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मनको विशाल बनाना और कुछ उन्नति करना चाहिये। इस प्रकार उन्नत किया हुवा मन सर्व जीवोंकी ओर प्रेमभाव लाकर उसमें आनन्दका उपभोग करता है और इस प्रकारके अध्यात्मको श्रीयुत उपाध्यायजी निर्मल कहते हैं। वे ही महात्मा अध्यात्मसारके द्वितीय अधिकारमें कहते हैं कि-" गतमोहाधिकाराणामास्मानमधिकृत्य या । प्रवर्तते क्रिया शुद्धा तद्ध्यात्म जगुजिनाः ॥१॥" जिस महात्माका मोह नष्ट हो गया हो और जो प्रात्माका आश्रय लेकर, शुद्ध क्रिया करके अन्तरात्मामें प्रवृत हो जाय उनकी क्रियाका नोम तीर्थकर महाराज अध्यात्म बतलाते हैं । अध्यात्मके शब्दार्थको ग्रन्थकर्ताने कितनी हद तक योग्य सिद्ध कर बतलाया है यह हम और आगे पढ़ेंगे।
जैनशास्त्रकार प्रत्येक वस्तुके चार निक्षेपे मानते हैं । ये किसी भी वस्तुको भिन्न भिन्न दृष्टिसे देखनेके भिन्न भिन्न द्वार हैं ।
___अध्यात्मके भी उसी प्रकार चार निक्षेपे हो सकते चार निक्षेपसे हैं। नाम अध्यात्म, स्थापना अन्यात्म, द्रव्य अध्यात्म अध्यात्म और भाव अध्यात्म। केवल मात्र
'अध्यात्म' शब्द उच्चारण करना किन्तु उसका अर्थ न समझना यह नाम अध्यात्म कहलाता है। इसीप्रकार अध्यात्मका आडम्बर करनेवाले शुद्ध वर्तनरहित प्राणी नाम अध्यात्मी कहलाते हैं । आध्यात्मिक जीवन व्यतीत करनेवालेकी मूर्ति स्थापित करना अथवा अध्यात्मका अक्षरविन्यासीपन करना स्थापना अध्यात्म कहलाता है । अध्यात्म उत्पन्न करनेवाले उपदेश अथवा दृश्य या अन्य कारणोंको द्रव्य अध्यात्म कहेते हैं, अथवा रेचक, पूरक, कुंभकादि करके बाह्य वृत्तिसे ऐसा ध्यान बतलावे कि जिससे लोगोंको ऐसा जान पड़े मानों इसने अन्तरवृत्तिसे श्रास्माका स्वरूप प्रत्यक्ष कर लिया है, परन्तु स्वयं तो कोराका कोरा ही होता है । यह भी द्रव्य अध्यात्म कहलाता है और निज स्वरूपसहित क्रियाकी प्रवृति होना भाव अध्यात्म कहलाता है। ये चार निक्षेपे मुख्यतया विचारने योग्य हैं । इनमें से प्रथम तान परित्याग करने योग्य हैं और उपरोक्त श्लोकमें जैसा आचरण बनानेको कहा गया है वैसा ही बनानेका प्रयत्न करना लाभप्रद है । इस स्थिति