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________________ नवाड़ी ०वृ० मीज्ञाता धर्मकथाङ्गे ॥ ३३ ॥ पस्तावो करवा लागी. विजयचोर आखी जिंदगी केदखानामां रही घोर वेदना भोगवी लोभना प्रतापे आ भवमां पण दुःखी थयो अने अन्तकाले काल करी नरकादिनां दुःख भोगवतो चारे गतिनां दुःख भोगवशे ! तेवी रीते हे जम्बू ! जे साधु अथवा साध्वी आचार्य उपाध्यायो पासे संयम जीवन अंगीकार करी उत्तम संयम प्राप्त कर्या छतां लोभना प्रतापे घन आदिथी लोभाय छे ते पण आ भवमां दुःखी थई परभवमां पण नरकादिनां दुःखो भोगवतो चारे गतिनां दुःखो पामतो संसारमां रखडशे ! भटकशे ! एक समये राजगृह नगरनी बहार गुणशील चैत्यविषे धर्मघोष नामना आचार्य पधार्या हता, तेओने वंदना - नमस्कार अने धर्मनुं श्रवण करवा घणा लोको गया. धन्यश्रेष्ठी पण वंदना - नमस्कार करवा गया अने तेमनी वाणीनुं श्रवण करी जिनवचनविषे श्रद्धालु थई संयम ग्रहण कर्यु, घणा वर्ष संयमनुं पालन करी अंते एक मासनुं अनशन करी समाधिपूर्वक काल करी सौधर्मदेवलोकमां चारपल्योपमनी स्थितिवाळा देवपणे उत्पन्न थया त्यांथी च्यवीने महाविदेहक्षेत्रमां मोक्षने पामशे. योजना - राजगृहनगरना सरखं मनुष्यक्षेत्र, धन्यशेठना समान साधुनो जीव, विजय चोरना सरखुं शरीर, पुत्रना सरखं निरुपम निरन्तर आनन्दना कारणे संयम ( खराब वृत्तिमां प्रवर्तेल शरीरथी संयमनो घात थाय छे.) आभरण सरखा शब्द-रूप-रस- गन्ध-स्पर्श आदि विषयो. (तेने माटे प्रवर्त्तेला शरीरथी संयमनो घात थाय छे.) बन्नेनुं एक बेडीमा रहेवाना सरखं जीव शरीरने एकमेकपणे रहे, राज्यपुरुषो समान कर्मना परिणाम, पोताना थोडा अपराध सरखा मनुष्य आयुष्यना बन्धना हेतुओ, मूत्र वगेरे मल सरखा पडिलेहण वगैरे व्यापारो, जे कारणथी आहारादिना अभावे जेवी रीते ते विजयचोर मात्रु वगेरे करवामां प्रवत्यों नहीं तेवी रीते आ शरीर पण आहार विना पडिलेहणादि क्रियाओमां प्रवर्त्तवा शक्तिवंत थतुं नथी पन्थक तुल्य मुग्ध साधु, सार्थवाहीना स्थाने परि० ५ द्वितीय श्रीसंघाट काध्ययन सारांश । ॥ ३३ ॥
SR No.600322
Book TitleGnata Dharmkathangam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrasagarsuri
PublisherSiddhchakra Sahitya Pracharak Samiti
Publication Year1951
Total Pages440
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript & agam_gyatadharmkatha
File Size32 MB
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