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उसका प्रथम कारक समता है। सांसारिक स्थिति में रहनेवालेका तो मुख्य साध्य समताप्राप्तिमा ही होना चाहिये, इसलिये का बात ग्रन्थके अन्तमें प्रानी चाहिये किन्तु इसके स्थानमें मुख्य बात को बहुत बढ़ा कर कहने कई बार पाठकोंको गबराहट हो जाती है ऐसा समझ कर वे प्रथम अधिकारमें ही समताका. विवेचन करते हैं और अन्तिम अधिकारमें भी फिर उसीका विवेचन करते हैं । इसके बीचके सब. अधिकार समताके अन्तर्गत आते हैं। कितने ही तो समताको परम साध्य. माननेके कारणभूत है, कितने ही उसके साधनोंकी पूर्ती करते हैं और कितने ही उसके मार्गको प्रदर्शित करते हैं। इस प्रथके सोलह अधिकारोंमें कौन, कौनसे विषय किस किस प्रकार बतलाये हैं उनमें प्रवेश करनेके लिये यथोचित अत्यन्त सारांश रूपसे यहां उनका खुलासा प्रस्ताविका रूपसे किया गया. है, विशेष. हकीकत. अनुक्रमणिकाः तथा प्रत्येक अधिकारके अन्तिम भागमें लिखे हुए ' अन्तिम विवेचन' से मालुम होमी।
प्रथम अधिकास्में समताके स्वरूपपर विचार किया गया है। समता प्राप्त करनेके साधन बतलानेका मुख्य उद्देश इस अधि
कारमें रक्खा गया है। इस विषयका अत्यन्त १ समता उत्तम रूपसे विवेचन किया गया है। संसारके
सर्व व्यवहारोंमें समता रखनेकी अत्यन्त आव. श्यकता है। समता नहीं रखनेवाले प्राणीकी प्रकृति अत्यन्त अव्यपस्थित हो जाती है। वह चाहे जितने भी धर्मसाधन व पुण्य के कार्य क्यों न करे, परन्तु वे सब सोध्यहीन, विवेकहीन और अर्थहीन होते हैं । जब तक ऐहिक तथा आमुष्मिक कार्यमें समानतया समताका प्रवाह ठस. ठस कर नही समझाता तब तक अध्यात्मिक शरीर प्राण रहित हाडपिंजरके सहश है । मनुष्य चाहे जितनी लक्ष्मी एकत्रित करें, चाहे जितने वैभवका उपभोग करे, महे जितनी प्रतिष्ठा प्राप्त करे, परन्तु वस्तुतः अध्यात्मिक दृष्टिसे तो यदि उसमें समता न हो तो सब शून्य हैं, अधम हैं और इन से अधिक हानिकारक हैं; क्यों कि वे सब कारण अत्यात खर्चीले हैं, उड़ाउ हैं, हानिकारक हैं और परभवमें अधोगतिमें पतन मरा. नेवाले हैं । समतामयः जीवनकी खूबी इतनी: उत्तम. और विशिष्ट है