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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः । द्वारा प्राप्त नहीं है तब प्रत्यक्ष की उनमें निवृत्ति कैसे हो सकती है । इस प्रकार प्रर्वत्तमान और निवर्तमान दोनों ही स्थितियों में प्रत्यक्ष द्वारा उनका निश्चय हो सकना संभव नहीं है ।
वस्तु स्थिति यह है-व्यापक पदार्थ की निवृत्ति होने पर व्याप्य पदार्थ की भी निवृत्ति होना माना जाता है किन्तु जिस प्रत्यक्ष प्रमाण से सम्मुखीन पदार्थ को बताता है, वह समस्त वस्तुओं में व्यापक नहीं है । इसका आशय यह है कि वह समस्त पदार्थों का ज्ञान नहीं करा सकता, वह तो केवल सम्मुखीन का ही ज्ञान कराता है । इसलिये प्रत्यक्ष जब निवृत्त हो जाता है जिस प्रकार वह स्वायत्त नहीं कर पाता है अथवा जिस पदार्थ का प्रत्यक्ष बोध नहीं होता है उसपदार्थ का अस्तित्त्व ही नहीं है उसे कैसे जाना जा सकता है । चार्वाक द्वारा प्रत्यक्ष प्रमाण के माध्यम से जो स्वर्ग आदि का निषेध किया जाता है इससे चार्वाक द्वारा प्रत्यक्ष के अतिरिक्त किसी अन्य प्रमाण का स्वीकृत किया जाना भी सिद्ध होताहै। चार्वाक दूसरे के अभिप्राय को ज्ञान रूप में स्वीकार करता है । इससे उस द्वारा प्रत्यक्ष के अतिरिक्त किसी दूसरे प्रमाण का और माना जाना स्पष्ट हो जाता है। यदि ऐसा नहीं होता तो औरों को अपने सिद्धान्तों का अवबोध कराने के लिये चार्वाक ने शास्त्र की रचना क्यों की ? अस्तु इस विषय को अब और अधिक विस्तृत करना अपेक्षित नहीं है ।
, इस विवेचन से यह सिद्ध होता है कि प्रत्यक्ष के अतिरिक्त दूसरा भी प्रमाण है । उस प्रमाण का अस्तित्त्व सिद्ध हो जाता है । वह कौन सा प्रमाण है ? कहा जाता है-आत्मा है-क्योंकि उसका असाधारण-असामान्य या विशिष्ट गुण पाया जाता है । इसके लिये चक्षुइन्द्रिय का उदाहरण दिया जा रहा है । चक्षुइन्द्रिय अत्यन्त सूक्ष्म-बारीक होने के कारण प्रत्यक्ष रूप में उपलब्ध परिज्ञात नहीं होती। स्पर्शन आदि इन्द्रियों द्वारा न प्राप्त हो सकने योग्य रूप विज्ञान-रूप को जानने की क्षमता की अपेक्षा से उसके अस्तित्त्व का अनमान किया जा सकता है । इसी प्रकार पृथ्वी आदि भूतों में न प्राप्त होने वाली चेतना की अपेक्षा से आत्मा के स्वतन्त्र अस्तित्त्व का अनुमान किया जा सकता है । चेतना आत्मा का असाधारण-असामान्य या एकमात्र गुण है । पृथ्वी आदि पांच भूतों के समवाय में चैतन्य गुण प्राप्त नहीं होता । अतएव आत्मा का अस्तित्त्व है, यह जानने की बात है । निश्चित ही आत्मा है, क्योंकि समस्त इंद्रियां जिन पदार्थों-अभिप्रायों, को जानती है उनका संकलनात्मकएक साथ मिला हुआ-प्रत्यय ज्ञान या प्रतीति होती है । उदाहरणार्थ-एक भवन में पांच खिड़कियां है । उन द्वारा जाने हुए पांच पदार्थों को एक देवदत्त-एक पुरुष संकलित कर देखता है वैसे ही इन्द्रियों द्वारा परिज्ञानपदार्थों का संकलनात्मक-सम्मेलनात्मक साक्षात्कार आत्मा करती है, इंद्रिय नहीं करती । इंद्रियों के विगमविनाश होने पर भी उनके द्वारा जाने हुए पदार्थ आत्मा को स्मरण रहते हैं जैसे खिड़कियों के मिट जाने पर भी उन द्वारा कहे जाने हुए पदार्थ देवदत्त नामक व्यक्ति की स्मृति में रहते हैं ।
अर्थापत्ति प्रमाण द्वारा भी आत्मा का होना सिद्ध होता है, पृथ्वी आदि पंचभूतों द्वारा दीवाल आदि पर मानवीय आकार बना दे तो भी उसमें सुख-दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न आदि क्रियाएं नहीं होती। इससे ऐसा निश्चित होता है कि पांच भूतों के अतिरिक्त कोई ऐसा पदार्थ है जो सुख-दुःख, इच्छा, आदि क्रियाओं का समवायी कारण-जिसके हुए बिना कार्य सिद्ध नहीं होता है । वह पांचभूतों से भिन्न है, वह आत्मा है । इस प्रकार प्रत्यक्ष तथा अनुमान आदि पूर्वक अर्थापत्ति द्वारा भी आत्मा की सिद्धि होती है इसे समझना चाहिये । अर्थापत्ति की परिभाषा इस प्रकार है-छहों प्रमाणों के अनुसार जो पदार्थ किसी अन्य पदार्थ के बिना सिद्ध नहीं हो सकता उसकी सिद्धि के लिये एक अदृष्ट पदार्थ की कल्पना की जाती है, उसे अर्थापत्ति कहा जाता है तथा आर्गम से भी आत्मा की सिद्धि होती है, यह जानना चाहिये । आगम में उल्लेख है-मेरी आत्मा उपपात
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