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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
इस संबंध में चार्वाक से यह पूछा जाना चाहिए - यह प्रश्न किया जा सकता है- इन महाभूतों का आपस में संयोग होने पर चैतन्य-चेतनाशक्ति अभिव्यक्त होती है तो वह क्या इन भूतों का संयोग होने पर ही स्वतन्त्र रूप से प्रकट होती है या उनका आपस में संयोग होने पर परतन्त्रता से प्रकट होती है । ऐसा पूछने का क्या अभिप्राय है, इसका समाधान इस प्रकार है - स्वतन्त्रता से पांचभूतचेतना शक्ति को प्रकट करने में समर्थ नहीं है अर्थात् उनमें से कोई एक भी चैतन्य को प्रकट नहीं कर सकता, उसी बात को दृष्टि में रखते हुए नियुक्तिकार " अण्णगुणाणोचेत्ति" इस शब्द द्वारा यह बताया है कि ये पांचमहाभूत चैतन्यगुणयुक्त नहीं है, उसके अतिरिक्त अन्य गुणों से युक्त हैं। दूसरे शब्दों में पृथ्वी आदि के अपने-अपने गुण हैं, जो चैतन्य से भिन्न है । पदार्थों का आधार बनना, कठिनता का होना पृथ्वी का गुण है। जल का गुण द्रवत्व या तरलपन है, अग्नि का गुण पक्तृत्व-पाचन या पचाने की शक्ति है। वायु का चलन - गतिशीलता गुण है, आकाश का गुण अवगाह - अवकाश या स्थान देश है । अथवा यों कहा जा सकता है- पहले जिनका उल्लेख हुआ है, वे गन्ध आदि गुण क्रमशः एक-एक का परिहार-परित्याग कर पृथ्वी आदि के गुण है। ये गुण चेतना से पृथक् हैं। यों पृथ्वी आदि भूत चेतना से अन्य भिन्न गुण लिए हुए हैं। इस गाथा में जो 'च' शब्द का प्रयोग हुआ हैं वह दूसरे विकल्प से संबंद्ध कथन को सूचित करता है । चार्वाक पृथ्वी आदि से चेतना की उत्पत्ति सिद्ध करना चाहते हैं किन्तु पृथ्वी आदि पांचमहाभूतों के अपने-अपने गुण-चैतन्य से अन्य - इतर है । इस प्रकार जब पृथ्वी आदि में से किसी एक पदार्थ का भी चैतन्य गुण नहीं है, तब उनके मिलने से चैतन्य गुण का उत्पन्न होना सिद्ध नहीं हो सकता । इस बात को प्रयोग-विधि या अनुमान द्वारा समझा जा सकता है । भूत समुदाय - पंचमहाभूत स्वतन्त्र है, इसलिए वे धर्मीपक्ष रूप में ग्रहण किये जाते हैं, और उन भूतों का गुण चैतन्य नहीं है, यह साध्य धर्म है । पृथ्वी आदि के गुणचैतन्य से अन्य है, दूसरे हैं, यह हेतु है । अन्य गुण युक्त पदार्थों के जो समुदाय या समूह है, उस समुदाय में अपूर्व गुण जो उनमें पहले से विद्यमान नहीं है, उत्पन्न नहीं होता जैसे बालूका के कणों के समुदाय से तैल उत्पन्न नहीं हो सकता, जो स्निग्धतागुण युक्त है । उसी प्रकार घड़ों और वस्त्रों के समुदाय स्तम्भ आदि उत्पन्न नहीं हो सकते । शरीर में चैतन्य गुण दृष्टिगोचर - अनुभूत होता है, वह आत्मा काही गुण हो सकता है, पंचभूतों का नहीं ।]
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इसी बात को सिद्ध करने के लिए नियुक्तिकार अन्य हेतु उपस्थित करते हैं- स्पर्शन, रसन, घ्राण, नेत्र, कर्ण, संज्ञक पांचइन्द्रियों के जो स्थान या कारण है, उनमें चैतन्यगुण का अभाव है, वे चेतना रहित है । तब भूत समुदाय में चैतन्य असंभावित है । यहाँ कहने का हार्द - अभिप्राय है - चार्वाक इन्द्रियों के अतिरिक्त अन्य किसी को द्रष्टा-देखने वाला, जानने वाला नहीं मानते । उनके सिद्धान्तानुसार इन्द्रिया ही द्रष्टा या ज्ञाता है । उन इन्द्रियों के जो उपादान' मूल कारण है, वे अचित्त रूप है - ज्ञानात्मक या चेतनात्मक नहीं है । अतएव चैतन्यभूतसमुदाय का-पांचमहाभूतों का गुण नहीं हो सकता । इन्द्रियों के स्थान - उपादान या मूलकारण इस प्रकार है - श्रोतेन्द्रिय का स्थान आकाश है, क्योंकि श्रोत्रेन्द्रियसुषिर - छिद्र या रिक्तमूलक है । घाणेन्द्रिय या नासिका का मूल कारण पृथ्वी है क्योंकि प्राणात्मकता की दृष्टि से वह पृथ्वी स्वरूप है । नैत्र का उपादान कारण तेज या अग्नि है, क्योंकि नैत्रेन्द्रिय तेज: स्वरूप या ज्योतिर्मय हैं । इसी प्रकार रसनेन्द्रियका उपादान कारण जल और स्पर्शनेन्द्रिय का पवन है ।
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जो कार्य रूप में परिणत हो, उसे उपादान कारण कहते हैं, जैसे-घट का उपादान कारण मृत्तिका है ।
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