामी !, अम्हे कुंभएणं निव्विसया आणत्ता, तते णं से संखे सुवन्नागारे एवं वदासी - केरिसिया णं देवापिया !, कुंभगस्स धूया पभावतीदेवीए, अत्तया मल्ली बि० तते णं ते सुवन्नगारा संखरायं एवं वदासी - णो खलु सामी ! अन्ना काई तारिसिया देवकन्ना वा, गंधव्वकन्नगा वा, जाब जारिसिया णं मल्ली विदेहवररायकन्नाः तते णं से संखे कुंडलजुअलजणितहासे दूतं सहावेति जाव तहेव पहारेत्थ गमणाए ॥ सूत्रम् - ७८ ॥ 'भिसियाओ' ति - आसनानि, 'तिवलियं भिउडिं निडाले साहहु' सि-त्रिवलीकां - वलित्रयोपेतां भृकुटीं भूविकारं संहृत्य - अपनी येति; 'केणं तुभे कलायाणं भवह'त्ति के यूयं कलादानां - सुवर्णकाराणां मध्ये मत्रथ १, न केपी ८-भी श्रीमल्ली ज्ञाताच्य० काशीदेशादिसूत्र वर्णनम् । ॥ १४८ ॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यर्थो, निर्विज्ञानत्वात्, अथवा-के यूयं सुवर्णकाराणां पुत्राद्यन्यतमा भवथः अथवा के यूयं कलादाः १, न केऽपीत्यर्थः; णमित्यलङ्कारे, शेषं सुगमं । तेणं कालेणं २, कुरुजणवए होत्था, हत्थिणाउरे नगरे अदीणसत्तू नामं राया होत्था, जाव विहरति; तत्थ णं मिहिलाएं कुंभगस्स पुते पभावतीए, अत्तए मल्लीए, अणुजायए मल्लदिन्नए नाम कुमारे, जाव जुबराया यानि होत्या; तते णं मल्लदिने कुमारे अन्नया कोडंबिय० सहावेति २, गच्छह णं तुभे मम पमदवणंसि एवं महं वित्तसभं करेह, अणेग जाव पचप्पिणंति; तते णं से मल्लदिने चित्तगरसेणि सहावेति २, एवं वयासी तुन्भेणं देवा० 1, चित्तसमं हावभावविलासविब्बोयकलिएहिं रूवेहिं चित्तेह२, जाव पचपणह, तते णं सा चित्तगरसेणी तहत्ति पडिसुणेति२, जेणेव सयाई गिहाई तेणेव उवा०२, तूलि - याओ वन्नए य गेव्हंति२, जेणेव चित्तसभा तेणेव उवागच्छति २ त्ता, अणुपविसंति २, भूमिभागे विरं ति २, भूमिं सज्जेंति २, चित्तसभं हावभाव जाव चित्तेउं पयत्ता यावि होत्था; तते णं एगस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तगरलद्वी लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया-जस्स णं दुपयस्स वा, चउपयस्स बा, अपयस्स वा एगदेसमवि पासति, तस्स णं देसानुसारेणं तयाणुरूवं निव्वत्तेति, तए णं से चित्तगरदारए मल्लीए जबणितरियाए जालंतरेण पायगुडं पासति, तते णं तस्स णं चित्तगरस्स इमेयारूवे जाव सेयं खलु ममं मल्लीएवि पायंगुट्ठाणुसारेणं सरिसगं जाव गुणोववेयं रूवं निव्वत्तित्तए, एवं संपेहेति २, भूमि SSG Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 ८-श्री मल्ली नवाङ्गी१०० बीज्ञातापर्वकचाङ्गे ज्ञाताध्य. कुरुजनपदादिवर्णनम् । ॥१४९॥ भागं सजेति २, मल्लीएवि पायंगुट्ठाणसारेणं जाव निव्वत्तेति; तते णं सा चित्तगरसेणी चित्तसभं जाव हावभावे चित्तेति २, जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे तेणेव २, जाव एतमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं मल्लदिन्ने चित्तगरसेणि सकारेइ २, विपुलं जीवियारिहं पीइदाणं दलेइ २, पडिविसज्जेह तए णं मल्लदिन्ने अन्नया पहाए अंतेउरपरियालसंपरिवुडे अम्मधाईए सद्धिं जेणेव चित्तसभा तेणेव उवा०२, चित्तसभं अणुपविसइ २, हावभावविलासविबोयकलियाई रूवाइं पासमाणे २, जेणेव मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवे णिव्वत्तिए तेणेव पहारस्थ गमणाएतए णं से मल्लदिन्ने कुमारे मल्लीए विदेहवररायकन्नाए तयाणुरूवं. निव्वत्तियं पासति २, इमेयारूवे अन्भथिए जाव समुप्पज्जित्था-एस णं मल्ली विदेहवररायकन्न त्तिकद्दु, लजिए, वीडिए, विअडे, सणियं २, पचोसक्का; तए णं मल्लदिन्नं अम्मधाई पच्चोसकंतं पासित्ता एवं वदासी-किन्नं तुम पुत्ता! लज्जिए, वीडिए, विअडे, सणियं २, पच्चोसक्का; तते णं से मल्लदिन्ने अम्म| धाति एवं वदासी-जुत्तं णं अम्मो, मम जेट्ठाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए लज्जणिज्जाए मम चित्तगरणिवत्तिय सभं अणुपविसित्तए !,तएणं अम्मधाई मल्लदिन्नं कुमारं व०-नो खलु पुत्ता!, एस मल्ली, एस णं मल्ली विदे०. चित्तगरएणं तयाणुरूवे णिव्वत्तिए तते णं मल्लदिन्ने अम्मधाईए एयमढे सोचा, आसुरुत्ते एवं वयासी-केस णं भो चित्तयरए अपत्थियपत्थिए जाव परिवजिए जे णं मम जेट्टाए भगिणीए गुरुदेवयभूयाए जाव निव्वत्तिए तिकड, तं चित्तगरं वज्झं आणवेइ; तए णं सा चित्तगरस्सेणी इमीसे कहाए CREASE ॥ १४९ ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लद्धट्ठा समाणा जेणेव मल्लदिन्ने कुमारे, तेणेव उवागच्छइ २ त्ता, करयल परिग्गहियं जाव वद्धावेइ २ त्ता २, एवं वयासी-एवं खलु सामी,तस्स चित्तगरस्स इमेयारूवा चित्तकरलद्धी लद्धा पत्ता, अभिसमन्नागया जस्स णं दुपयस्स वा जाव णिवत्तेति तं मा णं सामी!, तुम्भे तं चित्तगरं वझं आणवेह, तं तुभेणं सामी., तस्स चित्तगरस्स अन्नं तयाणुरूवं दंडं निव्वत्तेह; तए णं से मल्लदिन्ने तस्स चित्तगरस्स संडासगं छिंदावेह २, निविसयं आणवेइ, तए णं से चित्तगरए मल्लदिनेण णिब्बिसए आणत्ते समाणे सभंडमत्तो. वगरणमायाए मिहिलाओ णयरीओ णिक्खमइ २, विदेहं जणवयं मज्झमज्झेणं जेणेव हथिणाउरे नयरे, जेणेव कुरुजणवए जेणेव अदीणसत्तू राया, तेणेव उवा०२त्ता, भंडणिक्वेवं करेइ २, चित्तफलगं सज्जेहर, मल्लीए विदेह पायंगुट्ठाणुसारेण रूवं णिवत्तेइ २, कक्खंतरंसि छुब्भइ २, महत्थं ३ जाव पाहुडं गेण्हइ २, हत्थिणापुरंनयरं मझमझेणं, जेणेव अदीणसत्तू राया, तेणेव उवागच्छति २, तं करयल जाव वद्धावेइ २, पाहुडं उवणेतिर, एवं खलु अहं सामी., मिहिलाओ रायहाणीओ कुंभगस्स रन्नो पुत्तणं पभावतीए देवीए, | अत्तएणं मल्लदिनेणं कुमारणं निश्चिसए आणत्ते समाणे इह हव्वमागए, तं इच्छामि णं सामी!, तुम्भं बाहुच्छायापरिग्गहिए जाव परिवसित्तए, तते णं से अदीणसत्तू राया तं चित्तगदारयं, एवं वदासी-किन्नं तुम देवाणुप्पिया!, मल्लदिपणेणं निव्विसए आणत्ते ?, तए णं से चित्तयरदारए अदीणसत्तुरायं एवं वदासी-एवं खलु सामी!, मल्लदिन्ने कुमारे अण्णया कयाई चित्तगरसेणिं सद्दावेइ२, एवं व०-तुन्भे गं AFRAIजI CAFE Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाजी ol मल्ली १०० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥१५०॥ CALCASEAAAAAORECAS देवाणुप्पिया!, मम चित्तसभं तं चेव सव्वं भाणियब्वं जाव मम संडासगं छिदावेहर, निविसयं आण- ८-श्री| वेइ तं एवं खलु सामी., मल्लदिनेणं कुमारेणं निध्विसए आणत्ते, तते णं अदीणसत्तू राया तं चित्तगरं | एवं वदासी-से केरिसए णं देवाणुप्पिया!, तुमे मल्लीए तदाणुरूवे रूवे निव्वत्तिए, तते णं से चित्त. ज्ञाताध्य कक्खंतराओ चित्तफलयं णीणेति२, अदीणसत्सुस्स उचणेइ २, एवं व०-एस णं सामी, मल्लीए वि. | अदीनतयाणुरुवस्स रुवस्स के आगारभावपडोयारे निव्वत्तिए, णो खलु सक्का केणइ देवेण वा जाव मल्लीएशवराजविदेहरायवरकण्णगाए तयाणुरूवे स्वे निव्वत्तित्तए, तते गं अदीणसत्तू पडिरूवजणितहासे दूयं सहा वर्णनम् । वेति२, एवं वदासी-तहेव जाव पहारेत्थ गमणयाए ॥ सूत्रम्-७९॥ - 'पमयवर्णसि'त्ति-गृहोद्याने, 'हावभावविलासविव्वोयकलिएहि'ति-हावभावादयः सामान्येन स्त्रीचेष्टाविशेषाः, विशेषः पुनरयम्-"हायो मुखविकारः स्याद्, मावश्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विनमो भ्रूसमुद्भवः ॥१॥" इति, अन्ये त्वेवं विलासमाहुः-"स्थानासनगमनानां हस्तभ्रनेत्रकर्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात् ॥१॥" विन्बोकलक्षणं चेदम्-इष्टानामर्थानां प्राप्तावभिमानगर्भसम्भृतः । स्त्रीणामनादरकृतो विन्बोको नाम विज्ञेयः ॥१॥" तूलियाउ'त्ति-तूलिका बालमय्यश्चित्रलेखनकर्चिकाः, 'तदणुरूवं रूवंति-दृष्ट्वा द्विपदाधुचितमाकारमिति, 'अंतेउरपरि. यालेण'न्ति-अन्तःपुरं च परिवारश्च अन्तःपुरलक्षणो वा परिवारो यः स तथा, ताभ्यां तेन वा सम्परिवृतः, लज्जितो वीडितो व्यईः इत्येते त्रयोऽपि पर्यायशब्दाः लजाप्रकर्षाभिधानायोक्ताः, 'लज्जणिज्जाए'त्ति-लज्यते यस्याः सा लज्जनीया। १५०॥ CARRANGECISISALCAFERI Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - % 95-% तेणं कालेणं २, पंचाले जणवए, कंपिल्ले पुरे नयरे, जियसत्तू नाम राया, पंचालाहिवई; तस्स णं जितसत्तुस्स धारिणीपामोक्खं देविसहस्सं ओरोहे होत्था, तत्थ णं मिहिलाए चोक्खा नाम परिवाइया, 8 रिउव्वेद जाव परिणिढिया यावि होत्था; तते णं सा चोक्खा परिव्वाइया मिहिलाए बहणं राईसर जाव सत्यवाहपभितीणं पुरतो दाणधम्मं च, सोयधम्मं च, तित्थाभिसेयं च, आघवेमाणी, पण्णवेमाणी, परूवेमाणी, उवदंसेमाणी, विहरति तते णं सा चोक्खा परिवाइया अन्नया कयाई तिदंड च कुंडियं च जाव धाउरत्ताओ य गेण्हइ२, परिव्राइगावसहाओ पडिनिक्खमइ२, पविरलपरिव्वाइया सद्धिं संपुरिवुडा मिहिलं रायहाणिं मझमझेणं, जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे, जेणेव कणंतेउरे, जेणेव मल्ली विदेह, तेणेव उवागच्छइ २, उदयपरिफासियाए दभोवरि पच्चत्थुयाए' भिसियाए निसियति२ त्ता, मल्लीए विदेह पुरतो दाणधम्मं च जाव विहरतिः सते णं मल्ली विदेहा चोक्खं परिव्वाइयं एवं बयासी-तुम्मेण चोक्खे !, किंमूलए धम्मे पन्नत्ते , तते णं सा चोक्खा परिघाइया मल्लिं विदेहं एवं वदासी-अम्हं गं देवाणुप्पिए । सोयमूलए धम्मे पण्णवेमि, जण्णं अम्हं किंचि असुई भवइ, तण्णं उदएण य मट्टियाए जाव अविग्घेणं सग्गं गच्छामो, तए णं मल्ली विदेह चोक्खं परिवाइयं एवं वयासी-चोक्खा!, से जहा नामए केई पुरिसे रुहिरकयं वत्थं, रुहिरेण चेव धोवेजा; अत्थि णं चोक्खा !, तस्स रुहिरकयस्स |वत्थस्स रुहिरेणं धोब्वमाणस्स काई सोही?, नो इणढे समढे, एवामेव चोक्खा! तुम्मे थे पाणाइवाएण EC RIEWALA5 %95 Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S नवाङ्गी CAR ८-श्रीमल्ली जाव मिच्छादसणसल्लेणं नत्थि काई सोही, जहा व तस्स रुहिरकयस्स वत्थस्स रुहिरेणं चेव धोव्वमाणस्स, १. वृ. तए णं सा चोक्खा परिव्वाइया मल्लीए विदेह०, एवं वुत्ता समाणा संकिया, कंखिया, विइगिच्छिया, श्रीज्ञाता-18 भेयसमावण्णा जाया यावि होत्था; मल्लीए णो संचाएति, किंचिवि पामोक्खमाइक्खित्तए तुसिणीया धर्मकथाङ्गे संचिट्ठति। तते ण तं चोक्खं मल्लीए बहुओ दासचेडीओ हीलेंति, निंदंति, खिसंति, गरहंति, अप्पेगतिया हेरुयालंति, अप्पे मुहमक्कडिया करेंति, अप्पे० वग्घाडीओ करेंति, अप्पे० तज्नमाणीओ निच्छुभंति ॥१५१॥ तए णं सो चोक्खा मल्लीए विदेह० दासचेडियाहिं जाव गरहिजमाणी, हीलिजमाणी, आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणी, मल्लीए विदेहरायवरकण्णाए पओसमावज्रति, भिसियं गेण्हति२, कण्णंतेउराओ पडिनिक्वमति२, मिहिलाओ निग्गच्छति २, परिवाइयासंपरिवुडा, जेणेव पंचालजणवए, जेणेव कंपिल्लपुरे, बहूणं राइसर जाव परूवेमाणी विहरति; तए णं से जियसत्तू अन्नदा कदाई अंतेउर. परियाल सद्धिं संपरिबुडे एवं जाव विहरति, तते णं सा चोक्खा परिव्वाइयासंपरिबुडा जेणेव जितसतुस्स रणो भवणे, जेणेव जितसत्तू, तेणेव उवागच्छह २ त्ता, अणुपविसति२, जियसत्तुं जएणं विजएणं | वद्धावेति; तते णं से जितसत्तू चोक्खं परि०, एन्जमाणं पासति २, सीहासणाओ अन्भुटेतिर, चोक्खं | सक्कारेति२, आसणेणं उवणिमंतेति; तते णं सा चोक्खा उदगपरिफासियाए जाव भिसियाए निविसइ, जियसत्तुं रायं रज्जे य जाव अंतेउरे य कुसलोदंतं पुच्छ; तते णं सा चोक्खा जियसत्तुस्स रन्नो ज्ञाताध्य पंचालदेशादिवर्णनसूत्रम् । CAROSAROKAROSAROKNOCROS RIENCES । १५१॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CARROADCA दाणधम्मं च जाव विहरति, तते णं से जियसत्त अप्पणो ओरोहंसि जाव विम्हिए चोक्खं एवं वदासीतुमं गं देवाणुप्पिया, बहणि गामागर जाव अडह बहण य रातीसर गिहाति अणुपविससि, तं अत्थि. याइं ते कस्सवि रन्नो वा जाव एरिसए ओरोहे दिट्ठपुव्वे जारिसए णं इमे मह उवरोहे; तए णं सा चोक्खा परिवाइया जियसन [ एवं वदासी] ईसिं अवहसियं करेइ२, [ एवं वयासी-] एवं च सरिसए 8 णं तुम देवाणुप्पिया!, तस्स अगडदडुरस्स, के णं देवाणुप्पिए, से अगडदद्दुरे, जियसत्तू , से | जहा नामए अगडदद्दुरे सिया, से णं तत्थ जाए तत्थेव वुड्ढे अण्णं अगडं वा, तलागं वा, दहं वा, सरं वा, सागरं वा, अपासमाणे चेवं मण्णइ-अयं चेव अगडे वा जाव सागरे वा, तए णं तं कूवं अण्णे सामुद्दए दद्दुरे हब्बमागए, तए णं से कूवदद्दुरे तं सामुद्ददददुरं, एवं वदासी-से केस णं तुमं देवाणुप्पिया!, कत्तो वा इह हब्धमागए ?, तए णं से सामुद्दए दद्दुरे तं कूवदद्दुरं एवं वयासी-एवं स्खलु देवाणुप्पिया!, अहं सामुद्दए दद्दुरे, तए णं से कूवदददुरे तं सामुद्दयं दददुरं, एवं बयासी-केमहालए णं देवाणुप्पिया!