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- श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् आत्मा एक हो-सर्वव्यापी हो तो ऐसा नहीं बन पायेगा अर्थात् एक द्वारा जाने हुए को दूसरा भी सहज ही जान लेगा ।
पत्ते कसिणे आया, जे बाला जे अ पंडिया ।
संति पिच्चा न ते संति, नत्थि सत्तोववाइया ॥११॥ छाया - प्रत्येकं कृत्स्ना आत्मनः ये बाला य च पंडिताः ।
सन्ति प्रेत्य न ते सन्ति, न सन्ति सत्त्वा औपपातिकाः ॥ अनुवाद - इस जगत में जो बाल अज्ञानी पंडित जो ज्ञानी है-उन ज्ञानी अज्ञानी सभी जनों की आत्मा पृथक्-पृथक् है, एक नही हैं । प्रेत्य भाव-मृत्यु के अनन्तर आत्मा का अस्तित्त्व नहीं रहता और सत्त्वोपपातिकान प्राणियों का पुनर्जन्म ही होता है-वे परलोकगामी नहीं होते-नहीं जाते ।
टीका - साम्प्रतं तज्जीवतच्छरीरवादिमतं पूर्वपक्षयितुमाह-तज्जीवतच्छरीरवादिनामयमभ्यु-पगमः- यथा पंचभ्यो भूतेभ्यः कायाकार परिणतेभ्यश्चैतन्यमुत्पद्यते अभिव्यज्यते वा तैनैकैकं शरीरं प्रति प्रत्येक मात्मानः 'कृत्स्नाः ' सर्वेऽप्यात्मान एवमवस्थिताः, ये 'बाला' अज्ञा ये 'पण्डिताः' सदसद्विवेकज्ञास्तेसर्वे पृथग्वयवस्थिताः, नोकएवात्मा सर्व व्यापित्वेनाऽभ्युपगन्तव्यो, बालपंडिताद्यविभागप्रसंगात्। ननु प्रत्येक शरीराश्रयत्वेनात्म बहुत्वमार्हतानामपीष्टमेवेत्याशङ्कयाह-'सन्ति'विद्यन्ते यावच्छरीरं विद्यन्ते तदभावे तु न विद्यन्ते, तथाहि कायाकारपरिणतेषु भूतेषु चैतन्याविर्भावोभवति, भूत समुदायविघटने च चैतन्यापगमो, न पुनरन्यत्र गच्छच्चैतन्यमुपलभ्यते, इत्येतदेव दर्शयति-'पिच्चा न ते संतीति' 'प्रेत्य' परलोके न ते आत्मानः 'सन्ति' विद्यन्ते परलोकानुयायी शरीराद्भिन्नः स्वकर्मफलभोक्ता न कश्चिदात्माख्यः पदार्थोऽस्तीति भावः । किमित्येवमतआह-'नत्थि सत्तोववाइया' 'अस्ति' शब्दस्तिङन्तप्रतिरूपको निपातो बहुवचने द्रष्टव्यः । तदयमर्थ:-'न सन्ति' न विद्यन्ते 'सत्त्वाः' प्राणिन उपपातेन निर्वृत्ता औपपातिकाभवाद्भवान्तरगामिनो न भवन्तीति तात्पर्य्यार्थः । तथाहि तदागमः-"विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञाऽस्तीति"। ननु प्रागुपन्यस्तभूतवादिनोऽस्य च तज्जीवतच्छरीरवादिनः को विशेष इति ? अत्रोच्यते, भूतवादिनो 'भूतान्येव कायाकारपरिणतानि धावनबल्गनादिकां क्रियां कुर्वन्ति, अस्य त् कायाकारपरिणतेभ्यो भूतेभ्यश्चैतन्याख्य आत्मोत्पद्यतेऽभिव्यज्यते वा तेभ्यश्चाभिन्न इत्ययं विशेषः ॥११॥ ___टीकार्थ - आगमकार तच्जीव तच्शरीरवाद में विश्वास रखने वाले सैद्धान्तिकों को पूर्व पक्ष के रूप में उपस्थित करते हुए कहते हैं -
तज्जीवत्तशरीरवाद दर्शन में आस्था रखने वालों का यह अभिमत है कि देह के रूप में परिणत पृथ्वी आदि पांच महाभूतों से चेतना शक्ति उद्भूत होती है, या अभिव्यक्त होती है । अत: एक-एक शरीर में, एकएक आत्मा पृथक्-पृथक् रूप में विद्यमान है । सभी आत्माएं इसी रूप में अवस्थित हैं । जो बाल या अज्ञ हैं, ज्ञानवर्जित हैं तथा जो सत् असत् का-शुभाशुभ का भेद जानते हैं, ज्ञानी हैं, वे सभी पृथक्-पृथक् है । कोई एक सब में व्याप्त आत्मा है, ऐसा नहीं स्वीकार करना चाहिये । ऐसा स्वीकार करने से ज्ञानयुक्त और ज्ञान रहित का भेद नहीं हो सकता ।