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आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती रचित
गोम्मटसार (जीवकाण्ड)
भाग-२
सम्पादन-अनुवाद डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री
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गोम्मटसार जैन-धर्म के जीवतत्त्व और कर्मसिद्धान्त की विस्तार से व्याख्या करनेवाला महान् ग्रन्थ है “गोम्मटसार' । आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती (दसवीं शताब्दी) ने इस वृहत्काय ग्रन्थ की रचना 'गोम्मटसार जीवकाण्ड' और 'गोम्मटसार कर्मकाण्ड' के रूप में की थी। डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये और सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री के सम्पादकत्व में यह ग्रन्थ भारतीय ज्ञानपीठ से सन् १९७८-१६८१ में प्राकृत मूल गाथा, श्रीमत् केशववी विरचित कर्णाट वृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका, संस्कृत टीका तथा हिन्दी अनुवाद एवं विस्तृत प्रस्तावना के साथ पहली बार चार वृहत् जिल्दों (गोम्मटसार जीवकाण्ड, भाग १,२ और गोम्मटसार कर्मकाण्ड, भाग १,२) में प्रकाशित हुआ था। और अब जैन धर्म-दर्शन के अध्येताओं एवं स्वाध्याय-प्रेमियों को समर्पित है ग्रन्थ का यह नया संस्करण, नयी साजसज्जा के साथ।
Jain Educa
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ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला : प्राकृत ग्रन्थांक-१५
आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती रचित
गोम्मटसार
(जीवकाण्ड) द्वितीय भाग
[ श्रीमत्केशववर्णी विरचित कर्णाटवृत्ति, संस्कृत टीका जीवतत्त्वप्रदीपिका,
हिन्दी अनुवाद तथा प्रस्तावना सहित ]
सम्पादन एवं अनुवाद डॉ. आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री
भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन
वीर नि. संवत् २५२२ ० वि. संवत् 20५३ 0 सन् १६६७ द्वितीय संस्करण - मूल्य १८५.०० रुपये
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भारतीय ज्ञानपीठ
( स्थापना: फाल्गुन कृष्ण ६, वीर नि. सं. २४७० : विक्रम सं. २००० : १८ फरवरी १६४४ )
स्व. पुण्यश्लोकी माता मूर्तिदेवी की पवित्र स्मृति में
स्व. साहू शान्तिप्रसाद जैन द्वारा संस्थापित
एवं
उनकी धर्मपत्नी स्वर्गीय श्रीमती रमा जैन द्वारा सम्पोषित
मूर्तिदेवी जैन ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी, कन्नड़, तमिल आदि प्राचीन भाषाओं में उपलब्ध आगमिक, दार्शनिक, पौराणिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक आदि विविध विषयक जैन साहित्य का अनुसन्धानपूर्ण सम्पादन तथा उसका मूल और यथासम्भव अनुवाद आदि के साथ प्रकाशन हो रहा है। जैन-भण्डारों की सूचियाँ, शिलालेख-संग्रह, कला एवं स्थापत्य, विशिष्ट विद्वानों के अध्ययन-ग्रन्थ और लोकहितकारी जैन साहित्य-ग्रन्थ भी इसी ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो रहे हैं।
ग्रन्थमाला-सम्पादक (प्रथम संस्करण)
सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री डॉ. ज्योतिप्रसाद जैन
प्रकाशक
भारतीय ज्ञानपीठ
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INANPITH MOORTIDEVI JAIN GRANTHAMALA : Prakrit Grantha No.15
GOMMATASĀRA
(JĪVAKĀNDA)
ACHARYA NEMICHANDRA SIDDHANTA-CHAKRAVARTI
PART II
[With Karnāța-vrtti, Sanskrit Tikā Jivatattvapradipikā,
Hindi Translation & Introduction ]
by
Dr. A. N. Upadhye Siddhantacharya Pt. Kailash Chandra Shastri
BHARATIYA JNANPITH PUBLICATION
Vīka NIRVĀŅA SAMVAT 2522 V. SAMVAT 2053 D A.D. 1997
Second Edition a Price Rs. 185.00
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BHARATIYA JNANPITH
(Founded on Phalguna Krishna 9: Vira Sam. 2470, Vikrama Sam. 2000: 18th Feb., 1944)
MOORTIDEVI JAINA GRANTHAMALA
FOUNDED BY
LATE SAHU SHANTI PRASAD JAIN
IN MEMORY OF HIS LATE MOTHER SHRIMATI MOORTIDEVI
AND
PROMOTED BY HIS BENEVOLENT WIFE
LATE SHRIMATI RAMA JAIN
IN THIS GRATHMALA CRITICALLY EDITED JAINA AGAMIC, PHILOSOPHICAL, PAURANIC, LITERARY, HISTORICAL AND OTHER ORIGINAL TEXTS AVAILABLE IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRMSHA, HINDI, KANNADA, TAMIL ETC., ARE BEING PUBLISHED IN THE RESPECTIVE LANGUAGES WITH THEIR TRANSLATIONS IN MODERN LANGUAGES. ALSO BEING PUBLISHED ARE CATALOGUES OF JAINA-BHANDARAS, INSCRIPTIONS, STUDIES ON ART ARCHITECTURE BY COMPETENT SCHOLARS AND ALSO POPULAR JAINA LITERATURE.
General Editors (First Edition)
Siddhantacharya Pt. Kailash Chandra Shastri
Dr. Jyoti Prasad Jain
Published by Bharatiya Jnanpith
18, Institutional Area, Lodi Road, New Delhi-110003
Printed at: Vikas Offset, Naveen Shahdara, Delhi-110032
All Rights Reserved
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विषय-सूची
१२. ज्ञानमार्गणा ५०५-६८० प्राभृतक-प्राभृतकका स्वरूप
५७३ निरुक्तिपूर्वक ज्ञानसामान्यका लक्षण ५०५ प्राभृतकका स्वरूप
५७४ ज्ञानके भेद ५०६ वस्तु श्रुतज्ञानका स्वरूप
५७५ मिथ्याज्ञानकी उत्पत्तिके कारण और स्वरूप ५०७ पूर्व श्रुतज्ञानका स्वरूप
५७५ सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ज्ञानका स्वरूप ५०८ चौदह पूर्वोका कथन
५७६ मिथ्याज्ञानोंका विशेष लक्षण
५०९ चौदह पूर्वगत वस्तुओंके प्राभृतक अधिकारोंकी मतिज्ञानका कथन ५१२ संख्या
५७७ मतिज्ञानके भेद ५१३ श्रुतज्ञानके भेदोंका उपसंहार
५७८ अवग्रह और ईहाका स्वरूप ५१५ द्वादशांगके पदोंकी संख्या
५८१ अवाय और धारणाका स्वरूप ५१७ अंगबाह्यकी अक्षर संख्या
५८१ बहु-बहुविध अन्तर
५१८ श्रुतके समस्त अक्षर और उनको लानेका अनिसुतका स्वरूप ५१९ क्रम
५८३-५९० उसका उदाहरण
५२० अंगों और पूर्वोके पदोंकी संख्या ५९२-५९८ श्रुतज्ञान सामान्यका लक्षण ५२२ दृष्टिवादके पांच अधिकार
६०० श्रुतज्ञानके मूल भेद ५२४ उनमें पदोंकी संख्या
६०३ श्रुतज्ञानके बीस भेद ५२५ चौदह पूर्वोमें पदोंको संख्या
६०४ पर्याय श्रुतज्ञानका स्वरूप ५२७ चौदह अंगबाह्योंका स्वरूप
६१२ पर्याय समासका कथन
५२९ श्रुतज्ञानका माहात्म्य छह वृद्धि और उनकी संज्ञा ५३० अवधिज्ञानका कथन
६१७ षट्स्थान वृद्धियोंका क्रम ५३१ अवधिज्ञानके दो भेद
६१८ षट्स्थानोंका आदि और अन्तिम स्थान ५५३ गुणप्रत्यय अवधिज्ञानके छह भेद
६१९ षट्स्थान वृद्धियोंका जोड़ ५५५ अवधिज्ञानके तीन भेद
६२० लब्ध्यक्षर ज्ञान दुगुना ५५७ उनकी विशेषताएँ
६२१ अक्षर श्रुतज्ञानका कथन ५६६ जघन्य देशावधिका विषय
६२३ श्रुतमें निबद्ध विषय
५६९ जघन्य देशावधिका क्षेत्र अक्षर समासका स्वरूप ५७० जघन्य देशावधिका काल-भाव
६२७ पद श्रुत ज्ञानका स्वरूप ५७० ध्रुवहारका प्रमाण
६२८ पदमें अक्षरोंका प्रमाण
५७० देशावधिके द्रव्यकी अपेक्षा विकल्प संघात श्रुतज्ञानका स्वरूप
५७१ देशावधिके जघन्य-उत्कृष्ट क्षेत्र प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानका स्वरूप
५७२ परमावधिके भेद अनुयोग श्रुतज्ञान
५७३ देशावधिके मध्यम भेद
६२५
६३४
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गो० जीवकाण्डे
६८६
६५७
६६४
क्षेत्र और कालको लेकर उन्नीस काण्डक ६४२ यथाख्यातका स्वरूप ध्रुव और अध्रव वृद्धि का प्रमाण ६४५ देशविरतका स्वरूप
६८७ देशावधिका उत्कृष्ट द्रव्यादि ६४६ देशविरतके ग्यारह भेद
६८७ परमावधिका उत्कृष्ट द्रव्य ६४८ असंयतका स्वरूप
६८८ सर्वावधिका विषय ६४९ इन्द्रियोंके विषय
६८८ उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र ६५२ संयममार्गणामें जीवसंख्या
६८८ परमावधिका उत्कृष्ट क्षेत्र काल
६५३
१४. दर्शनमार्गणा नरकगतिमें अवधिका विषयक्षेत्र
६९१-६९५ अन्य गतियोंमें ६५८ दर्शनका स्वरूप
६९१ भवनत्रिकमें
चक्षुदर्शनका स्वरूप
६९२ स्वर्गवासी देवोंमें ६६० अचक्षुदर्शनका स्वरूप
६९२ कल्पवासी देवोंमें अवधिज्ञानका विषय द्रव्य अवधिदर्शनका स्वरूप लानेका क्रम
केवलदर्शनका स्वरूप
६९२ कल्पवासी देवोंके अवधिज्ञानके विषय-कालका
दर्शनमार्गणामें जीवसंख्या
६९३ प्रमाण
६६३
१५. लेश्यामार्गणा मनःपर्यय ज्ञानका स्वरूप
६९६-७८५ मनःपर्ययके भेद ६६५ लेश्याका स्वरूप
६९६ विपुलमतिके भेद ६६६ लेश्यामार्गणाके अधिकार
६९७ मनःपर्ययकी उत्पत्ति द्रव्यमनसे ६६७ लेश्याके छह भेद
६९८ द्रव्यमनका स्वरूप
द्रव्य लेश्याका स्वरूप
६९८ मनःपर्यय ज्ञानके स्वामो ६६८ नरकादि गतियों में द्रव्य लेश्या
६९९ ऋजुमति और विपुलमतिमें अन्तर ६६८ परिणामाधिकार
७०० ऋजुमतिके जाननेका प्रकार ६६९ लेश्याओंके स्थान
७०१ विपुलमतिके जाननेका प्रकार ६७० उन स्थानोंमें परिणमन
७०२ ऋजुमतिके विषयभूत जघन्य और उत्कृष्ट द्रश्य ६७१ संक्रमणके दो भेद
७०४ विपुलमतिके विषयभूत जघन्य द्रव्य ६७२ संक्रमणमें छह हानि-वृद्धियाँ
७०५ लिपुलमतिका उत्कृष्ट द्रव्य क्षेत्र
६७३ लेश्याओंका कार्य
७०७ ऋजुमति-विपुलमतिका काल
कृष्णलेश्याका लक्षण
७०७ केवलज्ञानका स्वरूप ६७६ नीललेश्याके लक्षण
७०८ ज्ञानमार्गणामें जीव संख्या
६७७ कपोत लेश्याके लक्षण तेजोलेश्याके लक्षण
७०९ १३. संयममार्गणा
६८१-६९०
पद्मलेश्याके लक्षण संयमका स्वरूप ६८१ शुक्ललेश्याके लक्षण
७१० संयमभावका कारण
६८१ __लेश्याओंके छब्बीस अंश सामायिक संयमका स्वरूप ६८३ अपकर्ष कालमें आयुबन्ध
७१२ छेदोपस्थापनाका स्वरूप
६८४ लेश्याओंके उत्कृष्ट आदि अंशोंमें मरनेवालोंका परिहार विशुद्धि किसके
६८४ जन्म
७१८ सूक्ष्मसाम्परायका स्वरूप
६८६ नारकियों आदिमें लेश्या
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विषय-सूची
له
८०४ .
८०७ ८०८ ८०८
GK00000
به
भोगभूमिमें लेश्या ७२० पुद्गलका लक्षण
८०३ गुणस्थानोंमें लेश्या ७२५ परमाणुका स्वरूप
८०४ देवोंमें लेश्या
छह द्रव्योंका लक्षण अशुभ लेश्यावालोंकी संख्या ७२८ कालद्रव्यका स्वरूप
८०५ शुभ लेश्यावालोंकी संख्या
७३१ अमूर्त द्रव्योंमें परिणमन कैसे लेश्यावालोंका क्षेत्र
७३५ पर्यायका काल उपपाद क्षेत्रानयन
७४६ समय और प्रदेशका स्वरूप शुक्ललेश्याका क्षेत्र
७५८ आवली, उच्छवास, स्तोक और लवका स्वरूप ८०९ अशुभ लेश्याओंका स्पर्शन
७६० नाली,मुहूर्त और भिन्न मुहूर्तका स्वरूप ८१० तेजोलेश्याका स्पर्शन लानेके लिए गणितकी व्यवहारकाल मनुष्यलोकमें
८११ प्रक्रिया
अतीतकालका प्रमाण सब द्वीप-समुद्रोंका प्रमाण
७६८ वर्तमानकालका प्रमाण एक योजनके अंगुल
भाविकालका प्रमाण राजू का प्रमाण
७७१ छह द्रव्योंका अवस्थानकाल पद्म लेश्यावालोंका स्पर्शन
७७६ छह द्रव्योंका अवस्थान क्षेत्र शुक्ल लेश्यावालोंका स्पर्शन
७७७ पुद्गल द्रव्य और कालाणुके प्रदेश छह लेश्याओंका काल ७७९ लोकाकाश और अलोकाकाश
८१७ , ,, का अन्तर ७८० द्रव्योंकी संख्या
८१७ लेश्यारहित जीव
७८५ प्रदेशके तीन प्रकार
चल, अचल चलाचल १६. भव्यमार्गणाधिकार ७८६-८००
पुद्गल वर्गणाके तेईस भेद भव्य और अभव्य जीव
वर्गणाओंका स्वरूप जो भव्य भी नहीं और अभव्य भी नहीं
वर्गणाओंमें जघन्य-उत्कृष्ट भेद
८३८ अभव्य और भव्य जीवोंकी संख्या ७८७ पुद्गल द्रव्यके छह भेद
८४६ नोकर्म द्रव्य परिवर्तन ७८८ स्कन्ध, देश और प्रदेश
८४७ कर्म द्रव्य परिवर्तन
७९० द्रव्योंका उपकार स्वक्षेत्र परिवर्तन
७९३ जीव और पुद्गलका उपकार परक्षेत्र परिवर्तन ७९३ कर्म पौद्गलिक है
८५० काल परिवर्तन
७९४ वचन अमूर्तिक नहीं है भव परिवर्तन
७९५ मनके पृथक् द्रव्य और परमाणुरूप होनेका भाव परिवर्तन ७९६ निराकरण
८५२ पाँच ग्राह्य वर्गणाओंका कार्य
८५४ १७. सम्यक्त्व मार्गणाधिकार ८०१-८९१
परमाणुओंके बन्धका कारण
८५४ सम्यक्त्वका लक्षण
तथा उसके नियम
८५६ सम्यग्दर्शनके दो भेद
८०१ पाँच अस्तिकाय द्रव्य, अर्थ और तत्त्व नाम क्यों ?
८०२ नौ पदार्थ छह द्रव्यों के अधिकार ८०२ गुणस्थानोंमें जीवसंख्या
८६२ छह द्रव्योंके नामादि ८०३ उपशम श्रेणिमें जीवसंख्या
८६४
V Vvv
به به
له
७८६
८४८ ८५०
८५१
८०१
८६० ८६१
کن کن کن مک
کن
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________________
पा
९०८ ९०८ ९०९
९१३
गो० जीवकाण्डे क्षपक श्रेणिमें जीवसंख्या
८६५ २१. ओघादेश प्ररूपणाधिकार ९०४-९३४ सयोगीजिनोंकी संख्या
नरकादि गतियोंमें गुणस्थान
९०४ सब संयमियोंकी संख्या
८६९ मनोयोग-वचनयोगमें गुणस्थान
९०६ अयोगियोंकी संख्या
८७०
औदारिक-औदारिक मिश्रमें ,, चारों गतिके मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और.
वैक्रियिक-वैक्रियिक मिश्रमें ..
९०७ असंयत सम्यग्दृष्टियोंकी संख्याके साधक
आहारक-आहारक मिश्रमें। पल्यके भागहारोंका कथन
८७०
कार्मणाकाय योगमें मनुष्यगतिमें सासादन आदि पाँच गुणस्थानों
वेदमार्गणामें में संख्या
.८८१ कषायमार्गणामें
९१० क्षायिक सम्यग्दर्शनका स्वरूप
ज्ञानमार्गणामें क्षायिक सम्यग्दर्शनकी विशेषताएँ
९१०
संयममार्गणामें वेदक सम्यग्दर्शनका स्वरूप
दर्शनमार्गणामें
९१३ उपशम सम्यक्त्वका स्वरूप
लेश्यामार्गणाम पाँच लब्धियोंका स्वरूप
सम्यक्त्वमार्गणामें उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके योग्य जीव
द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें सासादन सम्यग्दृष्टिका स्वरूप
९१५
संज्ञीमार्गणामें सम्यग्मिथ्यादृष्टिका स्वरूप
९१६
आहारमार्गणामें मिथ्याष्टिका स्वरूप
९१७
गुणस्थानोंमें जीवसमास सम्यक्त्व मार्गणामें जीवसंख्या
गति मार्गणामें जीवसमास १८. संज्ञिमार्गणा
८९२-८९४ गुणस्थानोंमें पर्याप्ति और प्राण
९१९ गुणस्थानों में संज्ञा
९१९ संज्ञी-असंज्ञीका लक्षण
८९२ गुणस्थानोंमें मार्गणा
९२१ संज्ञी-असंज्ञी जीवोंकी संख्या
८९३ गुणस्थानोंमें योग
९२५ गुणस्थानों में उपयोग
९३३ १९. आहारमार्गणा
८९५-८९९ आहारका लक्षण
८९५ अनाहारक और आहारक ८९६ २२. आलापाधिकार
९३५-१०७२ सात समुद्घात
८९६ गुणस्थानोंमें आलाप
९३६ समुद्घातका लक्षण
सामान्य-पर्याप्त-अपर्याप्त तीन आलाप ९३७ आहार-अनाहारका काल
८९७ अपर्याप्तके दो भेद
९३७ अनाहारकों-आहारकों की संख्या
चौदह मार्गणाओं में आलाप
९३८ गतिमार्गणामें आलाप
९३८ २०. उपयोगाधिकार
९००-९०३ इन्द्रिय मार्गणामें आलाप
९४२ उपयोगका स्वरूप और भेद ९०० कायमार्गणामें आलाप
९४३ साकार और अनाकार उपयोग
९०० योगमार्गणामें आलाप और उनका स्वरूप ९०१ शेष मार्गणाओं में आलाप
९४४ उनकी संख्या ९०१ जीवसमासोंमें विशेष
९४७
९१८ ९१८
८९७
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________________
६
विषय-सूची गुणस्थानों और मार्गणाओंमें
सामान्य नारक पर्याप्त असंयतमें बीस प्ररूपणाओंका कथन ९५०
बीस प्ररूपणाओंका कथन ९५८ पर्याप्त गुणस्थानोंमें
सामान्य नारक अपर्याप्त असंयत, अपर्याप्त गुणस्थानोंमें
घर्मा सामान्य नारक सामान्य मिथ्यादृष्टियोंमें
धर्मा सामान्य नारक पर्याप्त पर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंमें
घर्मा सामान्य नारक अपर्याप्त अपर्याप्त मिथ्यादृष्टियोंमें
__ धर्मा मिथ्यादृष्टि सासादन गुणस्थानवालोंके
धर्मा नारक पर्याप्त मिथ्य पर्याप्तक सासादन गुण...
घर्मा नारक अपर्याप्त , अपर्याप्त सासादन गुण.
घर्मा पर्याप्त सासादन सम्यग्मिथ्यादृष्टिके
, घर्मा मिश्र गु. असंयत गुणस्थानवर्तीके
धर्मा असंयत गु. असंयत गुणस्थानवर्ती पर्याप्तके ,
५२ घर्मा पर्याप्त असंयत असंयत गुणस्थानवर्ती अपर्याप्तके , ९५३ धर्मा अपर्याप्त असंयत देशसंयत गुणस्थानवर्तीके
द्वितीयादि पृथ्वी नारक सामान्य , प्रमत्त गुणस्थानवर्तीके
द्वितीयादि पृथ्वी नारक पर्याप्त , अप्रमत्त गुणस्थानवर्तीके
द्वितीयादि पृथ्वी नारक अपर्याप्त , अपूर्वकरण गुणस्थानवर्तीके ,
द्वितीयादि पृथ्वी नारक सामान्य प्रथम भाग अनिवृत्तिकरणमें
मिथ्यादृष्टि द्वितीय भाग
द्वितीयादि पृथ्वी नारक पर्याप्त तृतीय भाग
मिथ्यादृष्टि चतुर्थ भाग
द्वितीयादि पृथ्वी नारक अपर्याप्त पंचम भाग
मिथ्यादृष्टि सूक्ष्म साम्पराय
९५५ द्वितीयादि पृथ्वी नारक सासादन , उपशान्त कषाय
द्वितीयादि पृथ्वी नारक सम्यग्क्षीणकषाय
मिथ्यादृष्टि सयोगकेवली
, द्वितीयादि पृथ्वी नारक असंयत अयोगकेवली
सम्यग्दृष्टि सिद्ध परमेष्ठी
सामान्य तियंच सामान्य नारक
तियंच सामान्य पर्याप्तक सामान्य नारक पर्याप्त
तियंच सामान्य अपर्याप्तक सामान्य नारक अपर्याप्त
मिथ्यावृष्टि सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि ।
पर्याप्तक मि. सामान्य नारक पर्याप्त मिथ्याष्टि
अपर्याप्तक, सामान्य नारक अपर्याप्त मि.
सासादन सामान्य नारक सासादन
सासादन पर्याप्त सामान्य नारक मिश्र
सासादन अपर्याप्त, सामान्य नारक असंयत
, सम्यग्मिथ्यादृष्टि , _ [२-२
९६४
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________________
ति
, पर्याप्त
७४
गो० जीवकाण्डे तियंच सामान्य असंयत सम्यग्दृष्टिमें
सामान्य मनुष्य मिथ्यादृष्टि पर्याप्त बीस प्ररूपणाओंका कथन ९६४
बीस प्ररूपणा ९७१ " , असंयत पर्याप्त
" , अपर्याप्त " , असंयत अपर्याप्त
" सासादन सामान्य तिर्यञ्च देश संयत पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च
, अपर्याप्त , पर्याप्तक
सम्यग्मिध्यादृष्टि अपर्याप्तक
असंयत मिथ्यादृष्टि
असंयत पर्याप्त मिथ्यादृष्टि पर्याप्त
असंयत अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त
संयतासंयत सासादन
प्रमत्त सासादन पर्याप्त
प्रमत्त पर्याप्त सासादन अपर्याप्त
प्रमत्त अपर्याप्त मिश्र
अप्रमत्त असंयत
अपूर्वकरण असंयत पर्याप्त
अनिवृत्ति प्रथम ,, असंयत अपर्याप्त
, द्वितीय देशसंयत
___ " " , तृतीय योनिमती योनिमती पर्याप्त योनिमती अपर्याप्त
सूक्ष्मसाम्पराय ___, मिथ्यादृष्टि
उपशान्त कषाय योनिमती मिथ्यादृष्टि
क्षीणकषाय पर्याप्त
सयोगकेवली योनिमती मिथ्यावृष्टि
, , अयोगकेवली अपर्याप्त
मानुषी योनिमती सासादन
मानुषी पर्याप्त पर्याप्त ,
मानुषी अपर्याप्त , , ,अपर्याप्त ,,
मानुषी मिथ्यादृष्टि " , मिश्र ,
९७० मानुषी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि " " , असंयत ,
मानुषी अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि , देशसंयत
सासादन " , लब्ध्यपर्याप्तक
सासादन पर्याप्त
९७८ सामान्य मनुष्य
सासादन अपर्याप्त " , पर्याप्त
सम्यग्मिथ्यावृष्टि " , अपर्याप्त
असंयत सम्यग्दृष्टि " , मिथ्यादृष्टि
देशसंयत
९७५
___, चतुर्थ
, पंचम
१७
९७७
७१
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________________
मानुषी प्रमत्तसंयत
बीस प्ररूपणा ९८६
, अप्रमत्तसंयत
अपूर्वकरण अनिवृत्ति प्रथम भा० अनिवृत्ति द्वितीय
अनिवृत्ति तृतीय __ अनिवृत्ति चतुर्थ __ अनिवृत्ति पंचम , सूक्ष्मसाम्पराय
उपशान्तकषाय क्षीणकषाय
सयोगकेवली " अयोगकेवली मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक देवगति देवसामान्य पर्याप्तक देवसामान्य अपर्याप्तक देवसामान्य मिथ्यादृष्टि
मिथ्यादृष्टि पर्याप्त मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त सासादन सासादन पर्याप्त सासादन अपर्याप्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयत असंयत पर्याप्त
असंयत अपर्याप्त भवन त्रिक देव भवनतिक पर्याप्त देव भवनत्रिक अपर्याप्त देव
मिथ्यादृष्टि पर्याप्त मिथ्यादृष्टि अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि सासादन सासादन पर्याप्त सासादन अपर्याप्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयत
विषय-सूची बीस प्रणा ९७८ सौधर्मेशान देव
. देव पर्याप्त
देव अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि
, पर्याप्त
, अपर्याप्त सासादन सासादन पर्याप्त सासादन अपर्याप्त सम्यग्मिथ्यादृष्टि असंयत असंयत पर्याप्त
असंयत अपर्याप्त सानत्कुमार माहेन्द्रदेव
, , पर्याप्त ___" , अपर्याप्त सामान्य एकेन्द्रिय " , पर्याप्त " , अपर्याप्त बादर एकेन्द्रिय बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त
" , अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय
" , पर्याप्त __, , अपर्याप्त दोइन्द्रिय दोइन्द्रिय पर्याप्त दोइन्द्रिय अपर्याप्त त्रीन्द्रिय त्रीन्द्रिय पर्याप्त त्रीन्द्रिय अपर्याप्त चतुरिन्द्रिय चतुरिन्द्रिय पर्याप्त चतुरिन्द्रिय अपर्याप्त पंचेन्द्रिय
पंचेन्द्रिय पर्याप्त ९८६ पंचेन्द्रिय अपर्याप्त
पंचेन्द्रिय मिथ्यावृष्टि
५
1
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________________
१२
पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि पर्याप्त
अपर्याप्त
""
""
असंज्ञि पंचेन्द्रिय
असंज्ञि पंचेन्द्रिय पर्याप्त
अपर्याप्त
33
सामान्य पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त
संज्ञि पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त
असंज्ञि पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त
कायानुवाद
षट्काय सामान्य पर्याप्त
षटुकाय सामान्य अपर्याप्त
पृथ्वीकाय
पृथ्वीका पर्याप्तक
पृथ्वीकाय अपर्याप्तक
बादर पृथ्वीकायिक
"1
"
33
वनस्पतिकायिक
""
19
प्रत्येक वनस्पति
"
33
साधारण वनस्पति
17
11
"
31
13
सकाय
33
""
""
""
साधारण वादर वनस्पति
अकाय
चम पर्याप्तक
अस अपर्याप्तक
स मिथ्यादृष्टि
33
37
""
73
पर्याप्त
अपर्याप्त
अपर्याप्तक मनोयोगी
पर्याप्त
अपर्याप्त
पर्याप्तक
अपर्याप्तक
पर्याप्तक
अपर्याप्तक
पर्याप्त
अपर्याप्त
पर्याप्तक अपर्याप्तक
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गो० जीवकाण्डे
९९५
37
37
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11
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17
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17
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१००१
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१००२
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21
१००३
"1
31
१००४
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13
मनोयोग मिथ्यादृष्टि
मनोयोग सासादन
मनोयोगी मिश्र
मनोयोगी असंयत
मनोयोगी देशसंयत
मनोयोगी प्रमत्त
असत्य मनोयोगी
वाग्योगी
बायोगी मिथ्यादृष्टि
काययोगी
"
13
"
31
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33
31
31
31
19
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13
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11
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73
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73
17
""
पर्याप्तक
अपर्याप्तक
मिथ्यादृष्टि
37
31
"3
"
सासादन
〃
19
औदारिक काययोगी
33
सम्यमथ्यादृष्टि असंयत सम्यग्दृष्टि
पर्याप्त असंयत
अपर्याप्त असंयत
देशविरत
प्रमत्तसंयत
अप्रमत्तसंयत
पर्याο
अपर्या०
सयोग केवल
12
औदारिक मिश्रकाययोगी
पर्याप्तक अपर्याप्तक
21
23
मिथ्यादृष्टि
सासादन
सम्पग्मिथ्यादृष्टि असंयत सम्यग्दृष्टि
देशव्रती
"
वैक्रियिक काययोगी
बीस प्ररूपणा १००४
मिथ्यादृष्टि
सासादन
असंयत सयोगकेवलि
""
19
19
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१००५
39
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33
१००६
13
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33
१००७
33
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31
33
१००८
33
33
"9
१००९
"1
"
"1
31
१०१०
"
17
19
१०११
"1
13
37
१०१२
77
"
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________________
बीस प्ररूपणा १०२०
१०२१
विषय-सूची वैक्रियिक काययोगी मिथ्यादृष्टि बीस प्ररूपणा १०१२ नपुंसकवेदि-पर्याप्तक " , सासादन
, अपर्याप्तक " , सम्यग्मिथ्यादष्टि ।
मिथ्यावृष्टि " , असंयत
, पर्याप्तक वैक्रियिक मिश्रकाय
अपर्याप्तक ___ , , मिथ्यादृष्टि
__ " , सासादन ___" , सासादन
पर्याप्तक " " असंयत
१०१४
, अपर्याप्तक आहारक काययोगी
सम्यग्मिथ्यादृष्टि पाहारक मिश्रकाययोगी
असंयतसम्यग्दृष्टि कार्मण काययोगी
, पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि
, अपर्याप्तक सासादन सम्यग्दृष्टि
, देशविरत असंयत सम्यग्दृष्टि
अपगत वेद सयोगकेवलि
क्रोधकषायी स्त्रीवेदी
पर्याप्तक स्त्रीवेदि-पर्याप्तक
१०१६ अपर्याप्तक स्त्रीवेदि-अपर्याप्तक
मिथ्यादृष्टि स्त्रीवेदि-मिथ्यादृष्टि
, पर्याप्तक " , पर्याप्तक
, अपर्याप्तक , अपर्याप्तक
सासादन सासादन
, पर्याप्तक पर्याप्तक
, अपर्याप्तक ,, अपर्याप्तक
सम्यग्मिथ्यादृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि
असंयत सम्यग्दृष्टि असंयत
, पर्याप्तक स्त्रीवेदि-देशविरत
" अपर्याप्तक स्त्रीवेदि- प्रमत्त
देशविरत " अप्रमत्त
प्रमत्तसंयत अपूर्वकरण
अप्रमत्तसंयत अनिवृत्तिकरण
अपूर्वकरण पुवेदी
प्रथम अनिवृत्ति. -पर्याप्तक
द्वितीय अनिवृत्ति - अपर्याप्तक
अकषाय -मिथ्यादृष्टि
२० कुमति कुश्रुतज्ञानी , पर्याप्तक
__, , , पर्याप्तक , अपर्याप्तक
" " " अपर्याप्तक नपुंसक वेदी
, , , मिथ्यादृष्टि
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
सासादन
..
पका
गो० जीवकाण्डे कुमति कुश्रुतज्ञानी मिथ्यादष्टि पर्याप्तक
अवधिदर्शनी
बीस प्ररूपणा १०३९ बोस प्ररूपणा १०२९ , पर्याप्तक , , , अपर्याप्तक , १०३० , अपर्याप्तक सासादन
कृष्णलेश्या , , , पर्याप्तक
पर्याप्तक , अपर्याप्तक
अपर्याप्तक विभंगज्ञानी
मिथ्यादृष्टि मिथ्यादृष्टि
., पर्याप्तक सासादन
, अपर्याप्तक मतिश्रुतज्ञानी पर्याप्तक
पर्याप्तक अपर्याप्तक
, अपर्याप्तक असंयत
" मिश्र मतिश्रुतज्ञानी असंयत अपर्याप्तक
असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक
, पर्याप्तक मनःपर्ययज्ञानी
१०३३
, अपर्याप्तक केवलज्ञानी
कापोतलेश्या संयमानुवाद
पर्याप्तक " प्रमत्त संयत
अपर्याप्तक " अप्रमत्त सं.
मिथ्यादृष्टि सामायिक संयम
, पर्याप्तक परिहारविशुद्धि
, अपर्याप्तक यथाख्यात संयम
सासादन असंयम
, पर्याप्तक पर्याप्तक
, अपर्याप्तक अपर्याप्तक
सम्यग्मिथ्यादृष्टि चक्षुदर्शनी
असंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक
, पर्याप्तक अपर्याप्तक
., अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि
तेजोलेश्या , पर्याप्तक
पर्याप्तक , अपर्याप्तक
अपर्याप्तक अचक्षुदर्शनी
मिथ्यादृष्टि पर्याप्तक
, पर्याप्तक अपर्याप्तक
, अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि
सासादन ,, पर्याप्तक
, पर्याप्तक " अपर्याप्तक
सासादन अपर्याप्त
१०३४
"
my
१०३७
१
३
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________________
विषय-सूची
"
अभव्य
तेजोलेश्या सम्यग्मिथ्या. बीस प्ररूपणा १०४७ शुक्ललेश्या अप्रमत्तसंयत बीस प्ररूपणा १०५५
असंयत , पर्याप्तक
पर्याप्तक " अपर्याप्तक
१०४८ सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तक देशविरत
पर्याप्तक प्रमत्त
अपर्याप्तक अप्रमत्त
क्षायिक सम्यग्दृष्टि पद्मलेश्या
१०४९
पर्याप्तक पर्याप्तक
अपर्याप्तक अपर्याप्तक
असंयत मिथ्यादृष्टि
पर्याप्त असंयत , पर्याप्तक
अपर्याप्त असंयत , अपर्याप्तक
देशविरत सासादन
वेदक सम्यग्दृष्टि , पर्याप्त
पर्याप्तक , अपर्याप्त
अपर्याप्तक सम्यग्मिथ्यादृष्टि
असंयत असंयत सम्य.
" पर्याप्तक ,, पर्याप्तक
" अपर्याप्तक , अपर्याप्तक
देशविरत देशविरत
प्रमत्तसंयत प्रमत्तसंयत
अप्रमत्तसंयत .. अप्रमत्तसंयत
उपशम सम्यग्दृष्टि शुक्ललेश्या
पर्याप्तक पर्याप्तक
अपर्याप्तक अपर्याप्तक
असंयत मिथ्यादृष्टि
, पर्याप्तक " पर्याप्तक
१०५३
,, अपर्याप्तक " अपर्याप्तक
देशविरत सासादन
प्रमत्त " पर्याप्तक
अप्रमत्त " अपर्याप्तक
संज्ञी सभ्यग्मिथ्यादृष्टि
संज्ञी पर्याप्तक असंयत सम्य.
संज्ञो अपर्याप्तक " पर्याप्तक
संज्ञो मिथ्यादृष्टि " अपर्याप्तक
, , पर्याप्तक देशविरत
___ , , अपर्याप्तक प्रमत्त संयत
१०५५ , सासादन
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________________
गो० जीवकाण्डे
बीस प्ररूपणा १०६८
१०६४
१
सयागकवला
संज्ञी सासादन पर्याप्तक
, अपर्याप्तक " मिश्र ,, असंयत स०
, पर्याप्तक " , अपर्याप्तक असंज्ञी
पर्याप्तक ,, अपर्याप्तक आहारी
पर्याप्तक अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि
, पर्याप्तक ,, अपर्याप्तक सासादन
, पर्याप्तक
, अपर्याप्तक मिश्र असंयत
, पर्याप्तक ,, अपर्याप्तक देशसंयत
बीस प्ररूपणा १०६३ आहारी प्रमत्त
बप्रमत्त
अपूर्वकरण १०६४ ॥
अनिवृत्ति सूक्ष्मसाम्पराय उपशान्तकषाय क्षीणकषाय
सयोगकेवली १०६५ अनाहारी
मिथ्यादृष्टि सासादन असंयत प्रमत्त सयोगकेवली
अयोगकेवली , , सिद्धपरमेष्ठी
द्वितीयोपशम सम्यक्त्व सिद्धपरमेष्ठीके प्ररूपणाएं ग्रन्थसमाप्ति गाथानुक्रमणी
टोकागतपद्यानुक्रमणी १०६८ विशिष्ट शब्द सूची
.
.
.
१०७१
१०७३
१०७५ १०७७ १०८८ १०९२
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________________
ज्ञानमार्गणाधिकारः ॥१२॥
अनंतरं श्रीनेमिचंद्र सैद्धांतचक्रवत्तिगळु ज्ञानमार्गणेयं पेळलुपक्रमिसि निरुक्तिपूर्वक ज्ञानसामान्यलक्षणमं पेळ्दपरु।
जाणइ तिकाविसए दव्वगुणे पज्जए य बहुभेदे ।
पच्चक्खं च परोक्खं अणेण णाणेत्ति णं वेति ॥२९९।। जानाति त्रिकालेविषयान् द्रव्यगुणान् पर्यायांश्च बहुभेदान् । प्रत्यक्ष परोक्षमनेन ज्ञानमिति ५ इदं ब्रुवंति ॥
त्रिकालविषयान् वृत्तवत्स्यद्वर्तमानकालगोचरंगळप्प बहुभेदान् जीवादि ज्ञानादि स्थावरादि नानाप्रकारंगळप्प द्रव्यगुणान् जीवपुद्गलधर्माऽधर्माऽऽकाशकालंगळेब द्वव्यंगळुमं ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वसुखवीर्यादिगळं स्पर्शरसगंधवर्णाविगळं गतिस्थित्यवगाहनवर्तनाहेतुत्वादिगळमें बो गुणंगळुमं पर्यायांश्च स्थावरत्वत्रसत्वंगळुमणुत्वस्कंधत्वंगळं अर्थव्यंजनभेदंगळुमं परवुगुमें बी पर्यायं- १० गळमनात्म प्रत्यक्षं स्पष्टं परोक्षं च अस्पष्टममागि अनेन जानातीति अरिगमिदरिन दिंत ज्ञानमितीदं । ज्ञानमें दितिदं करणभूतमप्प स्वार्थव्यवसायात्मकमप्प जीवगुणमं अवंति पेळ्वरहंदादिगळी ज्ञानमे
वासवैः पूज्यपादाब्जं समवसृतिसंस्कृतम् ।
द्वादशं तीर्थकर्तारं वासुपूज्यं जिनं स्तुवे ॥१२॥ अथ श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तचक्रवर्ती ज्ञानमार्गणामुपक्रममाणो निरुक्तिपूर्वकज्ञानसामान्यलक्षणमाहत्रिकालविषयान् वृत्तवय॑द्वर्तमानकालगोचरान् बहुभेदान्-जीवादिज्ञानादिस्थावरादिनानाप्रकारान्
_ १५ द्रव्याणि जीवपुद्गलधर्माधर्माकाशकालाख्यानि, गुणान् ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वसुखवीर्यादीन् स्पर्शरसगन्धवर्णादीन् गतिस्थित्यवगाहनवर्तनाहेतुत्वादींश्च पर्यायांश्च स्थावरत्रससत्त्वादीन् अणुत्वस्कन्धत्वादीन् अर्थव्यञ्जनभेदानन्यांश्च आत्मप्रत्यक्षं स्पष्टं परोक्षं च अस्पष्ट अनेन जानातीति ज्ञानमितीदं करणभूतं स्वार्थव्यवसायात्मकं जीवगुणं
श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ज्ञानमार्गणाको प्रारम्भ करते हुए निरुक्तिपूर्वक ज्ञानसामान्यका लक्षण कहते हैं
त्रिकाल अर्थात् अतीत, अनागत और वर्तमान कालवर्ती बहुत भेदोंको अर्थात् जीव आदि,स्थावर आदि नाना प्रकारोंको, जीव-पुद्गल-धर्म-अधर्म-आकाश-काल नामक द्रव्योंको, ज्ञान-दर्शन- सम्यक्त्व-सुख-वीर्य आदि और स्पर्श-रस-गन्ध-वणे आदि गुणोंको, तथा गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, अवगाहनहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व आदि पर्यायोंको, स्थावर-त्रस .. आदिको, परमाणु-स्कन्ध आदिको अर्थपर्याय और व्यंजनपर्यायोंको इसके द्वारा प्रत्यक्ष २५ अर्थात् स्पष्ट और परोक्ष अर्थात् अस्पष्ट रूपसे जानता है, इसलिए अहन्त आदि इसे ज्ञान कहते हैं,यह जीवका व्यवसायात्मक गुण है । यह ज्ञान ही प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो १. म तिकालसहिए । २. त्रिकालसहितान् ।
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________________
५०६
गो० जीवकाण्डे प्रत्यक्षं परोक्षमुमें दितु द्विप्रकारमप्प प्रमाणमक्कुं। तत्स्वरूपसंख्याविषयफललक्षणंगळं तद्विप्रतिपत्तिनिराकरणमिमं स्याद्वादमतप्रमाणस्थापनमुमं सविस्तरमागि मात्तंडादितर्कशास्त्रंगळोळु नोडिकोळल्पडुवुदे के दोडेऽहेतुवादरूपमप्पागमदोळं हेतुवादक्कनधिकारवदिदं ।
अनंतरं ज्ञानभेदमं पेळ्दपं ।
पंचेव होंति णाणा मदिसुदओहीमणं च केवलयं ।
खयउवसमिया चउरो केवलणाणं हवे खइयं ॥३०॥ पंचैव भवंति ज्ञानानि मतिः श्र तावधिमनःपर्ययश्च केवलं । क्षायोपशमिकानि चत्वारि केवलज्ञानं भवेत्क्षायिकं ॥
मतिश्र तावधिमनःपर्य्ययकेवलम दितु सम्यग्ज्ञानंगळुमय्दे अप्पुव नाधिकंगळल्तु । यत्तलानु सामान्यापेक्षेयिदं संग्रहरूपद्रव्यात्थिकनयमनाश्रयिसि ज्ञानमो दे ये दु पेळल्पटुदंतादोडं विशेषा१० पेक्षयिदं पर्यायाथिकनयमनायिसि ज्ञानंगळय्दे एंदितु पेळल्पटुवें बुदत्थं । अवरोळु मतिश्रुता
वधिमनःपर्ययमेंब नाल्कुं ज्ञानंगळं क्षायोपशमिकंगळप्पुवु । मतिज्ञानाद्यावरणवीयांतरायकर्मद्रव्यगळनुभागक्के सर्वघातिस्पर्द्धकंगळगुदयाभावरूपमं क्षयमें बुदनुदयप्राप्तंगळ्गे सदवस्थारूपमनुपशमम बुदु । क्षयश्चासावुपशमश्च क्षयोपशमः । क्षयोपशमे भवानि क्षायोपशमिकानि । अथवा
क्षयोपशमः प्रयोजनमेषां क्षायोपशमिकानि । तत्तदावरणदेशघातिस्पर्द्धकंगळुदयक्के विद्यमानत्व१५ ब्रवन्ति-कथयन्ति अर्हदादयः । एतज्ज्ञानं प्रत्यक्षं परोक्षं चेति द्विविधं प्रमाणं भवति । तत्स्वरूपसंख्याविषय
फललक्षणानि तद्विप्रतिपत्तिनिराकरणं स्याद्वादमतप्रमाणस्थापनं च सविस्तरं मार्तण्डादितर्कशास्त्रषु द्रष्टव्यं, अत्राहेत्वादरूपे आगमे हेतुवादस्यानधिकारात् ॥२९९।। अथ ज्ञानभेदानाह
मतिश्रतावधिमनःपर्ययकेवलनामानि सम्यग्ज्ञानानि पञ्चैव नोनाधिकानि । यद्यपि सामान्यापेक्षया संग्रहरूपद्रव्यांथिकनयमाश्रित्य ज्ञानमेकमेव कथितं, तथापि विशेषापेक्षया पर्यायाथिकनयमाश्रित्य ज्ञानानि पञ्चवेत्युक्तानि इत्यर्थः। तेषु मतिश्रुतावधिमनःपर्ययाख्यानि चत्वारि ज्ञानानि क्षायोपशमिकानि भवन्ति मतिज्ञानाद्यावरणवीर्यान्तरायकर्मद्रव्याणां अनुभागस्य सर्वघातिस्पर्धकानामुदयाभावरूपः क्षयः, तेषामेव अनुदयप्राप्तानां सदवस्थारूप उपशमः । क्षयश्चासावुपशमश्च क्षयोपशमः क्षयोपशमे भवानि क्षायोपशमिकानि । अथवा क्षयोपशमः प्रयोजनमेषामिति क्षायोपशमिकानि । तत्तदावरणदेशघातिस्पर्धकानामुदयस्य विद्यमानत्वेऽपि
प्रकारका प्रमाण होता है। प्रमाणका स्वरूप, संख्या, विषय, फल तथा तत्सम्बन्धी विवादों२५ का निराकरण करके स्याद्वादसम्मत प्रमाणका स्थापन विस्तारपूर्वक प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि
तर्कशास्त्रके ग्रन्थों में देखना चाहिए । इस अहेतुवाद रूप आगम ग्रन्थमें हेतुवादका अधिकार नहीं है ।।२९९॥ ____ आगे ज्ञानके भेद कहते हैं
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल नामक सम्यग्ज्ञान पाँच ही हैं, न कम हैं, ३० न अधिक हैं । यद्यपि सामान्यकी अपेक्षा संग्रह रूप द्रव्यार्थिक नयके आश्रयसे ज्ञान एक ही
कहा है, तथापि विशेषकी अपेक्षा पर्यायार्थिक नयके आश्रयसे ज्ञान पाँच ही कहे हैं। यह उक्त कथनका अभिप्राय है। उनमें-से मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय नामक चार ज्ञान क्षायोपशमिक होते हैं। मतिज्ञान आदि आवरण और वीर्यान्तराय कर्म द्रव्यके अनुभागके
सर्वघाती स्पर्धकोंके उदयका अभाव रूप क्षय और जो उदय अवस्थाको प्राप्त न होकर सत्ता३५ में स्थित हैं, उनका वही हुआ सदवस्थारूप उपशम । क्षय और उपशमको क्षयोपशम कहते
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५०७
मादोडं ज्ञानोत्पत्तिप्रतिघातित्वाऽभावददमविवक्षेयरियल्पडुवुदु । केवलज्ञानं क्षायिकमेयक्कुमेक 'दोडे केवलज्ञानावरणवीर्यांतराय निरवशेषक्षयप्रादुर्भूतर्त्वादिदं क्षये भवं क्षयः प्रयोजनमस्येति वा क्षायिकं । येत्तलानुमात्मंग केवलज्ञानं प्रतिबंधकावस्थेयोळु शक्तिरूपदिदं मिदं तिर्दोडं प्रतिबंधकक्षर्याददमे तद्वक्तिक्कुमेदितु व्यक्त्यपेक्षयिदं कार्यत्वसंभवददं क्षायिकमे दितु पेळपट्टुडु । आवरणक्षयमुंटागुत्तिरलु प्रादुर्भवति ये बी निरुक्तिगे तद्व्यक्त्यपेक्षत्वमुळ्ळुदरिदं ।
अनंतरं मिथ्याज्ञानोत्पत्तिकारणस्वरूपस्वामिभेदंगळं पेळदपं :
अण्णाणतियं होदि हु सण्णाणतियं खु मिच्छ अणउदए । वरि विभंगं णाणं पंचिदियसणिपुण्णेव ॥ ३०१ ॥
अज्ञानत्रयं भवति खलु सज्ज्ञानत्रयं खलु मिथ्यात्वानंतानुबंध्युदये । विशेषो विभंगं ज्ञानं पंचेंद्रियसंनिपूर्ण एव ॥
आवुदोंदु मति तावधिगळु सम्यग्दर्शनपरिणतजीव संबंधि सम्यग्ज्ञानत्रयं संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्त जीवन विशेषग्रहण रूपाकारसहितोपयोगलक्षणमप्प तत् सम्यग्ज्ञानमे मिथ्यादर्शनानंतानुबंधिकषायान्यतमोदय मागुत्तिरलऽतत्वार्थ श्रद्धान परिणतजीवसंबंधिमिथ्याज्ञानत्रयं खलु स्फुटमक्कुं । raft विशेष आवदों दवधिज्ञानविपर्य्यायरूपमप्प विभंगमे व पेसरतुळ मिथ्याज्ञानमदु ज्ञानोत्पत्तिप्रतिघातित्वाभावात् अविवक्षा ज्ञातव्या । केवलज्ञानं पुनः क्षायिकमेव भवति केवलज्ञानावरणवीर्यान्तरायनिरवशेषक्षयेण प्रादुर्भूतत्वात् । क्षये भवं, क्षयः प्रयोजनमस्येति वा क्षायिकम् । यद्यप्यात्मनः केवलज्ञानं प्रतिबन्धकावस्थायां शक्तिरूपेण विद्यमानं, तथापि प्रतिबन्धकक्षयेणैव तद्व्यक्तिः स्यात् इति व्यक्त्यपेक्षया कार्यत्वसंभवात् क्षायिकमित्युक्तं । आवरणक्षये सति प्रादुर्भवति इति निरुक्तः तद्व्यक्त्यपेक्षत्वात् ॥ ३००॥ अथ मिथ्याज्ञानोत्पत्तिकारणस्वरूपस्वामिभेदानाह -
यत्सम्यग्दर्शनपरिणतजीवसंबन्धिमतिश्रुतावधिसंज्ञं सम्यग्ज्ञानत्रयं संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्तजीवस्य विशेषग्रहणरूपाकारसहितोपयोगलक्षणं तदेव मिथ्यादर्शनानन्तानुबन्धिकषायान्यतमोदये सति अतत्त्वार्थश्रद्धानपरिणतजीवसम्बन्धिमिथ्याज्ञानत्रयं खलु - स्फुटं भवति । नवरीति विशेषोऽस्ति यदवधिज्ञानविपर्ययरूपं विभङ्गनामकं
अब मिथ्याज्ञानकी उत्पत्ति के कारण, स्वरूप और स्वामीभेदोंको कहते हैं
जो सम्यग्दृष्टि जीवके मति, श्रुत और अवधि नामक तीन सम्यग्ज्ञान हैं, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके विशेष ग्रहणरूप आकार सहित उपयोग जिनका लक्षण है, वे ही तीनों मिथ्यादर्शन और (मिथ्यात्व विषयक) अनन्तानुबन्धी कषायमें से किसी एक कषायका उदय होनेपर अतत्त्वार्थश्रद्धानरूप परिणत मिथ्यादृष्टि जीवके मिथ्याज्ञान होते हैं । किन्तु इतना विशेष है
१०
२५
हैं। जो क्षयोपशम से होते हैं अथवा क्षयोपशम जिनका प्रयोजन हैं, वे क्षायोपशमिक हैं । क्षायोपशमिक ज्ञानों में यद्यपि उस उस आवरण सम्बन्धी देशघाती स्पर्धकोंका उदय विद्यमान रहता है, तथापि वे ज्ञानकी उत्पत्तिके प्रतिघाती नहीं हैं, इसलिए यहाँ उनकी विवक्षा नहीं है । किन्तु केवलज्ञान क्षायिक ही होता है, क्योंकि वह केवल ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तरायके सम्पूर्ण क्षयसे प्रकट होता है । जो क्षयसे होता है या क्षय जिसका प्रयोजन है, वह क्षायिक है । यद्यपि आत्मामें केवलज्ञान प्रतिबन्धक अवस्थामें शक्तिरूपसे विद्यमान है, तथापि प्रतिबन्धकके क्षयसे हो वह प्रकट होता है, इसलिए व्यक्तिकी अपेक्षा कार्य होनेसे उसे क्षायिक कहा है । आवरणका क्षय होनेपर प्रकट होता है, ऐसी निरुक्ति होनेसे उसकी व्यक्तिकी ३० अपेक्षा है ||३००||
१५
२०
३५
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________________
गो० जीवकाण्डे
तत्संज्ञिपंचेंद्रियपर्य्याप्तनोळेयक्कुमन्यनोच्ागर्द बुर्दारदं इतरमत्यज्ञानमुं श्रु ताज्ञानमुर्म बोयज्ञानद्वयमेकेंद्रियादिगळोळु पर्य्याप्तापर्य्याप्तकरोळेल्लरोळ मिथ्यादृष्टिसासादनरोल संभविसुगु में दु पेळपट्टुदातु । खलु स्फुटमागि ।
अनंतरं सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानदोळ ज्ञानस्वरूपमं पेव्दपं । मिस्सुद संमिस्सं अण्णाणतिएण णाणतियमेव ।
संजम विसेस सहिए मणपज्जवणाणमुद्दिट्ठ ॥ ३०२ ॥
मिश्रोदये संमिश्रमज्ञानत्रयेण ज्ञानत्रयमेव । संयमविशेषसहिते मनःपर्य्ययज्ञानमुद्दिष्टं ॥ मिश्रोदये सम्यग्मिथ्यात्वकम्र्मोदयमागुत्तिरलु अज्ञानत्रयदोडने सम्यग्ज्ञानत्रयमे संमिश्र संमिश्रमक्कुमशक्यविवेचनत्वदिदं । सम्यग्मिथ्यामतिज्ञानमुं सम्यग्मिथ्या तज्ञानमुं सम्यग्मिथ्या१० वधिज्ञानमु में व व्यपदेशमक्कुं । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोळ वर्त्तमानज्ञानत्रयं केवलं सम्यग्ज्ञानमुमल्तु । केवलं मिथ्याज्ञानमुमल्तु । मत्तं तप्पुदेदो डुभयात्मकश्रद्धानमात्मनोळे तंते वुभयात्मकत्वदिदं ज्ञानमुं संमिश्र दितु युक्तमप्पुदाचार्य्यं रुर्गाळदं पेळपट्टुवु । मनःपर्य्ययज्ञानं मत्त संयमविशेषसहितनोळु प्रमत्तत्यतादिक्षीणकषायपय्यं तमप्प गुणस्थानसप्तकदोळ तपोविशेषोपबृंहितविशुद्धिपरिणाममुळनो संभविसुगुमितरदेशसंयतादियोळु संभविसदेक दोर्ड देशसंयतादियो तद्विधतपो१५ विशेषाऽभावमप्युर्दारवं ।
५०८
मिथ्याज्ञानं तत् संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्त एव भवति नान्यस्मिन् जीवे इति अनेन इतरत् मत्यज्ञानं श्रुताज्ञानमिति एकेन्द्रियादिषु पर्याप्तापर्याप्तेषु सर्वेषु मिथ्यादृष्टिसासादनेषु संभवति इति कथितं भवति । द्वितीयः खलुशब्दः अतिशयेन स्पष्टत्वार्थे स्फुटं ॥ ३०१ ॥ अथ सम्यर्गमथ्यादृष्टिगुणस्थाने ज्ञानस्वरूपं निरूपयति
मिश्रोदय - सम्यक् मिथ्यात्वकर्मोदये सति अज्ञानत्रयेण सह सम्यग्ज्ञानत्रयमेव सम्मिश्रं भवति अशक्य२० विवेचनत्वेन सम्यग्मिथ्यामतिज्ञानं सम्यग्मिथ्या श्रुतज्ञानं सम्यग्मिथ्यावधिज्ञानमिति व्यपदेशभाग्भवति । सम्यग्मिथ्यादृष्टौ वर्तमानं ज्ञानत्रयं न केवलं सम्यग्ज्ञानं, न केवलं मिथ्याज्ञानं, किन्तु उभयात्मकश्रद्धानवत् उभयात्मकत्वेव मिथ्याज्ञानसंमिश्रं सम्यग्ज्ञानं भवति इत्याचार्यैः कथितं ज्ञातव्यम् । मनःपर्ययज्ञानं तु संयमविशेषसहितेष्वेव प्रमत्तसंयतादिक्षीणकषायपर्यन्तेषु सप्तगुणस्थानेषु तपोविशेषोपबृंहितविशुद्धिपरिणामविशिष्टेषु
कि जो अवधिज्ञानका विपरीत रूप विभंग नामक मिथ्याज्ञान है, वह संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त के २५ ही होता है, अन्य जीवके नहीं होता । इससे यह व्यक्त होता है कि अन्य मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान ये दोनों एकेन्द्रिय आदि पर्याप्त और अपर्याप्त सब मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थानवर्ती जीवोंके होते हैं ||३०१ ||
अब सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में ज्ञानका स्वरूप कहते हैं
मिश्र अर्थात् सम्यक मिध्यात्व कर्मका उदय होनेपर तीन अज्ञानोंके साथ तीनों ३० सम्यग्ज्ञान मिले हुए होते हैं। अलग-अलग करना शक्य न होनेसे उन्हें सम्यग्मिथ्या मतिज्ञान, सम्यग्मिथ्या श्रुतज्ञान और सम्यग्मिथ्या अवधिज्ञान नामसे कहते हैं । सम्यग्मिध्यादृष्टिमें वर्तमान तीनों ज्ञान न केवल सम्यग्ज्ञान होते हैं और न केवल मिथ्याज्ञान होते हैं, किन्तु जैसे उनके सम्यग्रूप और मिथ्यारूप मिला हुआ द्वान होता है, वैसे ही मिथ्याज्ञान और सम्यग्ज्ञान मिला हुआ होता है, यह आचार्यका कथन जानना । किन्तु मन:पर्ययज्ञान विशेष संयमसे सहित प्रमत्तसंयत नामक छठे गुणस्थानसे लेकर क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानपर्यन्त सात गुणस्थानों में तपविशेषसे वृद्धिको प्राप्त विशुद्धिरूप परिणामोंसे विशिष्ट
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं मिथ्याज्ञानविशेषलक्षणमं गाथात्रयदिदं पेळ्दपं ।
विसजतकूडपंजरबंधादिसु विणुवएसकरणेण ।
जा खलु पवट्टइ मई मइअण्णाणेत्ति णं वेति ॥३०३।। विषयंत्रकटपंजरबंधादिषु विनोपदेशकरणेन । या खलु प्रवर्तते मतिर्मत्यज्ञानमितीदं ब्रवंति ॥
विषयंत्रकूट पंजरबंध बिवु मोदलाद जीवमारणबंधनहेतुगळोळ या मतिः आवुदोंदु मति ५ परोपदेशकरणमिल्लद प्रतिसुगुमदे मत्यज्ञानमेंदु अर्हदादिगळु पेळ्वरल्लि परस्परसंयोगजनितमारणशक्तिविशिष्टतैलकर्पूरादिद्रव्यं विषमें बुदक्कुं। सिंहव्याघ्रादि क्रूरमृगंगळ धरणार्थमभ्यंतरीकृतच्छागादिजीवमनुळ्ळ काष्ठादिरचितमप्पुदु तत्पादनिक्षेपमात्रकवाटसंघटीकरणदक्षसूत्रकोलितमप्पुदु यंत्रमें बुदक्कुं । मत्स्यकच्छपमूषकादिग्रहणाय॑मवष्टब्धकाष्टादिमयं कूटमें बुदक्कुं। तित्तिरीलावकहरिणादिधारणात्य विरचितग्रंथिविशेषकलितरज्जुमयमप्प जालं पंजरमें बुदक्कुं। १० गजोष्टादिधारणार्थमवषुब्धमप्पगतमुखकोलितग्रंथिविशिष्टवारिरज्जुरचनाविशेषं बंध बुदक्कुं । आदिशदिवं पक्षिगळ पक्षमं पत्तिसि सिक्किसल्केंदु दीर्घदंडाप्रदोळ तोडद पिप्पलनिर्यासादि चिक्कणबंधमुं । गृहहरिणादिशृंगलग्नसूत्रग्रंथिविशेषादिगळ्गे ग्रहणमक्कुमुपदेशपूर्वकत्वदोळु संभवति नेतरदेशसंयतादिषु गुणस्थानेषु तथाविधतपोविशेषाभावात् ॥३०२॥ अथ मिथ्याज्ञानविशेषलक्षणं गाथात्रयेणाह
१५ विषयन्त्रकूटपञ्जरबन्धादिषु जीवमारणवन्धनहेतुषु या मतिः परोपदेशकरणेन विना प्रवर्तते तदिदं मत्यज्ञानमित्यहंदादयो ब्रुवन्ति । तत्र परस्परसंयोगजनितमारणशक्तिविशिष्टं तैलकर्पूरादिद्रव्यं विषं, सिंहव्याघ्रादिक्रूरमृगधारणार्थमभ्यन्तरीकृतछागादिजोवं काष्ठादिरचितं तत्पादनिक्षेपमात्रकवाटसंपुटीकरणदक्षं सूत्रकीलितं यन्त्रं, मत्स्यकच्छपमूषकादिग्रहणार्थमवष्टब्धं काष्ठादिमयं कूटं, तित्तिरलावकहरिणादिधारणार्थविरचितं ग्रन्थिविशेषकलितरज्जुमयं जालं पजरः, गजोष्ट्रादिधारणार्थमवष्टब्धो गर्तमुखकीलितग्रन्थिविशिष्टो २० वारोरज्जुरचनाविशेषो बन्धः । आदिशब्देन पक्षिपक्षलगनाथं दीर्घदण्डानम्रक्षितपिप्पलनिर्यासादिचिक्कणमहामुनियोंके होता है, अन्य देशसंयत आदि गुणस्थान में नहीं होता क्योंकि वहाँ उस प्रकारका तपविशेष नहीं है ॥३०२॥
अब तीन गाथाओंसे मिथ्याज्ञानोंका विशेष लक्षण कहते हैं___ जीवोंको मारने और बन्धनमें हेतु विष, यन्त्र, कूट, पंजर, बन्ध आदिमें बिना २५ परोपदेशके मति प्रवर्तित होती है,वह मतिअज्ञान है, ऐसा अहंन्त भगवान् आदि कहते है। परस्पर वस्तुके संयोगसे उत्पन्न हुई मारनेकी शक्तिसे युक्त तैल, रसकपूर आदि द्रव्य विष हैं । सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर जीवोंको पकड़ने के लिए, अन्दरमें बकरा आदि रखकर लकड़ी आदिसे बनाया गया, जिसमें पैर रखते ही द्वार बन्द हो जाता हो, ऐसा सूत्रसे कीलित यन्त्र होता है । मच्छ, कछुआ, चूहा आदि पकड़नेके लिए काष्ठ आदिसे रचे गयेको कूट कहते ३० हैं। तीतर, लावक, हरिण आदि पकड़नेके लिये रस्सीमें अमुक प्रकारकी गाँठ देकर बनाये गये जालको पंजर कहते हैं। हाथी, ऊँट आदि पकड़नेके लिए गढ़ा खोदकर और उसका मुख ढाँककर या रस्सी आदिका फन्दा लगाकर जो विशेष रचना की जाती है, उसे बन्ध कहते हैं । आदि शब्दसे पक्षियोंके पंख चिपकाने के लिए लम्बे बाँस आदिके अप्रभागमें पीपल आदिका चिकना रस गोंद वगैरह लगाना और हरिण आदिके सींगके अग्रभागमें ३५ फन्दा आदि डालना आदि लिया जाता है । इस प्रकारके कार्यों में जो बिना परोपदेशके स्वयं
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गो० जीवकाण्डे श्रु ताज्ञानत्व प्रसंगमुळुदरिंदमुपदेशक्रियेयिल्लदे येत्तलानुमितप्पूहापोहविकल्पात्मकमप्प हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहकारणमप्पातरौद्रध्यानकारणमप्प शल्यदंडगारवसंज्ञाद्यप्रशस्तपरिणामकारणमप्प इंद्रियमनोजनितविशेषग्रहणरूपमप्प मिथ्याज्ञानमदु मत्यज्ञानमें दितु निश्चयिसल्पडुवुदु ।
आभीयमासुरक्खं भारहरामायणादि उवएसा ।
तुच्छा असाहणीया सुयअण्णाणेत्ति णं बंति ॥३०४।। आभीतमासुरक्षं भारतरामायणाद्युपदेशाः । तुच्छा असाधनीयाः श्रु ताज्ञानमितीदं ब्रुवंति ॥
तुच्छाः परमार्थशून्यंगळु असाधनीयाः सत्पुरुषवर्गनादरणीयंगळुमेके दोडे परमार्थशून्यत्वदिदं आभीताऽसुरक्षभारतरामायणाद्युपदेशंगळं तत्प्रबंधंगळुमवर श्रवदिदं पुट्टिदुदावुदोंदु ज्ञानमदिदु श्र ताज्ञानमें दिताचार्यरुगळु पेळ्वरु। आसमंतात् भीताः आभीताः चोरास्तच्छास्त्रमप्याऽऽभीतं । असवः प्राणास्तेषां रक्षा येभ्यस्तेऽसुरक्षास्तलवरास्तेषां शास्त्रमासुरक्षं। कौरवपांडवीयपंचभर्तृकैकभा-वृत्तांतयुद्धव्यतिकरादिचाव्याकुलमं भारतमें बुदु । सीताहरणरामरावणीयजातिवानरराक्षसयुद्धव्यतिकरादिस्वेच्छाकल्पनारचितमं रामायणमें बुदु । आदिशब्ददिदावुदावुदु मिथ्यादर्शनदूषितसर्वथैकांतवादिस्वेच्छाकल्पितकथाप्रबंधभुवनकोशहिसायागादिगृहस्थकर्ममुं त्रिबन्धनग्रहहरिणादिशृङ्गाग्रलग्नसूत्रग्रन्थिविशेषादिश्च गृह्यते । उपदेशपूर्वकत्वे श्रु ताज्ञानत्वप्रसंगात् । उपदेशक्रियां विना यदीदृशमूहापोहविकल्पात्मकं हिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहकारणं आर्तरौद्रध्यानकारणं शल्यदण्डगारवसंज्ञाद्यप्रशस्तपरिणामकारणं च इन्द्रियमनोजनितविशेषग्रहणरूपं मिथ्याज्ञानं तन्मत्यज्ञानमिति निश्चेतव्यं ॥३०३॥
तुच्छाः परमार्थशून्याः, असाधनीयाः अत एव सत्पुरुषाणामनादरणीयाः परमार्थशून्यत्वात् आभीतासुरक्षभारतरामायणाद्युपदेशाः तत्प्रबन्धाः तेषां श्रवणादुत्पन्नं यज्ज्ञानं तदिदं श्रुताज्ञानमिति ब्रुवन्त्याचार्याः । आ समन्ताभीताः आभीता चोराः तच्छास्त्रमप्याभीतं । असवः प्राणाः तेषां रक्षा येभ्यः ते असुरक्षाः तलवराः तेषां शास्त्रमासुरक्षं। कौरवपाण्डवीयपञ्चभर्तृकैकभार्यावृत्तान्तयुद्धव्यतिकरादिचर्चाव्याकुलं भारतं, सीताहरणरामरावणीयजातिवानरराक्षसयुद्धव्यतिकरादिस्वेच्छाकल्पनारचितं रामायणं । आदिशब्दाद्यद्यन्मिथ्यादर्शनदूषितही बुद्धि लगती है , वह कुमति ज्ञान है। उपदेशपूर्वक होनेपर उसे कुश्रुत ज्ञानका प्रसंग आता है। अतः उपदेशके बिना जो इस प्रकारका ऊहापोह विकल्परूप हिंसा, असत्य, चोरी, विषयसेवन और परिग्रहका कारण, आत तथा रौद्रध्यानका कारण, शल्य, दण्ड, गारव, संज्ञा आदि अप्रशस्त परिणामोंका कारण, जो इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न हुआ विशेष ग्रहणरूप मिथ्या-ज्ञान है,वह कुमतिज्ञान है। यह निश्चय करना चाहिए ॥३०३।।
___ तुच्छ अर्थात् परमार्थसे शून्य और इसी कारणसे सज्जनोंके द्वारा अनादरणीय २० आभीत तथा आसुरक्षा शास्त्र, भारत-रामायण आदिके उपदेश, उनकी रचनाएं, उनका सुनना तथा
उनके सुननेसे उत्पन्न हुआ ज्ञान , उसे आचार्य श्रुतअज्ञान कहते हैं। आभीत चोरको कहते हैं,क्योंकि उसे सब ओरसे भय सताता है। उनके शास्त्रको भी आभीत शास्त्र कहते हैं । असु अर्थात् प्राणोंकी रक्षा जिनसे होती है,वे असुरक्ष अर्थात् कोतवाल आदि उनके शास्त्रको
असुरक्ष कहते हैं। कौरव पाण्डवोंके युद्ध, पंचभर्ता द्रौपदीका वृत्तान्त, युद्धकी कथा आदिकी २५ चर्चासे भरा महाभारत ग्रन्थ है, सीताहरण, रामकी उत्पत्ति, रावणकी जाति, वानरों और
राक्षसोंके युद्धकी यथेच्छ कल्पनाको लेकर रची गयी रामायण है। आदि शब्दसे जो-जो मिथ्यादर्शनसे दूषित सर्वथा एकान्तवादी यथेच्छ कथाप्रबन्ध, भुवनकोश हिंसामय यज्ञादि
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दंडजटाधारणादितपःकर्ममुं षोडशपदार्थ षट्पदार्थभावनाविधिनियोग भूतचतुष्टय पंचविंशतितत्वब्रह्माद्वैतचतुराय॑सत्यविज्ञानाद्वैतसर्वशून्यतादिप्रतिपादकागमाभासजनितमप्प श्रुतज्ञानाभासमदेल्लं श्रु ताज्ञानमें बुदितु निश्चैसल्पडुवुदेके दोडे दृष्टेष्टविरुद्धार्थविषयवदिदं ।
विवरीयमोहिणाणं खओवसमियं च कम्मवीजं च ।
वेभंगोत्ति पउच्चइ समत्तणाणीण समयम्मि ॥३०५॥ विपरीतावधिज्ञानं क्षयोपशमिकं च कर्मबीजं च। विभंग इति प्रोच्यते समाप्त ज्ञानिनां समये॥
मिथ्यादर्शनकलंकितमप्प जीवंग अवधिज्ञानावरणीयवीर्य्यातरायक्षयोपशमजनितमप्पुदुं द्रव्यक्षेत्रकालभावमाश्रितमप्पुटुं रूपिद्रव्यविषयमप्पुढं आप्तागमपदात्थंगळोनु विपरीतग्राहकमप्पुढं तिर्यग्मनुष्यगतिगळोळु तीव्रकायक्लेश द्रव्यसंयमरूपगुणप्रत्ययमप्पुदुं । च शब्ददिदं देवनारकगति- १० गोळु भवप्रत्ययमप्पु, मिथ्यात्वादिकर्मबंधबीजमप्पु, चशब्ददिंद येत्तलानुं नारकादियोळु पूर्वभवदुराचारमंचित्तदुःकर्मफलतीव्रदुःखवेदनाभिभवजनितसम्यग्दर्शनज्ञानरूपधर्मबीजमुमप्पुढं ।
एवंविधमवधिज्ञान विभंग; दितु समाप्तज्ञानिगळ केवलज्ञानिगळ समये स्याद्वादशास्त्रदोळु प्रोच्यते पेळल्पटुदु। एके दोडे नारकविभंगज्ञानदिदं वेदनाभिभवतत्कारणदर्शनस्मरणानुसंधान
सर्वथैकान्तवादिस्वेच्छाकल्पितकथाप्रबन्धभुवनकोशहिंसायागादिगृहस्थकर्मत्रिदण्डजटाधारणादितपःकर्मषोडश - १५ पदार्थषट्पदार्थभावनाविधिनियोगभूतचतुष्टयपञ्चविंशतितत्त्वब्रह्माद्वैतचतुरार्यसत्यविज्ञानाद्वैतसर्वशन्यत्वादिप्रति - पादकागमाभासजनितं श्रुतज्ञानाभासं तत्तत्सर्वं श्रुताज्ञानमिति निश्चेतव्यं, दृष्टेष्टविरुद्धार्थविषयत्वात् ॥३०४॥
मिथ्यादर्शनकलडितस्य जीवस्य अवधिज्ञानावरणीयवीर्यान्तरायक्षयोपशमजनितं द्रव्यक्षेत्रकालभावसीमाश्रितं रूपिद्रव्यविषयं आतागमपदार्थेषु विपरीतग्राहकं तिर्थग्मनुष्यगत्योः तीव्रकायक्लेशद्रव्यसंयमरूपगुणप्रत्ययं, चशब्दाद्देवनारकगत्योर्भवप्रत्ययं च मिथ्यात्वादिकर्मबन्धबीजं, चशब्दात् कदाचिन्नारकादिगती २. पूर्वभवदुराचारसंचितदुष्कर्मफलतीवदुःखवेदनाभिभवजनितसम्यग्दर्शनज्ञानरूपधर्मबीजं वा अवधिज्ञानं विभङ्ग इति समाप्तज्ञानिनां केवलज्ञानिनां समये स्याद्वादशास्त्र प्रोच्यते कथ्यते । नारकाणां विभङ्गज्ञानेन वेदनाभि
गृहस्थकर्म, त्रिदण्ड तथा जटा धारण आदि तपस्वियोंका कर्म, नैयायिकोंका षोडश पदार्थ वाद, वैशेषिकोंका षट्पदार्थवाद, मीमांसकोंका भावनाविधिनियोग, चार्वाकका भूतचतुष्टयवाद, सांख्योंके पच्चीस तत्त्व, बौद्धोंका चार आर्यसत्य, विज्ञानाद्वैत, सर्वशून्यवाद २५ आदिके प्रतिपादक आगमाभासोंसे होनेवाला जितना श्रुतज्ञानाभास है, वह सब श्रुतअज्ञान जानना। क्योंकि प्रत्यक्ष और अनुमानसे विरुद्ध अर्थको विषय करता है ॥३०४॥
मिथ्यादृष्टि जीवके अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी मर्यादाको लिये हुए रूपी द्रव्यको विषय करनेवाला, किन्तु देव शास्त्र और पदार्थोंको विपरीत रूपसे ग्रहण करनेवाला अवधिज्ञान केवलज्ञानियोंके द्वारा ३० प्रतिपादित आगममें विभंग कहा जाता है। यह विभंग ज्ञान तिर्यंचगति और मनुष्यगतिमें तीव्र कायक्लेश रूप द्रव्य संयमसे उत्पन्न होता है, इसलिए गुणप्रत्यय है। 'च' शब्दसे देवगति और नरकगतिमें भवप्रत्यय है तथा मिथ्यात्व आदि कर्मों के बन्धका बीज है। 'च' शब्दसे कदाचित् नरकगति आदिमें पूर्वजन्ममें किये गये दुराचारमें-से संचित खोटे कर्मोंके फल तीव्र दुःख वेदनाके भोगनेसे होनेवाले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान रूप धर्मका भी बीज है। ३५
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गो० जीवकाण्डे प्रत्ययबलात् सम्यग्दर्शनोत्पत्तिप्रतीतेविशिष्टस्यावधिज्ञानस्य भंगो विपर्ययो विभंग दितु निरुक्तिसिद्धार्थक्किरिदमे प्ररूपितत्वदिवं। अनंतरं गाथानवकदिदं स्वरूपोत्पत्तिकारणभेदविषयंगळनाश्रयिसि मतिज्ञानमं पेळ्दपं:
अहिमुहणियमियबोहणमाभिणिबोहियमणिंदिइंदियजं ।
अवगहईहावाया धारणगा होति पत्तेयं ।।३०६॥ अभिमुखनियमितबोधनमाभिनिबोधिकनिद्रियेद्रियज। अवग्रहेहावायधारणकाः भवंति प्रत्येकं ।
स्थूलवर्तमानयोग्यदेशावस्थितोऽर्थोऽभिमुखः। अस्येत्रियस्यायमेवार्थ इत्यवधारितो नियमितोऽभिमुखश्चासौ नियमितश्च अभिमुखनियमितस्तस्यार्थस्य बोधनं ज्ञानमाभिनिबोधिकमें दितु १० मतिज्ञानमेंबुदत्थं । अभिनिबोध एवाभिनिबोधिकमेंदितु स्वात्थिकठण प्रत्यर्याददं सिद्धमक्कुं।
स्पर्शनादींद्रियंगळगे 'स्थूलादिगळप्प स्पर्शादिस्वार्थगोल ज्ञानजननशक्तिसंभवमप्पुरदं सूक्ष्मांतरितदूरात्थंगळप्प परमाणु शंखचक्रत्तिनरकस्वर्गपटलमेर्वादिगलोळमा इंद्रियंगळ्गे ज्ञानजननशक्ति संभविसवेंबुदत्थं।
इरिवं मतिज्ञानक्के स्वरूपमं पेळल्पटुटुं, एतप्पुदा मतिज्ञानमें दोर्ड अनिद्रियेंद्रियज मनमुं
१५ भवतत्कारणदर्शनस्मरणानुसंधानप्रत्ययबलात् सम्यग्दर्शनोत्पत्तिप्रतीतेः। विशिष्टस्य अवधिज्ञानस्य भङ्गः
विपर्ययः विभङ्ग इति निरुक्तिसिद्धार्थस्यैव अनेन प्ररूपितत्वात् ॥३०५॥ अथ नवभिर्गाथाभिः स्वरूपोत्पत्तिकारणभेदविषयान आश्रित्य मतिज्ञानं प्ररूपयति
स्थूलवर्तमानयोग्यदेशावस्थितोऽर्थः अभिमुखः, अस्येन्द्रियस्य अयमेवार्थः इत्यवधारितो नियमितः । अभिमुखश्चासौ नियमितश्च अभिमुखनियमितः । तस्यार्थस्य बोधनं ज्ञानं आभिनिबोधिकं मतिज्ञानमित्यर्थः । २० अभिनिबोध एव आभिनिबोधकमिति स्वार्थिकेन ठण्प्रत्ययेन सिद्धं भवति । स्पर्शनादीन्द्रियाणां स्थूलादिष्वेव
स्पर्शादिषु स्वार्थेषु ज्ञानजननशक्तिसंभवात् । सूक्ष्मान्तरितद्रार्थेषु परमाणुशङ्खचक्रवर्तिमेर्वादिषु तेषां ज्ञानजननशक्तिर्न संभवतीत्यर्थः । अनेन मतिज्ञानस्य स्वरूपमुक्तं । कथंभूतं तत् ? अनिन्द्रियेन्द्रियजं-अनिन्द्रियं मनः, क्योंकि नारकियोंके विभंग ज्ञानके द्वारा वेदनाभिभव और उसके कारणोंके दर्शन, स्मरण
आदि रूप ज्ञानके बलसे सम्यग्दर्शनकी उत्पत्ति होती है । 'वि' अर्थात् विशिष्ट अवधिज्ञानका २५ भंग अर्थात् विपर्यय विभंग होता है,इस निरुक्ति सिद्ध अर्थको ही यहाँ कहा है ॥३०५।।
अब नौ गाथाओंसे स्वरूप, उत्पत्ति, कारण, भेद और विषयको लेकर मतिज्ञानका कथन करते हैं
स्थूल, वर्तमान और योग्यदेशमें स्थित अर्थको अभिमुख कहते हैं । इस इन्द्रियका यही विषय है,इस अवधारणाको नियमित कहते हैं । अभिमुख और नियमितको अभिमुखनियमित कहते हैं। उस अर्थके बोधन अर्थात् ज्ञानको मतिज्ञान कहते हैं। अभिनिबोध ही अभिनिबोधिक है इस प्रकार स्वार्थमें ठण प्रत्यय करनेसे इसकी सिद्धि होती है। स्पर्शन आदि इन्द्रियोंकी अपने स्थूल आदि स्पर्श आदि विषयों में ही ज्ञानको उत्पन्न करनेकी शक्ति
१. म स्थलाथंग। २. म येतप्प । ३. ब अथ स्वरूपोत्पत्तिकारणभेदविषयान आश्रित्य गाथानव मतिज्ञानमाह । ४. ब स्थूलार्थरूपस्पर्शादि स्वार्थेषु । ५. ब णुनरकस्वर्गपटलमे । ६. व पं. प्रारूपितम् ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५१३ स्पर्शनरसनघ्राणचक्षुश्रोत्रंगळु में बिरिदं जातं पुट्टिदुदक्कुमिदरिदमिद्रियमनस्सुगळ्गे मतिज्ञानोत्पत्तिकारणत्वं पेळल्पटुंदितु कारणभेदात् कार्यभेदः एंदितु मतिज्ञानं षट्प्रकारमेंदु पेळल्पटुंदु।
मत्ते प्रत्येकमा दोंदु मतिज्ञानक्के अवग्रहमुमोहयवायमुं धारणे एंदितु नाल्कु नाल्कु भेदंगळप्पुवु-। मते दोडे :-मानसोऽवग्रहः मानसीहा मानसोऽवायःमानसी धारणा एंदितु नाल्कप्पुवु ४। स्पर्शनजोऽवग्रहः स्पर्शनजेहे स्पर्शनजोऽवायः स्पर्शनजा धारणा एंदितु नाल्कप्पुवु ४। रसनजोऽवग्रहः ५ रसनजेहा रसनजोऽवायः रसनजा धारणा एंदितिवु नाल्कप्पुवु ४। घ्राणजोऽवग्रहः घ्राणजेहा घ्राणजोऽवायः घ्राणजा धारणा एंदितु नाल्कप्पुवु ४। चाक्षुषोऽवग्रहः चाक्षुषोहा चाक्षुषोऽवायः चाक्षुषी धारणा एंदितुनाल्कप्पुवु ४। श्रोत्रजोऽवग्रहः श्रोत्रजेहा श्रोत्रजोऽवायः श्रोत्रजा धारणा एंदितिवु नाल्कप्पुवु ४ । इंतु मतिज्ञानं चतुविशतिप्रकारमक्कु २४ । मवग्रहादिगळ्गे लक्षणमं मुंदे शास्त्रकारं ताने पेन्दपं ।
वेंजणअत्थअवग्गह भेदा हु हवंति पत्तपत्तत्थे ।
कमसो ते वावरिदा पढमं णहि चक्खुमणसाणं ।।३०७॥ व्यंजनार्थावग्रहभेदो खलु भवतः प्राप्ताप्राप्तार्थयोः । क्रमशस्तौ व्यापृतौ प्रथमो न हि चक्षुर्मनसोः॥
इन्द्रियाणि स्पर्शनरसनघाणचक्षुःश्रोत्राणि । तेभ्यो जातमुत्पन्नं अनिन्द्रियेन्द्रियजं, अनेन इन्द्रियमनसोर्मति- १५ ज्ञानोत्पत्तिकारणत्वं दर्शितम् । एवं च कारणभेदात्कार्यभेद इति मतिज्ञानं षट्प्रेकारमुक्तम् । पुनः प्रत्येकमेकैकस्य मतिज्ञानस्य अवग्रहः ईहा अवायः धारणा चेति चत्वारो भेदा भवन्ति । तद्यथा-मानसोऽवग्रहः मानसीहा मानसोऽवायः मानसी धारणा इति चत्वारः । स्पर्शनजोऽवग्रहः, स्पर्शनजा ईहा स्पर्शनजोऽवायः स्पर्शनजा धारणा इति चत्वारः । रसनजोऽवग्रहः रसनजा ईहा रसनजोऽवायः रसनजा धारणा इति चत्वारः । घ्राणजोऽवग्रहः घ्राणजा ईहा घ्राणजोऽवायः घ्राणजा धारणा इति चत्वारः। चाक्षुषोऽवग्रहः चाक्षुषीहा चाक्षुषोऽवायः चाक्षुषी २० धारणा ४ । श्रोत्रजोऽवग्रहः श्रोत्रजा ईहा श्रोत्रजोऽवायः श्रोत्रजा धारणा इति चत्वारः। एवं मतिज्ञानं चतविशतिविकल्पं भवति अवग्रहादीनां लक्षणं उत्तरत्र ग्रन्थकारः स्वयमेव वक्ष्यति ॥३०६॥
होती है । अर्थात् सूक्ष्म परमाणु आदि, अन्तरित शंख चक्रवर्ती आदि तथा दूरार्थ मेरु आदिको जाननेकी शक्ति उनमें नहीं है । इससे मतिज्ञानका स्वरूप कहा । वह मतिज्ञान अनिन्द्रिय मन और इन्द्रियाँ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्रसे उत्पन्न होता है। इससे इन्द्रिय और २५ मनको मतिज्ञानकी उत्पत्तिका कारण दिखलाया है। इस प्रकार कारणके भेदसे कार्यमें भेद होनेसे मतिज्ञान छह प्रकारका कहा। पुनः प्रत्येक मतिज्ञानके अवग्रह, इंहा, अवाय और धारणा ये चार भेद होते हैं । यथा-मानस अवग्रह, मानस ईहा, मानस अवाय और मानसी धारणा । स्पर्शनजन्य अवग्रह, स्पर्शनजन्य ईहा, स्पर्शनजन्य अवाय और स्पर्शनजन्य धारणा । रसनाजन्य अवग्रह, रसनाजन्य ईहा, रसनाजन्य अवाय और रसनाजन्य १० धारणा । घ्राणज अवग्रह, घ्राणज ईहा, घ्राणज अवाय और घ्राणज धारणा । चाक्षुष अवग्रह, चाक्षुषी ईहा, चाक्षुष अवाय और चाक्षुषी धारणा। श्रोत्रजन्य अवग्रह, श्रोत्रजन्य ईहा, श्रोत्रजन्य अवाय और श्रोत्रजन्य धारणा। इस प्रकार मतिज्ञानके चौबीस भेद होते हैं। अवग्रह आदिका लक्षण आगे ग्रन्थकार स्वयं ही कहेंगे ॥३०६।। १. ब कारत्वमुक्तं । २. ब षोढ़ा कथितं । ३. बत्रिभेद । ४. ब णमग्रे शास्त्रकारः ।
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गो० जीवकाण्डे __मतिज्ञानविषयं व्यंजनमें दुमर्थमेदु द्विविधमक्कुं २। अल्लि इंद्रियंगळिदं प्राप्तमप्प विषयं व्यंजनमें बुदक्कुं । इंद्रियंगळिदमप्राप्तमप्प विषयमर्थम बुदक्कुमा प्राप्ताप्राप्ताथाळोळु क्रदिदं यथासंख्यं । आ व्यंजनावग्रहभेदंगळेरडु २ व्यापृतौ प्रवृत्तौ भवतः प्रवृत्तंगळप्पुवु। इंद्रियंर्गाळदं
प्राप्तायविशेषग्रहणं व्यंजनावग्रहमक्कु-। मिद्रियंगलिंदमप्रामात्य विशेषग्रहणमावग्रहमक्कुमेंदु५ पेळ्दतरं। व्यंजनव्यक्तं शब्दादिजातमें दितु तत्त्वार्थविवरणंगळोळु पेळल्पर्दितु पेळल्पट्टोडिती व्याख्यानदोडन तु संगतमक्कुम दोडे पेळल्पडुगुं।
विगतमंजनमभिव्यक्तिर्यस्य तद्वयंजनं । व्यज्यते मृक्ष्यते प्राप्यत इति व्यंजनमें दितंऽजगति व्यक्ति मृक्षणेषु एंदितु व्यक्तिमृक्षणात्थंगळ्गे ग्रहणमप्पुरिदं । शब्दाद्यत्यं श्रोत्रादींद्रियदिदं प्राप्तंमुमा. दोडमन्नेवरमभिव्यक्तमल्तन्नवरमे व्यंजनमेंदु पेललाटूदेकवारजलकण सिक्तनूतनशरावदंते मत्तमभिव्यक्तियागुत्तिरलदे अत्थंमक्कुमें तोगळु पुनः पुनर्जलकणसिच्यमाननूतनशरावमभिव्यक्तसेक. मक्कुमदुकारणादिदं चक्षुमनस्सुगळऽप्राप्तमप्प विषयदोळु प्रथमोद्दिष्टव्यंजनावग्रहमिल्ल। चक्षुमनस्सुगळु स्वविषयमप्पार्थमं प्राप्य पोद्दिये अल्लिज्ञानमं पुट्टिसुगुमें ब नैय्यायिकादिमतं स्याद्वाद
___मतिज्ञानविषयो व्यञ्जनं अर्थश्चेति द्विविधः । तत्र इन्द्रियैः प्राप्तो विषयो व्यञ्जनं तैरप्राप्तः अर्थः । तयोः प्राप्ताप्राप्तयोरर्थयोः क्रमशः यथासंख्यं तौ व्यञ्जनार्थावग्रहभेदौ व्यापृतौ प्रवृत्तौ भवतः । इन्द्रियः । प्राप्तार्थविशेषग्रहणं व्यञ्जनावग्रहः । तैरप्राप्तार्थविशेषग्रहणं अर्थावग्रह इत्यर्थः। व्यञ्जनं-अव्यक्तं शब्दादिजातं इति तत्त्वार्थविवरणेषु प्रोक्तं कथमनेन व्याख्यानेन सह संगतमिति चेदुच्यते । विगतं-अञ्जन-अभिव्यक्तिर्यस्य तद्व्यञ्जनम् । व्यज्यते म्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यञ्जनं अञ्जु गतिव्यक्तिम्रक्षणेष्विति व्यक्तिम्रक्षणार्थयोर्ग्रहणात् । शब्दाद्यर्थः श्रोत्रादीन्द्रियेण प्राप्तोऽपि यावन्नाभिव्यक्तस्तावद् व्यञ्जनमित्युच्यते एकवारजलकणसिक्तनूतनशराववत् । पुनरभिव्यक्ती सत्यां स एवार्थो भवति । यथा पुनः पुनर्जलकणसिच्यमाननूतनशरावः अभिव्यक्तसेको भवति । अतः कारणात् चक्षर्मनसोप्रासे विषये प्रथमो व्यञ्जनावग्रहो नास्ति । चक्षुमनसी स्वविषयमर्थ प्राप्यैव तत्र ज्ञानं जनयतः, इति नैयायिकादीनां मतं स्याद्वादतर्कग्रन्थेषु बहुधा निराकृतमित्यत्राहेतुवादे आगमांशे
मतिज्ञानका विषय दो प्रकारका है-व्यंजन और अर्थ । उनमें-से इन्द्रियोंके द्वारा प्राप्त विषयको व्यंजन और अप्राप्तको अर्थ कहते हैं। उन प्राप्त और अप्राप्त अर्थों में क्रमसे
व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह प्रवृत्त होते हैं । इन्द्रियोंसे प्राप्त अर्थके विशेष ग्रहणको व्यंजना२५ वग्रह कहते हैं, और अप्राप्त अर्थके विशेष ग्रहणको अर्थावग्रह कहते हैं।
___ शंका-तत्त्वार्थसूत्रकी टीकामें कहा है, शब्दादिसे होनेवाले अव्यक्त ग्रहणको व्यंजन कहते हैं। उसकी संगति इस व्याख्याके साथ कैसे सम्भव है ?
समाधान-'अंजु' धातुके तीन अर्थ हैं-गति, व्यक्ति और म्रक्षण। यहां उनमें से व्यक्ति और म्रक्षण अर्थ लेकर व्यंजन शब्द बना है । 'विगतं-अंजन-अभिव्यक्तिर्यस्य' जिसका अंजन अर्थात् अभिव्यक्ति दूर हो गया है,वह व्यंजन है। यह अर्थ तत्त्वार्थकी टीकामें लिया है। 'व्यज्यते म्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यंजनम्' जो प्राप्त हो,वह व्यंजन है यह यहाँ ग्रहण किया है । शब्द आदि रूप अर्थ श्रोत्र आदि इन्द्रियके द्वारा प्राप्त होनेपर भी जबतक व्यक्त नहीं होता, तबतक उसे व्यंजन कहते हैं। जैसे एक बार जलबिन्दुसे सिक्त नया सकोरा । पुनः
व्यक्त होनेपर उसे ही अर्थ कहते हैं। जैसे बार-बार जलबिन्दुओंसे सींचे जानेपर नया ३५ १. म प्राप्तमुमैबुदर्थम । २. ब नमिन्द्रियैरप्राप्तो विषयोऽर्थः । ३. बतार्थयोः । ४. बणे प्रोक्तमनेन
सहेदं व्याख्यानं कथं संगत ।।
B
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५१५ तर्क ग्रंथंगळोळु बहुप्रकारदिदं निराकरिसल्पटुदंतिल्लि अहेतुवादमप्पागमांशदोळपक्रमिसल्पटुदिल्ल । व्यंजनमप्प विषयदोळ स्पर्शनरसनब्राणश्रोत्रंगळेब नाल्किद्रियंगळिदमवग्रहमादे पुट्टिसल्पडुवुदु ईहादिगळ् पुट्टिसल्पडवेक दोडे ईहादिज्ञानंगळगे देशसर्वाभिव्यक्तियागुत्तिरले उत्पत्तिसंभवमप्पुरिदं । तत्कालदोळु तद्विषयक्क अव्यक्तरूपव्यंजनत्वाऽभावमप्पुरदं। इंतु व्यंजनावग्रहंगळु नाल्केयप्पुवु।
विसयाणं विसईणं संजोगाणंतरं हवे णियमा ।
अवगहणाणं गहिदे विसेसकंखा हवे ईहा ॥३०८।। विषयाणां विषयिणां संयोगानंतरं भवेन्नियमात् । अवग्रहज्ञानं गृहीते विशेषाकांक्षा भवेदीहा ॥
विषयाणां अत्थंगळ विषयिणामिद्रियंगळ संयोगः योग्यदेशावस्थानमप्प संबंधमकुंटामुत्तिरलु १० अनंतरं तदनंतरमे वस्तुसत्तामात्रलक्षणसामान्यनिविकल्पग्रहणं प्रकाशरूपमप्प दर्शनं नियमादुत्पद्यते नियदिदं पुट टुगुं । अनंतरं तदनंतर दृष्टमप्पथंद वर्णसंस्थानादिविशेषग्रहणरूपमप्पवग्रहमें ब प्रसिद्धज्ञानं उत्पद्यते पुटुगुं । “अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽाकारविकल्पधीरवग्रहः" ये दितु श्रीमद्भट्टाकलंकपादळिदं दर्शनपूर्वकं ज्ञानं छद्मस्थानाम दितु श्रीनेमिचंद्रसैद्धांतचक्रवत्तिळिंदमुं नोपक्रम्यते । व्यञ्जनरूपे विषये स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रः चतुभिरिन्द्रियैः अवग्रह एवोत्पद्यते नेहादयः । १५ ईहादीनां ज्ञानानां देशसर्वाभिव्यक्तौ सत्यामेव उत्पत्तिसंभवात् । तदा तद्विषयस्य अव्यक्तरूपव्यञ्जनत्वाभावात् । इति व्यञ्जनावग्रहाश्चत्वार एव ।।३०७॥
विषयाणां-अर्थानां, विषयिणां इन्द्रियाणां च संयोगः-योग्यदेशावस्थानरूपसंबन्धः तस्मिन् जाते सति अनन्तरं-तदनन्तरमेव वस्तुसत्तामात्रलक्षणसामान्यस्य निर्विकल्पग्रहणमिदमिति प्रकाशरूपं दर्शनं नियमादुत्पद्यते-नियमाज्जायते । अनन्तरं तदनन्तरं दृष्टस्यार्थस्य वर्णसंस्थानादिविशेषग्रहणरूपं अवग्रहाख्यं आद्यं ज्ञानं भवेत् उत्पद्यते । ‘अक्षार्थयोगे सत्तालोकोऽर्थाकारविकल्पधीः अवग्रहः' इति श्रीमद्भट्टाकलङ्कपादैः, 'दर्शनपूर्वकं सकोरा भीग जाता है। इस कारणसे अप्राप्त विषयमें चक्षु और मनसे प्रथम व्यंजनावग्रह नहीं होता। चक्षु और मन अपने विषयभूत अर्थको प्राप्त होकर ही उसको जानते हैं,यह नैयायिकोंका मत जैन तर्क ग्रन्थोंमें विस्तारसे खण्डित किया गया है। यह तो अहेतुवादरूप आगम ग्रन्थ हैं, अतः यहाँ वैसा नहीं गिना है। व्यंजनरूप विषयमें स्पर्शन, रसना, घ्राण, २५ श्रोत्र चार इन्द्रियोंसे एक अवग्रह ही उत्पन्न होता है, ईहा आदि नहीं होते। क्योंकि एकदेश या सर्वदेश अभिव्यक्ति होनेपर ही ईहा आदि ज्ञानोंकी उत्पत्ति सम्भव है । उस समय उनका विषय अव्यक्तरूप व्यंजन नहीं रहता। इसलिए व्यंजनावग्रह चार ही होते हैं ॥३०७॥
विषय अर्थात् अर्थ और विषयी अर्थात् इन्द्रियोंका, संयोग अर्थात् योग्य देशमें स्थित होनेरूप सम्बन्धके होते ही नियमसे दर्शन उत्पन्न होता है । वस्तुके सत्तामात्र सामान्यरूपके ३० निर्विकल्प ग्रहणको दर्शन कहते हैं। दर्शनके पश्चात् ही दृष्ट अर्थके वर्ण-आकार आदि विशेष रूपको ग्रहण करना अवग्रह नामक आद्यज्ञान उत्पन्न होता है। श्रीमद् भट्टाकलंक देवने लघीयस्त्रयमें कहा है-इन्द्रिय और अर्थका योग होते ही सत्तामात्रका दर्शन होता है । उसके
१. म 'व्य'।
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५१६
गो० जीवकाण्डे पेळल्पटुरिदमिंद्रियार्थसंबंधानंतरं दर्शनं पुटुगुमदु पेल्दी गाथासूत्रदोळनुक्तमु पूर्वाचार्यवचनानुसारदिदं व्याख्यानिसल्पटुदु ग्राह्यमक्कुं कैकोळल्पडुवुदें बुदत्यं । गृहीते अवग्रहदिदमिदु श्वेतमे दितु ज्ञातायंदोळु विशेषमप्प बलाकारूपक्कागलु पताकारूपक्कागलु यथावस्थितवस्तुविनाऽकांक्षे बलाकया भवितव्यमे दितु भवितव्यताप्रत्ययरूपमप्प बलायोळे संजायमानमोहे येब द्वितीयज्ञानमक्कुमथवा पताकारूपमप्प विषयमनवलंबिसि उत्पद्यमानमनया पताकया भवितव्यम दितु भवितव्यताप्रत्ययरूपं पताकयोळे संजायमानाकांक्षे ईहये ब द्वितीयज्ञानमक्कुमितींद्रियांतरविषयंगळोळं मनोविषयदोळमवग्रहगृहीतदोळु यथावस्थितमप्प विशेषदाकांक्षारूपमोह ये दितु निश्चितव्यमक्कुमेके दोडे मतिज्ञानावरणक्षयोपशमतारतम्यभेददिदमवग्रहेहाजानंगळगे भेदसंभवमुळ्ळुदरिदमी सम्यज्ञानप्रकरणदोळुबलाका वा पताका वा यदितु संशयमक्कु बलायोळु पताकया भवितव्यमे दितु विपर्यायक्कुमुमी मिथ्याज्ञानंगळ्गनवतारमें दरियल्पडुगुं। ज्ञानं छद्मस्थानां' इति श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तचक्रवर्तिभिरपि प्रोक्तत्वात्, इन्द्रियार्थसंबन्धानन्तरं दर्शनमुत्पद्यते इत्येतस्मिन गाथासूत्रे अनुक्तमपि पूर्वाचार्यवचनानुसारेण व्याख्यानं ग्राह्यमित्यर्थः । गृहीते-अवग्रहेण इदं श्वेतमिति ज्ञाते अर्थविशेषस्य बलाकारूपस्य पताकारूपस्य वा यथावस्थितवस्तुन आकाङ्क्षा बलाकया
भवितव्यमिति भवितव्यताप्रत्ययरूपं बलाकायामेव संजायमानं ईहाख्यं द्वितीयं ज्ञानं भवेत् । अथवा पताकारूपं १५ विषयमालम्ब्य उत्पद्यमाना अनया पताकया भवितव्यमिति भवितव्यताप्रत्ययरूपा पताकायामेव संजायमाना
आकाङ्क्षा ईहेति द्वितीयं ज्ञानं भवेत् । एवं इन्द्रियान्तरविषयेषु मनोविषये च अवग्रहगृहीते यथावस्थितरूपविशेषस्य आकाङ्क्षारूपा ईहेति निश्चेतव्यम् । मतिज्ञानावरणक्षयोपशमस्य तारतम्यभेदेन अवग्रहहाज्ञानयोर्भेदसंभवात् । अस्मिन सम्यग्ज्ञानप्रकरणे बलाका वा पताका इति संशयस्य, बलाकायां पताकया भवितव्यमिति विपर्ययस्य च मिथ्याज्ञानस्यानवतारात् ॥३०८॥
२० अनन्तर अर्थके आकारादिको लिये हुए जो सविकल्प ज्ञान होता है, वह अवग्रह है। श्री
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीने भी कहा है कि छद्मस्थोंके दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है । यद्यपि इस गाथासूत्र में यह नहीं कहा है कि इन्द्रिय और अर्थका सम्बन्ध होनेके अनन्तर दर्शन उत्पन्न होता है। फिर भी पूर्वाचार्योंके वचनके अनुसार व्याख्यान करना चाहिए । 'गृहीते'
अर्थात् अवग्रहके द्वारा 'यह श्वेत है', ऐसा जाननेपर बलाकारूप या पताकारूप यथावस्थित · २५ अर्थको जाननेकी आकांक्षा यह बलाका-बगुलोंकी पंक्ति होना चाहिए, इस प्रकार बगुलोंकी
पंक्तिमें ही जो भवितव्यतारूप ज्ञान होता है, वह ईहा है। अथवा पताकारूप विषयका आलम्बन लेकर अर्थात् यदि अवग्रहसे जानी हुई श्वेत वस्तु पताका प्रतीत हो, तो यह पताका होनी चाहिए, इस प्रकार जो पताकामें ही भवितव्यता प्रत्ययरूप आकांक्षा होती है, वह दूसरा ईहा ज्ञान है। इस प्रकार अन्य इन्द्रियोंके विषयमें और मनके विषयमें अवग्रहसे गृहीत वस्तुमें यथावस्थित विशेषकी आकांक्षारूप ज्ञान ईहा है, यह निश्चय करना चाहिए । मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमकी हीनाधिकताके भेदसे अवग्रह और ईहा ज्ञानमें भेद होता है। इस सम्यग्ज्ञानके प्रकरणमें 'यह बलाका है या पताका' इस संशयको तथा बलाकामें यह पताका होनी चाहिए, इस विपरीत मिथ्याज्ञानको स्थान नहीं है ॥३०८।।
१. ब तार इति ज्ञातव्यम् ।
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
हणकरणेण जदा सुणिण्णओ होदि सो अवाओ दु ।
कालंतरेवि णिणिदवत्थुसुमरणस्स कारणं तुरियं ॥ ३०९ ॥ हनकरणेन यदा सुनिर्णयो भवति सोडवायस्तु । कालांतरेपि निर्णीतवस्तुस्मरणस्य कारणं
तुय्यं ॥
ईह्नकरणेन विशेषाकांक्षाकरर्णादिदं बळिकं यदा आगोम्मे ईहितविशेषार्थ सुनिर्णय: ५ उत्पतननिपतनपक्षविक्षेपादिचिह्नगदिमिदु बलाकये ये दितु बलाकात्वक्केये आवुदो दु सुनिश्चयमक्कुमगळु सः अदु अवाय इति अवायमें दिंतु अवयवोत्पत्तिरवायः एंब व्यपदेशभक्कुं । तु शब्द पेरगाकांक्षितविशेषको सुनिर्णयमवायभेदितवधारणार्थमिदरिदं विपर्य्यासपदं निर्णय निया ज्ञानमिवायतं दितु ग्राह्यमक्कुमल्ल बळिक्कं स एवावायः आ अवायमे पुनः पुनः प्रवृत्तिरूपाभ्यासजनितसंस्कारात्मकमागि कालांतरदोळं निर्णीत वस्तुस्मरणकारणत्वदिदं तुरियं चतुत्थं १० धारणाख्यं ज्ञानं भवे अक्कुं ।
बहुबहुविहं च खिष्पाणिस्सिदणुत्तं धुवं च इदरं च । तत्थेक्क्के जादे छत्तीसं तिसयभेदं तु || ३१० ॥
५१७
१५
बहुबहुविधक्षिप्रानिःसृतानुक्तध्रुवं चेतरं च । तत्रैकैकस्मिन् जाते षट्त्रिंशत्त्रशतभेदं तु ॥ अर्थ व्यंजनब मतिज्ञानविषयं द्वादशप्रकारमक्कुमे ते दोडे बहुबहुविधः क्षिप्रोऽनि:सृतोऽनुक्तो ध्रुवश्चेति । येंदु षट्प्रकारमुं । एक एकविधोऽक्षिप्रोऽनिःसृत उक्तोऽध्र ुवश्चेति । येंदु षट्प्रकारमितरभेदमुं कूडि द्वादशविधमक्कुमल्लि बह्वादिद्वादशविषयभेदंगळोळु एकैकस्मिन्
ईहनकरणेन - विशेषाकाङ्क्षाक्रियायाः पश्चात् यदा ईहितविशेषार्थस्य सुनिर्णयः उत्पतनपतनपक्षविक्षेपादिभिश्चिह्नेः इयं बलाकैवेति बलाकात्वस्य यः सुनिश्चयो भवेत् तदा से अवाय इति व्यपदिश्यते । तुशब्दः प्रागाकाङ्क्षितविशेषस्यैव सुनिर्णयोऽवाय इत्यवधारणार्थः । अनेन विपर्यासेन निर्णयो मिथ्याज्ञानतया अवायो न भवतीति ग्राह्यम् । ततः स एवावायः पुनः पुनः प्रवृत्तिरूपाभ्यासजनितसंस्कारात्मको भूत्वा कालान्तरेऽपि निर्णीतवस्तुस्मरणकारणत्वेन तुयं चतुर्थ धारणाख्यं ज्ञानं भवति ॥ ३०९ ॥
3
अर्थो व्यञ्जनं वा मतिज्ञानविषयः बहुः बहुविधः क्षित्रः अनिसृतः अनुक्तो ध्रुवश्चेति पोढा । तथा इतरोऽपि एक: एकविधः अभिप्रः निसृतः उक्तः अध्रुवश्चेति षोढा एवं द्वादशधा भवति । तत्र द्वादशस्वपि
विशेषकी आकांक्षारूप ईहा ज्ञानके पश्चात् जब ईहित विशेष अर्थका सुनिर्णय हो २५. जाता है । जैसे ऊपर-नीचे होने तथा पंखोंके हिलाने आदि चिह्नोंसे यह बलाका ही हैं, इस प्रकार निश्चय के होने को अवाय कहते हैं । 'तु' शब्द पहले आकांक्षा किये गये विशेष वस्तुके निर्णयको ही अवाय कहते हैं, यह अवधारणके लिए है । इससे यह ग्रहण करना चाहिए कि वस्तु तो कुछ और है और निर्णय अन्य वस्तुका किया, तो वह अवाय नहीं है । वही अवाय बार-बार प्रवृत्तिरूप अभ्यास से उत्पन्न संस्काररूप होकर कालान्तर में भी निर्णीत वस्तुके ३० स्मरणमें कारण होता है, तो धारण नामक चतुर्थ ज्ञान होता है || ३०९ ॥
I
अर्थ या व्यंजनरूप मतिज्ञानका विषय बारह प्रकारका होता है - बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिसृत, अनुक्त, ध्रुव ये छह तथा इनके प्रतिपक्षी एक, एकविध, अक्षिप्र, निसृत, उक्त
१. ब स अवयवोत्पादः अवाय । २. ब काङ्क्षालक्षित विं । ३. ह्यं पश्चात् स' ।
२०
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५१८
गो० जीवकाण्डे वो दोद विषयदोळ परंगे पेन्दष्टाविंशतिप्रकारमप्प मतिज्ञानं जाते सति पुटुत्तमिरलु मतिज्ञानं तु पुनः मत्ते षट्त्रिंशदुत्तरत्रिशतभेदमक्कुमेत दोडे अर्थात्मकबहुविषयमा दरोळु अनिद्रियेंद्रियभेददिदं मतिज्ञानंगळु षट्प्रकारंगेळप्पु ६ वल्लि प्रत्येकमवग्रहहावायधारणा एंब मतिज्ञानभेदंगळु नाल्कुं नाल्कुमागलुमारक्कमिप्पत्तनाल्कुंभेदंगळ्पुटुव २४वी प्रकारदिदं व्यंजनात्मक बहुविषयदोळु ५ स्पर्शनरसनघ्राण श्रोत्रंगळे ब चतुष्कदिदं चतुरवग्रहज्ञानंगळे पुटुवितु अर्त्यव्यंजनात्मकबहुविषय.
दोळु कूडि मतिज्ञानभेदंगळष्टाविंशतिप्रकारंगळप्पु २८ वी प्रकारदिदमे अर्थव्यंजनात्मकबहुविधादिगळोळु प्रत्येकमष्टाविंशतिअष्टाविंशतिमतिज्ञानभेदंगळागुत्तमिरलु अर्थव्यंजनात्मकबहुविषयादि पन्नेरडु विषयंगळोळु पुटुव मतिज्ञानभेदंगळु षट्त्रिंशदुत्तरत्रिशतभेदंगळप्पुवु ३३६ ।
बहुवत्तिजादिगहणे बहुबहुविहमियरमियरगहणम्मि ।
सगणामादो सिद्धा खिप्पादी सेदरा य तहा ॥३११।। बहुव्यक्तिजातिग्रहणे बहुबहुविधमितरमितरग्रहणे । स्वकनामतः सिद्धाः क्षिप्रादयः सेतराश्च तथा॥
एकैकस्मिन् विषये प्रागुक्ताष्टाविंशतिप्रकारे मतिज्ञाने जाते उत्पन्ने सति मतिज्ञानं तु पुनः षट्त्रिंशदुत्तरत्रिशतभेदं भवति ३३६ । तद्यथा-बहविषये अर्थात्मके अनिन्द्रियेन्द्रियभेदेन मतिज्ञानस्य भेदाः षट् , त एव पुनः अवग्रहहावायधारणाभेदेन प्रत्येकं चत्वारश्चत्वारो भूत्वा चतुविशतिः । तथा व्यञ्जनात्मके तु स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रैश्चत्वारोऽवग्रहा एव । एवमर्थपञ्जनात्मके बहुविषये मिलित्वा मतिज्ञानभेदा अष्टाविंशतिर्भवन्ति । अनेन प्रकारेण अर्थव्यञ्जनात्मक बहुविधादिष्वपि प्रत्येकमष्टाविंशत्यष्टाविंशतिज्ञानभेदेषु जातेषु द्वादशविषयेषु मतिज्ञानभेदाः षत्रिंशदुत्तरत्रिशतीप्रमिता भवन्ति । यद्यकस्मिन्विषये अष्टाविंशतिर्मतिज्ञानभेदा भवन्ति तदा
द्वादशसु विषयेषु कियन्तो मतिज्ञानभेदा भवन्तीति प्र१1 फ २८। इ१२ त्रैराशिकं कृत्वा इच्छां फलेन २० संगुण्य प्रमाणेन भक्त्वा लब्धस्य तत्प्रमाणत्वात् ॥३१०॥
और अध्रुव । इन बारहों में से एक-एक विषयमें पूर्वोक्त अट्ठाईस भेदरूप मतिज्ञानके उत्पन्न होनेपर मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस ३३६ भेद होते हैं। जो इस प्रकार जानना-बहुविषयरूप अर्थमें अनिन्द्रिय और इन्द्रियके भेदसे मतिज्ञानके छह भेद होते हैं। वे ही अवग्रह, ईहा,
अवाय, धारणाके भेदसे प्रत्येकके चार-चार होकर चौबीस होते हैं। तथा व्यंजनरूप दिषयमें २५ स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्रके द्वारा चार अवग्रह ही होते हैं। इस प्रकार अर्थ और
व्यंजनरूप बहुविषयमें मिलकर मतिज्ञानके अट्ठाईस भेद होते हैं। इस प्रकार अर्थ व्यंजनरूप बहुविध आदिमें भी प्रत्येकके अट्ठाईस भेद होनेपर बारह विषयोंमें मतिज्ञानके भेद तीन सौ छत्तीस होते हैं। यदि एक विषयमें मतिज्ञानके भेद अट्ठाईस होते हैं, तो बारह विषयों में
मंतिज्ञानके भेद कितने होते हैं ? इस प्रकार त्रैराशिक प्रमाणराशि एक, फलराशि अट्ठाईस, ३. इच्छाराशि बारह स्थापित करके फलराशि अट्ठाईस को इच्छाराशि बारहसे गुणा करके प्रमाण
राशि एकसे भाग देनेपर मतिज्ञानके तीन सौ छत्तीस भेद होते हैं ॥३१०॥
१. म पुद्दुत्तं विरलु । २. मरमप्पु ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५१९ बहुव्यक्ति विषयग्रहणमतिज्ञानदीळ तद्विषयमुं बहु एंदितु पेळल्पटुदु, एंतीगलु खंडमुंडशबलादि बहुगोव्यक्तिगळिवंदितु । बहुजातिग्रहणमतिज्ञानदो तद्विषयं बहुविधमेंदु पेळल्पटुदु । येतीगल गोमहिषाश्वादिबहुजातिगळे दितु। इतरग्रहणे एकव्यक्तिग्रहणमतिज्ञानदोळु तद्विषयमेकः ओदु यतीगळु खंडनिदे दितु । एक जातिग्रहणमतिज्ञानदो तद्विषयमेकविधर्म तोगळु खंडनागलि मुंडनागलियदु गोवर्य दितु।
क्षिप्रादिगळु क्षिप्राऽनिःसृतानुक्तध्रुवंगळं सेतरंगळुमक्षिप्रनिःसृत उक्त अध्रुवंगळु तंतम्म नादिदमे सिद्धंगळऽदे ते दोडे क्षिप्रमें बुदु शोव्रदिनिहितप्प जलधाराप्रवाहादियक्कुमनिःसृतमें बुदु गूढं जलमग्नहस्त्यादियक्कुमनुक्त,बुदु अकथितमभिप्रायगतमकुं। ध्र वर्मबुदु स्थिरं चिरकालावस्थायिपर्वतादियककुमक्षिप्रमें बुदु मंदगमनाश्वादियकुं । निःसृतमबुदु व्यक्तनिष्क्रांतं जलनिर्गतहस्त्यादियक्कुमुक्तमबुदु इदु घटम दितु पेळल्पटु दृश्यमानमक्कुमभ्रूवमेंबुदु क्षणस्थायि १० विद्युदादियक्कुं।
वत्थुस्स पदेसादो वत्थुग्गहणं तु वत्थुदेसं वा ।
सयलं वा अवलंबिय अणिस्सिदं अण्णवत्थुगई ।।।३१२।। वस्तुनः प्रदेशतो वस्तुग्रहणं तु वस्तुदेशं वा। सकलं वाऽवलंब्यानिःसृतमन्यवस्तुगतिः॥
बहुव्यक्तीनां ग्रहणे मतिज्ञाने तद्विषयो बहुरित्युच्यते यथा खण्डमुण्डशबलादिबहुगोव्यक्तयः। बहुजातीनां १५ ग्रहणे मतिज्ञाने तद्विषयो बहुविध इत्युच्यते यथा गोमहिषाश्वादिबहुजातयः इति । इतरग्रहणे एकव्यक्तिग्रहणे मतिज्ञाने तद्विषय एकः यथा खण्डोऽयमिति । एकजातिग्रहणे मतिज्ञाने तद्विषय एकविधः यथा खण्डो वा मुण्डो वा गौरिति । क्षिप्रादयः क्षिप्रानिसृतानुक्तध्र वाः स्वेतरे च अक्षिप्रनिसृतोता- वाश्च स्वस्वनामत एव सिद्धाः । तथाहि क्षिप्रः शीघ्रपतज्जलधाराप्रवाहादिः । अनिसृतः गूढो जलमग्नहस्त्यादिः । अनुक्तः अकथितः अभिप्रायगतः । ध्र वः स्थिरः चिरकालावस्थायी पर्वतादिः । अक्षिप्रः मन्दं गच्छन्नश्वादिः । निसृतः व्यक्तनिष्क्रान्तः २० जलनिर्गतहस्त्यादिः । उक्तः अयं घटः इति कथितो दृश्यमानः । अघ्र वः क्षणस्थायी विद्युदादिः । तथा चेतिशब्दौ समुच्चयार्थी ॥३१॥
जो मतिज्ञान बहुत व्यक्तियोंको ग्रहण करता है, उसके विषयको बहु कहते हैं जैसे खण्डी, मुण्डी, चितकबरी आदि बहुत-सी गायें। जो मतिज्ञान बहुत-सी जातियोंको ग्रहण करता है, उसके विषयको बहुविध कहते हैं । जैसे गाय, भैस, घोड़ा आदि बहुत-सी जातियाँ। २५ जो मतिज्ञान एक व्यक्तिको ग्रहण करता है, उसके विषयको एक कहते हैं जैसे खण्डी गौ। जो मतिज्ञान एक जातिको ग्रहण करता है, उसके विषयको एकविध कहते हैं। जैसे खण्डी या मुण्डी गौ । शेष क्षिप्र, अनिमृत, अनुक्त, ध्रुव और उनके प्रतिपक्षी अक्षिप्र, निस्मृत, उक्त, अध्रुव तो अपने नामसे ही स्पष्ट है । क्षिप्र जैसे शीघ्र गिरती हुई जलधाराका प्रवाह अ अनिमृत गूढ़को कहते हैं जैसे जल में डूबा हाथी आदि । अनुक्त बिना कहे हुए को या अभि- ३० प्रायमें वर्तमानको कहते हैं। ध्रुव स्थिरको कहते हैं जैसे चिरकाल तक स्थायी पर्वत आदि । अक्षिप्र जैसे धीरे-धीरे जाता हुआ घोड़ा वगैरह । निमृत व्यक्त या निकले हुएको कहते हैं। जैसे जलसे निकला हाथी आदि । उक्त 'यह घट है'; इस प्रकारसे जो कहा गया, वह विषय उक्त है । अध्रुव जैसे क्षणस्थायी बिजली आदि । तथा और 'चशब्द समुच्चयवाची है ॥३११॥ १. ब बहुर्यथा । २. ब बहुविध यथा ।
३५
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गो० जीव काण्डे
ओम वस्तुविन प्रदेशात् एकदेशदोडनविना भावियप्पऽव्यक्तमप्प वस्तुविन ग्रहणमनिसृतज्ञानम बुदथवा ओंदु वस्तुविन एकदेशमं मेणु सकलं वस्तुवं मेणवलंबिसिको डु मत्तमन्यवस्तुविन गतिः ज्ञानमावुदो ददुवुमनिःसृतज्ञानमक्कु मदक्कुदाहरणमं तोरिदपं । पुक्खरगहणे काले हत्थिम्स य वदणगवयगहणे वा ।
वत्थंतरचंदस् य णुस्स य बोहणं च हवे || ३१३॥
पुष्करग्रहणे काले हस्तिनश्च वदनगवयग्रहणे वा । वस्त्वंतरचंद्रस्य च धेनोश्च बोधनं च
१५
५२०
भवेत् ॥
जलदिदं पोरगे दृश्यमानमप्प पुष्करद जलमग्नहस्तिकराग्रइ ग्रहणकालदोळ, दर्शनकालदोळ तदविनाभावि जलमग्न हस्तिग्रहणं जलदोछु हस्तिमग्ननिद्देपुढे दितु प्रतीति वा इव एंतंत इदरिदमी १० साध्याविनाभावनियम निश्चयमतुल साधनदर्त्ताण “ साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानमेदितु अनुमानप्रमाणं संगृहीतमकुं । अथवा ओं दानुमो युवतिय वदनग्रहणकाले वदनदर्शनकालदोळे वस्त्वंतरचंद्रग्रहणं मुखसादृश्यदिदं चंद्रस्मरणं चंद्रसदृशं मुखमे दितु प्रत्यभिज्ञानं मेणरण्यदोळ गवयग्रहणकाले गवयदर्शनकालदोळे धेनुविन बोधनं धेतुविन स्मरणं गोसदृशं गवयमें दितु प्रत्यभिज्ञानं मेणु भवेत् अक्कुं । अनंतर गाथोक्तमप्यनिःसृतज्ञानक्किनितुमुदाहरणंगळु । वा शब्दं पक्षांतरसूचकं मेणु एंतीगळ
कस्यचिद्वस्तुनः, प्रदेशाद् - एकदेशाद् व्यक्तात् तदविनाभाविनोऽव्यक्तस्य वस्तुनो ग्रहणं अनिसृतज्ञानम् । अथवा एकस्य वस्तुनः एकदेशं वा सकलं वस्तुं वा अवलम्ब्य गृहीत्वा पुनरन्यस्य वस्तुनो गतिः - ज्ञानं यत्, तदप्यनिसृतज्ञानं भवति ।। ३१२|| तदुदाहरति
पुष्करस्य जलाद्वहिर्दृश्यमानस्य जलमग्नहस्तिकराग्रस्य ग्रहणकाले दर्शनकाले एव तदविनाभाविजलमग्नहस्तिग्रहणं जले हस्त मग्नोऽस्तीति प्रतीतिः । वा इव यथा अनेन अस्मात् साध्याविनाभावनियमनिश्चयात् २० साधनात् साध्यस्य ज्ञानमनुमानमिति अनुमानप्रमाणं संगृहीतं भवति । अथवा कस्याश्चित् युवतेर्वदनग्रहणकाले वस्त्वन्तरस्य चन्द्रस्य ग्रहणम् । मुखसादृश्याच्चन्द्रस्य स्मरणं चन्द्रसदृशं मुखमिति प्रत्यभिज्ञानं वा । अरण्ये वयग्रहणकाले गवयदर्शनकाल एव धेनोर्बोधनं स्मरणं गोसदृशो गवय इति प्रत्यभिज्ञानं वा भवेत् । वा इव
किसी वस्तुके प्रकट हुए एकदेशको देखकर उसके अविनाभावी अप्रकट अंशको ग्रहण करना अनिसृत ज्ञान है । अथवा एक वस्तुके एकदेश या समस्त वस्तुको ग्रहण करके अन्य ने 'जानना भी अनिसृत ज्ञान है || ३१२ || उसका उदाहरण देते हैं
२५ व
-
जल में डूबे हुए हाथीकी जलसे बाहर दिखाई देनेवाली सूँड़को देखते ही उसके अविनाभावी जलमग्न हस्तिका ग्रहण अनिसृत ज्ञान है । इससे, जिसका साध्यके साथ अविनाभाव नियम निश्चित है, ऐसे साधनसे साध्य के ज्ञानको अनुमान कहते हैं, इस अनुमान ३० प्रमाणका संग्रह होता है । अथवा किसी युवतीके मुखको ग्रहण करते समय अन्य वस्तु चन्द्रमाका ग्रहण अथवा मुखकी समानतासे चन्द्रमाका स्मरण कि चन्द्रके समान मुख है अथवा गवयको देखते ही गायका स्मरण या गौके समान गवय है, यह प्रत्यभिज्ञान इससे गृहीत होता है । 'वा' शब्द उदाहरण के प्रदर्शन में प्रयुक्त हुआ है। जो बतलाता है कि अनन्तर १. म भावियप्प प्रतीत्यनिश्चयदत्तणिद साधना ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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'बाणसिगनावासदोळग्नियुंटागुत्तिरले पुट्टिद घूमं काणल्पदुदु अनग्निह्राददोळु धूममनुपपन्नं निश्चितमंते सर्व्वदेशसर्व्वकालसंबंधित यिदमग्नि धूमंगळ अन्यथानुपपत्तिरूपाऽविनाभाव संबंधक के ज्ञानं तर्कमे बुदकुं अदुवुं मतिज्ञानमक्कुमितनुमानस्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्काख्यंगळु नाल्कुं मतिज्ञानंगळुमनिःसृतार्थविषयंगळु केवलपरोक्षंगळेके दोडेकदेशदिदमुं वैशद्याभावमप्पुर्दारदं । शेषस्पर्शनादींद्रियानिद्रियव्यापारप्रभवंगळप्प बह्वाद्यर्थविषययतिज्ञानंगळु सांव्यवहारिक प्रत्यक्षंगळ प्पुवेक - ५ दोडेकदेशदिदं वैशद्यसंभवदिदं प्रत्यक्षं विशदज्ञानमेदितु पूर्व्वाचार्यरुगलिदं प्रत्यक्ष लक्षणं पेळपट्टु ददरिदं । यितवेल्लमुं मतिज्ञानंगळ प्रमाणंगळ प्पुवेकेंदोडे सम्यग्ज्ञानत्वदिदं सम्यग्ज्ञानं प्रमाणमेदितु प्रवचनदो पेळपट्टु दरिदं ।
एक्कच उक्कं चउवीसट्ठाबीसं च तिष्पर्डि किच्चा । इछिब्बरसगुणिदे मदिणाणे होंति ठाणाणि ॥ ३१४॥
एकं चत्वारि चतुव्विशतिमष्टाविंशति च त्रिः प्रति कृत्वा । एक षड्द्वादशगुणिते मतिज्ञाने भवंति स्थानानि ॥
यथा अत्र इवार्थद्योतको वाशब्दः उदाहरणप्रदर्शने प्रयुक्तः अनन्तरगाथोक्तानिसृतार्थज्ञानस्य एतावन्त्युदाहरणानि । पक्षान्तरसूचको वा । यथा महानसे अग्नौ सत्येव धूम उपपन्नो दृष्टः । ह्रदे अग्न्यभावे धूमोऽनुपपन्नो निश्चितः । तथैव सर्वदेशकाल संबन्धितया अग्निधूमयोरन्यथानुपपत्तिरूपस्य अविनाभावसंबन्धस्य १५ ज्ञानं तर्कः सोऽपि मतिज्ञानं भवति । एवमनुमानस्मृतिप्रत्यभिज्ञानतर्काख्यानि चत्वारि मतिज्ञानानि अनिसृतार्थ - विषयाणि केवलं परोक्षाणि एकदेशतोऽपि वैशद्याभावात् । शेषाणि स्पर्शनादीन्द्रियानिन्द्रियव्यापारप्रभवानि ह्वार्थविषयाणि मतिज्ञानानि सांव्यवहारिकप्रत्यक्षाणि एकदेशनो वैशद्यसंभवात् । प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानमिति पूर्वाचार्यैः प्रत्यक्षलक्षणस्योक्तत्वात् । तानि सर्वाणि अपि मतिज्ञानानि प्रमाणानि सम्यग्ज्ञानत्वात् । सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं, इति प्रवचने प्रतिपादनात् ॥३१३॥
१०
१. म प्रमाण । २. ब स्यकथनात् ।
६६
गाथा में कहे अनिसृत अर्थके ज्ञानके ये उदाहरण हैं । अथवा वा शब्द पक्षान्तरका सूचक है। जैसे रसोई घरमें अग्निके होनेपर ही धूम देखा जाता है । तालाब में अग्निका अभाव होनेसे धूम भी नहीं होता । तथा सर्वदेश और सर्वकाल सम्बन्धी रूपसे आग और धूमके अन्यथानुपपत्तिरूप अविनाभाव सम्बन्ध - कि जहाँ-जहाँ धूम होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है । जहाँ आग नहीं होती, वहाँ धूम भी नहीं होता - का ज्ञान तर्क है । यह भी मतिज्ञान है । २५ इस प्रकार अनुमान, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क नामक चारों ज्ञान मतिज्ञान हैं। ये चारों अनिसृत अर्थको विषय करते हैं; इससे केवल परोक्ष हैं, एकदेशसे भी इनमें स्पष्टताका अभाव है । शेष स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ और मनके व्यापारसे उत्पन्न होनेवाले तथा बहु आदि अर्थको विषय करनेवाले मतिज्ञान सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि एकदेश से स्पष्ट होते हैं । स्पष्ट ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं । इस प्रकार पूर्वाचार्यांने प्रत्यक्षका लक्षण कहा है। ये सब मतिज्ञान प्रमाण हैं, क्योंकि सम्यग्ज्ञान है । 'सम्यग्ज्ञान प्रमाण है'; ऐसा आगम में कहा है ||३१३||
३०
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गो० जीवकाण्डे मतिज्ञानं सामान्यापेक्षयिदमोदु १। अवग्रहहावायधारणापेक्षयिदं नाल्कु ४। इंद्रियानिद्रियजनितार्थावग्रहहावायधारणापेक्षयिदं चतुविशति २४ । अर्थव्यंजनोभयावग्रहापेक्षयिदं अष्टाविशतिगळुमप्पु २८ । वितु नाल्कं स्थानंगळं त्रिःप्रतिकंगळं माडि यथाक्रमं प्रथमस्थानचतुष्टयमं विषयसामान्यदिदमो दरिदं गुणिसुवुदु । द्वितीयस्थानचतुष्टयमं बह्वादिविषयवटकदिदं गुणियिसुवुदु। ५ तृतीयस्थानचतुष्टयमं बह्वादिद्वादशबिषयंगळदं गुणिसुवुदितु गुणिसुत्तमिरलु मतिज्ञानदो विषयसामान्याविषयसर्वविषयापेक्षंगळप्प स्थानंगळप्पुबु ।२८।१ २८।६ : २८ । १२
२४ । १ २४ । ६ २४ । १२
४।१ ४।६ ४ १२:
। ११ १६ १।१२ अनंतरं श्रुतज्ञानप्ररूपणेयं प्रारंभिसुवातं मोदलोळन्नेवरं तत्सामान्यलक्षणं पेळदपं:
अत्थादो अत्यंतरमुवलंभं तं भणति सुदणाणं । __ आभिणिवोहियपुव्वं णियमेणिह सद्द पमुहं ।।३१५।। अादातरमुपलभमानं तद्भणति श्रुतज्ञानमाभिनिबोधिकपूर्व नियमेनेह शब्दजं प्रमुखं ॥
मतिज्ञानं सामान्येन एकं १ । अवग्रहहावायधारणापेक्षया चत्वारि ४। इन्द्रियानिन्द्रियजनितार्थावग्रहहावायधारणापेक्षया चतुविशतिः २४ । अर्थव्यञ्जनोभयावग्रहापेक्षया अष्टाविंशतिः २८ । एतानि चत्वारि स्थानानि त्रिःप्रतिकानि
२८ । १ २८ । ६ । २८ । १२ २४ । १
२४ । ६ । २४ । १२ ४।१
४ । १२
१ । १२ कृत्वा यथाक्रमं प्रथम स्थानचतुष्टयं विषयसामान्येनैकेन गुणयेत् । द्वितीयं स्थानचतुष्टयं बह्वादिविषयषट्केन गुणयेत् । तृतीय स्थानचतुष्टयं बह्वादिभिदिशविषयैर्गुणयेत् । एवं गुणिते सति मतिज्ञाने सामान्यविषयार्धविपयसर्वविपयापेक्षया स्थानानि भवन्ति ॥३१४।। अथ श्रुतज्ञानप्ररूपणां प्रारभमाण प्रथमस्तावत्तत्सामान्यलक्षणे माह
मतिज्ञान सामान्यसे एक है। अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाकी अपेक्षा चार है। इन्द्रिय और मनसे उत्पन्न अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाकी अपेक्षा चौबीस हैं। अर्थाव२० ग्रह और व्यंजनावग्रहकी अपेक्षा अट्ठाईस हैं। इन चारों स्थानोंको तीन जगह स्थापित
करके यथाक्रम प्रथम चार स्थानोंको सामान्य विषय एकसे गुणा करना चाहिए। दूसरे चार स्थानोंको बहु आदि छह विषयोंसे गुणा करना चाहिए। तीसरे चार स्थानोंको बहु आदि बारह विषयोंसे गुणा करना चाहिए। इस तरह गुणा करनेपर मतिज्ञानके सामान्य विषय, बहु आदि छह अर्धविषय और सर्व विषयकी अपेक्षा स्थान होते हैं। यथा-॥३१४।।
२८x१ । २८४६ २८x१२ २४४१ । २४४६ २४-१२ ४४१ ४४६ ४-१२
१४१ १४६ १x१२ २५ . अब श्रुतज्ञान प्ररूपणाको प्रारम्भ करते हुए पहले श्रुतज्ञानका सामान्य लक्षण
कहते हैं
२. बणं प्ररूपयति ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५२३ मतिज्ञानदिदं निश्चितमाददिदं तदर्थमनवलंबिसि अर्थांतरं तत्संबंधमन्यार्थमं उपलंभमानं अक्बुध्यमानमं श्रुतज्ञानावरणवीर्यातरायक्षयोपशमोत्पन्नम जीवज्ञानपर्य्यायमं श्रुतज्ञानमेंदितु मुनीश्वररुगळु भणंति पेळवरु। अदेतप्पु दोडे आभिनिबोधिकपूर्व नियमेन आभिनिबोधिकं मतिज्ञानं पूर्व कारणं यस्य तदाभिनिबोधिकव्वं । मतिज्ञानावरणक्षयोपशमदिदं मतिज्ञानमे मोदलोळ पुटुगुं मत्ते तद्गृहीतार्थमनवलंबिसि तबलादानदिदमांतरविषयमप्प श्रुतज्ञानं ५ . पुटुगुं मत्तोंदु प्रकारदिदं पुट्ट दे दितु नियमशब्ददिदं मतिज्ञानप्रवृत्यभावदोळु श्रुतज्ञानाभाव दितवधारणमरिपल्पटुहु । इह ई श्रृतज्ञानप्रकरणदो अक्षरानक्षरात्मकंगळप्प शब्दजमुं लिंगजमुम बरडं श्रुतज्ञानदंगळोळु शब्दजं वर्णपदवाक्यात्मकशब्दजनितमप्प श्रुतज्ञानं प्रमुखं प्रधानमेक दोडे दत्तग्रहणशास्त्राध्ययनादिसकलव्यवहारंगळ्गे तन्मूलत्वदिदं। अनक्षरात्मकमप्प लिंगजश्रुतज्ञानमेकेंद्रियादिपंचेंद्रियपर्यंतमाद जीवंगळोळ विद्यमानमप्पुदादोडं व्यवहारानुपयोगदिदमप्रधानमक्कुं। १० श्रूयते श्रोत्रंद्रियेण गृह्यते इति श्रुतः शब्दस्तस्मादुत्पन्नमर्थज्ञानं श्रुतज्ञानमे दितु व्युत्पत्तिगमुमक्षरात्मकप्राधान्याश्रयमक्कुमप्पुरिदमथवा श्रुतशब्दं रूढिशब्दमक्कुं। मतिज्ञानपूर्वकमातरमप्प
।
मतिज्ञानेन निश्चितमर्थमवलम्ब्य अर्थान्तरं-तत्संबद्धमन्यार्थमुपलभ्यमानं-अवबुध्यमानं श्रुतज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमोत्पन्नं जीवस्य ज्ञानपर्यायं श्रुतज्ञानमिति मुनीश्वरा भणन्ति । तत्कथं भवेत् ? आभिनिबोधिकपूर्व-नियमेन आभिनिबोधिकं मतिज्ञानं पूर्व कारणं यस्य तत् तथोक्तं आभिनिबोधिकपूर्व, १५ मतिज्ञानावरणक्षयोपशमेन मतिज्ञानेमेव पूर्व प्रथममुत्पद्यते । पुनः-पश्चात् तद्गृहीतार्थमवलम्ब्य तबलादर्थान्तरविषयं श्रु तज्ञानमुत्पद्यते नान्यप्रकारेणेति नियमशब्देन मतिज्ञानप्रवृत्त्यभावे श्रुतज्ञानाभाव इत्यवधार्यते । इह-अस्मिन श्र तज्ञानप्रकरणे अक्षरानक्षरात्मकयोः शब्दजलिङ्गजयोः श्र तज्ञानभेदयोः मध्ये शब्दजं-वर्णपदवाक्यात्मकशब्दजनितं श्रुतज्ञानं प्रमुखं प्रधानं दत्तग्रहणशास्त्राध्ययनादिसकलव्यवहाराणां तन्मूलत्वात् । अनक्षरात्मकं तु लिङ्गजं श्रुतज्ञानं एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तेषु जीवेषु विद्यमानमपि व्यवहारानुपयोगित्वाद- २०
मतिज्ञानके द्वारा निश्चित अर्थका अवलम्बन लेकर उससे सम्बद्ध अन्य अर्थको जाननेवाले जीवके ज्ञानको, जो श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तरायके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ है, मुनीश्वर श्रुतज्ञान कहते हैं। वह ज्ञान नियमसे अभिनिबोधिक पूर्व है अर्थात् अभिनिबोधिक यानी मतिज्ञान उसका कारण है। मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे पहले मतिज्ञान ही उत्पन्न होता है। पश्चात् उससे गृहीत अर्थका अवलम्बन लेकर उसके बलसे अन्य अथको विषय । करनेवाला श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। अन्य प्रकारसे नहीं। नियम शब्दसे यह अवधारण किया गया है कि मतिज्ञानकी प्रवृत्तिके अभावमें श्रुतज्ञान नहीं होता। इस श्रुतज्ञानके प्रकरणमें श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक या शब्दजन्य और लिंगजन्य भेदोंमें-से वर्णपदवाक्यात्मक शब्दसे होनेवाला श्रुतज्ञान प्रमुख है प्रधान है,क्योंकि देन-लेन, शास्त्रका अध्ययन आदि समस्त व्यवहारका मूल वही है। अनक्षरात्मक अर्थात् लिंगजन्य श्रुतज्ञान ३० एकेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंमें विद्यमान रहते हुए भी व्यवहारमें उपयोगी न होनेसे अप्रधान होता है । 'श्रूयते' अर्थात् श्रोत्रेन्द्रियके द्वारा जो प्रहण किया जाता है , वह
१. ब तत् तदाभिनि । २. ब"ज्ञानं पूर्वमु । ३. ब तबलाधानेनार्थी ।
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गो० जीवकाण्डे अर्थांतरज्ञानद प्रतिपादकमप्पुदु परमागमदोळु रूढमक्कुमो दानुमोंदु प्रकादिदं कथंचित् निरुक्तिसंभविप रूढिशब्ददोजहत्सार्थवृत्तिकदोळु कुशं लातीति कुशलः एंदितु कुशलादिशब्दंगलोळु निपुणाद्यत्थंगळु रूढंगला रूढार्थंगळोळ तत्कुशलशब्दनिरुक्ति येते अरियल्पडुगुमल्लि जीवोऽस्ति
येदितु नुडियल्पडुत्तिरलु जीवोऽस्ति यदिती शब्दज्ञानं श्रोत्रंद्रियप्रभवमतिज्ञानमयुमा ज्ञानदिदं ५ जीवोऽस्तिशब्दवाच्यरूपात्मास्तित्वदोळु वाच्यवाचकसंबंधसंकेतसंकलनमा पूर्वकमागि आयुदोंदु ज्ञानं पुटुगुमदक्षरात्मकश्रुतज्ञानमयकुमेके दोडक्षरात्मकशब्दसमुत्पन्नवदिदं काय्यदो कारणोपचारमुळ्ळुरिदं । वातशोतस्पर्शज्ञानदिदं वातप्रकृतिगे तत्स्पर्शनदोळमनोज्ञज्ञानमनक्षरात्मकलिंगजमप्प श्रृतज्ञानमें बुदक्कुमे के दोडे शब्दपूर्वकत्वाभावमप्पुरिदं ।
लोगाणमसंखमिदा अणक्खरप्पे हवंति छट्ठाणा ।
बेरुवछट्ठवग्गपमाणं रूऊणमक्खरगं ॥३१६॥ लोकानामसंख्यमितान्यनक्षरात्मके भवंति षट्स्थानानि । द्विरूपषष्ठवर्गप्रमाणं रूपोनमक्षरग।। प्रधानं भवति । श्रूयते-थोत्रन्द्रियेण गृह्यते इति श्रुतः शब्दः, तस्मादुत्पन्नमर्थज्ञानं श्रुतज्ञानमिति व्युत्पतेरपि अक्षरात्मकप्राधान्याश्रयणात् । अथवा श्रुतमिति रूढिशब्दोऽयं मतिज्ञानपूर्वकस्य अर्थान्तरज्ञानस्य प्रतिपादकः परमागमे रूढः । यथाकथंचिन्निरुक्तिसंभवः रूढिशब्दे अजहत्स्वार्थवृत्तिके कुशं लातीति कुशल इति कुशलादिशब्देषु निपुणाद्यर्थेषु रूढेषु तन्निरुक्तिवत् । तत्र जीवोऽस्तीत्युक्ते जोवोऽस्तीति शब्दज्ञानं श्रोत्रेन्द्रियप्रभवं मतिज्ञानं भवति । तेन ज्ञानेन जीवोऽस्तीति शब्दवाच्यरूपे आत्मास्तित्वे वाच्यवाचकसंबन्धसंकेतसंकलनपूर्वक यत् ज्ञानमुत्पद्यते तदक्षरात्मकं श्रु तज्ञानं भवति, अक्षरात्मकशब्दसमुत्पन्नत्वेन कार्ये कारणोपचारात् । वातशीतस्पर्शज्ञानेन वातप्रकृतिकस्य तत्स्पर्श अमनोज्ञज्ञानमनक्षरात्मकं लिङ्गजं श्रतज्ञानं भवति, शब्दपूर्वकत्वाभावात् ॥३१५।। अथ श्रुतज्ञानस्य अक्षरानक्षरात्मकभेदौ प्ररूपयति--
२० श्रत अर्थात् शब्द है। उससे उत्पन्न अर्थज्ञान श्रुतज्ञान है। इस व्युत्पत्तिसे भी अक्षरात्मक
श्रुतज्ञानकी प्रधानता लक्षित होती है । अथवा 'श्रुत' यह रूढ़ि शब्द है। परमागममें मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले अन्य अर्थके ज्ञानको कहने में रूढ़ है। फिर भी यथायोग्य निरुक्ति होती है। रूढ़ि शब्द अपने अर्थको नहीं छोड़ते । जैसे कुशको जो लाता है,वह कुशल है।इस प्रकार कुशल
आदि शब्द चतुर आदि अर्थों में रूढ़ है,फिर भी उनकी व्युत्पत्ति उसी प्रकार की जाती है। २५ इसी प्रकार श्रुतके सम्बन्ध में जानना । 'जीव है', ऐसा कहनेपर यह जो शब्दका ज्ञान
होता है कि 'जीव है,' यह श्रोत्रेन्द्रियसे उत्पन्न हुआ मतिज्ञान है । और ज्ञानके द्वारा 'जीव है, इस शब्दके वाच्यरूप आत्माके अस्तित्वमें वाच्यवाचक सम्बन्धके संकेत ग्रहणपूर्वक जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । क्योंकि अक्षरात्मक शब्दसे उत्पन्न
हुआ है, इस प्रकार कार्यमें कारणका उपचार किया है। तथा वायुके शीत स्पर्श के ज्ञानसे ३. वात प्रकृतिवाले मनुष्यको जो उसके स्पर्शमें 'यह मेरे लिए अनुकूल नहीं है', ऐसा जो ज्ञान होता है, वह अनक्षरात्मक लिंगजन्य श्रुतज्ञान है,क्योंकि वह शब्दपूर्वक नहीं हुआ है ।।३१५।।
अब श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक भेदोंको कहते हैं
१. मलनपूर्व संकलनमागि । २. म कार्यकारणो । ३. बस्त्येतद्ज्ञानं ।
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
५२५
अल्लि श्रुतज्ञानक्क नक्षरात्म अक्षरात्मकभेर्दाददं द्विभेदमक्कु मल्लि अनक्षरात्मकमप्प श्रुतभेदो पर्याय पर्याय समासलक्षण सर्व्वजघन्यज्ञानं मोदल्गोंडु स्वोत्कृष्टपर्यंतं असंख्येयलोकमात्राs ज्ञानविकल्पंगळष्ववुम संख्येयलोकमात्रवारषट्स्थान वृद्धियिदं संवृद्धंगळप्पुवु । अक्षरात्मकं श्रुतज्ञानं द्विरूपवर्गधारोत्पन्नषष्ठवार्यमप्पे कट्टमेंब पेसरनुलोड्दिनोळेनितोळवु रूपुगळ नितु मेक रूपोनंगळवुमनितुमक्षरंगलुम पुनरुक्ताक्षरंगळनाश्रयिति संख्यातविकल्पमक्कुं । विवक्षितार्थोऽभिव्यक्तिनिमित्त पुनरुक्ताक्षर ग्रहणदोलदं नोडल धिकप्रमाणमुमक्कु बुदत्थं ।
अनंतरं श्रुतज्ञान प्रकारांतरदिदं भेदप्ररूपणार्थमागि गाथाद्वयमं पेळदपं पज्जायक्खरपदसंघादं पडिवत्तियाणि जोगं च ।
दुगवारपाहुडं च य पाहुडयं वत्थु पुव्वं च ॥३१७॥ पर्यायाक्षरपद संघातं प्रतिपत्तिकानुयोगं च । द्विकवारप्राभृतं च च प्राभृतकं वस्तुपूव्वं च ॥ १० तेसिं च समासेहि य बीसविधं वा हु होदि सुदणाणं । आवरणस्स वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंतित्ति ॥ ३१८॥
तेषां च समासैश्च विंशतिविधं वा हि भवति श्रुतज्ञानं । आवरणस्यापि भेदास्तावन्मात्रा भवतीति ॥
५
श्रुतज्ञानस्य अनक्षरात्मकाक्षरात्मकौ द्वौ भेदौ, तत्र अनक्षरात्मके श्रुतज्ञाने पर्यायपर्यायसमासलक्षणे १५ सर्वजघन्यज्ञानमादि कृत्वा स्वोत्कृष्टपर्यन्तं असंख्येयलोकमात्रा ज्ञानविकल्पा भवन्ति । ते च असंख्येयलोकमात्रवारषट्स्थानवृद्ध्या संवर्धिता भवन्ति । अक्षरात्मकं श्रुतज्ञानं द्विरूावर्गधारोत्पन्नषष्टवर्गस्य एकनाम्नो यावन्ति रूपाणि एकरूपोनानि सन्ति तावन्ति अक्षराणि अपुनरुक्ताक्षराण्याश्रित्य संख्यातविकल्पं भवति । विवक्षितार्था - भिव्यक्तिनिमित्तं पुनरुक्ताक्षरग्रहणे ततोऽधिकप्रमाणं भवतीत्यर्थः ॥ ३१६ ॥ अथ श्रुतज्ञानस्य प्रकारान्तरेण भेदान् गाथाद्वयेनाह
श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक ये दो भेद हैं । अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानके पर्याय और पर्यायसमास दो भेद हैं। इसमें सर्वजघन्य ज्ञानसे लेकर अपने उत्कृष्ट पर्यन्त असंख्यात लोक प्रमाण ज्ञानके भेद होते हैं । वे भेद असंख्यात लोकमात्र बार षट्स्थानपतित वृद्धिको लिये हुए हैं | अक्षरात्मक श्रुतज्ञानके संख्यात भेद हैं । सो द्विरूप वर्गधारामें उत्पन्न छठे वर्गका, जिसका प्रमाण एकट्ठी है, उसके प्रमाणमें से एक कम करनेपर जितने अपुनरुक्त अक्षर २५ होते हैं, उतने हैं । इसका आशय यह है कि विवक्षित अर्थको प्रकट करनेके लिए पुनरुक्त अक्षरोंके ग्रहण करनेपर उससे अधिक प्रमाण हो जाता है ||३१६ ||
२०
विशेषार्थ - दोसे लेकर वर्ग करते जानेको द्विरूपवर्गधारा कहते हैं । जैसे दोका प्रथम वर्ग चार होता है । चारका वर्ग सोलह होता है । सोलहका वर्ग दो सौ छप्पन होता है । दो सौ छप्पनका वर्ग पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस होता है, जिसको पण्णी कहते हैं । पट्टीका वर्ग बादाल और बादालका वर्ग एकट्टी प्रमाण होता है, यही छठा वर्गस्थान है । इसमें एक कम करनेसे श्रुतज्ञानके समस्त अपुनरुक्त अक्षर होते हैं। उतने ही अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद हैं।
३०
अब अन्य प्रकार से श्रुतज्ञानके भेद दो गाथाओंसे कहते हैं
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गो० जीवकाण्डे वा अथवा पर्यायश्च पर्यायमुं अक्षरं च अक्षरमुं पदं च पदमुं संघातश्चेति संघातमुम दितु द्वंद्वैकत्वं प्रतिपतिकश्चानुयोगश्च प्रतिपत्तिकमुमनुयोगमुमे दिल्लियुमंते द्वंद्वैकत्वमदकुं। द्विकवारभाभृतकं च प्राभृतकप्राभृतकमुं प्राभृतकमे दु वस्तु वस्तुवेई पूवं च पूर्वमुदितु दशभेदंगळप्पुवु । तेषां परगे पेळ्द पर्यायादिगळ पत्तुं समांसर्गाळदं कडि श्रुतज्ञानं विशतिविधमुमक्कुमल्लि अक्षरादि विषयार्थज्ञानमप्प भावश्रुतक्के विवक्षितत्वदिदमवर विशतिविधत्वनियमदोळु हेतुवं पेळ्दपं ।
श्रुतज्ञानावरणद भेदंगळुमंतावन्मात्रंगळे भवंति अप्पुर्वोदितु इतिशब्दक्के हेत्वर्थवृत्ति सिद्धमायतु । पर्यायः पर्यायसमासश्च अक्षरमक्षरसमासश्च पदं पदसमासश्च संघातः संघातसमासश्च प्रतिपत्तिकः प्रतिपत्तिकसमासश्च अनुयोगोऽनुयोगसमासश्च प्राभृतकप्राभृतकं प्राभृतकप्राभृतक
समासश्च प्राभृतकं प्राभृतकसमासश्च वस्तु वस्तुसमासश्च पूवं पूर्वसमासश्चेति एंदितिदु तदा१० लापक्रममक्कुं।
अनंतरं पर्याय ब प्रथमश्रु तज्ञानभेदस्वरूपप्ररूपणात्थं गाथाचतुष्टयमं पेळ्दपं ।
णवरि विसेसं जाणे सुहुमजहण्णं तु पज्जयं णाणं ।
पज्जायावरणं पुण तदणंतरणाणभेदम्मि ॥३१९॥ नवरि विशेष जानीहि सूक्ष्मजघन्यं तु पर्यायं ज्ञानं । पर्यायावरणं पुनस्तदनंतरज्ञानभेदे ॥
वा-अथवा, पर्यायाक्षरपदसंघातं पर्यायश्च अक्षरं च पदं च संघातश्चेति द्वन्द्वकत्वम् । प्रतिपत्तिकानुयोग-प्रतिपत्तिकश्च अनुयोगश्चेति द्वन्द्वकत्वम् । द्विकवारप्राभृतकं च प्राभूतकप्राभूतकमित्यर्थः । प्राभृतकं च वस्तुं च पूर्वं च इति दशभेदा भवन्ति । तेषां पूर्वोक्तानां पर्यायादीनां दशभिः समासः मिलित्वा श्रु तज्ञानं विंशतिविधं भवति । अवाक्षरादिविषयार्थज्ञानस्य भावश्रुतस्य विवक्षितत्वेन तेषां विंशतिविधत्वनियमे हेतुमाहश्रुतज्ञानावरणस्य भेदा अपि तावन्मात्रा एव विंशतिविधा एव भवन्ति, इति इतिशब्दस्य हेत्वर्थवृत्तिसिद्धेः। तद्यथा-पर्यायः पर्यायसमासश्च, अक्षरं, अक्षरसमासश्च, पदं, पदसमासश्च, संघातः, संघातसमासश्च, प्रतिपत्तिकः, प्रतिपत्तिकसमासश्च, अनुयोगः, अनुयोगसमासश्च, प्राभुतकप्राभृतकं, प्राभृतकप्राभृतकसमासश्च, प्राभृतकं, प्राभृतकसमासश्च, वस्तु वस्तुसमासश्च, पूर्व पूर्वसमासश्चेति तदालापक्रमो भवति ॥३१७-३१८॥ अथ पर्यायनाम्नः प्रथमश्रु तज्ञानस्य स्वरूपं गाथाचतुष्टयेनाह
२०
. पर्याय, अक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति, अनुयोग, प्राभृत प्राभृतक, प्राभृतक, वस्तु, पूर्व २५ ये दस भेद होते हैं। इनके दस समास मिलानेसे श्रुतज्ञानके बीस भेद होते हैं-अर्थात्
पर्याय, पर्यायसमास, अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, प्रतिपत्तिक, प्रतिपत्तिकसमास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृतक प्राभृतक, प्राभृतक प्राभृतकसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व, पूर्वसमास, यह उनके आलापका क्रम है। यहाँ अक्षरादिके द्वारा कहे जानेवाले अर्थका
ज्ञानरूप जो भावश्रुत है, उसकी विवक्षा होनेसे उनके बीस ही होने में हेतु कहते हैं कि श्रुत३० ज्ञानावरणके भेद भी बीस ही होते हैं । यहाँ 'इति' शब्द हेतुके अर्थमें है। इसलिए श्रुतज्ञानके बीस भेद हैं ॥३१७-३१८॥
अब पर्याय नामक प्रथम श्रुतज्ञानका स्वरूप चार गाथाओंसे कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
. ५२७ पोसतप्प विशेषमरियल्पडुगुमदावुदे दोडे पर्याय ब प्रथमश्र तज्ञानं तु मत्ते सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकन संबंधि सर्वजघन्यश्रु तज्ञानमक्कुं। पुनः मत्ते पर्यायज्ञानावरणमु तदनंतरज्ञान भेददोनंतभागवृद्धियुक्तपीयसमासज्ञानप्रथमभेददोळक्कुमदते दोडे उदयागतपर्यायज्ञानावरणसमजबहुदानिकदनुभागंगळ सर्वघातिस्पर्द्धकंग दयाभावलक्षणक्षयमुमवक्केये सत्वस्थालक्षणोपशाल देशघातिस्पर्द्धकंगजुदयाभुटागुत्तिरलुमंतप्यावरणोदयदिदं पविसमासप्रथमलाननेयावरणिसल्पडुगुं। तुपत्ते पर्यायज्ञानमावरणिसल्पडदेके दोडे तदावरणदोलु जीवगुणमप्प ज्ञानक्कभावनागुत्तिरलु गुणियप्पजीवक्कयुमभावासंगमनप्पुररिवं।
अनुभागरचनयं स्यापिसल्पट्टल्लि सिद्धानंतैकभागमात्रद्रव्यानुभागक्रमहानिवृद्धियुक्तनानागुणहानिस्पर्द्धकवर्गणात्मकमप्प श्रु तज्ञानावरणद्रवदल्लि सर्गतःस्तोकमप्प सर्वपश्चिमप्रक्षीणोदयानुभागसर्वघातिस्पर्द्धकद्रव्यक्कयो पर्यायज्ञानावरणत्वदिदं तावन्मात्रावरणद्रव्यक्क सर्वकालदोळ- . मुदयाभावमप्दरिदं।
नवीनं विशेष जानीहि, सः कः ? पर्यायज्ञान-पर्यायाख्यं प्रथमं श्रु तज्ञानं, तु-पुनः, सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य संबन्धि सर्वजघन्यं श्रुतज्ञानं भवति । पुनः-पश्चात् पर्यायज्ञानस्य आवरणं तदनन्तरज्ञानभेदे अनन्तभागवृद्धियुक्ते पर्याधसमासज्ञानप्रथमभेदे भवति, तद्यथा-उदयागतपर्यायज्ञानावरणसमयप्रबद्धोदयनिषेकस्यानुभागानां सर्ववातिस्पर्धकानामुदयाभाव लक्षणः क्षयः, तेषामेव सदवस्थालक्षण उपशमः, देशघातिस्पर्ध- १५ कानामुदये सति तदावरणोदयेन पर्यायसमासप्रथमज्ञानमेव आवियते न तु पर्यायज्ञानम् । तदावरणे जीवगुणस्य ज्ञानस्याभावे गुगिनो जीवस्याप्यभावप्रसंगात् । अनुभागरचनायां विन्यस्ते सिद्धानन्तकभागमात्रे द्रव्यानभागक्रमहानिवृद्वियुक्ते नानागुणहानिस्पर्धकवर्गणात्मके श्रु तज्ञानावरणद्रव्ये सर्वतः स्तोकस्य सर्वपश्चिमप्रक्षोणोदयानुभागसर्वघातिस्पर्धकद्रव्यस्यैव पर्यायज्ञानावरणत्वात् । तावतः आवरणद्रव्यस्य सर्वकालेऽप्युदयाभावात् ॥३१९॥
यह विशेष जानना कि पर्याय नामक प्रथम श्रुतज्ञान सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकका २० सबसे जघन्य श्रुतज्ञान होता है। किन्तु पर्यायज्ञानका आवरण उसके अनन्तर जो ज्ञानका भेद है, जो उससे अनन्तभागवृद्धिको लिये हुए है; उस पर्याय समास ज्ञानके प्रथम भेदपर होता है । जो इस प्रकार है-उदयप्राप्त पर्याय ज्ञानावरणके समयप्रबद्धका जो निषेक उदयमें आया है, उसके अनुभागके सर्वधाती स्पद्धकोंके उदयका अभाव ही क्षय है तथा जो अगले निषेक सम्बन्धी सर्वघाती स्पर्द्धक सत्तामें वर्तमान है उनका उपशम है और देशघाती २५ स्पर्धकोंका उदय है। ऐसी क्षयोपशम पर्याय ज्ञानावरणकी सदा रहती है। अतः पर्याय ज्ञानावरणके उदयसे पर्याय समास ज्ञानका प्रथम भेद ही आवृत होता है; पर्यायज्ञान नहीं। यदि उसका भी आवरण हो जाये,तो जीवके गुण ज्ञानका अभाव होनेपर गुणी जीवके भी अभावका प्रसंग आता है। तथा अनुभाग रचनामें स्थापित किया सिद्ध राशिका अनन्तवाँ भागमात्र जो श्रुतज्ञानावरणका द्रव्य अर्थात् परमाणुसमूह है, वह क्रम हानि और वृद्धिसे ३० संयुक्त है, नाना गुणहानि स्पर्धक वर्गणात्मक है, उस श्रुतज्ञानावरणके द्रव्यमें जिसका उदयरूप अनुभाग क्षीण हो गया है और जो सबसे थोड़ा तथा सबसे अन्तिम सर्वघाति स्पर्धक है, उसीका नाम पर्यायज्ञानावरण है। इतने आवरणका कभी भी उदय नहीं होता। इसलिए भी पर्यायज्ञान निरावरण है ॥३१९।।
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गो० जीवकाण्डे सुहमणिगोद अपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्मि ।
हवदि हु सव्वजहण्णं णिच्चुग्घाडं णिरावरणं ॥३२०॥ सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये भवति खलु सर्वजघन्यं नित्योद्घाट निरावरणं ॥ ५ सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तक जननद प्रथमसमयदोळु निरावरणं प्रच्छादनरहितमप्प नित्योद्
घाटं सर्वदा प्रकाशमानमप्प सर्वजधन्यं सर्वनिकृष्टशक्तिकमप्प पर्याय ब श्रु तज्ञानमक्कुं । खलु । ई गाथासूत्रं पूर्वाचार्यप्रसिद्धं स्वोक्तार्थसंप्रतिपत्तिप्रदर्शनार्कामागि उदाहरणवदिदं बरेयल्पदुदु ।
सुहुमणिगोद अपज्जत्तगेसु सगसंभवेसु भमिऊण ।
चरिमापुण्ण तिवक्काणादिमवक्कट्टियेव हवे ॥३२१।। सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तगतेषु स्वसंभवेषु भ्रमित्वा । चरमापूर्णत्रिवक्राणामाद्यवस्थित एव भवेत् ॥
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तनोळु संद स्वसंभवेषु द्वादशोत्तरषट्सहस्रप्रमितंगळप्प भवेषु भवंगळोळु भ्रमित्वा भ्रमिसि चरमापूर्णभवद त्रिवक्रविग्रहगतियिंदमुत्पन्नजीवन प्रथमवक्रद प्रथमसमयदोलिदंगेये मुंपेन्द सर्वजघन्यपर्यायमें ब श्रुतज्ञानमक्कुं। मत्तल्लिये तज्जीवक्के स्पर्शनेंद्रियप्रभवसर्वजघन्यमतिज्ञानमचक्षुद्देशनावरणक्षयोपशमसमुद्भूताचक्षुर्दर्शनमुमक्कुभेके दोर्ड -
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य जातं-जननं तस्य प्रथमसमये निरावरणं-प्रच्छादनरहितं नित्योद्घाट अतएव सर्वदा प्रकाशमानं सर्वजधन्यं-सर्वनिकृष्टशक्तिकं पर्यायाख्यं पूर्वाचार्यप्रसिद्धं-स्वोक्तार्थसंप्रतिपत्तिप्रदर्शनार्थ उदाहरणत्वेन लिखितम् ॥३२०॥
__सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकेषु स्वसंभवेषु द्वादशोत्तरषट्सहस्रप्रमितेषु भवेषु भ्रमित्वा चरमापूर्णभवस्य त्रिवक्रविग्रहगत्या उत्पन्नस्य जीवस्य प्रथमवक्रसमये स्थितस्यैव पूर्वोक्तं सर्वजघन्यं पर्यायाख्यं श्रु तज्ञानं भवति तत्रैव तस्य जीवस्य स्पर्शनेन्द्रियप्रभवं सर्वजघन्यं मतिज्ञानं, अचक्षुर्दर्शनावरणक्षयोपशमसंभूतं अचक्षुर्दर्शनमपि
सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकके जन्मके प्रथम समय पर्यायनामक श्रुतज्ञान होता है। यह निरावरण है,इसीसे सर्वदा प्रकाशमान रहता है, सबसे जघन्य अर्थात् निकृष्ट शक्तिवाला
होता है। यह गाथा सूत्र प्राचीन है। यहाँ ग्रन्थकारने अपने कथनकी यथार्थता दिखलाने के २५ लिए उदाहरणके रूपमें लिखा है ॥३२०॥
सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव अपने सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक सम्बन्धी छह हजार बारह भवोंमें भ्रमण करके अन्तिम लब्ध्यपर्याप्तक भवमें तीन मोड़ेवाली विग्रहगतिसे उत्पन्न होकर प्रथम मोड़ेके समयमें स्थित होता है। उसके ही सबसे जघन्य पर्याय श्रुतज्ञान
होता है। उसी समय उसके स्पर्शन इन्द्रियजन्य सबसे जघन्य मतिज्ञान होता है और ३० अचक्षुदर्शनावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न अचक्षुदर्शन भी होता है। वहाँ ही सबसे जघन्य
पर्याय श्रुतज्ञान होनेका कारण यह है कि बहुत क्षुद्रभवोंमें भ्रमण करनेसे उत्पन्न हुए बहुत १. ब पर्यायनाम ।
२० ।
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५२९ बह्वपर्याप्तभवभ्रमणसंभूतबहुतमसंक्लेशवृद्धियिंदमावरणक्के तीवानुभागोदयसंभवमप्पुरिदं । द्वितीयादिसमयंगळोळु ज्ञानदर्शनवृद्धि संभवमें दितु त्रिवक्रप्रथमवक्रसमयदोळे पर्यायज्ञानसंभवमरियल्पडुगुं ।
सुहुमणिगोद अपज्जत्तयस्स जादस्स पढमसमयम्मि ।
फासिंदियमदिपुव्वं सुदणाणं लद्धिअक्खरयं ॥३२२।। सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य प्रथमसमये। स्पर्शनेंद्रियमतिपूवं श्रु तज्ञानं लब्ध्यक्षरकं॥
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकन जननप्रथमसमयदोळु सर्वजघन्यस्पर्शनेंद्रियमतिज्ञानपूर्वकमप्प लब्ध्यक्षरापरनामधेयमप्प पूर्वोक्तचरमभवत्रिवप्रथमसमयादिविशेषणविशिष्टमप्प सर्वजघन्यपर्यायच तज्ञानमक्कुमेदितु ज्ञातव्यमक्कु । लब्धि एंबुदु श्रु तज्ञानावरणक्षयोपशममक्कुमर्थग्रहणशक्तिमेणु लब्ध्याअक्षरमविनश्वरं लब्ध्यक्षरं तावन्मात्रक्षयोपशमक्क सर्वदा विद्यमानत्वदिदं। १० अनंतरं दशगाथासूत्रंगळिदं पर्यायसमासप्रकरणमं पेन्दपं:
अवरुवरिम्मि अणंतमसंखं संखं च भागवड्ढीओ।
संखमसंखमणंतं गुणवड्ढी होंति हु कमेण ॥३२३॥ अवरोपऱ्यानंतमसंख्यं संख्यं च भागवृद्धयः । संख्यमसंख्यमनंतं गुणवृद्धयो भवंति हि क्रमेण ॥
सर्वजघन्यपव्यज्ञानदमेले क्रमेण वक्ष्यमाणपरिपाटियिंदमनंतभागवृद्धियुमसंख्यातभाग- १५ वृद्धियं संख्यातभागवृद्धियं संख्यातगुणवृद्धियुमसंख्यातगुणवृद्धियुमनंतगुणवृद्धियुमें दितु षट्स्थान. भवति । बह्वपर्याप्तभवभ्रमणसंभूतबहुतमसंक्लेशवृद्धया आवरणस्य तीव्रतमानुभागोदयसंभवात्, द्वितीयादिसमयेषु ज्ञानदर्शनवृद्धिसंभवात् 'त्रिवक्रप्रथमवक्रसमये एव पर्यायज्ञानसंभवो ज्ञातव्यः ॥३२१॥
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य जननप्रथमसमये सर्वजघन्यस्पर्शनेन्द्रियमतिज्ञानपूर्वकं लब्ध्यक्षरापरनामधेयं 'पूर्वोक्तचरमभवत्रिवक्रप्रथमसमयादिविशेषणविशिष्टं' सर्वजघन्यं पर्यायश्रुतज्ञानं भवतीति ज्ञातव्यम् । लब्धिर्नाम- २० श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमः अर्थग्रहणशक्तिर्वा, लब्ध्या अक्षरं अविनश्वरं लब्ध्यक्षरं तावतः क्षयोपशमस्य सर्वदा विद्यमानत्वात ॥३२२।। अथ दशभिर्गाथाभिः पर्यायसमासप्रकरणं प्ररूपयति
सर्वजघन्यपर्यायज्ञानस्य उपरि क्रमेण वक्ष्यमाणपरिपाट्या अनन्तभागवृद्धिः असंख्यातभागवृद्धिः संक्लेशके बढ़नेसे आवरणके तीव्रतम अनुभागका उदय होता है, तथा दूसरे मोड़े आदिके समयोंमें ज्ञान और दर्शनमें वृद्धि सम्भव है। इसलिए तीन मोड़ोंमें-से प्रथम मोड़ेके समयमें २५ ही पर्याय ज्ञान जानना ॥३२१।।
___ सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जन्म लेनेके प्रथम समयमें सबसे जघन्य स्पर्शन इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक तथा पूर्वोक्त विशेषणोंसे विशिष्ट सबसे जघन्य पर्याय श्रुतज्ञान होता है। उसका दूसरा नाम लब्ध्यक्षर है। श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशमको अथवा अर्थको ग्रहण करनेकी शक्तिको लब्धि कहते हैं। लब्धिसे जो अक्षर अर्थात् अविनाशी होता है, वह ३० लब्ध्यक्षर है ; क्योंकि इतना क्षयोपशम सदा विद्यमान रहता है ॥३२२।।
अब दस गाथाओंसे पर्यायसमासका कथन करते हैंसबसे जघन्य पर्यायज्ञानके ऊपर आगे कही गयी परिपाटीके अनुसार अनन्तभागवृद्धि,
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५३०
गो. जीवकाण्डे पतितंगळप्प वृद्धिगळप्पुवु। खलु। द्विरूपवर्गधारियोळनंतानंतवर्गस्थानगळं नडेदु जीवपुद्गलकालाकाशश्रेणियदं मेलयुमनंतानंतवर्गस्थानंगळं नडेदु सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकन जघन्यज्ञानाविभागप्रतिच्छेदंगळुत्पत्तिकथनदिदं तज्जघन्यज्ञानक्कनंतात्मकभागहारं पुट्टिसुगुं विरुद्धमल्तु ।
जीवाणं च य रासी असंखलोगा वरं खु संखेज्ज । __ भागगुणमि य कमसो अवढिदा होंति छट्ठाणा ॥३२४॥
जीवानां च च राशिसंख्यातलोका वरं खलु संख्येयं । भागगुणयोश्च क्रमशोऽवस्थिता भवंति षट्स्थाने ॥
- इल्लियनंतभागादिषट्स्थानंगळोळ क्रमदि ई षट्संदृष्टिगळप्पुवुमवुमवस्थितंगळु प्रतिनियतंगळुमप्पुववे ते दोडे अनंतम बुदु भागवृद्धियोळं गुणवृद्धियोळं भागहारमुं गुणकारमुं प्रतिनियत१० सर्वजीवराशियेयक्कुं। १६ । असंख्यातभागवृद्धियोळं गुणवृद्धियोळं भागहारमुं गुणकारमुं प्रति
नियतमसंख्यातलोकमेयक्कं =a । संख्यातभागवृद्धियोळं गुणवृद्धियोळं भागहारमुं गुणकारमुं प्रतिनियतोत्कृष्टसंख्यातमेयक्कुं।
उब्बंक्कं चउरंक्क पणछस्सत्तंकं अट्ठ अंकं च ।
__ छठवड्ढीणं सण्णा कमसो संदिट्टिकरणढें ॥३२५।। १५ उर्वकश्चतुरंकः पंचषट्सप्तांकाः । अष्टांकश्च षड्वृद्धोनां संज्ञाः क्रमशः संदृष्टिकरणात्थं ॥
संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धिः अनन्तगुणवृद्धिश्चेति षट्स्थानपतिता वृद्धयो भवन्ति खल । द्विरूपवर्गधारायां अनन्तानन्तानि वर्गस्थानानि अतीत्यातीत्य उत्पन्नानां जीवपुद्गलकालाकाशश्रेणीनां उपर्यपि अनन्तानन्तवर्गस्थानानि अतीत्य सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य जघन्यज्ञानाविभाग-प्रतिच्छेदानामुत्पत्तिकथनात् तज्जघन्यज्ञानस्यानन्तात्मकभागहारः सुघटन न विरुध्यते ॥३२३।।
___ अत्र अनन्तभागादिषु षट्सु स्थानेषु क्रमेण एताः षट् संदृष्टयः अवस्थिताः प्रतिनियता भवन्ति । तद्यथा-अनन्तभागवृद्धी गुणवृद्धौ च भागहारो गुणकारश्च प्रतिनियतः सर्वजीवराशिरेव १६ । असंख्यात. भागवृद्धौ गुणवृद्धौ च भागहारो गुणकारश्च प्रतिनियतः असंख्यातलोक एव = a। संख्यातभागवृद्धौ गुणवृद्धौ च भागहारो गुणकारश्च प्रतिनियतः उत्कृष्टसंख्यात एव १५ ॥३२४॥
असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुण२५ वृद्धि ये षट्स्थानपतित वृद्धियाँ होती हैं। द्विरूपवर्गधारामें अनन्तानन्त वर्गस्थान जा-जाकर
जीवराशि, पुद्गलराशि, कालके समयोंको राशि तथा आकाश श्रेणी उत्पन्न होती है। उनके भी ऊपर अनन्तानन्त वर्गस्थान जाकर सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त कके जघन्य ज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेद उत्पन्न होते हैं ऐसा कथन है। अतः उसके जघन्य ज्ञानका भागहार अनन्तरूप
सुघटित होता है, इसमें कोई विरोध नहीं है ॥३२३॥ ३० यहाँ अनन्तभागादिरूप छह स्थानोंमें क्रमसे ये छह संदृष्टियाँ अवस्थित हैं जो इस
प्रकार हैं-अनन्तभागवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिका भागहार और गुणकार प्रतिनियत सवे जीवराशि प्रमाण है। असंख्यात भागवृद्धि और गुणवृद्धिका भागहार और गुणकार प्रतिनियत असंख्यात लोक ही है। संख्यातभागवृद्धि और गुणवृद्धिका भागहार और गुणकार प्रतिनियत उत्कृष्ट संख्यात ही है ॥३२४॥ .