से समुद्दे , तए णं से सामुद्दए दददुरे तं कूवदद्दुरं एवं वयासी-महालए णं देवाणुप्पिया!, समुद्दे, तए णं से दद्दूर पाएणं लीहं कड्वेद २, एवं वयासी-एमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे १, णो इणढे समढे, महालए णं से समुद्दे, तए णं से कूवदद्दुरे पुरच्छिमिल्लाओ तीराओ उप्फिडित्ता णं गच्छह २, एवं बयासी-एमहालए णं देवाणुप्पिया! से समुद्दे , णो इणढे समहे, तहेव एवामेव तुमंपि लाजानाशा S ICA Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥१५२॥ DECECRECRUGALACESCRECTOR जियसत्तु अन्नेसिं बहणं राईसर जाव सत्यवाहपभिईणं भज्जं वा, भगिणीं वा, धूयं वा, सुण्हं वा, ८-श्रीअपासमाणे जाणेसि जारिसए मम चेव णं ओरोहे तारिसए णो अण्णस्स, तं एवं खलु जियसत्तू !, मल्लीमिहिलाए नयरीए, कुंभगस्स धूता पभावतीए, अत्तिया मल्ली नामंति रूवेण य जुव्वणेण जाव नो खलु ज्ञाताध्य. अण्णा काई देवकन्ना वा जारिसिया मल्ली, विदेहवररायकपणाए छिण्णस्सवि पायंगुट्ठस्स इमे तवोरोहे || मल्लीरूपासयसहस्सतिमंपि कलं न अग्घा त्तिकट्ठ जामेव दिसं पाउन्भूया, तामेव दिसं पडिगया; तते णं से दिवर्णनजितसत्तू परिवाइयाजणितहासे दूयं सहावेति २, जाव पहारेत्थ गमणाए ६ ॥सूत्रम्-८०॥ तते णं तेसिं सूत्रम् । जियसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं या जेणेव मिहिला, तेणेव पहारेत्थ गमणाए; तते णं छप्पिय दूतका जेणेव मिहिला तेणेव उवाग०२, मिहिलाए अग्गुजाणंसि, पत्तेयं २, खंधावारनिवेसं करेंति२, मिहिल रायहाणी अणुपविसंति२, जेणेव कुंभए तेणेव उवा०२, पत्तेयंर, करयल. साणं२, राईणं वयणातिं निवेदेति तते णं से कुंभए तेसिं दूयाणं अंतिए एयमढे सोचा, आसुरुत्ते जाव तिवलियं भिउडिं एवं वयासी-न देमि णं अहं तुभं मल्ली विदेहवरकण्णं, तिकट्टा ते छप्पि दूते असक्कारिय, असम्माणिय, अवदारेणं णिच्छुभावेति तते णं जितसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राइणं या कुंभएणं रन्ना असक्कारिया, असम्माणिया, अवदारेणं णिच्छुभाविया समाणा जेणेव सगार, जाणवया जेणेव सयाति२, णगराई जेणेव सगा २, रायाणो तेणेव उवा०, करयलपरि० एवं वयासी-एवं खलु सामी!, अम्हे जितसत्तुपामो- ॥ १५२॥ माजाला Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E+I ACARRANSACAMAG क्खाणं छण्हं राईणं दया जमगसमगं चेव जेणेव मिहिला जाव अवदारणं निच्छुभावेति तं ण देइ णं सामी!, कुंभए मल्ली वि०, साणं २, राईणं एयमढे निवेदंति; तते णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो तेसिं दूयाणं अंतिए एयमढे सोचा, निसम्म, आसुरुत्ता अण्णमण्णस्स यसंपेसणं करेंति २, एवं वदासीएवं खलु देवाणुप्पिया!, अम्हं छण्हं राईणं या जमगसमग चेव जाव निच्छ्ढा , तं सेयं खलु देवाणुप्पिया! अम्हं कुंभगस्स जत्तं गेण्हित्तए त्तिकटु अण्णमण्णस्स एतमढे पडिसुणेति२, पहाया सण्णद्धा हत्थिखंधवरगया सकोरंटमल्लदामा जाव सेयवरचामराहि. महयाहयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडा, सव्विड्डीए जाव रवेणं सरहिं२, नगरेहिंतो जाव निग्गच्छंतिर, एगयओ मिलायंति२, जेणेव मिहिला, तेणेव पहारेत्थ गमणाए; तते णं कुंभए राया इमीसे कहाए लढे, समाणे, बलवाउयं सहावेति२, एवं वदासी-खिप्पामेव० हय जाव सेण्णं सन्नाहेह जाव पञ्चप्पिणंति; तते णं कुंभए ण्हाते सण्णद्धे, हत्थिखंध०, सकोरंट०, सेयवरचामरए महया० मिहिलं मझमझेणं णिज्जाति २; | विदेहं जणवयं मज्झमझेणं, जेणेव देसअंते, तेणेव उवा० २, खंधावारनिवेस करेति २, जियसत्तुपा० छप्पिय रायाणो पडिवालेमाणे जुझसज्जे पडिचिट्ठति; तते णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पिय रायाणो जेणेव कुंभए तेणेव उवा० २, कुंभएणं रन्ना सद्धिं संपलग्गा यावि होत्था; तते णं ते जियसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो कुंभयं रायं हयमहियपवरवीरघाइयनिवडियचिंधद्धयप्पडागं किच्छप्पाणोवगयं दिसो KHIBILICASAFER Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब ८-श्री नवाङ्गी१०० भीबाताधर्मकथाले दिसिं पडिसेहिति, तते णं से कुंभए जितसत्तुपामोक्खेहिं छहिं राईहिं हयमहित जाव पडिसेहिए समाणे अत्थामे, अबले, अवीरिए, जाव अधारिणिज्जमि तिकटु सिग्धं, तुरियं, जाव वेइयं जेणेव मिहिला, तेणेव उवा०२, मिहिलं अणुपविसति २, मिहिलाए दुवारातिं पिहेइ २, रोहसज्जे चिट्ठति; तते ण ते जितसत्तुपामोक्खा छप्पि रायाणो जेणव मिहिला तेणेव उवागच्छंति २, मिहिलं रायहाणि णिस्संचारं णिरुच्चारं सव्वतो समंता ओलंभित्ताणं चिट्ठति। तते णं से कुंभए मिहिलं रायहाणिं रुद्धं जाणित्ता, अन्भंतरियाए उवट्ठाणसालाए, सीहासणवरगए तेसि जितसत्तुपामोक्खाणं छण्हं रातीणं छिद्दाणि य, विवराणि य, मम्माणि य, अलभमाणे बहहिं आएहि य, उवाएहि य, उप्पत्तियाहि य ४, बुद्धीहिं परिणामेमाणे २, किंचि आय वा, उवायं वा, अलभमाणे ओहतमणसंकप्पे जाव झियायति इमं च णं मल्लीवि. ण्हाया जाव बहूहिं खुजाहिं परिवुडा, जेणेव कुंभए, तेणेव उ०२, कुंभगस्स पायग्गहणं करेति; तते णं कुंभए मल्लि विदेह, णो आढाति, नो परियाणाइ, तुसिणीए संचिट्ठति तते णं मल्ली वि. कुंभगं एवं वयासी-तुन्भे णं ताओ!, अण्णदा मम एजमाण जाव निवेसेह, किण्णं तुभं अन्ज ओहत. झियायह?, तते णं कुंभए मल्लि, वि. एवं व०-एवं खलु पुत्ता!, तब कजे जितसत्पमुक्खेहि छहिं रातीहिं दूया संपेसिया, ते णं मए असक्कारिया जाव निच्छूढा; तते णं ते जितसत्तुपामुक्खा तेसिं दूयाणं अंतिए एयमढे सोचा, परिकुविया समाणा मिहिलं रायहाणिं निस्संचारं जाव चिट्ठति, तते णं अहं मल्लीज्ञाताध्यक जितशत्रुप्रमुखादिचर्यावर्णनसत्रम। ॥१५३॥ CARICS ज॥