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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः) एकत्वादात्मन इति, न चैतदेवं दृश्यते । तथाहि-य एव कश्चिदसमज्जसकारी स एव लोके तदनुरूपा विडम्बनाः समनुभवनुपलभ्यते नान्य इति,तथा सर्वगतत्वेआत्मनो बंधमोक्षाद्यभावः,तथा प्रतिपाद्यप्रतिपादकविवेकाभावाच्छारत्रप्रणयना भावश्च स्यादिति । एतदर्थसंवादित्वात्प्राक्तन्येव नियुक्तिकृद्वाथाऽत्र व्याख्यायते, तद्यथा-पञ्चानां पृथिव्यादीनां भूताना मेकत्र कायाकार परिणतानां चैतन्यमुपलभ्यते, यदि पुनरेक एवात्मा व्यापी स्यात्तदा घटादिष्वपि चैतन्योपलब्धि: स्यात्, न चैवं, तस्मान्नैक आत्मा । भूतानाश्चान्यान्यगुणत्वं न स्यादेकस्यादात्मनोऽभिन्नत्वात् । तथा पंचेद्रियस्थानानांपंचेद्रियाश्रितानां ज्ञानानां प्रवृत्तौ सत्या मन्येन ज्ञात्वा विदित मन्यो न जानातीत्येतदपि न स्याद् यद्येक एवात्मा स्यादिति ॥१०॥
____टीकार्थ - नियुक्तिकार आत्मा द्वैतवाद का समाधान करते हुए प्रतिपादन करते हैं-इस गाथा में एवं पद आया है, वह पहले निरूपित किये गये आत्माद्वैतवाद को संकेतित करने हेतु है । जो पुरुष ब्रह्म को जगत का कारण बतलाते हैं वे कैसे हैं ? यह बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि ऐसा प्रतिपादन करने वाले मंदबुद्धिहीन या सम्यक् विवेक से विवर्जित है । उन्हें मंद इसलिये कहा गया है कि वे एकात्मवाद के उस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं जो युक्तिसंगत नहीं है । उसकी युक्तियों से असंगति इस प्रकार है, यदि आत्मा एक ही है, अनेक नहीं है तो ऐसे कई कृषक आदि प्राणी जो जीवों की हिंसा में आसक्त रहते हैं-बंधे रहते हैं-उद्यत रहते हैं वे संरम्भ-प्राणियों की हिंसा का चिंतन तत्परता तथा व्यापादन-हनन करते हैं, पाप कर्म का उपार्जन करते हैं, अशुभ प्रवृत्यात्मक-असाता वेदनीय का उदय होने पर तीव्र दुःख पाते हैं । अथवा जहां तीव्र दुःख भोगना पड़ता है ऐसे नरक आदि में जाते हैं । आर्ष-आगमिक प्रयोग होने से बहुवचन में एकवचन आया है, उसका तात्पर्य यह है कि वे निश्चित रूप से अवश्य ही नरक में जाते है । हिंसादि आरम्भ सारम्भ में जो आसक्त-संलग्न हैं वे ही नरक आदि का दुःख प्राप्त करते हैं, दूसरे नहीं करते । यदि सबमें एक ही आत्मा का अस्तित्त्व होता तो ऐसा नहीं होता अपितु एक आत्मा जो अशुभ कर्म करती है. तो शुभ अनुष्ठान करने वाले-पुण्य कर्म करने वाले पुरुषों को भी उसके अशुभ-पाप कर्म का दुःख भोगना पड़ता, क्योंकि उपर्युक्त मान्यता के अनुसार सब में एक ही आत्मा है । किन्तु ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता । इस लोक में जो असमीचीन या दुषित कर्म करता है, वही उसके फलस्वरूप विडम्बनाओं का अनुभव करता है, दुःख पाता है, दूसरे नहीं पाते।
____ आत्मा का सर्वगतत्व-सर्वव्यापित्व स्वीकार करने पर उसके साथ बंध और मोक्ष घटित नहीं होते। प्रतिपादकजो शास्त्र का प्रतिपादन या उपदेश करता है तथा प्रतिपाद्य-जिसको शास्त्र का उपदेश दिया जाता है फिर उन दोनों की भिन्नता नहीं रहेगी, उपदेष्टा और उपदेश्य का भेद मिट जायेगा । तब शास्त्रों के प्रणयन-सर्जनकी स्थिति ही नहीं बनेगी, उसका अभाव हो जायेगा । प्रस्तुत विषय के साथ संवादिता-समान अर्थयुक्तता के कारण पूर्व उद्धृत नियुक्ति की गाथा का यहाँ विवेचन किया जाता है-देह रूप में परिणत पृथ्वी आदि पांच भूतों में चेतना पाई जाती है-इस पर यों विचार किया जाय, यदि आत्मा एक ही है, वह सर्वव्यापक है तो घड़े आदि में चेतना पाया जाना सुलभ होगा किन्तु ऐसा नहीं है । घटादि में चैतन्य उपलब्ध नहीं होता, अतः आत्मा एक नहीं है । पृथ्वी आदि भूतों के जो अलग-अलग गुण है यदि सब में आत्मा एक हो तो वे टिक नहीं पायेंगे क्योंकि वे आत्मा से पृथक् नहीं होंगे ।
पांच इन्द्रिय स्थानों से-पांच इन्द्रियों के माध्यम से जो पुरुष जानता है वह ज्ञान उसे ही होता है । किसी दूसरे पुरुष द्वारा जाना हुआ उसके अतिरिक्त अन्य नहीं जान पाता यह स्थिति है । यदि
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