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५३१ पूर्वोक्तानंतभागाद्ययंसंदृष्टिगळ्गे मत्तं लघुसंदृष्टिनिमित्तं षड्विधवृद्धिगळगे यथासंख्यमागियन्यनामसंदृष्टिगळ् पेळल्पट्टप्पुवदेते दोडेनंतभागक्के उव्वंक।उ।मसंख्यातभागक्क चतुरंकं । ४। संख्यात भागक्के पंचांकं । ५ । संख्यातगुणक्के षडंक-।६। मसंख्यातगुणक्के सप्तांक । ७ । मनंतगुणक्कष्टांक । ८ । मक्कुं।
अंगुल असंखभागे पुव्वगवड्ढीगदे दु परवड्ढी ।
एक्कं वारं होदि हुँ पुण पुणो चरिमउढित्ती ॥३२६॥ अंगुलासंख्यातभागान् पूर्ववृद्धौ गतायां तु परवृद्धिरेकं वारं भवति खलु पुनःपुनश्चरमवृद्धिरिति ॥
अंगुलासंख्यातभागान् सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रवारंगलनु पूर्ववृद्धौ गतायां सत्यां पूर्ववृद्धियोलुसलुत्तंविरलु । तु मत्ते परवृद्धिरेफवारं भवति खलु। मुंदणवृद्धियोंदु बारियहुदु । स्फुट- १० मागियिती प्रकारदिदं पुनःपुनश्चरमपयंतं ज्ञातव्यं । मत्त मत्त चरमवृद्धिपर्यंत अरियल्पडुम. देते दोडे पर्यायाख्यजघन्यज्ञानद मेलनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रंगळु पायसमासज्ञानविकल्पंगळु नडेदोडाम्मे असंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानमक्कं । ४। मत्तमंत अनंतकभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्रंगळु नडदु मत्तमोम्मे असंख्यातंभाग
पूर्वोक्तानन्तभागाद्यर्थसंदृष्टीनां पुनः लघुसंदृष्टिनिमित्तं षड्विधवृद्धीनां यथासंख्यं अपरसंज्ञाः संदृष्टयः १५ कथ्यन्ते । अनन्तभागस्य उर्वङ्कः उ । असंख्यातभागस्य चतुरङ्कः ४ । संख्यातभागस्य पञ्चाङ्कः ५ । संख्यातगुणस्य षडङ्कः ६ । असंख्यातगुणस्य सप्ताङ्कः ७, अनन्तगुणस्य अष्टाङ्कः ८॥३२५॥
पूर्ववृद्धौ-अनन्तभागवृद्धी सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्रवारान् गतायां सत्यां तु पुनः परवृद्धिः-असंख्यातभागवृद्धिरेकवारं भवति खलु स्फुटं, पुनरपि अनन्तभागवृद्धौ सूच्यङ्गलासंख्यातैकभागमात्रवारान् गतायां सत्यां असंख्यातभागवृद्धिरेकवारं भवति । अनेन क्रमेण तावद् गन्तव्यं यावदसंख्यातभागवृद्धिरपि सूच्यङ्गुलासंख्यातेक- २० भागमात्रवारान् गच्छति । ततः पुनरपि अनन्तभागवृद्धी सूच्यङ्गुलासंख्यातैकभागमात्रवारान् गतायां संख्यात
पूर्वोक्त अनन्तभाग आदि अर्थसंदृष्टियोंकी पुनः लघुसंदृष्टि के निमित्त छह प्रकारकी वृद्धियोंकी यथाक्रम अन्य संज्ञा संदृष्टि कहते हैं-अनन्तभागवृद्धिकी उर्वक अर्थात् उ, असंख्यातभाग वृद्धिकी चारका अंक ४, संख्यातभागवृद्धिकी पाँचका अंक ५, संख्यातगुणवृद्धिकी छहका अंक ६, असंख्यातगुणवृद्धिकी सातका अंक ७, और अनन्तगुणवृद्धिकी आठका २५ अंक ८॥३२५॥
पूर्ववृद्धि अर्थात् अनन्तभागवृद्धिके सूच्यंगुलके असंख्यात भाग बार होनेपर परवृद्धि अर्थात् असंख्यातभागवृद्धि एक बार होती है। पुनः अनन्तभागवृद्धि सूच्यंगुलके असंख्यात भाग बार होनेपर असंख्यातभागवृद्धि एक बार होती है। इस क्रमसे तबतक जाना चाहिए जब तक असंख्यातभागवृद्धि भी सूच्यंगुलके असंख्यात भाग बार होवे । उसके पश्चात् पुनः ३० अनन्तभागवृद्धिके सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र बार होनेपर संख्यातभागवृद्धि एक बार होती है । पुनः पूर्वोक्त क्रमसे पूर्व-पूर्व वृद्धिके सूच्यंगुलके असंख्यातभाग मात्र बार होनेपर १. म वृद्धिगलेकैकवारंगलप्पुवु स्फुट । २. म दोडनंतभागवृद्धियुक्त स्थानंगलु पर्यायजघन्यज्ञानादिविकल्पगलु सूच्यं । ३. मतैकभाग ।
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गो० जीवकाण्डे वृद्धियुक्तस्थानमक्कु । ४। मो प्रकारदिंदमसंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातेक भागमात्रंगळागुत्तिरलु । मत्तं मुंदेयनंतकभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातेक भागमात्रंगळु नडदोम्म संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानमक्कु । ५। मत्तमनंतभागवृद्धिस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्रंगळु नडदोम्मे असंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानमक्कुंमत्तमंत अनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातैकभागंगळु नडदु मत्तोम्म असंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानमक्कुमितु असंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रंगळागुत्तिरलु मत्तमनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्रंगळु नडेडु मत्तमोम्म संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानमक्कुमितु पूर्वापूर्बानंतासंख्यातेकभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातकभागमात्रंगळु नउनडदोम्म संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळागुत्तमिरलु संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळं सूच्यंगुलीसंख्यातभागमात्रंगळ. प्पुवंतागुत्तिरलु मर्तमितनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळुमसंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळं प्रत्येक सूच्यंगुलासंख्यातैकभागप्रमितंगळु नडेनडेदु मतं मुंद अनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्रंगळु नडदोम्म संख्यातगुणवृद्धियुक्तस्थानमक्कु-। ६ । मितु पूर्वपूर्वभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यं गुलासंख्यातैकभागंगळु नडनडदोर्मोम्में संख्यातगुणवृद्धियुक्तस्थानंगळागुत्तं
पोगलासंख्यातगुणवृद्धियुक्तस्थानंगळं सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रंगळप्पुवंतागुत्तिरलु । मत्तमित१५ नंतासंख्यातसंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळं प्रत्येक कांडकमितंगळ्नडेनडेदु मतं मुंदयनंतभाग
वृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रंगळु नडदोम्में असंख्यातगुणवृद्धियुक्तस्थानमक्कुमिते पूर्वापूनितासंख्यातसंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु संख्यातगुणवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुला
भागवृद्धिरेकवारं भवति । पुनरपि पूर्वोक्तक्रमेण पूर्वपूर्ववृद्धो सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्रवारान् गतायां परवृद्धिरेकैकवारं भवतीत्यङ्गुलासंख्यातभागमात्रसंख्यातभागवृद्धो गतायां पुनः पूर्ववृद्धिषु सर्वासु पूर्वोक्तक्रमण संख्यातभागवृद्धिरहितं आवतितासु संख्यातगुणवृद्धिरेकवारं भवति । उक्तानां वृद्धीनां पूर्वोक्तसंदृष्टयः-उ उ ४, उ उ ४, उ उ ५, उ उ ४, उ उ ४, उ उ ५, उ उ ४, उ उ ४, उ उ ६, द्विवालिखित उर्वङ्कादिः अङ्गलासंख्यातभागमात्रवारसंदृष्टिः । एवं षडङ्कपर्यन्तंपङ्क्तिगतोर्वङ्कादीनां सर्वेषामावृत्तौ सत्यां षडङ्कोऽप्यगुलासंख्यातभागमात्रवारान् गतः इत्यर्थः, ततः षडङ्करहितैकपङ्क्तेरावृत्तौ सत्यां एकवारं सप्ताङ्कनामा
वृद्धि एक-एक बार होती है । इस प्रकार सूच्यंगुलके असंख्यातभाग मात्र संख्यात भागवृद्धिके २५ होनेपर पुनः पूर्वोक्त क्रमसे संख्यातभाग वृद्धिके सिवाय सब पूर्व वृद्धियोंकी आवृत्ति होनेपर एक बार संख्यात गुणवृद्धि होती है। उक्त वृद्धियोंकी पूर्वोक्त संदृष्टि इस प्रकार है
उ उ४। उउ४। उ उ ५। उ उ४। उ उ ४। उउ५। उ उ उ उ४। उ उ६। उवंक आदिका दो बार लिखना सूच्यगुलके असंख्यातभाग मात्र बारकी संदृष्टि है। इस
प्रकार षडंक पर्यन्त पंक्तिगत उर्वक आदि सबकी आवृत्ति होनेपर षडंक भी सूच्यंगुलके ३० असंख्यात बार हुआ। अर्थात् ६ के अंककी वृद्धि भी दो बार हुई कहलायी । उसके पश्चात्
१. मयुक्त हूं। २. म मात्रस्थानंगलु। ३. मला संख्यातकभाग। ४. ममत्तमनन्तक भाग। ५. मतैकभाग ।
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५३३
संख्यातैक भागमात्रंगळ नहेनडेदोम्मों असंख्यात गुणवृद्धियुक्तस्थानमक्कुमंता गुत्तंविरलुमा असंख्यात गुणवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुला संख्यातैक भागमात्रंगळप्पुवंतागुत्तमिरलु । अनंतासंख्यात संख्यात भागवृद्धियुक्तस्थानं गळं
मत्तमंत संख्यातगुणवृद्धियुक्तस्थानंगळं प्रत्येकं कांडकप्रमितंगळ् नडनडेदु मत्तमंत मुंदे अनंतासंख्यात संख्यात भागवृद्धियुक्तस्थानंगळं प्रत्येकं कांडक - प्रमितंगळ् नडेदु मत्तेमंते मुंदे मुंदेयु' अनंतासंख्यात भागवृद्धियुक्तस्थानंगळु प्रत्येकं कांडकप्रमितंग नडे मत्तेमंते सुंदे मुंदे अनंतासंख्यात भागवृद्धियुक्तस्थानंग प्रत्येकं कांडकप्रमितंगळ् नडे नडेदु सुंदेयुमनंतभाग वृद्धियुक्तस्थानंगळ सूच्यंगुलासंख्यात भागमात्रगळु नडदो में अनंतगुणवृद्धियुक्तस्थानमक्कुमितोदु षट्स्थानदोळनंतासं ख्यात संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळ संख्याता संख्यातानंतगुणवृद्धियुक्तस्थानं गळु मे दिती षट्स्थानंगळगमनिकेयुमं तत्तद्वृद्धिस्थानसंख्या प्रमाणमुमं ज्ञापिसि तोरल समर्थमप्प रचनाविशेषमिदु:
२१२२२१ २१ २२२ २२१ २२
a მ a a a
aaa a a
aa
उ उ ४ उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४ | उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
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उ उ ४
उ उ ४
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उ उ ४
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--
उ उ ५ | उ उ ४ | उ उ ४ उ उ ५ उ उ ४ उ उ ४ उ उ
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|
उ उ ४ | उ उ ६
उ उ ५ उ उ ५
उ उ ४ | उ उ ४ | उ उ ५ उ उ ४ | उ उ ४ | उ उ ५ उ उ ४ उ उ ४ उ उ ५
उ उ ४ उ उ ४ उ उ ४
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उ उ ५ | उ उ ४ उ उ ५ उ उ ४
उ उ ५
२
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उ उ ५ | उ उ ४
उ उ ४ उ उ ४
उ उ ५ | उ उ ४ उ उ ४ | उ उ ५ उ उ ४ उ उ ४ उ उ ६
उ उ ५ उ उ ५
1
उ उ ४ उ उ ५ उ उ ४ | उ उ ४ | उ उ ५
उ उ ४ उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
उ उ ४
|
उ उ ४
उ उ ४
६
उ उ ७ । १
To as an or D 6
उ उ ७
a
उ उ ६ | १
२
a
२
to a roo
a
उ उ ६ | १
उ उ ६ a
संख्यातगुणवृद्धिर्भवति । एवं षडङ्क पङ्क्तिद्वयसप्ताङ्कं क पङ्क्तिरूपपङ्क्ति त्रयस्यावृत्तौ सत्यां सप्ताङ्कस्याङ्गुलासंख्यात भागमात्रवार संदृष्टिर्भवति । इत्थं षट् पंक्तयो जाताः । ततः पुनः सप्ताङ्करहितपङ्क्तित्रयस्य आवृत्ती सत्यां एकवारमष्टाङ्कनामा अनन्तगुणवृद्धिर्भवति । एवं षट्स्थानवृद्धीनां वृत्तिक्रमो दर्शितो ग्रन्थलिखित रचनानुसारेण अव्यामोहेन श्रोतृजनैर्ज्ञातव्यः ।
उ उ ८ | १
५
१०
१५
२५
षडंक रहित एक पंक्तिकी आवृत्ति होनेपर एक बार सप्तांक नामक संख्यात गुणवृद्धि होती है। इसी प्रकार षडंक सहित दो पंक्तियों और सप्तांक सहित एक पंक्ति, इस तरह तीन पंक्तियोंकी आवृत्ति होनेपर सप्तांककी सूच्यंगुलके असंख्यातभाग बार संदृष्टि होती है । इस प्रकार छह पंक्तियाँ हुई। इसके पश्चात् पुनः सप्तांक रहित तीन पंक्तियोंकी आवृत्ति होनेपर एक बार अष्टांक नामक अनन्तगुणवृद्धि होती है । यथा
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गो० जीवकाण्डे
उ उ ४ उ उ ४| उ उ ५ उ उ ४ उ उ ४ उ उ उ उ४| उ उ४] उउ६। उ उ ४ उ उ ४ उ उ ५|उउ उउ४ उ उ उ उ ४ उ उ ४ उ उ ६ उ उ ४ उ उ ४ उ उ ५ उ उ४ उ उ ४| उ उ ५ उ उ४ उ उ ४ उ उ ७ उ उ ४ उ उ ४ उ उ ५ उ उ ४ उ उ ४ उ उ उ उ ४| उ उ ४ उ उ६ उउ४ उ उ ४ उउ उउ उउ४ उ उ ५ उउ४ उ उ ४] उ उ४. उ उ ४ उ उ ५ उ उ ४ उ उ४ उ उ ५ उ उ ४ उ उ ४ उ उ ७ उ उ ४! उ उ ४ उ उ ५ उ उ ४ उ उ उ उ ५ उ उ४| उ उ४ उ उ६ उ उ ४ उ उ ४ उ उ ५ उ उ ४ उ उ ४ उ उ उ उ ४| उ उ ४] उ उ६ उउ४। उ उ४। उ उ उ उ ४ उउ उउ उउ४ा उ उ४ उ उ८
इस प्रकार षट्स्थान वृद्धियोंका क्रम दिखलाया। ग्रन्थमें दर्शित रचनाके अनुसार श्रोताजनोंको बिना व्यामोहके जानना चाहिए। इस यन्त्रका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
पर्याय नामक श्रृतज्ञानके भेदसे अनन्तभागवृद्धि युक्त पर्याय समास नामक श्रुतज्ञानका प्रथम भेद होता है। इस प्रथम भेदसे अनन्तभागवृद्धि युक्त पर्याय समासका दूसरा भेद
होता है। इस प्रकार सूच्यंगुलके असंख्यातवे भाग प्रमाण अनन्त भाग वृद्धि होनेपर एक बार १५ असंख्यात भागवृद्धि होती है । ऊपर यन्त्रमें प्रथम पंक्तिके प्रथम कोठेमें दो बार उकार लिखा है,
वह सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भाग वृद्धि की पहचान जानना। उसके आगे चारका अंक लिखा, वह एक बार असंख्यात भाग वृद्धिकी पहचान जानना । इसके ऊपर सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भागवृद्धि होनेपर दूसरी बार असंख्यात भाग वृद्धि होती है । इसी क्रमसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात भाग वृद्धि होती है । इसीसे यंत्रमें प्रथम पंक्तिके दूसरे कोठेमें प्रथम कोठाकी तरह दो उकार और एक चारका अंक लिखा है जो दो बार सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बारका सूचक है। अतः दूसरी बार लिखनेसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बार जानना । उससे आगे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भाग वृद्धि होनेपर एक बार असंख्यात भाग वृद्धि होती है। अतः प्रथम पंक्तिके तीसरे कोठेमें दो उकार और एक पाँचका अंक लिखा है। आगे जैसे पहले अनन्त भाग वृद्धिको लिये सूच्यंगुलके असंख्यातवे भाग प्रमाण असंख्यात भाग वृद्धिके होनेपर पीछे सूच्यंगलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भाग वृद्धिके होनेपर एक बार संख्यात भाग वृद्धि हुई,वैसे ही उसी क्रमसे दूसरी संख्यात भाग वृद्धि हुई । इसी क्रमसे तीसरी हुई। इस प्रकार संख्यात भाग वृद्धि भी सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण बार होती है। इससे ऊपर यन्त्र में प्रथम पंक्तिमें जैसे तीन कोठे किये थे, वैसे ही सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागकी पहचानके लिए दूसरे तीन कोठे उसी प्रथम पंक्तिमें किये । यहाँसे आगे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भाग वृद्धिके होनेपर एक बार असंख्यात भाग वृद्धि होती है। इस प्रकार सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात भाग वृद्धि होती है। उसकी पहचानके लिए यन्त्रमें दो उकार और चारका अंक लिये दो कोठे किये । इससे आगे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भाग वृद्धि होनेपर एक बार संख्यात गुण वृद्धि होती है। सो उसकी पहचानके लिए प्रथम पंक्तिके नौवे कोठेमें दो उकार और छहका अंक लिखा। जैसे प्रथम पंक्तिका क्रम रहा, उसी प्रकार आदिसे लेकर सब कम दूसरी बार होनेपर एक बार दूसरी संख्यातगुणवृद्धि होती है । इसी क्रमसे सूच्यंगुलके असंख्यात भाग प्रमाण संख्यातगुणवृद्धि
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३५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
द्विवारलिखितोदकादिक मंगुलाऽसंख्यातैकवारसंदृष्टिः ।
मत्तमिल्लि सर्व्वजघन्यमप्य श्रुतज्ञानं पर्य्यायमें ब लब्ध्यक्षरापरनामधेयस्थानद मंदण पर्यायसमासज्ञानविकल्पंगळनंतैकभाग वृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुला संख्यातैकभागमात्रविकल्पंगप्पुववर वृद्धिप्रमाण क्रमविधानप्ररूपणं माडल्प डुमुगदे' ते ' दोडनंतगुणजीवराशिप्रमितस्वार्थप्रकाशनशक्त्यविभागप्रतिच्छेदात्मक सर्व्व जघन्यश्रु तज्ञानमं । ज । एंदितु संस्थापिसि मत्तमा राशियं सर्व्वजीवराशियप्पनंतदिदं भागिसि तदेकभागमं तज्जघन्यज्ञानदोळे समच्छेदमं माडि कूडुतमिरल
अथानन्तभागवृद्धेरङ्गुलासंख्यातभागमात्रवारान् वृत्तिक्रमो दर्श्यते तद्यथा - अनन्तगुणजीवराशिमात्रस्यार्थप्रकाशनशक्तच विभागप्रतिछेदात्मकं सर्वजघन्यश्रुतज्ञानं ज इति संदृष्ट्या संस्थाप्य तं राशि सर्वजीवराशिरूपानन्तेन भक्त्वा तदेकभागे ज तज्जघन्यस्योपरि समच्छेदेन युते सति यो राशिर्जायते स पर्यायसमासश्रुत१६
५३५
होती है । उसकी पहचान के लिए यन्त्र में जैसे प्रथम पंक्ति थी, उसी प्रकार उसके नीचे दूसरी १० पंक्ति लिखी । यहाँसे आगे --तीसरी पंक्ति प्रथम पंक्तिके समान लिखी । इतना विशेष कि नौवें कोठे में जहाँ दो उकार एक छहका अंक लिखा था, वहाँ तीसरी पंक्ति में नौवें कोठे में दो कार और सातका अंक लिखा । यहाँसे आगे जैसे तीनों पंक्तियोंमें आदिसे लेकर अनुक्रमसे वृद्धि हुई, उसी अनुक्रमसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण होनेपर जब असंख्यात गुणवृद्धि भी सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण हो, तब पूर्ति हो । इसीसे यन्त्रमें जैसे प्रथम १५ तीन पंक्तियाँ थीं, वैसे ही दूसरी तीन पंक्तियाँ लिखीं। इस तरह छह पंक्तियाँ हुई । यहाँसे आगे - जैसे आदिसे लेकर तीन पंक्तियों में क्रमसे वृद्धियाँ कही थीं, वैसे ही क्रमसे पुनः सब वृद्धियाँ हुई । विशेष इतना कि तीसरी पंक्तिके अन्त में जहाँ असंख्यात गुण वृद्धि कही थी, उसके स्थान में यहाँ तीसरी पंक्ति के अन्त में एक बार अनन्त गुणवृद्धि होती है । इसीसे यन्त्र में पहली, दूसरी, तीसरी के समान तीन पंक्तियाँ और लिखीं । किन्तु तीसरी पंक्ति के नौवें २० कोठे में जहाँ दो उकार और सातका अंक लिखा है, उसके स्थान में यहाँ तीसरी पंक्तिके नौवें कोठे में दो उकार और आठका अंक लिखा । जो अनन्त गुणवृद्धिका सूचक है । इसके आगे किसी वृद्धि के न होनेसे अनन्त गुणवृद्धि एक ही बार होती है। उसके होनेपर जो प्रमाण हुआ, वह षट्स्थान पतित वृद्धिका प्रथम स्थान जानना। इस प्रकार पर्याय समास श्रुतज्ञानमें असंख्यात लोक बार मात्र षट्स्थान पतित वृद्धि होती है ।
आगे उक्त कथनको स्पष्ट करते हैं
५
सबसे जघन्य पर्याय श्रुतज्ञानके अपने विषयके प्रकाशनरूप शक्तिके अविभाग प्रतिच्छेद जीवराशिसे अनन्तगुणे होते हैं । उस राशिको सब जीवराशिरूप अनन्तसे भाजित करनेपर जो एक भाग आवे, उसे उस जघन्य ज्ञानमें मिलानेपर पर्याय समास श्रुतज्ञानके विकल्पोंमें से सबसे जघन्य प्रथम भेद आता है । यह एक बार अनन्त भाग वृद्धि हुई। फिर ३० उस पर्याय समास ज्ञानके प्रथम विकल्पको जीवराशि प्रमाण अनन्तका भाग देनेपर जो एक भाग आवे, उसे पर्याय समास ज्ञानके प्रथम भेदमें मिलानेपर उसका दूसरा भेद होता है । यह दूसरी अनन्त भाग वृद्धि हुई । उस दूसरे भेदको अनन्तका भाग देनेसे जो एक भाग आवे, उसे उस दूसरे विकल्पमें मिलानेपर पर्याय समास ज्ञानका तीसरा विकल्प होता है । यह तीसरी अनन्तभाग वृद्धि हुई। फिर इस तीसरे भेद में अनन्तसे भाग देनेपर जो एक भाग ३५
२५
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गो० जीवकाण्डे
पर्यायसमासश्रु तज्ञानविकल्पंगळोछु सर्वजघन्यप्रथमविकल्पमक्कु ज १६ मिदरनंतैकभागमन- ...
ल्लिये समच्छेदं माडि कूडुत्तिरलुमदु पायसमासद्वितीयज्ञानविकल्पमक्कु ज १६ १६ मदरनंतैक
भागममल्लिये समच्छेदं माडि कूडुत्तं विरलु पर्यायसमासतृतीयज्ञानविकल्पमक्कु ज १६ १६ १६
१६ १६ १६ मदरनंतैकभागमनल्लिये समच्छेदं माडि कूडिदोडे पर्यायसमासचतुर्थज्ञानविकल्पमक्कु ५ ज १६ १६ १६ १६ मदरनंतैकभागमनल्लिवे समच्छेदं माडि कूडिदोडे पर्यायसमासपंचम
१६ १६ १६ १६ श्रुतज्ञानविकल्पमक्कु ज १६ १६ १६ १६ १६ मदरनंतैकभागमनल्लिये समच्छेदं माडि कूडु
anwrown
ज्ञानविकल्पेषु सर्वजघन्यप्रथमविकल्पः स्यात् ज १६ अस्यानन्तकभागे ज १६ अस्मिन्नेव समच्छेदेन युते
१६ । १६
स पर्यायसमासद्वितीयज्ञानविकल्पः ज १६ । १६ । अस्यानन्तकभागे अस्मिन्नेव समच्छेदेन युते पर्यायसमास
-
-
-
-
-
तृतीय ज्ञानविकल्पः ज १६ । १६ । १६ । अस्यानन्तकभागे अस्मिन्नेव समच्छेदेन युते पर्यायसमास
१० चतुर्थज्ञानविकल्पः ज १६ । १६ । १६ । १६ । अस्यानन्तकभागे अस्मिन्नेव समच्छेदेन युते पर्यायसमास
पञ्चमश्रुतज्ञानविकल्पः । ज १६ । १६ । १६ । १६ । १६ । अस्यानन्तकभागे अस्मिन्नेव समच्छेदेन
१६ । १६ । १६ । १६ । १६
आवे, उसे उस तीसरे भेदमें मिलानेपर पर्याय समास ज्ञानका चतुर्थ विकल्प आता है। यह चतुर्थ अनन्त भाग वृद्धि हुई। फिर इस चतुर्थ भेदमें अनन्तसे भाग देकर जो एक भाग
आवे, उसे उस चतुर्थ विकल्पमें मिलानेपर पर्याय समासका पंचम विकल्प आता है। यह १५ पाँचवीं अनन्तभाग वृद्धि हुई। फिर उस पाँचवें भेदमें अनन्तसे भाग देनेपर जो भाग आता
है,उसे पाँचवें भेदमें मिलानेपर पर्याय समासका छठा विकल्प आता है। यह छठी अनन्त भाग वृद्धि हुई । इसी प्रकार सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भाग वृद्धि होनेपर जो पर्याय समास ज्ञानका भेद हुआ, उसको एक बार असंख्यात लोक प्रमाण संख्यातसे भाग
देनेपर जो परिमाण आवे, उसे उसी भेदमें मिलानेपर एक बार असंख्यात भाग वृद्धिको लिये २० हुए पर्याय समास ज्ञानका भेद होता है। उसमें अनन्तसे भाग देनेपर जो परिमाण आवे,उसे
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
तिरलु पर्य्यायसमासषष्ठ श्रुतज्ञानविकल्पमक्कु ज १६ १६ १६ १६ १६ १६ मितु सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्रानंतैक भागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सर्व्वमु नडसल्पडुवुवल्लि तद्वृद्धिगळ्ये तज्जघन्यं
१६ १६ १६ १६ १६ १६
ते पर्यायसमासषष्ट तज्ञानविकल्पः ज १६ १६ १६ १६ १६ १६ एवं सूच्यङ्गुला संख्यातैक
१६ १६ १६ १६ १६ १६ भागमात्राणि अनन्तैकभागवृद्धियुक्तस्थानानि सर्वाण्यानेतव्यानि ।
५३७
उसी में मिलाने पर पर्याय समास ज्ञानका भेद होता है । यहाँसे अनन्त भाग वृद्धिका प्रारम्भ हुआ । इसी प्रकारच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भाग वृद्धि होनेपर जो पर्याय समास ज्ञानका भेद हुआ, उसमें पुनः असंख्यातसे भाग देनेपर जो परिमाण आया, उसको उसी भेद में मिलाने पर दूसरी असंख्यात भाग वृद्धिको लिये पर्याय समास ज्ञानका भेद होता है ।
इसी क्रम से सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात भाग वृद्धिके पूर्ण होनेपर १० जो पर्याय समास ज्ञानका भेद हुआ, उसमें अनन्तका भाग देनेपर जो परिमाण आवे, उसको उसी में मिलानेपर पर्याय समास ज्ञानका भेद होता है । यहाँ पुनः अनन्त भाग वृद्धिका प्रारम्भ हुआ सो सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अनन्त भाग वृद्धि के पूर्ण होनेपर जो पर्याय समास ज्ञानका भेद हुआ, उसको उत्कृष्ट संख्यातसे भाग देनेपर जो परिमाण आया, उसको उसीमें मिलानेपर प्रथम संख्यात भाग वृद्धिको लिये पर्याय समासका भेद होता है । १५ इससे आगे पुनः अनन्त भाग वृद्धि प्रारम्भ होती है। सो जैसे पूर्व में कहा है, उसीके अनुसार वृद्धि जानना | इतना विशेष है कि जिस भेदसे आगे अनन्त भाग वृद्धि होती है, उसी भेदमें जीवराशि प्रमाण अनन्तका भाग देनेपर जो परिमाण आवे, उसे उसी भेदमें मिलानेपर अनन्तरवर्ती भेद होता है । तथा जिस भेदसे आगे असंख्यात भाग वृद्धि होती है, वहाँ उसी भेदको असंख्यात लोक प्रमाण असंख्यातसे भाग देनेपर जो परिमाण आवे, उसको उसी २० भेद में मिलानेपर उससे अनन्तरवर्ती भेद होता है । तथा जिस भेदसे आगे संख्यात भाग वृद्धि हो, वहाँ उसी भेदको उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण संख्यात से भाग देनेपर जो परिमाण आवे, उसे उसी भेद में मिलानेपर उससे आगेका भेद होता है । तथा जिस भेदसे आगे संख्यात गुण वृद्धि होती है, वहाँ उस भेदको उत्कृष्ट संख्यातसे गुणा करनेपर उस भेदसे अनन्तरवर्ती भेद होता है । जिस भेदसे आगे असंख्यात गुण वृद्धि होती है, वहाँ उसी भेदको असंख्यात लोकसे २५ गुणा करनेपर उससे आगेका भेद होता है । जिस भेदसे आगे अनन्त गुण वृद्धि होती है, वहाँ उसी भेदको जीवराशि प्रमाण अनन्तसे गुणा करनेपर उससे आगेका भेद होता है; इस प्रकार षट्स्थान पतित वृद्धिका क्रम जानना ।
६८
५
यहाँ जो संख्या कही है सो सब संख्या ज्ञानके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी जानना । तथा जो यहाँ भेद कहे हैं, उनका भावार्थ यह है कि जीवके पर्याय ज्ञानसे यदि बढ़ता हुआ ३० ज्ञान होता है, तो पर्याय समासका प्रथम भेद ही होता है । ऐसा नहीं है कि किसी जीव के पर्यायज्ञानसे एक-दो अविभाग प्रतिच्छेद बढ़ता हुआ भी ज्ञान हो ।
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गो. जीवकाण्डे मोदल्गोंडु तदुत्कृष्टवृद्धिपर्यंत भेदमुंटप्पुरिदमवर विन्यासं तोरल्पडुगुमते दोडे पर्यायसमासज्ञानप्रथमविकल्पदोलिई वृद्धियं तेगदु जघन्यद मेरो स्थापिसि अदर केळगे एकसारानंतैकभागवृद्धियं स्थापिसुवुदंतु स्थापिसुत्तिरलु तवृद्धिगे प्रक्षेपकमेब पेसरकु। मंते द्वितीयविकल्प
दोलिई जघन्यमं मेग स्थापिसि तदधस्तनभागदोळु तद्वृद्धिप्रक्षेपकंगळे रडुमोदु प्रक्षेपकप्रक्षेपक५ मुमप्पुववं क्रमदिदं कळगे केळगिरिसुवुदु। तृतीयविकल्पदोळं जघन्यमं मेरो स्थापिसि तवृद्धि. गळप्प मूरुं प्रक्षेपकंगळं मूलं प्रक्षेपकप्रक्षेपंगळमोदु पिशुलियुमं यथाक्रमदिदं तज्जघन्यद केळगे केळ्ग स्थापिसुवुदु । चतुर्थविकल्पोळुमंते जघन्यमं मेगे स्थापिसि तदधस्तनभागदोळु तवृद्धिगळप्प नाल्कुं प्रक्षेपकंगळं षट्प्रक्षेपकप्रक्षेपकंगळं चतुःपिशुलिगळुमनोंदु पिशुलिपिशुलियुमं यथाक्रमदिद केळगे केळगे स्थापिसुवुदु ।
पंचमविकल्पदोळर्मत जघन्यमं मेग स्थापिसि तदधस्तनभागदोळु तवृद्धिगळप्प प्रक्षेपकंगळय्दुमं प्रक्षेपकप्रक्षेपकंगळ पत्तुं। पिशुलिगळु पत्तुमं पिशुलिपिशुलिगळेदुमनोंदु चूर्णियुमं यथाक्रमदिदं कळगे केळगे स्थापिसुवुदु । षष्ठविकल्पदोळुमंत जघन्यमं मे स्थापिसि तदधस्तनभागदोळु
तत्र तवृद्धीनां तज्जघन्यमादिं कृत्वा तदुत्कृष्टवृद्धिपर्यन्तं भेदे सति तद्विन्यासो दर्श्यते । तद्यथाप्रथमविकल्पे स्थितवृद्धि पृथक्कृत्य जघन्यमुपरि संस्थाप्य तस्याधः एकवारानन्तकभागवृद्धि स्थापयेत्, तद्वृद्धेः १५ प्रक्षेपक इति नाम । तथा द्वितीयविकल्पे जघन्यमुपरि संस्थाप्य तदधस्तनभागे तद्वृद्धौ प्रक्षेपको एक प्रक्षेपक
प्रक्षेपकं च अधोधो न्यस्येत् । तृतीयविकल्पे जघन्यमुपरि संस्थाप्य तद्वृद्धेस्त्रीन् प्रक्षेपकान् त्रीन् प्रक्षेपकप्रक्षेपकान् एकं पिशुलिं च अधोधो न्यस्येत् । चतुर्थविकल्पे तज्जघन्यमुपरि न्यस्य तदधस्तनभागे तद्वृद्धेश्चतुरः प्रक्षेपकान षट प्रक्षेपकप्रक्षेपकान चतरः पिशलीन एक पिशलिपिलि च अधोधो न्यस्येत । पञ्चमविकल्प
आगे यहाँ अनन्त भाग वृद्धि रूप सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान कहे हैं, २० उसका जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान पर्यन्त स्थापनका विधान कहते हैं। सो प्रथम ही संज्ञाओंको कहते हैं
विवक्षित मूल स्थानको विवक्षित भागहारका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उसे प्रक्षेपक कहते हैं। उसी प्रमाणको उसी भागहारसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे,उसे प्रक्षेपक
प्रक्षेपक कहते हैं । उसमें भी विवक्षित भागहारसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उसे पिशुलि २५ कहते हैं। उसमें भी विवक्षित भागहारसे भाग देने पर जो प्रमाण आवे, उसे पिशुलि-पिशुलि
कहते हैं। उसमें भी विवक्षित भागहारसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे,उसे चूर्णि कहते हैं। उसमें भी विवक्षित भागहारका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उसे चूर्णि-चूर्णि कहते हैं। इसी प्रकार पूर्व प्रमाणमें विवक्षित भागहारका भाग देनेपर द्वितीय आदि चूर्णि-चूर्णि कही जाती है । अस्तु
सो पर्याय समास ज्ञानके प्रथम भेदमें ऊपर जघन्यको स्थापित करके उसके नीचे एक बार अनन्त भाग वृद्धिकी स्थापना करना चाहिए। उस वृद्धिका नाम प्रक्षेपक है। तथा दूसरे विकल्पमें जघन्यको ऊपर स्थापित करके उसके नीचे-नीचे उसकी वृद्धिके दो प्रक्षेपक
और एक प्रक्षेपक-प्रक्षेपक स्थापित करें। तीसरे विकल्पमें जघन्यको ऊपर स्थापित करके
उसकी वृद्धिके तीन प्रक्षेपक, तीन प्रक्षेपक-प्रक्षेपक और एक पिशुलि नीचे-नीचे स्थापित करें। ३५ चतुर्थ विकल्पमें जघन्यको ऊपर स्थापित करके उसके नीचे-नीचे उसकी वृद्धिके चार प्रक्षेपक,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५३९ तवृद्धिगळप्प प्रक्षेपकंगळारुमं प्रक्षेपकप्रक्षेपकंगळ् पदिनदुमं पिशुलिगळिप्पत्तुमं पिशुलिपिशुलिगळ् पदिनदुमं चूणिगळारुमनोंदु चूणिचूणियुमं यथाक्रमदिदं केळगे केळरो स्थापिसुवुदितनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातभागमानंगळेळवरोळं बेक्य्दु तंतम्म जघन्यंगळ केळगे केळगे तंतम्म प्रक्षेपकंगळु गच्छमात्रंगळप्पुववं स्थापिसि यवर केळगे प्रक्षेपकप्रक्षेपकंगळु रूपोनगच्छेय एकवारसंकलनधनमात्रंगळप्पुववं स्थापिसुवुदवर केळगे पिशुलिगळु द्विरूपोनगच्छेय द्विकवार- ५ संकलनधनमात्रंगळप्पुववं स्थापिसि यवर केळगे पिशुलिपिशुलिगळु त्रिरूपोनगर्छय त्रिकवारसंकलनधनमात्रंगळप्पुववं स्थापिसि यवर केळगे चूणिगळु चतुरूपोनगच्छेय चतुर्वारसंकलनधनमात्रंगळप्पुववं स्थापिसि यवर केळगे चूणिचूणिगळू पंचरूपोनगच्छेय पंचवारसंकलनधनमात्रंगळप्पुववं स्थापिसुवुदितु स्थापिसुतं पोगुत्तिरलु चरमाननंतभागवृद्धियुक्तस्थानविकल्पदोळु तज्जघन्यमुपरि न्यस्य तदधस्तनभागे तद्वृद्धेः पञ्च प्रक्षेपकान् दश प्रक्षेपकप्रक्षेपकान् दश पिशुलीन पञ्च १० पिशुलिपिशुलीन् एकं चूणि च अधोधो न्यस्येत् । षष्ठविकल्पे तज्जघन्यमुपरि न्यस्य तदधस्तनभागे तद्वृद्धेः षट् प्रक्षेपकान् पञ्चदश प्रक्षेपकप्रक्षेपकान् विंशति पिशुलीन् पञ्चदश पिशुलिपिशुलीन् षट् चूर्णीन् एकं चूणिचूणि च अधोधो न्यस्येत्, एवमनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानेषु सूच्यङ्गलासंख्येयभागमात्रेषु सर्वेष्वपि स्वस्वजघन्यानामधोधः स्वस्वप्रक्षेपकान् गच्छमात्रान् न्यस्येत्, तेषामधः प्रक्षेपकप्रक्षेपकान् रूपोनगच्छस्य एकवारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत् । तेषामधः पिशुलीन् द्विरूपोनगच्छस्य द्विकवारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत् । तेषामधः पिशुलिपिशुलीन् १५ त्रिरूपोनगच्छस्य त्रिकवारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत्, तेषामधः चूर्णीन् चतुरूपोनगच्छस्य चतुर्वारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत् । तेषामधः चूणिचूर्णीन् पञ्चरूपोनगच्छस्य पञ्चवारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत् । एवं गत्वा छह प्रक्षेपक-प्रक्षेपक, चार पिशुलि और एक पिशु लि-पिशुलि स्थापित करें। पाँचवें विकल्पमें जघन्यको ऊपर स्थापित करके उसके नीचे-नीचे उसकी वृद्धिके पाँच प्रक्षेपक, दश प्रक्षेपकप्रक्षेपक, दस पिशुलि, पाँच पिशुलि-पिशुलि और एक चूर्णि स्थापित करे। छठे विकल्पमें २० जघन्यको ऊपर स्थापित करके उसके नीचे-नीचे उसकी वृद्धिके छह प्रक्षेपक, पन्द्रह प्रक्षेपकप्रक्षेपक, बीस पिशुलि, पन्द्रह पिशुलि-पिशुलिा, छह चूर्णि और एक चूर्णि-चूणि स्थापित करे ।
प्रकार सच्यंगलके असंख्यातवें भाग मात्र अनन्त भाग वृद्धि युक्त सब पर्याय समास ज्ञानके स्थानोंमें अपने-अपने जघन्यके नीचे-नीचे अपने-अपने प्रक्षेपकोंको गच्छ प्रमाण स्थापित करना। उनके नीचे प्रक्षेपक-प्रक्षेपक एक कम गच्छके एक बार संकलन धन मात्र २५ स्थापित करना । उनके नीचे पिशुलि दो हीन गच्छके दो बार संकलन धन मात्र स्थापित करना। उनके नीचे पिशुलि-पिशुलि तीन हीन गच्छके तीन बार संकलन धन मात्र स्थापित करना । उनके नीचे चूणि चार हीन गच्छके चार बार संकलन धनमात्र स्थापित करना । उनके नीचे चूर्णि-चूर्णि पाँच हीन गच्छके पाँच बार संकलन धन मात्र स्थापित करना । इसी प्रकार क्रमसे एक हीन गच्छका एक-एक अधिक बार संकलन चूर्णि-चूणि ही अन्त पर्यन्त ३० जानना । अनन्त भाग वृद्धि युक्त स्थानोंमें अनन्तका जो स्थान है, उनमें से जघन्यको ऊपर स्थापित करना। उसके नीचे क्रमानुसार प्रक्षेपकोंको सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र
इस प्र
१. म केलगे।
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१०
गो० जीवकाण्डे
तज्जघन्यमं मेरो स्थापिसि तदधस्तनभागदो यथाक्रमदिदं प्रक्षेपकंगळु गच्छेमात्रंगळcgag सूच्यंगुला संख्यात भागमात्रंगळं स्थापिसिदवर केळगे प्रक्षेपकप्रक्षेपकंगळ रूपोनगच्छेय एकवार संकलनधनमात्रं गळप्पूवंदु रूपोनसूच्यंगुला संख्यात भागगच्छेय एकवार संकलनधनप्रमितंगळं स्थापिसुदवर केळगे पिशुलिगळु द्विरूपोनगच्छेय द्विकवार संकलनधनमात्रंगळप्पुवेंदु द्विरूपोनसूच्यंगुलासंख्यात भागगच्छेय द्विकवारसंकलनधनमात्रगळं स्थापिसुवुदवर केळगे पिशुलि पिशुलिगळ त्रिरूपोनगच्छेय त्रिवार संकलनधनप्रमितंगळप्पुवेदु त्रिरूपोनसूच्यंगुला संख्यात भागगच्छेय त्रिवार - चरमानन्तभागवृद्धियुक्तस्थानविकल्पे पृथक्कृततज्जघन्यमुपरि न्यस्येत् । तदधस्तनभागे यथाक्रमं प्रक्षेपकान् सूच्यङ्गुलासंख्येयभागनात्रान् न्यस्येत् । तदधः प्रक्षेपक प्रक्षेपकाः रूपोनगच्छस्य एकवारसंकलनधनमात्राः सन्तीति रूपोनसूच्यङ्गुलासंख्येयभागगच्छस्य एकवारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत् । तदधः पिशुलयः द्विरूपोनगच्छस्य द्विकवारसंकलनधनमात्राः सन्तीति द्विरूपोनसूच्यङ्गुला संख्येयभागगच्छस्य द्विकवारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत् ।
५४०
Co
स्थापित करना, उसके नीचे प्रक्षेपक प्रक्षेपकों को, यतः वे एक कम गच्छके एक बार संकलन धन मात्र होते हैं,अतः एक कम सूच्यंगुलके असंख्यात भाग गच्छके एक बार संकलन धन मात्र स्थापित करना । उनके नीचे पिशुलि, जो दो हीन गच्छके दो बार संकलन धन मात्र होती हैं, इसलिए दो हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गच्छके दो बार संकलन धन मात्र १५ स्थापित करना । उनके नीचे पिशुलि -पिशुलि तीन हीन गच्छके तीन बार संकलन धन मात्र होती हैं, इसलिए तीन हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गच्छके तीन बार संकलन धन मात्र स्थापित करना । उनके नीचे चूर्णि चार हीन गच्छके चार बार संकलन धन मात्र होती हैं, इसलिए चार हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गच्छके चार बार संकलन धन मात्र स्थापित करना | उनके नीचे चूर्णि चूर्णि पाँच होन गच्छके पाँच बार संकलन धन मात्र होती २० है, इसलिए पाँच हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गच्छके पाँच बार संकलन धन मात्र स्थापित करना । इसी प्रकार उसके नीचे-नीचे चूर्णि चूर्णि छह हीन आदि गच्छके छह बार आदि संकलन धन मात्र होती हैं इसलिए छह हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग आदि गच्छोंके छह हीन सूच्यंगुलके असंख्यात भागादि बार संकलन धन मात्र नीचे-नीचे स्थापित करना । ऐसा करते-करते सबसे नीचेकी द्विचरम चूर्णि चूर्णि दो हीन गच्छसे हीन गच्छकी २५ दो हीन गच्छवार संकलित धन प्रमाण होती हैं, इसलिए दो हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गच्छके दो हीन सूच्यंगुलके असंख्यात भाग बार संकलन धन मात्र स्थापित करना । उनके नीचे एक हीन गच्छसे हीन गच्छके एक हीन गच्छ मात्र बार संकलन धन मात्र उसकी अन्तिम चूर्णि चूर्णि हैं, इसलिए एक हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गच्छके एक हीन सूच्यंगुलके असंख्यात ३० भाग मात्र बार संकलित धन प्रमाण स्थापित करना । परमार्थसे अन्तिम चूर्णि चूर्णिका संकलित धन ही घटित नहीं होता, क्योंकि द्वितीय आदि स्थानका अभाव है ।
विशेषार्थ - अंक संदृष्टिसे उक्त कथन इस प्रकार जानना । जघन्य पर्याय ज्ञानका प्रमाण ६५५३६ । विवक्षित भागहार अनन्तका प्रमाण चार । पूर्वोक्त क्रमसे चारका भाग देनेपर प्रक्षेपकका प्रमाण १६३८४ । प्रक्षेपक प्रक्षेपकका प्रमाण ४०९६ | पिशुलि का प्रमाण ३५ १०२४। पिशुलि-पिशुलि का प्रमाण २५६ । चूर्णि प्रमाण ६४ । चूर्णि - चूर्णि प्रमाण १६ । इसी
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका संकलनधनमात्रेगळं स्थापिसुवुदकर कळर्ग चूर्णिगळु चतूरूपोनगच्छेय चतुरिसंकलनधनप्रमितंग
कपुर्व दु चतूरूपोनसूच्यंगुलासंख्यातभागगच्छेय चतुरिसंकलनधनमात्रंगळं स्थापिसुवुदवर कळग चूणि चूर्णिगळु पंचरूपोनगच्छेय पंचवारसंकलनधनप्रमितंगळप्पुर्वेदु पंचरूपोनसूच्यंगुलासंख्यातभागगच्छेय पंचवारसंकलनधनमावेगळं स्थापिसुवुदितु तदधस्तनाधस्तनचूणिचूर्णिगळु
तदधः पिशुलिपिशुलयः त्रिरूपोनगच्छस्य त्रिवारसंकलनधनमात्राः सन्तीति त्रिरूपोनसूच्यङ्गलासंख्येयभाग- ५ गच्छस्य त्रिकवारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत् । तदधः चूर्णयः चतुरूपोनगच्छस्य चतुर्वारसंकलनधनमात्राः सन्तोति चतुरूपोनसूच्यङ्गुलासंख्येयभागगच्छस्य चतुर्वारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत् । तदधः चूणिचूर्णयः पञ्चरूपोनगच्छस्य पञ्चवारसंकलनधनप्रमिताः सन्तीति पञ्चरूपोनसूच्यङ्गलासंख्यातभागगच्छस्य पञ्चवारसंकलन
तरह चारका भाग देते रहनेसे द्वितीयादि चूर्णि-चूर्णिका प्रमाण चार, एक आदि जानना। ऊपर जघन्य ६५५३६ को स्थापित करके नीचे एक बार प्रक्षेपक १६३८४ स्थापित करके १० जोड़नेपर पर्याय समासके प्रथम भेदका प्रमाण ८१९२० होता है। फिर ऊपर जघन्य ६५५३६ स्थापित करके उसके नीचे दो प्रक्षेपक १६३८४।१६३८४ तथा एक प्रक्षेपक-प्रक्षेपक ४०९६ स्थापित करके जोड़नेपर पयाय समासके दूसरे भेदका प्रमाण १०२४०० प्रमाण होता है। फिर ऊपर जघन्य ६५५३६ स्थापित करके उसके नीचे तीन प्रक्षेपक १६३८४ । १६३८४ । १६३८४ । तीन प्रक्षेपक-प्रक्षेपक, एक पिशुलि स्थापित करके जोड़नेपर तीसरे भेदका प्रमाण १५ १२८००० होता है। फिर ऊपर जघन्यको स्थापित करके नीचे-नीचे चार प्रक्षेपक, छह प्रक्षेपकप्रक्षेपक, चार पिशुलि एक पिशुलिपिशुलिा स्थापित करके जोड़नेपर चौथे भेदका प्रमाण १६०००० होता है। फिर ऊपर जघन्य स्थापित करके नीचे नीचे पाँच प्रक्षेपक, दश प्रक्षेपकप्रक्षेपक, दस पिशुलि , पाँच पिशुलि-पिशुलिा, एक चूर्णि स्थापित करके जोड़नेपर पाँचवें भेदका प्रमाण दो लाख होता है। फिर ऊपर जघन्य स्थापित करके उसके नीचे-नीचे छह प्रक्षेपक, २० पन्द्रह प्रक्षेपक-प्रक्षेपक, बीस पिशुलि, पन्द्रह पिशुलि-पिशुलि, छह चूणि, एक चूणि-चूणि स्थापित करके जोड़नेपर छठे स्थानका प्रमाण दो लाख पचास हजार होता है । इसी तरह सब स्थानोंमें ऊपर जघन्य स्थापित करके उसके नीचे-नीचे जितना गच्छका प्रमाण है उतने प्रक्षेपक स्थापित करना । जहाँ जिस नम्बरका स्थान हो वहाँ उतना ही गच्छ जानना । जैसे छठे स्थानमें गच्छका प्रमाण छह होता है। उसके नीचे एक हीन गच्छका एक बार संकलन २५ धनका जितना प्रमाण हो, उतने प्रक्षेपक-प्रक्षेपक स्थापित करना उनके नीचे दो हीन गच्छका दो बार संकलन धनका जितना प्रमाण हो, उतने पिशुलि स्थापित करने । उनके नीचे तीन हीन गच्छका तीन बार संकलन धनका जितना प्रमाण हो, उतने पिशुलि-पिशुलि स्थापित करने । उनके नीचे चार हीन गच्छका चार बार संकलन धनका जितना प्रमाण हो, उतने चूर्णि स्थापित करने । उनके नीचे पाँच हीन गच्छका पाँच बार संकलन धनका जितना प्रमाण हो, उतने चूर्णि-चूणि स्थापित करना। इसी तरह नीचे-नीचे छह आदि हीन गच्छका छह आदि बार संकलन धनका जितना-जितना प्रमाण हो, उतने द्वितीयादि चूर्णि-चूणि स्थापित करना। इस तरह स्थापित करके जोड़नेपर पर्याय समास ज्ञानके भेदोंका प्रमाण आता है। यहाँ जो एक बार-दो बार आदि संकलन धन कहे हैं,उनका विधान कहते हैं।
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गो० जीवकाण्डे षड़ पोनादिगच्छेय षड्वारसंकलनादिधनप्रमितंगळप्पुवेंदु षड्र पोनसूच्यंगुलासंख्यातभागादिवारसंकलनधनमात्रंगलं केळगकळगे स्थापिसुत्तं पोगि सर्वाधस्तनद्विचरम चूणिचूणिगळ द्विरूपोनगच्छोनगच्छद्विरूपोनगच्छोनगच्छवारसंकलनदधन प्रमितंगळप्पुवेंदु द्विरूपोनसूच्यंगुलासंख्यात
भागोनसूच्यंगुलासंख्यातभागगच्छेय द्विरूपोनसूच्यंगुलाऽसंख्यातभागवारसंकलनधनमात्रंगळं ५ स्थापिसुवु ज २ । ३।४।००० । २-३ । २-२ । २ २ दुवनपत्तिसि ज २ २ यवर केळग
१६०० १६ । २ २॥२२॥ २३ ॥०००।०४।०३।३।२।०१ रूपोनगच्छोनगच्छरूपोनगच्छमात्रवार संकलनधनमात्र तच्चरमणिचूर्णियप्पुरिदं रूपोनसूच्यंगुलासंख्यातभागोनसूच्यंगुलासंख्यातभागगच्छय रूपोनसूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रवारसंकलनधनप्रमितमं ज।१।२।३००० २२२-१२ अपतितमनिदं ज । १ स्थापिसुवुद्ध १६ २।२।२-१।२-२। ००० ०३-० २।०१
१६ । २ aaaa परमार्थरूपदिदं चरमचूणिचूणिर्ग संकलितमे घटिसदेके दोर्ड द्वितीयादिस्थानाभावमप्पुरिदं । इल्लि षट्स्थानप्रकरणदोळनंतभागवृष्टियुक्तपर्यायसमासजघन्यादिज्ञानविकल्पंगळोळु सर्वत्र स्थापिसिद प्रक्षेपकंगळु गच्छमात्रंगळप्पुवदु कारणदिदं सुगमंगळु । प्रक्षेपकप्रक्षेपकादिगळ प्रमाणनरिवल्लिगे करणसूत्रमिदु ।
धनमात्रान् न्यस्येत् । एवं तदधस्तनाधस्तनचूणिचूर्णयः षड्पोनादिगच्छस्य षड्वारादिसंकलनधनप्रमिता:
सन्तीति षड्पोनसूच्यङ्गलासंख्येयभागादिगच्छानां षड्पोनसूच्यङ्गलासंख्यातभागादिवारसंकलनधनमात्रान् १५ अधोऽधो विन्यस्यन् गत्वा सर्वाधस्तनद्विचरमणिचूर्णयः द्विरूपोनगच्छोनगच्छस्य द्विरूपोनगच्छवारसंकलनधन
प्रमिताः सन्तीति द्विरूपोनसूच्यङ्गलासंख्येयभागोनसूच्यङ्गुलासंख्यातभागगच्छस्य द्विरूपोनसूच्यङ्गलासंख्यातभागवारसंकलनधनमात्रान् न्यस्येत्
४। ००० । २-३ २-२ २-१ १६ २- १ २ - १ २ -
२ २ -३ । ० ० ० । । ४ ।३ ।२ २ । १
ज
२ अपवर्तिते एवं-१६ २-१ तदधो रूपोनगच्छोनगच्छस्य रूपोनगच्छमात्रवारसंकलनधनमात्राः तच्चरम
a . २० चूणिचूर्णयः सन्तीति रूपोनसूच्यङ्गलासंख्यातभागोनसूच्यङ्गलासंख्यातभागगच्छस्य रूपोनसूच्यङ्गलासंख्यात
भागमात्रवारसंकलनधनप्रमितं
१६ २
२
२- १
२
-२
२-३। ० ० ०
०
४ । ३ ३ । । २ । । ?
अपवर्तितमिदं- १६ २ स्थापयेत् । परमार्थतः चरमचूणिचूर्णेः संकलितमेव न घटेत द्वितीयादिस्थाना
a भावात् । अत्र षट्स्थानप्रकरणे अनन्तभागवृद्धियुक्तविकल्पेषु सर्वत्र प्रक्षेपकाः गच्छमात्राः सन्तीति सुगमाः ।
इस षट्स्थान प्रकरणमें अनन्त भागवृद्धि युक्त विकल्पोंमें सर्वत्र प्रक्षेपक गच्छ प्रमाण २५ होते हैं, इसलिए वे सुगम हैं। प्रक्षेपक-प्रक्षेपक आदिका प्रमाण लाने के लिए करणसूत्र इस
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका व्येकपदोत्तरघातः सरूपवारोद्धृतो मुखेन युतः।
रूपाधिकवारांताप्त पदायकैर्हतोवित्तं ॥ एंदितु पर्यायसमास ज्ञानविकल्पंगळोळ विवक्षितषष्ठविकल्पदोळु चतुर्बार संकलनधनानयनदोलु व्येकपद विगतमेकेन व्येकं । तच्च तत्पदं च व्येकपदं। अत्र चतुरूपोनगच्छ एव ६। ४ पदं २ । तत्र एकस्मिन्नपनीते २-१ एवं । तेनोत्तरघातः। एकवारादिसंकलनमाश्रित्यैवो- ५ त्पत्तिसंभवाद्येकायेकोत्तरत्वादुत्तरघातः कर्तव्यः । १।१ । सरूपवारोद्धृतः रूपेण सहितः सरूपः। स चासौ वारश्च सरूपवार ४ स्तेनोद्धृतो भक्तः । १ ० १ । मुखेन युतः मुखमादिस्तेन युतः
४
समच्छेदी कृत्य युते एवं ६ पुनः रूपाधिकवारांताप्तपदाकैर्हतः । रूपाधिकवारावसान १। हार विकल्पै ४।३।२।१। राप्तभक्तपदायकैः। पदं गच्छ आदिर्येषां ते पदादयस्ते च ते अंकाश्च तैहंतः ६।२।३। ४ । ५ अपत्तितं वित्तं धनं भवति एंदितो सूत्रदिदं तरल्पट्ट विवक्षितषष्ठ- १०
५।४।३।२।१ विकल्पदो चतुर्बारसंकलनधनमारक्कु । ६ । इंते सर्वत्र समस्तवारसंकलनधनंगळं विवक्षितंगळं तंदुको बुदु । प्रक्षेपकप्रक्षेपकादीनां प्रमाणानयने करणसूत्रमिदं
व्येकपदोत्तरघातः सरूपवारोद्धृतो मुखेन युतः ।
रूपादिकवारान्ताप्तपदाद्यःहतो वित्तम् ।। तत्र षष्ठं विकल्पं विवक्षितं कृत्वा चूर्णीनां चतुर्वारसंकलितधनमानीयते । तत्र पदं चतुरूपोनगच्छ ६-४ मात्र २ । व्येकं एकरहितं २-१ अस्य उत्तरेण घातः एकवारादिसंकलनरचनामाश्रित्यैव द्विकवारादिसंकलनरचनोत्पत्तेः सर्वत्रादिः उत्तरश्चकैकः इत्येकेन घातः कर्तव्यः १ । १ । गुणिते एवं १, सरूपवारोद्धृतः
रूपाधिकवार ४। भक्तः ४ । मुखमादिः १ तेन समच्छेदेन ५ सहितः ५ रूपादिकवारान्ताप्तपदाद्य
कंर्हतः एकरूपप्रभृतिवारावसानहारभक्तपदाद्यत: ४ ३ २ १ हतः गुणितः ५ ४ ३ २ १ २० अपवर्तितः ६ वित्तं षष्टविकल्पचूर्णिधनं भवति, एवमेव सर्वत्र समस्तवारसंकलनधनानि विवक्षितान्यन्यानि
प्रकार है-उसे उदाहरण द्वारा स्पष्ट करनेके लिए छठे विकल्पको विवक्षित करके चूर्णियोंका चार बार संकलित धन लाते हैं-यहाँ पद चार हीन गच्छ ६-४-मात्र २ है। उसमें एक घटानेपर २-१ = एक शेष रहता है। इसको उत्तरसे गुणा करना चाहिए। सो एक बार आदि संकलन धन रचनाकी अपेक्षा ही दो बार आदि संकलनकी रचना उत्पन्न होती है। २५ सर्वत्र आदि और उत्तर एक-एक है, अतः उसे एकसे गुणा करने पर १४१ = एक ही रहा। इसका यहाँ चार बार संकलन कहा है सो चारमें एक मिलानेपर पाँच हुआ। उसका भाग देनेपर एकका पाँचवां भाग हुआ। इसमें मुख जो आदि, उसका प्रमाण एक, सो समच्छेद करके मिलानेपर छहका पाँचवाँ भाग हुआ । यहाँ चार बार कहा है सो एकसे लेकर एक-एक १. म चतुर्थवार ।
३०
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१६।१६ १६ १६ १६ १६ १६ १६
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ज
ज ५
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ज १ १६।१६।१६।१६।१६ चू चू
ज
ज ६०००००००००
१६
ज १५०००००००० १६१६
ज २०१०००००००
१६।१६।१६
ज ५|0000000
ज ६।०००००००००० १६ १६ १६ १६ १६ ज १२००००००००० १६।१६ १६ १६ १६ १६
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ज २२ १६।१६ aaa १
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| १६।१६ । १६ ० ३ ० २१
ज २३ २२२१२
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२४ aaa । १ ३२
ज २२० १६aa
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१६ २
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गो० जोवकाण्डे
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मत्तं केशण्णंगळु तम्मभिप्रार्याद तरल्पडुव विशेषकरणगाथासूत्रद्वयं :
तिरियपदे रूऊणे तदिट्ठहेछिल्ल संकळणवारा।
कोट्टधणस्साणयणे पभवं इठूणिदुड्ढपदसंखा ॥ तिर्यक्पदे रूपोने तदिष्टाधनस्तनसंकलनवारा। भवंति कोष्ठधनस्यानयने प्रभवः इष्टोनितोध्वंपदसंख्या॥
तत्तो रूवहियकमे गुणगारा होंति उड्ढगच्छोत्ति ।
इगिरूवमादिरूउत्तरहारा होति पभवोत्ति ॥ ततो रूपाधिकक्रमेण गुणकारा भवंत्यूर्ध्वगच्छपयंतं । एकरूपादिरूपोत्तरहारा भवंति प्रभवपय्यतं ।
इल्लिष्टमप्पुदावुदानुमोदु तिर्यक्पददोळ ६ रूपोनमागुत्तिरलु ६ तत्तत्पदप्रमाणे इष्टाध- १० स्तनसंकलनवारा भवंति। आ तिर्यग्गच्छेदद केळगे प्रक्षेपकोनैकवारसंकलनादिसर्वसंभवद्वारआनयेत् । पुनरेतदेव केशववणिभिः स्वाभिप्रायेण आनेतुं गाथाद्वयमुच्यते
तिरियपदे रुऊणे तदिट्टहेठिल्लसंकलणवारा ।
कोट्ठधणस्साणयण पभवं इठूण उड्ढपदसंखा ॥१॥ तिरियपदे अनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानेषु यद्विवक्षितं स्थानं तत् तिर्यक्पदं ६, तस्मिन् रूऊणे रूपोने १५
कृते ६ तदिठ्ठहेढिल्लसंकलणवारा तदिष्टपदे प्रक्षेपकादधस्तनकोष्ठेषु प्रतिकोष्ठमेकैकं संकलनमिति संभवतां क्रमेणैकवारद्विवारादिसंकलनानां संख्या भवति ५ ॥ तत्र इष्टस्य 'कोठूधणस्स' चतुर्वारसंकलनधनगतकोष्ठधनस्य आणयणे आनयने 'इट्ठण उड्ढपदसंखा' तदिष्टसंकलनवारस्य प्रमाणेन ४ न्यूनोर्ध्वपदं-६-४ पभवो आदिभवति ॥२॥
तत्तोरूवयिकमे गुणगारा होंति उड्ढगच्छोत्ति ।
इगिरूवमादिरू उत्तरहारा होंति पभवोत्ति ॥२॥ तत्तो तमादि २ मादिं कृत्वा रूवहियकमे रूपाधिकक्रमेण गुणगारा गुणकारा अनुलोमगत्या होंति
बढ़ते हुए चार पर्यन्त अंक रखकर १४२४३४४ परस्परमें गुणा करनेपर २४ हुए। यह भागहार हुआ। और गच्छ दो के प्रमाणसे लेकर एक-एक बढ़ता अंक रखकर २४३४४४५ परस्पर गुणा करनेपर १२० भाज्य हुआ। सो भाज्य १२० में भागहार २४ से भाग देनेपर २५ लब्ध पाँच आया। इस पाँचसे पूर्वोक्त छहके पाँचवें भागको गुणा करनेपर पाँच रहे । यही दो का चार बार संकलन धन होता है। इसी तरह तीनका तीन बार संकलन धन लाना हो, तो गच्छ तीनमें एक कम करके दो शेष रहे। उसे उत्तर एकसे गुणा करनेपर भी दो ही हुए। यहाँ तीन बार संकलन है। अत: उसमें एक अधिक बार चारका भाग देनेपर आधा रहा। उसमें मुख एक जोड़नेपर डेढ़ हुआ । यहाँ तीन बार कहा है, अतः एकसे लेकर एक-एक बढ़ते ३० तीन पर्यन्त अंक रखकर १४२४३ = परस्परमें गुणा करनेपर भागहार छह हुआ। और गच्छको आदि लेकर एक-एक अधिक अंक रख ३४४४५ परस्परमें गणा करनेपर भाज्य साठ हुआ। भाज्य साठमें भागहार छहसे भाग देनेपर दस पाये। इस दससे पूर्वोक्त डेढ़को गुणा करनेपर छठे भेदमें तीन कम गच्छका तीन बार संकलन धनमात्र पन्द्रह पिशुलि-पिशुलि होती हैं । इसी तरह सर्वत्र विवक्षित संकलित धन लाना चाहिये।
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गो० जीवकाण्डे संकलनवारंगळ प्रमाणमक्कुमल्लि कोष्ठधनस्यानयने विवक्षित ४ चतुर्वारसंकलनधनमंतप्पल्लि । प्रभवः आदि ये तुंटक्कुमेंदोडे इष्टोनितोर्ध्वपदसंख्या स्यात् । तन्न विवक्षितसंकलनवारप्रमाणमं नाल्कं कळेदुळिदूर्ध्वपदप्रमाणमें तुरंतुटु प्रभवमक्कु, दिल्लि ऊर्ध्वगच्छमु मूरप्पुववरोळु नाल्कं कळेदुळिद द्विरूपुगळु प्रभवमें बुदथें ।
ततो रूपाधिक क्रमेण तदादिभूतप्रभवभूत द्विरूपं मोदल्गोंडु मुंद रूपाधिकक्रमदिदं गुणकारा भवत्यूर्ध्वगच्छपथ्यंतं अनुलोमक्रमदि गुणकारंगळप्पु ऊर्ध्वगच्छप्रमाणांकक्के नवरमुत्पत्तियक्कुमन्नवरं ज २।३।४।५।६ ई गुणकारंगळ्गे केळग एकरूपादि रूपोत्तरहाराः भवन्ति एकरूपादिरूपोत्तरमप्प भागहारंगळु विलोमक्रमदिंदमप्पुवु। प्रभवपर्यंतं मेलण गुणकारभूतप्रभवांकमाद्यंकमवसानमन्नेवरमन्नवरं ज ३।४।५।६ केळग अपत्तितलब्धं चतुर्वारसंकलन
१६।५।४।३।२।१
___इंतनंतभागवृद्धियुक्तचरमज्ञानविकल्पद तिर्यक्पदे १६ १६ १६ १६ १६ र तिर्यग्गच्छदोळु सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रगच्छदोळु २ रूपोने २ एकरूपोनमादोडे तत्
१० धनमक्कु
भवन्ति उड्ढगच्छोत्ति ऊर्ध्वगच्छाङ्कोत्पत्तिपर्यन्तं-ज २ ३ ४ ५ ६ तेषां गुणकाराणां अधः हारा भागहाराः
इगिरूवमादि एकरूपादयः रूउत्तरा-रूपोत्तरा होंति भवन्ति विलोमक्रमेण रूपाधिकेष्टवारस्थानेषु पभवोत्ति प्रभवाङ्कपर्यन्तं ज
२ ३ ४ ५ ६ अपवर्तिते लब्धं चतुर्वारसंकलनधनं भवति१६ १६ १६ १६ १६ ५ ४ ३ २ १
.... एवमनन्तभागवृद्धियुक्तचरमविकल्पे तिर्यक्पदं सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्र २
इस संकलित धनको अपने अभिप्रायके अनुसार लानेके लिए केशववर्णीने दो गाथाएँ कही हैं । उनका अर्थ उदाहरण पूर्वक कहते हैं-अनन्त भाग वृद्धि युक्त स्थानोंमें जो विवक्षित स्थान है,वह तिर्यक पद है। जैसे छठा स्थान तिर्यक्पद है। उसमें एक घटानेपर उसके नीचे
पाँच संकलन बार होते हैं। प्रक्षेपकके नीचे कोठोंमें-से प्रत्येकमें क्रमसे एक बार, दो बार आदि २० सम्भव संकलनोंकी संख्या होती है। यहाँ इष्ट चार बार संकलन धन गत कोठेके धनको
लानेके लिए इष्ट संकलन बारके प्रमाण ४ को ऊर्वपद ६ में कम करनेपर ६-४ =२ आदि होता है । इस आदि दोसे लगाकर एक-एक अधिकके क्रमसे ऊध्वे गच्छ छह पर्यन्त गुणकार होते हैं यथा २, ३, ४, ५, ६ । इन गुणाकारोंके नीचे भागहार एक रूप आदि एक अधिक
बढ़ते हुए उल्टे क्रमसे होते हैं । सो यहाँ चार बार संकलनके कोठेमें चूर्णि है। जघन्यमें पाँच २५ बार अनन्तका भाग देनेसे जो प्रमाण आता है, उतना चूणिका प्रमाण है। इस प्रमाणके
गुणकार क्रमसे दो, तीन, चार, पाँच, छह हैं और पाँच, चार, तीन, दो एक भागहार हैं। गुणकारसे चूणिके प्रमाणको गुणा करके भागहारोंका भाग देनेपर यथायोग्य अपवर्तन करनेपर छह गुणित चूर्णि मात्र प्रमाण आता है। इसका आशय यह है जो १६, १६, १६, १६, १६
यह चूणिका प्रमाण है । 'ज' अर्थात् जघन्य पर्याय ज्ञानमें १६ अर्थात् अनन्तका पाँच बार ३० १. मणांकमेन्नेवर।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तत्पदप्रमाणं । इट्ठहेट्ठिल्लसंकलनवारा इष्टाधस्तनसंकलनवाराः तन्न विवक्षित तिर्यग्गच्छद केळगे कळगे संभविसुव प्रक्षेपकोनैकवारसंकलन आदिसळवारसंकलनगळ प्रमाणमक्कु २ मवरोलु कोष्ठधनस्यानयने विवक्षित ४ चतुर्बारसंकलनधनमंतप्पल्लि प्रभवः आदि ये तुटक्कुम दोड इष्टोनितोपदसंख्या स्यात् तन्न विवक्षितसंकलनवारप्रमाणमं नाल्कं कळेदुळिदयपदप्रमाणमक्कु २२४ मिल्लियूर्ध्वगच्छमुं सर्वाधस्तनचूणिचूर्णियागि प्रक्षेपकाख्यपर्यायावसानमप्प स्थानंगळं ५ सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रमेयक्कु २ मवरोळातन्निष्टवारसंकलनांक नाल्कं कळेदुळिद शेषप्रमाणमादियक्कुमेंबुदत्थं ज २-४ ततो रूपाधिकक्रमेण ई यादिस्थानं मोदल्गोंडु मुंद रूपाधिक क्रमदिदं गुणकारा भवत्यूर्ध्वगच्छपय्यंत अनुलोमदि गुणकारंगळप्पुवर्ध्वगच्छप्रमाणांकक्केन्नेवरमुत्पत्तियक्कुमन्नेवरं ज २-४ । २-३ । २-२।२।२ ई गुणकारंगळगे एकरूपादि रूपोत्तर
१६।५।aaaaa
०
तस्मिन् रूपोने २ अवशिष्टं तदिष्टाधस्तनसंकलनवारा भवन्ति २ तेषु मध्ये विवक्षितस्य चतुर्वारसंकलन- १०
a गतकोष्ठधनस्यानयने तद्वारप्रमाणे ४ ऊर्ध्वपदे २ अपनीते २-४ शेषप्रमाणमादिर्भवति ज २-४ ततः
a a
१६ ५ तमादिमादिं कृत्वा अग्रे रूपाधिकक्रमेण गुणकारा भवन्ति ऊर्ध्वगच्छप्रमाणं यावदुत्पद्यते तावत् ज
२-४ । २-३ । २-२ । २-१ । २ एषां गुणाकाराणामधः एकाधेकोत्तरा आदिपर्यन्तं विलोमक्रमेण भागहारा aaa aa भाग देनेसे आता है। भागहार और गुणकार इस प्रकार है- २, ३, ४, ५, ६ । यहाँ दो तीन, चार पाँच का तो अपवर्तन हो गया। दोसे दो, तीनसे तीन, चारसे चार और पाँचसे ।। पाँच अपवर्तित हो गये। छह और भागहार एक शेष रहा। सो छहगुना चूर्णिमात्र प्रमाण रहा । इसी प्रकार अनन्तभाग वृद्धि युक्त अन्तिम विकल्पमें वह स्थान सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागका जितना प्रमाण है,उतनेका है,इसलिए तिर्यग् गच्छ सूच्यंगुलका असंख्यातवाँ भाग मात्र है। उसमें से एक घटानेपर जो अवशेष है, उतना अधस्तन संकलनके बार हैं। उनमें से विवक्षित चार बार संकलन गत कोठाका धन लानेके लिए विवक्षित संकलन बारके प्रमाण , चारमें ऊध्र्वगच्छ सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्रमें-से घटानेपर जो अवशेष रहता है,वह आदि है । उसको आदि करके एक-एक बढ़ते क्रमसे ऊर्ध्वगच्छ सूच्यंगुलका असंख्यातवां भाग पर्यन्त तो गुणकार होता है । और इन गुणकारोंके नीचे उल्टे क्रमसे एकको आदि लेकर एकएक बढ़ते हुए पाँच पर्यन्त भागहार होता है। यहाँ गुणकार और भागहार समान नहीं है। १. ब रूपोन २ अवशिष्टं भवन्ति २ तेषु मध्ये ।
२०
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गो० जीवकाण्डे हाराः एकरूपमादियागि रूपोत्तरमप्प भागहारंगळु विलोमक्रमदि भवंति प्रभवपयंतं आदिभूतरूपचतुष्टयोनसूच्यंगुलासंख्यातमागावसानमप्प गुणकारं गलकळगयप्पुवु:
ज
-२-४।२-३ ।२
इल्लि विषमापवर्तन मनपत्तिमित १६।१६ १६ १६ १६ । । ५३ ४ ३ ३ ० २ ० १ यिरुतिक्कुमेके दोडे तल्लब्धमवधिज्ञानविषयमप्पुरिदं ।
इल्लिये चरमविकल्पदोळु ई प्रकादिदं विवक्षितद्विचरमचूणिचूणि द्विरूपोनसूच्यंगुलासंख्यातभागवारसंकलनधनं तरतरल्पडुगुमदेते दोर्ड तिर्यक्पदे रूपोने सति रूपहीनमादोडिदु
२ तदिष्टाधस्तनसंकलनवाराः तद्विवक्षितेष्टाधस्तनसंकलनसमस्तवारसंख्ययक्कु कोष्ठधनस्यानयने तन्निष्टावारसंकलनधनमंतप्पल्लि प्रभवः आदिय प्रमाण तुर्टदोडे इष्टोनितोर्ध्वपदसंख्या
स्यात् तन्न विवक्षितवारसंकलनप्रमाणमं २–२ कळिदुळिदूर्ध्वपदप्रमाणं प्रभवमक्कुमदूर्ध्वपदं १० सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रमदरोळकळेदोडे शेषं द्विरूपमादियक्कुम बुदत्थं ।
ततो रूपाधिकक्रमेण तदादिभूतद्विरूपं मोदल्गोंडु मुंद रूपाधिकक्रमदिदं गुणकारा भवंत्यूर्ध्वगच्छपय्यंतं अनुलोमक्रमदि गुणकारंगळूर्ध्वगच्छप्रमाणांकोत्पत्तिपर्यवसानमागियप्पु
भवन्ति - ज
२-४ । २-३ । २-२ । २-१ । २ अत्र विषममपवर्तनमस्ती१६ । १६ । १६ । १६ । १६ । । ५ ।।४।०३। २ १ त्यनपवर्तितमेव अवतिष्ठते तल्लब्धस्य अवधिज्ञानविषयत्वात् । पुनस्तच्चरमविकल्पे विवक्षितद्विचरमचूणिचूर्णे१५ द्विरूपोनसूच्यङ्गलासंख्यातभागवारसंकलनधनमानीयते, तद्यथा-तिर्यक्पदे २ रूपोने सति २ तदिष्टाधस्तन
संकलनसमस्तवारसंख्या भवति निजेष्टवारसंकलनधनानयने तद्वारसंकलनप्रमाणेन २-२ ऊनोर्ध्वपदं २
a
आदिः २। ततस्तमादिं कृत्वा अग्रे रूपाधिकक्रमेण अनुलोमगत्या गुणकारा ऊर्ध्वगच्छप्रमाणांकोत्पत्तिपर्यन्तं
अतः अपवर्तन हुए विना तदवस्थ रहता है। यहाँ जो लब्ध राशि होती है,वह अवधिज्ञान
का विषय है । पुनः अनन्त भाग वृद्धिसे युक्त उसके अन्तिम विकल्पमें विवक्षित उपान्त्य २० चूर्णि-चूणिके दो हीन सूच्यंगुलके असंख्यात भाग बार संकलन धनका प्रमाण लाते हैं जो इस
प्रकार है-यहाँ भी तियगगच्छ सूच्यंगुलका असंख्यातवाँ भाग मात्र है। उसमें एक घटानेपर इष्ट अधस्तन संकलनके समस्त बारोंकी संख्या होती है। उनका संकलन धन लानेके लिए विवक्षित संकलन बार दो हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र है। उसे ऊर्ध्वगच्छ
सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमें-से घटानेपर दो शेष रहे वह आदि, इससे लेकर आगे एक-एक २५ बढ़ते क्रमसे ऊध्वगच्छ पर्यन्त गुणकार होते हैं। और एकसे लेकर आगे एक-एक बढ़ते हुए
अपने इष्ट बारके प्रमाणसे एक अधिक पर्यन्त विपरीत क्रमसे भागहार होते हैं । यहाँ दो आदि एक हीन सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग पर्यन्त गुणकार और भागहारके अंक समान हैं । अतः
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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ज । २।३।४। ००० । २-३॥ २-२२-२ वी गुणकारंगळ केळगे एकरूपादिरूपोत्तरहाराः १६ २ एकरूपादिरूपोत्तरमप्प हारंगळु विलोमक्रमदि रूपाधिकेष्टवारसंकलनांकपथ्यंयवसानमागि भति प्रभवपय्यंत । तदादिभूतगुणकारविरूपावसानमागियप्पुवु :ज। २। ३।४ । ००००२-३ । २-२ २ २ इल्लि समापवर्तनमुटप्पुरिंदमवत्तितमिदु १६ २ २ २-२२-३ । ०००० ० ४ ० ३।। २।। १ ज । । चरम चूणिचूर्णिगे संकलितमिल्ल द्वितीयादिस्थानाभावदिदं । सूच्यंगुलासंख्यात- ५ १६ भागमात्रवारानन्तभक्तजघन्यप्रमितमक्कुं ज १। इतनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुला
भवन्ति- ज -
१६ २ ।
२ । ३ । ४ । ००० । २-३ । २-२ । २-१ । २ एषामधः रूपादिरूपोत्तरा
aaa
हाराः विलोमक्रमेण रूपाधिकेष्टवारसंकलनाङ्कावसाना भवन्ति प्रभवपर्यन्तंज ० ० ३ ४ । ००० २-३ २-२ २-१२ अत्र समानापवर्तनमस्तीति अप
२-२ २-३ ००० ० ४ ३३२१ a a a a वर्तिते एवं-ज २ चरमणिचर्णेः संकलितं नास्ति द्वितीयादिस्थानाभावात् । सूच्यङ्गलासंख्यात
१६ ...
भागमात्रवारानन्तभक्तजघन्यप्रमितं स्यात् ज १ एवमनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानानि सूच्यङ्गुलासंख्यातभाग
उनका अपवर्तन करनेपर शेष सूच्यं गुलके असंख्यातवें भागका गुणकार और एकका भागहार रहता है । इस कोठेमें उपान्त्य चूर्णि-चूणि है,उसका प्रमाण जघन्यको सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र बार भाग देनेपर जो प्रमाण आवे,उतना जानना। इसको पूर्वोक्त गुणकारसे गुणा करनेपर और एकसे भाग देनेपर जो प्रमाण आता है, वह उस कोठा सम्बन्धी प्रमाण है। १५ अन्तिम चूणि चूणिमें संकलन नहीं है, क्योंकि उसके दूसरे आदि स्थान न होनेसे वह एक ही है। सो जघन्यको सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र बार अनन्तसे भाग देनेपर अन्तिम चूर्णि-चूर्णिका प्रमाण होता है। उसमें एकसे गुणा करनेपर भी उतना ही उस कोठेमें वृद्धिका प्रमाण जानना । इस प्रकार सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र अनन्त भाग वृद्धि युक्त स्थान
१. ब द्वितयादिस्थानानि सूच्यङ्गलासंख्यातभागमात्राणि नीत्वा ।
२०
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गो० जीवकाण्ड
संख्यातभागमात्रंगळु सलुत्तमिरलु वो दसंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानमक्कुंज = a इल्लियुव्वकर्म चतुरंकदिद भागिसि तदेकभागमनल्लिये कूडिदप्पुरिदं जघन्यं साधिकमक्कुं मुंदेल्लावृद्धिगळ्ग मी क्रममेयक्कुं तंतम्म परगणुव्वर्कगळं भागिसिद भागवृद्धिगळं गुणिसिद गुणवृद्धिगळुमरियल्पडुगुं। मत्तं मुन्निनंताऽनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातभागमानंगळु सलुत्तं विरलु मत्तमोद५ संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानमक्कु ज = = मो क्रमदिंदमसंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातभागमानंगळु सलुत्तं विरलु मत्तमनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रंगळु सलुत्तं विरलु ओंदु संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानमक्कुं ज १५ मुंदे मत्तं मुन्निनंत
मात्राणि नीत्वा एकं असंख्यातभागबृद्धियुक्तं स्थानं भवति ज = a । अत्र उर्वकं चतुरङ्केन भक्त्वा तदेकभागः
तत्रैव युतोऽस्तीति जघन्यं साधिकं भवति । अग्रेऽपि सर्वबृद्धीनां अयमेव क्रमो भवति । स्वस्वप्राक्तनोवंक १० भक्त्वा तदेकभागवृद्धिरवगन्तव्या। पुनः प्राग्वदनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानानि सूच्यमुलासंख्यातभागमात्राणि
नीत्वा पुनरपरमसंख्यातभागवृद्धियुक्तं स्थानं भवति ज = a = a अनेन क्रमेण असंख्यातभागवृद्धियुक्त
sa
a
स्थानान्यपि सूच्यगुलासंख्यातभागमात्राणि नीत्वा पुनरनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानानि सूच्यमुलासंख्यातभाग
मात्राणि नीत्वा एकं संख्यातभागवृद्धियुक्तं स्थानं भवति ज १५ । पुनः पूर्ववदनन्तभागासंख्यातभागवृद्धि
१५
होनेपर एक असंख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थान होता है। यहाँ ऊवक जो अनन्त भाग १५ वृद्धि युक्त अन्तिम स्थान है , उसमें चतुरंकसे भाग देनेपर जो एक भागका प्रमाण आवे;
उसे उसीमें जोड़ा, सो यहाँ जघन्य ज्ञान साधिक होता है। आगे भी सब वृद्धियोंका यही क्रम होता है। अपने-अपनेसे पूर्वके ऊबकमें भाग देनेपर जो एक भाग आवे, उतनी वृद्धि जानना। पुनः पूर्वकी तरह सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र अनन्त भाग
वृद्धि युक्त स्थानोंके बीतने पर पुनः आगेका असंख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थान होता है। २० इस क्रमसे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र असंख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थान बिताकर
पुनः सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अनन्त भाग वृद्धिसे युक्त स्थान बिताकर एक संख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थान होता है। पुनः पूर्ववत् प्रत्येक अनन्त भाग वृद्धि युक्त तथा असंख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थानोंके सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होनेपर तथा पुनः
सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अनन्त भाग वृद्धि युक्त स्थान होनेपर पुनः एक संख्यात २५ भाग वृद्धि युक्त स्थान होता है। इसी क्रमसे संख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थान भी सूच्यंगुलके
असंख्यातवें भाग मात्र होनेपर आगे पूर्ववत् सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र अनन्त भाग
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५५१ नंतभागासंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु प्रत्येकं सूच्यंगुलासंख्यातभागमानंगळात्तिसि मुंद मत्तमनंतवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातभगमात्रंगळु सलुत्तं विरलु मत्तमो'दु संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानं पुटुगु ज १५ । १५ मी क्रमदिदमी संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळं संख्यातगुण
१५ । १५ वृद्धियुक्तस्थानंगळुमसंख्यातगुणवृद्धियुक्तस्थानंगळु यथाक्रमावस्थितरूपसूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रवारंगळु संदु संदु मतं मुंद अनंतभाग असंख्यातभागसंख्यातभागसंख्यातगुणवृद्धियुक्तस्थानंगळु ५ प्रत्येकं कांडक कांडक प्रमितंगळु संदु संदु मत्तं मुंद अनंताऽऽसंख्यातसंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु प्रत्येक कांडककांडकमितंगळु संदु संदु मत्तं मुंद, अनंतासंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळु प्रत्येकं कांडककांडकप्रमितंगळु नडनडेदु मुंद मत्तमनंतभागवृद्धियुक्तस्थानंगळे सूच्यंगुलासंख्यातयुक्तस्थानानि प्रत्येकं सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्राणि आवर्त्य पुनरनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानानि सूच्यङ्गुला
संख्यातभागमात्राणि नीत्वा पुनरेकं संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानं ज १५ । १५ अनेन क्रमेण संख्यातभाग- १०
१५ । १५ वृद्धियुक्तस्थानान्यपि सूच्यङगुलासंख्यातभागमात्राणि नीत्वा । अग्रे प्राग्वदनन्तभागासंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानानि सूच्यगुलासंख्यातभागमात्राणि नीत्वा पुनरनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानानि सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्राणि नीत्वा एक संख्यातगणवद्धियक्तस्थानं भवति । एवं संख्यातगणवृद्धियुक्तस्थानान्यपि, संख्यातभागमात्राणि नीत्वा पुनः अनन्तभागासंख्यातभागसंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानानि प्राग्वत्सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्राणि नीत्वा पुनरनन्तभागासंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानानि पूर्ववत्सूच्यफुलासंख्यातभागमात्राणि १५ नीत्वा' (पुनरनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानानि सूच्यगुलासंख्यातकभागमात्राणि नीत्वा ) एकमसंख्यातगुणवृद्धियुक्तं स्थानं भवति । एवमसंख्यातगुणवृद्धि युक्तस्थानान्यपि सूच्यङ्गलासंख्यातभागमात्राणि नीत्वा अग्रे अनन्तभागासंख्यातभागसंख्यातभागसंख्यातगुण वृद्धियुक्तस्थानानि प्रत्येकं काण्डककाण्डकप्रमितानि नीत्वा पुनरनन्तासंख्यात
वृद्धि युक्त और असंख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थानोंको करके पुनः सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अनन्त भाग वृद्धि स्थानोंके होनेपर एक संख्यात गुण वृद्धि युक्त स्थान होता है। इस २० प्रकार संख्यात गुण वृद्धि युक्त स्थान भी सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र होनेपर पुनः अनन्त भाग वृद्धि युक्त स्थान, असंख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थान और संख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थानोंमें से प्रत्येक पूर्ववत् सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र होनेपर पुनः अनन्त भाग वृद्धि युक्त असंख्यात भाग वृद्धि युक्त और संख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थान सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र होनेपर तथा पुनः अनन्त भाग वृद्धि युक्त स्थान सूच्यंगुलके असंख्यात २५ भाग मात्र होनेपर एक असंख्यात गुण वृद्धि युक्त स्थान होता है। इस प्रकार असंख्यात गुण वृद्धि युक्त स्थान भी सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र होनेपर आगे अनन्त भाग वृद्धि युक्त, असंख्यात भाग वृद्धि युक्त तथा संख्यात गुण वृद्धि युक्त स्थानों में से प्रत्येकके सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग होनेपर पुनः अनन्त भाग वृद्धि युक्त, असंख्यात भाग वृद्धि युक्त, संख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थानोंमें से प्रत्येकके सुच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होनेपर पुनः अनन्त ३० भाग वृद्धि और असंख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थानों में से प्रत्येकके सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग १. ब कोष्ठान्तर्गत भागो नास्ति । २. सूच्यगुलसंज्ञा ।
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गो. जोवकाण्डे भागमात्रंगळु संदु द्वितीयषट्स्थानक्कादिभूतमप्पऽष्टांकमोंदु पुटुगुमन्नेवर मन्नेवरेगमी क्रममरियल्पडुगु।
आदिमछट्ठाणम्मि य पंच य वड्ढी हवंति सेसेसु ।
छठवड्ढीओ होंति है सरिसा सव्वत्थ पदसंखा ॥३२७।। ___आदिमषट्स्थाने च पंच वृद्धयो भवंति शेषेषु । षड्वृद्धयो भवंति खलु सदृशी सर्वत्र पदसंख्या ॥
इल्लि संभविसुवंतप्पऽसंख्यातलोकमात्रषट्स्थानंगळोल आदिमषट्स्थाने आदौ भवमादिमं षण्णां स्थानानां समाहारः षट्स्थानं आदिम षट्स्थानमादिमषट्स्थानं तस्मिन् मोदल षट्स्थानदोळु
पंच वृद्धयो भवंति पंचवृद्धिगळेयप्पुवेक दोडे चरमाटांकसंज्ञेयनुळ्ळनंतगुणवृद्धियुक्तस्थानक्क द्वितीय १० षट्स्थानकादित्व प्रतिपादनदिदं शेषेषु शेषद्वितीयादिचरमावसानमाद षट्स्थानंगळोळेल्लमष्टांका
दियाद षड्वृद्धिगळप्पुवुमंतागुत्तिरलु सदृशी सर्वत्र पदसंख्या ई षट्स्थानंगळोळ संभविसुव स्थानविकल्पंगळ संख्यासादृश्यनियमक्के निमित्तमप्प सूच्यंगुलासंख्यातभागक्कवस्थितस्वरूपमुळुरदं । समस्तषट्स्थानंगळ स्थानविकल्पंगळ संख्येसमानमेयुक्कुमंतादोडे मोदल षट्स्थानदोळु पंचवृद्धि
युक्तस्थानंगळप्पुदरिनष्टांकमे तु घटियिसुगुम दोडुत्तरसूत्रदोळु पेळ्दपं :१५ संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानान्यपि प्रत्येकं काण्डककाण्डकप्रमिताति नीत्वा पुनरनन्तभागासंख्यातभागवृद्धियुक्त
स्थानानि प्रत्येकं काण्डकप्रमितानि नीत्वा पुनरनन्तभागवृद्धियुक्तस्थानान्येव सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्राणि नीत्वा द्वितीयपस्थानस्य आदिभूतमष्टाङ्गसंज्ञं भवति इत्येवं सर्वत्र षट्स्थानपतितवृद्धि क्रमो ज्ञातव्यः ॥३२६॥
अत्र संभवत्सु असंख्यातलोकमात्रेषु षट्स्थानेषु मध्ये आदिमे प्रथमे षट्स्थाने पञ्चव वृद्धयो भवन्ति, चरमस्य अष्टाङ्कसंज्ञस्य अनन्तगुणवृद्धियुक्तस्य द्वितीयषट्स्थानस्यादित्वप्रतिपादनात् । शेषेषु द्वितीयादिचरमाव२० सानेषु षट्स्थानेषु सर्वा अष्टाङ्कादयः षड्वृद्धयो भवन्ति । तथासति सदृशी सर्वत्र पदसंख्या एतेषु षट्स्थानेषु
संभवति-स्थानविकल्पसंख्या सदृशा समानैव सादृश्यनियमनिमित्तस्य सूच्यगुलासंख्यातभागस्य अवस्थितस्वरूपत्वात् । तथा सति प्रथमषट्स्थाने पञ्चवृद्धियुक्तस्थानानि संभवन्ति ॥३२७॥ अष्टाङ्कः कथं न घटते इति चेहेतुमाह
होनेपर पुनः अनन्त भाग वृद्धि युक्त स्थान सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होनेपर द्वितीय २५ पटस्थानका आदिभूत अष्टांक होता है । इस प्रकार सर्वत्र षट्स्थानपतित वृद्धि क्रम जानना ॥३२६||
__ जघन्य पर्याय ज्ञानके ऊपर असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान होते हैं ,जो पर्याय समास श्रुतज्ञानके विकल्प हैं। उनमें से प्रथम षट्स्थानमें पाँच ही वृद्धियाँ होती हैं, क्योंकि अनन्त
गुण वृद्धिसे युक्त जो अष्टांक संज्ञावाला अन्तिम स्थान है,उसे दूसरे षस्थानका आदि स्थान ३० कहा है। शेष दूसरेसे लेकर अन्तिम पर्यन्त सब षट्स्थानोंमें अष्टांक आदि छहों वृद्धियाँ
होती है। ऐसा होनेसे इन षटस्थानों में स्थानके विकल्पोंकी संख्या समान ही है. क्योंकि सर्वत्र सूच्यंगुलका असंख्यातवाँ भाग तदवस्थ है, उसमें हीनाधिकता नहीं है। इस तरह प्रथम षट्स्थानमें पाँच वृद्धि युक्त स्थान ही होते हैं ॥३२७।। १. म सूत्रंगल।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५५३ छट्ठाणाणं आदी अट्ठकं होदि चरिममुव्वंकं ।
जम्हा जहण्णणाणं अट्ठक होदि जिणदिट्ठ॥३२८॥ षट्स्थानानामादिरष्टांको भवति चरममूवकः । यस्माज्जघन्यज्ञानमष्टांको भवति जिनदृष्टः॥
षट्स्थानवारंगळे नितोळवनितक्कमादिस्थानमष्टांकमेयक्कुं चरममुक्कमयक्कुमंतागुत्तिरलु प्रथमषट्स्थानदोळष्टांकम तक्कुम दोड यस्माज्जघन्यज्ञानभष्टांको भवति जिनदृष्टत्वात् । तस्मात् ५ आवुदो दु जिनदृष्टत्वकारणदिदं जघन्यज्ञानमष्टांकमक्कुम कारणदिदं प्रथमषट्स्थानदोळष्टांकादिकत्वं युक्तमकुं। इल्लि षट्स्थानंगळादियष्टांकमवसानमुक्कमेंब नियमं पेळल्पटुरिदं चरमषट्स्थानंगळगादियष्टांकमवसानमुमूवंकमुमागुत्तिरल्लि मुंदणष्टांकमदेनक्कु दोडाक्षरज्ञानमेंदु मुंद पेळ्दपनदु कारणदिदं जघन्यपर्यायज्ञानमादियेंदु पेल्दागमं निर्बाधबोधविषयमक्कु । ई षट्स्थानंगळ्गे स्थानसंख्य समानमें बुदं तोरिदपं :
एक्कं खलु अट्ठकं सत्तंकं कंडयं तदो हेट्ठा ।
रूवहियकंडएण य गुणिदकमा जाव मुव्वंकं ॥३२९।। एकः खल्वष्टांकः सप्तांकः कांडकं ततोऽधो रूपाधिककांडकेन गुणितक्रमा यावदूव्वंकः॥
षट्स्थानवाराणां सर्वेषामादिः प्रथमस्थानमष्टाङ्कमेव अनन्तगुणवृद्धिस्थानमेव भवति तेषां चरमस्थानमुर्वङ्कमेव अनन्तभागवृद्धिस्थानमेव भवति । तहि प्रथमस्थानस्य अष्टाङ्कत्वं कथं ? इति तन्न, यस्मात् कारणात् १५ तज्जघन्यं ज्ञानं पर्यायाख्यं पूर्वस्मादेकजीवागुरुलघुगुणाविभागप्रतिच्छेदानां वर्गस्थानादनन्तगुणत्वेन अष्टाङ्गं भवतीति जिनः अहंदादिभिः दिष्टं कथितं दृष्टं वा, तस्मात् कारणात् प्रथमषट्स्थानेऽपि अष्टाङ्कादित्वं यक्तम् । अत्र षस्थानानामादिः अष्टाङ्कः, अवसानं उर्वङ्कः इति नियम उक्तोऽस्तीति । चरमषदस्थानेऽपि आदौ अष्टाङ्के अवसाने उर्वके च सति तदग्रतनोऽष्टाङ्कः कीदृगस्ति ? इति चेत् अर्थाक्षर-ज्ञानरूपो भवति तथैव अग्रे वक्ष्यमाणत्वात् । तदेवं जघन्यपर्यायज्ञानमादिः इत्युक्तागमो निर्वाधबोधविषयः ॥३२८॥ एषां २० षट्स्थानानां संख्या समानेति दर्शयति
षट्स्थान पतित वृद्धिरूप सब स्थानोंमें प्रथम स्थान अष्टांक अर्थात् अनन्तगुण वृद्धि रूप स्थान ही होता है। वही आदि स्थान है। तथा उनका अन्तिम स्थान उर्वक अर्थात् अनन्तभागवृद्धि युक्त स्थान ही होता है। तब प्रथम स्थानमें अष्टांक कैसे रहा?इसका समाधान यह है वह जो पर्याय नामक जघन्य ज्ञान है इस जवन्य ज्ञानसे पहला ज्ञान स्थान एक २५ जीवके अगुरु लघु गुणके अविभाग प्रतिच्छेद प्रमाण है, उससे अनन्त गुणा जघन्य ज्ञान है। इसलिए जिनदेवने अष्टांक रूप देखा है। इस कारणसे प्रथम स्थानके भी आदिमें अष्टांक और अन्तिम उर्वक है । यह नियम कहा है।
शंका-अन्तिम षट्स्थानमें भी आदिमें अष्टांक और अन्तमें उर्वक होनेपर उससे आगेका अष्टांक किस रूपमें है ?
समाधान-वह अर्थाक्षर ज्ञान रूप है । ऐसा ही आगे कहेंगे। इस प्रकार जघन्य पर्याय ज्ञान आदि है,यह कथन निर्बाध है ।।३२८।।
आगे इन षट्स्थानोंकी संख्या समान है,यह दर्शाते हैं१. म नदोलादि।
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गो० जीवकाण्डे ____ओंदु षट्स्थानदोळ ओ देयष्टांकमक्कुमेक दोडदक्कावृत्यभावमप्पुदरिदं । 'अंगुल असंखभागं पुव्वगवड्ढी गदे दु परवड्ढी एक्कं वारं होदिहु' एंदितु पूर्वपूर्बवृद्धिगळु सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रवारंगळु सलुत्तिरलुत्तरोत्तरवृद्धिगळों दोदप्पुर्वब क्रममुळ्ळुदरिंद मनंतगुणवृद्धिगावृत्यभावमेक दोडे ईथनंतगुणवृद्धिस्थानक्क पूर्ववृद्धिगळाबृत्यसिद्धियप्पुरिदं । सप्तांकः कांडकं असंख्यातगुणवृद्धियुक्तस्थानंगळु सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्र गळ्यक्कुमदरिदं कलगण षडंकपंचांकचतुरंकोव्वंकगळु रूपाधिकसूच्यंगुलासंख्यातभागगुणितक्रमंगळप्पुवु। यावदुवकर्म बिदभिविधियप्पुरिंदमुक्कक्के सीमात्वमं सूचिसुत्तमदनु व्यापिसुगुमवर न्यासमिदु :
२ a
२
२ a
६ २ २
aa
२
२ aaaa |
२
२ युति २
उ २ २ २२२ aaa
२ ad ५ २
a ४२ २
a
एकस्मिन् षटस्थाने एक एवाष्टाङ्को भवति कृतः ? 'अङगुलअसंखभागं पुवगवड्ढीगदे हु परवड्ढी १८ एक्कं वारं होदीति' तस्य पूर्वत्वासंभवेनावृत्तेरभावात् । सप्ताङ्कः असंख्यातगणवृद्धियुक्तस्थानानि काण्डक
सूच्यङ्गुलासंख्यातभागमात्राण्येव भवन्ति । तदधस्तनाः षडङ्कपञ्चाङ्कचतुरङ्कोङ्कास्तु रूपाधिकसूच्यङ्गुलासंख्यातभागगुणितक्रमा भवन्ति यावदुर्वकं इत्यभिविधिः उर्वङ्कस्य सीमत्वं सूचयन् तमेव व्याप्नोति तन्न्यासोऽयं
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है।
७ । २
६२२
५ २ २ । २ । ad
४ २२ । २ । २ । aad
उ २२ । २ । २ । २ । ___ad
.
------
२ । २ । २ । २ । २ । aad aa युतिः
--..
१५ एक षट्रस्थान में एक ही अष्टांक होता है। क्योंकि पहले कहा है कि सूच्यंगलके असं'ख्यातवें भाग पूर्व की वृद्धि होनेपर आगेकी वृद्धि एक बार होती है। सो अष्टांक पूर्व में है नहीं, इसलिए इसकी आवृत्ति बार-बार पलटना सम्भव नहीं है । सप्तांक अर्थात् असंख्यात
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१५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
५५५ इंतु द्वितीयादि षट्स्थानदोळादिभूताष्टांकदिदं मुंदे उव्वंकमक्कुमादोडमेक्कंखलु अटुंकम बी नियमवचनदिदष्टांकक्कमंगलासंख्यातभागमात्रवाराऽभावमेयक्कुमेक दोडे खलुशब्दक्के नियमार्थवाचकवदिदं।
सव्वसमासो णियमा रूवाहियकंडयस्य वग्गस्स ।
बिंदस्स य संवग्गो होदित्ति जिणेहि णिदिढें ॥३३०॥ सर्वसमासो नियमाद्रूपाधिककांडकस्य वर्गस्य । वृंदस्य च संवर्गो भवतीति जिनैन्निद्दिष्टं ॥
यल्ला अष्टांकादिषड्वृद्धिगळ संयोगं रूपाधिककांडकस्य रूपाधिककांडकद, वर्गस्य वर्गद, वृंदस्य च घनद, संवर्गः संवर्गमात्रं भवति अक्कुम दितु जिनैन्निद्दिष्टं अहंदादिळिदं पेळल्पटुदिल्लि तद्युतियं माळ्प क्रममे ते दोडे अष्टांकदात्मप्रमाणमनोंदु रूपं तंदु सप्तांकद सूच्यंगुलासंख्यातभागदोळु कूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकमक्कुमदं तोरि तदात्मप्रमाणमनोदु रूपं षडंक- १० संख्ययोळकूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकद्वयमक्कुमा वर्गरूपाधिककांडकात्मप्रमाणमं पंचांकसंख्य
एवं द्वितीयवारषट्स्थाने आदिभूता'टाङ्कतोऽग्रे उर्वकोऽस्ति तथापि 'एकं खलु अटुंक' इति नियमवचनान्न तस्याङ्गलासंख्यातभागमात्रवारः, खलुशब्दस्य नियमार्थवाचकत्वात् ॥३२९॥
सर्वासां अष्टाङ्कादिषड्वृद्धीनां संयोगः रूपाधिककाण्डकस्य वर्गस्य वृन्दस्य च संवर्गमात्रो भवति इति जिनरहंदादिभिनिदिष्टं कथितम । अत्र तद्यतिः क्रियते तद्यथा
अष्टाङ्कस्य आत्मप्रमाणैकरूपे सप्ताङ्गस्य सूच्यङ्गुलासंख्यातभागे युते सति रूपाधिककाण्डकं भवति तस्मिन् पुनः आत्मप्रमाणैकरूपे षडङ्कसंख्यायां काण्डकगुणितरूपाधिककाण्डकमाव्यां युते सति रूपाधिकगुण वृद्धि युक्त स्थान काण्डक अर्थात् सूच्यंगुलके असंख्यात भाग मात्र ही होते हैं। उससे नीचके
डंक, पंचांक, चतरंक और उर्वक क्रमसे रूपाधिक सच्यंगलके असंख्यातवें भाग गुणित उत्तरोत्तर उर्वक पर्यन्त होते हैं अर्थात् असंख्यात गुण वृद्धिका प्रमाण सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग कहा है। उसको एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतनी बार संख्यात गुण वृद्धि होती है। इसको भी एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातव भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतनी बार संख्यात भाग वृद्धि होती है। इसको भी एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतनी , बार असंख्यात भाग वृद्धि होती है। इसको भी एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे २५ गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतनी बार अनन्त भाग वृद्धि होती है। इस प्रकार एक पटस्थान पतित वृद्धि में पूर्वोक्त प्रमाण एक-एक वृद्धि होती है। दूसरे षट्स्थानमें आदिमें अष्टांक उससे आगे उर्वक है,अतः एक ही अष्टांकका नियम जानना। वह अंगुलके असंख्यात भाग मात्र बार नहीं होता ।।३२९॥
अष्टांक आदि छह वृद्धियोंका जोड़ एक अधिक काण्डकके वर्गका तथा घनका परस्पर- १० में गणा करनेसे जो प्रमाण हो, उतना है;ऐसा जिन भगवान्ने कहा है। यहाँ उनका जोड़ दिखाते हैं___अष्टांकके अपने प्रमाण एक रूपमें सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागको मिलानेपर सप्तांकका प्रमाण एक अधिक काण्डक होता है। उसमें पडंककी संख्या, जो काण्डकसे गुणित एक अधिक काण्डक प्रमाण है, मिलानेपर रूपाधिक काण्डकका वर्ग होता है। उसमें पंचांककी १० संख्याको, जो काण्डकसे गुणित रूपाधिक काण्डकके वर्ग प्रमाण है, मिलानेपर रूपाधिक
२०
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गो० जीवकाण्डे
योळकूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकघनमक्कुमदरात्मप्रमाणमनोंदु रूपं चतुरंकसंख्ययोळकूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकंगळ घनमुं रूपाधिककांडकगुणमक्कुमदरात्मप्रमाणमनोंदु रूपं तंदुवकसंख्ययोळु रूपाधिककांडचतुष्टयक्क रूपाधिककांडकचतुष्टयम तोरि तोरलिल्लद कांडकदोळकूडुत्तिरलु रूपाधिककांडकदवर्गदघनद संवर्गप्रमाणमक्कुमद नंबुवुदेके दोडे जिनैन्निद्दिष्टं जिनोक्तत्वात जिनप्रणीतमपुरिदमिंद्रियज्ञानागोचरमप्पुरिदमा गुणकारंगळं गुणिसिद लब्धं घनांगुलासंख्यातभागमादोडं ६ घनांगलसंख्यातमादोडं ६ घनांगुलप्रमितमादोडं ६ संख्यातधनांगुलप्रमितमादोड ६१ मसंख्यातघनांगुलप्रमितमादोड ६। स्मदादिगळगव्यक्तमिप्पुरिदं ।
काण्डकवर्गो भवति । तदात्मप्रमाणैकरूपे पञ्चाङ्कसंख्यायां काण्डकगणितरूपाधिककाण्डकवर्गप्रमितायों युते सति
रूपाधिककाण्डकघनो भवति । तदात्मप्रमाणेकरूपे चतुरङ्कसंख्यायां काण्डकगणितरूपाधिककाण्डकघनप्रमितायां १० युते सति रूपाधिककाण्डकवर्गस्य वर्गो भवति । तदात्मप्रमाणैकरूपे उर्वङ्कसंख्यायां काण्डकगुणितरूपाधिकं
काण्डकवर्गस्य वर्गप्रमितायां रूपाधिककाण्डकचतुष्टयेन रूपाधिककाण्डकचतुष्टयं समं प्रदयं आत्मप्रमाणैकरूपे शेषकाण्डके युते सति रूपाधिककाण्डकवर्गस्य घनस्य च संवर्गप्रमाणं भवति । इदमित्थमेव प्रतिपत्तव्यम् । कुतः ? जिननिर्दिष्टमिति कारणात् इन्द्रियज्ञानगोचरत्वाभावात् तेषु । गुणकारेषु गुणितेषु लब्धं घनाङ गुलासंख्यातभागमात्रं वा ६ घनाङ्गुलसंख्यातभागमात्रं वा ६ घनाङ्गुलमात्रं वा । ६ । संख्यातधनाङ्गुलमात्र
१५ वा ६१ असंख्यातघनागुलमानं वा ६ । इत्यस्माभिर्न ज्ञायते ॥३३०॥
काण्डकका धन होता है। उसमें चतुरंकोंकी संख्या जो काण्डकसे गुणित रूपाधिक काण्डकके घन प्रमाण है, मिलानेपर रूपाधिक काण्डकके वर्गका वर्ग होता है। उवकोंकी संख्या काण्डकसे गुणित रूपाधिक काण्डकके वर्गके वर्ग प्रमाण है । इसमें शेष काण्डकोंको जोड़नेपर रूपाधिक काण्डकके वर्गका तथा घनका गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है,उतना होता है।
विशेषार्थ-एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागको दो जगह रख परस्पर में गुणा करनेसे जो परिमाण होता है , वह रूपाधिक काण्डकका वर्ग है और एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागको तीन जगह रख परस्पर में गुणा करनेसे जो प्रमाण होता है,वह रूपाधिक काण्डकका घन है। इस वर्गको और घनको परस्परमें गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है,
उतनी बार एक षट्स्थानमें अनन्त भागादि वृद्धियाँ होती हैं। जैसे पहले अंक संदृष्टि में आठका २५ अंक एक बार लिखा और सातका अंक दो बार लिखा। दोनों मिलकर तीन हुए। छहका
अंक छह बार लिखा। मिलकर तीनका वर्ग नौ हए। पाँचका अंक अठारह बार लिखा। मिलकर तीनका घन सत्ताईस हुए। चारका अंक चौवन बार लिखा। मिलकर तीनसे गुणित तीनका घन ३४ २७८१ इक्यासी हुए। उर्वक एक सौ बासठ लिखे। मिलकर तीनके वगसे
गुणित तीनका घन ९४ २७ = २४३ दो सौ तैंतालीस हुए। अंक संदृष्टिमें काण्डकका प्रमाण ३० दो है। यथार्थमें सूच्यंगलका असंख्यातवाँ भाग है।
इसको इसी प्रकार जानना,क्योंकि जिन भगवान्ने ऐसा कहा है। यह इन्द्रिय ज्ञानका विषय नहीं है । अतः उन गुणाकारोंसे गुणा करनेपर लब्ध घनांगुलका असंख्यातवाँ भाग मात्र है, अथवा घनांगुलका संख्यातवाँ भाग है, अथवा धनांगुल मात्र है अथवा असंख्यात घनांगुल मात्र है,यह हम नहीं जानते ॥३३०।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उक्कस्ससंखमेत्तं तत्तिचउत्थेक्कदालछप्पण्णं ।
सत्तदसमं व भागं गंतूण य लद्धियक्खरं दुगुणं ॥३३१॥ उत्कृष्टसंख्यातमात्र तत्रिचतुत्कचत्वारिंशत् षट्पंचाशत् सप्तदशमं वा भागं गत्वा च लब्ध्यक्षरं द्विगुणं ॥ रूपाधिककांडकगुणितांगुलसंख्यातभागमात्रवारंगळननंतभागवृद्धिस्थानंगळु २ २ मवर ५
a a मध्यदोछ सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रवारंगळनसंख्यातभागवृद्धिस्थानंगळु सलुत्तिरलु २ तदुभय
वृद्धियुक्तजघन्यद एकवारं संख्यातभागवृद्धिस्थानमुत्पन्नमक्कु ज १५ मुंद मत्तं मुं पेळ्द क्रमवृद्धिद्वयसहचरितंगळोळु संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानंगळुत्कृष्टसंख्यातमात्रंगळ सलुत्तमिरलु अल्लि प्रक्षेपकवृद्धियं कूडुत्तिरलु लब्ध्यक्षरं सर्वजघन्यमप्प पर्यायमें ब श्रुतज्ञानं साधिकमागि द्विगुणमक्कुमेके दोडे प्रक्षेपकदुत्कृष्टसंख्यातभाज्यभागहारंगळनपत्तिसि कूडिदोडे अदक्क द्विगुणत्वसंभव- १०
रूपाधिककाण्डकगुणितामुलासंख्यातभागमात्रवारान् अनन्तभागवृद्धिस्थानेषु अङ्गुलासंख्यातभागमात्रवारान् असंख्येयभागवृद्धिस्थानेषु च गतेषु तदुभयवृद्धियुक्तजघन्यस्य एकवारं संख्यातभागवृद्धिस्थानमुत्पद्यते ज १५ अग्रे पुनः प्रागुक्तक्रमवृद्धिद्वयसहचरितेषु संख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानेषु उत्कृष्टसंख्यातमात्रेषु गतेषु
१५ तत्र प्रक्षेपकवृद्धिषु युतासु लब्ब्यक्षरं सर्वजघन्यपर्यायाख्यं श्रुतज्ञानं साधिकद्विगुणं भवति । कुतः ? प्रक्षेपकस्य उत्कृष्टसंख्यातभाज्यभागहारानपवर्त्य युते तस्य द्विगुणत्वसंभवात् तत्त्रिचतुर्थं पूर्वोक्तसंख्यातभागवृद्धियुक्तोत्कृष्ट- १५
एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणित अंगुलके असंख्यात भाग बार अनन्त भाग वद्रियोंके होनेपर तथा अंगलके असंख्यात भाग बार असंख्यात भाग वढिके हो
नेपर उन दोनों वृद्धियोंसे युक्त जघन्य पर्याय ज्ञानका एक बार संख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थान उत्पन्न होता है। आगे पुनः पूर्वोक्त अनन्त भाग वृद्धि और असंख्यात भाग वृद्धिके साथ संख्यात भाग वृद्धिसे युक्त स्थानों के उत्कृष्ट संख्यात मात्र होनेपर उनमें प्रक्षेपक वृद्धियोंको २० जोड़नेपर लब्ध्यक्षर नामक सर्व जघन्य पर्याय श्रुतज्ञान साधिक दुगुना होता है। कैसे होता है यह बतलाते हैं-पूर्ववृद्धिके होनेपर जो साधिक जघन्य ज्ञान हुआ उसे अलग रखकर उस साधिक जघन्य ज्ञानमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर प्रक्षेपक होता है । तथा उत्कृष्ट संख्यात मात्र प्रक्षेपक है क्योंकि गच्छमात्र प्रक्षेपक वृद्धि होती है सो यहाँ उत्कृष्ट संख्यात मात्र संख्यात वृद्धि के स्थान हुए इसलिये उत्कृष्ट संख्यात मात्र प्रक्षेपक बढ़ाने है। सो यहाँ २५ उत्कृष्ट संख्यात मात्र प्रक्षेपक होनेसे उत्कृष्ट संख्यात ही गुणाकार हुआ। इस तरह गुणाकार भी उत्कृष्ट संख्यात और भागहार भी उत्कृष्ट संख्यात; क्योंकि साधिक जघन्य ज्ञानमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेसे प्रक्षेपक होता है । सो गुणाकार और भागहारका अपवर्तन करने पर साधिक जघन्य ज्ञान रहा । उस अलग रखे साधिक जघन्य ज्ञानमें मिलाने पर जघन्य ज्ञान साधिक दूना होता है। तथा 'तत्तिचउत्थ' अर्थात् पूर्वोक्त संख्यात भाग वृद्धि युक्त उत्कृष्ट ३०
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गो० जीवकाण्डे मुळ्ळ्दरिदं तत्रिचतुत्थं मुंपेळ्दसंख्यातभागवृद्धियुक्तोत्कृष्टसंख्यातमात्रस्थानंगळ त्रिचतुर्थभागस्थानंगळु सलुत्तं विरलल्लिय प्रक्षेपकमुं प्रक्षेपकप्रक्षेपकमें बेरडु वृद्धिगळं जघन्यदोळिक्कल्पडुत्तिरलु लब्ध्यक्षरं द्विगुणमक्कुमदेते दोडे प्रक्षेपकप्रक्षेपकद रूपोनगच्छदेकवारसंकलनधनप्रमितद
ज १५ । ३ । १५ । ३ ऋणमं बेरिरिसि ज १।३ अपत्तितधनमिदु ज ९ इदरोळोंदु रूपं१५ । १५ । ४।२।४।१
१५ ३२
तगेडु धनम बेरिरिसूिदु ज १ शेषापर्वात्ततधनं ज १ इदं प्रक्षेपकवृद्धियोळु ज ३ कूडिदोडे
३२
संख्यातमात्रस्थानानां त्रिचतुर्थभागस्थानानि नीत्वा तत्र प्रक्षेपकः प्रक्षेपकप्रक्षेपकश्चेति वृद्धिद्वये जघन्यस्योपरि युते लब्ध्यक्षरं द्विगुणं भवति । तद्यथा
प्रक्षेकप्रक्षेपकस्य रूपोनगच्छस्य एकवारसंकलनधनप्रमितस्य ज १५ ३ । १५ ३ ऋणं पृथककृत्य
१५ १५ ४ २ ४१
ज १ ३ शेषमपवर्त्य ज ९ एकरूपं पृथग न्यस्य ज १ शेषे ज ८ अपवर्त्य ज १ प्रक्षेपकवृद्धौ ज ३ १५ ३२ ३२
३२ ३२
१० संख्यात मात्र स्थानोंको चारसे भाग देकर उनमें-से तीन भाग प्रमाण स्थानोंके होनेपर प्रक्षे
पक और प्रक्षेपक-प्रक्षेपक इन दोनों वृद्धियोंको साधिक जघन्य ज्ञान में जोड़नेपर लब्ध्यक्षर ज्ञान साधिक दूना होता है । कैसे, सो कहते हैं-पूर्व वृद्धि होनेपर जो साधिक जघन्य ज्ञान हुआ उसमें दो बार उत्कृष्ट संख्यातसे भाग देनेपर प्रक्षेपक-प्रक्षेपक होता है। सो एक हीन
गच्छका संकलन धन मात्र प्रक्षेपक-प्रक्षेपककी वृद्धि यहाँ करनी है। पूर्वोक्त करण सूत्रके १५ अनुसार उस प्रक्षेपक-प्रक्षेपकको एक हीन उत्कृष्ट संख्यातके तीन चौथाई भागसे और उत्कृष्ट
संख्यातके तीन चौथाई भागसे गुणा करना और दो और एकसे भाग देना। ऐसा करनेपर साधिक जघन्यका एक हीन तीन गुणा उत्कृष्ट संख्यात और तीन गुणा उत्कृष्ट संख्यात तो गुणाकार हुआ तथा दो बार उत्कृष्ट संख्यात और चार दो, चार एक भागहार हुआ । एक
हीन सम्बन्धी ऋणराशि साधिक जघन्यको तीनका गुणाकार और उत्कृष्ट संख्यात तथा २० बत्तीसको भागहार करनेपर होती है। उसको अलग रखकर शेषका अपवर्तन करनेपर
साधिक जघन्यको नौसे गुणा और बत्तीससे भाग प्रमाण हुआ। साधिक जघन्यका चिह्न जं ऐसा है सो ज हुआ।
विशेषार्थ-यहाँ दो बार उत्कृष्ट संख्यातका गुणाकार और भागहारका अपवर्तन किया । गुणाकार तीन-तीनको परस्पर में गुणा करनेसे नौका गुणाकार हुआ और चार, दो, २५ चार एक भागहारको परस्परमें गुणा करनेसे बत्तीस भागहार हुआ। ऐसे ही अन्यत्र भी जानना । अस्तु।
__ इस ज में एक गुणाकार साधिक जघन्यका बत्तीसवाँ भाग है ज ३। इसको अलग रखकर शेष साधिक जघन्यको आठकागुणाकार और बत्तीसका भागहार रहा। इसका
अपवर्तन करनेपर साधिक जघन्यका चौथा भाग रहा ज१। प्रक्षेपक गच्छ प्रमाण है सो ३. साधिक जघन्यको एक बार उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेपर प्रक्षेपक होता है उसको उत्कृष्ट
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
साधिकजघन्यमक्कु ज मिदं मेलण साधिकजघन्यदोळकडुत्तिरलु लब्ध्यक्षरं द्विगुणसक्कुं ( + ओ अथवा ज २ ) प्रक्षेपक प्रक्षेपकदोलगण ऋणधनमं ज १ - नोडल मसंख्यातगुणहीनम दु
३२
किचिन्न्यूनं माडि शेषम ज १ - द्विगुणजघन्यदोळ्कूडिसाधिकं मादुवुदु ।
३२
एक्कदाळछप्पण्णं मुं पेद संख्यात भागवृद्धिस्थानंगर्ऋत्कृष्ट संख्यातप्रमितंगळोळ एकचत्वारिंशत् षटपंचाशद्भागमात्रं स्थानंगळु सलुत्तं विरल प्रक्षेपक प्रक्षेपकप्रक्षेपक वृद्धिद्वययोगदो साधिकजघन्यं द्विगुणमक्कुमल्लि प्रक्षेपकमिदु ज १५ । ४१ प्रक्षेपकप्रक्षेपकमिदु रूपोनगच्छद एकवार - १५ । ५६
संकलित धनमात्रं
। - 2
ज १५ । ४१ । १५ । ४१ १५ । १५ । ५६ । २ । १ । ५६
५५९
इल्लिय ऋणरूपं तेगेदु बेरिरिसुटु
ते सति साधिकजन्यं भवति ज । अस्मिन् पुनः उपरितनसाधिकजघन्ये युते सति लब्ध्यक्षरं द्विगुणं भवति
1
ज २ । प्रक्षेपक प्रक्षेपकागतऋणं घनतः संख्यातगुणहीनमिति किचिदूनं कृत्वा शेषं ज १ - द्विगुणजघन्ये संयोज्य
३२
साधिकं कुर्यात् । एक्कदालछप्पण्णं प्रागुक्तसंख्यातभागवृद्धियुक्तस्थानानां उत्कृष्टसंख्यातमितेषु एकचत्वारिंशत्- १० पट्पञ्चाशद्भागमात्रस्थानानि नीत्वा प्रक्षेपकप्रक्षेपकद्वययोगे साधिकजघन्यं द्विगुणं भवति तत्र प्रक्षेपकोऽयं -
ज १५ ४१ । प्रक्षेपकप्रक्षेपकस्तु रूपोनगच्छस्य एकबारसंकलितधनमात्रः । ज १५४११५ ४१ १५५६ १५ १५५६२५६१
संख्यातके तीन चौथे भागसे गुणा करना । सो उत्कृष्ट संख्यातगुणाकार भी और भागहार भी । उनका अपवर्तन करनेपर साधिक जघन्यका तीन चौथाई भाग मात्र प्रमाण रहा । इसमें पूर्वोक्त एक चौथा भाग जोड़नेपर साधिक जघन्य मात्र वृद्धिका प्रमाण होता है । इसमें १५ मूल साधिक जघन्य ज्ञानको जोड़नेपर लब्ध्यक्षर दूना होता है । यहाँ प्रक्षेपक प्रक्षेपक सम्बन्धी ऋण राशि धन राशिसे संख्यात गुणी कम है, इसलिए साधिक जघन्यका बत्तीसवाँ भाग मात्र धनराशि में ऋणराशि घटानेके लिए कुछ कम करके शेषको पूर्वोक्त द्विगुणित जघन्य में जोड़ने पर साधिक दूना होता है ।
'एक्कदालछप्पणं' अर्थात् पूर्वोक्त संख्यात वृद्धि युक्त उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण स्थानोंमें- २० से इकतालीस बटे छप्पन प्रमाण स्थान होनेपर प्रक्षेपक तथा प्रक्षेपक प्रक्षेपक वृद्धियोंको उसमें जोड़ने पर लब्ध्यक्षर दूना होता है । इसको स्पष्ट करते हैं-साधिक जघन्यको उत्कृष्ट संख्यातसे भाग देने पर प्रक्षेपक होता है । सो प्रक्षेपक गच्छमात्र है । इससे इसको उत्कृष्ट संख्यात तथा इकतालीस बटे छप्पनसे गुणा करनेपर उत्कृष्ट संख्यातका अपवर्तन हो जाता है, अतः साधिक जघन्यको इकतालीसका गुणाकार और छप्पन भागहार होता है । यथा - २५ जं १५ ४१ । तथा प्रक्षेपक प्रक्षेपक एक हीन गच्छका एक बार संकलन धन मात्र है । सो १५५६
पूर्वोक्तकरण सूत्र के अनुसार साधिक जवन्यको दो बार उत्कृष्ट संख्यातसे भाग देनेपर प्रक्षेपक प्रक्षेपक होता है। उसको एक हीन इकतालीस गुणा उत्कृष्ट संख्यात और इकतालीस
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गो० जीवकाण्डे
ज १। ४१ १५ । ११२। ५६
अपत्तितप्रक्षेपकप्रक्षेपक ज १६ ८१
११२। ५६
इल्लि एकरूपं धनम बेरिरिसुवुदु
ज १ शेषमनु ज १६ । ८० अपत्तिसलु ज १५ इदं प्रक्षेपकदोळु ज ४१ ११२। ५६ ११२। ५६
कूडिदोडे
ज ५६ अपत्तितंजघन्यमक्कुमदनुपरितनजघन्यदोळ्कूडिदडे लब्ध्यक्षां द्विगुणमक्कु ज २।
११२। ५६
मुन्निरिसिद धनदोळु ज १ इदं नोडलु संख्यातगुणहोनमप्प ऋणमं ज । ४१
१५। ११२ । ५६ ५ किंचिदूनमं माडि शेषमं ज १ - द्विगुणजघन्यदोळु कूडिदोडे साधिकमक्कुव ज २ सत्तदसमं
११२। ५६
अत्रतनं ऋणं अपनीय पृथक् संस्थाप्य ज १ ४१ । शेषं अपवर्त्य ज १६ ८१ । एकरूपं धनं पृथग्धृत्य १५ ११२ ५६
११२ ५६
अपवयं ज १५ प्रक्षेपके निक्षिप्य ज ५६ अपवर्तिते जघन्यं भवति ।
११२ ५६
शेषं ज १६ ८०
११२ ५६
५६
ज। अस्मिन् पुनः उपरितनजघन्ये युते सति लब्ध्यक्षरं द्विगुणं भवति । ज २। इदमेव पृथक्स्थापितधनेन
ज १
इतः संख्यातगुणहीनऋणेन ज १ ४१ किंचिदूनीकृतेन ज १- साधिकं कुर्यात ज २। १५ ११२ ५६
११२ ५६ .
१० गुणा उत्कृष्ट संख्यातका गुणाकार तथा छप्पन, दो, छप्पन एकका भागहार होता है। यहाँ
एक हीन सम्बन्धी ऋण साधिक जघन्यको इकतालीसका गणाकार और उत्कृष्ट संख्यात, एक सौ बारह और छप्पनका भागहार मात्र है-यथा जं १४४१ । सो इसको अलग रखकर
१५ । ११२ । ५६ शेषमें दो बार उत्कृष्ट संख्यातका अपवर्तन करनेपर साधिक जघन्यको सोलह सौ इक्क्यासीका गुणाकार और एकसौ बारह गुणा छप्पनका भागहार होता है; यथा ज १६८१ । यहाँ
११२४५६ २५ गुणाकारमें इकतालीस-इकतालीस थे, उन्हें परस्परमें गुणा करनेपर सोलह सौ इक्यासी हुए और
भागहारमें छप्पनको दोसे गुणा करनेपर एकसौ बारह हुए तथा दूसरे छप्पनको एकसे गुणा करने पर छप्पन हुए । गुणाकारमें एक अलग रखा, उसका धन साधिक जघन्यको एकसौ बारह गुणा छप्पनका भागहार मात्र होता है। शेष रहे साधिक जघन्यको सोलहसौ
अस्सीका गुणाकार और एकसौ बारह गुणा छप्पनका भागहार । यथा एक ऋणका धन ३० ज १ शेष। ज १६८० । इसमें एकसौ बारहसे अपवर्तन करनेपर साधिक जघन्यको
११२४५६ ११२४५६ पन्द्रहका गुणाकार और छप्पनका भागहार रहा-ज। इसमें प्रक्षेपकका प्रमाण जघन्यको
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५६१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका व भागं वा अथवा संख्यातभागवृद्धिस्थानंगळुत्कृष्टसंख्यातमात्रंगळोळ सप्तदशमभागमानंगळु सलुत्तिरलु प्रक्षेपक प्रक्षेपकप्रक्षेपक पिशुलिगळेब मूरुं वृद्धिगळं कूडुत्तिरलु साधिकजघन्यं द्विगुणमक्कुमदेते दोडे प्रक्षेपकं ज १५।७ प्रक्षेपकप्रक्षेपकं रूपोनगच्छद एकवारसंकलितधनमात्रं
१५ । १०
ज १५ । ७ । १५ । ७ १५ । १५ । १० । २।१०।१।।
पिशुलिद्विरूपोनगच्छद्विकवारसंकलितधनमात्रं
ज १५। ७।१५।७।१५।७ ई मूरुं वृद्धिगळोळु पिशुलिय प्रथम ऋणमं बेरिरिसि ५ । १५।१५। १५ । १०।३।१०।२।१०।१
ज२ १५।७।७ शेषधनमपत्तितमिदु ज १५ । ७ । ४९ १५।१५।१६।१०।१०।१०
१५।१०।६०००
इदरोळु इनितु ऋणमं
'सत्तदसमं च भार्ग' वा अथवा संख्यातभागवृद्धिस्थानानां उत्कृष्टसंख्यातमात्रेषु मध्ये सप्तदशमभागमात्रेषु गतेषु प्रक्षेपक-प्रक्षेपकप्रक्षेपक-पिशुलिसंज्ञवृद्धित्रये प्रक्षिप्ते साधिकजघन्यं द्विगुणं भवति । तद्यथा प्रक्षेपकः
ज १५ ७। प्रक्षेपकप्रक्षेपको रूपोनगच्छस्य एकवारसंकलितधनमात्र: ज १५ ७ १५ १०
१५ १५ १०
१५ ७।
२ १० । १
१०
पिशुलिः द्विरूपोनगच्छस्य द्विकवारसंकलितधनमात्रः ज १५७ । १५ ७ । १५ ७
१५ १५ १५ १०। ३ । १० । २।१०।१ तद्धित्रयमध्ये पिशुलेः प्रथमऋणं पृथक् संस्थाप्य ज
२ १५ ७ ।
१५ । १५ । ६ । १० । १० । १० ।
इकतालीसका गुणाकार और छप्पनका भागहार मिलानेपर अपवर्तन करनेपर साधिक जघन्य मात्रवृद्धिका प्रमाण रहा। इसमें मूल साधिक जघन्य जोड़नेपर लब्ध्यक्षर ज्ञान दूना होता है । यहाँ प्रक्षेपक-प्रक्षेपक सम्बन्धी धनसे ऋग संख्यात गुणा कम है। अतः किंचित् उन धनराशिको अधिक करनेपर साधिक दूना होता है।
'सत्तदसमं च भागं वा' अथवा संख्यात भाग वृद्धि युक्त उत्कृष्ट संख्यात मात्र स्थानोंमें-से सात बटे दस भाग मात्र स्थानोंके होनेपर उसमें प्रक्षेपक-प्रक्षेपक, और पिशुलि नामक तीन वृद्धियोंके जोड़नेपर साधिक जघन्य ज्ञान दूना होता है। वही आगे कहते हैंसाधिक जघन्यको एक बार उत्कृष्ट संख्यातसे भाग देनेपर प्रक्षेपक होता है, वह गच्छ मात्र है।अतः इसको उत्कृष्ट संख्यातके सात बटे दसर्व भागसे गुणा और उत्कृष्ट संख्यातसे भाग २ देनेपर साधिक जघन्यको सातका गुणाकार और दसका भागहार होता है । प्रक्षेपक-प्रक्षेपक
१. संदृष्टेरयमप्याकारः- २ १५ । । ७
१५ १५ ६०० । १० । १ ७१
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५६२
गो० जीवकाण्डे
ज १।४९ बेरिरिसि अपतिसिदोडिनितक्कुं ज ३४३ इदरोळु पदिमूरु रूपगळं तेगेदिरि१५। ६०००
६०००
सुवुदु ज १३ शेषमिदु ज ३३० अपत्तितमिदु ज ११ इल्लि धन ज १३ मिदरोळु
६०००
६०००
२०।१०
६०००
प्रथमद्वितीयऋणंगळु संख्यातगुणहीनंगळेदु किंचिदूनं माडि ज १३= मत्तं प्रक्षेपकप्रक्षेपक
६०००
ज १५।७।७ ऋणमिनितक्कु ज १७ मिदं बेरिरिसि ज १५। ७ । ७ अपत्तितमिदु १५ । २।१०।१०
१५ । २००
१५। २०० ५ ज ४९ इदरोळु मुन्निन पिशुलिधनमनेकादशरूपं कूडुत्तिरलुभयधनमिदु ज ६० अपत्तितमिदु २०।१०
२००
शेषघनमपवर्त्य ज १५ ७ । ४९ अत्रस्थमृणं ज १ ४९
१५ १० ६००
पृथक्संस्थाप्य शेषमपवर्त्य ज ३४३ ।
इतस्त्रयोदशरूपाण्यपनीय पृथक्संस्थाप्य ज १३ । शेषं ज ३३० । अपवर्त्य ज ११ एकत्र संस्थाप्य
६००० ६०००
२०१०
अस्य प्राक् पृथग्धृतधने ज १३ प्रथमद्वितीयऋणं संख्यातगुणहीनमिति किंचिदूनं कृत्वा ज १३-। एकत्र
६०००
६०००
संस्थाप्य पुनः प्रक्षेपकप्रक्षेपके ज १५ ७। ७। ऋणं ज १ ७ । पृथक् संस्थाप्य शेषं ज १५ ७ ७। १५ २ १० । १० । १५ २००
१५ २००
१० एक हीन गच्छका एक बार संकलन धन मात्र है सो साधिक जघन्यको दो बार उत्कृष्ट
संख्यातसे भाग देनेपर प्रक्षेपक-प्रक्षेपक होता है । उसका पूर्व सूत्रानुसार एक हीन सात गुणा उत्कृष्ट संख्यातका तथा सात गुणा उत्कृष्ट संख्यातका गुणाकार और दस, दो तथा दस एक भागहार हुआ। पिशुलि दो हीन गच्छका दो बार संकलित धन मात्र होती है। सो साधिक
जघन्यको तीन बार उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेसे पिशुलि होती है। उसको पूर्व सूत्रानुसार १५ दो हीन और सातसे गुणित उत्कृष्ट संख्यात और एक हीन तथा सातसे गुणित उत्कृष्ट
संख्यात व सात गुणित उत्कृष्ट संख्यात गुणाकार तथा दस, तीन, दस दो, दस एक भागहार होते हैं। इनमें पिशुलिके गुणाकार में दो कम किये थे, उस सम्बन्धी प्रथम ऋणका प्रमाण साधिक जघन्यको दोका और एक हीन तथा सातसे गुणित उत्कृष्ट संख्यातका तथा सात
गुणा उत्कृष्ट संख्यातका गुणाकार तथा दो बार उत्कृष्ट संख्यातका और छहका और तीन २० बार दसका भागहार करनेपर होता है। उसको अलग स्थापित करके शेषका अपवर्तन करने
पर साधिक जघन्यको एक हीन सात गुणा उत्कृष्ट संख्यातका तथा उनचासका तो गुणाकार हुआ और उत्कृष्ट संख्यात छह हजारका भागहार होता है। यहाँ गुणाकार में एक हीन है ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
1
।
ज ३ इदं प्रक्षेपकदो कूडिदोर्ड ज १० अपर्वात्ततमिदु ज इदरोळ संख्यात गुणहीनमप्प
१०
१०
प्रक्षेपक प्रक्षेपकॠणमं किचिदूनं माडि धनमं
१६३
1
ज १३ = साधिकं माडि मेलण जघन्यदोळु
६०००
1
कूडिदोडे लब्ध्यक्षरं द्विगुणमक्कुं ज २ मुन्नं प्रक्षेपकप्रक्षेपकधनदोळु बेरिरिसिद ज १३ त्रयोदश
६००
रूपधनदोतन्न संख्यात भागमात्र ऋण रहितधनमं साधिकं माडुवुदु | अंतु माडुत्तिरलु साधिकद्विगुणलब्ध्यक्षरमक्कुं ज २ । मोदलोळत्कृष्ट संख्यातगुणित संख्यात भागद सप्तदशमभागमात्रगळु
I
ज १५ । ७ संख्यात भागवृद्धियुक्तस्थानंगळ पिशुलिपर्यंतमागि नडदु लब्ध्यक्षरं द्विगुणमक्कुं ।
१५ । १०
T
I
अपवर्त्य ज ४९ । प्राक्तनपिशुलिधनैकादशरूपाणि मेलयित्वा जं ६० । अपवर्त्य इदं ज ३ । प्रक्षेपके
२००
२००
१०
1
1
ज ७ । संयोज्य ज १० । अपवत्येंद ज प्राक्पृथग्वृतकिंचिदूनत्रयोदशरूपैः संख्यातगुणहीनप्रक्षेपकप्रक्षेपक१०
१०
ऋणेन पुनः किंचिदूनितैः ज १३ = | साधिकं कृत्वा उपरितनजघन्ये युते सति लब्ध्यक्षरं द्विगुणं भवति ।
६०००
ज २ । प्रथमतः उत्कृष्ट संख्यातगुणित संख्यात भागस्य सप्तदशमभागमात्रेषु ज १५ । ७ संख्यात भागवृद्धियुक्त- १०
१५ । १०
उस सम्बन्धी द्वितीय ऋणका प्रमाण साधिक जघन्यको उनचासका गुणाकार तथा उत्कृष्ट संख्यात और छह हजारका भागहार करनेपर होता है । उसको अलग रखकर शेषका अपवर्तन करनेपर साधिक जघन्यको तीन सौ तैंतालीसका गुणाकार और छह हजारका भागहार होता है । यहाँ गुणाकार में तेरह कम करके अलग रखना । उसमें साधिक जघन्यको तेरहका गुणाकार और छह हजारका भागहार जानना । शेष साधिक जघन्यको तीन सौ तीसका गुणाकार और छह हजारका भागहार रहा । तीससे अपवर्तन करनेपर साधिक जघन्यको ग्यारहका गुणाकार और दस गुणित बीसका भागहार हुआ । उसे एक जगह स्थापित करना । यहाँ गुणाकार में से तेरह कम करके जो अलग स्थापित किये थे, उस सम्बन्धी प्रमाणसे प्रथम द्वितीय ऋण सम्बन्धी प्रमाण संख्यात गुणा कम है। इसलिए कुछ कम करके साधिक जघन्य किंचित् कम तेरह गुणाको छह हजारसे भाग देनेपर इतना शेष रहा सो अलग रहे । तथा प्रक्षेपक प्रक्षेपक सम्बन्धी गुणाकार में एक घटाया था, उस सम्बन्धी ऋणका प्रमाण साधिक जघन्यको सातका गुणाकार और उत्कृष्ट संख्यात तथा दो सौका भागहार किये होता है । उसको अलग रखकर शेष पूर्वोक्त प्रमाण साधिक जघन्यको उत्कृष्ट संख्यातका गुणाकार और
२०
१५
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________________
गो० जीवकाण्डे
५६४ मत्तं मुंदे मुंद तदेकचत्वारिंशत् षट्पंचाशत् भागद प्रक्षेपकप्रक्षेपकावसानमागि नडदु लब्ध्यक्षरं द्विगुणमक्कुंज २ मुंदेयु संख्यातभागवृद्धिप्रथमस्थानं मोदल्गो डुत्कृष्टसंख्यातद त्रिचतुर्थभागमात्रस्थानंगळु ज १५ । ३ प्रक्षेपकप्रक्षेपकावसानमागि सलुत्तं विरलु लब्ध्यक्षरं द्विगुणमक्कु । ज २। मत्तमंते संख्यातभागवृद्धिस्थानंगळु प्रथमस्थानंगल मोदल्गोंडुत्कृष्टसंख्यातमात्रंगळु प्रक्षेपकावसानमागि नडदल्लियु ज १५ लब्ध्यक्षरं द्विगुणमक्कुमिल्लि साधिकजघन्यं द्विगुणमादोडं पर्यायसमासमध्यमविकल्पगत श्रुतज्ञानमुपचारदिदं लब्ध्यक्षरं मेंदु पेळल्पटुदेकें दोर्ड पर्यायज्ञानमप्प
१५॥ ४
स्थानेषु पिशुलिपर्यन्तेषु गतेषु लब्ध्यक्षरं द्विगुणं भवति ज २ । पुनस्तस्यैव एकचत्वारिंशत्षट्पञ्चाशद्भागस्य प्रक्षेपकावसानेषु गतेषु लब्ध्यक्षरं द्विगुणं भवति ज २ । अग्रेऽपि संख्यातभागवृद्धिप्रथमस्थानमादि कृत्वा उत्कृष्टसंख्यातस्य त्रिचतुर्थभागमात्रेषु ज १५ ३ । प्रक्षेपकप्रक्षेपकावसानेषु गतेषु लब्ध्यक्षरं द्विगुणं भवति ज २ ।
१५ ४
पुनस्तथा संख्यातभागवृद्धिस्थानेषु प्रथमस्थानमादि कृत्वा उत्कृष्टसंख्यातमात्रेषु प्रक्षेपकावसानेषु गतेषु ज १५
लब्ध्यक्षरं द्विगुणं भवति । ननु साधिकजघन्यं द्विगुणं तदा पर्यायसमासमध्यमविकल्पगतं श्रुतज्ञानं उपचारेण
दो बार सातका गुणाकार तथा उत्कृष्ट संख्यात, दस, दो, दस एकका भागहार रखकर अपवर्तन तथा परस्पर गुणा करनेपर साधिक जघन्यको उनचासका गुणाकार और दो सौका
भागहार हुआ। इसमें पूर्वोक्त पिशुलि सम्बन्धी ग्यारह गुणाकार मिलानेपर साधिक जघन्य१५ को साठका गुणाकार और दो सौका भागहार हुआ । यहाँ बीससे अपवर्तन करनेपर साधिक
जघन्यको तीनका गुणाकार और दसका भागहार हुआ। इसमें प्रक्षेपक सम्बन्धी प्रमाण साधिक जघन्यको सातका गुणाकार और दसका भागहार जोड़े,तो दससे अपवर्तन करनेपर वृद्धिका प्रमाण साधिक जघन्य होता है। इसमें मूल साधिक जघन्य जोड़नेपर लब्ध्यक्षर
दूना होता है। तथा पहले पिशुलि सम्बन्धी ऋण रहित धनमें किंचित् कम तेरहका गुणकार २० था,उसमें प्रक्षेपक-प्रक्षेपक सम्बन्धी ऋण संख्यात गुणा हीन है । उसको घटानेके लिए किंचित्
कम करनेपर जो साधिक जघन्यको दो बार किंचित् कम तेरहका गुणाकार और छह हजारका भागहार हुआ सो इतना प्रमाण पूर्वोक्त दूना लब्ध्यक्षरमें जोड़नेपर साधिक दूना होता है। इस तरह प्रथम तो संख्यात भाग वृद्धि युक्त स्थानों में उत्कृष्ट संख्यात मात्र स्थानोंका सात
|भाग प्रमाण स्थान पिशलि वृद्धि पर्यन्त होनेपर लब्ध्यक्षर ज्ञान दना होता है। दसरे. २५ उस हीके इकतालीस बटे छप्पन भाग प्रमाण स्थान प्रक्षेपक-प्रक्षेपक वृद्धि पर्यन्त होनेपर
लब्ध्यक्षर ज्ञान दूना होता है। आगे भी संख्यात भागवृद्धिके पहले स्थानसे लेकर उत्कृष्ट संख्यात मात्र स्थानोंका तीन बटे चार भाग मात्र प्रक्षेपक-प्रक्षेपक वृद्धि पर्यन्त होनेपर
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५६५
५६५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मुल्यलब्ध्यक्षरक्के समीपतित्वदिदं । नडे नडेदे दितु वीप्साय॑ज्ञापकं च शब्दमक्कं ।
एवं असंखलोगा अणक्खरप्पे हवंति छट्ठाणा ।
ते पज्जायसमासा अक्खरगं उवरि बोच्छामि ॥३३२॥ एवमसंख्यलोकान्यनक्षरात्मके भवंति षट्स्थानानि । तानि पर्यायसमासा अक्षरगमुपरि वक्ष्यामि ॥
इंती पेळ्द प्रकादिदमनक्षरात्मकमप्प पर्यायसमासज्ञानविकल्पसमूहदोळु षट्स्थानानि षट्स्थानवारंगळऽसंख्यातलोकमानंगळप्पुवु तत्प्रमाणमं साधिसुव त्रैराशिकमिदु। एत्तलानुमिनितोळवु स्थानविकल्पंगळ्गों दुषट्स्थानं पडेयल्पडुतिरलागळिनितु स्थानविकल्पंगळनक्षरात्मकज्ञानविकल्पंगळसंख्यातलोकमानंगळेनितोळवु षट्स्थानवारंगळप्पुर्वेटु त्रैराशिकं माडि प्र२२२२२
a da a a प १ इza प्रमाणराशियिदमिच्छाराशिय भागिसुतिरलु तल्लब्धप्रमितषट्स्थानवारंगळप्पुवु १०
लब्ध्यक्षरं कथमुक्तं ? इति चेत् पर्यायज्ञानस्य मुख्यलब्ध्यक्षरस्य समीपवर्तित्वात् । चशब्दः गत्वागत्वेति वीप्सार्थ ज्ञापयति ॥३३१॥
एवमुक्तप्रकारेण अनक्षरात्मके पर्यायसमासज्ञानविकल्पसमूहे षट्स्थानवारा असंख्यातलोकमात्रा भवन्ति तद्यथा-यद्येतावतामनक्षरात्मकज्ञानविकल्पानां एक षट्स्थानं लभ्यते तदा एतावतामनक्षरात्मकश्रुतज्ञानविकल्पानामसंख्यातलोकमात्राणां कति षट्स्थानवारा लभ्यन्ते । इति त्रैराशिकं कृत्वा
१५
प्र २ २ २ २ २
a a a a .