१५३॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुत्ता, तेसिं जितसत्तुपामोक्खाणं छण्हं राईणं अंतराणि अलभमाणे जाव झियामि; तते णं सा मल्ली वि० कुंभयं रायं, एवं वयासी- मा णं तुग्भे ताओ !, ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह, तुभे णं ताओ !, तेसिं जियसत्तु पामोक्खाणं छण्हं राईणं पत्तेयं२, रहसियं दूयसंपेसे करेह; एगमेगं एवं वदह तव देमि मल्लि विदेहवर यकण्णं तिकट्टु संझाकालसमयंसि पविरलमणूसंसि निसंतंसि, पडिनिसंतंसि, पत्तेयं २, मिलिं रायहाणि अणुष्पवेसेह२, गन्भघरएसु अणुप्पवेसेह, मिहिलाएं रायहाणीए दुवाराहं पिधेह२, रोहसज्जे चिट्ठहः तते णं कुंभए एवं० तं चैव जाव पवेसेति, रोहसज्जे चिठ्ठति, तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा छप्पय रायाणो कल्ले पाउन्भूया जाव जालंतरेहिं कणगमयं मत्थयछि पउमुप्पलपिहाणं पडिमं पासति एस णं मल्ली विदेहरायवरकण्ण त्तिकद्दु मल्लीए विदेह० रूवे य, जोब्वणे य, लावण्णे य, मुच्छिया गिद्धा जाव अज्झोववण्णा अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणा२ चिट्ठेतिः तते णं सा मल्ली वि० व्हाया जाव पायच्छित्ता सव्वालंकार० बहूहिं खुज्जाहिं जाव परिक्खित्ता, जेणेव जालघरए, जेणेव कणयपडिमा, तेणेव उवाग०२, तीसे कणगपडिमाए मत्थयाओ तं पउमं अवणेति, तते णं गंधे णिद्धावति, से जहा नाम अहिमडेति वा जाव असुभतराए चैव तते णं ते जियसत्तुपामोक्खा तेणं असुभेणं गंधेण अभिभूया समाणा सहि२ उत्तरिज्जएहिं आसातिं पिति २ त्ता, परम्मुहा चिट्ठेति; तते णं सा मल्ली वि० ते जितसचुपामोक्खे एवं वयासी किष्णं तुग्भं देवाणुप्पिया !, सएहिं २ उत्तरिज्जहिं जावं परम्मुहा Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी ८-श्री मल्ली भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ज्ञाताध्य मल्लीसहशप्रतिमा ॥ १५४॥ वर्णन चिट्ठह , तते गं ते जितसत्तुपामोक्खा मल्ली वि. एवं वयंति-एवं खलु देवाणुप्पिए 1, अम्हे इमेणं असुभेणं गंघेणं अभिभूया समाणा सरहिं२ जाव चिट्ठामो; तते णं मल्ली वि. ते जितसत्तुपामुक्खे० जइ ता देवाणुप्पिया, इमीसे कणग. जाव पडिमाए कल्लाकल्लिं ताओ मणुण्णाओ असण४, एगमेगे पिंडे पक्खिप्पमाणे२, इमेयारूवे असुभे पोग्गलपरिणामे इमस्स पुण ओरालियसरीरस्स, खेलासवस्स, वंतासवस्स, पित्तासवस्स, सुक्कसोणियपूयासवस्स, दूरूवऊसासनीसासस्स, दुरूवमुत्तपुतियपुरीसपुण्णस्स, सडण जाव धम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सति ?; तं मा णं तुन्भे देवाणु० माणुस्सएसु कामभोगेसु सज्जह, रज्वह, गिज्झह, मुज्झह, अझोववजह एवं खलु देवाणु०, तुम्हे अम्हे इमाओ तच्चे भवग्गहणे अवरविदेहवासे सलिलावर्तिसि विजए वीयसोगाए रायहाणीए महब्बलपामोक्खा सत्तवि य बालवयंसया रायाणो होत्था, सहजाया जाव पव्वतिता; तए णं अहं देवाणुप्पिया!, इमेणं कारणेणं इत्थीनामगोयं कम्मं निव्वत्तेमि, जति णं तुब्भं चोत्थं उपसंपन्जित्ताणं विहरह; तते णं अहं छटुं उवसंपन्जित्ताणं विहरामि, सेसं तहेव सव्वं तते गं तुन्भे देवाणुप्पिया!, कालमासे कालं किच्चा जयंते विमाणे उववण्णा, तत्थ णं तुम्मे देसूणातिं बत्तीसातिं सागरोवमाई ठिती; तते णं तुम्मे ताओ देवलोयाओ अणंतरं चयं चइत्ता, इहेव जंबुद्दीवे २, जाव साइं २, रज्जाति उवसंपज्जित्ताणं विहरहः तते णं अहं देवाणु, ताओ | देवलोयाओ आउक्खएणं जाव दारियत्ताए पचायाया-किंथ तयं पम्हढं जंथ तया भो जयंत पवरंमि । सूत्रम् । ॥ १५४॥ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NECHIKSH तसमानुपामा अभिम देवास ARACCACAS0% वुत्था समयनिबद्धं देवा!,तं संभरह जातिं ॥१॥ तते णं तेसि जियसत्तुपामोक्खाणं छहं रायाणं मल्लीए विदेहराय. अंतिए एतमढे सोचा, णिसम्म, सुमेणं परिणामेणं पसत्थेणं अज्झवसाणेणं, लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं, ईहावूह, जाव सण्णिज्जाइस्सरणे समुप्पन्ने, एयमढे सम्म अभिसमागच्छंति; तए णं मल्ली अरहा जितसत्तुपामोक्खे छप्पि रायाणो समुप्पण्णजाइसरणे जाणित्ता, गम्भघराणं दाराई विहाडावेति तते णं ते जितसत्तुपामोक्खा जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति २, तते णं महब्बलपामोक्खा सत्तविय बालवयंसा एगयओ अभिसमन्नागया यावि होत्था, तते णं मल्लीए अरहाते जितसत्तुपामोक्खे छप्पिय रायाणो, एवं व०-एवं खलु अहं देवा०1, संसारभयउब्विग्गा जाव पव्वयामि, तं तुम्मे णं किं करेह किं च ववसह जाव किं मे हियसामत्थे ?, जियसत्तू० मल्लिं अरहं एवं वयासीजति णं तुन्भे देवा०, संसार जाव पव्वयह अम्हे णं देवा० ! के अण्णे आलंबणे वा, आहारे वा, पडिबंधे वा, जह चेव णं देवा० 1, तुम्भे अम्हे इओ तच्चे भवग्गहणे बहुसु कज्जेसु य मेडी पमाणं जाव धम्म| धुरा होत्था, तहा चेव णं देवा ! इण्हिपि जाव भविस्सहः अम्हेविय णं देवाणु० ! संसारभउब्विग्गा जाव भीया जम्मणमरणाणं देवाणुप्पियाणं सद्धिं मुंडा भवित्ता, जाव पव्वयामो तते णं मल्ली अरहा ते जितसत्तुपामोक्खे, एवं बयासी-जण्णं तुम्मे संसार जाव मए सद्धिं पब्वयह, तं गच्छह, णं तुम्भे देवा!, किं च वस० अ। . RAधाWAREER Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवाङ्गी वृ० पृ० भीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ १५५ ॥ ८- श्री मल्लीज्ञाताध्य० सएहिं २ रज्जेहिं जेट्टे पुत्ते रज्जे ठावेह २त्ता, पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ दुरूहह दुरूढा समाणा मम अंतियं पाउन्भवह; तते णं ते जितसत्तुपामुक्खा मल्लिम्स अरहतो एतमहं पडिसुर्णेति, तते णं मल्ली अरहा ते जितस्तु गहाय जेणेव कुंभए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, कुंभगस्स पाएसु पाडेति; तते णं कुंभए ते जितसत्तु० विपुलेणं असण ४, पुप्फवत्थगंध मल्लालंकारेणं सक्कारेति, जाव पडिविसज्जेति, तणं ते जियसत्तुपा मोक्खा कुंभएणं रण्णा विसज्जिया समाणा जेणेव साई २ रज्जातिं, जेणेव नगरातिं, पश्वरदीक्षातेणेव उवा० २, सगाई रज्जातिं उवसंपज्जित्ता विहरंति; तते णं मल्ली अरहा संबच्छरावसाणे निक्खमि - स्सामित्ति मणं पहारेति ॥ सूत्रम् - ८१ ॥ मल्ली जिने दिवर्णनसूत्रम् । 'पामोक्रंख' ति - उत्तरं आक्षेपस्य परिहार इत्यर्थः, 'हीलंती' त्यादि, हीलयन्ति जात्याद्युद्घट्टनतः, निन्दन्ति- मनसा कुत्सन्ति, खिसंति परस्परस्याग्रतः तदोपकीर्त्तनेन, गर्हन्ते - तत्समक्षमेव, 'हरुयालि' ति - विकोपयन्ति मुखमर्कटिकातः अम्यया स्वमुखवक्रताः कुर्वन्ति, 'बग्घाडियाओ' त्ति - उपहासार्था रुतविशेषाः, 'कुसुलोदतं 'ति - कुशलवार्त्ता, 'अगडदद्दुरेसिय'त्ति कूपमण्डूको भवेत्, 'जमगसमगं'ति-युगपत्, 'जत्तं गिण्हित्तए' चि-यात्रां-विग्रहार्थं गमनं ग्रहीतुं - आदातुं विधातुमित्यर्थः, 'बलवाउयं ति - बलव्यापृतं सैन्यव्यापारवन्तं, 'संपलग्गे 'त्यत्र - योद्धमिति शेषः 'हयमहियपवरवीरघाइयविवडियचिंधद्धयपडागे' त्ति - हतः - सैन्यस्य हतत्वात्, मथितो - मानस्य निर्मथनात् प्रवरा वीरा-भटा घातिताविनाशिता यस्य स तथा, विपतिता चिह्नध्वजाः- चिह्नभूतगरुडसिंहधरा वलकध्वजादयः पताकाश्च हस्तिनामुपरिवर्त्तिन्यः , ||: ।। १५५ ।। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबलपरवलप्रयुक्तानेकतीक्ष्णक्षुरप्रहारप्रकरण दण्डादिच्छेदनाद्यस्य स तथा, ततः पदचतुष्कस्य कर्मधारयः, अथवा-हयमथिता:-अश्वमर्दिताः, प्रवरवीरा यस्य घातिताश्च सत्यो विपतिताश्चि ध्वजपताका यस्य स तथा तं, 'दिसोदिसं'ति-दिशो दिशि सर्वत इत्यर्थः, 'पडिसेहंति'त्ति-आयोधनाद्विनिवर्त्तयन्ति निराकुर्वन्तीत्यर्थः, 'अधारणिज्जं'ति-अधारणीयं धारयितुमशक्यं परवलमितिकृत्वा; अथवा-अधारणीयं-अयापनीयं यापना कर्तुमात्मनो न शक्यत इतिकृत्वा, 'निस्संचातिद्वारापद्वारः जनप्रवेशनिर्गमवर्जितं यथा भवति, 'निरुचारं'-प्राकारस्योर्ध्व जनप्रवेशनिर्गमवर्जितं यथा भवति, अथवाउच्चारः-पुरीष, तद्विसर्गार्थ यजनानां बहिर्निर्गमनं तदपि स एवेति तेन वर्जितं यथा भवत्येवं सर्वतो-दिक्षु समन्तात्-विदिक्षु, 'अवरुध्य'-रोधकं कृत्वा तिष्ठन्ति स्मेति, रहस्सिएति-रहसिकान् गुप्तान् , 'दूतसंप्रेषान्'-दूतप्रेषणानि, 'पविरलमणूसंसित्ति-प्रविरलाः मनुष्याः मार्गादिषु यस्मिन् सन्ध्याकालसमये स तथा तस्मिन् , तथा-'निशान्तेषु'-गृहेषु, 'प्रतिनिश्रान्ता'-विश्रान्ता यस्मिन् मनुष्या इतीह द्रष्टव्यं, स तथा त्रत, अथवा-सन्ध्याकालसमये सति तथा तत्रैव यः प्रविरलो मनुष्यो-मानुषजनो मार्गेषु भवति तत्र निशान्तेषु प्रतिनिश्रान्ते इत्यर्थः, 'जह तावे'त्यादि, यदि तावदस्याहारपिण्डस्यायं परिणामः अस्य पुनरौदारिकशरीरस्य कीदृशो भविष्यतीति सम्बन्धः, इह च 'किमंग पुण'त्ति-यत्क्वचिद् दृश्यते, ततः 'इमस्सपुणत्ति पठनीयं वाचनान्तरे-तथादर्शनात; 'कल्लाकल्लिं'ति-प्रतिदिनं 'खेलासवेत्यादि,-खेल-निष्ठीवनं, तदाश्रवतिक्षरतीति खेलावं तस्य एवं शेषाण्यपि पदानि, नवरं वान्तं-वमनं पित्रं-दोषविशेषः,शुक्र-सप्तमो धातुः, शोणितं-आवं ACARAIजIANS Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-श्री नवाङ्गी१०० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे FFECACI मल्ली ज्ञाताध्य० शक्रासनचलनादि ॥१५६॥ वर्णन सूत्रम् । NAACARSAAMROGRECE सामान्येन वा रुधिरं, 'पूर्य'-परिपक्कं तदेव दुरूपौ-विरूपावुच्छासनिम्म्चासौ यस्य तत्तथा तस्य, दुरूपेण मृत्रकेण पूतिकेन वा-अशुभगन्धवता पुरीषेण पूर्ण यत्तचथा तस्य, तथा शटनं-अङ्गुल्यादेः कुष्ठादिना पतनं छेदनं-बाहादेर्विध्वंसनं च-क्षयः एते धर्माः-स्वभावा यस्य तत्तथा तस्य, 'सज्जह'-सज्जत सङ्गं कुरुत, 'रज्यत'-रागं कुरुत, 'गिज्झह'-गृध्यत गृद्धि प्राप्तभोगेष्वप्तिलक्षणां कुरुत, 'मुझह'-मुह्यत मोहं-तद्दोषदर्शने मृढत्वं कुरुत, 'अज्झोववजह'-अध्युपपद्यध्वं तदप्राप्तप्रापणायाध्युपपत्ति-तदेकाग्रतालक्षणां कुरुत, 'किंथ तयं'-गाहा, 'कि'मिति प्रश्ने, 'थ' इति वाक्यालङ्कारे, 'तकत् तत् 'पम्हुति विस्मृतं, 'जति यत् थ इति वाक्यालङ्कारे, 'तदा'-तस्मिन् काले 'भो' इत्यामन्त्रणे, 'जयंतप्रवरें-जयन्तामिधाने प्रवरेऽनुत्तरविमाने, 'वुत्थति-उषिता निवासं कृतवन्तः, 'समयनिबर्द्ध'-मनसा निबदसङ्केतं यथा प्रतिबोधनीया वयं परस्परेणेति, समकनिबद्धां वा-सहितैर्या उपात्ता जातिस्तां देवाः अनुत्तरसुराः सन्तः, 'त'ति-त एव तां वा देव- | सम्बधिनी स्मरत जाति-जन्म ययमिति ॥१॥ तेणं कालेणं २, सक्कस्सासणं चलति, तते णं सक्के देविंदे ३, आसणं चलियं पासतिर, ओहिं पउंजति२, मल्लिं अरहं ओहिणा आभोएतिर, इमेयारूवे अन्भथिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु जंबुद्दीवेर, भारहे वासे, मिहिलाए, कुंभगस्स. मल्ली अरहा निक्खमिस्सामित्ति मणं पहारेति, तं जीयमेयं तीयपच्चुप्पन्नमणागयाणं सकाणं३, अरहंताणं, भगवंताणं, निक्खममाणाणं, इमेयारूवं अत्थसंपयाणं दलि१°स्स, तथा दु । A N + १५६॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त; तंजा - " तिण्णेव य कोडिसया अट्ठासीतिं च होंति कोडीओ । असितिं च सयसहस्सा इंदा दलयंति अरहाणं ॥ १ ॥ एवं संपेहेति २, वेसमणं देवं सहावेति २ ता०, एवं खलु देवाणु० !, जंबुद्दीवे २, भारहे वासे जाव असीतिं च सयसहस्साइं दलहत्तए, तं गच्छह णं देवाणुप्पिया!, जंबु०, भारहे०; कुंभगभवणंसि इमेयारूवं अत्थसंपदाणं साहराहि२, विप्पामेव मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणाहि; तते णं से समणे देवे सकेणं देविंदेणं एवं वृत्ते हट्ठे करयल जाव पडिसुणेइ२, जंभए देवे सहावेह२, एवं वयासीगच्छहणं तुभे देवाणु० !, जंबुद्दीवं दीवं, भारहं वासं, मिहिलं रायहाणिं, कुंभगस्स रन्नो भवणंसि, तिन्नेव य कोडिसया अट्ठासीयं च कोडीओ असियं च सयसहस्साइं अयमेयारूवं अत्यसंपयाणं साहरह २, मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह; तते णं ते जंभगा देवा वेसमणेणं जाव सुणेत्ता, उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवक्कमंति२, जाव उत्तरवेउब्वियाई रुवाईं विहव्वंति२, ताए उक्किट्ठाए जाव वीइवयमाणा जेणेव जंबुद्दीवे २, भारहे वासे, जेणेव मिहिला रायहाणी, जेणेव कुंभगस्स रण्णो भवणे, तेणेव उबागच्छंति२, कुंभगस्स रन्नो भवणंसि, तिन्नि कोडिसया जाव साहरंति२, जेणेव वेसमणे देवे, तणेव उवा०२, करयल जाव पञ्चप्पिणंति; तते णं से वेसमणे देवे, जेणेव सक्के देविंदे देवराया, तेणेव उवागच्छइ२, करयल जाव पचप्पिणत्ति; तते णं मल्ली अरहा कल्ला कलिं जाव मागहओ पायरासोत्ति बहूणं सणाहाण य, अणाहाण य, पंथियाण य, पहियाण य, करोडियाण य, कप्पडियाण य, एगमेगं २७ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-श्रीमल्ली नवाङ्गी- हिरणकोडिं अट्ठ य अणणाति सयसहस्साति इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलयतिः तए णं से कुंभए मिहि३. वृ.12 लाए राय०, तत्थ २, तहिं २, देसे २, बहूओ महाणससालाओ करेति; तत्थ णं बहवे मणुया दिण्णभइमीज्ञाता- भत्तवेयणा विपुलं असण४, उवक्खडेंति२, जे जहा आगच्छंति, तं०-पंथिया वा, पहिया वा, करोडिया ज्ञाताध्य. धर्मकथाले वा, कप्पडिया वा, पासंडत्था वा, गिहत्था वा, तस्स य तहा आसत्थस्स वीसत्थस्स सुहासणवरगत. सांवत्सतं विपुलं असणं४, परिभाएमाणा परिवेसेमाणा विहरंति; तते णं मिहिलाए सिंघाडग जाव बहुजणो अण्ण रिकदान.१५७॥ मण्णस्स एवमातिक्खति-एवं खलु देवाणु., कुंभगस्स रण्णो भवणंसि सव्वकामगुणियं, किमिच्छियं | वर्णनविपुलं असणं४ बहूणं समणाण य जाव परिवेसिजति; वरवरिया घोसिजति किमिच्छियं दिजए बहुवि सूत्रम् । हीयं । सुरअसुरदेवदाणवनरिंदमहियाण निक्खमणे ॥