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तृतीयः सर्ग:
२७ प्रातिहार्यादिविमवैर्विहृत्य विषयान् बहून् । अय॑मानः सुरैरायान्मागधं विषयं विभुः ॥३९॥ प्राप्तसप्तर्द्धिसंपद्भिः समस्तश्रुतपारगैः । गणेन्द्ररिन्द्रभूत्याद्यैरेकादशमिरन्वितः ॥४०॥ इन्द्रभूतिरिति प्रोक्तः प्रथमो गणधारिणाम् । अग्निभूति द्वितीयश्च वायुभूतिस्तृतीयकः ॥११॥ शुचिदत्तस्तुरीयस्तु सुधर्मः पञ्चमस्ततः । षष्ठो माण्डव्य इत्युक्तो मौर्यपुत्रस्तु सप्तमः ॥४२॥ अष्टमोऽकम्पनाख्यातिरचलो नवमो मतः । मेदार्यो दशमोऽन्त्यस्तु प्रभासः सर्व एव ते ।।४।। तप्तदीप्तादितपसः सचतुर्बद्धिविक्रियाः । अक्षीणौषधिलब्धीशाः सद्सर्द्धिबल यः ॥४४॥ पञ्चानामानुपूर्वेण गणसंख्या गणेशिनाम् । द्वे सहस्रे शतं त्रिंशत् प्रत्येकमृषयः स्मृताः ॥४५॥ ततः परं द्वयोज्ञेयाः पञ्चविंशा चतुःशती। चतुर्णा षट्शती तेषां पञ्चविंशा तपोभृताम् ॥४॥ तत्र पूर्वधरास्त्रीणि शतानि नव वैक्रियाः। त्रयोदश शतान्यासन्नवधिज्ञानचक्षुषः ।।४७।। शतानि सप्त कालेन केवलज्ञानलोचनाः । शतानि पञ्च संख्यातास्तथा विपुलबुद्धयः ॥४८॥ पतुःशतानि जेतारो वादिनः परवादिनाम् । शिक्षका नव विज्ञेयाः सहस्राणि शतानि च ॥४॥ सैकादशगणाधीशश्चतुर्दशसहस्रकः । ऋषिसंघो जिनस्याभात् सनद्योघ इवाम्बुधिः ॥५०॥ युक्तः प्राप जिनो जैन्या जगद्विस्मयनीयया । लक्ष्म्या लक्ष्मीगृहं राजद्गृहं राजगृहं पुरम् ॥५१॥ पञ्चशैलपुरं पूतं मुनिसुवतमन्मना । यत्परध्वजिनीदुर्ग पञ्चशैलपरिष्कृतम् ॥५२॥ ऋषिपूर्वो गिरिस्तत्र चतुरस्रः सनिझरः । दिग्गजेन्द्रमिवेन्द्रस्य ककुभ मषयत्यलम् ।।५३।।
वैमारो दक्षिणामाशां त्रिकोणाकृतिराश्रितः । दक्षिणापरदिग्मध्यं विपुलश्च तदाकृतिः ॥५४॥ समान थी ऐसी भगवान्की दिव्यध्वनि तीनों जगत्को पवित्र कर रही थी ॥३८॥ इस प्रकार प्रातिहार्य आदि विभवके साथ अनेक देशोंमें विहार कर देवोंके द्वारा पूजित होते हुए भगवान् महावीर फिरसे मगध देश में आये ॥३९॥ वे भगवान् सप्त ऋद्धिरूपी सम्पदाको प्राप्त करनेवाले एवं समस्त श्रुतके पारगामी इन्द्रभूति आदि ग्यारह गणधरोंसे सहित थे ॥४०॥ उन ग्यारह गणधरोंमें प्रथम गणधर इन्द्रभूति थे, द्वितीय अग्निभूति, तृतीय वायुभूति, चतुर्थ शुचिदत्त, पंचम सुधर्म, षष्ठ माण्डव्य, सप्तम मौर्यपुत्र, अष्टम अकम्पन, नवम अचल, दशम मेदार्य और अन्तिम प्रभास थे। ये सभी गणधर, तप्त दीप्त आदि तप, ऋद्धिके धारक तथा चार प्रकारकी बुद्धि ऋद्धि, विक्रियाऋद्धि, अक्षीणऋद्धि, औषधिऋद्धि, रसऋद्धि और बलऋद्धिसे सम्पन्न थे ॥४१-४४।। इनमें से प्रारम्भके पाँच गणधरोंकी गण-शिष्य संख्या, प्रत्येककी दो हजार एक सौ तीस, उसके आगे छठे और सातवें गणधरकी गण संख्या प्रत्येककी चार सौ पचीस, तदनन्तर शेष चार गणधरोंकी गण संख्या प्रत्येककी छह सौ पचीस । इस प्रकार ग्यारह गणधरोंकी शिष्य संख्या चौदह हजार थी।।४५-४६।। इन चौदह हजार शिष्योंमें तीन सौ पूर्वके धारी, नौ सौ विक्रिया-ऋद्धिके धारक, तेरह सौ अवधिज्ञानी, सात सौ केवलज्ञानी, पांच सौ विपुलमति मनःपर्यय ज्ञानके धारक, चार सौ परवादियोंको जीतनेवाले वादी और नौ हजार नौ सौ शिक्षक थे। इस प्रकार श्रीजिनेन्द्र देवका, ग्यारह गणधरोंसे सहित चौदह हजार मुनियोंका संघ, नदियोंके प्रवाहसे सहित समुद्र के समान सुशोभित हो रहा था ।।४७-५०।। इस तरह जगत्को विस्मयमें डालनेवाली आहंन्त्य लक्ष्मीसे सहित श्रीवर्धमान जिनेन्द्र उस राजगृह नगरमें आये जो लक्ष्मीका मानो घर था और जिसमें अनेक उत्तमोत्तम घर सुशोभित हो रहे थे ||५१|| राजगृह नगरमें पाँच शैल हैं इसलिए उसका दूसरा नाम पंचशैलपुर भी है। यह श्री मुनिसुव्रत भगवान्के जन्मसे पवित्र है, शत्रु-सेनाओंके लिए दुर्गम है एवं पांच पर्वतोंसे सुशोभित है ॥५२॥ पाँचों पर्वतोंमें प्रथम पर्वतका नाम ऋषिगिरि है, यह चौकोर, झरते हुए निर्झरनोंसे सुशोभित है तथा ऐरावत हाथोके समान पूर्व दिशाको अत्यन्त सुशोभित कर रहा है ।।५३।। वैभार नामका दूसरा पर्वत दक्षिण दिशामें है तथा त्रिकोण आकृतिका १. देशान् । २. शत्रुसेनादुर्गमम् ।
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