१ । इस प्रमाणराशिना इच्छाराशौ भक्ते यल्लब्धं तावन्तः
whava
लब्ध्यक्षर ज्ञान दूना होता है। इसी तरह संख्यात भाग वृद्धिके पहले स्थानसे लेकर उत्कृष्ट संख्यात स्थान मात्र प्रक्षेपक वृद्धि पर्यन्त होनेपर लब्ध्यक्षर ज्ञान दूना होता है।
शंका-साधिक जघन्य ज्ञान दूना हुआ कहा। सो साधिक जघन्य ज्ञान तो पर्याय समास ज्ञानका मध्य भेद है । यहाँ लब्ध्यक्षर दूना हुआ,ऐसे कैसे कहा? ।
समाधान-मुख्य लब्ध्यक्षर जो पर्याय ज्ञान है, उसका समीपवर्ती होनेसे उपचारसे। पर्याय समासके भेदको भी लब्ध्यक्षर कहा है ।।३३१॥
___ उक्त प्रकारसे अनक्षरात्मक पर्याय समास ज्ञानके भेदोंके समूहमें असंख्यात लोक मात्र बार षट्स्थान होते हैं । वही कहते हैं-यदि इतने अर्थात् एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यात भागके वर्गसे उसहीके घनको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतने भेदोंमें एक बार षट्स्थान २५ होता है,तो असंख्यात लोक प्रमाण पर्याय समासके भेदोंमें कितने बार षट्स्थान होंगे! इस प्रकार त्रैराशिक करनेपर प्रमाण राशि एक अधिक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागके वर्गसे गुणित उस ही के धन प्रमाण है, फलराशि एक, इच्छाराशि असंख्यात लोक मात्र पर्याय समासके स्थान । यहाँ फलसे इच्छाको गुणाकर उसमें प्रमाण राशिसे भाग देनेपर जो लब्ध राशि आवे,उतनी ही बार सब भेदोंमें षट्स्थान पतित वृद्धि होती है। इस प्रकार असंख्यात लोक ३०
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५६६
गो. जीवकाण्डे = a इंती प्रकारदिदमसंख्यातलोकमात्रवारषट्स्थानवृद्धिर्गाळद संवृद्धंगळप्पनंतभाग'२२२२२ वृद्धियुक्तजघन्यज्ञानविकल्पं मोदल्गोंडु सर्वचरमोव्वंकवृद्धियुक्तसर्बोत्कृष्टज्ञानावसानमाद असंख्यातलोकमात्रंगळप्प ज्ञानविकल्पंगळे नितोळवनितुं पर्यायसमासज्ञानविकल्पंगळप्पुवे बुदत्यं । उवरि इल्लिद मेले अक्षरगं अक्षरगतज्ञानमप्प श्रुतज्ञानमं वक्ष्यामि पेळ्द। अनंतरमक्षरगतश्रुतज्ञानमं पेकदपं।
चरिमुव्वंकेणवहिद अत्थक्खरगुणिदचरिममुब्वंकं ।
अत्थक्खरं गाणं होदित्ति जिणेहि णिद्दिद्वं ॥३३३।। चरमोर्वकेनापहृतार्थाक्षर गुणितचरमउव्वंकः । अक्षरंतु ज्ञानं भवतीति जिननिद्दिष्टं ॥
पायसमासज्ञानविकल्पंगळ संबंधिगळप्पसंख्यातलोकमात्रवारषट्स्थानंगळोळु भागवृद्धिगुणवृद्धियुक्तास्थानंगळोळु तवृद्धिनिमित्तंगळप्प संख्याताऽसंख्यातानंतंगळवस्थितंगळु प्रतिनियतप्रमाणंगळप्पुरदं चरमषट्स्थानद चरमोव्वंकदिदं मुंदणष्टांकवृद्धियुक्तस्थानमाक्षरश्रुतज्ञानमप्पुरिदमा पूर्वप्रतिनियताष्टांकप्रमाणमल्तीयष्टांक विलक्षणमप्पुदंदु पेन्दपं । असंख्यातलोक
षट्स्थानवारा भवन्ति २ २ २ २ २ एवमनेन प्रकारेण असंख्यातलोकवारषट्स्थानवृद्धिसंवृद्धा
a a a a अनन्तभागवृद्धियुक्तजघन्यज्ञानविकल्पमादिं कृत्वा सर्वचरमोर्वङ्कवृद्धियुक्तसर्वोत्कृष्टज्ञानावसाना असंख्यातलोक१५ मात्रा ज्ञानविकल्पा यावन्तस्तावन्तः पर्यायसमासज्ञानविकल्पा भवन्ति इत्यर्थः । इत उपरि अक्षरगतं श्रुतज्ञानं वक्ष्यामि ।।३३२॥ अथाक्षरगतं श्रुतज्ञानं प्ररूपयति
पर्यायसमासज्ञानविकल्पसम्बन्धिषु असंख्यातलोकमात्रवारषट्स्थानेषु भागवृद्धिगुणवृद्धियुक्तेषु तवृद्धिनिमित्तसंख्यातासंख्यातानन्ता अवस्थिताः प्रतिनियतप्रमाणा भवन्ति इति चरमषट्स्थानस्य चरमोर्वङ्कतो
ऽग्रेतनमष्टाङ्कवृद्धियुक्तस्थानं अर्थाक्षरश्रुतज्ञानं भवति इति तत्पूर्वकप्रतिनियताष्टाङ्कप्रमाणं अत्रतनाष्टाङ्कविल. क्षणमिति कथयति
बार षट्स्थान वृद्धिसे बढ़े हुए पर्याय समास ज्ञानके विकल्प होते हैं । सो अनन्त भाग वृद्धिसे युक्त जघन्य ज्ञानके विकल्पसे लेकर सबसे अन्तिम उर्वक नामक अनन्त भाग वृद्धि युक्त सबसे उत्कृष्ट ज्ञान पर्यन्त असंख्यात लोक मात्र ज्ञानके विकल्प होते हैं। वे सब पर्याय समास ज्ञानके विकल्प हैं । यहाँसे आगे अक्षरात्मक श्रुतज्ञानको कहेंगे ॥३३२॥
अब अक्षरश्रुतज्ञानको कहते हैं
पर्याय समास ज्ञानके विकल्प सम्बन्धी असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान भाग वृद्धि और गुणवृद्धिको लिये हुए हैं। उनमें वृद्धिके निमित्त संख्यात, असंख्यात और अनन्त अवस्थित हैं, उनका प्रमाण निश्चित है। अर्थात् संख्यातका प्रमाण उत्कृष्ट संख्यात मात्र,
असंख्यातका प्रमाण असंख्यात लोक मात्र और अनन्तका प्रमाण जीवराशि मात्र निश्चित ३० है। अन्तिम षस्थानका अन्तिम उर्वक जो अनन्त भाग वृद्धिको लिए हुए पर्याय समास
ज्ञानका सर्वोत्कृष्ट भेद है, उससे आगेका अष्टांक अर्थात् अनन्त गुण वृद्धि युक्त स्थान अर्था
०५
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५६७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मात्रवारषट्स्थानंगळ आवुदोंदु चरमषट्स्थानमदर चरमोम्वंकवृद्धियुक्तसर्बोत्कृष्टपव्यसमासज्ञानमष्टांकदिदमोम्म गुणिसिदुदरोरन्नमप्पुदक्षिरज्ञानमष्टांकवृद्धियुक्तस्थानमें बुदर्थमदें तप्पु दरोडे रूपोनेकट्ठमात्राऽपुनरुक्ताक्षरसंदर्भरूप द्वादशांगश्रुतस्कंधजनितार्थज्ञानं श्रुतकेवलमेंदु पेळल्पदुदु । के। ई श्रुतकेवलज्ञानं रूपोनेकटुमात्राऽपुनरुक्ताक्षरप्रमादिदं भागिसुत्तिरलु अाक्षररूपमप्पेकाक्षरप्रमाणमक्कु के मो याक्षरमं सर्वोत्कृष्टपर्यायसमासज्ञानमप्प चरमोव्वंकदिद भागिसुत्तिरलु ५
१८चरमोवंकम गुणिसिदष्टांकप्रमाणमक्कु मदु कारणदिंद मिन्ना अक्षरश्रुतज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं चरमोवंकापहृत अाक्षररूपाष्टांकदिदं गुण्यरूपमप्प चरमोव्वंकमं गुणिसुत्तिरलु तु पुनः अर्थाक्षरज्ञानं भवतीति अक्षरज्ञानं युक्ति युक्तमप्पुबेदु जिनैन्निद्दिष्टं जिनोक्तमक्कुमिदंत्यदीपकमल्ला चतुरंकादियष्टांकावसानमाद षट्स्थानंगळ भागवृद्धियुक्तस्थानंगलं गुणवृद्धियुक्तस्थानंगळू तंतम्म पिंदणानंतरोव्वंकवृद्धियुक्तस्थानमं भागिसियं गुणिसियुं यथासंख्यं चतुरंकपंचांकंगळ षट्सप्ताष्टांकंगळ १०
___ असंख्यातलोकमात्रवारषट्स्थानेषु यच्चरमं षट्स्थानं तस्य चरमोर्वङ्करूपवृद्धियुक्तसर्वोत्कृष्टपर्यायसमासज्ञानं अष्टाङ्कन एकवारं गुणिते समुत्पन्न अर्थाक्षरज्ञानं अष्टाङ्कवृद्धि युक्तस्थानमित्यर्थः । तत् कियद् ? रूपोनकट्ठमात्राऽपुनरुक्ताक्षरसन्दर्भरूपद्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धजनितार्थज्ञानं श्रुतकेवलमित्युच्यत । के । इदं श्रुतकेवलज्ञानं रूपोनैकट्ठमात्रापुनरुक्ताक्षरप्रमाणेन भक्तं सत् अर्थाक्षररूपमेकाक्षरप्रमाणं भवति के इदमर्याक्षरं सर्वोत्कृष्ट
१८
पर्यायसमासज्ञानरूपोर्वकेन भक्तं सच्चरमोर्वगुणिताष्टाङ्कप्रमाणं भवति ततः कारणादिदानीं तदर्थाक्षरश्रुत- १५ ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं चरमोर्वश्रापहृताक्षररूपाष्टाङ्ग्रेन गुण्यरूपे चरमोर्वके गुणिते तु-पुनः अर्थाक्षरज्ञानं युक्तियुक्तं भवति इति जिननिर्दिष्टम् । इदमन्त्यदीपकं इति सर्वाण्यपि चतुरङ्काद्यष्टाङ्कावसानानि षट्स्थानानां भागवृद्धियुक्तस्थानानि गुणवृद्धियुक्तस्थानानि च स्वस्वपूर्वानन्तरोर्वङ्कवृद्धियुक्तस्थानेन भक्त्वा पुनस्तेनैव गुणयित्वा क्षर श्रुत ज्ञान होता है । पहले जो अष्टांकका प्रमाण जीवराशि मात्र गुणा कहा है,उससे यहाँ जो अष्टांक है,उसका प्रमाण वह नहीं है विलक्षण है,यह कहते हैं
२० ____असंख्यात लोक मात्र षट्स्थानों में जो अन्तिम षट्स्थान है,उसके अन्तिम उर्वक रूप वृद्धिसे युक्त सर्वोत्कृष्ट पर्यायसमास ज्ञानको एक बार अष्टांकसे गुणा करनेपर अर्थाक्षर श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इससे उसे अष्टांक वृद्धि युक्त स्थान कहते हैं। उस अष्टांकका कितना प्रमाण है,यह बतलाते हैं एक कम एकही मात्र अपुनरुक्त अक्षरोंकी रचना रूप द्वादशांग श्रुतस्कन्धसे उत्पन्न हुए ज्ञानको श्रुत केवलज्ञान कहते हैं। इस त केवल ज्ञानको एक २५ कम एकट्ठी मात्र अपुनरुक्त अक्षरोंके प्रमाणसे भाग देनेपर अर्थाक्षर रूप एक अक्षरका प्रमाण होता है। इस अर्थाक्षर में सबसे उत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञान रूप उर्वकसे भाग देनेपर अन्तिम उवकके गुणकार रूप अष्टांकका प्रमाण होता है । अर्थात् अर्थाक्षर ज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदोंका जितना प्रमाण है, उसमें सर्वोत्कृष्ट पर्याय समास ज्ञानके भेद रूप उर्वकके अविभाग प्रतिच्छेदोंके प्रमाणका भाग देनेपर जितना प्रमाण आता है,वही यहाँ अष्टांकका प्रमाण है। इस कारणसे अब उस अक्षर श्रुतज्ञानकी उत्पत्तिका कारण जो अन्तिम उर्वक है,उससे भाजित अक्षर रूप अष्टांकसे गुण्य रूप अन्तिम उर्वकमें गुणा करने पर अर्थाक्षर ज्ञान होता है,यह युक्तियुक्त है। ऐसा जिनदेवने कहा है । यह कथन अन्त्यदीपक अर्थात् अन्तमें रखे हुए दीपक
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१८=
५६८
गो०जीवकाण्डे वृद्धियुक्तस्थानंगळगुत्पत्तियक्कुमल्लदे केवलं पर्यायजघन्यज्ञानमने भागिसियुं गुणिसियं पुट्टिदुवल्लेबुदक्के दु निश्चयिसुवुदु मीयाक्षरज्ञानम के। उ नपत्तिसुत्तिरलु श्रुतकेवलज्ञानसंख्यातभाग
१८% उ मात्रााक्षरज्ञानप्रमाणमक्कुं के अक्षराज्जातं ज्ञानमक्षरज्ञानमर्थविषयमर्थनाहकमाक्षर
ज्ञानं। अथवा अर्यते गम्यते ज्ञायतयित्यर्थः । न क्षरतीत्यक्षरं द्रव्यरूपतया विनाशाभावात् । ५ अर्थश्चासावक्षरं च तदाक्षरं । अथवा अर्यते गम्यते श्रुतकेवलस्य संख्येयभागत्वेन निश्चीयत इत्यर्थः । अर्थश्चासावक्षरं च तदाक्षरं तस्माज्जातं ज्ञानमाक्षर ज्ञानं ।
. अथवा त्रिविधमक्षरं लब्ध्यक्षरं निर्वृत्यक्षरं स्थापनाक्षरं चेति । तत्र पर्यायज्ञानावरणप्रभृतिश्र तकेवलज्ञानावरणपर्यातक्षयोपशमोदभूतात्मनोर्थग्रहणशक्तिर्लब्धिर्भावेंद्रियं । तद्रूपमक्षरं
लब्ध्यक्षरं अक्षरज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वात् । कंठोष्टताल्वादिस्थानस्पृष्टताधिकरणप्रयत्ननिर्वय॑मानस्वरूप१० मकारादिककारादिस्वरव्यंजनरूपमूलवणंतत्संयोगादिसंस्थानं निर्वृत्यक्षरं । पुस्तकेषु तत्तद्देशानु
यथासंख्यं चतुरङ्कपञ्चाङ्कषडङ्कसप्ताङ्काष्टाङ्कवृद्धियुक्तस्थानानि उत्पद्यन्ते, न च केवलं पर्याय जघन्यज्ञानमेव भक्त्वा गुणयित्वा उत्पद्यत इति निश्चेतव्यं, इदमर्थाक्षरज्ञानं के उ अपवर्तितं सत् श्रुतकेवलज्ञान
-
~~
~
१८ = उ संख्यातभागमात्र अर्थाक्षरज्ञानप्रमाणं भवति के अक्षराज्जातं ज्ञानं अक्षरज्ञानं अर्थविषयमर्थग्राहक
१८ = अर्थाक्षरज्ञानं अथवा अर्यते गम्यते ज्ञायते इत्यर्थः, न क्षरति इत्यक्षरं द्रव्यरूपतया विनाशाभावात् । अर्थश्चासावक्षरं च तदक्षिरम । अथवा अर्यते गम्यते श्रुतकेवलस्य संख्ययभागत्वेन निश्चीयते इत्यर्थः, अर्थश्चासावक्षरं च तदर्थाक्षरं तस्माज्जातं ज्ञानमक्षिरज्ञानम् । अथवा त्रिविधमक्षरं लब्ध्यक्षरं निर्वत्यक्षरं स्थापनाक्षरं चेति । तत्र पर्यायज्ञानावरणप्रभृतिश्रुतकेवलज्ञानावरणपर्यन्तक्षयोपशमादुद्भूतात्मनोऽर्थग्रहणशक्तिलब्धिः भावेन्द्रियं, तद्रूपमक्षरं लब्ध्यक्षरं, अक्षरज्ञानोत्पत्तिहेतुत्वात् कण्ठोष्ठताल्वादिस्थानस्पष्टतादिकरणप्रयत्ननिर्वय॑मानस्वरूपं अकारादिककारादिस्वरव्यञ्जनरूपं मूलवर्णतत्संयोगादिसंस्थानं निर्वृत्त्यक्षरम् । पुस्तकेषु तत्तद्देशानुरूपतया के समान है,इसलिए चतुरंकसे लेकर अष्टांक पर्यन्त षट्स्थानों के भागवृद्धि और गुण वृद्धिसे युक्त सब स्थान अपने-अपने अनन्तर पूर्व उर्वक वृद्धि युक्त स्थानसे भाग देनेपर जितना प्रमाण आवे, उससे पुनः उस पूर्व स्थानको गुणा करनेपर यथाक्रमसे चतुरंक, पंचांक, षष्ठांक, सप्तांक
और अष्टांक वृद्धि युक्त स्थान उत्पन्न होते हैं। केवल जघन्य पर्याय ज्ञानमें भाग देकर और फिर उसीसे गुणा करनेपर ये स्थान उत्पन्न नहीं होते, यह निश्चित जानना। इस प्रकार श्रुत केवल ज्ञानका संख्यातवाँ भाग मात्र अर्थाक्षर श्रुत ज्ञानका प्रमाण होता है।
अक्षरसे उत्पन्न हुआ ज्ञान अक्षर ज्ञान है। जो अर्थको विषय करता है या अर्थका ग्राहक है, वह अर्थाक्षर ज्ञान है । अथवा जो अर्यते अर्थात् जानने में आता है,वह अर्थ है और द्रव्य रूपसे विनाश न होनेसे अक्षर है।अर्थ और अक्षरको अर्थाक्षर कहते हैं । अथवा 'अयते' अर्थात् श्रुत केवलके संख्यातवें भाग रूपसे जिसका निश्चय किया जाता है , वह अर्थ है । अर्थ और अक्षर अक्षर है। उससे उत्पन्न ज्ञान अर्थाक्षर ज्ञान है। अथवा अक्षर तीन प्रकारका है-लब्ध्यक्षर, निवृत्त्यक्षर, और स्थापनाक्षर । उनमें से पर्याय ज्ञानावरणसे लेकर श्रुतकेवलज्ञानावरण पर्यन्तके क्षयोपशमसे उत्पन्न आत्माकी अर्थको ग्रहण करनेकी शक्ति लब्धि
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५६९ रूपतया लिखितसंस्थानं स्थापनाक्षरं। एवंविधमप्प एकाक्षरश्रवणसंजातार्थज्ञानमेकाक्षरश्रुतज्ञानमें दितु जिनरुळिदं पेळल्पटुम्मिदं किंचित्प्रतिपादितमायतु । अनंतरं श्र तनिबद्धमं श्रु तविषयमं पेळ्दपं
पण्णवणिज्जा भावा अणंतभागो दु अणभिलप्पाणं ।
पण्णवणिज्जाणं पुण अणंतभागो दु सुदणिबद्धो ॥३३४॥ प्रज्ञापनीया भावा अनंतभागस्तु अनभिलाप्यानां। प्रज्ञापनीयानां पुनरनंतभागः श्रुतनिबद्धः॥
अनभिलाप्यंगळप्प वाग्विषयंगळल्लदंतप्प केवलं केवलज्ञानगोचरमप्प भावानां जीवाद्यत्थंगळ अनंतकभागमात्रंगळु । भावाः जीवाद्यत्थंगळ प्रज्ञापनीयाः तीर्थकरसातिशयदिव्यध्वनि प्रतिपाद्यंग टप्पु । पुनः मते प्रज्ञापनीयानां सातिशयदिव्यध्वनिप्रतिपाद्यंगळप्प भावानां जीवाद्य- १० त्थंगळ अनंतकभागः अनंतकभागं श्रुतनिबद्धद्वादशांगश्रुतस्कंधनिबद्धक्के विषययिदं नियमितमकुं। श्रुतकेवलिगळ्गमुमगोचरअर्थप्रतिपादनशक्ति दिव्यध्वनिगुंटुमादिव्यध्वनिगमगोचरजीवाद्यर्थग्रहणशक्ति केवलज्ञानदोळे बुदत्थं ।
अवाच्यानामनंतांशो भावाः प्रज्ञाप्यमानकाः। प्रज्ञाप्यमानभावानामनंतांशः श्रुतोदितः॥
लिखितसंस्थानं स्थापनाक्षरम् । एवंविधैकाक्षरश्रवणसंजातार्थज्ञानमेकाक्षरश्रुतज्ञानमिति जिनैः कथितत्वात किंचित् प्रतिपादितम् ॥३३३॥ अथ श्रुतनिबद्धं श्रुतविषयं च प्ररूपयति
अनभिलाप्यानां अवाग्विषयाणां केवलं केवलज्ञानगोचराणां भावानां जीवाद्यर्थानां अनन्तकभागमात्राः भावाः-जोवाद्यर्थाः, प्रज्ञापनीयाः तीर्थकरसातिशयदिव्यध्वनिप्रतिपाद्याः भवन्ति । पुनः प्रज्ञापनीयानां भावानां जीवाद्यर्थानां अनन्तकभागः श्रुतनिबद्धः द्वादशाङ्गश्रुतस्कन्धस्य निबद्धः विषयतया नियमितः श्रुतकेवलिनामपि । अगोचरार्थप्रतिपादनशक्तिदिव्यध्वनेरस्ति तद्दिव्यध्वनेरपि अगोचरजीवाद्यर्थग्रहणशक्तिः केवलज्ञानेऽस्तीत्यर्थः ।।
अवाच्यानामनन्तांशो भावाः प्रज्ञाप्यनामकाः । प्रज्ञाप्यमानभावानां अनन्तांशः श्रतोदितः ॥१॥
रूप भावेन्द्रिय है। उस रूप अक्षर लब्ध्यक्षर है। क्योंकि वह अक्षर ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण है । कण्ठ, ओष्ठ, तालु आदि स्थानोंकी हलन-चलन आदि रूप क्रिया तथा प्रयत्नसे जिनके स्वरूपकी रचना होती है,वे अकारादि स्वर, ककारादि व्यंजनरूप मूल वर्ण और उनके . संयोगसे बने अक्षर निर्वृत्त्यक्षर हैं। पुस्तकोंमें उस-उस देशके अनुरूप लिखित अकारादिका आकार स्थापनाक्षर है। इस प्रकारके एक अक्षरके सुननेसे उत्पन्न हुआ अर्थज्ञान एकाक्षर श्रुतज्ञान है,ऐसा जिनदेवने कहा है । उसीके आधारसे मैंने किंचित् कहा है ॥३३३॥
अब श्रुतके विषयको तथा श्रुतमें कितना निबद्ध है,इसको कहते हैं
जो भाव अनभिलाप्य अर्थात् वचनके द्वारा कहने में नहीं आ सकते, केवल केवलज्ञानके ही विषय हैं, ऐसे पदार्थ जीवादिके अनन्तवें भाग मात्र प्रज्ञापनीय हैं अर्थात् तीर्थकरकी २० सातिशय दिव्यध्वनिके द्वारा कहे जाते हैं। पुनः प्रज्ञापनीय जीवादि पदार्थोंका अनन्तवाँ भाग द्वादशांग श्रुतस्कन्धमें विषय रूपसे निबद्ध होता है । श्रुतकेवलियोंके भी अगोचर अर्थको कहनेकी शक्ति दिव्यध्वनिमें होती है। और दिव्यध्वनिसे भी अगोचर अर्थको ग्रहण करनेकी शक्ति केवलज्ञानमें है ॥३३४॥
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५७०
गो० जीवकाण्डे
अनंतरं गाथाद्वदिदं शास्त्रकारनक्षरसमासमं पेन्दपं :
एयक्खरादु उवरिं एगेगेणक्ख रेण वड्ढंतो।
संखेज्जे खल उड़ढे पदणाम होदि सुंदणाणं ॥३३५॥ एकाक्षरादुपरि चैकैकेनाक्षरेण वर्द्धमानाः । संख्येये खलु वृद्धे पदनाम भवति श्रुतज्ञानं ॥
एकाक्षरजनिताय॑ज्ञानदमेले तु मत्ते पूर्वोक्तक्रमदि षट्स्थानवृद्धिरहितमागि एकैकाक्षरदिंद वर्द्धमानमागुत्तिरलु द्वचक्षरत्र्यक्षरादिरूपोनैकपदाक्षरमात्रपसंतसमुदायश्रवणजनिताक्षरसमासज्ञानविकल्पंगळु संख्येयंगळु द्विरूपोनैकपदाक्षरप्रमितंगळु सलुतं विरलु तदनंतरमुत्कृष्टाक्षरसमासविकल्पद मेले एकाक्षरवृद्धियागुत्तिरलु पदनाममनुळळ श्रुतज्ञानमक्कुं।
सोलससयचउतीसा कोडी तियसीदिलक्खयं चेव ।
सत्तसहस्सट्ठसया अट्ठासीदी य पदवण्णा ॥३३६।। षोडशशतचस्त्रिशत्कोटयस्त्र्यशीतिलक्षाणि चैव । सप्तसहस्राष्टशताष्टाशीतिश्च पदवर्णाः॥
इल्लि अर्थपदं प्रमाणपदं मध्यमपदमेंदु पदं त्रिविधमक्कुं। अल्लिये निरक्षरसमूहदिदंविवक्षितार्थमरियल्पडुवुमदर्थपदमकुं। गां दंडेन शालिभ्यो , निवारय । त्वमग्निमानय ।
इत्यादिगळु । अष्टाक्षरादिसंख्यायदं निष्पन्नमप्पक्षरसमूहं प्रमाणपदम बुदक्कं । नमः श्रीवर्द्धमानाय । १५ एबि मोदलादुवु। षोडशशतचतुस्त्रिशत्कोटयास्त्र्यशीतिलक्षाणि । सप्तसहस्राष्टशताष्टाशीतिश्च पदवर्णाः एंदी गाथोक्तप्रमाणैकपदा पुनरुक्ताक्षरंगळं समूहं मध्यमपदमें बुदक्कं १६३४८३०७८८८
॥३३४॥ अथ गाथाद्वयन शास्त्रकारः अक्षरसमासं कथयति
एकाक्षरजनितार्थज्ञानस्योपरि तु-पुनः पूर्वोक्तषस्थानवृद्धि क्रमरहिततया एकैकाक्षरेणैव वर्धमानाः द्वयक्षरत्यक्षरादिरूपोनैकपदाक्षरमात्रपर्यन्ताक्षरसमुदायश्रवणसंजनिताक्षरसमासज्ञानविकल्पाः संख्येयाः द्विरूपोनक२० पदाक्षरप्रमितागताः तदा अनन्तरस्योपरि एकाक्षरवृद्धौ सत्यां पदनाम श्रु तज्ञानं भवति ॥३३५॥
अत्र अर्थपदं प्रमाणपदं मध्यमपदं चेति पदं त्रिविधम् । तत्र यावताक्षरसमूहेन विवक्षितार्थो ज्ञायते तदर्थपदम । दण्डेन शालिभ्यो गां निवारय, त्वमग्निमानय इत्यादयः । अष्टाक्षरादिसंख्यया निष्पन्नोऽक्षरसमूहः प्रमाणपदं 'नमः श्रीवर्धमानाय' इत्यादि । षोडशशतचस्त्रिशत्कोट्यः त्र्यशीतिलक्षाणि सप्तसहस्राणि अष्टशतानि
अब शास्त्रकार दो गाथाओंसे अक्षर समासको कहते हैं
एक अक्षरसे उत्पन्न अर्थज्ञानके ऊपर पूर्वोक्त षट्स्थानपतित वृद्धिके क्रमके बिना एक-एक अक्षर बढ़ते हुए दो अक्षर,तीन अक्षर आदि रूप एक हीन पदके अक्षर पर्यन्त अक्षर समूहके सुननेसे उत्पन्न अक्षर समास ज्ञानके विकल्प संख्यात हैं अर्थात् दो हीन पदके अक्षर प्रमाण हैं। उसके अनन्तर उत्कृष्ट अक्षर समासके विकल्पके ऊपर एक अक्षर बढ़नेपर पदनामक श्रुतज्ञान होता है ॥३३५।।
पदके तीन भेद हैं-अर्थपद, प्रमाणपद, मध्यमपद । जितने अक्षरोंके समूहसे विवक्षित अर्थका ज्ञान होता है, वह अर्थपद है ; जैसे डण्डेसे गायको भगाओ। आग लाओ, इत्यादि । आठ आदि अक्षरोंकी संख्यासे बने अक्षर समूहको प्रमाण पद कहते हैं । जैसे 'नमः श्रीवर्धमानाय' इत्यादि । सोलह सौ चौंतीस करोड़, तेरासी लाख, सात हजार आठ
सौ अठासी अक्षरोंका एक पद होता है । इस गाथामें कहे प्रमाण एक पदके अपुनरुक्त अक्षरों३५ १. में एंबीत्यादिगलु।
२५
३.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५७१ होनाधिकमानंगळप्प प्रमाणपदार्थपदद्वयमध्यदोळे पेळल्पट्ट संख्याक्षरपरिमितसमूहोळु वर्तमानत्वदिदं मध्यमपदम दितन्वयतेथिदं परमागमदोठा मध्यमपदमे गृहीतमारतेक दोडे प्रमाणार्थपदंगळु लोकव्यवहारदोळु गृहीतंगळागुत्तिरलो मध्यमपदमे लोकोत्तरमप्प परमागमदोळु पदमेदितु व्यवहारिसल्पटदद। अनंतरं सघातश्रुतज्ञानमं पेकदपं:
एयपदादो उपरिं एगेगेणक्खरेण वड्ढंतो ।
संखेज्जसहस्सपदे उड्ढे संघादणाम सुदं ॥३३७।। एकपदादुपयेकैकाक्षरेण वर्द्धमाने। संख्येयसहस्रपदे वृद्धे संघातनामश्रु तं ॥
एकपदक्के पेन्द प्रमाणाक्षरसमूहद मेले एकैकवर्णवृद्धिक्रमदिदमेकपदाक्षरमात्रपदसमासज्ञानविकल्पंगळु सलुतं विरलु द्विगुणपदज्ञानमक्कु-। मदर मेले मत्तमेकैकवर्णवृद्धिक्रमदिदमेकपदा- १० क्षरमात्रपदसमासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु त्रिगुणपदश्रु तज्ञानमक्कुमितु प्रत्येकमेकपदाक्षरमात्रविकल्पसहचरितंगळप्प चतुर्गुणपदादिसंख्यातसहस्रगुणितपदमात्रंगळ रूपोनपदसमासज्ञानविकल्पं. गळ सलुत्तं विरलु प००० ५२ प २०००० ५ ३०००० प ४०००० प १००० १-१ ई चरमपद
अष्टाशीतिश्च पदवर्णाः इत्येतद्गाथोक्तप्रमाणैकपदाऽपुनरुक्ताक्षरसमूहो मध्यमपदं १६३४८३०७८८८ । हीनाधिकमानयोः प्रमाणपदार्थपदयोर्मध्ये एतदुक्तसंख्यापरिमिताक्षरसमूहे वर्तमानत्वात् मध्यमपदं इत्यन्वर्थतया १५ परमागमे तदेव परिगृहीतं, प्रमाणपदार्थे पदे तु लोकव्यवहारे परिगृहीते । अत एव लोकोत्तरे परमागमे मध्यमपदमेव पदमिति व्यवह्रियते ॥३३६॥ अथ संघातश्र तज्ञान प्ररूपयति
एकपदस्य उक्तप्रमाणाक्षरसमूहस्योपरि एकैकाक्षरवृद्ध या एकपदाक्षरमात्रेषु पदसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु द्विगुणपदज्ञानं भवति । तस्योपरि पुनरपि एकपदाक्षरमात्रषु पदसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु त्रिगुणपदज्ञानं भवति । एवं प्रत्येकमेकपदाक्षरमात्रविकल्पसहचरितेषु चतुर्गुणपदादिषु संख्यातसहस्रगुणितपदमात्रेषु रूपोनेषु २० पदसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु
प। प ।००।१२। ५२।१२।००।१३ । प३ । प ३ ० ० ० प १ ० ० ० १ उ
का समूह १६३४८३०७८८८ मध्यम पद है । प्रमाण पद और अर्थ पदमें हीन अधिक अक्षर होते हैं। उन दोनोंके मध्य में कही गयी संख्या परिमाणवाले अक्षर समूहमें वर्तमान होनेसे इसका मध्यम पद नाम सार्थक होनेसे परमागममें वही लिया गया है। प्रमाणपद और २५ अर्थपद तो लोकव्यवहारमें चलते हैं, इसीसे लोकोत्तर परमागममें मध्यमपदको ही पद कहा है ॥३३६॥
अब संघात श्रुतज्ञानको कहते हैं
एक पदके उक्त प्रमाण अक्षर समूहके ऊपर एक-एक अक्षरकी वृद्धि होते-होते एक पदके अक्षर प्रमाण पद समास ज्ञानके विकल्पोंके होनेपर पद श्रुत ज्ञान दूना होता है । उसके ३० ऊपर पुनः एक पदके अक्षर प्रमाण पदसमास ज्ञानके विकल्प बीतनेपर पदज्ञान तिगुना होता १. म पदमर्थपदं । २. म सखेज्जपदे उड्ढे सघादं णाम होदि सुदं ।
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५७२
गो० जीवकाण्डे
समासज्ञानोत्कृष्टविकल्पद मेले एकाक्षरमे वृद्धमागुत्तिरलु संघातश्रुतज्ञानमक्कुं-प १००० १ मिदुर्बु चतुर्गतिगळोळोंदु गतिस्वरूपनिरूपकमध्यमपदसमुदायरूपसंघातश्रवणजनितार्थज्ञानमक्कं । अनंतरं प्रतिपत्तिकश्रु तज्ञानस्वरूपमं पेळ्दपं:
एक्कदरगदिणिरूवयसंघादसुदादु उवरि पुव्वं वा ।
वण्णे संखेज्जे संघादे उड्ढम्मि पडिवत्ती ॥३३८ । एकतमगतिनिरूपकसंघातश्रुतादुपरि पूर्ववत् । वर्णे संख्येये संघाते वृद्ध प्रतिपत्तिः॥
पूर्वोक्तप्रमाणमप्प एकतमगतिनिरूपकसंघातश्रुतद मेले पूर्वपरिपाटियिदमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितमप्पेकैकपदवृद्धिक्रमदिदं संख्यातसहस्रपदमात्रसंघातंगळु संख्यातसहस्रप्रमितंगळु रूपोन__ संघातसमासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु तच्चरमसंघातोत्कृष्टविकल्पद प १०००१ । १००० १-१ १० वृद्धिय मेले एकाक्षरवृद्धियमेलेयागुत्तिरलु प्रतिपत्तिकमें ब तज्ञानमक्कु १६=१०००।१।१०००१ ।
इदु, नारकादिचतुर्गतिस्वरूपसविस्तरप्ररूपकप्रतिपत्तिकाख्यग्रंथश्रवणसंजातार्थज्ञान में दितु निश्चैसल्पडुवुदु ।
अनंतरमनुयोगश्रुतज्ञानमं पेळ्दपरु
चरमस्य पदसमासज्ञानोत्कृष्टविकल्पस्य उपरि एकस्मिन्नक्षरे वृद्धे सति संघातश्र तज्ञानं भवति १५ १६ = १०००१ तच्चतसृणां गतीनां मध्ये एकतमगतिस्वरूपनिरूपकमध्यमपदसमदायरूपसंघातश्रवणजनितार्थज्ञानं ॥३३७।। अथ प्रतिपत्तिकश्र तज्ञानस्वरूपं निरूपयति
पूर्वोक्तप्रमाणस्य एकतमगतिनिरूपकसंघातच तस्य उपरि पूर्वोक्तप्रकारेण एकैकबर्णवृद्धिसहचरितैकैकपदवृद्धिक्रमेण संख्यातसहस्रपदमात्रसंघातेषु संख्यातसहस्रेषु रूपोनेषु संघातसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमस्य
संघातसमासोत्कृष्टविकल्पस्य १६%=१०००१।१०००१-१ एतस्योपरि एकस्मिन्नक्षरे वृद्धे सति प्रति२० पत्तिकं नाम श्रुतज्ञानं भवति १६ = १०००।१०००। तच्च नारकादिचतुर्गतिस्वरूपसविस्तरप्ररूपक
प्रतिपत्तिकाख्यग्रन्यश्रवण जनितार्थज्ञानमिति निश्चेतव्यम् ॥३३८॥ अथानुयोगश्रुतज्ञानं प्ररूपयतिहै । इस प्रकार प्रत्येक एक पदके अक्षर मात्र विकल्पोंके बीतनेपर पदज्ञानके चतुगुने-पंचगुने होते-होते संख्यात हजार गुणित पदमात्र पदसमास ज्ञानके विकल्पोंमें एक अक्षर घटानेपर
जो प्रमाण रहे, उतने पदसमास ज्ञानके विकल्प होते हैं। अन्तिम पदसमास ज्ञानके उत्कृष्ट २५ विकल्पके ऊपर एक अक्षर बढ़ानेपर संघात श्रुतज्ञान होता है। सो चार गतियों में से किसी
एक गतिके स्वरूपका कथन करनेवाले मध्यमपदके समुदायरूप संघात श्रुतज्ञानके सुननेसे जो अर्थज्ञान होता है,वह संघात श्रुतज्ञान है ।।३३७॥
अब प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानका स्वरूप कहते हैं
पूर्वोक्त प्रमाण किसी एक गतिके निरूपक संघात श्रुतके ऊपर पूर्वोक्त प्रकारसे एक३० एक अक्षरकी वृद्धिपूर्वक एक-एक पदकी वृद्धिके क्रमसे संख्यात हजार पदप्रमाण संख्यात
हजार संघातमें होते हैं। उनमें एक अक्षर कम करनेपर संघात श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं। उसके अन्तिम संघात समासके उत्कृष्ट विकल्प के ऊपर एक अक्षर बढ़ानेपर प्रतिपत्ति नामक श्रुतज्ञान होता है। नारक आदि चार गतियों के स्वरूपका विस्तारसे कथन करनेवाले
प्रतिपत्तिक नामक ग्रन्थके सुननेसे होनेवाला अर्थज्ञान प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता है ।।३३८।। ३५ अब अनुयोग श्रुतज्ञानको कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५७३ चउगइसरूवरूवयपडिवत्तीदो दु उवरि पुव्वं वा।
वण्णे संखेज्जे पडिवत्ती उड्ढम्मि अणियोगं ।।३३९।। चतुर्गतिस्वरूपरूपकप्रतिपत्तितस्तूपरि पूर्ववत् । वर्णे संख्येये प्रतिपत्तिके वृद्ध अनुयोगं ॥
चतुर्गतिस्वरूपप्ररूपकप्रतिपत्तिकदिदं मुंदेयुमदर मेले प्रत्येकमे कैकवर्णवृद्धिक्रमदिदं संख्यातसहस्रपदसंघातप्रतिपत्तिकंगळ संवद्धंगळागत्तिरल रूपोनतावन्मात्रप्रतिपत्तिकसमासज्ञानविकल्पंगळ सलुत्तंमिरलु तच्चरमप्रतिपत्तिकसमासोत्कृष्टविकल्पद मेल एकाक्षरवृद्धियागुत्तं विरलु अनुयोगाख्यश्रतजानमक्कं । अदुवं चतुर्दशमार्गणास्वरूपप्रतिपादकानयोगमें ब शब्दसंदर्भश्रवणजातार्थ. जानम बुदत्थं । अनंतरं प्राभृतप्राभृतकम गाथाद्वयदिदं पेळ्दपर :
चोद समग्गणसंजुद अणियोगादुवरि वड्ढिदे वण्णे ।
चउरादी अणियोगे दुगवारं पाहुडं होदि ॥३४०॥ चतुर्दशमार्गणासंयुतानुयोगादुपरि वद्धिते वर्णे । चतुराद्यनुयोगे द्विकवारं प्राभृतं भवति ॥
चतुर्दशमार्गणासंयुतानुयोगश्रुतद मेले मुंदे पूर्वोक्तक्रमदिदं प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धिळिदं चतुराद्यनुयोगंगळु संवृद्धिगळागुत्तिरलु रूपोनतावन्मात्रंगलनुयोगसमासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु तच्चरमानुयोगसमासोत्कृष्टविकल्पद मेले एकाक्षरवृद्धियागुत्तिरलु- १५ द्विकवारप्राभूतकर्म ब श्रुतज्ञानमक्कुं।
चतुर्गतिस्वरूपनिरूपकप्रतिपत्ति कात् परं तस्योपरि प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिक्रमेण संख्यातसहस्रेषु पदसंघातप्रतिपत्तिकेषु वृद्धेषु रूपोनतावन्मात्रेषु प्रतिपत्तिकसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमप्रतिपत्तिकसमासोत्कृष्टविकल्पस्योपरि एकस्मिन्नक्षरे वृद्धे सति अनुयोगाख्यं श्रुतज्ञानं भवति । तच्चतुदंशमार्गणास्वरूपप्रतिपादकानुयोगसंज्ञशब्दसंदर्भश्रवणजनितार्थज्ञानमित्यर्थः ।।३३९॥ अथ प्राभृतकप्राभृतकस्य स्वरूपं गाथाद्वयेन प्ररूपयति- २०
___ चतुर्दशमार्गणासंयुतानुयोगात्परं तस्योपरि पूर्वोक्तक्रमेण प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धिभिश्चतुराद्यनुयोगेषु संवृद्धेषु सत्सु रूपोनतावन्मात्रानुयोगसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमानुयोगसमासोत्कृष्टविकल्पस्योपरि एकाक्षरवृद्धौ सत्यां द्विकवारप्राभुतकं नाम श्रुतज्ञानं भवति ॥३४०॥
चार गतियोंके स्वरूपको कहनेवाले प्रतिपत्तिकसे आगे उसके ऊपर एक-एक अक्षरकी वृद्धिके क्रमसे संख्यात हजार पदोंके समुदायरूप संख्यात हजार संघात और संख्यात २५ हजार संघातोंके समूहरूप प्रतिपत्तिककी संख्यात हजार प्रमाण वृद्धि होनेपर उसमें से एक अक्षर कम करनेपर प्रतिपत्तिक समास ज्ञानके विकल्प होते हैं। उसके अन्तिम प्रतिपत्तिक समासके उत्कृष्ट विकल्पके ऊपर एक अक्षर बढ़ानेपर अनुयोग नामक श्रुतज्ञान होता है । चौदह मार्गणाओंके स्वरूपके प्रतिपादक अनुयोग नामक श्रुतग्रन्थके सुननेसे हुआ अर्थज्ञान अनुयोग श्रुतज्ञान है ॥३३९।।
अब दो गाथाओंसे प्राभृतक-प्राभृतकका स्वरूप कहते हैं
चौदह मार्गणाओंसे सम्बद्ध अनुयोगसे आगे उसके ऊपर पूर्वोक्त क्रमसे प्रत्येक एकएक अक्षरकी वृद्धिसे युक्त पद आदिकी वृद्धिके द्वारा चार आदि अनुयोगोंकी वृद्धि होनेपर प्राभृतक-प्राभृतक श्रुतज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर कम करनेपर उतने मात्र अनुयोग
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गो० जीवकाण्डे अहियारो पाहुडयं एयट्टो पाहुडस्स अहियारो ।
पाहुडपाहुडणामं होदित्ति जिणेहि णिढेिं ॥३४१॥ अधिकारः प्राभृतकमेकाwः प्राभृतस्याधिकारः प्राभृतकप्राभृतकनामा भवतीति जिनैनिद्दिष्टं ॥
वस्तुवेब श्रुतज्ञानद अधिकारः प्राभृतक बेरडुमेकात्थंगळु । प्राभृतद अधिकारमं प्राभृतक प्राभृतकम बुदु अदुकारणदिदमेकार्थपर्यायशब्दमें दितु जिनेंद्र भट्टारकरिदं पेळल्पटुदु । स्वरुचिविरचित मल्त बुदत्थं । द्विकवारप्राभृतानंतरं प्राभृतकस्वरूपमं पेळदपरु :
दुगवारपाहुडादो उवरिं वण्णे कमेण चउवीसे ।
दुगवारपाहुडे संउड्ढे खलु होदि पाहुडयं ।।३४२॥ द्विकवारप्राभृतकादुपरि वर्णे क्रमेण चतुविशतौ। द्विकवारप्राभृते संवृद्धे खलु भवति प्राभृतकं ॥
द्विकवारप्राभृतदिदं मेले तदुपरि पूर्वोक्तक्रमदिदं प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादि___ वृद्धिळिदं चतुविशतिप्राभृतकप्राभृतकंगळु वृद्धंगळागुतिरलु रूपोनतावन्मात्रंगळु प्राभृतकप्राभृतक१५ समासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु तच्चरमोत्कृष्ट विकल्पद मेले एकाक्षरवृद्धियागुत्तिरलु
प्राभृतकमबं श्रुतज्ञानमक्कुं। ___अनंतरं वस्तुवेंब श्रुतज्ञानस्वरूपमं पेन्दपं
वस्तुनामश्रुतज्ञानस्य अधिकारः प्राभूतकं वेति द्वो एकार्थो । प्राभूतकस्य अधिकारोऽपि प्राभृतकप्राभूतकनामा भवति ततः कारणात एकार्थः पर्यायशब्दः इति जिनेः-अर्हद्धारकैः निर्दिष्टं न स्वरुचिविरचित२० मित्यर्थः ॥३४१॥ द्विकवारप्राभृतानन्तरं प्राभृतकस्वरूपं प्ररूपयति
द्विकवारप्राभृतकात्परं तस्योपरि पूर्वोक्तक्रमेण प्रत्येकमेकै कवर्णवृद्धि सहचरितपदादिवृद्धिभिः चतुर्विंशतिप्राभृतकप्राभृतकेषु वृद्धेषु रूपोनतावन्मात्रेषु प्राभृतकप्राभृतकज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमसमासोत्कृष्टविकल्पस्य उपरि एकाक्षरवृद्धौ सत्यां प्राभृतकं नाम श्रु तज्ञानं भवति ॥३४२॥ अथ वस्तुनामश्रु तज्ञानस्वरूपमाहसमास ज्ञानके विकल्प होते हैं। उसके अन्तिम अनुयोग समासके उत्कृष्ट विकल्पके ऊपर एक अक्षरके बढ़नेपर प्राभृतक-प्राभृतक नामक श्रुतज्ञान होता है ॥३४०॥
वस्तु नामक श्रुतज्ञानका अधिकार कहो या प्राभृतक कहो, दोनोंका एक ही अर्थ है। प्राभृतकका अधिकार भी प्राभृतक-प्राभृतक नामक होता है । ऐसा अर्हन्त देवने कहा है, स्वरुचि रचित नहीं है ॥३४॥
अब प्राभृतकका स्वरूप कहते हैं
प्राभृतक-प्राभृतकसे आगे उसके ऊपर पूर्वोक्त प्रकारसे प्रत्येक एक-एक अक्षरकी ३० वृद्धिके क्रमसे पद आदिकी वृद्धिके होते-होते चौबीस प्राभृतक प्राभृतकोंकी वृद्धि में
एक अक्षर घटानेपर प्राभृतक-प्राभृतक समासके भेद होते हैं। उसके अन्तिम भेदमें एक अक्षर बढ़ानेपर प्राभृतक श्रुतज्ञान होता है। उसके ऊपर पूर्वोक्त क्रमसे एक-एक अक्षरको वृद्धिके क्रमसे बीस प्राभृतक नामक अधिकारोंके बढ़नेपर प्राभृतक नामक श्रुतज्ञान
होता है। उसमें एक अक्षर कम करने पर उतने मात्र प्राभूतक समास ज्ञानके विकल्प ३५ होते हैं। उसके अन्तिम प्राभृतक समासके उत्कृष्ट विकल्पके ऊपर एक अक्षर बढ़नेपर
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
ariari पाहुड अहियारे एक्कवत्थुअहियारो । एक्केकवणउड्ढी कमेण सव्वत्थ णादव्वा || ३४३॥
विशतिव्विशतिः प्राभृताधिकारे एकवस्त्वधिकारः । एकैकवर्णवृद्धिः क्रमेण सर्व्वत्र ज्ञातव्या ॥ मुंद प्राभृतकद मुंदे तदुपरि अदर मेले पूर्वोक्तक्रर्मादिदमेकैकवर्ण वृद्धिसहचरितपदादिवृद्धिगळिमिप्पत्तु प्राभृतकनामाधिकारंगळु संवृद्धंगळागुत्तं विरल रूपोनतावन्मात्र प्राभृतकसमासज्ञानविकल्पंग सलुत्तं विरलु तच्चरमप्राभृतकसमासोत्कृष्ट विकल्पद मेले एकाक्षरवृद्धियागुत्तंविलु दु वस्तुनामाधिकारश्र तज्ञानमक्कं । वीसं बीसमें दितु उत्पादादिपूव्वं गळनाश्रयिसल्पट्ट वस्तुगल समूहवीप्सयो दिर्वचनं पेळल्पदुदु । सर्वत्राक्षरसमासप्रथम विकल्पप्रभृति पूर्व्वसमासोकृष्टविकल्पपर्यंतमवरोल क्रमदिदं । पर्य्यायाक्षरपदसंघातेत्यादि परिपार्टियिद मे कैकवर्णवृद्धिपलक्षणमप्रमेकैकवर्णपदसंघातादिवृद्धिगमरियल्पडुवुवु । ई सूत्रानुसारदिदं वृत्ति- १० योलमा प्रकादिदमे बरेयल्पटु दु ।
अनंतरं गाथासूत्रत्रयदिदं पूर्व्वश्र तस्वरूपमं पेळ्वातं तदवयवंगळप्पुत्पादपूर्व्वादिचतुर्द्दशपृथ्वंगळुत्पत्तिक्रममं तोरिदपं :
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दस चोद्दट्ठ अट्ठारसयं बारं च बार सोलं च ।
वीसं तीसं पण्णारसं च दस चदुसु वत्थूणं ॥ ३४४॥
दश चतुर्द्दशाष्टाष्टादश द्वादश द्वादश षोडश, विंशति त्रिंशत्पंचदश दश चतुर्षु वस्तूनां ॥ पूर्वोक्तवस्तु तद मेले प्रत्येकमेकैकवर्ण वृद्धिसहचरितपदादिवृद्धिर्गाळदं वक्ष्यमाणोत्पादादि चतुर्द्दश पूर्वाधिकारंगळोळु यथासंख्यमागि दश चतुर्दश अष्ट अष्टादश द्वादश द्वादश षोडश विंशति
पूर्वोक्तप्राभृतकस्याग्रे तदुपरि पूर्वोक्तक्रमेण एकैकवर्ण वृद्धि सहचरित पदादिवृद्धिभिः विंशतिंप्राभृतकनामाधिकारेषु संवृद्धेषु सत्सु रूपोनतावन्मात्रेषु प्राभृतकसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमप्राभृतकसमासोत्कृष्ट - २० विकल्पस्योपरि एकाक्षरवृद्धौ सत्यां एकं वस्तुनामाधिकारश्र ुतज्ञानं भवति । वीसं वीसमिति उत्पादादिपूर्वाश्रितवस्तुसमूहवीप्सायां द्विर्वचनमुक्तम् । सर्वत्राक्षरसमासप्रथम विकल्पात् प्रभृति पूर्वसमासोत्कृष्टविकल्प पर्यन्तेषु क्रमेण पर्यायाक्षरपदसंघातेत्यादिपरिपाट्या एकैकवर्णवृद्धिः इदमुपलक्षणं तेन एकैकवर्णपदसंघातादिवृद्धयो ज्ञातव्याः । एतत्सूत्रानुसारेण वृत्तौ तथा लिखितम् || ३४३ ।। अथ गाथात्रयेण पूर्वनामश्रुतज्ञानस्वरूपं प्ररूपयंस्तदवयवभूतोत्पादपूर्वादिचतुर्दश पूर्वाणामुत्पत्तिक्रमं दर्शयति
पूर्वोक्तवस्तु तज्ञानस्य उपरि प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धि सहचरितपदादिवृद्धिभिः वक्ष्यमाणोत्पादादिचतुर्दशएक वस्तु नामक श्रुतज्ञान होता है । उत्पाद पूर्व आदि पूर्वोके वस्तु समूहकी वीप्सा में 'वीसं ari' ऐसा दो बार कथन किया है। सर्वत्र अक्षर समास के प्रथम भेदसे लेकर पूर्व समासके उत्कृष्ट विकल्प पर्यन्त क्रमसे पर्याय, अक्षर, पद, संघात इत्यादि परिपाटी से एक-एक अक्षरकी वृद्धि करना चाहिए। यह कथन उपलक्षण है। अतः 'एक-एक अक्षर पद, संघात आदिकी वृद्धि जानना' । इस सूत्र के अनुसार टीका में सर्वत्र यथास्थान कथन किया है ।।३४२-३४३ ॥ अब तीन गाथाओंसे पूर्व नामक श्रुतज्ञानका स्वरूप कहते हुए उसके अवयवभूत उत्पाद पूर्व आदि चौदह पूर्वोको उत्पत्तिका क्रम दर्शाते हैंपूर्वोक्त वस्तु श्रुतज्ञानके ऊपर एक-एक अक्षर की वृद्धिके साथ पद आदिकी वृद्धि होते
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गो० जीवकाण्डे त्रिंशत् पंचदश दश दश दश दश वस्तुगळु वृद्धंगळागुत्तिरलु ।
उप्पापुव्यग्गेणिय विरियपवादत्थिणत्थियपवादे । णाणासच्चपवादे आदाकम्मपवादे य ॥३४५॥ पच्चक्खाणे विज्जाणुवादकल्लाणपाणवादे य ।
किरियाविसालपुव्वे कमसोथ तिलोय बिंदुसारे य ॥३४६॥ उत्पादपूर्वाग्रायणीयवीर्यप्रवादास्तिनास्तिप्रवादे। ज्ञानसत्यप्रवादे आत्मकर्मप्रवादे च ॥ प्रत्याख्याने विद्यानुवादकल्याणप्राणवादे च। क्रियाविशालपूर्वे क्रमशोथ त्रिलोकबिंदुसारे च॥
यथाक्रमदिंदमुत्पादपूर्वमग्रायणीयपूर्व वीर्यप्रनादपूर्वमस्तिनास्तिप्रवादपूर्व ज्ञानप्रवादपूर्व सत्यप्रवादपूर्वं आत्मप्रवादपूर्व कर्मप्रवादपूर्व प्रत्याख्यानपूर्व विद्यानुवादपूवं कल्याणवाद१० पूर्व प्राणवादपूर्व क्रियाविशालपूर्व त्रिलोकबिंदुसार पूर्व वेंदितु चतुर्दशपूर्वगळप्पुविनवरोळु
पूर्वोक्तवस्तुश्रुतज्ञानद मेल मुंद प्रत्येकमैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धियिदं दशवस्तुप्रमितवस्तु. समासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु रूपोनतावन्मात्रवस्तुश्रुतसमासज्ञानविकल्पंगळोळु चरमवस्तु. समासोत्कृष्टविकल्पद मेले एकाक्षरवृद्धियागुत्तं विरलुत्पादपूर्वश्रुतज्ञानमक्कुल्लिदत्तलावुत्पाद
पूर्वाधिकारेषु यथासंख्यं दशचतुर्दशाष्टाष्टादशद्वादशद्वादशषोडशविंशतित्रिंशत्पञ्चदशदशदशदशदशवस्तुषु वृद्धेषु १५ सत्सु- ॥३४४॥
यथाक्रम उत्पादपूर्व आग्रायणीयपूर्व वीर्यप्रवादपूर्व अस्तिनास्तिप्रवादपूर्वं ज्ञानप्रवादपूर्व सत्यप्रवादपूर्व आत्मप्रवादपूर्व कर्मप्रवादपूर्व प्रत्याख्यानपूर्व विद्यानुवादपूर्व कल्याणवादपूर्व प्राणवादपूर्व क्रियाविशालपूर्व त्रिलोकबिन्दुसारपूर्वं चेति चतुर्दशपूर्वाणि भवन्ति । एतेषु पूर्वोक्तवस्तुथ तज्ञानस्य उपरि-अग्रे प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धया दशवस्तुप्रमितवस्तुसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु रूपोनैलावन्मात्रवस्तुश्रु तसमासज्ञानविकलषु चरमवस्तुसमासोत्कृष्टविकल्पस्योपरि एकाक्षरवृद्धौ सत्यां उत्पादपूर्वश्र तज्ञानं भवति । ततः उत्पादपूर्वश्रुतज्ञानस्य उपरि प्रत्येकमेकैकाक्षरवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धया च तुर्दशवस्तुषु वृद्धेषु रूपोनतावन्मात्रोत्पादपर्वसमासज्ञानविकल्पेष गतेष तच्चरमोत्कृष्टोत्पादपूर्वसमासज्ञानविकल्पस्य उपरि एकाक्षरवद्धौ सत्यां
होते आगे कहे गये उत्पाद पूर्व आदि चौदह अधिकारोंमें क्रमसे दस, चौदह, आठ, अठारह,
बारह, बारह, सोलह, बीस, तीस, पन्द्रह, दस, दस, दस, दस वस्तु अधिकार होते हैं। २५ इतने वस्तु अधिकारोंकी वृद्धि होनेपर ।।३४४।।
यथा क्रम उत्पाद पूर्व, अग्रायणीपूर्व,वीर्य प्रवाद पूर्व, अस्तिनास्ति प्रवाद पूर्व, ज्ञानप्रवाद पूर्व, सत्य प्रवाद पूर्व, आत्मप्रवादपूर्व, कर्मप्रवादपूर्व, प्रत्याख्यान पूर्व, विद्यानुवादपूर्व, कल्याणवाद पूर्व, प्राणवादपूर्व, क्रियाविशाल पूर्व, त्रिलोकबिन्दुसार पूर्व ये चौदह पूर्व होते हैं । इनमें से प्रत्येकमें पूर्वोक्त वस्तु श्रुतज्ञानके ऊपर एक-एक अक्षरकी वृद्धि के साथ दस वस्तु प्रमाण वस्तु समास ज्ञानके विकल्पोंमें एक अक्षरसे हीन विकल्प पर्यन्त वस्तु श्रुत समास ज्ञानके विकल्प होते हैं। उनमें अन्तिम वस्तु समासके उत्कृष्ट विकल्पके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर उत्पाद पूर्व श्रुतज्ञान होता है। फिर उत्पादपूर्व श्रुतज्ञानके ऊपर एकएक अक्षरकी वृद्धि के क्रमसे पद आदिकी वृद्धिके साथ चौदह वस्तुओंकी वृद्धि होनेपर उसमें एक अक्षर कम विकल्प पर्यन्त उत्पाद पूर्व समास ज्ञानके विकल्प होते हैं। उसके अन्तिम
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५७७ पूर्वश्रुतज्ञानद मेळे प्रत्येकमेकैकाक्षरवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धियिदं चतुर्दशवस्तुगळु सलुत्तं विरलु रूपोनतावन्मात्रोत्पादपूर्वसमासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु तच्चरमोत्कृष्टोत्पादपूर्वसमासज्ञानविकल्पद मेले एकाक्षरवृद्धियागुत्तविरलु अग्रायणीयपूर्वश्रुतज्ञानमक्कु-। मितु मुंदे मुंद अष्ट अष्टादश द्वादश द्वादश षोडश विशति त्रिंशत् पंचदश दश दश दशं दश वस्तुगळु क्रमवृद्धंगळागुत्तं विरलु रूपोन रूपोन तावन्मात्र तावन्मात्र तत्तत् पूर्वसमासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु तत्तत्पूर्व- ५ समालोत्कृष्ठस्थानविकल्पंगळो कैकाक्षरवृद्धियागुत्तं विरलु तत्तद्वीर्यप्रवादपूर्व-अस्तिनास्तिप्रवादपूर्व ज्ञानप्रवादपूर्व-सत्यप्रवादपूर्व-आत्मप्रवादपूर्व-कर्मप्रवादपूर्व-प्रत्याख्याननामधेयपूर्वविद्यानुवादपूर्व-कल्याणवादपूर्व-प्राणावादपूर्व-क्रियाविशालपूर्व-त्रिलोकबिंदुसारपूर्वमेंबी श्रुतज्ञानंगळुत्पत्तिगळप्पुवु। इल्लि त्रिलोकबिंदुसारपूर्वक समासाभावमेर्कदोडे उत्तरज्ञानविकल्परहितदिद। अनंतरं चतुर्दशपूर्ववस्तु वस्तुप्राभृतकसंख्येयं पेन्दपरु :
पण णउदिसया वत्थू पाहुडया तियसहस्सणवयसया ।
एदेसु चोद्दसेसु वि पुन्वेसु हवंति मिलिदाणि ॥३४७॥ पंचनवतिशतानि वस्तूनि प्राभृतकानि त्रिसहस्रनवशतानि । एतेषु चतुर्दशसु पूर्वेषु सर्वेषु भवंति मिलितानि ॥
उत्पादपूर्वमादियागि लोकबिंदुसारावसानमाद चतुर्दशपूर्वगळोळु वस्तुगळु सर्वमुं कूडि पंचनवत्युत्तरशतप्रमितंगळप्पुवु १९५ प्राभृतकंगळु सर्वमुं कूडि नवशतोत्तरत्रिसहस्रप्रमितंगळप्पुवु अग्रायणीयपूर्वश्रुतज्ञानं भवति । एवमग्रेऽग्रेऽष्टाष्टादशद्वादशद्वादशषोडशविंशतित्रिंशत्पञ्चदशदशदशदशदशवस्तुषु क्रमेण वृद्धेषु रूपोनतावन्मात्रतावन्मात्रतत्तत्पूर्वसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तत्तत्पूर्वसमासोत्कृष्टज्ञानविकल्पस्योपरि एककाक्षरे वृद्ध सति तत्तद्वीर्यप्रवादपूर्वास्तिनास्तिप्रवादपूर्वज्ञानप्रवादपूर्वसत्यप्रवादपूर्वात्म- २० प्रवादपूर्वकर्मप्रवादपूर्वप्रत्याख्यानपूर्वविद्यानुवादपूर्वकल्याणवादपूर्वप्राणवादपूर्व क्रियाविशालपूर्वत्रिलोकबिन्दुसार . पूर्वनामश्र तज्ञानान्युत्पद्यन्ते । अत्र त्रिलोकबिन्दुसारस्य तु समासो नास्ति उत्तरज्ञानविकल्पाभावात्।।३४५-३४६।। अथ चतुर्दशपूर्वगतवस्तुप्राभृतकसंख्यां कथयति
उत्पादपूर्वमादिं कृत्वा त्रिलोकबिन्दुसारावसानेषु चतुर्दशपूर्वेषु वस्तूनि सर्वाणि मिलित्वा पञ्चनवत्यत्तरशतप्रमितानि १९५ भवन्ति । प्राभतकानि तु सर्वाणि मिलित्वा नवशतोत्तरत्रिसहस्रप्रमितानि भवन्ति २५ उत्कृष्ट उत्पाद पूर्व समास ज्ञान विकल्पके ऊपर एक अक्षरकी वृद्धि होनेपर अग्रायणी पूर्व श्रुतज्ञान होता है। इसी प्रकार आगे-आगे आठ, अठारह, बारह, बारह, सोलह, बीस, तीस, पन्द्रह, दस, दस, दस, दस वस्तुओंकी क्रमसे वृद्धि होनेपर एक अक्षर कम उतने-उतने उसउस पूर्व समास ज्ञान पर्यन्त उस-उस पूर्व समास ज्ञान सम्बन्धी विकल्प होते हैं। उस-उस पूर्व समास ज्ञानके उत्कृष्ट विकल्पके ऊपर एक-एक अक्षर बढ़ानेपर उस-उस वीय प्रवाद पूर्व अस्ति, नास्ति, प्रवाद, पूर्व आदि त्रिलोकबिन्दुसार पर्यन्त पूर्व श्रुतज्ञान उत्पन्न होते हैं। त्रिलोकबिन्दुसारका समास ज्ञान नहीं है, क्योंकि उसके आगे श्रुतज्ञानके विकल्प नहीं हैं ॥३४५-३४६॥
आगे चौदह पूर्वगत वस्तुओंके प्राभृतक नामक अधिकारोंकी संख्या कहते हैं
उत्पाद पूर्वसे लेकर त्रिलोकबिन्दुसार पर्यन्त चौदह पूर्वोमें मिलकर सब वस्तु ... अधिकार एक सौ पंचानवे होते हैं। तथा सब प्राभृत मिलकर तीन हजार नौ सौ होते हैं,
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गो० जीवकाण्डे
३९०० वस्तुगळ प्रमाणमनिप्पत्तरिदं गुणिसुत्तिरलु तत्संख्ये संभविसुगुप्पुर्दारदं । अनंतरं पूर्वोक्तिवंशतिप्रकार तज्ञानविकल्पोपसंहारमं गाथाद्वर्याददं पेदपं :अत्थक्खरं च पदसंघादं पडिवत्तियाणियोगं च । दुगवारपाहुडं च य पाहुडयं वत्थुपुव्वं च || ३४८|| कमवण्णुत्तरवड्ढिय ताण समासा य अक्खरगदाणि । णाणवियप्पे वीसं गंथे बारस य चोद्दसयं ॥ ३४९ ॥
अक्षरं च पदसंघातं प्रतिपत्तिकानुयोगं च । द्विकवारप्राभृतकं च च प्राभृतकं वस्तुपूर्वं च ॥ क्रमवर्णोत्तरवद्विततत्समासाश्च अक्षरगतानि । ज्ञानविकल्पे विशतिः ग्रंथे द्वादश च चतुर्दशकं ॥
अर्थाक्षर बुदु रूपोनेक्कट्ठविभक्त तकेवलज्ञानमात्रमेकाक्षरप्रमाणमक्कु
१० अर्थाक्षरमुं पदमुं संघातमुं प्रतिपत्तिकमुं अनुयोगमुं द्विकवारप्राभृतमुं प्राभृतक वस्तुवं पूर्व्वमुमेंबी भत्तयों भत्तरक्रमवर्णोत्तरर्वार्द्धतं गळप्पो भत्तुं समासंगऴुमितष्टादशभेदंगळु मक्षरगतंगळ द्रव्य श्रुतविकल्पंगळवु । तत् द्रव्यश्रुतश्रवणसं जनितश्रुतज्ञानं विवक्षिसल्पडुत्तिरलुमनक्षरात्मकपर्य्याय- पर्यायसमासज्ञानद्वयसहितं विंशतिविकल्पं श्रुतज्ञानमक्कुं । ग्रंथे शास्त्रसंदब्भं विवक्षिसल्पडुत्तं विरल द्वादश आचारांगादि द्वादशांगविकल्पमुमुत्पादपूर्व्वादिचतुर्दशपूर्व्वभेदमुमप्प द्रव्यश्रुतनुं तच्छ्रवणजनितज्ञान
के मी
१८ =
१५ ३९०० । वस्तुसंख्यायां विंशत्या गुणितायां तत्संख्यासंभवात् ॥ ३४७ ॥ अथ पूर्वोक्तविंशतिविधश्रुतज्ञानविकल्पोपसंहारं गाथाद्वयेनाहतच्च तथा पदं च संघातं प्रति
अर्थाक्षरं तु रूपोनैकट्ठविभक्तश्रुतकेवलमात्र मेकाक्षरज्ञानं के
P
१८ =
पत्तिकं अनुयोगं द्विकवरिप्राभृतकं प्राभृतकं वस्तु, पूर्व चेति नव पुनः एषामेव नवानां क्रमवर्णोत्तरवर्षिताः समासाश्च नव एवमष्टादशभेदा अक्षरगतद्रव्यश्रुतविकल्पा भवन्ति । तद्द्रव्यश्रुतश्रवण संजनितश्रुतज्ञानमेव पुनः २० ज्ञाने विवक्षिते अनक्षरात्मकपर्यायपर्यायसमासज्ञानद्वययुतं सत् विंशतिविधं श्रुतज्ञानं भवति । ग्रन्थे शास्त्रसन्दर्भे विवक्षिते सति आचाराङ्गादिद्वादशाङ्गविकल्पं उत्पादपूर्वादिचतुर्दशपूर्वभेदं च द्रव्यश्रुतं तच्छ्रवणसं जनितज्ञानक्योंकि एक-एक वस्तुमें बीस-बीस प्राभृत होते हैं। अतः वस्तुओंकी संख्या एक सौ पंचानवेमें बीस से गुणा करनेपर प्राभृतकों की संख्या उनतालीस सौ होती है || ३४७॥
अब पूर्वोक्त श्रुतज्ञानके बीस भेदोंका उपसंहार दो गाथाओंसे करते हैं
२५
अर्थाक्षर, पद, संघात, प्रतिपत्ति, अनुयोग, प्राभृतक प्राभृतक, प्राभृतक वस्तु, पूर्व ये नौ तथा इन्हीं नौके क्रमसे एक-एक अक्षरसे बढ़े नौ समास, इस प्रकार अठारह भेद अक्षरात्मक द्रव्यश्रुतके होते हैं । उस द्रव्यश्रुतके सुनने से उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान ही अनक्षरात्मक पर्याय और पर्याय समास ज्ञानोंको मिलानेपर बीस प्रकारका श्रुतज्ञान होता है । ग्रन्थकी विवक्षा होनेपर आचारांग आदि बारह भेदरूप और उत्पाद पूर्व आदि चौदह भेदरूप द्रव्यश्रुत है ३० और उसके सुनने से उत्पन्न ज्ञानस्वरूप भावश्रुत है । 'च' शब्द से अंगबाह्य, सामायिक आदि चौदह प्रकीर्णक भेदरूप द्रव्यश्रुत और भावश्रुतका समुच्चय किया जाता है। पुद्गल द्रव्य
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका स्वरूपमाप भावश्रुतपुं च शब्ददिनंगबाह्यमप्प सामायिकादिचतुर्दशप्रकीर्णकभेदद्रव्यभावात्मकश्रुतं समुच्चयं माडल्पटुदु। पुद्गलद्रव्यरूपं वर्णपदवाक्यात्मकं द्रव्यश्रुतमक्कुं। तच्छ्रवणसमुत्पन्न श्रु तज्ञानपव्यरूपं भावयु तमक्कुमें दितिदाचार्याभिप्रायं ।
पर्य्यायादिशब्दंगळ्गे निरुक्ति तोरल्पडुगुमदते दोर्ड परीयंते व्याप्यते सर्वे जीवा अनेनेति पर्यायः। सर्वजघन्यज्ञानमितप्प ज्ञानरहितजीवक्कभावमेयक्कुमप्पुरिदं । केवलज्ञानवंतरप्प जोवंगळोळमा ज्ञानमुमक्कुमदतेंदोड महासंख्येयप्प कोटयादियोळु एकाद्यल्पसंख्ययुमल्लियंतते ज्ञातव्यमक्कुं।
___ अक्षमिद्रियं तस्मै अक्षाय श्रोत्रंद्रियाय राति ददाति स्वमर्पयतीत्यक्षरम् । पद्यते गच्छति जानात्यर्थमात्माऽनेनेति पदम् । सम् संक्षेपेणैकदेशेन हन्यते गम्यते ज्ञायते एका गतिरनेनेति संघातः। प्रतिपद्यते सामस्त्येन ज्ञायते चतस्रो गतयोऽनयेति प्रतिपत्तिः। संज्ञायां कप्रत्ययविधाना त्प्रतिपत्तिकः। अनु गुणस्थानानुसारेण गत्यादिषु मार्गणासु युज्यंते संबंध्यंते जीवा अस्मिन्ननेनेति वा अनुयोगः।
प्रकर्षेण नामस्थापनाद्रव्यभावनिर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानसत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालांतरभावाल्पबहुत्वादिविशेषेण वस्त्वधिकारात्य॑राभृतं परिपूर्ण प्राभृतं वस्तुनोधिकारः प्राभृतमिति संज्ञाऽस्यास्तीति प्राभृतकं प्राभृतकस्याधिकारः प्राभृतकप्राभृतकं । वसंति पूर्वमहार्णस्वरूपं भावश्रुतम् । चशब्दात् अङ्गबाह्यसामायिकादिचतुर्दशप्रकीर्णकभेदद्र व्यभावात्मकश्रुतं पुद्गलद्रव्यरूपं वर्णपदवाक्यात्मकं द्रव्यश्रुतं, तच्छवणसमुत्पन्नश्रु तज्ञानपर्यायरूपं भावश्रुतं च समुच्चीयते इति आचार्यस्य अभिप्रायः । पर्यायादिशब्दानां निरुक्तिः प्रदर्श्यते । तद्यथा-परीयन्ते व्याप्यन्ते सर्वे जीवा अनेनेति पर्यायःसर्वजघन्यज्ञानं, ईदृशज्ञानरहितस्य जीवस्याभावात् । केवलज्ञानवत्स्वपि तत्संभवात् महासंख्यायां कोट्यादौ एकाद्यल्पसंख्यावत् । अक्षाय-श्रोत्रेन्द्रियाय राति ददाति स्वमर्पयतीत्यक्षरम् । पद्यते गच्छति जानात्यर्थमात्मा २० अनेनेति पदम् । सं-संक्षेपेण एकदेशेन हन्यते गम्यते ज्ञायते एका गतिः अनेनेति संघातः । प्रतिपद्यन्ते सामस्त्येन ज्ञायन्ते चतस्रो गतयः अनयेति प्रतिपत्तिः, संज्ञायां कप्रत्ययविधानात् प्रतिपत्तिकः । अनु गुणस्थानानुसारेण गत्यादिषु मार्गणासु युज्यन्ते संबध्यन्ते जीवा अस्मिन्ननेनेति चानुयोगः । प्रकर्षण-नामस्थापनाद्रव्यभावनिर्देशस्वामित्वसाधनाधिकारणस्थितिविधान-सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पबहत्वादिविशेषेण वस्त्वधिकारार्थरा
रूप वर्णपद वाक्यात्मक द्रव्यश्रुत होता है और उसके सुननेसे उत्पन्न हुए ज्ञानरूप भावश्रुत २५ है,यह आचार्यका अभिप्राय है । अब पर्याय आदि शब्दोंकी निरुक्ति कहते हैं इसके द्वारा सब जीव 'परीयन्ते' व्याप्त किये जाते है,वह पयोय अथात् सर्वजघन्य ज्ञान है। इस प्रकारक ज्ञानसे रहित कोई जीव नहीं है, केवलज्ञानियों में भी वह रहता है । जैसे कोटि आदि महासंख्यामें एक आदि अल्प संख्या गभित रहती है। 'अक्षाय' अर्थात् श्रोत्रेन्द्रियके लिए 'राति' अपनेको देता है, वह अक्षर है। जिसके द्वारा आत्मा अर्थको 'पद्यते' जानता है,वह पद है। ३० जिसके द्वारा एक गति 'सं' संक्षेप रूपसे एकदेशसे 'हन्यते' जानी जाती है, वह संघात है। जिसके द्वारा चारों गतियाँ 'प्रतिपद्यन्ते' पूर्ण रूपसे जानी जाती हैं,वह प्रतिपत्ति है। संज्ञामें 'क' प्रत्यय करनेसे प्रतिपत्तिक होता है। जिसमें या जिसके द्वारा जीव 'अनु' गुणस्थानके अनुसार गति आदि मार्गणाओंमें 'युज्यन्ते' युक्त किये जाते हैं, वह अनुयोग है। 'प्रकर्षण' नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव, निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति, विधान, सत्, ३५ संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व आदि विशेषोंसे वस्तु अधिकार
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५८०
गो० जीवकाण्डे
वस्या एकदेशेन संत्यस्मिन्निति वस्तुपूर्वाधिकारः। पूरयति श्रुतार्थान् संबिभर्तीति पूर्व । सं संगृह्य पर्यायादीनि पूर्वपय्यंतानि स्वीकृत्य अस्यंते क्षिप्यते विकल्प्यते इति समासाः। पर्यायज्ञानदत्तणिनुत्तरविकल्पंगळु पर्यायसमासंगर्छ । अक्षरज्ञानदत्तणिनुत्तरविकल्पंगळक्षरसमासंगळु इंतु मुंदल्लडयोळं पदसमासादिगळु योज्यंगळप्पवु।
___ इल्लि पूवंगळु १४ वस्तुगळु १९५ प्राभृतकंगळु ३९०० द्विकवारप्राभृतकंगळु ९३६०० अनुयोगंगळु ३७४४०० प्रतिपत्तिकसंघातपदंगळु संख्यातसहस्रगुणितक्रमंगळु । एकपदाक्षरंगळु १६३४८३०७८८८ समस्ताक्षरंगळु रूपोनेकट्ठप्रमितंगळु १८४४६७४४०७३७०९५९१६१५ ईयक्षरंगळनेकपदाक्षरंगळि प्रमाणिसुत्तं विरलु द्वादशांगपदप्रमाणमक्कुमें दु लब्धमं पेन्दपं:
बारुत्तरसयकोडी तेसीदी तह य होति लक्खाणं ।
अट्ठावण्णसहस्सा पंचेव पदाणि अंगाणं ।।३५०।। द्वादशोत्तरं शतं कोटचस्त्र्यशीतिस्तथा च भवंति लक्षाणामष्टपंचाशत् सहस्राणि पंचैव पदान्यंगानां॥
भतं परिपूर्ण प्राभतं वस्तुनोऽधिकारः, प्राभतमिति संज्ञा अस्यास्तीति प्राभतकं, प्राभूतकस्याधिकारः प्राभृतकप्राभृतकम् । वसन्ति पूर्वमहार्णवस्य अर्थाः एकदेशेन सन्त्यस्मिन्निति वस्तु । पूर्वाधिकारः पूरयति श्रुतार्थान् संबिभर्तीति पूर्वम् । सं-संगृह्य पर्यायादीनि पूर्वपर्यन्तानि स्वीकृत्य अस्यन्ते क्षिप्यन्ते विकल्प्यन्ते इति समासाः । पर्यायज्ञानादुत्तरविकल्पाः पर्यायसमासाः । अक्षरज्ञानादुत्तरविकल्पा अक्षरसमासाः। एवमग्रेऽपि सर्वत्र पदसमासादयो योज्याः । अत्र पूर्वाणि १४, वस्तुनि १९५, प्राभतकानि ३९००, द्विकवारप्राभूतकानि ९३६००, अनुयोगाः ३७४४००, प्रतिपत्तिकसंघातपदानि संख्यातसहस्रगुणितक्रमाणि एकपदाक्षराणि १६३४८३०७८८८,
समस्ताक्षराणि रूपोनैकट्ठप्रमितानि १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ । एतेष्वक्षरेषु एकपदाक्षरैः प्रमाणितेषु २० यल्लब्धं तद्द्वादशाङ्गपदप्रमाणं शेषमङ्गबाह्याक्षराणि ॥३४८-३४९॥ तत्र प्रथमं तत्पदप्रमाणमाह
सम्बन्धी अर्थोंसे जो 'आभृत' परिपूर्ण है,वह प्राभृत है। और प्राभृत संज्ञा होनेसे प्राभृतक है। प्राभृतकके अधिकारको प्राभृतक-प्राभृतक कहते हैं। जिसमें पूर्व नामक महासमुद्रके अर्थ 'वसन्ति' एक देशसे रहते हैं, वह वस्तु है। यह पूर्वोका अधिकार है । श्रुतके अर्थोंका 'पूर
यति' पोषण करता है, वह पूर्व है। सं अर्थात् पर्यायसे लेकर पूर्व पर्यन्त भेदोंको 'अस्यन्ते' २५ अपनाता है, वह समास है। पर्याय ज्ञानसे उत्तर भेद पर्याय समास हैं, अक्षर ज्ञानसे उत्तर
भेद अक्षर समास हैं। इसी प्रकार आगे भी पदसमास आदिकी योजना कर लेना । पूर्व चौदह हैं । वस्तु एक सौ पंचानबे हैं। प्राभृतक उनतालीस सौ हैं । प्राभृतक-प्राभृतक तिरानवे हजार छह सौ हैं। अनुयोग तीन लाख चौहत्तर हजार चार सौ हैं। प्रतिपत्तिक, संघात और पद उत्तरोत्तर क्रमसे संख्यात हजार गुणित हैं। एक पदके अक्षर सोलह सौ चौंतीस कोटि, तेरासी लाख सात हजार आठ सौं अठासी है। समस्त अक्षर एक कम एकट्ठी प्रमाण १८४४६७४४०७३७०९५५०६१५ हैं। इन अक्षरों में एक पदके अक्षरोंसे भाग देनेपर जो लब्ध आया,वह द्वादशांगके पदोंका प्रमाण है और शेष बचा वह अंगबाह्यके अक्षरोंका प्रमाण है ॥३४८-३४९॥
पहले द्वादशांगके पदों की संख्या कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५८१ द्वादशोत्तरशतप्रमितकोटिगळु त्रैशीतिलक्षंगळु मय्वत्तेटु सासिरदय्दु द्वादशांगमध्यमसर्वपदप्रमाणमक्कुं ११२८३५८००५ ।
अनंतरमंगबाह्याक्षरसंख्ययं पेळ्दपनवु मेकपदाक्षरंगळि देक्कट्टनं भागिसुत्तिरलु शेषाक्षरंगळवर प्रमाणमं पेळ्दपं :
अडकोडिएयलक्खा अट्ठसहस्सा य एयसदिगं च ।
पण्णत्त रिवण्णाओ पइण्णयाणं पमाणं तु ॥३५१॥ अष्टकोटयेकलक्षमष्टसहस्रं चैकशतिकं च। पंचोत्तरसप्ततिवर्णाः प्रकीर्णकानां प्रमाणं तु॥
एंटु कोटिगळ्मेकलक्षमुमेंटुसहस्रगळु नूरेप्पत्तैदु ८०१०८१७५ मंगबाह्यांगळप्प सामाधिकादिचतुर्दशभेदंगळोळु संभविसुव प्रकीर्णकाक्षरंगळ प्रमाणमक्कुं। तु शब्ददिदं पूर्वसूत्रदोळु द्वादशांगपदसंख्ये पेळल्पटुंदो सूत्रदोळंगबाह्याक्षरसंख्य पेळल्पटुदेबी विशेषमरियल्पडुगु। १० अनंतरमी यथनिर्णयात्थं गाथाद्वयमं पेळदपं:
तेत्तीसवेंजणाई सत्तावीसा सरा तहा भणिया।
चत्तारिय जोगवहा चउसट्ठी मूलवण्णाओ ॥३५२॥ त्रयस्त्रिशद्वयंजनानि सप्तविंशति स्वराः तथा भणिताः। चत्वारश्च योगवाहाः चतुःषष्टिमूलवर्णाः ॥
१५
द्वादशोत्तरशतकोट्यः त्र्यशीतिलक्षाणि अष्टपञ्चाशत्सहस्राणि पञ्च च द्वादशाङ्गानां मध्यमसर्वपदप्रमाणं भवति ११२, ८३, ५८, ००५ । [ अंग्यते मध्यमपदैलक्ष्यते इत्यङ्गम् । अथवा आचारादिद्वादशशास्त्रसमूहरूपश्रतस्कन्धस्य अहं अवयवः एकदेशः आचाराद्यकशास्त्रमित्यर्थः 1॥३५०॥ अथाङ कथयति
अष्टकोट्येकलक्षाष्टसहस्रकशतपञ्चसप्ततिप्रमाणाः प्रकीर्णकानां अङ्गबाह्यानां सामायिकादीनां च । चतुर्दशानां वर्णा भवन्ति ८०१०८१७५ तुशब्दः पूर्वसूत्र द्वादशाङ्गपदसंख्योक्ता, अस्मिन् सूत्रे च अङ्गबाह्याक्षरसंख्योक्तति विशेष ज्ञायति ॥३५१॥ अथामुमेवार्थ गाथाद्वयेनाह
द्वादशांगके सब मध्यम पदोंका प्रमाण एक सौ बारह कोटि, तेरासी लाख, अट्ठावन हजार पाँच है। अङ्गयते अर्थात् मध्यम पदोंके द्वारा जो लक्षित होता है, वह अंग है । अथवा आचार आदि बारह शास्त्रसमूहरूप श्रुतस्कन्धका जो अंग अर्थात् अवयव या एक- ।। देश है । अर्थात् आचार आदि एक-एक शास्त्र अंग है ॥३५०॥
अब अंगबाह्यकी अक्षर संख्या कहते हैं
प्रकीर्णक अर्थात् सामायिक आदि चौदह अंगबाह्योंके अक्षर आठ कोटि, एक लाख आठ हजार एक सौ पिचहत्तर प्रमाण होते हैं । 'तु'शब्द विशेषार्थक है।वह ज्ञापित करता है कि पूर्व गाथासूत्रमें द्वादशांगके पदोंकी संख्या कही है । इस गाथा सूत्रमें अंगबाह्यके अक्षरोंकी १ संख्या कही है ।।३५१॥
इसी अर्थको दो गाथाओंसे कहते हैं१. [ ] एतत्कोष्ठान्तर्गतपाठो नास्ति ब प्रतौ ।
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५८२
१५
गो० जीवकाण्डे ओ अहो व्यंजनानि अर्द्धमानंगळप्प व्यंजनंगळुत्रयस्त्रिंशत्प्रमितंगळप्पुवु ३३ स्वराः स्वरंगळेक द्वित्रिमात्रंगळु सप्तविंशतिः सप्तविंशतिप्रमितंगळु २७ योगवाहाः योगवाहंगळ चत्वारश्च नाल्कु ४ अप्पुवु इंतु मूलवर्णंगळुचतुःषष्टिप्रमितंगळप्पुर्वेदु ओ अहो भव्या नीनरिय दितनादिनिधनपरमागम - दो प्रसिद्धंगळा प्रकारदिदमे पेळल्पटुवु ।
व्यज्यते स्फुटीक्रियतेऽर्थो यस्तानि व्यंजनानि। स्वरंत्यत्थं कथयंतीति स्वराः। योगमन्याक्षरसंयोगं वहंतीति योगवाहाः । मूलानि संयुक्तोत्तरवर्णोत्पत्तिकारणभूता वर्णा मूलवर्णाः एंदितु समासार्थबलदिदमसंयुक्तमागिये चतुःषष्टिवर्णंगळ ग्राह्यंगळप्पुवु। ई वर्णक्क संस्कृतदोळु दीर्घाभावमादोडमनुकरणदोळं देशांतर भाषेगळोलं सद्भावमक्कुं। ए ऐ ओ औ एंबी नाल्कक्कं संस्कृतदोळु हस्वाभावमादोडं प्राकृतदोळं देशांतरभाषेगळोळं सद्भावमक्कुं।
चउसट्ठिपदं विरलिय दुगं च दाऊण संगुणं किच्चा ।
रूऊणं च कए पुण सुदणाणस्सक्खरा होंति ॥३५३॥ चतुःषष्टिपदं विरलयित्वा द्विकं च दत्वा संगुणं कृत्वा। रूपोनं च कृते पुनः श्रुतज्ञानस्याक्षराणि भवंति ॥
ओ-अहो भव्य ! व्य ञ्जनानि अर्धमात्राणि क् ख् ग् घ् ङ् । च छ ज झ ञ् । ठ् ड् ढ् ण् । त् थ् द् ध् न् । ए फ ब भ म् । य र ल व श ष स ह । इत्येतानि त्रयस्त्रिशत ३३ । स्वराः एकद्वित्रिमात्राः । अ इ उ ऋ ल ए ऐ ओ औ इत्येते नव, प्रत्येक हस्वदीर्घप्लतभेदैस्विभिर्गणिताः अ आ आ ३, इ ई ई ३, उ ऊ ऊ ३, ऋ ऋ ऋ ३, ल ल ल ३, ए १ ए २ ए ३, ऐ १ ऐ २ ऐ ३, ओ १ ओ २ ओ ३,
औ १ औ २ औ ३ इत्येते सप्तविंशतिः २७ । योगवाहाः अं अः क ४५ इत्येते चत्वारः ४, एवं मिलित्वा मूलवर्णाश्चतुःषष्टिः ६४ । यथानादिनिधने परमागमे प्रसिद्धास्तथैवात्र भणिताः संजानीहि । व्यज्यते २० स्फुटीक्रियते अर्थो यैस्तानि व्यञ्जनानि । स्वरन्ति-अर्थ कथयन्तोति स्वराः । योग-अन्याक्षरसंयोगं वहन्तीति
योगवाहाः। मूलानि संयुक्तोत्तरवर्णोत्पत्तिकारणानि वर्णाः मलवर्णाः इति समासार्थबलेन असंयुक्ता एव चतुःषष्टिरिति लभ्यन्ते । लवर्णः संस्कृते दी? नास्ति तथापि अनुकरणे देशान्तरभाषायां चास्ति । ए ऐ ओ औ इति चत्वारोऽपि संस्कृते ह्रस्वा न सन्ति तथापि प्राकृते देशान्तरभाषायां च सन्ति ॥३५२॥
'ओ' अर्थात् हे भव्य ! अर्धमात्रा जिनमें होती है, ऐसे सब व्यंजन तैंतीस हैं२५ क ख ग घ ङ् । च छ ज झ ट ठ ड ढ ण् । त् थ् द् ध् न् । प फ ब भ म् । य र.
ल व श ष स ह । एक-दो-तीन मात्रावाले स्वर सत्ताईस होते हैं-अ, इ उ ऋ ल ए ऐ ओ औ ये नौ । प्रत्येकंको ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत तीनसे गुणा करनेपर सत्ताईस होते हैं । अ आ आ । इ ई ई उ ऊ ऊ३। ऋऋ ऋ३। ल ल ल ३। ए १ ए २ ए३। ऐ१ ऐ
ऐ३। ओ १ ओ २ ओ३ औ १ औ २ औ ३। अं अः क प ये चार योगवाह । इस ३० प्रकार सब मिलकर मूल अक्षर चौंसठ हैं। जैसा अनादिनिधन परमागममें प्रसिद्ध हैं, वैसा ही यहाँ कहे हैं।
'व्यज्यते' जिनके द्वारा अर्थ प्रकट किया जाता है ,वे व्यंजन हैं । 'स्वरन्ति' जो अर्थको कहते हैं, वे स्वर हैं। योग अर्थात् अन्य अक्षरोंके संयोगको जो 'वहन्ति' वहन करते हैं, वे
योगवाह हैं । 'मूल' अर्थात् संयुक्त उत्तर वर्णों की उत्पत्तिके कारण वर्ण मूल वर्ण हैं। इस ३५ समासके अथके बलसे असंयुक्त अक्षर ही चौंसठ है ,यह ज्ञात होता है । लु वर्ण संस्कृत भाषा' में दीर्घ नहीं है, तथापि देशान्तरको भाषामें है। ए ऐ ओ औ ये चारों संस्कृतमें ह्रस्व नहीं
हैं। तथापि प्राकृत और देशभाषामें हैं ॥३५२।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५८३ मूलवर्नप्रमाणमप्प चतुःषष्टयंकस्थानरूपंगळं विरलिसि तिर्यक्पंक्तिरूपदिदं स्थापिसि रूपं प्रति द्वि कंगळनित्तु संगुणं कृत्वा परस्पर गुणनमं माडि तल्लब्धदोळु रूपोनं माडुत्तिरलु श्रतज्ञानस्य द्वादशांगप्रकोण्नक श्रुतस्कंधद्रव्यश्रुतद अपुनरुक्ताक्षरंगळु तल्लब्धप्रमितंगळप्पुवंतंदोडे वाक्यार्थप्रतीतिनिमित्तंगळप्पपुनरुक्ताक्षरंगळरो संख्यानियमाभावमप्पुरिदं । एकद्विव्यादि चतुःषष्टिसंयोगपर्यंतमप्प संयोगाक्षरंगळु संकलितमागुत्तिरलु श्रुतस्कंधाक्षरप्रमाणोत्पत्तियक्कुमा ५ संकलितधनर्मनितंदोडे पेळ्दपरु :
एक्कट्ठ चदु चदु छस्सत्तयं चय चय सुण्णसत्ततियसत्ता ।
सुण्णं णव पण पंच य एक्कं छक्केक्कगो य पणगं च ॥३५४॥ एकाष्टचतुःचतुःषट्सप्तकं च चतुःचतुःशून्यसप्तत्रिकसप्त। शून्यं नव पंच पंच च एक षट्कैककश्च पंचकं च ॥
एंदितेकांकमादियागि पंचांकावसानमाविंशतिस्थानात्मकद्विरूपवर्गधारारूपोनषष्ठवर्गप्रमाणाक्षरंगळप्पुवु-१८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ ।
००००६४
प्रत्येक
द्विसंयोग
६ | १०
१५
२१
२८ ३६ त्रिसंयोग ५६ ८४ | चतुःसंयोग ७० | १२६ पंचसंयोग ५६ १२६ षट्संयोग २८ ८४
सप्तसंयोग
| अष्टसंयोग
१२८ १९
नवसंयोग
२५६ १ । दशसंयोग
www
मलवर्णप्रमाणं चतुःषष्टिपदं एकैकरूपेण विरलयित्वा रूपं रूप प्रति दिवक दत्त्वा परस्पर सङ्गण्य तल्लब्धे मूलपणा
मूल अक्षर प्रमाण चौंसठ पदोंको एक-एक रूपसे विरलन करके एक-एक रूपपर दो- २५
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५८४
गो० जीवकाण्डे इवेकद्वित्रिसंयोगादिचतुःषष्ठिसंयोगपर्यंतमप्प संयोगाक्षरसंजनिताक्षरंगळ संख्येयप्पुरि ना एकद्वित्रिसंयोगाक्षरंगलिनुत्पत्तिकमंतोरल्पडुगुमदते दोडे व्यंजनंगळु त्रयस्त्रिशत्प्रमितंगळु । स्वरंगळु सप्तविंशतिप्रमितंगळु। योगवहंगळु चतुःप्रमितंर्गाळंतु मूलवण्नंगळु चतुःषष्टिप्रमितंगलिवं क्रमदिंद
मरुवत्तनाल्कडयोल बेरे बेरे तिर्यग्रूपदिदं स्थापिसि प्रत्येकं द्विसंयोगादिगळं माळ्पुदेत दोडे कवर्ण५ दोळ प्रत्येकभंगमो देयकुं१। द्विसंयोगमुळ्ळ खवर्णदोळु प्रत्येकभंगदु १। द्विसंयोगभंग १। अंतु
२। गवर्णदोळु प्र१। द्वि २ त्रि ३ । अंतु ४। घवर्णदो प्र१। द्वि २ त्रि३ च १ अंतु ८। ङ वर्णदोल प्र१ द्वि ४ त्रि ६ च ४ पं १ अंतु १६ च वर्णदो प्र१द्वि ५ त्रि१० च १० पं ५ ष १ अंतु ३२। छवर्णदोळ प्र १ द्वि ६ त्रि १५ च २० पं १५ ष ६ सप्त १ अंतु ६४। जवर्णदोळ प्र१ द्वि ७ त्रि २१ च ३५ ५ ३५ ष २१ सप्त ७ अष्ट १ अंतु १२८ । झवर्णदोळु प्र१ द्वि ८ त्रि २८ रूपोने कृते सति श्रुतज्ञानस्य द्वादशाङ्गप्रकीर्णकरूपश्रुतस्कन्धस्य द्रव्यश्र तस्य अपुनरुक्ताक्षराणि भवन्ति । वाक्यार्थप्रतीत्यर्थ गृहीतानां पुनरुक्ताक्षराणां संख्यानियमाभावात् ॥३५३॥ तदपुनरुक्ताक्षरप्रमाणं कियदिति चेदाह
एकाष्टचतुश्चतुःषट्सप्तकं चतुश्चतुःशून्यसप्तत्रिकसप्तशन्यं नवपञ्चपञ्च एक षटकंकश्च पञ्चकं च इत्येकाङ्गादिपञ्चाङ्कावसानविंशतिस्थानात्मक द्विरूपवगंधारोत्पन्नरूपोनषष्ठवर्गप्रमाणाक्षराणि भवन्ति१५ १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ । एतानि अक्षराणि एकद्वित्रिसंयोगादीनि चतुपष्टिसंयोगपर्यन्तानि सन्ति
तेषामुत्पत्तिक्रमो दर्श्यते तद्यथा-उक्तमूलवर्णचतुःषष्टि तिर्यक्पङ्क्त्या लिखित्वा तत्र कवणे प्रत्येकभङ्गे एकः १ । द्विसंयोगो नास्ति । खवणे प्रत्येकभङ्गः १ द्विसंयोगभङ्गः १ एवं २ । गवर्णे प्र१ द्वि २ त्रि १ एवं ४ । घवर्णे प्र१द्वि ३ त्रि ३ च १ एवं ८। डवणे प्र१ द्वि ४ त्रि ६ च ४ पं १ एवं १६ । चवणे प्र १ द्वि ५ त्रि १० च १० पं ५ष १ एवं ३२ । छवर्णे प्र१ द्वि ६ वि १५ च २० पं १५ प ६ सप्त १ एवं ६४ ।
वणे प्र१द्वि ७ वि २१ च ३५ पं ३५ ष २१ सप्त ७ अष्ट १ एवं १२८ । झवणे प्र१ द्वि ८ त्रि २८ दोका अंक देकर परस्परमें गुणा करनेपर जो लब्ध प्राप्त हो,उसमें एक कम करनेपर द्वादशांग
और प्रकीर्णक श्रुतस्कन्ध रूप द्रव्य श्रुतके अपुनरुक्त अक्षर होते हैं। वाक्यके अर्थका ज्ञान करानेके लिए गृहीत पुनरुक्त अक्षरोंकी संख्याका कोई नियम नहीं है ॥३५३।।।
एक आठ चार चार छह सात चार चार शून्य सात तीन सात शून्य नौ पाँच पाँच २५ एक छह एक पाँच १८४४६७४४०७३७०९५५१६१५ इस प्रकार एक अंकसे लेकर पाँच अंक
पर्यन्त बीस स्थानरूप अपुनरुक्त अक्षर होते हैं । सो द्विरूप वर्गधारामें उत्पन्न एक हीन छठे वर्ग प्रमाण हैं । ये अक्षर एक संयोगी,दो संयोगी, तीन संयोगी, आदि चौंसठ संयोग पर्यन्त, होते हैं। उनकी उत्पत्तिका क्रम दिखलाते हैं
उक्त मूल वर्ण चौंसठ एक पंक्ति में लिखें। उनमें से कवर्णमें प्रत्येक भंग एक है। ३० द्विसंयोगी आदि नहीं है । खवर्णमें प्रत्येक भंग एक द्विसंयोगी भंग एक है । इस प्रकार दो भंग
हैं। गवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी दो, तीन संयोगी एक, इस तरह चार भंग हैं। घवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी तीन, तीन संयोगी तीन, चार संयोगी एक, इस तरह आठ भंग हैं। ङवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी चार, तीन संयोगी छह, चार संयोगी चार, पाँच संयोगी एक,
इस तरह सोलह भंग हैं। चवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी पाँच, त्रिसंयोगी दस, चार । संयोगी दस, पाँच संयोगी पाँच, छह संयोगी एक, इस तरह बत्तीस भंग हैं । छवर्णमें प्रत्येक ' एक, दो संयोगी छह, तीन संयोगी पन्द्रह, चार संयोगी बीस, पाँच संयोगी पन्द्रह, छह संयोगी
छह, सात संयोगी एक, इस तरह चौंसठ भंग हैं। जवर्णमें प्रत्येक एक दो, संयोगी सात, तीन
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका च ५६ ५ ७०। ५६ । सप्त २८ । अष्ट ८ नव १ अंतु २५६ । अवर्णदोळु प्र१ द्वि ९ त्रि ३६ च ८४ पं १२६ । ष १२६ । स ८४ । अष्ट ३६ । नव ९। दश १ अंतु ५१२। इंती क्रमदिदं अरुवत्तनाल्कुं स्थानंगकोळं नडसुवुदंतु नडसुत्तिरलु प्रत्येकादिभंगंगळु पूर्वपूर्वमं नोडलूतरोत्तर भंगयुत्तिगळु द्विगुणद्विगुणक्रमदिदं नववा संदृष्टिपदगळंनिरिसिदोडितिर्युवी चतुःषष्टिपदंगळोळु ट ठ ड ढ ण् । त् थ् द् ध् न् । प फ ब भ म्। य र ल व श ष स ह । अ आ आ। इ ई ई। ऊ ऊ ऊ इत्यादि ५ सप्तविंशतिस्वराः। अं अः प॑ इवरोळु विवक्षिताक्षरस्थानदोळु प्रत्येकद्विसंयोगादि भंगंगळं समस्तपदंगळोल संभविसुव संयोगंगळ संख्याप्रमाणमुमं चरमस्थानपथ्यंतं तरल्समर्थमप्प करणसूत्रमं श्रीमदभयचंद्रसूरिसैद्धांतचक्रवत्ति श्रीपादप्रसाददिदं केशवण्णंगळपेळ्दपरदे ते दोडे :
पत्तेयभंगमेगं बेसंजोगं विरूवपदमेत्तं ।
तिसंजोगादिपमा रूवाहियवारहीणपदसंकळिदं ॥ प्रत्येकभंग एकः विवक्षितस्थानदोळु प्रत्येकभंगमों देयकुं। १। द्विसंयोगो विरूपपदमात्रः विगतं रूप यस्मात् तच्च तत्पदं च विरूपपदं। तदेव मात्र प्रमाणं यस्यासौ विरूपपदमात्रः । रूपोनपदप्रमितम बुदत्थं । तिसंजोगादिपमा त्रिसंयोगादिप्रमा त्रिसंयोगचतुःसंयोगपंचसंयोगादिविवक्षितपदसंभवसंयोगंगळ प्रमाणं यथाक्रमं क्रममनतिक्रमिसदे रूवहियवारहोणपदसंकळिवं रूपाधिकवारहीनपदसंकलितं भवति रूपाधिकैकद्वित्रिवारादिसंकलनसंख्याविहीनविवक्षितपदंगळ १५ एकद्वित्रिवारादिसंकलितधनमक्कं । इल्लि विवक्षितमप्प पत्तनय वर्णदोळु प्रत्येकभंग एकः प्रत्येकभंगमोंदु १। द्विसंयोगो विरूपपदमात्रः द्विसंयोगसंख्ये रूपोनपदमात्रमक्कं । ९ । त्रिसंयोगादि
१.
च ५६ ५ ७० ष ५६ सप्त २८ अष्ट ८ नव १ एवं २५६ । अवर्णे प्र१ द्वि ९ त्रि ३६ च ८४ ५ १२६ ष १२६ सप्त ८४ अष्ट ३६ नव ९ दश १ एवं ५१२ । अनेन क्रमेण चतुःषष्टिस्थानेषु गतेषु प्रत्येकादिभङ्गाः पूर्वपूर्वेभ्यः उत्तरोत्तरे द्विगुणा द्विगुणा भवन्ति । ३५४ । तेषां संख्यासाधने करणसूत्रं श्रीमदभयचन्द्रसूरिसैद्धान्त- २० चक्रवर्तिश्रीपादप्रसादेन केशववणिनः प्राहुः
पत्तेयभङ्गमेगं वेसंजोगं विरूवपदमेत्तं । तियसंजोगादिपमा रूवाहियवारहीणपदसंकलिदं॥ प्रत्येकभङ्गमेकं द्विसंयोगं रूपोनपदमा। त्रिसंयोगादिप्रमाणं रूपाधिकवारहीनपदसंकलितं ॥
विवक्षितस्थानेषु सर्वत्र प्रत्येकभङ्गः एकैकः । द्विसंयोगभङ्गो रूपोनपदमात्रः । त्रिसंयोगादीनां प्रमाणं तु यथाक्रमं रूपाधिकवारहीनपदसंकलितम् । एकवारादिसंकलितं तद्वारसंख्यया एकरूपाधिकया हीनस्य २५ संयोगी इक्कीस, चार संयोगी पैंतीस, पाँच संयोगी पैंतीस, छह संयोगी इक्कीस, सात संयोगी सात, आठ संयोगी एक, इस तरह एक सौ अठाईस भंग हैं। झवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी आठ, तीन संयोगी अट्ठाईस, चार संयोगी छप्पन, पाँच संयोगी सत्तर, छह संयोगी छप्पन, सात संयोगी अट्ठाईस, आठ संयोगी आठ, नौ संयोगी एक, इस तरह दो सौ छप्पन भंग होते हैं। बवर्णमें प्रत्येक एक, दो संयोगी नौ, तीन संयोगी छत्तीस, चार संयोगी ३० चौरासी, पांच संयोगी एक सौ छब्बीस, छह संयोगी एक सौ छब्बीस, सात संयोगी चौरासी, आठ संयोगी छत्तीस, नौ संयोगी नौ, दस संयोगी एक, इस तरह पाँच सौ बारह भंग हैं। इस क्रमसे चौंसठ स्थानोंमें प्रत्येक आदि भंग पूर्व-पूर्वसे उत्तरोत्तर दुगुने-दुगुने होते हैं। उनकी संख्या लानेके लिए करणसूत्र श्रीमत् अभयचन्द्र सूरि सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणोंके । प्रसादसे केशववर्णी कहते हैं, जिसका आशय इस प्रकार है--विवक्षित स्थानोंमें सर्वत्र , प्रत्येक भंग एक-एक होता है। द्विसंयोगी भंग एक कम गच्छ प्रमाण होते हैं। तीन संयोगी २
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५८६
गो० जीवकाण्डे प्रमा त्रिसंयोगचतुःसंयोगपंचसंयोगादिस्वसंभवसंयोगंगळ प्रमाणं रूपाधिकवारहीनपदसंकलितं भवति । रूपाधिकैकद्वित्रिवारादिस्वसंभवसंकलनसंख्या ११११ १ १ ११ विहीनविवक्षित
१२३४५६७८ पदं:-१०।२।१०।-३।१०।-४।१०।-५॥ १०-६।१०।-७।१०।८।१०।-९ ।
ई पदंगळ तत्तद्वारसंकलितं यावत्तावद्भवति । त्रियोगंगळु रूपाधिकैकवारसंकलनसंख्याहीनपद५ देकवारसंकलितमक्कुं १०-२।१०१ अपत्तितमिदु । ३६ । चतुःसंयोगंगळु त्रिरूपोनपदद्विकवारसंकलितमक्कुं ७।८।९ अपत्तितमिदु । ८४ । पंचसंयोगंगळु चतूरूपोनपदत्रिवारसंकलितमक्कुं
३।२।१ ६।७।८।२ अपत्तितमिदु। १२६। षट्सयोगंगळु पंचरूपोनपदचतुर्वारसंकलितमकुं ४।३।२।१ ५।६।७। ८।९ अपतितमिदु-१२६ । सप्तसंयोगंगळु षड़ पोनपदपंचवारसंकलितमक्कुं ५।४।३।२।१
विवक्षितपदस्य यावत्तावद्भवति । यथा दशमे अवर्णे त्रिसंयोगाः द्विरूपोनपदस्य एकवारसंकलनमात्राः१० १०-२ । १०-१ अपवर्तिताः ३६ चतुःसंयोगाः त्रिरूपोनपदस्य द्विकवारसंकलनमात्राः
७। ८ । ९ अपवर्तितोः ८४। पञ्चसंयोगाः चतुरूपोनपदस्य त्रिकवारसंकलनमात्राः ६ । ७ । ८ । ९ ३ । २।१
४। ३ । २ । १ अपवर्तिताः १२६ । षट संयोगाः पञ्च रूपोनपदस्य चतर्वारसंकलनमात्रा: ५। ६ । ७।८ । ९ अपवर्तिताः
५ । ४ । ३ । २ । १
आदिका प्रमाण यथाक्रम एक अधिक बार हीन गच्छका संकलन धन मात्र है। जितनी बार
संकलन हो, उतने बारोंकी संख्या में एक अधिक करके और उसे विवक्षित गच्छ में घटानेपर १५ जो शेष प्रमाण रहे,उतनेका संकलन करना चाहिए। जैसे दसवै अवर्ण में त्रिसंयोगी भंग
लाने के लिए एक बार संकलनका प्रमाण एक होनेसे उसमें एक अधिक करनेपर दो हुए। इस दोको गच्छ दसमें-से घटानेपर शेष आठ रहे। इस आठका एक बार संकलन धन मात्र त्रिसंयोगी भंग होते हैं । संकलन धन लानेके लिए कहे गये करणसूत्रके अनुसार विवक्षित
दसवें अवर्ण में प्रत्येक भंग एक, द्विसंयोगी एक कम गच्छ प्रमाण नौ, त्रिसंयोगी भंग दो २० हीन गच्छ प्रमाण आठका एक बार संकलन धन मात्र हैं। सो संकलन धन लाने के सूत्रके
अनुसार आठ और नौको दो और एकसे भाग देकर अपवर्तन करनेपर छत्तीस होते हैं। अर्थात् आठ और नौको परस्पर में गुणा करनेपर बहत्तर हुए। और दो-एकको परस्परमें गुणा करनेपर दो हुए। दोसे बहत्तरमें भाग देनेपर छत्तीस रहते हैं। इसी तरह चतुःसंयोगी भंग
तीन हीन गच्छका दो बार संकलन धन मात्र हैं। सो सात, आठ, नौको तीन, दो, एकका २५ भाग देनेपर ७।८।९। अपवर्तन करनेपर चौरासी होते हैं। पंचसंयोगी भंग चार हीन
३।२।१। गच्छका तीन बार संकलन धन मात्र हैं। सो छह, सात, आठ, नौ को चार, तीन, दो, एकसे भाग देकर ६।७।८।९। अपवर्तन करनेपर एक सौ छब्बीस होते हैं । षट्संयोगी भंग
४।३।२।१।।
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
५८७ ४।५।६।७। ८ । ९ अपतितमिदुवु ८ ४ । अष्टसंयोगंगळु । सप्तरूपोनपदषड्वारसंकलितमक्कु ६।५।४।३।२।१ ३।४।५।६।७।८।९ अपत्तितमिदु ३६ । नवसंयोगंगळु अष्टरूपोनपदसप्तवारसंकलितमक्कं ७।६।५।४।३।२।१।। २।३।४।५।६।७।८।९ अपत्तितमिदु ९ । दशसंयोगंगळु नवरूपोनपदाष्टवारसंकलित८।७।६।५।४।३। २।१ मक्कुमादोडमल्लि परमादिदं संकलितमिल्लिल्लियो दे रूपमक्कु । मिवेल्लं कूडि ५१२। इंती प्रकारदिवेल्लेडयोळु तंदु को बुदु।
___चरमस्थानदोळु तोप्पे व ते दोडे चरमदोळं प्रत्येकभंग एकः प्रत्येकभंगमोंदु। द्विसंयोगो ५ द्विरूपपदमात्रः। द्विसंयोगंगळ्वसंख्य विरूपपदमात्रमक्कुं। ६३ । त्रिसंयोगादिक्रमाः त्रिसंयोगचतुःसंयोगपंचसंयोगादि स्वसंभवचतःषष्टिसंयोगावसानमाद संयोगंगळ प्रमाणं यथाक्रम क्रममनतिक्रमिसदे रूपाधिकवारहीनपदसंकलितं रूपाधिकैकद्वित्रिवारादि-स्वसंभवद्युत्तरषष्टिपर्यवसानं. १२६ । सप्तसंयोगाः षड़पोनपदस्य पञ्चवारसंकलनमात्राः ४ । ५। ६ । ७ । ८ । ९ अपवर्तिता ८४ ।
६।५।४ । ३।२।१ अष्टसंयोगाः सप्तरूपोनपदस्य षड़वारसंकलनमात्रा: ३ । ४ । ५। ६ । ७।८।९ अपवर्तिताः ३६ । १०
७।६। ५। ४ । ३।२।१ नवसंयोगाः अष्टरूपोनपदस्य सप्तवारसंकलनमात्राः २।३।४।५।६।७।८।९ अपवर्तिताः ९ ।
८। ७ । ६ । ५ । ४।३।२ । १ । दशसंयोगाः नवरूपोनपदस्य अष्टवारसंकलनमात्राः । अत्र परमार्थतः संकलनमेव नास्ति इत्येकः । एते सर्वे एकप्रत्येकभङ्गनवद्विसंयोगैः द्वादशोत्तरपञ्चशतभङ्गा भवन्ति ५१२ । एवं सर्वपदेष्वानयेत् । चरमस्थाने प्रत्येकभंगः एकः १। द्विसंयोगो विरूपपदमात्राः । दश त्रिसंयोगाः द्विरूपोनपदस्यकवारसंकलनमात्राः
पाँच हीन गच्छका चार बार संकलन धन मात्र हैं। सो पाँच, छह, सात, आठ, नौको पाँच, १५ चार, तीन, दो, एकसे भाग देकर ५। ६ । ७।८।९। अपवर्तन करनेपर एक सौ छब्बीस
५।४।३।२।१। होते हैं। सात संयोगी भग छह हीन गच्छका पाँच बार संकलन धन मात्र हैं। सो चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौ में छह, पाँच, चार, तीन, दो, एंकका भाग देकर ४।५।६७८९
६५।४।३।२।१ अपवर्तन करनेपर चौरासी होते हैं । आठ संयोगी भंग सात हीन गच्छका छह बार संकलन धन मात्र हैं । सो तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नो को सात, छह, पाँच, चार, तीन, २० दो, एकका भाग देकर ३।४।५।६।७।८।९ अपवर्तन करनेपर छत्तीस होते हैं।
७।६।५।४।३।२।१। नौ संयोगी भंग आठ हीन गच्छका सात बार संकलन धन मात्र हैं। सो दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात, आठ, नौको आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो, एकका भाग देनेपर नौ होते हैं.। दस संयोगी भंग नौ हीन गच्छका आठ बार संकलन धन मात्र हैं । सो यहाँ वास्तव में संकलन नहीं है क्योंकि एकका संकलन एक ही होता है, अतः एक ही भंग है। ५ इस प्रकार सबको जोड़नेपर दसवें स्थानमें पाँच सौ बारह भंग होते हैं।इसी प्रकार सब १. म सानवार संकलनसंख्या । २. इतोऽने मुद्रितप्रतौ सर्व नास्ति ।
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५८८
गो० जीवकाण्डे संकलनवारसंख्याहोनपदंगळ ६४-२। -६४-३। -६४-४ । ६४-५ । ००००। ६-४-६३ तत्तद्वारसंकलितं यावत्तावद्भवति एंदितु त्रिसंयोगंगळु रूपाधिकैकवारसंकलनसंख्याहीनपदद एकवारसंकलितमक्कुं ६४-२ । ६ ४।१ अपत्तितमिदु १९५३ चतुःसंयोगंगळु त्रिरूपोनपदद्विकवार
संकलितमक्कुं ६ १ । ६२ । ६३ अपत्तितमिदु ३९७११ पंचसंयोगंगळु चतूरूपोनपदत्रिवारसंकलितमक्कुं ६० । ६१ । ६२ अपत्तितमिदु ५९५६६५ षट्संयोगंगळु पंचरूपोनपदचतुरिसंकलितमक्कु ५९ । ६० । ६१ । ६२ । ६३ अपत्तितमिदु ७०२८८४७ सप्तसंयोगंगळु षड़ पोनपदपंचवारसंकलितमक्कुं ५८ । ५९ । ६० । ६१ । ६२ । ६३ अपत्तितमिदु गुणितमि? ६७९४५५२१ अष्टसंयोगंगळु सप्तरूपोनपद षड्वारसंकलितमक्कुं ५७।५८ । ५९ । ६० । ६१ । ६२ । ६३
अपत्तितगुणितमिदु ५५३२७०६७१ नवसंयोगंगळु अष्टरूपोनपदसप्तवारसंकलितमक्कु अपत्तिते१० ६४–२ । ६४-१ अपवर्तितगुणिताः १९५३ । चतुःसंयोगाः त्रिरूपोनपदस्य द्विकवारसंकलनमात्राः
६१ । ६२ । ६३ । अपवर्तिताः ५९५६६५। षट्संयोगाः पञ्चरूपोनपदस्य चतुर्वारसंकलनमात्राः
५९ । ६० । ६१ । ६२ । ६३ अपवर्तिताः ७०२८८४७ । सप्तसंयोगाः षडुपोनपदस्य पञ्चवारसंकलन
५। ४। ३। २। १ मात्राः । अपवर्तिताः ५८ । ५९ । ६० । ६१ । ६२ । ६३ । ६७९४५५२१ । अष्टसंयोगाः सप्तरूपोन
६। ५। ४। ३। २। १ । पदस्य षड्वारसंकलनमात्राः । ५७ । ५८ । ५९ । ६० । ६१ । ६२ । ६३ । अपवर्तिताः ५५३२७०६७१ ।
७। ६। ५। ४। ३। २। १।।
१५ स्थानों में जानना। अन्तके चौंसठवें स्थानमें प्रत्येक भंग एक, द्विसंयोगी भंग एक हीन गच्छ मात्र तिरेसठ, त्रिसंयोगी भंग दो हीन गच्छका एक बार संकलन धन मात्र । सो बासठ
और तिरेसठको दो और एकका भाग देनेपर उन्नीस सौ तिरेपन होते हैं। तथा चतुःसंयोगी भंग तीन हीन गच्छका दो बार संकलन धन मात्र । सो इकसठ.बासठ. तिरेसठको तीन
एकका भाग देनेपर उनतालीस हजार सात सौ ग्यारह भंग होते हैं। पंच संयोगी भंग चार २० हीन गच्छका तीन बार संकलन धन मात्र! सो साठ, इकसठ, बासठ, तिरेसठको चार, तीन,
दो, एकका भाग देनेपर पाँच लाख पंचानने हजार छह सौ पैंसठ होते हैं। छह संयोगी भंग पाँच हीन गच्छका चार बार संकलन धन मात्र। सो उनसठ, साठ, इकसट, बासठ, तिरेसठको पाँच, चार, तीन, दो, एकका भाग देने सत्तर लाख अट्ठाईस हजार आठ सौ
सैतालीस होते हैं। सात संयोगी भंग छह हीन गच्छका पाँच बार संकलन मात्र । सो २५ अट्ठावन, उनसठ, साठ, इकसठ, बासठ, तिरेसठको छह, पाँच, चार, तीन, दो, एकका भाग
देनेपर छह करोड़ उन्न्यासी लाख पैतालीस हजार पाँच सौ इक्कीस होते हैं। आठ संयोगी १. म [ ५८०४५६०१ ] ।
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
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नागतराशि ७ । ५७। २९ । ५९। ०।६१।३१। ० अप
३८ । ७२८९४६९७ ५६ । ५७ । ५८ । ५९ । ६०।६१। ६२।६३
८। ७। ६। ५। ४। ३। २। १ दशसंयोगदो नवरूपोनपद अष्टवारसंकलितमक्कुं अप ५५। ७।१९ । २९ । ५९। ०।६१॥३१॥ ०
५५ । ५६ । ५७। ५८१५९/६०१६६२।६३
ईतीप्रकारदिदमक्षसंचारसंजनितैकादशसंयोगादिभंगंगळ यथासंभवंगळु नड्दु द्विचरमत्रिषष्टि
संयोगंगळु रूपाधिकैकषष्टिवार संकलनसंख्याविहीनपद ६४-६१ एकषष्टिवारसंकलितमकुं २३ । ४ । ००००। ६० । ६१ । ६२ । ६३ अपत्तितमिदु ६३ । चतुःषष्टिसंयोगमो देयक्कं ।। ५ ।। ६२ ६२। ६० । ५५४। ३। २। १
मध्य
०००० ई चरमचतुःषष्टयक्षरस्थानदोळु प्रत्येकभंगमादियागि चतुःषध्यक्षरं संयोगभंगावसानमादसमस्ताक्षरविकल्पंगळ युति एक्कट्ठन अर्द्धमक्कु-१८= मितेकायेकोत्तरवर्णवृद्धिक्रमदिदं चतुःषष्टिवर्णाव
२
नवसंयोगाः अष्टरूपोनपदस्य सप्तवारसंकलनमात्राः ५६ । ५७ । ५८ । ५९ । ६० । ६१ । ६२ । ६३ ।
८। ७। ६। ५। ४। ३। २। १। अपवर्तिताः ३८७२८९४६९७ । दशसंयोगाः नवरूपोनपदस्याष्टवार संकलनमात्रा ५५ । ५६ । ५७ । ५८ । ५९ । ६० । ६१ । ६२ । ६३ । अनेन द्रवण.......क्षसंचारसंजनितैकादशसंयो- १०
९। ८। ७। ६। ५। ४। ३ । २। १ । गादिभङ्गा यथासंभवं नीत्वा द्विचरमत्रिषष्टिसंयोगाः द्वाषष्टिरूपोनपदस्यैकषष्टिवारसंकलनमात्राः
२।३। ४ । ००० । ६० । ६१ । ६२ । ६३ । अपवर्तिता ६३ । चतुःषष्टिसंयोगः एक एव भवति । ६२ । ६१ । ६० । मध्य ४ । ३। २। १ । अत्र चतुःषष्टितमेऽक्षरस्थाने प्रत्येकादीनां चतुःषष्ठिसंयोगान्तानां सर्वेषामक्षराणां युतिरेकट्ठस्याई भबति ।
भंग सात हीन गच्छका छह बार संकलन मात्र होते हैं सो सत्तावन, अट्ठावन, उनसठ, साठ, इकसठ, बासठ, तिरेसठको सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो, एकका भाग देनेपर १५ पचपन करोड़ बत्तीस लाख सत्तर हजार छह सौ इकहत्तर होते हैं। नौ संयोगी भंग आठ हीन गच्छ का सात बार संकलन मात्र। सो छापन, सत्तावन, अट्ठावन, उनसठ, साठ, इकसठ, बासठ, तिरेसठको आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो, एकका भाग देनेपर तीन अरब सत्तासी करोड़ अट्ठाईस लाख चौरानबे हजार छह सौ सत्तानवे होते हैं। दस संयोगी भंग नौ हीन गच्छका आठ बार संकलन मात्र । सो पचपन, छप्पन, सत्तावन, अट्ठावन, २० उनसठ, साठ, इकसठ बासठ, तिरेसठको नौ, आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो, एकका भाग देनेपर होते हैं । इसी प्रकार ग्यारह संयोगी आदि भंग जानना ।
तिरेसठ संयोगी भंग बासठ हीन गच्छ दोका इकसठ बार संकलन धन मात्र सो दो, तीन आदि एक-एक बढ़ते तिरेसठ पर्यन्तको बासठ, इकसठ आदि एक-एक घटते एक पर्यन्तका भाग देनेपर तिरेसठ भंग होते हैं। चौंसठ संयोगी भंग एक ही है। चौंसठवे २५ १. म अपवर्तितगुणितमिदु २१४५८८४५८३१५ इंती प्रकार । २. म °वस्थान ।
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सानमाद चतुःषष्टिस्थानविकल्पंगळोळक्षसंचारदिदमुं पत्तेयभंगमेगमित्यादिकरणसूत्रविधानदिदं मेणुतरल्पट्ट प्रत्येकद्विसंयोगादिवर्णविकल्पंगळ युतिप्रतिस्थानमुमेकवर्णस्थानं मोदल्गो डु चतुःषष्टिवर्णस्थानावसानमागि वो देरडु नाक टु पदिनारु मूवत्तेरडु अरुवत्तनात्कु तरिप्पत्ते टिभूरध्वत्तारैतूरहन्नेरी क्रमद द्विगुणद्विगुणंगळागुत्तं पोगि चतुश्चरमत्रिचरमद्विचरम चरमस्थानं गळोळ एक्कट्ठन षोडशांश मेक्कनष्टमांशमेक्कनचतुर्थांशमेक्कन प्रमिताक्षरविकल्पंगळ संदृष्टि :१ । २ । ४ । ८ । १६ । ३२ । ६४ । १२८ । २५६ । ५१२ । ०००/५०।००१८ = १८ = १८ = १८= १६ ८ ४ २
५
१५
१० १८ = । एवमेकाद्येकोत्तरक्रमेण चतुःषष्ट्यन्तवर्णस्थानेष्वक्षसंचारक्रमेण 'पत्तेयभंगमेकामित्यादि-करणसूत्र
२
गो० जीवकाण्डे
२०
इंतिर्दक्षरविकल्पसंख्येगळं चउसट्ठिपदंविरत्रिय इत्यादिगुणसंकलन विधानदिदं मेणु अंतधणं गुणगुणियं आदिविहीणं रूऊणंतरभजियमे दितु संकलन धनमं तरुत्तिरलु द्वादशांगप्रकीर्णक श्रुतस्कंध - समस्ताक्षरंगळ संख्ये रूपोनेकट्ठप्रमितमक्कु बुदु तात्पय्यं ।
३०
स्थान में प्रत्येक आदि चौंसठ संयोगी पर्यन्त भंगोंको जोड़नेपर एकट्ठीके आधे प्रमाण मात्र भंग होते हैं । इस प्रकार एक आदि एक-एक अधिक चौंसठ पर्यन्त अक्षरोंके स्थानों में 'पत्तेयभंगमेगं' इत्यादि करण सूत्र के अनुसार भंग होते हैं । अथवा गुणस्थानोंके वर्णनमें प्रमादोंका व्याख्यान करते हुए जो अक्षसंचार विधान कहा था, उसके अनुसार भी इसी प्रकार भंग होते हैं । वे भंग क्रमसे एक, दो, चार, आठ, सोलह, बत्तीस, चौंसठ, एक सौ अट्ठाईस दो सौ छप्पन, पाँच सौ बारह, एक हजार चौबीस, दो हजार अड़तालीस, चार हजार छियानवेआठ हजार एक सौ बानबे, सोलह हजार तीन सौ चौरासी, बत्तीस हजार सात सौ अड़सठ, पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस, एक लाख बत्तीस हजार बहत्तर, दोलख बासठ हजार एक सौ चंवालीस, पाँच लाख चौबीस हजार दो सौ अठासी, दस लाख अड़तालीस हजार पाँच सौ छियत्तर, बीस लाख सत्तानबे हजार एक सौ बावन, इकतालीस लाख चौरानबे हजार तीन सौ दो, तिरासी लाख अठासी हजार छह सौ चार, एक करोड़ सड़सड़ लाख तिहत्तर हजार दो सौ आठ, आदि दूने दूने होते हैं । अन्तिम स्थानसे चौथे, तीसरे, दूसरे तथा अन्तिम स्थानमें अर्थात् ६१, ६२, ६३ और ६४वें स्थान में एकट्ठी के सोलहवें भाग, आठवें भाग, चतुर्थ भाग और आधे भाग प्रमाण भंग होते हैं । इस प्रकार स्थित अक्षरोंकी संख्या 'चउसट्ठि पदं विरलिय' इत्यादि के द्वारा या 'अंतधणं गुणगुणियं' इत्यादिके द्वारा संकलित की जानेपर द्वादशांग और अंगबाह्य श्रुतस्कन्धोंके समस्त अक्षरोंकी संख्या एक ही एकट्ठी प्रमाण होती है ॥ ३५४ ॥
२५
विधानेन वा आनीतानां प्रत्येकद्विसंयोगादीनां युतिः क्रमशः एको द्वौ चत्वारोऽष्टौ षोडश द्वात्रिंशच्चतुःषष्टिरष्टाविंशत्यग्रं शतं षट्पञ्चाशदधिकद्विशतं द्वादशोत्तरपञ्चशतभेदं द्विगुणा द्विगुणा भूत्वा चतुश्चरमत्रिचरमद्विचरमचरमेषु एकट्टस्य षोडशांशाष्टांशचतुर्थांशार्द्धप्रमिता भवन्ति । १ । २ । ४ । ८ । १६ । ३२ । ६४ । १२८ । २५६ । ५१२ । ००० ०० | ००० १८ = | १८ = | १८ = | १८ = । एवं स्थिताक्षर - १६ । ८ । ४ । २ संख्या 'चट्ठपदं विरलिय' इत्यादिना वा 'अन्तघणं गुणगुणियं' इत्यादिना वा संकलिता सती द्वादशाङ्गप्रकीर्णकश्रुतस्कन्धसमस्ताक्षरसंख्या रूपोनैकट्ट प्रमिता भवतीति तात्पर्यम् ॥३५४॥
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५९१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मज्झिमपदक्खरवहिदवण्णा ते अंगपुव्वगपदाणि ।
सेसक्खरसंखाओ पइण्णयाणं पमाणं तु ॥३५५॥ मध्यमपदाक्षरापहृतवर्णास्तानि अंगपूर्वगपदानि । शेषाक्षरसंख्याः ओ अहो भव्याः प्रकीर्णकानां प्रमाणं तु॥
परमागमप्रसिद्धमध्यमपदषोडशशतचतुस्त्रिशत्कोटिव्यशीतिलक्षसप्तसहस्राष्टशताष्टाशीति - ५ प्रमिताक्षरसंख्ययिदमा सकलश्रुतस्कंधाक्षरसंख्ययं भागिसुत्तिरलु तल्लब्धप्रमितंगळु द्वादशांगपूर्वगतमध्यमपदंगळप्पुवु । अवशिष्टाक्षरसंख्ययु-मंगबाह्यप्रकीर्णकाक्षरंगळ प्रमाणमक्कुमिल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुगुमेतलानुमोदु मध्यमपदाक्षरंगळने तक्कोडु मध्यमपदमागलु इंतक्षरंगळ्गेनितु मध्यमपदंगळप्पुवेदु राशिकममाडि प्रमाणराशियिद भागिसिबंदलब्धमंगपूर्वपदंगळप्पुवु ११२८३५८००५ अवशिष्टाक्षरंगळु सामायिकादियादंगबाह्यश्रुताक्षरंगळप्पुवु ८.१०८१७५ ओ १० अहो भव्य र्यादितु । अंगअंगबाह्यश्रुतंगळेरडर यथासंख्यमागिपदप्रमाणमुमनक्षरप्रमाणमुमनरिनीने दितु। प्राकृतदोळु ओ शब्दमव्ययं संबोधनात्मकुं। अनंतरमंगपूव्वंगळ पदसंख्याविशेषमं त्रयोदशगाथासूत्रंगळिदं पेळ्दपरु :
आयारे सूदयडे ठाणे समवायणामगे अंगे ।
तत्तो विहायपणत्तीए णाहस्स धम्मकहा ॥३५६।। आचारे सूत्रकृते स्थाने समवायनामके अंगे। ततो व्याख्याप्रज्ञप्तौ नाथस्य धम्मकथा ॥
मध्यमपदस्य परमागमप्रसिद्धस्याक्षरैः षोडशशतचतुस्त्रिशत्कोटिश्यशीतिलक्षसप्तसहस्राष्टशताष्टाशीतिप्रमितैः तेषु सकलश्रु तस्कन्धाक्षरेषु रूपोनैकट्टमात्रेषु भक्तेषु यल्लब्धं तावन्त्यङ्गपूर्वगतमध्यमपदानि भवन्ति । अवशिष्टाक्षरसंख्या अङ्गबाह्यप्रकीर्णकाक्षरप्रमाणं भवति । यद्येतावतामक्षराणां एक मध्यमपदं तदा एतावदक्षराणां कियन्ति मध्यमपदानि भवन्ति ? इति त्रैराशिकं कृत्वा प्रमाणराशिना भक्ते यल्लब्धं तदङ्गपूर्वपदानि २० भवन्ति । ११२८३५८००५ । अवशिष्टाक्षराणि सामायिकाद्यङ्गबाह्यश्रुताक्षराणि भवन्ति । ८०१०८१७' । ओ ! अहो भव्य ! इत्यङ्गाङ्गबाह्यश्र तद्वयस्य यथासंभवं पदप्रमाणमक्षरप्रमाणं च त्वं जानीहि । प्राकृते ओ शब्दः अव्ययं संबोधनार्थः ॥३५५॥ अथापर्वपदसंख्याविशेषं त्रयोदशगाथासत्रैराख्याति
परमागममें प्रसिद्ध मध्यम पदके सोलह सौ चौंतीस कोटि, तिरासी लाख, सात हजार आठ सौ अठासी प्रमाण अक्षरोंसे समस्त श्रुतस्कन्धके एक कम एकट्ठी प्रमाण २५ अक्षरों में भाग देनेपर जो लब्ध आवे, उतने अंगों और पूर्वोके.मध्यमपद होते हैं। शेष रहे अक्षरोंकी संख्या अंगबाह्यरूप प्रकीर्णकोंके अक्षरोंका प्रमाण होता है।
यदि इतने अक्षरोंका एक मध्यमपद होता है, तब एक हीन एकट्ठी प्रमाण अक्षरोंके कितने पद होते हैं ? इस प्रकार त्रैराशिक करके प्रमाण राशि मध्यम पदके अक्षरोंकी संख्यासे भाग देनेपर जो लब्ध आया-एक सौ बारह कोटि, तिरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच, यह ३० अंग और पूर्वोके पदोंका प्रमाण है। तथा शेष बचे अक्षर आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर सामायिक आदि अंगबाह्यके अक्षर होते हैं । हे भव्य ! इस प्रकार अंग और अंगबाह्य श्रुतोंके पद और अक्षरोंका प्रमाण जानो। प्राकृतमें 'ओ' शब्द सम्बोधनार्थक अव्यय है ।।३५५॥
अब अंगों और पूर्वोके पदोंकी संख्या तेरह गाथासूत्रोंसे कहते हैं
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गो० जीवकाण्डे द्रव्यश्रुतमनधिकरिसिको डे निरुक्तियुं प्रतिपाद्यार्थचं पदसंख्याविशेषंगळुमें दिवक्के तत्तदंगपूव्वंगळोळु प्ररूपणे माडल्पडुगुमेके दोडे भावश्रुतदोछु निरुक्त्याद्यसंभवमप्पुरिदं । इल्लि द्वादशांगगळ मोदलोळाचारांगं पेळल्पटुदेके दोडे मोक्षहेतुगळप्प संवरनिर्जराकारणपंचाचारादिसकल.
