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कारण से ही उद्भवित होते हैं । स्त्रीका प्रेम पेसा विचित्र ढंगका है कि इससे स्पर्शनेन्द्रियको अवश्य कोई न कोई अवसर अपना मार्ग ढूंढ निकालने का मिल ही जाता है। जिसके परिणामस्वरूप कल्पनाशक्ति पर सुन्दर दिखाई देनेवाली किन्तु परिणाम में भयंकर हानेवाली मूतियें बनती रहती हैं और अन्त में कल्पनाशक्ति इतनी शक्तिहीन होजाती है कि मानसिक बल और तर्क-विचारणाका उस पर किसी भी प्रकारका अधिकार नहीं रहने पाता है । यह स्थिति इतनी खराब है कि उसका ख्याल हो सकता है । स्वस्त्रा के साथ ममत्व रखनेकी ही जब यहां मना ही की गइ है तो फिर परस्त्री सम्बन्ध में तो कितना तिरस्कार होना चाहिये यह मुख्यतया विचारने योग्य विषय हैं । स्त्रीकी जो ग्रन्थकत्ताने हीन वस्तुकेः साथ उपमा दो हैं इसे भलीभांति विचारने की आवश्यकता है । ये सब बातें अनुभव और सम्पूर्ण विचारणा तथा तत्त्वजागृति से ही समझमें प्रान योग्य है । व्यवहारदृष्टि से देखनेपर कदाच ऐसा प्रतीत होगा कि धार्मिक वृत्तिवाले पुरुष तो सब कुछ त्याग देनेका उपदेश करते है परन्तु ऐसा कैसे हो सकता है ? किन्तु आपकों ऐसा कभी भी विचार हृदयमे न लाना चाहिये । प्रत्यन्त उपयोगपूर्वक संसार चक्रका निरीक्षण किये बिना ही ऊपर ऊपरके हावभाव में तल्लिन होजाना सम्भव है ऐसे समय में इस अधिकारका रहस्य समझना और प्राप्त करना अत्यन्त कठीन है । यह सम्पूर्ण अधिकार पुरुष वर्गको ही उद्देश कर लिखा गया है, क्योंकेि जैन शास्त्रकार पुरुषप्रधान धर्म कहत है, इसलिये स्त्रियोंको शब्द रचनामें यथांचित फरफार कर स्त्री ममत्वमाचन अधिकारको पुरुष ममत्वमोचन अधिकार के रूपसे पढ़ना चाहिये | यह भोर इसके बाद में आनेवाले तीन अधिकार बाह्य सम्बन्धोंको आधयित कर लिखे गये हैं, परन्तु वे सम्बन्ध विभावदशाके कारण प्रात्मिक सम्बन्ध के समान होगये हैं, इसलिये उन सम्बन्धोंका स्वरूप, स्थिति और परिणाम प्रत्यन्त बारीकी से देखने की आवश्यकता है । यह अधिकार मोहनीय कर्मके साम्राज्यकी प्रबलताकों प्रदर्शित करता है ।
तीसरा पुत्रममत्वमोचन अधिकार अत्यन्त संक्षेप रूपसे किन्तु आवश्यकिय विषय पर लिखा गया है । कह प्राणी पुत्रपुत्रीरूप