________________
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
यहाँ अनुमान का प्रयोग इस विधि से किया जाना चाहिए - इन्द्रियाँ उपलब्धि युक्त नहीं है-उपलब्धिपदार्थ को स्वायत करने की चेतनात्मक शक्ति इन्द्रियों की नहीं है, क्योंकि उनकी अनिष्पत्ति उन पदार्थों से हुई हैं, जिनका गुणचेतना नहीं है। जो जो अचेतन-चेतनाशून्य पदार्थों से निष्पन्न होते है, वे सब अचेतन गुणयुक्त होते है, जैसे घट-पट आदि । इस प्रकार पांचमहाभूतों में चैतन्य का अभाव या नास्तित्व सिद्ध होता है ।
नियुक्तिकार फिर इसे सिद्ध करने के लिये एक ओर कारण प्रस्तुत करते हैं-इन्द्रियों में से प्रत्येक भूतात्मकभौतिक स्वरूप लिये हुए है । चार्वाक सिद्धान्तानुसार दूसरा कोई द्रष्टा- ज्ञाता नहीं माना गया है । वे इन्द्रियां ही द्रष्टा हैं । वे पृथक्-पृथक् अपने-अपने विषयों को ग्रहण करती हैं। किसी दूसरी इन्द्रिय द्वारा ज्ञात या ग्रहण किये जाने योग्य विषय को उस इन्द्रिय के अतिरिक्त दूसरी इन्द्रिय नहीं जान पाती । ऐसी स्थिति में मैंने पांचों विषय जाने- पांचों इन्द्रियों के विषय को अनुभव किया। यह संकलनात्मक समवायात्मक या एकत्वमूलक ज्ञान प्राप्त या अनुभूत नहीं होता किन्तु वैसा वास्तव में जीवन में अनुभूत होता है । इससे यह प्रतीत हो है कि कोई एक इन्द्रियों से भिन्न द्रष्टा या ज्ञाता होना चाहिये । चेतना उसी का गुण है। पांच भूतों का नहीं।
पुनः यहाँ अनुमान द्वारा एक अन्य विधि से इस विषय को स्पष्ट किया जाता है-पांच भूतों के समुदाय में चेतना गुण नहीं है क्योंकि उन भूतों से निष्पन्न इन्द्रियों में अपने-अपने विषय का ग्राहित्व तो है - वे अपनेअपने से संबंद्ध एक-एक विषय को ग्रहण करती है किन्तु संकलनात्मक - पांचों के समन्वित ज्ञान की प्रतीति वे नहीं कर पाती । यदि किसी एक द्वारा ग्रहण किये हुए - जाने हुए - पदार्थ या अभिप्राय को दूसरा भी जान तब तो फिर देवदत्त ने जिस पदार्थ या अभिप्राय को जाना उसे यज्ञदत्त भी जान ले किन्तु ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता क्योंकि एक पुरुष द्वारा ज्ञात अनुभूत पदार्थ को अन्य पुरुष नहीं जान पाता ।
इस प्रकार एक शंका उपस्थित की जाती है - स्वतन्त्र रूप से पांच भूतों में से किसी में भी चेतना गुण नहीं है । यह मानने पर तो यह दोष सिद्ध होता है परन्तु जब परस्पर सापेक्षपांच महाभूत मिल जाते हैं तो उनके पारस्परिक संयोग या सम्मिलन के कारण नये रूप में चैतन्य गुण उत्पन्न होता है, जैसे मदिरा के उपादान भूत किण्व और जल आदि में से किसी में यह शक्ति या मादकता नहीं होती पर जब वे परस्पर मिल जाते हैं तो प्रत्येक में अलग-अलग अविद्यमान मद शक्ति उत्पन्न हो जाती है। ऐसा होने पर उपर्युक्त दोष का अवकाशगुंजाइश कहां रहती है ।
इसका उत्तर नियुक्ति की उपर्युक्त गाथा में उपात् प्रयुक्त या आये हुए 'च' शब्द में संनिहित है - जो आपने कहा कि पांचभूतों की पारस्परिक-सापेक्ष-संयोग से चैतन्य उत्पन्न होता है, इसका समाधान हम इस विकल्प द्वारा प्रस्तुत करते हैं बतलाये। पांचमहाभूत जिससे योग के बल चेतना गुण उत्पन्न करते हैं वह संयोग उन संयोगियों से-परस्पर मिलने वाले महाभूतों से भिन्न या पृथक् है अथवा अभिन्न या अपृथक् है । यदि वह संयोग उनसे भिन्न मानते हैं तब तो वह उन पांच के अतिरिक्त एक छठा तत्त्व बन जायेगा किन्तु आपके मतानुसार पांचभूतों के अतिरिक्त संयोग नामक छठा तत्त्व नहीं है- अप्रमाणित है । आप एकमात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं और वह प्रत्यक्ष प्रमाण संयोग को नहीं बतलाता अथवा उससे संयोग का होना सिद्ध नहीं होता । यदि किसी दूसरे प्रमाण द्वारा संयोग का ग्रहण किया जाना स्वीकार करते हैं तो उस दूसरे प्रमाण से जीवों का भी तो ग्रहण किया जा सकता है ।
यदि संयोग को पंचभूतों से अभिन्न या पृथक् मानते हों तो भी यह विचारणीय है कि प्रत्येकभूत चेतनायुक्त है अथवा चेतना रहित है । यदि प्रत्येक भूत पांचों भूतों को चेतनामय प्रतिपादित करते हों तब एक इन्द्रिय सिद्ध होती है अर्थात् एक ही इन्द्रिय से चैतन्यवत्ता के कारण भिन्न-भिन्न विषयों को
16