चारित्रप्रतिपादकत्वदिदं । मुमुक्षुगळिनादरिसल्पडुव मोक्षांगमप्प परमागमशास्त्रक्क मोदळोळु ५ वक्तव्यत्वं युक्तिसिद्ध दितु।
चतुर्ज्ञानसप्तद्धिसंपन्नरप्प गणधरदेवरुळिदं तोत्थंकरमुखसरोजसंभूतसर्वभाषात्मकदिव्यध्वनिश्रवणावधारितसमस्तशब्दार्थलिंदं शिष्यप्रतिशिष्यानुग्रहार्थमागि विरचिसिद श्रुतस्कंधद्वादशांगंगळोळगे मोदळोळाचारांग विरचिसल्पट टुदु । आचरंति समंततोऽनुतिष्ठति मोक्षमार्गमाराधयंत्यस्मिन्ननेनेति वा आचारस्तस्मिन् आचारांगे इंतप्पाचारांगदोळु
जदं चरे जदं चिठे जदं आसे जदं सये। ___जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण बज्झई॥
कथं चरेत् कथमासीत कथं शयीत कथं भाषेत कथ भंजीत कथं पापं न बध्यते। एंदितु गणधरप्रश्नानुसारदिदं यतं चरेत् यतं तिष्ठेत् यतमासीत यतं शयीत। यतं भाषेत यतं भुंजीत
द्रव्यश्रु तमधिकृत्य निरुक्तिप्रतिपाद्यार्थपदसंख्याविशेषाणां तत्तदङ्गपूर्वेषु प्ररूपणा क्रियते भावश्रुते निरुक्तयाद्यसंभवात् । अत्र द्वादशाङ्गेषु प्रथमाचाराङ्ग कथितम । कुतः ? मोक्षहेतुभूतसंवरनिर्जराकारणपश्चाचारादिसकलचारित्रप्रतिपादकत्वेन मुमक्षभिराद्रियमाणस्य मोक्षाङ्गभूतस्य परमागमशास्त्रस्य प्रथमतो वक्तव्यत्वस्य युक्तिसिद्धत्वात् । चतुनिसप्तधिसंपन्नगणधरदेवैः तीर्थकरमुखसरोजसंभूतसर्वभाषात्मकदिव्यध्वनिश्रवणावधारितसमस्तशब्दार्थैः शिष्यप्रशिष्यानुग्रहार्थं विरचितश्रु तस्कन्धद्वादशाङ्गानां मध्ये प्रथममाचाराङ्गं विरचितम् । आचरन्ति समन्ततोऽनतिष्ठन्ति मोक्षमार्गमाराधयन्ति अस्मिन्ननेनेति वा आचारः तस्मिन् आचारागे
जदं चरे जदं चिठे जदं आसे जदं सये ।
जदं भुजेज्ज भासेज्ज एवं पावं ण वज्झई ॥१॥ कथं चरेत् ? कथं तिष्ठेत् ? कथमासीत् ? कथं शयीत ? कथं भाषेत ? कथं भुञ्जीत ? कथं पापं न बध्यते ? इति गणधरप्रश्नानुसारेण यतं चरेत् । यतं तिष्ठेत् । यतमासीत । यतं शयीत । यतं भाषेत । यतं
द्रव्यश्रतको अधिकृत करके उस-उस अंग और पों में निरुक्ति, प्रतिपादित अर्थ और पदोंकी संख्याका कथन करते हैं,क्योंकि भावश्रुतमें निरुक्ति आदि सम्भव नहीं हैं । द्वादशांग२५ में पहला आचारांग कहा है। क्योंकि मोक्षके हेतु संवर निर्जराके कारण पंचाचार आदि
सकल चारित्रका प्रतिपादक होनेसे मुमुक्षुओंके द्वारा आदरणीय तथा मोक्षके अंगभूत आचारर परमागम शास्त्रमें प्रथम वक्तव्य होना युक्तिसिद्ध है। चार ज्ञान और सात ऋद्धियोंसे
म्पन्न गणधरदेवने तीर्थकरके मुखकमलसे उत्पन्न सर्वभाषामयी दिव्यध्वनिको सुनकर सरल शब्दार्थको अवधारण करके शिष्य-प्रशिष्योंके अनुग्रहके लिए विरचित द्वादशांग श्रुत कन्धमें प्रथम आचारांगकी रचना की। जिसमें या जिसके द्वारा 'आचरन्ति' अच्छी रीतिसे आचरण करते हैं, मोक्ष मार्गकी आराधना करते हैं, वह आचार है। उस आचारांगमें कैसे चलना, कैसे खड़े होना, कैसे बैठना, कैसे सोना, कैसे बोलना, कैसे भोजन करना कि पापका बन्ध न हो। इस गणधरके प्रश्नके अनुसार सावधानतापूर्वक चलिए, सावधानतापूर्वक खड़े होइए, सावधानता पूर्वक बैठिए,सावधानतापूर्वक सोइए, सावधानतापूर्वक बोलिए
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका एवं पापं न बध्यते । इत्याद्युत्तरवाक्यप्रतिपादितमुनिजनसमस्ताचरणं वर्णिसल्पटुङ । सूत्रयतिसंक्षेपेणात्थं सूचयतीति सूत्रं परमागमः। तदत्यं कृतं करणं ज्ञानविनयादि निविघ्नाध्ययनादिक्रिया। अथवा प्रज्ञापना कल्प्याकल्प्यच्छेदोपस्थापना व्यवहारधर्म क्रियाः स्वसमय-परसमयस्वरूपं च सूत्रैः कृतं करणं क्रियाविशेषो यस्मिन् वर्ण्यते तत्सूत्रकृतं नाम द्वितीयमंगं । तिष्ठंत्यस्मिन्येकाये. कोत्तराणि स्थानानीति स्थानं स्थानांगं तस्मिन् संग्रहनयेन एक एवात्मा व्यवहारनयेन संसारो ५ मुक्तश्वेति द्विविकल्पः उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त इति त्रिलक्षणः, कर्मवशाच्चतुर्गतिषु संक्रामतीति चतःसंक्रमणयुक्तः, औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकौदयिकपारिणामिकभेदेन पंच विशिष्ट प्रधानः, पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरोधिोगतिभेदेन संसारावस्थायां षट्कोपक्रमयुक्तः, स्यादस्तिस्यान्नास्ति स्यादस्तिनास्ति स्यादवक्तव्यः स्यादस्त्यवक्तव्यः स्यान्नास्त्यवक्तव्यः स्यादस्तिनास्त्यवक्तव्यः इत्यादिसप्तभंगिसद्भावे उपयुक्तः, अष्टविधकर्मास्रवणयुक्तत्वादष्टास्रवः, नवजीवाजीवा- १० स्रवबंधसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यपापरूपाः अर्थाः पदार्थाः विषयाः यस्य स नवार्थः, पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकसाधारणद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियभेदादशस्थानकः इत्यादीनि जीवस्य, सामान्यार्पणया एकः
भुजीत । एवं पापं न बध्यते । इत्याद्युत्तरवाक्यप्रतिपादितमुनिजनसमस्ताचरणं वर्ण्यते । सूत्रयति-संक्षेपेण अर्थ सूचयति इति सूत्रं परमागमः । तदर्थं कृतं करणं ज्ञानविनयादिनिर्विघ्नाध्ययनादिक्रिया, अथवा प्रज्ञापना, कल्प्याकल्प्यं, छेदोपस्थापना, व्यवहारधर्मक्रिया, स्वसमयपरसमयस्वरूपं च सूत्रः कृतं करणं क्रियाविशेषो १५ यस्मिन् वर्ण्यते तत् सूत्रकृतं नाम द्वितीयमङ्गम् । तिष्ठन्ति अस्मिन् एकाद्यकोत्तराणि स्थानानीति स्थानं तस्मिन् संग्रहनयेन एक एवात्मा । व्यवहारनयेन संसारी मुक्तश्चेति द्विविकल्पः । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्त इति विलक्षणः । कर्मवशात् चतुर्गतिषु संक्रामतीति चतुःसंक्रमणयुक्तः । औपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकौदयिकपारिणामिकभेदेन पञ्चविशिष्टधर्मप्रधानः । पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरोधिोगतिभेदेन संसारावस्थायां षटकोपक्रमयुक्तः । स्यादस्ति स्यान्नास्ति स्यादस्तिनास्ति स्यादवक्तव्यः स्यादस्त्यवक्तव्यः स्यान्नास्त्यवक्तव्यः स्यादस्तिना- २० स्त्यवक्तव्यः इत्यादिसप्तभङ्गीसद्भावेऽप्युपयुक्तः । अष्टविधकर्मास्रवयुक्तत्वादष्टास्रवः । नव जीवाजीवास्रबबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यपापरूपा अर्थाः-पदार्थाः विषयाः यस्य स नवार्थः । पृथिव्यतेजोवायुप्रत्येकसाधारण
और सावधानतापूर्वक भोजन करिए। ऐसा करनेसे पापका बन्ध नहीं होता, इत्यादि उत्तर वाक्योंमें प्रतिपादित मनिजनोंका समस्त आचरण वर्णित है। 'सत्रयति' अर्थात जो सं
। संक्षेपसे अर्थको सूचित करता है,वह सूत्र नामक परमागम है। उसमें कृत अर्थात ज्ञानकी विनय आदि, २५ निर्विघ्न अध्ययन आदि क्रिया अथवा प्रज्ञापना, कल्प्य-अकल्प्य, छेदोपस्थापना, व्यवहार धर्मकी क्रियाएँ तथा स्वसमय-परसमयका वर्णन है। अथवा सूत्रोंके द्वारा कृत क्रियाविशेष का जिसमें वर्णन है, वह सूत्रकृत नामक दूसरा अंग है । जिसमें एकको आदि लेकर एक-एक बढ़ते हुए स्थान 'तिष्ठन्ति' रहते हैं, वह स्थानांग है। उसमें संग्रहनयसे आत्मा एक है, व्यवहारनयसे संसारी मुक्त दो प्रकार है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त होनेसे त्रिलक्षण है, कर्मवश ३० चारों गतियों में संक्रमण करनेसे चार संक्रमणसे युक्त है, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिकके भेदसे पाँच विशिष्ट भावोंसे युक्त है, पूरब, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊध्वगति, अधोगतिके भेदसे संसार अवस्थामें छह उपक्रमोंसे युक्त है, स्यादस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्ति नास्ति, स्यात् अवक्तव्य, स्यात् अस्ति अवक्तव्य, स्यात् नास्ति अवक्तव्य, स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य इत्यादि सप्तभंगीके सद्भावमें उपयुक्त है, आठ प्रकारके कर्मास्रवोंसे ३५ युक्त होनेसे आठ आस्रवरूप है, जीव-अजीव-आस्रव-बन्ध-संवर-निर्जरा- मोक्ष-पुण्य-पाप
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गो० जीवकाण्डे पुद्गलः विशेषार्पणया अणुस्कंधभेदाद्वितयः इत्यादि पुद्गलादीनां च एकाद्यकोत्तरस्थानानि वन्यंत इति स्थानं नाम तृतीयमंगं।
समसंग्रहेण सादृश्यसामान्येन अवेयंते ज्ञायते जीवादिपदार्थाः द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य तस्मिन्निति समवायांगं। तत्र द्रव्याश्रयेण धर्मास्तिकायेनाधर्मास्तिकायः सदृशः, संसारिजीवेन संसारिजीवः सदृशः, मुक्तजीवेन मुक्तजीवः सदृशः इत्यादिद्रव्यसमवायः । क्षेत्राश्रयेण सोमंतनरक मनुष्यक्षेत्र ऋत्विकसिद्धक्षेत्राणि प्रदेशतः सदृशानि । अवधिस्थाननरकजंबूद्वीपसर्वार्थसिद्धिविमानमैतानि सदृशानीत्यादि क्षेत्रसमवायः । एकसमयः एकसमयेन सदृशः। आवलिरावल्या सदृशी। प्रथमपथ्वीनारकभावनव्यंतराणां जघन्यायंषि सहशानि। सप्तमपृथ्वीनारक सर्वात्य देवानामत्कशायषी सहशी। इत्यादि कालसमवायः। केवलज्ञानं केवलदर्शनेन सदृशमित्यादिर्भावसमवायः । इति समवायाख्यं चतुर्थमंगं। विशेषैर्बहुप्रकारैराख्या किमस्ति जीवः किं नास्ति जीवो किमेको जीवः किमनेको जीवः किं नित्यो जीवः किमनित्यो जीवः किमवक्तव्यो जीवः कि वक्तव्यो जीव इत्यादीनि (६००००) षष्टिसहस्रसंख्यानि भगवदर्हत्तीर्थकरसन्निधौ गणधरदेवप्रश्न. द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियभेदाद् दशस्थानकः इत्यादीनि जीवस्य, सामान्यार्पणादेकः पुद्गलः विशेषार्पणया
अणुस्कन्धभेदाद् द्वितयः, इत्यादि पुद्गलादीनां च एकाद्यकोत्तरस्थानानि वर्ण्यन्ते इति स्थानं नाम तृतीयमङ्गम् । १५ सं-संग्रहेण सादृश्यसामान्येन अवेयन्ते ज्ञायन्ते जीवादिपदार्था द्रब्यक्षेत्रकालभावानाथित्य अस्मिन्निति
समवायाङ्गम् । तत्र द्रव्याश्रयेण धर्मास्तिकायेन अधर्मास्तिकायः सदृशः । संसारिजीवेन संसारिजीवः सदृशः । मुक्तजीवेन मुक्त जीवः सदृशः इत्यादिव्यसमवायः । क्षेत्राश्रयेण सीमन्तनरक-मनुष्यक्षेत्र-ऋत्विन्द्रक-सिद्धक्षेत्राणि प्रदेशतः सदशानि। अवधिस्थान-नरक-जम्बूद्वीप-सर्वार्थसिद्धिविमानानि सदशानि इत्यादि क्षेत्रसमवायः । एकसमयः एकसमयेन सदृशः, आवलिः आवल्या सदृशी, प्रथमपृथ्वीनारकभावनव्यन्तराणां जघन्यायूंषि सदृशानि । सप्तमपृथ्वीनरकसर्वार्थसिद्धिदेवानां उत्कृष्टायुषी सदृशे इत्यादिः कालसमवायः । केवलज्ञानं केवलदर्शनेन सदशमित्यादिर्भावसमवायः इति समवायाख्यं चतुर्थमङ्गं । विशेषैः बहुप्रकारैराख्यातं किमस्ति जीवः ? किं नास्ति जीवः ? किमेको जीव: ? किमनेको जीवः ? किं नित्यो जीवः ? किमनित्यो जीवः ? किं वक्तव्यो जीवः ? किमवक्तव्यो जीव इत्यादीनि षष्टिसहस्रसंख्यानि भगवदर्हत्तीर्थंकरसन्निधौ
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ये नौ पदार्थ उसके विषय होनेसे नौ अर्थरूप है, पृथिवी-अप-तेज- वायु- प्रत्येक- साधारण२५ दोइन्द्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियके भेदसे दस स्थानवाला है, इत्यादि जीवका
और सामान्यसे पुद्गल एक है, विशेषकी अपेक्षा अणु और स्कन्धके भेदसे दो प्रकार है, इत्यादि पुद्गल आदिके एकादि एक-एक अधिक स्थानोंका वर्णन रहता है। इस प्रकार स्थान नामक तीसरा अंग है । 'सं' अर्थात् सादृश्य सामान्यरूप संग्रहनयसे 'अवेयन्ते' द्रव्य-क्षेत्र
काल-भावको लेकर जीवादि पदार्थ जिसमें जाने जाते हैं, वह समवायांग है। उसमें द्रव्यकी ३० अपेक्षा धर्मास्तिकायसे अधर्मास्तिकाय समान है, संसारी जीवसे संसारी जीव समान है,
मुक्त जीवसे मुक्त जीव समान है, इत्यादि द्रव्यसमवाय है। क्षेत्रकी अपेक्षा सीमन्त नरक, मनुष्यलोक, ऋतु नामक इन्द्रक विमान, सिद्धक्षेत्र प्रदेशसे समान है, सातवें नरकका अवधिस्थान नामक इन्द्रकविला, जम्बूद्वीप, सर्वार्थसिद्धि विमान समान है। इत्यादि क्षेत्रसमवाय है। एक समय एक समयके समान है, आवली आवलीके समान है, प्रथम पृथिवीके नारकी,
भवनवासी और व्यन्तरोंकी जघन्य आयु समान है, सातवें नरकके नारकी और सर्वार्थ११ सिद्धिके देवोंकी उत्कृष्ट आयु समान है, इत्यादि कालसमवाय है। केवलज्ञान केवलदर्शनके
समान है, इत्यादि भावसमवाय है। इत्यादि समवायोंका कथन समवाय नामके चतुर्थ
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५९५ वाक्यानि प्रज्ञाप्यंते कथ्यन्ते यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्तिनाम पंचममंगं । नाथस्त्रिलोकेश्वराणां स्वामी तीत्थंकरपरमभट्टारकस्तस्य धर्मकथा जीवादिवस्तुस्वभावकथनं । घातिकर्मक्षयानंतरकेवलज्ञानसहोत्पन्नतीर्थकरत्वपुण्यातिशयविजू भितमहिम्नस्तीर्थकरस्य पूर्वाह्नमध्याह्नापराह्ला:र्द्धरात्रिषु षट्-षट् घटिकाकालपर्यतं द्वादशगणसभामध्ये स्वभावतो दिव्यध्वनिरुद्गच्छत्यन्यकालेपि गणधरशक्रचक्रधरप्रश्नानंतरं चोद्भवति । एवं समुद्भूतो दिव्यध्वनिः समस्तासन्नश्रोतृगणानु- . द्दिश्य उत्तमक्षमादिलक्षणं वा धम्म कथयति । अथवा ज्ञातुर्गणधरदेवस्य जिज्ञासमानस्य प्रश्नानुसारेण तदुत्तरवाक्यरूपा धर्मकथातत्पृष्टास्तित्वनास्तित्वादिस्वरूपकथनं । अथवा ज्ञातृणांतीर्थकरगणधरशक्रचक्रधरादीनां धर्मानुबंधिकथोपकथाकथनं ज्ञातृधर्मकथानाम षष्ठमंगं।
तो वासयअज्झयणे अंतयडेणुत्तरोववाददसे ।
पण्हाणं वायरणे विवायसुत्ते य पदसंखा ॥३५७।। तत उपासकाध्ययने अंतकृद्दशे अनुत्तरोपपाददशे। प्रश्नानां व्याकरणे विपाकसूत्रे च पदसंख्या ॥
गणवरदेवप्रश्नवाक्यानि प्रज्ञाप्यन्ते कथ्यन्ते यस्यां सा व्याख्याप्रज्ञप्तिनाम पञ्चममङ्ग । नाथ:-त्रिलोकेश्वराणां स्वामी तीर्थंकरपरमभट्टारकः तस्य धर्मकथा जीवादिवस्तुस्वभावकथनं, घातिकर्मक्षयानन्तरकेवलज्ञानसहोत्पन्नतीर्थकरत्वपुण्यातिशयविजृम्भितमहिम्नः तीर्थकरस्य पूर्वाह्णमध्याह्नापराह्माधरात्रेषु षट्पट्पटिकाकाल- १५ पर्यन्तं द्वादशगणसभामध्ये स्वभावतो दिव्यध्वनिरुद्गच्छति । अन्यकालेऽपि गणधरशक्रचक्रधरप्रश्नानन्तरं चोद्भवति । एवं समुद्भूतो दिव्यध्वनिः समस्तासन्नश्रोतृगणानुद्दिश्य उत्तमक्षमादिलक्षणं रत्नत्रयात्मकं वा धर्म कथयति । अथवा ज्ञातुर्गणधरदेवस्य जिज्ञासमानस्य प्रश्नानुसारेण तदुत्तरवाक्यरूपा धर्मकथा तत्पृष्टास्तित्वनास्तित्वादिस्वरूपकथनं, अथवा ज्ञातृणां तीर्थकरगणधरशकचक्रधरादीनां धर्माऽनुबन्धिकथोपकथाकथनं नाथधर्मकथा ज्ञातृधर्मकथानाम वा षष्ठमङ्गम् ॥३५६॥
अंगमें होता है । क्या जीव है या नहीं है ? क्या जीव एक है या अनेक है ? क्या जीव नित्य है या अनित्य है ? क्या जीव वक्तव्य है या अवक्तव्य है,इत्यादि गणधरदेवके साठ हजार प्रश्न भगवान् अर्हन्त तीर्थकरके पासमें पूछे गये, जिसमें विशेष अर्थात् बहुत प्रकारसे प्रज्ञाप्यन्ते कहे जाते हैं,वह व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक पाँचवाँ अंग है। नाथ अर्थात् तीनों लोकोंके ईश्वरोंका स्वामी तीर्थकर परम भट्टारककी धर्मकथा-जीवादि वस्तुओंके स्वभावका २५ कथन, कि घातिकों के क्षयके अनन्तर केवलज्ञानके साथ उत्पन्न तीर्थंकर नामक पुण्यातिशयसे जिनकी महिमा बढ़ गयी है, उन तीर्थंकरकी पूर्वाल, मध्याह्न, अपराल और अर्धरात्रिमें छह-छह घड़ी काल पर्यन्त बारह गणोंकी सभाके मध्य स्वभावसे दिव्यध्वनि खिरती है, अन्य समयमें भी गणधर, इन्द्र और चक्रवर्तीके प्रश्न करनेपर खिरती है। इस प्रकार उत्पन्न हुई दिव्यध्वनि समस्त निकटवर्ती श्रोतागणोंके उद्देशसे उत्तमक्षमादि लक्षणरूप रत्नत्रयात्मक धर्मका कथन करती है। अथवा ज्ञाता जिज्ञासु गणधर देवके प्रश्नके अनुसार उत्तर वाक्यरूप धर्मकथा, पछे गये अस्तित्व-नास्तित्व आदिके स्वरूपका कथन अथवा ज्ञाता तीर्थकर गणधर इन्द्र,चक्रवर्ती आदिके धर्मानुबन्धी कथोपकथन जिसमें हों, वह ज्ञातृधर्मकथा नामक छठा अंग है ॥३५६॥
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अतः परं उपासते आहारादिदानैर्नित्यमहादिपूजाविधानश्च संघमाराधयन्तीति उपासकाः ते अधीयन्ते पठ्यन्ते दर्शनिकव्रतिकसामयिक प्रोषधोपवास सचित्तविरतरात्रिभक्तत्रतब्रह्मचर्यारम्भपरिग्रहनिवृत्तानुमतोद्दिष्टबिरतभेदैकादश निलय संबन्धिव्रतगुणशीलाचारक्रियामन्त्रादिविस्तरैर्वर्ण्यन्ते अस्मिन्निति उपासकाध्ययनं नाम सप्तममङ्गम् । प्रति तीर्थ दश दश मुनीश्वराः तीव्रं चतुर्विधोपसर्गं सोढ़वा इन्द्रादिभिर्विरचितां पूजादिप्रातिहार्य संभावनां लब्ध्वा कर्मक्षयानन्तरं संसारस्यान्तं अवसानं कृतवन्तोऽन्तकृतः । श्रीवर्धमानतीर्थे नमि-मतङ्गसोमिल- रामपुत्र सुदर्शन-यमलीक-वलिक- किष्कम्बिल-पालंष्ट-पुत्रा इति दश । एवं वृषभादितीर्थेष्वपि दश दशान्तकृतो वर्ण्यन्ते यस्मिंस्तदन्तकृद्दशनामाष्टममङ्गम् । तथा उपनादः प्रयोजनमेषां ते इमे औपपादिकाः । अनुत्तरेषु विजयवैजयन्तजयन्तापराजितसर्वार्थसिद्धयाख्येषु औपपादिकाः अनुत्तरौपपादिकाः । प्रति तीर्थं दश दश मुनयो दारुणान् महोपसर्गान् सोढ्वा लब्धप्रातिहार्याः समाधिविधिना त्यक्तप्राणाः ये विजयाद्यनुत्तरविमानेषूपपन्नाः ते वर्ण्यन्ते यस्मिंस्तदनुत्तरौपपादिकदशं नाम नवममङ्गम् । तत्र श्रीवर्धमानतीर्थे ऋजुदास
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गो० जीवकाण्डे
अल्लिदं बचिकं उपासते आहारादिदानैन्नित्यमहादिपूजाविधानैश्च संघमाराधयंतीत्युपासकाः । ते अधीयंते पठयंते दर्शनिकवतिक सामायिक प्रोषधोपवाससचित्तविरतरात्रिकव्रतब्रह्मचार्यारंभपरिग्रहनिवृत्ताऽनुमतो द्दिष्टविरत भेदैकादशनिलय संबंधिव्रतगुणशीलाचारक्रियानं त्रादि - विस्तरैर्व्वण्यते ऽस्मिन्निति उपासकाध्ययनं नाम सप्तममंगं ।
प्रतितीत्थं दशदशमुनीश्वरास्तीव्रं चतुव्विधोपसर्ग सोवा इंद्रादिभिन्दिरचितं पूजादि, प्रातिहार्य संभावनां लब्ध्वा कर्मक्षयानंतरं संसारस्यांतभवसानं कृतवतोऽन्तकृतः । श्रीवर्द्धमानतीय नमि मतंग सोमिल रामपुत्र सुदर्शन यमलीफबलिक किष्कंबिल पालंबष्टपुत्रा इति का। एवं वृषभादितीर्थेष्वपि दश दशांतकृतो वण्यंते यस्मिन्तदन्तकृद्दशं नामाष्टमभंगं । तथा उपपादः प्रयोजनमेषां ते इमे औपपादिकाः अनुत्तरेषु विजयवैजयंत जयंता पराजित सर्व्वार्थसिद्धयाख्येषु औपपाि अनुत्तरौपपादिकाः । प्रतितीत्थं दश दश मुनयः दारुणान्महोपसर्गात्सोवा लब्धप्रातिहार्थ्यास्साविधिना त्यक्तप्राणा ये विजयाद्यनुत्तरविधानेषूपपन्नास्ते वण्यंते यस्मिन् तदनुत्तरौपदादिकदर्श नाम नवममं । तत्र श्रीवर्द्धमानतीर्थे ऋजुदास धन्य सुनक्षत्र कार्त्तिकेय नंद नंदन शालिभद्र
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'उपासते' जो आहार आदि दानके द्वारा और नित्यमह आदि पूजाविधानके द्वारा संघकी आराधना करते हैं, वे उपासक हैं। वे उपासक दर्शनिक, व्रतिक, सामयिक, प्रोषधोपवास, सचित्तविरत, रात्रिभक्तव्रत, ब्रह्मचर्य, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतविरत, उद्दिष्टविरत इन गृहस्थोंके ग्यारह भेदोंसे सम्बद्ध व्रत, गुण, शील, आचार, क्रिया, मन्त्र आदि विस्तारसे जिसमें 'अधीयन्ते' पढ़े जाते हैं, वह उपासकाध्ययन नामक सातवाँ अंग है । प्रत्येक तीर्थ में दस-दस मुनीश्वर तीव्र चार प्रकार के उपसर्गको सहकर इन्द्रादिके द्वारा रचित पूजादि प्रतिहार्यो की सम्भावनाको प्राप्त करके कर्मोंके क्षयके अनन्तर संसारका अन्त करते हैं, इसलिए उन्हें 'अन्तकृत्' कहते हैं। श्री वर्धमान तीर्थंकर के तीर्थ में नमि, मतंग, सोमिल, रामपुत्र, सुदर्शन, यमलीक, वलीक, किष्कंविल, पालम्ब, अष्टपुत्र ये दस अन्तकृत् हुए । इसी प्रकार ऋषभदेव आदिके भी तीर्थ में हुए । जिसमें दस-दस अन्तकृतोंका वर्णन हो, वह अंग अन्तकृद्दश नामक है | उपपाद जिनका प्रयोजन है, वे औपपादिक हैं । विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि नामक अनुत्तरोंमें उपपाद जन्म लेनेवाले अनुत्तरौपपादिक होते हैं । प्रत्येक तीर्थ में दस-दस मुनि दारुण महान् उपसर्गों को सहकर प्रातिहार्य प्राप्त करके समाधिपूर्वक प्राणोंको त्यागकर विजयादि अनुरोत्तरोंमें उत्पन्न हुए । उनका जिसमें वर्णन हो, वह अनुत्तरौपपादिकदश नामक नौवाँ अंग है। उनमें से श्रीवर्धमान
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
५९७ अभय वारिषेण चिलातपुत्रा इत्येते दारुण महोपसर्गान्विजित्येंद्रादिकृतां पूजां लब्ध्वाऽनुत्तरविमानेखूषपन्नाः। एवं वृषभादितीर्थेष्वपि परमागमानुसारेण ज्ञातव्याः। प्रश्नस्य दूतवाक्यनष्टमुष्टिचितादिरूपस्यार्थः त्रिकालगोचरो धनधान्यादि लाभालाभसुखदुःखजीवितमरणजयपराजयादिरूपो व्याक्रियते व्याख्यायते यस्मिन् तत्प्रश्नव्याकरणं । अथवा शिष्यप्रश्नानुरूपतया आक्षेपणी विक्षेपणी संवेजनी निर्वेजनी चेति कथा चम्विधा । तत्र प्रयमानयोग करणानयोग चरणानयोगद्रव्यानयोगरूपपरमागम- ५ पदार्थानां तोथंकरादिवृत्तांतलोकसंस्थानदेशसकलयतिधर्मपंचास्तिकायादीनां परमताशंकारहितं कथनमाक्षेपणीकथा। प्रमाणनयात्मक युक्तियुक्तहेतुवादबलेन सर्वथैकांतादिपरसमयार्थनिराकरणरूपा विक्षेपणीकथा। रत्नत्रयात्मकधर्मानुष्ठानफलभूततीर्थकराद्यैश्वर्यप्रभावतेजोवीर्यज्ञानसुखादिवर्णनाल्पा संवेदनीकथा । संसारशरीरभोगजनितदुःकर्मफलनारकादिदुःखदुःकुलविरूपांगदारिद्रयापमानदुःखादिवर्णनाद्वारेण वैराग्यकथनरूपा निāजनीकथा। एवंविधाः कथाः व्याक्रियते १० धन्य-सुनक्षत्र-कार्तिकेय-नन्द-नन्दन-शालिभद्र अभय-वारिषेण-चिलातपुत्रा इत्येते दारुणमहोपसर्गान् विजित्य इन्द्रादिकृतां पूजां लब्ध्वा अनुत्तर विमानेषूपपन्नाः । एवं वृषभादितीर्थेष्वपि परमागमानुसारेण ज्ञातव्याः । प्रश्नस्य-दूतवाक्यनष्टमुष्टिचिन्तादिरूपस्य अर्थः त्रिकालगोचरो धनधान्यादिलाभालाभसुखदुःखजीवितमरणजयपराजयादिरूपो व्याक्रियते व्याख्यायते यस्मिस्तत्प्रश्नव्याकरणम् । अथवा शिष्यप्रश्नानुरूपतया आक्षेपणी विक्षेपणी संवेजनी निर्वेजनी चेति कथा चतुर्विधा । तत्र प्रथमानुयोगकरणानुयोगचरणानुयोगद्रव्यानुयोगरूपपरमागम- १५ पदार्थानां तीर्थकरादिवृत्तान्तलोकसंस्थानदेशसकलयतिधर्मपञ्चास्तिकायादीनां परमताशङ्कारहितं कथनमाक्षेपणी कथा। प्रमाणनयात्मकयुक्तियुक्तहेतुत्वादिबलेन सर्वथैकान्तादि परसमयार्थनिराकरणरूपा विक्षेपणी कथा । रत्नत्रयात्मकधर्मानुष्ठानफलभूततीर्थकराद्यैश्वर्यप्रभावते जोवीर्यज्ञानसुखादिवर्णनारूपा संवेजनी कथा । संसारशरीरभोगरागजनितदुष्कर्मफलनारकादिदुःखदुष्कुलविरूपाङ्गदारिद्रयापमानदुःखादिवर्णनाद्वारेण वैराग्यकथनरूपा
स्वामीके तीथ में ऋजुदास, धन्य, सुनक्षत्र, कार्तिकेय, नन्द, नन्दन, शालिभद्र, अभय, वारिपेण, २० चिलातपुत्र ये दारुण महा उपसर्गोंको जीतकर इन्द्रादिके द्वारा की गयी पूजाको प्राप्त करके अनुत्तर विमानमें उत्पन्न हए। इसी प्रकार ऋषभ आदि तीथकरोंके तीथ में भी परमागमके अनुसार जानना। प्रश्न अर्थात दतवाक्य, नष्ट, मुष्टि चिन्तादि विषयक प्रश्नका त्रिकाल गोचर अर्थ जो धनधान्य आदिकी लाभ-हानि, सुख-दुःख, जीवन-मरण, जय-पराजय आदिसे सम्बद्ध है,वह जिसमें व्याक्रियते अर्थात् उत्तरित किया गया हो, वह प्रश्नव्याकरण है। " अथवा शिष्योंके प्रश्नके अनुसार अवक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेजनी और निर्वजनी ये चार कथाएँ जिसमें वर्णित हों, वह प्रश्नव्याकरण है। तीर्थकर आदिके इतिवृत्तको कहनेवाले प्रथमानुयोग, लोकके आकार आदिका कथन करनेवाले करणानुयोग, देशचारित्र और सकलचारित्रको कहनेवाले चरणानुयोग तथा पंचास्तिकाय आदिका कथन करनेवाले द्रव्यानुयोग रूप परमागमके पदार्थोंका परमतकी आशंकाको दूर करते हुए कथनको आक्षेपणी कथा कहते हैं। प्रमाणनयात्मक युक्ति तथा हेतु आदिके बलसे सर्वथा एकान्त आदि अन्य मतोंका निराकरण करानेवाली कथाको विक्षेपणी कथा कहते हैं। रत्नत्रयात्मक धर्मका अनुष्ठान करनेके फलस्वरूप तीर्थकर आदिके ऐश्वर्य, प्रभाव, तेज, ज्ञान, सुख, वीय आदिका कथन करनेवाली संवेजनी कथा है। संसार शरीर और भोगोंसे राग करनेसे दुष्कर्मका बन्ध होता है और उसके फलस्वरूप नारक आदिका दुःख, दुष्कुलकी प्राप्ति, शरीरोंके अंगोंका विरूपपना, दारिद्रय, अपमान आदिके वर्णनके द्वारा वैराग्यका कथन करनेवाली निर्वजनी र १. अवक्षे-मु।
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गो० जीवकाण्डे
व्याख्यायंते यस्मिन् तत्प्रश्नव्याकरणं नाम दशममंगम्। शुभाशुभकर्मणां तीव्रमंदमध्यमविकल्पशक्तिरूपानुभागस्य द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रयः फलदानपरिणतिरूप उदयो विपाकस्तं सूत्रयति वर्णयतीति विपाकसूत्रं नामैकादशमंगम् । एतेष्वाचारादिषु विपाकलत्रपयंतेष्वेकादशस्वंगेयु प्रत्येकं मध्यमपदानां संख्या यथाक्रमं वक्ष्यते इत्यर्थः।
__ अट्ठारस छत्तीसं बादालं अडकदी अडबिछप्पण्णं ।
सत्तरि अट्ठावीसं चउदालं सोलस सहसा ॥३५८॥ अष्टादश षत्रिंशत् द्वाचत्वारिंशत् अष्टकृतिरष्टद्विः षट्पंचाशत् सप्ततिरष्टविंशतिः चतुश्च. त्वारिंशत् षोडश सहस्राणि ॥
इगिद्गपंचेयारं तिवीस दुतिणउदिलक्ख तुरियादी ।
चलसीदिलक्खमेया कोडी य विवागसुत्तम्मि ॥३५९।। एकद्विपंचैकादशत्रिविशति द्वित्रिनवतिलक्षाणि तुर्य्यादीनि चतुरशीतिलक्षाण्येका कोटी च विपाकसूत्रे ॥
सहस्रशब्दः सर्वत्र संबध्यते । आचारांगे आचारांगदोळु अष्टादशसहस्रपदंगळप्पुवु १८००० सूत्रकृतांगदोळु षट्त्रिंशत्सहस्रपदंगळप्पुवु ३६००० स्थानांगदोळु द्वाचत्वारिंशत्सहस्रपदंगळप्पुवु ४२००० चतुर्थसमवायादिप्रश्नव्याकरणपय्यंतमाद सप्तांगदोळु एकलक्षादियोगं माडल्पडुवुददेंतेंदोडे सनवायांगदोळु एकलक्षमुं चतुःषष्टिसहस्रपदंगलप्पुवु, १६४००० । व्याख्याप्रज्ञप्त्यंगदोळ् द्विलक्ष दुमष्टाविंशतिसहस्रपदंगळप्पुवु २२८००० ज्ञातृकथांगदोळ पंचलक्षंगळं षट्पंचाशत्सहस्रपदंगळप्पुवु ५५६००० उपासकाध्ययनांगदोळु एकादशलमंगळु सप्ततिसहस्रपदंगळप्पवु ११७००००
१५
१..
निर्वेजनी कथा । एवंविधाः कथाः व्याक्रियन्ते व्याख्यायन्ते यस्मिस्तत्प्रश्नव्याकरणं नाम दशममङ्गम् । शुभाशुभकर्मणां तीव्रमन्दमध्यमविकल्पशक्तिरूपानुभागस्य द्रध्यक्षेत्रकालभावाश्रयफलदानपरिणतिरूप उदयःविपाकः तं सूत्रयति वर्णयतोति विपाकसूत्रं नामैकादशमङ्गम् । एतेष्वाचारादिषु विपाकसूत्रपर्यन्तेषु एकादशसु अङ्गेषु प्रत्येकं मध्यमपदानां संख्या यथाक्रमं वक्ष्यते इत्यर्थः ॥३५७॥
सहस्रशब्दः सर्वत्र संबध्यते । आचारागे अष्टादशसहस्राणि पदानि १८००० । सूत्रकृतागे त्रिशत्सहस्राणि पदानि ३६००० । स्थानाङ्गे द्वाचत्वारिंशत्सहस्राणि पदानि ४२००० । चतुर्थादिषु समवायादिषु प्रश्नव्याकरणपर्यन्तेषु सप्तस्वङ्गेषु एकलक्षादियोगः क्रियते । तद्यथा-समवायागे एकलक्षचतुःषष्टिसहस्राणि पदानि १६४००० । व्याख्याप्रज्ञप्त्यङ्गे द्विलक्षाष्टाविंशतिसहस्राणि पदानि २२८००० । ज्ञातृ कथाङ्गे पश्चलक्षषट्पञ्चाशत्सहस्राणि पदानि ५५६०००1 उपासकाध्ययनागे एकादशलक्षसप्ततिसहस्राणि पदानि ११७००००।
२५
३०
कथा है। इस प्रकारकी कथाएँ जिसमें वर्णित हों, वह प्रश्नव्याकरण नामक दसवाँ अंग है। शुभ और अशुभ कर्मोके तीव्र-मन्द-मध्यम विकल्प शक्तिरूप अनुभागके द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके आश्रयसे फलदानकी परणतिरूप उदयको विपाक कहते हैं। उसको जो वर्णन करता है, वह विपाक सूत्र नामका ग्यारहवाँ अंग है। आचारसे लेकर विपाक सूत्र पर्यन्त ग्यारह अंगोंमें-से प्रत्येकमें मध्यमपदोंको यथाक्रम कहते हैं ॥३५७॥ .
__ सहस्र शब्दका सम्बन्ध सर्वत्र लगता है। आचारांगमें अठारह हजार पद हैं। सूत्रकृतांगमें छत्तीस हजार पद हैं। स्थानांगमें बयालीस हजार पद हैं। चतुर्थ समवायांगसे लेकर प्रश्नव्याकरण पर्यन्त सात अंगोंमें एक लाख आदिका योग किया जाता है । अतः समवायांगमें एक लाख चौंसठ हजार पद हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति अंगमें दो लाख अट्ठाईस
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५९९ अंतकृद्दशांगदो त्रयोविंशतिलक्षंगळुमष्टाविंशतिसहस्रपदंगळप्पुवु २३२८००० । अनुत्तरौपपादिकदशांग दो द्विनवतिलशंगळु चतुश्चत्वारिंशत्सहस्रपदंगळप्पुवु ९२४४०००। प्रश्नव्याकरणांगदोजु त्रिनवतिलसंगई षोडशसहस्रपदंगळवु ९३१६००० । विपाकसूत्रांगदोळु एककोटियुं चतुरशीतिलक्षपदंगापुत्रु १८४०००००।
बापणनरनोनानं एयारंगे जुदी हु वादम्मि ।
कनजतजमाननम जनकनजयसीम बाहिरे वण्णा ॥३६॥ वा चतुः । प एक ण पंच । न शून्य । र द्वि । नो शून्य । ना शून्य । नं शून्यकादशांगे युतिः। खलु वादे क एक । न शून्ध । ज अष्ट । त षट् । ज अट । म पंव । ता षट् । न शन्य । न शन्याभ पच । ज अष्ट । न शुन्य । क एक। न शून्य। ज अष्ट । य एक। सि सप्त। मपंच बाह्ये वर्णाः पेरगे पेळल्पट्ट एकादशांगगळ पदसंख्यातिपनक्षरसंख्येयिदं वारणनरलोनानं नाल्कु १० कोटियुं पदिनैदुलक्षमुमेरडु सातिर पइंगळप्पुवु । ४.५०२००० खलु स्फुटमागि वादे दृष्टिवाददोळ कनजतजभतानन नरें ट्रकोटियुमरुपले लक्षम्मथ्व तारुसासिरदय पदंगळप्पूव १०८६८५६००५, जनकनजयसीम। मेंटुकोटियु मोंदुलक्षमु मेंटुसासिरद नूरेप्पत्तैयदुक्षरंगळु सामायिकादिचतुर्दशभेददोळंगबाह्यदोळप्पुत्रु ८०१०८१७५, दृष्टीनां त्रिषष्टयुत्तरत्रिशतसंख्यानां मिथ्यादर्शनानां वादोऽनुवादस्तन्निराकरणं च यस्मिन् क्रियते तदृष्टिवादं नाम द्वादशमंगं। अदेंतेदोर्ड कोत्कल । काण्ठे- १५
अन्तकृदृशाङगे त्रयोविंशतिलक्षाष्टाविंशतिसहस्राणि पदानि २३२८००० । अनुत्तरौपपादिकदशागे द्विनवतिलक्षचतुश्चत्वारिंशत्सहस्राणि पदानि ९२४४०००। प्रश्नव्याकरणानें त्रिनवतिलक्षषोडशसहस्राणि पदानि ९३१६००० । विपाकसूत्रागे एककोटिचतुरशीतिलक्षाणि पदानि १८४००००० ॥३५८-३५९॥
पूर्वोक्तकादशाङ्गपदसंख्यायुतिः अक्षरसंख्यया वापणनरनोनानं चतुःकोटिपञ्चदशलक्षद्विसहस्रप्रमिता भवति ४१५०२००० खलु स्फुटं । दृष्टिवादाङ्गे कनजतजमताननमं अष्टोत्तरशतकोट्यष्टषष्टिलक्षषट्पञ्चाश- २० त्सहस्रपञ्चपदानि भवन्ति १०८६८५६००५ । जनकनजयसीम अष्टकोट्येकलक्षाष्टसहस्रकशतपञ्चसप्तत्यक्षराणि सामायिकादिचतुर्दशभेदेऽङ्गबाह्यश्रुते भवन्ति ८०१०८१७५ । दृष्टोनां त्रिषष्ट्युत्तरत्रिशतसंख्यानां मिथ्यादर्शनानां वादः अनवादः तन्निराकरणं च यस्मिन् क्रियते तद् दृष्टिवाद नाम द्वादशमङ्गम् । तद्यथा कौत्कल
हजार पद हैं। ज्ञातृकथांगमें पाँच लाख छप्पन हजार पद हैं। उपासकाध्ययनांगमें ग्यारह लाख सत्तर हजार पद हैं। अन्तकहशांगमें तेईस लाख अट्ठाईस हजार पद हैं। अनत्तरोप- २५ पादिक दशांगमें बानवे लाख चवालीस हजार पद हैं । प्रश्नव्याकरणमें तिरानबे लाख सोलह हजार पद हैं, विपाक सूत्र में एक कोटि चौरासी लाख पद हैं ॥३५८-३५९।।
पूर्वोक्त ग्यारह अंगोंके पदोंका जोड़ अक्षरोंकी संख्यामें 'वापणनरनोनानं' अर्थात् चार कोटि, पन्द्रह लाख दो हजार प्रमाण होते हैं। पहले गतिमार्गणामें मनुष्योंकी संख्या अक्षरोंमें कही है। उसकी टीकामें स्पष्ट कर दिया है कि किस अक्षरसे कौन संख्या लेना । जैसे ३० यहाँ 'व' से चार, 'प' से एक, 'ण' से पाँच, 'न' से शून्य, 'र' से दो और तीन शून्य लेना क्योंकि 'व' य से चतुर्थ अक्षर है, 'र' दूसरा अक्षर है, 'ण' टवर्गका पाँचवाँ अक्षर है और 'प' पवर्गका प्रथम अक्षर है । दृष्टिवाद अंगमें 'कनजतजमताननम' अर्थात् एक सौ आठ कोटि, अड़सठ लाख, छप्पन हजार, पाँच पद हैं १०८६८५६००५ । 'जनकनजयसीम' आठ कोटि, एक लाख, आठ हजार,एक सौ पचहत्तर ८०१०८१७५ अक्षर सामायिक आदि ३५ चौदह भेदरूप अंगबाह्यमें होते हैं। तीन सौ तिरेसठ दृष्टि अर्थात् मिथ्यादर्शनोंका वाद
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गो. जीवकाण्डे विद्धि । कौशिक । हरिस्मश्रु। मान्यपिक । रोमश । हारीत । मुण्ड । आश्वलायननेंबिववर्गळु क्रियावाददृष्टिगळिवर्गठ नूरे भत्तु १८० । मरीचि। कपिल। उलूक । गाये । व्याघ्रभूति । वावलि। माठर । मौद्गलायनं मोदलादवर्गळु अक्रियावादह ष्टिगळवर्गळंवत्तनाल्कं ८४ ।
शाक्तत्य। वल्कल। कंथुमि। सात्यभुग्नि। नारायण । कठ। माध्यंदिन । मौद । पैप्पलाद । ५ बादरायण । स्वष्टिक्य । दैतिकायन। वसु जेसियादिगळु अज्ञानदृष्टिगळु इवर्गळरुवत्ते© ६७ ।
वशिष्ठ पातार । जतुफर्ण । वाल्मोकि । रोमहषिणि । सत्यदत्त । व्यास । एलापुत्र औपमन्यव । इंद्रदत्त । अगस्त्यादिगळु वैनयिकदृष्टिगळिवर्गळ मूवत्तेरडु। ३२। मितु कूडि मूतूररुवत्तमूरु मिथ्यावादंगटप्पुवु । ३६३ ।।
चंदरविजंबुदीवय दीवसमुद्दय वियाहपण्णत्ती । पारेयम्मं पंचविहं सुत्तं पढमाणियोगमदो ॥३६१।। पुव्वं जलथलमाया आगासयरूवगयमिमा पंच ।
भेदा हु चूलियाए तेसु पमाणं इमं कमसो ॥३६२।। चंद्ररविजंबूद्वीपद्वीपसमुद्रव्याख्याप्रज्ञप्तयः। परिकर्म पंचविधं सूत्रं प्रथमानुयोगोऽतः॥ पूर्व, जलस्थलमायाकाशरूपगमिमे पंचभेदाश्चूलिकायाः तेषु प्रमाणमिदं क्रमशः॥
दृष्टिवाददोळधिकारंगलेदप्पुववावुर्वेदोडे परिकर्म । सूत्रं । प्रथमानुयोगः। पूर्वगतं । चूलिकयुम दितिल्लि परितः सर्वतः कर्माणि गणितकरणसूत्राणि यस्मिन् तत्परिकम्म। ई परिकौशिक-हरिश्मश्रु-मान्धपिक-रोमश-हारीत-मुण्ड-आश्वलायनादयः क्रियावाददृष्टयः अशीत्युत्तरशतं १८० । मरीचि-कपिल-उलूक-गार्य-व्याघभूति-वाड्बलि:-माठर-मौद्गलायनादयः अक्रियावाददृष्टयश्चतुरशीतिः ८४ । शोकल्य-वाल्कल-कुंथुमि-सात्यमुनि-नारायग-कठ-माध्यन्दिन-मौद-पैप्पलाद-वादरायण-स्विष्ठिक्य-दैतिकायन-वसु . जैमिन्यादयः अज्ञानकूदृष्टयः सप्तषष्टिः ६७। वशिष्ठ-पाराशर-जतुकर्ण-बाल्मिकि-रोमहर्षणि-सत्यदत्त-व्यासएलापुत्र-औपमन्यव-ऐन्द्र दत्त-अगस्त्यादयो वैनयिकदृष्यो द्वात्रिंशत ३२। मिलित्वा मिथ्यावादाः त्रिषष्टयग्रत्रिशती भवन्ति ॥३६०॥
दृष्टिवादानें अधिकाराः पञ्च । ते के ? परिकम सूत्रं प्रथमानुयोगः पूर्वगतं चूलिका चेति । तत्र अर्थात् अनुवाद और उनका निराकरण जिसमें किया जाता है वह दृष्टिवाद नामक २५ बारहवाँ अंग है। कौत्कल, कंठेविद्धि कौशिक, हरिश्मश्रु, मांधपिक, रोमश, हारीत, मुंड,
आश्वलायन आदि क्रियावाद दृष्टियाँ एक सौ अस्सी हैं। मरीचि, कपिल, उलूक, गाय, व्याघ्रभति, वाडवलि, माठर, मौदगलायन आदि अक्रियावाददष्टि चौरासी हैं। कल्य वाल्कल, कुंथुमि, सात्यमुनि, नारायण, कठ, माध्यंदिन, मौद, पैप्पलाद, वादरायण, स्विष्टिक्य, ऐतिकायन, वसु, जैमिनि आदि अज्ञानकुदृष्टि सड़सठ हैं। वशिष्ठ, पाराशर, . जतुकर्ण, वाल्मिकि, रोमहर्षणि, सत्यदत्त, व्यास, एलापुत्र, औपमन्यव, ऐन्द्रदत्त, अगस्त्य
आदि वैनयिक दृष्टि बत्तीस हैं। ये सब मिथ्यावाद मिलकर तीन सौ तिरसठ होते हैं ॥३६०॥
दृष्टि वाद अंगमें पाँच अधिकार हैं-परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत, चूलिका। १. म मान्धयिक । २. ब काकल्य । ३. ब दतिकायन । दैत्यकायन मु। ४. अपम ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कर्ममेंदु प्रकारकक्कुमदते बोडे चंद्रप्रज्ञप्नियुं । सूर्यप्रज्ञप्तियं । जंबूद्वीपप्रज्ञप्तियुं । द्वीपसागरप्रज्ञप्तियु व्याख्याप्रज्ञप्तियम दितु चंद्रप्रज्ञप्तियें बुदु चंद्रविमानायुःपरिवारऋद्धिगमनहानिवृद्धिसकलार्द्धचतुर्थांशग्रहणादिगळं वणिसुगुं। सूर्यप्रज्ञप्तिये बुदु सूर्य्यनायुमंडलपरिवारऋद्धिगमनप्रमाणग्रहणादिगळं वणिसुगुं । जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिये बुदु जंबूद्वीपगतमेरुकुलशैलहूदवर्षकुंडवेदिकावनषंडव्यंतरावास महानदिगळमोदलादुवं वणिसुगुं। द्वीपसागरप्रज्ञप्तिये बुदु असंख्यातद्वीपसागरंगळ स्वरूपमं तत्र- ५ स्थितज्योतिर्वानभावनावासंगळोळु विद्यमानंगळप्पऽकृत्रिमजिनभवनादिगळ वर्णनमं माळ्कुं। व्याख्याप्रज्ञप्रिय बुदु रूप्यरूपिजीवाजीवद्रव्यंगळ भव्याभव्यभेदप्रमाणलक्षणंगळ, अनंतरसिद्ध परंपरासिद्धरुगळ परतुं वस्तुगळ वर्णनमं माळ्कुं। सूत्रयति सूचयति कुदृष्टिदर्शनानिति सूत्रं । जीवोऽबंध. कोऽकर्ता निर्गुणोऽभोक्तास्वप्रकाशकः परप्रकाशकोस्त्येव जीवो नास्त्येव जीव इत्यादिक्रियाकियाज्ञानविनयकुदृष्टिनां त्रिषष्टयुत्तरत्रिशतमिथ्यादर्शनंगळं पूर्वपक्षयिदं पेळगुं । प्रथमानुयोग; बुदु .. प्रथमं मिथ्यादृष्टिमवतिकमव्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्यमाश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकारः प्रथमानुयोगः। परितः सर्वतः कर्माणि गणितकरणसूत्राणि यस्मिन् तत्परिकर्म, तच्च पञ्चविधं चन्द्रप्रज्ञप्तिः सूर्यप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः द्वीपसागरप्रज्ञप्ति : व्याख्याप्रज्ञप्तिश्चेति । तत्र चन्द्रप्रज्ञप्तिः चन्द्रस्य विमानायुःपरिवारऋद्धिगमनहानिवृद्धिसकलार्धचतुर्थांशग्रहणादीन् वर्णयति । सूर्यप्रज्ञप्तिः सूर्यस्यायुमण्डलपरिवारऋद्धिगमनप्रमाणग्रहणादीन्वर्णयति । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः जम्बूद्वीपगतमेरुकुलशैलह्नदवर्षकुण्डवेदिकावनखण्डव्यन्तरावासमहानद्यादीन् १५ वर्णयति । द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः असंख्यातद्वीपसागराणां स्वरूपं तत्रस्थितज्योतिर्वानभावनावासेषु विद्यमानाकृत्रिमजिनभवनादीन वर्णयति । व्याख्याप्रज्ञप्तिः रूप्यरूपिजीवाजीवद्रव्याणां भव्याभव्यभेदप्रमाणलक्षणानां अनन्तरसिद्धपरम्परासिद्धानां अन्यवस्तूनां च वर्णनं करोति । सूत्रयति-सूचयति कुदृष्टिदर्शनानीति सूत्रम् । जोवः अबन्धकः अकर्ता निर्गुणः अभोक्ता स्वप्रकाशकः परप्रकाशकः अस्त्येव जीवः नास्त्येव जोवः इत्यादि क्रियाक्रियाज्ञानविनयकुदृष्टीनां विषष्ट्युत्तरत्रिशतंमिथ्यादर्शनानि पूर्वपक्षतया कथयति । प्रथमानुयोगः प्रथमं मिथ्या- २० दृष्टिमबतिकमव्युत्पन्नं वा प्रतिपाद्य माश्रित्य प्रवृत्तोऽनुयोगोऽधिकारः प्रथमानुयोगः । चतुर्विशतितीर्थंकरद्वादश'परितः' अर्थात् पूरी तरहसे 'कर्माणि' अर्थात् गणितके करणसूत्र जिसमें हैं, वह परिकर्म है। उसके भी पाँच भेद हैं-चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति । उनमें से चन्द्रप्रज्ञप्ति चन्द्रमाके विमान, आयु, परिवार, ऋद्धि, गमन, हानि, वृद्धि, पूर्णग्रहण, अर्धग्रहण, चतुर्थांशग्रहण आदिका वर्णन करती है। सूर्यप्रज्ञप्ति सूर्यकी आयु, २५ मण्डल, परिवार, ऋद्धि, गमनका प्रमाण तथा ग्रहण आदिका वर्णन करती है । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति जम्बूद्वीपगत मेरु, कुलाचल, तालाब, क्षेत्र, कुण्ड, वेदिका, वनखण्ड, व्यन्तरोंके आवास, महानदी आदिका वर्णन करती है। द्वीपसागरप्रज्ञप्ति असंख्यात द्वीप-समुद्रोंके स्वरूप, उनमें स्थित ज्योतिषीदेवों, व्यन्तरों और भवनवासी देवोंके आवासोंमें वर्तमान अकृत्रिम जिनालयोंका वर्णन करती है। व्याख्याप्रज्ञप्ति रूपी-अरूपी, जीव-अजीव द्रव्योंका, ३० भव्य और अभव्य भेदोंका, उनके प्रमाण और लक्षणोंका, अनन्तर सिद्ध और परम्परा सिद्धोंका तथा अन्य वस्तुओंका वर्णन करती है। सूत्रयति' अर्थात् जो मिथ्यादृष्टि दर्शनोंको सूचित करता है,वह सूत्र है । जीव अबन्धक है, अकर्ता है, निर्गुण है, अभोक्ता है, स्वप्रकाशक नहीं है, परप्रकाशक है, जीव अस्ति ही है या नास्ति ही है, इत्यादि क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानी और वैनयिक मिथ्यादृष्टियोंके तीन सौ तिरेसठ मतोंको पूर्वपक्षके रूपमें कहता है। ३५ १. म प्रकारमदेंतेने । २. क तु मल्लि च।
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गो० जीवकाण्डे चतुविशतितीत्थंकरद्वादश चक्रवत्तिंगळ नवबलदेव नववासुदेव नवप्रतिवासुदेवरुगळप्प त्रिषष्टिशलाकापुरुषपुराणंगळं वर्णिसुगुं । मुंद पूवं चतुर्दशविधं विस्तदिदं पेळल्पट्टपुदु।
चूलिकयुमय्दु प्रकारमक्कुमदत दोडे जलगता स्थलगता मायागता आकाशगता रूपगता एंदितिवरोळु जलगताचूलिके जलस्तंभन जलगमनाग्निस्तंभनाग्निभक्षणाग्न्यासनाग्निप्रवेशनादिकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं वर्णिसुगुं । स्थलगता चूलिकेय बुदु मेरुकुलशैलभूम्यादिगळोळु प्रवेशन शीघ्रगमनादिकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं वर्णिसुगुं। मायागता चूलिकय बुदु मायारूपेंद्रजालविक्रियाकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं वर्णिसुगुं । रूपगताचूलिकये बुदु सिंहकरितुरगरुरुनर तहरिणशशवृषभव्याघ्रादिरूपपरावर्तनकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं चित्रकाष्ठलेप्योत्खननादिलक्षणधातुवादरसवादखन्यावादादिगळं वणिसुगुं।
आकाशगताचूलिकेये बुदु आकाशगमनकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं वणिसुगुं।
परणे पेळ्द चंद्रप्रज्ञप्त्यादिगळोळु क्रमशः यथाक्रमदिदं पदप्रमाणमननंतरमे वक्ष्यमाणमनिदं जानीहि एंदितु संबोधनमध्याहाय्यं । चक्रवर्तिनवबलदेवनववासुदेवनवप्रतिवासुदेवरूपत्रिषष्टिशलाकापुरुषपुराणानि वर्णयति । पूर्व चतुर्दशविधं विस्तरेण अग्रे वक्ष्यति । चूलिकापि पञ्चविधा जलगता स्थलगता मायागता आकाशगता रूपगता चेति । तत्र जलगता चूलिका जलस्तम्भनजलगमनाग्निस्तम्भाग्निभक्षणाग्न्यासनाग्निप्रवेशनादिकारणमन्त्रतन्त्रतपश्चरणादीन् वर्णयति । स्थलगता चूलिका मेरुकुलशैलभूम्यादिषु प्रवेशनशीघ्रगमनादिकारणमन्त्रतन्त्रतपश्चरणादोन् वर्णयति । मायागता चूलिका मायारूपेन्द्रजालविक्रियाकारणमन्त्रतन्त्रतपश्चरणादीन् वर्णयति । रूपगता चूलिका सिंहकरितुरगरुरुनरतरुहरिणशशकवृषभव्याघ्रादिरूपपरावर्तनकारणमन्त्रतन्त्रतपश्चरणादीन् चित्रकाष्ठलेप्योत्खन
नादिलक्षणधातुवादरसवादखन्यावादादींश्च वर्णयति । आकाशगता चूलिका आकाशगमनकारणमन्त्रतन्त्र२० तपश्चरणादीन् वर्णयति । प्रागुक्तचन्द्रप्रज्ञप्त्यादिषु क्रमशो यथाक्रमं पदप्रमाणं अनन्तरमेव वक्ष्यमाणं जानीहि
इति संबोधनमध्याहार्यम् ॥३६१-३६२।। प्रथम अर्थात् मिथ्यादृष्टि, अव्रती या अव्युत्पन्न व्यक्तिके लिए जो अनुयोग रचा गया वह प्रथमानुयोग है। यह चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रति
वासुदेव, इन तिरेसठ शलाका प्राचीन पुरुषोंका वर्णन करता है। चौदह प्रकारके पूर्वोके २५ सम्बन्धमें आगे विस्तारसे कहेंगे। चूलिका भी पाँच प्रकार की है-जलगता, स्थलगता,
मायागता, आकाशगता और रूपगता। जलगता चूलिका जलका स्तम्भन, जलमें गमन, अग्निका स्तम्भन, अग्निका भक्षण, अग्निपर बैठना, अग्निमें प्रवेश आदिके कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण आदिका वर्णन करती है। स्थलगता चूलिका मेरु, कुलाचल, भूमि आदिमें प्रवेश
करने तथा शीघ्र गमन आदिके कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण आदिका वर्णन करती है। ३० मायागता चूलिका मायावी रूप, इन्द्रजाल (जादूगरी) विक्रियाके कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण
आदिका वर्णन करती है। रूपगता चूलिका सिंह, हाथी, घोड़ा, मृग, खरगोश, बैल, व्याघ्र आदिके रूप बदलने में कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण आदिका तथा चित्र, काष्ठ, लेप्य, उत्खनन आदिका लक्षण व धातुवाद, रसवाद, खदान आदि वादोंका कथन करती है। आकाशगता
चूलिका आकाशमें गमन करने में कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण आदिका कथन करती है। इन ३५ चन्द्रप्रज्ञप्ति आदिमें क्रमसे पदोंका प्रमाण आगे कहते हैं ॥३६१-३६२।।
१. ब°खन्या।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गतनम मनगं गोरम मरमत जवगातनोननं जजलक्खा । मननन धममननोनननामं रनधजधरानन जलादी ॥३६३।। याजकनामेनाननमेदाणि पदाणि होति परियम्मे ।
कानवधिवाचनाननमेसो पुण चूलियाजोगो ॥३६४॥ ___ग। त्रि। त । षट् । न । शन्य ।म। पंच।म। पंच । न । शून्य । गं । त्रि। गो। त्रि। ५ र। द्वि ।म। पंच । म । पंच । र । द्वि । ग। त्रि।त। षट् । ज। अष्ट । व । चतुः। गा। त्रि। त । षट् । नोननं । शून्य । शून्य । शून्य । ज । अष्ट । ज । अष्ट । लक्षाणि । म । पंच । न । नन । शून्य । शून्य । शून्य । ध। नव । म । पंच । म । पंच । न । शून्य । नो । शून्य । न । शून्य । ना। शून्य । म । पंच । रा। द्वि । न। शून्य । ध ।नव । ज । अष्ट । ध । नव । रा । द्वि । न । शून्य।। न। शन्य। जलादयः ।।
या। एक । ज । अष्ट। क एक। ना शून्य । मे। पंच । ना शून्य । न शून्य । न शून्य । मेतानि पदानि भवंति। परिकर्मणि। का। एक । न शून्य । व। चतुः। धि । नव । वा चतुः। च षट् । ना शून्य । न शून्य । न शून्य । मेषः पुनश्चूलिकायोगः। अक्षरसंयिदं गतनमनोननं षत्रिंशल्लक्षपंचसहस्रपदंगळु चंद्रप्रज्ञप्तियोळप्पुवु ३६०५०००। मनगं नोननं पंचलक्षत्रिसहस्रपदंगळु सूर्यप्रज्ञप्तियोळप्पुवु ५०३००० । गोरमनोननं त्रिलक्षपंचविंशतिसहस्रपदंगळ जंबूद्वीपप्रज्ञप्तियोळप्पुवु ३२५००० । मरगतनोननं द्विपंचाशल्लक्षषत्रिंशत्सहस्रपदंगळु द्वीपसागरप्रज्ञप्तियोळप्पुवु ५२३६०००। जवगातनोननं चतुरशीतिलक्षषत्रिंशत्सहस्रपदंगळु व्याख्याप्रज्ञप्तियोळप्पुवु । ८४३६००० । जजलक्खा अष्टाशीतिलक्षपदंगळु सूत्रदोळप्पुवु ८८००००० । मननन पंचसहस्रपदंगळु प्रथमानुयोगदोळप्पुवु. ५००० । धममननोनननाम पंचनवतिकोटियुं पंचाशल्लक्षमुमदु पदंगळु चतुर्दशपूर्वसमच्चयदोळप्पूव ९५५०००००५ । रनधजधराननजलादि द्विकोटिनवलक्षनवाशीतिसहस्रद्विशतोत्तरपदंगळु प्रत्येकं जलगतादि पंचचूलिकास्थानंगळोळु समानंगळेयप्पुवु । जलगतंगळु २०९८९२०० स्थलगतंगळु २०९८९२०० मायागतंगळु २०९८९२०० आकाशगतंगळु
अक्षरसंज्ञया चन्द्रप्रज्ञप्तौ गतनमनोननं-पत्रिशल्लक्षपञ्चसहस्राणि पदानि ३६०५०००। सूर्यप्रज्ञप्ती मनगंनोननं-पश्चलक्षत्रिसहस्राणि पदानि ५०३०००। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तौ गोरमनोननं त्रिलक्षपञ्चविंशतिसहस्राणि पदानि ३२५०००। द्वीपसागरप्रज्ञप्तौ भरगतनोननं द्विपञ्चाशल्लक्षत्रिंशत्सहस्राणि पदानि ५२३६००० । व्याख्याप्रज्ञप्ती जवगातनोननं-चतुरशीतिलक्षट्त्रिंशत्सहस्राणि पदानि ८४३६००० । सूत्रे जजलक्खा-- १ अष्टाशीतिलक्षाणि पदानि ८८०००००। प्रथमानुयोगे मननन–पञ्चसहस्राणि पदानि ५०००। चतुर्दशपूर्वसमुच्चये धमननोनननाम-पञ्चनवतिकोटिपञ्चाशल्लक्षपञ्चपदानि ९५५०००००५। जलादी जलगतादिपञ्चचूलिकास्थानेषु प्रत्येके रनधजधराननं-द्विकोटिनवलक्षनवाशीतिसहस्रद्विशतानि पदानि । २०९८२२० ।
अक्षरोंकी संज्ञासे चन्द्रप्रज्ञप्तिमें 'गतनमनोननं' अर्थात् छत्तीस लाख पाँच हजार ३६०५००० पद हैं। सूर्यप्रज्ञप्तिमें 'मनगंनोननं' पाँच लाख तीन हजार ५०३००० पद हैं। " जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिमें 'गोरमनोननं' तीन लाख पच्चीस हजार ३२५००० पद हैं। द्वीपसागर प्रज्ञप्तिमें 'मरगतनोननं' बावन लाख छत्तीस हजार ५२३६००० पद हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति में 'जवगातनोनं' चौरासी लाख छत्तीस हजार ८४३६००० पद हैं। सूत्रमें 'जजलक्खा' अठासी लाख ८८००००० पद हैं। प्रथमानुयोगमें 'मननन' पाँच हजार ५००० पद हैं। चौदह पूर्वोमें 'धममननोनननाम' पंचानबे कोटि पचास लाख पाँच ९५५०००००५ पद हैं। जलगता आदि
२०
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गो० जीवकाण्डे २०९८९२०० रूपगतंगळु २०९८९२०० । याजकनामेनाननं एककोटयेकाशीतिलक्षंगळुमय्दुसहस्रपदंगळु चंद्रप्रज्ञप्त्यादि पंचप्रकारमनुळ्ळ परिकर्मयुतियोळप्पुवु १८१०५००० कानवधिवाचनाननं दशकोट्येकोनपंचाशल्लक्षषट्चत्वारिंशत्सहस्रपदंगळु पुनः मत्ते जलगतादि पंचप्रकारभूतचूलिकायोगमिदु १०४९४६००० ।।
पण्णट्ठदाल पणतीस तीस पण्णास पण्ण तेरसदं । णउदी दुदाल पुव्वे पणवण्णा तेरससयाइं ॥३६॥ छस्सयपण्णासाई चउसयपण्णास छसयपणवीसा ।
बिहि लक्खेहिं दु गुणिया पंचम रूऊण छज्जुदा छठे ॥३६६॥
पंचाशदष्टचत्वारिंशत्यंचत्रिंशत् त्रिंशत् पंचाशत् पंचाशत् त्रयोदशशतं नवतिचित्वारिंशत् १० पूर्वे पंच पंचाशत् त्रयोदशशतानि । षट्छतपंचाशश्चतुःशतपंचाशत् षट्शतपंचविंशतिद्वाभ्यां लक्षाभ्यां गुणितास्तु पंचमरूपोन षड्युताःषष्टि।
५०। ४८। ३५ । ३० । ५०। ५०। १३०० । ९०। ४२ ॥ ५५ ॥ १३०० ।-६१० । ४५०। ६२५।
पूर्वे उत्पादादि पूर्वदोळु चतुर्दशविधदोळं यथाक्रमदिदमी संख्ये पेळल्पटुदु । वस्तुविन द्रव्यद उत्पादव्ययध्रौव्यादि अनेकधर्मपूरकमुत्पादपूर्वमक्कु-मदु जीवादिद्रव्यंगळ नानानयविषयक्रम योगपद्यसंभावितोत्पादव्ययध्रौव्यंगळु त्रिकालगोचरंगळु । नवधर्मगळप्पुवु । तत्परिणत द्रव्यमुं नवविधमक्कुं। उत्पन्नमुत्पद्यमानमुत्पत्स्यमानं नष्टं नश्यत् नंक्ष्यत् स्थितं तिष्ठत् स्थास्यदिति इंतु नवप्रकारंगळप्पुवुत्पन्नत्वादिगळ्गे प्रत्येकं नवविधत्वसंभवदणिदमेकाशीतिविकल्पधर्म
चन्द्रप्रज्ञप्त्यादिपञ्चविधपरिकर्मयुती याजकनामेनाननं-एककोट्येकाशीतिलक्षपञ्चसहस्राणि पदानि १८१०५०००। जलगतादिपञ्चविधचूलिकायोगः पुनः कानवधिवाचनाननं-दशकोटयेकोनपञ्चाशल्लक्षषट्चत्वारिंशत्सहस्राणि पदानि १०४९४६००० ॥३६३-३६४ ॥
___ उत्पादादिचतुर्दशपूर्वेषु यथाक्रमं पदसंख्योच्यते-वस्तुनो-द्रव्यस्य उत्पादव्ययध्रौव्याद्यनेकधर्मपूरकमुत्पादपूर्वं तच्च जीवादिद्रव्याणां नानानयविषयक्रमयोगपद्यसंभावितोत्पादव्ययध्रौव्याणि त्रिकालगोचराणि नवधर्मा भवन्ति । तत्परिणतं द्रव्यमपि नवविधं । उत्पन्नं उत्पद्यमानं उत्पत्स्यमानं । नष्टं नश्यन् नंक्ष्यत् । स्थितं तिष्ठत स्थास्यदिति नवप्रकारा भवन्ति । उत्पन्नादीनां प्रत्येकं नवविधत्वसंभवादेकाशीतिविकल्पधर्मपरि
प्रत्येक चूलिकामें 'रनधजधरानन' दो कोटि नौ लाख नवासी हजार दो सौ पद हैं २०९८९. २०० । चन्द्रप्रज्ञप्ति आदि पाँच परिकर्मों में मिलाकर 'याजकनामेनानन' एक कोटि इक्यासी लाख पाँच हजार पद हैं १८१०५००० | जलगता आदि पाँचों चूलिकाओंके पदोंका जोड़ 'कानवधिवाचनान' दस कोटि उनचास लाख छियालीस हजार १०४९४६००० है ॥३६३-३६४।।
उत्पाद आदि चौदह पूर्वो में क्रमसे पद संख्या कहते हैं-द्रव्यके उत्पाद-व्यय आदि अनेक धर्मोंका पूरक उत्पादपूर्व है। जीवादि द्रव्योंके नाना नय विषयक क्रम और युगपत् होनेवाले तीन कालके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप नौ धर्म होते हैं | अतः उन धर्मरूप परिणत
द्रव्य भी नौ प्रकारका है-उत्पन्न, उत्पद्यमान, उत्पत्स्यमान, जो नष्ट हो चुका, हो ३५ रहा है, होगा, स्थिर हुआ, हो रहा है, होगा ये नौ प्रकार हैं । उत्पाद आदि प्रत्येकके नौ
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका परिणतद्रव्यवर्णनमं माळकु- मल्लि द्विलक्षळिदं गुणितपंचाशत्तुगळ्गेककोटिपदंगळप्पुवु १०००००००। अग्रस्य द्वादशांगेषु प्रधानभूतस्य वस्तुनः अयनं ज्ञानमग्रायणं तत्प्रयोजनमग्रायणीयं द्वितीयं पूर्वमीयग्रायणी पूवं सप्तशत सुनय दुर्णय पंचास्तिकाय षड्द्रव्य सप्ततत्व नवपदात्थंगळ मोदलादवनु वर्णिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणिताष्टचत्वारिंशत्पदंगळु षण्णवतिलक्षंगळप्पुर्व बुदत्थं ।९६००००० । वीर्य्यस्य जीवादिवस्तुसामर्थास्य अनुप्रवादोनुवर्णनमस्मिन्निति वीर्य्यानुप्रवादमंगं ५ तृतीयपूर्वमदु आत्मवीर्य्य परवीर्य उभयवीर्य क्षेत्रवीर्य कालवीयं भाववीय्यं तपोवीर्य मेंदित्यादिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायवीय्यंगळं वणिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणितपंचत्रिशत्पदंगळु सप्ततिलक्षपदंगळप्पुर्वे बुदत्थं-७०००००० । अस्तिनास्तीत्यादि धर्माणां प्रवादः प्ररूपणमस्मिन्निति अस्तिनास्तिप्रवादं चतुत्थं पूर्वमिदु ।
जीवादिवस्तु स्यादस्ति स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य । स्यानास्ति परद्रव्यक्षेत्रकालभावा- १०. नाश्रित्य । स्यादस्ति च नास्ति च क्रमेण स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावद्वयं संयुक्तमाश्रित्य । स्यादवक्तव्यं युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावद्वयमाश्रित्य तथा वक्तुमशक्यत्वात् । स्यादस्ति चावक्तव्यं च स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावान् युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावद्वयं च संयुक्तमाश्रित्य । स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च परद्रव्यक्षेत्रकालभावान्युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावद्वयं च संयुक्तमाश्रित्य । स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च क्रमेण स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावद्वयं युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभाव- १५ द्वयं च संयुक्तमाश्रित्य एंदितेकानेकनित्यानित्याद्यनंतधम्मंगळ विधिनिषेधावक्तव्यभंगंगळ प्रत्येक
णतद्रव्यवर्णनं करोति । तत्र द्विलक्षगुणितपञ्चाशत्पदानि एका कोटिरित्यर्थः १००००००० । अग्रस्य द्वादशाङ्गेषु प्रधानभूतस्य वस्तुनः अयनं ज्ञानं अग्रायणं । तत्प्रयोजनम् अग्रायणीयं, द्वितीयं पूर्व । तच्च सप्तशतसुनयदुर्णयपञ्चास्तिकायषद्रव्यसप्ततत्त्वनवपदार्थादीन वर्णयति । तत्र द्विलक्षगणिताष्टचत्वारिंशत्पदानि षण्णवतिलक्षाणि इत्यर्थः । ९६००००० । वीर्यस्य-जीवादिवस्तुसामर्थ्यस्य अनुप्रवादः-अनुगनं अस्मिन्निति वीर्यानुप्रवादं नाम २० तृतीयं पूर्व । तच्च आत्मवीयंपरवीर्योभयवीर्यक्षेत्रवीर्यकालवीर्यभाववीर्यतपोवीर्यादिसमस्तद्रव्यगुणपर्यायवीर्याणि वर्णयति । तत्र द्विलक्षगणितपञ्चत्रिंशत्पदानि सप्ततिलक्षाणीत्यर्थः ७००००००। अस्तिनास्तीत्यादिधर्माणां प्रवादः-प्ररूपणमस्मिन्निति अस्तिनास्तिप्रवादं चतुर्थं पूर्व । तच्च जीवादिवस्तु स्यादस्ति स्व द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य, स्यान्नास्ति परद्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य । स्यादस्ति नास्ति च क्रमेण स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावद्वयं संयुक्तमाश्रित्य । स्यादवक्तव्यं युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावद्वयमाश्रित्य तथा वक्तुमशक्यत्वात् । स्यादस्ति २५ प्रकार हो सकते हैं। अतः इक्यासी धर्म परिणत द्रव्यका वर्णन करता है। उसमें दो लाखसे गुणित पचास अर्थात् एक कोटि पद होते हैं। अग्र अर्थात् द्वादशांगमें प्रधान भूत वस्तुका 'अयन' अर्थात् ज्ञान अग्रायण है। वह जिसका प्रयोजन है, वह दूसरा पूर्व अग्रायण है। वह सात सौ सुनयों, दुर्नयों, पाँच अस्तिकाय, छह द्रव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ आदिका वर्णन करता है। उसमें दो लाखसे गुणित अड़तालीस अर्थात् छियानवे लाख पद हैं । वीर्य अर्थात् जीवादि वस्तुकी सामर्थ्यका 'अनुप्रवाद' अर्थात् वर्णन जिसमें होता है वह वीर्यानुप्रवाद नामक तीसरा पूर्व है । वह अपने वीर्य, पराये वीर्य, उभयवीर्य, क्षेत्रवीर्य, कालवीर्य, भाववीर्य, तपवीर्य, आदि समस्त द्रव्य-गुण-पर्यायोंके वीर्यका कथन करता है। उसमें दो लाखसे गुणित पैंतीस अर्थात् सत्तर लाख पद हैं। अस्ति-नास्ति आदि धर्मोंका 'प्रवाद' अर्थात् प्ररूपण जिसमें है, वह अस्ति-नास्ति प्रवाद नामक चतुर्थ पूर्व है। जीवादि ३५ वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभावकी अपेक्षा स्यादस्ति है। परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभावकी अपेक्षा स्यात्नास्ति है। क्रमसे स्वद्रव्यक्षेत्रकालभाव और परद्रव्यक्षेत्रकाल
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गो० जीवकाण्डे
द्विसंयोगत्रिसंयोगजंगळ त्रित्र्येकसंख्यंगळ ७ मेलेनंत सप्तभंगियं प्रश्नवशदिदमो दे वस्तुविनोळविरोदद संभविपुदं नानानय मुख्यगौण भावदिदं प्ररूपिसुगुमिल्लि । द्विलक्षगुणित त्रिशत्पदंगळु षष्ठिलक्षपदंगलप्पुवें बुदत्थं ६०००००० ल ।
ज्ञानानां प्रवादः प्ररूपणमस्मिन्निति ज्ञानप्रवादं । पंचमं पूर्व्वमिदु । मतिश्रुतावधिमनः५ पर्य्यय केवलमेंदु पंच सम्यज्ञानंगळ । कुमतिकुश्रुतविभंगमे व त्र्यज्ञानंगळिवेरर स्वरूपसंख्याविषयक चंगळ नाश्रयिसियवक्के प्रामाण्याप्रामाण्य विभागमुमं वणिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणितपंचाशत्पदंग रूपोनकोटिगलप्पुवेकेंदोडे पंचमरूऊण में बुर्दारदं पंचमप्पूवंदोळ द्विलक्षगुणितपंचागत्पदलब्धदोळोदु कोटियोळोंदु गंदुगुमेंदु पेदुदरिदं ५ = अ = ९९९९९९९ । त्य प्रवादः प्ररूपणम स्मिन्निति सत्यप्रवादं षष्ठपूर्व्वमिदु वाग्गुप्तियुमं वाक्संस्कारकारणंगळमं १० वाक्प्रयोगमुमं द्वादशभाषेगळुमं वक्तृभेदगळुमं बहुविधमृषाभिधानमुमं दशविधसत्यमुमं प्ररूपिसुगु
२०
६०६
चावक्तव्यं च स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावान् युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्र कालभावद्वयं च संयुक्तमाश्रित्य | स्यान्नास्ति चावक्तव्यं च परद्रव्यक्षेत्रकालभावान् युगपत्स्वपरद्र व्यक्षेत्र कालभावद्वयं च संयुक्तमाश्रित्य । स्यादस्ति च नास्ति चावक्तव्यं च क्रमेण स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावद्वयं युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावद्वयं च संयुक्तमाश्रित्य । इत्येकानेक नित्यानित्याद्यनन्तधर्माणां विधिनिषेधावक्तव्यभङ्गानां प्रत्येकद्विसंयोगत्रिसंयोगजानां त्रित्र्येकसंख्यानां मेलनं १५ सप्तभङ्गी प्रश्नवशादेकस्मिन्नेव वस्तुनि अविरोधेन संभवन्ती नानानय मुख्य गौणभावेन प्ररूपयति । तत्र द्विलक्षगुणितत्रिंशत्पदानि षष्टिक्षाणि इत्यर्थः । ६०००००० । ज्ञानानां प्रवादः प्ररूपणमस्मिन्निति ज्ञानप्रवादं पञ्चमं पूर्वं तच्च मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानि पञ्च सम्यग्ज्ञानानि, कुमतिकुश्रुतविभङ्गाख्यानि त्रीण्यज्ञानानि स्वरूपसंख्या विषयफलानि आश्रित्य तेषां प्रामाण्याप्रामाण्यविभागं च वर्णयति । तत्र द्विलक्षगुणितपञ्चाशत्पदानि किन्तु पञ्चमरूऊणमिति कथनादेकरूपोना कोटिरित्यर्थः ९९९९९९९ । सत्यस्य प्रवादः प्ररूपणमस्मिन्निति सत्यप्रवादं षष्ठं पूर्वं तच्च वाग्गुप्तिः वाक्संस्कारकारणानि वाक्प्रयोगं द्वादश भाषा:
२५
भावकी अपेक्षा स्यात् अस्ति नास्ति है । एक साथ स्वपर द्रव्यक्षेत्रकाल भावकी अपेक्षा अवक्तव्य है, क्योंकि एक साथ दोनों धर्मोका कहना शक्य नहीं है । स्वद्रव्यक्षेत्रकाल भाव तथा युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्रकाल भावकी अपेक्षा स्यादस्ति अवक्तव्य है । परद्रव्यक्षेत्रकालभाव और युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावकी अपेक्षा स्यात् नास्ति अवक्तव्य है । तथा क्रमसे स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभाव और युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावकी अपेक्षा स्यात् अस्तिनास्ति अवक्तव्य है । इस प्रकार एक-अनेक, नित्य - अनित्य आदि अनन्त धर्मोके विधि, निषेध और अवक्तव्य भंगोंके प्रत्येक, दो संयोगी, तीन संयोगी तीन, तीन और एक भंगों की संख्याको मिलानेसे सप्तभंगी होती है । वह प्रश्नके अनुसार एक वस्तुमें किसी विरोधके बिना नाना नयोंकी मुख्यता और गौणतासे कथन करती है । उसमें दो लाख से गुणित तीस अर्थात् साठ लाख पद | ज्ञानका जिसमें प्रवाद अर्थात् प्ररूपण हो, वह ज्ञानप्रवाद नामक पंचम पूर्व है । वह मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पाँच सम्यग्ज्ञानोंका तथा कुमति, कुश्रुत, कुअवधि इन तीन अज्ञानोंका स्वरूप, संख्या, विषय और फलको लेकर कथन करता है । उसमें दो लाख से गुणित पचास किन्तु 'पंचमरूण' कहने से एक कम एक करोड़ पद होते हैं । सत्यका प्रवाद अर्थात् कथन जिसमें हो, वह सत्यप्रवाद पूर्व है । वह वचन गुप्ति, वचनके संस्कार के कारण, वचन प्रयोग, बारह भाषा, वक्ताके भेद, अनेक प्रकारका असत्य और
३०
३५
१. म मेलण स । २. म लिंदिवर ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६०७ मदेत दोडे असत्यनिवृत्तियं मेणु मौन, वारगुप्तियुमें बुदक्कुं। उरःकंठ शिरोजिह्वामूलदंतनासिकाताल्वोष्ठाख्यंगळष्टस्थानंगळं स्पृष्टतेषत्पृष्टता विवृततेषद्विवृतता संवृतता रूपंगळप्प पंचप्रयत्नंगळु वाक्संस्कार कारणगळे बुवक्कुं । शिष्टदुष्टरूपमप्प वाक्प्रयोगमुं तल्लक्षणशास्त्र संस्कृतादि व्याकरणंगळं वाक्प्रयोगमें बुदक्कुं। इदिवनिदं माडल्पटु बनिष्टकथनरूपमभ्याख्यानमुं। परस्परविरोधकारणकलहवचनमुं परगे दोषसूचनपैशुन्यवचनम । धर्मार्थकाममोक्षाऽसंबधवचन- ५ रूपमबद्धप्रलापमुं इंद्रियविषयंगळोळु रत्युत्पादिकयप्प वापरीतिवचनमुं। अवरोळऽरत्युत्पादिका वाग्रूपारतिवचनम परिग्रहाजनसंरक्षणाद्यासक्तिहेतु वाक्कुपधिवचनम बुदक्कुं । व्यवहारदोळु वंचनाहेतुवाक् निकृतिवाक्कै बुदक्कुं। तपोज्ञानाधिकरोळमविनयहेतुवाक्कप्रणतिवागे बुदु अक्कुं। स्तेयहेतुवचनं मोषबागेबुदक्कुं। सन्मार्गोपदेशवाक् सम्यग्दर्शनवागे बुदक्कुं। मिथ्यामाग्र्गोपदेशवाक् मिथ्यादर्शनवागेबुदक्कुमितु द्वादशभाषेगळे बुदक्कं ।
द्वींद्रियादिपंचेंद्रियपय्यंतमाद जीवंगळु व्यक्तवक्तृत्वपर्यायमनुळ्ळ वक्तृगळप्पुवु। द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रितमप्प बहुविधमसत्यवचनं मृषाभिधानमक्कुं। जनपदसत्यादिदशप्रकारमप्प सत्यं मुंपेळल्पट्ट लक्षणमुळळुदक्कुमी सत्यप्रवाददोळु द्विलक्षगुणितपंचाशत्पदंगळु षडुत्तरकोटियक्कुवक्तृभेदान् बहुविधं मृषाभिधानं दशविधं सत्यं च प्ररूपयति । तद्यथा-असत्यनिवृत्तिर्मोनं वा वाग्गुप्तिः । उरःकण्ठशिरोजिह्वामूलदन्तनासिकाताल्वोष्ठाख्यानि अष्टौ स्थानानि । स्पृष्टतेषत्स्पृष्टताविवृततेषद्विवृततासंवृतता- १५ रूपाः पञ्च प्रयत्नाश्च वाक्संस्कारकारणानि । शिष्टदुष्टरूपः प्रयोगः वाक्प्रयोगः तल्लक्षणशास्त्र संस्कृतादिव्याकरणं वा । इदमनेन कृतमित्यनिष्टकथनरूपमभ्याख्यानं । परस्परविरोधकारणं कलहवचनं । परदोषसूचनं पैशुन्यवचनं । धर्मार्थकाममोक्षासंबद्धवचनरूपः अबद्धप्रलापः । इन्द्रियविषयेषु रत्युत्पादिका वाक् रतिवाक । तेषु अरत्युत्पादिका वाक् अरतिवाक् । परिग्रहार्जनसंरक्षणाद्यासक्तिहेर्वाक उपधिवाक । व्यवहारवञ्चनाहेक निकृतिवाक् । तपोज्ञानादिषु अविनयहेतुर्वाक् अप्रणतिवाक् । स्तेयहेतुर्वाक् मोषवाक् । सन्मार्गोपदेशवाक् २० सम्यग्दर्शनवाक् । मिथ्यामार्गोपदेशवाक् मिथ्यादर्शनवाक् । एवं द्वादशभाषाः । द्वीन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्ता जीवा व्यक्ताव्यक्तवक्तृत्वपर्यायाः वक्तारः । द्रव्यक्षेत्रकालभावाश्रितं बहुविधमसत्यवचनं मृषावाक् । जनपदसत्यादिदस प्रकारके सत्यका कथन करता है। इन सबका स्वरूप इस प्रकार है-असत्यसे निवत्तिया मौनको वचन गुप्ति कहते हैं । उर, कण्ठ, शिर, जिह्वामूल, दाँत, नाक, तालु, ओठ ये आठ स्थान हैं । स्पृष्टता, किंचित् स्पृष्टता, विवृतता, किंचित् विवृतता, संवृतता ये पाँच प्रयत्न हैं । २५ ये सब स्थान और प्रयत्न वचन संस्कारके कारण हैं। शिष्टरूप और दुष्टरूप वचनप्रयोग होता । है। 'यह इसने किया है' ऐसा अनिष्ट वचन अभ्याख्यान है । परस्परमें विरोधका कारण वचन कलह वचन है। दूसरेके दोषको सूचन करना पैशुन्य वचन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षसे असम्बद्ध वचन असम्बद्ध प्रलाप है। जो वचन इन्द्रियोंके विषयोंमें रति उत्पन्न करे,वह रतिवाक् है । जो उनमें अरति उत्पन्न करे,वह अरतिवाक् है । परिग्रह के अर्जन और संरक्षण- ३० में आसक्ति उत्पन्न करनेवाले वचन उपधिवाक् है । व्यवहारमें छल-कपट करने में हेतु वचन निकृतिवाक् है । तपस्वी और ज्ञानी जनोंके प्रति अविनयमें हेतु वचन अप्रणतिवाक् है । चोरी करने में हेतु वचन मोषवाक् है । सन्मार्गका उपदेश करनेवाले वचन सम्यकदर्शनवाक् है। मिथ्या मार्गका उपदेश करनेवाले वचन मिथ्यादर्शनवाक् है । इस प्रकार बारह प्रकारकी भाषा है। दोइन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीव, जिनमें वक्तृत्व पर्याय व्यक्त और ३५ अव्यक्त हैं,वे वक्ता हैं । द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावकी अपेक्षा अनेक प्रकारका असत्य वचन
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गो० जीवकाण्डे मेकें बोर्ड छज्जुदा छट्टे एंदिरिदं षष्ठपूर्वदोळु द्विलक्षगुणितपंचाशल्लब्धमोदु कोटिप्रमितसंख्ययोळु षड्युतत्वकथनदिदं १००००००६।
आत्मनः प्रवादः प्ररूपणमस्मिन्निति आत्मप्रवादं सप्तमं पूर्वमदु । आत्मन “जीवो कत्ताय वत्ताय पाणि भोत्ताय पोरगळो। वेदो विण्हू सयंभू य सरीरी तह माणवो । सत्ता जंतू य माणी य मायो जोगी य संकुडो। असंकुडो य खेत्तण्हू अंतरप्पा तहेव य॥" इत्यादि स्वरूपमं वणिसुगुमदतेंदोड:-जीवति व्यवहारनयेन दशप्राणान् निश्चयनयेन केवलज्ञानदर्शनसम्यक्त्वरूपचित्प्राणान् धारयति जीविष्यति जीवित पूर्वश्चेति जीवः। व्यवहारनयेन शुभाशुभकर्म निश्चयनयेन चित्पर्यायान् करोतीति कर्ता। व्यवहारेण सत्यमसत्यं वक्तीति वक्ता निश्चयेनावक्ता । नयद्वयोक्तप्राणाः संत्यस्येति प्राणी। व्यवहारेण शुभाशुभकर्मफलं निश्चयेन स्वस्वरूपं भुंक्ते अनुभवतीति भोक्ता । व्यवहारेण कर्मनोकर्मपुद्गलान पूरयति गालयति चेति पुद्गलो। निश्चयेनापुद्गलः । नयद्वयेन लोकालोकगतं त्रिकालगोचरं सवं वेत्ति जानातीति वेदः। व्यवहारेण स्वोपात्तदेहं समुद्घाते सर्वलोकं निश्चयेन ज्ञानेन सव्वं वेवेष्टि व्याप्नोतीति विष्णुः । यद्यपि व्यवहारेण कर्मवशाद्भवे भवे भवति परिणमति तथापि निश्चयेन स्वयं स्वस्मिन्नेव ज्ञानदर्शनस्वरूपेणैव भवति परिणमतोति दशप्रकारसत्यं तत्प्रागुक्तलक्षणमिति । तत्र सत्यप्रवादे द्विलक्षगुणितपञ्चाशत्पदानि षड्भिरधिकानि । छज्जुदा छद्रे इति वचनात् षडुत्तरकोटिरित्यर्थः । १००००००६ । आत्मनः प्रवादः प्ररूपणमस्मिन्निति आत्मप्रवादं सप्तमं पूर्वं । तच्च आत्मनः 'जीवो कत्ता य वत्ता य पाणी भोत्ता य पुग्गलो । वेदो विण्हू सयम्भू य सरीरी तह माणवो ॥ सत्ता जन्तू य माणी य मायी जोगी य संकुडो । असंकुडो य खेत्तण्हू अन्तरप्पा तहेव य ।' इत्यादिस्वरूपं वर्णयति । तद्यथा-जीवति व्यवहारनयेन दशप्राणान् निश्चयनयेन केवलज्ञानदर्शनसम्यक्त्वरूपचित्प्राणांश्च
धारयति । जीविष्यति जीवितपूर्वश्चेति जीवः । व्यवहारनयेन शुभाशुभं कर्म निश्चयनयेन चित्पर्यायांश्च २० करोतीति कर्ता । व्यवहारनयेन सत्यमसत्यं च वक्तीति वक्ता निश्चयेनावक्ता । नयद्वयोक्तप्राणाः सन्ति अस्येति
प्राणी । व्यवहारेण शुभाशुभकर्मफलं निश्चयेन स्वस्वरूपं च भुङ्क्ते अनुभवतीति भोक्ता। व्यवहारेण कर्मनोकर्मपुद्गलान् पूरयति गालयति चेति पुद्गलः । निश्चयेनापुद्गलः । नयद्वयेन लोकालोकगतं त्रिकालगोचरं सर्व वेत्ति जानातीति वेदः । व्यवहारेण स्वोपात्तदेहं समुद्घाते सर्वलोकं निश्चयेन ज्ञानेन सर्व वेवेष्टि व्याप्नो
तीति विष्णुः । यद्यपि व्यवहारेण कर्मवशाद्भवे भवे भवति परिणमति तथापि निश्चयेन स्वयं स्वस्मिन्नेव २५ मृषावाक् है। जनपदसत्य आदि दस प्रकारके सत्यके लक्षण योगमार्गणामें कह आये हैं ।
सत्य प्रवादमें दो लाख गुणित पचास तथा छह अधिक अर्थात् एक कोटि छह पद हैं। आत्माका जिसमें प्रवाद अर्थात् कथन है, वह आत्मप्रवाद नामक सातवाँ पूर्व है। वह आत्माके स्वरूपका वर्णन करता है कि जीव कर्ता, वक्ता, प्राणी, भोक्ता, पुद्गल, वेदी, विष्णु, स्वयम्भू, शरीरी, मानव, सजा, जन्तु, मानी, मायी योगी, संकुट-असंकुट, क्षेत्रज्ञ तथा अन्तरात्मा है । इनका स्वरूप कहते हैं-जीव अर्थात् जीता है. जो व्यवहारनयसे दस प्राणोंको और निश्चयनयसे केवलज्ञान, केवलदर्शन,सम्यक्त्वरूप चेतन प्राणोंका धारण करता है । तथा जो आगे जियेगा, पूर्व में जिया है, वह जीव है। व्यवहारनयसे शुभ-अशुभ कर्मको
और निश्चयनयसे चित्पर्यायोंको करता है,अतः कर्ता है। व्यवहार नयसे सत्य और असत्य
बोलता है,अतः वक्ता है। निश्चयनयसे अवक्ता है। दोनों नयोंसे कहे गये प्राणवाला होनेसे ३५ प्राणी है । व्यवहारनयसे शुभ-अशुभ कर्मोके फलको भोक्ता है और निश्चयसे अपने स्वरूपका
अनुभव करता है, अतः भोक्ता है। व्यवहारनयसे कर्म और नोकर्म पुद्गलोंको पूरता और गलाता है,अतः पुद्गल है व निश्चयसे अपुद्गल है। दोनों नयोंसे लोक और अलोकमै रहने
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६०९ स्वयंभूः । व्यवहारेणौदारिकादिशरीरमस्यास्तीति शरीरो निश्चयेनाशरीरः । व्यवहारेण मानवादिपर्यायपरिणतो मानवः । उपलक्षणात् । नारकस्तिय॑ङ्देवश्च निश्चयेन मनौ ज्ञाने भवो मानवः । व्यवहारेण स्वजनमित्रादिपरिग्रहेषु सजतीति सक्ता। निश्चयेनासक्ता । व्यवहारेण चतुर्गतिसंसारी नानायोनिषु जायत इति जंतुः । संसारीत्यर्थः । निश्चयेनाजंतुः । व्यवहारेण मानोऽहंकारोस्यास्तीति मानी निश्चयेनामानी। व्यवहारेग माया वंचनास्यास्तीति मायो निश्चयेनामायी। व्यवहारेण ५ योगः कायवाग्मनस्कास्यास्तीति योगी। निश्चयेनायोगी। व्यवहारेण सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकसर्वजघन्यशरीरप्रमाणेन संकुटते संकुचितप्रदेशो भवतीति संकुटः । समुद्घाते सर्वलोकं व्याप्नोतीत्यसंकुटः । निश्चयेन प्रदेशसंहारविसर्पणाभावादनुभयः किंचिदूनचरमशरीरप्रमाण इत्ययः । नयद्वयेन क्षेत्रं लोकालोकं स्वस्वरूपं च जानातीति क्षेत्रजः व्यवहारेणाष्टकभ्यिंतरवत्तिस्वभावत्वात् । निश्चयेन चैतन्याभ्यंतरत्तिस्वभावत्वाच्चांतरात्मा। इल्लि चशब्दंगळुक्तानुक्तसमुच्चया- १०
ज्ञानदर्शनस्वरूपेणैव भवति परिणमति इति स्वयम्भूः। व्यवहारेण औदारिकादिशरीरमस्यास्तीति शरीरी निश्चयेनाशरीरः । व्यवहारेण मानवादिपर्यायपरिणतो मानवः, उपलक्षणान्नारकः तिर्य देवश्च । निश्चयेन मनौ ज्ञाने भवः मानवः। व्यवहारेण स्वजनमित्रादिपरिग्रहेषु सजतीति सका। निश्चयेनासक्ता । व्यवहारेण चतुर्गतिसंसारे नानायोनिषु जायत इति जन्तुः संसारी इत्यर्थः निश्चयेनाजन्तुः । व्यवहारेण मानः अहंकारः अस्पास्तीति मानो, निश्चयेनामानी । व्यवहारेण माया वञ्चना अस्यास्तीति मायी निश्चयेनामायी। व्यवहारेण १५ योगः कायवाङ्मनःकर्मास्यास्तीति योगी, निश्चयेनायोगी। व्यवहारेण सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकसर्वजघन्यशरीरप्रमाणेन संकुटति संकुचितप्रदेशो भवतीति संकुटः, समुद्घाते सर्वलोकं व्याप्नोतीत्यसंकुटः । निश्चयेन प्रदेशसंहारविसर्पणाभावादनुभयः किंचिदूनचरमशरीरप्रमाण इत्यर्थः । नयद्वयेन क्षेत्रं लोकालोकं स्वस्वरूपं च जानातीति क्षेत्रज्ञः व्यवहारेण अष्टकर्माभ्यन्तरवर्तिस्वभावत्वात्, निश्चयेन चैतन्याभ्यन्तरवर्तिस्वभावत्वाच्च अन्तरात्मा । इति–यशब्दौ उक्तानुक्तसमुच्चयार्थों । ततः कारणाद् व्यवहाराश्रयेण कर्मनोकर्मरूपमूर्तद्रव्या- २० वाले त्रिकालवर्ती सब पदार्थोंको जानता है ,अतः वेत्ता या वेद है। व्यवहार नयसे अपने गृहीत शरीरको और समुद्घात दशामें सर्व लोकमें व्यापता है, निश्चयनयसे ज्ञानके द्वारा सबको 'वेवेष्टि' अर्थात् व्यापता है,जानता है,अतः विष्णु है। यद्यपि व्यवहारनयसे कर्मवश भव-भवमें परिणमन करता है, तथापि निश्चयनयसे 'स्वयं' अपने में ही ज्ञान-दर्शनरूप स्वभावसे 'भवति' अर्थात् परिणमन करता है, अतः स्वयम्भू है। व्यवहारनयसे औदारिक २५ शरीरवाला होनेसे शरीरी है और निश्चयसे अशरीरी है। व्यवहारसे मानव आदि पर्यायरूप परिणत होनेसे मानव है, उपलक्षणसे नारक, तियेंच और देव है । निश्चयनयसे मनु अर्थात् ज्ञानमें रहता है, अतः मानव है। व्यवहारसे अपने परिवार, मित्र आदि परिग्रहमें आसक्त होनेसे सक्ता है, निश्चयसे असक्ता है । व्यवहारसे चार गतिरूप संसारमें नाना योनियों में जन्म लेता है,अतः जन्तु यानी संसारी है निश्चयसे अजन्तु है । व्यवहारसे माया कषायसे ३० युक्त होनेसे मायी है, निश्चयसे अमायी है। व्यवहारसे मन-वचन-कायकी क्रियारूप योगवाला होनेसे योगी है, निश्चयसे अयोगी है। व्यवहारसे सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्त कके सर्व जघन्य शरीरके परिमाणरूपसे 'संकुटति' संकुचित प्रदेशवाला होनेसे संकुट है। किन्तु समु
द्घातसे सर्वलोकमें व्याप्त होनेसे असंकुट है। निश्चयसे प्रदेशोंके संकोच-विस्तारका अभाव होनेसे अनुभय है अर्थात् मुक्तावस्थामें अन्तिम शरीरसे कुछ कम शरीर प्रमाण रहता है। ३५ दोनों नयोंसे क्षेत्र अर्थात् लोक-अलोक और अपने स्वरूपको जाननेसे क्षेत्रज्ञ है । व्यवहारसे आठ कर्मोके अभ्यन्तरवर्ती स्वभाववाला होनेसे और निश्चयसे चैतन्यके अभ्यन्तरवर्ती ७७
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गो० जीवकाण्डे त्थंगळदु कारणदिदं । व्यवहाराश्रयदिदं कर्मनोकर्मरूपमूर्तद्रव्यानादिसंबंधदिवं मूर्त्तनु निश्चयनयाश्रयदिनमूर्तमेंबित्याद्यात्मधम्मंगळ समुच्चयं माडल्पडुगुमीयात्मप्रवाददोळु द्विलक्षगुणितत्रयोदशशतपदंगळु षड्विंशतिकोटिगळप्पुबुदत्थं । २६००००००० २६ को।
___ कर्मणः प्रवादः प्ररूपणमस्मिस्मिन्निति कर्मप्रवादमष्टमं पूर्वमदु । मूलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नं । बहुविकल्पबंधोदयोदीरणासत्वाद्यवस्थं ज्ञानावरणादिकर्मस्वरूपं सांपरायिकेपिथतपस्याऽधा
कांदियुमं वर्णिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणितनवतिपदंगळेककोटियुमशीतिलक्षंगळप्पुर्व बुदत्थं १८०००००० १८० ल। प्रत्याख्यायते निषिध्यते सावद्यमस्मिन्ननेनेति वा प्रत्याख्यानं नबमं पूर्वमदु नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावंगळनाश्रयिसि पुरुषसंहननबलाद्यनुसारदिदं परिमितकालं मेणपरिमितकालं प्रत्याख्यानं सावद्यवस्तुनिवृत्तियनुपवासविधियं तद्भावनांगमुमं पंचसमिति
त्रिगुप्त्यादिकमं वर्णिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणितद्वाचत्वारिंशत्पदंगळु चतुरशीतिलक्षपदंगळप्पुवें बुदत्थं १० ८४००००० ८४ ल । विद्यानामनुवादोऽनुक्रमेण वर्णनं यस्मिन् तद्विद्यानुवादं दशमं पूर्वमदु ।
सप्तशतमंगुष्ठप्रसेनाद्यल्पविद्यगळं रोहिण्यादिपंचशतमहाविद्यगळुमं तत्स्वरूपसामर्थ्यसाधनमंत्रतंत्रपूजाविधानंगळुमं सिद्धमादविद्यगळ फलविशेषंगळुमनेटु महानिमित्तंगळमनवावुव दोडे अंतरिक्ष दिसंबन्धन मूर्तः निश्चयनयाश्रयेणामूर्तः इत्यादय. आत्मधर्माः समुच्चीयन्ते । तस्मिन्नात्मप्रवादे द्विलक्षगुणितत्रयोदशशतपदानि षड्विंशतिकोट्य इत्यर्थः २६०००००००। कर्मणः प्रवादः प्ररूपणमस्मिन्निति कर्मप्रवादमष्टमं पूर्व तच्च मूलोत्तरोत्तरप्रकृतिभेदभिन्न बहुविकल्पबन्धोदयोदोरणसत्त्वाद्यवस्थं ज्ञानावरणादिकर्मस्वरूपं संमवधानेर्यापथतपस्याधाकर्मादि च वर्णयति । तत्र द्विलक्षगणितनवतिपदानि एककोट्यशीतिलक्षाणीत्यर्थः १८००००००। प्रत्याख्यायते निषिध्यते सावद्यमस्मिन्ननेनेति वा प्रत्याख्यानं नवमं पूर्व । तच्च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य पुरुषसंहननबलाधनसारेण परिमितकालं अपरिमितकालं वा प्रत्याख्यानं सावद्यवस्तुनिवृत्ति उपवासविधि तद्भावनाङ्गं पञ्चसमितित्रिगुप्त्यादिकं च वर्णयति । तत्र द्विलक्षगुणितद्वाचत्वारिंशत्पदानि चतुरशीतिलक्षाणीत्यर्थः। ८४ ल.। विद्यानां अनुवादः अनुक्रमेण वर्णनं यस्मिन् तद्विद्यानुवादं दशमं पूर्व, तच्च सप्तशतानि अङ्गुष्ठप्रसेनाद्यल्पविद्याः रोहिण्यादिपञ्चशतमहाविद्याः तत्स्वरूपसामर्थ्यसाधनमन्त्रस्वभाववाला होनेसे अन्तरात्मा है । 'इति और च' शब्द उक्त और अनुक्त अर्थके समुच्चयके लिए है। इससे व्यवहारनयसे कर्म-नोकर्मरूप मूर्त द्रव्य आदिके सम्बन्धसे मूर्तिक है
और निश्चयनयसे अमूर्तिक है, इत्यादि आत्मधर्मका समुच्चय किया जाता है। उस आत्मप्रवादमें दो लाखसे गुणित तेरह सौ अर्थात् छब्बीस कोटि पद है। कर्मका प्रवाद अर्थात् कथन जिसमें हो, वह कर्मप्रवाद नामक आठवाँ पूर्व है । वह मूल और उत्तर प्रकृतिके भेदसे भिन्न, अनेक प्रकारके बन्ध- उदय-उदीरणा-सत्ता आदि अवस्थाको लिये हुए ज्ञानावरण आदि कर्मोंके स्वरूपको तथा समवदान, ईर्यापथ, तपस्या, आधाकर्म आदिका कथन करता है। उसमें दो लाखसे गणित नब्बे अर्थात एक कोटि इक्यासी लाख पद हैं। जिसमें 'प्रत्याख्यायते' अर्थात् सावध कर्मका निषेध किया गया है वह प्रत्याख्यान नामक नौंवाँ पूर्व है । वह नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके आश्रयसे पुरुषके संहनन और बलके अनुसार परिमित काल या अपरिमितकालके लिए प्रत्याख्यान अर्थात् सावध वस्तुओंसे निवृत्ति, उपवासकी विधि, उसकी भावना, पाँच समिति, तीन गुप्ति आदिका वर्णन करता है। उसमें दो लाखसे गुणित
बयालीस अर्थात् चौरासी लाख पद हैं। विद्याओंका अनुवाद अर्थात् अनुक्रमसे वर्णन १५ जिसमें हो, वह विद्यानुवाद पूर्व है। वह अंगुष्ठप्रसेना आदि सात सौ अल्पविद्याओं,
१. ब साम्परायिकेर्या ।
२५
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका भौमांगस्वरस्वप्नलक्षणव्यंजनच्छिन्ननामंगळुमं वर्णिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणितपंचपंचाशत्पदंगळेककोटिदशलक्षंगळप्पुबुदत्थं। ११० ल। ११००००००। कल्याणानां वादः प्ररूपणमस्मिन्निति कल्याणवादमेकादशं पूर्वमदु। तीर्थकरचक्रधरबलदेववासुदेवादिगळ गर्भावतरणादिकल्याणंगळं महोत्सवंगळुमं तीर्थंकरत्वादिपुण्यविशेषहेतुषोडशभावना तपोविशेषाद्यनुष्ठानंगळं चंद्रसूर्यग्रहनक्षत्रचारग्रहणशकुनादियुमं वर्णिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणितत्रयोदशशतपदंगळु षड्विंशतिकोटिपद- ५ गळप्पुर्वे बुदत्थं । २६ को २६०००००००। प्राणानामावादः प्ररूपणमस्मिन्निति प्राणावादं द्वादशं पूर्व मदु । कायचिकित्साद्यष्टांगमायुर्वेदमं भूतिकर्मजांगुलिकप्रक्रमं ईळापिंगलसुषुम्नादि बहुप्रकारप्राणापानविभागमं दशप्राणंगळुपकारकापकारकद्रव्यंगळुमं गत्याद्यनुसारदिं वर्णिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणितपंचाशदुत्तरषट्शतपदंगळु त्रयोदशकोटिगळप्पुबुदत्थं । १३ को १३००००००० ।
क्रियादिभिन्नुत्यादिभिविशालं विस्तीणं शोभायमानं वा क्रियाविशालं त्रयोदशपूर्वमदु। १० .. संगीतशास्त्रच्छंदोलंकारादिद्वासप्ततिकळेगळं चतुःषष्टिस्त्रीगुणंगळुमं शिल्पादिविज्ञानंगळुमं चतुरशीतिगळं गर्भाधानादिकंगळुमं अष्टोत्तरशतमं सम्यग्दर्शनादिगळुमं पंचविशतियं देववंदनादितन्त्रपूजाविधानानि सिद्धविद्यानां फलविशेषान् अष्टमहानिमित्तानि, ( तानि कानि ? ) अन्तरीक्षभौमाङ्गस्वरस्वप्नलक्षणव्यञ्जनच्छिन्ननामानि च वर्णयति । तत्र द्विलक्षगुणितपञ्चपञ्चाशत्पदानि एककोटिदशलक्षाणीत्यर्थः । ११० ल. । कल्याणानां वादः प्ररूपणमस्मिन्निति कल्याणवादमेकादशं पूर्व, तच्च तीर्थकरचक्रधरबलदेववासुदेव- १५ प्रतिवासुदेवादीनां गर्भावतरणकल्याणादिमहोत्सवान् तत्कारणतीर्थकरत्वादिपुण्यविशेषहेतुषोडशभावनातपोविशेषाधनुष्ठानानि चन्द्र सूर्यग्रहनक्षत्रचारग्रहणशकुनादिफलादि च वर्णयति । तत्र द्विलक्षगुणितत्रयोदशशतपदानि षड्विंशतिकोट्य इत्यर्थः २६ को. । प्राणानां आवादः प्ररूपणमस्मिन्निति प्राणावादं द्वादशं पूर्व, तच्च कायचिकित्साद्यष्टाङ्गमायुर्वेदं भूतिकर्मजांगुलिकप्रक्रमं इलापिङ्गलासुषुम्नादिबहुप्रकारप्राणापानविभागं दशप्राणानां उपकारकापकारकद्रव्याणि गत्याद्यनुसारेण वर्णयति । तत्र द्विलक्षगुणितपञ्चाशदुत्तरषट्शतानि पदानि २ त्रयोदशकोट्य इत्यर्थः १३ को. । क्रियादिभिः नृत्यादिभि, विशालं विस्तीर्ण शोभमानं वा क्रियाविशालं त्रयोदशं पूर्वम् । तच्च संगीतशास्त्रछन्दोलङ्कारादिद्वासप्ततिकलाः चतुःषष्टिस्त्रीगुणान् शिल्पादिविज्ञानानि चतुरशीतिगर्भारोहिणी आदि पाँच सौ महाविद्याओंका स्वरूप, सामर्थ्य, साधन, मन्त्र-तन्त्र-पूजा विधान, सिद्ध विद्याओंका फल विशेष तथा आकाश, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन, छिन्न नामक आठ महानिमित्तोंका वर्णन करता है। उसमें दो लाखसे गुणित पचपन अर्थात् एक २५ करोड़ दस लाख पद हैं। कल्याणोंका वाद अर्थात् कथन जिसमें है वह कल्याणवाद नामक ग्यारहवाँ पूर्व है। वह तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव आदिके गर्भमें अवतरण कल्याण आदि महोत्सवोंका, उसके कारण तीर्थकरत्व आदि पुण्य विशेषमें हेतु सोलह भावना, तपोविशेष आदिके अनुष्ठान, चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्रोंका गमन, ग्रहण, शकुन आदिके फल आदिका वर्णन करता है। उसमें दो लाखसे गुणित तेरह सौ अर्थात् छब्बीस ३० करोड़ पद हैं। प्राणोंका आवाद-कथन जिसमें है,वह प्राणावाद नामक बारहवाँ पूर्व है। वह कायचिकित्सा आदि अष्टांग आयुर्वेद, जननकर्म, जांगुलि प्रक्रम, गणित, इला, पिंगला, सुषुम्ना आदि अनेक प्रकारके श्वास-उच्छ्वासके विभागका तथा दस प्राणोंके उपकारकअपकारक द्रव्यका गति आदिके अनुसार वर्णन करता है। उसमें दो लाखसे गुणित छह सौ पचास अर्थात् तेरह करोड़ पद हैं । नृत्य आदि क्रियाओंसे विशाल अर्थात् विस्तीर्ण या ३५ शोभमान क्रियाविशाल नामक तेरहवाँ पूर्व है। वह संगीत शास्त्र, छन्द, अलंकार, आदि बहत्तर कला, खी सम्बन्धी चौंसठ गुण, शिल्पादि विज्ञान, चौरासी गर्भाधान आदि क्रिया,
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गो० जीवकाण्डे गळुमं नित्यनैमित्तिकक्रियगळुमं वगिसुगुमल्लि द्विलक्षगुणितपंचाशदधिकचतुःशतपंदंगळु नवकोटिगळप्पुबुदत्यं ९ को ९०००००००। त्रिलोकानां दिवोऽवयवाः सारं च वर्ण्ययन्तेऽस्मिन्निति त्रिलोकबिंदुसारं चतुर्दशपूर्वमदु। त्रिलोकस्वरूपमं मूवत्तारु परिकर्ममं एंटु व्यवहारंगळुमं
नाल्कबीजंगळमं मोक्षस्वरूपमं तगमनकारणक्रियगळमं मोक्षसुखस्वरूपम्म णिसुगमल्लि द्विलक्ष५ गुणितपंचविंशत्यधिकषट्शतपदंगळु द्वादशकोटिगळं पंचाशल्लक्षंगलप्पुर्व बुदत्थं १२५००००००।
सामायियचउवीसत्थयं तदो वंदणा पडिक्कमणं ।
वेणयियं किरिकम्मं दस वेयालं च उत्तरज्झयणं ॥३६७॥ . . सामायिकचतुविशतिस्तवं ततो वंदना प्रतिक्रमणं। वैनयिक कृतिकर्मदशवकालिक चोत्तराध्ययनं।
कप्पववहारकप्पा कप्पियमहकप्पियं च पुंडरियं ।
महपुंडरीयणिसिहियमिदि चोदसमंगवाहिरयं ॥३६८॥ कल्प्यव्यवहारं कल्प्याकल्प्यं महाकल्प्यं च पुंडरीकं । महापुंडरोकं निषिद्धिकेति चतुर्दशांगबाह्यकं ।
सामायिकमें दुं चतुविशतिस्तवनमेंदु वंदनये दुं प्रतिक्रमणमेदु वैनैकर्मदु कृतिकममदु १५ दशवकालिकमेंदु वुत्तराध्ययनमेंदु कल्प्यव्यवहारमेंदु कल्प्याकल्प्यमेदु महाकल्प्यमेंदु
पुंडरीकर्मदु महापुंडरीकर्मदु निषिद्धिकयुदितंगबाह्यश्रुतं चतुर्दशविधमक्कुमल्लि सम् एकत्वेनात्मनि आयः आगमनं । परद्रव्येभ्यो निवृत्त्य उपयोगस्यात्मनि प्रवृत्तिः समयः अयमहं ज्ञाता द्रष्टा चेति । येदितात्मविषयोपयोगमें बुदत्थं एकें दोडात्मनोवंगेये जेयज्ञायकत्वसंभवमप्पुरिदं ।
१०
२
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धानादिकाः अष्टोत्तरशतसम्यग्दर्शनादिकाः पञ्चविंशति देववन्दनादिकाः नित्यनैमित्तिकाः क्रियाश्च वर्णयति । तत्र द्विलक्षगुणितपञ्चाशदधिकचतुःशतपदानि नवकोट्य इत्यर्थः । ९ को.। त्रिलोकानां बिन्दवः अवयवाः सारं च वर्ण्यन्ते अस्मिन्निति त्रिलोकबिन्दुसारं चतुर्दशं पूर्व तच्च त्रिलोकस्वरूपं षट्त्रिंशत्परिकर्माणि अष्टी व्यवहारान् चत्वारि बीजानि मोक्षस्वरूपं तद्गमनकारणक्रियाः मोक्षसुखस्वरूपं च वर्णयति । तत्र द्विलक्षगुणितपञ्चविंशत्यधिकषट्शतानि पदानि द्वादशकोटिपञ्चाशल्लक्षाणोत्यर्थः १२ को. ५० ल ॥३६५-३६६।।
सामायिक चतुर्विंशतिस्तवः ततो वन्दना प्रतिक्रमणं वैनयिक कृतिकर्म दशवकालिकं उत्तराध्ययनं २५ कल्प्यव्यवहारं कल्प्याकल्प्यं महाकल्प्यं पुण्डरीकं महापुण्डरीकं निषिद्धिका च इत्यङ्गबाह्यश्रुतं चतुर्दशविधं
भवति । तत्र समं एकत्वेन आत्मनि आयः आगमनं परद्रव्येभ्यो निवृत्य उपयोगस्य आत्मनि प्रवृत्तिः समायः,
एक सौ आठ, सम्यग्दर्शन आदि पच्चीस क्रिया, तथा देववन्दना आदि नित्य-नैमित्तिक क्रियाओंका वर्णन करता है। उसमें दो लाख गुणित चार सौ पचास अर्थात् नौ करोड़ पद
हैं। तीनों लोकोंके बिन्दु अर्थात् अवयव और सार जिसमें वर्णित है, वह त्रिलोकबिन्दुसार ३० नामक चौदहवाँ पूर्व है। वह तीनों लोकोंका स्वरूप, छत्तीस परिकर्म, आठ व्यवहार, चार
बीज, मोक्षका स्वरूप, मोक्षमें गमनके कारण क्रिया, और मोक्ष सुखका स्वरूप कहता है। उसमें दो लाखसे गुणित छह सौ पच्चीस अर्थात् बारह कोटि पचास लाख पद हैं ।।३६५-६६।।
सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्प्यव्यवहार, कल्प्याकल्प्य, महाकल्प्य, पुण्डरीक, महापुण्डरीक, निषिद्धिका, ३५ इस प्रकार अंगबाह्य श्रुत चौदह प्रकारका होता है। 'सम' अर्थात् एकत्व रूपसे आत्मामें
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
६१३ अथवा सम् समे रागद्वेषाभ्यामनुपहते मध्यस्थे आत्मनि आय उपयोगस्य प्रवृत्तिः समायः स प्रयोजनमस्येति सामायिक नित्यनैमित्तिकानुष्ठानमुं तत्प्रतिपादकं शास्त्रमुं सामायिक बुदत्यं । नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभावभेददिदं सामायिकंषड्विधमक्कुल्लि इष्टानिष्टनामंगळोळ रागद्वेषनिवृत्तियुं सामायिकाभिधानमुं मेणु नामसामायिकमक्कु। मनोज्ञामनोजस्त्रीपुरुषाद्याकार- । काष्ठलेप्यचित्रादिप्रतिमेगळोळु रागद्वेषनिवृत्तियुं यिदु सामायिकम दितु स्थाप्यमानासद्भावस्थापनयुमप्पक्षतादिपुंज मेणु स्थापनासामायिकमक्कुं । इष्टानिष्टंगळप्प चेतनाचेतनद्रव्यंगळोळु रागद्वेषनिवृत्तियं सामायिकशास्त्रानुपयुक्तज्ञायकतच्छरीरादि मेणु द्रव्यसामायिकमक्कं । ग्रामनगरवनादिक्षेत्रंगलिष्टानिष्टंगकोळु रागद्वेषनिवृत्तिक्षेत्रसामायिकमक्कं। वसंतादि ऋतुगळोळं शुक्लपक्षकृष्णपक्षंगळोळं दिवसवारनक्षत्रादिगळप्पिष्टानिष्टकालविशेषंगळोळं रागद्वेषनिवृत्तिकालसामायि- १० कमक्कं । जीवादितत्त्वविषयोपयोगरूपपर्यायक्के मिथ्यादर्शनकषायादिसंक्लेशनिवृत्तियं सामायिकशास्त्रोपयोगयुक्तज्ञायकनुं तत्पर्यायपरिणतमप्प सामायिक मेणु भावसामातिकमक्कुं। तत्कालसंबंधिगळप्प चतुविशतितीर्थकरुगळ नामस्थापनाद्रव्यभावंगळनाश्रयिसि पंचमहाकल्याण
अयमहं ज्ञाता द्रष्टा चेति आत्मविषयोपयोग इत्यर्थः, आत्मनः एकस्यैव ज्ञेयज्ञायकत्वसंभवात् । अथवा सं समे
पहते मध्यस्थे आत्मनि आयः उपयोगस्य प्रवृत्तिः समायः स प्रयोजनमस्येति सामायिकं १५ नित्यनैमित्तिकानुष्ठानं तत्प्रतिपादक शास्त्रं वा सामायिकमित्यर्थः। तच्च नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालभाव भेदात्षड्विधम् । तत्र इष्टानिष्टनामसु रागद्वेषनिवृत्तिः सामायिकमित्यभिधानं वा नाम सामायिकम् । मनोज्ञामनोज्ञासु स्त्रीपुरुषाद्यकारासु काठलेप्यचित्रादिप्रतिमासु रागद्वेषनिवृत्तिः । इदं सामायिकमिति स्थाप्यमानं यत् किञ्चिद्वस्तु वा स्थापनासामायिकम् । इष्टानिष्टेषु चेतनाचेतनद्रव्येषु रागद्वषनिवृत्तिः सामायिकशास्त्रानुपयुक्तज्ञायकः तच्छरीरादिर्वा द्रव्यसामायिकम् । ग्रामनगरवनादिक्षेत्रेषु इष्टानिष्टेषु रागद्वेषनिवृत्तिः क्षेत्रसामायिकम् । वसन्तादि- २० ऋतुषु शुक्लकृष्णपक्षयोदिनवारनक्षत्रादिषु च इष्टानिष्टेषु कालविशेषेषु रागद्वेषनिवृत्तिः कालसामायिकम । भावस्य जीवादितत्त्वविषयोपयोगरूपस्य पर्यायस्य मिथ्यादर्शनकषायादिसंक्लेशनिवृत्तिः सामायिकशास्त्रोपयोगयुक्तज्ञायकः तत्पर्यायपरिणतसामायिकं वा भावसामायिकम् । तत्तत्कालसम्बन्धिनां चतुर्विशतितीर्थकराणां 'आय' अर्थात् आगमनको समाय कहते हैं। अर्थात् परद्रव्योंसे निवृत्त होकर आत्मामें प्रवृत्तिका नाम समाय है, यह मैं ज्ञाता-द्रष्टा हूँ-इस प्रकारका आत्मविषयमें उपयोग समाय २५ है. क्योंकि आत्मा ही ज्ञेय और वही ज्ञायक होता है। अथवा 'सं' यानी सम-राग-द्वेषसे अबाधित मध्यस्थ आत्मामें 'आय' अर्थात् उपयोगकी प्रवृत्ति समाय है। वह प्रयोजन जिसका है,वह सामायिक है। नित्य-नैमित्तिक अनुष्ठान और उनका प्रतिपादक शास्त्र सामायिक है,यह इसका अर्थ है। वह सामायिक नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे छह प्रकारकी है। इष्ट-अनिष्ट नामोंमें राग-द्वेषकी निवृत्ति अथवा सामायिक नाम ३० नामसामायिक है । मनोज्ञ और अमनोज्ञ स्त्री-पुरुष आदिके आकारोंमें काष्ठ, लेप्य और चित्र आदिमें अंकित प्रतिमाओंमें राग-द्वेष न करना, अथवा जिस-किसी वस्तुमें 'यह सामायिक है' इस प्रकार स्थापना करना स्थापनासामायिक है। इष्ट-अनिष्ट, चेतन-अचेतन द्रव्योंमें राग-द्वेषकी निवृत्ति अथवा सामायिक शास्त्रका ज्ञाता जो उसमें उपयोगवान् नहीं है, अथवा उसका शरीर आदि द्रव्यसामायिक है। इष्ट-अनिष्ट, ग्राम-नगर आदि क्षेत्रोंमें राग-द्वेष न १५ करना क्षेत्रसामायिक है। वसन्त आदि ऋतु, शुक्ल-कृष्ण पक्ष, दिन, वार, नक्षत्रादि इष्टअनिष्ट काल विशेषोंमें राग-द्वेष न करना कालसामायिक है। भाव अर्थात् जीवादि तत्त्व विषयक उपयोगरूप पर्यायकी मिथ्यादर्शन कषाय आदि संक्लेशोंसे निवृत्ति, अथवा सामा
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६१४
गो० जीवकाण्डे चतुस्त्रिशदतिशयाष्टमहाप्रातिहार्यपरमौदारिकदिव्यदेहसमवसरणसभाधर्मोपदेशनादितीर्थकरत्वमहिमय स्तुतियु चतुविशतिस्तवनमें बुदु । तत्प्रतिपादकशास्त्रमुं चतुविशतिस्तवनमेंदु पेळल्पदुदु । ततः परं एकतीर्थकरालंबनचैत्यचैत्यालयादिस्तुतियं वंदनये बुदु तत्प्रतिपादकशास्त्रमुं वंदनयद पेळल्पदु। प्रतिक्रम्यते प्रमादकृतदैवसिकादिदोषो निराक्रियते इनेनेति प्रतिक्रमणं । दैवसिक रात्रिक पाक्षिक चातुर्मासिक सांवत्सरिकेापथिकोत्तमार्थभेददि सप्तविधमकुं। भरतादिक्षेत्रमं दुःषमादिकालमं षट्संहननसमन्वितस्थिरास्थिरादिपुरुषभेदंगळुमनायिसि तत्प्रतिपादकमप्प शास्त्रं प्रतिक्रमण बुदक्कुं। विनयः प्रयोजनमस्येति वैनयिकमेंदु ज्ञानदर्शनचारित्रतपउपचारविषमप्प पंचविधविनयविधानमं पेळगु ।
कृतेः क्रियायाः कर्म विधानमस्मिन् वर्ण्यत इति कृतिकर्म। ई कृतिकर्मशास्त्रमर्हत्सिद्धा१० चार्यबहश्रुतसाधुगळमोदलाद नवदेवतावंदनानिमित्तमं आत्माधीनता प्रादक्षिण्य त्रिवारच्यवनति
चतुःशिरोद्वादशावर्त्तादिलक्षणनित्यनैमित्तिकक्रियाविधान वणिसुगुं। विशिष्टाः कालाः विकालाः तेषु भवानि वैकालिकानि । दशवैकालिकानि वन्तिस्मिन्निति दशवकालिकं। ई दशवैकालिक
नामस्थापनाद्रव्यभावानाश्रित्य पञ्चमहाकल्याणचतुस्त्रिशदतिशयाष्टमहाप्रातिहार्यपरमौदारिकदिव्यदेहसमवसरणसभाधर्मोपदेशनादितीर्थकरत्वमहिमस्तुतिः चतुर्विशतिस्तवः तस्य प्रतिपादकं शास्त्रं वा चतुर्विशतिस्तव इत्युच्यते । तस्मात्परं एकतीर्थकरालम्बना चैत्यचैत्यालयादिस्तुतिः वन्दना तत्प्रतिपादकं शास्त्रं वा वन्दना इत्युच्यते । प्रतिक्रम्यते प्रमादकृतदेवसिकादिदोषो निराक्रियते अनेनेति प्रतिक्रमणं तच्च दैवसिकरात्रिकपाक्षिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकर्यापथिकौत्तमाथिकभेदात्सप्तविधं, भरतादिक्षेत्र दुःपमादिकालं षट्संहननसमन्वितस्थिरास्थिरादिपरुषभेदश्च आश्रित्य तत्प्रतिपादकं शास्त्रमपि प्रतिक्रमणम् । विनयः प्रयोजनमस्येति वैनयिकं तच्च ज्ञानदर्शनचारित्र
तपउपचारविषयं पञ्चविधविनयविधानं कथयति । कृतेः क्रियायाः कर्म विधानं अस्मिन वर्ण्यते इति कृतिकर्म । २० तच्च अर्हत्सिद्धाचार्यबहुश्रुतसाध्वादिनवदेवतावन्दनानिमित्तमात्माधीनताप्रादक्षिण्यत्रिवारत्रिनवतिचतुःशिरो -
द्वादशावादिलक्षणनित्यनैमित्तिकक्रियाविधानं च वर्णयति । विशिष्टाः काला विकालास्तेषु भवानि वैकालिकानि
यिक शास्त्रमें उपयुक्त उसका ज्ञाता, अथवा सामाधिक पर्यायरूप परिणत व्यक्ति भावसामायिक है । उस-उस काल सम्बन्धी चौबीस तीर्थंकरोंके नाम, स्थापना, द्रव्य और भावको लेकर
महाकल्याणक, चौंतीस अतिशय, आठ महाप्रातिहार्य, परम औदारिक दिव्य शरीर, सम२५ वसरण सभा, धर्मोपदेशना आदिके द्वार, तीर्थकरकी महिमाका स्तवन चतुर्विंशतिस्तव है।
अथवा उसका कथन करनेवाला शास्त्र चतुर्विंशतिस्तव कहा जाता है। उसके पश्चात् एक तीर्थकरको लेकर चैत्य-चैत्यालय आदिकी स्तुति वन्दना है। अथवा उसका प्रतिपादक शास्त्र वन्दना कहलाता है। जिसके द्वारा 'प्रतिक्रम्यते' अर्थात् प्रमादसे किये हुए दैवसिक
आदि दोषोंका विशोधन किया जाता है,वह प्रतिक्रमण है । वह दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, ३० चातुर्मासिक, सांवत्सरिक, ऐर्यापथिक और पारमार्थिकके भेदसे सात प्रकारका है। भरत
आदि क्षेत्र, दुषमादि काल, छह संहननोंसे युक्त स्थिर-अस्थिर आदि पुरुषोंके भेदोंको लेकर प्रतिक्रमणका कथन करनेवाला शास्त्र भी प्रतिक्रमण है।- विनय जिसका प्रयोजन है, वह वैनयिक है । वह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और उपचारके भेदसे पाँच प्रकारकी विनयका
कथन करता है। जिसमें कृति अर्थात् क्रियाकर्मका विधान कहा जाता है, वह क्रियाकर्म ३५ है। उसमें अहेन्त, सिद्ध-आचार्य, बहुश्रुत (उपाध्याय), साधु आदि नौ देवताओंकी वन्दनाके
निमित्त आत्माधीनता (अपने अधीन होना), तीन बार प्रदक्षिणा, तीन बार नमस्कार, चार
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६१५ शास्त्रं मुनिजनंगलाचरण गोचारविधियं पिंडशुद्धिलक्षणमं वणसुतु । उत्तराण्यधीयंते पठ्यन्तेऽस्मिन्नित्युत्तराध्ययनं । ई उत्तराध्ययनशास्त्रं चतुव्विधोपसग्गंगळ द्वाविंशतिपरीषहंगळ सहनविधानमं तत्फलमुमं यितु प्रश्नमादोडितुतरमे दितुत्तर विधानमं वणिसुगुं । कल्प्यं योग्यं व्यवह्रियते अनुष्ठीयतेऽस्मिन्निति अनेनेति वा कल्प्यव्यवहारः । ई कल्प्यव्यवहारशास्त्रं साधुगळ योग्यानुष्ठानविधान अयोग्यसेवेयो प्रायश्चित्तमुमं वणिसुगं । कल्प्यं चाकल्यं च कल्प्या कल्प्यं तद्वर्ण्यतेऽस्मि - निति कल्पयाकल्प्यं । ई कल्पयाकल्प्यशास्त्रं द्रव्यक्षेत्रकाल भावंगळनाश्रयिसि मुनिगलिंगदु कल्प्य - मिदकल्प्य योग्यायोग्यविभागमं वर्णिसुगं ।
महतां कल्प्यमस्मिन्निति महाकल्प्यं । ई महाकल्प्यशास्त्रं जिनकल्पसाधुगळ उत्कृष्ट संहननादिविशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालभाववत्तिगळगे योग्यमप्प त्रिकालयोगाद्यनुष्ठानमं स्थविरकल्परुगळ दीक्षाशिक्षागणपोषणात्म संस्कार सल्लेखनोत्तमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराधनाविशेषमुमं वर्णिसुगुं । पुंडरीक- १० में शास्त्रं भावनव्यंतरज्योतिष्क कल्पवासिविमानं गळोत्पत्ति कारणदानपूजातपश्चरणाकामनिर्ज्ज
दश वैकालिकानि वर्ण्यन्तेऽस्मिन्निति दशवैकालिकं तच्च मुनिजनानां आचरणगोचरविधि पिण्डशुद्धिलक्षणं च वर्णयति । उत्तराणि अधीयन्ते पठ्यन्ते अस्मिन्निति उत्तराध्ययनं तच्च चतुर्विधोपसर्गाणां द्वाविंशतिपरीषहाणां च सहनविधानं तत्फलं एवं प्रश्ने एवमुत्तरमित्युत्तरविधानं च वर्णयति । कल्प्यं योग्यं व्यवह्रियते अनुष्ठीयतेऽस्मिन्ननेनेति वा कल्प्य व्यवहारः, स च साधूनां योग्यानुष्ठानविधानं अयोग्यसेवायां प्रायश्चित्तं च वर्णयति । १५ कल्प्यं चाकल्त्यं च कल्प्य कल्प्यं तद्वर्ण्यते अस्मिन्निति कल्प्याकल्प्यम् । तच्च द्रव्यक्षेत्रकालभावानाश्रित्य मुनीनामिदं कल्प्यं योग्यं इदमकल्पयं अयोग्यमिति विभागं वर्णयति । महतां कल्प्यमस्मिन्निति महाकल्प्यं शास्त्रं तच्च जिनकल्पसाधूनां उत्कृष्टसंहननादिविशिष्टद्रव्यक्षेत्रकालभाववर्तिनां योग्यं त्रिकालयोगाद्यनुष्ठानं स्थविरकल्पानां दीक्षाशिक्षा गणपोषणात्म संस्कार सल्लेखनोत्तमार्थस्थानगतोत्कृष्टाराघनाविशेषं च वर्णयति । पुण्डरीकं नाम शास्त्रं भावनव्यन्त रज्योतिष्क कल्पवासिविमानेषु उत्पत्तिकारणदानपूजातपश्चरणाकामनिर्जरासम्यक्त्वसंयममादिविधानं तत्तदुपपादस्थान वैभव विशेषं च वर्णयति । महच्च तत्पुण्डरीकं तत्महापुण्डरीकं शास्त्रं
ܘܢ
बार सिर नमाना, बारह आवर्त आदि रूप नित्य नैमित्तिक क्रिया- विधानका वर्णन होता है । विशिष्ट कालोंको विकाल कहते हैं, उनमें होनेको वैकालिक कहते हैं । जिसमें दस वैकालिकों का वर्णन हो, वह दशवैकालिक है । उसमें मुनियोंका आचार, गोचरीकी विधि और भोजन शुद्धिका लक्षण कहा गया है। जिसमें उत्तरोंका अध्ययन हो, वह उत्तराध्ययन २५ है । उसमें चार प्रकार के उपसर्गों और बाईस परीषहोंके सहने का विधान, उनका फल तथा इस प्रकार के प्रश्नका उत्तर इस प्रकार होता है, इसका कथन होता है। जो कल्प्य अर्थात् योग्यके व्यवहारका कथन करता है, वह कल्प्यव्यवहार है । उसमें साधुओंके योग्य अनुष्ठान के विधानका और अयोग्यका सेवन होनेके प्रायश्चित्तका कथन होता है । जिसमें कल्प्य और अकल्पयका कथन हो, वह कल्प्याकल्प्य है । वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके आश्रय से यह ३० मुनियोंके योग्य और यह अयोग्य है; ऐसा कथन करता है । महान् पुरुषोंका कल्प्य जिसमें हो, वह महाकल्प्य शास्त्र है । उसमें जिनकल्पी साधुओंके उत्कृष्ट, संहनन आदि विशिष्ट द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको लेकर त्रिकाल योग आदि अनुष्ठानका तथा स्थविर कल्पी साधुओंकी दीक्षा, शिक्षा, गणका पोषण, आत्मसंस्कार, सल्लेखना, उत्तम स्थानगत उत्कृष्ट आराधना विशेषका कथन होता है। पुण्डरीक नामक शास्त्र भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्प- ३५ वासी देवोंके विमानों में उत्पत्ति के कारण दान, पूजा, तपश्चरण, अकामनिर्जरा, सम्यक्त्व, संयम आदिका विधान तथा उस उस उपपाद स्थानके वैभव विशेषको कहता है । महान्
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६१६
गो० जीवकाण्डे रासम्यक्त्वसंयमादिविधानमं तत्तदुपपादस्थानवैभवविशेषमुमं वणिसृगें।
महापुंडरीकमेंब शास्त्रं महद्धिकरप्पेंद्रप्रतीद्रादिगळोळुत्पतिकारण तपोविशेषाद्याचारमं वर्णिसुगं।
निषीधनं प्रमाददोषनिराकरणं निषिद्धिः संज्ञेयोल कप्रत्ययमागुत्तिरलु निषिद्धिका । एंदितु ५ प्रायश्चित्तशास्त्रमें बुदर्थमदु प्रमाददोषविशुध्यत्थं बहुप्रकारमप्प प्रायश्चित्तमं वणिसुगुं। निशीतिका वा एंदितु क्वचित्पाठं काणल्पडुगुं।
___ इंतु चतुर्दशविधमप्प अंगबाह्यश्रुतं परिभाविसल्पडुवुदु । अनंतरं शास्त्रकारं श्रुतज्ञानमहात्म्यमं पेळ्दपं ।
सुदकेवलं च गाणं दोण्णिवि सरिसाणि होति बोहादो।
सुदणाणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं जाणं ॥३६९।। श्रुतं केवळं च ज्ञानं द्वे अपि सदृशे भवतो बोधात् । श्रुतज्ञानं तु परोक्षं प्रत्यक्ष केवलं ज्ञानम् ।
श्रुतज्ञानमुं केवलज्ञानमुमें बेरडुं ज्ञानंगळु बोधात् अरिविनिदं समस्तवस्तुद्रव्यगुणपर्यायपरिज्ञानदिदं समानंगळेयप्पव। त मते दृढ़ विशेषमंटतेदोडे परमोत्कर्षपय्यंतप्राप्तमाददादोडं १५ श्रुतकेवलज्ञानं सकलपदात्थंगळोळ परोक्षं अविशदमस्पष्टममूत्तंगळोळमर्थपर्यायंगळोळमुळिद
सूक्ष्मांशंगळोळं विशदत्वदिदं प्रवृत्यभावमप्पुरिदं । मूतंगळोळु व्यंजनपर्यायंगळप्प स्थूलांशंगळप्प स्वविषयंगळोळु अवधिज्ञानादियं ते साक्षात्करणाभावदिदमुं सकलावरणवीऱ्यांतराय निरवशेषक्षयो
तच्च महधिकेषु इन्द्रप्रतीन्द्रादिषु उत्पत्तिकारणतपोविशेषाद्याचरणं वर्णयति । निषेधनं प्रमाददोषनिराकरणं
निषिद्धिः संज्ञायां कप्रत्यये निषिद्धिका प्रायश्चित्तशास्त्रमित्यर्थः, तच्च प्रमाददोषविशुद्धयर्थ बहुप्रकारं प्रायश्चित्तं २० वर्णयति । निसीतिका इति क्वचित्पाठो दृश्यते । एवं चतुर्दशविधं अङ्गबाह्यश्रुतं परिभावनीयम् ॥३६७-३६८।। अथ शास्त्रकारः श्रुतज्ञानमाहात्म्यं वर्णयति
श्रुतज्ञानं केवलज्ञानं चेति द्वे ज्ञाने बोधात् समस्तवस्तुद्र व्यगुण पर्यायपरिज्ञानात् सदृशे समाने भवतः तु-पुनः अयं विशेषः । स कः ? परमोत्कर्षपर्यन्यं प्राप्तमपि श्रुतकेवलज्ञानं सकलपदार्थेषु परोक्षं अविशदं अस्पष्टं अमूर्तेषु अर्थपर्यायेषु अन्येषु सूक्ष्मांशेषु विशदत्वेषु विशदत्वेन प्रवृत्त्यभवात् । मूर्तेष्वपि व्यञ्जनपर्यायेषु स्थूलांशेषु
२५ पुण्डरीक शास्त्रको महापुण्डरीक कहते हैं। उसमें महर्धिक इन्द्र-प्रतीन्द्र आदिमें उत्पत्तिके
कारण तपोविशेष आदि आचरणका कथन होता है। निषेधन अर्थात् प्रमादसे लगे दोषोंका निराकरण निषिद्धि है। संज्ञामें 'क' प्रत्यय करनेपर निषिद्धिका होता है, उसका अर्थ हैप्रायश्चित्त शास्त्र । उसमें प्रमादसे लगे दोषोंकी विशुद्धि के लिए बहुत प्रकारके प्रायश्चित्तोंका
वर्णन है। कहींपर 'निसीतिका' पाठ भी देखा जाता है। इस प्रकार चौदह प्रकारका अंग३. बाह्य श्रुत जानना ॥३६७-३६८॥
अब शास्त्रकार तज्ञानके माहात्म्यको कहते हैं
श्रुतज्ञान और केवलज्ञान ये दोनों ज्ञान समस्त वस्तुओंके द्रव्य-गुण-पर्यायोंको जाननेकी अपेक्षा समान हैं। किन्तु इतना विशेष है कि परम उत्कर्ष पर्यन्तको प्राप्त भी श्रुतज्ञान . समस्त पदार्थों में परोक्ष होता है, अस्पष्ट जानता है, अमूर्त अर्थ पर्यायोंमें तथा अन्य सूक्ष्म ३५ अंशोंमें स्पष्ट रूपसे उसकी प्रवृत्ति नहीं होती। मूर्त भी व्यंजन पर्यायोंको अपने विषयोंके
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६१७ त्पन्नं केवलज्ञानं प्रत्यक्षं । समस्तत्वदिदं विशदं स्पष्टमक्कुं। मूर्तामूर्थिव्यंजनपर्यायस्थूलसूक्ष्मांशंगळप्प सर्ववरोळ प्रवृत्ति संभविसुगुमप्पुरिदं । साक्षात्करदिदमुं अक्षमात्मानमेव प्रतिनियतं परानपेक्षं प्रत्यक्षं। उपात्तानुपात्तपरप्रत्ययापेक्षं परोक्षमिति । एंदितु प्रत्यक्षपरोझशब्दनिरुक्तिसिद्धलक्षणभेददिदमा श्रुतज्ञानकेवलज्ञानंगळरा सादृश्याभावमक्कुमंत समंतभद्रस्वामिर्गाळदमुं पेळल्पद्रुदु । “स्याद्वाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवे" ५ देंदितु। [आप्तमी.] अनंतरं शास्त्रकारं पंचषष्ठिगाथासूत्रंगळिंदमवधिज्ञानप्ररूपणेयं पेळळुपक्रमिसिदपं ।
अबहीयदित्ति ओही सीमाणाणेत्ति वणियं समये ।
भवगुणपच्चयविहियं जमोहिणाणेत्ति णं ति ।।३७०॥ अवधीयत इत्यवधिः सीमाज्ञानमिति वणितं समये। भवगुणप्रत्ययविहितं यदवधिज्ञान- १० मितीदं ब्रुदंति।
अवधीयते द्रव्यक्षेत्रकालभावंर्गाळदं परिमीयते पवणिसल्पडुगु में दितवधि ये बुददेके दोडे मतिश्रुतकेवलंगळंते द्रव्यादिळिदमपरिमितविषयत्वाऽभावमप्पुदरिदं सीमाविषयज्ञानमेंदु समये परमागमदोलु भणितं पेळल्पद्रुदु । यत् आवुदोंदु तृतीयज्ञानं भवगुणप्रत्ययविहितं भवो नरकादिपर्यायः गुणः सम्यग्दर्शनविशुद्धयादिः । भवश्च गुणश्च भवगुणौ तावेव प्रत्ययौ ताभ्यां कारणाभ्यां १५
स्वविषयप् अवधिज्ञानादिव साक्षात्करणाभावाच्च । सकलावरणवीर्यान्तरायनिरवशेषक्षयोत्पन्नं केवलज्ञानं प्रत्यक्षं समस्तत्त्वेन त्रिपदं स्पष्टं भवति । मूर्तामूर्थिव्यञ्जनपर्यायस्थूलसूक्ष्मांशेषु सर्वेष्वपि प्रवृत्तिसंभवात साक्षात्कारणाच्च । अदर आत्मानमेव प्रतिनियतं परानपेक्षं प्रत्यक्ष, उपात्तानुपात्तपरप्रत्ययापेक्षं परोक्षमिति निरुक्तिसिद्धलक्षणभेदात्तयोः श्रतज्ञानकेवलज्ञानयोः सादश्याभावात् । तथा चोक्तं समन्तभद्रस्वामिभिः
स्थादाद केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने ! भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यवस्त्वन्यतमं भवेत ।।- [आप्तमी०] २० ॥३६९।। अथ शास्त्रकारः पञ्च पष्टिगाथामू: अबधिज्ञानप्ररूपणामुपक्रमते
अवधीयते-द्रव्यक्षेत्रकालभावैः परिमीयते इत्यवधिर्मतिश्रुतकेवलवद्रव्यादिभिरपरिमितविषयत्वाभावात् । यतृतीयं सीमाविषयं ज्ञानं समये परमागमे वणितं तदिदमवधिज्ञानमित्यहंदादयो ब्रुवन्ति । तत्कतिस्थूल अंशको अवधिज्ञानकी तरह साक्षात्कार करने में असमर्थ है। किन्तु समस्त ज्ञानावरण
और वीर्यान्तराय के क्षयसे उत्पन्न केवलज्ञान पूर्ण रूपसे स्पष्ट होता है। मूत अमूत, अर्थ- २५ पर्याय, व्यंजनपर्याय, स्थूल अंश, सूक्ष्म अंश सभीमें उसकी प्रवृत्ति है और सभीको साक्षात् जानता है। अक्ष अर्थात् आत्मासे ही जो ज्ञान होता है, परकी अपेक्षा नहीं करता, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं । उपात्त इन्द्रियादि और अनुपात्त प्रकाशादि परकारणोंकी अपेक्षासे होनेवाला ज्ञान परोक्ष है । इस प्रकार निरुक्तिसे सिद्ध लक्षणों के भेदसे श्रतज्ञान और केवलज्ञानमें समानता नहीं है । स्वामी समन्तभद्रने भी अपने आप्तमीमांसा ग्रन्थमें कहा है
३० स्याद्वाद अथोत् श्रुतज्ञान और केवलज्ञान दोनों ही सर्व तत्त्वोंके प्रकाशक हैं, किन्तु भेद यही है कि केवलज्ञान साक्षात् प्रत्यक्ष जानता है और श्रुतज्ञान परोक्ष जानता है । जो इन दोनों ज्ञानों में से एकका भी विषय नहीं है, वह अवस्तु है ॥३६९।।
अब शास्त्रकार पैसठ गाथाओंसे अवधिज्ञानका कथन करते हैं
'अवधीयते' अर्थात् द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावके द्वारा जिसका परिमाण किया जाता है, ३१ वह अवधि है। अर्थात् जैसे मति, श्रुत और केवलज्ञानका विषय द्रव्यादिकी अपेक्षा
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गो०जीवकाण्डे विहितमुक्तं भवगुणप्रत्ययविहितं भवप्रत्ययवदिदं गुणप्रत्ययत्वदिदं पेळल्पटुदं तदिदमवधिज्ञानमिति । अंतप्पिदनवधिज्ञानमें दितु ब्रुवंति अर्हदादिगळु पेळ्वरु। सीमाविषयमनुकळवधिज्ञानं भवप्रत्ययमेंदु गुणप्रत्ययमें दितु द्विविधमक्कुम बुदुतात्पर्य ।
भवपच्चइगो सुरणिरयाणं तित्थेवि सव्वअंगुत्थो।
गुणपच्चइगो णरतिरियाणं संखादिचिण्डंभवो ॥३७१।। भवप्रत्ययकं सुरनारकाणां तीर्थेपि सर्वांगोत्थं । गुणप्रत्ययकं नरतिरश्चां शंखादिचिह्नभवं ॥
" भवप्रत्ययावधिज्ञानं देवर्कळोळं नारकरोळं चरमभवतीर्थकरोळं संभविसुगुमदुवुमवरोळु सर्वांगोत्थमक्कू । सर्वात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवीतिरायद्वयक्षयोपशमोत्पन्नमें बुदत्थं । गुणप्रत्ययावधिज्ञानं पर्याप्तमनुष्यग्गं संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ततिथ्यंचग्गं संभविसुगुमदुवुमवरोळु शंखादिचिह्नभवं नाभिप्रदेशदिदं मेगण शंखपद्मवज्रस्वस्तिकझषकलशादिशुभचिह्नलक्षितात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवील्तरायकर्मद्वयक्षयोपशमोत्थम बुदत्थं । भवप्रत्ययावधिज्ञानदोळु दर्शनविशुद्धयादिगुणसद्भावमादोडमदनपेक्षिसद भवप्रत्ययत्वमरियल्पडुगुं । गुणप्रत्ययावधिज्ञानदोळु तिर्यग
मनुष्यभवसद्भावमादोडमदनपेक्षिसदे गुणप्रत्ययत्वमरियल्पडुगुं। १५ विधं भवगुणप्रत्ययविहितं-भवः नरकादिपर्यायः, गुणः सम्यग्दर्शनविशुद्धयादिः भवगुणौ प्रत्ययौ कारणे ताभ्यां विहितमुक्तं भवगुणप्रत्ययविहितं भवप्रत्ययत्वेन गुणप्रत्ययत्वेन अवधिज्ञानं द्विविधं कथितमित्यर्थः ॥३७०॥
तत्र भवप्रत्ययावधिज्ञानं सुराणां नारकाणां चरमभवतीर्थकराणां च संभवति । तच्च तेषां सींगोत्थं भवति । सर्वात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवीर्यान्तरायकमद्वयक्षयोपशमोत्थं भवतीत्यर्थः । गुणप्रत्ययं अवधिज्ञानं नराणां पर्याप्तमनुष्याणां तिरश्चां च संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्त तिरश्चां संभवति । तच्च तेषां शङ्खादिचिह्नभवं भवति, नाभेरुपरि शङ्खपद्मवज्रस्वस्तिकझषकलशादिशुभचिह्नलक्षितात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवीर्यान्तराय - कर्मद्वयक्षयोपशमोत्पन्नमित्यर्थः । भवप्रत्यये अवधिज्ञाने दर्शनविशुद्धयादिगुणसद्भावेऽपि तदनपेक्षयैव भवप्रत्ययत्वं ज्ञातव्यम् । गुणप्रत्ययेऽवधिज्ञाने तिर्यग्मनुष्यभवसद्भावेऽपि तदनपेक्षयैव गुणप्रत्ययत्वं ज्ञातव्यम् ॥३७१॥ अपरिमित है, वैसा इसका नहीं है। परमागममें जो तीसरा सीमा विषयक ज्ञान कहा है उसे
अर्हन्त आदि अवधिज्ञान कहते हैं। भव अर्थात् नरकादि पर्याय और गुण अर्थात् २५ सम्यग्दर्शन विशुद्धि आदि ! भव और गुण जिनके कारण हैं वे भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय नामक अवधिज्ञान हैं । इस तरह अवधिज्ञानके दो भेद हैं ॥३७०॥
उनमें-से भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों, नारकियों और चरमशरीरी तीर्थंकरोंके होता है । तथा यह समस्त आत्माके प्रदेशोंमें वर्तमान अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय नामक
दो कर्मों के क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, इसलिए इसे सर्वांगसे उत्पन्न कहा जाता है । गुण३० प्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त मनुष्योंके और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियचोंके होता है । और वह
उनके शंख आदि चिह्नोंसे उत्पन्न होता है । अर्थात् नाभिसे ऊपर शंख, पद्म, वज्र, स्वस्तिक, मच्छ, कलश आदि शुभ चिह्नोंसे युक्त आत्मप्रदेशोंमें स्थित अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है । भवप्रत्यय अवधिज्ञानमें भी सम्यग्दर्शन, विशुद्धि
आदि गुण रहते हैं, फिर भी उसकी उत्पत्तिमें उन गुणोंकी अपेक्षा नहीं होती, मात्र भवधारण ३५ करनेसे ही अवधिज्ञान होता है, इसीलिए उसे भवप्रत्यय कहते हैं। गुणप्रत्यय अवधिज्ञानमें
यद्यपि मनुष्य और तियचका भव रहता है, फिर भी अवधिज्ञानकी उत्पत्तिमें उसकी अपेक्षा
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गुणपच्चइगो छद्धा अणुगावट्ठिदपवड्ढमाणिदरा ।
देसोही परमोही सम्बोहित्ति य तिधा ओही ॥३७२।। गुण प्रत्ययकः षोढा अनुगावस्थितप्रवर्द्धमानेतरे। देशावधिः परमावधिः सर्वावधिरिति च त्रिधावधिः॥
__ आवुदोंदु गुणप्रत्ययावधिज्ञानमा अनुगमनुगामिये दुमवस्थितमें दु प्रवर्द्धमानमर्दु मूरु- ५ तेरनप्पुवु। इतरंगळु अननुगमननुगामिये दुमनवस्थितमें दुं हीयमानमुम दितिवु मूरुतेरनप्पुवंतु कूडि अनुगामि अननुगामि अवस्थितमनवस्थित वर्द्धमानहीयमानमेंदितु षड्विधमक्कुमल्लि आवुदो दवधिज्ञानं तन्न स्वामियप्प जीवनं बळिसल्गुमदनुगामिये बुदक्कुमदुर्बु क्षेत्रानुगामिये, भवानुगामियं दुं उभयानुगामिये दितु त्रिविधमक्कुमल्लि आवुदो दु तां पुट्टिद क्षेत्रदिदमन्यक्षेत्रदोळु विहारिसुव जीवनं बळिसल्गुं । भवांतरदोळु बळिसल्लददु क्षेत्रानुगामियबुदक्कुमावुदोंदु तां पुट्टिद १० भवदिदमन्यभवदोळं स्वस्वामियं बळिसल्गुमदु भवानुगामिये बुदक्कुमावदोंदु तां पुट्टिद क्षेत्रभवंगळेरडरणिदमन्यभरतैरावतविदेहादिक्षेत्रदोळं देवमनुष्यादिभवंगळोळं वर्तमानजीवमुं बळिसल्गुमदुभयानुगामियें बुदक्कुमावदोंदु तन्न स्वामियप्प जीवनं बळिसलुवुदल्लददननुगामियबुदक्कुमदुर्बु क्षेत्राऽननुगामिय दुं भवाननुगामियदुमुभयाननुगामियें दुं त्रिविधमक्कुं । मल्लि आवुदो दु क्षेत्रांतरमं बळिसल्वुदल्तदु तां पुट्टिद क्षेत्रदोळे किडुगुं । भवांतरं बळिसलगे मेण्माण्गे अदु क्षेत्रा- १५
यद्गुणप्रत्ययावधिज्ञानं तदनुगाम्यननुगाम्यवस्थितमनवस्थितं प्रवर्धमानं हीयमानं चेति षड्विधम् । तत्र यदवधिज्ञानं स्वस्वामिनं जीवमनुगच्छति तदनुगामि । तच्च क्षेत्रानुगामि भवानुगामि उभयानुगामीति त्रिविधम् । यत् स्वोत्पत्तिक्षेत्रात् अन्यक्षेत्रे विहरन्तं जीवमनुगच्छति भवान्तरं दानुगच्छति तत्क्षेत्रानुगामि भवति । यत् उत्पत्तिभवादन्यभवे स्वस्वामिनं अनुगच्छति तद्भवानुगामि भवति । यत्स्वोत्पत्तिक्षेत्रभवाभ्यां अन्यत्र भरतैरावतविदेहादिक्षेत्रे देवमनुष्यादिभवे च वर्तमानं जीवमनुगच्छति तदुभयानुगामि भवति । २० यदवधिज्ञान स्वस्वामिनं जीवं नानगच्छति तदननगामि । तदपि क्षेत्राननुगामि भवाननगामि उभयाननुगामोति त्रिविधम । तत्र यत्क्षेत्रान्तरं न गच्छति स्वोत्पत्तिक्षेत्रे एव विनश्यति भवान्तरं गच्छतु वा मा गच्छतु तत् क्षेत्राननुगामि । यद्भवान्तरं नानुगच्छति स्वोत्पत्तिभव एव विनश्यति, क्षेत्रान्तरं गच्छतु वा मा वा गच्छतु नहीं होती; केवल सम्यदर्शनादि गुणोंके कारण ही अवधिज्ञान प्रकट होता है, इसलिए वह गुणप्रत्यय कहा जाता है॥३७१॥
२५ गुणप्रत्यय अवधिज्ञान, अनुगामी, अननुगामी, अवस्थित, अनवस्थित, वर्धमान, हीयमानके भेदसे छह प्रकारका है। उनमें से जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीवका अनुगमन करता है, वह अनुगामी है । वह तीन प्रकारका है-क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी और उभयानुगामी ।जोअवधिज्ञान अपने उत्पत्तिक्षेत्रसे अन्य क्षेत्र में जानेवाले जीवके साथ जाता है, किन्तु भवान्तरमें साथ नहीं जाता,वह क्षेत्रानुगामी है। जो उत्पत्तिक्षेत्रसे स्वामीका मरण होनेपर ३° दूसरे भव में भी साथ जाता है, वह भवानुगामी है। जो अपने उत्पत्तिक्षेत्र और भवसे अन्यत्र भरत, ऐरावत, विदेह आदि क्षेत्रमें और देव, मनुष्य आदिके भवमें जीवका अनुगमन करता है,वह उभयानुगामी है । जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीवका अनुगमन नहीं करता, वह अननुगामी है। वह भी क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी, उभयाननुगामीके भेदसे तीन प्रकारका है। जो अवधि अन्य क्षेत्रमें नहीं जाता अपने उत्पत्तिक्षेत्र में ही नष्ट हो जाता है, ३५
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गो. जीवकाण्डे ननुगामिये बुदक्कुमावुदोदु भवांतरमं बळिसल्वुदल्तु तां पुट्टिद भवदोळे केडगुं। क्षेत्रांतरमं बळिसळगे मण्माण्गे अदु भवाननुगामिय बुदक्कुमावुदोंदु क्षेत्रांतरमं भवांतरमुमं बसिल्वुदल्तु । स्वोत्पन्नक्षेत्रभवंगळोळे कडुगुमदुभयाननुगामिय बुदक्कुमावदोदु हानियुं वृद्धियुं इल्लदै सूर्य
मंडलदंतेकप्रकारमागित्तिवर्कमदु अवस्थितावधिय बुदक्कुमावदोंदु ओम्में पेर्चुगुमोम्म ५ कुंदुगुमाम्म यवस्थितमागिय मदनवस्थितावधिज्ञानमें बुदक्कु । मावुदोंदु शुक्लपक्षद चंद्रमंडलदंते
स्वोत्कृष्टपथ्यंत पेर्चुगुमदु व मानदेशावधिये बुदक्कुं । आवुदोंदु कृष्णपक्षद चंद्रमंडलदंते स्वक्षयपय्यंतं कुंदुगुमदु होयमानदेशावधियबुदक्कुमंते सामान्यदिदमवधिज्ञानं देशावधियें दुं दक्के परमावधियें दुं सर्वावधियुर्मेदितु विधा विप्रकारमक्कुमिनितु गुणप्रत्ययमप्प देशावधिये षट्प्रकारमक्कुं परमावधिसविधिगळल्तेंबुदथें ।
भवपच्चइगो ओहो देसोही होदि परमसव्योहो ।
गुणपच्चइगा णियमा देसोही वि य गुणे होदि ॥३७३॥ भवप्रत्ययावधिद्देशावधिर्भवति परमसविधिः । गुणप्रत्ययौ नियमाद् भवतः देशावधिरपि च गुणे भवति ॥
___ आवुदोंदु पूक्तिभवप्रथयावधियदुनियमादवश्यंभावात् देशावधियेयकुं । देवनारकरु१५ गळ्गं गृहस्थतीर्थकरंगयं परमावधियं सर्वावधियं संभविसवप्पुरिद, परमावधियं सर्वावधियं
नियदिदं गुणप्रत्ययंळेयप्पुवेक दोड संयमलक्षणगुणभवदोळा येरडक्कभावमप्पुरिदं देशावधियुतद्भवाननुगामि । यत् क्षेत्रान्तरं भवान्तरं च नानुगच्छति स्वोत्पन्न क्षेत्रभवयोरेव विनश्यति तत् क्षेत्रभवाननुगानि । यद्धानिवृद्धिभ्यां विना सूर्यमण्डलवत् एकप्रकारमेव तिष्ठति तदवस्थितम । यत् कदाचिद्वर्धते कदाचिद्धीयते कदाचिदवतिष्ठते च तदनवस्थितम् । यत् शुक्लपक्षस्य चन्द्रमण्डलवत् स्वोत्कृष्टपर्यन्तं बर्द्धते तद् वधमानम् । यत् कृष्णपक्षचन्द्रमण्डलवत् स्वक्षयपर्यन्तं हीयते तद्धीयमानं देशावधिज्ञानं भवति । तथा सामान्येन अवधिज्ञानं देशावधिः परमावधिः सर्वावविश्व इति त्रिधा त्रिप्रकारं भवति । एवं गणप्रत्ययः देशावधिः षोढा न परमावधिराविधी इत्यर्थः ॥३७२॥
यः पवाको भवप्रत्ययोश्वधिः स नियमात--अवश्यंभावात देशावधिरेव भवति देवनारकयोर्गहस्थतीर्थकरस्य च परमाधिस योरसंभवात् । परमावधिः सर्वात विश्च द्वावपि नियमेन गुणप्रत्ययावेव भवतः २५ भवान्तरमें जाय यान जाने बद क्षेत्राननुगामी है। जो अन्य भवमें साथ नहीं जाता,अपने
उत्पत्तिभव में ही छूट जाता, अन्य क्षेत्र में जाये या न जाये, वह भवाननुगामी है। जो न अन्य क्षेत्रमें साथ जाता है और न अन्य भवमें साथ जाता है अपने उत्पत्तिक्षेत्र अ ही छूट जाता है, वह क्षेत्र भवाननुगामी है। जो हानि-वृद्धिके बिना सूर्यमण्डलकी तरह एक
रूप ही रहता है, वह अवस्थित है। जो कभी बढ़ता है, कभी घटता है, कभी तदवस्थ रहता ३० है, वह अनवस्थित है। जो शुक्लपक्षके चन्द्रमण्डलकी तरह अपने उत्कृष्ट पर्यन्त बढ़ता है, वह
वधमान है। जो कृष्णपक्षके चन्द्रमण्डलकी तरह अपने क्षयपर्यन्त घटता है,वह हीयमान है। तथा सामान्यसे अवधिज्ञान देशावधि, परमावधि, सर्वावधिके भेदसे तीन प्रकार है। इस प्रकार गुणप्रत्यय देशावधि छह प्रकारका है।परमावधि सर्वावधि नहीं ॥३७२।।
पूर्वोक्त भवप्रत्यय अवधि नियमसे देशावधि ही होता है, क्योंकि देव, नारकी और ३५ गृहस्थ अवस्थामें तीर्थकरके परमावधि, सर्वावधि नहीं होते। परमावधि और सर्वावधि
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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गुणे दर्शनविशुद्धयादिलक्षणगुणमुंटागुत्तिरलेयक्कुं । मितु गुणप्रत्यंगळमूरुमवधिगळं संभविसुववुं । भवप्रत्ययं देशावधिये ये दितु निश्चितमास्तु ।
सोहिस्स य अवरं णरतिरिये होदि संजदम्मि वरं । परमोही सव्वोही चरमसरीरस्स विरदस्स || ३७४॥
देशावधिरवरं नरतिक्षु भवति संयते वरं । परमावधिः सर्व्वावधिश्चरमशरीरस्य विर
तस्य ॥
५
देशावधिज्ञानद जघन्यं नररोळं तिघ्यं चरोळं संयतरोळमसंयत रोळ मक्कुं । देवनारकरोळप्पुदु एकेंदोड़े देशावधिय सव्वोत्कृष्टं नियर्मादिदं मनुष्यगतिय सकलसंयतरोळेयक्कु । मितरगतित्रयदोलिल्लेके दोडे महाव्रताभावमप्पुदरिदं । परमावधिसविधिगळेरडुं जघन्यदिदमुमुत्कृष्टदिदमुं मनुष्यगतियोळे चरमांगरप्प महाव्रतिगगये संभविसुवयु । चरमं संसारांतवत्तितद्भवमोक्षकारण रत्न- १० याराधकजीव संबंधिशरीरं वज्रऋषभनाराचसंहननयुक्तं यस्यासौ चरमशरीरः ।
परिवादी सोही अपडिवादी हवंति सेसा ओ |
मिच्छत्तं अविरमणं ण य पडिवज्जति चरिमदुगे || ३७५ ||
प्रतिपाती देशावधिरप्रतिपातिनौ भवतः शेषौ अहो । मिथ्यात्वमविरमणं न च प्रतिपद्यन्ते चरमद्विके ॥
सम्यक्त्वसुं चारित्रमुबी येररिदं बळिचे मिथ्यात्वाऽसंयमंगळप्राप्ति प्रतिपातमक्कुमदनुदं प्रतिपातियक्कुमितप्प प्रतिपाति देशावधियेयक्कं । शेष परमावधि सर्व्वावधिगळे रडुमसंयम लक्षण गुणाभावे तयोरभावात् । देशावधिरपि गुणे दर्शनविशुद्धयादिलक्षणे सति भवति । एवं गुणप्रत्ययास्त्रयोऽयवधयः संभवन्ति । भवप्रत्ययस्तु देशावधिरेवेति निश्चितं जातम् ॥ ३७३ ॥
देशावर्धर्ज्ञानस्य जघन्यं नरतिरश्चोरेव संयतासंयतयोः भवति न देवनारकयोः । देशावधेः सर्वोत्कृष्टं २० तु नियमेन मनुष्यगतिसकलसंयते एव भवति नेतरगतित्र तत्र महाव्रताभावात् । परमावधिसर्वावधी द्वावपि जघन्येनोत्कृष्टेन च मनुष्यगतावेव चरमाङ्गस्य महाव्रतिन एवं संभवतः । चरमं संसारान्तवर्तितद्भवमोक्षकारणरत्नत्रयाराधकजीवसंबन्धि शरीरं वज्रऋषभनाराचसंहननयुतं यस्यासौ चरमशरीरः ॥ ३७४॥
१५
सम्यक्त्वचारित्राभ्यां प्रच्युत्य मिथ्यात्वा संयमयोः प्राप्तिः प्रतिपातः, तद्युतः प्रतिपाती स तु देशावधिरेव नियमसे गुणप्रत्यय ही होते हैं; क्योंकि संयमगुणके अभाव में वे दोनों नहीं होते । २५ देशावधि भी दर्शनविशुद्धि आदि गुणोंके होनेपर होता है। इस प्रकार गुणप्रत्यय तो तीनों ही अवधि होते हैं । किन्तु भवप्रत्यय देशावधि ही है, यह निश्चित हुआ || ३७३ ||
३०
देशावधिज्ञानका जघन्य भेद संयमी या असंयमी मनुष्यों और तिर्यंचोंके ही होता है; देवों और नारकियोंके नहीं होता । किन्तु देशावधिका सर्वोत्कृष्ट भेद नियमसे सकलसंयमी मनुष्य के ही होता है, शेष तीन गतियों में नहीं होता; क्योंकि वहाँ महाव्रत नहीं होते । परमावधि सर्वावधि जधन्य भी और उत्कृष्ट भी मनुष्यगति में ही चरमशरीरी महाव्रतीके ही होते हैं । चरम अर्थात् संसारके अन्त में होनेवाले उसी भवसे मोक्षके कारण रत्नत्रयकी आराधना करनेवाले जीवके होनेवाला वज्रवृषभनाराच संहननसे युक्त शरीर जिसका है, उसीके होते हैं, वही चरमशरीरी है || ३७४॥
सम्यक्त्व और चारित्रसे च्युत होकर मिथ्यात्व और असंयममें आनेको प्रतिपात कहते हैं । और जिसका प्रतिपात होता है, वह प्रतिपाती है । देशावधि ही प्रतिपाती है ।
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ܐ
१५
गो० जीवकाण्डे
प्रतिपातिगळेयप्पुवु । चरमद्विके परमावधिसर्व्वावधिद्विकदोलु जीवंगळु नियमदिदं मिथ्यात्व - मनविरमणमुमं न च प्रतिपद्यते पोट्र्ववरल्लरदु कारर्णाददमा येरडुमप्रतिपातिगळेयप्पुवदु कारर्णादिदं देशावधिज्ञानं प्रतिपातियुमप्रतिपातियुमप्पुढे बुदु सुनिश्चितं ।
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दव्वं खेत्तं कालं भावं पडि रूवि जाणदे ओही । अवदुक्कस्सो वियप्परहिदो दु सव्वोही || ३७६॥
द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं प्रति रूपि जानीते अवधिः । अवरादुत्कृष्टपय्र्यंतं विकल्परहितस्तु सर्व्वावधिः ॥
अवरात् जघन्यविकल्पमोदल्गों डु. उत्कृष्ट विकल्पपर्यंत मसंख्यात लोकमात्रविकल्पमनुवधिज्ञानं द्रव्यमं क्षेत्रमं कालमं भावमं प्रति प्रति प्रतिनियतसीमेयं माडि रूपि पुद्गलद्रव्यमं तत्संबंधिसंसारिजीवद्रव्यमुमं जानीते प्रत्यक्षमागरिगुं । तु मत्त सर्व्वावधिज्ञानं विकल्परहितं जघन्यमध्यमोत्कृष्ट विकल्परहित मक्कुमवस्थितैकरूपमुं हानिवृद्धिरहितमुं परमोत्कर्ष प्राप्तम में बदत्थं । अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम सर्वोत्कृष्ट मुमल्लिये संभविसुगुं । अदुकारर्णादवं देशावधि परमावधि - गो जघन्यमध्यमोत्कृष्ट विकल्पंगळु संभविसुगु में बुदु निश्चितमकं । कम्मुराल संचं मज्झिमजोगाज्जियं सविस्सचयं ।
लोयविभत्तं जाणदि अवरोही दव्वदो णियमा ॥ ३७७||
नोकम्मौदारिकसंचयं मध्यमयोगाज्जितं सवित्रसोपचयं । लोकविभक्तं जानाति अवरावधिद्रव्यतो नियमात् ॥
भवति । शेषौ परमावधिसर्वावधी द्वावपि अप्रतिपातिनावेव भवतः, चरमद्विके-परमावधिसर्वावधिद्विके' जीवाः नियमेन मिथ्यात्वं अविरमणं च न प्रतिपद्यन्ते ततः कारणात् तौ द्वावपि अप्रतिपातिनौ, देशावधिज्ञानं प्रतिपाति २० अप्रतिपाति च इति निश्चितम् ॥ ३७५ ॥
अवरात् जघन्यविकल्पादारभ्य उत्कृष्टविकल्पपर्यन्तं असंख्यातलोकमात्रविकल्पं अवधिज्ञानं द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं च प्रतीत्य - नियतसीमां कृत्वा रूपि पुद्गलद्रव्यं तत्संबन्धि संसारिजीवद्रव्यं च जानीते प्रत्यक्षतया अवबुध्यते । तु पुनः सर्वावधिज्ञानं जवन्यमध्यमोत्कृष्टविकल्परहितं अवस्थितं हानिवृद्धिरहितं परमोत्कर्ष प्राप्तमित्यर्थः, अवधिज्ञानावरणक्षयोपशम सर्वोत्कृष्टस्य तत्रैव संभवात् ततः कारणाद् देशावधिपरमावध्योर्जघन्य - २५ मध्यमोत्कृष्टविकल्पा संभवन्तीति निश्चितं भवति ॥ ३७६ ॥
शेष परमावधि सर्वावधि दोनों अप्रतिपाती ही हैं । 'चरिमदुगे' अर्थात् परमावधि सर्वाधि जिनके होते हैं, वे जीव मिथ्यात्व और अविरतिको प्राप्त नहीं होते। इस कारण वे दोनों अप्रतिपाती हैं और देशावधिज्ञान प्रतिपाती भी है अप्रतिपाती भी है, यह निश्चित हुआ || ३७५॥ अवधिज्ञानके जघन्य भेदसे लेकर उत्कृष्ट भेद पर्यन्त असंख्यात लोक प्रमाण भेद हैं । ३० वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादाके अनुसार रूपी पुद्गल द्रव्य और उससे सम्बद्ध संसारी जीवोंको प्रत्यक्ष रूपसे जानता है । किन्तु सर्वावधिज्ञान जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद से रहित है, अवस्थित है, उसमें हानि-वृद्धि नहीं होती । इसका अर्थ है कि वह परम उत्कर्ष को प्राप्त है, क्योंकि अवधिज्ञानावरणका सर्वोत्कृष्ट क्षयोपशम वहीं होता है। इससे यह होता है कि देशावधि और परमावधिके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट भेद होते हैं || ३७६ ॥ ३५ १. ब. द्विको जीवः ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६२३ देशावधिजघन्यज्ञानं द्रव्यतः द्रदिदं मध्यमयोगाज्जितमप्प नोकम्मौंदारिकसंचयमं द्वयर्द्धगुणहानिप्रमितसमयप्रबद्ध समूहरूपमं स्वयोग्यविनसोपचयपरमाणुसंयुक्तमं लोकदिदं भागिसल्पटुदं नियमदिदं तावन्मात्रमने जानाति प्रत्यक्षमागरिगुमरदं किरिदनरियदेबुदत्थं । जघन्ययोगाज्जितमप्प नोकम्मौदारिकसंचयक्कल्पत्वमनरिवदक्के सूक्ष्मत्वसंभवदिदं । तद्ग्रहणदोळु तद्ज्ञानक्के शक्तिअभावमप्युदरिदं । उत्कृष्टयोगाज्जितनोकम्मौंदारिकसंचयक्क स्थूलत्वमक्कं तद्ग्रहणदोळु प्रतिषेधरहितत्वदिदमदरिदं नियमदिदं मध्यमयोगाज्जितमप्प नोकम्मौदारिकसंचयद्रव्यनियम पेळल्पटुदु स । । १२-1 १६ ख
सुहुमणिगोदअपज्जत्तयस्स जादस्स तदियसमयम्मि ।
अवरोगाहणमाणं जहण्णयं ओहिखेत्तं तु ।।३७८।। सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तकस्य जातस्य तृतीयसमये । अवरावगाहनमानं जघन्यमवधिक्षेत्रं तु॥ १०
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपप्तिकन पुट्टिद तृतीयसमयदोळावुदोंदु पूर्वोक्तजघन्यावगाहनमानमदु तु मत्ते जघन्यदेशावधिज्ञानविषयमप्प क्षेत्रप्रमाणमक्कुं ६। ८ । २२
प१९। ८९।८।२२। १९
a a
...
