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सकते हैं, परन्तु इससे हमको विह्वल न होजाना चाहिये इसका एक बहुत ही सरल उपाय है । कोइ पुरुष अध्यात्मकी चाहे जितनी भो बातें क्यों न करता हो परन्तु उसकी बातों मात्रसे उसको अध्यात्मी या वैरागी न समझले । उसको व्यवहार कैसा है, उसका वर्तन कैसा है, उसकी समता कैसी है-इसपर बारीकीसे गुप्तरूपसे दृष्टि रक्खें । युक्तिसे व्यवहार चलानेवाले अन्तरंगमें चाहे जितना क्रोध क्यों न हो परन्तु अपनी मुखमुद्रापर लेशमात्र भी लालाइको दृष्टिगोवर नहीं होने देते हैं । परन्तु मुख्य प्रसंगोमें अध्यात्मकी बातें करनेवालेकी वृत्ति कैसी रहती है, इन्द्रियोंके विषयोंकी ओर उसकी रुचि कैसी होती है, विकट संकटोके उपस्थित होनेपर मनकी स्थिरता कैसी होती है और इसके भी अतिरिक्त यदि वह गृहस्थी हो तो पैसे सम्बन्धी उसका व्यवहार नीतिमय, प्रामाणिक
और सत्यपरायण है या नहीं इनपर बहुधा श्राध्यात्मीपनका आधार होता है। इसकी जांच करने, देखभाल करने और उससे अनुमान करने में अधिक समयकी आवश्यकता नहीं होती है। इसीप्रकार साधुके सम्बन्धमें भी उसकी पुस्तकादिपर ममता, शिष्यवृद्धिकी योग्यता अयोग्यता सम्बन्धी पुरी जांच किये बिना ही उनको ग्रहण करनेकी अनिवार्य इच्छा; गृहस्थोंके सांसारिक कार्योंमें प्रवेश आदि अनेक प्रकारसे परीक्षा की जा सकती है। ____ उपरोक्त विषयमें दो बातों पर विशेषतया ध्यान देनेकी आव. श्यकता है। प्रथम तो स्वयं शुष्क अध्यात्मी न बने और दूसरा शुष्क अध्यात्मियोंकी संगति कभी न करें । इन दोनों बातों पर मख्यतया धैर्य और दीर्घद्रष्टिसे विचार करनेकी अत्यन्त आवश्यकता है । संसारका ऐसा नियम है कि मोटे दुर्गुणोंमें फँसा हुआ प्राणी शिघ्रतया सहजहीमें उनसे छुटकारा नहीं पा सकता है और अध्यात्मी होना यह एक अत्यन्त मिट्ठो वस्तु है; अतएव होनेवाले
और इस ओर झुकनेवाले दोनोंको बहुत सचेत होनेकी आवश्यकता है । वैराग्यके विषयका इतना भूमिकामें निरूपण करके अब ग्रन्थ और प्रन्थकर्ता तथा उनके समयपर प्रस्ताव किया जायगा ।