________________
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् दृष्टान्त के सहारे ही पदार्थ का स्वरूप आत्मसात होता है, इसलिये यहां इस सूत्र में पहले दृष्टान्त उपस्थित किया गया है इस गाथा में 'यथा' शब्द का प्रयोग हुआ है वह दृष्टान्त का सूचक है । यहां 'च' शब्द अपि शब्द के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, वह भिन्न क्रम का द्योतक हैं । इसलिये इसे 'एके' पद के बाद में लेना चाहिये।
___गाथा में पृथ्वीस्तूप की चर्चा आई है, वह पृथ्वी स्तूप या पृथ्वी समूह अवयवी है, एक है। किन्तु वैसा होने पर भी सरिता सागर, गिरि, शहर और उपनगर आदि के आधार पर वह भिन्न-भिन्न रूपों में दिखाई देता है अथवा निम्न, उन्नत, मृदु, कठोर, लाल पीला आदि भिन्न-भिन्न रूपों में दृष्टिगोचर होता है। यह होने पर भी-इन भिन्नताओं के बावजूद पृथ्वी रूप तत्त्व में कोई भेद नहीं पड़ता । इसी प्रकार इस चेतनात्मक और अचेतनात्मक लोक में एक ही ज्ञानमय आत्मा है । इसका अभिप्राय यह है कि एक ही ज्ञानस्वरूप आत्मा पृथ्वी आदि भूतों की आकृतियों में भिन्न-भिन्न प्रकार से देखी जाती है, ऐसा होते हुए भी उस आत्मा के वास्तविक स्वरूप में कोई भिन्नता नहीं होती । कहा गया है एक आत्मा ही समग्र भूतों में विद्यमान है जल में प्रतिबिम्बित चन्द्र जैसे अनेक रूपों में दृष्टिगोचर होता है, वैसे ही वह आत्मा एक होती हुई भी अनेक रूपों में दिखाई देती है | उपनिषदों में कहा गया है - इस जगत में जो अस्तित्त्व में आया, जो आगे अस्तित्त्व में आयेगा वह सब पुरुष या आत्मा ही है । वह आत्मा ही देवत्त्व में अधिष्ठित है, वही प्राणियों के भोग हेतु जगत रूप में अभिवर्द्धित होकर प्रकट होती है । वह गतिशील है, गतिवर्जित है, वही दूर है और वही समीप है । वह सबके अन्तर्गत है और बहिर्गत भी है । यों आत्माद्वैत के सिद्धान्त का विवेचन समाप्त होता
एवमेगेत्ति जप्पंति, मन्दा आरम्भणिस्सिआ ।
एगे किच्चा सयं पावं, तिव्वं दुक्खं नियच्छइ ॥१०॥ छाया - एवमेक इति जल्पन्ति मंदा आरंभ नि:श्रिताः,
एके कृत्वा स्वयं पापं, तीवं दुःखं नियच्छन्ति अनुवाद - अज्ञानयुक्त पुरुष कहते हैं कि सब में एक ही आत्मा है परन्तु जगत की स्थिति यह है कि जो जीव हिंसादि आरंभ समारंभ में आसक्त रहते हैं, पाप कर्म कर वे ही उनके फलस्वरूप दुःख का भोग करते हैं । उनके अतिरिक्त दूसरे दुःख नहीं भोगते । ।
टीका - अस्योत्तरदानायाह । एव' मिति अनन्तरोक्तात्माद्वैतवादोपप्रदर्शनम् एके' केचन पुरुषकारणवादिनो 'जल्पन्ति' प्रतिपादयन्ति, किम्भूतास्ते इत्याह-'मन्दा' जड़ाःसम्यक्परिज्ञानविकलाः, मन्दत्वं च तेषां युक्ति विकलात्माद्वैतपक्षसमाश्रयणात्, तथाहि-यद्येक एवात्मा स्यान्नात्मबहुत्वं ततो ये सत्त्वाः-प्राणिनः कृषीवलादयः 'एके' केचन आरम्भे-प्राण्युपमर्दनकारिणी व्यापरे नि:श्रिता आसक्ताः सम्बद्धा अध्युपन्ना ते च संरम्भसमारम्भारम्भैः कृत्वा उपादाय स्वयमात्मना पापमशुभप्रकृतिरूपमसातोदयफलं तीवं दुःखं तदनुभवस्थानं वा नरकादिकं नियच्छतीति। आर्षत्वाद्बहुवचनार्थे एकवचनमकारि ततश्चायमर्थो-निश्चयेन यच्छन्त्यवश्यन्तया गच्छन्ति-प्राप्नुवन्ति तएवारम्भासक्ता नान्य इति, एतन्नस्याद् अपित्वेकेनापि अशुभे कर्माणि कृते सर्वेषां शुभानुष्ठायिनामपि तीव्रदुःखाभिसम्बन्धः स्याद्,
-220