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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
छाया कुर्वंश्च कारयँ श्चैव, सर्वां कुर्वन्न विद्यते ।
एवमकारक आत्मा, एवं ते तु प्रगल्भिताः ॥
अनुवाद आत्मा स्वयं कुछ करते हुए नहीं रहती - स्वयं किसी कर्म या क्रिया में उद्यत नहीं होती । न किसी अन्य के द्वारा कोई क्रिया करवाती है । यों वह कुछ भी न करती हुई अवस्थित है । दूसरे शब्दों में वह अकारक - किसी क्रिया की कर्ता नहीं है ।
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टीका - इदानीमकारकवादिमताभिधित्सयाऽऽह - 'कुर्वन्निति स्वतन्त्रः कर्ताऽभिधीयते, आत्मनश्चामूर्तत्त्वान्नित्यत्वात् सर्वव्यापित्वाच्च कर्तुत्त्वानुपपत्तिः, अत एव हेतोः कारयितृत्वमप्यात्मनोऽनुपपन्नमिति, पूर्वश्चशब्दोऽतीतानागतकर्तृत्वनिषेधको द्वितीयः समुच्चयार्थः, ततश्चात्मा न स्वयं क्रियायां प्रवर्तते, नाप्यन्यं प्रवर्तयति, यद्यपि च स्थितिक्रियां मुद्राप्रतिबिम्बोदयन्यायेन [जपास्फटिकन्यायेन च] भुजिक्रियां करोति तथाऽपि समस्तक्रियाकर्तृत्वं तस्य नास्तीत्येतद्दर्शयति- 'सव्वं कुव्वं ण विज्जई' त्ति 'सर्वां' परिस्पन्दादिकां देशदेशान्तर प्राप्तिलक्षणां क्रियां कुर्वन्नात्मा न विद्यते सर्वव्यापित्वेनामूर्तत्वेन चाकाशस्येवात्मनो निष्क्रियत्वमिति, तथा चोक्ताम्-" अकर्ता निर्गुणो भोक्ता, आत्मासाङ्ख्यनिदर्शने" इति । 'एवम्' अनेन प्रकारेणात्माऽकारक इति, 'ते' साङ्ख्याः, तु शब्दः पूर्वेभ्यो व्यतिरेकमाह, ते पुनः साङ्ख्या एवं 'प्रगल्भिता : ' प्रगल्भवन्तो धार्यवन्तः सन्तो भूयोभूयस्तत्र तत्र प्रतिपादयन्ति, यथा “प्रकृति: करोति, पुरुष उपभुङ्क्ते, तथा बुद्धयध्य वसितमर्थं पुरुषश्चेतयते” इत्याद्यकारकवादिमतमिति ॥१३॥
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यहां जो कुर्वन् पद आया है वह सतृ प्रत्यय का रूप है । उसका तात्पर्य है कि वह स्वतन्त्र कर्तृत्त्व तक है। आत्मा अमूर्त मूर्त या आकार रहित नित्य-नाश रहित और सर्वव्यापी है । इसलिये उसमें कर्तृत्त्व उत्पन्न नहीं होता-वह कर्त्ता नहीं हो सकती । जब उसमें स्वयं कर्तृत्त्व नहीं है तो किसी अन्य के द्वारा कारयितृत्त्वक्रिया कराया जाना भी निष्पन्न नहीं होता । इस गाथा में पहले जों 'च' शब्द का प्रयोग हुआ है वह आत्मा के अतीतकालीन और भविष्यकालीन कर्त्तापन का प्रतिषेध करता है । दूसरा 'च' शब्द समुच्चवाचक है । वह पदों को जोड़ता है । अतएव इसका तात्पर्य यह है कि आत्मा स्वयं किसी क्रिया में प्रवृत्त-संलग्न नहीं होत और वह किसी अन्य को किसी क्रिया में संलग्न नहीं कर पाती । 'मुद्रा प्रति बिम्बोदकर तथा जपास्फटिक न्याय' से वह खाना पीना आदि क्रियाएं करती हुई प्रतीत होती है किन्तु वस्तुतः उसका वहां कर्तृत्त्व कर्तापन
टीकार्थ – अकारकवादियों के सिद्धान्त का विवेचन करने की दृष्टि से आगमकार यहां बतलाते हैं
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मुद्राप्रतिबिम्बोदक
किसी दर्पण में यदि कोई मूर्ति प्रतिबिम्बित हो तो वह अपने वहां विद्यमान या अवस्थित होने का कोई प्रयत्न न करने के बावजूद वह उस दर्पण में अवस्थित प्रतीत होती है । इसी प्रकार आत्मा अपनी स्थिति व्यक्त करने हेतु कोई प्रयत्न नहीं करती, न वह कुछ क्रिया ही करती है किन्तु दर्पण के प्रतिबिम्ब की ज्यों करती हुई सी प्रतीत होती है । इसे मुद्राप्रतिबिम्बोदक न्याय कहा जाता है ।
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जपास्फटिक न्याय स्फटिक मणि के समीप जपा नामक लता का पुष्प जो लाल रंग का होता है, तब वह स्फटिक मणि भी लाल रंग की ही दृष्टिगोचर होती है, वस्तुतः वह लाल नहीं होती, सफेद ही रहती है किन्तु लाल रंग के पुष्प की प्रतिच्छाया या परिबिम्ब पड़ने से वह लाल जान पड़ती है इस उदाहरण से यह प्रतिपादित किया जाता है कि सांख्य सिद्धान्त के अनुसार यद्यपि आत्मा भोक्तृत्व रहित है वह कर्मफल भोग नहीं करती परन्तु बुद्धि द्वारा किया जाता भोग, बुद्धि के साथ संसर्ग के कारण आत्मा में प्रतीत होता है इसी कारण आत्मा को भोक्ता माना जाता है । जपास्फटिक न्याय का ऐसा अभिप्राय है ।
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