१॥ तते णं मल्ली अरहा संवच्छरेणं तिन्नि कोडिसया, अट्ठासीतिं च होंति कोडीओ, असितिं च सयसहस्साइं, इमेयारूवं अत्थसंपदाणं दलइत्ता, निक्खमामित्ति मणं पहारेति ।। सूत्रम्-८२ ॥ तेणं कालेणं २, लोगंतिया देवा, बंभलोए कप्पे, रिटे विमाणपत्थडे सएहिं२ विमाणेहिं, सरहिं २, पासायवडिसएहिं; पत्तेयंर, चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं, तिहिं परिसाहिं, सत्तहिं अणिएहिं, सत्तहिं अणियाहिबई हिं, सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं, अन्नेहि य बहहिं लोगंतिएहिं देवेहिं सद्धिं संपरिवुडा, महयाहयनगीयवाइय जाव रवेणं भुंजमाणा विहरहा तंजहा-"सारस्सयमाइचा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वाबाहा अग्गिचा चेव रिहा य |॥१५७ ॥ 56545CACACANCIENCE गाजाIES Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥१॥" तते णं तेसिं लोयंतियाणं देवाणं पत्तेयं२, आसणातिं चलंति, तहेव जाव अरहंताणं निक्खममाणाणं संबोहणं करेत्तए त्ति तं गच्छामो णं अम्हेवि मल्लिस्स अरहतो संबोहणं करेमि त्तिकद्दु एवं संपेहेंति२, उत्तरपुरच्छिमं दिसीभायं० वेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणंति २ संखिज्जाइं जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुंभगस्स रन्नो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छंति२, अंतलिक्खपडिवन्ना सखिखिणियाइं जाव वत्थाति पवर परिहिया करयल०, ताहिं इट्ठा०, एवं वयासी-बुज्झाहि भगवं, लोगनाहा पवत्तेहि, धम्मतित्थं जीवाणं हियसुहनिस्सेयसकरं भविस्सति, त्तिकटु दोचपि तचंपि एवं वयंति२, मल्लिं अरहं वंदति, नमसंतिर, जामेव दिसिं पाउब्भूआ, तामेव दिसि पडिगया तते णं मल्ली अरहा तेहिं लोगंतिएहिं देवेहिं संबोहिए समाणे जेणेव अम्मापियरोतेणेव उवा०२, करयल० इच्छामि णं अम्मयाओ, तुन्भेहिं अन्भणुण्णाते मुंडे भवित्ता जाव पव्वतित्तए, अहासुहं देवा!, मा पडिबंध करेहि तते णं कुंभए कोडुंबियपुरिसे सहावेति२, एवं वदासी-खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवणियाणं जाव भोमेजाणंति, अण्णं च महत्थं जाव तित्थयराभिसेयं उवट्टवेह जाव उवट्ठवेंति; तेणं कालेणं २, चमरे असुरिंदे जाव अच्चुयपज्जवसाणा आगया; तते णं सक्के३, आभिओगिए देवे सद्दावेतिर, एवं वदासी-खिप्पामेव अट्ठसहस्सं सोवणियाणं जाव अण्णं च तं विउलं उवट्ठवेह जाव उवट्ठवेंति, तेवि कलसा ते चेव कलसे अणुपविट्ठा; तते ण से सके देविंदे देवराया कुंभराया मल्लिं अरहं सीहासणंसि SAHANISEX Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-श्री मल्ली नवाङ्गी१०० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे ॥१५८॥ CHUSBASSA ज्ञाताध्य. दीक्षामिषेकादिवर्णनसूत्रम् । पुरस्थाभिमुहं निवेसेह, अट्ठसहस्सेणं सोवणियाणं जाव अभिसिंचंति; तते णं मल्लिस्स भगवओ अभिसेए बट्टमाणे, अप्पेगतिया देवा मिहिलं च सभितरं बाहिं आव सव्वतो समता परिधावंति; तए णं कुंभए राया दोचंपि उत्तरावकमणं जाव सम्वालंकारविभूसियं करेति २, कोडंपियपुरिसे सद्दावेइ २त्ता, एवं वयासी-खिप्पामेव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह, ते उवट्ठवेंति; तते णं सके३, आभिओगिए०, खिप्पामेव अणेगखंभ० जाव मणोरमं सीयं उवट्ठवेह जाव सावि सीया तं चेव सीयं अणुपविट्ठा; तते णं मल्ली अरहा सीहासणाओ अब्भुढेतिर, जेणेव मणोरमा सीया, तेणेव उवा०२, मणोरमं सीयं अणुपयाहिणीकरेमाणा मणोरमं सीयं दुरूहति २, सीहासणवरगए पुरत्याभिमुहे सन्निसन्ने; तते णं कुंभए अट्ठारस सेणिप्पसेणीओ सद्दावेति२, एवं वदासी-तुन्भे णं देवाणुप्पिया !, पहाया जाव सव्वालंकारविभूसिया मल्लिस्स सीयं परिवहह जाव परिवहंति; तते णं सके देविंदे देवराया मणोरमाए दक्खिणिल्लं उवरिल्लं बाहं गेण्हति, ईसाणे उत्तरिल्लं उवरिल्लं बाहं गेण्हति, चमरे दाहिणिल्लं हेछिल्लं, बली उत्तरिल्लं हेडिल्लं, अवसेसा देवा जहारिहं मणोरमं सीयं परिवहंति "पुब्धि उक्खित्ता माणुस्सेहिं, तो हहरोमकूवेहिं । पच्छा वहंति सीयं, असुरिंदसुरिंदनागेंदा ॥१॥ चलचवलकुंडलधरा सच्छंदविउब्वियाभरणधारी । देविं. ददाणविंदा, वहंति सीयं जिणिंदस्स ॥ २ ॥” तते णं मल्लिस्स अरहओ मणोरमं सीयं दुरूढस्स इमे १०ता संपरि० अ। २ व्याकयबलिकम्मा जा० । 4IEAFEISAR GARL) १५८ ॥ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अट्ठट्ठमंगला पुरतो, अहाणु० एवं निग्गमो जहा जमालिस्स, तते णं मल्लिस्स अरहतो निक्खममाणस्स अप्पे, देवा मिहिलं आसिय० अभिंतरवासविहिगाहा जाव परिधावति; तते णं मल्ली अरहा, जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे, जेणेव असोगवरपायवे, तेणेव उवा०, सीयाओ पचोरुभति२, आभरणालंकारं पभा वती पडिच्छति तते णं मल्ली अरहा सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति, तते णं सके देविंदे३, मल्लिस्स केसे परिच्छति, खीरोदगसमुद्दे पक्खिवह; तते णं मल्ली अरहा णमोत्थु णं सिद्धाणं तिकट्टु सामाइयचरितं पडिवज्जति, जं समयं च णं मल्ली अरहा चरितं पडिवज्जति, तं समयं च णं देवाणं माणूसाण य णिग्घोसे तुरियनिणायगीयवातियनिग्धो से य सकस्स वयणसंदेसेणं णिलुके यावि होत्था, जं समयं च मल्ली अरहा सामातियं चरितं पडिवन्ने, तं समयं च णं मल्लिस्स अरहतो माणुसधम्माओ उत्तरिए मणपज्जवनाणे समुत्पन्ने, मल्ली णं अरहा जे से हेमंताणं, दोघे मासे, चउत्थे परूखे, पोससुद्धे, तस्स णं पोससुद्धस्स एक्कारसीपक्खेणं, पुत्रवण्हकालसमयंसि, अट्टमेणं भत्तेणं अपाणएणं, अस्सिणीहिं नक्वत्तेणं जोगमुवागणं, तिहिं इत्थीसएहिं अभितरियाए परिसाए, तिहिं पुरिससएहिं बाहिरियाए परिसाए, सद्धिं मुंडे भविता पव्वइए; मल्लि अरहं इमे अट्ठ रायकुमारा, अणुपव्वसु तंजहा -" णंदे य णंदिमित्ते, सुमित बलमित्त भाणुमित्ते य । अमरवति अमरसेणे महसेणे चेव अट्ठमए ॥ १ ॥ " तए णं से भववई४, मल्लिस्स अरहतो निक्खमणमहिमं करेंति२, जेणेव नंदीसरवरे०, अट्ठाहियं करेति २, जाव पडि Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मल्ली नवाङ्गी१०० मीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ १५९॥ REACHECKROADCAUSA. गया; तते णं मल्ली अरहा जं चेव दिवसं पव्वतिए, तस्सेव दिवसस्स पुव्वा (पच्च) वरण्हकालसमयंसि, ८-श्रीअसोगवरपायवस्स अहे पुढविसिलापट्टयंसि; सुहासणवरगयस्स सुहेणं परिणामणं पसत्थेहिं अज्झवसाद णेहिं पसत्याहिं लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तयावरणकम्मरयविकरणकरं अपुव्वकरणं अणुपविट्ठस्स अगंते *ज्ञाताध्य. जाव केवलनाणदंसणे समुप्पन्ने । सूत्रम्-८३ ॥ दीक्षाकेवलजाव मागहओ पायरासो'त्ति-मगधदेशसम्बन्धिनं प्रातराशं-प्राभातिकं भोजनकालं यावत् प्रहरद्वयादिक ज्ञानादिमित्यर्थः, 'बहण'मित्यादि, सनाथेभ्यः-सस्वामिकेम्यः, अनाथेभ्यो-रकेभ्यः, पंथियाणं'ति-पन्थानं नित्यं गच्छतीति वर्णनपान्थास्त एव पान्थिकास्तेभ्यः, 'पहियाण'ति-पथि गच्छन्तीति पथिकास्तेभ्यः प्रहितेभ्यो वा केनापि कचित्-प्रेषितेभ्य सूत्रम् । इत्यर्थः, करोट्या-कपालेन चरन्तीति करोटिकास्तेभ्यः, क्वचित-'कायकोडियाणं "ति पाठस्तत्र काचो-भारोद्वहन तस्य कोटी-भागः काचकोटी तया ये चरन्ति काचकोटिकास्तेभ्यः; कर्पटेश्वरन्तीति-कार्पटिकाः कापटिका वा-कपटचारिणस्तेभ्यः, एगमेगं हत्थामासंति-वाचनान्तरे-दृश्यते, तत्र हस्तेन हिरण्यस्यामर्शः-परामर्शो ग्रहो हस्तामर्शः तत्परिमाणं हिरण्यमपि स एवोच्यते, अतस्तमेकैकमेकैकस्मै ददाति स्म, प्रायिकं चैतत्सम्भाव्यते 'वरवरिया घोसिज्जइ किमिन्छियं दिजए बहुविहीय'ति वचनात् , अत एव 'एगा हिरणकोडी' त्याद्यपि शकार्पितहिरण्यदानप्रमाणमेव, यतोऽन्यदपि स्वकीयधनधान्यादिगतं दानं सम्भवतीति, 'तत्थ तत्थ 'त्ति-अवान्तरपुरादौ देशे देशे-श्रृङ्गाटकादौ, 'तहिं तहिति-तत्र तत्र महापथपथादीनां भागे भागे अतिबहुषु स्थानेविति तात्पर्यमिति, महानससाला-रसवतीगृहाणि, 'दिपणभयभत्त- ॥ १५९ ॥ |||MAICH Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SARANASI वेयण'त्ति-दत्त-वितीर्ण भूतिभक्तलक्षणं द्रव्यभोजनस्वरूपं, वेतनं-मूल्यं येभ्यस्ते तथा, 'पासंड'त्ति-लिङ्गिनः, 'सव्वकामगुणिय'ति-सर्वे कामगुणा-अभिलषणीयपर्याया रूपरसगन्धस्पर्शलक्षणाः सन्ति सञ्जाता वा यत्र तत् सर्वकामगुणिकं सर्वकामगुणितं वा, का किमीप्सतीत्येवमिच्छानुसारेण यद्दीयते तक्किमीप्सितं, बहुभ्यः श्रमणेभ्यो ब्राह्मणेभ्यः सनाथेभ्य इत्यादि पूर्ववत् , 'सुरासुरियंति-वाचनान्तरे दृश्यते, तत्र भोजने अयं च सूरोऽयं च सूरो भुक्तां च यथेष्टमित्येवं या परिवेषणक्रिया सा सूरामरिका पुटापुटिकादीनामिवात्र समासः तया सूरामरिकया, तृतीयार्थे चेह सूत्र निर्देशे द्वितीया द्रष्टव्येति 'वरवरिया'-गाहा वरस्य-इष्टार्थस्य वरण-प्रहणं वरवरिका, वरं वृणुत वरं वृणुतेत्येवं संशब्दनं वरवरिकेति भावः, सुरासुरैर्देवदानवनरेन्द्रश्च महिता ये ते तथा तेषां; 'सारस्सय' गाहा, सारस्वताः१, आदित्या:२, वह्वयो३, वरुणाच४, गतोयाश्च५, तुषिताः६, अन्यावाधा:७, आग्नेयाश्चे८, त्यष्टौ कृष्णराज्यवकाशान्तरस्थविमानाष्टकवासिनो रिष्ठाश्चेति रिष्ठाख्यविमानप्रस्तटवासिनः; क्वचित्-दशविधा एते व्याख्यायन्ते, अस्माभिस्तु स्थानाङ्गानुसारेणैवममिहिताः; 'हहरोमकवेहिति-रोमाश्चितः, 'चलचवलकुंडलधर'ति-चलाश्च ते चपलकुण्डलधराश्चेति विग्रहः, 'सच्छंदविउब्वियाभरणधारित्ति-स्वच्छन्दाश्च ते विकुर्विताभरणधारिणश्च स्वच्छन्देन वा-स्वाभिप्रायेण विकुर्वितान्याभरणानि धारयन्तीति विग्रहः, 'जहा जमालिस्स'त्ति-भगवत्यां यथा जमाले निष्क्रमण तथेह वाच्यमिहैव वा यथा मेघकुमारस्य, नवरं चामरधारितरुण्यादिषु शक्रेशानारीन्द्रप्रवेशत इह विशेषः, 'आसिय० अभंतरा वास विहि गाहा' इति, 'अप्पेगहया देवा मिहिलं रायहाणिं सम्भितरवाहिरं आसियसंमजियं संमहसुइरत्यंतरावणवीहियं करेंति,' 'अप्पेगइया देवा मंचाइमंचकलियं करेंति'त्यादि OCAFERAIIMIRESSIS ee Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-श्री नवाङ्गी१०० भीज्ञाताधर्मकथाले ती'त्येतदवसानाति-शुद्धपक्षस्य जातकुमारा A ॥१६०॥ RECAUTOCALCUSALUCC436 मेंघकुमारनिष्क्रमणोक्तनगरवर्णकस्य' तथा-'अप्पेगहया देवा हिरण्णवासं वासिंसु एवं सुवनवासं वासिंसु एवं रयणवहरपुप्फमल्लगंधचुण्णाभरणवासं वासिंसु' इत्यादिवर्षसमूहस्य, तथा-'अप्पेगइया देवा हिरण्णविहिं माइंसु एवं' सुवण्णचुण्णविहि श्रीमल्लीमाइंसु' इत्यादिविधिसमूहस्य तीर्थकरजन्माभिषेकोक्तसङ्ग्रहार्था याः कचित्-गाथाः सन्ति, ताः अनुश्रित्य सूत्रमध्येयं यावद्, ज्ञाताध्य० 'अप्पेगइया देवा आधावेंति परिधावन्ती'त्येतदवसानमित्यर्थः, इदं च राजप्रश्नकृतादौ द्रष्टव्यमिति; 'निलुके'त्ति- जमालिवनिलुक्कोऽन्तर्हित इत्यर्थः, 'सुद्धस्स एक्कारसीपक्खण'ति-शुद्धपक्षस्य या एकादशी तिथिस्तत्पक्षे तद णमित्यलङ्कारे, निष्क्रमणा'णायकुमार'त्ति-ज्ञाता:-इक्ष्वाकुवंशविशेषभूताः, तेषां कुमारा:-राज्यारे ज्ञातकुमाराः; 'तस्सेव दिवसस्स पुव्वा(पच्च)- दिवर्णनम्। वरण्हकालसमयंसित्ति-यत्र दिवसे दीक्षां जग्राह, तस्यैव पोषमासशुद्धैकादशीलक्षणस्य प्रत्यपराह्नकालसमये-पश्चिमे भागे इदमेवावश्यक पूर्वाहे मार्गशीर्षे च श्रूयते, यदाह-'तेवीसाए णाणं उप्पन जिणवराण पुवण्हे ति, तथा 'मग्गसिरसुद्धएक्कारसीए मल्लिस्स अस्सिणीजोगि'त्ति तथा तत्रैवास्याहोरात्रं यावच्छमस्थपर्यायः श्रूयते, तदत्राभिप्रायं बहुश्रुता विदन्तीति, 'कम्मरयविकरणकरंति कर्मरजोविक्षेपणकारि अपूर्वकरणमष्टमगुणस्थानकं, अनन्तं विषयानन्तत्वात्यावत्करणादिदं द्रष्टव्यं, अनुत्तरं-समस्तज्ञानप्रधान, निर्व्याघातं-अप्रतिहतं, निरावरण-क्षायिक, कृत्स्नं-सर्वार्थग्राहकत्वात, प्रतिपूर्णसकलस्वांशयुक्तत्वात्, पौर्णमासीचन्द्रवत् केवलवरज्ञानदर्शनं संशुद्धं वरविशेषग्रहणं सामान्यग्रहणं चेत्यर्थः। तेणं कालेणं२, सव्वदेवाणं आसणाति चलंति, समोसढा, सुणेति अट्ठाहियमहा. नंदीसरं, जामेव दिसं पाउ०, कुंभएवि निग्गच्छति । तते णं ते जितसत्तुपा०, छप्पि०, जेट्टपुत्ते रज्जे ठावेत्ता, पुरिससहस्स-2॥