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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् प्रमाण केवल प्रत्यक्ष ही है । इसका प्रतिविधान प्रतिकार यों है। प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है । अनुमान आदि प्रमाण कोटि में नहीं आते। ऐसा कथन उसका हो सकता है जिसने गुरु की उपासना नहीं की हो- गुरु के सानिध्य में बैठकर शास्त्राध्ययन नहीं किया हो । जो अर्थ पदार्थ या वस्त का अविसंवादक है उसे यथार्थ रूप में बतलाता है वह प्रमाण कहा जाता है । प्रत्यक्ष का प्रामाण्य प्रमाण होना इस प्रकार सिद्ध किया जाता है, किन्हीं प्रत्यक्ष व्यक्तियों को धर्मी या पक्ष के रूप में ले तब उनका प्रामाण्य इस प्रकार सिद्ध किया जाता है'यह प्रमाण है' क्योंकि ये अर्थ के अविसंवादक है-उसका विसंवाद नहीं करते हैं । उसे अन्यथा प्रतिपादित नहीं करते, उसे यथार्थ रूप में निरूपित करते हैं । जैसे हम किसी व्यक्ति को प्रत्यक्ष रूप में देख रहे हो ।
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जिस व्यक्ति को प्रत्यक्ष रूप में देखा है, जाना है, वह अपनी आत्मा में ज्ञात है किन्तु वह जिसने प्रत्यक्ष देखादूसरे व्यक्ति के प्रति वैसा व्यवहार नहीं कर सकता, उसे प्रत्यक्ष नहीं दिखा सकता क्योंकि अपने द्वारा देखा हुआ वह प्रत्यक्ष व्यक्ति देखने वालों के ज्ञान में संनिविष्ट है, प्रत्यक्ष का ज्ञान बोलता नहीं, वह मूक है 1
अनुमान प्रमाण नहीं है-चार्वाक का यह कथन भी अनुमान के आधार पर ही है। फिर वह यदि अनुमान का खण्डन करता है तो वह एक उन्मत्त की सी बात है । यदि ऐसा कहा जाय कि चार्वाक अनुमान को इसलिये अप्रमाण मानता है-प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं कर सकता क्योंकि अनुमान प्रमाण नहीं है । वह अर्थ का विसंवादक है- उसे यथार्थ रूप में नहीं बतलाता । जैसे अनुमान द्वारा किसी व्यक्ति को अनुभूत करना - जानना - किन्तु यह भी एक अनुमान ही है ।
यदि यों कहो कि अन्य दार्शनिक अनुमान को प्रमाण मानते हैं इसलिए उनकी मान्यता के आधार पर हम भी अनुमान का आश्रय लेकर उस अनुमान के आधार पर यहां अनुमान का खण्डन करते हैं, ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है । यह पूछा जा सकता है कि अन्य दर्शनों में प्रसिद्ध अनुमान आपकी दृष्टि में प्रमाण है या अप्रमाण है । यदि आप उसे प्रमाण मानते हैं तो फिर अनुमान को अप्रमाण कहने की स्थिति नहीं बनती। यदि उसे अप्रमाण मानते हैं तो उसके आधार पर दूसरे को कैसे प्रतीति कराते हो ! यदि कहो कि दूसरा अनुमान को प्रमाण मानता है इसलिये उसे अनुमान प्रतीति कराई जा सकती है - समझाया जा सकता है, यों कहना भी अयुक्तियुक्त है । यदि कोई अन्य पुरुष मूढ़ता वश अप्रमाण को प्रमाण स्वीकार कर लेता है तो आप अत्यन्त निपुण - योग्य - होकर भी उस अप्रमाण के द्वारा उसे प्रतीति कराने का समझाने का क्यों उपक्रम करते हो ? यदि कोई अज्ञ - ज्ञानशून्य पुरुष गुड़ को ही विष मानता है तो क्या कोई बुद्धिमान उसे मारने के लिये गुड़ देने का प्रयत्न करता है । क्या उसकी अज्ञता के अनुरूप स्वयं भी अज्ञतापूर्ण कार्य करता है ? अतः प्रत्यक्ष को प्रमाण मानना और अनुमान को प्रमाण न मानना यह सिद्ध करते हुए आपके न चाहने पर भी अनुमान का प्रामाण्य जबरदस्ती आ फटकता है ।
आपने स्वर्ग और मोक्ष का निषेध किया किस प्रमाण द्वारा आप इसे सिद्ध करते हैं कि नरक और मोक्ष है । प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा इनका निषेध नहीं किया जा सकता । बतलाये प्रत्यक्ष प्रमाण स्वर्ग और मोक्ष में प्रवर्त्तमान होकर उनका प्रतिषेध करता है अथवा निवर्तमान होकर उन्हें अस्वीकार करता है ? वह प्रत्यक्ष प्रवर्त्तमान होकर स्वर्ग और नरक का निषेध नहीं कर सकता क्योंकि उसका अभावात्मक वस्तु के साथ विरोध होता है दूसरे शब्दों में जो वस्तु नहीं है उसमें प्रत्यक्ष की प्रवृत्ति ही कैसे होगी, आप स्वर्ग और मोक्ष का अस्तित्त्व मानते ही नहीं हैं तब प्रत्यक्ष के उनमें प्रवृत्त होने की स्थिति ही नहीं बन सकती। प्रत्यक्ष निवर्त्तमान होकर स्वर्ग और मोक्ष का प्रतिबंध करता है, यह भी संभव नहीं हो सकता क्योंकि स्वर्ग और मोक्ष जब प्रत्यक्ष
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