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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
नहीं है । अतएव आगमकार 'सव्वं कुव्वं न विज्जई' इन शब्दों द्वारा आत्मा के एक स्थान से अन्य स्थान पर जाना आदि परिस्पंदनात्मक-गत्यात्मक क्रियाओं का करना बतलाते हैं । आत्मा को जब सर्वव्यापी और मूर्त्तत्व रहित माना जाता है तब उसकी स्थिति आकाश जैसी बनती है । आकाश जिस प्रकार निष्क्रिय-क्रिया शून्य है उसी प्रकार वह भी क्रिया विरहित होगी । कहा गया है-सांख्य दर्शन में आत्मा अकर्ता-कर्तृत्वरहित, निर्गुणसत्व रजस तमस गुण रहित तथा अभोक्ता-कर्मों के फल के भोक्तृत्व से विवर्जित है । दूसरे शब्दों में वह किसी क्रिया का कर्ता नहीं है, गुण रहित है, कर्मफल भोग रहित है । इस प्रकार आत्मा का अकारकत्त्व सिद्ध होता है।
इस गाथा में 'तु' शब्द का प्रयोग पूर्व वर्णित सिद्धान्तवादियों से सांख्यवादी सैद्धान्तिकों का भेद सूचित करने के लिये हुआ है । वे सांख्य दर्शन में विश्वास रखने वाले जैसा पहले बतलाया गया कि आत्मा को कर्तृत्त्व रहित बताने की धृष्टता-दुराग्रह या ढीठपन करते हैं तथा स्थान-स्थान पर पुनः-पुनः ऐसा प्रतिपादित करते हैं कि प्रकृति ही क्रियाशील है । पुरुष-आत्मा उस क्रिया के फलका भोक्ता-भोगने वाला है । बुद्धि जिस अर्थ को अध्यवसित-परिज्ञात करती है, आत्मा उसका अनुभव करती है यह अकारकवादियों का मत हैं ।
जे ते उ वाइणो एवं, लोए तेसिं कओ सिया ? तमाओ ते तमं जंति मंदा आरंभनिस्सिया ॥१४॥ छाया - ये ते तु वादिन एवं, लोकस्तेषां कुतः स्यात् ?
तमसस्ते तमो यान्ति, मंदा आरंभनि:श्रिताः ॥ अनुवाद - जो वादी इस प्रकार आत्मा को कर्तृत्त्व रहित-अकरणशील मानते हैं, उनके सिद्धान्त के अनुसार-यदि उनके सिद्धान्त को स्वीकार कर लिया जाय तो इस लोक-चार गतियों से युक्त संसार का अस्तित्व ही कैसे सिद्ध हो सकता है-वैसा होने से उसका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता । ऐसे सिद्धान्त का निरुपण करने वाले मंद-अज्ञान से युक्त हैं । वे हिंसादि आरम्भों में संसक्त-संलग्न है । फलतः वे एक अंधकार से निकलकर दूसरे अंधकार में एक प्रकार के अज्ञान से निकल कर दूसरे अज्ञान में प्रवृष्ट होते हैं-उत्तरोत्तर अज्ञान प्राप्त करते जाते हैं।
टीका-साम्प्रतं तज्जीवतच्छरीराकारकवादिनोर्मतं निराचिकीर्षुराह-तत्र ये तावच्छरीराव्यतिरिक्तात्मवादिनः 'एव' मिति पूर्वोक्तया नीत्या भूताव्यतिरिक्तमात्मानमभ्युपगतवन्तस्ते निराक्रियन्ते-तत्र यत्तैस्तावदुक्तम्-'यथा न शरीराद्भिन्नोऽस्त्यात्मे' ति तदसंगतं, यतस्तत्प्रसाधकं प्रमाणमस्ति, तच्चेदम्-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम्, आदिमत्प्रतिनियताकारत्वात्, इह यद्यदादिमत्प्रतिनियताकारं तत्तद्विद्यमानकर्तृकं दृष्टं, यथा घटः, यच्चाऽविद्यमानकर्तृकं तदादिमत्प्रतिनियताकारमपि न भवति, यथाऽऽकाशम्, आदिमत्प्रतिनियताकारस्य चसकर्तृत्वेन व्याप्तेः, व्यापकनिवृत्तौ व्याप्यस्य विनिवृत्तिरिति सर्वत्र योजनीयम् । तथा विद्यमानाधिष्ठातृकानीन्द्रियाणि करणत्वात्, यद्यदिह करणं तत्तद्विद्यमानाधिष्ठातृकं दृष्टं, यथा दण्डादिकमिति, अधिष्ठातारमन्तरेण करणत्वाऽनुपपत्तिः यथाऽऽकाशस्य, हृषीकाणांचाधिष्ठाताऽऽत्मा, स च तेभ्योऽन्य इति, तथा विद्यमानाऽऽदातृकमिदमिन्द्रियविषयकदम्बकम्, आदानादेयसद्भावात्, इह यत्र यत्राऽऽदानादेयसद्भावस्तत्र तत्र विद्यमान आदाता-ग्राहको दृष्टः, यथा
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