देशावधिजघन्यज्ञानं द्रव्यतः मध्यमयोगाजितं नोकौदारिकसंचयं द्वयर्धगुणहानिप्रमितसमयप्रबद्धसमूहरूपं स्वयोग्यविस्रसोप चयपरमाणुसंयुक्तं लोकेन विभक्तं नियमेन तावन्मात्रमेव जानाति-प्रत्यक्षतया अवबुध्यते न ततोऽल्पमित्यर्थः । जघन्ययोगाजितस्य नोकर्मीदारिकसंचयस्य अल्पत्वं ततोऽस्य सूक्ष्मत्वसंभवात् । तद्ग्रहणे १५ तज्ज्ञानस्य शक्त्यभावात् । उत्कृष्टयोगाजितनोकौदारिकसंचयस्य स्थूलत्वं भवति तद्ग्रहणे प्रतिषेधाभावात् ।
तेन नियमान्मध्यमयोगाजितनोकौंदारिकसंचयो द्रव्यनियमः कथितः । स । १२-१६ खं
॥३७७॥
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य उत्पत्तितृतीयसमये यत्पूर्वोक्तजघन्यावगाहनं तत् तु-पुनः जघन्यदेशावधि
मध्यम योगके द्वारा उपार्जित नोकर्म औदारिक शरीरके संचयको, जो डेढ़ गुण हानि प्रमाण समयबद्धोंका समूहरूप है और अपने योग्य विस्रसोपचयके परमाणुओंसे संयुक्त है उसमें लोकराशिसे भाग देनेपर जो एक भाग मात्र द्रव्य होता है, उसे जघन्य देशावधि जानता है। उससे कमको वह नहीं जानता। जघन्ययोगके द्वारा उपाजित नोकर्म औदारिक शरीरका संचय उससे अल्प होनेसे सूक्ष्म होता है। उसको जानने की शक्ति इस ज्ञानकी नहीं है। और उत्कृष्ट योगसे उपाजित नोकर्म औदारिकका संचय स्थूल होता है, उसको जाननेका निषेध नहीं है। तथा विस्रसोपचय रहित सूक्ष्म होता है, इसलिए उसको जाननेकी शक्ति १५ नहीं है । इस प्रकार उक्त संचयके घनलोकके प्रदेश प्रमाण खण्ड करके उनमें से एकखण्डरूप अतीन्द्रिय पुद्गल स्कन्धको सबसे जघन्य देशावधिज्ञान प्रत्यक्ष जानता है, इस प्रकार द्रव्यका नियम कहा है ॥३७७॥
सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकके उत्पत्तिके तीसरे समयमें जो जघन्य अवगाहनाका प्रमाण पहले कहा है,वह जघन्य देशावधि ज्ञानके विषयभूत क्षेत्रका प्रमाण होता है। इतने ३०
।
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गो० जीवकाण्डे इनितु क्षेत्रदोळु पूर्वोक्तजघन्यद्रव्यंगळेनितोळवनितुमं जघन्यदेशावधिज्ञानमरिगुल्लियं पोरगिदर्दुदनरियदेदितु क्षेत्रसीम पेळल्पद्रुदु ।
अवरोहिखेत्तदीहं वित्थारुस्सेहयं ण जाणामो ।
अण्णं पुण समकरणे अवरोगाहणपमाणं तु ॥३७९।' अवरावधिक्षेत्रदैध्य विस्तारोत्सेधकं न जानीमः । अन्यत्पुनः समकरणे अवरावगाहनप्रमाणं तु।
जघन्यावधिविषयक्षेत्रदैग्यविस्तारोत्सेधप्रमाणमं नामरियेवु ईगळदरुपदेशाभावमप्पुरिदं । तु मत्ते परमगुरूपदेशपरंपरायातं मतो दुंदु समकरणदोलु भुजकोटिवेदिगळगे होनाधिकभावमिल्लदे
समीकरणमागुतिरलु पुट्टिद क्षेत्रफलं जघन्यावगाहनप्रमाणं घनांगुलासंख्यातैकभागमात्रमक्कुमें१० बिदने बल्लवु।
अवरोगाहणमाणं उस्सेहंगुलअसंखभागस्स ।
सूइस्स य घणपदरं होदि हु तक्खेत्त समकरणे ॥३८०।। अवरावगाहनमानमुत्सेधांगुलासंख्यातभागस्य । सूच्याश्च घनप्रतरं भवति खलु तत् क्षेत्रसमकरणे।
अंतादोडा सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपर्याप्तकन जघन्यावगाहनमेंतु दंतु प्रश्नमागुत्तिरलुत्तरवचनमिद तज्जघन्यावगाहनमनियतसंस्थानमक्कमादोडं क्षेत्रखंडनविधानदिदं भुजकोटि वेदिगळ्गे समकरणमागुत्तिरलुत्सेधांगुलमं परिभाषानिष्पन्नव्यवहारसूच्यंगुलमनावुदानुमोद संख्यातदिदं खंडिसि
ज्ञानविषयभूतक्षेत्रप्रमाणं भवति ६।८। २२ । एतावति क्षेत्र पूर्वोक्तजघन्यद्रव्याणि यावन्ति संति तावन्ति
२०
प१९ । ८।९।८। २२ । १९
a aa जघन्यदेशावधिज्ञानं जानाति न तदबहिःस्थितानीति क्षेत्रसीमा कथिता ॥३७८॥
जघन्यावधिविषयक्षेत्रस्य दैग्य॑विस्तारोत्सेधप्रमाणं न जानीमः । इदानीं तदुपदेशाभावात् । तु पुनः परमगुरूपदेशपरम्परायातं जघन्यावगाहनप्रमाणं समकरणे-समीकरणे कृते सति घनाङ्गलासंख्यातकभागमात्रं भवति इत्यन्यत्पुनर्जानीमः ॥३७९।।
तहि तत्सूक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तकस्य जघन्यावगाहनं कोदग् अस्ति ? इति चेत्, तदवगाहनं अनियतसंस्थानमस्ति तथापि क्षेत्रखण्डनविधानेन भुजकोटिवेधानां समकरणे सति उत्सेधाङ्गुलपरिभाषानिष्पन्नव्यवहार२५ क्षेत्र में पूर्वोक्त प्रमाणवाले जितने जघन्य द्रव्य होते हैं, उन सबको जघन्य देशावधिज्ञान
जानता है। उस क्षेत्रसे बाहर स्थितको नहीं जानता। इस प्रकार जघन्य देशावधिज्ञानके क्षेत्रकी सीमा कही ॥३७८॥
हम जघन्य देशावधि ज्ञानके विषयभूत क्षेत्रकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई नहीं जानते, क्योंकि इस कालमें उसका उपदेश नहीं प्राप्य है। किन्तु परम गुरुके उपदेशकी परम्परासे ३० इतना जानते हैं कि जघन्य अवगाहनाके प्रमाणका समीकरण करनेपर क्षेत्रफल घनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होता है ॥३७९।।
प्रश्न होता है कि वह सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना कैसी है ? काला उत्तर यह है कि उस जघन्य अवगाहनाका आकार नियत नहीं है। फिर भी क्षेत्र
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका देकभागमात्रभुजकोटिवेदिगळ अन्योन्यगुणकारोत्पन्नघनक्षेत्रं घनांगुलासंख्यातभागमानं खलु परमागमदोळु स्फुटं प्रसिद्धमप्पुदु बक्कुं। तत्समानं जघन्यदेशावधिज्ञानक्षेत्रमक्कुमेदितु तात्पय्यं । तन्न्यासमिठु २२ - गुणिसिदोडे घनांगुलासंख्यातभागमात्रमक्कुं ६ च शब्ददिद
a
a
जघन्यावगाहनमुं जघन्यदेशावधिक्षेत्रमुमीप्रकारमप्पुर्वेदितु समुच्चिसल्पटु।
अवरं तु ओहिखेत्तं उस्सेहं अंगुलं हवे जम्हा ।
सुहेमोगाहणमाणं उवरि पमाणं तु अंगुलयं ॥३८१॥ जघन्यं त्ववधिक्षेत्रं उत्सेधांगुलं भवेद्यस्मात् । सूक्ष्मावगाहनमानमुपरि प्रमाणं त्वंगुलं।
तु मत्त जघन्यदेशावधिज्ञानविषयक्षेत्रमावुदोंदु जघन्यावगाहनसमानं धनांगुलासंख्यातभागमात्र पेळल्पटुददुत्सेधांगुलमक्कुं। व्यवहारांगुलमनाश्रयिसि ये पेळल्पटुदु । प्रमाणात्मांगुल. १० मनायिसि पेळल्पद्रुदिल्लदेकेदोड आवुदोंदु कारणदिवं सूक्ष्मनिगोवलब्ध्यपर्याप्तकजघन्यावगाहसूच्यङ्गलं असंख्यातेन भक्त्वा तदेकभागमात्रभुजकोटिवेधानां अन्योन्यगुणनोत्पन्नघनाङ्गलासंख्यातभागमात्रं खलु परमागमे स्फुटं प्रसिद्धमागच्छति । तत्समानजघन्यदेशावधिज्ञानक्षेत्रमित्यर्थः २ । २ । गुणिते घनाङ्गला
ala!
संख्यातमात्रं भवति ६ ॥३८॥
तु-पुनः, जघन्यदेशावधिज्ञानविषयक्षेत्रं यज्जघन्यावगाहनसमानं घनाङ्गलासंख्यातभागमात्रमुक्तं तदुत्सेधाङ्गलं व्यवहाराङ्गुलमाश्रित्योक्तं भवति न प्रमाणाङ्गुलं नाप्यात्माङ्गुलमाश्रित्य। यस्मात्कारणात् १५ खण्डन विधानके द्वारा भुज, कोटि और वेधका समीकरण करनेपर, उत्सेधांगुलको असंख्यातसे भाजित करके एक भाग प्रमाण भुज कोटि और वेधको परस्परमें गुणा करनेपर घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रफल होता है। उसीके समान जघन्य देशावधिज्ञानका क्षेत्र है।
विशेषार्थ-आमने-सामने दो दिशाओंमें से किसी एक दिशा सम्बन्धी प्रमाणको मुज २० कहते हैं। शेष दो दिशाओंमें से किसी एक दिशा सम्बन्धी प्रमाणको कोटि कहते हैं। ऊँचाई. के प्रमाणको वेध कहते हैं। व्यवहारमें इन्हें ऊँचाई, चौड़ाई, लम्बाई कहते हैं। यहां जघन्य क्षेत्रकी लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई एक सी नहीं है कमती-बढ़ती है। किन्तु क्षेत्रखण्डन विधानके द्वारा समीकरण करनेपर ऊँचाई, चौड़ाई, लम्बाईका प्रमाण उत्सेधांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । उनको परस्परमें गुणा करनेपर घनांगुलके असंख्यातवे भाग प्रमाण घनक्षेत्र- २५ फल होता है । इतना ही प्रमाण जघन्य अवगाहनाका है और इतना ही जघन्य देशावधिके क्षेत्रका है ॥३८०॥
जघन्य देशावधिज्ञानका विषय क्षेत्र जो जघन्य अवगाहनाके समान घनांगुलके असंख्यातवें भागमात्र कहा है वह उत्सेधांगुल व्यवहार अंगुलकी अपेक्षा कहा है, प्रमाणांगुल
७९
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गो० जीवकाण्डे नप्रमाणं जघन्यदेशावधिक्षेत्रमदु कारणदिवं व्यवहारांगुलमनायिसिये पेळल्पटुटुं। तज्जधन्यावगाहनमुं परमागमदोळु वेहगेहप्रामनगरादिप्रमाणमुत्सेधांगुलविंदमे येदितु नियमितमप्पुरिवं व्यवहारांगुलाश्रितमे यक्कुं। मेले यावुदो डयोळंगुलमावळिया एकभागमसंखेज्जमित्यादिगाथा
सूत्रोक्तकांडकंगळोळु अंगुलग्रहणमल्लि प्रमाणांगुलमे ग्राह्यमक्कुमुत्तरोत्तर निद्दिश्यमानहस्तगव्यूति५ योजनभरतादिक्षेत्रंगळगे प्रमाणांगुलाश्रितत्वदिद।
अवरोहिखेत्तमज्झे अवरोही अवरदव्वमवगमइ ।
तद्दव्वस्सवगाहो उस्सेहासंखघणपदरो ॥३८२।। अवरावधिक्षेत्रमध्ये अवरावधिरवरद्रव्यमवगच्छति । तद्रव्यस्यावगाहः उत्सेधासंख्यघनप्रतरः।
जघन्यावधिक्षेत्रमध्यदोलिरुतिई पूर्वोक्तजघन्यद्रव्यमं जघन्यदेशावधिज्ञानमरिगं। तत् क्षेत्रमध्यदोलिरुतिई असंख्यातंगळनौवारिकशरीरसंचयलोकभक्तकभागप्रमितखंडंगळननितुमनरिगुमें बुदत्यं । तज्जघन्यपुद्गलस्कंधद मेले एकद्वयादिप्रदेशोत्तरपुद्गलस्कंधंगळनरिगुमेंबुदनिल्लि पेळल्वेडेके दोडे सूक्ष्मविषयज्ञानक्के स्थूलावबोधनदोळु सुघटत्वमप्पुरिदं। द्रव्यावगाहक्षेत्रं जघन्या
वधिविषयक्षेत्रमं नोडलसंख्येयगुणहीनमक्कुमादोडं उत्सेघधनांगुलासंख्यातभागमात्रमक्कुं। मदर १५
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तकजघन्यावगाहनप्रमाणं जघन्यदेशावधिक्षेत्रं ततः कारणात्, देहगेहग्रामनगरादिप्रमाणं उत्सेधाङ्गलेनैवेति परमागमे नियमितत्वात् व्यवहाराङ्गलमेवाश्रितं भवति । उपरि यत्र “अङ्गलमावलियाए भागमसंखेज्जदो वि संखेज्जो, इत्यादिगाथासूत्रोक्तकाण्डकेषु अङ्गलग्रहणं तत्र प्रमाणाङ्गुलमेव ग्राह्यं, उत्तरोत्तरनिदिश्यमानहस्तगव्य तियोजनभरतादिक्षेत्राणां प्रमाणागलाश्रितत्वात ॥३८१॥
जघन्यावधिक्षेत्रमध्ये स्थितं पूर्वोक्तं जघन्यद्रव्यं जघन्यदेशावधिज्ञानं जानाति तत्क्षेत्रमध्यस्थितानि औदारिकशरीरसंचयस्य लोकविभक्तकभागप्रमितखण्डानि असंख्यातानि जानातीत्यर्थः । तज्जघन्यपुद्गलस्कन्धस्योपरि एकद्वयादिप्रदेशोत्तरपुद्गलस्कन्धान् न जानातीति न वाच्यं, सूक्ष्मविषयज्ञानस्य स्थूलावबोधने सुघटत्वात् । द्रव्यावगाहक्षेत्रं तु जघन्यावधिविषयक्षेत्रादसंख्यातगुणहीनं भवति, तथाप्युत्सेधघनाङ्गुलासंख्यातया आत्मांगुलकी अपेक्षा नहीं, क्योंकि सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना
प्रमाण जघन्य देशावधिका क्षेत्र है। और परमागममें यह नियम कहा है कि शरीर, घर, २५ प्राम, नगर आदिका प्रमाण उत्सेधांगुलसे ही मापा जाता है। इसलिये व्यवहार अंगुलका ही
आश्रय लिया है। आगे 'अंगुलमावलियाए' आदि गाथासूत्रोंमें कहे गये काण्डकोंमें अंगुलका प्रमाण प्रमाणांगुलसे लिया है । उससे आगे भी जो हस्त, गन्यूति, योजन भरत आदि प्रमाण क्षेत्र कहा है,वह सब प्रमाणांगुलसे ही लिया है।॥३८॥
जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रके मध्यमें स्थित पूर्वोक्त जघन्य द्रव्यको जघन्य देशावधिज्ञान जानता है । अर्थात् उस क्षेत्रके मध्यमें औदारिक शरीरके संचयको लोकसे भाग देनेपर एक भाग प्रमाण जो असंख्यात खण्ड स्थित हैं, उनको जानता है। उस जघन्य पुद्गल स्कन्धसे ऊपर एक-दो आदि अधिक प्रदेशवाले स्कन्धोंको वह नहीं जानता, ऐसा नहीं है। क्योंकि जो ज्ञान सूक्ष्मको जानता है, वह स्थूलको जानने में समर्थ होता है। द्रव्यकी
अवगाहनाका प्रमाण जघन्य अवधिके विषयभूत क्षेत्रके प्रमाणसे असंख्यात गुणाहीन ३५ १. ब, तन्यसंख्याखण्डानि जा।
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका भुजकोटिवेदिगळु सूच्यंगुलासंख्यातेकभागमात्रंगळरियल्पडुवुवु
२ २ ।
aa aa
aa
आवलि असंखभागं तीद भविस्सं च कालदो अवरं ।
ओही जाणदि भावे काल असंखेज्जभागं तु ॥३८३॥ आवल्यसंख्यभागं अतीतं भविष्यं तं च कालतोवरावधिज्जानाति भावे कालासंख्येय भागं तु।
कालदिदं जघन्यावधिज्ञानं अतीत भविष्यकालमनावल्यसंख्यातभागमात्रमनरिगुं ८ स्वविषयैकद्रव्यगतव्यंजनपव्यंगळनावल्यसंख्यातैकभागमात्रपूवोंत्तरंगळ नरिगुबुदत्थं । एकेदोड व्यवहारकालक द्रव्यद पायस्वरूपमल्लदन्यत् स्वरूपांतराभावमप्पुरिदं । भावे भावदोळु तु मत्ते कालासंख्येयभागं तज्जघन्यावधिविषयकालावल्यसंख्यातेकभागद असंख्येयभागमात्रमनरिगुं। इंतु जघन्यदेशावधिज्ञानविषयद्रव्यक्षेत्रकालभावं गळ्गे सीमाविभागमं पेन्दु तद्देशावधिज्ञान- १० विकल्पंगळं चतुम्विधविषयभेदविदं पेब्दपं।। भागमात्रमेव भवति । तद्भुजकोटिबेधाः सूच्यङ्गलासंख्यातेकभागमात्रा ज्ञातव्याः २ २ ॥३८२॥
aaaa २
aa कालेन जघन्यावधिज्ञानं अतीतभविष्यत्कालमावल्यसंख्यातभागमात्र जानाति ८ । स्वविषयैकद्रव्यगत
व्यञ्जनपर्यायान् पूर्वोत्तरान् तावतो जानातीत्यर्थः । व्यवहारकालस्य द्रव्यस्य पर्यायस्वरूपं विनाऽन्यस्वरूपान्तराभावात् । भावे तज्जघन्यद्रव्यगतवर्तमानपर्याये तु पुनः कालासंख्येयभागं तज्जघन्यावधिविषयकालस्यावल्यसंख्यातकभागस्य असंख्यातेकभागमात्रं जानाति ८ । एवं जघन्यदेशावधिज्ञानविषयद्रव्यक्षेत्रकालभावानां सी-१५
aa माविभागं प्ररूप्येदानी द्वितीयादीन् देशावधिज्ञानविकल्पान् चतुर्विधविषयभेदानाहहोता है। तथापि धनांगुलके असंख्यातवें भाग मात्र ही होता है। उसके भुजा, कोटि और वेध सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र हैं ।।३८२॥
'कालकी अपेक्षा जघन्य अवधिज्ञान आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अतीत और अनागतकालको जानता है। अर्थात् अपने विषयभूत एक द्रव्यकी अतीत और अनागत २० व्यंजनपर्यायोंको आवलीके असंख्यातवें भागमात्र जानता है, क्योंकि व्यवहारकालके और द्रव्यके पयोय स्वरूपके बिना अन्य स्वरूप सम्भव नहीं है। भावकी अपेक्षा उस जघन्य द्रव्यगत वर्तमान पर्यायोंको कालके असंख्यातवें भाग जानता है अर्थात् जघन्य अवधिका विषय जो आवलीके असंख्यातवें भागमात्र काल है,उसके असंख्यातवें भागमात्र अर्थपर्यायोंको जानता है ॥३८३॥
इस प्रकार जघन्य देशावधिज्ञानके विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी सीमाका । विभाग कहकर अब देशावधिज्ञानके द्वितीय आदि विकल्पोंके विषयभूय द्रव्यादिको कहते हैं
२५
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गो० जीवकाण्डे अवरद्दव्वादुवरिमदव्ववियप्पाय होदि धुवहारो।
सिद्धाणंतिमभागो अभव्वसिद्धादणंतगुणो ॥३८४।। अवरद्रव्यादुपरितनद्रव्यविकल्पाय भवति ध्र वहारः। सिद्धानंतैकभागोऽभव्यसिद्धादनंतगुणः ॥
जघन्यदेशावधिज्ञानविषयद्यदिदं मेलणनंतरदेशावधिज्ञानविकल्पविषयद्रव्यविकल्पमं तरल्वेडि सिद्धानंतैकभागमुमभव्यसिद्धानंतगुणमुमप्प ध्र वभागहारमरियल्पडुगं।
धुवहारकम्मवग्गणगुणगारं कम्मवग्गणं गुणिदे।
समयपबद्धपमाणं जाणिज्जो ओहिविसयम्मि ॥३८५॥
ध्रुवहारकार्मणवर्गणागुणकारं कार्मणवर्गणां गुणिते। समयप्रबद्धप्रमाणं ज्ञातव्यमवधि१० विषये ॥
कार्मणवर्गणाया गणकाराः कोर्मणवर्गणागुणकाराः ध्रुवहाराश्चेते कार्मणवर्गणागुणकाराश्च ध्रुवहारकार्मणवर्गणागुणकारास्तान् । कार्मणवर्गणां च गुणितेऽवधिविषये समयप्रबद्धप्रमाणं भवतीति ज्ञातव्यं । गुण्यरूपदिनिई कार्मणवणगे गुणकाररूपदिनिर्द ध्रुवहारंगळं कार्मणवर्गणयुमं गुणिसुत्तिरलु अवधिविषयसमयप्रबद्धप्रमाणमक्कुमदु ज्ञातव्यमक्कुं।
जघन्यदेशावधिविषयद्रव्यात् उपरितनद्वितीयाद्यवधिज्ञानविकल्पविषयद्रव्याणि आनेतुं सिद्धानन्तकभागः, अभव्यसिद्धेभ्योऽनन्तगुणः ध्रुवभागहारः स्यात् ॥३८४॥
द्विरूपोनदेशावधिविकल्पमात्रध्रुवहाराद् गत्युत्पन्नेन कार्मणवर्गणागुणकारेण द्विरूपाधिकपरमावधिज्ञानविकल्पमात्रध्रुवहारसंवर्गसमुत्पन्नकार्मणवर्गणा गुणिता सती अवधिविषये समयप्रबद्धमात्रप्रमाणं स्यादिति
जघन्य देशावधि ज्ञानके विषयभूत द्रव्यसे ऊपर द्वितीय आदि अवधिज्ञानके भेदोंके २. विषयभूत द्रव्योंको लानेके लिए सिद्ध राशिका अनन्तवाँ भाग और अभव्य राशिसे अनन्तगुणा ध्रुवभागहार होता है।
विशेषार्थ--पूर्वपूर्व द्रव्यमें जिस भागहारका भाग देनेसे आगेके भेदके विषयभूत द्रव्यका प्रमाण आता है वह ध्रुव भागहार है । जैसे जघन्य देशावधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यमें
भाग देनेसे जो प्रमाण आता है, वह उसके दूसरे भेदके विषयभूत द्रव्यका प्रमाण होता २५ है ॥३८४||
देशावधिज्ञानके विकल्पोंमें दो घटानेपर जितना प्रमाण रहे, उतनी जगह ध्रुवहारोंको स्थापित करके परस्परमें गुणा करनेपर जितना प्रमाण होता है,उतना कार्मण वगंणाका गुणकार होता है । और परमावधिज्ञानके विकल्पोंमें दो अधिक करनेपर जितना प्रमाण हो,
उतनी जगह ध्रुवहारोंको स्थापित करके परस्परमें गुणा करनेपर जितना प्रमाण हो,वह १० कार्मणवर्गणा होती है। कार्मणवर्गणाके गुणकारसे कार्मणवर्गणाको गुणा करनेपर जो प्रमाण
हो, वह अवधिज्ञानका विषय समयप्रबद्ध जानना। अर्थात् जो जघन्य देशावधिका विषय१. ध्रुवहारक्के संदृष्टि नवांकं तत्प्रमाणं मुंद पेळल्पडुगुमोग पेवुदेक दौड देशावधिय चरमद्रव्याविकल्पंगळं बिटु त्रिचरमदोळ्तोडगि प्रथमविकल्पपर्य्यतमेकादयेकोत्तरक्रमदिनिळिदिळिदु बंदु प्रथमविकल्पदोळ तावन्मात्रध्र वहारंगळि कार्मणवर्गणेयं गुणियिसिद लब्धप्रमाणसमानं प्रथमद्रव्यमबुदत्थं ॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका विशेषदिदं ध्र वहारप्रमाणमं पेळ्दपं:
मणदव्वबग्गणाण वियप्पाणंतिमसमं खु धवहारो।
अवरुक्कस्सविसेसा रूवहिया तबियप्पा हु ॥३८६॥ मनोद्रव्यवर्गणानां विकल्पानामनंतैकभागसमः स्फुटं ध्र वहारः । अवरोत्कृष्टविशेषाः रूपाधिकास्तद्विकल्पाः खलु ॥
ध्रुवहारप्रमाणमरियल्पडुगुमदते दोडे मनोद्रव्यवर्गणगळ विकल्पंगळिनितोळवनि ज १
ख
ख
तदनंतैकभागदोडन ज १ समानमक्कुं। खलु स्फुटमागि। अंतादोडा मनोद्रव्यवर्गणाविकल्पंगळतामेनितप्पुर्वेदोडे पेळल्पडुगुं । अवरोत्कृष्टविशेषाः रूपाधिकास्तद्विकल्पाः खलु जघन्यमनोद्रव्यवर्गणेयनुत्कृष्टमनोद्रव्यवर्गणयोळकळेदुळिद शेषदोळेकरूपं कूडुत्तिरला मनोद्रव्यवार्गणाविकल्पंगळप्पुवु । आदी । ज । अन्ते ज ख सुद्धे ज १ वढिहिदे ज १ रूवसंजुदे ठाणा १०
ख ख
ख १ ‘ज ई स्थानविकल्पंगळनंतैकभागदोडने ज_समानं ध्र वहारप्रमाणमक्कुम बुदर्थमंतादोडा धयोत्कृष्टमनोद्रव्यवर्गणेगळ प्रमाणमेनित दोडे पेळ्दपं :
अवरं होदि अणंतं अणंतभागेण अहियमुक्कस्सं ।
इंदि मणभेदाणंतिमभागो दवम्मि धुवहारो ॥३८७॥ अवरो भवत्यनंतोऽनंतभागेनाधिक उत्कृष्ट, इति मनोभेदानामनंतैकभागो द्रव्ये ध्रुवहारः॥ १५ ज्ञातव्यम् ।।३८५।। विशेषेण ध्रुवहारप्रमाणमाह
मनोद्रध्यवर्गणाया यावन्तो विकल्पास्तेषामनन्तकभागेन समं संख्यया समानं खलु ध्र वहारप्रमाणं
ख
ख
स्यात् । ते च विकल्पाः कति ? मनोवर्गणाजघन्यं ज तदुत्कृष्टे ज ख विशोध्य शेषे ज रूपाधिकीकृते एतावन्तः
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ज खलु स्युः ॥३८६॥ ते जघन्योत्कृष्ट प्रमाणयति
भूत द्रव्य कहा था, उसे ही यहां समयप्रबद्धके रूपमें स्थापित किया है। इसमें ही ध्रुवहारका २० भाग दे-देकर आगेके विकल्पोंके विषयभूत द्रव्य लायेंगे ॥३८५।। __ सामान्य रूपसे ध्रुवहारका प्रमाण सिद्धराशिके अनन्तवें भाग कहा। अब विशेष रूपसे ध्रुवहारका प्रमाण कहते हैं
___मनोद्रव्यवर्गणाके जितने भेद हैं उनके अनन्त भागकी संख्याके बराबर ध्रुवहारका प्रमाण है। मनोवर्गणाके जघन्यको मनोवर्गणाके उत्कृष्टमें-से घटाकर जो प्रमाण शेष रहे २५ उसमें एक जोड़नेपर मनोवर्गणाके भेदोंका प्रमाण होता है ॥३८६।।
आगे मनोवर्गणाके जघन्य और उत्कृष्ट भेदका प्रमाण कहते हैं
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गो. जीवकाण्डे जघन्यमनोद्रव्यवर्गणाप्रमाणमनंत मदर । ज। अनंतैकभागदिनधिकमुत्कृष्टमनोद्रव्यवर्गणाप्रमाणमक्कु ज ख मिंतु मुंपेळ्द क्रमदिदमादियंते सुद्धे इत्यादिविधानदिदं तरल्प?
ख
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मनोद्रव्यवर्गणाविकल्पंगळ ज १ अनंतकभागदोडने ज १ अवधिविषयद्रव्यविकल्पंगळोळु पुगुव ध्रुवहारप्रमाणं समानमेंदु निश्चयिसुवुदु ॥ अथवा :
धुवहारस्स पमाणं सिद्धाणंतिमपमाणमेत्तं पि ।
समयपबद्धणिमित्तं कम्मणवग्गणगुणादो दु ॥३८८॥ ध्रुवहारस्य प्रमाणं सिद्धानंतैकभागप्रमाणमात्रमपि। समयप्रबद्धनिमित्तं कार्मणवर्गणागुणात्तु ॥
होदि अणंतिमभागों तग्गुणगारोवि देसओहिस्स ।
दोऊणदव्वमेदपमाणं धुवहारसंवग्गो ॥३८९॥ भवत्यनंतैकभागस्तद्गुणकारोपि देशावद्धिरूपोनद्रव्यभेदप्रमाणध्रुवहारसंवर्गः ॥
ध्रुवहारप्रमाणं सिद्धानंतैकभागप्रमाणमात्रमादोडमवधिविषयसमयप्रबद्धनिश्चयनिमित्तं कार्मणवर्गणागुणकारमं नोडलु तु मत्ते अनंतैकभागमक्कुमा कार्मणवर्गणागुणकारमुं देशावधि
ज्ञानद्विरूपोनद्रव्यविकल्पप्रमितध्रुवहारंगळ संवर्गमक्कुमा देशावधिज्ञानद्रव्यविकल्पंगळेनित दोडे १५ पेळल्पडुगु ।
देशावधिद्रव्यविकल्परचनयोळु त्रिचरमदेशावधिद्वव्यविकल्पदोळु गुण्यरूपकार्मणवर्गणगे मनोद्रव्यवर्गणाजघन्यं अनन्तो भवति । तदनन्तकभागेनाधिकमुत्कृष्टं भवति इत्येवमुक्तरीत्या मनोद्रव्य
वर्गणाविकल्पानामनन्तकभागः ख ख अवधिविषयद्रव्यविकल्पेषु ध्र वहारप्रमाणं ज्ञातव्यम् । अथवा
ध्रुवहारप्रमाणं सिद्धानन्तकभागमात्रमपि अवधिविषयसमयप्रबद्धप्रमाणमानेतुं उक्तस्य कार्मणवर्गणा२० गुणकारस्य अनन्तकभागमात्र स्यात् । स च गुणकारोऽपि कियान् ! देशावधिज्ञानस्य द्विरूपोनद्रव्यभेदमात्र
मनोवर्गणाका जघन्य भेद अनन्त प्रमाण है। अर्थात् अनन्त परमाणुओंके स्कन्धरूप जघन्य मनोवगणा है। उसमें अनन्तका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे, उसे उस जघन्य भेदमें जोडनेपर उसीके उत्कृष्ट भेदका प्रमाण होता है। इस प्रकार मनोद्रव्य वर्गणाके
विकल्पोंके अनन्त भाग अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्योंके विकल्पोंमें ध्रुवहारका प्रमाण २५ है ।।३८७॥
यद्यपि ध्रुवहारका प्रमाण सिद्ध राशिके अनन्तवें भाग है, किन्तु अवधिज्ञानके विषयभूत समयप्रबद्धका प्रमाण लानेके लिए पहले कहे कामणवर्गणाके गुणकारका अनन्तवाँ भाग है। और वह गुणकार देशावधिज्ञानके द्रव्यकी अपेक्षा भेदोंमें दो घटाकर जो प्रमाण
शेष रहे,उतनी जगह ध्रवहारोंको रखकर परस्परमें गुणा करनेसे जो प्रमाण हो, उतना है। ३० इतना प्रमाण कैसे कहा, सो कहते हैं-देशावधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यकी रचनामें उत्कृष्ट
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पोक्कध्रुवहारगुणकारमोदु तदनंतराधस्तनविकल्पदोळेरडु ध्रुवहारगुणकारंगळप्पुवी क्रमदिदमिळिदिळिदु देशावधिजघन्यद्रव्यपथ्यंतमविच्छिन्नरूपदिनेकाोकोत्तरक्रमदिदं पोक्क ध्र वहारगुणकारंगळु सर्वजघन्यदेशावधिज्ञानविषयद्रव्यविकल्पदलिल कार्मणवर्गणेगे पोक्क ध्रुवहारगुणकारंगळेनितप्पुर्व दोडे देशावधिद्रव्यसनविकल्पसंख्ययोळु -६ । २ द्विरूपहीनमात्रंगळप्पुवु संदृष्टिव अवनितुमं परस्परसंवर्ग माडिदोडे गुण्यरूपकार्मणवर्गणेय गुणकारप्रमाण- १
aa
vdoo to ०००
व ९९९९
व ६।२९
aa मक्कुमी कार्मणवर्गणागुणकारदनंतैकभागं ध्र वहारप्रमाणमें बुदर्थमा गुण्यरूपकार्मणवर्गणेयुममी कार्मणवर्गणागुणकारमुमं गुणिसुत्तिरलु जघन्यदेशावधिज्ञानविषयवदि पेळल्पट्ट नोकौदारिका ध्र वहारसंवर्गमात्रः स्यात् । कुतः ? तद्र्व्यरचनायामस्यांव त्रिचरमविकल्पादेकाद्यकोत्तरक्रमेण अधोऽधो गत्वा प्रथमविकल्पे कार्मणवर्गणायाः तावतां ध्र वहाराणां
व ९
ब ५९। व ९९९। व ९९९९।
loo ० ० ०
०१- २ वक-६। २९
पa
a
गुणकारत्वेन सद्भावात् । गुण्यगुणकारे गुणिते प्रागुक्तो लोकविभक्तैकखण्डमात्रनोकमौदारिकसंचय एव १० अन्तिम भेदका विषय कार्मणवर्गणामें एक बार ध्रुवहारका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे, उतना है। उसके नीचे द्विचरम भेदका विषय कार्मणवर्गणा प्रमाण है। उनके नीचे त्रिचरम भेदका विषय कामणवर्गणाको एक बार ध्रुवहारसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना है। उसके नीचे चतुर्थ चरम भेदका विषय दो बार ध्रुवहारसे कार्मणवर्गणाको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतना है । इस प्रकार एक बार अधिक ध्रुवहारसे कार्मणवर्गणाको गुणा करते-करते १५ दो कम देशावधिके द्रव्यभेद प्रमाण ध्रुवहारोंको परस्परमें गुणा करनेसे जो गुणाकार का प्रमाण हुआ, उससे कार्मणवर्गणाको गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है, वही जघन्य देशावधिज्ञानके
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६३२
संचयलोकविभक्तैखंडप्रमाणमेयक्कुमेदु निश्चयिसुवुदु स १२ - १६ ख इन्नु देशावधिविषय
अ
सर्व्वद्रव्य विकल्पंगळे निते दोडे पेदपं :
अंगुल असंखगुणिदा खेत्तवियप्पा य दव्वभेदा हु । खेत्तवियप्पा अवरुक्कस्सविसेसं हवे एत्थ ॥ ३९० ॥
अंगुला संख्यातगुणिताः क्षेत्रविकल्पाश्च द्रव्यभेदाः खलु । क्षेत्रविकल्पा अवरोत्कृष्टविशेषो
भवेदत्र ।
सूच्यंगुला संख्यातैक भाग गुणित क्षेत्र विकल्पंग देशावधिज्ञानविषय सर्व्वद्रव्य भेदंगळवु । खलु स्फुटमागि। अंतादोडा क्षेत्रविकल्पंगळतामनिते दोडे अत्र इल्लि अवधिविषयदोळ क्षेत्रविकल्पाः क्षेत्र विकल्पंग अवरोत्कृष्टविशेषो भवेत् । जघन्यदेशावधिज्ञानविषय सूक्ष्मनिगोदल ध्यपर्थ्यामक१० जघन्यावगाहप्रमितजघन्यक्षेत्रमनिद ६ । ८ । २२ नपततमं घनांगुलासंख्या
गो० जीवकाण्डे
प्
a
तैकभागमात्र ६ नुत्कृष्टदेशावधिज्ञानविषयक्षेत्रंलोकप्रमित मदरोळेदुळिदुवेनितोळवनि
प
a
= ६ इवं सूच्यंगुला संख्यातदिदं गुणिसिलब्धराशियोळेकरूपं कूडुत्तिरलु देशावधिद्रव्य
प
a
विकल्पं गळप्पुवु -
檢
მ
प १९ । ८९ । ८ । २२ । ७९ १९८९
a
a
स्यात् । --स १२ - १६ ख ३।८ || ३८९ ।। देशावधिद्रव्यविकल्पान् प्रमाणयति -
६ । २ एक दोडे देशावधि जघन्यद्रव्य विकल्पं मोदल्गोंडु ध्रवहारभक्त
प
a
१५
सूच्यङ्गुलासंख्यातैकभागगुणित देशावधिविषयसर्वक्षेत्र विकल्पाः खलु तद्विषयद्रव्यविकल्पा भवन्ति, तेच क्षेत्र विकल्पाः अत्र देशावधिविषये जवरे जघन्यक्षेत्र ६ तद्विषयोत्कृष्टक्षेत्र विशोधिते शेषमात्रा भवन्ति-६
प
a
विषयभूत द्रव्यका प्रमाण है जो लोकसे भाजित नोकर्म औदारिक शरीरका संचय प्रमाण है । विशेषार्थ - यहाँ उत्कृष्ट भेदसे लेकर जघन्य भेद पर्यन्त रचना कही है, इससे प्रकार गुणाकारका प्रमाण कहा है। यदि जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट भेदपर्यन्त रचनाकी जावे, तो क्रमसे ध्रुवहारका भाग देते जाइए । अन्तिम भेद में कार्मणवर्गणाको एक बार ध्रुवहारसे भाग देनेपर द्रव्यका प्रमाण आ जाता है ||३८८-३८९ ॥
२०
प
a
अब देशावधिके द्रव्यकी अपेक्षा विकल्प कहते हैं
देशावधिके विषयभूत क्षेत्रकी अपेक्षा जितने विकल्प हैं, उनको सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर देशावधिके विषयभूत द्रव्यकी अपेक्षा भेद होते हैं ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६३३
कैकभागमात्रद्रव्यविकल्पंगळु सूच्यंगुला संख्या तैकभागमात्रंगळु नडेनडदेकैक प्रदेश क्षेत्र वृद्धियागुत्तं पोगियुत्कृष्टदेशावधिय सर्वोत्कृष्टद्रव्यक्षेत्र विकल्पं पुट्टिदागळु तदुत्कृष्टक्षेत्रं संपूर्ण लोकमादुदु कारणदिदं । आदिक्षेत्रमनंत्यक्षेत्रदोळकळेदु सूच्यंगुलासंख्यातदिदं गुणिसि लब्धदोळोंदु रूपं कूडिदोडे देशावधिज्ञानविकल्पंगळं द्रव्यविकल्पंगमविवक्कं कसं दृष्टिदेशावधिद्युत्कृष्टद्रव्यक्षेत्रगळु इल्लि जघन्यक्षेत्रमनुत्कृष्टक्षेत्रदोळकळेदु शेषम ४ नंगुलासंख्यातकांडकर
४
२
૪
८
७
४२
४२२
४२२२
४२२२२
४२२२२२
५
४२२२२२२ ४
४२२२२२२२ ४
द्रव्य
क्षेत्र
७
६
६
५
डर गुणिस एकरूपं कूडिदोडे - ४ । २ देशावधिस द्रव्य विकल्पंगळप्पुवु । ९ ।
सुद्धे वहिदे रुवसंजुदे ठाणा' । दिदी स्थानविकल्पमं साधिसुव करणसूत्रक्के व्याख्यानं विरोधमागि बक्कुमे नवे डेके दोडिल्लि चशब्दमनर्थकवचनमप्पुदरिनल्लि किंचिदिष्टज्ञापनमक्कुमदेदोडे ग्रंथकारं 'खेत्तवियप्पा अवरुक्कस्सविसेसं हवे एत्थ' एंदु जघन्योत्कृष्टंगळं शेषेसुत्तिरलल्लि क्षेत्र विकल्पंगळे दु पेदोडल्लि कूडुवेकरूपं बेरिरिसि सूच्यंगुला संख्यार्ताददं गुणिसि लब्धदोळारूपं कूडिदोड द्रव्यविकल्पंगळ प्रमाणमप्पुदेबी विशेषसूचकमक्कुं ।
रूपयुतक्षेत्र विकल्पंगळं सूच्यंगुलासंख्यातदिदं गुणिसिदोडे दृष्टेष्टविरोधमक्कुमर्द ते दोर्ड अंकसंदृष्टियोलु रूपयुतक्षेत्रविकल्पंगळ ४ इवं कांडकमप्पेरर्डारिदं गुणिसिदोर्ड पत्तु १० । इ
एते एवं सूच्यङ्गुला संख्यातेन गुणयित्वा एकरूपयुताः देशावधि सर्वद्रव्यविकल्पाः स्युः ६ । २ कुतः ?
प a
१०
a
जघन्यद्रव्यं ध्रुवहारेण भक्त्वा भक्त्वा सूच्यङ्गुला संख्येयभागमात्रद्रव्यविकल्पेषु गतेषु जघन्यक्षेत्रस्योपर्येकप्रदेशो और वे क्षेत्रकी अपेक्षा विकल्प इस प्रकार हैं- देशावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रमें जघन्य क्षेत्रको घटाने पर जो प्रदेशका प्रमाण शेष रहता है, उतने क्षेत्रको अपेक्षा विकल्प हैं । उनको ही सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणा करके एक जोड़नेपर देशावधिके द्रव्यकी अपेक्षा विकल्प होते हैं | वह कैसे यह कहते हैं - जघन्य द्रव्यको ध्रुवहारसे भाग देते-देते सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्यके भेद बीतनेपर जघन्य क्षेत्रके ऊपर एक प्रदेश बढ़ता है। इसी प्रकार लोकप्रमाण उत्कृष्ट देशावधिक्षेत्र पर्यन्त जानना । इसका आशय यह है कि सूच्यंगुलके २० असंख्यातवें भागपर्यन्त द्रव्यके विकल्प होने तक क्षेत्र वही रहता है जो जघन्य भेदका विषय था । इतने विकल्प बीतनेपर क्षेत्र में एक प्रदेशकी वृद्धि होती है । पुनः सूच्यंगुलके असंख्यातवें
८०
१५
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६३४
गो० जीवकाण्डे द्रव्यविकल्पंगळल्तु द्विरूपहीनद्रव्यविकल्पमात्रध्रुवहारसंवर्गमे वर्गणागुणकारमें बल्लि येळ मादेंटक्क प्रसंगमक्कुमंतुमल्लदेयं रूपयुतमल्लद क्षेत्रविकल्पमं। ४ । कांडकदिदं गुणिसि लब्धदोळेकरूपं कूडिदोडे । ४।२। अदु देशावधिद्रव्यविकल्पप्रमाणमल्तु । द्विरूपोनद्रव्यविकल्पमात्र ध्रुवहारसंवर्गमे वर्गणागुणकारमें बल्लि एलुमादारक प्रसंगमक्कुंमप्पुरिदमन्तुमल्तु दृष्टविरोधमुमागमविरोधमुमप्पुरिदं रूपयुतमल्लद क्षेत्रविकल्पमं कांडकदिदं गुणिसि लब्धदोळोदु रूपं कूडिदोडे देशावधिद्रव्यविकल्पमों भत्तेयप्पुविदुनिबर्बाधबोधविषयमक्कुं। अंतादोडा जघन्योत्कृष्टदेशावधिज्ञानविषयजघन्योत्कृष्टक्षेत्रविकल्पंगळावुवेदोडे पेन्दपं ।
अंगुलअसंखभागं अवरं उक्कस्सयं हवे लोगो ।
इदि वग्गणगुणगारो असंख धुवहारसंवग्गो ॥३९१।। अंगुलासंख्यातभागोऽवरः उत्कृष्टो भवेल्लोकः। इतिवर्गणागुणकारोऽसंख्यध्रुवहारसंवर्गः। अंगुलासंख्यातभागः मुंपेळ्द घनांगुलासंख्यातेकभागमप्प लब्ध्यपर्याप्तकजघन्यावगाहप्रमाणमे अवरः जघन्यक्षेत्रविकल्पप्रमाणमक्कुमुत्कृष्टो भवेल्लोकः । उत्कृष्टक्षेत्रविकल्पं संपूर्णलोकप्रमाणमक्कु- मितु वर्गणागुणकारमसंख्य ध्र वहारसंवर्गप्रमितमक्कुं। द्विरूपोनदेशावधिज्ञानविषयसर्व
द्रव्यविकल्प प्रमित ध्र वहारसंवार्गजनितलब्धप्रमितं वर्गणागुणकारप्रमाणमें बुदत्यं । १५ वर्धते अनेन क्रमेण लोकमात्रक्षेत्रोत्पत्तिपर्यन्तं गमनिकासद्भावात् अवशिष्टप्रथमद्रव्यविकल्पस्य पश्चाग्निक्षेपात् ॥३९०॥ ते जघन्योत्कृष्टक्षेत्र संख्याति
अवरं जघन्यदेशावधिविषयक्षेत्र सुक्ष्म निगोदलब्ध्यपर्याप्तकजधन्यावगाहप्रमाणमिदं६। ८ । २२
व १प१९।८।९।८। २२ । । ९ aaa अपतितं घनागलासंख्यातभागमानं भवति ६ उत्कृष्टं लोकः जगच्छेणिघनो भवति इत्येवं द्विरूपोनदेशावधि
२० सर्वद्रव्यविकल्पमात्रासंख्यध्र वहारसंवर्ग एव कार्मणवर्गणागुणकारः स्यात् ॥३९१॥ अथ क्रमप्राप्तं वर्गणा
प्रमाणमाह
भाग द्रव्य के विकल्प होने तक क्षेत्र एक प्रदेश अधिक उतना ही रहता है। उसके पश्चात् क्षेत्रमें पुनः एक प्रदेश बढ़ता है। इस तरह प्रत्येक सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग द्रव्यके
विकल्प होनेपर क्षेत्रमें एक-एक प्रदेशकी वृद्धि उत्कृष्ट क्षेत्र लोक पर्यन्त प्राप्त होने तक होती २५ है । इसीसे क्षेत्रकी अपेक्षा विकल्पोंको सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर द्रव्यकी
अपेक्षा विकल्प कहे हैं। इनमें पहला द्रव्यका भेद पीछेसे मिलाया,वह अवशेष था,अतः एकको मिलाना कहा ॥३९०॥
अब देशावधिके उन जघन्य और उत्कृष्ट क्षेत्रोंको कहते हैं
जघन्य देशावधिका विषयभूत क्षेत्र सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहना ३० प्रमाण धनांगुलका असंख्यातवें भाग मात्र होता है। उत्कृष्ट क्षेत्र जगत् श्रेणिका घनरूप
लोक-प्रमाण है। इस प्रकार देशावधिके समस्त द्रव्यकी अपेक्षा विकल्पोंमें दो कम करके
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६३५ वग्गणरासिपमाणं सिद्धाणंतिमपमाणमेत्तंपि ।
दुगसहियपरममेदपमाणवहाराणसंवग्गो ॥३९२॥ वर्गणाराशिप्रमाणं सिद्धानंतैकभागप्रमाणमात्रमपि। द्विकसहितपरमभेदप्रमाणावहाराणां संवर्गः॥
__ वर्गणाराशिप्रमाणं इन्ना कार्मण वर्गणाराशिप्रमाणं ताने तु दोडे सिद्धानंतक भागप्रमाण- ५ मात्रमपि सिद्धराश्यनंतैकभागप्रमाणमप्पुदंतादोडं द्विकसहितपरमभेदप्रमाणावहाराणां संवर्गः द्विरूपयुक्तपरमावधिज्ञानसर्वविकल्पंगळे नितु ध्रुवहारंगळ संवर्गसंजनितलब्धप्रमितमक्कुमंतादोडा परमावधिज्ञानविकल्पंगळ्तावनित दोडे पेन्दपं :
परमावहिस्स भेदा सगओगाहणवियप्पहदतेऊ ।
इदि धुवहारं वग्गणगुणगारं वग्गणं जाणे ॥३९३॥ ____परमावधेर्भेदाः स्वावगाहनविकल्पहततैजसाः। इति ध्र वहारं वर्गणागुणकारं वर्गणां जानीहि ॥
परमावधेर्भेदाः परमावधिज्ञानविकल्पंगळं स्वावगाहनविकल्पहततैजसाः मुन्नं जीवसमासाधिकारदोळ्पेळल्पट्ट स्वकीयावगाहनविकल्पंगाळदं गुणिसल्पट्ट तेजस्कायिकजीवंगळ संख्यातराशियु तदवगाहनविकल्पंगळोळु सर्वजघन्यावगाहनमिदु ६।८।२२
तदुत्कृष्टा• १५ प१९।७।८।२२।१९ a
a
कार्मणवर्गणाराशिप्रमाणं सिद्धराश्यनन्तैकभागमात्रमपि द्विरूपाधिकपरमावधिसर्वभेदमात्रध्र वहारसंवर्गमात्रं स्यात व ॥३९२।। ते भेदाः कति ? इति चेदाह
परमावधिज्ञानस्य भेदा तेजस्कायिकावगाहनविकल्पैगणिततेजस्कायिकजीवराशि मात्रा भवन्ति
। ६ ।। ते अवगाहनविकल्पाः प्राग्मत्स्यरचनायां तज्जघन्यमिदं ६।८ । २२
a
..
।
प१९।८।७।८। २२ १९ । --
aaa उतनी बार ध्र वहारोंको परस्परमें गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है,वही कार्मण वर्गणाका २० गुणकार होता है ।।३९११॥
अब क्रमानुसार वर्गणाका प्रमाण कहते हैं
कार्मण वर्गणा राशिका प्रमाण सिद्ध राशिके अनन्तवें भाग है,तथापि परमावधिके समस्त भेदोंमें दो मिलानेपर जितना प्रमाण हो उतनी बार ध्रुवहारोंको परस्परमें गुणा करनेपर जो प्रमाण हो,उतना है ॥३९२॥
वे परमावधिके भेद कितने हैं, वह कहते हैं
तैजस्कायिककी अवगाहनाके विकल्पोंसे तेजस्कायिक जीवराशिको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतने परमावधिके भेद हैं । तथा अग्निकायिककी जघन्य अवगाहनाके प्रमाण
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६३६
वाहमिदु ६।८।८
a --
प ६८८। १९
a
a
गाहविकल्पंगळिनितप्पुवु ६
प
a
१५
१० मेष क्रमः ॥
दो लब्धं तल्लब्धमात्रं परमावधिज्ञानविकल्पंगळप्पुवु ६ ई परमावधिज्ञानविकल्पराशियं
प a
द्विरूपयुक्तं माडि विरलिसि प्रतिरूपं धवहारमनित्तु वग्गितसंग्गं माडुत्तिरलु आवुदों दु लब्धमदु ५ कार्म्मणवर्गणाराशियक्कुं । व । इदि इंतु ध्रुवहारप्रमाणमुं वर्गणागुणकारप्रमाणमुं वर्गणाप्रमाणमुं व्यक्तमागि मूरुं राशिगळं पेळल्पटुववं नीनु जानीहि अरिये दु शिष्य संबोधनं माडल्पदु । सोहि अवरदव्वं धवहारेणवहिदे हवे बिदियं । तदियादिवियप्पेसु वि असंखवारोति स कमो || ३९४॥
देशावधेरवरद्रव्यं ध्रुव हारेणापहृते भवेद्वितीयं । तृतीयादिविकल्पेष्वपि असंख्यवारपर्यंत -
a
तदुत्कृष्टे ६ । ८ । ८
მ
६ । ८ ८ । १९
a
गो० जीवकाण्डे
आदी अंते सुद्धे इत्यादि सूत्राभिप्रार्याददं तरल्पट्टपर्वात्तत लब्धाव
देशावधिज्ञानविषय जघन्यद्रव्यमं स १२ । १६ ख ध्रुवभागहादिदं भागिसिदेक
NO
तेजस्कायिक सवगाहनविकल्पर राशियदं गुणिसुत्तिरलावु
भागं देशावधिज्ञानविषयद्वितीयद्रव्यविकल्पमक्कुं स ००१२।१६ ख तृतीयविकल्पंगळोळमी
क
९
प
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०
2
विशोध्य शेषमपवर्त्य ६ । a एकरूपे निक्षिप्ते एतावन्तः ६ । । इत्येवं
प
प
a
a
ध्रुवहारप्रमाणं वर्गणागुणकारप्रमाणं वर्गणाप्रमाणं च जानीहि ॥३९३॥
यत्प्रागुक्तं देशावधिज्ञानविषयजघन्यद्रव्यं स १२ - १६ ख । ध्रुवहारेण एकेन भक्तं द्वितीयदेशावधि -
E
At affairत्कृष्ट अवगाहनाके प्रमाणमें से घटाकर जो शेष बचे, उसमें एक जोड़नेपर अग्निकायकी अवगाहनाके भेद होते हैं । इस प्रकार ध्रुबहारका प्रमाण, वर्गणा गुणकारका प्रमाण और वर्गणाका प्रमाण जानना ॥ ३९३ ॥
जो देशावधिज्ञानका विषय जघन्य द्रव्य पहले कहा था, उसकी ध्रुवहारसे एक बार २० भाग देने पर देशावधिके दूसरे भेदका विषयभूत द्रव्य होता है । इसी प्रकार ध्रुवहारका
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६३७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका क्रमदिदमसंख्यातवारंगळरियल्पडुवुवु । इंतसंख्यातवारं ध्रुवहारभक्तैकैकभागंगळागुत्तं पोपुवंतु पोगल्क :
देसोहिमज्झभेदे सविस्ससोवचयतेजकम्मंगं ।
तेजोभासमणाणं वग्गणयं केवलं जत्थ ।।३९५ । देशावधिमध्यभेदे सविनसोपचयतेजः कार्मणांगं । तेजोभाषामनसां वर्गणां केवलां यत्र ॥ ५
पस्सदि ओही तत्थ असंखेज्जाओ हवंति दीउवही ।
वासाणि असंखेज्जा होंति असंखेज्जगुणिदकमा ।।३९६।। पश्यत्यवधिस्तत्रासंख्येया भवंति द्वीपोदधयः । वर्षाण्यसंख्येयानि भवंत्यसंख्येयगुणितक्रमाणि ॥
देशावधिमध्यभेदे देशावधिज्ञानमध्यमविकल्पोळु यत्र आवुदानुमो देयोल विस्रसोपचय- १० सहितमप्प तैजसशरीरस्कंधमुम कार्मणशरीरस्कंधमुमं विनसोपचयरहित केवलं तैजसवर्गणेयुमं भाषावर्गणयुमं मनोवर्गणेयुमं पश्यत्यवधिः अवधिज्ञानं प्रत्यक्षमागरिदुमा येडेगळोल क्षेत्रंगळसंख्यातद्वीपोदधिगळप्पुवु। कालंगळुमा येडेगळोळु असंख्यावर्षगळप्पुवा द्वीपोदधिगळं वर्षगळुमसंख्यातंगळागुत्तमुं तैजसशरीरस्कंधस्थानं मोदल्गोंडुत्तरोत्तरंगळसंख्यातगुणितक्रमंगळुमप्पुवु ।
तत्तो कम्मइयस्सिगिसमयपबद्धं विविस्ससोपचयं ।
धुवहारस्स विभज्ज सव्वोही जाव ताव हवे ॥३९७।। ___ ततः कार्मणस्यैकसमयप्रबद्धं विविस्रसोपचयं । ध्र वहारस्य विभाज्यं सविधिया॑वत्तावद्भवेत् ॥
विषयद्रव्यं भवति-स । १२-१६ ख । एवं तृतीयादिविकल्पेष्वपि असंख्यातबारपर्यन्तमेष एव क्रमः
२०
कर्तव्यः ॥३९४॥ तथा सति किं स्यादिति चेदाह
देशावधिज्ञानमध्यमविकल्पेषु यत्र सविस्रसोपचयं तैजसशरीरस्कन्धं तदग्रे यत्र तादृशं कार्माणशरीरस्कन्धं तदग्रे यत्र केवलां विविस्रोपचयां तैजसवर्गणां तदने यत्र केवलां भाषावर्गणां तदग्रे केवलां मनोवगणां च अवधिज्ञानं जानाति । तत्र पञ्चसु स्थानेषु क्षेत्राणि असंख्यातद्वीपोदधयः काला असंख्यातवर्षाणि च भवन्ति तथापि उत्तरोत्तरासंख्यातगणितक्रमाणि ॥३९५-३९६॥
भाग दूसरे भेदके विषयभत द्रव्यमें देनेपर तीसरे भेदके विषयभूत द्रव्यका प्रमाण आता है। २५ ऐसा ही क्रम असंख्यात बार पर्यन्त करना चाहिए ॥३९४।। । ऐसा करनेसे क्या होता है यह कहते हैं
देशावधिज्ञानके मध्यम भेदोंमेंसे जहाँ देशावधिज्ञान विस्रसोपचय सहित तैजसशरीररूप स्कन्धको जानता है, उससे आगे जहाँ विस्रसोपचय सहित कार्मणस्कन्धको जानता है, उससे आगे जहाँ विस्रसोपचय रहित तैजस वर्गणाको जानता है, उससे आगे जहाँ ३० विनसोपचय रहित भाषावर्गणाको जानता है, उससे आगे जहाँ विस्रसोपचयरहित मनोवर्गणाको जानता है,वहाँ इन पाँचों स्थानोंमें क्षेत्र असंख्यात द्वीप समुद्र और काल असंख्यात वर्ष होता है । तथापि उत्तरोत्तर असंख्यात गुणितक्रम होता है। अर्थात् पहलेसे
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गो. जीवकाण्डे ततः पश्चात् बळिकमा मनोवर्गणेयं ध्रुवहारदिदं भागिसुत्त पोगलु केवलं विस्रसोपचयरहितमप्प कार्मणैकसमयप्रबद्धमावुदोंदेडयोळपुटुगुमल्लिदत्तला कार्मणसमयप्रबद्धं ध्रुवहारक्के भाज्यराशियक्कुमन्नेवरमें दोडे सविधिज्ञानमेन्नेवरमन्नेवरं ।।
एदम्मि विभज्जते दुचरिमदेसावहिम्मि वग्गणयं ।
चरिमे कम्मइयस्सिगिवग्गणमिगिवारभजिदं तु ॥३९८॥ एतस्मिन् विभाज्यते द्विचरमदेशावधौ वर्गणां । चरमे कामणस्यैकवर्गणामेकवारभक्तां तु ।
ई कार्मणसमयप्रबद्ध दोलु सावधिपयंतमवस्थितभाज्यदोळु ध्रुवहार पुगुत्तं पोगळु द्विचरमदेशावधियोळु कार्मणवर्गणयक्कुमा कार्मणवर्गण यं तु मत्त एकवार भक्तां ओंदु बारि ध्रुवहारभक्तलब्धमात्रमं चरमे कडयो सर्वोत्कृष्टदेशावधिज्ञानं पश्यति प्रत्यक्षमागि कागुमरिगुं।
अंगुल असंखभागे दववियप्पे गदे दु खेत्तम्मि ।
एगागासपदेसो वड्ढदि संपुण्णलोगोत्ति ॥३९९।। अंगुलाऽसंख्य भागे द्रव्यविकल्पे गते तु पुनः क्षेत्रे। एकाकाशप्रदेशो वर्द्धते संपूर्णलोकपथ्यंतं ।
सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्रद्रव्यविकल्पंगळु सलुत्तं विरळु क्षेत्रदोळेकाकाशप्रदेशं पच्चुगुमो प्रकारदिदमे सर्वोत्कृष्टदेशावधिज्ञानविषयं सर्वोत्कृष्टक्षेत्रं संपूर्णलोकमक्कुमेन्नवरमन्नेवरं पेच्चुगु।
आवलि असंखभागो जहण्णकालो कमेण समयेण ।
वड्ढदि देसोहिवरं पल्लं समऊणयं जाव ॥४००॥ आवल्यसंख्येयभागो जघन्यकालः क्रमेण समयेन वर्द्धते । देशावधिवरः पल्यं समयोनं यावत् ।
ततः पश्चात् तां मनोवर्गणां ध्र वहारेण पुनः पुनर्भक्त्वा यत्र विकल्पे विविस्रसोपचयः कार्मणैकसमय२० प्रबद्ध उत्पद्यते, तत उपरि स एव ध्र वहारस्य भाज्यं भवेत् यावत्सर्वावधिज्ञानं तावत् ॥३९७॥
एतस्मिन् कार्मणसमयप्रबद्धे विभज्यमाने सति द्विचरमे देशावधिविकल्पे कार्मणवर्गणैवावशिष्यते, तुपुनः, चरमे ध्र वहारेण एकवारभक्तव अवशिष्यते ॥३९८॥
सूच्यङ्गुलासंख्येयभागमात्रेषु द्रव्यविकल्पेषु गतेषु जघन्यक्षेत्रस्योपर्येकाकाशप्रदेशो वर्धते इत्ययं क्रमः तावद्विधेयः यावत् सर्वोत्कृष्टदेशावधिविषयक्षेत्रं सम्पूर्णलोको भवति ॥३९९॥ २५ दूसरे, दुसरेसे तीसरे, तीसरेसे चौथे और चौथेसे पाँचवें भेद सम्बन्धी क्षेत्र कालका परिमाण असंख्यात गुणा है ॥३९५-३९६।।
उसके पश्चात् उस मनोवर्गणाको ध्रु वहारसे बार-बार भाजित करते-करते जिस भेदमें बिस्रसोपचयरहित कार्मणशरीरका एक समयप्रबद्ध उत्पन्न होता है। उसीमें आगे भी ध्र वहारका भाग तबतक दिया जाता है जबतक सर्वावधिज्ञानका विषय आता है ॥३९७॥
इस कार्मण समयप्रबद्धमें ध्रुवहारसे भाग देनेपर देशावधिके द्विचरम भेदमें कार्मणवर्गणारूप द्रव्य उसका विषय होता है। और अन्तिम भेदमें ध्रुवहारसे एक बार भाजित कार्मणवर्गणा द्रव्य होता है ॥३९८॥
सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यकी अपेक्षा भेदोंके होनेपर जघन्य क्षेत्रके ऊपर एक आकाशका प्रदेश बढ़ता है। यह क्रम तबतक करना:जबतक सर्वोत्कृष्ट देशावधिज्ञानका ३५ विषयभूत क्षेत्र सम्पूर्ण लोक हो ॥३९९।।
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६३९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका जघन्यदेशावधिज्ञानविषयमप्प जघन्यकालमावल्यसंख्येयभागमात्रमक्कु ८ मी जघन्यकालं क्रौदद मेकैकसमयदिदं पेर्चुत्तं पोकुमन्नेवरं मुत्कृष्टदेशावधिज्ञानविषयमप्प कालं समयोनपल्यमात्रमक्कुमेन्नवरं । प-१। इल्लि जघन्यकालद मेलेकैकसमयवृद्धिक्रममं तोरिदपं ।
अंगुल असंखभागं धुवरूवेण य असंख वारं तु । असंखसंखं भागं असंखवारं तु अद्धवगे ॥४०१॥ धुवअर्द्धवरूवेण य अवरे खेत्तम्मि वढिदे खेत्ते ।
अवरे कालम्मि पुणो एक्केक्कं वड्ढदे समयं ॥४०२॥ अंगुलासंख्यभागं ध्रुवरूपेण च असंख्यवारं तु । असंख्यसंख्यभागं असंख्यवारं तु अध्रुवके। ध्रुवाध्रुवरूपेणावरे क्षेत्रे वद्धिते क्षेत्रे । अवरस्मिन् काले पुनरेकैको वद्धते समयः ।
मुंद वक्ष्ममाणकांडकंगळं कटाक्षिसि कालवृद्धिविशेषमं ध्रुवाध्रुवरूपदिदं पेळ्दपना कांडकंग- १० कोळगे मोदल कांडकदोळु अंगुलासंख्यभागं ध्र वरूपेण च घनांगुलासंख्यातेकभागमात्रप्रदेशंगळु ध्र वरूपदिदं जघन्यक्षेत्रद मेले क्रमदिदं पेच्चि पेच्चि जघन्यकालद मेलो दोंदु समयं पर्चुत्तं पच्चुतं प्रथमकांडकचरमविकल्पपय्यंतं असंख्यवारं तु असंख्यातवारं पेच्चिदोडे असंख्यातसमयंगळु पर्चुगुः। मदेते दोडे प्रथमकांडकदोळु जघन्यक्षेत्रमिदु ६ तत्कांडकोत्कृष्टक्षेत्रमिदु ६ आदियनंतदोळु कळेदाडा शेषमा कांडकदोळु जघन्यक्षेत्रदमेळे पेच्चिद प्रदेशंगळ प्रमाणंगळप्पुवु ६०-७ मत्तमाका- १५
७a
जघन्यदेशावधिविषयकालः आवल्यसंख्येयभागः ८ सोऽयं क्रमेण ध्रु वाध्र ववृद्धिरूपेण एकैकसमयेन
तावद्वर्धते यावदुत्कृष्टदेशावधिविषयः समयोनं पल्यं भवेत् प-१ ॥४००॥ अथ तावेव क्रमौ एकानविंशतिकाण्डकेषु वक्तुमनास्तावत्प्रथमकाण्डके गाथासार्धद्वयेनाह
घनामुलासंख्यातेकभागं आवलिभक्तघनाङ्गुलमात्र ध्र वरूपेण वृद्धिप्रमाणं स्यात् सा च वृद्धिः
जघन्य देशावधिका विषयमत काल आवलीका असंख्यातवां भाग है। यह क्रमसे २. ध्र ववृद्धि और अध्र ववृद्धिके रूपसे एक-एक समय करके तबतक बढ़ता है जबतक उत्कृष्ट देशावधिका विषय एक समय कम पल्य होता है ॥४००।।
आगे क्षेत्र और कालका क्रम उन्नीस काण्डकोंमें कहनेकी भावनासे शास्त्रकार प्रथम काण्डकको अढ़ाई गाथासे कहते हैं
घनांगुलको आवलीसे भाग देनेपर घनांगुलका असंख्यातवाँ भाग होता है । उतना ही २५ ध्रुवरूपसे वृद्धिका प्रमाण होता है । यह वृद्धि प्रथमकाण्डके अन्तिम भेद पर्यन्त असंख्यातवार होती है। पुनः उसी प्रथम काण्डकमें अध्र ववृद्धिकी विवक्षा होनेपर उस वृद्धिका प्रमाण घनांगुलका असंख्यातवाँ भाग और संख्यातवाँ भाग होता है। अधु व वृद्धि भी प्रथम काण्डकके अन्तिम भेद पर्यन्त असंख्यातवार होती है ॥४०१।।
उक्त ध्रुववृद्धिके प्रमाणसे या अध्र ववृद्धिके प्रमाणसे जघन्य देशावधिके विषयभूत ३० क्षेत्रके ऊपर क्षेत्रके बढ़नेपर जघन्यकालके ऊपर एक-एक समय बढ़ता है।
विशेषार्थ-पहले कहा था कि द्रव्यकी अपेक्षा सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग भेद बीतनेपर क्षेत्रमें एक प्रदेश बढ़ता है । यहाँ कहते हैं कि जघन्य ज्ञानके विषयभूत क्षेत्र के ऊपर
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७
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६४०
गो० जीवकाण्डे डकदोळे जघन्यकालमिदु ८ तत्कांडकोत्कृष्टकालमिदु ८ आदियनंतदोळकळे दोडे शेषं तत्कांडकदोळु जघन्यकालद मेले पेच्चिद समयंगळ प्रमाणमप्पुदु ८०१ ई कालविशेषदिवं क्षेत्रविशेषमं भागिसुवुदेके दोर्ड जघन्यकालद मेले इनितु समयंगळु पेच्चिदागळा जघन्यक्षेत्रद मेलेनितु प्रदेशंगळु पेच्चिद वो दु समयं पेच्चिदागळेनितु प्रदेशंगळु पर्चुगुम दितु त्रैराशिकं माडि प्र काल ८०१ ५ फलप्रदेश ६०७ इच्छाकालसमय १ लब्धक्षेत्रप्रदेशंगळु ६ इंतावलिभक्तघनांगुलप्रमितक्षेत्र विकल्पंगळु ध्र वरूपदिदं नडेदु नडेदों दोंदु समयवृद्धियागुत्तं पोगि प्रथमकांडकचरमविकल्पोळु जघन्यकालद मेले पेच्चिद समयंगळिनितप्पुवु ८०७ इवं तज्जघन्यकालदोळु कूडुवागळु
समच्छेदं माडि ८७ आवळिगावळियं तोरि संख्यातरूपुगळं कूडिदोडिदु ८३ अत्रत्यासंख्यात१० भाज्यभागहारंगळं सरिगळिद शेषं संख्यातभक्तावलिप्रमितमक्कु ८ मत्तमोंदु समयवृद्धि
यादागळु क्षेत्रदोळु आवलिभक्तघनांगुलप्रमितप्रदेशंगळु क्षेत्रदोळु पेच्चुत्तं विरलागळिनितु समयंगळु पेच्चिदल्लिगेनितु प्रदेशंगळ क्षेत्रदोलु पेन्र्चुवर्वेदितु त्रैराशिकमं माडि प्र= का स १।फ। प्रदेश ६ इ=का स ८०-७ लब्धक्षेत्रप्रदेशंगळु ६०-७ इवं जघन्यक्षेत्रदोळ कूडवागळु संख्यातरूपुळिदं समच्छेदं माडि ६७ घनांगुलक्क घनांगुलमं तोरि संख्यातरूपुगळं कूडिदोडिदु ६० अत्रत्यासंख्यातभाज्यभागहारंगळनपत्तिसिद शेषं संख्यातभक्त घनांगुलप्रमितं चरमक्षेत्रविकल्पमक्कुं ६
. इन्तु ध्र वरूपवृद्धि विवयि सर्वकांडकदोळं परिपाटिक्रमवरियल्पडुगुमिन्नु ध्रुववृद्धिविवयिद तत्प्रथमकांडकदोळु असंख्य संख्यं भागं असंख्यवारं तु घनांगुलासंख्यातेकभागमात्रक्षेत्र प्रदेशंगळु जघन्यक्षेत्रद मेले पेच्चिदागळो दोंदु समयं जघन्यकालद मेले पर्चगुमंत घनांगुलासंख्यातैकभागमात्रक्षेत्रप्रदेशंगळु पच्चिदागळोदुं समयं केळगण कालदमेले पेढुंगुमितु ध्रु वाध्र ववृद्धिगळु क्षेत्रदोळु तद्योग्यासंख्यातवारंगळागुत्तं विरलु कालदोळ मुंपेन्दिनितु समयंगळु ८ -७
a ७
७a
प्रथमकाण्डकचरमविकल्पपर्यन्तं असंख्यातवारं भवति । तु-पुनः, तत्रैव काण्डके अध्र ववृद्धिविवक्षायां तद्वृद्धिप्रमाणं घनामुलस्यासंख्यातकभागमात्र संख्यातकभागमात्रं च स्यात् सापि तच्चरमपर्यन्तमसंख्यातवारं भवति ॥४०१॥
तेन उक्त ववृद्धिप्रमाणेन अध्रुववृद्धिप्रमाणेन वा जघन्यदेशावधिविषयक्षेत्रस्योपरि क्षेत्र वर्धिते एक-एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते घनांगुलके असंख्यातवें भाग प्रदेश बढ़नेपर जघन्य देशावधिके विषयभूत कालमें एक समयकी वृद्धि होती है। इस प्रकार क्षेत्रमें इतनी वृद्धि होनेपर कालमें एक समयकी वृद्धि आगे भी होती है,इसे ध्रुववृद्धि कहते हैं। और पूर्वोक्त प्रकारसे ही कभी
२५ mar
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६४१
जघन्यकालदोळु पर्चुववी प्रथमकांडक्के परिपाटियिदं ध्रु वाध ववृद्धिगळ देशावधिय सर्व्वक्षेत्रकालकांडकंगळोळु तत् क्षेत्रकालानुसारदिदं संभविसुववल्लि क्षेत्रवृद्धिगळ ध्रुवरूपविवक्षयदं तत्तत्कांडकदोळवस्थित रूपमक्कुमा ववृद्धिविबक्षैयदं तत्तत्कांडकदो प्रथमकांडकं मोदलागि क्षेत्रानुसारमागि केलवेडेयोछु घनांगुला संख्यातैकभागमात्रं केलवडेयोल घनांगुलसंख्या तक भागमात्र केलवेडयोलु घनांगुलमात्रं केलवडेयोल संख्यातघनांगुलमात्रं केलवडेयोळसंख्यातघनांगुलमा ५ केलवडेयो श्रेय संख्येयभागमात्रं केलवडेयोल श्रेणिसंख्येयभागमात्रं केलबेडेयाळु श्रेणिमात्रं केलवडेयोळु संख्यातश्रेणिमात्रं केलवडेयोळसंख्यात श्रेणिमात्रं केलवेडेयाळं प्रतराऽसंख्येयभागमात्रं केलवडेयोळं प्रतरसंख्येयभागमात्रं केलवडेयो प्रतरमात्रं केलवेडेपोळ संख्यातप्रतरमात्रं क्षेत्रप्रदेशंगल क्षेत्र दो पेचिदागलों दो दु समयदमधस्तनकालद मेले पर्चुगुमित संख्यातवारं पच्च वक्तव्यमकुमारर्णादिदमुत्कृष्ट क्षेत्रकालंगळु त्पत्तिगाळिवरोधिसल्पडवे दितु सिद्धंग | संखातीदा समया पढमे पव्वम्मि उभयदो वड्ढी ।
खेत्तं कालं अस्सिय पढमादी कंडये बोच्छं ॥ ४०३ ॥
संख्यातीताः समयाः प्रथमे पर्वणि उभयतो वृद्धिः । क्षेत्रं कालमाश्रित्य प्रथमादिकांडकानि
वक्ष्यामि ॥
प्रथमे पर्व्वणि मोदकांडकदोळु संख्यातीताः समयाः असंख्यातसमयंगळु पूर्वोक्तप्रमितं- १५ गळु ८०१ उभयतो वृद्धिः ध्रु वाध वरूपददं वृद्धियरियल्पडुगुं । क्षेत्रमुमं कालमनाश्रयिसि
2a
जघन्यकालस्योपरि एकैकः समयो वर्धते ॥ ४०२ ॥
एवं सति प्रथमे पर्वणि काण्ड के उभयतः ध्रुवरूपतोऽध्रुवरूपतो वा वृद्धिः क्षेत्रवृद्धिः संख्यातीताः समयाः जघन्यकालोनतदुत्कृष्टकाल मात्राः स्युः ८ । -१ क्षेत्रवृद्धिस्तु तज्जघन्य क्षेत्रोनतदुत्कृष्टक्षेत्रमात्री ६ । -१ इमौ २० १।३।
2 la
वृद्धिक्षेत्रकालो जघन्यक्षेत्रकालाभ्यां - ६ । ८ समच्छेदेन ६ । २ । ८ । १ मेलयित्वा ६ । २ । ८ । अपवर्तित
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। ६ । ८ प्रथमकाण्डकचरमविकल्पविषयो क्षेत्रकालौ स्यातां । इतः परं क्षेत्रं कालं चाश्रित्य प्रथमादीनि एकान्न212
१०
घनांगुलके असंख्यातवें भाग और कभी घनांगुलके संख्यातवें भाग प्रदेशोंकी वृद्धि होनेपर कालमें एक समयकी वृद्धिके होनेको अध्रुववृद्धि कहते हैं ||४०२||
इस प्रकार पहले काण्डकमें ध्रुवरूप और अध्रवरूपसे एक-एक समय बढ़ते-बढ़ते २५ असंख्यात समयकी वृद्धि होती है। सो प्रथमकाण्डकके उत्कृष्टकालके समयोंमें-से जघन्यकालके समय को घटानेपर जो शेष रहे उतने असंख्यात समयोंकी वृद्धि प्रथम काण्डकमें होती है । इसी तरह प्रथमकाण्डकके उत्कृष्ट क्षेत्रके प्रदेशों में से उसके जघन्य क्षेत्र के प्रदेशों को घटाने पर जो शेष रहे उतने प्रदेशप्रमाण प्रथम काण्डकमें क्षेत्र वृद्धि होती है। इन वृद्धिरूप क्षेत्र और कालको जघन्य क्षेत्र और जघन्य कालमें जोड़नेपर प्रथम काण्डकके अन्तिम विकल्पके क्षेत्र ३० और काल होते हैं । अर्थात् वृद्धिरूप प्रदेशोंके परिमाणको जघन्य क्षेत्र घनांगुलके असंख्यातवें भागमें मिलानेपर प्रथम काण्डकके अन्तिम भेदके क्षेत्रका प्रमाण होता है। इसी प्रकार वृद्धि - रूप समयों के परिमाणको जघन्य काल आवलीके असंख्यातवें भाग में जोड़नेपर प्रथम काण्डक
८१
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गो० जीवकाण्डे प्रथमादिकांडकंगळं पेळ्दपेन बुदाचार्यन प्रतिजेयकं ।
अंगुलमावलियाए भागमसंखेज्जदो बि संखेज्जा ।
अंगुलमावलियंतो आवलियं चांगुलपुधत्तं ॥४०४॥ अंगुलमावल्यो गोऽसंख्येयतोपि संख्येयः । अंगुलमावल्यंतः आवलिकं चांगुलपृथक्त्वं ॥
प्रथमकांडकदोळु जघन्यक्षेत्र कालंगळु घनांगुलावळिगळ असंख्यातैकभागमात्रंदिवं मेले संख्येयो भागः क्षेत्रमुं कालमुं यथासंख्यमागि घनांगुलसंख्येयभागनुमावळि संख्येयभागमुमक्कु ६८ द्वितीयकांडकदोळु क्षेत्रं घनांगुलमक्कुं कालमावल्यंतमेयककुं। किंचिदूनावलि ये बुदत्थं । ६।८-1 तृतीयकांडकदोळु आवलिरंगुलपृथक्त्वं घनांगुलपृथक्त्वंमुमावलियमक्कुं। पृथक्त्व । ६८।
आवलियपुधत्तं पुण हत्थं तह गाउयं मुहूतं तु ।
जोयणभिण्णमुहुत्तं दिवसंतो पण्णुवीसं तु ॥४०५॥
आवलिपृथक्त्वं पुनहस्तस्तथा गव्यूतिम्र्मुहूर्तस्तु । योजनं भिन्नमुहूर्तः दिवसांतः पंचविंशतिस्तु ॥
चतुत्थंकांडकदोळु पृथक्त्वावलियुमेकहस्तमुमक्कुं। हस्त १ । ८ । पृ। पंचमकांडकदोळु तथा गव्यूतिम्मुंहतातः एकक्रोशमुमंतर्मुहूर्तमुमक्कुं। क्रो १ का २१-। षष्ठकांडकदोळु योजनंभिन्न१५ मुहूर्तः एकयोजनमुं भिन्नमुहूर्तमुमक्कुं। यो १। का=भिन्नमु१॥ सप्तमकांडकदोळु दिवसांतः
पंचविंशतिस्तु किंचिदूनदिवसमुं पंचविंशतियोजनंगळुमक्कुं । यो २५ कादि १। विंशतिकाण्डकानि वक्ष्ये इत्याचार्यप्रतिज्ञा ॥४०३।। प्रथमकाण्डके क्षेत्रकालौ जघन्यौ घनाङ्गुलावल्योरसंख्यातकभागी ६ । ८ उत्कृष्टौ तयोः संख्येयभागी
aa ६ । ८ द्वितीयकाण्डके क्षेत्रं घनाङ्गुलम् । कालः आवल्यन्तः-किंचिदूनावलिरित्यर्थः ६ । ८-। तृतीयकाण्डके
। २० क्षेत्रं घनाङ्गुलपृथक्त्वं कालः आवलिपृथक्त्वं पृ६ । ८ ॥४०४॥
चतर्थकाण्डके कालः आवलिपथक्त्वं । क्षेत्र एकहस्तः । ह १।८ प । पञ्चमकाण्डके क्षेत्र एकक्रोशः । कालः अन्तमहतः । क्रो १। का २१ । षष्ठकाण्डके क्षेत्रमेकयोजनं, कालः भिन्नमहतः। यो १ का भिन्न मु०१-1 सप्तमकाण्डके कालः किंचिदूनदिवसः क्षेत्र पञ्चविंशतियोजनानि यो २५ का दि १-॥४०५॥
के अन्तिम भेदमें कालका प्रमाण होता है । आगे क्षेत्र और कालको लेकर उन्नीस काण्डक २५ कहेंगे,ऐसी प्रतिज्ञा आचार्यने की है ॥४०३॥
प्रथम काण्डकमें जघन्य क्षेत्र घनांगुलके असंख्यातवें भाग और जघन्य काल आवलीका असंख्यातवाँ भाग है। उत्कृष्ट क्षेत्र घनांगुलका संख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट काल आवलीका संख्यातवाँ भाग है। द्वितीयकाण्डकमें क्षेत्र घनांगुल प्रमाण और काल कुछ कम आवली है। तीसरे काण्डकमें क्षेत्र घनांगुल पृथक्त्व प्रमाण है और काल आवली पृथक्त्व प्रमाण है ।।४०४॥
चतुर्थ काण्डकमें काल आवली पृथक्त्व और क्षेत्र एकहाथ प्रमाण है। पाँचवें काण्डकमें क्षेत्र एक कोस प्रमाण काल अन्तर्मुहूर्त है । छठे काण्डकमें क्षेत्र एक योजन और काल भिन्न मुहूर्त है । सप्तम काण्डकमें काल कुछ कम एक दिन और क्षेत्र पच्चीस योजन है ।।४०५||
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका भरहम्मि अद्धमासं साहियमासं च जंबुदीवम्मि ।
वासं च मणुवलोए वासपुधत्तं च रुजगम्हि ॥४०६॥ भरतेमासः साधिकमासश्च जंबूद्वीपे। वर्षं च मनुजलोके वर्षपृथक्त्वं च रुचके ॥
अष्टमकांडकोळ भरतक्षेत्रमुमर्द्धमासमक्कुं । भर । अर्द्ध मा. । नवमकांडकदोळु जंबूद्वीपमं साधिकमासमुमक्कुं। जं मा. १'। दशमकांडकदोळु मनुष्यलोकमुमेकवर्षमुमक्कुं। म ४५ ल। ५ वर्ष १। एकादशकांडकदोळु रुचकद्वीपमं च वर्षपृथक्त्वमुमक्कुं । रु। व पृ।
संखेज्जपमे वासे दीवसप्लुद्दा हवंति संखेज्जा ।
वासम्मि असंखेज्जे दीवसमुद्दा असंखेज्जा ॥४०७।। संख्येयप्रमे वर्षे द्वीपसमुद्रा भवंति संख्येयाः । वर्षे असंख्येये द्वीपसमुद्रा असंख्येयाः॥
द्वादशकांडकोळु संख्येवमात्र द्वीपसमुद्रंगळु संख्यातवर्षगळुमप्पुवु । द्वी=स=१॥ वर्ष १. १। मेळे त्रयोदशादि कांडकंगळोळु तैजसशरीरादि द्रव्यविकल्पंगळेडयोळु मुं पेन्दऽसंख्यातद्वीपसमुद्रंगळु तत्कालंगळुमसंख्यातवर्षगळुमसंख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवु । इंतु देशावधिज्ञानविषयंगळप्प द्रव्यक्षेत्रकालं भावंगळ एकानविंशतिकांडकंगळोळु चरमकांडक चरमद्रव्यक्षेत्रकालभावंगळु मुं पेळ्द ध्र वहारैकवारभक्तकार्मणवर्गणेयुं व संपूर्णकमु=समयोनैकपल्यमुं ॥ ५१७। यथाक्रमदिदमप्पुवुमाद्यदेशावधिज्ञानविषय द्रव्यक्षेत्रकालभावंगळगे संदृष्टि
अष्टमकाण्डके क्षेत्रं-भरतक्षेत्र, काल अर्धमासः, भर अर्धमा = । नवमकाण्डके क्षेत्र जम्बूद्वीपः, काल: साधिकमासः, जं = । मा १। दशमकाण्डके क्षेत्रं मनुष्यलोकः कालः एकवर्षः, ४५ ल वर्ष १। एकादशे काण्डके क्षेत्र रुचकद्वीपः, कालः वर्षपृथक्त्वं रु । व पृ॥४०६॥
द्वादशे काण्डके क्षेत्र संख्येयद्वीपसमुद्राः । कालः संख्यातवर्षाणि द्वी = स = १ वर्ष १ । उपरित्रयोदशादिषु काण्डकेषु तैजसशरीरादिद्रव्यविकल्पस्थानेषु क्षेत्राणि असंख्यातद्वीपसमुद्राः कालः असंख्यातवर्षाणि २० उभयेऽपि असंख्यातगुणितक्रमेण भवन्ति । चरमकाण्डकचरमे द्रव्यं ध्र वहारभक्तकार्मणवर्गणा व क्षेत्रं संपूर्ण
१५
२५
लोकः कालः समयोनपल्यं प-१॥४०७॥
अष्टमकाण्डकमें क्षेत्र भरतक्षेत्र और काल आधामास है। नौवें काण्डकमें क्षेत्र जम्बूद्वीप काल कुछ अधिक एक मास है। दसवें काण्डकमें क्षेत्र मनुष्य लोक, काल एक वर्ष है । ग्यारहवें काण्डकमें क्षेत्र रुचकद्वीप काल वर्षपृथक्त्व है ॥४०६॥
बारहवें काण्डकमें क्षेत्र संख्यात द्वीप-समुद्र और काल संख्यात वर्ष है। आगे तेरहवें आदि काण्डकोंमें जो तेजस शरीर आदि द्रव्यकी अपेक्षा स्थान कहे हैं, उनमें क्षेत्र असंख्यात द्वीप समुद्र हैं और काल असंख्यात वर्ष है। दोनों ही आगे-आगे क्रमसे असंख्यातगुने असंख्यातगुने होते हैं । अन्तके उन्नीसवें काण्डकमें द्रव्य तो कार्मणावर्गणामें ध्रुवहारका भाग देनेसे जो प्रमाण आवे, उतना है। क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है और काल एक समय कम पल्य ३० प्रमाण है ॥४०७॥
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देशावधि संबंध
22
. . ०
व९९
कामसम कामसम
:
मणव मणव
५
वर्ष
भाषा भाषी
०००००००००००००००००००० ००००
तज वग्ग तेज वर्ग
द्वीप
र्ष
कार्मण श कामण
२
तज०:शरीर तिज शरीर
द्वीप स७
००००००००००००००
०
००० ००० ००० ००० ००० ००० ००० ००००००००००००
७ ७८८८८
o ea a a a a ०८८८ oa a a a ०८८
o a a a १२ १६ ख ० ०८ = ९ - ६ ८a ! स१२ १६ ख aaa
०००००००००
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०००
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द्रव्य क्षेत्र काल भाव
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कालविसेसेणावहिदखेत्तविसेसो धुवा हवे वड्ढी ।
अधुववड्ढी वि पुणो अविरुद्धं इट्ठकंडम्मि ॥४०८॥ कालविशेषेणापहृतक्षेत्रविशेषो भवेत् ध्रुवा वृद्धिः । अध्रुववृद्धिरपि पुनरविरुद्ध मिष्टकांडके।
कालविशेशेणापहृतः क्षेत्रविशेषो ध्रुवा वृद्धिर्भवेत् । प्रथमकांडकदोळ जघन्यकालमं ८ तन्नुत्कृष्टकालदोळ ८ विशेषिसि ८० - १ अरिवं भागिसल्पट्ट क्षेत्रविशेष जघन्यक्षेत्रमं ६ तन्नुत्कृष्टक्षेत्रदोळु ६ शेषिसिदुनिंद ६ -३ भागिसिद लब्ध ६ ०-१ मपत्तितमिदु ६
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५
V
ध्रुवा भवेत् वृद्धि ः। प्रथमकांडकदोळु ध्रुवरूपक्षेत्रवृद्धिप्रमाणमक्कुं । सूच्यंगुलासंख्यातभागमात्रद्रव्यविकल्पंगळवस्थितरूपदिवं नडदोंदु प्रदेश क्षेत्रदोळ पेर्चुगुमो क्रमदिदमीयावलि भक्तघनांगुलप्रमितप्रदेशंगळु जघन्यक्षेत्रदोळु पेच्चि कालदोळोंदु समयं जघन्यकालद मेले पेर्चुगुमितु तत्कांडक चरमपयंतं घंवरूपदिदं जघन्यकालद मेले पेच्चिद समयंगळि नितप्पुवु ८०१ इवं जघन्य- १० कालोळ ८ समच्छेदं माडि कूडिदोडे प्रथमकांडक चरमदोळ आवलि संख्येयभागमक्कुम बुदर्थ ८ जघन्य क्षेत्रद मेले ६ पेच्चिद प्रदेशंगळुमिनितप्पुवु ६३१ विवं जघन्यक्षेत्रदोळु कूडिदोडे प्रथमकांडकचरमदोळु घनांगुलसंख्येयभागमात्रमक्कुं ६ इंतल्ला कांडकंगोळं ध्रुववृद्धियं
विवक्षितकाण्डके जघन्यत्रं स्वोत्कृष्टक्षेत्रे जघन्यकालं च स्वोत्कृष्टकाले विशोध्य शेषराशी क्षेत्रकालविशेषौ स्याताम् । तत्र प्रथमकाण्डके कालविशेषेण ८ -१क्षेत्रविशेषः ६ । -भक्त्वा ६ -2
१ra
१०८३-१ १५
१० अपवर्तितः ६ ध्रु वावृद्धिर्भवेत् । सूच्यमुलासंख्येयभागमात्रद्रव्यविकल्पेषु अवस्थितरूपेण गतेषु एकप्रदेशः क्षेत्रे
८
वर्धते । अनेकक्रमेण आवलिभक्तधनाङ्गुलप्रमितप्रदेशाः जघन्यक्षे त्रस्योपरि वर्धन्ते । तदा जघन्यकालस्योपरि एकः समयो वर्धते । एवं तत्काण्डकचरमपर्यन्तं ध्रुवरूपेण जघन्यकालस्योपरि वर्धितसमयप्रमाणमिदम् । ८ -१
विवक्षित काण्डकके अपने उत्कृष्ट क्षेत्र में जघन्य क्षेत्रको और अपने उत्कृष्ट कालमें। जघन्य कालको घटानेपर जो शेष राशि रहती है,उसको क्षेत्र विशेष और काल विशेष कहते २० हैं। प्रथम काण्डकके कालविशेषसे क्षेत्रविशेषमें भाग देनेपर ध्रुववृद्धिका प्रमाण होता है। । सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यके विकल्पोंके बीतनेपर क्षेत्रमें एक प्रदेश बढ़ता है। इस क्रससे जघन्य क्षेत्रके ऊपर आवलीसे भाजित घनांगुल प्रमाणप्रदेश जघन्य क्षेत्रके ऊपर बढ़ते हैं। इतने प्रदेश जघन्य क्षेत्रके ऊपर बढ़नेपर जघन्यकालके ऊपर एक समय बढ़ता है। इस प्रकार प्रथम काण्डकके अन्त पर्यन्त ध्रुववृद्धिसे जितने समय बढ़े, उन्हें जघन्यकालमें । मिलानेपर आवलीका संख्यातवाँ भाग प्रथम काण्डकका उत्कृष्ट काल होता है। इसी तरह जितने जघन्य क्षेत्रके ऊपर प्रदेश बढ़ें, उन्हें जघन्य क्षेत्रमें मिलानेपर घनांगुलका संख्याता
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गो० जीवकाण्डे साधिसुवुदु । अध्रुववृद्धिरपि पुनरविरुद्धमिष्टकांडके अध्रुववृद्धियुं तन्न विवक्षितकांडकदोळ विरुद्धमागि।
अंगुल असंखभागं संखं वा अंगुलं च तस्सेब ।
संखमसंखं एवं सेढीपदरस्स अद्धवगे ॥४०९॥ अंगुलासंख्यातभागं संख्यं वा अंगुलं च तस्यैव । संख्यमसंख्यं एवं श्रेणीप्रतरस्या ध्रुवके ।
अध्र ववृद्धिविवक्षितमादोडे तत्कांडक क्षेत्रकालंगळऽविरुद्धमागि घनांगुलासंख्यातेकभागमात्रमं ६ मेणु घनांगुल संख्यातेकभागमात्र, ६ मेणु घनांगुलमात्र{ ६ संख्यातघनांगुलमात्रम ६१ । असंख्यातधनांगुलमात्रमं । ६० । एवं इंतु श्रेणिगं प्रतरक्कमरियल्पडुगुमदेत दोर्ड श्रेण्यसंख्येयभागमात्रमुं श्रेणिय संख्येयभागममात्रभु श्रेणिमात्रमुं, संख्यातश्रेणिमात्रमुं॥-१॥ असंख्यात श्रेणिमात्रमुं।-a। असंख्येयभागप्रतरमात्रमं प्रतरसंख्येयभागमात्रमुं ३ प्रतरमात्रमु-संख्यातप्रतरमात्रमु = १ असंख्यातप्रतरमात्रमुं= प्रदेशगळु पेचि पैच्चिकालदोळेकैक समयं पेढुंगुर्मबुदध्रुववृद्धिक्रम।
कम्मइयवग्गणं धुवहारेणिगिवारभाजिदे दव्वं ।
उक्कस्सं खेत्तं पुण लोगो संपुण्णओ होदि ॥४१०॥ __ कार्मणवर्गणां ध्र वहारेणैकवारभाजिते द्रव्यमुत्कृष्ट क्षेत्रं पुनर्लोकः संपूर्णो भवति ॥ अत्र च जघन्यकाले ८ समच्छेदेन ६ । १ मिलिते प्रथमकाण्डकचरमे घनाङ्गलसंख्येयभागो भवति ६ एवं
१५
सर्वकाण्डकेषु ध्र ववृद्धि साधयेत् । अध्र ववृद्धिरपि विवक्षितकाण्डकेन तत्तत्क्षे त्रकालाविरोधेन वक्तव्या ॥४०८॥ तद्यथा
घनामुलासंख्यातैकभागमात्राः ६ वा घनाङ्गुलसंख्येयभागमात्राः ६ वा घनाङ्गुलमात्राः ६ वा
संख्यातघनाङ्गुलमात्राः ६१ वा असंख्यातघनाङ्गुलमात्रा ६० एवं श्रेणीप्रतरयोरपि, तथाहि-श्रेण्यसंख्येय
२०
भागमात्राः । वा श्रेणिसंख्येयभागमात्राः १ वा श्रेणिमात्राः-वाः संख्यातश्रेणिमात्राः-१ वा असंख्यातश्रेणिमात्रा:- वा प्रतरासंख्येयमात्रा -2 वा प्रतरसंख्येयभागमात्राः = वा संख्यातप्रतरमात्रा-१ वा
a
असंख्यातप्रतरमात्राः = प्रदेशा वर्धित्वा वर्धित्वा काले एकैकसमयो वर्धते इत्यध्रववृद्धिक्रमः ॥४०९॥
भागप्रमाण उत्कृष्टक्षेत्र प्रथमकाण्डकका होता है । इसी प्रकार सब काण्डकोंमें ध्रुववृद्धिका २५ म प्रमाण लाना चाहिए। अध्रववृद्धि भी विवक्षित काण्डकमें उस-उस क्षेत्रकालका विरोध न करते हुए लानी चाहिए ॥४०८॥
वही कहते हैं
घनांगुलके असंख्यातवें भागमात्र अथवा घनांगुलके संख्यातवें भागमात्र, अथवा घनांगुलमात्र, अथवा संख्यात धनांगुलमात्र, अथवा असंख्यात धनांगुलमात्र, अथवा श्रेणीके असंख्यातवें भागमात्र, अथवा श्रेणीके संख्यातवें भागमात्र, अथवा श्रेणिप्रमाण, अथवा संख्यात श्रेणिमात्र, अथवा असंख्यात श्रेणिमात्र, अथवा प्रतरके असंख्यातवें भाग, अथवा प्रतरके संख्यातवें भाग अथवा प्रतरमात्र अथवा संख्यात प्रतरमात्र अथवा असंख्यात प्रतरमात्र प्रदेश बढ़ा-बढ़ाकर कालमें एक-एक समय बढ़ता है। इस प्रकार अध्रुववृद्धिका क्रम है।।४०९।।
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६४७ कार्मणवर्गणयनोम्, ध्रुवहारदिदं भागिसिदोडे देशावधिज्ञानदुत्कृष्टद्रव्यमक्कुं व तदुत्कृष्ट क्षेत्रं मत्ते लोकदोळेनुं कोरतेयिल्लदे संपूर्णलोकमात्रमक्कं ।
पल्ल समऊणकाले भावेण असंखलोगमेत्ता हु । • दव्वस्स य पज्जाया बरदेसोहिस्स विसया हु ॥४११॥ __पल्यं समयोनं काले भावेन असंख्य लोकमात्राः खलु। द्रव्यस्य च पर्यायाः वरदेशावधे- ५ विषयाः खलु ॥
कालदोळु देशावधिगुत्कृष्टं समयोनपल्यमात्रमकुं। प १ । भावदिदमसंख्यातलोकमात्रंगळु स्फुटमागि काल भाव शब्दद्वयवाच्यंगळुमा द्रव्यपायंगळु वरदेशावधिज्ञानक्के विषयंगळप्पुवु । स्फुटमागि।=an
काले चउण्ह उड्ढी कालो भजिदव्व खेत्तउड्ढी य ।
उड्ढीए दव्वपज्जय भजिदव्वा खेत्तकाला हु॥४१२॥ काले चतुर्णां वृद्धिः कालो भजनीयः क्षेत्रवृद्धिश्च । द्रव्यपर्साययोवृद्धौ भक्तव्यौ क्षेत्रकालौ ॥
आवागळोम्र्मे कालवृद्धियक्कुमागळु द्रव्यक्षेत्रकालभावंगळ्नाल्कर वृद्धिगळक्कं क्षेत्रवृद्धियागुत्तं विरलु कालमोंदे भजनीयमक्कुं । द्रव्यभावंगळ वृद्धियोळु क्षेत्रकालद्वयवृद्धिगळु विकल्पनीयंगळप्पुबुदु युक्तियुक्तमेयक्कुं।
कार्मणवर्गणा एकवारं ध्र वहारेण भक्ता देशावध्युत्कृष्टद्रव्यं भवति व तदुत्कृष्टक्षेत्र पुनः संपूर्णलोको भवति ॥४१०॥
काले देशावधैरुत्कृष्टं समयोनपल्यं भवति प-१ । भावेन पुनः असंख्यातलोकमात्र भवति। कालभावशब्दद्वयवाच्यास्ते द्रव्यस्य पर्याया वरदेशावधिज्ञानस्य स्फुट विषया भवन्ति ॥४११॥
यदा कालवृद्धिस्तदा द्रव्यादीनां चतुर्णा वृद्धयो भवन्ति । यदा क्षेत्रवृद्धिस्तदा कालवृद्धिः स्याद्वा न वेति भजनीया । यदा द्रव्यभाववृद्धी तदा क्षेत्रकालवृद्धी अपि भजनीये इत्येतत्सर्वं युक्तियुक्तमेव ।।४१२॥ अथ २० परमावधिज्ञानप्ररूपणमाह
___कार्मणवर्गणाको एक बार ध्र वहारसे भाजित करनेपर देशावधिका उत्कृष्ट द्रव्य होता है और उत्कृष्ट क्षेत्र सम्पूर्ण लोक है ॥४१०॥
देशावधिका उत्कृष्ट काल एक समयहीन पल्य है और भाव असंख्यात लोकप्रमाण है। काल और भावशब्दसे द्रव्यकी पर्याय उत्कृष्टदेशावधिज्ञानके विषय होती हैं। ऐसा जानना। २५
विशेषार्थ-एक समयहीन एक पल्य प्रमाण अतीतकालमें हुई और उतने ही प्रमाण आगामी कालमें होनेवाली द्रव्यकी पर्यायोंको उत्कृष्ट देशावधि जानता है। भावसे असंख्यात लोकप्रमाण पर्यायोंको जानता है ॥४११॥
अवधिज्ञानके विषयमें जब कालकी वृद्धि होती है।तब द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव चारोंकी वृद्धि होती है । जब क्षेत्रकी वृद्धि होती है, तब कालकी वृद्धि भजनीय है, हो या न हो। जब । द्रव्य और भावकी वृद्धि होती है, तब क्षेत्र और कालकी वृद्धि भजनीय है। यह सब युक्ति. युक्त ही है ॥४१२॥ १. स्वविषयस्कंधगतानंतवर्णादिविकल्पो भाव इति राजवात्तिके उक्तत्वात् द्रव्यस्य पर्याया एव कालभाव
शब्दवाच्या भूतभावि पर्यायाणां वर्तमानपव्याणां च कालभावत्वख्यापनात इति-टिप्पण ।
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१०
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गो० जीवकाण्डे
अनंतरं परमावधिज्ञान प्ररूपणमं पेदपं :
देसाव हिवरदव्वं धुवहारेणवहिदे हवे नियमा । परमावहिस्स अवरं दव्वपमाणं तु जिणदिट्ठ ||४१३ ॥
देशावधिवद्रव्यं ध्रुवहारेणापहृते भवेन्नियमात् । परमावधेरवर द्रव्यप्रमाणं तु जिनविष्टं ॥ सर्वोत्कृष्टदेशावधिज्ञानविषयोत्कृष्टद्रव्यमं पूर्वोक्त ध्रुवहारैकवार भक्तकाम्मणवर्गणाप्रमाणमं व ध्रुवहारदिदं भागिसुत्तिरलु व तु मत्ते परमावधिविषयजघन्यद्रव्यप्रमाणं नियमदिंदमक्कु दु जिनदं पेळल्पदुदु । इन्ना परमावधियुत्कृष्टद्रव्यप्रमाणमं पेदपं :परमावहिस्स भेदा सग ओगाहणवियप्पहदतेऊ ।
९
९९
चरिमे हारपमाणं जेस्स य होदि दूव्वं तु ||४१४ ॥
परमावधेर्भेदाः स्वकावगाहनविकल्पहततेजसः । चरमे हारप्रमाणं ज्येष्ठस्य भवेत् द्रव्यं तु ॥ परमावधिज्ञानविकल्पंगळे नितप्पुवे दोडे स्वावगाहनविकल्पंगदिं गुणिसल्पट्ट तेजःस्कायिक
जीवंगळ संख्ये यावत्तावत्प्रमाणंगळप्पु
६०ई परमावधिज्ञातसर्व्वं विकल्पंगळोळु सर्व्वे
प
a
त्कृष्टचरमविकल्पदो तु मत्ते द्रव्यमुत्कृष्टपरमावधि
वहारप्रमाणमेयक्कु ॥ ९ ॥
सव्वास्स एक्को परमाणू होदि णिव्वियप्पो सो । गंगामहाणइस्स पवाहोत्र धुवो हवे हारो ॥ ४१५ ॥
सर्व्वावधेरेकः परमाणुः भवेन्निव्विकल्पः । सः गंगामहानद्याः प्रवाहवत् ध्रुवो भवेद्धारः ॥ देशाव धेरुत्कृष्टद्रव्यमिदं व तु-पुनः ध्रुवहारेण भक्तं तदा व परमावधिविषयजघन्यद्रव्यं नियमेन भव
९
९९
तीति जिनैरुक्तं ॥ ४१३ ।। इदानीं परमावधेरुत्कृष्टद्रव्यप्रमाणमाह
परमावधिज्ञानविकल्पाः स्वावगाहन विकल्प गुणिततेजस्कायिकजीवसंख्या भवन्ति ६ । a
प
पुनः सर्वोत्कृष्ट चरम विकल्पेषु पुनः द्रव्यं धवहारप्रमाणमेव ९ भवेत् ||४१४ ॥
२०
अब परमावधिज्ञानका कथन करते हैं
देशाधिके उत्कृष्ट द्रव्यको धवहारसे भाग देनेपर परमात्रधिके विषयभूत जघन्य द्रव्यका प्रमाण होता है, ऐसा जिनदेवने कहा है ||४१३||
a
अपराध उत्कृष्ट द्रव्यका प्रमाण कहते हैं
तेजस्कायिक जीवोंकी अवगाहनाके भेदोंसे तेजस्कायिक जीवोंकी संख्याको गुणा २५ करनेपर जो प्रमाण आता है, उतने परमावधिज्ञानके भेद हैं । उनमें से सबसे उत्कृष्ट अन्तिम भेदके विषयभूत द्रव्य ध्रुवहार प्रमाण ही होता है । अर्थात् ध्रुवहारका जितना परिमाण है, उतने परमाणुओंके समूहरूप सूक्ष्म स्कंन्धको जानता है ||४१४ ॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६४९
मत्तमा परमावधिसर्वोत्कृष्टद्रव्यमं ध्रु वहारप्रमितमं । ९ । तु मत्ते ध्रुवहारदिदं भागिसिदोडोदे परमाणवक्कुमा द्रव्यं सव्र्वाविधिज्ञानविषयद्रव्यमक्कुमा सर्व्वावधिज्ञानमुं निव्विकल्पमेयक्कुमिंतु देशावधिज्ञानविषयमप्प जघन्यद्रव्यराशियोळ मध्यमयोगाज्जित नोकम्मौंदारिकशरीरसंचयसवित्र सोपचय लोक विभक्तप्रमितद्रव्यस्कंधदोळ देशावधिज्ञानद्वितीयविकल्पं मोदगोंड परमावधिज्ञान सर्वोत्कृष्टद्रव्यपय्र्यंतमदमोळ पोध्छु गंगानदीमहाप्रवाहमे तु हिमाचलदोपुट्टि पूर्वोदधि- ५. पय्र्यंतमविच्छिन्नरूपदिदं परिदु पोगि तदुदधिप्रविष्टमादुदंते ध्रु वहारमुमविच्छिन्न रूपदिदं प्रवेशिसि प्रवेशिसि परमाणुद्रव्यपर्यवसानमागि निदुदेकें दोर्ड विषयभूतपरमाणुवुं विषयियप्पसर्व्वावधिज्ञानमं निव्विकल्पकंगळप्पुर्दारद ।
परमोहिदव्वमेदा जेत्तियमेत्ता हु तेत्तिया होंति । तस्सेव खेत्तकालवियप्पा विसया असंखगुणिदकमा ॥ ४१६ ॥
परमावधिद्रव्यभेदाः यावन्मात्राः खलु तावन्मात्रा भवंति । तस्यैव क्षेत्रकालविकल्पाः विषया असंख्य गुणितक्रमाः ॥
परमावधिज्ञानविषयद्रव्यविकल्पंगळु यावन्मात्रंगळु तावन्मात्रंगळेयपुवु । परमावधिज्ञानविषयंगळप्प क्षेत्र विकल्पंग हुं कालविकल्पंगळं तावन्मात्रविकल्पंगळागुत्तलुं तं तम्म जघन्यविकल्पं मोदगोंड तंतमुत्कृष्टपर्यंत संख्यात गुणितक्र मंगळ पुर्वेतप्पऽसंख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवे 'दोडे १५
पेदपं ।
पुनस्तत्परमावधिसर्वोत्कृष्टं द्रव्यं ९ ध्रुवहारेणैकवारं भक्तं एकपरमाणुमात्र सर्वावधिज्ञानविषयं द्रव्यं भवति । तज्ज्ञानं निर्विकल्पकमेव स्यात् । स च ध्रुवहारः गङ्गामहानद्याः प्रवाहवद्भवति-यथा गङ्गामहानदी - प्रवाहः हिमाचलादविच्छिन्नं प्रवह्य पूर्वोदधो गत्वा स्थितस्तथायंहारोऽपि देशावधिविषयजघन्यद्रव्यात्परमावधिसर्वोत्कृष्टद्रव्यपर्यन्तं प्रवह्य परमाणु पर्यवसाने स्थितः विषयस्य परमाणोः, विषयिणः परमावधेश्च निर्विकल्पक - २० त्वात् ।।४१५।।
परमावधिज्ञानविषयद्रव्यविकल्पा यावन्मात्रा : तावन्मात्रा एव भवन्ति तस्य विषयभूतक्षेत्रकालविकल्पाः । तावन्मात्रा अपि स्वस्त्र जघन्यात् स्वस्वोत्कृष्ट पर्यन्तं असंख्यातगुणितक्रमा भवन्ति ॥ ४९६ ॥ कीदृगसंख्यातगुणितक्रमाः ? इत्युक्ते प्राह
१०
उस परमावधिके सर्वोकृष्ट द्रव्यको एक बार ध्रुवहारसे भाग देनेपर एक परमाणु मात्र . २५ सर्वावधिज्ञानका विषयभूत द्रव्य होता है । यह ज्ञान निर्विकल्प ही होता है। इसमें जघन्यउत्कृष्ट भेद नहीं है । वह ध्रुवहार गंगा महानदीके प्रवाहकी तरह है । जैसे गंगा महानदीका प्रवाह हिमाचलसे अविच्छिन्न निरन्तर बहता हुआ पूर्व समुद्र में जाकर ठहरता है, वैसे ही यह ध्रुवहार भी देशावधिके विषयभूत जघन्य द्रव्यसे सर्वावधिके उत्कृष्ट द्रव्य पर्यन्त बहता हुआ परमाणुपर आकर ठहरता है । सर्वावधिका विषय परमाणु और सर्वावधि ये दोनों ही ३० निर्विकल्प हैं || ४१५ ।।
।
परमावधिज्ञान के विषयभूत द्रव्यकी अपेक्षा जितने भेद कहे हैं, उतने ही भेद उसके विषयभूत क्षेत्र और कालकी अपेक्षा होते हैं फिर भी अपने-अपने जघन्यसे अपने-अपने उत्कृष्ट पर्यन्त क्रमसे असंख्यात गुणित क्षेत्र व काल होते हैं ||४१६|| किस प्रकार असंख्यात गुणित होते हैं, यह कहते हैं
८२
३५
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गो० जीवकाण्डे आवलिअसंखभागा इच्छिदगच्छधणमाणमेत्ताओ।
देसावहिस्स खेत्ते काले वि य होति संवग्गे ||४१७ । आवल्यसंख्यभागा ईप्सितगच्छधनमानमात्राः। देशावधेः क्षेत्रे कालेऽपि च भवंति संवर्गे ॥
परमावधिज्ञानविषयंगळप्प क्षेत्रकालंगळु तंतम्म जघन्यं मोदल्गोंडु असंख्यातगणितक्रमदिदं परमावधिज्ञानसर्वोत्कृष्टपथ्यंतमविच्छिन्नरूपदिदं नडेववंतु नडेव क्षेत्रकालविकल्पंगलावडयोळु विवक्षितंगळप्पुवल्लि देशावधिज्ञानविषयोत्कृष्टक्षेत्रकालमात्रगुण्यंगळग आवल्यसंख्यातभागगुणकारंगळु तद्विवक्षितगच्छधनमानमात्रंगळु संवर्गंगळागुत्तिरलु तावन्मात्राऽसंख्यातगुणितक्रमंगळे दरियल्पडुवदेते दोड परमावधिज्ञानप्रथमविकल्पदोळु आवल्यसंख्यातभागगुणकारंगळु
तद्गच्छमों ददर संकलितधनमात्रंगळु १२ अप्पुर्व दल्लियों दोंदे गुणकारमक्कु = ८ प- । ८ १० मंते विवक्षितद्वितीयविकल्पदोळु तद्गच्छसंकलनधनमानमात्रंगळप्पुवु २३ मूरू मूरू गुणकार
२१॥ गळप्पुवु १८८८ । प-१८८८ अंते विवक्षिततृतीयविकल्पदोळ तद्गच्छसंकलनधनमानमात्रंगळ
aaaaaa प्पुवु ३। ४ वेदारारप्पुवु =८८८८८८ । प-१८८८८८८ मी प्रकारविंदं विवक्षितचतुर्थविकल्प
२।१ दोळु तद्गच्छसंकलनधनमानमात्रंगळप्पुवु ४।५ वेंदु पत्तुं पत्तुं गुणकारंगळप्पुवु ३८ । १० ष-१।८।१० मिते पंचमविकल्पदोळ तद्गच्छसंकलनधनमात्रंगळप्पु २६ वेंदु
२१
_*aaaaaa
aaaaaa
२।१
aa
२०
परमावधेविवक्षितक्षेत्रविकल्पे विवक्षितकालविकल्पे च तद्विकल्प्यस्य यावत्संकलितधनं तावत्प्रमाणमात्रा आवल्यसंख्येयभागाः परस्परं संवर्गे देशावधेरुत्कृष्टक्षेत्रे उत्कृष्टकालेऽपि च गुणकारा भवन्ति । ततस्ते गुणकाराः प्रथमविकल्पे एकः । द्वितीयविकल्पे त्रयः । तृतीयविकल्पे षट् । चतुर्थविकल्पे दश । पञ्चमविकल्पे पञ्चदश एवं
परमावधिके विवक्षित क्षेत्र और विवक्षित कालके भेदमें उस भेदका जितना संकलित धन हो, उतने प्रमाण आवलीके असंख्यातवें भागोंको परस्परमें गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे,उतना देशावधिके उत्कृष्ट क्षेत्र और उत्कृष्ट कालमें गुणकार होते हैं। वे गुणकार प्रथम भेदमें एक, दूसरे भेदमें तीन, तीसरे भेदमें छह, चतुर्थ भेदमें दस, पंचम भेदमें पन्द्रह इस प्रकार अन्तिम भेद पर्यन्त जानना ।
विशेषार्थ-जिस नम्बरके भेदकी विवक्षा हो, एकसे लगाकर उस भेद पर्यन्तके एकएक अधिक अंकोंको जोड़नेसे जो प्रमाण आवे, उतना ही उसका संकलित धन होता है । जैसे २५ प्रथम भेदमें एक ही अंक है। अतः उसका संकलित धन एक जानना। दूसरे भेदमें एक और
दोको जोड़नेपर संकलित धन तीन होता है। तीसरे भेदमें एक, दो तीनको जोड़नेसे संकलित धन छह होता है। चौथे भेदमें उसमें चार जोड़नेसे संकलित धन दस होता है। पाँचवें भेदमें पाँचका अंक और जोड़नेसे संकलित धन पन्द्रह होता है। सो पन्द्रह जगह
आवलीके असंख्यातवें भागोंको रखकर परस्पर में गुणा करनेसे जो परिमाण हो,वही पाँचवें ३० भेदका गुणकार होता है। इस गुणकारसे उत्कृष्ट देशावधिके क्षेत्र लोकको गुणा करनेपर जो
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
___६५१ पदिनेदु पदिनैर्दु गुणकारंगळप्पुवु ३८ ॥ १५ ५-१।८।१५ ई प्रकारदिदं षष्ठादिपरमावधिचरमविकल्पपय्यंतं सैकपदाहतपददलचयाहतमात्रगुणकारंगळावल्यसंख्यातंगळु पूर्वोक्तगुण्यंगळगे गुणकारंगळप्पुवुवे बी व्याप्तियरियल्पडुगुं। मत्तमी गुणकारंगळुत्पत्तिक्रममं प्रकारांतरदिदं पेळ्दपरु :
गच्छसमा तक्कालियतीदे रूऊणगच्छधणमेत्ता ।
उभये वि य गच्छस्स य धणमेत्ता होति गुणगारा ॥४१८।। गच्छसमा तात्कालिकातीते रूपोनगच्छधनमात्राः। उभयस्मिन्नपि गच्छस्य च धनमात्राः भवंति गुणकाराः॥
अथवा गच्छसमासगुणकाराः विवक्षितपदमात्रा गुणकारंगळु तात्कालिकातीते तद्विवक्षितस्थानानंतराधस्तनविकल्पदोळ रूपोनगच्छधनमात्राः तद्विवक्षितरूपोनगच्छधनमात्रंगळं उभय- १. स्मिन् मिलिते ई रूपोनगच्छधनमात्रंगळु विवक्षितगच्छमात्रंगळुमं कूडुत्तिरलु गच्छस्य च धनमात्रा भवंति मुं पेळ्दंते विवक्षितगच्छधनमात्रंगळप्पुवु। अदेंतेदोडे विवक्षितचतुर्थविकल्पदोळ गुणकाराः गुणकारंगळु गच्छसमाः विवक्षितगच्छसमानंगळु ४ तात्कालिकातीते तद्विवक्षितस्थानानंतराधस्तनविकल्पदोळु रूपोनगच्छधनमात्राः तद्विवक्षितरूपोनगच्छधन ४।४ मात्रंगळु ६ उभयस्मिन्मिलितेपि च ई रूपोनगच्छधनमागळं विवक्षितगच्छमात्रंगळमं ४ कूडुतिरलु गच्छस्य १५ धनमात्रा भवंति मुं पेळ्दंते विवक्षितगच्छधनमात्रंगळु पत्तु गुणकारंगलप्पुवु =१०ष-२८०१० अंत पंचमविकल्पदोळु गुणकाराः गुणकारंगळु गच्छसमाः विवक्षितगच्छसमानंगळु ५ तात्कालिकातोते तद्विवक्षितस्थानानंतराधस्तनविकल्पदोळु रूपोनगच्छधनमात्राः तद्विवक्षितरूपोनगच्छधन ..
५ ५ मात्रंगळु १० । उभयस्मिन्मिलितेपि च ई रूपोनगच्छधनमात्रंगळकं १० । विवक्षितगच्छ मानंगळ्मं ५ कूडुत्तिरलु गच्छस्य च धनमात्रा भवंति मुंपेळ्दत विवक्षितगच्छधनमात्रंगळु पदिनैदु २०
११
षष्ठादिचरमपर्यन्तं नेतव्यम् ॥४१७॥ पुनः प्रकारान्तरेण तानेव गुणकारान् उत्पादयति
गच्छसमाः-गच्छमात्राः यथा चतुर्थविकल्पे चत्वारः, तात्कालिकातीते च तृतीयविकल्पे रूपोनगच्छ-
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प्रमाण आवे,उतना परमावधिके पाँचवे भेदके विषयभूत क्षेत्रका परिमाण होता है । तथा इसी गुणकारसे देशावधिके विषयभूत उत्कृष्ट काल एक समय हीन एक पल्यमें गुणा करनेपर पाँचवें भेदमें कालका परिमाण होता है। इसी तरह सब भेदोंमें जानना ॥४१७||
पुनः प्रकारान्तरसे उन्हीं गुणकारोंको कहते हैं
गच्छके समान धन और गच्छसे तत्काल अतीत जो विवक्षित भेदसे पहला भेद, सो विवक्षित गच्छसे एक कम गच्छका जो संकलित धन, इन दोनोंको मिलानेसे गच्छका संकलित धन प्रमाण गुणकार होता है। उदाहरण कहते हैं-जितनेवाँ भेद विवक्षित हो
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aa
६५२
गो० जीवकाण्डे गुणकारंगळप्पुवु २८ । १५ । प-१ । ८ । १५ । इंतळेडयोळं व्याप्तियरियल्पडुगुं ।
परमावहिवरखेत्तेणवहिदउक्कस्स ओहिखेत्तं तु ।
सव्वावहिगुणगारो काले वि असंखलोगो दु ॥४१९॥ परमावधिवरक्षेत्रेणापहृतोत्कृष्टावधिक्षेत्रं तु । सावधिगुणकारः कालेप्यसंख्यातलोकस्तु।
परमावधिज्ञानविषयोत्कृष्टक्षेत्रप्रमादिदं अवधिनिबद्धोत्कृष्टक्षेत्रमं भागिसुत्तिरलावुदोंदु लब्धमदु तु मत्ते सर्वावधिज्ञानविषयक्षेत्रगुणकारमक्कुमावगुण्यक्किदुगुणकारमक्कुम दोडे परमावधिज्ञानविषयसर्वोत्कृष्टक्षेत्रक्कक्कुमा गुण्यगुणकारंगळं गुणिसिद लब्धं सर्वावधिज्ञानविषयक्षेत्रमक्कुमें बुदत्थं । अंतादोडा अवधिनिबद्धोत्कृष्ट क्षेत्रप्रमाणमनितेंदोड।
घणळोगगुणसळागा वग्गट्टाणा कमेण छेदणया। तेजक्कायस्स ठिदी ओहिणिबद्धं चं खेत्तं ॥ अज्झवसाणणिगोदसरीरे तेसु वि य कायठिदी जोगा।
अविभागपडिच्छेदो ळोगेवग्गे असंखेज्जे । एंबी यागमप्रमाणदिदं घनघनाधारियोळ्पेळल्पट्ट अवधिनिबद्धोत्कृष्टमसंख्यातलोकसंवर्गसंजनितलब्धराशियक्कुमी राशियं परमावधिज्ञानविषयसर्वोत्कृष्टक्षेत्रदिदं भागिसुत्तिरलु १५ = = a = a = a = a = a लब्धं यावत्तावत्प्रमाणं = as a गुणकारप्रमाणमक्कुमी
गुणकारदिदं परमावधिज्ञानविषयसर्बोत्कृष्टक्षेत्रमं = aa = a = a गुणिसिदोडे सर्वावधिज्ञानविषयक्षेत्रमे अवधिनिबद्धोत्कृष्टक्षेत्रमक्कुम बुदथं = = a = a = aad तु मत्ते
धनमात्राः षट्. ते उभये मिलित्वा गच्छधनमात्रा दशगुणकारा भवन्ति । एवं सर्वबिकल्पेषु ज्ञातव्यम् ॥४१८॥
उत्कृष्टावधिक्षेत्रं तावद् द्विरूपधनाधनधारायां लोकगुणकारशलाकावर्गशलाकार्धच्छेदशलाकातेजस्कायिक२० स्थित्यवधिनिबद्धोत्कृष्टक्षेत्राणां प्रत्येकमसंख्यातवर्गस्थानानि गत्वा गत्वोत्पन्नत्वात् पञ्चासंख्यातलोकगुणितलोकमात्रं तदेव परमावधिज्ञानविषयोत्कृष्टक्षेत्रप्रमाणेन भक्तं सत--
Baaaaaa सर्वाव25a3ara
उसके प्रमाणको गच्छ कहते हैं। जैसे विबक्षित भेद चौथा सो गच्छका प्रमाण चार हुआ। और तत्काल अतीत तीसरा भेद तीन, उसका गच्छ धन छह हुआ। पहला गच्छ चार और
यह छह मिलकर दस होते हैं। इतना ही विवक्षित गच्छ चारका संकलित धन होता है। २५ यही चतुर्थ भेदका गुणकार होता है । इसी प्रकार सब भेदोंमें जानना ॥४१८॥
उत्कृष्ट अवधिज्ञानका क्षेत्र कहते हैं। द्विरूपघनाघनधारामें लोक, गुणकारशलाका, वर्गशलाका, अर्धच्छेदशलाका, अग्निकायकी स्थितिका परिमाण और अवधिज्ञानके उत्कृष्ट क्षेत्रका परिमाण, ये स्थान असंख्यातं-असंख्यात वर्गस्थान जानेपर उत्पन्न होते हैं । इसलिए
पाँच बार असंख्यात लोक प्रमाण परिमाणसे लोकको गुणा करनेपर सर्वावधिज्ञानके ३० विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्रका परिमाण आता है। उसमें उत्कृष्ट परमावधिज्ञानके विषयभूत
क्षेत्रका भाग देनेपर जो परिमाण आवे, वह सर्वावधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्रका परिमाण लाने के लिए गुणकार होता है । इससे परमावधिज्ञानके विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्रको गुणा करनेपर सर्वावधिज्ञानके विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्रका परिमाण आता है। तथा सर्वावधिके
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६५३ सर्वावधिज्ञानविषयकालदोळ परमावधिज्ञानविषयोत्कृष्टकालगुण्यक्कयुमसंख्यातलोकं । = a गुणकारमक्कुमा परमावधिज्ञानविषयसर्वोत्कृष्टक्षेत्रकालंगळ प्रमाणंगळता मनितेंदोडे तदानयनविधानकरणसूत्रद्वयमं पेन्दपं ।
इच्छिदरासिच्छेदं दिण्णच्छेदेहि भाजिदे तत्थ ।
लद्धमिददिण्णरासीणब्भासे इच्छिदो रासी ।।४२०।। ईप्सितराशिच्छेदं देयच्छेदै जिते तत्र । लब्धमितदेयराशीनामभ्यासे ईप्सितो राशिः।
इदु साधारणसूत्रमप्पुरिदमिल्लियंकसंदृष्टि मुन्नं तोरिसल्पडुगुमदेते दोर्ड परमावधिज्ञानविषयक्षेत्रकालंगळोळावल्यसंख्यातभागगुणकारंगळु पूर्वोक्तकदिदं विवक्षितगच्छधनप्रमितंगळेब व्याप्तियंटप्पुरिदं परमावधिज्ञान तृतीयविकल्पमं विवक्षितं माडिकोंडु ईप्सितराशियुमं बेसदछप्पण्णनं माडि २५६ अदक्के गुणकारभूतावल्यसंख्यातक्के चतुःषष्टि चतुर्थाशमं ६४ संदृष्टियं १० माडिदीयावलियऽसंख्यातगुणकारंगळा तृतीयविकल्पदोळु गच्छधनप्रमितंगळ्प्पुवु ३।४ लब्ध
२।१ धिविषयक्षेत्रानयने गुणकारो भवति = a = a अनेन परमावधिज्ञानविषयसर्वोत्कृष्टक्षेत्रे गुणिते सर्वावधिज्ञानविषयक्षेत्रं स्यात इत्यर्थः । तु–पुनः सर्वावधिविषयकालानयने परमावधिविषयसर्ऋत्कृष्टकालस्य प-१ Zamaa असंख्यातलोकः = गुणकारो भवति ॥४१९॥ तत्परमावधिविषयोत्कृष्टक्षेत्रकालप्रमाणानयनविधाने करणसूत्रद्वयमाह
अस्य साधारणसूत्रत्वात् ईप्सितराशेः वेसदछप्पण्णस्य अर्धच्छेदाः अष्टौ ८ । एषु देयस्य आवल्यसंख्येयभागसंदृष्टिचतुःषष्टिचतुर्थाशस्य ६४ अर्धच्छेदैः. भागहारार्धच्छेदन्यूनभाज्यार्धच्छेदमात्रः ६-२ भाजितेषु
सत्सु ८ तत्र यावल्लब्धं २ तावन्मात्रदेयराशीनां ६४ ६४ अभ्यासे परस्परगणने कृते सति ईप्सितराशिरुत्पद्यते ।
२५६ एवं पल्यसूच्यङ्गुलजगच्छ्रे णिलोकानामपीप्सितराशीनामर्धच्छेदेषु देयस्यावल्यसंख्येयभागल्यार्धच्छेविषयभूत कालका परिमाण लाने के लिए असंख्यात लोक गुणकार है। इस असंख्यात लोक २. प्रमाण गुणकारसे परमावधिके विषयभूत सर्वोत्कृष्ट कालको गुणा करनेपर सर्वावधिज्ञानके विषयभूत कालका परिमाण होता है ।।४१५॥ .
__ अब परमावधिके विषयभूत उत्कृष्ट क्षेत्र और उत्कृष्ट कालका प्रमाण लानेके लिए दो करणसूत्र कहते हैं
.. यह करणसूत्र होनेसे सब जगह लग सकता है। इसका अर्थ-इच्छित राशिके २५ अर्धच्छेदोंको देयराशिके अर्धच्छेदोंसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उसको एक-एक करके पृथक्-पृथक् स्थापित करे । और उस एक-एकके ऊपर जिस देयराशिके अर्धच्छेदोंसे भाग दिया था,उसी देयराशिको रखकर परस्परमें गुणा करनेपर इच्छितराशिका प्रमाण आता है। जैसे इच्छित राशि दो सौ छप्पन २५६ के अर्धच्छेद आठ ८। देयराशि चौंसठका चौथा भाग-2 सोलह । उसके अर्धच्छेद चार। क्योंकि भाज्यराशि चौंसठके अर्धच्छेद छह है। ३. उसमें-से भागहार चारके अर्धच्छेद दो घटानेसे शेष चार अर्धच्छेद बचते हैं। इन चार । अधच्छेदोंका भाग आठ अर्धच्छेदोंमें देनेसे दो लब्ध आया। सो दोका विरलन करके एकएकपर देयराशि चौंसठके चतुर्थ भाग सोलह रखकर परस्परमें गुणा करनेसे इच्छितराशि
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५
६५४
मारु ६ । एतावन्मात्र गुणकारंगळप्पुवु
राशिच्छेदं विवक्षितराशियदु बेसदछप्पण्णनदर च्छेदराशियें टु ८ । इदनु देयच्छेदैः देयमावल्यसंख्यातक्कंसंदृष्टि ६४ इदरर्द्धच्छेदंगळे नितप्पुवे दोडे भज्जस्सद्धच्छेदा भाज्यदर्द्धच्छेदंगळारु ६ ।
४
हारद्धच्छेदणाहि परिहीणा हारदर्द्धच्छेदंगलदं परिहीनंग जादोडे । ६ । २ । नात्कु । लद्धस्सद्धंछेदा तल्लब्धं राशिग र्द्धच्छेदशला केगळप्पुवप्पुर्दारंदमी देयराशियर्द्धच्छेदंगळदं भागंगोळुत्तिरलु १८ ६-२ लब्धं यावन्मात्र २ तावन्मात्रदेयरासीण भासे देवराशिगळ्गन्योन्याभ्यासमागुत्तिरलु ६४ ॥ ६४ तन्न विवक्षित राशियप्प बेसद छप्पण्णं पुट्टुगुमित । पल्य । सूच्यंगुल । जगच्छ्रेणिलोकंगळी प्सितराशिगळादोडं तत्तर्द्धच्छेदंगळना देयमप्पावल्यसंख्यातदर्द्धच्छेदं गळदं भागिसि पल्यच्छेद सूच्यंगुलच्छेद जगच्छ्रेणीच्छेद लोकच्छेद
४ ४
ततल्लब्धमात्रमावल्य संख्यातंगलं
छे
वि छे छे ९
१६-४ १६-४
गो० जीवकाण्डे
६४ । ६४ । ६४ । ६४ । ६४ । ६४ मिल्लि ईप्सित
૪ ४ ४ ४ ४ ४
१० गुणिसुत्तिरलु तत्तत्पल्यसूच्यंगुल जगच्छ्रेणिलोकंगलं पुदुगु दरिवुदु । दिण्णच्छेदे णव हिदलोगच्छेदेण पदधणे भजिदे ।
I
I
१६- छे छे ३ १ । ६–४
४
लद्धमिदलोगगुणणं परमावहिचरमगुणगारो || ४२१॥
देयच्छेदनापहृत लोकच्छेदेन पदधने भक्ते । लब्धमितलोकगुणनं परमावधिचरमगुणकारः । देयच्छेदंगळदं भागिसल्पट्ट लोकच्छेदंगळदं ८ पदधने मुन्नं विवक्षित तृतीयपद
१५ धनमं ३ | ४ भजिदे भागिसुत्तिरलु ३ | ४
२ ।१
२१।८ ६-२
दैर्भक्तेषु -
पल्यच्छेद | सूच्यङ्गुलच्छेद | जगच्छ्रे णिच्छेद छे छे छे विछे छे ३ १६-४ १६-४ वल्यसंख्येयभागानामभ्यासे कृते ते पत्यादीप्सितराशयः उत्पद्यन्ते ॥ ४२० ॥
१६-४
देयच्छेद भक्त लोकच्छेदैः ८ पदधने विवक्षिततृतीयपदस्य धने ३ । ४ भक्ते ३ । ४ ६-२ २ । १ २ । १ । ८
६-२
I
६-२
यल्लब्धं तल्लब्धमपर्वात्ततं मूरु ३ । तावन्मात्र
लोकच्छेद वि छे छे ९
१६-४
२५६ उत्पन्न होती है । इसी प्रकार पल्य प्रमाण या सूच्यंगुल प्रमाण या जगतश्रेणी प्रमाण २० अथवा लोकप्रमाण जो भी इच्छित राशि हो, उसके अर्धच्छेदोंमें देयराशि आवलीके असंख्यातवें भागके अर्धच्छेदोंसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उसका एक-एक के रूपमें विरलन करके प्रत्येक के ऊपर आवलीका असंख्यातवाँ भाग रखकर परस्पर में गुणा करने पर इच्छित राशि पल्य आदि उत्पन्न होती है ॥४२०||
राशिके अर्धच्छेदों का भाग लोकराशिके अर्धच्छेदों में देनेपर जो प्रमाण आवे,
तत्र यल्लब्धं तत्तन्मात्रा
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a
बेसदछप्पण्णंगळं संवग्गं माडिद लब्धं तृतीयपददोलु परमावधिक्षेत्रकालंग गुणकारप्रमाणमक्कु == ६५ । = २५६ । १ । ६५ = २५६ । मिते चरमदोळं देयमावल्यसंख्यात भागमक्कु ८ मी राशिगर्द्धच्छेदंगळेनितपुर्व 'दोडे संख्यातरूपहीनावलिच्छेदमात्रंगळप्पुवु १६-४ वदे तें दोडेविरलिज्ज माणराशी दिणस्सद्धच्छिदीहि संगुणिदे । अद्धच्छेदसळागा होंति समुप्पण्णरासिस्स ।
एंदिताव लिये बुदु परिमितासंख्यातजघन्य राशियं विरलिसि प्रतिरूपमा राशियने कोट्टु गितसंवग्गं मार्ड संजनितराशियत्युर्दारदमा परिमितासंख्यातजघन्यराश्यर्द्धच्छेदंगळ संख्यातरूपंगलदं गुणिसल्पट्ट परीता संख्यातजघन्यराशिप्रमाणमावलियर्द्धच्छेदं गळवु । १६ । – ७ । गुणिसिदोडे सव्वधारादि तद्योग्यधारिगलोळु परीतासंख्यातमध्यपतिता संख्यात राशियवकुम संदृष्टि पदिनारुं १६ इदरोळ हारभूतासंख्यातार्द्धच्छेदंगल संख्यातरूपंगळप्पुववं ४ कळेदोडे १० शेषमावल्यसंख्यात राशिगळर्द्धच्छेदंगलप्पु १६-४ । इंतु त्रैराशिकं माडल्पडुगुं प्र वि छे ८ वि छे १ । ६-४
a
छे ९ । फ= | इ = ६ प २
a
प्र ।
2
६५५
छे ८ ६० ई त्रैराशिक कटाक्षिसि पेदपं । देयच्छेदे
a
पा१ a
८
a
वि छे छे ९
१६-४
यल्लब्धं तन्मात्र ३ वेदछपणानां गणने परस्परसंवर्ग संजनितराशिः तृतीयपदे परमावधिक्षेत्रकालयोर्गुणकारप्रमाणं भवति = ६५ = २५६ । प-१ | ६५ = २५६ एवं चरमेऽपि देयमावल्यसंख्येयभागः तस्य अर्धच्छेदाः भागहारार्धच्छेदन्यून भाज्यार्धच्छेदमात्रत्वात् संख्यातरूपन्यूनपरीता संख्यातमध्यमभेदमात्राः संदृष्ट्या एता- १५ वन्तः १६-४ एभिः देयार्धच्छेदैर्भक्तेन लोकार्धच्छेदराशिना पदधने-परमावधिज्ञानच रम विकल्पसंकलित सर्वधने भक्ते सति यल्लब्धं तन्मात्रलोकानां परस्परगुणने परमावधिचरमगुणकारी भवति । यद्येतावतां देयरूपावल्यसंख्येयभागानां दे परस्परगुणने लोक उत्पद्यते फ तदा एतावतां देयरूपावल्यसंख्येय
५
उससे विवक्षित पदके संकलित धनमें भाग दें। उससे जो प्रमाण आवे, उतनी जगह लोकराशिको रखकर परस्पर में गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे, वह विवक्षित पद सम्बन्धी क्षेत्र २० या कालका गुणकार होता है। इसी प्रकार परमावधिके अन्तिम भेदमें गुणकार जानना । जैसे देय राशि चौंसठका चौथा भाग अर्थात् सोलह, उसके अर्धच्छेद चार, उसका भाग दो सौ छप्पन के अर्धच्छेद आठमें देनेपर दो लब्ध आया। उसका भाग विवक्षित पद तीनके संकलित धन छह में देनेसे तीन आया । सो तीन जगह दो सौ छप्पन रखकर परस्परमें गुणा करनेसे जो प्रमाण होता है, वही तीसरे स्थान में गुणकार जानना । इसी तरह यथार्थ में २५ देrराशि आवलीका असंख्यातवाँ भाग, उसके अर्धच्छेद आवलीके अर्धच्छेदों में से भाजक असंख्यात अर्धच्छेदों को घटानेपर जो प्रमाण रहे, उतने हैं । सो वे संख्यातहीन परीक्षासंख्यातके मध्यमभेद प्रमाण होते हैं । इनका भाग लोकराशिके अर्धच्छेदोंमें देनेपर जो प्रमाण आवे, उसका भाग परमावधिके विवक्षित भेदके संकलित धनमें देनेसे जो प्रमाण
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गो० जीवकाण्डे नापहृतलोकच्छेदेन पदधने भक्ते । देयच्छेवंगळिदं भागिसल्पट्ट लोकच्छेदरा शियिदं प्रमाणराशियप्पुरिदं पदधने भक्ते इच्छाराशियप्प पदधनम भागिसुत्तिरलु लब्धं यावत्तावत्प्रमितलोकंगळं ग्गितसंवर्ग माडुत्तिरलु संजनितलब्धराशियदु = a = at a परमावधिज्ञानविषयमप्प
चरमक्षेत्रदोजु गुण्यमागिई लोकक्के गुणकारप्रमाणमक्कुं 3 = a = a = a कालदोळं पल्य-१ ५ 32 इनितक्कु ।
आवलि असंखभागा जहण्णदव्वस्स होति पज्जाया ।
कालस्स जहण्णादो असंखगुणहीनमेत्ता हु ॥४२२॥ आवल्यसंख्यभागाः जघन्यद्रव्यस्य भवंति पर्यायाः। कालस्य जघन्यादसंख्यगुणहीनमात्राः खलु। __ आवल्यसंख्यातभागमानंगळु देशावधिज्ञानजघन्यद्रव्यद पर्यायंगळप्पुवादोडमा जघन्य
भागानां-दे ८
परस्परगणने कियन्तो लोका उत्पद्यन्ते इति त्रैराशिकलब्धमात्राणां
इ
. प
६ २
=
० ६ । प १ ।
लोकानां = aa = a परमावधिविषयचरमक्षेत्रकालानयने लोकसमयोनपल्ययोर्गुणकारो भवति ।= । Dalal = aप-१ । Ba Daॐ॥४२१॥
___ आवल्यसंख्यातभागमात्राः देशावधिजघन्यद्रव्यस्य पर्याया भवन्ति तथापि तद्विषयजघन्यकालात् ८
१५ आवे, उतनी जगह लोकराशिको स्थापित करके परस्पर में गुणा करनेपर जो प्रमाण आके सो
उस भेदमें गुणकार होता है। उस गुणकारसे देशावधिके उत्कृष्ट क्षेत्र लोकप्रमाणको गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे उतना उस भेदमें क्षेत्रका परिमाण होता है। तथा इसी गुणकारसे देशावधिके उत्कृष्ट काल समयहीन पल्यको गुणा करनेपर उसी भेदसम्बन्धी कालका परि
माण आता है। इसी तरह परमावधिज्ञानके अन्तिम भेदमें आवलीके असंख्यातवें भागके २० अर्धच्छेदोंका भाग लोकके अर्धच्छेदोंमें देनेसे जो प्रमाण आवे, उसका भाग परमावधिज्ञानके
अन्तिम भेदके संकलित धनमें देनेपर जो लब्ध आवे, उतनी जगह लोकराशिको रखकर परस्परमें गुणा करनेपर परमावधिका अन्तिम गुणकार होता है। सो इस प्रकार त्रैराशिक करना-आवलीके असंख्यातवें भागके अर्धच्छेदोंका लोकके अर्धच्छेदोंमें भाग देनेसे जो
प्रमाण आता है उतने आवलीके असंख्यातवें भागोंको रखकर परस्परमें गणा करनेसे यदि २५ एक लोक होता है, तो यहाँ अन्तिम भेदके संकलित धन प्रमाण आवलीके असंख्यातवें
भागोंको रखकर परस्परमें गुणा करनेसे कितने लोक होंगे। ऐसा त्रैराशिक करनेपर जितना प्रमाण आवे,उतने लोकप्रमाण अन्तिम भेदका गुणकार होता है। इससे देशावधिके उत्कृष्ट क्षेत्र लोकको अथवा उत्कृष्टकाल समयहीन पल्यको गुणा करनेपर परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्र और कालका परिमाण होता है ॥४२॥ जघन्य देशावधि ज्ञानके विषयभूत द्रव्यकी पर्याय आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण
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a
a
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका देशावधिज्ञानविषयजघन्यकालमं नोडलु ८ मसंख्यातगुणहोनमात्रंगळप्पुवु ८ स्फुटमागि।
सव्वोहित्तिय कमसो आवलियसंखभागगुणिदकमा ।
दव्वाणं भावाणं पदसंखा सरिसगा होंति ॥४२३॥ सर्वावधिज्ञानपयंतं क्रमशः आवल्यसंख्यभागगुणितक्रमाः। द्रव्याणां भावानां पदसंख्याः सदृशाः भवंति ॥
देशावधिज्ञानविषयजघन्यद्रव्यदपव्यंगळप्प भावंगळू जघन्यदेशावधिज्ञानं मोदल्गोंडु सर्वावधिज्ञानपय्यंतं क्रमदिदं आवल्यसंख्यातगुणितकमंगळप्पुवदु कारणमागि द्रव्यंगळगं भावंगल्गं स्थानसंख्यगळ समानंगळेयप्पुवु । अनंतरं नरकगतियोळ नारकर्गवधिविषयक्षत्रमं पेळ्दपरु
सत्तमखिदिम्मि कोसं कोसस्सद्धं पवढदे ताव ।
जाव य पढमे णिरये जोयणमेक्कं हवे पुण्णं ॥४२४।। सप्तमक्षितौ क्रोशः क्रोशस्याद्धं प्रवर्द्धते तावत् । यावत्प्रथमे नरके योजनमेकं भवेत्पूर्ण ॥
सप्तमक्षितिमाघवियोळु नारकर्गवधिविषयमप्प क्षेत्रमेकक्रोशमात्रमकुं । षष्टक्षितियोळु क्रोशाद्धं पर्चुगं। पंचमक्षितियोळु मत्तमदं नोडे क्रोशालु पेर्चुगं। चतुर्थ क्षितियोलहर मेले क्रोशाळू पेर्चुगुं। तृतीयक्षेत्रदोळदर मेले क्रोशाद्धं पेर्चुगुं। द्वितीयपृथ्वियोळमंत क्रोशाद्धं १५ पेर्चुगु। प्रथमक्षितियोळु क्रोशाद्धं पेच्चि संपूर्ण योजनप्रमाणमक्कुं। मा क्रोश १ । म ३ । अ। क्रोश २। अं क्रोश ५ । मे क्रोश ३ । वं को ७। घ को ४।।
१०
२
असंख्यातगुणहीनभावाः स्फुटं भवन्ति ८ ॥४२२॥
aa देशावधिजघन्यद्रव्यस्य पर्यायरूपभावाः जघन्यदेशावधितः सर्वावधिज्ञानपर्यन्तं क्रमेण आवल्यसंख्यातगणितक्रमाः स्युः । तेन द्रव्याणां भावानां च स्थानसंख्या समाना एव ॥४२३॥ अथ नरकगताववधिविषय- २० क्षेत्रमाह
सप्तमक्षितौ अवधिविषयक्षेत्र एकक्रोशः । तत उपरि प्रतिपृथ्वि तावत् क्रोशस्यार्धाधं प्रवर्धते यावत्प्रथमे हैं; तथापि उसके विषयभूत जघन्य कालसे असंख्यातगुणा हीन हैं ॥४२२।।
देशावधिके विषयभूत द्रव्य के पर्यायरूप भाव जघन्य देशावधिसे सर्वावधिज्ञान पर्यन्त क्रमसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाणसे गुणित हैं । अर्थात् देशावधिके विषयभूत द्रव्य- .
२५ की अपेक्षा जहाँ जघन्य भेद है, वहाँ ही द्रव्यके पर्यायरूप भावकी अपेक्षा आवलीके . असंख्यातवें भाग प्रमाण भावको जाननेरूप जघन्य भेद है। जहाँ द्रव्यकी अपेक्षा दूसरा भेद है, वहीं भावकी अपेक्षा उस प्रथम भेदको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे,उस प्रमाण भावको जानने रूप दूसरा भेद है। इसी प्रकार सर्वावधिपयन्त जानना । इस तरह अवधिज्ञानके जितने भेद द्रव्यकी अपेक्षा हैं, उतने ही भावकी अपेक्षा है। अतः द्रव्य और भावकी अपेक्षा स्थान संख्या समान है ।।४२३।।
अब नरकगतिमें अवधिज्ञानका विषयक्षेत्र कहते हैंसातवीं पृथ्वीमें अवधिज्ञानका विषयभूत क्षेत्र एक कोस है। उससे ऊपर प्रत्येक
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गो० जीवकाण्डे अनंतरं तिय्यंग्मनुष्यगतिगळोळवधिविषयक्षेत्रमं पेळ्दपं।
तिरिए अवरं ओघो तेजालंबे य होदि उक्कस्सं । ।
मणुए ओघं देवे जहाकम सुणुह बोच्छामि ॥४२५॥ __तिर्याश्च्यवरमोघः तेजोऽवलंबे च भवत्युत्कृष्टं। मनुजे ओघः देवे यथाक्रमं श्रृणुत ५ वक्ष्यामि ॥
तिर्यग्गतिय तिय्यंचरोळु देशावधिज्ञान जघन्यमक्कु । मेले तेजः शरीरपयंतं सामान्योक्त द्रव्यक्षेत्रकालभावंगळुत्कृष्टदिदमल्लिपय्यंत विषयमप्पुवु।
मनुजरोळ देशावधिजघन्यं मोदल्गोंडु सावधिज्ञानपय्यंतं सामान्योक्तसचमुमप्पुषु । देवगतियोळु देवर्करो यथाक्रमदिदं पेव केळि :
पणुवीसजोयणाई दिवसंतं च म कुमारभोम्माणं ।
संखेज्जगुणं खेतं बहुगं कालं तु जोइसिगे ।।४२६॥ पंचविंशतिर्योजनानि दिवसस्यांतश्च कुमारभौमानां। संख्येयगुणं क्षेत्र बहुकःकालस्तु ज्योतिष्के॥
__भावनरोळं व्यंतरोळं जघन्यदिदमिप्पत्तैदु योजनंगळुमोदु दिनदोळगे विषयमक्कु। १५ ज्योतिष्करोळु भवनवासिव्यंतररुगळ जघन्यविषयक्षेत्रमं नोडलु संख्यातगुणितं क्षेत्रमक्कु बहु
कालमक्कु।
नरके योजनं संपूर्ण भवति ॥४२४॥ अथ तिर्यग्मनुष्यगत्योराह
तिर्यग्जीवे देशावधिज्ञानं जघन्यादारभ्य उत्कृष्टतः तेजःशरीरविषयविकल्पपर्यन्तमेव सामान्योक्ततद्व्यादिविषयं भवति । मनुजे देशावधिजघन्यादारभ्य सर्वावधिज्ञानपर्यन्तं सामान्योक्तं सर्व भवति ॥४२५॥ २. देवगतौ यथाक्रमं वक्ष्यामि शृणुत
भावनव्यन्तरयोजघन्येन पञ्चविंशतियोजनानि किंचिदूनदिवसश्च विषयो भवति । ज्योतिष्के क्षेत्रं ततः संख्यातगुणं, कालस्तु बहुकः ॥४२६॥ पृथिवीमें आधा-आधा कोस बढ़ता जाता है। इस तरह प्रथम नरकमें सम्पूर्ण योजन क्षेत्र होता है ॥४२४॥
अब तिर्यचगति और मनुष्यगतिमें कहते हैं
तियंचजीवमें देशावधिज्ञान जघन्यसे लेकर उत्कृष्टसे तेजसशरीर जिस भेदका विषय है, उस भेद पर्यन्त होता है। सामान्य अवधिज्ञानके वर्णनमें वहाँ तक द्रव्यादि विषय जो कहे हैं, वे सब होते हैं। मनुष्यमें देशावधिके जघन्यसे लेकर सर्वावधिज्ञान पर्यन्त जो
सामान्य कथन किया है, वह सब होता है। आगे यथाक्रम देवगति मैं कहूँगा। उसे ३० सुनो ॥४२५॥
अब देवगतिमें कहते हैं
भवनवासी और व्यन्तरोंमें अवधिज्ञानका विषयभूत क्षेत्र जघन्यसे पचीस योजन है और काल कुछ कम एक दिन है । तथा ज्योतिषी देवोंमें क्षेत्र तो इससे संख्यातगुणा है और काल बहुत है।४२६॥
२५
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका असुराणमसंखेज्जा कोडीओ सेसजोइसंताणं ।
संखातीदसहरसा उक्कस्सोहीण विसओ दु ॥४२७।। असुराणामसंख्येया कोटयः शेषज्योतिष्कांतानां । संख्यातीतसहस्रमुत्कृष्टावधीनां विषयस्तु ॥
___असुररुगळिगत्कृष्टक्षेत्रमसंख्यातकोटिगळक्कुं। शेषनवविधभावनदेवर्कळं व्यंतरज्योतिष्क- ५ देवर्कळ' असंख्यातसहस्रमुत्कृष्टावधिज्ञानविषयमक्कुं।
असुराणमसंखेज्जा वरिसा पुण सेसजोइसंताणं । .
