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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
का पदार्थ उपलब्ध नहीं होता। जैसे कोई चिनगारी को गोल घुमावे तो वह ज्योति का चक्रं सा प्रतीत होता है किन्तु वास्तव में वैसा नहीं होता। इसी प्रकार भूत समुदाय भी विशिष्ट क्रिया से युक्त होकर जीव या आत्मा की भ्रांति उत्पन्न करता है किन्तु वस्तुतः वैसा कुछ नहीं होता । जिस प्रकार स्वप्न में बाह्य पदार्थों के विद्यमान न होने पर भी उनकी अनुभूति होती है इसी प्रकार आत्मा के न होने पर भी भूत समुदाय में तद् विषयक विज्ञान प्रादुर्भूत होता है, वैसी झलक प्रतीत होती है। दर्पण अत्यन्त स्वच्छ होता है । उसमें प्रतिबिम्बित होने पर बाह्य पदार्थ भी ऐसा लगता है कि वह मानों दर्पण के भीतर रहा हुआ हो किन्तु वास्तव में वैसा नहीं
- वह दर्पण के भीतर नहीं होता । जैसे ग्रीष्म ऋतु में भूमि की उष्णता से परिस्पंदित होती हुई सूर्य की किरणें जलात्मक विज्ञान उत्पन्न करती है, जलरूप प्रतीत होती है । गन्धर्व नगर आदि अपने-अपने आकार में जैसे होते हैं, उससे भिन्न प्रतीत होते हैं । इसी प्रकार आत्मा भी पांच भूतों के देह रूप में परिणत होने पर उनसे पृथक् न होती हुई भी पृथक् होने की भ्रांति समुत्पन्न करती है ।
कई कई व्याख्याकार इन दृष्टान्तों के प्रतिपादक कतिपय सूत्रों का विश्लेषण - विवेचन करते हैं किन्तु हमने सूत्रादर्शो - सूत्रों की पुरानी प्रतियों में और पुरातन टीकाओं में उन सूत्रों को नहीं देखा है। इसलिये यहाँ उनका उल्लेख नहीं किया गया है । बताना
एक शंका उपस्थित की जाती है कि यदि पांच भूतों के अतिरिक्त या उनसे पृथक् कोई आत्मा नामक स्वतंत्र पदार्थ नहीं है उस द्वारा किये गये पुण्य और पाप भी नहीं हो सकते। फिर यह जगत जिसमें इतनी विचित्रता हैं, किस प्रकार घटित हो सकता है । किनके फलस्वरूप ये विचित्र स्थितियां प्रकट होती हैं। इस जगत में कोई ऐश्वर्यशाली है, कोई दीन हीन है, कोई सौभाग्यशाली है, कोई दुर्भाग्ययुक्त है, कोई सुख सम्पन्न है, कोई दुःख पीड़ित हैं, कोई सुंदर रूप से युक्त है कोई कुरूप है, कोई रोग युक्त है, कोई रोग रहित स्वस्थ | जगत में यह जो विचित्रताएं हैं वह क्यों घटित होती है ।
इस शंका का समाधान करते हुए तच्जीव तच्शरीरवादियों की ओर से कहा जाता है कि यह जो कुछ भी होता है वह स्वभाव से होता है उसका कारण स्वभाव है । उदाहरणार्थ- कहीं एक पाषाण खण्ड को देव प्रतिमा का रूप दिया जाता है, उस पर कुंकुम, अगर, चन्दन आदि चढ़ाये जाते हैं। उनका विलेपन किया जाता है धूप आदि सुगंधित पदार्थ उपहृत किये जाते हैं। वह इनकी सुगंध आदि पाने का अवसर पाती है। दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है कि वह ऐसा अनुभव करती है। एक दूसरा पाषाण खण्ड है जिस पर लोग पैर आदि धोते हैं । ऐसे निम्न कोटी के कार्यों में जिसका उपयोग होता है। उन दोनों पाषाण खण्डों के साथ कोई पाप पुण्य नहीं जुड़े हैं जिनके उदय से वे वैसी अवस्थाएं प्राप्त कर रहे हैं । अतः यह प्रमाणित होता है कि जगत की विचित्रता का कारण स्वभाव ही है । कहा गया है कांटे में जो तीक्ष्णता है - तीखापन मयूररूप जो विलक्षणता है जो विविध रंगमयता है, मुर्गे में जो विचित्र रंग है - इन सबका कारण स्वभाव ही है । यहां तच्जीव तच्शरीरवादियों का सिद्धांत बताया गया है ।
कुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुव्वं न विज्जई । एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उ पगभिआ ॥ १३ ॥
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