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(The statement of the right time) Because of the oneness of the soul, it is not seen like this. For example, whoever is a doer of unrighteousness, he alone experiences the corresponding ridicule in the world, not another. Similarly, in the omnipresence of the soul, there would be no bondage or liberation, and due to the absence of distinction between the teacher and the taught, there would be no creation of scriptures. Because of the relevance of this meaning, the previous verse is explained here, as follows: In the five elements, earth etc., which have transformed into a body form, consciousness is perceived. If, however, there is only one soul, which is all-pervasive, then consciousness would be perceived in pots etc. as well. But this is not the case. Therefore, there is not one soul. And the different qualities of the elements would not exist, because of the non-differentiation of the one soul. Similarly, in the case of the five sense organs and the five sense-based knowledge, if there is only one soul, then the knowledge known by one would also be known by another, and this would not be the case. ||10||
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________________ स्वसमय वक्तव्यताधिकारः) एकत्वादात्मन इति, न चैतदेवं दृश्यते । तथाहि-य एव कश्चिदसमज्जसकारी स एव लोके तदनुरूपा विडम्बनाः समनुभवनुपलभ्यते नान्य इति,तथा सर्वगतत्वेआत्मनो बंधमोक्षाद्यभावः,तथा प्रतिपाद्यप्रतिपादकविवेकाभावाच्छारत्रप्रणयना भावश्च स्यादिति । एतदर्थसंवादित्वात्प्राक्तन्येव नियुक्तिकृद्वाथाऽत्र व्याख्यायते, तद्यथा-पञ्चानां पृथिव्यादीनां भूताना मेकत्र कायाकार परिणतानां चैतन्यमुपलभ्यते, यदि पुनरेक एवात्मा व्यापी स्यात्तदा घटादिष्वपि चैतन्योपलब्धि: स्यात्, न चैवं, तस्मान्नैक आत्मा । भूतानाश्चान्यान्यगुणत्वं न स्यादेकस्यादात्मनोऽभिन्नत्वात् । तथा पंचेद्रियस्थानानांपंचेद्रियाश्रितानां ज्ञानानां प्रवृत्तौ सत्या मन्येन ज्ञात्वा विदित मन्यो न जानातीत्येतदपि न स्याद् यद्येक एवात्मा स्यादिति ॥१०॥ ____टीकार्थ - नियुक्तिकार आत्मा द्वैतवाद का समाधान करते हुए प्रतिपादन करते हैं-इस गाथा में एवं पद आया है, वह पहले निरूपित किये गये आत्माद्वैतवाद को संकेतित करने हेतु है । जो पुरुष ब्रह्म को जगत का कारण बतलाते हैं वे कैसे हैं ? यह बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि ऐसा प्रतिपादन करने वाले मंदबुद्धिहीन या सम्यक् विवेक से विवर्जित है । उन्हें मंद इसलिये कहा गया है कि वे एकात्मवाद के उस सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं जो युक्तिसंगत नहीं है । उसकी युक्तियों से असंगति इस प्रकार है, यदि आत्मा एक ही है, अनेक नहीं है तो ऐसे कई कृषक आदि प्राणी जो जीवों की हिंसा में आसक्त रहते हैं-बंधे रहते हैं-उद्यत रहते हैं वे संरम्भ-प्राणियों की हिंसा का चिंतन तत्परता तथा व्यापादन-हनन करते हैं, पाप कर्म का उपार्जन करते हैं, अशुभ प्रवृत्यात्मक-असाता वेदनीय का उदय होने पर तीव्र दुःख पाते हैं । अथवा जहां तीव्र दुःख भोगना पड़ता है ऐसे नरक आदि में जाते हैं । आर्ष-आगमिक प्रयोग होने से बहुवचन में एकवचन आया है, उसका तात्पर्य यह है कि वे निश्चित रूप से अवश्य ही नरक में जाते है । हिंसादि आरम्भ सारम्भ में जो आसक्त-संलग्न हैं वे ही नरक आदि का दुःख प्राप्त करते हैं, दूसरे नहीं करते । यदि सबमें एक ही आत्मा का अस्तित्त्व होता तो ऐसा नहीं होता अपितु एक आत्मा जो अशुभ कर्म करती है. तो शुभ अनुष्ठान करने वाले-पुण्य कर्म करने वाले पुरुषों को भी उसके अशुभ-पाप कर्म का दुःख भोगना पड़ता, क्योंकि उपर्युक्त मान्यता के अनुसार सब में एक ही आत्मा है । किन्तु ऐसा दृष्टिगोचर नहीं होता । इस लोक में जो असमीचीन या दुषित कर्म करता है, वही उसके फलस्वरूप विडम्बनाओं का अनुभव करता है, दुःख पाता है, दूसरे नहीं पाते। ____ आत्मा का सर्वगतत्व-सर्वव्यापित्व स्वीकार करने पर उसके साथ बंध और मोक्ष घटित नहीं होते। प्रतिपादकजो शास्त्र का प्रतिपादन या उपदेश करता है तथा प्रतिपाद्य-जिसको शास्त्र का उपदेश दिया जाता है फिर उन दोनों की भिन्नता नहीं रहेगी, उपदेष्टा और उपदेश्य का भेद मिट जायेगा । तब शास्त्रों के प्रणयन-सर्जनकी स्थिति ही नहीं बनेगी, उसका अभाव हो जायेगा । प्रस्तुत विषय के साथ संवादिता-समान अर्थयुक्तता के कारण पूर्व उद्धृत नियुक्ति की गाथा का यहाँ विवेचन किया जाता है-देह रूप में परिणत पृथ्वी आदि पांच भूतों में चेतना पाई जाती है-इस पर यों विचार किया जाय, यदि आत्मा एक ही है, वह सर्वव्यापक है तो घड़े आदि में चेतना पाया जाना सुलभ होगा किन्तु ऐसा नहीं है । घटादि में चैतन्य उपलब्ध नहीं होता, अतः आत्मा एक नहीं है । पृथ्वी आदि भूतों के जो अलग-अलग गुण है यदि सब में आत्मा एक हो तो वे टिक नहीं पायेंगे क्योंकि वे आत्मा से पृथक् नहीं होंगे । पांच इन्द्रिय स्थानों से-पांच इन्द्रियों के माध्यम से जो पुरुष जानता है वह ज्ञान उसे ही होता है । किसी दूसरे पुरुष द्वारा जाना हुआ उसके अतिरिक्त अन्य नहीं जान पाता यह स्थिति है । यदि (23)
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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