१६० ।। ASHRESTHA Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SAYRI ॐ वाहिणीयाओ दुरूढा, सव्विड्डीए जेणेव मल्ली अ० जाव पज्जुवासंति: तते णं मल्ली अ० तीसे महालियाए कुंभगस्स तेसिंच जियसत्तुपामुक्खाणं धम्मं कहेति, परिसा जामेव दिसिं पाउन्भूया, तामेव दिसिं पडिगया, कुंभए समणोवासए जाते, पडिगए, पभावती य, तते णं जितसत्त छप्पि राया धम्मं सोचा, आलित्तए णं भंते ! जाव पव्वइया, चोहसपुब्विणो अणंते केवले सिद्धा; तते णं मल्ली अरहा सहसंब. वणाओ निक्खमति२, बहिया जणवयविहारं विहरइ; मल्लिस्स ण भिसगपामोक्खा अट्ठावीसं गणा अट्ठा. वीसं गणहरा होत्था, मल्लिस्स णं अरहओ चत्तालीसं समणसाहस्सीओ उक्को०, बंधुमतिपामोक्खाओ पणपणं अज्जियासाहस्सीओ उक्को, सावयाणं एगा सतसाहस्सी चुलसीतिं सहस्सा, सावियाणं तिन्नि सयसाहसीओ पण्णढिंच, सहस्सा छस्सया चोद्दसपुवीणं, वीससया ओहिनाणीणं, बत्तीसं सया केवलणाणीणं, पणतीसं सया वेउब्बियाणं, अट्ठसया मणपजवनाणीणं, चोइससया वाईणं, वीसं सया अणुत्तरोववातियाणं;मल्लिस्स अरहओ दुविहा अंतगडभूमी होत्था,तंजहा-जुयंतकरभूमी परियायतकरभूमी य, जाव बीसतिमाओ पुरिसजुगाओ जुयंतकरभूमी, दुवासपरियाए अंतमकासी; मल्ली णं अरहा पणुषीसं धणूतिमुढे उच्चत्तेणं, वण्णेणं पियंगुसमे, समचउरंससंठाणे, बजरिसभणारायसंघयणे, मज्झदेसे सुहंसुहेणं विहरित्ता, जेणेव सम्मेए पव्वए, तेणेव उवागच्छह २ त्ता, संमेयसेलसिहरे पाओवगमणुववण्णे, मल्लीण १०या जाब चो• अ। G ॐॐROGRES% ARCAF Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८-श्रीमल्ली नवाङ्गी१०० भीज्ञाताधर्मकथाङ्गे य एगं वाससतं आगारवासं, पणपण्णं वाससहस्सातिं वाससयऊणातिं केवलिपरियागं पाउणित्ता, पणपणं वाससहस्साई सव्वाउयं पालइत्ता; जे से गिम्हाणं, पढमे मासे, दोचे पक्खे, चित्तसुद्धे तस्स णं चेत्तसुद्धस्स चउत्थीए, भरणीए णक्खत्तेणं, अद्धरत्तकालसमयंसि, पंचहिं अज्जियासएहिं अभितरियाए * ज्ञाताध्य परिसाए, पंचहिं अणगारसएहिं बाहिरियाए परिसाए, मासिएणं भत्तेणं अपाणएणं, वग्घारियपाणी श्रीमल्लीखीणे वेयणिज्जे, आउए, नामे, गोए; सिद्धे एवं परिनिव्वाणमहिमा भाणियब्वा;-जहा जंबुद्दीवपण्णत्तीए, निर्वाणानंदीसरे अट्ठाहियाओ पडिगयाओ; एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं अट्ठमस्स नायज्झयणस्स लदिवर्णनम्। अयमढे पण्णत्ते त्तिबेमि ॥ सूत्रम्-८४ ॥ मल्लीणायज्झयणं संमत्तं ॥ ८॥ ॥१६१ ___ 'अट्टाहियामहिमं 'ति-अष्टानामहां समाहारोऽष्टाहं, तदस्ति यस्यां महिमायां साऽष्टाहिका, इदं च व्युत्पत्तिमात्र, प्रवृत्तिस्तु महिमामात्र एवेति दिवसस्य मध्ये तदुयं न विरुध्यते इति; 'दुविहा अंतकरभूमि 'ति-अन्तकरा:-भवान्तकराः निर्वाणयायिनस्तेषां भूमि-कालान्तरभूमिः, 'जुयंतकरभूमी त्ति-इह युगानि-कालमानविशेषास्तानि च क्रमवर्तीनि तत्साधाये क्रमवार्तनो गुरुशिष्यप्रशिष्यादिरूपाः पुरुषास्तेऽपि युगानि तैः प्रमिताऽन्तकरभूमिः युगान्तकरभूमिः, 'परियायंतकरभूमी ति पर्याय:-तीर्थकरस्य केवलित्वकालस्तमाश्रित्यान्तकरभृमिर्या सा तथा तत्र, 'जावे त्यादि इह पञ्चमी द्वितीयार्थे द्रष्टव्या ततो यावद्विंशतितमं पुरुष एव युगं पुरुषयुगं विंशतितम प्रतिशिष्यं यावदित्यर्थः, युगान्तकरभूमिमल्लिजिनस्याभवत्। CAL Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 3E3 PROCYCHOCIज A मल्लिजिनादारभ्य तत्तीर्थे विंशतितमं पुरुष यावत् साधवः सिद्धास्ततः परं सिद्धिगमनव्यवच्छेदोऽभूदिति हृदयं, 'दुवासपरियाए'त्ति-द्विवर्षपर्याये केवलिपर्यायापेक्षया भगवति जिने सति अन्तमकार्षीत्-भवान्तमकरोत् , तत्तीर्थे साधु रात् कश्चिद पीति 'दुमासपरियाएं' इति क्वचित् , कचिच्च-'चउमासपरियाए' इति दृश्यते; 'वग्घारियपाणी'ति-प्रलम्बितभुजा, 'जहा जबुद्दीवपन्नत्तीए'त्ति, यथा जम्बूद्वीपप्रज्ञायां ऋषभस्य निर्वाणमहिमोक्तस्तथेह मल्लिजिनस्य वाच्य इत्यर्थः, स चैवमर्थतःयत्र समये मल्लिरहन् कालगतो व्यतिक्रान्तः समुद्घातः छिनजातिजरामरणबन्धनः सिद्धः, तत्र समये शक्रश्चलितासनः प्रत्युक्तावधिर्विज्ञातजिननिर्वाणः सपरिवारः सम्मेतशैलशिखरेऽवततार, ततोऽसौ विमना निरानन्दोऽश्रुपूर्णनयनो जिनशरीरक त्रिप्रदक्षिणीकृत्य अनतिदुरासन्ने नमस्यन् पर्युपास्ते स्म, एवं सर्वेऽपि वैमानिकादयो देवराजाः, ततः शक्रो देवनन्दनवनात आनायितगोशीर्षसरसदारुविहितचितित्रयः क्षीरसमुद्रादानीतक्षीरोदकेन जिनदेहं स्नापयामास, गोशीर्षचन्दनेनानुलिलेप, हंसलक्षणं शाटकं निवासयामास, सर्वालङ्कारविभूषितं चकार, शेषा देवा गणधरानगारशरीरकाण्येवं चक्रुः शक्रस्ततो देवैस्तिस्रः | शिविकाः कारयामास, तत्रैकत्रासौ जिनशरीरमारोपयामास, महद्धर्या च चितिस्थाने नीत्वा चितिकायां स्थापयामास, शेषदेवा | गणधरानगारशरीराणि द्वयोः शिविकयोरारोप्य चित्योः स्थापयामासुः; ततः शक्रादेशादग्निकुमारा देवास्तिमृध्वपि चितिप्वग्निकार्य विकृतवन्तो वायुकुमारास्तु वायुकायं, शेषदेवाश्च कालागुरुप्रवरकुन्दरुकतुरुक्कधूपान् घृतं मधु च कुम्भारशः प्रचिक्षिपुः ततो मांसादिषु दग्धेषु मेघकुमारा देवाः क्षीरोदकेन चितीनिर्वापयामासुः, ततः शक्रो भगवतो दक्षिणमुपरितनं सक्थि जग्राह, ईशानश्च वाम, चमरोऽधस्तनं दक्षिण, बलिमिं, शेषा यथार्हमङ्गोपाङ्गानि गृहीतवन्तः, ततस्तीर्थकरादिचितिक्षि A % OGRAFe A5 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवानी ८-श्रीमल्ली SUCAजार A श्रीज्ञाताधर्मकथा तिषु महास्तूपान् चक्रुः, परिनिर्वाणमहिमानं चः ततः शक्रो नन्दीश्वरे गत्वा पूर्वस्मिन्नञ्जनकपर्वते जिनायतनमहिमानं चकार, तल्लोकपालास्तु चत्वारश्चतुषु पूर्वाञ्जनपार्श्ववर्तिषु दधिमुखपर्वतेषु सिद्धायतनमहिमानं चक्रुः एवमीशानः उत्तरस्मिस्तल्लोकपालास्तत्पाचवचिदधिमुखेषु, चमरो दक्षिणाञ्जनके तल्लोकपालास्तथैव, बलिः पश्चिमेऽञ्जनके तल्लोकपालास्तथैव ततः शक्रः स्वकीये विमाने गत्वा सुधर्मसभामध्यव्यवस्थितमाणवकामिधानस्तम्भवर्त्तिवृत्तसमुद्गकानवतार्य सिंहासने निवेश्य, तन्मध्यवर्जिजिनसक्थीन्यपूपुजन मल्लिजिनसक्थि च तत्र प्राक्षिपद् , एवं सर्वे देवा इति; 'एव'मित्यादि निगमनम् / इह च जाते यद्यपि दृष्टान्तदार्शन्तिकयोजना सूत्रेण न दर्शिता, तथापि द्रष्टव्या, अन्यथा ज्ञातत्वानुपपत्तेः; सा च किलैवम्-"उग्गतवसंजमवओ पगिट्ठफलसाहगस्सवि जियस्स | धम्मविसएवि सुहुमानि होइ माया अमत्थाय // 1 // जह मल्लिस्स महाबलभवंमि तित्थयरनामबंधेवि / तबविसय थेवमाया जाया जुवइचहेउत्ति // २॥"समाप्तमिदमष्टमज्ञाताध्ययनविवरणम् / 162 // पति व मालकामियानक काल AGRICARREARCISHARE ज्ञाताध्य. | निर्वाण स्थाने स्तूपादि रचना| वर्णनम्। 1 मा० उप्रतपःसंयमवतः प्रकृष्टफलसाधकस्यापि जीवस्य धर्मविषयाऽपि सूक्ष्माऽपि भवति माया पुनरनाय // 1 // यथा मल्लया महाबलभवे तीर्थकरनामबन्धेऽपि तपोविषया स्तोका माया जाता युवतिभावहेतुः // 2 // CCHERS 162 //