तस्संखेज्जदिभागं कालेण य होदि णियमेण ॥४२८॥ असुराणामसंख्येयानि वर्षाणि पुनः शेषज्योतिष्कांतानां । तत्संख्येयभागः कालेन च भवति नियमेन ॥
असुरकुलद भवनामररिगुत्कृष्टकालमसंख्येयवर्षगळप्पुवु । तुमत्त शेषनवविधभावनदेवक्कळ्गं व्यंतरज्योतिष्कदेवळगं असुरकुलसंभूतार्गे पेन्दकालमं नोडल संख्यातेकभागमक्कुमुत्कृष्टकालं। aal
१०
भवणतियाणमधोधो थोवं तिरिएण होदि बहुगं तु ।
उड्ढेण भवणवासी सुरगिरिसिहरोत्ति पस्संति ॥४२९॥ भवनत्रयाणामघोधः स्तोकं तिर्यग्बहुकं भवति तु ऊर्ध्वतो भवनवासिनः सुरगिरिशिखर. १५ पय्यंतं पश्यंति ॥
" भवनत्रयामरगर्गेल्लं केळगे केळगे अवधिविषयक्षेत्रं स्तोकस्तोकमक्कुं। तिर्यक्कागि बहुक्षेत्रं विषयमक्कुं। तु मत्त भवनवासिदेवक्कळु तम्मि डेयिदंदि मेगे सुरगिरिशिखरपय्यंतम
असुराणां उत्कृष्टविषयक्षेत्रं असंख्यातकोटियोजनमात्रम् । शेषनवविधभावनध्यन्तरज्योतिष्काणां च असंख्यातसहस्रयोजनानि ॥४२७॥
असुरकुलस्योत्कृष्टकालः असंख्येयवर्षाणि पुनः शेषनवविधभावनव्यन्तरज्योतिष्काणां तस्य संख्यातकभागः व ॥४२८॥
२०
भवनत्रयामराणामधोधोऽवधिविषयक्षेत्र स्तोकं भवति । तिर्यग्रूपेण बहुकं भवति । तु-पुनः, भवनवासिनः
असुरकुमार जातिके भवनवासी देवोंके अवधिज्ञानका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र असंख्यात कोटि योजन प्रमाण है। शेष नौ प्रकारके भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषीदेवोंके असंख्यात २५ हजार योजन है ।।४२७॥
असुरकुमारोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात वर्ष है। शेष नौ प्रकारके भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके उत्कृष्ट अवधिज्ञानका काल उक्त कालके संख्यातवें भाग है ।।४२८। __भवनवासी, व्यन्तरों और ज्योतिषी देवोंके नीचेकी ओर अवधिज्ञानका विषयक्षेत्र थोड़ा है, किन्तु तिर्यक् रूपसे बहुत है। भवनवासी अपने निवासस्थानसे ऊपर मेरुपर्वतके ३०
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६६०
गो० जीवकाण्डे
वधिदर्शनदिदं काण्बरूं।
जघन्य भवनव्यंतर
जघन्य
उ
जोयिसि
असुर
| भ ९
व्यं । जो
२५१
को
१०००।
यो २५ दि १
बहुकाल
| व
व
व
व
सक्कीसाणा पढमं बिदियं तु सणक्कुमारमाहिंदा ।
तदियं तु बम्ह लांतव सुक्कसहस्सारया तुरियं ॥४३०॥
शक्रेशानौ प्रथमां द्वितीयां तु सनत्कुमारमाहेंद्रौ। तृतीयां तु ब्रह्मलांतवौ शुक्रसहस्रारजौ ५ तु` ॥
सौधम्मैशानकल्पजरुगळु प्रथमपृथ्वीपथ्यंत काण्बरु। सनत्कुमारमाहेंद्रकल्पसंभूतरु तु मत्त द्वितीयपृथ्वीपय्यंतं काण्बरु । ब्रह्मलांतवकल्पजर तृतीयपृथ्वीपथ्यंतं काण्बरु । शुक्रशतारकल्पजरु चतुत्थंपृथ्वीपर्यंत काण्बरु।
आणदपाणदवासी आरण तह अच्चुदा य पस्संति ।
पंचमखिदिपेरंतं छढेि गेवेज्जगा देवा ॥४३१॥ आनतप्राणतवासिनः आरणास्तथाऽच्युताश्च पश्यंति पंचमक्षितिपयंतं षष्ठि ग्रैवेयका देवाः॥
आनतप्राणतवासिगळु आरणाच्युतकल्पजरुमंत पंचमक्षितिपय्यंतं काण्बरु । नवगैवेयकदहमिंदर षष्ठपृथ्वीपयंतं काण्बरु ।
सव्वं च लोयनालिं पसंति अणुत्तरेसु जे देवा ।
सक्खेत्ते य सकम्मे रूवगदमणंतभागं च ॥४३२।। सर्वां च लोकनाडी पश्यंत्यनुत्तरेषु ये देवाः । स्वक्षेत्रे स्वकर्मणि रूपगतमनंतभागं च ॥ स्वकीयावस्थितस्थानादुपरि सुरगिरिशिखरपर्यन्तं अवधिदर्शनेन पश्यन्ति ॥४२९॥
सौधर्मेशानजाः प्रथमपृथ्वीपर्यन्तं पश्यन्ति । सनत्कुमारमाहेन्द्रजाः पुनद्वितीयपृथ्वीपर्यन्तं पश्यन्ति । ब्रह्मलान्तवजास्तृतीयपृथ्वीपर्यन्तं पश्यन्ति । शुक्रशतारजाः चतुर्थपृथ्वीपर्यन्तं पश्यन्ति ॥४३०॥
आनतप्राणतवासिनः तथा आरणाच्युतवासिनश्च पञ्चमपृथ्वीपर्यन्तं पश्यन्ति, नवग्रैवेयकजा देवाः षष्ठपृथ्वीपर्यन्तं पश्यन्ति ॥४३१॥ शिखरपर्यन्त अवधिदर्शनके द्वारा देखते हैं ॥४२९॥
____ सौधर्म और ऐशान स्वर्गाके देव अवधिज्ञानके द्वारा प्रथम नरक पृथ्वीपर्यन्त देखते हैं । सनत्कुमार और माहेन्द्र स्वोंके देव दूसरी पृथ्वीपर्यन्त देखते हैं। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर और
लान्तव-कापिष्ठ स्वर्गाके देव तीसरी पृथ्वी पर्यन्त देखते हैं। शुक्र-महाशुक्र और शतार११ सहस्रार स्वर्गाके देव चतुर्थ पृथ्वीपर्यन्त देखते हैं ॥४३०॥
आनत-प्राणत तथा आरण-अच्युत स्वर्गोंके वासी देव पाँचवीं पृथ्वीपर्यन्त देखते हैं तथा नौ प्रैवेयकोंके देव छठी पृथ्वीपर्यन्त देखते हैं ॥४३१॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६६१ सर्वलोकनाडियं नवानुद्दिशपंचानुत्तरविमानवासिगळप्पहमिंद्ररु काण्बरु अदेते दोडे सौधर्माविसमस्तदेवर्कळु भेग स्वस्वस्वर्गविमानध्वजदंडशिखरपथ्यंत काण्बरु । नवानुदिशविमानवासिगळप्पहमिंदरं पंचानुत्तरविमानवासिगळप्पहमिद्ररुं मेले तं तम्म विमानशिखरं मोदल्गोंडु केळगेल्लिबरं बहितिवलयमल्लिवरं पंचविंशत्युत्तरचतुःशतधनूरहितैकविंशतियोजनरहितमप्पुदरिदं किंचिदून चतुर्दशरज्वायतरज्जुविस्तारसर्वलोकनाडियनाउदोंदु अवधिदर्शनदिदं काण्बरु। ५ तवधिदर्शनदिदं यथासंख्यमागि साधिकत्रयोदशरज्जुगळ्मं किंचिदूनचतुर्दशरज्जुगळं काण्बरेंबुदत्य । इदुर्बु क्षेत्रपरिमाणनियामकमल्तु । तत्र तत्रतननियामकमक्कुमेके दोडे अच्युतकल्पपर्यंतमाद देवर्कभिवहारमादिदमो दानों दडेगे पोदर्गळ्गे तावत्क्षेत्रदोळे तदवधिगुत्पत्यभ्युपगदिदं । स्वक्षेत्रे तंतम्म विषयक्षेत्रप्रदेशप्रचयदोळेकप्रदेशं गळे यल्पडुवुदु । स्वकर्मणि तंतम्मवधिज्ञाना. वरणकर्म द्रव्यदोळेकवारं ध्रुवहारं दातव्यमक्कुमन्नवरं तत्प्रदेशप्रचयं परिसमाप्तियक्कुमन्नेवर- १० मिदरिदं तदवधिविषयद्रव्यभेदं सूचिसल्पटुदु । ईयर्थमने विशदं माडिदपं :
___ नवानुदिशपञ्चानुत्तरेषु ये देवाः, ते सर्वां लोकनालि पश्यन्ति अयमर्थः । सौधर्मादिदेवाः उपरि स्वस्वस्वर्गविमानध्वजदण्डशिखरपर्यन्तं पश्यन्ति । नवानुदिशपञ्चानुत्तरदेवास्तु उपरि स्वस्वविमानशिखरमधो यावद्बहितिवलयं तावत् साधिकत्रयोदशरज्ज्वायतां पञ्चविंशत्युत्तरचतुःशतधनुरूनैकविंशतियोजनैन्यूनचतुर्दशरज्ज्वायतां च रज्जुविस्तारां सर्वलोकनालिं पश्यन्तीति ज्ञातव्यम् । इदं क्षेत्रपरिमाणनियामकं न किन्तु तत्रतत्रतनस्थाननि- १५ यामकं भवति कुतः ? अच्युतान्तानां बिहारमार्गेण अन्यत्र गतानां तत्रैव क्षेत्रे तदवध्युत्पत्त्यभ्युपगमात् । स्वक्षेत्रे स्वस्वविषयक्षेत्रप्रदेशप्रचये एकप्रदेशोऽपनेतव्यः । स्वकर्मणि स्वस्वावधिज्ञानावरणकर्मद्रव्ये एकवारं ध्रुवहारो दातव्यः यावत्प्रदेशप्रचयपरिसमाप्तिः स्यात्तावत, अनेन तदवधिविषयद्रव्यभेदः सूचितः ॥ ४३२ ॥
नौ अनुदिशों और पाँच अनुत्तरोंमें जो देव हैं, वे समस्त लोकनाली अर्थात् त्रसनालीको देखते हैं । सौधर्म आदिके देव अपने-अपने स्वर्गके विमानके ध्वजादण्डके शिखरपर्यन्त २० देखते हैं । नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तरोंके देव ऊपर अपने-अपने विमानके शिखरपर्यन्त और नीचे बाह्य तनुवातवलयपर्यन्त देखते हैं। सो अनुदिश विमानवाले तो कुछ अधिक तेरह राजू लम्बी एक राजू चौड़ी समस्त लोकनालीको देखते हैं और अनुत्तर विमानवाले चार सौ पचीस धनुष कम इक्कीस योजनसे हीन चौदह राजू लम्बी एक राजू चौड़ी समस्त त्रसनालीको देखते हैं । यह कथन क्षेत्रके परिमाणका नियामक नहीं है, किन्तु उस-उस , स्थानका नियामक है। क्योंकि अच्युत स्वर्ग तकके देव विहार करके जब अन्यत्र जाते हैं, तो उतने ही क्षेत्रमें उनके अवधिज्ञानकी उत्पत्ति मानी गयी है। अर्थात् अन्यत्र जानेपर भी अवधिज्ञान उसी स्थान तक जानता है, जिस स्थान तक उसके जाननेकी सीमा है ; जैसे अच्युत स्वर्गका देव अच्युत स्वर्गमें रहते हुए पांचवीं पृथ्वी पर्यन्त जानता है। वह यदि विहार करके नीचे तीसरे नरक जावे, तो भी वह पाँचवीं पृथ्वीपर्यन्त ही जानता है ; उससे ३० आगे नहीं जानता । अस्तु, अपने क्षेत्रमें अर्थात् अपने-अपने विषयभूत क्षेत्रके प्रदेशसमूहमेंसे एक प्रदेश घटाना चाहिए और अपने-अपने अवधिज्ञानावरण कर्मद्रव्यमें एक बार ध्रुवहारका भाग देना चाहिए। ऐसा तबतक करना चाहिए , जबतक प्रदेशसमूहकी समाप्ति हो। इससे देवोंमें अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यमें भेद सूचित किया है अर्थात् सब देवोंके अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्य समान नहीं हैं ।।४३२।।
३५
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गो० जीवकाण्डे कप्पसुराणं सगसग ओहीखेत्तं विविस्ससोवचयं । ओहीदव्वपमाणं संठाविय धुवहारेण हरे ॥४३३।। सगसगखेत्तपदेससलायपमाणं समप्पदे जाव ।
तत्थतणचरिमखंडं तत्थतणोहिस्स दव्वं तु ॥४३४।। कल्पसुराणां स्वकस्वकावधिक्षेत्रं विवित्रसोपचय-मवधिद्रव्यप्रमाणं संस्थाप्य ध्रुवहारेण
हरेत् ॥
स्वस्वक्षेत्रप्रदेशशलाकाप्रमाणं समाप्यते यावत् । तत्रतनचरमखंडं तत्रतनावधेर्द्रव्यं तु। - कल्पजरप्प देवर्कळ स्वस्वावधिक्षेत्रमुमं विगतविस्रसोपचयावधिज्ञानावरणद्रव्यमुमं स्थापिसि
क्षेत्र३४क्षेत्र ११ =६ :१५ १८ =१९ =१० ११ १३ = १४३४३३२ ३४३॥ ३४३७ ३४३ ३४३३२३४३३ ३४३३२३४३ ३४३ ३४३ ३४३ स०१२ स१-२स०१-२ स०१-२स.१-२स.१-२स.१-२ स०१-२स.१-२ स०१-२सa१-२ ७४ ७४ | ७१४ । ७४ । ७४ | ७४ ७४ ७४ ७४ ७४ ७४ द्रव्य । द्रव्य
२० अमुमेवार्थं विशदयति
कल्पवासिनां स्वस्वावधिक्षेत्र विगतविस्रसोपचयावधिज्ञानावरणद्रव्यं च संस्थाप्य
=३ | ४ |=११] ६ | १५ | D८ 12१९/=१०| ११| १३|| =१४३४३३२ ३४३।। ३४३।२ ३४३। ३४३।२] ३४३३४३।२/ ३४३ | ३४३।। ३४३ | ३४३ स०१२- स०१२- सव१ससa१२-1 स.१२स१२-सa१२-सa१२-स१२-1 सa१२-| सa१२७४ | ७४ ७४ | ७।४ । ७४ ७४/७।४ । ७।४ | ७४ | ७४ । ७।४
इसी बातको आगे स्पष्ट करते हैं
कल्पवासी देवोंके अपने-अपने अवधिज्ञानके क्षेत्रको और अपने-अपने विस्रसोपचयरहित अवधिज्ञानावरण द्रव्यको स्थापित करके क्षेत्रमें से एक प्रदेश कम करना और द्रव्यमें १५ एक बार ध्रुवहारका भाग देना। ऐसा तबतक करना चाहिए, जबतक अपने-अपने अवधि
ज्ञानके क्षेत्र सम्बन्धी प्रदेशोंका परिमाण समाप्त हो। ऐसा करनेसे जो अवधिज्ञानावरण कर्मद्रव्यका अन्तिम खण्ड शेष रहता है, उतना ही उस अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यका परिमाण होता है।
विशेषार्थ-जैसे सौधर्म-ऐशान स्वर्गवालोंका क्षेत्र प्रथम नरक पृथ्वीपर्यन्त कहा है। २० सो पहले नरकसे पहला दूसरा स्वर्ग डेढ़ राजू ऊँचा है। अतः अवधिज्ञानका क्षेत्र उनका
एक राजू लम्बा-चौड़ा और डेढ़ राजू ऊँचा हुआ। इस घनरूप डेढ़ राजू क्षेत्रके जितने प्रदेश हों, उन्हें एक जगह स्थापित करें। और जिस देवका जानना हो, उस देवके अवधिज्ञानावरण कर्मद्रव्यको एक जगह स्थापित करें। इसमें विस्रसोपचयके परमाणु नहीं
मिलाना । इस अवधिज्ञानावरण कर्मद्रव्यके परमाणुओंमें एक बार ध्रुवहारका भाग दें और २५ प्रदेशों में से एक कम कर दें। भाग देनेसे जो प्रमाण आया, उसमें दुबारा ध्रुवहारका भाग दे
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६६३ स्वविषयक्षेत्रदोळु ओंदु प्रदेशमं तेगदोम्म ध्रुवहारदिदं भागिसुवुदु । स्वस्वावधिविषयक्षेत्रप्रदेशप्रमाणं परिसमाप्तियक्कुमन्नेवरमन्नेवरं ध्रुवहारदिदं द्रव्यम भागिसुवुदंतु भागिसुत्तिरलु तत्रतन चरमखंडं तत्रतनावधिज्ञानविषयद्रव्यप्रमाणमक्कुं। स्वस्वावधिविषक्षेत्रप्रदेशप्रचयप्रमित ध्रुवहारंगळिदं स्वस्वावधिज्ञानावरणद्रव्यमं विस्नसोपचयमं भागिसुत्तिरलु स्वस्वावधिज्ञानविषयद्रव्यमक्कुमें बुदु तात्पत्थिं ।
सोहम्मीसाणाणमसंखेज्जा ओ हु वस्सकोडीओ।
उवरिमकप्पचउक्के पल्लासंखेज्जभागो दु ॥४३५।। सौधम्मैशानानां असंख्येयाः खलु वर्षकोट्यः । उपरितनकल्पचतुष्के पल्यासंख्यातभागस्तु ।
तत्तो लांतवकप्पप्पहुडी सव्वट्ठसिद्धिपेरंतं ।
किंचूण पल्लमत्तं कालपमाणं जहाजोग्गं ॥४३६।। ततो लांतवकल्पप्रभृति सर्वार्थसिद्धिपय्यंतं । किंचिदूनपल्यमानं कालप्रमाणं यथायोग्यं ।
सौधम्मैशानकल्पजग्गवधिज्ञानविषयकालमसंख्यात वर्षकोटिगळप्पुवु । वर्ष को ।। खलु स्फुटमागि। तु मत्त उपरितनकल्पचतुष्के सनत्कुमार-माहेंद्र-ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर-कल्पचतुष्टयवासिदेवक्र्कळगे कालं यथायोग्यमप्पपल्यासंख्यातभागमात्रमक्कु प मेग लांतवकल्पं मोदल्गोंडु सर्वार्थसिद्धिपय्यंतं कल्पजग्गं कल्पातीतजग्गं कालं यथायोग्यमप्प किंचिदूनपल्यप्रमाणमक्कुं।
क्षेत्रे एकप्रदेशमपनीय द्रव्यमेकवारं ध्र वहारेण भजेत् यावत्स्वस्वावधिक्षेत्रप्रदेशप्रमाणं परिसमाप्यते तावत । तत्रतनचरमखण्डं तत्रतनावधिज्ञानविषयद्रव्यप्रमाणं भवति । स्वस्वावधिविषयक्षेत्रप्रदेशप्रचयप्रमितध्र वहारभक्तं विविस्रसोपचयस्वस्वावधिज्ञानावरणद्रव्यं स्वस्वावधिविषयद्रव्यं स्थादित्यर्थः ॥४३३-४३४॥
सौधर्मशानजानामवधिविषयकालः असंख्यातवर्षकोट्यः खलु वर्षको ३ । तु-पुनः, उपरितनकल्यचतुष्क
और प्रदेशोंमें एक कम कर दें। इस तरह तबतक भाग दे, जबतक सब प्रदेश समाप्त हों। २० अन्तिम भाग देनेपर जो सूक्ष्म पुद्गलस्कन्ध शेष रहे, उतने प्रमाण पुद्गलस्कन्धको सौधर्म ऐशान स्वर्गका देव जानता है। इसी प्रकार सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गके के घनरूप चार राजू प्रमाण क्षेत्रके प्रदेशोंका जितना प्रमाण है, उतनी बार उनके अवधिज्ञानावरण द्रव्यमें ध्रुवहारका भाग देते-देते जो प्रमाण रहे, उतने परमाणुओंके स्कन्धको उनका अवधिज्ञान जानता है। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्गके देवोंके साढ़े पाँच राजू, लान्तव-कापिष्ठवालोंके छह २५ राजू, शुक्र-महाशुक्रवालों के साढ़े सात राजू, शतार-सहस्रारवालोंके आठ राजू, आनतप्राणतवालोंके साढ़े नौ राजू , आरण-अच्युतवालोंके दस राजू, प्रैवेयकवालोंके ग्यारह राजू, अनुदिशवालोंके कुछ अधिक तेरह राजू, अनुत्तर दिमानवालोंके कुछ कम चौदह राजू क्षेत्रका परिमाण जानकर पूर्वोक्त विधान करनेपर उन देवोंके अवधिज्ञानके विषयभूत द्रव्यका परिमाण होता है। अर्थात् सबके अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्रके प्रदेशोंका जो प्रमाण हो, ३० उतनी बार अवधिज्ञानावरण द्रव्यमें ध्रुवहारका भाग देते-देते जो प्रमाण रहे, उतने परमाणुओंके स्कन्धको वे-वे देव अवधिज्ञान द्वारा जानते है ॥४३३-४३४॥
सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके अवधिज्ञानका विषयभूत काल असंख्यात वर्ष कोटि है। उनसे ऊपर चार कल्पोंमें अर्थात् सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर स्वर्गोंके
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गो. जीवकाण्डे जोइसियंताणोही खेत्ता उत्ता ण होति घणपदरा ।
कप्पसुराणं च पुणो विसरित्थं आयदं होदि ॥४३७।। ज्योतिष्कांतानामवधिक्षेत्राण्युक्तानि न भवंति घनप्रतराणि। कल्पसुराणां च पुनविसदृशमायतं भवति ॥
ज्योतिषिकांतानामुक्तान्यवधिक्षेत्राणि भावनव्यंतरज्योतिष्करिगल्लग्गं परगे पेळल्पट्टवधिविषयक्षेत्रंगळु समचतुरस्र घनक्षेत्रंगळल्तु एकेंदोड अवर्गळवधिविषयक्षेत्रंगळ्गे सूत्रदोळु विसदृ. सत्वकथनमुंटप्पुर । इरि पारिशेष्यदि तद्योग्यस्थानदोळु नारकतियंचरुगळवधिविषयक्षेत्रमे समघनक्षेत्रमें बुदत्थं । कल्पामरगल्लं पुनः मत्त तंतम्मवधिज्ञानविषयक्षेत्र विसदृशमायतमक्कुं। आयतचतुरस्रक्षेत्रमें बुदर्थमवधिज्ञानं समाप्तमाय्तु।
चिंतियमचिंतियं वा अद्धं चिंतियमणेयभेयगयं ।
मणपज्जवं ति उच्चइ जं जाणइ तं खु णरलोए ॥४३८॥ चितितचितितं वा अद्धं चितितमनेकभेदगतं । मनःपर्याय इत्युच्यते यत् जानाति तत्खलु नरलोके।
चितितं परदिदं चितिसल्पटुदं। अचितितं वा मुंद चितिसल्पडुवुदं। मेणु अर्द्धचितितं १५ चिताविषयमं संपूर्णमागि चितिसदे अद्धं चितिसल्प डुवुदुमं । अनेकभेदगतं इतनेकप्रकारदिदं परर
मनदोलिईदुं यत् आवुदोंदु ज्ञानं जानाति अरिगुमा ज्ञानं खलु स्फुटमागि मनःपर्य्ययज्ञानमें दितु जानां यथायोग्यं पल्यासंख्यातभागः प तत उपरि लान्तवादिसर्वार्थसिद्धपर्यन्तानां यथायोग्यं किंचिदूनपल्यं
प-॥४३५-४३६॥
ज्योतिष्कान्तत्रिविधदेवानां उक्तावधिविषयक्षेत्राणि समचतुरस्रघनरूपाणि न भवन्ति, सूत्रे तेषां २० विसदृशत्वकथनात् । अनेन पारिशेष्यात् तद्योग्यस्थाने नरनारकतिर्यगवधिविषयक्षेत्रमेव समघनमित्यर्थः । कल्पामराणां पुनर्विसदृशमायातं आयतचतुरस्रमित्यर्थः ॥४३७॥
चिन्तितं-चिन्ताविषयीकृतं, अचिन्तितं-चिन्तयिष्यमाणं, अर्धचिन्तितं-असंपूर्णचिन्तितं वा इत्यनेकभेदगतं अथं परमनस्यवस्थितं यज्ज्ञानं जानाति तत खलु मनःपर्यय इत्युच्यते । तस्योत्पत्तिप्रवृत्ती नरलोके
-
देवोंके अवधिज्ञानका विषयभूत काल यथायोग्य पल्यके असंख्यातवें भाग हैं। उनसे २५ ऊपर लान्तव स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त देवोंके यथायोग्य कुछ कम पल्य प्रमाण
३५-४३६॥
ज्योतिषी देव पर्यन्त तीन प्रकारके देवोंके अर्थात् भवनवासी,व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों के जो अवधिज्ञानका विषयभूत क्षेत्र कहा है, वह समचतुरस्र अर्थात् बराबर चौकोर
घनरूप नहीं है क्योंकि आगममें उसकी लम्बाई,चौड़ाई,ऊँचाई बराबर एक समान नहीं कही ३० है। इससे शेष रहे जो मनुष्य नारक, तिर्यंच, उनके अवधिज्ञानका विषयभूत क्षेत्र समान
चौकोर घनरूप है, यह अर्थ निकलता है। कल्पवासी देवोंके अवधिज्ञानका विषयक्षेत्र विसदृश आयत है अर्थात् लम्बा बहुत और चौड़ा कम है ॥४३७॥
॥ अवधिज्ञान प्ररूपणा समाप्त ।। चिन्तित-जिसका पूर्वमें चिन्तन किया था। अचिन्तित-जिसका आगामी कालमें ३५ चिन्तन करेगा, अर्धचिन्तित-जिसका पूर्णरूपसे चिन्तन नहीं किया, इत्यादि अनेक प्रकार
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६६५ पेळल्पटुदु । नरलोके तदुत्पत्तिप्रवृत्तिगळेरडं मनुष्यक्षेत्रदोळेयक्कुं। मनुष्यक्षेत्रदिदं पोरगे मनःपय्यंयज्ञानक्कुत्पत्तियं प्रवृत्तियुमिल्ले बुदत्य।
परकीयमनसि व्यवस्थितोऽर्थः मन इत्युच्यते । मनः पर्येति गच्छति जानातीति मनः पर्दयः एंदितु परमनोगतार्थग्राहकं मनःपर्ययज्ञानमक्कुमा परमनोगतार्थमुं चिंतितचिंतितमर्द्धचितितमें तिनेकभेदमप्पुददं मनुष्यक्षेत्रदोळु मनःपर्यायज्ञानमरिगुम बुदं तात्पथ्यं ।
मणपज्जवं च दुविहं उजुविउलमदित्ति उजुमदी तिविहा ।
उजु मणवयणे काये गदत्थविसयत्ति णियमेण ॥४३९।। मनः पर्ययश्च द्विविधः ऋजुविपुलमती इति । ऋजुमतिस्त्रिविधः ऋजु मनोवचने काये गतार्थविषय इति नियमेन ।
सामान्यदिदं मनःपर्ययज्ञानमोंदु अदं भेदिसिदोड ऋजुमतिमनःपर्ययमेदु विपुलमति- १. मनःपर्ययम दितु मनःपय॑यज्ञानं द्विविधमक्कु- मल्लि ऋज्वी ऋजुकायवाक्मनस्कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञानान्नित्तिता निष्पन्ना मतिय॑स्य सः ऋजुमतिः स चासौ मनःपर्ययश्च ऋजुमतिमनःपर्ययः। विपुला कायवाग्मनस्कृतार्थस्य परकीयमनोगतस्य विज्ञाना निर्वृत्तिताऽनिर्वतिता कुटिला च मतिर्यस्य सः विपुलमतिः। स चासौ मनःपर्ययश्च विपुलमतिमनःपर्ययः । एंदितु निरुक्तिसिद्धंगळप्पुवल्लि ऋजुश्च विपुला च ऋजु १५ विपुले। ते मती ययोस्तो ऋजुविपुलमती। ऋजुमनोगतार्थविषयमनःपर्ययमेदु ऋजुवचनगताय॑विषयमनःपय॑यमें दुं ऋजुकायगतात्यविषयमनःपर्ययमुदितु ऋजुमतिमनःपर्ययं नियममनुष्यक्षेत्र एव न तद्वहिः। परकीयमनसि व्यवस्थितोऽर्थः मनः तत् पर्येति गच्छति जानातीति मनःपर्ययः ॥४३८॥
__स मनःपर्ययः सामान्येनैकोऽपि भेदविवक्षया ऋजुमतिमनःपर्ययः विपुलमतिमनःपर्ययश्चेति द्विविधः । तत्र ऋज्वी-ऋजुकायवाङ्मनःकृतार्थस्य-परकीयमनोगतस्य विज्ञानान्निर्वतिता-निष्पन्ना मतिर्यस्य स ऋजुमतिः स २० चासौ मनःपर्ययश्च ऋजुमतिमनःपर्ययः । विपुला कायवाग्मनःकृतार्थस्य-परकीयमनोगतस्य विज्ञानान्नितिता अनिवर्तिता कुटिला च मतिर्यस्य स विपुलमतिः स चासो मनःपर्ययश्च विपुलमतिमनःपर्ययः । अथवा ऋजुश्च विपुला च ऋजुविपुले ते मती ययोस्तौ ऋजुविपुलमती तौ च तौ मनःपर्ययौ च ऋजुविपुलमतिमनःपर्ययौ । तत्र ऋजुमतिमनःपर्ययः ऋजुमनोगतार्थविषयः, ऋजुवचनगतार्थविषयः, ऋजुकायगतार्थविषयश्चेति नियमेन का जो अर्थ दूसरेके मनमें स्थित है, उसको जो ज्ञान जानता है,वह मनःपर्यय कहा जाता २५ है। दूसरेके मनमें स्थित अर्थ मन हुआ, उसे जो जानता है, वह मनःपर्यय है। इस ज्ञानकी उत्पत्ति और प्रवृत्ति मनुष्यक्षेत्रमें ही होती है, उसके बाहर नहीं ॥४३८॥
वह मनःपर्यय सामान्यसे एक होनेपर भी भेदविवक्षासे ऋजुमतिमनःपर्यय विपुलमतिमनःपर्यय, इस तरह दो प्रकार है । सरल काय, वचन और मनके द्वारा किया गया जो अर्थ दूसरेके मनमें स्थित है, उसको जाननेसे निष्पन्न हुई मति जिसकी है, वह ऋजुमति है ३०
और ऋजुमति और मनःपर्यय ऋजुमतिमनःपर्यय है। तथा सरल अथवा कुटिल कायवचन-मनके द्वारा किया गया जो अर्थ दूसरेके मनमें स्थित है, उसको जाननेसे निष्पन्न या अनिष्पन्न मति जिसकी है,वह विपुलमति है। विपुलमति और मनःपर्यय विपुलमति मन:पर्यय है । अथवा ऋजु और विपुला मति जिनकी है, वे ऋजुमति, विपुलमति मनःपर्यय हैं। ऋजुमतिमनःपर्यय नियमसे तीन प्रकारका है-सरल मनके द्वारा चिन्तित मनोगत ३५
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गो. जीवकाण्डे दिदं त्रिविधमक्कुं।
विउलमदीवि य छद्धा उजुगाणुजुवयणकायचित्तगयं ।
अत्थं जाणदि जम्हा सदत्थगया हु ताणत्था ।।४४०॥ विपुलमतिरपि च षड्धा ऋज्वनृजुवचनकायचित्तगतमत्थं जानाति यस्मात् शब्दात्यंगताः ५ खलु तयोराः ।
विपुलमतिमनःपर्ययमुं षट्प्रकारमप्पुददेते दोडे ऋजुमनोगतार्थविषयमनःपर्ययमें , ऋजुवचनगतार्थविषयमनपर्ययमें दुं ऋजुकायगतार्थविषयमनःपर्ययम दितु । अनृजुमनोगतार्थविषयमनःपर्ययमें दुं अनृजुवचनगताविषयमनःपर्ययमें दुं अनृजुकायगतात्थंविषयमनःपर्यायमें दितिल्लि । यस्मात् ऋज्वनृजुमनोवचनकायगतार्थविषयत्वात्कारणात् । तयोराः आवुदोंदु ऋज्वनृजुमनोवचनकायगतार्त्यविषयत्वकारणदत्तणिदमा ऋजुविपुलमतिमनःपय॑यंगळ अर्थाः विषयंगळ शब्दगतात्थंगळे दुं खलु स्फुटमागि द्विप्रकारंगळप्पुवु । अदेतेंदोडे ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानं वोव्वं ऋजुम ददं नित्तितमागि निष्पन्नमागि त्रिकाल विषयंगळप्प पदात्थंगळं चितिसिदं । ऋजुवचनदिदं निष्पन्नमागि त्रिकालविषयंगळप्पत्थंगळं नुडिदं । ऋजुभूतकादिदं निष्पन्नमागि त्रिकालविषयात्थंगळं कायव्यापारदिदं माडिदनवंमरदु। कालांतदिदं नेनेयलारवे बंदु बसगोंडोडं बसगोळदिद्दोंडमरिगुं एंदितु शब्दगतात्थंगळुमत्थंगतात्थंगळु मेंदु द्विप्रकारंगळप्पुवु । विपुलमतिमनःपर्यायमित ऋज्वनुजुमनोवचनकायळिदं नित्तितमागि निष्पन्नमागि त्रिकालविषयपदार्थगळं चिंतिसिदुवं नुडिदुवं माडिदुवं मरेदु कालांतदिदं नेनेयलारदे बंदु बेसगों
त्रिविधः ॥४३९॥
विपुलमतिमनःपर्ययोऽपि यस्मात् ऋज्वनृजुमनोवचनकायगतार्थ जानाति तस्मात्कारणात् ऋजुमनो२० गतार्थविषयः ऋजुवचनगतार्थविषयः ऋजुकायगतार्थविषयः अनृजुमनोगतार्थविषयः अनृजुवचनगतार्थविषयः
अन जुकायगतार्थविषयश्चेति षोढा । तयोः ऋजुविपुलमतिमनःपर्यययोः अर्थाः-विषयाः शब्दगता अर्थगताश्च स्फुटं भवन्ति । तद्यथा-कश्चिज्जीवः ऋजुमनसा निर्वतितः-निष्पन्नः त्रिकालविषयपदार्थान् चिन्तितवान् ऋजुवचनेन निर्वतितस्तानुक्तवान् ऋजुकायेन,निष्पन्नस्तान् कृतवान्, विस्मृत्य कालान्तरेण स्मर्तुमशक्तः, आगत्य पृच्छति वा तूष्णीं तिष्ठति तदा ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानं जानाति । तथा ऋज्वनृजुमनोवचनकार्यनिर्वतितः
२५ अर्थको जाननेवाला, सरल वचनके द्वारा कहे गये मनोगत अर्थको जाननेवाला और सरलकायसे किये गये मनोगत अर्थको जाननेवाला ॥४३९॥
वेपुलमति मनःपयेय छह प्रकारका है क्योंकि वह सरल और कुटिल मन-वचनकायसे किये गये मनोगत अर्थको जानता है। अतः ऋजु मनोगत अर्थको विषय करनेवाला, ऋजु वचनगत अर्थको विषय करनेवाला, ऋजुकायगत अर्थको विषय करनेवाला तथा कुटिल मनोगत अर्थको विषय करनेवाला, कुटिल वचनगत अर्थको विषय करनेवाला, कुटिल कायगत अर्थको विषय करनेवाला इस तरह छह प्रकारका है। उन ऋजुमति और विपुलमति मनःपर्ययके विषय शब्दगत और अर्थगत होते हैं। यथा-किसी सरलमनसे निष्पन्न व्यक्तिने त्रिकालवर्ती पदार्थोंके विषयमें चिन्तन किया, सरल वचनसे निष्पन्न होते
हुए उन पदार्थोंका कथन किया और सरलकायसे निष्पन्न होकर उनको किया। फिर भूल ६ गया, कालका अन्तराल पड़नेपर स्मरण नहीं कर सका। आ करके पूछता है अथवा चुप
बैठता है, तब ऋजुमति मनःपर्ययज्ञान जान लेता है। तथा सरल या कुटिल मन-वचन
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
डोडं बेसगोळदिद्देड विपुलमतिमनः पर्य्ययज्ञानमरिगुमे दितिल्लियुं शब्दगतात्थंगळु मर्त्यगतात्थंगळुमेदितु द्विप्रकारांगळवु ।
तियकाल विसयरूविं चिंतंतं वट्टमाणजीवेण ।
उजुमदिणाणं जाणदि भूदभविस्सं च विउलमदी । ४४१ ॥
५
त्रिकालविषयरूपिणं चित्यमानं वर्त्तमानजीवेन । ऋजुमतिज्ञानं जानाति भूतभविष्यंतौ च विपुलमतिः ।
६६७
त्रिकालविषयपुद्गलद्रव्यमं वर्तमानजीवनदं चितिसल्पडुत्तिर्युद्धं ऋजुमतिमनः पर्य्ययज्ञानमरिगुं । भूतभविष्यद्वर्त्तमानकालविषयंगळप्प चिंतितमं चिन्तयिष्यमाणमं चित्यमानमं विपुलमतिः मनः पर्य्ययज्ञानमरिगुं ॥
सव्वंगअंगसंभवचिण्हा दुप्पज्जदे जहा ओही ।
मणपज्जवं च दव्वमणादो उप्पज्जदे णियमा ॥ ४४२ ||
सर्वांगांगसंभवचिह्नादुत्पद्यते यथावधिः । मनः पर्य्ययश्च द्रव्यमनसः उत्पद्यते नियमात् ॥ सर्व्वगदोळ मंग संभवशंखादिशुभचिह्नं गळोळं यथा ये तीगळवधिज्ञानं पुट्टुगुमंते मनः पव्यंयज्ञानमुं द्रव्यमनदिदं पुट्टुगुं नियमदिदं । नियमशब्दं ब्रव्यमनदोळल्लदे मत्तेल्लियुमंगप्रदेशदोळु मनःपर्य्ययं पुट्टदेंबवधारणात्थंमक्कुं ॥
हिदि होदि हु दव्वमणं वियसिय अट्ठच्छदारविंदं वा । अंगोवंगुदयादो भणवग्गणखंददो णियमा || ४४३॥
हृदि भवति खलु द्रव्यमनो विकसिताष्टच्छदारविन्दवत् । अंगोपांगो क्यात् मनोवर्गणास्कन्धतो नियमात् ॥
त्रिकालविषयपदार्थान् चिन्तितवान् वा उक्तवान् वा कृतवान् विस्मृत्य कालान्तरेण स्मर्तुमशक्तः आगत्य पृच्छति वा तूष्णीं तिष्ठति तदा विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानं जानाति ॥ ४४० ॥
त्रिकालविषयपुद्गलद्रव्यं वर्तमानजीवेन चिन्त्यमानं ऋजुमतिमन:पर्ययज्ञानं जानाति । भूतभविष्यद्वर्तमानकालविषयं चिन्तितं चिन्तयिष्यमाणं चिन्त्यमानं च विपुलमतिमन:पर्ययज्ञानं जानाति ॥४११॥
सर्वाङ्गे अङ्गसंभवशङ्खादिशुभचिह्न च यथा अवधिज्ञानमुत्पद्यते तथा मन:पर्ययज्ञानं द्रव्यमनसि एवोत्पद्यते नियमेन नान्यत्राङ्गप्रदेशेषु ||४४२ ॥
जैसे भवप्रत्यय अवधिज्ञान सर्वांगसे उत्पन्न होता है और गुणप्रत्यय अवधिज्ञान शरीर में प्रकट हुए शंख आदि शुभ चिह्नोंसे उत्पन्न होता है, वैसे ही मन:पर्ययज्ञान द्रव्यमनसे ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम है, शरीरके अन्य प्रदेशों में उत्पन्न नहीं होता ||४४२ ||
१०
१५
काय से किये गये त्रिकालवर्ती पदार्थोंको विचार किया, कहा या शरीरसे किया। पीछे भूल गया और समय बीतनेपर स्मरण नहीं कर सका। आकर पूछता है या चुप बैठता है, तब विपुलमति मनः पर्ययज्ञानीं जानता है ||४४० ॥
त्रिकालवर्ती पुद्गल द्रव्य वर्तमान जीवके द्वारा चिन्तनवन किया गया हो, तो उसे ऋजुमति मन:पर्ययज्ञान जानता है । और त्रिकालवर्ती पुद्गलद्रव्य भूतकाल में चिन्तवन ३० किया गया हो, भविष्यत् कालमें चिन्तन किया जानेवाला हो या वर्तमानमें चिन्तवन किया जाता हो, तो उसे विपुलमतिमन:पर्ययज्ञान जानता है ||४४१॥
२०
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गो० जीवकाण्डे अंगोपांगोदयात्कारणात् अंगोपांगनामकर्मोदयकारणदिदं मनोवर्गणास्कंधळिदं विकसिताष्टच्छदारविंददंत द्रव्यमनं हृदयदोळप्पुदु खलु स्फुटमागि।
णोइंदियत्ति सण्णा तस्स हवे सेसइंदियाणं वा ।।
वत्तत्ताभावादो मण मणपज्जं च तत्थ हवे ।।४४४॥ . नो इंद्रियमिति संज्ञा तस्य भवेत् शेर्षेद्रियाणामिव व्यक्तत्वाभावात् मनो मनःपर्ययश्च तत्र भवेत् ॥
' मनः आ द्रव्यमनं शेषेद्रियाणामिव स्पर्शनादींद्रियंगळगंतु संस्थाननिर्देशंगळ्गे व्यक्तत्वमुंटत। तस्य आ द्रव्यमनक्के व्यक्तत्वाभावात् कणंनासिकानयनादिवत् व्यक्तत्वाभादिदं नोइंद्रिय__मिति संज्ञा भवेत् । ईषदिद्रियं नोइंद्रियमें दितन्वर्थसंजयुमकुं । तत्र आ द्रव्यमनदोळू मनः भावमनो१० जानमुं मनःपर्ययश्च भवेत् मनःपर्ययज्ञानं पुटुगुं।
मणपज्जवं च णाणं सत्तसु विरदेसु सत्तइड्ढीणं ।
एगादिजुदेसु हवे वड्ढतविसिट्टचरणेसु ॥४४५॥ मनःपर्ययज्ञानं सप्तसु विरतेषु सप्तझैनामेकादियुतेषु भवेद् वर्द्धमानविशिष्टाचरणेषु ॥
सप्तसु विरतेषु प्रमत्तसंयतादिक्षीणकषायांतमाद सप्तगुणस्थानत्तिगळप्प विरतरोळु १५ सप्तझैनामेकादियुतेषु बुद्धितपोवैकुणौषधरसबलाक्षीणमेब सप्तऋद्धिगळोळेक द्विव्यादियुतरोळु
वर्द्धमानविशिष्टाचरणेषु पेर्चुत्तिर्प विशिष्टाचारमनुळ्ळ महामुनिगळोळू मनःपर्ययश्च ज्ञानं भवेत् मनःपर्ययज्ञानं पुट्टदें बुदु तात्पथ्यं ।
इंदियणोइंदियजोगादि पेक्खित्तु उजुमदी होदि ।
णिरवेक्खिय विउलमदी ओहिं वा होदि णि यमेण ||४४६॥ इंद्रियनोइंद्रिययोगादीनपेक्ष्य तु ऋजुमतिर्भवति । निरपेक्ष्य च विपुलमतिरवधिवद्भवति नियमेन ॥
अङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयकारणात् मनोवर्गणास्कन्धैविकसिताष्टच्छदारविन्दसदृशं द्रव्यमनो हृदये उत्पद्यते स्फुटम् ॥४४३॥
तस्य द्रव्यमनसः शेषस्पर्शनादीन्द्रियाणामिव स्थाननिर्देशाभ्यां व्यक्तत्वाभावात् ईषदिन्द्रियत्वेन २५ नोइन्द्रियमित्यन्वर्थनाम भवेत । तत्र द्रव्यमनसि भावमनो मनःपर्ययश्चोत्पद्यते ॥४४४।।
प्रमत्तादिसप्तगुणस्थानेषु बुद्धितपोविकुर्वाणौषधरसबलाक्षीणनामसप्तर्धिमध्ये एकद्वित्र्यादियुतेष्वेव वर्धमानविशिष्टाचरणेष मनःपर्ययज्ञानं भवति, नान्यत्र ॥४४५॥
अंगोपांग नामकर्मके उदयसे मनोवर्गणारूप स्कन्धोंके द्वारा हृदयस्थानमें मनकी ____ उत्पत्ति होती है । वह खिले हुए आठ पाँखुड़ीके कमलके समान होता है ।।४४३॥
उस द्रव्यमनका नो इन्द्रिय नाम सार्थक है,क्योंकि जैसे स्पर्शन आदि इन्द्रियोंका स्थान और विषय प्रकट है,वैसा मनका नहीं है। इसलिए ईषत् अर्थात् किंचित् इन्द्रिय होनेसे उसका नाम नोइन्द्रिय है । उस द्रव्यमनमें भावमन और मनःपययज्ञान उत्पन्न होते हैं ॥४४४॥
प्रमत्तसंयतसे क्षीणकषाय पर्यन्त सात गुणस्थानोंमें, बुद्धि-तप-विक्रिया-औषध-रसबल और अक्षीण नामक सात ऋद्धियोंमें-से एक-दो-तीन आदि ऋद्धियोंके धारी तथा जिनका ३५ विशिष्ट चारित्र वर्धमान होता है, उन महामुनियोंमें ही मनःपर्ययज्ञान होता है; अन्यत्र
नहीं ॥४४५॥
३०
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संजनिसुगुं।
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६६९ स्पर्शनादींद्रियंगळुमं नोइंद्रियमुमं मनोवचनकाययोगमुम दिवं तन्न परर संबंधिगळुमनपेक्षिसिये ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानं संजनिसुगुं। तु मत्त इंद्रियनोइंद्रिययोगादिगळं स्वपरसंबंधिगळनपेक्षिसये विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानं चक्षुरिद्रियमीगळेतु रसादिगळं परिहरिसि रूपमों दने परिच्छेदिसुगुमंते मनःपर्ययज्ञानमं भवविषयाशेषानंतपर्यायंगळं परिहरिसि आवुदो दु कारणदिदं भवसंज्ञितद्वित्रिव्यंजनपव्यंगळं परिच्छेदिसुगुमदु कारणदिदंमिदवधिज्ञानदंते नियदिदं ५
पडिवादी पुण पढमा अप्पडिवादी हु होदि बिदिया हु।
सुद्धो पढमो बोहो सुद्धतरो बिदियबोहो दु ॥४४७॥ प्रतिपाती पुनः प्रथमोप्रतिपाती खलु भवति द्वितीयः। शुद्धः प्रथमो बोधः शुद्धतरो द्वितीयबोधस्तु॥
प्रथमः मोदल ऋजुमतिमनःपर्यायं प्रतिपाती प्रतिपातियक्कुं । प्रतिपतनं प्रतिपातः उपशांतकषायंगे चारित्रमोहोद्रेकदिदं प्रच्युतसंयमशिखरंगे प्रतिपातमक्कुं। क्षीणकषायंगे प्रतिपातकारणाभावदिदं अप्रतिपातमक्कुं। तदपेयिदं प्रतिपातोऽस्यास्तीति प्रतिपाती। पुनः मत्ते द्वितीयः विपुलमतिमनःपर्ययं अप्रतिपाती खलु प्रतिपातरहितमक्कुं। न प्रतिपाती अप्रतिपाती। शुद्धः प्रथमो बोधः मोदल ऋजुमतिमनःपर्ययं विशुद्धबोधमक्कुं। प्रतिपक्षकर्मक्षयोपशममुंटागुत्तिरलु १५ आत्मन प्रसादमं विशुद्धिये बुदु । तदस्यास्तीति विशुद्धः शुद्धतरो द्वितीयबोधस्तु । तु मत्त अतिशय दिदं विशुद्धमक्कं विपुलमतिमनःपर्ययं ।
परमणसिट्ठियमद्वं ईहामदिणा उजुट्ठियं लहिय ।
पच्छा पच्चक्खेण य उजुमदिणा जाणदे णियमा ।।४४८॥ परमनसि स्थितमत्थं इहामत्या ऋजुस्थितं लब्ध्वा। पश्चात्प्रत्यक्षेण च ऋजुमतिना जानीते नियमात् ॥
ऋजुमतिमनःपर्ययः स्पर्शनादीन्द्रियाणि नोइन्द्रियं नांवचनकाययोगांश्च स्वपरसंबन्धिनोपेक्ष्यवोत्पद्यते। विपुलमतिमनःपर्ययस्तु अवधिज्ञानमिव ताननपेक्ष्यवोत्पद्यते नियमेन ॥४४६॥ ।
प्रथमः ऋजुमतिमनःपर्ययः प्रतिपाती भवति । क्षीणकषायस्याप्यप्रतिपातेऽपि, उपशान्तकषायस्य चारित्रमोहोद्रेकात्तत्संभवात् । पुनः द्वितीयो विपुलमतिमनःपर्ययः अप्रतिपाती खलु । ऋजुमतिमनःपर्ययो विशुद्धः, प्रतिपक्षकर्मक्षयोपशमे सति आत्मप्रसादरूपविशुद्धेः संभवात् । तु पुनः विपुलमतिमनःपर्ययः अतिशयेन २५ विशुद्धो भवति ॥४४७॥
ऋजुमतिमनःपर्यय अपने और अन्य जीवोंके स्पर्शन आदि इन्द्रियाँ, मन, और मनवचन-काय योगोंकी अपेक्षासे ही उत्पन्न होता है । और विपुलमतिमनःपर्यय अवधिज्ञानकी तरह उनकी अपेक्षाके बिना ही उत्पन्न होता है ॥४४६॥
प्रथम ऋजुमति मनःपर्यय प्रतिपाती होता है। जो ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी झपक- ३० श्रेणीपर आरोहण करके क्षीणकषाय हो जाता है;यद्यपि वह वहाँसे गिरता नहीं है, किन्तु जो उपशम श्रेणीपर आरोहण करके उपशान्त कषाय नामक ग्यारहवे गुणस्थानवी होता है, चारित्रमोहका उद्रेक होनेसे उसका प्रतिपात होता है। किन्तु दूसरा विपुलमतिमनःपर्यय अप्रतिपाती है । ऋजुमति मनःपर्यय विशुद्ध है,क्योंकि प्रतिपक्षी कर्मका क्षयोपशम होनेपर
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गो० जीवकाण्डे परर मनदोलिईर्थमं ऋजुस्थितं ऋजु यथा भवति तथा स्थितं इहामदिणा ईहामतिज्ञानदिदं मुन्नं लब्ध्वा पडेदु पश्चात् बळिकं ऋजुमतिना ऋजुमतिमनःपर्यायज्ञानदिदं प्रत्यक्षण च प्रत्यक्षमागि मनःपर्ययज्ञानी जानीते अरिगुं नियमात् नियमदिदं।
चिंतियमचिंतियं वा अद्धं चिंतियमणेयभेयगयं ।।
ओहिं वा विउलमदी लहिऊण विजाणए पच्छा ॥४४९।। चितितचितितं वा अचितितमनेकभेदगतं । अवधिवद्विपुलमतिलब्ध्वा विजानाति पश्चात् ॥
चितितमुमचिंतितमुमं मेणर्द्धचितितमुमनितनेकभेददोलिई परकीयमनोगतार्थमं मुन्नं पडदु बळिकं विपुलमतिमनःपर्यायज्ञानमवधिज्ञानतंत प्रत्यक्षमागरिगुं।
दव्वं खेत्त कालं भावं पडि जीवलक्खियं रूविं ।
उजुविउलमदी जाणदि अवरवरं मज्झिमं च तहा ।।४५०॥ द्रव्यं क्षेत्रं कालं भावं प्रति जीवलक्षितं रूपिणं । ऋजु-विपुलमती जानीतः अवरवरं मध्यमं च तथा ॥
द्रव्यं प्रति क्षेत्र प्रति कालं प्रति भावं प्रति प्रत्येक जीवलक्षितं जीवनिदं चितिसल्पटुदं १५ रूपिणं पुद्गलं पुद्गलद्रव्यमं तत्संबंधिजीवद्रव्यमं। अवरवरं जघन्यमुमनुत्कृष्टममं । तथा अंते
मध्यमं च मध्यममुमं ऋजुविपुलमती ऋजुविपुलमतिमनःपर्ययंगळेरडं जानीतःअरिवत् ।
परस्य मनसि ऋजुतया स्थितमर्थ ईहामतिज्ञानेन पूर्व लब्ध्वा पश्चात् ऋजुमतिज्ञानेन प्रत्यक्षतया मनःपर्ययज्ञानी जानीते नियमात् ॥४४८॥
चिन्तितं अचिन्तितं अथवा अर्धचिन्तितं इत्यनेकभेदगतं परमनोगतार्थ पूर्व लब्ध्वा पश्चाद्विपुलमतिमनः२० पर्ययः अवधिरिव प्रत्यक्षं जानाति ॥४४९।।
द्रव्यं प्रति क्षेत्र प्रति कालं प्रति भावं प्रति प्रत्येक जीवलक्षितं-जीवचिन्तितं, रूपि-पुद्गलद्रव्यं तत्संबन्धिजीवद्रव्यं च जघन्यं उत्कृष्ट तथा मध्यमं च ऋजुविपुलमतिमनःपर्ययौ जानीतः ॥४५०॥
आत्माकी निर्मलता रूप विशुद्धिसे उत्पन्न होता है। किन्तु विपुलमतिमनःपर्यय अतिशय विशुद्ध होता है ॥४४७।। २५ दूसरेके मनमें सरलता रूपसे विचार किया गया जो अर्थ स्थित है उसे पहले
ईहामतिज्ञानके द्वारा प्राप्त करके पीछे ऋजुमतिज्ञानसे मनःपर्ययज्ञानी नियमसे प्रत्यक्ष जानता है ।।४४८॥
चिन्तित, अचिन्तित, अथवा अर्धचिन्तित इत्यादि अनेक भेद रूप दूसरेके मनोगत अर्थको पहले प्राप्त करके पीछे विपुल मति मनःपर्यय अवधिज्ञानकी तरह प्रत्यक्ष जानता ३० है ॥४४९॥
द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावको लेकर जीवके द्वारा चिन्तित पुद्गल द्रव्य और उससे सम्बद्ध जीवद्रव्यको जघन्य मध्यम उत्कृष्ट भेदको लिए हुए ऋजुमति और विपुलमति मन:पर्यय जानते हैं ॥४५०॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अवरं दव्वमुरालियसरीरणिज्जिण्णसमयबद्धं तु ।
चक्खंदियणिज्जिण्णं उक्कस्सं उजुमदिस्स हवे ॥४५१।। अवरं द्रव्यमौदारिकशरीरनिर्जीणंसमयप्रबद्धस्तु। चक्षुरिंद्रियनिर्जीणमुत्कृष्टं ऋजुमते भवेत् । ___ ऋजुमतिमनःपर्य्ययज्ञानक्क विषयमप्प जघन्यद्रव्यमौदारिकशरीरनिर्जीणसमयप्रबद्ध ५ मक्कुं। स . १६ ख । तु मत्त। उत्कृष्ट द्रव्यं चक्षुरिद्रियनिज्जीर्णद्रव्यमकुं । अदर प्रमाणमेनितेंदोडे त्रैराशिकदिदं साधिसल्पडुगं ।
आ त्रैराशिकविधानमनितेदोर्ड संख्यातघनांगुलप्रमितमौदारिकशरीरावगाहनप्रदेशंगळोळे. ल्लमेत्तलानुं सविस्रसोपचयौदारिकशरीरसमयप्रबद्धंगळोळेल्लमत्तलानुं सविस्रसीपचयौदारिकशरीरसमयप्रबद्धंगळेयिसुवागळु चक्षुरिंद्रियाभ्यंतरनिर्वृत्तिप्रदेशप्रचयमिनितरोळिनितु द्रव्यंगळे यिसु- 1. गुमें दितु त्रैराशिकम माडि प्र६।१।फ स . १६ ख इ६ प आद्यंतशदृशं त्रैराशिक
मध्यम नाम फलं भवेत् एंदु बंद लब्धं चक्षुरिद्रियनिर्जीर्णद्रव्यमिदु ऋजुमतिमनःपर्ययक्कुत्कृष्ट
द्रव्यमक्कुं स १६ ख ६ प
६।१५११५
तत्र ऋजुमतिमनःपर्ययः जघन्यद्रव्यं औदारिकशरीरनिर्जीर्णसमयप्रबद्धं जानाति स । १६ ख । तु-पुनः, उत्कृष्टद्रव्यं चक्षुरिन्द्रियनिर्जीणमात्र जानाति। तत्कियत् ? औदारिकशरीरावगाहने संख्यातघनाङ्गुले सविस्रसोपचयौदारिकशरीरसमयप्रबद्धो गलति तदा चक्षुरिन्द्रियाभ्यन्तरनिर्वृत्तिप्रदेशप्रचये कियदिति राशिकेन १५
प्र६१। फस १६ ख । इ६ प लब्धमात्र भवति-स०१६ ख । ६ । प ॥४५१॥
पप
a
a
ऋजुमति मनःपर्यय औदारिक शरीरके निर्जीर्ण समय प्रबद्धरूप जघन्य द्रव्यको जानता है और उत्कृष्टद्रव्यके रूपमें चक्षु इन्द्रियके निर्जीर्णद्रव्यको जानता है। वह कितना है सो कहते हैं-औदारिक शरीरकी अवगाहना संख्यात घनांगुल है। उसके विस्रसोपचय सहित औदारिक शरीरके समय प्रबद्ध परमाणुओंकी निर्जरा होती है। तब चक्षु इन्द्रियकी अभ्यन्तर निवृतिके प्रदेश प्रवयमें कितनी निर्जरा हुई, ऐसा त्रैराशिक करनेपर जितना २० परिमाण आवे, उतने परमाणुओंके स्कन्धको ऋजुमति उत्कृष्ट रूपसे जानता है ॥४५१।।
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६७२
ख
ख
गो० जीवकाण्डे मणदव्ववग्गणाणमणंतिमभागेण उजुगउक्कस्सं ।
खंडिदमेत्तं होदि हु विउलमदिस्सावरं दव्वं ॥४५२॥ मनोद्रव्यवर्गणानामनंतैकभागेन ऋजुमतेरुत्कृष्टं । खंडितमात्रं भवति खलु विपुलमतेरवरं द्रव्यं ॥
मनोद्रव्यवर्गणेगळनंतैकभागं ध्रुवहारप्रमाणमक्कु ज १ मो ध्रुवहार भागदिदं ऋजुमतिपर्य्ययज्ञानविषयोत्कृष्टद्रव्यम खंडिसुत्तिरलावुदो देकखंडं तावन्मात्रं खलु स्फुटमागि विपुलमतिमनःपर्य्ययज्ञानविषयजघन्यद्रव्यमककुं स . १६ ख ६ ५
६।१।प११५९९ अट्ठण्हं कम्माणं समयपबद्धं विविस्ससोवचयं ।
धुवहारेणिगिवारं भजिदे विदियं हबे दव्वं ॥४५३॥ अष्टानां कर्मणां समयप्रबद्धो विविस्रसोपचयो। ध्रुवहारेणैकवारं भाजिद द्वितीयं भवेद्रव्यं ।
जानावरणाद्यष्टविधकर्मसामान्यसमयप्रबद्धं विगतविनसोपचयमदेकवारं ध्रुवहारदिदं भागिसल्पडुतिरलेकखंडमानं विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानविषयद्वितीयद्रव्यविकल्पमक्कुं स -ख ख
९०
मनोद्रव्यवर्गणाविकल्पानामनन्तकभागेन ध्रुवहारेण ज १ ऋजुमतिविषयोत्कृष्टद्रव्ये खण्डिते यावन्मात्र
- - ख ख
तत्स्फुटं विपुलमतिविषयजधन्यद्रव्यं भवति स
१६ ख । ६
प ॥४५२।।
६ १ १ १ प । ९
a a अष्टकर्मसामान्यसमयप्रबद्धे विविनसोपचये धुवहारेण एकवारं भक्ते यदेकखण्डं तद्विपुलमतिविषय
१५
द्वितीयद्रव्यं भवति-सaaख ख ॥४५३॥
मनोद्रव्य वर्गणाके विकल्पोंके अनन्तवें भागरूप ध्रुवहारसे ऋजुमतिके विषय उत्कृष्टद्रव्यमें भाग देनेपर जो प्रमाण आता है, उतना विपुलमतिके विषयभूत जघन्यद्रव्यका परिमाण होता है ।।४५२॥
आठों कोंके विस्रसोपचय रहित सामान्य समय प्रबद्धमें ध्रुवहारसे एक बार भाग देनेपर जो एक खण्ड आता है,वह विपुलमतिका विषय द्वितीयद्रव्य होता है ।।४५३॥
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६७३ तबिदियं कप्पाणमसंखेज्जाणं च समयसंखसमं ।
धुवहारेणवहरिदे होदि हु उक्कस्सयं दव्वं ॥४५४॥ तद्वितीयं कल्पानामसंख्यातानां च समयसंख्यासमं ध्रुवहारेणापहृते भवति खलत्कृष्टं द्रव्यं ।
तं द्वितीयं विपुलमनःपर्ययज्ञानविषयद्वितीयद्रव्यविकल्पमं असंख्यातकल्पंगळ समयंगळ संख्यासमान वहारंगळिदं भागिसुत्तं विरलु यावत्प्रमाणं लब्धं तावत्प्रमाणं विपुलमतिमनःपयंय- ५ ज्ञानविषयसवर्वोत्कृष्टद्रव्यविकल्पमक्कुं खलु स्फुटमागि स ० ख ख
९ क ३ ९९९ गाउयपुधत्तमवरं उक्कस्सं होदि जोयणपुधत्तं ।
विउलमदिस्स य अवरं तस्स पुधत्तं वरं खु णरलोयं ॥४५५॥ गव्यूतिपृथक्त्वमवरमुत्कृष्टं भवति योजनपृथक्त्वं । विपुलमतेरवरं तस्य पृथक्त्वं खलु नरलोकः॥
ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानविषयजघन्यक्षेत्रं गव्यूतिपृथक्त्वमेरडुमूर क्रोशंगळप्पुवु। क्रो २। ३। मवरुत्कृष्टक्षेत्रं योजनपृथक्त्वसप्ताष्टयोजनप्रमाणमक्कुं । यो ७। ८। विपुलमतिमनःपर्ययज्ञान । विषयजघन्यक्षेत्रं तस्य पृथक्त्वमा योजनंगळ पृथक्त्वमष्टयोजननवयोजनप्रमाणमक्कुं। ८।९।। तदुत्कृष्टज्ञानविषयोत्कृष्टक्षेत्रं खलु स्फुटमागि । नरलोकः मनुष्यलोकमेनितनितु प्रमाणमक्कुं। .
णरलोएत्ति य वयणं विक्खंभणियामयं ण वट्टस्स ।
जम्हा तग्णपदरं मणपज्जवखेत्तमुद्दिटुं ॥४५६॥ नरलोक इति वचनं विष्कंभनियामकं न वृत्तस्य । यस्मात्तद्घनप्रतरं मनःपर्यायक्षेत्रमुद्दिष्टं ॥
विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानविषयसर्वोत्कृष्टक्षेत्रप्रमाणदोळु नरलोक इति वचनं नरलोक में बी शब्दं तन्मनुष्यक्षेत्रवृत्तविष्कंभनियामकमल्तेके दोडे यस्मात् आवुदोंदु कारणदिदं तद्घनप्रतरमा
तस्मिन् विपुलमतिविषयद्वितीयद्रव्ये असंख्यातकल्पसमयसंख्यधं वहारैर्भक्ते विपुलमतिविषयं सर्वोत्कृष्ट- २०
Www
द्रव्यं भवति-सaa aख ख ॥४५४।।
९। क व ९९९ ऋजुमतिविषयजघन्यक्षेत्र गव्यूतिपृथक्त्वं द्वित्रिक्रोशाः २ । ३ । उत्कृष्टं योजनपृथक्त्वं सप्ताष्टयोजनानि ७ । ८। विपुलमतिविषयजघन्यक्षेत्र योजनपृथक्त्वं अष्टनवयोजनानि । ८।९। उत्कृष्टं स्फुटं नरलोकः ॥४५५॥
यद्विपुलमतिविषयोत्कृष्टक्षेत्रप्ररूपणे नरलोक इति वचनमुक्तं तत् तद्गतविष्कम्भस्य नियामकं निश्चायकं २५
विपुलमतिके विषयभूत उस दूसरे द्रव्यमें असंख्यात कल्पकालके समयोंकी संख्या जितनी है, उतनी बार ध्रुवहारसे भाग देनेपर' विपुलमतिके विषयभूत सर्व उत्कृष्टद्रव्य आता है ।।४५४॥
ऋजुमतिका विषयभूत जघन्य क्षेत्र गव्यूति पृथक्त्व अर्थात् दो-तीन कोस है। और उत्कृष्ट क्षेत्र योजन पृथक्त्व अर्थात् सात-आठ योजन है। विपुलमतिका विषयभूत जघन्य ३० क्षेत्र योजन पृथक्त्व अर्थात् आठ-नौ योजन है और उत्कृष्टक्षेत्र मनुष्यलोक है ॥४५५॥
विपुलमतिका विषय उत्कृष्टक्षेत्रका कथन करते हुए जो मनुष्यलोक कहा है, वह
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६७४
गो० जीवकाण्डे मनुष्यक्षेत्रद समचतुरस्रघनप्रतरप्रमितं विपुलमतिमनःपर्य्ययज्ञानविषयसर्वोत्कृष्टक्षेत्रप्रमाणमेंदु समुद्दिष्टं अनादिनिधनार्षदोळु पेळल्पटुदप्पुदे कारणमागि मानुषोत्तरपर्वताभ्यंतरविष्कभं नाल्वत्तय्दुलक्षयोजनप्रमाणमदर समचतुरस्रक्षेत्रघनप्रतरप्रमाणं कैकोळल्पडुवुदेके दोड आ मानुषोत्तरपवंतदिदं पोरगण नाल्कुकोणंगळोलिई तिय्यंचरुममररुं चितिसिदुदं विपुलमतिमनःपर्याय५ ज्ञानमरिगुमप्पुदे कारणमागि।
-
४५ ल. दुगतिगभवा हु अवरं सत्तट्ठभवा हवंति उक्कस्सं ।
अडणवभवा हु अवरमसंखेज्जं विउलउक्कस्सं ॥४५७॥ द्वित्रिभवाः खलु जघन्यं सप्ताष्ट भवा भवंति उत्कृष्टं । अष्टनवभवाः खलु जघन्यमसंख्यातं विपुलोत्कृष्टं॥
कालं प्रति ऋजमतिमनःपर्ययज्ञानविषयजघन्यं द्वित्रिभवंगळु खलु स्फुटमागि अप्पुवु उत्कृष्टदिदं सप्तष्टभवंगळप्पुवु। विपुलमतिमनःपर्ययक्के जघन्यमष्टनवभवंगळुविषयमप्पुवु उत्कृष्टमसंख्यातसमयमप्पुदुमादोडं पल्यासंख्यातेकभागमात्रमक्कु प।
भवति न तु वृत्तस्य । कुतः ? यतस्तत्पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनप्रमाणं समचतुरस्रघनप्रतरं मनःपर्ययविषयोत्कृष्ट
क्षेत्र समुद्दिष्टं ततः कारणात् तदपि कुतः ? मानुषोत्तराद्बहिश्चतुःकोणस्थिततिर्यगमराणां परचिन्तितानां १५ उत्कृष्टविपुलमतेः परिज्ञानात् ॥४५६॥
४५ ल कालं प्रति ऋजुमतेविषयजघन्यं द्वित्रिभवाः स्युः । उत्कृष्टं सप्ताष्टभवाः स्युः । विपुलमतेविषयजघन्य अष्टनवभवाः स्युः । उत्कृष्टं पल्यासंख्यातैकभागः स्यात् ५ ॥४५७॥
मनुष्यलोकके विष्कम्भका निश्चायक है।गोलाईका नहीं । अर्थात् मनुष्यलोक तो गोलाकार
है। वह नहीं लेना चाहिए। क्योंकि पैंतालीस लाख योजन प्रमाण समचतुरस्र घनप्रतर २० अर्थात् समान चौकोर घनप्रतर रूप मनापर्ययका उत्कृष्ट विषयक्षेत्र कहा है। अर्थात् पैतालीस
लाख योजन लम्बा उतना ही चौड़ा लेना। क्योंकि मानुषोत्तर पर्वतके बाहर चारों कोनों में स्थित देवों और तियचोंके द्वारा चिन्तित अर्थको भी उत्कृष्ट विपुलमति जानता है ।।४५६।।
कालकी अपेक्षा ऋजुमतिका जघन्य विषय दो-तीन भव होते हैं। और उत्कृष्ट सातआठ भव होते हैं। विपुलमतिका जघन्य विषय आठ-नौ भव होते हैं और उत्कृष्ट पल्यका २५ असंख्यातवां भाग है ॥४५७॥
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६७५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका आवलिअसंखभागं अवरं च वरं च वरमसंखगुणं ।
तत्तो असंखगुणिदं असंखलोगं तु विउलमदी ॥४५८॥ आवल्यसंख्यभागो अवरश्च वरश्च वरोऽसंख्यगुणः ततोऽसंख्यगुणितः असंख्यलोकस्तु विपुलमतेः॥
भावं प्रति वक्ति । ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानविषयजघन्यमावल्यसंख्यातेकभागमक्कुमुत्कृष्टमुमंते आवल्यसंख्यभागमक्कुमावोडे जघन्यमं नोडलसंख्यातगुणमक्कुं। ततः आ ऋजुमतिमनःपय॑यज्ञानविषयोत्कृष्टभावप्रमाणमं नोडलु विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानविषयजघन्यभावमसंख्यातगुणितमक्कुमा विपुलमतिमनःपर्ययज्ञानविषयोत्कृष्टभावं तु मत्त असंख्यातलोकः असंख्यातलोकमात्रमक्कु ।
. मज्झिमदव्वं खेतं कालं भावं च मज्झिमं गाणं ।
जाणदि इदि मणपज्जयणाणं कहिदं समासेण ॥४५९॥ मध्यमद्रव्यं क्षेत्र कालं भावं च मध्यमज्ञानं जानाति । इतिमनःपय॑यज्ञानं कथितं समासेन ॥
ऋजुमतिमनःपर्ययज्ञानजघन्योत्कृष्टज्ञानंगळु विपुलमतिमनःपर्यायजघन्योत्कृष्टज्ञानंगळं ई पेळल्पट्ट तंतम्मजघन्योत्कृष्टद्रव्यक्षेत्रकालभावंगळनरिववुमा मध्यमज्ञानविकल्पंगळु तंतम्म मध्यमद्रव्यक्षेत्रकालं भावंगळनरिववितु मनपर्ययज्ञानं संक्षेपदिदं पेळल्पटुदु। तद्व्यक्षेत्रकाल- १५ भावंगळ्ग संदृष्टि :
भावं प्रति ऋजुमतेविषयजघन्यं आवल्यसंख्यातकभागः ८ । उत्कृष्टं तदालापमपि जघन्यादसंख्यात
aaa गुणं ८ । ततः विपुलमतेविषयजघन्यमसंख्यातगुणं ८ a a उत्कृष्टं तु पुनः असंख्यातलोकः । =a॥४५८॥ aaa
aaa ऋजविपुलमत्योः जघन्योत्कृष्टविकल्पो उक्तस्वस्वजघन्योत्कृष्टद्रव्यक्षेत्रकालभावान् जानीतः । मध्यमविकल्पास्तु स्वस्वमध्यमद्रव्यक्षेत्रकालभावान् जानन्ति इत्येवं मनःपर्ययज्ञानं संक्षेपेणोक्तम् ॥४५९॥
२०
भावकी अपेक्षा ऋजुमतिका जघन्य विषय आवलीका असंख्यातवाँ भाग है । उत्कृष्ट भी उतना ही है, किन्तु जघन्यसे असंख्यातगुणा है। उससे विपुलमतिका जघन्य विषय असंख्यातगुणा है और उत्कृष्ट असंख्यात लोक है ।।४५८॥
ऋजुमति और विपुलमतिके जघन्य और उत्कृष्ट भेद अपने-अपने जघन्य और उत्कृष्ट द्रव्य-क्षेत्र-काल और भावोंको जानते हैं । तथा मध्यमभेद अपने-अपने मध्यम क्षेत्र-काल-भाव- २५ को जानते हैं । इस प्रकार मनःपर्ययज्ञानका संक्षेपसे कथन किया ॥४५९॥
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६७६
गो० जीवकाण्डे
सa
ख
ख
।
४५०००००
भा=
a
उत्कृष्ट विपुलमति
स०१६ ख ६प
जघन्य
जोयण। ८.९ भव । ८१९ ८००
aaa
| ६।१।प११प ९
aa
स। १६ ख ६प
जोयण । ७।८ भव । ७।८
८ ० . aaa
उत्कृष्ट ऋजुमति
६।
।प। १२
०००
जघन्य ॥०
०
।
क्षेत्र
| स. १६ ख | गाउय । २।३ भव २।३ | aa द्रव्य
काल
भाव ॥०॥०॥ संपुण्णं तु समग्गं केवलमसवत्त सव्वभावगयं ।
लोयालोयवितिमिरं केवलणाणं मुणेदव्वं ॥४६०॥ संपूर्ण तु समग्रं केवलमसपत्नसवभावगतं । लोकालोकवितिमिरं केवलज्ञानं मंतव्यं ॥
जीवद्रव्यद शक्तिगतज्ञानाविभागप्रतिच्छेदंगळगेनितोळवनितुं व्यक्तिग बंदु (धु) वप्पुदे कारणमागि संपूर्ण, मोहनीयवी-तरायनिरवशेषक्षदिंदमप्रतिहतशक्तियुक्तत्वदिदमुं निश्चलत्व१५ दिदमुं समग्र# इंद्रियसहायनिरपेक्षमप्पुरिदं केवलमुं। सपत्नंगळप्प धातिचतुष्टयप्रक्षदिदं क्रम
करणव्यवधानरहितमागि सकलपदार्थगतमप्पुदु कारणदिदमसपत्न, लोकालोकंगळोळ्विगततिमिरमुमितप्पुदु केवलज्ञानमदु मंतव्युं बगेयल्पडुवुदु ।
जीवद्रव्यस्य शक्तिगतसर्वज्ञानाविभागप्रतिच्छेदानां व्यक्तिगतत्वात्संपूर्णम् । मोहनीयवीर्यान्तरायनिरवशेषक्षयादप्रतिहतशक्तियुक्तत्वात् निश्चलत्वाच्च समग्रम् । इन्द्रियसहायनिरपेक्षत्वात् केवलम् । घातिचतुष्टयप्रक्षयात् २० क्रमकरणव्यवधानरहितत्वेन · सकलपदार्थगतत्वात् असपत्नम् । लोकालोकयोविगततिमिरं तदिदं केवलज्ञानं
जीवद्रव्य के शक्तिरूप जो सब ज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेद हैं, वे सब व्यक्त हो जानेसे केवलज्ञान सम्पूर्ण है । मोहनीय और वीर्यान्तरायका सम्पूर्ण क्षय होनेसे केवलज्ञानकी शक्ति बेरोक और निश्चल है,इसलिए वह समय है। इन्द्रियोंकी सहायता न लेनेसे केवल है । चार
घातिया कोंका अत्यन्त क्षय हो जानेसे तथा क्रम और इन्द्रियोंके व्यवधानसे रहित होनेके २५ कारण समस्त पदार्थोंको जाननेसे असपत्न है। लोक और अलोकको प्रकाशित करनेवाला
ऐसा यह केवलज्ञान जानना ॥४६०॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अनंतरं ज्ञानमार्गणेयोल जीवसंख्येयं पेदपं ।
चदुर्गादिमदिसुदबोहा पल्लासंखेज्जया हु मणपज्जा । संखेज्जा केवल सिद्धादो होंति अदिरित्ता ||४६१ ॥
चतुरर्गतिमतिश्रुतबोधाः पल्यासंख्येयमात्राः खलु मनःपर्य्ययज्ञानिनः संख्येयाः केवलिनः सिद्धेभ्यो भवत्यतिरिक्ताः ॥
चतुर्गतिय मतिज्ञानिगळं श्रुतज्ञानिगळ प्रत्येकं पल्यासंख्यातभागप्रमितरु स्फुटभागि । |||प | मनः पय्यंयज्ञानिगळ संख्यातप्रमितरेयप्पुवु । १ । केवलज्ञानिगळु सिद्धरं नोडे
a
जिन संख्ययदं साधिकरप्परु 2 |
३
ओहिरहिदा तिरिक्खा मदिणाणि असंखभागगा मणुवा ।
संखेज्जा हु तदूणा मदिणाणी ओहिपरिमाणं ||४६२॥
अवधिरहितास्तिय्यंचो मतिज्ञान्यसंख्य भागप्रमिता मानवाः । संख्येयाः खलु तदूना मतिज्ञानिनो अवधिज्ञानिनः परिमाणं ॥
अवधिज्ञानरहिततिय्यंचर मतिज्ञानिगळ संख्येयं नोडलसंख्यात भागप्रमितरप्परु प १ अवधिरहितमनुष्यरु संख्यातप्रमितरप्परु- । १ । मी येरडु राशिगळदं प १ हीनमप्प मतिज्ञानिगळ
aa
a १
a
संख्ये अवधिज्ञानिगळ परिमाणमक्कु प
a a
६७७
मन्तव्यम् ||४६०।। अथ ज्ञानमार्गणायां जीवसंख्यामाह
चतुर्गतेर्मतिज्ञानिनः श्रुतञ्चानिनश्च प्रत्येकं पल्यासंख्यातैकभागुमात्राः स्युः स्फुटं म प श्रुप । मनःपर्यय
a a
Q
ज्ञानिनः संख्याताः । केवलज्ञानिनः जिनसंख्यया समधिकसिद्ध राशिः ३ ॥ ४६१ ॥
अवधिज्ञानरहिततिर्यञ्चः मतिज्ञानिसंख्याया असंख्प्रेयभागः प १ । अवधिरहितमनुष्याः संख्याताः 2
a a
2
एतद्राशिद्वयोना मतिज्ञानसंख्यैव चतुर्गत्यवधिज्ञानपरिमाणं भवति प ३-१ ॥४६२॥
a a
५
१०
१५
अब ज्ञानमार्गणा में जीवोंकी संख्या कहते हैं
चारों गतियों में मतिज्ञानी पल्यके असंख्यातवें भाग हैं और श्रुतज्ञानी भी पल्य के असंख्यातवें भाग हैं । मन:पर्ययज्ञानी संख्यात हैं । और केवलज्ञानी सिद्धराशिमें तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानके जिनोंकी संख्या मिलानेपर जो प्रमाण हो, उतने हैं ॥ ४६१ ||
1
अवधिज्ञानसे रहित तिर्यंच मतिज्ञानियोंकी संख्यासे असंख्यातवें भाग हैं । अवधि - २५ ज्ञानसे रहित मनुष्य संख्यात हैं । मतिज्ञानियोंकी संख्या में ये दोनों राशि घटा देने पर चारों गतिके अवधिज्ञानियोंका प्रमाण होता है || ४६२ ||
२०
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६७८
गो० जीवकाण्डे पल्लासंखघणंगुलहदसेढितिरिक्खगदिविभंगजुहा ।
णरसहिदा किंचूणाचदुगदीवेभंगपरिमाणं ॥४६३॥ पल्यासंख्यातघनांगुलहतश्रेणितिर्यग्गति विभंगयुताः। नरसहिता किंचिदूना चतुगतिविभंगज्ञानिपरिमाणं॥
पल्यासंख्यातघनांगुलगुणित १ जगच्छ्रेणिमानं तिय्यंचविभंगज्ञानिगळप्परु -६ नरसहिता ई तिय्यंचविभंगज्ञानिगळोळु मनुष्यविभंगज्ञानिगळु संख्यातप्रमितरप्प १ रवर्गाळ संख्ययं साधिकं माडि - १५ दो राशियमं सम्यग्दृष्टिळिदं किंचिदूनधनांगुलद्वितीयमूलगुणितजगच्छेणिप्रमितसामान्यनारकर संख्येयमं ।-२-। सम्यग्दृष्टिगळिदं किंचिढून ज्योतिष्कर संख्येयं
नोडि साधिकयुप्प देवगतिजर संख्ययुमनितुं नाल्कुं गतिगळ विभंगज्ञानिगळ संख्ययं कूडियोड १० चतुर्गतिसमस्तविभंगज्ञानिगळ संख्येयक्कुं = १
४। ६५-१ सण्णाणरासिपंचयपरिहीणो सव्वजीवरासी हु।
मदिसुद अण्णाणीणं पत्तेयं होदि परिमाणं ॥४६४॥ सद्ज्ञानराशिपंचकपरिहीनः सर्वजीवराशिः खलु । मतिश्रुताज्ञानिनां प्रत्येकं भवति परिमाणं॥
पल्यासंख्यातघनाङ्गुलहतजगच्छ्रे णिमात्रतिर्यञ्चः-६ प संख्यातमनुष्याः १ सम्यग्दृष्टयूनघनाङ्गुलद्वितीय
मूलगुणितजगच्छ्रेणिमात्रनारकाः-२-सम्यग्दृष्टयूनज्ज्योतिष्कसंख्यासाधिकदेवाः
१-मिलित्वा चतु
४। ६५ =
गतिविभङ्गज्ञानिसंख्या भवति १
=४ । ६५ =१
॥४६३॥
पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणित घनांगुलसे जगतश्रेणिको गुणा करनेपर जितना प्रमाण हो, उतने तिथंच, संख्यात मनुष्य तथा धनांगुलके द्वितीय मूलसे जगतश्रेणिको गुणा .. करनेपर जितना प्रमाण हो, उतने नारकियोंके प्रमाणमें-से सम्यग्दष्टि नारकियोंका प्रमाण
घटानेसे जो शेष रहे,उतने नारकी तथा ज्योतिषी देवोंके परिमाणमें भवनवासी, व्यन्तर और वैमानिक देवोंका प्रमाण मिलानेपर जो सामान्यदेव राशिका प्रमाण होता है, उसमें सम्यकदृष्टि देवोंका परिमाण घटानेपर जो शेष रहे, उतने देव । इन सब तियच, मनुष्य, नारकी और देवोंके प्रमाणको जोड़नेपर चारों गतिके विभंगज्ञानियोंकी संख्या होती है ॥४६३।।
२५ १. ब°न साधिकज्यातिष्कसंख्यदेवाः ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६७९
मतिश्रुतावविमनःपर्य्ययकेवलज्ञानिगळ संख्येगळनय्दु राशिगळं कूडिदोर्ड केवलज्ञानिगळ संख्य मेले साधिकमक्कु ७ मी राशियं सर्व्वजीवराशियोल १६ कलेयुत्तिरलुळिद शेषं १३
३
प्रत्येकं मत्यज्ञानिगळ संख्येयु श्रुताऽज्ञानिगळ संख्येयुमक्कु १३३१३ । मितु पेळपट्ट संख्येगळ संदृष्टि चतुर्गतिक्कु । मतिज्ञानिगळ १३ । चतुग्र्गतियक्कु श्रुतज्ञानिगळ १३ । चतुर्गतिय विभंगज्ञानिगळु
HI
चतुर्गतियमतिज्ञानिगळु प चतुर्गंतिय श्रुतज्ञानिगळ प चतुर्गतिय अवधिज्ञानिगळ ५
a
a
= १
|४|६५ = १
प मनुष्यगतियमनः पय्यंयज्ञानिगळ १ केवलज्ञानिगळु सिद्धरूं जिनरुं १ तिर्यग्गतिय विभंग
३
ज्ञानिगळ ६ प मनुष्यगतिय विभंगज्ञानिगळु १ नारकविभंगज्ञानिगळु - २ - | देवविभंगज्ञानि
a
1
गळु = 2 ४१६५ = १
दृष्टि:
कुमति । कुश्रुत
विभंग
१३- १३- ४६५ = 2
मति श्रुत अवधि मनः केवल तिरि-विभंग ॥
1
प प a
a
Ча
aa
ตุ
३
-
६ प
a
| मनु - विभंग नारक - विभंग | देव-विभंग
F
2
1R1
इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदित पुण्यपुंजायमान श्रीमद्रायराज गुरुमंडलाचाय्र्यमहावादवादीश्वररायवादिपितामह सकलविद्वज्जनचक्रवत्तिश्री मदभयसूरिसिद्धांतचक्रवत श्रीपादपंकज रजो रंजितललाटपट्टे श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटकवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिकेयो जीवकांडविंशतिप्ररूपणंगळोळ द्वादशज्ञानमार्गणामहाधिकारं समाप्तमाय्तु ॥
= ดู 1 ४ । ६५ - १
मत्यादिसम्यग्ज्ञान राशिपञ्चकेन साधिककेवलिराशिमात्रेण नृ सर्वजीवराशिः १६ हीनस्तदा १३ - प्रत्येकं मतिश्रुताज्ञा निपरिमाणं स्यात् ||४६४॥
I
३
मति आदि पाँच सम्यग्ज्ञानियोंकी संख्या केवलज्ञानियोंकी संख्यासे कुछ अधिक है । इसको सर्वजीवराशिमें से घटानेपर मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी जीवका परिमाण होता है ॥ ४६४ ॥
१०
१५
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६८०
गो. जीवकाण्डे गंभीररचनेगळ परिरंभणेयं बिडिसि निरिसिदुदनेबुद प्रा- रंभिसि गोम्मटवृत्ति सुघांभोलियिनोडिगे मोहवनाचलमं ॥
इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्ररचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां जीवकाण्डे
विंशतिप्ररूपणासु ज्ञानमार्गणाप्ररूपणानाम द्वादशोऽधिकारः ॥१२॥
५ इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव
परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिकाको अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डकी बीस प्ररूपणाओं में से ज्ञानमार्गणा प्ररूपणा
नामक बारहवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥१२॥
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संयममार्गणा ||१३||
ज्ञानमार्गणा स्वरूपमं पेदनंतरं संयममार्गणास्वरूपमं पेळल्वेडि मंदण सूत्रमं पेदपंवदसमिदिकसायाणं दंडाण तहिंदियाण पंचन्हं ।
धारण- पालणणिग्गहचागजओ संजमो भणियो || ४६५ ||
व्रतसमितिकषायाणां दंडानां तर्थेद्रियाणां पंचानां । धारणपालननिग्रहत्यागजयः संयमो
भणितः ॥
व्रतसमितिकषायदंडेंद्रियंगळे बी अय्दु यथासंख्यमागि धारणपालननिग्रहत्यागजयं संयममें बुदु परमागमदोळपेल्पदुदु । व्रतधारण समितिपालनं कषायनिग्रहं बंडत्यागमद्रियजयमें बी पंचप्रकारमसंयममे बुदत्थं । सम् सम्यग्यमनं संयमः एंदिती निरुक्तिगनुरूपलक्षणं संयमक्के पेळपट्टु दें बुदु तात्पय्यं ।
बादरसंजलद सुहुमुदए समखए य मोहस्स ।
संमभावोणियमा होदित्ति जिणेहि णिद्दि || ४६६ ||
बादरसंज्वलनोदये सूक्ष्मोदये उपशमे क्षये च मोहस्य । संयमभावो नियमात् भवतीति जिनैन्निद्दिष्टः ॥
बादरसंज्वलनोदयदोळं सूक्ष्मलोभोदयदोळं मोहनीयकम्र्मोपशमदोळं क्षयदोळं नियर्मादिदं संयमभावमक्कुमेंदु अर्हदादिर्गाळ दं पेळल्पदुदु ।
विश्वं विमलयन्स्वीयगुणैर्विश्वातिशायिभिः । विमलस्तीर्थकर्ता यो वन्दे तं तत्पदातये ॥१३॥ अथ ज्ञानमार्गणां प्ररूपयेदानों संयममार्गणामाह
व्रतसमितिकषायदण्डेन्द्रियाणां पञ्चानां यथासंख्यं धारणपालन निग्रहत्यागजयाः संयमो भणितः । व्रतधारण समितिपालनं कषायनिग्रहः दण्डत्यागः इन्द्रियजयः इति पञ्चधा संयम इत्यर्थः । सं- सम्यक्, यमनं संयमः ।।४६५ ।।
बादरसंज्वलनोदये सूक्ष्मलोभोदये मोहनीयोपशमे क्षये च नियमेन संयमभावः स्यात् । तथा हि-प्रमत्ता
ज्ञानमार्गणाकी प्ररूपणा करके अब संयममार्गणाकी प्ररूपणा करते हैं - व्रत, समिति, कषाय, मन-वचन-कायरूप दण्ड और इन्द्रियोंका यथाक्रम धारण, पालन, निग्रह, त्याग और जयको संयम कहा है । अर्थात् व्रतोंका धारण, समितियोंका पालन, कषायका निग्रह, दण्डोंका त्याग और इन्द्रियोंका जय इस प्रकार पाँच प्रकारका संयम है । 'सं' अर्थात् सम्यकरूपसे यमको संयम कहते हैं || ४६५ ||
बादर संज्वलन कषायका उदय होते, सूक्ष्म लोभकषायका उदय रहते तथा मोहनीयका उपशम और क्षय होनेपर नियमसे संयमभाव होता है; ऐसा जिनदेव ने कहा है । इसका
८६
५
१०
१५
२०
२५
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६८२
गो० जीवकाण्डे प्रमत्ताप्रमत्तरोळु संज्वलनकषायंगळ्गे सर्वघातिस्पर्द्ध कंगळुदयाभावलक्षणक्षय, उदयनिषेकद उपरितननिषेकंगळुदयाभावलक्षणमुपशममुमितु चारित्रमोहनीयक्षयोपशममुं बादरसंज्वलनदेशघातिस्पर्द्धकक्के संयमाविरोदिंदमुदयदोळं सामायिकछेदोपस्थापनसंयमंगळप्पुवुमा गुण
स्थानद्वयदोळे परिहारशुद्धिसंयममुमक्कुं। सूक्ष्मकृष्टिकरणानिवृत्तिपय॑तं बादरसंज्वलनोददिदम५ पूर्वानिवृत्तिकरणदोळं सामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमंगळप्पुवु । सूक्ष्मकृष्टिरूपदिनिई संज्वलन
लोभोदयदिद सूक्ष्मसांपरायसंयममक्कुं। चारित्रमोहनीयसोपशदिदमुं यथाख्यातसंयममक्कु। चारित्रमोहनीयनिरवशेषक्षदिदं यथाख्यातसंयम क्षीणकषायादिगुणस्थानत्रयदोळं नियदिदमक्कुमें दितु अहंदादिर्गाळद निरूपिसल्पटुदबुदर्थमीयर्थमने मुंदणगाथासूत्रद्वयदिदं विशदं माडिदपरु ।
बादरसंजलणुदए बादरसंजमतियं खु परिहारो।
पमदिदरे सुहुमुदए सुहुमो संजमगुणो होदि ॥४६७।। बादरसंज्वलनोदये बादरसंयमत्रयं खलु परिहारः। प्रमत्तेतरयोः सूक्ष्मोदये सूक्ष्मः संयमगुणो भवति ॥
बादरसंज्वलनसंयमाविरोधिदेशघातिस्पर्द्धकोदयदोळु बादरंगळप्प सामायिकच्छेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसंयमंगळेब संयमत्रयमक्कुमल्लि परिहारविशुद्धिसंयम प्रमत्ताप्रमतरोळेयकं १५ उळिवरडुमनिवृत्तिपयंतमप्पुवु । सूक्ष्मकृष्टिरूपसंज्वलनलोभोदयमागुत्तिरलु सूक्ष्मसांपरायसंयम
प्रमत्तयोः संज्वलनकषायाणां सर्वघातिस्पर्धकानामुदयाभावलक्षणे क्षये उदयनिषेकादुपरितननिषेकाणां उदयाभावलक्षणे उपशमे बादरसंज्वलनदेशघातिस्पर्धकस्य संयमाविरोधेनोदये सति सामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशुद्धिसंयमाः भवन्ति, सूक्ष्मकृष्टिकरणानिवृत्तिपर्यन्तं बादरसंज्वलनोदयेनापूर्वानिवृत्तिकरणेऽपि सामायिकछेदो
पस्थापनसंयमौ भवतः । सूक्ष्मकृष्टिगतसंज्वलनलोभोदयेन सूक्ष्मसांपरायसंयमः चारित्रमोहनीयसर्वोपशमेन उप२० शान्तकषाये निरवशेषक्षयेण क्षीणकषायादित्रये च यथाख्यातसंयमो भवतीत्यर्थः, इत्येतज्जिनरेवोद्दिष्टम ॥४६६॥ अमुमेवार्थ गाथाद्वयेनाह
बादरसंज्वलनसंयमाविरोधिदेशघातिस्पधकोदये बादरं सामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशद्धिसंयमत्रयं भवति । तत्र परिहारविशुद्धिः प्रमत्ताप्रमत्तयोरेव, शेषद्वयं अनिवृत्तिपर्यन्तं भवति । सूक्ष्मकृष्टिगतसंज्वलनलोभोदये
स्पष्टीकरण इस प्रकार है-प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें संज्वलन कषायोंके सर्वघाती २५ स्पर्धकोंके उदयका अभावरूप क्षय, तथा उदयरूप निषेकोंसे ऊपरके निषेकोंका उदयका
अभावरूप उपशम तथा बादर संज्वलनके देशघाती स्पर्द्धकोंका संयमका विरोध न करते हुए उदय होनेपर सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि संयम होते हैं। किन्तु सूक्ष्मकृष्टि करनेरूप अनिवृत्तिकरण गुणस्थान पर्यन्त बादर संज्वलन कषायका उदय होनेसे अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें भी सामायिक और छेदोपस्थापना संयम होते हैं। सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त संज्वलन लोभका उदय होनेसे सूक्ष्म सम्पराय संयम होता है । सम्पूर्ण चारित्रमोहका उपशम होनेपर उपशान्तकषायमें और क्षय होनेपर क्षीणकषाय, सयोगकेवली और अयोगकेवली गुणस्थानोंमें यथाख्यातसंयम होता है ।।४६६।। ___ इसी अर्थको दो गाथाओंसे कहते हैं
बादर संज्वलन कषायके देशघाती स्पर्धकोंका, जो संयमके विरोधी नहीं हैं, उदय ३५ होते हुए सामायिक, छेदोपस्थापना और परिहारविशुद्धि ये तीन संयम होते हैं। इनमें से
परिहारविशुद्धि तो प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानमें ही होता है । शेष दोनों अनिवृत्तिकरण
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका गुणमक्कु।
जहखादसंजमो पुण उवसमदो होदि मोहणीयस्स ।
खयदो वि य सो णियमा होदि त्ति जिणेहि णिढुिटुं ॥४६८॥ यथाख्यातसंयमः पुनरुपशमाद्भवति मोहनीयस्य । क्षयतोपि च स नियमाद् भवति इति जिनैर्निर्दिष्टं ॥
यथाख्यातसंयम मते मोहनीयदुपशमदिंदमक्कु। मोहनीयनिरवशेषक्षयदिदमुआ यथाख्यातसंयम नियमदिदमक्कुम दितु जिनरुर्गाळंदं पेळल्पटुदु।
तदियकसायुदयेण य विरदाविरदो गुणो हवे जुगवं ।
बिदियकसायुदयेण य असंजमो होदि णियमेण ॥४६९॥ तृतीयकषायोदयेन च विरताविरतगुणो भवेयुगपत् । द्वितीयकषायोदयेन च असंयमो भवति । नियमेन ॥
. प्रत्याख्यानावरणतृतीयकषायोददिदं विरताविरतगुणमोम्मों दलोळेयक्कुं। संयमुमसंयममुमोम्मोदलोळेयककुमदुकारणमागि सम्यग्मिथ्यादृष्टिय तंते देशसंयतनुंमिश्रसंयमियक्कुमेंबुदथें । द्वितीयकषायोदयदोळप्रत्याख्यानकषायोदयदोळसंयम नियमदिधं मक्कु।
संगहिय सयलसंजममेयजममणुत्तरं दुरवगम्मं ।
जीवो समुव्यतो सामाइयसंजदो होदि ।।४७०॥ संगृह्य सकलसंयममेकयममनुतरं दुरवगम्यं । जीवःसुमुद्वहन् सामायिकसंयमो भवति ॥
संगृह्य सकलसंयमं व्रतधारणादिपंचविघमप्पसंयममं युगपत्सर्वसावधाद्विरतोस्मि येदितु संग्रहिसि संक्षेपिसि एकयमं भेदरहितसकलसावद्यनिवृतिस्वरूपमप्प एकयममं अनुत्तरं असदृशं सूक्ष्मसांपरायसंयमगुणो भवति ॥४६७॥
स यथाख्यातसंयमः पुनः मोहनीयस्योपशमतः निरवशेषक्षयतश्च नियमेन भवतीति जिनरुक्तम् ॥४६८॥
प्रत्याख्यानकषायोदयेन विरताविरतगुणो युगपद् भवति, संयमासंयमयोर्युगपत्संभवात् । सम्यग्मिथ्यादृष्टिवद्देशसंयतोऽपि मिश्रसंयमीत्यर्थः । अप्रत्याख्यानकषायोदये असंयमो नियमेन भवति ॥४६९॥
सकलसंयम-व्रतधारणादिपञ्चविधं युगपत्सर्वसावद्याद्विरतोऽस्मीति संगृह्य-संक्षिप्य, एकयमं-भेदरहितपर्यन्त होते हैं। सूक्ष्मकृष्टिको प्राप्त संज्वलन लोभका उदय होते हुए सूक्ष्म साम्पराय नामक २५ संयमगुण होता है ।।४६७।।
यथाख्यात संयम नियमसे मोहनीयके उपशमसे अथवा सम्पूर्ण क्षयसे होता है, ऐसा जिनदेवने कहा है ॥४६८॥
___ तीसरी प्रत्याख्यान कषायके उदयसे एक साथ विरतअविरतरूप गुण होता है, क्योंकि संयम और असंयम एक साथ होते हैं। अर्थात् जैसे तीसरे गुणस्थानमें सम्यक्त्व ३० और मिथ्यात्व मिले-जुले होते हैं, वैसे ही देशसंयत नामक पंचम गुणस्थानमें संयम और असंयम मिला हुआ होता है। दूसरी अप्रत्याख्यान कषायके उदयमें नियमसे असंयम होता है ॥४६९॥
व्रतधारण आदि रूप पाँच प्रकारके सकल संयमको एक साथ 'मैं समस्त सावद्यसे विरत हूँ' इस प्रकार संगृहीत करके एक यम रूपसे धारण करना सामायिक संयम है। ३५
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गो. जीवकाण्डे मिगिलिनिल्लदुदं दुगम्यं दुःखेन महता कष्टेन गम्यं प्राप्यं एवंविधमप्प सामायिकम समद्वहन जीवः कैकोंडु नडसुवंतप्पासन्नभव्यजीवं सामायिकसंयमो भवति । सामायिकः संयमोऽस्यास्मिन्वा सामायिकसंयमः सामायिकसंयममनुकळ सामायिक संयमनबनक्कुं।
छेत्तण य परियायं पोराणं जो ठवेइ अप्पाणं ।
पंचजमे धम्मे सो छेदोवद्वावगो जीवो ॥४७१॥ छित्वा च पर्यायं पुराणं यः स्थापयति आत्मानं । पंचयमे धर्मे स च्छेदोपस्थापको जीवः॥
छित्वा पुराणं पर्यायं सामायिकसंयतनागिर्दु बळिचि सावधव्यापारंगळगे संविद्धतप्पजीवं प्राक्तनसावधव्यापारपर्यायमं प्रायश्चित्तंगळिदं छित्वा च्छेदिसि यः आवनोवं आत्मानं तन्नं पंचयमे धर्मे व्रतधारणादिपंचप्रकारसंयमरूपधर्मदोलु स्थापयति नेलेगोलिसुगुं सः जीवः आ जीवं च्छेदोपस्थापकः च्छेदोपस्थापनासंयतनक्कुं । च्छेदेनोपस्थापनं च्छेदोपस्थापनं । प्रायश्चित्ताचरणेनोपस्थापनं च्छेदोपस्थापनं यस्य स च्छेदोपस्थापकः एंदितु निरुक्तिलक्षणसिद्धमक्कं । अथवा प्रायश्चितगळिदं ता माडिद दोषं पोगदोडे मुन्नं ता माडिद तपमनादोषक्कतक्कुदं च्छेदिसि किरियनागि तन्नं मत्ता निरवद्यसंयमदोळु स्थापिसुवातनुं च्छेदोपस्थापनसंयतनक्कु। स्वतपसि च्छेदे सति उपस्थापनं यस्यासौ च्छेदोपस्थापकः एंदितिल्लि अधिकरणव्युत्पत्तियक्कु।
पंचसमिदो तिगुत्तो परिहरइ सदा वि जो हु सावजं ।
पंचेक्कजमो पुरिसो परिहारयसंजदो सो हु ॥४७२॥ पंचसमितस्त्रिगुप्तः परिहरति सदापि यः खलु सावा । पंचैकयमः पुरुषः परिहारसंयतः स खलु॥
सकलसावद्य निवृत्तिरूपं, अनुत्तरं-असदृशं, संपूर्ण, दुरवगम्यं-दुःखेन प्राप्यं तत्सामायिक समुद्वहन् जीवः २० सामायिकसंयमः-सामापिकसंयमसंयुक्तो भवति ॥४७०॥
___सामायिकसंयतो भूत्वा प्रच्युत्य सावद्यव्यापारप्रतिपन्नो यो जीव: पुराणं-प्राक्तनं सावद्यव्यापारपर्यायं प्रायश्चित्तश्च्छित्वा आत्मानं व्रतधारणादिपञ्चप्रकारसंयमरूपधर्म स्थापयति स छेदोपस्थापनसंयतः स्यात् । छेदेन प्रायश्चित्ताचरणेन उपस्थापनं यस्य स छेदोपस्थापन इति निरुक्तः । अथवा प्रायश्चित्तेन स्वकृतदोषपरि
हाराय पूर्वकृततपस्तदोषानुसारेण छित्वा आत्मानं तन्निरवद्यसंयमे स्थापयति स छेदोपस्थापकसंयतः, स्वतपसि २५ छेदे सति उपस्थापनं यस्य स छेदोपस्थापन इत्यधिकरणव्युत्पत्तेः ।।४७१॥
अर्थात् सामायिक संयम भेदरहित सकल पापोंसे निवृत्तिरूप है। यह अनुत्तर है अर्थात् इसके समान अन्य नहीं है, सम्पूर्ण है और दुरवगम्य है अर्थात् बड़े कष्टसे यह प्राप्त होता है। उस सामायिकको धारण करनेवाला जीव सामायिक संयमी होता है ॥४७०॥ . सामायिक संयमको धारण करने के पश्चात् उससे च्युत होकर सावध क्रियामें लगा जो जीव इस पुराने सावधव्यापाररूप पर्यायका प्रायश्चित्तके द्वारा छेदन करके अपनेको व्रतधारण आदि पाँच प्रकारके संयमरूप धर्ममें स्थापन करता है,वह छेदोपस्थापना संयमवाला होता है । छेद अर्थात् प्रायश्चित्त करने के द्वारा जिसका उपस्थापन होता है वह छेदोपस्थापन है ऐसी निरुक्ति है। अथवा प्रायश्चित्तके द्वारा अपने किये हुए दोषोंको दूर करनेके
लिए पूर्वकृत तपको उसके दोषोंके अनुसार छेदन करके जो आत्माको निर्दोष संयममें स्थापित ३५ करता है, वह छेदोपस्थापक संयमी है। अपने तपका छेद होनेपर जिसका उपस्थापन होता
है, वह छेदोपस्थापन है। इस प्रकार अधिकरणपरक व्युत्पत्ति है ।।४७१।।
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पंचसमितयोऽस्यसंतीति पंचसमितः। पंचसमितियुक्तर्नु तिस्रो गुप्तयोऽस्मिन्निति त्रिगुप्तः त्रिगुप्तिगळोळ्कूडिदनु सदापि सर्वदापि एल्ला कालमुसावद्यं प्राणिवधर्म परिहरति परिहरिसुगुं। यः आवनोन्यं पंचैकयमः पंचैकयमनुळ्ळ पुरुषः पुरुषनु सः आतं परिहारकसंयतः खलु परिहारविशुद्धिसंयतनक्कुं स्फुटमागि।
तीसं वासो जम्मे बासपुधत्तं खु तित्थयरमूले ।
पच्चक्खाणं पढिदो संझूणदुगाउयविहारो ॥४७३।। त्रिंशद्वर्षो जन्मनि वर्षपृथक्त्वं खलु तीत्थंकरमूले । प्रत्याख्यानं पठितः संध्योनद्विगव्यूतिविहारः॥
जन्मदोळु त्रिंशद्वर्षमनुळं सर्वदा सुखियप्पं बंदु दीक्षगोंडु वर्षपृथक्त्वं बरं तीर्थकर श्रीपादमूलदोळु प्रत्याख्यानमें बोभत्तनय पूर्वमं पठियिसिदातं परिहारविसुद्धिसंयममं कैकोंडु १० संध्यात्रयन्यूनसर्वकालदोळरडु क्रोशप्रमाणविहारमनुळं रात्रियोळ्विहाररहितनुं प्रावृट्कालनियममिल्लदनुं परिहारविशुद्धिसंयमनक्कु। परिहरणं परिहारः प्राणिवधान्निवृत्तिस्तेन परिहारेण विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिन् स परिहारविशुद्धिस्संयमो यस्य स परिहारविशुद्धिसंयमः एंदितु परिहारविशुद्धिसंयमंगे जघन्यकालमंतर्मुहूर्तमक्कु मेके दोडे परिहारविशुद्धिसंयममं पोद्दि जघन्यकालपर्यतमिन्यगुणस्थानमं पोद्दिदंगे तदंतमहतकालसंभवमक्कुमप्पुरिदं । उत्कृष्टदिदमष्ट- १५ त्रिंशद्वर्षन्यूनपूर्वकोटिवर्षमक्कुमेके दोडे पुट्टिददिनं मोदगोंडु मूवत्तु वर्षबरं सर्वदा सुखियागि कालमं कळेदु संयममं पोद्दि मेले वर्षपृथक्त्वं बरं तीर्थंकरश्रीपादमूलदोळु प्रत्याख्याननामधेय
पञ्चसमितिसमेतः त्रिगुप्तियुतः सदापि प्राणिवधं परिहरति, यः पश्चानां सामायिकादीनां मध्ये परिहारविशुद्धिनामैकसंयमः पुरुषः सः परिहारविशुद्धिसंयतः स्फुटं भवति ॥४७२॥
___ जन्मनि त्रिंशद्वार्षिकः सर्वदा सुखी सन्नागत्य दीक्षां गृहीत्वा वर्षपृथक्त्वपर्यन्तं तीर्थकरश्रीपादमूले २० प्रत्याख्यानं नवमपर्व पठितः स परिहारविशद्धिसंयम स्वीकृत्य संध्यात्रयोनसर्वकाले द्विक्रोशप्रमाणविहारी रात्री विहाररहितः प्रावृट्कालनियमरहितः परिहारविशुद्धिसंयतो भवति । परिहरणं परिहारः, प्राणिवधान्निवृत्तिः, तेन विशिष्टा शुद्धिर्यस्मिन् स परिहारविशुद्धिः, स संयमो यस्य स परिहारविशुद्धिसंयमः, तस्य जघन्यकालोन्तमुहूर्तः, जघन्येन तावत्कालमेव तत्र स्थित्वा गुणस्थानान्तरश्रयणात् । उत्कृष्टः अष्टत्रिंशद्वर्षोनपूर्वकोटिः, उत्पत्ति
जो पाँच समिति और तीन गुप्तियोंसे युक्त होकर सदा ही प्राणिवधसे दूर रहता है, २५ वह सामायिक आदि पांच संयमोंमें-से परिहारविशुद्धि नामक एक संयमको धारण करनेसे परिहारविशुद्धि संयमी होता है ।।४७२।।
जन्म से तीस वर्ष तक सर्वदा सुखपूर्वक रहते हुए उसे त्याग दीक्षा ग्रहण करके वर्षपृथक्त्वपर्यन्त तीर्थकरके पादमूलमें जिसने प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्वको पढ़ा है, वह परिहारविशुद्धि संयमको स्वीकार करके सदा काल तीनों सन्ध्याओंको छोड़कर दो कोस ३० प्रमाण विहार करता है, रात्रिमें विहार नहीं करता, वर्षाकालमें उसके विहार न करनेका नियम नहीं रहता, वह परिहारविशुद्धि संयमी होता है। परिहरण अर्थात् प्राणिहिंसासे निवृत्तिको परिहार कहते हैं। उनसे विशिष्ट शुद्धि जिसमें है। वह परिहारविशुद्धि है। वह संयम जिसके होता है,वह परिहारविशुद्धि संयमी है। उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। क्योंकि कमसे कम इतने काल पर्यन्त ही उस संयममें रहकर अन्य गुणस्थानोंमें चला जाता ३९ है। उत्कृष्ट काल अड़तीस वर्ष कम एक पूर्व कोटि है क्योंकि उत्पत्ति दिनसे लेकर तीस वर्ष
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गो० जीवकाण्डे
मनोभय पूर्व्वमं पठयिसि मत्ते परिहारविशुद्धिसंयममं पोद्दिदंगे तदुत्कृष्टकालं संभविलुगुमर्दारदं । 'परिहाराद्धसमेतः षड्जीवनिकायसंकुले विहरन् । पयसेव पद्मपत्रं न लिप्यते पापनिवहेन' |
सूक्ष्मलोभकृष्टिगता नुभागमनावनोर्व्वननु भविसुत्तं जीवन उपशमकनागलि भेणु क्षपकनागल मे सः आ जीवं सूक्ष्मसांपरायने बनक्कुं । सूक्ष्मः सांपरायः कषायो यस्य स सूक्ष्मसांपरायः १. एंदी यन्वर्थनामविशिष्ट महामुनि यथाख्यातसंयमिगलोडने किचिदूननक्कुं ।
२०
अणुलोहं वेदंतो. जीवो उवसामगो व खवगो वा । सो सुमसंपराओ जहखाएणूणवो किंचि ||४७४ ||
अणुलोभं वेदयमानो जीवः उपशमको वा क्षपको वा । स सूक्ष्मसांपरायो यथाख्याते नोनः
किचित् ॥
वसंते खीणे वा असुहे कम्मम्मि मोहणीयम्मि ।
छदुमट्ठो व जिणो वा जहखादो संजदो सो दु || ४७५ ||
उपशांत क्षीणे वा अशुभ कर्म्मणि मोहनीये छद्मस्थो दा जिनो वा यथाख्यातसंयतः स तु || अशुभमप्प मोहनीयकर्ममुपशांतमागुत्तिरलु मेणु क्षीणमागुत्तं विरलावनोव्वं छद्मस्थं १५ उपशांतकषायनागलि मेणु क्षीणकषायछद्मस्थनागलि मेणु जिनो वा सयोगकेवलियुमयोग केवलियु मेलिस: आजीवं तु मत्ते यथाख्यात संयतने बनक्कु । मोहस्य निरवशेषस्योपशमात्क्षयाच्चादिवसादारभ्य त्रिंशद्वर्षाणि सर्वदा सुखेन नीत्वा संयमं प्राप्य वर्णपृथक्त्वं तीर्थंकरपादमूले प्रत्याख्यानं पठितस्य तदङ्गीकरणात् ॥
उक्तं च
३०
परिहारधिसमेतः षड्जीवनिकायसंकुले विहरन् । पयसेव पद्मपत्रं न लिप्यते पापनिवहेन ॥४७३॥
सूक्ष्मलोभ कृष्टिगतानुभागमनुभवन् यः उपशमकः क्षपको वा स जीवः सूक्ष्मसांपरायः स्यात् 1 सूक्ष्म:सांपरायः कषायो यस्येत्यन्वर्थनामा महामुनिः यथाख्यातसंयमिभ्यः किंचिन्न्यूनो भवति ||४७४ ||
शुभमोहनीय कर्मणि उपशान्ते क्षीणे वा यः उपशान्तक्षीणकषायछद्मस्थः सयोगायोगजिनो वा, सः, तु-पुनः, यथाख्यातसंयतो भवति । मोहस्य निरवशेषस्य उपशमात् क्षयाद्वा आत्मस्वभावावस्थापेक्षा लक्षणं
२५
सदा सुखसे बिताकर संयम धारण करके वर्ष पृथक्त्व तक तीर्थंकर के पादमूल में प्रत्याख्यान पढ़नेके पश्चात् परिहारविशुद्धि संयम स्वीकार करना होता है। कहा है- 'परिहारविशुद्धि ऋद्धिसे संयुक्त जीव छह कायके जीवोंसे भरे स्थान में विहार करते हुए भी पाप समूहसे वैसे ही लिप्त नहीं होता, जैसे कमलका पत्ता पानी में रहते हुए भी पानीसे लिप्त नहीं होता' || ४७३ ।। सूक्ष्म कृष्टिको प्राप्त लोभ कषायके अनुभागको अनुभव करनेवाला उपशमक या क्षपक जीव सूक्ष्म साम्पराय होता है। सूक्ष्म साम्पराय अर्थात् कषाय जिसकी है वह सार्थक नामवाला महामुनि यथाख्यात संयमियोंसे किंचित् ही हीन होता है || ४७४ ||
अशुभ मोहनीय कर्मके उपशान्त या क्षय हो जानेपर उपशान्त कषाय और क्षीण कषाय गुणस्थानवर्ती छद्मस्थ अथवा सयोगी और अयोगी जिन यथाख्यात संयमी होते हैं । १. कलिंद कं ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
त्मस्वभावावस्थापेक्षालक्षणं यथाख्यातं चारित्रमित्याख्यायते ।
पंचतिहिचउविहिय अणुगुणसिक्खावएहि संजुत्ता । उच्चति देसविरया सम्माइट्ठी झलियकम्मा ||४७६॥ पंचत्रिचतुव्विधैश्च अणुगुणशिक्षाव्रतैः संयुक्ताः । उच्यंते देशविरताः सम्यग्दृष्टयो झटित
कर्माणः ॥
पंचविधाव्रतं त्रिविधगुणव्रतंगळदं चतुव्विधशिक्षाव्रतंगळदं संयुक्तरप्प सम्यग्दृष्टिगळु कर्मनिर्जरयोकू डिदवर्गळु देशविरतरेंदु परमागमदोळपेळपट्टरु | दंसणवदसामायियपो सहसचित्तराइभत्ते य ।
म्हारंभपरिग्गह अणुमणमुट्ठि देसविरदेदे ॥४७७||
दर्शनिक व्रतिकसामायिक प्रोषधोपवाससचित्तविरत रात्रिभक्तविरत ब्रह्मचार्यारंभविरतपरि- १० ग्रहविरतानुमतिविरतोद्दिष्टविरताः देशविरता एते ॥
इल्लि नामैकदेशो नाम्नि वर्त्तते एंबी न्यायदिदं छाये माडल्पदुदु । आ देशविरतभेदंगळपनों दप्पूवढे ते दोडे दर्शनिकनुं व्रतिकनु सामायिकनु प्रोषधोपवासनु सचित्तविरतनुं रात्रिभक्त विरतनुं ब्रह्मचारि आरंभविरतनुं परिग्रहविरतनुमनुमतिविरतनुमुद्दिष्टविरतनु में वितिल्लि दर्शनिकनें ।
"पंचुंबर सहियाई सत्तरं वसणाई जो विवज्जेइ ।
सम्मत्तविद्धमई सो दंसणसावयो भणिओ ।" [ वसु. श्रा. ५७ ]
६८७
यथाख्यातचारित्रमित्याख्यायते ||४७५ ||
पञ्चत्रिचतुरणुगुणशिक्षा व्रतैः संयुक्तसम्यग्दृष्टयः कर्मनिर्जरावन्तः ते देशविरताः इति परमागमे उच्यन्ते ॥४७६ ॥
अत्र नामैकदेशो नाम्नि वर्तते इति नियमाद् गाथार्थो व्याख्यायते । दर्शनिको, व्रतिकः, सामायिकः, प्रोषधोपवासः, सचित्तविरतः, रात्रिभक्तविरतः, ब्रह्मचारी, आरम्भविरतः परिग्रहविरतः अनुमतिविरतः, उद्दिष्टविरतश्चेत्येकादशैते विरतभेदाः । तत्र - " पञ्चु बरस हियाई सत्तई वसणाणि जो विवज्जेई । सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावओ भणिओ ।" ( वसु श्रा. ५७ ) इत्यादिलक्षणानि ग्रन्थान्तरेऽवगन्तव्यानि ॥ ४७७॥
१५
समस्त मोहनीय कर्मके उपशम अथवा क्षयसे आत्मस्वभावकी अवस्थारूप लक्षणवाला २५ यथाख्यात चारित्र कहलाता है || ४७५ ||
२०
पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतोंसे संयुक्त सम्यग्दृष्टि जो कर्मों की निर्जरा करते हैं, उन्हें परमागम में देशविरत कहते हैं || ४७६ ||
यहाँ नामका एकदेश नामका वाचक होता है, इस नियम के अनुसार गाथाका अर्थ कहते हैं.- दर्शनिक, व्रतिक, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्तविरत, रात्रिभक्तविरत, ३० ब्रह्मचारी, आरम्भविरत, परिग्रहविरत, अनुमतिविरत और उद्दिष्ट विरत ये ग्यारह देशविरतके भेद हैं । पाँच उदुम्बरादिकके साथ सात व्यसनोंको जो छोड़ता है, उस विशुद्ध सम्यक्त्वधारीको दर्शनिक श्रावक कहते हैं । इत्यादि इन भेदोंके लक्षण अन्य ग्रन्थोंसे जानना ||४७७ ।।
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गो० जीवकाण्डे इत्यादिलक्षणंगळु देशविरतरुगळ्गे ग्रंथांतरदोरियल्पडुवुवु ।
जीवा चोदसभेया इंदियविसया तहट्ठवीसं तु ।
जे तेसु णेव विरया असंजदा ते मुणेयव्वा ॥४७८॥ जीवाश्चतुर्दशभेदाः इंद्रियविषयास्तथाष्टाविंशतिः तु। ये तेषु नैव विरताः असंयतास्ते ५ मंतव्याः ॥
पदिनाल्कं जीवभेदंगळोळं तु मत्ते इंद्रियविषयंगप्पितेंटुभेदं गोळमाक्लंबरु विरतरलदवर्गळु असंयतरे दरियल्पडुवरु।
पंचरस पंचवण्णा दो गंधा अट्ठफाससत्तसरा ।
मणसहिदट्ठावीसा इंदियविसया मुणेदव्वा ॥४७९।। ___ पंचरसाः पंचवर्णाः द्वौ गंधौ अष्टस्पर्शाः सप्तस्वराः। मनः सहिताष्टविंशतिरिद्रियविषया मंतव्याः ॥
___ तिक्तकटुकषायाम्लमधुरमेंब पंचरसंगळु श्वेतपीतहरितारुणकृष्णमेब पंचवणंगळुसुगंधदुग्गंधर्म बरडु गंधमु मृदुकर्कशगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षमब अष्टस्पर्शगळु षड्जऋषभगांधार
मध्यम-पंचमधैवतनिषादमेब सरिगमपद निगळप्पसप्तस्वरंगळु कूडिवितिद्रियविषयंगळिप्पत्ते १५ मनोविषयमोदितु इंद्रियनोइंद्रियविषयंगळष्टाविंशतिप्रमितंळेतु मंतव्यंगळक्कु ।
अनंतरं संयममार्गणयोळु जीवसंख्ययं पेळ्दपं:
पमदादिचउण्हजदी सामाइयदुगं कमेण सेसतियं ।
सत्तसहस्सा णवसय णवलक्खा तीहि परिहीणा ॥४८०॥
प्रमत्तादिचतुर्णां युतिः सामायिकद्विकं क्रमेण शेषत्रयं । सप्तसहस्र नवशतं नवलक्षं त्रिभिः २० परिहोनानि॥
चतुर्दशजीवभेदाः, तु-पुनः इन्द्रियविषयाः अष्टाविंशतिः तेषु ये नैव विरतास्ते असंयता इति मन्तव्याः ।।४७८॥
रसाः-तिक्तकटुककषायाम्लमधुराः पञ्च । वर्णाः-श्वेतपीतहरितारुणकृष्णाः पञ्च । गन्धौ सुगन्धदुर्गन्धौ द्वौ । स्पर्शाः मदुकर्कशगुरुलघु-शीतोष्णस्निग्धरूक्षाः अष्टौ। स्वराः-षड्ज-ऋषभ-गान्धार-मध्यम-पञ्चम-धैवत२५ निषादा सरिगमपधनिरूपाः सप्त एते इन्द्रियविषयाः सप्तविंशतिः । मनोविषय एकः, एवमष्टाविंशतिर्म
न्तव्यः ॥४७९।। अथ संयममार्गणायां जीवसंख्यामाह
चौदह प्रकारके जीव और अट्ठाईस इन्द्रियोंके विषय, इनमें जो विरत नहीं हैं,वे असंयमी जानना ॥४७८॥
तीता, कटुक, कसैला, खट्टा, मीठा ये पाँच रस हैं। श्वेत, पीला, हरा, लाल, काला ये ३० पाँच वर्ण हैं । सुगन्ध, दुर्गन्ध ये दो गन्ध हैं। कोमल, कठोर, भारी, हल्का, शीत, उष्ण,
चिकना, रूखा ये आठ स्पर्श हैं । षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद ये पा रे ग म प ध नि रूप सात स्वर हैं । ये सत्ताईस इन्द्रियविषय हैं और एक मनका विषय है । इस प्रकार अट्ठाईस विषय जानना ।।४७९।।
अब संयम मागंणामें जीवोंकी संख्या कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
६८९ प्रमत्तादिचतुर्णायुतिः सामायिकद्विकं प्रमत्तर संख्ये ५९३९८२०६ । अप्रमत्तरसंख्ये २९६९९१०३ । उपशमकापूर्वकरणरु । २९९ । उपशमकानिवृत्तिकरणरु २९९ । क्षपकापूर्वकरणरु ५९८ । क्षपकानिवृत्तिकरणरु ५९८ । इंतु प्रमतादिचतुरर्गुणस्थानवत्तिगळ युति प्रत्येकसामायिक. संयमिगळसंख्येयु च्छेदोपस्थापनसंयमिगळ संख्ययक्कुमेक दोडे सामायिकसंयमिगळेनिबरनिबरे च्छेदोपस्थापनसंयमिगळप्पुरिदं। ८२०९९१०३। ८९०२९१०३ । क्रमदिंद शेषत्रयं परिहार- ५ विशुद्धिसंयमिगळ संख्येयु सूक्ष्मसापरायसंयमिगळ संख्ययु यथाख्यातसंयमिगळ संख्ययुत्रिरूपोनसप्तसहस्रमु ६९९७ । त्रिरूपोननवशतमु ८९७ । त्रिरूपोननवलक्षमुमक्कुं । ८९९९९७ ।
पल्लासंखेज्जदिमं विरदाविरदाण दव्वपरिमाणं।
पुव्वुत्तरासिहीणो संसारी अविरदाण पमाणं ॥४८१॥ पल्यासंख्येयभागो विरताविरतानां द्रव्यप्रमाणं । पूयोक्तराशिहीनः संसारी अविरतानां १०
प्रमा॥
___पल्यासंख्यातेकभागं देशसंयतजीवद्रव्यप्रमाणमक्कु ५
मी पूर्वोक्तषट्राशिविहीन
aa४०
प्रमत्ताः ५, ९३, ९८, २०६ अप्रमत्ताः २, ९६, ९९, १०३, उपशमकाऽपूर्वकरणाः २९९, उपशमकानिवृत्तिकरणाः २९९, क्षपकापूर्वकरणाः ५९८, क्षपकानिवृत्तिकरणाः ५९८, एषां चतुर्णा युतिः प्रत्येकं सामायिकछेदोपस्थापनसंयमिसंख्या भवति उभयत्र समसंख्यात्वात् ८,९०,९९,१०३ । ८,९०, ९९, १०३ । परिहारविशुद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातसंयमिसंख्या क्रमेण त्रिरूपोनसप्तसहस्रं ६९९७ त्रिरूपोननवशतं ८९७, त्रिरूपोननवलक्षं ८९९९९७ भवति ॥४८०॥ पल्यासंख्यातकभागो देशसंयतजीवद्रव्यप्रमाणं भवति प एतत्पूर्वोक्तषडाशिविहीनसंसारिराशिरेव
aa४०
प्रमत्तादि चार गुणस्थानवर्ती जीवोंका जितना जोड़ है, उतने ही सामायिक और छेदोपस्थापना संयमी होते हैं। सो प्रमत्तसंयत पाँच करोड़ तिरानबे लाख, अदानवे हजार दो १० सौ छह ५९३ ९८ २०६, अप्रमत्तसंयत दो करोड़ छियानबे लाख, निन्यानबे हजार एक सौ तीन २९६९९१०३, उपशम श्रेणीवाले अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती दो सौ निन्यानबे २९९, उपशम श्रेणिवाले अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती दो सौ निन्यानबे २९९, उपशम श्रेणिवाले अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती दो सौ निन्यानबे २९९, क्षपक श्रेणिवाले अपूर्वकरण पाँचसौ अठानबे, क्षपकश्रेणिवाले अनिवृत्तिकरण पाँचसौ अट्टानवे ५९८ इन सबका जोड़ आठ करोड़, नब्बे लाख, निन्यानबे हजार एक सौ तीन ८९०९९१०३ इतने जीव सामायिक संयमी और इतने ही छेदोपस्थापना संयमी होते हैं। दोनोंकी संख्या समान होती है। परिहार विशुद्धि संयतोंकी
कम सात हजार ६९९७ है। सूक्ष्मसाम्पराय संयमियोंकी संख्या तीन कम नौ सौ ८९७ है । यथाख्यात संयतोंकी संख्या तीन कम नौ लाख ८९९९९७ है ॥४८०॥
पल्यके असंख्यातवे भाग देश संयमी जीवोंका प्रमाण है। इन छहों राशियोंको
२५
संख्या
३०
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६९०
गो०जीवकाण्डे संसारिराशिअविरतप्रमाणमक्कु :सामायिक | छेदोपस्थापन , परिहार | सूक्ष्म | यथाख्यात | देशसंय - | संय= ८९०९९१०३/८२०९९१०३ ६९९७
| ८९९९९७ प १३ -
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२७
इंतु भगवदहत्परमेश्वरचारुचरणारविदद्वंद्ववंदनानंदित पुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरु मंडलाचार्य्यमहावादवादोश्वररायवादिपितामह सकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीमदभयसूरिसिद्धांत
चक्रवत्तिश्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्टं श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटवृत्तिजीव५ तत्वप्रदीपिकयोळु जीवकांडविंशतिप्ररूपणंगळोळ त्रयोदशं संयममार्गणाधिकारं निगदितमायतु ॥
अविरत्तानां प्रमाणं भवति । १३-॥४८१॥
इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रविरचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ तत्त्वप्रदीपिकाख्यायां
जीवकाण्डे विंशतिप्ररूपणासु संयममार्गणाप्ररूपणा नाम त्रयोदशोऽधिकारः ॥१३॥
संसारी जीवोंकी राशिमें भाग देनेपर जो शेष रहे, उतना ही असंयमियोंका प्रमाण १. होता है ॥४८॥
इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहको भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिकाकी. अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमल रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डकी बीस प्ररूपणाओंमें-से संयममार्गणा प्ररूपणा
नामक तेरहवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥१३॥
१. म प्रतौ संदृष्टिर्नास्ति ।
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दर्शन - मार्गणा ||१४||
संयममाग्गंणानंतरं दर्शनमागणेयं पेदपं :
जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टुमायारं । अविसेसिण अट्ठे दंसणमिदि भरणये समये || ४८२॥
यत्सामान्यग्रहणं भावानां नैव कृत्वाऽऽकारमविशेष्यार्थान्दर्शनमिति भण्यते समये ॥ भावानां सामान्यविशेषात्मक बाह्यपदात्थंगळ आकारं नैव कृत्वा भेदग्रहणमं माडदे यत्सामान्यग्रहणं आवुदों दु स्वरूपमात्रमं कैकोवुदु दर्शनमें दितु परमागमदोळु पेळपट्टुडु ।
वस्तुस्वरूपमात्रग्रहण में ते बोर्ड अर्थाविशेष्य बाह्यात्यंगळं जातिक्रियागुणप्रकारंगळदं विकल्पिसदे स्वपर सत्तावभासनं दर्शनमें दितु पेळल्पटुर्दे बुदथं । मत्तमीयर्थमने विशवं माडिदपंभावाणं सामण्णविसेसयाणं सरूवमेत्तं जं ।
arunीणगहण जीवेण य दंसणं होदि ॥ ४८३ ॥
भावानां सामान्यविशेषात्मकानां स्वरूपमात्रं यद्वर्णनहीनग्रहणं जीवेन च दर्शनं भवति ॥ सामान्यविशेषात्मकंगळप्प पदात्थंगळ आवुदोंदु स्वरूपमात्रं विकल्परहितमागि जीवनदं स्वपरसत्तावभासनमदु दर्शनमें बुदक्कुं । पश्यति दृश्यतेऽनेन दर्शनमात्रं वा वर्शनर्म दितु कर्तृकरण
अनन्तानन्दसंसारसागरोत्तारसेतुकम् ।
अनन्तं तीर्थकर्तारं वन्देऽनन्तमुदे सदा ||१४||
संयममार्गणाको कहकर दर्शन मार्गणाको कहते हैं
भाव अर्थात् सामान्य विशेषात्मक पदार्थोंके आकार अर्थात् भेदग्रहण न करके जो सामान्य ग्रहण अर्थात् स्वरूपमात्रका अवभासन है, उसे परमागम में दर्शन कहते हैं । वस्तुस्वरूपमात्रका ग्रहण कैसे करता है ? अर्थात् पदार्थोंके जाति, क्रिया, गुण आदि विकारोंका विकल्प न करते हुए अपना और अन्यका केवल सत्तामात्रका अवमासन दर्शन है ||४८२ ॥
इसी अर्थको स्पष्ट करते हैं
सामान्य विशेषात्मक पदार्थोंका विकल्परहित स्वरूपमात्र जैसा है, वैसा जीवके साथ स्वपर सत्ताका अवभासन दर्शन है । जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाता है या देखना
अथ संयममार्गणां व्याख्याय दर्शनमार्गणां व्याख्याति
भावानां सामान्यविशेषात्मकबाह्यपदार्थानां आकारं भेदग्रहणं, अकृत्वा यत्सामान्यग्रहणं - स्वरूपमात्रावभासनं तद्दर्शनमिति परमागमे भण्यते । वस्तुस्वरूपमात्रग्रहणं कथम् ? अर्थात् बाह्यपदार्थान् अविशेष्यजातिक्रियाग्रहणविकारैरविकल्प्य स्वपरसत्तावभासनं दर्शनमित्यर्थः ॥ ४८२॥ अमुमेवार्थं विशदयति
भावानां सामान्यविशेषात्मकपदार्थानां यत्स्वरूपमात्रं विकल्परहितं यथा भवति तथा जीवन स्वपर- २०
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६९२
गो० जीवकाण्डे भावसाधनं दर्शनमरियल्पडुवुदु । अनंतरं चक्षुर्दर्शन अचक्षुदर्शनंगळ स्वरूपम पेन्दपं:
चक्खूण जं पयासइ दिस्सइ तं चक्खुदंसणं वेंति ।
सेसिंदियप्पयासो णायवो सो अचक्खु त्ति ॥४८४।। चक्षुषा यत्प्रकाशते दृश्यते तच्चक्षुर्दर्शनं बुवंति । यः शेषेद्रियप्रकाशो ज्ञातव्यः सोऽचक्षुदर्शनमिति ॥
नयनंगळावुदोंदु प्रतिभासिसुतमिईपुदु काणल्पडुत्तिद्दपुदु तद्विषयप्रकाशनमे चक्षुर्दर्शनमें दितु गणधरदेवादिदिव्यज्ञानिगळु पेळ्वरु । शेषंद्रियंगळावुदोंदु तोरुत्तिईपुददु अचक्षुदर्शनमें दितु ज्ञातव्यमक्कुं।
परमाणु आदियाई अंतिमखधंति मुत्तिदव्वाई।
तं ओहिदसणं पुण जं पस्सइ ताइ पच्चक्खं ॥४८५।। परमाण्वादिकान्यंतिमस्कंधपथ्यंतानि मूर्तद्रव्याणि । तदवधिदर्शनं पुनर्यत्पश्यति तानि प्रत्यक्षं ॥
परमाणुवादियागि महास्कंधपयंतमप्प मूर्त्तद्रव्यंगळवनितनितुमनावुदोंदु दर्शनं मत १५ प्रत्यक्षमागि काण्गुमदवधिदर्शनमें बुदक्कुं।
बहुविहबहुप्पयारा उज्जोवा परिमियम्मि खेत्तम्मि ।
लोगालोगबितिमिरो जो केवलदसणुज्जोओ ॥४८६।। बहुविधबहुप्रकारा उद्योताः परिमिते क्षेत्रे । लोकालोकवितिमिरो यः केवलदर्शनोद्योतः॥ सत्तावभासनं तद्दर्शनं भवति । पश्यति दृश्यते अनेन दर्शनमात्रं वा दर्शनम् ॥४८३॥ अथ चक्षुरचक्षुर्दर्शने २० लक्षयति
चक्षुषोः-नयनयोः संबन्धि यत्सामान्यग्रहणं प्रकाशते पश्यति तद्वा दृश्यते जीवेनानेन कृत्वा तद्वा तद्विषयप्रकाशनमेव तद्वा चक्षुर्दर्शनमिति गणधरदेवादयो ब्रुवन्ति । यश्च शेषेन्द्रियप्रकाशः स अचक्षुर्दर्शनमिति ।।४८४॥
परमाणोरारभ्य महास्कन्धपर्यन्तं मूर्तद्रव्याणि पुनः यद्दर्शनं प्रत्यक्षं पश्यति तदवधिदर्शनं भवति ॥४८५।। २५ मात्र दर्शन है ॥४८३॥
अब चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनके लक्षण कहते हैं
दोनों नेत्र सम्बन्धी सामान्य ग्रहणको जो देखता है अथवा इस जीवके द्वारा देखा जाता है अथवा सामान्य मात्रका प्रकाशन दर्शन है, यह गणधरदेव आदि कहते हैं। शेष इन्द्रियोंका जो प्रकाश है, वह अचक्षु दर्शन है ॥४८४॥
परमाणुसे लेकर महास्कन्ध पर्यन्त सब मूर्तिक द्रव्योंको जो प्रत्यक्ष देखता है , वह अवधिदर्शन है ।।४८५।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका बहुबिधंगळु बहुप्रकारंगळुमप्पबेळगुगलु चंद्रसूर्यरत्नादिप्रकाशंगळु लोकदोळ्परिमितक्षेत्र दोळेयप्पुवाव बेळगुळिदं पवणिसल्पडद लोकालोकंगळोळावुदोंदु विगततिमिरमप्पुददु केवलदर्शनोद्योतमक्कुं। अनंतरं दर्शनमार्गयोळु जीवसंख्येयं गाथाद्वर्याददं पेळ्दपं :
जोगे चउरक्खाणं पच्चक्खाणं च खीणचरिमाणं ।
चक्खूणमोहिकेवलपरिमाणं ताण णाणं व ॥४८७॥ योगे चतुरक्षाणां पंचाक्षाणां च क्षीणकषायचरमाणां । चक्षुषामवधिकेवलपरिमाणं तयोर्ज्ञानवत् ।
मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि क्षीणकषायावसानमाद गुणस्थानत्तिगळु शक्तिचक्षुईनिगळे, व्यक्तिचक्षुद्देशनिगळे दूं। चक्षुद्देर्शनिगळुसंख्ययोळु. द्विप्रकारमप्परल्लि लब्ध्य- १० पर्याप्तकचतुरिद्रियजीवंगठ संखयोछु पंचेंद्रियलब्ध्यपप्तिजीवंगळ संख्येगे संयोगमागुत्तिरळु शक्तिगतचक्षुर्दशनिगळ संख्येयक्कुं। पर्याप्तकचतुरिद्रियजीवंगळमंपर्याप्तकपंचेंद्रियजीवंगळ संख्येयुमं संयोगमं माडुतिरळु व्यक्तिगतचक्षुर्दशनिगळ संख्ययक्कुं। तच्छक्तिव्यक्तिगतचक्षुर्शनिगळ संख्येयंतप्पल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुवुददेते दोडे द्विचतुःपंचेंद्रियजीवंगळगेल्लमीयावल्यसंख्यातभक्तप्रतरांगुलभाजितजगत्प्रतरमात्रं फलराशियागुत्तिरलु चतुःपंचेन्द्रियद्वयक नितु जीवंगळक्कुमदु १५
बहुविधाः-तीव्रमन्दमध्यमादिभावेन अनेकविधाः बहुप्रकाराश्चोद्योताः चन्द्रसूर्यरत्नादिप्रकाराः लोकेपरिमितक्षेत्रे एव भवन्ति तैः प्रकाशैरनुपमेयः लोकालोकयोविगततिमिरो यः स केवलदर्शनोद्योतो भवति ।।४८६॥ अथ दर्शनमार्गणायां जीवसंख्यां गाथाद्वयेनाह
मिथ्यादृष्टयादयः क्षीणकषायान्ताः शक्तिगतचक्षुर्दनिनः व्यक्तिगतचक्षुर्दशनिनश्च । तत्र लब्ध्यपर्याप्तचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाः शक्तिगतचक्षुर्दर्शनिनः, पर्याप्तकचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाः व्यक्तिगतचक्षुर्दर्शनिनः । तद्यथा- २० द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियप्रमाणं सर्वं यद्यावल्यसंख्यातभक्तप्रतराङ्गुलभाजितजगत्प्रतरं तदा चतुःपञ्चेन्द्रियप्रमाणं
तीव्र, मन्द, मध्यम आदिके भेदसे अनेक प्रकारके चन्द्र, सूर्य, रत्न आदि सम्बन्धी उद्योत परिमित क्षेत्रको ही प्रकाशित करनेवाले हैं। उन प्रकाशोंकी उपमा जिसे नहीं दी जा सकती ऐसा जो लोक-अलोक दोनोंको प्रकाशित करता है, वह केवल दर्शनरूप उद्योत २५ है ।।४८६।।
अब दर्शन मार्गणामें जीवोंकी संख्या दो गाथाओंसे कहते हैं
मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त जीव दो प्रकारके हैं, शक्तिरूप चक्षुदर्शनवाले और व्यक्तिरूप चक्षुदर्शनवाले। उनमें-से लब्ध्यपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तो शक्तिरूप चक्षुदर्शनवाले हैं और पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय व्यक्तिरूप चक्षुदर्शन वाले ३० हैं। यदि दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित प्रतरांगुल और उससे भाजित जगत्प्रतर प्रमाण है। तो चतुरिन्द्रिय
१. भेदेनानेकप्रकारा उद्योताः प्रकाशविशेषा लोके परिमितक्षेत्र एव प्रकाशते । यो लोकालोकयोः सर्वसामान्याकारे वितिमिरः क्रमकरणव्यवधानराहित्येन सदावभासमानः स केवलदंशनाख्य उद्योतो भवति इतोऽग्रेऽयमपि पाठो दृश्यते बपुस्तके।
३५
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गो. जीवकाण्डे त्रैराशिकं माडि प्र ४।५ - इ। २ बंदलब्ददोळ पर्यातकरं किंचिदूनं माडिदोडदु शक्तिगतचक्षु
२ । ईर्शनिगळ संख्ययक्कु = । २- मिते व्यक्तिगतचक्षुर्दर्शनिगल्गं त्रैराशिकमं माळ्पागलोंदु
विशेषमुंटदावुददोडे फलराशित्रसपर्याप्तराशियक्कु प्र -४ ५= इ।२। मी बंद लब्धं व्यक्ति
गतचक्षुद्देर्शनिगळ संख्येयक्कु = ।२ अवधिदर्शनिगळ संख्येयवधिज्ञानिगळ प्रमाणमेनितनित
५ यक्कुं १३ केवलदर्शनिगळसंख्ये केवलज्ञानिगळसंख्येयनितनितेयक्कुं ।
ea
कियत ? इति त्रैराशिके कृते प्र४ । फ। इ २ लब्धं पर्याप्तकसंख्यया किंचिदूनं शक्तिगतचक्षुर्दर्शनिसंख्या
भवति = [ २ = द्वितीयत्रराशिके फलराशिःत्रसपर्याप्तकराशिःप्र४ाफ-1इ २ लब्धं व्यक्तिगतचक्षदर्शनिसंख्या
४। ४
भवति = २-अवधिदर्शनराशिरवधिज्ञानराशिवत प -१ केवलदर्शनिसंख्या केवलज्ञानिसंख्यावत
aa
॥४८७।।
mr
पंचेन्द्रियका कितना परिमाण है, ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाण राशि चार, फलराशि १० त्रसजीवोंका प्रमाण, इच्छाराशि दो। सो इच्छाराशिको फलराशिसे गुणा करके प्रमाणराशि
से भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उतने चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवराशि है। उसमें से पर्याप्त जीवोंके प्रमाणको घटानेपर जो प्रमाण आवे, उसमें-से कुछ घटानेपर, क्योंकि दोइन्द्रिय आदि क्रमसे घटते हुए शक्तिगत चक्षुदर्शनवालोंका प्रमाण जानना। इसी तरह सपर्याप्त जीवोंके
णको चारस भाग देकर दास गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे, उसमें से कुछ १५ कम करनेपर व्यक्तिरूप चक्षुदर्शनवालोंका प्रमाण होता है। अवधिदर्शनी जीवोंका प्रमाण
अवधिज्ञानियोंके प्रमाणके समान जानना । और केवल दर्शनी जीवोंका प्रमाण केवलज्ञानी जीवोंके परिमाणके समान जानना ॥४८॥
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=
कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
इंदिय पहुडणं खीणकसायंतणंतरासीणं । जोगो अचक्खुदंसणजीवाणं होदि परिमाणं ||४८८||
एकेंद्रिप्रभृतीनां क्षीणकषायांताऽनंताराशीनां योगो चक्षुद्दर्शनजीवानां भवति परिमाणं । एकेंद्रियप्रभृति क्षीणकषायांताऽनंतानंतजी बंगलयोगं अचक्षुर्द्दर्शनजीवंगळ प्रमाण मक्कुं ॥ १३ ॥ शक्तिचक्षु | व्यक्तिचक्षु | अचक्षु अवधिदर्शन | केवलदर्शन
४ २– ४
२ ४
५
a
प
a
a
a
७
३
इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविंदद्वंद्व वंदनानंदित पुण्य पुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरु मंडलामहावादवादीश्वररायवादिपितामह सकल विद्वज्जनचक्रवत्तिश्रीमदभयसूरि सिद्धांतचक्रवत्ति श्रीपाद पंकजरजोरंजित ललाटपट्टं श्रीमत्केशवण्णविरचित गोम्मटसारकर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिपिकेयो जीवकांsविंशतिप्ररूपणंगळोळ चतुर्द्दशं दर्शनमार्गणाधिकारं निगदितमास्तु ।
६९५
एकेन्द्रियप्रभृतिक्षीणकषायान्तानन्तानन्तजीवानां योगः अचक्षुर्दर्शनजीवप्रमाणं भवति १३ ।।४८८ ।।
एकेन्द्रिय से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त अनन्त जीवोंका जो योग है, उतना १० अचक्षुदर्शनी जीवोंका प्रमाण है ||४८८||
इस प्रकार सिद्धान्त चक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र रचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी केशववर्णी रचित कर्नाटक वृत्ति अनुसारिणी हिन्दी टीका में जीवकाण्डके अन्तर्गत दर्शन मार्गणा प्ररूपणा नामक चौदहवाँ अधिकार समाप्त हुआ ॥ १४ ॥
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लेश्या-मार्गणा ॥१५॥
दर्शनमार्गणानंतरं लेश्यामाग्र्गणयं पेललुपक्रमिसि निरक्तिपूर्वकं लेश्यगे लक्षणमं पेन्दपं
लिंपइ अप्पीकीरई एदीए णियअप्पुण्णपुण्णं च ।
जीवोत्ति होदि लेस्सा लेस्सागुणजाणयक्खादा ॥४८९।। लिपत्यात्मीकरोत्येतया निजाऽपुण्यं पुण्यं च जोव इति भवति लेश्या लेश्यागुणजायकाख्याता।
द्रव्यलेश्येय भावलेश्ययेदुं लेश्य द्विप्रकारमप्पुदल्लि। भावलेण्यापेक्षयिदं लिपत्यात्मीकरोति निजापुण्यं पुण्यं च जीव एतयेति लेश्या। लेश्यागुणज्ञायकाऽख्याता भवति । जीवं निजपापमुमं
पुण्यमुमं लिपति तन्नं पोरेगुं आत्मीकरोति तन्नवागि माळ्पनिदरिंदर्मेदितु लेश्या लेश्येदु लेश्या१० गुणमनरिव श्रुतज्ञानिगळप्प गणधरदेवादिळिदं पेळल्पटुदक्कुं। अनया कर्मभिरात्मानं लिंपतीति
लेश्या । कषायोदयानुरंजिता योगप्रवृत्तिर्वा लेश्या। कषायाणामुदयेनानुरंजिता कमप्यतिशयांतरमुपनीता भवतीत्यर्थः । ई यर्थमने विशदमागि माडिदपरु ।
यः सद्धर्मसुधावर्षे भव्यसस्यानि प्रीणयन् ।
नीतवान् स्वेष्टसिद्धि तं धर्मनाथधनं भजे ॥१५॥ अथ लेश्यामार्गणां वक्तुमना निरुक्तिपूर्वकं लेश्यालक्षणमाह
लेश्या द्रव्यभावभेदाद् द्वेधा । तत्र भावलेश्यां लक्षयितुं इदं सूत्रम् । लिम्पति-आत्मीकरोति निजमपुण्यं पण्यं च जीव एतयेति लेश्या लेश्यागुणज्ञायकगणधरदेवादिभिराख्याता । अनया कर्मभिरात्मानं लिम्पतीति लेश्या। कषायोदयानुरञ्जिता योगप्रवृत्तिर्वा लेश्या कषायाणामुदयेन अनुरञ्जिता कमप्यतिशयान्तरमुपनीता योगप्रवृत्तिा लेश्या ।।४८९:। अमुमैवार्थ स्पष्टयति
२०
लेश्या मार्गणाको कहनेकी भावनासे निरुक्तिपूर्वक लेश्याका लक्षण कहते हैं
लेश्या द्रव्य और भावके भेदसे दो प्रकारकी है। उनमें से भावलेश्याका लक्षण कहनेके लिए यह सत्र है। 'लिम्पति' अर्थात् इसके द्वारा जीव अपने पुण्य-पापको अपनाता है, लेश्याका यह लक्षण लेश्याके गुणोंके ज्ञाता गणधर देव आदिने कहा है। जिसके द्वारा जीव
आत्माको कर्मोंसे लिप्त करती है वह लेश्या है। कषायके उदयसे अनुरंजित मन वचन २५ कायकी प्रवृत्ति लेश्या है। अथवा कषायोंके उदयसे अनुरंजित अर्थात् किसी भी अतिशयान्तरको प्राप्त योग-प्रवृत्ति लेश्या है ।।४८९॥
इसीको स्पष्ट करते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका जोगपउत्ती लेस्सा कसायउदयाणुरंजिया होइ ।
तत्तो दोण्णं कज्जं बंधचउक्कं समुद्दिटुं ।।४९०॥ योगप्रवृत्तिलेश्या कषायोदयानुरंजिता भवति । ततो द्वयोः कार्य बंधचतुष्कं समुद्दिष्टं ॥
कायवाङ्मनःप्रवृत्तियं लेश्य ये बुददुवं कषायोदयानुरंजितमक्कु। ततः अदु कारणदत्तणिदं द्वयोः काय्यं योगकषायंगळ कार्य्यमप्प बंधचतुष्कं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरूपबंधचतुष्टयं लेश्यय ५ कार्य्यमक्कुमेंदु समुद्दिष्टं परमागमदोळपेळल्पदुदु । योगदिदं प्रकृतिप्रदेशबंधमक्कु। कषादिद स्थित्यनुभागबंधमक्कुमप्पुरिदं कषायोदयानुरंजितयोगप्रवृत्तिये लेश्येयप्पुरिदमा लेश्यायदं चतुम्विधबंधं युक्तियुक्तमेयक्कुमें दुदु तात्पर्य । लेश्यामारगणेगधिकारनिर्देशमं माडिदपं गाथाद्वदिदं :
णिद्देसवण्णपरिणामसंकमो कम्मलखणगदी य । सामी साहणसंखा खेत्तं फासं तदो कालो ।।४९१।। अंतरभावप्पबहू अहियारा सोलसा हवंतित्ति ।
लेस्साण साहणटुं जहाकम तेहि वोच्छामि ॥४९२।। निर्देशवर्णपरिणामसंक्रमकर्मलक्षणगतयश्च । स्वामी साधनसंख्याक्षेत्रं स्पर्श ततः कालः॥ अंतरभावाल्पबहवोऽधिकाराः षोडश भवंतीति । लेश्यानां साधनात्थं यथाक्रमं तैर्वक्ष्यामि ॥ १५
निर्देशमं वर्णमं परिणाममं, संक्रमम, कर्मम लक्षणमं गतियु स्वामियु साधन, संख्येयु क्षेत्रमं स्पर्शमं बळिक्क कालम अंतरमं भावमं अल्पबहुत्वमुदितु अधिकारंगळ्पदि
कायवाङ्मनःप्रवृत्ति: लेश्या, सा च कषायोदयानुरञ्जितास्ति ततः कारणात् द्वयोः--योगकषाययोः कार्य बन्धचतुष्कं प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशरूपं तद् लेश्याया एव स्यादिति परमागमे समुद्दिष्टम् । योगात् प्रकृतिप्रदेशबन्धौ कषायस्योदयाच्च स्थित्यनुभागबन्धौ स्याताम् । तेन कषायोदयानुरञ्जितयोगप्रवृत्तिलक्षणया लेश्यया २० चतुर्विधबन्धो युक्तियुक्त एवेत्यर्थः ॥४९०॥ अथ गाथाद्वयन अधिकारानिर्दिशति
निर्देशः वर्णः परिणामः संक्रमः कर्मलक्षणं गतिः स्वामी साधनं संख्या क्षेत्र स्पर्शः ततः काल:
काय, वचन और मनकी प्रवृत्ति लेश्या है। वह मन, वचन, कायकी प्रवृत्ति कषायके उदयसे अनुरंजित है। इस कारणसे दोनों योग और कषायोंका कार्य प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशरूप चार बन्ध लेश्याके ही कार्य परमागममें कहे हैं। योगसे प्रकृतिबन्ध, २५ प्रदेशबन्ध और कषायके उदयसे स्थितिबन्ध,अनुभागबन्ध होते हैं। इसलिए कषायके उदयसे अनुरंजित योगप्रवृत्ति जिसका लक्षण है, उस लेश्यासे चार प्रकारका बन्ध कहना युक्तियुक्त ही है ॥४९०॥
दो गाथाओं से अधिकारोंको कहते हैंनिर्देश, वर्ण, परिणाम, संक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, संख्या, क्षेत्र, स्पर्श, ३०
१. म ततः आलेश्येथिदं । २. म चतुष्टयमक्कुमेंदु ।
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गो० जीवकाण्डे नारप्पुवेक दोड लेश्यानां साधनात्थं लेश्यगळ भेदप्रभेदंगळं साधिससल्वेडि अदुकारणमागि तैरधिकारैः आपदिनारुमधिकारंगळ्दिं यथाक्रमं क्रममनतिक्रमिसदे लेश्ययं वक्ष्यामि पेन्वें ।
किण्हा णीला काऊ तेऊ पम्मा य सुक्कलेस्सा य ।
लेस्साणं णिद्देसा छच्चेव हवंति णियमेण ।।४९३।। कृष्णा नीला कापोती तेजः पद्मा च शुक्ललेश्या च। लेश्यानां निर्देशाः षट् चैव भवंति नियमेन ॥
___ कृष्णलेश्ययेंदु नीललेश्येय , कपोतलेश्यय , तेजोलेश्येये, पालेश्येये, शुकळलेश्यये दुमितु लेश्यगळ निर्देशंगळारेयप्पुवु। नियदिदं। इल्लि षट्चैव एंदितु नैगमनयाभिप्रायदिदं
पेळल्पद्रुदु । पर्यायवृत्तियिदं मत्तमसंख्येयलोकमात्रंगळु लेश्येगळ्प्पुर्वेदितु नियमशब्ददिदं सूचि१. सल्पटुदु । निर्देशं निगदितमास्तु॥
वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा ।
सा सोढा किण्हादी अणेयभेया सभेयेण ॥४९४॥ वर्णोदयेन जनितः शरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या । सा षोढा कृष्णादयोऽनेकभेदाः स्वभेदेन ॥
वर्णनामकर्मोदयदिदं जनितः पुट्टल्पट्ट शरीरवर्णस्तु शरीरदबण्णं द्रव्यतो लेश्या द्राददं १५ लेश्ययक्कुमा द्रव्यलेश्ययं षोढा षट्प्रकारमक्कुमा षट्प्रकारंगळं कृष्णादयः कृष्णादिगळक्कुं।
अनेकभेदाः स्वभेदेन स्वस्वभेदाः स्वभेदाः तैः स्वभेदैरनेकभेदाः स्युः तंतम्म भेददिवमनेकभेदंगळप्पुव दोडे ॥
AAAAAAORom
अन्तरं भावः अल्पबहत्वं चेति षोडशाधिकाराः लेश्याभेदप्रभेदसाधनार्थं भवन्तीति तैर्यथाक्रमं लेश्यां वक्ष्यामि ॥४९१-४९२॥
कृष्णलेश्या नीललेश्या कपोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या चेति लेश्यानिर्देशाः-लेश्यानामानि षडेव भवन्ति नियमेन । अत्र एवकारेणैव नियमस्य अवगमात पुनरनर्थकं नियमशब्दोपादानं नैगमनयेन लेश्या षोढा पर्यायाथिकनयेन असंख्यातलोकधेत्याचार्यस्य अभिप्रायं ज्ञापयति ॥४९३॥ इति निर्देशाधिकारः ।
वर्णनामकर्मोदयजनितशरीरवर्णस्तु द्रव्यलेश्या भवति । सा च षोढा-षटप्रकाराः । ते च प्रकाराः कृष्णादयः स्वस्वभेदैरनेकभेदाः स्युः ॥४९४॥ तथाहि
काल, अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व ये सोलह अधिकार लेश्याके भेद-प्रभेदोंके साधनके लिए ५ हैं । उनके द्वारा क्रमानुसार लेश्याको कहूँगा ।।४९१-९२॥
कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या ये छह ही लेश्याओंके नाम नियमित हैं। यहाँ एवकार (ही) से ही नियमका ज्ञान हो जानेसे पुनः नियम शब्दका ग्रहण निरर्थक ही है। अतः वह नैगम नयसे लेश्या छह हैं और पर्यायार्थिक
नयसे असंख्यातलोक हैं, इस आचार्यके अभिप्रायको सूचित करता है ।।४९३॥ निर्देशाधिकार ३० समाप्त हुआ।
वर्णनाम कर्मके उदयसे उत्पन्न शरीरका वर्ण तो द्रव्य लेश्या है। उसके भी छह भेद हैं । वे कृष्ण आदि भेद अपने-अपने अवान्तर भेदोंसे अनेक भेद वाले हैं ।।४९४॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका छप्पयणीलकवोदसुहेमंबुजसंखसंणिहा वण्णे ।
संखेज्जासंखेज्जार अणंतवियप्पा य पत्तेयं ॥४९५॥ षट्पदनोलकपोतसुहेमांबुजशंखसन्निभा वर्णे । संख्येयासंख्येया अनंतविकल्पाश्च प्रत्येकं ॥
तुंबिय, नीलरत्नद, कपोतपक्षिय, सुहेमद, अंबुजद, शंखद सन्निभंगळु यथाक्रमदिदमप्पुवु । कृष्णलेश्यादिगळु वर्णदोळु यिद्रियव्यक्तिळिदं प्रत्येकं संख्यातंगळप्पुवु। कृ १ नो १ क १ ते १ ५ ५१ शु१॥ स्कंधभेददिदं प्रत्येकमसंख्यातंगळप्पुवु । कृ a नील क ते ० प ० शु ॥ परमाणुभेददिदं प्रत्येकमनंतानंतगळप्पुवु । कृ ख नी ख क ख ते ख प ख शु ख ॥
णिरया किण्हा कप्पा भावाणुगया हु तिसुरणरतिरिये ।
उत्तरदेहे छक्कं भोगे रविचंदहरिदंगा ।।४९६॥ नारकाः कृष्णाः कल्पना भावानुगता खळु त्रिसुरनरतिय॑क्षु। उत्तरदेहे षट्कं भोगे १० रविचंद्रहरितांगाः॥
नारकरल्लरुं कृष्णरुगळेयप्परु कल्पजरल्लरु भावलेश्यानुगतरप्यर। भवनत्रयदेवक्कळं मनुष्यरुं तिव्यचरुगळं उत्तरदेहंगळ देवर्कळ वैकुर्वण शरीरंगळु अवं षड्वणंगळप्पुवु यथाक्रममुत्तममध्यमजघन्यभोगभूमिजरप्प नरतिप्यंचरुगळ शरीरंगळु रविचंद्रहरिद्वर्णगळप्पुवु॥
कृष्णादिलेश्याः वर्णे षट्पद-नीलरत्न-कपोत-सुहेम-अम्बुज-शङ्खसंनिभा भवन्ति । पुनस्ता इन्द्रिय- १५ व्यक्तिभिः प्रत्येक संख्याताः कृ१ । नी ।
कते ।प१। शु। स्कन्धभेदेनासंख्याताः कृवानी a क ते ।
प श । परमाणभेदेन अनन्तानन्ताश्च भवन्ति । क ख । नी ख । क ख । ते ख । पख । शु ख ॥४९५॥
नारकाः सर्वे कृष्णा एव, कल्पजाः सर्वे स्वस्वभावलेश्यानुगा एव । भवनत्रयदेवाः मनुष्यास्तिर्यञ्चो देवविकुर्वणदेहाश्च सर्वे षड्वर्णाः । उत्तममध्यमजघन्यभोगभूमिजनरतिर्यश्चः क्रमशः रविचन्द्रद्भिद्वर्णा २. एव ॥४९६॥
वर्णके रूपमें कृष्ण आदि लेश्या भौरे, नीलम, कबूतर, स्वर्ण, कमल और शंखके समान होती हैं। अर्थात् भौंरेके समान जिनके शरीरका रंग काला है, उनके द्रव्यलेश्या कृष्ण है। नीलमके समान नील रंग वालोंकी द्रव्यलेश्या नील होती है। कबूतरके समान शरीरके वर्णवालोंकी द्रव्यलेश्या कापोत होती है। स्वर्णके समान पीत वर्ण वालोंकी द्रव्यलेश्या पीत होती है । कमलके समान शरीरके वर्णवालोंकी द्रव्यलेश्या पद्म होती है । और जिनका शरीर- "
२५ का रंग शंखके समान सफेद होता है, उनकी द्रव्यलेश्या शुक्ल होती है । इन्द्रियोंके द्वारा प्रतीत होनेकी अपेक्षा प्रत्येक लेश्याके संख्यात भेद होते हैं। स्कन्धोंके भेदसे असंख्यात भेद हैं और परमाणुओंके भेदसे अनन्त भेद हैं ॥४९५॥
___ सब नारकी कृष्णवर्ण ही होते हैं। सब कल्पवासी देव अपनी-अपनी भावलेश्याके . अनुसार ही द्रव्यलेश्यावाले होते हैं। अर्थात् जैसी उनकी भावलेश्या होती है, उसीके अनुसार उनके शरीरका वर्ण होता है । भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषीदेव, मनुष्य, तिर्यच और देवोंकीविक्रियासे बना शरीर ये सब छहों वर्णवाले होते हैं । उत्तम, मध्यम और जघन्य
१. ब अनन्ताश्च ।
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७००
गो० जीवकाण्डे
बादरआऊतेऊ सुक्कातेऊ य वाउकायाणं ।
गोम्मुत्तमुग्गवण्णा कमसो अव्वत्तवण्णा य ॥४९७॥ बादराप्कायिकतेजस्कायिकाः शुक्लास्तेजसश्च वातकायानां । गोमूत्रमुद्गवर्णी क्रमशोऽव्यक्तवर्णाश्च ॥
बादराप्कायिकतेजस्कायिकंगळु यथाक्रमदिदं शुक्लाः शुक्लवर्णगळु तेजसश्च पीतवर्णगळुमप्पुवु। वातकायंगळ शरीरवणंगळु घनोदधिधनानिलंगळगे गोमूत्रमुद्गवणंगळु यथाक्रर्माददमप्पुवु । तनुवातकायिकंगळ शरीरवर्णमव्यक्तवर्णमक्कं ॥
सव्वेसिं सुहमाणं कावोदा सव्वविग्गहे सुक्का ।
सव्वो मिस्सो देहो कवोदवण्णो हवे णियमा ॥४९८॥ सर्वेषां सूक्ष्माणां कापोताः सर्वविग्रहे शुक्लाः। सो मिश्रो देहः कपोतवर्णो भवेनियमात् ॥
सर्वसूक्ष्मजीवंगळ देहंगळु कपोतवर्णदेहंगळेयप्पुवु सर्वजीवंगळु विग्रहगतियोळ शुक्ल. वणंगळेयप्पुवु । सर्वजीवंगळु शरीरपाप्तिनेरिवन्नेबरं कपोतवण्णरेयप्पर नियमदिदं ॥ वर्णाधिकारं द्वितीयं ॥ अनंतरं लेश्यापरिणामाधिकारमं गाथापंचकविवं पेब्दपंः
लोगाणमसंखेज्जा उदयट्ठाणा कसायगा होति ।
तत्थ किलिट्ठा असुहा सुहा विसद्धा तदालावा ॥४९९॥ लोकानामसंख्येयान्युदयस्थानानि कषायगाणि भवंति । तत्र क्लिष्टान्यशुभानि शुभानि विशुद्धानि तदालापानि।
१०.
