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________________ आचार्यो. ते जेनी विवक्षा करवामां आवे छे एवा साधुने आहारादिथी शरीरने टेकाभूत करवान जुदी रीते श्रवण करी आचार्यों ठपको आपे छे ज्यारे वेदना वैयावच्चादिनुं पुष्ट कारण तेओने जणावे छे त्यारे आचार्यों तुष्ट थाय छे. उपसंहार-आ दृष्टान्तथी धन्यशेठनो जेम जेलमा विजयचोरने खावा- आपवामां फक्त हेतु शरीरनी बाधा दूर करवा पूरतो अने पोतानी अनुकूलता साचववा पूरतोज हतो, तेवी रीते साधु साध्वीओए फक्त धर्मनी आराधनामां टेकाभूत थाय तेज हेतुथी 3 शरीरने पोषणकारी आहारादि ले परन्तु वर्णरूप-बलादिनी पुष्टिमाटे आहार वगेरे ले तो तेओ धन्यशेठनी जेम उत्तरोत्तर कस्याण साधी मुक्तिसुखने पामे छे: आ रीतिए द्वितीय अध्ययननो सारांश समाप्त थाय छे. तृतीय-श्रीअण्डकाध्ययन-सारांशः। कथाप्रारम्भ अने बे श्रेष्ठिपुत्रोनी वनविहारI ते काले ते समये (प्रभु जे समये आ कथा कही रह्या छे ते काल अने समये ) अतिसमृद्धिथी भरपूर चंपा नामनी नगरी IN का विषे धनिक तरीके प्रसिद्ध जिनदत्त अने सागरदत्त नामना सार्थवाहना बे पुत्रो जिगरजान मित्ररूपे एकचित्तवाला हता. बन्ने मित्रो है सांसारिक आदि कार्योमां अने सुख-दुःखमां दिलचोरी वगर एकएकना सहकारी बनीने नाना मोटा तमाम कार्यों साथे मलीनेज करवानो दृढ संकेत-निश्चय कर्यो, ते ज नगरीमां अनेक युवकजनोना हृदयने प्रमोद आपनारी स्त्रीओनी चोसठकलाओमां निपुण देवदत्ता नामनी गणिका रहेती हती. 67
SR No.600322
Book TitleGnata Dharmkathangam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasagarsuri
PublisherSiddhchakra Sahitya Pracharak Samiti
Publication Year1951
Total Pages440
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_gyatadharmkatha
File Size32 MB
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