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हरिवंशपुराणे सज्यचापाकृतिस्तिस्रो दिशो व्याप्य बलाहकः । शोभते पाण्डुको वृत्तः पूर्वोत्तरदिगन्तरे ॥५५।। फलपुष्पमरानम्रलतापादपशोमिताः । पतन्निर्झरसंघातहारिणो गिरयस्तु ते ॥५६॥ वासुपूज्यजिनाधीशादितरेषां जिनेशिनाम् । सर्वेषां समवस्थानैः पावनोरुवनान्तराः ॥५७॥ तीर्थयात्रागतानेकमव्यसंघनिषेवितैः । नानातिशयसंबद्धः सिद्धक्षेत्रैः 'पवित्रिताः ॥५८।। तत्र तस्थौ जिनः शैले विपुले विपुलेशितः । शतक्रतुकृताशेषसमवस्थितिसंस्थितौ ॥५९॥ सौधर्मादिषु देवेषु मर्येषु श्रेणिकादिषु । संस्थितेष तदा भूभद् देवमांचितो बमौ ॥६॥ ऋषयः प्राक्ततस्तस्थुर्जिनान्ते प्राप्तलब्धयः । यतयश्च कषायान्ता मुनयोऽतीन्द्रियेक्षिणः ।।६१॥ अनगारास्तथाऽन्ये ते संख्याताः संख्ययाऽखिलाः । चतुर्दशसहस्राणि साधिकानि गणाधिपैः ॥६२।। पञ्चत्रिंशत्सहस्राणि आर्यिकाणां गणस्थितिः। श्रावकास्त्वेकलक्षाश्च विलक्षाः श्राविकास्तदा ॥३॥ तेऽपि तस्थुर्यथास्थानं देव्यो देवाश्चतुर्विधाः । तिर्यञ्चोऽप्यावृतोऽभासीद् वीरो द्वादशमिर्गणैः ॥६॥ ततस्त्रिभुवने तत्र धर्मशुश्रूषया स्थिते । बमाण भगवान् धर्म गणेशप्रश्नपूर्वकम् ॥॥६५॥ सिद्धः सिद्धेतरश्च द्वौ सामान्यादुपयोगिनौ । जीवभेदी विशेषात्तावनन्तानन्तभेदिनौ ॥१६॥ सदृग्बोधक्रियोपायसाधितोपेयसिद्धयः । सिद्धास्तत्र प्रसिद्धात्मसिद्धिक्षेत्रमधिष्ठिताः ॥७॥
धारक है। तीसरा पर्वत विपुलाचल है यह दक्षिण और पश्चिम दिशाके मध्यमें स्थित है और वैभारगिरिके समान त्रिकोण आकृतिवाला है ॥५४॥ चौथा पर्वत वलाहक है वह डोरीसहित धनुषके आकार है तथा तीन दिशाओंको व्याप्त कर स्थित है और पांचवां पर्वत पाण्डक है यह गोल है तथा पूर्व और उत्तर दिशाके अन्तरालमें सुशोभित है ॥५५।। ये सभी पर्वत, फल और फूलोंके भारसे नम्रीभूत लताओंसे सुशोभित हैं और पड़ते हुए निर्झरोंके संमूहसे मनोहर हैं ।।५६।। केवल वासुपूज्य जिनेन्द्रको छोड़कर अन्य समस्त तीर्थंकरोंके समवसरणोंसे इन पांचों पर्वतोंके बड़ेबड़े वन-प्रदेश पवित्र हुए हैं ।।५७।। वे वन-प्रदेश तीर्थयात्राके लिए आये हुए अनेक भव्यजीवोंके समूहसे सेवित तथा नाना प्रकारके अतिशयोंसे सम्बद्ध सिद्धक्षेत्रोंसे पवित्र हैं ॥५८॥
अथानन्तर जहाँ इन्द्रने पहलेसे ही समवसरणकी सम्पूर्ण रचना कर रखी थी ऐसे विपुलाचल पर्वतपर विशाल ऐश्वर्यके धारक श्रीवर्धमान जिनेन्द्र जाकर विराजमान हुए ॥५९|| उस समय सौधर्म आदि देव और श्रेणिक आदि मनुष्योंके सब ओर स्थित होनेपर देव और मनुष्योंसे व्याप्त हुआ वह पर्वत अत्यधिक सुशोभित हो रहा था ॥६०॥ ऋद्धियोंको धारण करनेवाले ऋषि श्रीजिनेन्द्र भगवान्के समीप सबसे पहले बैठे। उनके बाद कषायोंका अन्त करने. वाले यति, अतीन्द्रिय पदार्थों का अवलोकन करनेवाले-प्रत्यक्ष ज्ञानी मुनि और संख्यात अनगार बैठे, इस तरह ग्यारह गणधरोंके सहित चौदह हजार मुनि, पैंतीस हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक, तीस लाख श्राविकाएँ, चारों प्रकारके देव और देवियाँ तथा तिथंच ये सब यथास्थान बैठे । इन सब बारह सभाओंसे वेष्टित भगवान् अत्यन्त सुशोभित हो रहे थे ॥६१-६४॥
तदनन्तर जब धर्मश्रवण करनेकी इच्छासे तीनों लोकोंके जीव यथास्थान स्थित हो गये तब गणधरके प्रश्नपूर्वक श्रीतीर्थकर भगवान्ने धर्मका उपदेश आरम्भ किया ॥६५॥ उन्होंने कहा कि सामान्य रूपसे सिद्ध और संसारीके भेदसे जीवके दो भेद हैं तथा दोनों ही भेद उपयोगरूप लक्षणसे युक्त हैं और विशेषकी अपेक्षा दोनों ही अनन्तानन्त भेदोंको धारण करनेवाले हैं ॥६६॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्ररूपी उपायके द्वारा जिन्होंने प्राप्त करने योग्य मुक्तिको प्राप्त कर लिया है तथा जो स्वरूपको प्राप्त कर सिद्धिक्षेत्र-लोकके अग्रभागपर तनुवात-वलयमें
१. प्रवत्तिताः घ. । २. विपुला ईशिता यस्य सः ।
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