________________
स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
अर्हत द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों में विश्वास रखने वाले भी प्रत्येक शरीर में अलग-अलग आत्मा मानते हुए 'आत्मबहुत्त्व' का सिद्धान्त स्वीकार करते हैं । फिर उक्त मतवाद को क्यों उपस्थित करते हो यह शंका उपस्थित होती है । इस पर कहा जाता है कि जब तक शरीर का अस्तित्व बना रहता है, तब तक ही आत्मा का अस्तित्व रहता है। शरीर के न रहने पर आत्मा भी विद्यमान नहीं रहती क्योंकि देह के आकार में परिणत पांच महाभूतों से चेतना का आविर्भाव होता है। पांच भूतों के समुदाय के विघटित - पृथक्-पृथक् हो जाने पर चेतना का अपगम-विनाश हो जाता है । देह से अलग होकर अन्यत्र जाती हुई चेतना उपलब्ध नहीं होती, दिखाई नहीं देती । तच्जीव व तच्शरीर वादि सैद्धान्तिकों के मत का दिग्दर्शन कराने के लिये आगमकार हैं
प्रेत्यभाव प्राप्त कर मरकर परलोक में जाकर अथवा नया जन्म पाकर अपने कर्मों का फलं भोग करने वाला देह से पृथक् आत्मा नाम का कोई पदार्थ या तत्त्व नहीं है, ऐसा क्यों है ? इस प्रश्न को सम्मुख रखते हुए कहा गया है - नत्थि सत्थोववाइया - नास्ति सत्वोपपादिता कोई प्राणी आगे जाकर नये रूप में उत्पन्न नहीं होते, यहां नत्थि-नाऽस्ति में आया हुआ 'अस्ति' शब्द तिङ्न्त प्रतिरूपक निपात है, उसे बहुवचन में समझाना जाना चाहिये । इसका यह अभिप्राय है कि उपपात - उत्पत्ति या एक भव से दूसरे भव में प्राणी नहीं जाते अर्थात्
औपपातिक नहीं हैं। तच्जीव तच्शरीरवादियों के सिद्धान्त का यह आशय है, वे अपने आगम या शास्त्र कायों उद्धरण प्रस्तुत करते हैं- यह आत्मा जो विज्ञान धन है - ज्ञानात्मक पिंडवत है । इन भूतों से समुत्थित होकर-आविर्भूत होकर उन्हीं भूतों के विनाश के साथ-साथ विनष्ट हो जाती है। मरण के अनन्तर उसमें संज्ञा या ज्ञान या चेतना अवशिष्ट नहीं रहती।
एक शंका उपस्थित की जाती है-पहले पंचभूतवादी सैद्धान्तिक का मत प्रस्तुत किया गया । उनके सिद्धान्तों की तुलना में तच्जीव तच्शरीरवादी के सिद्धान्तों की क्या विशेषता है ?
इसके समाधान में कहा जाता है- भूतवादी के अनुसार देह के रूप में परिणत भूत ही सब क्रियाएं करते हैं, उन्हीं से आत्मा की उत्पत्ति होती है । तच्जीव तच्शरीरवादी की मान्यता है कि देह के आकार में परिणत भूतों से चैतन्य संज्ञक आत्मा की उत्पत्ति या लब्धि होती है और वह उनसे अभिन्न है, भूतवादी के मत में तच्जीव तच्शरीरवादी का यह अन्तर है ।
नत्थि पुण्णे व पावे वा, नत्थि लोए इतो वरे । सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥ १२॥
छाया
नास्ति पुण्यं व पापं वा, नास्ति लोक इतः परः । शरीरस्य विनाशेन, विनाशो भवति देहिनः ॥
अनुवाद वास्तव में न पुण्य का अस्तित्त्व है और न पाप का ही। जिस लोक में हम हैं उससे
पृथक् अन्य कोई भी लोक नहीं है। जब शरीर नष्ट होता है तो उसके साथ आत्मा भी नंष्ट हो जाती है।
-
टीका एवं च धर्मिणोऽभावाद्धर्मस्याप्यभाव इति दर्शयितुमाह - पुण्यमभ्युदयप्राप्तिलक्षणं तद्विपरीतं पापमेतदुभयमति न विद्यते, आत्मनो धर्णिणोऽभावात् तदभावाच्च नास्ति अतः अस्माल्लोकात 'परः' अन्यो लोको यत्र पुण्यपापानुभव इति । अत्रचार्थे सूत्रकारः कारण माह 'शरीरस्य' कायस्य विनाशेन भूतविघटनेन
25
-