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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् परलोक में या नवजीवन में जाने वाली है-इत्यादि। आत्मा सिद्ध करने के लिये दूसरे प्रमाण की खोज करने की आवश्यकता ही क्या है । सब प्रमाणों में ज्येष्ठ-वरिष्ठ या उत्तम प्रमाण से ही आत्मा का होना सिद्ध होता है क्योंकि ज्ञान आत्मा का गुण है जो प्रत्यक्ष है । गुण गुणी से भिन्न नहीं होता, ज्ञानरूपी गुण आत्मा रूपी गुणी से भिन्न नहीं है, वह अभिन्न है । इसलिये आत्मा उसी प्रकार प्रत्यक्ष है, जिस प्रकार रूप आदि गुणों के प्रत्यक्ष होने से वस्त्र आदि गुणों का प्रत्यक्ष होता है । मैं सुखी हूँ, मैं दुःखी हूँ, इस तरह जो भाषा है वहाँ 'मैं" मलक ज्ञान द्वारा आत्मा का ही ग्रहण प्रत्यक्ष होता है क्योंकि मैं रूप ज्ञान स्वसंविद रूप-आत्मरूप ही है-आत्मा का ही ज्ञान है । यह मेरा शरीर है, यह मेरा पुरातन कर्म है इत्यादि के रूप में जो निर्देशित किया जाता है, उससे आत्मा का शरीर से पार्थक्य बोधित होता है । इसी प्रकार और भी प्रमाण है जिनसे आत्मा की सिद्धि होती है।
चार्वाक ने यह जो कहा कि चेतना भूतों के अतिरिक्त कुछ नहीं है, भूतों से भिन्न नहीं है क्योंकि वह भूतों का कार्य है जैसे घट आदि मृतिका आदि के कार्य हैं, ऐसा कहना भी असमीचीन-अयुक्तियुक्त है क्योंकि इसमें हेतु की असिद्धता है, चैतन्य भूतों का कार्य नहीं है क्योंकि वह उनका गुण नहीं है यह पहले ही बतला दिया गया है । चैतन्य को यदि भूतों का कार्य माना जायेगा तो पांचों इंद्रियों के या पांचों विषयों के संकलनात्मक या सम्मेलनात्मक ज्ञान की उपलब्धि नहीं हो सकती, इससे सिद्ध होता है कि भूतों से पृथक् आत्मा ही ज्ञान का आधार है।
एक शंका और की जाती है । ज्ञान की आधारभूत आत्मा को या ज्ञान से भिन्न आत्मा को जानने की क्या आवश्यकता है क्योंकि ज्ञान के सहारे ही सर्वसंकलनात्मक प्रतीति या सम्मेलनात्मक ज्ञान की सिद्धि हो सकती है इसलिये शरीर पर उभरी हुई मेद ग्रंथियां-बसौली की तरह एक निरर्थक आत्मा को मानने की क्या आवश्यकता है । ज्ञान में ही सब सद सकता है, जो इस प्रकार है-ज्ञान चेतनात्मक है । काया के आकार में परिवर्तित चेतना रहित भूतों के साथ उसका संबंध होने पर सुख,दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न आदि क्रियाओं का प्रादुर्भाव होता है । उसी को संकलना प्रत्यय या सम्मेलनात्मक ज्ञान अवगत होता है । दूसरे भव में भी वही ज्ञान जाता है । इस प्रकार सब विषय व्यवस्थित सुपरिज्ञात हो जाते हैं । फिर आत्मा की परिकल्पना करना क्यों आवश्यक है ?
इसका समाधान यों है-ज्ञान से भिन्न या पृथक् आत्मा को माने बिना ज्ञान का आधारभूत संकलना प्रत्यय या सम्मेलनात्मक ज्ञान हो नहीं सकता । एक-एक इंद्रिय स्व स्व विषय को ही ग्रहण करती है, किसी दूसरी इन्द्रिय के विषय को उससे भिन्न इंद्रिय ग्रहण नहीं करती । ऐसी स्थिति में सब विषयों का परिच्छेद करने वाले जानने वाले-एक आत्मा के अभाव में, मैंने पांचों ही विषयों का अवबोध किया यह संकलनात्मक प्रतीति या ज्ञान नहीं होता ।
यदि कहा जाय कि आलय विज्ञान नामक एक तत्त्व है उससे वह संकलनात्मक ज्ञान हो सकता है तो इसका उत्तर यह है-आपने आत्मा का ही आलय विज्ञान के रूप में नामान्तर कर दिया । वस्तुतः वह आत्मा ही है । ज्ञान संज्ञक गुण गुणी के बिना नहीं टिक सकता इसलिये उसका आत्मारूप गुणी अवश्य वांछित हैवैसा होना चाहिये।
वह आत्मा सर्वत्र व्याप्त नहीं है क्योंकि उसका गुण ज्ञान सर्वत्र-सब स्थानों पर उपलब्ध नहीं होता । घड़ा इसका उदाहरण है । आत्मा श्यामाक धान्य के दाने के समान है, कुछ लोग ऐसा कहते
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