बादराप्तेजस्कायिको क्रमेण शुक्लपीतवर्णावेव, वातकायिकेषु घनोदधिवातघनवातशरीराणि क्रमेण २० गोमूत्रमुद्गवर्णानि तनुवातशरीराणि अव्यक्तवर्णानि ॥४९७॥
सर्वसूक्ष्मजीवदेहाः कपोतवर्णा एव । सर्वे जीवा विग्रहगतौ शुक्लवर्णा एव । सर्वे जीवाः स्वस्वपर्याप्तिप्रारम्भप्रथमसमयाच्छरीरपर्याप्तिनिष्पत्तिपर्यन्तं कपोतवर्णा एव नियमेन ॥४९८॥ इति वर्णाधिकारः । अथ परिणामाधिकारं गाथापञ्चकेनाहभोगभूमिके मनुष्य और तिथंच क्रमसे सूर्यके समान, चन्द्रमाके समान तथा हरित वर्णवाले होते हैं ।।४९६॥
बादर तैजस्कायिक और बादर जलकायिक क्रमसे पीतवर्ण और शुक्लवर्ण ही होते हैं। बादरवायुकायिकोंमें घनोदधि वातका शरीर गोमूत्रके समान वर्णवाला है। घनवातका शरीर मूंग के समान वर्णवाला है और तनुवातके शरीरका वर्ण अव्यक्त है ॥४९७॥
सब सूक्ष्मजीवोंका शरीर कपोतके समान वर्णवाला ही होता है। सब जीवोंका विग्रहगतिमें शुक्लवर्ण ही होता है। सब जीव अपनी-अपनी पर्याप्तिके प्रारम्भ होनेके प्रथम " समयसे लेकर शरीरपर्याप्तिकी पूर्णता पर्यन्त कपोतवर्ण ही नियमसे होते हैं ॥४९८॥
वर्णाधिकार समाप्त हुआ । आगे पाँच गाथाओंसे परिणामाधिकार कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कषायगतोदयस्थानंगळु असंख्यातलोकमानंगळप्पुववरोळु संक्लेशस्थानंगळप्प अशुभलेश्यास्थानंगळु तद्योग्यासंख्यातलोकभक्तबहुभागंगळागुत्तलुमसंख्यातलोकमात्रंगळप्पुवु । तदेकभागमानं गळुमकुंडं शुभलेश्याविशुद्धिस्थानंगळुमसंख्यातलोकमात्रंगळप्पुवु । संक्ले। ॐ a। ८ विशु १।
तिब्बतमा तिव्वतरा तिव्या असुहा सुहा तहा मंदा ।
मंदतरा मंदतमा छट्ठाणगया हु पत्तेयं ॥५००॥ तीव्रतमानि तीव्रतराणि तीवाण्यशुभानि शुभानि तथा मंदानि । मंदतराणि मंदतमानि षट्स्थानगतानि खलु प्रत्येकं।
मुन्नं पळद असंख्यातलोकबहुभागमात्रंगळप्प अशुभलेश्या संक्लेशस्थानंगळु कृष्णनीलकपोतभेददिदं त्रिप्रकारं गळप्पुवल्लि कृष्णलेश्यातीव्रतमसंक्लेशस्थानंगळु सामान्याशुभसंक्लेश स्थानंगळ ८ निवं मत्तं तद्योग्यासंख्यातलोकदिदं खंडिसिवल्लि बहुभागमात्रस्थानं- १० गळप्पुवु =a । ८।८। नीललेश्यातीव्रतरसंक्लेशस्थानंगळु तदेकभागबहुभागमात्रंगळप्पुवु = 1 ८८। कपोतलेश्यातीवसंक्लेशस्थानंगळु तदेकभागमानंगळप्पुवु ।।८।१ मत्तं शुभलेश्याविशुद्धिस्थानंगळु मुंपेळ्द असंख्यातलोकभक्तकभागमात्रंगळोळ = १ तेजोलेश्या
२
कषायगतोदयस्थानानि असंख्यातलोकमात्राणि भवन्ति । तेषु संक्लेशस्थानानि अशुभलेश्यास्थानानि तद्योग्यासंख्यातलोकभक्तबहभागमात्राण्यपि असंख्यातलोकमात्राण्येव । तदेकभागमात्राणि शुभलेश्याविशुद्धिस्था- १५ नान्यप्यसंख्यातलोकमात्राण्येव । संक्ले aa। ८ । विशु ७ = १॥४९९।।
प्रागुक्तासंख्यातलोकबहभागमात्राणि अशुभलेश्यासंक्लेशस्थानानि कृष्णनीलकपोतभेदास्विविधानि । तत्र कृष्णलेश्यातीव्रतमसंक्लेशस्थानानि सामान्याशुभसंक्लेशस्थानेषु= 1८ तद्योग्यासंख्यातलोकभक्तेषु बहभाग
मात्राणि। ८ । ८ । नीललेश्यातीव्रतरसंक्लेशस्थानानि तदेकभागबहुभागमात्राणि = 21 ८।८। कपोत
९।९।९ लेश्यातीव्रसंक्लेशस्थानानि तदेकभागमात्राणि : ।। ८ । १ पुनः शुभलेश्याविशुद्धिस्थानेषु पूर्वोक्तासंख्यात- २०
कषायोंके अनुभागरूप उदय स्थान असंख्यात लोक मात्र होते हैं। उनमें यथायोग्य असंख्यात लोकसे भाग देनेपर बहुभाग प्रमाण संक्लेश स्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक प्रमाण ही हैं। और शेष एक भाग प्रमाण विशुद्धिस्थान हैं, वे भी असंख्यात लोक मात्र हैं। संक्लेशस्थान तो अशुभ लेश्याओंके स्थान हैं और विशुद्धि स्थान शुभ लेश्याओंके स्थान हैं ॥४९९॥
पहले कहे असंख्यात लोकके बहुभाग मात्र अशुभ लेश्या सम्बन्धी स्थान कृष्ण, नील, कापोतके भेदसे तीन प्रकारके हैं। उन सामान्य अशुभ लेश्या सम्बन्धी स्थानोंमें यथायोग्य असंख्यातलोकसे भाग देनेपर बहुभाग प्रमाण कृष्णलेश्या सम्बन्धी तीव्रतम कषायरूप संक्लेश स्थान हैं। शेष रहे एक भागमें पुनः असंख्यात लोकसे भाग देनेपर बहुभाग मात्र
२५
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गो० जीवकाण्डे मंदसंक्लेशस्थानंगळ तदसंख्यातलोकभक्तबहुभागमात्रंगळप्पुवु =a ८ पालेश्याविशुद्धिस्थानंगळु मंदतरसंक्लेशस्थानंगळु तदेकभागबहुभागमात्रंगळप्पुवु = ०८ शुक्ललेश्याविशुद्धिस्थानंगळु मंदतमसंक्लेशस्थानंगळु शेषकभागमात्रंगळप्पुवु = ३१ ई कृष्णलेश्यावियादारं स्थानंगळोळु प्रत्येकमशुभंगळोळुत्कृष्टदिदं जघन्यपर्यंत शुभंगळोळं जघन्यदिदमुत्कृष्टपर्यंतमसंख्यातलोकमात्र५ षट्स्थानपतितहानिवृद्धियुक्तस्थानंगळप्पुवु खलु नियमदिदं ।
असुहाणं वरमज्झिमअवरंसे किण्हणोलकाउतिए ।
परिणमदि कमेणप्पा परिहाणीदो किलेसस्स ।।५०१॥ अशुभानां वरमध्यमावरांशे कृष्णनीलकपोतत्रये परिणमति क्रमेणात्मा परिहानितः संक्लेशस्य।
कृष्णनीलकपोतत्रिस्थानंगळ अशुभंगळप्पुत्कृष्टमध्यमजघन्यांशंगळोळ जीवं संक्लेशहानियिंदं क्रमदिदं परिणमिसुगुं । लोकभक्तकभागमात्रेषु । १ तेजोलेश्यामन्दसंक्लेशस्थानानि तदसंख्यातलोकभक्तबहुभागमात्राणि = a । ८ पद्मलेश्याविशुद्धिस्थानानि मन्दतरसंक्लेशस्थानानि तदेकभागबहुभागमात्राणि= । ८ शुक्ललेश्याविशुद्धि
९।९।९ स्थानानि मन्दतमसंक्लेशस्थानानि शेषकभागमात्राणि: ।।१ । एतेषु कृष्णलेश्यादिषट्स्थानेषु प्रत्येकमशुभेषु
१५ उत्कृष्टाज्जघन्यपर्यन्तं शुभेषु च जघन्यादुत्कृष्टपर्यन्तं असंख्यातलोकमात्रषट्स्थानपतितहानिवृद्धिस्थानानि भवन्ति खलु-नियमेन ॥५०॥
___ कृष्णनीलकपोतत्रिस्थानेषु अशुभरूपोत्कृष्टमध्यमजघन्यांशेष जीवः संक्लेशहानितः क्रमेण परिणमति ॥५०१॥
नीललेश्या सम्बन्धी तीव्रतर संक्लेश स्थान हैं। शेष रहे एक भाग प्रमाण कापोतलेश्या २० सम्बन्धी तीव्र संक्लेश स्थान हैं। पहले कषायोंके उदय स्थानोंमें असंख्यात लोकसे भाग देकर
जो एक भाग प्रमाण शुभ लेश्या सम्बन्धी स्थान कहे थे। वे तेज, पद्म और शुक्लके भेदसे तीन प्रकारके हैं। उनमें असंख्यात लोकसे भाग देकर बहुभाग प्रमाण तेजोलेश्या सम्बन्धी मन्द संक्लेश स्थान हैं। शेष बचे एक भागमें पुनः असंख्यात लोकसे भाग देकर बहुभाग
प्रमाण पद्मलेश्या सम्बन्धी मन्दतर संक्लेशस्थान हैं। शेष रहे एक भाग प्रमाण शुक्ल लेश्या २५ सम्बन्धी मन्दतम संक्लेश स्थान हैं। इन कृष्णलेश्या आदि सम्बन्धी छह स्थानोंमें-से
प्रत्येकमें अशुभमें तो उत्कृष्टसे जघन्य पर्यन्त और शुभ लेश्याओंमें जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त असंख्यात लोकमात्र षट्स्थान पतित हानि-वृद्धि स्थान नियमसे होते हैं ।।५००।
यदि जीवके संक्लेश परिणामोंमें हानि होती है, तो वह अशुभ कृष्ण नील और कापोत लेश्याओंके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य अंशोंमें क्रमसे परिणमन करता है अर्थात् उस लेश्याके ३० उत्कृष्ट अंशसे मध्यममें और मध्यमसे जघन्यरूप परिणमन करता है ।।५.१।।
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७०३
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका काऊ णीलं किण्हं परिणमदि किलेसवड्ढिदो अप्पा ।
एवं किलेसहाणीवडढीदो होदि असुहतियं ॥५०२॥ कपोतं नीलं कृष्णं परिणमति क्लेशवृद्धित आत्मा । एवं क्लेशहानिवृद्धितोऽशुभत्रयं भवति।
संक्लेशवृद्धियिंदमात्म कपोतनीलकृष्णलेश्यारूप तप्पुदंते परिणमदि परिणमिसुगुमितु ५ संक्लेशहानिवृद्धिळिदमशुभत्रयरूपनक्कुं।
तेऊ पम्मे सुक्के सुहाणमवरादि अंसगे अप्पा ।
सुद्धिस्स य वड्ढीदो हाणीदो अण्णहा होदि ॥५०३।। तेजसि पद्म शुक्ले शुभानामवरायंशके आत्मा विशुद्धेश्च वृद्धितो हानितोऽन्यथा भवति ।
शुभंगळप्प तेजःपद्मशुक्ललेश्यगळ जघन्या_शंगळोळात्म विशुद्धिवृद्धियिदं भवति परिणमि- १० सुगुं। हानितोऽन्यथा भवति विशुद्धिय हानियिदं शुक्ललेश्योत्कृष्टं मोदल्गोंडु तेजोलेश्याजघन्यांशपय्यंतं भवति परिणमिसुगुं । संदृष्टि :
२०
अशुभलेश्या स्थानानि ९० ८सव्वधनं = शुभलेश्या स्थानानि ९ ।१ तीव्रतमकृष्ण तिव्वतरणीळ तिव्वकओत मंदतेज मंदतरपन मंदतमशुक्ल उ०००००ज उ००००००ज उ००००००ज ज००००० उ ज०००००उज०००००उ Da८८ =1८1८ = 1८।१ 20८।। ८
१
९९९ परिणामाधिकारं तृतीयं समाप्तमायतु ।
अनंतरं संक्रमणाधिकारमं गाथात्रयदिदं स्वस्थानपरस्थानसंक्रमणमनि परिणामपरावृत्तिरचनयं कटाक्षिसिको डु पेन्दपं ।।
संक्लेशवृद्धयात्मा कपोतनीलकृष्णलेश्यारूपेण परिणमति इति संक्लेशहानिवृद्धिभ्यामशुभत्रयरूपो भवति ॥५०२॥
शुभानां तेजःपद्मशुक्ललेश्यानां जघन्यायशेषु आत्मा विशुद्धिवृद्धितो भवति परिणमति, हानितोऽन्यथा शक्लोत्कृष्टात्तेजोजघन्यांशपर्यन्तं परिणमति ॥५०३।। इति परिणामाधिकारः। उक्तपरिणामपरावृत्तिरचनां मनसिकृत्य संक्रमणाधिकारं गाथात्रयेणाह
तथा संक्लेश परिणामों में वृद्धि होनेसे कापोत, नील और कृष्ण लेश्यारूपसे परिणमन करता है। इस प्रकार संक्लेश परिणामोंमें हानि, वृद्धि होनेसे तीन अशुभ लेश्या रूपसे २५ परिणमन करता है ॥५०२।।।
शुभ तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओंके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंशोंमें आत्मा विशुद्धिकी वृद्धिसे परिणमन करता है। और विशुद्धिकी हानिसे अन्यथा अर्थात् शुक्ल लेश्याके उत्कृष्ट अंशसे तेजोलेश्याके जघन्य अंश तक परिणमन करता है ॥५०॥
इस प्रकार परिणामाधिकार समाप्त हुआ।
उक्त परिणामोंके परिवर्तनकी रचनाको मनमें रखकर तीन गाथाओंसे संक्रमण अधिकारको कहते हैं
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७०४
गो० जीवकाण्डे संकमणं सट्ठाणपरट्ठाणं होदित्ति किण्हसुक्काणं ।
वड्ढीसु हि सट्टाणं उभयं हाणिम्मि सेसउभयेवि ॥५०४॥ ___ संक्रमणं स्वस्थानं परस्थानं भवति। कृष्णशुक्लयोः। वृद्धचोः खलु स्वस्थानमुभयं हानौ शेषोभयेपि ॥
संक्रमणं स्वस्थानसंक्रमण दु परस्थानसंक्रमणमें दुं द्विप्रकारमक्कुमल्लि कृष्णशुक्लयोः कृष्णशुक्ललेश्याद्वयद वृद्धयोः वृद्धिगळोळु स्वस्थानसंक्रमणमेयक्कुं खलु नियदिदं । आकृष्णशुक्ललेश्यगळु हानी हानियोळु उभयं स्वस्थानसंक्रमणमुं परस्थानसंक्रमणमुम बरडुमक्कुं। शेषोभयेपि शेषनीलपद्मकपोततेजोलेश्याचतुष्टयंगळु हानियोळं वृद्धियोळं अपि अपिशब्ददिदं स्वस्थानसंक्रमणमुं परस्थानसंक्रमणमुमें बेरडुमक्कुं॥
लेस्साणुक्कस्सादो वरहाणी अवरगादवरवड्ढी ।
सट्ठाणे अबरादो हाणी णियमा परट्ठाणे ॥५०५॥ लेश्यानामुत्कृष्टादवरहानिरवरस्माववरवृद्धिः, स्वस्थाने अवरस्माद्धानिनियमात्परस्थाने॥
संक्रमणं-स्वस्थानसंक्रमणं परस्थानसंक्रमणं चेति द्विविधम् । तत्र कृष्णशुक्ललेश्याद्वयस्य वृद्धी स्वस्थानसंक्रमणमेव खलु-नियमेन, हानी पुनः स्वस्थानसंक्रमणं परस्थानसंक्रमणं 'चेत्युभयं भवति । शेषनीलपद्मकपोत१५ तेजोलेश्याचतुष्टयस्य हानौ वृद्धौ च अपिशब्दादुभयसंक्रमणं भवति ॥५०४॥
संक्रमणके दो प्रकार हैं-स्वस्थान संक्रमण और परस्थान संक्रमण । उनमें से कृष्णलेश्या और शुक्ल लेश्याका वृद्धि में नियमसे स्वस्थान संक्रमण ही होता है। हानिमें स्वस्थान और परस्थान दोनों होते हैं। शेष नील, कापोत, तेज, पद्म लेश्याओंमें हानि और वृद्धि में दोनों संक्रमण होते हैं ॥५०४॥
विशेषार्थ-एक स्थानसे दूसरे स्थानमें जानेको संक्रमण कहते हैं। यदि वह उसी २०
लेश्यामें होता है, तो स्वस्थान संक्रमण है और यदि एक लेश्यासे दूसरीमें होता है, तो परस्थान संक्रमण है। वृद्धि में कृष्ण और शुक्ल लेश्या में स्वस्थान संक्रमण ही होता है। क्योंकि संक्लेशकी वृद्धि कृष्ण लेश्याके उत्कृष्ट अंश पर्यन्त ही होती है तथा विशद्धिकी वृद्धि शक्ल लेश्याके उत्कृष्ट अंश तक ही होती है। अतः जो जीव कृष्ण लेश्या या शुक्ल लेश्या में वर्तमान है, वह संक्लेश या विशुद्धिकी वृद्धिमें उन्हीं लेश्याओंके उत्कृष्ट अंशमें जायेगा। किन्तु हानिमें दोनों संक्रमण होते हैं। क्योंकि उत्कृष्ट कृष्ण लेश्यासे संक्लेशकी हानि होनेपर उसी लेश्याके उत्कृष्टसे मध्यममें और मध्यमसे जघन्य अंशमें आता है और जघन्य अंशसे भी हानि होनेपर नील लेश्यामें चला जाता है। इसी तरह विशुद्धिकी हानि होनेपर शुक्ल लेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मध्यममें और मध्यमसे जघन्य अंशमें आता है। तथा और भी हानि
होनेपर पद्म लेश्यामें जाता है। इस तरह हानिमें दोनों संक्रमण होते हैं । शेष मध्यकी चारों ५० ही लेश्याओंमें हानि-वृद्धि दोनोंमें ही दोनों संक्रमण होते हैं ॥५०४॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७०५ लेश्यानां कृष्णादिसव्वळेश्यगळ उत्कृष्टात् उत्कृष्टदत्तणिवं अनंतरस्वलेश्यास्थानविकल्पदोळु अवरहानिः अनंतैकभागहानियक्कुं । एके दोडुत्कृष्टलेश्योदयस्थानकमप्पुरिंदमनंतरोव्वंकस्थानदोळनंतैकभागहानियक्कुमप्पुरिदं । अवरस्मात् सर्वलेश्यगळ जघन्यस्थानवतणिदं स्वस्थाने स्वस्थानदोळु अवरवृद्धिः अनंतभागवृद्धिये अक्कुमेक दोड लेश्याजघन्यस्थानंगळनितुमष्टांकंगळप्पुरिंदमनंतरस्थानंगळोळु अनंतभागवृद्धिये नियमदिदमक्कुमेके दोडा जघन्यमा षट्स्थानादियप्पुरिदं। ५ उत्तरस्थानमनंतैकभागवृद्धिस्थानमक्कुमप्पुरिदं । अवरस्मात् सर्व्वलेश्येगळ जघन्यस्थानदत्तणिदं परस्थाने परस्थानसंक्रमणदोळ अनंतरस्थानदोळु हानिः अनंतगुणहानिये नियमाद् भवति नियमदिमक्कुमेकदोडे शुक्ललेश्याजघन्यदिदमनंतरपद्मलेश्यास्थानदोळनंतगुणहानि नियमदिम तक्कुमंत कृष्णालेश्याजघन्यदिदमनंतरनीललेश्यास्थानदोळ्मनंतगुणहानियक्कुमितेल्ला लेश्यगळामक्कुं॥
संकमणे छठाणा हाणिसु वड्ढीसु होति तण्णामा।
परिमाणं च य पुव्वं उत्तकम होदि सुदणाणे ॥५०६॥ संक्रमणे षट्स्थानानि हानिषु वृद्धिषु भवंति तन्नामानि । परिमाणं च पूर्वमुक्तक्रमो भवति श्रुतज्ञाने॥
ई संक्रमणदोळु हानिगोळं वृद्धिगळोळं षड्वृद्धिगर्छ षड्हानिगळं मप्पुवु । तद्धिहानिगळ पेसर्गळुमवर प्रमाणंगळमं मुन्नं श्रुतज्ञानमार्गणयोळ्पेळ्द क्रममेयक्कु दरिदतेंदोडे अनंत- १५
__ कृष्णादिसर्वलेश्योत्कृष्टादनन्तरस्वलेश्यास्थानविकल्पे अवरहानिः अनन्तकभागहानिर्भवति, कुतः ? तदनन्तरस्योर्वङ्कात्मकत्वात् । सर्वलेश्यानां जघन्यात्पुनः स्वस्थाने अवरवृद्धिः अनन्तकभागवृद्धिरेव भवति । कुतः ? तज्जघन्यानामष्टांकरूपत्वात् । सर्वलेश्याजघन्यस्थानात् परस्थानसंक्रमणेऽनन्तरस्थाने अनन्तगुणहानिरेव नियमाद्भवति । कुतः? शुक्ललेश्याजघन्यादनन्तरपालेश्यास्थानवत्कृष्णलेश्याजघन्यादनन्तरनीललेश्यास्थानेऽपि तद्धानेरेव संभवात् । एवं सर्वलेश्यानां भवति ॥५०५॥
२० अस्मिन् संक्रमणे हानिषु वृद्धिषु च षड्वृद्धयः षड्ढानयश्च भवन्ति । तासां नामानि प्रमाणानि च पूर्व
कृष्ण आदि सब लेश्याओंके उत्कृष्ट स्थानमें जितने परिणाम होते हैं, उनसे उत्कृष्ट स्थानके समीपवर्ती उसी लेश्याके स्थानमें 'अवरहानि' अर्थात् उत्कृष्ट स्थानसे अनन्त भाग हानिको लिये हुए परिणाम होते हैं, क्योंकि उत्कृष्टके अनन्तरवर्ती परिणाम उर्वकरूप होता है और अनन्त भागकी संदृष्टि उर्वक है। तथा सब लेश्याओंके जघन्य स्थानसे उसी लेश्यामें २५ उसके समीपवर्ती स्थानमें अनन्त भागवृद्धि ही होती है, क्योंकि उनके जघन्य अष्टांकरूप होते हैं। सब लेश्याओंके जघन्य स्थानसे परस्थानसंक्रमण होनेपर उसके अनन्तरवर्ती स्थानमें अनन्त गुणहानि ही नियमसे होती है। क्योंकि शुक्ललेश्याके जघन्य स्थानके अनन्तर जो पद्मलेश्याका उत्कृष्ट स्थान है, उसीकी तरह कृष्णलेश्याके जघन्य स्थानके अनन्तर जो नीललेश्याका उत्कृष्ट स्थान है, उनमें भी अनन्त गुणहानि ही सम्भव है। इसी ३० प्रकार सब लेश्याओंमें जानना ॥५०५।।
इस संक्रमणमें हानि और वृद्धिमें छह हानियाँ और छह वृद्धियाँ होती हैं। उनके १. म अकस्मात् अवरवृद्धि स. । २. म हानिः हानिये ।
mernama
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७०६
गो० जीवकाण्डे भागमसंख्यातभागं संख्यातभागं संख्यातगुणमसंख्यातगुणमनंतगुणमेब हानिवृद्धिगळ नामंगळुमुत्कृष्टसंख्यातमुमसंख्यातलोक, सर्वजीवराशियुमेंब प्रमाणंगळु भागक्रमदोळं गुणितक्रमदोळमिवेयप्पुर्वेदु श्रुतज्ञानमार्गणेयोल पेळव क्रममिल्लियुमरियल्पडुगुम बुदु तात्पर्य ॥ नाल्कनय संक्रमणाधिकारंतिदुदु ॥अनंतरं कर्माधिकारमं गाथाद्वयदिदं पेळ्वपं:
५ श्रुतज्ञानमार्गणायां उक्तकमेणैव भवन्ति । तत्र अनन्तभागः असंख्यातभागः संख्यातभागः संख्यातगुणः असंख्यात
गुणः अनन्तगुणश्चेति नामानि । उत्कृष्टसंख्यातमसंख्यातलोकः सर्वजीवराशिश्चेति भागक्रमे गणितक्रमे च प्रमाणानि भवन्ति ॥५०६॥ इति संक्रमणाधिकारश्चतुर्थः ॥ अथ कर्माधिकारं गाथाद्वयेनाह
नाम और उनका प्रमाण पहले श्रुतज्ञानमार्गणामें जैसा कहा है , वैसा ही जानना। उनके
नाम अनन्तभाग, असंख्यात भाग, संख्यात भाग, संख्यात गुण, असंख्यात गुण और अनन्त 1. गुण हैं । उनका प्रमाण जीवराशि, असंख्यात लोक और उत्कृष्ट संख्यात क्रमसे हैं। यह भाग और गुणेका प्रमाण है ।।५०६॥
विशेषार्थ-अनन्त भाग, असंख्यात भाग, संख्यात भाग, संख्यात गुण, असंख्यात गुण, अनन्त गुण ये छह स्थानोंके नाम हैं। इनका प्रमाण गुणकार और भागहार में पूर्ववत्
जानना। पूर्व में वृद्धिका अनुक्रम कहा है हानिमें उससे उलटा अनुक्रम है ; वही कहते हैं। १५ कापोतलेश्याके जघन्यसे लगाकर कृष्णलेश्याके उत्कृष्ट पर्यन्त विवक्षा हो,तो क्रमसे संक्लेशकी
वृद्धि होती है। यदि कृष्णलेश्याके उत्कृष्टसे लगाकर कापोतलेश्याके जघन्य पर्यन्त विवक्षा हो, तो संक्लेशकी हानि होती है। तथा पीतके जघन्यसे लगाकर शुक्लके उत्कृष्ट पर्यन्त विवक्षा हो,तो क्रमसे विशुद्धिकी वृद्धि होती है । यदि शुक्लके उत्कृष्टसे लगाकर पीतके जघन्य पर्यन्त विवक्षा हो,तो क्रमसे विशुद्धिकी हानि होती है । सो वृद्धिमें षट्स्थानपतित वृद्धि और २० हानिमें षट्स्थानपतित हानि जानना।
पूर्व में कहा था कि सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र बार अनन्त भागवृद्धि होनेपर एक बार अनन्त गुणवृद्धि होती है। उसमें अनन्त गुणवृद्धिरूप स्थान नवीन षट्स्थान पतित वृद्धिका प्रारम्भरूप प्रथम स्थान है। उसके पहले जो अनन्त भाग वृद्धिरूप स्थान है,
वह विवक्षित षस्थानपतित वृद्धिका अन्तस्थान है। नवीन षट्स्थानपतित वृद्धिके अनन्त २५ गुणवृद्धिरूप प्रथम स्थानके आगे सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र अनन्त भागवृद्धिरूप स्थान होते हैं,उसके आगे पूर्वोक्त अनुक्रम जानना।
यहाँपर कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट स्थान षट्स्थानपतितका अन्त स्थानरूप होनेसे पूर्व. स्थानसे अनन्तभाग वृद्धिरूप है। और कृष्णलेश्याका जघन्य स्थान षट्स्थान पतितका
प्रारम्भरूप प्रथम स्थान है। उसके पूर्व नीललेश्याका उत्कृष्ट स्थान,उससे अनन्त गुण वृद्धि३० रूप है। तथा कृष्णलेश्याके जघन्यका समीपवर्ती स्थान उस जघन्य स्थानसे अनन्त भाग
वृद्धिरूप है। हानिकी अपेक्षा कृष्णलेश्याके उत्कृष्ट स्थानसे उसके समीपवर्ती स्थान अनन्त भाग हानिको लिये है। कृष्णलेश्याके जघन्य स्थानसे नीललेश्याका उत्कृष्ट स्थान अनन्त गुण हानिको लिये है । इसी प्रकार अन्य स्थानोंमें भी जानना ॥५०६॥ ___चतुर्थ संक्रमण अधिकार समाप्त हुआ। अब कर्माधिकार दो गाथाओंसे कहते हैं
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७०७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टारण्णमझदेसम्मि ।
फलभरियरुक्खमेगं पेक्खित्ता ते विचितंति ॥५०७॥ पथिका ये षट्पुरुषाः परिभ्रष्टाः अरण्यमध्यदेशे, फलभरितमेकं वृक्षं प्रेक्ष्य ते विचितयंति ॥
णिम्मूलखंधसाहुवसाहं छित्तु चिणित्त पडिदाई।
खाउं फलाइ इदि जं मणेण वयणं हवे कम्मं ॥५०८।। निर्मूलस्कंधशाखोपशाखाविछत्वा उच्चित्य पतितानि। खादितुं फलानोति यन्मनसा वचनं भवेत्कर्म ॥
मुंपेळ्द पथिकरवलं तोळळुत्तमरण्यमध्यदोळोदु फलभरितमाकंदवृक्षम कंडु तत्फलभक्षणोपायम कृष्णलेश्यादिपरिणामजीवंगाळतेंदु चितिसिदपर। मरनं निर्मूलमप्पंतु कडिदूं, स्कंधमने कडिदु, शाखेयने कडिदु, उपशाखयने कडिदु, मरनं नोयिसदे पण्णळने तिरिनु, इल्लि बिदिईब्वने १० मेलुवेमें बितावुदोंदु मनदिनाळापमदा कृष्णलेश्यादि षट्प्रकारद जीवंगळ्गे यथाकदिवं कर्ममे बुदक्कुं । अयिद नेयक कर्माधिकारं तीर्दुदु ॥ अनंतरं लक्षणाधिकारमं गाथानवकदिदं पेळ्दपं ॥
चंडो ण मुंचइ वेरं भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ।
दुट्ठो ण य एदि वसं लक्खणमेयं तु किण्हस्स ॥५०९॥ चंडो न मुंचति वैरं भंडनशीलश्च धर्मदयारहितः। दुष्टः न चैति वशं लक्षणमेतत्तु कृष्णस्य ॥
चंडः तीव्रकोपन न मुंचति वैरं वैरमं बिडुवनल्लं । भंडनशीलश्च युद्धशीळनं धर्मदयारहितः धर्ममुं दयेयुमिल्लदनुं दुष्टः दुष्टनुं न चैति वशं वशवत्तियप्पनुमल्लं। एतल्लक्षणं इंतप्प लक्षणमनुळं तु
कृष्णाद्ये कैकलेश्यायुक्तषट्पथिकाः पुरुषाः पथः परिभ्रष्टाः अरण्यमध्यदेशे फलभरितमेकं वृक्षं दृष्ट्वा ते २० विचिन्तयन्ति । तत्र आद्यः-वृक्षं निर्मूलं छित्त्वा, अन्यः स्कन्धं छित्त्वा, परः शाखां छित्त्वा, अन्यः उपशाखां छित्त्वा, परो वृक्षाबाधं फलान्येव छित्त्वा, अन्यः पतितान्येव गृहीत्वा च फलान्यनीति यन्मनःपूर्वकं वचः तत्क्रमशस्तासां कर्म भवति ॥५०७-५०८॥ इति कर्माधिकारः ॥ अथ लक्षणाधिकार गाथानवकेनाह
नस्तीव्रकोपनः वैरं न मञ्चति. भण्डनशीलश्च यद्धशीलश्च धर्मदयारहितः दृष्टः निर्दयो वशं नैति
कृष्ण आदि एक-एक लेश्यावाले छह पथिक मार्ग भूल गये। वनके मध्य में फलोंसे २५ लदे हुए एक वृक्षको देखकर वे विचार करते हैं-कृष्णलेश्यावाला विचारता है कि वृक्षको जड़से उखाड़कर इसके फल खाऊँगा । नीललेश्यावाला विचारता है कि इस वृक्ष के स्कन्धको काटकर फल खाऊँगा । कापोतलेश्यावाला विचारता है, इसकी बड़ी डाल काटकर फल खाऊँगा। तेजो लेश्यावाला विचारता है, इसकी छोटी डाल काटकर फल खाऊंगा। पद्मलेश्यावाला विचारता है वृक्षको हानि न पहुँचाकर केवल फल ही तोड़कर खाऊँगा। शुक्ल- ३० लेश्यावाला विचारता है, गिरे हुए फलोंको ही खाऊँगा। इस प्रकार मनपूर्वक जो वचन होता है,वह क्रमसे उन लेश्याओंका कार्य होता है ।।५०७-५०८।।
अब नौ गाथाओंसे लक्षणाधिकार कहते हैंतीव्र क्रोधी हो, वैर न छोड़े, लड़ाई-झगड़ा करनेका स्वभाव हो, दया-धर्मसे रहित
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१०
५ भेद्यश्च ॥
१५
७०८
मत्ते कृष्णलेश्येयनुळ जीवनक्कुं ॥
२०
३०
मंद बुद्धिविहीण णिग्विण्णाणी य विसयलोलो य । मणी माई यता आलस्सो चेव भेज्जो य ॥५१० ॥
मंद बुद्धिविहीन निव्विज्ञानी च विषयलोलश्च । मानी मायी च तथा आलस्यश्चैव
गो० जीवकाण्डे
मंदः स्वच्छंदसंज्ञिकनुं क्रियेगळोळुमंद मेणु बुद्धिविहीनः वर्त्तमानकार्य्यानभिज्ञनुं । निव्विज्ञानी च विज्ञानविहीननं । विषयलोलश्च विषयंगळोळु स्पर्शादिबाह्येद्रियात्थंगळोळु लंपटनं । मानी अहंकारियुं । मायी च कुटिलवृत्तियुं तथा आलस्यश्चैव क्रियेगळोळु कर्त्तव्यंगळोळ कुठनं । भेद्यश्च पेरिंदमोळगरियल्पडुवतुमें दिनितुं कृष्णलेश्येय जोवलक्षण मक्कुं ॥
णिद्दावचनबहुलो घणघण्णे होदि तिव्वसणा य ।
लक्खणमेयं भणियं समासदो नीललेस्सस्स ॥ ५११ ॥
निद्रावंचनाबहुल: धनधान्ये भवति तीव्रसंज्ञश्च । लक्षणमेतद् भणितं समासतो नीललेश्यस्य ॥ निद्राबहुलनं वंचनाबहुलनुं धनधान्यंगळोळु तीव्रसंज्ञेयनुळनं धनधान्यंगळोळतीव्रसंज्ञेयनुळनं एंदिती लक्षणं संक्षेपदवं नीललेश्ययेयमुळ जीवंगे पेळपट्टुवु ॥
रूसइ दिइ अण्णे दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो । असुयइ परिभवइ परं पसंसये अप्पयं बहुसो ||५१२॥
एतल्लक्षणं तु - पुनः कृष्ण लेश्यस्य भवति ॥ ५०९ ॥
मन्दः स्वच्छन्द क्रियासु मन्दो वा, बुद्धिविहीनः वर्तमानकार्यानभिज्ञः, निर्विज्ञानी च - विज्ञानरहितश्च विषयलोलश्च-स्पर्शादिबाह्येन्द्रियार्थेषु लम्पटश्च मानी अभिमानी, मायी च कुटिलवृत्तिश्च तथा आलस्यश्चैवंक्रियासु कर्तव्येषु कुण्ठश्चैव भेद्यश्च परेणानवबोध्याभिप्रायश्च एतदपि कृष्णलेश्यस्य लक्षणं भवति ॥ ५१० ॥
निद्राबहुल : वञ्चनबहुल: धनधान्येषु तीव्रसंज्ञश्च इत्येतल्लक्षणं संक्षेपेण नीललेश्यस्य भणितम् ॥५११ ॥ हो, दुष्ट और निर्दय हो, किसीके वशमें न आता हो, ये कृष्णलेश्यावालेके लक्षण २५ है ||५०९ ||
रोषति निदत्यन्यान् दुष्यति बहुशश्च शोकभयबहुलः । असूयति परिभवति परं प्रशंसयेदात्मानं बहुशः ।
स्वच्छन्द अथवा कार्य करने में मन्द हो, बुद्धिहीन हो - वर्तमान कार्यको न जानता हो, अज्ञानी हो, स्पर्शन आदि इन्द्रियोंके विषयमें लम्पट हो, अभिमानी हो, कुटिल वृत्तिवाला मायाचारी हो, कर्तव्य कर्ममें आलसी हो, दूसरोंके द्वारा जिसका अभिप्राय जाना जा सके, ये सभी । कृष्ण लेश्या के लक्षण हैं ||५१०||
बहुत सोता हो, दूसरोंको खूब ठगता हो, धन्य-धान्यकी तीव्र लालसा हो, ये संक्षेपसे नीलेश्यावाले के लक्षण हैं ||५११||
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
७०९ पेररं कोपिसुगुं बहुप्रकारदिदं पररं निदिसुगुं। बहुप्रकारदिदं पेररं दूषिसुगुं। शोकबहुलनु भयबहुलनु परनं सैरिस, परनं परिभविसुगुं तन्न बहुप्रकारदिदं प्रशंसयं माडिकोळगुं।
ण य पत्तियइ परं सो अप्पाणं मिव परं पि मण्णंतो।
थूसइ अभित्थुवंतो ण य जाणइ हाणि बड्ढि वा ॥१३॥ न च विश्वसिति परं सः आत्मानमिव परमपि मन्यमानः । तुष्यत्यभिष्टुवतो न च जानाति ५ हानि वृद्धि वा। ___सः अंतप्प जीवं परनं नंबुवनल्लं तन्नतये एंदु परनं बर्गगुं। तन्न पोगळुत्तिरलु संतोषिसुगुं तनगं परंगं हानियुमं वृद्धियुमं न जानाति अरियं ।
मरणं पत्थेइ रणे देइ सुबहुगंपि थुव्वमाणो दु ।
ण गणइ कज्जाकज्ज लक्खणमेयं तु काउस्स ॥५१४॥ मरणं प्रार्थयति रणे ददाति सुबहुकमपि स्तुवतः। न गणयति कार्याकार्य लक्षणमेतत्कपोतलेश्यस्य।
काळगोळ मरणमं बयसुगुं स्तुतिमाळपंगे बहुधैनमनीगुं। कार्यमुमनकार्यमुमं गणिइसुवनल्लनितिदु कपोतलेश्येयमनुळ्ळंगे लक्षणमक्कुं।
जाणइ कजाकज्ज सेयमसेयं च सव्वसमेपासी ।
दयदाणरदो य मिदू लक्खणमेयं तु तेउस्स ।।५१५॥ जानाति कार्याकाय्यं सेव्यमसेव्यं च सर्वसमदर्शी। बयादानरतश्च मृदुर्लक्षणमेतत्तेजोलेश्यस्य ।
१५
परस्मै कुप्यति, बहुधा परं निन्दति, बहुधा परं दुष्यति, न शोकबहुलः, भयबहुलः, परं न सहते परं परिभवति आत्मानं बहुधा प्रशंसति ॥५१२।।
स परं न प्रत्येति-न विश्वसिति आत्मानमिव परमपि मन्यमानः अभिष्टुवतः परस्योपरि तुष्यति स्वपरयो निवृद्धी न च-नैव जानाति ॥५१३।।
रणे मरणं प्रार्थयते, स्तुति कुर्वतो बहुधनं (स्तूयमानस्तु बहुकमपि धनं ) ददाति, कार्यमकार्य च न गणयति इत्येतत्कपोतलेश्यस्य लक्षणं भवति ॥५१४॥
दूसरोंपर बहुत क्रोध करता हो, दूसरोंकी बहुत निन्दा करता हो, दूसरोंको बहुधा २५ दोष लगाता हो, बहुत शोक करता हो, बहुत डरता हो, दूसरोंको अच्छा न देख सकता हो, अन्यकी निन्दा और अपनी बहुत प्रशंसा करता हो, दूसरोंका विश्वास न करता हो, दूसरोंको भी अपनी ही तरह अविश्वास करनेवाला मानता हो, प्रशंसा करनेवालेपर परम प्रसन्न हो, अपनी और परकी हानि-वृद्धिकी परवाह न करता हो, युद्धमें मरनेको तैयार हो, अपनी स्तुति करनेवालेको बहुत कुछ दे डालता हो, कार्य-अकार्यको न जाने, ये सब कपोत- ३० लेश्यावालेके लक्षण हैं ।।५१२-५१४॥
१. म. धनम कुडुगं । २. म. समदंसी । ३. ब. अन्यस्मै रुष्यति ।
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५
१०
१५
२०
गो० जीवकाण्डे
कार्यमुमन कार्य्यमुमं सेव्यमुमनसेव्यमुमनरिगुं । सर्व्वसमर्दाशियुं दयेयोलं दानदोळं प्रीतियतुळनुं मनोवचनकायंगळोळु मृदुवं एंबिदु तेजोलेश्ययनुक्रळंगे लक्षणमक्कुं ।
३०
७१०
चागी भद्दो चोक्खो उज्जुवकम्मो य खमदि बहुगंपि । साहुगुरुपूजणरदो लक्खणमेयं तु पम्मस्स || ५१६ ॥
त्यागी भद्रः सौकर्यशीलः उद्युक्तकर्मा च क्षमते बहुकमपि साधुगुरुपूजारतो लक्षणमेतत्पद्म
लेश्यस्य ।
त्यागियं भद्रपरिणामियं सौकर्यशीलनुं शुभोद्युक्तकर्म्मनुं कष्टानिष्टंगळं पलवं सैरिसुवनुं मुनिजन गुरुजनपूजाप्रीतनु में बिदु पद्मलेश्येयनुक्रळंगे लक्षणमक्कुं ।
कुइ पक्खवायं णवि य णिदाणं समो य सव्वेसिं । णत्थि य रायद्दोसा गेहोवि य सुक्कलेस्सस्स ॥ ५१७ ||
न च करोति पक्षपातं नापि निदानं समश्च सर्व्वेषां न स्तश्च रागद्वेषौ स्नेहोपि च शुक्ललेश्यस्य ।
पक्षपात मं माडं | निदानमुमं माडं । सव्यंजनंगळगे समनप्पं । रागद्वेष में बेरडुमिष्टानिष्टंगेकोळिलदनुं । पुत्रकलत्रादिगळोळु स्नेहमुमिल्लेदनुं इदु शुक्ललेश्येय जीवंगे लक्षणमक्कुं । आरनेय लक्षणाधिकारं तिर्दुदु । अनंतरं गत्यधिकारमं येकादशगाथासूत्रंगळदं पेदवं ।
कार्यमकार्यं च सेव्यमसेव्यं च जानाति, सर्वसमदर्शी दयायां दाने च प्रीतिमान् मनोवचनकायेषु मृदुः इत्येतत्तेजोलेश्यस्य लक्षणं भवति ॥ ५१५ ॥
त्यागी भद्रपरिणामी सौकर्यशीलः शुभोद्युक्तकर्मा च कष्टानिष्टोपद्रवान् सहते, मुनिजनगुरुजनपूजाप्रीतिमान् इत्येतत्पद्मलेश्यस्य लक्षणं भवति ॥ ५१६॥
पक्षपातं निदानं च न करोति सर्वजनानां समानश्च इष्टानिष्टयोः रागद्वेषरहितः पुत्रमित्रकलत्रादिषु स्नेहरहितः इत्येतत् शुक्ललेश्यस्य लक्षणं भवति ।। ५१७।। इति लक्षणाधिकारः षष्ठः ॥ अथ गत्यधिकारं एकादशभिः गाथासूत्र राह
कार्य - अकार्यको तथा सेवनीय असेवनीयको जानता हो, सबको समान रूपसे देखता हो, दया और दानमें प्रीति रखता हो, मन-वचन-कायसे कोमल हो, ये तेजोलेश्याके २५ लक्षण हैं ।। ५१५।।
त्यागी हो, भद्र परिणामी हो, सरल स्वभावी हो, शुभ कार्यमें उद्यमी हो, कष्ट तथा अनिष्ट उपद्रवोंको सह सकता हो, मुनिजन और गुरुजनकी पूजा में प्रीति रखता हो, ये पद्मलेश्यावालेके लक्षण हैं ।। ५१६ ॥
न पक्षपात करता हो, न निदान करता हो, सबमें समान भाव रखता हो, इष्टअनिष्टमें राग-द्वेष न करता हो, पुत्र, मित्र, स्त्रीमें रागी न हो, ये सब शुक्ललेश्यावाले के लक्षण हैं ||५१७॥
छठा लक्षणाधिकार समाप्त ।
०
०
१. म गलोलेल्लवं । २. मल्लं यिदु । ३. ब. नपि क्षमते ।
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७११
कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका लेस्साणं खलु अंसा छव्वीसा होति तत्थ मज्झिमया ।
आउगबंधणजोग्गा अट्ठवगरिसकालभवा ॥५१८।। लेश्यानां खल्वंशाः षड्विशतिर्भवंति तत्र मध्यमगाः। आयुबंधनयोग्याः अष्टाऽष्टापकर्ष
कालभवाः।
शिला भेदसमान | पृथ्वी भेदसमान धूळीरेखासमान जल रेखासमान उ०००००००ज उ०००००००००ज उ००००००००००ज उ०००००००ज
कउ
तेउ कृ१ श२३।४।५।६।
६।५।४।३।२।११ शु १ ०११ १११।१।४।४।४
४।१।१।१।०१०॥ २॥
२०८ आरं लेश्येगळ्गे अंशंगळनितुं कूडि षड्विशतिगळप्पुवु २६ । अदेंते बोडे कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयक्कं जघन्यमध्यमोत्कृष्टंगछु प्रत्येक मूरुमूरागलोभतंशंगळप्पुवु । शुक्ललेश्यादि शुभलेश्यात्रयकमंतयोभतंशंग छप्पुवु- मा कपोतलेश्यय उत्कृष्टांशविदं मुंदे तेजोलेश्यय उत्कृष्टांशदिदं पिदे कषायोदयस्थानंगळ नडु । लेश्या व णारु लश्यगल यथासमवगळायुबंध
वणारं लेश्यगल यथासंभवंगळायुबंधयोग्यमध्यमां. १० ४।५।६।६।५।४ ४।४।४।४।११ स्थिति
षड्लेश्यानामंशा जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदादष्टादश। पुनः कपोतलेश्योत्कृष्टांशादने तेजोलेश्योत्कृष्टांशात्प्राक्कषायोदयस्थानेषु मध्यमांशा आयुर्बन्धयोग्या अष्टौ । एवं षड्विंशतिर्भवन्ति । तेषुशिला पृथ्वी धूलि
जल उ०००००० ज |उ०००००० ज उ०००००० ज । उ००००००ज
१२ ३ ४ ५ ६ ६५४३२१ |१११४४४ ४१११.०
२ ०
००००
०
०
०
मध्यमांशाः मध्यमा अष्टौ अष्टापकर्षकाले संभवन्ति । तद्यथा-भुज्यमानायुरपकृष्यापकृष्य परभवायुर्बध्यते इत्यपकर्षः। अपकर्षाणां स्वरूपमुच्यते-कर्मभूमितिर्यग्मनुष्याणां भुज्यमानायुर्जघन्यमध्यमोत्कृष्ट विवक्षितमिदं ६५६१ अत्र
छह लेश्याओंके उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे अठारह अंश होते हैं। पुनः १५ कपोतलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे आगे और तेजोलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे पहले कषायके उदयस्थानों में आठ मध्यम अंश हैं जो आयुबन्धके योग्य होते हैं। इस प्रकार छब्बीस अंश होते हैं। आठ मध्यम अंश अपकर्ष कालमें होते हैं। जो इस प्रकार हैं-मुज्यमान अर्थात् वर्तमानमें जिसे भोग रहे हैं, उस आयुका अपकर्षण कर-करके परभवकी आयुका बन्ध
१. ब. तत्स्व
रूप ।
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७१२
गो. जीवकाण्डे शंगळे दु । ८। अंतु लेश्यांशंगळनितुं ष विंशत्यंशगलप्पुववरोळा मध्यमांशंगळप्पायुबंधयोग्यांशगळे दुमष्टापकर्षकालसंभवंगळप्पुव ते दोडे भुज्यमानायुष्यमनपकर्षिसियपकर्षिसि परायुष्यम कटुवुदनपकर्षम बुदु पूर्वायुरपकृष्यापकृष्यैव परायुर्बध्यत इति अपकर्षः एंदिती निरुक्तिलक्षणसिद्धमप्पुरिदमी येंटुमपकर्षगळ्गे स्वरूप, तेंदोडोव्वं कर्मभूमिजं मनुष्यनागल्मेण्तियंचनागलु ५ भुज्यमानायुष्यं जघन्यमध्यमोत्कृष्टमं विवक्षितमनदं ६५६१ त्रिभागं माडिदेक भागद २१८७ प्रथम. समयं मोदल्गोंडतम्र्मुहुर्त्तकालमायुबंधयोग्यमक्कुमल्लि परभवायुष्यम कटुगुमल्लि कट्टिदोडे अपं त्रिभागं माडिदेकभागद ७२९ प्रथमकालदंतर्मुहूतदोळु बंधमिल्लदोडदं विभागं माडिदेकभागद २४३ प्रथमकालांतर्मुहत्तंदोळ्कट्टदोडदं त्रिभागं माडिदेकभागद ८१ प्रथमकालदोळ्बंधमिल्लिदोडदं त्रिभागं माडिदेकभागद २७ प्रथमसमयदोळु परभवायुष्यम कट्टल्मोदल्गोळळदिदो उदं त्रिभागं माडिदेकभागद ९ प्रथमांतर्मुहूर्त्तक्क परभवायुष्यम कट्टदोडवं त्रिभागं माडिदेकभागवोळु ३। प्रथमकालदोळकट्टदिदोडदं त्रिभागं माडिदेकभागद १ प्रथमकालदोळु परभवायुष्यमं कटुगुमितुंटेयपकषंगळुप्पुवा एंटनेय अपकर्षदोळायुबंधमक्कुमेंब नियममुमिल्लं । मत्तपकर्षमुमिल्लमंतादोडायुबंध तक्कम दोर्ड आ आ संक्षेपार्द्ध भुज्यमानायुष्यदोलुळिदुर्दै बागळपरभवायुष्मंतर्मुहर्त्तमात्रसमय
प्रबद्धंगळनियमदिदं कट्टि समाप्तमागले वेळकुम बिदु नियममक्कुम दरिवुदु । आ संक्षेपाद्धि ये बदूं १५ भुज्यमानायुष्यद कडयोळावल्यसंख्यातैकभागमक्कुं।
भागद्वयेऽतिक्रान्ते तृतीयभागस्य २१८७ प्रथमान्तर्मुहूर्तः परभवायुर्बन्धयोग्यः, तत्र न बद्धं तदा, तदेकभागतृतीयभागस्य ७२९ प्रथमान्तर्मुहूर्तः । तत्रापि न बद्धं तदा तदेकभागतृतीयभागस्य २४३ प्रथमान्तर्मुहूर्तः । एवमग्रे नेतव्यमष्टवारं यावत् । इत्यष्टैवापकर्षाः । नाष्टमापकर्षेऽप्यायुर्बन्धनियमः, नाप्यन्योऽपकर्षः तहि आयुर्बन्धः कथं ?
असंक्षेपाडा भुज्यमानायुषोऽन्त्यावल्यसंख्येयभागः तस्मिन्नवशिष्ट प्रागेव अन्तर्मुहूर्तमात्रसमयप्रबद्धान् परभवायु२० नियमेन बद्ध्वा समाप्नोतीति नियमो ज्ञातव्यः
होता है, इसे ही अपकर्ष कहते हैं। अपकर्षोंका स्वरूप कहते हैं-किसी कर्मभूमिके तियंच या मनुष्योंकी भुज्यमान आयु जघन्य अथवा मध्यम अथवा उत्कृष्ट ६५६१ पैसठ सौ इकसठ वर्ष है। इसमें से दो भाग बीतनेपर तृतीय भाग इक्कीस सौ सत्तासी २१८७ का प्रथम
अन्तर्मुहूर्त परभवकी आयुबन्धके योग्य है। यदि उसमें बन्ध नहीं हुआ, तो उस इक्कीस सौ २५ सत्तासीके दो भाग बीतनेपर तृतीय भाग सात सौ उनतीस ७२९ का प्रथम अन्तमुहूत पर
भवकी आयुबन्धके योग्य होता है। उसमें भी यदि बन्ध नहीं हुआ,तो सात सौ उनतीसमें-से दो भाग बीतनेपर तीसरे भाग दो सौ तैतालीसका प्रथम अन्तर्मुहूर्त आयुबन्धके योग्य है। इसी प्रकार आगे-आगे आठ बार तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार आठ ही अपकर्ष होते
हैं। आठवें अपकर्ष में भी आयुबन्ध नियमसे नहीं होता और अन्य अपकर्ष भी नहीं होता। ३० तब आयुबन्ध कैसे होता है ? उत्तर है-'आसंक्षेपाद्धा' अर्थात् मुज्यमान आयुके अन्तिम
आवलीका असंख्यातवाँ भाग अवशेष रहनेसे पहले ही अन्तर्महर्त मात्र समयप्रबद्धोंको लेकर परभवकी आयु नियमसे बाँधकर समाप्त करता है, यह नियम जानना। यहाँ विशेष १. ब. कर्षणायु ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७१३
سام س م ه
८१ २४३ ७२९ २१८७
६५६१ सर्वायु: इल्लि बिशेषनिर्णयं माडल्पडुगुमड़ते दोडे आवनोर्व सोपक्रमायुष्यनप्प जीवं सोपक्रमायुष्यने दे बुदेन दोडे कदलीघातायुष्यमनुळ्ळने बदय॑मदु कारणमागि देवनारकलं भोगभूमिजरुमनुपक्रमायुष्यरें बुदत्थं । आ सोपक्रमायुष्यजीवंगळु तंतम्म भुज्यमानायुष्यस्थितियोळ द्वित्रिभागमतिक्रांतमागुत्तिरलु शेषत्रिभागद प्रथमसमयं मोवल्गोंडु अंतम्मुहूर्तपयंतं परभवायुबंधप्रायोग्यरप्परु । मुंपेळ्दा संक्षेपाद्धिपय्यंतमल्लि आयुस्तोकबंधाद्धा कालाभ्यंतरदोळायुबंधप्रायो- ५ ग्यपरिणामंळिंद केलवु जीवंगळु अष्टवारंगळं केलवु जीवंगळ सप्तवारंगळं केलवु जीवंगळ षड्वारंगळं कलवु जीवंगळु पंचवारंगळं कलवु जीवंगळ चतुरिंगळं कलवु जीवंगळु त्रिवारंगळं केलवु जीवंगळं द्विवारंगळं केलवु जीवंगळेकवारंगळं परिणमिसुववेके दोडे स्वभावदिदमेतबंधप्रायोग्यपरिणमनमा जीवंगळ्गे कारणांतरनिरपेक्ष बुदत्थं । संदृष्टिरचने ॥
Mum
८१
२४३ ७२९ २१८७
अत्र विशेषनिर्णयः क्रियते । सोपक्रमायुष्काः कदलीघातायुष्का; तेन देवनारकभोगभूमिजा अनुपक्रमायुष्का भवन्ति । सोपक्रमायुष्का उक्तरीत्या आयुर्बघ्नन्ति । तत्रायस्तोकबन्धाद्धाभ्यन्तरे तद्योग्यपरिणामैः केचिदष्टवारं केचित्सप्तवारं केचित षड्वारं केचित्पञ्चवार केचित् चतुरि केचित्रिवारं केचिद् द्विवारं केचिदेकवारं परिणमन्ति । स्वभावादेव तद्बन्धप्रायोग्यपरिणमनं जीवानां कारणान्तरनिरपेक्षमित्यर्थः। संदृष्टिः
निर्णय करते हैं। जिनका विषादिके द्वारा कदलीघातमरण होता है,वे सोपक्रम आयुवाले होते हैं । अतः देव, नारकी और भोगभूमिया निरुपक्रम आयुवाले होते हैं। सोपक्रम आयुवाले उक्त रीतिसे आयुबन्ध करते हैं । उन अपकर्षों में आयुबन्धके कालमें आयुबन्धके योग्य परिणामोंसे कोई आठ बार, कोई सात बार, कोई छह बार, कोई पाँच बार, कोई चार बार, कोई तीन बार, कोई दो बार, कोई एक बार परिणमन करते हैं। अपकर्ष कालमें ही जीवोंके .. आयुबन्धके योग्य परिणमन स्वभावसे होता है। उसका कोई अन्य कारण नहीं है। आयुके
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७१४
गो० जीवकाण्डे
अष्टापकर्ष
ज००उ
८८1८
सप्तापकर्ष
ड
ज००उ ज००उ ८.७७ ७७७ । ज००उ । ज००उ ज००उ દાદા ७६६। ६।६।६।। ज००उ
ज०० ज००उ ज००उ |चतरपकर्ष ८.५।५। ७.५।५। ६।५।५। ५।५।५। ज००उ ज००उ ज००उ ज००उ | ज००उ
| त्रिकापकर्ष ८॥४॥४॥ ७।४।४। ६।४।४। ५।४।४।। ४।४।४। ज००उ । ज००उ ज००उ ज००उ | ज००उ ज००उ
द्विकापकर्ष ८१३३ । ७।३।३। ६।३३। ५।३।३। । ४३।३। । ३३॥३॥ ज००उ | ज००उ ज०० ज००उ | ज००उ | ज००उ । ज००उ । ८०२।२। । ७ ।। ६२।२। २२। [४।२।२। । ३।२।२। । २।२२। ज००उ | ज००उ ज००उ ज००उ ज००उ ज००उ ज००उ ज०० | ८३११ । ७.१२१॥ ६॥११॥ ५॥११ |४|११ । ३।१।१ । २१।१ ।१।१
तृतीयभागप्रथमसमयदोळाक्कैलंबरिंदं परभवायष्यबंधप्रारब्धमादोडवर्गळंतर्मुहूर्तदोळे बंधमं निष्ठापिसुवरु अल्लदोडे द्वितीयवारदोळु सर्वायुष्यदोळु नवमांशमवशेषमादळियं परभवायुबंधप्रायोग्यरप्परु । अथवा तृतीयवारदोळ सर्वायुस्थितियोळु सप्तविंशतिभागावशेषमादल्लियु परभवायुव्बंधप्रायोग्यरप्परिंतु शेषत्रिभागत्रिभागावशेषमागुत्तिरलु परभवायुबंधप्रायोग्यरप्परेंदितु नड.
एकापकर्ष
षष्टापकर्ष
अष्टापकर्ष
ज. उ सप्तापकर्ष ८ ८८ ८ ७ ७ ७ ७७
७ ६ ६ ८ ५ ५ । ७ ५ ५ ८ ४४ ७४ ४
مم
।
3»mr Our 3m or
६ ६ ६ ६ ५ ५ ६ ४ ४
6 6 6 6 6
م ه سه ر ہی
पंचापकर्ष
ज. उ चतुरपकर्ष ५ ५ ५ । ज. उ । श्यपकर्ष ५ ४ ४ ४ ४ ४ ज.उ द्वयपकर्ष
ज. उ एकापकर्ष ५ २ २ ४ २ २ ३ २ २ । ५११ । ४ ११.३ ११ । २११ । १११
८ २ २ । ७२२ ६२२ ८ ११ । ७ ११ । ६ १ १
२५
तृतीयभागप्रथमसमये यैः परभवायुर्बन्धः ते अन्तर्मुहूर्ते एव बन्धं निष्ठापयन्ति । अथवा द्वितीयवारे सर्वायुर्नवमांशावशेषेऽपि तद्बन्धप्रायोग्या भवन्ति । अथवा तृतीयवारे सर्वायुःसप्तविंशतिभागावशेषेऽपि प्रायोग्या
तीसरे भागके प्रथम समयमें जिन्होंने परभवकी आयुके बन्धका प्रारम्भ किया वे अन्तर्मुहूर्तमें ही बन्धको पूर्ण करते हैं। अथवा दूसरी बार पूरी आयुका नौवाँ भाग शेष रहनेपर भी आयुबन्धके योग्य होते हैं। अथवा तीसरी बार पूरी आयुका सत्ताईसवाँ भाग शेष रहनेपर भी आयुबन्धके योग्य होते हैं। इस प्रकार आठ अपकर्ष पर्यन्त जानना । किन्तु प्रत्येक
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७१५ सल्पडुवुटु । यावदष्टमापकर्षमन्नेवरं त्रिभागावशेषमागुत्तिरलायुष्यमं कट्टुवर देबेकांतमिल्लो दुटु आ आ एडेयोळु परभवायुबंधप्रायोग्यरप्परेंदु पेळल्पटुदक्कुं। निरुपक्रमायुष्यरुगळनपत्तितायुष्यरु मत्त देवनारकरु भुज्यमानायुष्यं षण्मासावशेषमागुत्तिरलु परभवायुबंधप्रायोग्यरप्परुमल्लियुमष्टापकषगळप्वुपु । समयाधिकपूर्वकोटियं मोदल्माडि त्रिपलितोपमायुष्यपय्यंतमादसंख्यातासंख्यातवर्षायुष्यरुगळप्प तिर्यग्मनुष्यभोगभूमिजरुगळं निरुपक्रमायुष्यरेंदु कैकोळूवुदु।
इल्लि अष्टापकर्षमं माडि परभवायुबंधमं माळ्प जीवंगळु सर्वतः स्तोकंगळु अवं नोडछु सप्ताकपंगाळदमायुबंधमंमाळ्प जीवंगळु संख्यातगुणंगळवं नोडलु षडपकर्षब्दिमायुबंधमं माळप जीवंगळु संख्यातगुणंगळवं नोडलु पंचापकर्षगळिंदमायुब्बंधमं माळप जीवंगळु सख्यातगुणंगळवं नोडलु चतुरपकर्षळिदमायुबंधमं माम्प जीवंगळु संख्यातगुणंगळवं नोडलु त्र्यपकषंगाळदमायुब्बधर्म माळप जीवंगळु संख्यातरुणंगळवं नोडलु द्वयपकर्षर्गाळदमायुबंधमं माळ्प जीवंगळु संख्यात- १० गुणंगळु अवं नोडलेकापकर्षदिदमायुबंधमं माळ्प जीवंगळु संख्यातगुणंगळप्पुववक्क संदृष्टिरचने । १३-१-११६-१-११३-१-११३-१-११३-१-११३-१-१ १३-१-१ | १३-१-१ /
! ११ । ११११११११११११११११११११११११११११११११२)
भवन्ति । एवमष्टमापकर्षपर्यन्तं ज्ञातव्यं । 'त्रिभागत्रिभागावशेषे सत्यायुर्बध्नन्ति एव इत्येकान्तो नास्ति तत्र तत्र परभवायुर्बन्धं प्रायोग्या भवन्तीति कथितं भवति । निरुपक्रमायुष्काः अनपवर्तितायुष्का देवनारका भुज्यमानायुषि षड्मासावशेषे सति परभवायुबन्धप्रायोग्या भवन्ति । अत्राप्यष्टापकर्षाः स्युः। समयाधिकपूर्वकोटिप्रभृतित्रिपल्योपमपर्यन्तं संख्यातासंख्यातवर्षायुष्कभोगभूमितिर्यग्मनुष्या अपि निरुपक्रमायुष्का इति ग्राह्यम् । अत्र च अष्टापकः परभवायुर्बन्धं कुर्वाणा जीवाः सर्वतः स्तोकाः, ततः सप्तापकर्षेः कुर्वाणाः संख्यातगुणाः । ततः विभागके शेष रहनेपर आयुबन्ध करते ही हैं। ऐसा एकान्त नहीं है। हाँ, त्रिभागोंमें आयुबन्धके योग्य होते हैं। निरुपक्रम आयुवाले देव और नारकी भुज्यमान आयुमें छह मास शेप रहनेपर परभवकी आयुबन्धके योग्य होते हैं। यहाँ भी छह महीने में त्रिभाग करके आठ अपकर्ष होते हैं । उनमें ही आयुबन्ध होता है। एक समय अधिक एक पूर्व कोटिसे १० लेकर तीन पल्य पर्यन्त संख्यात और असंख्यात वर्षकी आयवाले भोगभमिया. तियेच मनुष्य भी निरुपक्रम आयुवाले होते हैं। इनके आयुका नौ भास शेष रहनेपर आठ अपकर्षके द्वारा परभवके आयुका बन्ध होने के योग्य है। इतना ध्यानमें रखना चाहिए कि जिस गतिसम्बन्धी आयुका बन्ध प्रथम अपकर्ष में होता है, पीछे यदि द्वितीयादि अपकर्षोंमें आयुका बन्ध होता है, तो उसी गतिसम्बन्धी आयुका बन्ध होता है। यदि प्रथम अपकर्षमें आयुका , बन्ध नहीं होता, तो दूसरे अपकर्षमें जिस-किसी आयुका बन्ध होता है, तीसरे अपकर्षमें यदि । बन्ध हो,तो उसी आयुका बन्ध होता है। इस प्रकार कितने ही जीवोंके आयुका बन्ध एक ही अपकर्षमें होता है, कितनोंके दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात या आठ अपकर्षों में होता है। यहाँ आठ अपकर्षों के द्वारा परभवकी आयुका बन्ध करनेवाले जीव सनसे थोड़े होते १. ब. त्रिभागावशेषे ।
२०
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७१६
गो० जीवकाण्डे मत्तेंटपकषंगाळदमायुबंधमं माळ्पंगे अष्टमापकर्षदोळायुबंधाद्धि जघन्यं स्तोकमक्कु ॥२॥ मदरुत्कृष्टबंधाद्धि विशेषाधिकमक्कु २१।५ मदं नोडलं मत्तयुमष्टापकर्षगळिवमायुबंधमं माळपंगे सप्तमापकर्षदोळायुबंध जघन्याद्धि संख्यातगुणमक्कु २२५४ मदं नोडलदरुत्कृष्टबंधाद्धा विशेषाधिकमक्कु २१ । ५।४।५। मदं नोडलु सप्तापकर्षदोळायुबंधमं माळ्पंगे सप्तमापकर्षदोळायुबंधजघन्याद्धि संख्यातगुणमकु २१ । ५ । ४।५।४ मदं नोडलदरुत्कृष्टं विशेषाधिकमक्कु २१॥ ५॥ ४।५।४।५ मदं नोडलुमष्टापकर्षळिंव मायुबंधमं माळ्पन षष्ठापकर्षदोळायुबंधाद्धि जघन्यं संख्यातगुणमक्कु २७॥ ५ ॥ ४५ ॥ ४ । ५४ मदं नोडलदरुत्कृष्टं विशेषाधिकमक्कु २३।५।४।५।४।५।४।५ मदं नोडलु सप्तापकर्षळिदमायुबंधमं माळ्पन षष्ठापकर्षदोळ
४।४।४
षडपकर्षेः कुर्वाणाः संख्यातगुणाः । ततः पश्चापकर्षः कुर्वाणाः संख्यातगुणाः । ततश्चतुरपकर्षः कुर्वाणाः संख्यातगुणाः । ततस्त्र्यपकर्षः कुर्वाणाः संख्यातगुणाः । ततो द्वयपकर्षाम्यां कुर्वाणाः संख्यातगुणाः । ततः एकापकर्षेण कुर्वाणाः संख्यातगुणाः । संदृष्टिः१३-१-१ १३-१-१ १३-१-११३-१-१३१-१-११३-१-११३-१-११३-१-१ ११११११११ ११११११११११११११११११११११ १११ । ११ । १
पुनरष्टापकरायुर्बध्नतोऽष्टमापकर्षे आयुबन्धाद्धाजघन्यं स्तोकं २ १ । ततस्तदुत्कृष्टं विशेषाधिकं २१५ । ततोऽष्टापकर्षेरायुर्बध्नतः सप्तमापकर्षे आयुर्बन्धाद्धाजघन्यं संख्यातगुणं २ १ । ५ ४ । ततस्तदुत्कृष्टं विशेषाधिकं २०५।४।५ । ततः सप्तापकर्षेरायुर्वघ्नतः सप्तमापकर्षे आयुर्बन्धाता जघन्यं संख्यातगुणं २०५।४।५।४ ४।४
४।४ ततस्तदुत्कृष्टं विशेषाधिकं २१ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५। ततोऽष्टापकर्षे रायुर्बध्नतः षष्ठापकर्षे आयुर्बन्धाद्धा
४।४।४
हैं। सात अपकर्षों में आयुबन्ध करनेवाले उनसे संख्यात गुणे हैं। छह अपकर्षोंमें करनेवाले उनसे भी संख्यावगुणे हैं। पाँच अपकर्षोंमें करनेवाले उनसे भी संख्यातगुणे हैं। चार अपकर्षों में करनेवाले उनसे संख्यातगुणे हैं। तीन अपकर्षोंमें करनेवाले उनसे संख्यातगुणे है । दो अपकर्षों में करनेवाले उनसे संख्यातगुणे हैं और एक अपकर्ष में करनेवाले उनसे संख्यातगुणे हैं। आठ अपकर्षों के द्वारा आयुका बन्ध करनेवाले जीवके आठवे अपकर्षमें आयुबन्धका जघन्यकाल थोड़ा है। उससे उसका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। आठ अपकर्षोंके द्वारा आयुबन्ध करनेवाले जीवके सातवें अपकर्षमें आयुबन्धका जघन्य काल उससे संख्यातगुणा है। उससे उसका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। उससे सात
अपकर्षोंके द्वारा आयुबन्ध करनेवाले जीवके सातवें अपकर्षमें आयुबन्धका जघन्य काल २५ संख्यातगुणा है। उससे उसका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। उससे आठ अपकर्षों
.
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४४४४४
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७१७ आयुबंधमं माळ्प जघन्याद्धि संख्यातगुणमक्कु २२ । ५ । ४ । ५।४।५।४।५।मदं
४।४।४।४ नोडलदरुत्कृष्टं विशेषाधिकमक्कु २३ । ५ । ४ । ५।४।५।४।५॥ ४५ मदं नोडलं षडपकर्षगळिदमायुब्बंधमं माळ्पन षष्ठापकर्षदोळायुबंधमं माळपंगे जघन्यबंधाद्धि संख्यातगुणमक्कुं
२१ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ मदं नोडलदरुत्कृष्टबंधाद्धि विशेषाधिकमक्कु
२१ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४।५ मी प्रकारदिदमेकापकर्षदुत्कृष्टपथ्यंत नडसल्पडुगुमंतु नडसुत्तिरलु आयुबंधाद्धि विकल्पंगळेप्पत्तरडुप्पुवु-७२। मितायुबंधयोग्यंगळु
४।४।४।४।४।४।
जघन्यं संख्यातगुणं २ १ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ ततस्तदुत्कृष्टं विशेषाधिक २११५।४।५।४।५।४।५ । ततः ४। ४ । ४
४।४।४।४ सप्तापकर्षे रायुर्बघ्नतः षष्टापकर्षे आयुर्बन्धाद्धा जघन्यं संख्यातगुणं २१ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४
४।४।४। ४ ततस्तदुत्कृष्टं विशेषाधिक-२१ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ ततः षडपकरायुर्बघ्नतः षष्ठापकर्षे
४।४।४।४।४ आयुर्बन्धाद्धा जघन्यं संख्यातगण-२१ । ५। ४ । ५।४।५।४।५ । ४ । ५ । ४ ततस्तदुत्कृष्टं विशेषा
४।४।४।४।४
द्वारा आयुबन्ध करनेवाले जीवके छठे अपकर्षमें आयुबन्धका जघन्य काल संख्यातगुणा है। उससे उसका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। उससे सात अपकर्षोंके द्वारा आयुबन्ध करनेवाले जीवके छठे अपकर्ष में आयुबन्धका जघन्य काल संख्यातगुणा है। उससे उसका उत्कृष्ट काल विशेष अधिक है। उससे छह अपकर्षों के द्वारा आयुबन्ध करनेवाले जीवके छठे अपकर्ष में आयुबन्धका जघन्य काल संख्यातगुणा है। उससे उत्कृष्ट काल विशेष १५ अधिक है। इस प्रकार एक अपकर्षके उत्कृष्ट पर्यन्त ले जानेपर बहत्तर ७२ विकल्प होते हैं ।।५१८॥
विशेषार्थ-ऊपर टीकामें इन बहत्तर भेदोंकी रचना दिखायी है। उसमें आठ अपकर्षोंके द्वारा आयुबन्धकी रचनामें पहली पंक्तिके कोठोंमें जो आठ-आठका अंक रखा है, वह यह बतलाता है कि यहाँ आठ अपकर्षों के द्वारा आयु बाँधनेवालोंका ग्रहण जानना । दूसरी• २० तीसरी पंक्तिमें जो आठसे लेकर एक तक अंक लिखे हैं, उनसे यह बतलाया है कि आठ अपकर्षों के द्वारा बन्ध करनेवाले जीवके आठवें आदि अपकर्षोंका प्रहण किया गया है । जिसमें-से दूसरी पंक्तिमें जघन्य कालको लेकर और तीसरी पंक्तिमें उत्कृष्ट कालको लेकर ग्रहण किया है। इसी प्रकार सातसे लेकर एक अपकर्ष तक आयुबन्धकी रचनाका अर्थ जानना। आठों रचनाओंके दूसरी और तीसरी पंक्तिके सब कोठे जिनके ऊपर ज और उ २५ लिखा है. बहत्तर हैं। इन बहत्तर स्थानोंमें आयुबन्धके कालका अल्पबहुत्व इस प्रकार जानना। विवक्षित जघन्यमें संख्यातका भाग देनेपर जो प्राप्त हो, उतना विशेषका प्रमाण जानना । उसको जघन्यमें जोड़नेपर उत्कृष्टका प्रमाण होता है, उत्कृष्टसे आगेका जघन्य संख्यातगुणा जानना । सामान्यसे सबका काल अन्तमुहूत है।
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खलु जीवाः।
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गो. जीवकाण्डे लेश्यामध्यमांशंगळे टप्पुवष्टापकर्षगळिनवरुत्पत्तिक्रममं पेन्दनंतरं शेषाष्टादशांशंगळु चतुर्गतिगमनकारणंगळेदु पेळ्दपं ।
सेसट्ठारस अंसा चउगइगमणस्स कारणा होति ।।
सुक्कुक्कस्संसमुदा सव्वळें जांति खलु जीवा ॥५१९॥ शेषाष्टादशांशाश्चतुर्गतिगमनस्य कारणानि भवंति। शुक्लोत्कृष्टांशमृताः सर्वात्थं यांति
आयुर्बधनयोग्यलेश्यामध्यमांशंगळनेंट कळेदुळिदष्टादशळेश्यांशंगळु चतुर्गतिगमनकारणं गळप्पुववरोळु शुक्ललेश्योत्कृष्टांशदिदं मृतराद जीवंगळु सर्वार्थसिद्धीद्रकदोळु यांति पुटुवरु खलु नियदिदं।
अवरंसमुदा होति सदारदुगे मज्झिमंसगेण मुदा ।
आणदकप्पादुवरिं सव्वट्ठाइल्लगे होंति ॥२०॥ अवरांशमृता भवंति शतारद्विके मध्यमांशेन मृताः। आनतकल्पादुपरि सर्वादिमके भवंति।
शुक्ललेश्या जघन्यांशदिदं मृतराद जोवंगळु शतारसहस्रारकल्पद्विकदोळु भवंति पुटुवरु । शुक्ललेश्यामध्यमांशदिदं मृतराद जीवंगळु आनतकल्पदिदं मेले सर्वार्थसिद्धीद्रकक्कादियागिई विजयादिविमानावसानमादुदवरोळु यथासंभवमागि भवंति पुटुवरु।
पम्मुक्कस्संसमुदा जीवा उवजांति खलु सहस्सारं ।
अवरंसमुदा जीवा सणक्कुमारं च माहिंदं ॥५२१॥ _पद्मोत्कृष्टांशमृताः जीवा उपयांति खलु सहस्रारं। अवरांशमृता जीवाः सनत्कुमारं च
२० माहेंद्र॥
धिकं २१ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ । ४ । ५ एवमेकापकर्षस्योत्कृष्टपर्यन्तं नीते द्वासप्तति
४।४।४।४।४।४ विकल्पा भवन्ति ७२ एवमायुर्बन्धयोग्ये लेश्यामध्यमांशानामष्टानामष्टापकर्षेरुत्पत्तिक्रम उक्तः ॥५१८॥
तेभ्यो मध्यमांशेभ्यः शेषाः अष्टादशांशाः चतुर्गतिगमनकरणानि भवन्ति । तेषु मध्ये शुक्ललेश्योत्कृष्टांशेन मृता जीवाः सर्वार्थसिद्धीन्द्रके यान्ति-उत्पद्यन्ते खलु नियमेन ॥५१९॥
शुक्ललेश्याजघन्यांशेन मृता जीवाः शतारसहस्रारकल्पद्विके भवन्ति-उत्पद्यन्ते । शुक्ललेश्यामध्यमांशेन मृता जीवाः आनतकल्पादुपरिसर्वार्थसिद्धीन्द्रकस्यादिमविजयादिविमानपर्यन्तेषु यथासंभवमुत्पद्यन्ते ॥५२०॥
इस प्रकार आयुबन्धके योग्य लेश्याके आठ मध्यम अंशोंकी आठ अपकर्षोंके द्वारा उत्पत्तिका क्रम कहा ।।५१८।।
उन मध्यम अंशोंसे शेष रहे अठारह अंश चारों गतियोंमें गमनके कारण होते हैं। ३० उनमें से शुक्ललेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे जीव सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रक विमानमें नियमसे उत्पन्न होते हैं ॥५१९।।
शुक्ललेश्याके जघन्य अंशसे मरे जीव शतार-सहस्रार कल्पोंमें उत्पन्न होते हैं। शुक्ललेश्याके मध्यम अंशसे मरे जीव आनतकल्पसे ऊपर और सर्वार्थसिद्धि नामक इन्द्रकके विजयादि विमान पर्यन्त यथासम्भव उत्पन्न होते हैं ॥५२०।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७१९ पद्मलेश्योत्कृष्टांशदिदं मृतराद जीवंगळु सहस्रारमुपयांति सहस्रारकल्पोळ पुटुवरु खलु स्फुटमागि । पद्मलेश्याजघन्यांशदिदं मृतराद जीवंगळु सनत्कुमारं च माहेंद्रमुपयांति सनत्कुमार कल्पदोलं माहेंद्रकल्पदोलं पुटुवरु।
मज्झिमअंसेण मुदा तम्ममं जांति तेउजेट्ठमुदा ।
साणक्कुमारमाहिदंतिमचक्किदसेदिम्मि ॥५२२॥ मध्यमांशेन मृताः तन्मध्यं यांति तेजोज्येष्ठमृताः सानत्कुमारमाहेंद्रांतिमचक्रंद्रकश्रेण्यां।
पद्मलेश्यामध्यमांशदिदं मृतराद जीवंगळु तन्मध्यं यांति सहस्रारकल्पदिदं केळी सानुत्कुमारमाहेंद्रकल्पंगळिदं मेले यथासंभवरागि पुटुवरु । तेजोलेश्योत्कृष्टांशदिदं मृतराद जीवंगळु सानत्कुमारमाहेंद्रकल्पंगळ चरमपटलचक्रंद्रकप्रणिधिगतश्रेणीबद्धविमानंगळोळ्पुटुवरु।
अवरंसमुदा सोहम्मीसाणादिमउडुम्मि सेढिम्मि ।
मज्झिम अंसेण मुदा विमलविमानादिबलभद्दे ।।५२३॥ अवरांशमृताः सौधम्र्मेशानादिभूतऋत्वींद्रके श्रेण्यां। मध्यमांशेन मृताः विमलविमानादिबलभद्रे।
तेजोलेश्याजघन्यांशदिदं मृतराद जीवंगळु सौधर्मेशानकल्पंगळादिभूतऋत्वींद्रकदोळं श्रेणीबद्धदोळं पुटुवर। तेजोलेश्यामध्यमांशदिदं मृतराद जीवंगलु सौधर्मेशानकल्पद्वितीयपटल-.. दिद्रकं विमलविमानमदु मोदलागि सानत्कुमारमाहेंद्रकल्पंगळ द्विचरमपटलदिंद्रकं बलभद्रविमानमक्कु मल्लि पथ्यंतं पुटुवरु।
पद्मलेश्योत्कृष्टांशेन मृता जीवाः सहनारकल्पमुपयान्ति खलु स्फुटम् । पद्मलेश्याजघन्यांशेन मृता जीवाः सानत्कुमारं माहेन्द्रं चोपयान्ति ॥५२१॥
पद्मलेश्यामध्यमांशेन मृता जीवाः सहस्रारकल्पादधः सानत्कुमारमाहेन्द्रद्वयादुपरि यथासंभवमुत्पद्यन्ते । तेजोलेश्योत्कृष्टांशेन मृता जीवाः सानत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोश्चरमपटलचक्रेन्द्रकप्रणिधिगतश्रेणीबद्धविमाने- षत्पद्यन्ते ॥५२२॥
तेजोलेश्याजघन्यांशेन मृता जीवाः सौधर्मशानकल्पयोरादिभूतऋत्विन्द्रके श्रेणीबद्धे चोत्पद्यन्ते । तेजोलेश्यामध्यमांशेन मृता जीवाः सौधर्मशानकल्पद्वितीयपटलस्येन्द्रकं विमलनामकमादिं कृत्वा सानत्कुमारमाहेन्द्र द्विचरमपटलस्येन्द्रकं बलभद्रनामकं तत्पर्यन्तम् उत्पद्यन्ते ॥५२३॥
पद्मलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे जीव सहस्रारकल्पमें उत्पन्न होते हैं। पद्मलेश्याके जघन्य अंशसे मरे जीव सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गोंमें उत्पन्न होते हैं ।।५२१॥
पद्मलेश्याके मध्यम अंशसे मरे जीव सहस्रारकल्पसे नीचे और सानत्कुमार-माहेन्द्रसे ऊपर यथासम्भव उत्पन्न होते हैं। तेजोलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे जीव सानत्कुमारमाहेन्द्र कल्पके अन्तिम पटल चक्रेन्द्रक सम्बन्धी श्रेणीबद्ध विमानोंमें उत्पन्न होते हैं ॥५२२॥
तेजोलेश्याके जघन्य अंशसे मरे जीव सौधर्म- ऐशान कल्पके प्रथम ऋतु नामक इन्द्रकके श्रेणिबद्ध विमानों में उत्पन्न होते हैं। तेजोलेडयाके मध्यम अंशसे मरे जीव सौधर्मऐशान कल्पके द्वितीय पटलके विमल नामक इन्द्रकसे लेकर सानत्कुमार-माहेन्द्रके द्विचरम पटलके बलभद्र नामक इन्द्रक पर्यन्त उत्पन्न होते हैं ॥५२३।।
पालेश्याक २५
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७२०
गो० जीवकाण्डे
किण्हवरसेण मुदा अवधिट्ठाणम्मि अवरअंसमुदा ।
पंचमचरिमतिमिस्से मज्झे मज्झेण जायते ॥५२४।। कृष्णवरांशेन मृताः अवधिस्थाने अवरांशमृताः। पंचमचरमतिमिश्रे मध्ये मध्येन जायते ॥५२४॥
कृष्णलेश्योत्कृष्टांशदिद मृतराद जीवंगळु सप्तमपृथ्वियोळोदे पटलमक्कुमदरवधिस्थानेद्रकबिलदोळु जायते पुटुवरु। कृष्णलेश्याजघन्यांशदिदं मृतराद जीवंगळु पंचमपृथ्विय चरमपटलद तिमिङद्रकबिलदोळु जायंते पुटुवरु । कृष्णलेश्यामध्यमांशदिदं मृतराद जीवंगळु सप्तमपृथ्विय अवधिस्थानेंद्रकदे चतुःश्रेणिबद्धंगळोळं आ बिलदिदं मेलण षष्ठ पृथ्विमघवियें बुददर पटलत्रयंगलोळु तत्तद्योग्यमागि जायते पुटुवरु।
णीलुक्कस्संसमुदा पंचमअंधिंदयम्मि अवरमुदा ।
वालुकसंपज्जलिदे मज्झे मज्झेण जायंते ।।५२५॥ नीलोत्कृष्टांशमृताः पंचम अंधेद्रके अवरमृताः । बालुकासंप्रज्वलिते मध्ये मध्येन जायते ॥
नोललेश्योत्कृष्टांशदिदं मृतराद जीवंगळु पंचमपृथ्वियपटलपंचकदोळु द्विचरमपटलद अंबेंद्रकबिलदोळु जायंते पुटुवरु । पंचमपटलदोळं केलंबरु पुटटुवरदु कारणमागि पंचमारिष्टेयोळु १५ चरमपटलदोळ कृष्णलेश्याजघन्यांशदिदं नीललेश्योत्कृष्टांशदिदमुं, मृतराद केलवु जीवंगळ पटुवर बी विशेषमरियल्पडुगुं । नीललेश्याजधन्यांशदिदं मृतराद जीवंगळु बालुकाप्रभेयनवपटलं.
कृष्णलेश्योत्कृष्टांशेन मृता जीवाः सप्तमपृथिव्यामेकमेव पटलं तस्यावधिस्थानेन्द्रके जायन्ते । कृष्णलेश्याजघन्यांशेन मता जीवाः पञ्चमपृथ्वीचरमपटलस्य तिमिस्रेन्द्र के जायन्ते । कृष्णलेश्यामध्यमांशेन मता जीवाः तदवधिस्थानेन्द्रकस्य चतुःश्रेणीबद्धेषु षष्टपृथ्वीपटल त्रये पञ्चमपृथ्वीचरमपटले च तत्तद्योग्यतया जायन्ते ॥५२४।।
नीललेश्योत्कृष्टांशेन मृता जीवाः पञ्चमपथ्वीद्विचरमपटलस्यान्ध्रन्द्रके जायन्ते । केचित् पञ्चमपटलेऽपि जायन्ते । ततोऽरिष्टाचरमपटले कृष्णलेश्याजघन्यांशेन नीललेश्योत्कृष्टांशेनापि मृताः केचिज्जीवाः उत्पद्यन्ते ।
कृष्णलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे जीव सातवीं पृथिवीमें एक ही पटल है , उसके अवधिस्थान नामक इन्द्रक बिलमें उत्पन्न होते हैं। कृष्णलेश्याके जघन्य अंशसे मरे जीव
पाँचवीं पृथ्वीके अन्तिम पटल सम्बन्धी तिमिस्र नामक इन्द्रक बिलमें उत्पन्न होते हैं। २५ कृष्णलेश्याके मध्यम अंशसे मरे जीव अवधिस्थान नामक इन्द्रकके चारों दिशा सम्बन्धी
श्रेणीबद्ध बिलोंमें, छठी पृथ्वीके तीनों पटलोंमें और पाँचवीं पृथ्वीके अन्तिम पटलमें अपनीअपनी योग्यतानुसार उत्पन्न होते हैं ।।५२४।।
नीललेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे जीव पाँचवीं पृथ्वीके द्विचरम पटलके आन्ध्रेन्द्रकमें उत्पन्न होते हैं। कोई-कोई पाँचवें पटलमें भी उत्पन्न होते हैं। अरिष्ट पृथ्वीके अन्तिम ३० पटल में कृष्णलेश्याके जघन्य अंशसे और नीललेश्याके उत्कृष्ट अंशसे भी मरे कोई-कोई जीव
उत्पन्न होते हैं, इतना विशेष जानना। नीललेश्याके जघन्य अंशसे मरे जीव बालुकाप्रभा नामक तीसरी पृथ्वीके नौ पटलोंमें-से अन्तिम पटल सम्बन्धी संप्रज्वलित इन्द्रकमें उत्पन्न १. म क बिलदिदं मेले षष्टपृथ्वि मघवियोलु पंचमपृथ्वि, अरिष्टेयेबुददर पटल पंचकदोलु चरमपटलदिदं
केलगे षष्ठ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७२१ गळोळु चरमपटलद संप्रज्वलितेंद्रकविलिबदोछु जायते पुटुवरु । नीललेश्यामध्यमांशदोळु मृतराद जीवंगळु तृतीयपश्विमेघयनवपटलद संप्रज्वलितेंद्रकबिलदिदं लगे चतुर्थपृथ्वि अंजनेय पटलसप्तकंगळोळु पंचमपृथ्विअरिष्टेय पटलपंचकंगळोळु चतुर्थपटलद अंधेद्रकबिलदिलदिदं मेले मध्यदोळु यथायोग्यमागि जायंते पुटुवरु।
वरकाओदंसमुदा संजलिदं जांति तदियणिरयस्स ।
सीमंतं अवरमुदा मज्झे मज्झेण जायते ॥५२६॥ उत्कृष्टकपोतांशमृताः संज्वलितं यांति तृतीयनरकस्य । सोमंतं अवरमृताः मध्ये मध्येन जायते ॥
___ कपोतलेश्योत्कृष्टांगदिदं मृतराद जीवंगळु तृतीयपृथ्विमेघेय नवपटलंगळोळु द्विचरमाष्टमपटलद संज्वलितेंद्रकदोळपुटुवर । कलंबरुगलु चरमसंप्रज्वलितेंद्रकबिलदोळं पुटुवरेबो १० विशेषमरियल्पडुगुं। कापोतलेश्याजघन्यांशदिदं मृतराद जीवंगळु सोमंतं यांति घम्मे य प्रथमपटलद सीमंतेंद्रकबिलदोम्पुटुवरु।
कापोतलेश्यामध्यमांशदिदं मृतराद जीवंगळु सोमंतेंद्रकदिद केळगण पन्नेरडु पटलंगळोळं मेघय द्विचरमसंज्वलितेंद्रकबिलविंद मेलण पटलंगळोळेळरोळ द्वितीयपृथ्विवंशेय पन्नोंदु पटलं. गळोळं यथायोग्यमागि पुटु वरु। इति विशेषो ज्ञातव्यः । नीललेश्याजेघन्यांशेन मृता जीवाः बालुकाप्रभानवपटलेषु चरमपटलस्य संप्रज्वलितेन्द्रके जायन्ते । नीललेश्यामध्यांशेन मृताः जीवाः तृतीयपृथ्वीनवमपटलस्य संप्रज्वलितेन्द्र कादधश्चतुर्थपृथ्वीपटलसप्तके पञ्चमपृथ्वीचतुर्थपटलस्यान्धेन्द्रकादुपरि यथायोग्यं जायन्ते ॥२५॥
कापोतलेश्योत्कृष्टांशेन मृता जीवाः तृतीयपृथ्वीनवपटलेषु द्विचरमाष्टमपटलस्य संज्वलितेन्द्र के उत्पद्यन्ते। केचित चरमसंप्रज्वलितेन्द्र केऽपीति विशेषोऽवगन्तव्यः । कापोतलेश्याजघन्यांशेन मृता जीवाः धर्माप्रथमपटलस्य . सीमन्तेन्द्रके उत्पद्यन्ते । कापोतलेश्यामध्यमांशेन मृता जीवाः सीमन्तेन्द्रकादधस्तनद्वादशपटलेषु मेघाया द्विचरमसंज्वलितेन्द्र कादुपरितनसप्तमपटलेषु द्वितीयपृथ्व्येकादशपटलेषु च यथायोग्यमुत्पद्यन्ते ।।५२६॥ होते हैं। नीललेश्याके मध्यम अंशसे मरे जीव तीसरी पृथ्वीके नौवें पटलके संप्रज्वलित इन्द्रक बिलेसे नीचे और चतुर्थ पृथ्वीके सातों पटलोंमें तथा पंचम पृथ्वीके चतुर्थ पटल सम्बन्धी आन्ध्रेन्द्रकसे ऊपर यथायोग्य उत्पन्न होते हैं ॥५२५॥
२५ कापोतलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे जीव तीसरी पृथ्वीके नौ पटलोंमें-से द्विचरम आठवें पटलके संज्वलित इन्द्रक विलमें उत्पन्न होते हैं। कोई-कोई अन्तिम संप्रज्वलित इन्द्रकमें भी उत्पन्न होते हैं, यह विशेष जानना । कापोतलेश्याके जघन्य अंशसे मरे जीव धर्मा नामक प्रथम पृथ्वोके प्रथम पटल सम्बन्धी सीमन्त इन्द्रकमें उत्पन्न होते हैं। कापोतलेश्याके मध्यम अंशसे मरे जीव सीमन्त इन्द्रकसे नीचेके बारह पटलोंमें मेघा नामक तीसरी पृथ्वीके ३० द्विचरम संज्वलित इन्द्रकसे ऊपरके सात पटलोंमें और दूसरी पृथ्वीके ग्यारह पटलोंमें यथायोग्य उत्पन्न होते हैं ।।५२६॥ १. म लेगलेलरोल । २. जघन्यांशेनापि मृता. । मु. । ३. ल. संप्रज्वं ।
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७२२
१०
गो० जीवकाण्डे किण्हचउक्काणं पुण मज्झंसमुदा हु भवणगादितिये ।
पुढवी-आउवणप्फइजीवेसु हवंति खलु जीवा ।।५२७॥ कृष्णचतुष्काणां पुनः मध्यमांशमृताः खलु भवनगादित्रये । पृथिव्यपवनस्पतिजीवेषु भवंति खलु जीवाः॥
कृष्णनीलकापोततेजोलेश्याचतुष्टयद मध्यमांशंर्गाळदं मृतराद कर्मभूमितिर्यग्मनुष्यरुं भोगभूमितिर्यग्मनुष्यरु भवनत्रयदोलु भवंति परिणमंति पटुवर । खलु यथायोग्यमागि भोगभूमिजतिय॑ग्मनुष्यमिथ्यादृष्टिगळु तेजोलेश्यामध्यमांशदिदं मृतरादवर्गळ : भवनत्रयदोळु पुटुव कारणदिदं तेजोलेश्यासंभवमुमरियल्पडुगुं । तु मत्ते कृष्णादिचतुर्लेश्यामध्यमांशंगळिदं मृतराद तिर्यग्मनुष्यरुं भवनवानज्योतिषिकरं सौधर्मेशानकल्पजरुगळमप्प मिथ्यादृष्टिजीवंगळु बादरपर्याप्तपृथ्वीकायिकजीवंगळोळं बादरपर्याप्ताप्कायिकजीवंगळोळं पर्याप्तवनस्पतिकायिकजीवंगळोळं भवंति–परिणमंति पुटुवरु । भवनत्रयादि जीवंगळपेक्षेइनिल्लियु तेजोलेश्यासंभवमरियल्पडुगुं।
किण्हतियाणं मज्झिमअसंमुदा तेउवाउवियलेसु ।
सुरणिरया सगलेस्सहि णरतिरियं जांति सगजोगं ॥५२८॥ कृष्णत्रयाणां मध्यमांशमृताः तेजोवायुविकलेषु । सुरनारकाः स्वलेश्याभिन्नरतिरश्चो यांति स्वयोग्यं ॥
कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयंगळ मध्यमांशदिदं मृतराद तिर्यग्मनुष्यरुगळु तेजस्कायिकवायुकायिकविकलत्रेय असंजिपंचेंद्रियसाधारणवनस्पतिगळेबो जीवंगळोल जांति जायते पुटुवरु ।
अत्र पुनःशब्दो विशेषप्ररूपकोऽस्ति । तेन कृष्णादित्रिलेश्यामध्यमांशमृताः कर्मभूमितिर्यग्मनुष्यमिथ्यादृष्टयः २० तेजोलेश्यामध्यमांशमृताः भोगभूमितिर्यग्मनुष्यमिथ्यादृष्टयश्च भवनत्रये खलु उत्पद्यन्ते इति ज्ञातव्यम् । तु पुनः,
कृष्णादिचतुर्लेश्यामध्यमांशमृततिर्यग्मनुष्यभवनत्रयसौधर्मशानमिथ्यादृष्टयः बादरपर्याप्तपृथ्व्यप्कायिकेषु पर्याप्तवनस्पतिकायिकेषु चोत्पद्यन्ते । भवनत्रयाद्यपेक्षया अत्रापि तेजोलेश्यासंभवो बोद्धव्यः ॥५२७॥
कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रर्यस्य मध्यमांशमृततिर्यग्मनुष्याः तेजोवायुविकलत्रयासंज्ञिसाधारणवनस्पतिजीवेषु
इस गाथामें 'पुनः' शब्द विशेष कथनका सूचक है । अतः कृष्ण आदि तीन लेश्याओं२५ के मध्यम अंशसे मरे कर्मभूमिके मिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्य तथा तेजोलेश्याके मध्यम
अंशसे मरे भोगभूमि या मिथ्यादृष्टि तिर्यच और मनुष्य भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषीदेवोंमें उत्पन्न होते हैं, यह जानना । तथा कृष्ण आदि चार लेश्याके मध्यम अंशसे मरे तियंच, मनुष्य, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और सौधर्म-ऐशान स्वर्गके देव, ये सब मिथ्यादृष्टि
बादर पर्याप्तक पृथ्वीकायिक, जलकायिक और वनस्पतिकायिकोंमें उत्पन्न होते हैं। भवन३० त्रिककी अपेक्षा यहाँ भी तेजोलेश्या सम्भव है, यह जानना ॥५२७॥
कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्याओंके मध्यम अंशसे मरे तिथंच और मनुष्य तेजः१. क पर्याप्तबादरप्रत्येकवनं। २. मयंगलेबी। ३. ब. अत्रापि तेजोलेश्या भवनत्रयाद्यपेक्षयैव । ४. ब वयम ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७२३ भवनत्रयं मोदलागि सर्वांत्य सिद्धिजखसानमाद सुररु घम्में मोदलागि अवधिस्थानावसानमाद नारकरुं स्वस्वलेश्यानुगमप्प नरत्वमुमं तिर्यक्त्वमुमं यांति येय्दुवरु । एलनेय गत्यधिकारं तिर्नु । अनंतरं स्वाम्याधिकारमं गाथासप्तदिदं पेन्द
काऊ काऊ काऊ णीला णीला य णीलकिण्हा य ।
किण्हा य परमकिण्हा लेस्सा पढमादिपुढवीणं ॥५२९।। कापोती कापोती तथा कापोती नीले नीला च नीलकृष्णे च । कृष्णा च परमकृष्णा लेश्याः प्रथमादिपृथ्वीनां ॥
घादिसप्तपृथ्विगळ नारकर, यथासंख्यमागि घमेय नारक कपोतलेश्याजघन्यमक्कुं। वंशयनारकणे कपोतलेश्यामध्यमांशमक्कुं। मेघेय नारकर कपोतलेश्योत्कृष्टमुं नीललेश्याजघन्यांशमुमक्कु । अंजनेय नारकग्नं नीललेश्यामध्यमांशमक्कु। अरिष्टय नारकर्गे नीललेश्योत्कृष्टमु कृष्णलेश्याजघन्यांशमुमक्कु। मघविय नारकर्ग कृष्णलेश्यामध्यांशमक्कु। माघविय नारकर्ने । कृष्णलेश्योत्कृष्टांशमुमक्कु।
णरतिरियाणं ओघो इगिविगले तिण्णि चउ असण्णिस्स ।
सण्णि-अपूण्णगमिच्छे सासणसम्मे वि असहतियं ॥५३०॥ नरतिरश्चामोघ एकविकले तिस्रः चतस्रोऽसंज्ञिनः संज्यपूर्णमिथ्यादृष्टौ सासादनसम्यग्दृष्टा- ... वप्यशुभत्रयो॥
नरतिरश्चामोघः नरतिय्यंचरुगळ्गे प्रत्येकं सामान्योक्त षड्लेश्यगळप्पुववरोळु तिय्यंचरोळु एकविकलेषु एकेंद्रियजीवंगळ्गं विकलत्रयजीवंगळ्गं तिस्रः कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयमेयक्कु। उत्पद्यन्ते । भवनत्रयादि सर्वार्थसिद्धयन्तसुराः धर्माद्यवधिस्थानान्तनारकाश्च स्वस्वलेश्यानुगं नरतिर्यक्त्वं यान्ति ॥५२८॥ इति गत्यधिकारः ॥ अथ स्वाम्यधिकारं गाथासप्तकेनाह
प्रथमादिपृथ्वीनारकाणां च लेश्योच्यते-तत्र धर्मीयां कापोतजघन्यांशः । वंशायां कापोतमध्यमांशः । मेघायां कापोतोत्कृष्टांशनीलजघन्यांशी। अंजनायां नीलमध्यमांशः । अरिष्टायां नीलोत्कृष्टांशकृष्णजधन्यांशो । मघव्यां कृष्णमध्यमांशः । माघव्यां कृष्णोत्कृष्टांशः ॥५२९।।
नरतिरश्चां प्रत्येकं ओघः सामान्योत्कृष्टषट्लेश्याः स्युः । तत्र एकेन्द्रियविकलत्रयजीवेषु तिस्रः कृष्णाकायिक, वायुकायिक, विकलत्रय, असंज्ञिपंचेन्द्रिय और साधारण वनस्पति जीवोंमें उत्पन्न होते हैं। भवनत्रिकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त देव और धर्मा पृथिवीसे लेकर सातवीं ' पृथ्वी तकके नारकी अपनी-अपनी लेश्याके अनुसार मनुष्य और तियच होते हैं ॥५२८।।
गतिअधिकार समाप्त हुआ। आगे सात गाथाओंसे स्वामी अधिकार कहते हैं
प्रथम पृथ्वी आदिके नारकियोंको लेश्या कहते हैं-धर्मामें कपोतलेश्याका जघन्य अंश है । वंशामें कपोतका मध्यम अंश है। मेघामें कपोतका उत्कृष्ट अंश और नीलका जघन्य ३० अंश है। अंजनामें नीलका मध्यम अंश है। अरिष्टामें नीलका उत्कृष्ट अंश और कृष्णका जघन्य अंश है । मघवीमें कृष्णका मध्यम अंश है। माधवीमें कृष्णका उत्कृष्ट अंश है ।।५२९॥
मनुष्यों और तियचोंमें-से प्रत्येकमें 'ओघ' अर्थात् सामान्यसे छहों लेश्या होती हैं।
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१०
७२४
गो० जीवकाण्डे चतस्रोऽसंज्ञिनः असंज्ञिपंचेंद्रियपर्यापजीवंगे कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयमु तेजोलेश्ययुमक्कुमेकेदाडा असंज्ञिजीवं कपोतलेश्यायदं मृतनागि धर्म योळपुटुगुं। तेजोलेोयदं मृतनागि भवनव्यंतरदेवगतिद्वयदोळपुटुगुमशुभलेश्यात्रयदिदं मृतनागि नरतिर्यग्गतिद्वयदोळ्पुटुवनप्पुदरिदं । संज्यपूर्णमिथ्यादृष्टौ संजिपंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकनोळं मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकनोळं अपि शब्ददिदमसंज्ञिपंचेद्रियलब्ध्यपर्याप्तकनोळं सासादनसम्यग्दृष्टौ निवृत्त्यपर्याप्तकसासादननोलमासासादननु ।
[णिरयं सासणसम्मो ण गच्छदित्ति य ण तस्स णिरयाणू । एंदु, - "णहि सासादणो अपुण्णे साहारणसुहुमगे य तेउदुगे॥" एंदितु ]
लब्ध्यपर्याप्तकरोळं साधारणजीवंगळोळं नारकरोळं सूक्ष्मजीवंगळोळ तेजस्कायिकंगळोळं वातकायिकंगळोळ संभविसनप्पुरिदं भवनत्रयापर्याप्तकरोळ शेषतिर्यग्मनुष्यरोळ संभविसुगुमा निर्वृत्यपर्याप्तकसासादननोळं अशुभत्रयो कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयमेयकुं । तिर्यग्मनुष्योपशमसम्यग्दृष्टिगळु तत्कालाभ्यंतरदोळु सुष्ठु संक्लिष्टरादोडमवर्गळगे देशसंयतरोळे तंते कृष्णनीलकपोतलेश्यात्रयंगळागवेदितु तद्विराधकसासादननोळु पर्याप्तविषयदोळशुभलेश्यात्रयमेयक्कुमें दरिवुदु।
भोगापुण्णगसम्मे काउस्स जहणियं हवे णियमा।
सम्मे वा मिच्छे वा पज्जत्ते तिण्णि सुहलेस्सा ॥५३१॥ भोगापूर्णसम्यग्दृष्टौ कापोतस्य जघन्यं भवेन्नियमात् । सम्यग्दृष्टौ वा मिथ्यादृष्टौ वा पर्याप्ते तिस्रः शुभलेश्याः॥ द्यशुभलेश्या एव । असंज्ञिपर्याप्तस्य तत्त्रयं तेजोलेश्या च, कुतः ? तस्य कपोतमृतस्य धर्मायां तेजोमृतस्य भवनव्यन्तरयोरशुभत्रयमृतस्य संज्ञिनरतिर्यग्गत्योश्च उत्पादात् । संज्ञिलब्ध्यपर्याप्तकतिर्यग्मनुष्यमिथ्यादृष्टी अपिशब्दादसंज्ञिलब्ध्यपर्याप्तके तिर्यग्मनुष्यभवनत्रयनिर्वृत्त्यपर्याप्तकसासादने च कृष्णाद्यशुभत्रयमेव । तिर्यग्मनुष्योपशमसम्यग्दृष्टोनां सम्यक्त्वकालाभ्यन्तरे सुष्ठु संक्लेशेऽपि देशसंयतवत् तत्त्रयं नास्ति तथापि तद्विराधकसासादनापर्याप्तानामस्तीति ज्ञातव्यम् ॥५३०॥ उनमें से एकेन्द्रिय और विकलत्रय जीवोंमें कृष्णादि तीन अशुभ लेश्या ही होती हैं। असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके कृष्णादि तीन और तेजोलेश्या होती है। क्योंकि यदिवह कापोतलेश्यासे मरता है, तो घर्मा नरकमें उत्पन्न होता है । तेजोलेश्यासे मरता है, तो भवनवासी और व्यन्तरोंमें उत्पन्न होता है। और यदि तीन अशुभ लेश्याओंसे मरता है,तो मनुष्यगति, तिर्यच गतिमें उत्पन्न होता है। संज्ञी लब्ध्यपर्याप्तक तियंच और मनुष्य मिथ्यादृष्टि में 'अपि' शब्दसे असंज्ञी लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचमें तथा सासादन गुणस्थानवर्ती निवृत्यपर्याप्त तिथंच, मनुष्य और भवनत्रिकमें कृष्णादि तीन अशुभलेश्या ही होती हैं । उपशम सम्यग्दृष्टि तिथंच और
मनुष्योंके सम्यक्त्वकालके भीतर अतिसंक्लेशमें भी देशसंयतकी तरह तीन अशुभ लेश्या नहीं ३० होती है। तथापि उपशम सम्यक्त्वके विराधक सासादन सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त अवस्था में
अशुभ लेश्या होती है ।।५३०॥
१. म प्रतौ कोष्ठान्तर्गतपाठो नास्ति ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
निर्वृत्यपर्य्याकनप्प भोगभूमिजसम्यग्दृष्टियोलु कापोतस्य जघन्यं कापोतलेश्याजघन्यांशमक्कुमे दोर्ड कर्मभूमिजरप्प नरतिय्यंचरु प्राग्बद्धायुष्यरु पश्चात् क्षायिक सम्यक्त्वमनागलु वेदकसम्यक्त्वमनागल स्वीकरिसि तदत्यजनदिदं तत्रोत्पत्ति संभवमप्पुर्दारदं तद्योग्य संक्लेशपरिणामपरिणत बुदत्थं ।
आ भोगभूमियो पर्याप्तियिदं मेले सम्यग्दृष्टियोळं मेण्मिथ्यादृष्टियोळं मेणु शुभलेश्यात्रयमेवकुं ।
अयदोत्तिछलेस्साओ सुहतियलेस्सा हु देसविरदतिये | तत्तो सुक्का लेस्सा अजोगिठाणं अलेस्सं तु ॥ ५३२|| असंयतपय्र्यंतं षड् लेश्याः शुभात्रयलेश्याः खलु देशविरतत्रये ततः शुक्ललेश्य (योनिस्थान
७२५
मलेश्यं तु ।
१०
असंयतपय्र्यंतं दोलुं, नाल्कुं गुणस्थानंगळोळारुं लेइयेगळप्पुवु । देशविरतादित्रयदो शुभलेश्यात्रयमक्कुं । ततः मेले सयोगकेवलिपर्यंतंमारुं गुणस्थानंगळोळु शुक्ललेइथेयो देयक्कुं । अयोगिगुणस्थानं लेश्यारहितमक्कुमेके दोडे योगकषायरहितमप्पुर्दारदं ।
कसाये लेस्सा उच्चदि सा भूदपूव्वगदिणाया ।
अहवा जोगपत्ती मुक्खोत्ति तहिं हवे लेस्सा || ५३३||
नष्टकषाये लेश्या उच्यते सा भूतपूर्वगतिन्यायात् । अथवा योगप्रवृत्तिर्मुख्येति तस्मिन्भवेल्लेश्या ।
भोगभूमौ निर्वृत्यपर्याप्तकसम्यग्दृष्टौ कपोतलेश्याजघन्यांशो भवति । कुतः ? कर्मभूमिनर तिरश्चां प्राग्बद्धायुषां क्षायिकसम्यक्त्वे वा वेदकसम्यक्त्वे वा स्वीकृते तदन्यर्जघन्येन तत्रोत्पत्तिसंभवात् —तद्योग्यसंक्लेशपरिणामपरिणता इत्यर्थः । तस्यां पर्याप्तेरुपरि सम्यग्दृष्टौ मिथ्यादृष्टौ वा शुभलेश्याश्रयमेव ॥ ५३१ ॥
असंयतान्तचतुर्गुणस्थानेषु षड्लेश्याः खलु । देशविरतादित्रये शुभलेश्यात्रयमेव । ततः २० उपरि सयोगपर्यन्तं षड्गुणस्थानेषु एका शुक्ललेश्यैव । अयोगिगुणस्थानं अलेश्यं लेश्यारहितं तत्र योगकषाययोरभावात् ॥५३२॥
१५
भोगभूमि में निर्वृत्यपर्याप्तक सम्यग्दृष्टि में कापोत लेश्या का जघन्य अंश होता है । क्योंकि जिस कर्मभूमिया तिर्यंच अथवा मनुष्यने पहले तियंच या मनुष्य आयुका बन्ध किया, पीछे क्षायिक सम्यक्त्व या वेदक सम्यक्त्वको स्वीकार करके मरा, तो उसकी उत्पत्ति २५ वहाँ कापोतश्या के जघन्य अंशसे होती है । अर्थात् उसके योग्य संक्लेश परिणाम होते हैं । पर्याप्त होनेपर भोगभूमि में सम्यग्दृष्टि हो अथवा मिथ्यादृष्टि, तीन शुभ लेश्या ही होती हैं ।।५३१ ॥
असंयत पर्यन्त चार गुणस्थानों में छहों लेश्या होती हैं। देशविरत आदि तीन गुणस्थानों में तीन शुभ लेश्या ही होती हैं। उससे ऊपर सयोगकेवली पर्यन्त छह गुणस्थानों में ३० एक शुक्ललेश्या ही होती है। अयोगि गुणस्थानमें लेश्या नहीं होती, क्योंकि वहाँ योग और कषायका अभाव है ॥ ५३२॥
१. ब. ंजनेन । 'तदत्यजन' - कर्नावृतौ ।
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७२६
१०
उपशांतकषायादिगुणस्थानत्रयदोळ कषायोदयरहितमागुत्तिरलुमवरोळु पेळल्पट्ट आवुदो दु लेइयेय । तु मर्त्त भूतपूर्व्वगतिन्यायात् उपशांत कषायवीतरागछद्मस्थनोळं क्षीणकषायवीतरागच्छस्थनोळं सयोगिकेवलिजिननोळं भूतपूर्वं गतिन्यार्याददमेयक्कुमथवा योगप्रवृत्तिर्मुख्येति योगप्रवृत्तिर्लेश्या येदितु योगप्रवृत्तिप्रधानत्वदिदं तस्मिन्भवे लेश्यातदकषायरोळमिंतु
५ लेश्यासंभवमक्कुं ।
गो० जीवकाण्डे
तिन्हं दोन्हं दोन्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च । तोय चोद्दसहं लेस्सा भवणादिदेवाणं ||५३४॥
त्रयाणां द्वयोर्द्वयोः, षण्णां द्वयोश्च त्रयोदशानां च इतश्चतुर्द्दशानां लेश्या भावनादिदेवानां । तेऊ तेऊ तह तेऊपम्मा पम्मा य पम्मसुक्का य ।
सुक्का य परमसुका भवणतिया पुण्णगे असहा || ५३५ ।।
तेजस्तेजस्तथा तेजःपद्मे पद्मा च पद्मशुक्ले च । शुक्ला च परमशुक्ला भवनत्रया पूर्णके
अशुभाः ।
भवनत्रयद भवनादित्रिधामरगं पर्याप्तापेक्षेय तेजोलेश्याजघन्यमक्कुं । सौधर्मेशानद्वयद वैमानिक तेजोलेश्यामध्यमांशमक्कुं । सनत्कुमारमाद्रद्वयद कल्पजर्गो तेजोलेश्योत्कृष्टांशमुं १५ पद्मलेश्याजघन्यमुमक्कुं । ब्रह्मब्रह्मोत्तरलांतवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रंगळे बारुकल्पंगळ कल्पज पद्मलेश्यामध्यमांशमक्कुं । शतारसहस्रारकल्पद्वयद वैमानिक पद्मलेश्योत्कृष्टमुं शुक्ल लेश्याजघन्यमुमक्कुं । आनतप्राणत आरणाच्युतंगळं नवग्रैवेयकंगळमें दितु पदिमूरर सुरगे शुक्ललेश्यामध्यमांशमक्कुमिल्लिदं मेले अनुदिशानुत्तरविमानगळ्पदिनात्कर कल्पातीतज शुक्ललेश्योत्कृष्टांश
उपशान्तकषायादिनष्टकषायगुणस्थानत्रये कषायोदयाभावेऽपि या लेश्या उच्यते सा भूतपूर्वगतिन्या२० यादेव । अथवा योगप्रवृत्तिर्लेश्येति योगप्रवृत्तिप्राधान्येन तत्र लेश्या भवति ॥ ५३३ ॥
भवनत्रयादिदेवानां लेश्योच्यते । तत्र पर्याप्तापेक्षया भवनत्रयस्य तेजोजघन्यांशः । सौधर्मेशानयोः तेजोमध्यमांशः । सानत्कुमार माहेन्द्रयोः तेजउत्कृष्टांशपद्मजघन्यांशी । ब्रह्मब्रह्मोत्तरादिषट्कस्य पद्ममध्यमांशः । शतारसहस्रारयोः पद्मोत्कृष्टांशशुक्लजघन्यांशी । आनतादिचतुर्णां नवग्रैवेयकाणां च शुक्लमध्यमांशः । अत उपरि
उपशान्त कषाय आदि तीन गुणस्थानोंमें यद्यपि कषायका उदय नहीं है और बारहवें - २५ तेरहवें में तो कषाय नष्ट ही हो गयी है। फिर भी वहाँ जो लेश्या कही जाती है, वह भूतपूर्व गतिन्याय से ही कही जाती है । अथवा योगकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं और योगकी प्रवृत्तिकी प्रधानता है, इसलिए वहाँ लेश्या है ॥५३३ ॥
३०
भवनत्रय आदि देवोंके लेश्या कहते हैं । पर्याप्तकी अपेक्षा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके तेजोलेश्याका जघन्य अंश है । सौधर्म - ऐशान में तेजोलेश्याका मध्यम अंश है । सनत्कुमार- माहेन्द्र में तेजोलेश्याका उत्कृष्ट अंश और पद्मलेश्याका जघन्य अंश है । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर आदि छह स्वर्गों में पद्मलेश्याका मध्यम अंश है । शतार - सहस्रार में पद्मका उत्कृष्ट अंश और शुक्लका जघन्य अंश है। आनत आदि चार स्वर्गों में और नौ ग्रैवेयकों में शुक्लका मध्यम अंश है। उससे ऊपर अनुदिश और अनुत्तर सम्बन्धी चौदह विमानों में
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७२७ मक्कुं । भवनत्रयद नित्यपर्याप्तकर्ग अशुभलेश्यात्रयमेयक्कुमिरिंदमे शेषवैमानिकनिवृत्यपर्याप्तकग्गं पर्याप्तकर्ग तंतम्म लेश्यगळेयप्पुर्वेदु सूचितमरियल्पडुगुं । एंटनेय स्वाम्यधिकारं तीर्दुदु । अनंतरं साधनाधिकारमनो दे गाथासूत्रदिदं पेळदपं ।
वण्णोदयसंपादिद सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा ।
मोहृदयखओवसमोवसमरखयजजीवफंदणं भावो ।।५३६॥ वर्णोदयसंपादितशरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या । मोहोदयक्षयोपशमोपशमक्षयजीवस्पंदनं भावः॥
___ वर्णनामकर्मोदयसंपादितसंजनितशरीरवर्णमदु द्रव्यलेश्येयकं । असंयतरोळु मोहोददिद देशविरतत्रयदोळ मोहक्षयोपशमदिदं उपशमकरोल मोहोपशमदिदं क्षपकरोळ मोहक्षदिदं संजनितसंस्कारं जीवस्पंदमेंदु ज्ञेयमक्कुमदु भावलेश्ययक्कु। मा जीवनपरिणामप्रदेशस्पंदनदिद १० भावलेश्य माडल्पटुंदें बुदत्थं । अदु कारणदिदं योगकषायंळिदं भावलेश्य एंदितु पेळल्पटुदक्कुं। ओभत्तनेय साधनाधिकारं तिर्दुदु ॥
अनंतरं संख्याधिकारमं गाथा षट्कदिदं पेन्दपं:
अनुदिशानुत्तरचतुर्दशविमानानां शुक्लोत्कृष्टांशो भवति । भवनत्रयदेवाः अपर्याप्त काले अशुभत्रिलेश्या एव, अनेन वैमानिकाः अपर्याप्तिकाले स्वस्वलेश्या एवेति सूचितं ज्ञातव्यम् ॥५३४-५३५॥ इति स्वाम्यधिकारोऽष्टमः ॥ १५ अथ साधनाधिकारमाह
वर्णनामकर्मोदयेन संपादितः-संजनितः शरीरवर्णो द्रव्यलेश्या भवति । असंयतान्तगुणस्थानचतुष्के मोहस्य उदयेन, देशविरतत्रये क्षयोपशमेन, उपशमके उपशमेन, क्षपके क्षयेण च संजनितसंस्कारो जीवस्पन्दनसंज्ञः स भावलेश्या जीवपरिणामप्रदेशस्पन्दनेन कृतेत्यर्थः । तेन कारणेन योगकषायाभ्यां भावलेश्येत्युक्तम्॥५३६॥ इति साधनाधिकारो नवमः ॥ अथ संख्याधिकारं गाथाषट्केनाह
शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट अंश होता है। भवनत्रिकके देव अपर्याप्त अवस्थामें तीन अशुभ लेश्यावाले ही होते हैं। इससे यह सूचित किया जानना कि वैमानिक देवोंके अपर्याप्तकालमें अपनी-अपनी लेश्या ही होती है ।।५३४-५३५॥
आठवाँ स्वामिअधिकार समाप्त हुआ। अब साधनाधिकार कहते हैं
वर्णनाम कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ शरीरका वर्ण द्रव्यलेश्या है। असंयत पर्यन्त चार गुणस्थानोंमें मोहके उदयसे, देशविरत आदि तीन गुणस्थानोंमें मोहनीयके क्षयोपशमसे, उपशम श्रेणीके चार गुणस्थानों में मोहनीयके उपशमसे, क्षपक श्रेणीके चार गुणस्थानोंमें मोहनीयके क्षयसे जो संस्कार उत्पन्न होता है, जिसे जीवका स्पन्द कहते हैं, वह भावलेश्या है। अर्थात् जीवके परिणामों और प्रदेशोंका चंचल होना भावलेश्या है। परिणामोंका चंचल होना कषाय है और प्रदेशोंका चंचल होना योग है । इसीसे योग और कषायसे भावलेश्या कही है ॥५३६॥
नौवाँ साधनाधिकार समाप्त हुआ। आगे छह गाथाओंसे संख्याअधिकार कहते हैं
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गो० जीवकाण्डे किण्हादिरासिमावलिअसंखभागेण भजिय पविभत्ते ।
हीणकमा कालं वा अस्सिय दव्वा दु भजिदव्वा ॥५३७॥ कृष्णादिराशिमावल्यसंख्यातभागेन भक्त्वा प्रविभक्ते। हीनक्रमात् कालं वा आश्रित्य द्रव्याणि
५ तु भक्तव्यानि॥
कृष्णादिराशि कृष्णाघशुभलेश्यात्रयजीवसामान्यराशियं शुभलेश्यात्रयजीवराशिहोनसंसारिराशियं १३- आवल्यसंख्यातभागेन भक्त्वा आवल्यसंख्यातेकभागदिदं भागिसि १३बहुभागमं १३-८ प्रविभक्ते मूरुं लेश्यगळ्गे समानमागि मूरिंदं भागिसिकोटु १३-८।१३-८।१३-८
९।३ ९३३ ९।३ शेषैकभागमं मत्तमावल्यसंख्यातदिदं खंडिसि बहुभागमं कृष्णलेश्यगे कोटु शेषेकभागमं
मत्तमावल्यसंख्यातदिदं भागिसि बहुभागमं नोललेश्यगे कोटु शेकभागमं कपोतलेश्यगे कोट्टोडा १° मूरु राशिळि तिक्कुं | १३-८ | १३-८ | १३-८ | ई मूरु राशिगळं समच्छेदं माडिदोडितिक्कु
९३ ९३९।३ १३-
८ १३-८ १३-८
९।९। ९९९९९९ कृष्ण १३-८६४/ नील १३-६७२ | कपोत १३-६५१ ई ९।९।९।३ । ९।९।९।३ ९।९।९।३ । गळागुत्तं किंचिदूनक्रममप्पुवु कृ १३- नी १३- क १३-1 इंतु कृष्णलेश्याघशुभलेश्याप्रयजीवंगळ्गे द्रव्यतः प्रमाणं पेळल्पटुदु । मतं वा अथवा कालं वा आश्रित्य द्रव्याणि भक्तव्यानि
कृष्णाद्यशुभलेश्यात्रयजीवसामान्यराशि शुभलेश्यात्रयजीवराशिहीनसंसारिराशिमात्र १३- आवल्यसंख्यातेन भक्त्वा १३-बहभागः १३-८ त्रिभिर्भक्तः त्रिस्थाने देयः-१३-८.१३-८, १३-८, शेषकभागे
९।३, ९।३, ९। ३, पुनरावल्यसंख्यातेन भक्ते बहुभागः कृष्णलेश्यायां देयः । शेषकभागे पुनरावल्यसंख्यातेन भक्ते बहुभागो नीललेश्यायां देयः । शेषकभागे कपोतलेश्यायां दत्ते त्रयो राशयोऽमी-१३-८, १३-८, १३-८,
९ । ३, ९ । ३, ९।३, १३-८, १३-८। १३-१
समच्छेदेन मिलिताः-कृ १३-८६४, नी १३-। ६७२, क १३-। ६५१, किचिदूनक्रमा
९।९।९।३, ९। ९।९ ३, ९।९।९।३, भवन्ति-कृ १३- । नी १३-। क १३-इति कृष्णादिविलेश्या जीवानां द्रव्यतः प्रमाणमुक्तम् । पुनः-वा अथवा
संसारी जीवराशिमें-से तीन शुभलेश्यावाले जीवोंकी राशि घटानेपर जो शेष रहे, उतना कृष्ण आदि तीन अशुभ लेश्यावाले जीवोंकी सामान्यराशि होती है। उस रा आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित करके बहभागको तीन समान भागोंमें विभाजित करके एक-एक भाग तीनों लेश्यावालोंको दे दो। शेष एक भागमें पुनः आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहुभाग कृष्णलेश्याको दो। शेष एक भागमें पुनः आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहुभाग नीललेश्याको दो। शेष एक भाग कपोतलेश्याको दो। अपने-अपने
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कालसंचर्याददं द्रव्यतः प्रमाणमरियल्पडुगुमदें तें दोडे ई मूरुमशुभलेश्येगळ कालं कूडि सामान्यदिदमंतर्मुहूर्त मात्रमक्कु || २१ | मिदनावल्यसंख्यातदिदं भागिसि बहुभागमं समभागं माडि मूर्रारदं भागिसि कृष्णनीलकपोतंगळगे कोट्टु मिक्केक कालभागमं मत्तमावलिय संख्यातदिदं भागिति बहुभागमं कृष्ण लेश्येगे कोट्टु शेषैकभागमं मत्तमावल्यसंख्यातभार्गादिदं खंड बहुभागमं नीललेयेगे कोट्टु शेषैकभागमं कपोतले श्येगे कोट्टोडा मूरुं कालंगळितिवु । ५ नी कपोत प्रक्षेपयोगोद्धृतमिश्रपिंड इत्यादियि २१६७२ २१६५१ ९।९।९।३ ९।९।९।३
I
मूरुं राशिगळं कूडिदोड २ २१८७ इदर भाज्यभागहारंगळं सरिये दर्पात्तसिदोडिदु २१ इंतु
९।९।९।३
कृ
२१ । ८६४
१।९।९।३
त्रैराशिकं माडल्पडुगुं प्र २१ फ१३ । इ २१८६४ बंद लब्धं कृष्णलेश्याजीवंगळ प्रमाणमवकुं ९।९।९।३
१३-८६४ इदनपर्वात्तसिदोडे किंचिदूनत्रिभागमक्कुं कृ १३ - | नी १३-कपो १३ इंतु काल
९९९।३
३
३
३
कालमाश्रित्य द्रव्याणि भक्तव्यानि । तद्यथा —— कृष्णनीलकपोत लेश्याः संस्थाप्य तासां कालो मिलित्वापि १० अन्तर्मुहूर्त्तः २ १ आवल्यसंख्यातेन भक्ते बहुभागः त्रिभिर्भक्त्वा प्रत्येकं देयः । शेषैकभागे पुनरावल्यसंख्यातेन भक्ते बहुभागः कृष्णलेश्यायां देयः । शेषैकभागे पुनः आवल्यसंख्यातेन भक्ते बहुभागो नीललेश्याया देयः । शेष भागे कपोत लेश्यायां दत्ते त्रयो राशय एवं कृ २ ८६४, नी २ । ६७२, ९।९।९।३,
९ । ९ । ९ । ३,
अधुना शिकं प्र २१ । फ १३
क २ । ६५१, एषां योगः २ ३ २१८७ अपवर्तितः २ १ । ९ । ९ । ९ । ३, ९ । ९ । ९ । ३
इ २१ । ८६४ लब्धं कृष्णलेश्याजीवप्रमाणं १३ - ८६४ अपवर्तिते किंचिदूनत्रिभागो भवति एवं नील- १५ ९।९।९।३ ९।९।९३
समान भागों में इन भागोंको जोड़नेपर कृष्ण आदि लेश्यावाले जीवोंकी संख्या होती है । यह क्रम से कुछ-कुछ कम होती है । इस प्रकार कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले जीवोंका द्रव्यकी अपेक्षा प्रमाण कहा । अथवा कालका आश्रय लेकर द्रव्योंका विभाग करना चाहिए । वह इस प्रकार है- -कृष्ण, नील और कापोतलेश्याको स्थापित करो। उनका काल मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त है । उस कालको आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहुभागको तीनसे २० विभाजित करके प्रत्येक लेश्यामें एक-एक भाग दो । शेष एक भागमें पुनः आवली के असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहुभाग कृष्णलेश्या में दो । पुनः शेष एक भाग में आवली के असंख्यातवें भागसे भाग दो । बहुभाग नीललेश्या में दो । शेष एक भाग कापोत लेश्याको दो। तीनों को मिले दोनों भागोंको जोड़नेपर प्रत्येक लेश्याका अपना-अपना कालका प्रमाण होता है । अब त्रैराशिक करो। तीनों लेश्याओंका सम्मिलित काल तो प्रमाण राशि । अशुभ लेश्या - २५ वाले जीवोंका प्रमाण कुछ कम संसारी जीवराशि मात्र फलराशि । कृष्णलेश्याके कालका प्रमाण इच्छाराशि । फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर लब्धराशि प्रमाण कृष्णलेश्यावालोंकी राशि जानना । सो कुछ कम तीनका भाग अशुभ लेश्यावाले
१२
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७३०
गो० जीवकाण्डे संचयमनायिसि द्रव्यतः प्रमाणं पेळल्पटुदु।
खेत्तादो असुहतिया अणंतलोगा कमेण परिहीणा।
कालादोतीदादो अणंतगुणिदा कमा हीणा ॥५३८।। क्षेत्रतोऽशुभत्रयाः अनंतलोकाः क्रमेण परिहीनाः। कालादतीतादनंतगुणाः क्रमाद्धीनाः॥ क्षेत्रप्रमाणदिदं अशुभत्रया जीवाः अशुभलेश्यात्रयद जीवंगळु अणंतळोगा अनंतलोक
प्रमितंगळागुतं क्रमविदं परिहीनंगळप्पुवु किचिदूनक्रमंगळप्पुवु क्षेत्र कृ = ख नी ख - क ख = इल्लियु त्रैराशिकं माडल्पडुगुं प्र=फ श १। इ १३ लब्ध शला । ख । प्रमा श१। फइ ख ।
लब्ध=व । कालादतीतात् कालप्रमाणदिदं अशुभलेश्यात्रय जीवंगळु अतीतकालमं नोडलु अनंत
गुणिताः अनंतगुणितंगळागुत्तलुं क्रमाद्धीनाः क्रमहीनंगळप्पुवु । का। कृ। अख । नी अ ख - का १० अ ख = इल्लियु त्रैराशिकं माडल्पडुगुं । प्रअ।फ अ १। इ १३ - लब्ध शलाका । ख । मत्तं
प्रश१। फाइ। श ख । लब्ध अ ख ।
कपोतयोरपि ज्ञातव्यम् । कृ १३-। नी १३- । क १३- । इति कालसंचयमाश्रित्य द्रव्यतः प्रमाणमुक्तम् ॥५३७॥
३- ३- ३क्षेत्रप्रमाणेन अशुभत्रिलेश्याजीवाः अनन्तलोका आप क्रमेण परिहीनाः किंचिदूनक्रमा भवन्ति । कृकख । नीख-। कख= । अत्र त्रैराशिकं प्रफ श १ । इ१३- लब्धशलाकाः ख । पुनः प्र । श१।।
१५
फ। इश ख । लब्धंख। कालप्रमाणेनाशुभत्रिलेश्या जीवा अतीतकालादनन्तगुणिता अपि क्रमहीना भवन्ति । का कृ अख । नी अख-। क अख =| अत्रापि त्रैराशिक-प्रअफ श । १ इ १३- लब्धशलाकाः
ख । पुनः प्रश १ । फ अ । इ श ख । लब्धं अ ख ॥५३८॥
जीवोंके प्रमाणमें देनेपर जो लब्ध आवे,उतना है। इसी तरह नील और कापोतलेश्यावालोंका
प्रमाण लाना चाहिए। इस तरह कालकी अपेक्षा अशुभलेश्यावाले जीवोंका प्रमाण २० कहा ॥५३७॥
क्षेत्रप्रमाणकी अपेक्षा तीन अशुभलेश्यावाले जीव अनन्तलोक प्रमाण हैं किन्तु क्रमसे कुछ-कुछ हीन हैं। यहाँ प्रमाणराशि लोक, फलराशि एक शलाका, इच्छा राशि अपने-अपने जीवोंका प्रमाण । ऐसा करनेपर लब्धराशि मात्र अनन्त शलाका हुई। तथा प्रमाण एक
शलाका, फल एक लोक, इच्छा अनन्त शलाका। ऐसा करनेपर लब्धराशि अनन्त लोकमात्र २५ कृष्णादि लेश्यावाले जीवोंका प्रमाण होता है। तथा काल प्रमाणसे तीन अशुभ लेश्यावाले
जीव अतीतकालके समयोंसे अनन्तगुणे हैं । किन्तु क्रमसे हीन हैं। यहां भी त्रैराशिक करना। प्रमाणराशि अतीतकाल, फलराशि एक शलाका, इच्छराशि अपने-अपने जीवोंका प्रमाण । ऐसा करनेपर लब्धराशिमात्र अनन्त शलाका हुई। फिर प्रमाण एक शलाका, फल एक अतीत
काल, इच्छा अनन्त शलाका। ऐसा करनेपर लब्धराशि अनन्त अतीतकाल प्रमाण कृष्णादि ३० लेश्यावाले जीव होते हैं ॥५३८।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
haणाणातिमभागा भावादु किण्हतियजीवा । तेउतिया संखेज्जा संखासंखेज्जभागकमा ॥५३९||
केवलज्ञानानंतैकभागाः भावात् कृष्णत्रयजीवाः । तेजस्त्रयोऽसंख्येयाः संख्यासंख्यात भाग
क्रमाः ॥
भावप्रमाणदिदं कृष्णादित्रयलेश्याजीवंगळु प्रत्येकं केवलज्ञानानंतैकभागमात्रंगळ पुवंतागुत्त किंचिदूनक्र मंगळे यप्पुवु । भा । कृ । के । नी ख । क । के = इल्लियुं त्रैराशिकं माडलपडुगुं
ख
ख
प्र १३ - फश १ । इ के । लब्धश के मत्तं प्र के फ के । इश १ लब्ध के । तेजोलेश्यादि
३ -
ख
१३.
-
३
त्रयजीवंग द्रव्यप्रमार्णादिदम संख्यातंगळप्पूवुमंतागुतं संख्यातभाग मुम संख्यात भागक्रम मुमप्पुवु ।
아
ते = १ । पa । शु
१३ -
३
७३१
1
जोsसियादो अहिया तिरिक्खसण्णिस्स संखभागो दु । सूइस्स अंगुलस्स य असंखभागं तु तेउतियं ॥ ५४० ॥ ज्योतिषिकादधिकास्तिक्संज्ञिनः संख्यभागस्तु । सूच्यंगुलस्य चासंख्यभागस्तु तेजस्त्रयः ॥
भावप्रमाणेन कृष्णादिलेश्या जीवाः प्रत्येकं केवलज्ञानानन्तैकभागमात्राः अपि किंचिदूनक्रमा भवन्ति । भाकृ के | नी के - 1 क के = । अत्रापि त्रैराशिकं प्र १३ - फश १ । इ के । लब्धं के अपवर्तिते ख । पुनः ३
I
ख
ख
ख
१३
३
प्रशख । फ के । इश १ । लब्धं के । तेजोलेश्यादित्रयजोवाः द्रव्यप्रमाणेन असंख्याता अपि संख्याता संख्यात
ख
भागक्रमा भवन्ति । तेaaaa शु॥५३९॥
५
१०
भावप्रमाणकी अपेक्षा प्रत्येक कृष्णादि लेश्यावाले जीव केवलज्ञानके अनन्तवें भागमात्र होनेपर भी क्रमसे कुछ हीन होते हैं । यहाँ भी त्रैराशिक करना । प्रमाणराशि अपनेअपने लेश्यावाले जीवोंका प्रमाण, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि केवलज्ञान । ऐसा करनेपर लब्धराशिमात्र अनन्त प्रमाण हुआ । पुनः इसीको प्रमाणराशि, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि केवलज्ञान करनेपर केवलज्ञानके अनन्तवें भाग मात्र कृष्णादि लेश्यावाले जीवोंका प्रमाण होता है । तेजोलेश्या आदि तीन शुभ लेश्यावाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात होनेपर भी तेजोलेश्यावालोंके संख्यातवें भाग पद्मलेश्यावाले और पद्मलेश्या - वालोंके असंख्यातवें भाग शुक्ललेश्यावाले हैं ||५३९ ||
२०
१५
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७३२
गो० जीवकाण्डे तेजोलेश्याजीवंगळ ज्योतिषिकजीवराशियं नोडलु साधिकमप्परत दोर्ड ज्योतिष्कर भवनवासिगळं व्यंतररु सौधम्मद्वयकल्पजरुं संज्ञिपंचेंद्रियजीवंगळोळ कलवु जीवंगळु मनुष्यरोळ्कलवु जोवंगळुएंदितारुप्रकारद जीवराशिगळं कूडिदोडे तेजोलेश्या जीवंगळप्पुवल्लि ज्योतिष्कर पण्णढिप्रमितप्रतरांगुलभक्तजगत्प्रतरप्रमितरप्पर ।। ६५= भवनवासिगळु घनांगुलप्रथममूल५ गुणितजगच्छ्रेणीमात्ररप्परु ।-१ । व्यंतररु त्रिशतयोजनभक्तजगत्प्रतरप्रमितरप्पर । ४६५-८१-१० सौधर्मद्वयद कल्पजरु घनांगुलतुतीयमूलगुणितजगच्छेणिप्रमितरप्पर ।-३॥ संज्ञिपंचेंद्रियतेजो. लेश्याजीवंगळु:
"जोइसियवागजोणिणितिरिक्खपुरिसा य सणिणो जीवा।
तत्तेउपम्मलेस्सा संखगुणूणा कमेणेदे ॥" । एंदितु पंचेंद्रियसंज्ञिजीव राशियं नोडलं संख्यातगुणहीनरप्परु ४ । ६५=१ १ १ ११ मनुष्यरूं संख्यातरप्परितीयारं राशिगळुकूडिदोडे ज्योतिषिकरं नोडलु साधिकमक्कु । १ वितु
४। ६५=१ क्षेत्रप्रमादिदं तेजोलेश्याजीवंगळोळेपट्टवु । पद्मलेश्यय जीवंग ठुमा तेजोलेश्याजीवंगलं नोडलं संख्यातगुणहीनमागियु संज्ञितेजोलेश्याजोवंगळं नोडलु संख्यातगुणहीनरप्परुमा राशियोळु पद्मलेश्यय कल्पजरुमं मनुष्यरुमं साधिकं माडिदोडे प्रतरासंख्येय भागमेयक्कु। संदृष्टि
तेजोलेश्याजीवाः ज्योतिष्कजीवराशितः साधिका भवन्ति । = = = । कथं ? पण्णट्रि
भक्तजगत्प्रतरमात्रज्योतिष्क- =
घनाङ्गुलप्रथममूलगुणितजगच्छे गिभावनाः-१
त्रिशतयोजन
कृतिभक्तजगत्प्रतरमात्रव्यन्तराः =
यमूलगुणितजगच्छणिमात्रसौधर्मद्वयजाः४। ६५ =८१ । १० ३ पञ्चसंख्यातपण्णट्ठीप्रतराङ्गुलभक्तजगत्प्रतरमात्रतादृसंजितियंच =
तादेशसंख्यातमनुष्या
४। ६५=१११११ एतेषां मिलितत्वात् । पद्मलेश्याजोवाः तेजोलेश्येभ्यः संख्यातगुणहीनत्वेऽपि संज्ञितिर्यक्तेजोलेश्येभ्योपि
तेजोलेश्यावाले जीव ज्योतिषी देवोंकी राशिसे कुछ अधिक होते हैं। इसका हेतु यह है कि पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस प्रतरांगुलका भाग जगत्प्रतरमें देनेसे जो लब्ध आवे, उत्तने तो ज्योतिषी देव हैं। घनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण भवनवासी देव हैं। तीन सौ योजनके वर्गका भाग जगत्प्रतरमें देनेसे जो लब्ध आवे, उतने व्यन्तर देव हैं। धनांगुलके तृतीय वर्गमूलसे गुणित जगत्श्रेणिमात्र सौधर्म-ऐशान स्वर्गके देव हैं। पाँच बार संख्यातसे गुणित पण्णट्ठि ( ६५५३६ ) प्रमाण प्रतरांगुलसे भाजित जगत्प्रतर प्रमाण तेजोलेश्यावाले संज्ञी तिथंच हैं। तथा संख्यात तेजोलेश्यावाले मनुष्य । इन सबको जोड़नेसे जो प्रमाण हो,उतने तेजोलेश्यावाले जीव हैं। पद्मलेश्यावाले जीव तेजोलेश्यावाले जीवोंसे १. म रोलेल्लवु । २. ब. संख्याततादृग्म । ३. ब. हीना अपि ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
इंतु क्षेत्रप्रमादिदं पालेश्येय जीवंगळु पेळल्पद्रुवु। शुक्ललेश्याजीवंगळु सूच्यंगुलासंख्यातैकभागमात्रमप्परु २ सू। इंतु तेजोलेश्यादिशुभलेश्याजीवंगळु
४। ६५ = ११११११
क्षेत्रप्रमाणदिदं पेळल्पदृरु।
बेसदछप्पण्णंगुल कदिहिद पदरं तु जोइसियमाणं ।
तस्स य संखेज्जदिमं तिरिक्खसण्णीण परिमाणं ॥५४१।। षट्पंचाशदधिकद्विशतांगुलकृतिहतप्रतरस्तु ज्योतिष्काणां मानं। तस्य च संख्येयं तिर्यक्संजिनां मानं ॥
इल्लि तेजोलेश्याजीवंगळ प्रमाणमं पद्मलेश्याजीवंगळ प्रमाणमं पेरगणनंतरसूत्रदोन्पेन्दुदं विशदं माडल्वेडि ज्योतिष्कर प्रमाणुमं संज्ञिजीवंगळ प्रमाणमुमनी सूत्रदि पेळ्दपरल्लि ज्योतिष्क प्रमाणमं षट्पंचाशदुत्तरद्विशतांगुलकृतिहृतजगत्प्रतरप्रमितमक्कु। संज्ञिजीवंगळ प्रमाणमुमदर संख्येय भागमक्कु ॥ ४॥ ६५ = ४।६५ = १
तेउदु असंखकप्पा पल्लासंखेज्जभागया सुक्का ।
ओहि असंखेज्जदिमा तेउतिया भावदो होति ॥५४२॥ तेजोद्वयमसंख्यकल्पाः पल्यासंख्येयभागाः शुषलाः। अवधेरसंख्यभागास्तेजस्त्रयो भावतो भवंति ॥ संख्यातगुणहोना भवन्ति । पद्मलेश्यातिर्यग्राशी स्वकल्पजमनुष्यः साधिकमात्रत्वात्संदृष्टिः--
___शुक्ललेश्या जीवाः सूच्यङ्गुलासंख्यातकभागमात्रा भवन्ति । ४। ६५%११११११ २ सू इति तेजस्त्रयजीवाः क्षेत्रप्रमाणेनोक्ताः ॥५४०॥ as
प्रागुक्तं तेजःपद्मलेश्याजीवप्रमाणं स्पष्टीकर्तुमाह-ज्योतिष्कप्रमाणं वेसदछप्पण्णङ्गुलकृतिभक्तजगत्प्रतरमात्र - संज्ञितिर्यकप्रमाणं च तत्संख्ययभागः = ॥५४१॥
२० ४।६५-१ संख्यातगुणा हीन होनेपर भी तेजोलेश्यावाले संज्ञी तिर्यंचोंसे भी संख्यातगुणा हीन होते हैं, क्योंकि पद्मलेश्यावाले तियचोंकी राशिमें पद्मलेश्यावाले कल्पवासीदेव और मनुष्योंका प्रमाण मिलनेसे पद्मलेश्यावाले जीवोंका प्रमाण होता है। शुक्ललेश्यावाले जीव सूच्यंगुल के असंख्यातवें भागमात्र होते हैं। इस प्रकार क्षेत्र प्रमाणसे तीन शुभलेश्यावाले जीवोंका प्रमाण कहा ॥५४०॥
पहले जो तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीवोंका प्रमाण कहा, उसे स्पष्ट करते हैंज्योतिष्कदेवोंका प्रमाण दो सौ छप्पन अंगुलके वर्गसे अर्थात् पण्णट्ठी प्रमाण प्रतरांगुलका भाग जगत्प्रतरमें देनेसे जो प्रमाण आवे, उतना है और इनके संख्यातवें भाग संज्ञी तियचोंका प्रमाण है ।।५४१॥
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७३४
गो० जीवकाण्डे ___ तेजोलेश्याजीवंगळु पद्मलेश्याजीवंगलं प्रत्येकमसंख्येयकल्पंगळागुत्तं तेजोलेश्याजीवंगळं नोडलु पद्मलेश्याजीवंगळु संख्यातगुणहीनंगळप्पुवु । ते क १। पद्म क । शुक्लाः शुक्ललेश्याजीवंगळु पल्यासंख्येय भागाः पल्यासंख्यातेक भागमात्रंगळप्पुवु प इंतु कालप्रमाणदिदं शुभलेश्यात्रयजीवंगळु पेळल्पटुवु । अवधेरसंख्येयभागास्तेजस्त्रयो भावतो भवंति अवधिज्ञानविकल्पंगळ असंख्येयभागंगळु ५ प्रत्येकमागुत्तमा मूरु लेश्यगळ जीवंगळ संख्यातगुणहीनंगळुमसंख्यातगुणहीनंगळुमप्पुवु । ते ओ(१)। पओ (१)। शुओ (१) इंतु भावप्रमादिदं शुभलेश्यात्रयजीवंगळु पेळल्पटुवु :
पaa
१३-१३-ते कृ३- नी३। क३।
शु
ख
ख-
ख
।
।
।
।
।
।
४६५ = १ क
अख अख अख
के
के
के
।
ओ
ओ
इंतु पत्तनेय संख्याधिकारंतिदुदु ।
अनंतरं क्षेत्राधिकारमं पेन्दपं:wrown.mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmrat----- -
तेजोद्वयजीवाः प्रत्येकमसंख्येयकल्पा अपि तेजोलेश्येभ्यः पद्मलेश्याः संख्यातगुणहीनाः ते का पक। शक्ललेश्याः पल्यासंख्यातकभागमात्रा भवन्ति प इति कालप्रमाणेन शभलेश्यात्रयजीवा उक्ताः ।
तेजस्त्रयजीवाः प्रत्येक अवधिज्ञानविकल्पानामसंख्येयभागाः तथापि संख्यातासंख्यातगुणहीना भवन्ति . ते ओ ओ शु ओ इति भावप्रमाणेन शुभलेश्यात्रयजोवा उताः ॥५४२॥ इति संख्याधिकारः॥
a aq aga अथ क्षेत्राधिकारमाह
तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीव प्रत्येक असंख्यात कल्पप्रमाण हैं, फिर भी तेजो१५ लेश्यावालोंसे पद्मलेश्यावाले संख्यातगुणा हीन हैं । शुक्ललेश्यावाले पल्यके असंख्यातवें भाग
मात्र होते हैं। इस प्रकार काल प्रमाणसे तीन शुभलेश्यावाले जीवोंका प्रमाण कहा। तेजोलेश्या आदि तीन लेश्यावाले जीव प्रत्येक अवधिज्ञानके भेदोंके असंख्यातवें भाग हैं , तथापि तेजोलेश्यावालोंसे पद्मलेश्यावाले संख्यातगुणे हीन हैं और पद्मलेश्यावालोंसे शुक्ललेश्यावाले
असंख्यातगणे हीन हैं। इस प्रकार भावप्रमाणसे तीन शभलेश्यावाले जीवोंका प्रमाण २० कहा ॥५४२॥
इस प्रकार संख्याधिकार समाप्त हुआ। अब क्षेत्राधिकार कहते हैं
१. म प्रती संदृष्टिर्न ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
सट्टाणसमुग्धादे उववादे सव्वलोयमसुहाणं । लोयस्सा संखेज्जदिभागं खेत्तं तु तेउतिये ॥ ५४३ ॥
७३५
स्वस्थाने समुद्घाते उपपादे सर्व्वलोकोऽशुभानां । लोकस्यासंख्येयभागं क्षेत्रं तु तेजस्त्रितये ॥
अशुभानां कृष्णनील कापोताशुभलेश्यात्रयद स्वस्थानदोळं समुद्घातदोळं उपपाददोळमितु त्रिस्थानकदोळ क्षेत्रं सव्वलोकमेय कु । तेजस्त्रितयं तेजःपद्मशुक्ल शुभलेश्यात्रयद स्वस्थानदोळं ५ समुद्घातदलं उपपाददोळमिती त्रिस्थानदोळं तु मत्ते क्षेत्रं क्षेत्रवु लोकस्यासंख्येयभागः सव्वलोकद असंख्यातैकभागमक्कुमिंतु सामान्यदिदमशुभलेश्येगळां शुभलेश्यगळगं त्रिस्थानक बोलु क्षेत्रं पेळपट्टुवु । विशेषदिदं षड्लेश्यगळगे दशस्थानंगळोळ क्षेत्रं पेळल्पडुगुमल्लि क्षेत्र में बुदेने दोर्ड विवक्षित लेश्याजीवंगळ्दिं वर्तमानकालदोलु विवक्षितपदविशिष्टत्वदिदमवष्टब्धाकाशप्रदेशंगळं क्षेत्रमेंबुदर्थमें बुद्विल्लि सामान्यदिदं स्वस्थानमुं समुद्घातमुमुपपादमुमेंदु त्रिपदंगळोळु लेश्येगळ क्षेत्रं १० पेळल्पदुदु । विशेषददं दशस्थानंगळोळु षट्लेयेगळ क्षेत्रं पेल्प गुमल्लि स्वस्थानं सामान्यदिदमों डदं भेदिसिदोडे स्वस्थानस्वस्थानमें दुं विहारवत्स्वस्थानमें दु द्विविधमक्कुं ।
सामान्यदिदं समुद्रघातमो ददं भेदिसिदोर्ड वेदनासमुद्घात में दुं कषायसमुद्घात में दुं वैक्रियिकसमुद्घात में दुं मारणांतिक समुद्घातर्म ढुं तेजः समुद्घात में दुमाहारकसमुद्घात में दु केवलसमुद्घात में दितु समुद्घातं सप्तविधमक्कुमुपपादमेकप्रकारमेयक्कुं ।
१५
विवक्षितलेश्याजीवैर्वर्तमानकाले विवक्षितपदविशिष्टत्वेनावष्टब्धाकाशः क्षेत्रम् । तच्च स्वस्थाने समुद्घाते उपपादे च यशुभलेश्यानां सर्वलोकः । तेजोलेश्यादित्रयस्य तु पुनः लोकस्यासंख्यातैकभागः सामान्येन भवति विशेषेण तु तत्र दशपदेषूच्यते । तत्र तावत् उत्पन्नपुरग्रामादिक्षेत्रं तत् स्वस्थानस्वस्थानं, विवक्षितपर्यायपरिणतेन परिभ्रमितुमुचितक्षेत्रं तद्विहारवत्स्वस्थानमिति स्वस्थानं द्वेषा | वेदनादिवशेन निजशरी राज्जीव प्रदेशानां बहिः प्रदेशे तत्प्रायोग्यविसर्पणं समुद्घातः । स च वेदनाकषायवैक्रियिकमारणान्तिकतैजसाहारक केवलिभेदात् २० सप्तधा । परित्यक्त पूर्वभवस्य उत्तरभवप्रथमसमये प्रवर्तनमुपपाद इति दशपदानि । तेषु स्वस्थानस्वस्थाने वेदनासमुद्घाते कषायसमुद्घाते मारणान्तिकसमुद्घाते उपपादे चेति पञ्चपदेषु कृष्णलेश्याजीवक्षेत्रं सर्वलोकः।
विवक्षित लेश्यावाले जीव वर्तमान कालमें विवक्षित स्वस्थानादि पद से विशिष्ट होते हुए जितने आकाश में पाये जाते हैं, उसका नाम क्षेत्र है । वह क्षेत्र स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद में तीन अशुभ लेश्यावालोंका सर्वलोक है । तेजोलेश्या आदि तीनका क्षेत्र सामान्य से २५ लोकका असंख्यातवाँ भाग है । विशेष रूपसे दस स्थानोंमें कहते हैं - स्वस्थानके दो भेद हैं - स्वस्थानस्वस्थान और विहारवत्स्वस्थान । उत्पन्न होनेके ग्राम-नगर आदि क्षेत्रको स्वस्थानस्वस्थान कहते हैं । और विवक्षित पर्यायसे परिणत होते हुए परिभ्रमण करने के उचित क्षेत्रको विहारवत्स्वस्थान कहते हैं । वेदना आदिके कारणसे अपने शरीरसे जीवके प्रदेशोंके उसके योग्य बाह्य प्रदेश में फैलनेको समुद्घात कहते हैं । उसके सात भेद हैं - वेदना, कषाय, वैक्रियिक, मारणान्तिक, तैजस, आहारक और केवली समुद्घात | पूर्वभवको छोड़कर उत्तरभव के प्रथम समय में प्रवर्तनको उपपाद कहते हैं । इस प्रकार ये दस स्थान हैं। उनमें से स्वस्थानस्वस्थान, वेदना समुद्घात, कषाय समुद्घात, मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद इन पाँव पदों में कृष्णलेश्यावाले जीवोंका क्षेत्र सर्वलोक है । अब
३०
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७३६
गो० जीवकाण्डे इंतु विशेषदिदं दशपदंगळप्पुबल्लि स्वस्थानस्वस्थानमें बुदेने दोडे उत्पन्नपुरग्रामादि क्षेत्र स्वस्थानस्वस्थानमें बुदु, विवक्षितपर्यायपरिणनिदं परिभ्रमिसल्कुचितक्षेत्रं विहारवत्स्वस्थानमें - बुदु । वेदनादिवशदिदं निजशरीरदणिदं जीवप्रदेशंगळ्गे बहिःप्रदेशदोळु तत्प्रायोग्यविसर्पणं
समुद्घातम बुदु । परित्यक्तपूर्वभवंग उत्तरभवप्रथमसमयदोळु प्रवर्तनमनुपपादमें बुदु । इंती ५ स्वस्थानस्वस्थानाविदशपदंगळोळ स्वस्थानस्वस्थानदोळं वेदनाससुद्घातदोळं कषायसमुद्घातदोळं
मारणांतिकसमुद्घातदोळमुपपाददोमिती पंचपदंगळोळं कृष्णलेश्याजीवंगळगे क्षेत्रं सर्वलोकमेयक्कुम्मायय्दु पदंगळोळं मुन्नं सख्याधिकारदोळ्पेळ्द कृष्णलेश्याजीवंगळु सर्वसंसारिजीवराशिय किंचिदूनत्रिभागंगळप्पुववं संख्यादिदं भागिसि बहुभागंगळु स्वस्थानस्वस्थानदोळप्पुर्वेदु कोटु शेषकभागमं मत्तं संख्यातदिदं भागिसि बहुभागमं वेदनासमुद्घातदोळप्पुर्वेदु कोटु शेषकभागमं मत्तं संख्यातदिदं भागिसि बहुभागमं कषायसमुद्घातपददोलित्तु शेषैकभागमं फलराशियं माडि एकनिगोदजीवन एकभवायुःस्थितिप्रमाणमुच्छ्वासाष्टादशैकभागमक्कुमदुवुमंतमहत्तमयवकु २२॥ मा कालमं प्रमाणराशियं माडिवोदु समयमनिच्छाराशियं माडि प्र २२॥ प १३-१। इ स १ बंद लब्धमात्रं कृष्णलेश्याजीवंगळु उपपादपददोळप्पुवु १३
३-५। ५५ । २१
तत्र कृष्णलेश्याजीवराशि १३- संख्यातेन भक्त्वा बहभागः १३-१४ स्वस्थानस्वस्थाने देयः । शेषैकभागस्य
३१५ संख्यातभक्तबहुभागः १३- । ४ वेदनासमुद्धाते देयः । शेषकभागस्य संख्यातभक्तबहुभागः -१३-। ४ कषा३-५।५
३-५।५।५। यसमुद्घाते देयः । शेषकभागं फलराशिं कृत्वा, एकनिगोदभवायुरुच्छ्वासाष्टादशकभागान्तर्मुहूर्त २ १ प्रमाणराशि कृत्वा एल समयमिच्छाराशिकृत्वा प्र२१फ १३-१ । इ स १ लब्धमुपपादपदे देयं १३ एतस्मिन्नेव
३-५।५।५।२१ पुनः मारणान्तिकसमुद्घातकालान्तर्मुहूर्तेन गुणिते प्रस १ । फ १३-। इ २१ । लब्धं मूलराशिसंख्यात
३-५१५५२१
कभागं मारणान्तिकसमुद्घाते दद्यात् १३–पुनःकृष्णलेश्यात्रयं सपर्याप्त राशि ४ । ३- संख्यातेन भक्त्वा बहु
३-१
२० इन जीवोंका प्रमाण कहते हैं-कृष्णलेश्यावाले जीवोंकी पूर्वोक्त संख्यामें संख्यातसे भाग
देकर बहुभाग प्रमाण स्वस्थानस्वस्थानवाले हैं। शेष एक भागमें संख्यातसे भाग देनेपर जो बहुभाग आवे, उतने वेदना समुद्घातवाले हैं। शेष एक भागमें पुनः संख्यातसे भाग देनेपर जो बहुभाग आवे, उतने कषाय समुद्घातवाले जीव हैं। शेष एक भागको फलराशि
बनाकर और एक निगोदियाकी आयु उच्छ्वासके अठारहवें भाग प्रमाण अन्तर्मुहूर्त, उसके २५ समयोंको प्रमाणराशि बनाकर तथा एक समयको इच्छाराशि करके फलको इच्छाराशिसे
गुणा कर उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेसे जितना प्रमाण आवे,उतने जीव उपपादवाले हैं। उपपादवाले जीवों के इस प्रमाणको मारणान्तिक समुद्घातके काल अन्तर्मुहूर्तसे गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे, उतने मूलराशिके संख्यातवें भाग जीव मारणान्तिक समुद्घातवाले हैं। ये जीव सर्वलोकमें पाये जाते हैं, इससे इनका क्षेत्र सर्वलोक है। पुनः कृष्णालेश्यावाले पर्याप्त
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
मीयुपपादपद कृष्णलेइयाजीवंगळ संख्येयं फल राशियं माडि मारणांतिकसमुद्घातकालप्रमाणमंतमुहतंमदनिच्छाराशियं माडि गुणियिसुत्तं विरलु प्र स १ फ = १३ - इच्छे २७ । लब्ध३-५ । ५५ । २१
राशियं मूलराशिय संख्यातैकभागमक्कुमा मारणांतिकसमुद्घातपददोलु कृष्णलेइयाजी बंगळप्पुवु १३ मत्तं कृष्णलेश्यात्र पर्याप्तराशियं संख्यातदिदं भागिति बहुभागमं =४ स्वस्थान३-१ ३-४१५ ५
स्वस्थानदोळित्तु शेषकभेोगमं मत्तं संख्यातदिदं भागिति बहुभागमं
विहारवत्स्व स्थान- ५
-
= ४
३-४।५।५ ५
१
पददोलित्तु शेषैकभागमं ४३ - 1५1५ शेषपदंगळोळु यथायोग्यमागि दातव्यमप्पु ।
५
सपर्याप्त मध्यमावगाहनजनितसंख्यातघनांगुलंगळं फलराशियंमाडि विहारवत् स्वस्थानकृष्णलेश्या. जीवराशियनिच्छाराशियं माडि प्र १फ ६१ इ =४ लब्धराशियन पर्वात्तसिदोडे संख्यात३-४१५१५
सूच्यंगुलगुणितजगत्प्रतरमात्रं विहारयतुस्वस्थानदोळु क्षेत्रमक्कुं । = सू २१ । मत्तं पल्या संख्यात
७३७
=४
==४
भागः-४ । ३–५ । स्वस्थानस्वस्थानेऽस्तीतिं देयः । शेषैकभागस्य संख्यातभक्तबहुभागो ४ । ३-५ ५ विहार- १०
५
4
= १
वत्स्वस्थाने देयः । शैषैकभागः ४ । ३५ । ५ शेषपदेषु यथायोग्यं पतितोऽस्तीति ज्ञातव्यः । श्रसपर्याप्तमध्य५
मावगाहनं संख्यातघनाङ्गुलं फलराशि कृत्वा विहारवत्स्वस्थानकृष्णलेश्याजीवराशिमिच्छां कृत्वा— प्र १ । फ६३ । इ = ४
४ । ३-५।५ लब्धमपवर्तितं संख्यातसूच्यङ्गुलगुणितजगत्प्रतरो विहारवत्स्वस्थाने क्षेत्रं
५
१५
सजीवोंके प्रमाणको संख्यातसे भाग देकर बहुभाग प्रमाण स्वस्थानस्वस्थानवाले जीव हैं। शेष एक भाग में संख्यातका भाग देकर बहुभाग प्रमाण विहारवत्स्वस्थानवाले जीव हैं। शेष एक भाग रहा सो शेष स्थानों में यथायोग्य जानना । त्रसपर्याप्त जीवोंकी मध्यम अवगाहना के अनेक प्रकार हैं। उसे बराबर करनेपर एक त्रसपर्याप्त जीवकी मध्यम अवगाहना संख्यात घनांगुल है । उसे फलराशि करके और विहारवत्स्वस्थान की अपेक्षा कृष्णलेश्यावाले जीवोंकी राशिको इच्छाराशि करो। तथा एक जीवको प्रमाणराशि करो । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाण राशिका भाग देनेपर संख्यात सूच्यंगुलसे गुणित जगत्प्रतर प्रमाण विहारवत्स्वस्थानका क्षेत्र आता है ।
१. म भागसंख्यात पहुभागं । २. म व्यंगलप्पुवु । ३. ब. °ति ज्ञातव्यः ।
९३
२०
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५
७३८
मात्र घनांगुलगुणितजगच्छ्रेणीमात्रकृष्णलेश्यावैक्रियिकराशियं
-६ प संख्यातदिदं भागिसि ३ a
बहुभागमं –६ प ४ स्वस्थानस्वस्थानदोलित्तु मर्त्तामते शेषद शेषद संख्यातद बहुभाग
३-०५
वेदनासमुद्घातदोळं
गो० जीवकाण्डे
बहुभागंगळं विहारवत्स्वस्थानदोळं – ६ प ४
a
३-५१५
मक्कु ६ प १
-
a
३-१५५५५
कषायसमुद्घातदोळं – ६ प ४ दातव्यंगळवु शेषैकभागं वैक्रियिकसमुद्घातबोळ बातव्य
a
३- । ५५५५
मिवं यथायोग्य वैकुठवंणावगाहनोत्पन्न संख्यातघनांगुलंगळदं गुणिसुतं
विरल धनांगुलवग्गंगुणितासंख्यात श्रेणीमात्रं वैक्रियिकसमुद्घातपददोळु क्षेत्रमक्कुं = ६ । ६ । इंती दापरंगळ रचनासंदृष्टियं स्थापिसि रचनेयिदु :
भवति = सू २१ । पुनः पल्यासंख्यातमात्रघनाङ्गुलगुणितजगच्छ्रे णि कृष्णलेश्या वैक्रियिकराशि
भक्त्वा बहुभोगं - ६ प ४ स्वस्थानस्वस्था
३-३।५ वत्स्वस्थाने - ६ प ४ वेदनासमुद्घा - ६ प ४ ३- ३५५ ३-०५५५ ज्ञात्वा शेष भागो वैक्रियिकसमुद्घाते देयः - ६ प । १ ३- ०५५५५
-६ प ४
a
३–५। ५५
०
१. ब. भागः | २. ब. नेऽस्तीतिज्ञात्वाशे ।
૨
६ प संख्यातेन
३- a
दत्त्वा शेषशेषस्य संख्यातबहुभाग संख्या तबहुभागो विहार
अयमेव यथायोग्य वैकुर्वाणावगाहनोत्पन्नसंख्यात
घनाङ्गुलैर्गुणितः — घनाङ्गुलवर्ग गुणितासंख्यात श्रेणिमात्रं वैक्रियिकसमुद्घाते क्षेत्रं भवति - ६ । ६ । पुनः सामान्याध-ऊर्ध्वतिर्यग्मनुष्यलोकान् पञ्च संस्थाप्यालापः क्रियते-
कषायसमुद्घाते च ६ । प ४ पतितोऽस्तीति३-०५५५५
1
वैक्रियिक समुद्घातमें क्षेत्र घनांगुलके वर्गसे गुणित असंख्यात जगतश्रेणि प्रमाण है। १५ वह इस प्रकार है - कृष्णलेश्यावाले वैक्रियिक शक्तिसे युक्त जीवोंके प्रमाणको संख्यात से भाग दो। बहुभाग प्रमाण जीव स्वस्थानस्वस्थानमें हैं। शेष एक भागमें पुनः संख्यात से भाग दो। बहुभाग प्रमाण जीव विहारवत्स्वस्थानमें हैं। शेष एक भाग में पुनः संख्यातसे भाग दो। बहुभाग प्रमाण जीव वेदना समुद्घातमें हैं। शेष एक भाग में संख्यातसे भाग दो। बहुभाग प्रमाण जीव कषाय समुद्घात में हैं। शेष एक भाग प्रमाण जीव वैक्रियिक २० समुद्घात में हैं। इस प्रकार जो वैक्रियिक समुद्घातवाले जीवोंका प्रमाण है, उसको ही यथायोग्य एक जीव सम्बन्धी वैक्रियिक समुदुघात के क्षेत्र संख्यात घनांगुल से गुणा करनेपर नांगल वर्गसे गुणित असंख्यात श्रेणिमात्र वैक्रियिक समुद्घातका क्षेत्र होता है ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
भी स्वस्थान
| वेदना- | कषाय वैक्रियिक मारणांति तेज आके उपपाद सामान्यलोक= स्वस्थान
र समुद्घात समुद्घात समुद्घात समुद्घात =१३-४४६७ = १३-४ -१३-४ -६पा६७ = १३
१३-= अधोलोक=४ ३-५ | ४५५ ३-५५३-५५५ ३-५५५५ ३-७ ० ० ० ३-२७७ =१३-४/७४।६७ =१३-४ = १३-४-६पा६७ =३-
१३-= ऊर्ध्वलोक-३
.
