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को भाव अध्यात्म कहा जाता है । स्थापना और द्रव्य अध्यात्म भी साधनके रूपमें उपयोगी है, परन्तु ऐसा न कर बैठे कि साध. नको साध्य ही मानने लग जाय । साधनको साध्य माननेकी भूल प्राय: देखी जाती है कि जिससे साधनमें ही जीवन पूर्ण हो जाता है। दृष्टान्तके रूपमें व्याकरण अभ्यासका साधनमात्र है, साध्य भाषाज्ञान अथवा धर्मशास्त्रके ग्रन्थोंको पढ़ना है, फिर भी कई प्राणी व्याकरणके अभ्यासमें ही कई वरस अथवा सम्पूर्ण जीवन व्यतीत कर देते हैं। इसप्रकार अनेको प्राणी साध्य को बिना विचारे हो अथवा उसे निरन्तर दष्टि में रखे बिना ही साधनधर्मोमें ही अपने सम्पूर्ण जीवनकी पाहुति दे देते हैं । विशेषतया इस बातको अवश्य लक्ष्य में रखना चाहिये कि यदि साधनधर्मोमें जीवन स्वाहा भी होजाय तो कोई चिन्ता नहीं है क्योंकि पुनर्भव माननेवालेको तो उसका लाभ अन्य भवमें आगे भी प्राप्त हो सकता है, किन्तु कहनेका तात्पर्य यह है कि साध्य धर्मपर जो बहुत कम ध्यान दिया जाता है उसमें कुछ न न कुछ परिवर्तन अवश्य होना चाहिये । श्री आनन्दघनजी महाराज अध्यात्मके चार निक्षेपोंका अत्यन्त उपयुक्त विवेचन श्री श्रेयांसनाथजोके स्तवनमें करते हैं । उसमें वे उपरोक्त चार निक्षेपोंके नाम देनेसे पहिले कहते हैं किनिज स्वरूप जे किरिया साधे, तेह अध्यात्म लहाये रे । जे किरिया करी चौगति साधे, ते न अध्यात्म कहीये रे ॥
अध्यात्म उसीका नाम समझे कि जिससे ऊपरोक्त अध्यात्म भोव सिद्ध हो, निज स्वरूपमें रमणता हो, और निजस्वरूपमें स्थि. रता हो; अन्यथा जिस क्रियासे चार गतियोंमेंसे कोई शुभ या अशुभ गतिकी सिद्धि हो वह अध्यात्म नहीं कहा जा सकता है। यदि हम शुभ क्रियायें करें तो उससे देव अथवा मनुष्यगतिकी प्राप्ति होती हैं, परन्तु इन क्रियाको शास्त्रकार महत्तो नहीं देते हैं। शुभ कमबंध करानेवाली अथवा स्वस्वरूपरमण्यता कराकर निर्जरा करानेवाली ऐसी दो प्रकारकी क्रियायें होती हैं । अध्यात्मरसिक जीवोंको अन्य सर्व प्रकारकी क्रियाओंका परित्याग कर स्वस्वरूपमें रमणता करानेवाली क्रियाओंका ही अनुसरण करना चाहिये। इस हकी. कतके पश्चात् चार निक्षेपोंका स्वरूप बतलाते हैं, जिसपर हम पहिले