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वैराग्यके विषयकी अत्यन्त महत्ता है। अध्यात्मशास्त्रका उद्देश वैराग्य उत्पन्न करने का ही है । सांसारिक भावोंकी ओर जो इस जीवको वैराग्य होता है वह आत्मिक जागृतिके साथही होता है इसलिये अध्यात्मग्रन्थ वैराग्यके विषयकी पुष्टि करते हैं । इससे आपको अच्छीतरहसे समझमें आगया होगा कि यैराग्यक विषयमें और अध्यात्मके विषयों परस्पर क्या सम्बन्ध है। इन दोनोंमें सम्बन्ध है ऐसा कहनेके स्थानमें यह दोनों एक दूसरेके अंग है ऐसा कहना अधिक उपयुक्त होगा । आत्मा सम्बन्धि विचार करनेवाले अध्यात्मशास्त्र आत्माको अनादि सम्बन्धसे हुए मुठे प्रेम और ममत्वसे दूर हठाकर उनकी प्रोतिको तोड़नेका उपदेश करते हैं जिसको अन्य शब्दोंमें कहा जाय तो वैराग्य है।
इसके साथ साथ एक बात पर और विचार करनेकी आवश्यकता है । इस जमानेमें वैराग्यके विषयके उपदेशकी आव.
श्यकता है, किन्तु इस बातका ज्यान रक्खे कि आडंबरकी विपुलता वैराग्य-अध्यात्मके ढोंगी भी कितने ही होते हैं ।
मुँहसे 'हे चेतन ! हे चेतन !' करना और जीवनके किसी भी भागमें व्यवस्था नहीं, समानता नहीं, विवेक नहीं
और व्यवहारशुद्धि नहीं, ऐसा उनका स्वरूप अत्यन्त धिक्कारने योग्य है। अध्यात्मका मुख्य स्वरूप व्यवहारमें प्रगट होना चाहिये । आत्मा, परभव, वैरोग्य आदिकी बड़ी बड़ी बातें बनाना सहज हैं, जैनधर्मका सामान्य स्वरूप समझनेवाला भी ऐसी बातें कर सकता है; परन्तु ऐसी बातों मात्रसे कुछ लाभ नहीं हो सकता है अपितु बहुधा हानि होनेकी संभावना हैं । हानि इसलिये होती हैं कि बात करनेवाले बाते करनेमें ही सम्पूर्णता समझते हैं। इससे अध्यात्म ज्ञानसे होनेवाली आत्मिक उन्नति नहीं है किन्तु बहुधा उसके स्थानमें दंभ-माया-कपट-बाह्य देखाव आदि महा दुर्गुण प्रवेश होते हैं । जो आत्मिक बातें इसप्रकार निर्जीव रूपसे ग्रहण करते हैं और उनको प्रवेश होने देते हैं, उनका विकाश बहुत धीरे धीरे होता है और बहुधा अपक्रांति होती है। अध्यात्मि होनेका आडम्बर करनेके कई कारण हैं । संसारमें कई पुरुष प्राकृत व्य. वहारमें होकर मध्यम प्रवाहपर या कनिष्ट प्रवाह पर ही बहते रहते हैं। फिर भी जनस्वभावकी यह एक विशेषता है कि प्रा.
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