-
३ ५। ३४५५ ३।५।५ । ३-५५५/०५५५५ ३७
सामा
=१३-४ = ४।६७ = १३-४ -१३-४-६५।६७ = १३
००० ३२७७ तिर्यग्लोक-१७ १३-=
मनुष्यलोक ३२७७
३-५ ३४५५ ३५५
३-५५५ ३५५५५ ३ ७
मत्तं सामान्यलोकमं अधोलोकमुमनूवलोकमुमं तिर्यग्लोकमुमं मनुष्यलोकमुमं संस्थापिसि. बळिक माळापं माडल्पडुगुमते दोडे स्वस्थानस्वस्थान - वेदनाकषाय - मारणांतिकोपपादंगळेब पंचपदंगळोळु कृष्णलेश्याजीवंगळु कियतक्षेत्रदोलिरुत्तविपु दोडुत्तरं कुडल्पडुगुं सर्वलोकदोळिरुत्तिप्पुवु विहारवत्स्वस्थानदोळु कृष्णलेश्याजोवंगळु कियत्क्षेत्रदोलिरुत्तिर्युवेदोडुत्तरं पेडल्पडुगुं सामान्यदि मूरुं लोकंगळ असंख्यातेकभागदोळं तिर्यग्लोकद संख्येयभागदोळे मिरुत्ति'वेक दोडे एकलक्षयोजनोत्सेधमं नोडलेकजीवशरीरोत्सेधक्क संख्यातगुणहीनत्वदिदं मनुष्यलोकमं नोडलुम- , संख्यातगुणक्षेत्रदोलिरुतिप्पुवु । वैक्रियिकपददोळु कृष्णलेश्यय जीवंगळु एनितु क्षेत्रंगळोलिरुतिप्प्वेदोड सामान्यदि नाल्कु लोकंगळऽसंख्यातैकभागदोळं मनुष्यलोकमं नोडलुमसंख्यातगुणक्षेत्रदोळि
तद्यथा-कृष्णलेश्याजीवाः स्वस्थानस्वस्थानवेदनाकषायमारणान्तिकोपपादपदेष कियत्क्षेने तिष्ठन्ति ? सर्वलोके तिष्ठन्ति । विहारवत्स्वस्थानपदे पुनः सामान्यादिलोकत्रयस्यासंख्यातैकभागे तिर्यग्लोकस्य लक्षयोजनोत्सेधादेकजीवशरीरोत्सेधस्य संख्यातगुणहीनत्वात् संख्यातकभागे मनुष्यलोकादसंख्यातगुणे च क्षेत्रे तिष्ठन्ति । वैक्रियिकसमुद्घातपदे च सामान्यादिचतुर्लोकानामसंख्यातैकभागे मनुष्यलोकादसंख्यातगुणे च क्षेत्रे तिष्ठन्ति । १५
पुनः सामान्य लोक, अधोलोक, ऊर्ध्वलोक, तिर्यक्लोफ और मनुष्यलोक इन पांचकी स्थापना करके कथन करते हैं-कृष्णलेश्यावाले जीव स्वस्थानस्वस्थान, वेदना, कषाय, मारणान्तिक और उपपाद स्थानों में कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्वलोकमें रहते हैं। किन्तु विहारवत्स्वस्थानमें सामान्यलोक, अधोलोक, ऊर्ध्वलोकके असंख्यातवें भागमें रहते हैं। तिर्यक्लोक एक लाख योजन ऊँचा होनेसे तथा एक जीवके शरीरकी ऊँचाई उससे संख्यात- ' गुणा हीन होनेसे तिर्यक्लोकके संख्यातवें भागमें रहते हैं। तथा मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। वैक्रियिक समुद्घात स्थानमें जीव सामान्य आदि चार लोकोंके असंख्यातवें १. म दोलिप्प्वेकेंदोडे ।
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७४०
गो० जीवकाण्डे रुतिप्र्युवेक दोडसंख्यातघनांगुलवर्गमात्रजगच्छ्रेणीमात्रं तज्जीवक्षेत्रमप्पुरिदं । ई प्रकादि नीललेश्यगं कापोतलेश्यगं वक्तव्यमक्कुं।
मत्तं तेजोलेश्या राशियं ॥ १ (१) संख्यातदिदं भागिसि बंद बहुभागमं स्वस्थानस्व
% 3D
४६५-१
स्थानदोलित्तु शेषेकभागमं मत्तं संख्यातदिदं भागिसि बहुभागमं विहारवत्स्वस्थानदोलित्तु
५
॥ १॥ ४ शेकभागमं मत्तं संख्यातदिदं भागिसि बहुभागमं वेदनासमुद्घातदोलित्तु
४॥६५%१५५
= १४ शेषैकभागमं मत्त संख्यातदिवं भागिसि बहुभागमं कषायसमुद्घात दोळित्तु४६५=१५५५
१ ४ शेषेकभागमं वैक्रियिकपददोळीवुदु ।४६५-१५५५५
कुतः ? असंख्यातघनाङ्गुलवर्गमात्रजगच्छणीनां तत्क्षेत्रत्वात् । एवं नीलकपोतयोरति वक्तव्यम् । पुनस्तेजोलेश्या
जीवराशि = १संख्यातेन भक्त्वा भक्त्वा बहभागं स्वस्थानस्वस्थाने
४। ६५-१
१
= १४ विहारवत्स्वस्थाने - १४ ४ । ६५-१५
४। ६५-
१ ५ । ५ ।
वेदनासमदघाते- = १४
४। ६५-१। ५। ५ । ५
भागमें और मनुष्यलोकसे असंख्यातगुणे क्षेत्रमें रहते हैं। क्योंकि वैक्रियिक समुद्घातवालोंका क्षेत्र असंख्यात धनांगुलके वर्गसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण है। इसी प्रकार नील और कापोतलेश्याका भी कहना चाहिए।
अब तेजोलेश्याका क्षेत्र कहते हैं-तेजोलेश्यावाले जीवोंकी राशिमें संख्यातसे भाग देकर बहुभाग विहारवत्स्वस्थानमें जानना। शेष रहे एक भागमें संख्यातसे भाग देकर बहुभाग वेदना समुद्घातमें जानना । पुनः शेष रहे एक भागमें संख्यातसे भाग देकर बहुभाग कषाय समुद्घातमें जानना। शेष रहा एक भाग सो वैक्रियिक समुद्घातमें जानना। इस
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
।
॥ इल्लि सप्तधनुरुत्सेधमुं ७ तद्दशमभागमुखविस्तारमुं ७ अप्प देवावगाहनंगळो :४। ६५ = १५५५५ "वासो तिगुणो परिही वासचउत्थाहदो दु खेत्तफळं, ७ । ३।७।७ खेत्तफळं वेहगुणं
१०।१०।४ ७।३।७।७ खादफळं होइ सव्वत्थ।" १०।१०।४
एंदी देवावगाहनमं घनात्मकंगळप्प धनुगळे मंगुळगळं माडल्वेडि तो भत्तारर घनात्मकविवं गुणिसि मत्तमायंगुलंगळं प्रमाणांगुलंगळं माडल्वेडि पंचशतदिदं घनात्मकदिदं भागिसि स्थापिसि-५ ७।३।७।७।९६ ॥ ९६ ॥ ९६ अपत्तिसिदोडे देवावगाहनं प्रमाणघनांगुलसंख्यातेकभाग१०।१०। ४ । ५००। ५००। ५००
.
मक्कुमदरिदं स्वस्थानस्वस्थानराशियं गुणियिसि = १।४।६। मत्तमी येकावगाहनद एकादि
४। ६५ । =७५७ ~~mmmmmmmmmmmmmmmm
कषायसमुद्घाते च दत्त्वा
शेषकभागो वैक्रियिकसमुद्घाते देयः
४ । ६५ = १।५ । ५ । ५। ५
तत्र स्वस्थानस्वस्थानराशिः सप्तधनुरुत्सेध ७ तद्दशांशमुखविस्तारविस्तार ७ ४। ६५ = १५ । ५ । ५ । ५ देवावगाहनेन वासोत्तिगुणेत्याद्यानीतधनूरूपखातफलेन ७ । ३ । ७ । ७ घनाङ्गुलोकतु षण्णवतिघनगुणितेन पुनः १०
१० ।१०।४ प्रमाणाङ्गुलीकतु पञ्चशतघनभक्तेन ७ । ३ । ७ । ७ । ९६ । ९६ । ९६ । अपवर्तिते जातघनाङ्गुल
१०। १०। ४ । ५००। ५००। ५००
प्रकार जीवोंका प्रमाण कहा। स्वस्थानस्वस्थान अपेक्षा क्षेत्रका प्रमाण लानेके लिए कहते हैं-तेजोलेश्या मुख्य रूपसे भवनत्रिक आदि देवोंमें होती है। उनमें एक देवकी अवगाहनाका प्रमाण सात धनुष ऊँचा और सात धनुषके दसवें भाग चौड़ा है। इसका क्षेत्रफल लानेके लिए सात धनुषके दसवें भाग चौड़ाईको तिगुना करनेपर परिधि होती है, क्योंकि चौड़ाईसे तिगुनी परिधि कही है। इस परिधिको चौड़ाईके चतुर्थ भागसे गुणा करनेपर क्षेत्रफल होता है। इसकी ऊँचाई सात धनुषसे गुणा करनेपर घनरूप क्षेत्रफल होता है। घनरूप राशिके गुणकार भागहार घनरूप ही होते हैं। सो यहाँ घनांगुल करनेके लिए एक धनुषके छियानबे अंगुल होते हैं,अतः घनरूप क्षेत्रफलको छियानबेके घनसे गुणा करना । यहाँ कथन प्रमाणांमुष्ठसे है और देवोंके शरीरका प्रमाण उत्सेधांगुलसे होता है, अतः पाँच सौके घनसे भाग १. मगलुमनंगुलं'।
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ܐ
७४२
गो० जीवकाण्डे
प्रदेश विसर्पणक्रमदिदं वृद्धियुत्कृष्टदिदं त्रिगुणितविस्तादिदं पुट्टिद राशि मूलराशियं नोडलु नवगुण
१।२
मक्कु ६ । ६ । ६।००।६।९ मा नवगुणमूलराशियं मुखभूमि समासार्द्ध मध्यफलमे -
७
७७
२०
७३।३ १०।
दुमुखं शून्यमक्कुमे दोडे द्वितीयविकल्पं मोदगोंड प्रदेशवृद्धिक्रममप्पुर्दारमा शून्यमं कूडिदलियिसिदोडे समीकरणद पुट्टिद मध्यमावगाहनं नवार्द्धघनांगुल संख्यातैकभागमवकुमदरिदं वेदना
५ समुद्घातराशियमं कषायसमुद्घातराशियुमं गुणिसुवुदु वेद
७३
१०१४
||__L
= १४६।९
४ । ६५ = ५५५२
॥1
= १४६।९ मत्तं संख्यातयोजनायाममुं सूच्यंगुल संख्यात भागविष्कंभोत्सेधमुमागि मूल४ । ६५ । ५५५ । २ संख्येयभागेन ६ हतस्तत्क्षेत्रं स्यात् । वेदनाकषायराशी द्वौ तत्समुद्घातयोर्मूलशरीरात्प्रदेशोत्तरवृद्धचा उत्कृष्टविकल्पस्य त्रिगुणितव्यासस्य वासो तिगुणो परिहीत्याद्यानीत - ७ । ३ । ३ । ७ । ३ । ७ घनफलस्य नव
१० । १० । ४
कषाय
देना । ऐसा करनेसे प्रमाणरूप घनांगुलके संख्यातवें भाग एक देवके शरीरकी अवगाहना हुई । इस अवगाहनासे पहले जो स्वस्थानस्वस्थानमें जीवोंका प्रमाण कहा था, , उसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतना स्वस्थानस्वस्थानका क्षेत्र जानना ।
१५
वेदना समुद्घात और कषाय समुद्घातमें आत्मा के प्रदेश मूल शरीरसे बाहर निकलकर एक प्रदेश क्षेत्रको रोर्के या एक-एक प्रदेश बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट क्षेत्रको रोकें, तो चौड़ाई में मूल शरीर से तिगुने क्षेत्रको रोकते हैं और ऊँचाई मूल शरीर प्रमाण ही है । इसका घनरूप क्षेत्रफल करनेपर मूल शरीर के क्षेत्रफलसे नौगुणा क्षेत्रफल होता है । सो जघन्य एक प्रदेश और उत्कृष्ट मूल शरीर से नौगुणा क्षेत्र हुआ । इनका समीकरण करनेसे एक जीवके मूलशरीर से साढ़े चार गुना क्षेत्र हुआ। शरीरका प्रमाण पहले घनांगुलके संख्यातवें भाग कहा था । सो उसे साढ़े चार गुना करनेपर एक जोव सम्बन्धी क्षेत्र होता है । उससे वेदना समुद्घातवाले जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर वेदना समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र आता है । तथा कषाय समुद्घातवाले जीवोंके प्रमाणसे गुणा करनेपर कषाय समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र आता है । विहार करते हुए देवोंके मूलशरीरसे बाहर आत्माके प्रदेश फैलें, तो वे प्रदेश एक जी की अपेक्षा संख्यात योजन तो लम्बे और सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण चौड़े व ऊँचे क्षेत्रको रोकते हैं । उसका क्षेत्रफल संख्यात घनांगुल प्रमाण होता है। इससे पूर्व में कहे विहारवत्स्वस्थानवाले जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर सब जीवोंके बिहारवत्स्वस्थान २५ १. म राशि ७ । ३ । ३ । ७ । ३ । ७ मूल ं । २. म मा मूल ।
१० । १० । ४
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७४३
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका शरीरदिदं पोरमटु निमित्मिप्रदेशावष्टब्धक्षेत्रजनित २।२ संख्यातघनांगुलदिदं विहारवत्स्व
यो
॥
४। ६५%3D७५५
॥
४६५ - ७५५५५
स्थान-राशियं गुणिसुदु = १४।६७ स्वस्वेच्छावदिदंदै विगुठ्विसिद गजादिशरीरावगाहनोपलब्धसंख्यातघनांगुलदिदं वैक्रियिक समुद्घातराशियं गुणिसुवुदु
=१।६।७ इंतु गुणिसुत्तं विरलु तंतम्म क्षेत्राक्कुं। मत्तं व्यंतरराशियं एकदेवस्थितिप्रमाणसंख्यातवर्ष । १००००। शुद्धशळाकेगळ्पूर्वोक्तंगदिदं । ११ भा १२= ५ गि सुवुदंतु भागिसुतं विरलेकसमयदोळु म्रियमाणराशियक्कु =
४६५ = ८१।१०।११ ऋजुगतिय जीवंगळ तेगेयल्वेडि पल्यासंख्यातेकभागदिदं भागिसि एकभागमं कळेदोर्ड बहुभागं विग्रहगतिय जीवंगळप्पुवु ४६५ = ८१ । १० । ०१५ प अवरोळु मारणांतिकसमुद्घातरहित
मदरोळ
गुणितमात्रत्वात् सर्वविकल्पसमीकरणलब्धेन तदर्धमात्रेण ६ । ९ हतौ तत्क्षेत्रेस्याताम्। विहारवत्स्वस्थानराशिः
संख्यातयोजनायामसूच्यङ्गलसंख्येयभागविष्कंभोत्सेधक्षेत्र २ । २ जनितसंख्यातघनाङ्गुलै: ६१ हतस्तत्क्षेत्रं १०
यो स्यात् । वैक्रियिकसमुद्घातराशिः स्वेच्छावशाद्विकुर्वितगजादिशरीरावगाहनोत्पन्नसंख्यातघनाङ्गलैः ६१ हतस्तत्क्षेत्र स्यात् । व्यन्तरराशिः एकदेवस्थितिप्रमाणसंख्यातवर्ष-१०००० शुद्धशलाकाभिः । ११ भक्तः एकसमये म्रियमाणराशिः स्यात् =
. अत्र ऋजुगतिजीवानपनेतुं पल्यासंख्यातेन भक्त्वैकभागं ४ । ६५% ८१ । १० । ११
• अपनी
सम्बन्धी क्षेत्रका प्रमाण आता है। वैक्रियिक समुद्घातके सम्बन्धमें यह ज्ञातव्य है कि देवोंके मूलशरीर तो अन्य क्षेत्रमें रहते हैं और विहार करते हुए विक्रियारूप शरीर अन्य १५ क्षेत्रमें होते हैं। दोनोंके बीच में आत्माके प्रदेश सूच्यंगुलके संख्यातवें भागमात्र ऊँचे चौड़े फैले हैं। और ऊपर मुख्यताकी अपेक्षा संख्यात योजन लम्बे कहे हैं। तथ इच्छावश हाथी, घोड़ा इत्यादि रूप विक्रिया करते हैं। उसकी अवगाहना एक जीवकी अपेक्षा संख्यात धनांगुल प्रमाण है। इससे पूर्व में कहे वैक्रियिक समुद्घात करनेवाले जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर सर्वजीव सम्बन्धी वैक्रियिक समुद्घातमें क्षेत्रका परिमाण आता २. है। पीतलेश्यावालोंमें व्यन्तर देवोंका मरण अधिक होता है, अतः उनकी मुख्यतासे यहाँ मारणान्तिक समुद्घात सम्बन्धी कथन करते हैं । व्यन्तर देवोंकी संख्यामें एक व्यन्तर देवकी १. व. त्सेधमूलशरीराद् बहिनिसृतात्मप्रदेशावष्टब्धक्षेत्र २ २ जनितसंख्यातघनाङ्गुलै ६ १ हतस्तक्षेत्र ।
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७४४
गो० जीवकाण्डे
जीवंगळं तेगेयल्वेडि पल्यासंख्यातदिदं भागिसि एकभागमं कळेवु बहुभागं मारणांतिक समुद्घात
१०
पप
०
aa
सहितजीवंगळप्पुवु । ४।६५ = | ८१ १० | ११ प प मत्तंवरोळु समीपमारणांतिकसमुद्धात जीवंगळं कळेल्वेडि पल्यासंख्यातदिदं भागिसि बहुभागमं कळंदु शेषैकभागं दूरमारणांतिकसमुद्धात -
aa
प
०
जीवंगळप्पु ४/६५ = | ८१ । १० । २११ a
५ हूर्तदो संभविसुव
फलराशियं साडि एकसमयमं प्रमाणराशियं माडि प्र स १ । फ
1
6
प
शेषबहुभागो विग्रहगतिजीवराशिर्भवति =
इ २१ बंद लब्धं 'समस्तमारणांतिक समुद्घात जीवंगळ ४६५८१| १० | ११२ प
a
प
a
a
४ । ६५
प १
a ई राशियं मारणांतिकसमुद्घात कालांत
प पप
a
a a
शुद्धशलाकेगळनिच्छाराशियं माडि मारणांतिकसमुद्घातजी वंगळं
प
a
०
= ८१ । १०३ १ १ प प
a a
?
प
प प १
०
४१६५१ = ८ १।१०१११ प प प
aaa
=
შ
०
४ । ६५ = ८१ । १० । ३११ प
a
द्वातरहितानपनेतु पल्यासंख्यातेन भक्त्वकभागं त्यत्क्वा शेषबहुभागो मारणान्तिकसमुद्घातजीवराशिर्भवति -
2
अत्र समीपमारणान्तिकसमुद्घातजीवानपनेतुं पत्या संख्यातेन भक्त्वा
प
a
प
a
११३१
प
a
अत्र मारणान्तिकसमु
संख्यात वर्ष - - दस हजार वर्षकी स्थिति के समयोंकी संख्यासे भाग देनेपर जितना प्रमाण आवे, उतने जीव एक समय में मरते हैं । इन मरनेवाले जीवोंकी संख्या में पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देनेपर एक भाग प्रमाण जीवोंकी ऋजुगति होती है और शेष बहुभाग प्रमाण जीव विग्रह गतिवाले होते हैं । विग्रहगतिवाले जीवोंके प्रमाणमें पल्यके असंख्यातवें भागसे १५ भाग दें। एक भाग प्रमाण जीवोंके मारणान्तिक नहीं होता, बहुभाग प्रमाण जीवोंके मारणान्तिक समुद्घात होता है। मारणान्तिक समुद्घातवाले जीवोंके प्रमाण में पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग दें । बहुभाग प्रमाण समीप क्षेत्रमें मारणान्तिक समुद्घात करने१. म. सर्वमा ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७४५ ई राशियं रज्जुसंख्यातैकभागायामसूच्यंगुलसंख्यातैकभागविष्कंभोत्सेधक्षेत्रद २ २ घनफलभूत
प्रतरांगुलसंख्यातेकभागगुणितजगच्छेणिसंख्यातैकभागदिदं गुणिसुत्तं विरलु मारणांतिकसमुद्घातक्षेत्रमक्कुं ४ । ६५ = । ८१ । १० । २१ प प ०१-४ मत्तं द्वादश योजनायामनवयोजनविष्कंभ
aa पपप१११
a a a सूच्यंगुलसंख्यातेकभागोत्सेध २ ९ क्षेत्रघनफलमसंख्यातघनांगुलप्रमितमं संख्यातजीवंगळिंदगुणि
यो १२
बहुभागं त्यक्त्वा एकभागो दूरमारणान्तिकजीवराशिर्भवति-- प प १
aa . ४। ६५-८१ । १०।११पपप
aaa अस्मिन्मारणान्तिकसमुद्घातकालान्तर्मुहूर्तसंभविशुद्धशलाकाभिः । १ संगुण्य एकसमयेन भक्ते सर्वदूरमारणान्ति
कसमुद्घातजीवप्रमाणं भवति ।- प प १।१ अस्मिन् रज्जुसंख्यातकभागाया
a ao ४ । ६५-८१ । १०।११पपप
aaa मसूच्यङ्गुलसंख्यातैकभागविष्कम्भोत्सेधक्षेत्रस्य २ । २ घनफलेन प्रतराङ्गुलसंख्यातकभागगुणितजगच्छ्रोणि
संख्यातकभागेन- ४ गुणिते दूरमारणान्तिकसमुद्धातस्य क्षेत्रं भवति
वाले जीव हैं और एक भाग प्रमाण दूरवर्ती क्षेत्रमें समुद्घात करनेवाले जीव हैं । मारणा- १० न्तिक समुद्घातका काल अन्तर्मुहतमात्र है। दूर मारणान्तिक समुद्रात करनेवाले जीवोंकी राशिमें अन्तर्मुहूर्तके समयोंसे गुणा करनेपर सब दूर मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंका प्रमाण होता है। दूर मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले एक जीवके प्रदेश शरीरसे बाहर फैलें, तो मुख्य रूपसे एक राजूके संख्यातवें भाग लम्बे और सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण चौड़े व ऊँचे क्षेत्रको रोकते हैं। इसका घनक्षेत्रफल प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे १५ जगतश्रेणिके संख्यातवें भागको गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतना है। इससे दूर मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले सब जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर सब जीवोंके दूर मारणान्तिक समुद्घातका क्षेत्र होता है। अन्य मारणान्तिक समुद्घातका क्षेत्र थोड़ा होनेसे मुख्य रूपसे इसीका ग्रहण किया है। तैजस समुद्घातमें आत्मप्रदेश शरीरसे बाहर निकलनेपर बारह योजन लम्बे, नौ योजन चौड़े और सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण ऊँचे क्षेत्रको २० रोकते हैं। इसका घनक्षेत्रफल संख्यात घनांगुल प्रमाण होता है। इससे तैजस समुद्घात
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५
७४६
गो० जीवकाण्डे
सुत्तिरलु तेजः समुद्घातक्षेत्रमक्कु ६२ । ७ । मत्तं सूच्यंगु लसंख्यातैक भागविष्कंभोत्सेधमुं संख्यातयोजनायामक्षेत्रघनफलमं २ २ लब्धसंख्यातघनांगुलप्रमितमं संख्यातजीवंगळदं गुणिसुत्तं विरलु ११
यो 2
आहारसमुद्घातक्षेत्रमक्कुं ६ । १ । १ ।
२०
मरदि असंखेज्जदिमं तस्सासंखाय विग्गहे होंति । तस्सासंखं दूरे उववादे तस्स खु असंखं || ५४४ ॥
सूत्राभिप्रायमे दोडे उपपादक्षेत्रमं तरत्वडि सौधम्र्मेशान कल्पद्वयद जीवराशिघनांगुलतृतीयमूलगुणितजगच्छ्रेणिप्रमितमक्कुं ३ ॥
ई राशियं पल्या संख्यातदिदं खंडिसिदेकभागं प्रतिसमयं म्रियमाणराशियक्कुं - ३ मत्तमदं
प
१० ४ । ६५ = ८१ । १० । ३१ । पपप
a a a
c
प । प । १ ।१। - ४ ७ 122
a
a
संख्यातैकभागोत्सेध २ । ९ यो क्षेत्रघनफलं संख्यातघनाङ्गुलप्रमितं ६ १ संख्यात जीवैर्गुणितं तैजससमुद्घातक्षेत्रं
ू ।
यो १२ भवति | ६ | ू | 2 । पुनः सूच्यङ्गुल
१. म ६७ ।७।
a
पुनर्द्वादशयोजनायामनवयोजनविष्कंभसूच्यङ्गुल
लसंख्यातैकभागविष्कम्भोत्सेधसंख्यातयोजनायामक्षेत्रस्य २ । २ घनफलं
212 यो 2
संख्यातघनाङ्गुलप्रमितं ६ १ संख्यातजीवैर्गुणितं आहारकसमुद्घातक्षेत्रं भवति ६ १ । १ ।। ५४३॥ अस्यार्थः उपपादक्षेत्रमानेतु ं सौधर्मद्वयजीवराशी घनाङ्गुलतृतीयमूलगुणितजगच्छे णिप्रमि
१५ करनेवालोंके प्रमाण संख्यातको गुणा करनेपर तैजस समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र आता है । आहारक समुद्घात में एक जीवके प्रदेश शरीर से बाहर निकलनेपर संख्यात योजन प्रमाण लम्बे और सूच्यंगुल संख्यातवें भाग चौड़े ऊँचे क्षेत्रको रोकते हैं। इसका घनक्षेत्रफल संख्या घांगुल होता है। इससे आहारक समुद्घातवाले जीवोंके प्रमाण संख्यातको गुणा करनेपर आहारक समुद्घातका क्षेत्र होता है ।।५४३ ॥
-
इस गाथाका अभिप्राय उपपादक्षेत्र लाना है । पीतलेश्यावाले सौधर्म ईशानवर्ती जीव मध्यलोक से दूर क्षेत्रवर्ती हैं। अतः उनके कथनमें क्षेत्रका परिमाण बहुत भाता है । अतः
३ पल्या
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७४७
०
पल्यासंख्यातदिदं खंडिसिद
मत्तमिदं पल्यासंख्यादिंदं
-३ प पप
भागिसिद बहुभागंगळु मारणांतिकसमुद्घातमुळ्ळवप्पुवु - ३ प प इवर पल्यासंख्यातेकभाग
प प
प
०
.०
मात्रंगळ दूरमारणांतिकसमुद्घातजीवंगळप्पुवु -३ प प ई दूरमारणांतिकसमुद्घातजीव
aa.. पप प प
राशिय द्वितीयदीर्घदंडस्थितमारणांतिकपूर्वोपपादजीवागमनाथं पल्यासंख्यातदिदं भागिसिदेकभागमुपपादजीवंगळप्पुवु -३ प प ईयुपपादजीवराशियं समीकरणकृततिर्यग्जीवमुखप्रमाण ५
a a पपपप प aaaaa
संख्यातेन भक्ते एकभागः प्रतिसमयं म्रियमाणराशिर्भवति-३ तस्मिन् पल्यासंख्यातेन भक्ते बहुभागो विग्रहगतो
भवति-३ प तस्मिन् पल्यासंख्यातेन भक्त बहुभागो मारणान्तिकसमुद्घाते भवति
पप । aa
-३ प प अस्य पल्यासंख्यातकभागो दूरमारणान्तिके जीवा भवन्ति -३ । प ५१ प प प ३a
_ प प प प ० ० aaa
a a a a अस्मिन् द्वितीयदीर्घदण्डस्थितमारणान्तिकपूर्वोपपादजीवानानेतु पल्यासंख्यातेन भक्ते एकभाग उपपादजीव
उनकी मुख्यतासे कहते हैं। सो सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंकी राशि धनांगुलके तीसरे वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण है। इसमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देनेपर एक भाग प्रमाण प्रतिसमय मरनेवाले जीवोंकी राशि होती है। उसमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देनेपर बहुभाग प्रमाण विग्रहगतिवाले जीवोंका प्रमाण होता है। उस प्रमाणमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देनेपर बहुभाग प्रमाण मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीवोंका प्रमाण होता है। उसमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देनेपर एक भाग प्रमाण दूर । मारणान्तिक करनेवाले जीव होते हैं। इसमें द्वितीय दीर्घदण्डमें स्थित मारणान्तिक समुद्घातसे पूर्व होनेवाले उपपादसे युक्त जीवोंका प्रमाण लानेके लिए पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देनेपर एक भाग प्रमाण उपपाद जीवोंका प्रमाण होता है। यहाँ तियंचोंके उत्पन्न होने
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५
गो० जीवकाण्डे
संख्यातसूच्यं गुल विष्कंभोत्सेधद्वयर्द्धरज्वायतक्षेत्र २१ २१ घनफलददं संख्यातप्रतरांगुलगुणित
३
२
७४८
द्वयर्द्धरज्जुगळदं - ३ | ४१ गुणिसुत्तं विरलु उपपादक्षेत्रमक्कुं
७२
= ४
४ । ६५ = १ । ६।५
11
स्वस्थाने देयः
लेश्येयोल पद्मलेश्याजीवराशियं संख्यातदिदं भागिति बहुभागमं स्वस्थानस्वस्थानपददोळित्तु शेषैकभागमं मत्तं संख्यातदिदं भागिसि बहुभागमं बिहारवत्स्वस्थानदोलित्तु
-४।
शेषैकभागमं मत्तं संख्यातदिदं भागिति बहुभागमं वेदनासमुद्घातपद
४ । ६५ = १ । ६।५।५
दोळित्तु =४
शेषैकभागमं कथायसमुद्घातपददोलित -१
४ । ६।५ = १६।५/५/५ ४ । ६५ - १६।५।५।५ aforमल्लि प्रथमराशियं द्वितीयं द्वितीयराशियुमं क्रोशायाम तन्नवमभाग मुख विष्कंभतिर्य्यग्जीवा
१० उपपादक्षेत्रं भवति - ३ प
a
प प प प प
a a a a а
2
-
11
O
४
४ । ६५ = १६।५।५
३ प
राशिर्भवति ३ प
a
a
प प प प प
aaaa a
धद्वयर्धरज्ज्वायत क्षेत्रघनफलेन २ १ । २१ संख्यातप्रतराङ्गुलगुणितद्वय र्धरज्जुप्रमितेन – ३ । ४ । १ गुणिते
-३
७।२
७।२
9
a
४
४ । ६५ = १६ ।५
प प प
aaa
ი
प
१ १ अस्मिन् समीकरणकृततिर्यग्जीवमुखप्रमा णसंख्यात सूच्यङ्गुलविष्कम्भोत्से
प - ३।४१ पद्म
a
पप । ७२
aa
प - ३ । ४ । १ । पद्मलेश्यायां तज्जीवराशे संख्यात भक्तबहुभागः स्वस्थान
a ७२
शेषैकभागस्य संख्यातभक्तबहुभागो विहारवत्स्वस्थाने देयः
11
शेषैकभागस्य संख्यात भक्तबहुभागो वेदनासमुद्घाते देयः=
४
४।६५= १६ । ५।५।५
की मुख्यतासे एक जीव सम्बन्धी प्रदेश फैलनेकी अपेक्षा डेढ़ राजू लम्बा संख्यात सूच्यंगुल प्रमाण चौड़ा ऊँचा क्षेत्र है । इसका घनक्षेत्रफळ संख्यात प्रतरांगुलसे डेढ़ राजूको गुणा करने१५ पर जो प्रमाण है, उतना है। इससे उपपाद जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर उपपाद सम्बन्धी
क्षेत्र आता है । यह पीतलेश्यामें क्षेत्रका कथन किया । अब पद्मलेश्यामें करते हैं
पद्मलेश्यावाले जीवोंकी संख्या में संख्यातका भाग देकर बहुभाग स्वस्थानस्वस्थान में जानना । एक भाग में पुनः संख्यातसे भाग देकर बहुभाग विहारवत्स्वस्थान में जानना । शेष एक भागमें संख्यातसे भाग देकर बहुभाग वेदना समुद्घात में जानना । शेष रहा एक
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| ९।
४
४।६५ = १
पहारवत्स्वस्थान =४।६।१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७४९ वगाहनमं वासो तिगुणो परिहीत्यादि २००० ३ | २००० २००० लब्धं संख्यातघनांगुलंगाळदं गुणिसि स्व = स्व = = ४ । ६१ विहारवत्स्वस्थान =४।६।१
४। ६५ ।। ५५ मत्तमान वार्द्धमादिदं ६ १।९ तृतीयचतुर्थराशिगळुमं गुणियिसु वेद = ४६ ॥ ७१९ कषा
- ४॥६५-१६।५।५। ५. =६। । ...........९ इंतु गुणिसुत्त विरलु स्वस्थानस्वस्थानादि चतुःपदंगळोळ ४। ६५=१।६।५।५।५।२ क्षेत्रंगळप्पुवु । मत्त सनत्कुमारमाहेंद्र देवराशियं निजेकादशमूलभाजितजगच्छ्रेणिप्रमितमं संख्यात- ५ दिदं भागिसि बहुबहुभागमं स्वस्थानस्वस्थानदोलित्त दे दरिवुदु --४ शेषैकभागमं संख्यातदिदं खंडिसिद बहुभागमं विहारवत् स्वस्थानदोलित्तु दिदरिवुदु - ४ शेषैकभागं संख्यातबहुभायं
शेषकभागः कषायसमदघाते देयः -
तत्र प्रथमद्वितीयराशी क्रोशायामतन्नवमभाग४। ६५ = १६ । ५। ५। मुखविष्कम्भतिर्यग्जीवावगाहनेन वासो तिगुणो परहीत्याद्या २००० । ३ । २००० । २००० नीतसंख्यात
९।४
६
तृतीयचतुर्थराशीच
। गुणयेत् । स्व स्व- ४।६१ वि = ४।६१
४।६५-१६ । ५ ४ । ६५ -१६ । ५ । ५
तन्नवार्धमात्रेण ६
।९ गुणयेत् । वेद
-४।६।९
कषा = ६१।९
४ । ६५-१६ । ५५५ ४ । ६५ -१६।५। ५। ५ तथा सति स्वस्थानादिचतुःपदेषु क्षेत्राणि भवन्ति । पुनः सनत्कुमारमाहेन्द्रदेवराशी निजैकादशमूलभाजितजगच्छ्रे
णिप्रमिते ११ संख्यातेन भक्तभक्तस्य बहभागबहभागः स्वस्थानस्वस्थाने ११ । ५ । विहारवत्स्वस्थाने १११५५ भाग कषाय समुद्घातका जानना। इस प्रकार जीवोंकी संख्या जानना। पद्मलेश्यावाले तिथंच जीवोंकी अवगाहना बहुत है। अतः यहाँ उनकी मुख्यतासे क्षेत्रका कथन करते हैं- १५ स्वस्थान-स्वस्थान और विहारवत्स्वस्थानमें एक तियेच जीवकी अवगाहना एक कोस लम्बी
और उसके नौवें भाग मुखका विस्तार है। इसका क्षेत्रफल 'वासोतिगुणो परिडी' इत्यादि सूत्रके अनुसार संख्यात घनांगुल होता है। इससे स्वस्थानस्वस्थानवाले जीवोंकी संख्याको गुणा करनेपर स्वस्थानस्वस्थान सम्बन्धी क्षेत्र होता है । इसे विहारवतस्वस्थानवाले जीवोंकी संख्यासे गुणा करनेपर विहारवत्स्वस्थानका क्षेत्र होता है। उक्त अवगाहनासे २० पूर्वोक्त प्रकारसे साढ़े चार गुना क्षेत्र एक जीवकी अपेक्षा वेदना और कषाय समुद्घातमें होता है। इससे पूर्वोक्त वेदना और कषाय समुद्घातवाले जीवोंकी संख्या में गुणा करनेसे वेदना और कषाय समुद्घातकी अपेक्षा क्षेत्र होता है।
वैक्रियिक समुद्घातमें पद्मलेश्यावाले जीव सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गमें बहुत हैं, इसलिए उनकी अपेक्षा कथन करते हैं-सानत्कुमार माहेन्द्र में देवोंकी संख्या जगतश्रेणीके २५
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________________
७५०
गो० जीवकाण्डे वेदनासमुद्घातपददोळे दरिवुदु -४ शेपैकभाग संख्यातबहुभागं कषायसमुद्घातपददोळे -
१११५।५।५। दरिवुदु - ४ शेषेकभागं वैक्रियिकसमुद्घातपददोळक्कु - १ मा राशि११५ । ५।५।५
१११५ । ५। ५।५ यना जीवंगळु विगुम्विसिद गजादिशरीररावगाहनसंख्यातघनांगुलंगाळ गुणिसुत्तं विरलु वैक्रिषिकसमुद्घातपददोळु क्षेत्रमक्कु - ६१ मी राशियने "मरदि असखेज्जदिमं तस्सासंखाय
११।५ ५ ५ ५ ५ विग्गहे होंति तस्सासंखं दूरे उववादे तस्स खु असंखं ॥" एंदितु पल्यासंख्यातभागादिदं भागिसुत
विरलैकभार्ग प्रतिसमयं म्रियमाणजीवप्रमाणमक्कु = १ मत्त पल्यासंख्यातदिदं भागिसिद बहु
११प
भागं विग्रहगतिय जीवप्रमाणमक्कुं - प मत्तमिदं पल्यासंख्यातदिदं भागिसिद बहुभागं मारणां.
११ पप
aa
वेदनासमुद्घाते ११ । ५ । ५ । ५ कषायसमुद्घाते च पतितोऽस्तीति ज्ञात्वा ११ । ५। ५ । ५ । ५ शेषैकभागो
वैक्रियिकसमुद्घाते देयः ११ । ५ ५ ५ ५ अस्मिन् तज्जीवविकुर्वितगजादिशरीरावगाहनसंख्यातघनामुलैर्गुणिते
१० तत्समुद्घातक्षेत्रं भवति ११ । ५ ५ ५ ५ पुनस्तस्मिन्नेव सनत्कुमारमाहेन्द्रदेवराशीमरदि असंखेज्जदिमं तस्सासंखा य विग्गहे होंति । तस्सासंखं दूरे उववादे तस्स खु असंखं ॥
-१ इति पल्यासंख्यातभक्तकभागः प्रतिसमयं म्रियमाणजीवप्रमाणं भवति ११ । प । पुनः पल्यासंख्यातभक्त
बहुभागो विग्रहगतिजीवप्रमाणं भवति -प पुनः पल्यासंख्यातभक्तबहुभागो मारणान्तिकसमुद्घातजीवप्रमाणं
११।। पप aa
ग्यारहवें वर्गमूलसे जगतश्रेणिको भाग देनेपर जो प्रमाण आवे , उतनी है। इस राशिमें संख्यातसे भाग देकर बहुभाग प्रमाण स्वस्थानस्वस्थानमें जीव जानना। शेष रहे एक भागमें पुनः संख्यातसे भाग देकर बहुभाग विहारवत्स्वस्थानमें जीव जानने । शेष रहे एक भागमें पुनः संख्यातसे भाग देकर बहुभाग वेदना समुद्घातमें जानना। शेष रहे एक भागमें पुनः संख्यातसे भाग देकर बहभाग कषाय समदघातमें जानना। शेष रहे एक भा
क भाग प्रमाण वैक्रियिक समुद्घातमें जीव जानना। इतने-इतने जीव इनमें होते हैं। इन वैक्रियिक समुद्घातवाले जीवोंके प्रमाणको एक जीव सम्बन्धी हाथी-घोड़ेरूप विक्रियाकी अवगाहना संख्यात घनांगुलसे गुणा करनेपर वैक्रियिक समुद्घातका क्षेत्र आता है। मारणान्तिक समुद्घात और उपपादमें भी क्षेत्र सानत्कुमार-माहेन्द्रकी अपेक्षासे बहुत है, अतः इनका कथन भी उनकी ही अपेक्षा करते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७५१
तिकसमुद्घातमुळ्ळ जीवप्रमाणमक्कं - प प मत्तमिदं पल्यासंख्यातदिदं भागिसिदेभागं
aa ११। पपप
aaa दूरमारणांतिकसमुद्घातजीवप्रमाणमक्कं - प प मत्तं पल्यासंख्यातदिदमीराशियं भागि
११ पपपप
aaaa
a
सुत्तविरलु तदेकभागमुपपाददंडस्थितजीवप्रमाणमक्कं - प प मी येरडु राशिगळं त्रिर
a ११ । प प प पप
aaaaa ज्वायत्त सूच्यं गुलसंख्यातभागविष्कंभोत्सेधद सनत्कुमारमाहेंद्रकल्पजदेवळिवं क्रियमाणमारणांतिकदंडक्षेत्रघनफलदिदं प्रतरांगुलसंख्यातेकभागगुणितरज्जुत्रयमादिदं मारणांतिकसमुद्घातजीव- ५
**
a.
- प प पुनः पल्यासंख्यातभवतकभागो दूरमारणान्तिकसमुद्घातजीवप्रमाणं-५ ५१ पुनः ११ । ।
११०
प प प प aaa
aaaa
पल्यासंख्यातभक्तकभाग उपपाददण्डस्थितजीवप्रमाणं- प प अत्र दूरमारणान्तिकराशौ त्रिरज्ज्वा
११ a
प प प प प
aaaaa यतसूच्यङ्गुलसंख्यातभागविष्कम्भोत्सेधस्य सनत्कुमारद्वयदेवैः क्रियमाणमारणान्तिकदण्डस्थ घनफलेन प्रतरागुल
देवोंके प्रमाणमें पल्यके असख्या
'मरदि असंखेजदिम' इत्यादि गाथासूत्रके अनुसार सानत्कुमार माहेन्द्र स्वर्गके देवोंके प्रमाणमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग दें। एक भाग प्रमाण देव प्रतिसमय मरते १० हैं। इस राशिमें भी पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग दें। बहुभाग प्रमाण विग्रहगतिवाले जीव होते हैं। इस राशिको पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग दें। बहुभाग प्रमाण मारणान्तिक समुद्घातवाले जीव हैं। इस राशिको भी पल्यके असंख्यातवे भागसे भाग दें। एक भाग प्रमाण दूर मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले जीव हैं। इस राशिको भी पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग दें। एक भाग प्रमाण उपपाददण्डस्थित जीवोंका प्रमाण है । सानत्कुमार १५ माहेन्द्र के देवोंके द्वारा किये गये मारणान्तिक दण्डका क्षेत्र तीन राजू लम्बा और सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग चौड़ा व ऊँचा है। उसका घनक्षेत्रफल प्रतरांगुलके संख्यातवें भागसे तीन राजू'को गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतना है। इस घनक्षेत्रफलसे दूर मारणान्तिक समुद्घातवाले जीवोंकी राशिमें गुणा करनेपर मारणान्तिक समुद्घातमें क्षेत्रका प्रमाण होता १. ब. सति तच्चतुः।
२०
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________________
७५२
गो० जीवकाण्डे
राशियं गुणिसिदोडे तन्मारणांतिकसमुद्घातपददोळु क्षेत्रमक्कुं - प ५।१७३।४ मत्तं
११ प प प प
___ aaaa त्रिरज्वायतसंख्यातसूच्यंगुलविष्कंभोत्सेधद सनत्कुमारद्वयमं कुरुत्तु तिर्यग्जीवंगलिंदं मुक्तोपपाददंडक्षेत्रघनफदिदं संख्यातप्रतरांगुलहतत्रिरज्जुमात्रंगळिदं गुणिसिदोडे उपपाददोळ क्षेत्रमक्कु - पप।।३।४ । १ तैजससमुद्घातदोळं आहारकसमुद्घातदोलं-क्षेत्रंगळु तेजो११ प प प पप
aaaaa लेश्यययोळं पेळ्दंते संख्यातघनांगुलगुणितसंख्यातजीवप्रमाणराशिगळप्पुवु ते १।६।१ । आहार १।६। १ । मत्तं शुक्ललेश्ययोळु-शुक्ललेश्याजीवराशियं पल्यासंख्यातप्रमितमं संख्यातदिदं
संख्यातकभागगुणितरज्जुत्रयेण – ३ । ४ गुणिते तत्क्षेत्रं स्यात्- प प ७ । ३ । ४ पुनः उपपाददण्डराशी
११ व
प प प प
aaaa त्रिरज्ज्वायतसंख्यातसूच्यङ्गुलविष्कम्भोत्सेधस्य सनत्कुमारद्वयं प्रति तिर्यग्जीवमुक्तोपपाददण्डस्य घनफलेन
संख्यातप्रतरामुलहतविरज्जुमात्रेण–३ । ४ १ गुणिते तत्तत्क्षेत्रं भवति-- प
प - ३ । ४१
प प प पप
aaaaa १० तैजसाहारकसमुद्घातयोः क्षेत्र तेजोलेश्यावत्संख्यातघनागुलगुणितसंख्यातजीवराशिर्भवति
१६ १ । १६ १ पुनः शुक्ललेश्यायां तज्जीवराशिं पल्यासंख्यातभागं संख्यातेन भक्त्वा भक्त्वा बहुभागबहुभागं स्वस्थानस्वस्थाने प ४ विहारवत्स्वस्थाने प । ४ वेदनासमुद्घाते प ४ कषायसमुद्घाते च प ४ दत्वा शेषैकभागं ५ ५५
०५५५५ है। उपपादमें तिथंच जीवोंके द्वारा सानत्कुमार-माहेन्द्र में उत्पन्न होने के लिए किया गया
उपपादरूप दण्ड तीन राजू लम्बा और संख्यात सूच्यंगुल प्रमाण चौड़ा व ऊँचा है। इसका १५ घनक्षेत्रफल संख्यात प्रतरांगुलसे गुणित तीन राजू मात्र होता है। इससे उपपादवाले
जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर उपपाद सम्बन्धी क्षेत्रका प्रमाण होता है। तैजस और आहारक समुद्घातमें क्षेत्र जैसे तेजोलेश्याके कथनमें कहा है, वैसे ही यहाँ भी संख्यात घनांगुलसे गुणित संख्यात जीव राशि प्रमाण जानना। आगे शुक्ललेश्यामें क्षेत्र कहते हैं
शुक्ललेश्यावाले जीवोंकी राशिमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहुभाग स्वस्थान२० स्वस्थानवाले जीव हैं,शेष एक भागमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहुभाग प्रमाण
विहारवत्स्वस्थानमें जीव हैं। इस तरह शेष रहे एक-एक भागमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहुभाग प्रमाण जीव क्रमसे वेदना समुद्धात, कषाय समुद्घातमें जानना। १. म. कृष्ण ।
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________________
७५३
a५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका भागिसि भागिसि बहुभागबहुभागंगळं स्वस्थानस्वस्थानदोळं ५४ विहारवत् स्वस्थानदोळं ५४ वेदनासमुद्घातदोळं ५४ कषायसमुद्घातदोळ ५४ कोट्टु शेषैकभागमं
५५५
- ५५५५ वैक्रियिकसमुद्घातदोळीवुदु प १ बळिक्कमी पंचराशिगळोळ प्रथमराशियं तृतीयराशियं
०५५५५ चतुर्थराशियुमं यथासंख्यमागि त्रिहस्तोत्सेध तद्दशमभागमुखव्यासदिदं "व्यासत्रिगुणः परिधियांसचतुर्थाहतस्तु क्षेत्रफलम् । क्षेत्रफलं वेदगुणं खातफलं भवति सर्वत्र ।" एंदी ५ सूत्राभिप्रायदिदं ह।३।३। ह ३ । ह ३ जनितदेवावगाहनप्रमाणवृंदांगुलसंख्यातेकभागदिदं
१०। १०।४ । मत्तं नवार्द्धघनांगुलसंख्यातभागदिदं मत्तं तावन्मादिदं गुणिसिदोडे यथाक्रमदि स्वस्थानपरस्थानवेदनासमुद्घातकषायसमुद्घातक्षेत्रंगळप्पुवु । स्व = स्व = ५४।६ वेद प४।६।९ कषाय- ५४।६।९ मत्तं विहारक्त्स्वस्थानद्वितीयपदजीवराशियसंख्यात
०५५५५१।२ योजनागामसूच्यंगुलसंख्यातभागविष्कंभोत्सेध २ १ २ १ क्षेत्रघनफलं संख्यातघनांगुलंगळिदं गुणिसि
यो
०५५५१२
वैक्रियिकसमुद्घाते दद्यात्-प १ पत्र प्रथमराशौ त्रिहस्तोत्सेधतद्दशमभागमुखव्यासैकदेवावगाहनस्य
५५५५ वासो तिगुणो परिहोत्याद्यानीत ह ३ । ३ ह । ३ ह ३ घनफलेन धनाङ्गुलसंख्यातकभागेन ६ पुनस्तृतीयराशी
१०।१०। ४। नवार्धधनामुलसंख्यातभागेन ६ । ९ पुनश्चतुर्थराशौ तावतैव च ६ । ९ गुणिते सति क्रमेण
।२ स्वस्थानस्वस्थानवेदनासमुद्घातक्षेत्राणि भवन्ति -स्व - ५।४। ६ वेद =प ४ । ६ । ९ कषा
३ ५।
५५५।२ = प ४ ६।९ पुनः द्वितीयराशी संख्यातयोजनायामसूच्यङ् गुलसंख्यातभागविष्कम्भोत्सेध-२१ । २१
।२
यो १
१५
शेष एक भाग प्रमाण जीव वैक्रियिक समुद्घातमें जानना। शुक्ललेश्यावाले देवोंकी मुख्यता होनेसे एक देवकी अवगाहना तीन हाथ ऊँची और उसके दसवें भाग मखकी 'वासो तिगुणो परिही' इत्यादि सूत्रके अनुसार क्षेत्रफल घनांगुलका संख्यातवाँ भाग होता है। इससे स्वस्थानस्वस्थानवाले जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर स्वस्थानस्वस्थान सम्बन्धो क्षेत्रका परिमाण होता है। एक जीवका मूलशरीरकी अवगाहनासे साढ़े चार गुणा क्षेत्र वेदना तथा कषाय समुद्घातमें होता है। इस साढ़े चार गुणा घनांगुलके संख्यातवें भागसे वेदना और कषाय समुद्घातवाले जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर वेदना और कषाय समुद्घातमें क्षेत्र होता है। एक देवके विहार करते हुए अपने मूलशरीरसे बाहर निकल उत्तर विक्रियासे उत्पन्न हुए शरीर पर्यन्त आत्माके प्रदेश संख्यात योजन लम्बे और सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग चौड़ा व ऊँचा क्षेत्र रोकते हैं। इसका घनरूप क्षेत्रफल संख्यात धनांगुल होता है। इससे विहारवत्स्वस्थान जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर २५
९५
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________________
७५४
a ५५
गो० जीवकाण्डे दोडे द्वितीयपददोळु क्षेत्रमक्कु ५४।६।१ वैक्रियिकसमुद्घातपंचमजीवराशियं स्वस्वयोग्यमागिविगुम्विसिद शरीरावगाहनंगळिदं लब्धसंख्यातघनांगुलंगळिवं गुणिसिदोडे वैक्रियिकसमुद्घातपददोळु क्षेत्रमक्कु प ६१ मतं मारणांतिकसमुद्घातषष्ठपददोळु रज्जुषट्कायामसूच्यंगुल. संख्यातभागविष्कभोत्सेध २ २ क्षेत्रघनफलमिदे -६ । ४ कजीवप्रतिबद्धमक्कुमी क्षेत्रमु
५५५५
wwwwwww
५ मानतादिदेवरुगळ्गे मनुष्यरोळंयुत्पतिनियममप्पुरिदं च्युतकल्पदोळ संख्यातजीवंगळे मरण
मनेप्दुवुवदु कारणमागि संख्यातजीवंगाळदं गुणिसिदोर्ड मारणांतिकसमुद्घातक्षेत्रपदमक्कुं १७।६।४ तैजससमुद्घातपददोळं आहारकसमुद्घातपददोळं पद्मलेश्ययोळ्पेळ्दंत क्षेत्रंगळप्पुवु ते १।६।१।आ १।६।१। केवलिसमुद्घातपददोलु क्षेत्रं पेळल्पडुगु मदते दोडल्लि दंडसमु
क्षेत्रघनफलसंख्यातघनामुलैः ६ १ गुणिते विहारवत्स्वस्थाने क्षेत्रं भवति ५ । ४ । ६१ । पुनः पञ्चमराशी १. स्वस्वयोग्यतया विकुर्वितशरीरावगाहलब्धसंख्यातघनामुलैः ६ १ गुणिते वैक्रियिकसमुद्घातपदे क्षेत्र भवति प । ६१
०५ । ५ । ५ ५ पुनः रज्जुषट्कायामसूच्यगुलसंख्यातभागविष्कम्भोत्सेध २ । २ क्षेत्रधनफलमेकजीवप्रतिबद्धं भवति
a५५ ।
६
-६। ४ अस्मिन्नानतादिदेवानां मनुष्येष्वेवोत्पत्तेस्तत्र संख्यातैरेव म्रियमाणगणिते मारणान्तिकसमुद्घातक्षेत्र
भवति १ । ७ ६ । ४ तैजसाहारकसमुद्घातक्षेत्रं पद्मलेश्यावत् । तै १।६१ । आ १ । ६१ केवलि
१५ विहारवत्स्वस्थान सम्बन्धी क्षेत्र होता है। तथा अपने-अपने योग्य विक्रियारूप बनाये गये
हाथी आदि के शरीरकी अवगाहना संख्यात धनांगुल है। उससे वैक्रियिक समुद्घातवाले जीवोंके प्रमाणको गुणा करनेपर वैक्रियिक समुद्घातमें क्षेत्रका प्रमाण आता है। शुक्ललेश्या आनतादि स्वगोंमें होती है । सो आरण-अच्युतकी मुख्यतासे वहाँसे मध्यलोक छह राजू
है। अतः वहाँसे मारणान्तिक समुद्घात करनेपर एक जीवके प्रदेश छह राजू लम्बे और २० सूच्यंगुलके संख्यातवें भाग चौड़े-ऊँचे होते हैं। उसका जो क्षेत्रफल एक जीवको अपेक्षा हुआ,
उसको संख्यातसे गुणा करना, क्योंकि आनतादिकसे मरकर देव मनुष्य ही होता है। इसलिए मारणान्तिक समुद्घातवाले जीव संख्यात ही होते हैं। अतः संख्यातसे गुणा करनेपर मारणान्तिक समुद्घात सम्बन्धी क्षेत्र आता है। तैजस और आहारक समुद्घात सम्बन्धी
क्षेत्र पद्मलेश्यामें जैसा कहा है, वैसा ही जानना । अब केवलि समुद्घातमें क्षेत्र कहते हैं२५ १. म. तपदक्षेत्रम ।
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७५५ द्घातम दूं कवाटसमुद्धातमें दुं प्रतरसमुद्घातम'दुं लोकपूरणसमुद्घातम दितु केवलिसमुद्घातं चतुःप्रकारमक्कुमल्लि स्थितदंडमें दुमुपविष्टदंडमदु दंडं द्विविधमक्कुं। पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखस्थितकवाटद्वयमें दु, पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखोपविष्टकवाटद्वयमें दितु कवाटसमुद्घातं चतुःप्रकारमक्कुं।
प्रतरसमुद्घातमेकप्रकारमेयक्कुं। लोकपूरणसमुद्घातमुमेकप्रकारमेयक्कुमवरोळु प्रथमोहिष्टस्थितदंडसमुद्घातमेंते दोडे वातवलयरहितत्वदिदं किंचिदून चतुर्दशरज्जुत्तंगद्वादशांगुलरुंद्रक्षेत्रं ५ वासो तिगुणो परिहीत्यादि १२ । ३ १२।-१४-॥=॥लब्ध षोडशाभ्यधिकद्विशतप्रतरांगुलप्रमिते
जगच्छेणिमात्रमक्कु -४ । २१६ मिदं जीवगुणकारदिदं गुणिसुतं विरलु ४० अष्टसहस्रषट्शतचत्वारिंशत् प्रतरांगुलसंगुणितजगच्छेणिमात्रं स्थितदंडसमुद्घातक्षेत्रमक्कुं॥-४॥ ८६४० । ई क्षेत्रमने नवगुणं माडिदोडे षष्टिसमधिकसप्तशतसमन्वितसप्तसप्ततिसहस्रमात्रप्रतरांगुलगुणितजगच्छेणिमात्रमुपविष्ट दंडसमुद्घातक्षेत्रमक्कु-४। ७७७६० । किंचिदूनचशुशरज्वायामसप्तरज्ज्जुविष्कभद्वा- १० दशांगुलरुंद्रक्षेत्रफलमं जीवगुणकारदिदं ४० गुणिसुत्तं विरळु नवशतषष्टिमूच्यंगुलगुणितजगत्प्रतरप्रमितं पूर्वाभिमुखस्थितकवाटसमुद्घातक्षेत्रमक्कु - सू २ । ९० ॥ मी क्षेत्रमे त्रिगुणित समुद्धातः दण्डकवाटप्रतरलोकपूरणभेदाच्चतुर्धा । दण्डसमुद्धातः स्थितोपविष्टभेदावेधा । कवाटसमुद्घातोऽपि पूर्वाभिमुखोत्तराभिमुखभेदाभ्यां स्थितः उपविष्टश्चेति चतुर्धा । प्रतरलोकपूरणसमुद्घातावेककावेव । तत्र वातवलयरहितत्वात् किंचिदूनचतुर्दशरज्जूत्तुंगद्वादशाङ्गुलरुद्रक्षेत्रस्य वासो तिगुणो परिहीत्यागतं १२ । ३ । १२ ।-१४-षोडशाम्यधिकद्विशतप्रतराङ्गुलगुणितजगच्छ्रेणिमात्रं-४ । २१६ जीवगुणकारेण ४० गुणितं, अष्टसहस्रषट्शतचत्वारिंशत्प्रतराङ्गुलगुणितजगच्छेणिमात्र स्थितदण्डसमुद्घातक्षेत्र-४। ८६४० एतदेव नवगुणितं सप्तसप्ततिसहस्रसप्तशतषष्टिप्रतरामुलहतजगच्छ्रेणिमात्रमुपविष्टदण्डसमुद्घातक्षेत्र भवति४ । ७७७६० किंचिदूनचतुर्दशरज्ज्वायामसप्त रज्जुविष्कम्भद्वादशाङ्गुलरुद्रक्षेत्रफलं जीवगुणकारेण ४० गुणितं
केवलि समदरात दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरणके भेदसे चार प्रकारका है। दण्ड समुद्घात स्थित और उपविष्टके भेदसे दो प्रकारका है। कपाट समुद्घात भी पूर्वाभिमुख, उत्तराभिमुखके भेदसे तथा स्थित और उपविष्टके भेदसे चार प्रकारका है। प्रतर और लोकपूरण समुद्घात एक-एक ही हैं। उनमें से स्थितदण्ड समुद्घातमें एक जीवके प्रदेश वातवलयसे रहित होनेसे कुछ कम चौदह राजू ऊँचे और बारह अंगुल प्रमाण चौड़े गोलाकार होते हैं। 'वासो तिगुणो परिही' इस सूत्रके अनुसार इसका क्षेत्रफल दो सौ सोलह ।। प्रतरांगुलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण होता है, क्योंकि बारह अंगुल गोल क्षेत्रका क्षेत्रफल एक सौ आठ प्रतरांगुल होता है, उसकी ऊँचाई दो श्रेणिसे गुणा करनेपर इतनी ही होती है। एक समय में इस समुद्धातवाले जीव चालीस होते हैं,अतः इसे चालीससे गुणा करनेपर आठ हजार छह सौ चालीस प्रतरांगुलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाण स्थितदण्ड समुद्धात सम्बन्धी क्षेत्र होता है। इसको नौसे गुणा करनेपर सतहत्तर हजार सात सौ साठ प्रतरांगुलसे गुणित जगतश्रेणिप्रमाण उपविष्ट दण्ड समुद्घात क्षेत्र होता है, क्योंकि स्थित दण्ड समुद्धातमें बारह अंगुल चौड़ाई कही है। उपविष्टमें उससे तिगुनी चौड़ाई होनेसे क्षेत्रफल नौगुणा होता है, १. म. प्रमितजगच्छ्रेणिमात्रमक्कु-४ । २१६ । तिसहस्रसप्तशत्रमात्रप्रतरांगुलगुणित । जग।
३०
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७५६
७/७२
गो० जीवकाण्डे मोडुवुदादोडे अशोत्युत्तराष्टशतद्विसहस्र सूच्यंगुलगुणितजगत्प्रतरमात्र निष्षणपूर्वाभिमुखकवाटसमुद्घातक्षेत्रमक्कुं = सू २। २८८० । किंचिदूनचतुर्दशरज्जुदीग्धं पूर्वापरदिदं सप्तकपंचैकरज्जु विष्कभं द्वादशांगुलरुंद्रसमीकृतक्षेत्रफलं मुख -१ । भूमि-७ जोग ८ दळे-४ प-७ गुणिदे = ४ पदधणं होदि एंदिदधोलोकक्षेत्रफलमक्कं =४ । मत्तं । मुख-१ भूमि-५ जोग-६ दळे-३ पद-७ गुणिदे-२१ पदधणं होदि । अपत्तितं = ३ इदं द्विगुणिसिदोडूध्वंलोकक्षेत्रफलमक्कुमीयूज़लोकक्षेत्रफलमुमं = ३ अधोलोकक्षेत्रफलमुमं = ४ कूडि जगत्प्रतरमितमक्कुमदं द्वादशांगुलरुद्रदिद गुणिसिदो = १२ एकजीवप्रतिबद्धक्षेत्रमक्कुमदं जीवगुणकारदिदं ४०गुणिसिदोडे चतुःशताशीति सूच्यंगुलगुणितजगत्प्रतरमात्रमुत्तराभिमुखस्थितकवाटसमुद्घातक्षेत्रमक्कु = सू २ । ४८० । मिदं त्रिगुणितं माडिदोडे चत्वारिंशदुत्तरचतुःशतैकसहस्रसूच्यंगुलसंगुणितजगत्प्रतरमात्रमुत्तराभिमुखासीनकवाट
समुद्घातक्षेत्रमकुं = सू २ । १४४० । ई कवाटसमुद्घातक्षेत्रमं नोडलसंख्यातगुणमप्पुदु सर्व१० लोकमं नोडलुमसंख्यातभागहीनमुमप्पुटु प्रतरसमुद्घातक्षेत्रमक्कुमदेतेंदोड:
नवशतषष्टिसूच्यङ्गुलहतजगत्प्रतरं पूर्वाभिमुखस्थितकवाटसमुद्घातक्षेत्र भवति-- सू २ । ९६० एतदेव त्रिगुणितं द्विसहस्राष्टशताशीतिसूच्यङ्गुलहतजगत्प्रतरं निषण्णपूर्वाभिमुखकवाटसमुद्घातक्षेत्र भवति सू २ । २८८० किंचिदूनचतुर्दशरज्जुदीर्घस्य पूर्वापरेण सप्तकपञ्चैकरज्जुविष्कम्भस्य मुख- भूमि-जोग-८ दले -४ पद-गुणिदे = ४ पदधणं होदीत्यधोलोकफलं = ४ मुख-१ भूमि-५ जोग-६ दले-३ पद
१५ गुणिदे = २१ पदधणं होदीत्यपवर्त्य = ३ द्विहते ऊर्ध्वलोकफलं = ३ अस्मिन्नधोलोकफले मिलिते जगत्प्र७७ । २
७२ तरद्वादशाङ्गुलं रुद्रेण गुणितः = १२ एकजीवप्रतिबद्धं तदेव जीक्गुणकारेण ४० मुणितं चतुःशताशीतिसूच्यङ्गुलहतजगत्प्रतरमुत्तराभिमुखस्थितकवाटसमुद्घातक्षेत्र भवति = सू २ । ४८० एतदेव त्रिहतं एकसहस्रचतुःइससे नौसे गुणा किया है। पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुदातमें एक जीवके प्रदेश वाचवलय विना लोक प्रमाण अर्थात् कुछ कम चौदह राजू लम्बे हैं। उत्तर-दक्षिण दिशामें लोककी चौड़ाई सात राजू, सो उतने चौड़े हैं। बारह अंगल प्रमाण पूरब पश्चिममें ऊँचे हैं। इसका क्षेत्रफल चौबीस अंगलसे गणित जगत्पतर प्रमाण होता है। चकि एक समयमें इस समुद्धात करनेवाले जीवोंका प्रमाण चालीस है, अतः चालीससे गुणा करनेपर नौ सौ साठ सूच्यंगुलसे गुणित जगत्प्रतर प्रमाण पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुद्धातका क्षेत्र होता है। इसीको तिगुणा करनेपर दो हजार आठ सौ अस्सी सूच्यंगुलसे गुणित जगत्प्रतर प्रमाण , पूर्वाभिमुख स्थित कपाट समुद्धातका क्षेत्र होता है। उत्तराभिमुख स्थित कपाट समुद्घातमें
एक जीवके प्रदेश वातवलय बिना लोक प्रमाण अर्थात् कुछ कम चौदह राजू प्रमाण लम्बे होते हैं। और पूरब-पश्चिममें लोककी चौड़ाई प्रमाण चौड़े होते हैं। सो लोक १. म. मादुदादोडे ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सत्तासीदिचतुस्सदसहस्सतिसीदिलक्खउणवीसं । चउवीसधियं कोडीसहस्सगुणिदं तु जगपदरं ॥ सट्ठीसत्तसएहिं णवयसहस्सेगलक्खभजिवं तु ।
सव्वं वादारुद्धं गुणि भणिदं समासेण ॥ -त्रिलोक. १३९-१४० गा.। एंदी सूत्रद्वर्याददं पेळपट्ट सर्ववातावरुद्धक्षेत्रयुतियं = १०।२४१९८३४८७ सव्वलोका.
१०१९७२० संख्यातेकभागमं = १ कळदुळिद सर्वलोकमेकजीवप्रतिबद्धप्रतरसमुद्घातक्षेत्रमक्कु
= ,- लोकपूरणसमुद्घातदोळमेकजीवप्रतिबद्धक्षेत्रमं सर्वलोकमक्कु = । मिल्लि आरोह
a
a
शतचत्वारिंशत्सूच्यङ्गुलहतजगत्प्रतरमुत्तराभिमुखासीनकवाटसमुद्घातक्षेत्रं भवति = सू २ । १४४० प्रतरसमुद्घातस्य बहिर्वातत्रयाभ्यन्तरे सर्वलोके व्याप्तत्वात् तद्वातक्षेत्रफलेन लोकासंख्यातकभागेन ।१ ऊनं
लोकमात्रमेकजीवप्रतिबद्धक्षेत्रं भवति
। लोकपूरणसमुद्घाते एकजीवप्रतिबद्धक्षेत्रं सर्वलोको भवति=अत्र ।।
अधोलोकके नीचे सात राजू चौड़ा है। क्रमसे घटते-घटते मध्यलोकमें एक राजू चौड़ा है। इसका क्षेत्रफल निकालनेके लिए करणसूत्रके अनुसार मुख एक राजू, भूमि सात राजू दोनोंको जोड़नेपर आठ हुए। उसका आधा चारको अधोलोककी ऊंचाई सातसे गुणा करनेपर अट्ठाईस राजू अधोलोकका प्रतररूप क्षेत्रफल होता है। मध्यलोकमें एक राजू चौड़ा है । वहाँसे बढ़ते-बढ़ते ब्रह्मस्वर्गके निकट पाँच राजू चौड़ा है । सो यहाँ मुख एक राजू , भूमि पाँच राजू । दोनोंको जोड़नेपर छह हुए। उसका आधा तीनसे मध्य लोकसे ब्रह्मस्वर्ग तक की ऊँचाई साढ़े तीन राजूसे गुणा करनेपर आधे ऊर्ध्व लोकका क्षेत्रफल साढ़े दस राजू होता है । इतना ही क्षेत्रफल ऊपरके आधे ऊर्ध्वलोकका होता है । इसमें अधोलोकका फल मिलानेपर जगत्प्रतर होता है। बारह अंगुल प्रमाण उत्तर-दक्षिण दिशामें ऊँचा है। सो जगत्प्रतरको बारह सूच्यंगुलसे गुणा करनेपर एक जीव-सम्बन्धी क्षेत्र बारह अंगुल गुणित जगत्प्रतर प्रमाण होता है । इसको चालीससे गुणा करनेपर चार सौ अस्सी अंगुलसे गुणित जगत्प्रतर प्रमाण उत्तराभिमुख कपाट समुद्धातका क्षेत्र होता है। स्थितमें ऊंचाई बारह अंगुल कही, उपविष्टमें (बैठनेपर) उससे तिगुणी छत्तीस अंगुल ऊँचाई होती है। अतः उक्त प्रमाणको तीनसे गुणा करनेपर एक हजार चार सौ चालीस सूच्यंगुलसे गुणित जगत्प्रतर प्रमाण उत्तराभिमुख बैठे हुए कपाट समुद्धातसम्बन्धी क्षेत्र होता है। प्रतरसमुद्धातमें तीन वातवलयको छोड़कर सर्वलोकमें प्रदेश व्याप्त होते हैं । सो तीन वातवलयका क्षेत्रफल लोकका असंख्यातवाँ भाग है। इसे लोकमें घटानेपर जो शेष रहे, उतना एक जीव सम्बन्धी १. ब. मुखस्थितक ।
२०
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गो० जीवकाण्डे
कावरोहक दंडद्वयदोळं कवाटचतुष्टयदोळं प्रत्येकमुत्कृष्टदिदं विंशतिविंशतिप्रमितजी बंगळु घटिइसुवरेंदु जीवगुणकारं ४० नात्वत्तक्कुमें दु कैकोळल्पडुवुदु ।
सुक्कस समुग्धादे असंख भागा य सव्वलोगो य ।। ५४४ ॥
एंदितु सूत्राद्धदो केवलिसमुद्घातापेक्षैयिदं लोकासंख्यात बहुभागेगळं लोकमं शुक्ललेइयेगे ५ क्षेत्रमेंदु पेल्पटु । रज्जुषट्का यामसंख्यातसूच्यं गुल विष्कंभोत्सेधदुपपाद दंडतिय्यं चप्रतिबद्धमप्प संख्यातप्रत रांगुल गुणित रज्जुषट्कमात्रमेकजीवप्रतिबद्धक्षेत्रमक्कु मा क्षेत्रमुमच्युतकल्पदोळ संख्यातजीवंगळे सावुवुवनिते तिर्य्यग्जीवंगळल्लि पुटुवर्वेदितु संख्यातजोवंगळदं गुणिसिदोर्ड उपपादस्वयंक्षेत्रमक्कुं- १२ - ६|४|१ मत्तमी शुभलेश्येगळिल्लियं सर्व्वत्र गुणकारभागहारंगळं निरीक्षिसि -
७
यपर्वात्तसि पंचलोकंगळं स्थापिसियवर मेलेयाळापं माडल्पडुगुं । पनोदनेय क्षेत्राधिकारंतीदुर्दुदु ।
१० आरोहकावरोह कदण्डद्वयकवाटचतुष्के प्रत्येकमुत्कृष्टतो विंशतिविंशतिजीवसं भवाज्जीवगुणकारः ४० चत्वारिंशत् । इति सूत्रार्धेन केवलिसमुद्घातापेक्षया लोकस्यासंख्यात बहुभागाः लोकश्च शुक्ललेश्याक्षेत्रमुक्तं रज्जुषट्कायामसंख्यातसूच्यङ्गुलविष्कम्भोत्सेधैकतिर्यग्प्रतिबद्धोपपाददण्डक्षेत्रफलं संख्यातप्रतराङ्गुलह्तरज्जुषट्कमात्रम् । अच्युतकल्पे संख्यातानामेव मरणात् तावतामेव तत्रोत्पत्तेः संख्यातेन गुणितं उपपादपद सर्वक्षेत्रं भवति १ । ६ । ४ १ अत्रापि प्राग्वत् सर्वत्र गुणकारभागहारानपवर्त्य पञ्च लोकान् संस्थाप्य आलापः
७
१५ कर्तव्यः ||५४४ ॥ इति क्षेत्राधिकारः ॥ अथ स्पर्शाधिकारं सार्धगाथाषट् केनाह
प्रतरसमुद्घातमें क्षेत्र होता है । लोकपूरण समुद्धात में सर्वलोक में प्रदेश व्याप्त होते हैं । अतः लोकपूरणमें लोकप्रमाण एक जीव सम्बन्धी क्षेत्र होता है । प्रतर और लोकपूरणमें बीस जीव तो करनेवाले और बीस जीव संकोचनेवाले होनेसे एक समय में चालीस जीव समुद्धात करनेवाले होते हैं । किन्तु क्षेत्र सबका पूर्वोक्त ही रहता है; अतः चालीस से गुणा २० नहीं किया । दण्ड और कपाटमें भी बीस-बीस जीव करनेवाले और समेटनेवाले होनेसे चालीस होते हैं, किन्तु इनका क्षेत्र भिन्न-भिन्न भी होता है। इससे वहाँ एक जीव सम्बन्धी क्षेत्रको चालीस से गुणा किया है। यह संख्या उत्कृष्ट है ॥५४४||
इस आधे गाथासूत्र से केवली समुद्घातकी अपेक्षा लोकका असंख्यात बहुभाग और सर्व लोक शुक्ललेश्याका क्षेत्र कहा है । उपपादमें मुख्य रूपसे अच्युत स्वर्गकी अपेक्षा एक २५ जीवके प्रदेश छह राजू लम्बे और असंख्यात सूच्यंगुल प्रमाण चौड़े व ऊँचे होते हैं । अच्युत स्वर्ग में एक समय में संख्यात ही उत्पन्न होते हैं और संख्यात ही मरते हैं । अतः संख्यात प्रतरांगुल से गुणित छह राजू मात्र उपपाददण्ड क्षेत्रफलको संख्यातसे गुणा करनेपर उपपादका सर्व क्षेत्र होता है । यहाँ भी पूर्वोक्त प्रकार पाँच लोकोंकी स्थापना करके गुणकार भागहारका यथायोग्य अपवर्तन करके कथन करना चाहिए । क्षेत्राधिकार समाप्त हुआ ।
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के स्वस्थानस्वस्थान विहा.स्वस्थान | वेदना समुद्घात | कषाय समुद्घात वैक्रि. समुद्घात मारणांति. समुद्घात तेजस आहार.
=
४॥६
=
॥४॥६७=१४॥६९
ते
७२
- -- - = ४।६।९ = ॥४।६७ = प प १०-४ ।
aa ७७७७४६७/ ७६७ | ४६५ =७५५५५ ४१६५७१५५५५ ४६५ = ८३१०३७ पपप
aap
४६५-७।५।७४ । ६५ =७॥ ५५, ४६५ =७५५५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
= ६७१४ ४१६५=७६५
=४। ६७ ४६ ॥७॥९ | =६।७।९ -६७
. । ४६५७६५५ ४१६५७६५५५२ ४१६५-७६३५५५२/ ११ । ५५५५
पप १३४ aa ११ पपपप७
aaaa
ક૬૭ ૭૬૭
प४।६ a५।७
प४।६७ ०५५
प४।६९ ०५५५७२
प४।६।९ ३५५५५७२
प६७ ० ५५५५
७-६।४ ७७
६७ ७६७
७५९
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७६०
गो. जीवकाण्डे
केवळ सवं
उपपाद
-प
३२४७
पपपपप aaaaa
३४/७
७-६४७
११ प प प पप
aaaaa स्थित दंड । पू स्थि = क -
उत्थित क
प्रतर
.
.
= २०४८०
-४।८६४० ।
आसीन दंड | ५-४७७६० ।
=सू२।९६० पू आसीन क
सू१२८८०
।
आसीन क =२११४४०
लोकपूर
| 2
स्पर्शाधिकारमं सार्द्धगाथाषट्कदिदं पेळ्दपं:
फासं सव्वं लोयं तिट्ठाणे असुहलेस्साणं ॥५४५॥ स्पर्शः सर्वलोकत्रिस्थाने अशुभलेश्यानां ॥
अशुभलेश्यात्रयक्के स्वस्थानमें दुं समुद्घातमै दुं उपपादमे वितु सामान्यदिदं त्रिस्थानमक्कु१० मल्लिया त्रिस्थानदोळं स्पर्शः स्पर्श सवलोकः सव्वलोकमक्कुं।= विशेषदि स्वस्थानस्वस्थानादिदशपदंगळोळं स्पर्श फेळल्डुगुं।
स्पर्शमै बुदेने दोडे स्वस्थानस्वस्थानादिदशपदंगळोळ विवक्षितपदपरिणतंगळप्प जीवंगळिदं वर्तमानक्षेत्रसहितमागियतीतकालदोळु स्पृष्टक्षेत्रं स्पर्शमेंबुदक्कुमल्लि अन्नेवरं कृष्णलेश्याजीवंगळगे स्वस्थानस्वस्थानवेदना कषाय मारणान्तिक उपपादमें ब पंचपदंगळोळु स्पशं सर्वलोकमक्कुंजविहार
अशभलेश्यात्रयस्य स्वस्थानसमुद्घातोपपादसामान्यस्थानत्रये स्पर्शः विवक्षितपदपरिणतर्वर्तमानक्षेत्रसहितातीतकालस्पष्टक्षेत्रलक्षणः सर्वलोकः = विशेषेण तु दशपदेषु उच्यते। तत्र कृष्णलेश्याजीवानां स्वस्थानस्वस्थानवेदनाकषायमारणान्तिकोपपादेषु पञ्चपदेषु सर्वलोकः= विहारवत्स्वस्थाने संख्यातसूच्यगुलो
आगे साढ़े छह गाथाओंसे स्पर्शाधिकार कहते हैं
क्षेत्रमें तो केवल वर्तमान कालमें रोके गये क्षेत्रका ही प्रहण होता है, किन्तु स्पर्शमें वर्तमान क्षेत्र सहित अतीत कालमें स्पृष्ट क्षेत्रका ग्रहण होता है । अतः तीन अशुभ लेश्याओंका स्पर्श स्वस्थान, समुद्धात और उपपाद इन तीन सामान्य स्थानोंमें सर्वलोक होता है। विशेष रूपसे दस स्थानोंमें कहते हैं-उनमें से स्वस्थान स्वस्थान, वेदना-समुद्धात, कषाय-समुद्धात, मारणान्तिक और उपपाद इन पाँच स्थानोंमें कृष्णलेश्यावाले जीवोंका स्पर्श सर्वलोक है । विहारवत्स्वस्थानमें एक राजू लम्बा व चौड़ा और संख्यात सूच्यंगुल ऊँचा तिर्यक् लोक
|
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७६१ वत् स्वस्थानदोळु संख्यातसूच्यंगुलोत्सेधरज्जुप्रतरमात्रतिय्यंग्लोकक्षेत्रफलं संख्यातसूच्यंगुलगुणितजगत्प्रतरमात्रस्पर्शनमक्कु ४९ सू २ १ सुरशैलमूलं मोदल्गोंडु सहस्रारपयंतं त्रसनालियोळु वातपुद्गलंगळु संच्छन्नमागिरुतिक्कुमल्लिसर्वत्रातीतकालदोळु बादरवातकायिकंगळु विकुन्विसुवदितु रज्जुविस्तारविष्कंभपंचरज्जूदयक्षेत्रफलं लोकसंख्यातभागमात्रं स्पर्शमक्कु = ५ तैजससमुद्घाताहारकसमुद्घातकेवलिसमुद्घातपदत्रयंगळु' वि कृष्णादिलेश्यगोळु संभविसवु । इल्लियं पंचलोकंगलं संस्थापिसि
सामान्यलोक= यवरमेलेळ्यलापं माडल्पडुगुं अधोलोक= ४
८
ऊर्ध्वलोक ३
तिर्यग्लोक १ल
४९ मनुष्यलोक ६७
| आ । के
स्व-स्व विस
|-२७
४९
so
Ho .
३४३
الا سر || سع
३४३ क -
।। ३४३ । स्वस्थानस्वस्थान वेदना कषाय मारणांतिकोपपादमेंब पंचपदंगळोळु कृष्णलेश्याजीवंगळिदं कियत् क्षेत्रं स्पष्टं सर्वलोकं विहारवत्स्वस्थानदोळ कृष्णलेश्याजीवंगाळदंकियत क्षेत्र स्पष्टं सामान्यलोक मोदलागि मूरुं लोकंगळ असंख्यातैकभागं तिर्यग्लोकद संख्यातैकभागमेकेदोडे लक्षयोजनप्रमाणतिर्यग्लोकबाहल्यदणिदं विहारवत्स्वस्थानक्षेत्रोत्सेधक्के संख्यातगुणहीनत्वदिदं मनुष्यलोकमं १०
त्सेधरज्जुप्रतर २ १_ तिर्यग्लोकक्षेत्रफलं संख्यातसूच्यङ्गुलहतजगत्प्रतरं स्यात् = सू २१ वैक्रियिकसमुद्घाते
सुरशलमूलादारभ्य सहस्रारपर्यन्तत्रसनाल्यां वातपुद्गलानां संच्छन्नरूपेण अवस्थानात् । तत्र सर्वत्रातीतकाले बादरवातकायिकानां विकुर्वणाद् रज्जुव्यासायामपञ्चरज्जूदय_ -क्षेत्रफलं लोकसंख्यातभागमात्रं
क्षेत्र है । इसका क्षेत्रफल संख्यात सूच्यंगुलसे गणित जगत्प्रतर प्रमाण होता है। वही विहारवत्स्वस्थानमें स्पर्श जानना । वैक्रियिक समुद्धातमें मेरुके मूलसे लेकर सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त १५ वसनालीमें वायुकायरूप पुद्गल संच्छन्न रूपसे भरे हैं। वायुकायिक जीवोंमें विक्रिया पायी । जाती है। सो अतीत कालकी अपेक्षा वहाँ सर्वत्र विक्रियाका सद्भाव है। अतः एक राजू १. मलु निकृष्टले ।
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७६२
गो० जीवकाण्डे नोडलुमसंख्यातगुणं क्षेत्र स्पृष्टं वैक्रियिकपददोळ कृष्णलेश्याजीवंगाळदं कियत् क्षेत्रं स्पृष्टं मूरुं लोकंगळ संख्यातैकभाग। तिय्यंग्लोकमुमं मनुष्यलोकमुमं नोडलुमसंख्यातगुणं क्षेत्रं स्पृष्टं। इंते नीललेश्ययोळं कपोतलेश्ययोळं वक्तव्यमवकु। तेजोलेश्यात्रिस्थानदोळु सामान्यदिदं स्पर्शमं पेळ्दपं गाथाद्वयदिदं :
तेउस्स य सहाणे लोगस्स असंखभागमेत्तं तु ।
अड चोदस भागा वा देसूणा होति णियमेण ॥५४६॥ तेजोलेश्यायाः स्वस्थाने लोकस्यासंख्यभागमात्रं तु । अष्ट चतुर्दशभागा वा देशोना भवंति नियमेन ॥
तेजोलेश्यय स्वस्थानदोळ स्पर्श स्वस्थानस्वस्थानापेयिं लोकद असंख्यातभागमात्रमक्कुं। १० तु मत्ते अष्टचतुर्दशभागंगळु मेणु किंचिदूनंगळप्पुवु नियमदिवं विहारवत्स्वस्थानाविचतुःपदंगळं विवक्षिसि :
एवं तु समुग्धादे नवचोद्दसभागयं च किंचूणं ।
उववादे पढमपदं दिवड्ढचोद्दस य किंचूणं । ५४७॥
एवं तु समुद्धाते नव चतुर्दशभागकं च किंचिदूनं । उपपादे प्रथमपदं द्वयर्द्धचतुर्वश१५ भागः किंचिदूनः॥
समुद्घातदोळं स्वस्थानदोळपेन्दते किंचिदून अष्टचतुर्दशभागमं किंचिदूननवचतुर्दशभागमु स्पर्शमक्कु। मारणांतिकसमुद्घातापेक्षयिद उपपाददोलु प्रथमपदं द्वघद्ध चतुर्वशभागं किचिदूनं स्पर्शमक्कुं इंतु सामान्यदिदं तेजोलेश्यग त्रिस्थानदो स्पर्श पेठल्पटुदु । भवति अ ५ अत्र तैजसाहारककेवलिसमुद्घाताः पुनः न संभवन्ति । अत्रापि पञ्च लोकान् संस्थाप्य आलापः
३४३ २० कर्तव्यः । एवं नीलकपोतयोरपि वक्तव्यम् ॥५४५॥ अथ तेजोलेश्यायां गाथाद्वयेनाह
तेजोलेश्यायः स्वस्थाने स्पर्शः स्वस्थानात् स्वस्थानापेक्षया लोकस्यासंख्येयभागः । तु-पुनः, अष्टचतुदशभागाः अथवा किंचिदूना भवन्ति नियमेन विहारवत्स्वस्थानापेक्षया ॥५४६॥
समुद्धाते स्वस्थानवत् किंचिदूनाष्टचतुर्दशभागः किंचिदूननवचतुर्दशभागश्च स्पर्शो भवति मारणान्तिकसमुद्घातापेक्षया । उपपादपदे द्वयर्धचतुर्दशभागः किंचिदूनः इति सामान्येन तेजोलेश्यायास्त्रिस्थाने स्पर्श २५ लम्बा-चौड़ा तथा पाँच राजू ऊँचा क्षेत्र हुआ । उसका क्षेत्रफल लोकके संख्यातवें भाग हुआ।
वही वैक्रियिक समुद्धातमें स्पर्श जानना। इस कृष्णलेश्यामें आहारक, तैजस और केवलि समुद्भात नहीं होते। यहां भी पांच लोकोंकी स्थापना करके यथासम्भव गुणकार भागहार जानना । कृष्णलेश्याकी ही तरह नीललेश्या औरकापोतलेश्यामें भी कथन करना ।।५४५॥
तेजोलेश्यामें दो गाथाओंसे कहते हैं
तेजोलेश्याका स्वस्थानमें स्पर्श स्वस्थानस्वस्थान अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग है। और विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा नियमसे त्रसनालीके चौदह भागोंमें-से कुछ कम आठ भाग स्पर्श होता है ।।५४६॥
समुद्भातमें स्वस्थानकी तरह प्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग स्पर्श है । मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम नौ भाग प्रमाण
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७६३ विशेषदिदं स्वस्थानस्वस्थानादिदशपदंगळोळ स्पर्श पेळल्पडुगुमदते दोर्ड तिर्यग्लोकद रज्जुप्रतरक्षेत्रदोळु ७ जलचरसहितंगळप्प लवणोदकालोदस्वयंभूरमणसमुद्रबी समुद्रत्रय
रहितसर्वसमुद्रक्षेत्रफलमं कळेयुत्तिरलु शेषक्षेत्रं शुभत्रयलेश्यास्वस्थानस्वस्थानस्पर्शक्षेत्रम। तदानयनक्रमं पेळल्पडुगुमदेत दोडे जंबूद्वीपमादियागि स्वयंभूरमणसमुद्रपयंतमाद सर्वद्वीपसमुद्रं. गळु द्विगुणद्विगुण विस्तीणंगळागिरुतिप्पुवु १ ल । २ ल। ४ ल। ८ ल। १६ ल । ३२ ल। ६४ ल। ५ १२८ ल। २५६ ल । ५१२ ल । इल्लि लक्षयोजनविष्कंभमप्प जंबूद्वीपसूक्ष्मक्षेत्रफलं :
सत्त णव सुण्ण पंच य छण्णव चउरेक्क पंच सुण्णं च ।
जंबूदीवस्सेदं गणिदफळं होदि णादव्वं ॥ ७९०५६९४१५० एतावन्मानं जंबूद्वीपगुणितफलमक्कुमिदनोंदु खंडमेंदु माडल्पडुवुदु । १ । मत्तं लवणसमुद्रदोळ तत्प्रमाणखंडंगळु चतुविशतिगळप्पुवु । २४। घातकोषंडद्वीपदोळु १० चतुरुत्तरचत्वारिंशच्छतप्रमितंगळप्पुवु । १४४ । ____ काळोदकसमुद्रदोळु षट्छतद्वासप्ततिप्रमाणंगळप्पुवु ६७२ । पुष्करवरद्वीपदोळ अशोत्युत्तराष्टाविंशतिशतप्रमितंगळप्पुवु २८८० । तत्समुद्रदोळु एकादशसहस्रनवशतचतुःप्रमितखंडंगळप्पुवु उक्तः । विशेषेण तु दशपदेषु उच्यते-तिर्यग्लोकस्य रज्जुप्रतरस्य क्षेत्रे ७ जलचरसहितलवणोदककालोदक
RANNN
स्वयंभूरमणसमुद्रेभ्यः शेषसर्वसमुद्रक्षेत्रफलेऽपनीते शेषं शुभत्रयलेश्यास्वस्थानस्वस्थाने स्पर्शो भवति । तद्यथा १५ जम्बूद्वीपादयः स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यन्ताः सर्वे द्वीपसमुद्राः द्विगुणद्विगुणविस्ताराः सन्ति । तत्र लक्षयोजनविष्कम्भो जम्बूद्वीपः तस्य सूक्ष्मक्षेत्रफलं
सत्तणवसुण्णपंचयछण्णवचउरेक्कपंचसुण्णं च । इत्येतावत् ७९०५६९४१५० इदमेकखण्डं कृत्वा लवणसमुद्रे तादृशानि चतुर्विंशतिः २४ । धातकीखण्डे शतचतुश्चत्वारिंशत् १४४ । कालोदके समुद्रे षट्शतद्वासप्तनिः ६७२ । पुष्करद्वीपे द्विसहस्राष्टशताशीतिः ।२८८०। २० स्पर्श है । उपपादस्थानमें सनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम डेढ़ भाग प्रमाण स्पर्श है। यह सामान्यसे तेजोलेश्याके तीन स्थानोंमें स्पर्श कहा। विशेषसे दस स्थानोंमें स्पर्श कहते हैं-तिर्यग्लोक एक राजू लम्बा व चौड़ा है । इसमें लवणोदक, कालोदक और स्वयम्भूरमण समुद्र में ही जलचर जीव पाये जाते हैं। शेष समुद्रोंमें नहीं । सो तिर्यग्लोकके क्षेत्रमें-से जिन समुद्रोंमें जलचर जीव नहीं हैं,उन समुद्रोंका क्षेत्रफल घटानेपर जितना शेष रहे,उतना तीन , शुभ लेश्याओंका स्वस्थानस्वस्थानमें स्पर्श जानना। उसीको कहते हैं- जम्बूद्वीपसे लेकर स्वयम्भूरमण समुद्रपर्यन्त सब द्वीपसमुद्र दूने-दूने विस्तारवाले हैं। उनमें से जम्बूद्वीपका विस्तार एक लाख योजन है। उसका सूक्ष्म क्षेत्रफल इस प्रकार है-सात नौ शून्य पाँच छह नौ चार एक पाँच और शून्य ७९०५६९४१५०। इसे एक खण्ड मानकर लवण समुद्र में इतने १. ब. याः स्वस्थाने ।
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५
१०
१५
२०
७६४
गो० जीवकाण्डे
११९०४ । वारुणिवरद्वीपदोळु चतुरशीतित्रिशताष्टचत्वारिंशत्सहस्रंगळप्पुवु ४८३८४ । तत्समुद्रदो द्वासप्प्रत्युत्तर पंचनवति सहस्त्र कलक्षप्रमितंगळप्पुवु १९५०७२ । क्षीरवरद्वीपदोळ समलक्षत्र्यशीतिसहस्रत्रिशतषष्टिमात्रंगळवु ७८३३६० । तदर्णवदोलु एकत्रशल्लक्षै कोनचत्वारिंशत्सहस्रपंचशतचतुरशीतिप्रमितंगळप्पुवु । ३१३९९८४ । एवं स्वयंभूरमणसमुद्रपध्यंतं नेतव्यंगळप्पुवु । ३१३९५८४ । स ई खंडंगळ साधिसुवकरण सूत्रत्रयं :-- ७८३३६० क्षे
१९५०७२। स
४८३८४ वा
११९०४ । स
२८८० । घ
६७२ ।
स
१४४ । दा २४ लं ल
१ । ज
बाहिरसूईवग्गं अब्भंतरसू इवग्गपरिहीणं ।
जंबूवासविभत्ते तत्तियमेत्ताणि खंडाणि ॥ - त्रि. सा. ३१६ गा. ।
=
बाहिरसूई ५ ल । वग्गं ५ ल । ५ ल । गुणिते । २५ ल ल । अब्भंतरसूइ १ ल । वग्ग १ ल । १ । परिहीणं । २४ । ल ल । जंबूवास १ ल ल । विभत्ते २४ ल ल तत्तियमेत्ताणि खंडाणि २४ ।
१ ल ल
रूऊण सला बारस सळागगुणिदे दु वळयखंडाणि । बाहिर सूइ सलागा कदी तदंता खिला खंडा ॥
तत्समुद्रे एकादशसहस्रनवशतचत्वारि ११९०४ । वारुणीद्वीपे अष्टचत्वारिंशत्सहस्रत्रिशतचतुरशीतिः ४८३८४ । तत्समुद्रे एकलक्षपञ्चनवतिसहस्रद्वासप्ततिः १९५०७२ । क्षीरवरद्वीपे सप्तलक्ष त्र्यशीतिसहस्रत्रिशतषष्टिः ७८३३६० । तदर्णवे एकत्रिंशल्लक्षकोनचत्वारिंशत्सहस्रपञ्चशत चतुरशीतिः । ३१३९५८४ एवं स्वयंभूरमणसमुद्रपर्यन्तमानेत२५ व्यानि । तदानयनसूत्रत्रयं बाहिरसूई ५ ल, वर्ग ५ ल ५ ल, गुणिते पच्चीस ल ल, अब्भन्तरसुई १ ल, दग्ग १ ल१ल, गुणिते लल परिहीणं २४ ल ल, जंबूवास १ ल ल, विभक्ते २४ । ल ल अपवर्तिते तत्तियमेत्ताणि १ । लल
प्रमाण वाले चौबीस खण्ड होते हैं । धातकी खण्डमें एक सौ चवालीस खण्ड होते हैं । कालोद समुद्र में छह सौ बहत्तर खण्ड होते हैं। पुष्कर द्वीपमें दो हजार आठ सौ अस्सी खण्ड होते हैं । पुष्कर समुद्र में ग्यारह हजार नौ सौ चार खण्ड होते हैं । वारुणी द्वीप में अड़तालीस ३० हजार तीन सौ चौरासी खण्ड होते हैं । वारुणी समुद्र में एक लाख पनचानबे हजार बहत्तर खण्ड होते हैं । क्षीरवर द्वीपमें सात लाख तिरासी हजार तीन सौ साठ खण्ड होते हैं । क्षीरवर समुद्रमें इकतीस लाख उनतालीस हजार पाँच सौ चौरासी खण्ड होते हैं । इस प्रकार स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त लाना चाहिए । इसके लाने के लिए तीन सूत्र हैं । तदनुसार लवणसमुद्रकी बाह्य सूची पाँच लाख योजन, उसका वर्ग पचीस लाख लाख योजन । लवण ३५ समुद्रकी अभ्यन्तर सूची एक लाख योजन । उसका वर्ग एक लाख लाख योजन । घटानेपर
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७६५
५
रूऊणसळा २ । बारस। १२ । सळाग २। गुणिदे दु २। १२।२। वळयखंडाणि । २४ । बाहिरसूइ सळागा ५ कदी २५ । तदंताखिळा खंडा।
बाहिरसूईवलयवासूणा चउगुणिट्ठवासहदा।
इगिलक्खवग्गभजिदा जंबूसमवलयखंडाणि ॥-त्रि. सा. ३१८ गा.। बाहिरसूई ५ ल। वळयं । वास २ ल । ऊणा ३ ल । चउगुण ३ ल। ४ । इट्टवास २ ल। हदा २४ ल ल। इगिलक्खवग्ग १ ल ल भजिदा २४ ल ल जंबूसमवलयखंडाणि २४ । इल्लि । सर्वद्वीपखंडंगळं बिटु समुद्रखंडंगळने याय्डुको डु प्रकृतं पेळल्पडुगुमदे ते दोडे लवणसमुद्रदोळु जंबूद्वीपोपमानखंडंगळु चतुविशतिप्रमितंग २४। ळवनोंदु लवणसमुद्रखंडमेंदु माडि १। या चतुविशतिखंडंगळिदं काळोदकसमुद्रद जंबूद्वीपसमानद सर्वखंडंगळं भागिसिदोडे ६७२ लवण
२४ समुद्रोपमानलब्धखंडंगठप्पुवुविप्पत्तेंटु २८। मतमा चतुविशतिखंडंगळिंदं पुष्करसमुद्रद जंबूद्वीप
खण्डाणि २४ । रूऊणसला २ वारस १२ सलाग २ । गुणिदे दु२ १२ । २ वलयखण्डाणि २४ । वाहिरसुई सलागा ५ कदी २५ तदन्ताखिलाखण्डा । बहिरसूई ५ ल वलयन्वासू २ ल, णा ३ ल, चउगुणिट्ठवास ४२ ल, हदा २४ ल ल, इगिलक्खवग्गभजिदा २४ ल ल जम्बसमवलयखण्डाणि २४ । अत्र सर्वद्वीपखण्डानि
त्यक्त्वा सर्वसमुद्रखण्डेषु जम्बूद्वीपसमचतुर्विशतिखण्डभक्तेषु लवणसमुद्रे लवणसमुद्रसमखण्डमेकं १। कालोदकखण्डेषु भक्तेषु ६७२ अष्टाविंशतिः २८ । पुष्करसमुद्रखण्डेषु भक्तेषु ११९०४ चतुःशतषण्णवतिः ४९६, १५
२४
२४
शेष रहे चौबीस लाख लाख योजन। इस तरह बाह्य सूचीके वर्गमें से अभ्यन्तर सूचीके वर्गको घटाना। फिर उसे जम्बूद्वीपके व्यास लाख योजनके वर्गसे भाग देनेपर चौबीस लब्ध आया। उतने ही खण्ड लवणसमुद्रमें होते हैं। तथा लवणसमुद्रका व्यास दो लाख होनेसे उसकी शलाका दो हैं । उसमें से एक घटानेपर एक रहा । उसको बारह और शलाका दोसे गुणा करनेपर चौबीस वलयखण्ड होते हैं। तथा लवणसमुद्रकी बाह्य सूची पाँच लाख २० योजन है, अतः शलाकाका प्रमाण पाँच, उसका वर्ग पच्चीस । सो लवण समुद्र पर्यन्त पच्चीस खण्ड होते हैं । तथा लवण समुद्रकी बाह्य सूची पाँच लाख योजन, उसमें से उसका व्यास दो लाख योजन घटानेपर तीन लाख शेष रहे। इनको चौगुणे व्यास आठ लाख योजनसे गुणा करनेपर चौबीस लाख हुए। इसमें एक लाखके वर्गसे भाग देनेपर चौबीस आये । उतने ही जम्बूद्वीपके समान वलयाकार खण्ड लवण समुद्र में होते हैं।
सो यहाँ सर्वद्वीप सम्बन्धी खण्डोंको छोड़कर सर्वसमुद्र सम्बन्धी खण्ड ही लेना। तथा जम्बूद्वीप समान चौबीस खण्डोंका भाग समुद्रके खण्डोंमें देना। तब लवणसमुद्रमें लवणसमुद्रके समान एक खण्ड होता है । कालोदके छह सौ बहत्तर खण्डोंमें चौबीससे भाग देनेपर कालोद समुद्रमें लवणसमुद्रके समान अट्ठाईस खण्ड होते हैं। पुष्कर समुद्रके ग्यारह १. ब. कालोदके अष्टावि । २. ब. समुद्रे चतुः ।
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२४
७६६
गो. जोवकाण्डे समानखंडंगळं पवणिसुत्तं विरलु पुष्करसमुद्रखंडंगळु षण्णवत्युत्तरचतुःशतप्रमितंगळप्पुवु ४२६ । मत्तमा चतुविशतिखंडंळिदं वारुणिसमुद्रद जंबूद्वीपसमानसर्वखंडंगळं प्रमाणिसुत्तं विरलु १९५०७२ अष्टाविंशतिशतोत्तराष्टसहस्रप्रमितंगळप्पुवु ८१२८ । मत्तमा चतुविशतिखंडंगळिवं
क्षीरसमुद्रद जंबूद्वीपसहक्षखंडंगळ ३१३९५८४ प्रमाणिसुत्तं विरलु मेकलक्षत्रिंशत्सहस्राष्टशत५ षोडशप्रमितखंडंगळप्पुवु १३०८१६ । ई प्रकारदिदमरिदु स्वयंभूरमणसमुद्रपय्यंतं नडसल्पडुवुवु १३०८१६ मत्तमल्लि
८१२८ ४९६
२४
२८
सर्वत्र प्रभवोत्तरोत्पत्तिनिमित्तमेकादिचतुर्गुणोत्तरमवरप्रमाणऋणखंडंगळं प्रक्षेपिसुत्तं विरलु द्वयादिषोडशोत्तरगुणसंकलितक्रममागि नडेवुवल्लि प्रकृतक्षेत्रफलसमुत्पत्तिनिमित्तं पुष्करसमुद्रद
विछ | द्विगुणषोडशवर्गखंडप्रमाण माडि
FFERE
| २।१६।१६।१६। १६ |२।१६। १६ । १६ ।
२।१६।१६। २।१६। का
१४४४४ १४४४ १४४
१४॥
|२१
धन
ऋण
२४
१० वारुणीसमुद्रखण्डेषु भक्तेषु-१९५०७२ अष्टसहस्रकशताष्टाविंशतिः ८१२८ । क्षीरसमुद्रखण्डेषु भक्तेषु ३१३९५८४ एकलक्षत्रिंशत्सहस्राष्टशतषोडश १३०८१६ एवं स्वयम्भूरमणसमुद्रपर्यन्तं गन्तव्यं १३०८१६ पुनरत्र
८१२८
२४
२८
सर्वत्रकादिचतुर्गुणोत्तरक्रमेण ऋणे प्रक्षिप्ते द्वयादिषोडशोत्तरगुणसंकलितक्रमो गच्छति
३
वि-१ छे छे ३
वि-१ छे छे ३ ३२ हजार नौ सौ चार खण्डोंमें चौबीससे भाग देनेपर चार सौ छियानबे खण्ड होते हैं। वारुणी
समुद्रके खण्ड एक लाख पचानवे हजार बहत्तरमें चौबीससे भाग देनेपर आठ हजार एक १५ सौ अट्ठाईस खण्ड होते हैं। क्षीर समुद्रके खण्ड इकतीस लाख उनतालीस हजार पाँच सौ
चौरासीमें चौबीससे भाग देनेपर एक लाख तीस हजार आठ सौ सोलह खण्ड होते हैं। १. म परसुत्तं । २. ब. समुद्रे अष्टं । ३. ब. समुद्रे एकलक्ष ।
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७६७ षोडशवर्गखंड गुणोत्तरमक्कुं। मत्ते सव्वंद्वीपसागरंगळनसुित्तं विरलु सर्वसमुद्रप्रमाणमक्कुमल्लि लवणोदकाळोदस्वयंभूरमणसमुद्रशलाकात्रयम कळेदोडे प्रकृतगच्छमक्कुमीयाधुत्तरगच्छंगळिदः
पदमेत्ते गुणयारे अण्णोष्णं गणिय रूव परिहीणे। रूऊणगुणेणहिये मुहेण गुणियंमि गुणगणियं ॥
१६ ।
१६
वा
पु
धन
ऋण
अत्र प्रकृतक्षेत्रफलोत्पत्तिनिमित्तं पुष्करसमुद्रस्य द्विगुणषोडशवर्गखण्डानि आदिः षोडशगुणोत्तरसर्वद्वीप- ५ समुद्रसंख्याधं समुद्रत्रयशलाकोनं गच्छः धनमानीयते । 'पदमेत्ते गुणयारे अण्णोणं गुणियं,' अत्र गच्छो द्वीपसागरइस प्रकार स्वयंभूरमण पर्यन्त जानना चाहिए। सो सर्वत्र एकको आदि लेकर चतुर्गणा उत्तरोत्तर ऋण और दो को आदि लेकर सोलहगुणा उत्तरोत्तर घन करनेसे लवण समुद्र समान खण्ड आते हैं।
लवण समुद्र समान खण्डोंका प्रमाण लानेके लिए रचनासमुद्र धनराशि
ऋणराशि | क्षीरवर | २ | १६ | १६ | १६ | १६ | १ ४ ४ ४ ४ । वारुणीवर २ | १६ | १६ | १६ | १ | ४ ४ ४ | पुष्कर | २ | १६ | १६ कालोद २ | १६ | लवणोद | २ | १
यहाँ दो आदि सोलह सोलह गुणा तो धन जानना और एक आदि चौगुना-चौगुना ऋण जानना । धनमें से ऋणको घटाने पर जो प्रमाण रहे,उतने ही लवण समुद्र समान खण्ड जानना । जैसे प्रथम स्थानमें धन दो और ऋण एक । सो दो में से एक घटाने पर एक रहा। १. ब. 'वर्गः आदिः ।
|
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७६८
गो० जीवकाण्डे में बी गुणसंकलनसूत्रेष्टदिदं धनमं तंदु चतुविशतिखंडंगळिदं जंबूद्वीपक्षेत्रफलदिदम गुणियिसियपत्तिसि पूर्व निक्षिप्तसंख्यातसूच्यंगुलगुणितजगच्छेणिमात्रऋणसंकलितधनमं किंचिदूनं माडुत्तिरलु दगरयभाजित १२३९ जगत्प्रतरमात्रं ऋणक्षेत्रमक्कु । १ मिदंतादुत
१२६९ दोडे पेळल्पडुगुं।
इल्लि गच्छप्रमाणं द्वीपसागरंगळ 'संख्यार्धमेयप्पुरिदं गुणोत्तरद १६ मूलमे ग्राह्यमक्कु ४ । मदुकारणदिदं । पदमेत्ते गुणयारे अण्णोणं गुणियं एंदु गच्छमात्रद्विकगळं वरिंगतसंवर्ग माडिदोडे संख्यार्धमिति गुणोत्तरस्य १६ मूलं ४ गृहीत्वा गच्छतात्रद्विकद्वयेषु परस्परं गुणितेषु रज्जुवर्गः स्यात् । = =
५
७।७
सो लवण समुद्र में एक खण्ड हुआ। दूसरे स्थानके दो को सोलहसे गुणा करने पर बत्तीस
घन हुआ। और एकको चारसे गुणा करने पर चार ऋण हुआ। बत्तीसमें से चार घटाने पर १० अट्ठाईस रहा। सो दूसरे कालोदक समुद्रमें लवण समुद्र समान अट्ठाईस खण्ड हैं। तीसरे
स्थानके बत्तीसको सोलहसे गुणा करनेपर पाँचसौ बारह धन हुआ। और चारको चारसे गुणा करनेपर सोलह ऋण हुआ । पाँच सौ बारह में से सोलह घटाने पर चार सौ छियानबे रहे । सो इतने ही पुष्कर समुद्र में लवण समुद्र समान खण्ड हैं । अब जलचर रहित समुद्रोंका
क्षेत्रफल कहते हैं१५ जो द्वीप समुद्रोंका प्रमाण है , उसमें-से यहाँ समुद्रोंका ही ग्रहण होनेसे आधा करें।
उसमें-से जलचर सहित तीन समुद्र घटानेपर जलचर रहित समुद्रोंका प्रमाण होता है । वही यहाँ गच्छ जानना। सो दो आदि सोलह-सोलह गुणा धन कहा था। सो जलचररहित समुद्रोंके धनमें कितना क्षेत्रफल हुआ,उसे कहते हैं
___'पदमेत्ते गुणयारे' सूत्रके अनुसार गच्छ प्रमाण गुणकारको परस्परमें गुणा करके २० उसमें से एक घटाओ। तथा एक हीन गुणकारके प्रमाणसे भाग दो। तथा मुख अर्थात्
आदिस्थानसे गुणा करो। तब गुणकाररूप राशिमें सबका जोड़ होता है। यहाँ गच्छका प्रमाण तीन कम द्वीपसागरके प्रमाणसे आधा है। सो सब द्वीप-समुद्रोंका प्रमाण कितना है यह कहते हैं
एक राजूके जितने अर्द्धच्छेद हैं, उनमें एक लाख योजनके अर्द्धच्छेद, एक योजनके २५ साठ लाख अड़सठ हजार अंगुलोंके अर्द्धच्छेद और सूच्यंगुलके अर्धच्छेद तथा मेरुके ऊपर
प्राप्त हुआ एक अर्धच्छेद, इतने अर्धच्छेद घटानेपर जितना शेष रहे,उतने सब द्वीप समुद्र हैं।
और गुणोत्तरका प्रमाण सोलह है। सो गच्छ प्रमाण गुणोत्तरको परस्परमें गुणा करो । सो एक राजूकी अर्धच्छेद राशिसे आधे प्रमाण मात्र स्थानोंमें सोलह-सोलह रखकर परस्पर में
गुणा करनेसे राजूका वर्ग होता है । सो कैसे है,यह कहते हैं३० १. म संख्यातमेयप्पुदं ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७६९
रज्जुवर्ग पुटुगु। रूवपरिहोणे । रूपमेकप्रदेशमदरिदं होनमादोडिदु ७१७ रूऊणगुणेणहिये
७।७।१५ मुहेण गुणियम्मि गुणगणियं = २॥ १६ ॥ १६ मुखं पुष्करसमुद्रमक्कु । मत्त
७।७.१५
मिदं संकलितधनम चतुविशतिखंडंगळिंदम जंबूद्वीपक्षेत्रफलदिदम योजनांगुलंगळ वर्गदिंदमुं
रूवपरिहोणे , 2. रूऊणगुणेणहिये -- मुहेण गुणयम्मि गुणगणियं = २ । १६ । १६ पुनरिदं चतुर्विंशति
७ । ७ । १५ ওও
७७ । १५
विवक्षित गच्छके आधा प्रमाणमात्र विवक्षित गुणाकारको रखकर परस्परमें गुणा ५ करनेपर जो प्रमाण होता है,वही प्रमाण विवक्षित गच्छ प्रमाण मात्र विवक्षित गणाकार का वर्गमूल रखकर परस्परमें गुणा करनेपर होता है। जैसे विवक्षित गच्छ आठके आधे प्रमाण चार जगह विवक्षित गुणाकार नौको रखकर परस्परमें. गुणा करनेपर पैंसठ सौ इकसठ होते हैं । वही विवक्षित गच्छमात्र आठ जगह विवक्षित गुणाकार नौका वर्गमूल तीन रखकर परस्परमें गुणा करनेपर पैंसठ सौ इकसठ होते हैं।
इसी प्रकार यहाँ विवक्षित गच्छ एक राजूके अधच्छेदके अधच्छेद प्रमाण मात्र जगह सोलह-सोलह रखकर परस्परमें गुणा करनेपर जो प्रमाण होता है,वही राजूके अर्धच्छेद मात्र सोलहका वर्गमूल चार-चार रखकर परस्परमें गुणा करनेपर प्रमाण होता है । सो राजूके अर्धच्छेद मात्र जगह दो-दो रखकर गुणा करनेपर राजू होता है और उतनी ही जगह दो-दो बार दो रखकर परस्परमें गुणा करनेपर राजूका वर्ग होता है । सो जगत्प्रतरको दो बार १५ सातका भाग देनेपर इतना ही होता है। उसमें से एक घटानेपर जो प्रमाण हो, उसको एक हीन गुणाकार के प्रमाण पन्द्रहसे भाग दें। यहाँ आदिमें पुष्कर समुद्र है, उसमें लवणसमुद्र समान खण्डोंका प्रमाण दोको दो बार सोलहसे गुणा करे जो प्रमाण हो, उतना है, वही मुख है। उससे गुणा करे। ऐसा करनेपर एक हीन जगत्प्रतरको दो सोलह-सोलहका गुणाकार और सात सात पन्द्रहका भागहार हुआ। अथवा राजूके अर्धच्छेद प्रमाण सोलहफा वर्गमूल चार- २० को रखकर परस्परमें गुणा करनेसे भी राजूका वर्ग होता है। अथवा राजूके अधच्छेद प्रमाण स्थानोंमें दो-दो रखकर उन्हें परस्परमें गुणा करनेसे राजूका प्रमाण होता है और राजू प्रमाण स्थानोंमें दो-दो रखकर परस्परमें गुणा करनेसे राजूका वर्ग होता है। सो ही जगत्प्रतरमें दो बार सातसे भाग देनेपर भी इतना ही होता है । इसमें से एक घटानेपर जो प्रमाण हो उसे एक हीन गुणाकार, पन्द्रहसे भाग दो। इसको मुखसे गुणा करो। सो यहाँ आदिमें पुष्कर २५ समुद्र है, उसमें लवणसमुद्र के समान खण्डोंका प्रमाण दोको दो बार सोलहसे गुणा करो, २४१६४१६ उतना है। वही यहाँ मुख है, उसीसे गुणा करो। ऐसा करनेसे एक कम जगत्प्रतरको दो, सोलह-सोलहसे गुणा और सात, सात, पन्द्रहसे भाग हुआ; यथा=२४१६४१६ । एक लवण समुद्रमें जम्बूद्वीपके समान चौबीस खण्ड होते हैं। अतः
७७/१५ इस राशिमें चौबीससे गुणा करना। और जम्बूद्वीपके क्षेत्रफलसे गुणा करना। एक योजनके
सात लाख अड़सठ हजार अंगुल होते हैं । यहाँ राशि वर्गरूप है और वर्गराशिका भागहार Jain Education Internatio
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७७०
गो० जीवकाण्डे प्रतरांगुलदिदं गुणिसि बळिक्कं :
विरलिदरासीवो पुण जेत्तियमेताणि होणरूवाणि ।
तेसि अण्णोण्णहदे हारो उप्पण्णरासिस्स ॥
एंदु लक्षयोजनच्छेदमात्रविकद्वयंगळ संवर्गजनितलक्षयोजनवर्गदिदमुं येकयोजनांगुलच्छेद. ५ मात्रद्विकद्वयसंवर्गजनितएकयोजनांगुलंगळ वर्गदिदमु मेरुमध्यच्छेदमोदर द्विकवर्गदिदमु जल.
चरसहितसमुद्रत्रयशलाकात्रयद गुणोत्तरगुणितघनप्रमितदिदमु १६ । १६ । १६ गुणिसल्पट्ट प्रतरांगुलदिदं भागिसि भाज्यभागहारंगळं निरीक्षिसि :
१०
जम्बूद्वीपक्षेत्रफलयोजनाङ्गलवर्गप्रतराङ्गलैः संगुण्य पश्चात्
विरलिदरासीदो पुण जेत्तियमेत्ताणि हीणरूवाणि ।
तेसि अण्णोण्णहदे हारो उप्पण्णरासिस्स । इति लक्षयोजनछेदमात्रद्विकद्वयर्जातलक्षयोजनवर्गेण एकयोजनाङ्गुलछेदमात्रद्विकद्वयनितैकयोजनागुलवर्गेण मेरुमध्यच्छेदस्य द्विकवर्गेण जलचरसमुद्रशलाकात्रयस्य गुणोत्तरघनेन च १६ । १६ । १६ हतप्रतराङ्गुलेन
गुणाकार वर्गरूप होता है, अतः सात लाख अड़सठ हजारका दो बार गुणा करना होता है।
सूच्यंगुलके वर्गको प्रतरांगुल कहते हैं, अतः इतने प्रतरांगुलोंसे उक्त राशिको गुणा करना। १५ पश्चात् विरलिदरासीदो' इत्यादि करणसूत्रके अनुसार द्वीप-समुद्रोंके प्रमाणमें-से राजूके
अर्धच्छेदोंमें-से जितने अर्धच्छेद घटाये हैं, उनके आधे प्रमाणमात्र गुणाकार सोलहको परस्परमें गुणा करनेसे जो प्रमाण हो,उसे उक्त राशिका भागहार जानना । सो यहाँ जिसका आधा ग्रहण किया, उस सम्पूर्ण राशि प्रमाण सोलहके वर्गमूल चारको परस्परमें गुणा करनेसे
भी वही राशि आती है। सो अपने अर्धच्छेद प्रमाण दो-दोके अंकोंको परस्परमें गुणा करनेसे २० विवक्षित राशि होती है। यहाँ चार कहे हैं। अतः उतने ही मात्र दो बार दो-दोके अंकोंको
परस्परमें गुणा करनेसे विवक्षित राशिका वर्ग आता है। तदनुसार यहाँ लाख योजनके अर्धच्छेद प्रमाण दो बार दो-दोके अंकोंको रखकर परस्परमें गुणा करनेसे एक लाखका वर्ग आता है। एक योजनके अंगुलके अर्धच्छेद मात्र दो बार दो-दोको रखकर परस्परमें
गुणा करनेसे एक योजनके अंगुल सात लाख अड़सठ हजारका वर्ग आता है। मेरुके ऊपर . २५ आनेवाले एक अर्धच्छेद मात्र दो दुओंको परस्परमें गुणा करनेसे चार हुआ। सूच्यंगुलके
अर्धच्छेदमात्र दो-दोको रखकर परस्परमें गुणा करनेसे प्रतरांगुल हुआ। ये सब भागहार होते हैं । तथा जलचरवाले तीन समुद्र गच्छमें-से कम किये हैं अतः गुणोत्तर सोलहका तीन बार भाग होता है । इस प्रकार जगत्प्रतरमें प्रतरांगुल, दो, सोलह, चौबीस और सात सौ नब्बे
करोड़ छप्पन लाख, चौरानबे हजार, एक सौ पचास तथा सात लाख अड़सठ हजार, ३० सात लाख अड़सठ हजार तो गुणाकार हुआ । तथा प्रतरांगुल, सात, सात, पन्द्रह, एक लाख,
एक लाख, तथा सात लाख अड़सठ हजार, सात लाख अड़सठ हजार और चार और सोलह-सोलह-सोलह भागहार हुआ। इनमें से प्रतरांगुल, दो बार सोलह, दो बार सात लाख अड़सठ हजार ये गुणाकार और भागहारमें समान हैं, अतः इनका अपवर्तन हो जाता है। गुणाकार में दो और चौबीसको परस्परमें गुणा करनेसे अड़तालीस होते हैं, तथा भाग
३५ १. म छेदंगल।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका
=४ । २ । १६ । १६ । २४ । ७९०५६९४१५० । ७६८००० । ७६८००० ४।७। ७ । १५ । १ ल । १ ल । ७६८००० । ७६८००० । ४ । १६ । १६ । १६
अपवत्तितं
= ७९०५६९४१५० हारंगळं गुणिसिदोडिदु = ७९०५६९४१५० इदनपर्वात्तसुव ७ ।७।१ल १ ल । ४।५
९८०००००००००००
क्रममे ते बोर्ड भायदि भागहारमं भागिसिद शेषमे भागहारमक्कुं मंतु भागिसुत्तिरलु दगरय भक्तजगत्प्रतरप्रमितमक्कु । १ । ई संकलनधनदोळिष्पं ऋणं पदमेंते इत्यादिइंदं गच्छार्द्धनिमित्तं १२ । ३९
गुणोत्तरद मूलं ग्राह्यमपुदरिवं गुणोत्तरं नाल्कदर मूलमेरडरिदं रज्जुछेदंगळ विरलिसि वग्गित- ५ संवग्गं माडिदोडे रज्जु पुट्टुगं । स्वपरिहीणे रूपमेकप्रदेशमदरिंदं परिहीन माडिदोडिदु ७ रू ऊणगुणेणहिए ७।३ मुहेण गुणियंमि गुणगणियं । मुखं पुष्करसमुद्रमप्पुर्दार पदिनारीरं गुणिसि१६ इदं चतुव्विशतिखंडंगळदमुं जंबूद्वीपक्षेत्रफलदिदमुं एकयोजनांगुलंगळ
७ ३
७७१
भक्त्वा भाज्यभागहारान् निरीक्ष्य=४ । २ । १६ । १६ । २४ । ७९०५६९४१५० । ७६८००० । ७६८००० ४।७। ७।१५ । १ल | १ल | ७६८००० । ७६८०० । ४ । १६ । १६ । १६
अपवर्त्य = ७९०५६९४१५०
७ । ७ । १ल । १ ल । ४ । ५ भक्ते साधिकधगरयभक्तजगत्प्रतरं स्यात् = १ । अत्रत्य ऋणमानीयते 'पदमेते गुणयारे अण्णोष्णं गुणिय' अत्रापि १२३९
हारान् परस्परं गुणयित्वा = ७९०५६९४१५० ९८०००००००००००
गच्छार्घत्वाद् गुणोत्तरचतुष्कस्य मूलं गृहीत्वा गच्छमात्रद्विकेषु परस्परं गुणितेषु रज्जु -- रूवपरिहीणे – रूऊण
७
७
हारमें पन्द्रह और सोलहको परस्पर में गुणा करनेसे दो सौ चालीस होते हैं । इसे अड़तालीससे अपवर्तित करनेपर भागहार में पाँच रहे । इस प्रकार करनेसे स्थिति इस प्रकार रही
४ । २ । १६ । १६ । २४ । ७९०५६९४१५० | ७६८००० । ७६८००० अपवर्तन करनेपर १५ ४७७ १५/१ल., १ल. । ७६८००० । ७६८००० । ४ । १६ । १६ । १६
७९०५६९४१५० ७१७/१ल. । १ ल. 1४/५ |
सब भागहारोंको परस्पर में गुणा करनेपर और उनको गुणाकार अंकों भाग देने पर धनराशि में सर्वक्षेत्र फल 'साधिक धगरय' अर्थात् कुछ अधिक बारह सौ उनतालीस से भाजित जगत्प्रतर प्रमाण होता है । अब ऋण लाना है । सो जलचर सहित समुद्रोंका ऋणरूप क्षेत्रफल लाते हैं- 'पदमेत्ते गुणयारे' इत्यादि सूत्र के अनुसार गच्छमात्र गुणाकार चारका परस्पर में गुणा करना चाहिए । सो राजू के अर्धच्छेदोंके आधे प्रमाण चारको २० परस्पर में गुणा करनेसे एक राजू होता है । यहाँ गच्छ सर्वद्वीप समुद्रोंके प्रमाणसे आधा है । अतः गुणाकार चारका वर्गमूल दो ग्रहण करना । सम्पूर्ण गच्छमें एक राजूके अर्धच्छेद कहे हैं । अतः एक राजू अर्धच्छेद मात्र दोको परस्परमें गुणा करनेसे एक राजूका प्रमाण होता है वह जगतश्रेणिका सातवाँ भाग है। उसमें से एक घटानेपर जो प्रमाण हो, उसको एकहीन तीन भाग दें। तथा पुष्कर समुद्रकी अपेक्षा आदि स्थानमें प्रमाण सोलह है, २५
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७७२
गो०जीवकाण्डे
वर्गदिदमु प्रतरांगुलदिंदमुं गुणिसि बळिक्कं "विरलिदरासीदो पुण जेत्तियमेत्ताणि होणरुवाणि । तेसि अण्णोण्णहदे हारो उप्पण्णरासिस्स" एंदु ओंदु लक्षयोजनंगळिद, एकयोजनांगुलंगाळदमुं मेरुमध्यच्छेददद्विदिदमु जलचरसहितसमुद्रशलाकात्रयजनितगुणोत्तरघनदिदमुं । ४।४। गुणिसल्पट्ट सूच्यंगुलं भागहारमक्कु १६ । ४ । २४ ॥ ७९०५६९४१५० । ७६८००० । ७६८००० मिदन
७३।२।१ल। ७६८०००।२।४।४।४। ५ पत्तिसिदोड संख्यातसूच्यंगुलप्रमितजगच्छेणिगळप्पुववं २३ किंचिदूनं माडिदोडिदु -१
१२३९
गुणेण हिये - ३ मुहेण १६ । गुणयम्मि गुणगणियं - ३ । १६ । इदं चतुर्विंशतिखण्डजम्बूद्वीपश्रेत्रफलकयोज
नाङ्गुलवर्गप्रतरामुलैः संगुण्य पश्चात्
विरलिदरासीदो पुण जेत्तियमेत्ताणि हीणरूपाणि ।
तेसिं अण्णोण्णहदे हारो उप्पण्णरासिस्स ।। इति लक्षयोजनैरेकयोजनाङ्गुलमरुच्छेदस्य द्विकेन समुद्रशलाकात्रयजगुणोत्तरघनेन च । ४ । ४ । ४ ।
हतसूच्यगुलेन भक्त्वा --१६।४।२४ । ७९०५६९४१५०। ७६८०००।७६८००० अपर्वातते संख्यात
७३ । २।१ ल । ७६८०००।२।४।४। ४
सूच्यङ्गुलप्रमितजगच्छ्रेणिमात्रं भवति - २१ । अनेन किंचिदूनितं = १ पूर्वोक्तं साधिकधगरयभक्तजगत्प्रतरमात्र
उससे गुणा करें। ऐसा करनेसे एक कम जगतश्रेणिको सोलहका गुणकार व सात और तोनका भागहार हुआ। इसको पूर्वोक्त प्रकारसे चौबीस खण्ड, जम्बूद्वीपके क्षेत्रफल रूप योजनोंके प्रमाण और एक योजनके अंगुलोंके वर्ग तथा प्रतरांगुलोंसे गुणा करो। पश्चात् 'विरलितरासीदो' इत्यादि सूत्रके अनुसार गच्छमेंसे जितने राजूके अर्धच्छेद घटायें हैं। उसका आधा प्रमाण चारके अंकोंको परस्परमें गुणा करनेसे जो प्रमाण हो, उतना भागहार जानना । जिस राशिका आधा प्रमाण लिया, उस राशिमात्र चारके वर्गमूल दोको परस्परमें गुणा करनेपर एक लाख योजनके अर्धच्छेद प्रमाण दुओंको परस्परमें गुणा करनेसे एक लाख हुए । एक योजनके अंगुलोंके अर्धच्छेद प्रमाण दुओंको परस्परमें गुणा करनेसे सात लाख अड़सठ हजार अंगुल हुए। मेरुके मध्यमें एक अर्धच्छेदके दूने दो हुए । सूच्यंगुलके अर्धच्छेद प्रमाण दुओंको परस्परमें गुणा करनेसे सूच्यंगुल हुआ । ये सब भागहार हुए । तीन समुद्र घटाये थे सो तीन बार गुणोत्तर चारका भी भागहार जानना। इस तरह एकहीन जगतश्रेणिको सोलह, चार, चौबीस, और सात सौ नब्बे करोड़ छप्पन लाख चौरानबे हजार एक सौ पचास तथा सात लाख अड़सठ हजार और सात लाख अड़सठ हजारका तो गुणाकार हुआ। तथा सात, तीन, और सूच्यंगुल और एक लाख, और सात लाख अड़सठ हजार तथा दो, चार, चार, चारका भागहार हुआ। १ हीन ज. श्रे.।१६।४।२४।७९०५६९४१५०७६८०००।७६८०००। अपवर्तन करनेपर संख्यात
७३।२।१ ल.७६८०००।२।४।४।४ १. ब. मेरुमवध्यच्छे ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पूव्वोक्तदगरय भक्तजगत्प्रतरमात्रऋणक्षेत्रं सिद्धमादुदारुणक्षेत्रमं रज्जुप्रतरमात्रक्षेत्रदोळ = समच्छेदं माडिकलिदोडे शेषमिदु = ११९० इदनपत्तिसले दु भाज्यदि भागहारमं भागिसिदोडे
४९।१२३९ साधिककाम ५१ भक्तजगत्प्रतरमात्रं विवक्षितक्षेत्रद तलस्पर्शमक्कु = १ इदनूध्वंस्पर्शग्रहणात्य
५१
मागि जीवोत्सेधजनितसंख्यातसूच्यंगुलंगाळदं गुणिसिदोडे शुभलेश्यगळ्गे स्वस्थानस्वस्थानस्पर्शमक्क = २२ इदं कटाक्षिसि तेजोलेश्येग स्वस्थानस्वस्थानापेक्षयिदं लोकासंख्यातभागं स्पर्शमदु ५ पेळल्पदुदु । विहारवत् स्वस्थानदोळं वेदनाकषायवैक्रियिकसमुद्घातदोळं तेजोलेश्यरो अष्टचतुदर्दशभागंगळ किंचिदूनंगळागि ८ = प्रत्येकं नाल्कडयोळुमक्कुमी किंचिदूनाष्टचतुर्दशभागं
ऋणक्षेत्रं सिद्धम् । इदं रज्जुप्रतरे = समच्छेदेनापनीय = ११९० अपवर्तनाथं भाज्येन भागहारं भक्त्वा
४९ । १२३९
साधिककाम ५१ भक्तजगत्प्रतरं विवक्षितक्षेत्रस्य तलस्पर्शो भवति =१ । इदमूर्ध्वस्पर्शग्रहणार्थ जीवोत्सेधजनित
संख्यातसूच्यगुलगुणितं शुभलेश्यानां स्वस्थानस्वस्थानस्पर्शो भवति = २२ । इदं दृष्ट्वा तेजोलेश्यायाःस्वस्थान- १.
स्वस्थानापेक्षया लोकासंख्येयभागः स्पर्शः इत्युक्तम् । विहारवत्स्वस्थाने वेदनाकषायवैक्रियिकसमुद्घाते च तेजोलेश्याया अष्टचतुर्दशभागः किंचिदूनः स्यात् । ८- कुतः ? सनत्कुमारमाहेन्द्रजानां तेजोलेश्योत्कृष्टांशानां
१४
सूच्यंगुलसे गुणित जगतश्रेणि मात्र क्षेत्रफल हुआ। इसे पूर्वोक्त धनराशिरूप क्षेत्रफलमें-से घटाना चाहिए । सो किचिंतहीन साधिक बारह सौ उनतालीससे भाजित जगत्प्रतर प्रमाण सवेजलचर रहित समुद्रोंका ऋणरूप क्षेत्रफल हुआ। इसको एक राजू लम्बा चौड़ा तथा १५ जगत्प्रतरका उनचासवाँ भाग मात्र रज्जू प्रतरक्षेत्र में से समच्छेद करके घटाइए । तब जगत्प्रतरमें ग्यारह सौ नब्बेका गुणकार और उनचास गुणा बारह सौ उनतालीसका
ज.प्र.X११९०
१९३९ । अपवर्तन करनेके लिए भाज्यसे भागहारमें भाग देनेपर साधिक इक्यावनसे भाजित जगत्प्रतर प्रमाण विवक्षित क्षेत्रका प्रतररूप तलस्पर्श होता है। इसको ऊँचाईका स्पर्श ग्रहण करनेके लिए जीवोंकी ऊँचाईके प्रमाण संख्यात सूच्यंगुलसे २० गुणा करनेपर कुछ अधिक इक्यावनसे भाजित संख्यात सूच्यंगुल गुणित जगत्प्रतर मात्र शुभलेश्याओंका स्वस्थान-स्वस्थान सम्बन्धी स्पर्श होता है। इसको देखकर तेजोलेश्याका स्वस्थान-स्वस्थानकी अपेक्षा स्पर्श लोकका असंख्यातवाँ भाग मात्र कहा है।
भागहार हुआ।
१२३९ ।
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७७४
३४३
गो. जीवकाण्डे त्रैराशिकसिद्धमक्कुमदेते दोडे सानत्कुमारमाहेंद्रकल्पजदेवर्कळ्गे तेजोलेश्योत्कृष्टांशं संभविसुगुमप्पुरिदमवर्गळगे विहारं मेगच्युतकल्पपर्यंतमक्कुं केळगे तृतीयपृथ्वीपर्यंतमक्कुमदु कारणमागि अष्टरज्जूत्सेधमुं एकरज्जुप्रतरमुमक्कु =८= मंतागुत्तं विरलं तृतीयपृथ्विय पटल
रहिताधस्तनसहस्रयोजनदिदं किंचिदूनाष्टरज्जूत्सेधमक्कु प्र३१४ फ श १ । इ = ८ - लब्धं ५ किंचिदूनाष्टचतुर्दशभागमक्कुम दरिवुदु । भवनत्रयसंभूतमितेयक्कुमेके दोडे :
___भवणतियाण विहारो णिरयति सोहम्मजुगळ पेरंतं ।
उवरिमदेवपयोगेणच्चुदकप्पोत्ति णिद्दिट्ठो।" एंदितु पेळल्पटुदप्पुरिदं भवनत्रयसंजातग्र्गल्लं केळगे तृतीयपृथ्वीपयंत मेगे सौधर्मयुगलपय्यंत स्वैरविहारमक्कुं। मेगणदेवप्रयोगदिदमच्युतकल्पपर्यंत विहारमक्कुं। मारणसमुद्घात१० पददोळु तेजोलेश्यगे किंचिदूननवचतुर्दशभागक्षेत्र स्पर्शमक्कुमेके दोडे तेजोलेश्याजीवंगळु भवन
त्रयसंभूतर्मेण सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेंद्रकल्पजर्मेण तृतीयपृथ्वीयोळिईवर्गळ्गे ईषत्प्राग्भाराष्टमउपर्यधोऽच्युतान्ततृतीयपृथ्व्यन्तं विहारसंभवात् । पृथ्वीपटलरहिताधस्तनयोजनानामपनयनात् प्र=१४
३४३ फ श १ इ= ८-इति त्रैराशिकलब्धस्य च तत्प्रमाणत्वात् । अथवा भवनत्रयस्य उपर्यधः स्वरं सौधर्मद्वयतृतीय
पृथ्व्यन्तं देवप्रयोगेन अच्युतान्तं च विहारसद्भावात् तावान् संभवति । मारणान्तिकसमुद्घाते तेजोलेश्यायाः किंचिदूननवचतुर्दशभागः भवनत्रयसौधर्मचतुष्कजानां तृतीयपृथिव्यां स्थित्वा अष्टमपृथ्वीसंबन्धिवादरपर्याप्तपृथ्वीकायेषु उत्पत्तु मुक्ततत्समुद्घातदण्डानां संभवति । ९-तैजसाहारकसमुद्घाते संख्यातबनाङ्गुलानि ६ १ केवलिसमुद्धा
तेजोलेश्याका विहारवत्स्वस्थान, वेदना समदघात, कषाय समदघात और वैक्रियिक समदघातमें स्पर्श कुछ कम चौदह भागमें आठ भाग है। सो कैसे हैं, यह बतलाते हैंसानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गके उत्कृष्ट तेजोलेश्यावाले देव ऊपर सोलहवें अच्युत स्वर्ग पर्यन्त गमन करते हैं और नीचे तीसरी नरक पृथ्वीपर्यन्त गमन करते हैं। अच्युतस्वर्गसे तीसरा नरक आठ राजू हैं। इससे चौदह भागमें-से आठ भाग कहे हैं। तथा तीसरी पृथ्वीकी मोटाईमें जहाँ नरकपटल नहीं है,उस हजार योजनको कम करनेसे कुछ कम कहा है। जो चौदह घनरूप राजूकी एक शलाका हो,तो आठ घनरूप राजूकी कितनी शलाका होगी ऐसा त्रैराशिक करनेपर आठ बटे चौदह आता है। अथवा भवनत्रिकदेव स्वयं तो ऊपर सौधर्म ऐशान स्वर्ग पर्यन्त और नीचे तीसरे नरक पर्यन्त गमन करते हैं। दूसरे देव द्वारा ले जानेपर सोलहवें स्वर्गपर्यन्त विहार करते हैं । इससे भी पूर्वोक्त प्रमाण स्पर्श है। तेजोलेश्याका स्पर्श मारणान्तिक समुद्घातमें चौदह भागमें से कुछ कम नौ भाग प्रमाण होता है। वह इस प्रकार है-भवनत्रिकदेव अथवा सौधर्मादि चार स्वर्गोंके वासी देव तीसरे नरक गये। वहाँ ही मारणान्तिक समुद्घात किया, और ऊपर आठवीं पृथ्वीमें बादर पृथ्वीकायमें उत्पन्न होनेके लिए वहाँ तक प्रदेशोंका विस्तार किया। उस आठवीं पृथ्वीसे तीसरा नरक नौ राजू है तथा पूर्ववत् तीसरी पृथ्वीकी पटलरहित मोटाई कम करनेसे कुछ कम नौ
२५
१०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७७५ पृथ्वीय बादरपर्याप्नपृथ्वीकायंगळोळु पुट्टल्लेडि मुक्तमारणांतिकसमुद्घातदंडमनुळ्ळरोळु किंचिदूननवचतुर्दश भागं स्पर्शसंभवमप्पुरिदं तैजससमुद्घातदोळं आहारकसमुद्घातदोळं तेजोलेश्येगे स्पर्श प्रत्येकं संख्यातघनांगुलप्रमितमक्कुं। केवलिसमुद्घातं तेजोलेश्येयोळसंभवमप्पुदरिनापददोलिल्ल । उपपादपवदोळु तेजोलेश्यगे प्रथमपदं स्पर्श किंचिदूनद्वय चतुर्दशभागमक्कुमेकदोडे तेजोलेश्येय उपपादपरिणतजीवंर्गाळदं सानत्कुमारमाहेंद्रकल्पपर्यंत क्षेत्र स्पृष्टमपुदंतागुत्तं त्रिरज्जूत्सेधमदक्के ५ किंचिदूनत्रिचतुर्दशभागमाग द्वयर्द्धचतुर्दशभागप्ररूपणमाचाऱ्यांतराभिप्रायदिदं मादुदवर्गळ पक्षदोळु सौधम्मैशानकल्पद्वदिद मेग संख्यातयोजनंळिदं पोगि सानत्कुमारमाहेंद्रकल्पप्रारंभमागि द्वयर्द्धरज्जूदयदोळ परिसमाप्तियक्कुमा चरमदोळ तेजोलेश्याजीवंगळु एनिल्लवे एंदोडिल्ल, तत्कल्पद्वयाधस्तनविमानंगळोळे तेजोलेश्यासंभवमें बुपदेशमवर्गळ पक्षदोळप्पुरिदं, अथवा चित्रावनियोलिई तिर्यग्मनुष्यरुगलिगे ईशानपर्यंतमुपपादसंभवदिदं। च शब्ददिदं तेजोलेश्योत्कृष्टमृत- १. रुगळिगे सनत्कुमारमाहेंद्रांतिमचक्रंद्रकप्रणिधियोळुमुपपादमें दाक्कै लंबर पेळ्वरवर्गळभिप्रायदिदं ययासंभवमागि इवु ३- संभवितुगुमैदरिद ३-२ दनियममक्कुं॥
१४२
तोऽत्र न संभवति । उपपादपदे किचिदूनद्वयर्धचतुर्दशभागः । ननु तेजोलेश्यतत्पदपरिणतैः सानत्कुमारमाहेन्द्रान्तं क्षेत्रे स्पृष्टे विरज्जूत्सेधात् किंचिदूनत्रिचतुर्दशभागः कथं नोच्यते सौधर्मद्वयादुपरि संख्यातयोजनानि गत्वा सानत्कुमारद्वयप्रारम्भो द्वयर्धरज्जूदये परिसमाप्तिः तच्चरमे च तेजोलेश्या नास्तीति केषांचिदुपदेशाश्रयणात् १५ चित्रास्थिततिर्यग्मनुष्याणां ईशानपर्यन्तमुपपादसंभवाद्वा। चशब्दात्तेजोलेश्योत्कृष्टांशभूतानां सनत्कुमारमाहेन्द्रान्तिमचक्रेन्द्रकप्रणिधावुपपादं वदतां अभिप्रायेण यथासंभवं तस्यापि संभवादनियमः ।।५४७॥ बटे चौदह स्पर्श होता है। तैजस समुद्घात और आहारक समुद्घातमें संख्यात धनांगुल प्रमाण स्पर्श है । तेजोलेश्यामें केवलि समुद्घात नहीं होता। उपपाद स्थानमें चौदह राजूमेंसे डेढ़ राजूसे कुछ कम स्पर्श होता है।
शंका-तेजोलेश्यावाले जीव उपपाद करते हुए सानत्कुमार-माहेन्द्र के अन्त तक क्षेत्रका स्पर्श करते हैं और सानत्कुमार माहेन्द्र के अन्त तक तीन राजूकी ऊँचाई है, अतः चौदह राजूमें-से कुछ कम तीन राजू स्पर्श क्यों नहीं कहा?
समाधान-सौधर्म-ऐशान स्वगसे ऊपर संख्यात योजन जाकर सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गोंके प्रारम्भमें डेढ़ राजूकी ऊँचाई समाप्त होती है। उसके आगे डेढ़ राजू जानेपर । सानत्कुमार-माहेन्द्रका अन्तिम पटल है। उसमें तेजोलेश्या नहीं है,ऐसा किन्हीं आचार्योंका ' उपदेश है। उसीके अनुसार उक्त कथन किया है। अथवा चित्रा पृथ्वीपर स्थित तियंच
और मनुष्योंका उपपाद ऐशान स्वर्ग पर्यन्त होता है। इससे किंचित् न्यून डेढ़ राजू मात्र स्पर्श कहा है। गाथामें आये 'च' शब्दसे तेजोलेश्याके उत्कृष्ट अंशसे मरे हुओंका उपपाद सानत्कुमार-माहेन्द्र के अन्तिम चक्रनामा इन्द्रकके श्रेणीबद्ध विमानोंमें होता है,ऐसा कहनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे यथासम्भव तीन भाग भी स्पर्श सम्भव होनेसे कोई नियम नहीं है ।।५४७॥ १. म योलार्केलबर् । २. म रिदुवदनि ।
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७७६
गो. जोवकाण्डे पद्मलेश्येयजीवंगळ्गे स्पर्श पेळल्पडुगुं :
पम्मस्स य सट्ठाणसमुद्घाददुगेसु होदि पढमपदं ।
अडचोद्दस भागा वा देसूणा होति णियमेण ॥५४८॥ पद्मलेश्यायाः स्वस्थानसमुद्घातविकेषु भवति प्रथमपदं । अष्टचतुर्दश भागा वा देशोना ५ भवंति नियमेन।
पद्मलेश्याजीवंगळो वाशब्ददिदं स्वस्थानस्वस्थानपददोळमपेन्द लोकासंख्यातकभागं स्पर्शमक्कुं = २१ विहारदत्स्वस्थानदोळु प्रथमपदं स्पर्श किंचिदूनाष्टचतुर्दशभागमक्कुमंत वेदना
कथायवैक्रियिकसमुद्घातपदंगळोळमष्टचतुर्दशभागं किंचिदूनमागियक्कुं। मारणांतिकसमुद्घात
दोळं किंचिदूनाष्टचतुर्दशभागमेयक्कुमेक दोडे पद्मलेश्याजीवंगळु पृथिव्यन्वनस्पतिगळोळु पुट्टरप्पु१० दरिदं । तैजससमुद्घातदोळं आहारकसमुद्घातदोळं पद्मलेश्याजीवंगळगे प्रत्येक संख्यातघनांगुलमे स्पर्शमक्कु केवलिसमुद्घातमा लेश्याजीवंगळोळ संभवमप्पुरिदमिल्लि :
___ उववादे पढमपदं पणचोद्दसभागयं देसूणं । उपपादे प्रथमपदं पंचचतुर्दशभागा देशोनाः।
उपपाददोळु प्रथमपदं स्पर्श शतारसहस्रारपय्यंतं पद्मलेश्याजीवं संभवमप्पुर पंचचतुर्दश१५ भागंगळु किंचिदूनंगलप्पुवु ५- । शुक्ललेश्याजीवंगळ्गे स्पर्शमं पेळ्दपं:
सुक्कस्स य तिट्ठाणे पढमो छच्चोद्दसा हीणा ॥५४९।। शुक्ललेश्यायाः त्रिस्थाने प्रथमः षट्चतुर्दश भागाः होनाः ॥
१४
पद्मलेश्यानां वाशब्दात्स्वस्थानस्वस्थानपदे प्रागुक्तलोकासंख्यातैकभागः स्पर्शो भवतिऋ२१ । विहारव
स्वस्थाने वेदनाकषायवैक्रियिकसमुद्घातेषु च किंचिदूनाष्टचतुर्दशभागः । मारणान्तिकसमुद्धातेऽपि तथैव २० पद्मलेश्यजीवानां पृथिव्यब्बनस्पतिषत्पत्तिसंभवात् । तैजसाहारकसमुद्घातयाः संख्यातधनाङ्गुलानि ६ १ केवलिसमुद्घातोऽत्र नास्ति ॥५४८॥
उपपादपदे स्पर्शः शतारसहस्रारपर्यन्तं पद्मलेश्यासंभवात् पञ्चचतुर्दशभागाः किंचिदूना भवन्ति । ५ - ।
पद्मलेश्यावाले जीवोंका स्वस्थानस्वस्थानपदमें पूर्वोक्त प्रकारसे लोकका असंख्यातवा भाग स्पर्श होता है। विहारवत्स्वस्थानमें और वेदना कषाय तथा वैक्रियिक समुद्घातोंमें २५ कुछ कम आठ भाग स्पर्श होता है । मारणान्तिक समुद्घातमें भी चौदहमें-से कुछ कम आठ
भाग स्पर्श होता है,क्योंकि पद्मलेश्यावाले जीव पृथिवीकाय, जलकाय और वनस्पतिकायमें उत्पन्न होते हैं। तैजस और आहारक समुद्घातमें स्पर्श संख्यात घनांगुल है। केवलीसमुद्घात इस लेश्यामें नहीं होता ॥५४८।।
पद्मलेश्यावालोंका उपपाद शतार- सहस्रार स्वर्गपर्यन्त सम्भव होनेसे उपपादपदमें ३० स्पर्श चौदह भागोंमें से कुछ कम पाँच भाग होता है।
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
शुक्ललेश्याजीवंगळ स्वस्थानस्वस्थानदोळु मुन्नं तेजोलेश्येयोपेन्द लोकसंख्यात भागमक्कुं = २१ विहार वत्स्वस्थानमादियागि वेदनाकषाय वैक्रियिकमारणांतिक समुद्घात
५१
पतं पंचपदंगळ प्रथमपदं स्पर्शं देशोन षट्चतुद्दशभागं प्रत्येकमक्कुं । तैजससमुद्घातबोळं आहारकसमुद्धातदोळं प्रथमपदं स्पर्श प्रत्येकं संख्यातघनांगुलप्रमितमक्कु । ६२ ॥ केवलिसमुद्धात - पददोळ्पेदपं ।
५
वरि समुग्धादम्मिय संखातीदा हवंति भागा वा । सव्वो वा खलु लोगो फासो होदित्ति णिद्दट्ठो ||५.५० ।।
विशेषोऽस्ति समुद्घाते च संख्यातीता भवंति भागा वा । सर्व्वे वा खलु लोकः स्पर्शो भवति इति निद्दिष्टः ॥
७७७
केवलिसमुद्घातदोळु विशेष मुंटदावुदे दोडे स्वस्थानदोळं विहारमवकुं दंडसमुद्घातदोळु १० स्पर्श क्षेत्रदोपेत संख्यातप्रतरांगुलगुणित जगच्छ्रेणिमात्रमक्कु । १ ॥ मिदनारोहणावतरणविवक्षयदं द्विगुणिसिदोर्ड दंडसमुद्घातबोळ स्पर्शमक्कु - - ४ । २ । २ । पूर्वाभिमुखस्थितोपविष्टकवाटसमुद्घातदोळ स्पर्शं संख्यातसूच्यंगुलप्रमितजगत्प्रतरमक्कु २१ । मदनारोहणावरोहणनिमित्तं द्विगुणिसिदोर्ड पूर्व्वाभिमुख स्थितोपविष्टकवाटस मुद्धातारोहणावतरणस्पर्शमक्कुं = २१२ । शुक्ललेश्या जीवानां स्पर्शः स्वस्थानस्वस्थाने तेजोलेश्यावल्लोका संख्यातैकभागः = २१ विहारवत्स्वस्थाने १५
I
५१
वेदनाकषायवैक्रियिकमारणान्तिकसमुद्घातेषु च देशोनषट्चतुर्दशभागः ६ - तैजसाहारकसमुद्घातयोः संख्यातघनाङ्गुलानि ६१ ॥ ५४९ ॥
१४
केवलिसमुद्घाते विशेषः, स कः ? दण्डसमुद्घाते स्पर्शः क्षेत्रवत् संख्यातप्रतराङ्गुलहतज गच्छ णिः - ४ । स च द्विगुणितः आरोहणावरोहणदण्डयोर्भवति । ४ । १ । २ । पूर्वाभिमुखस्थितोपविष्टकवाटसमुद्घाते संख्यातसूच्यङ्गुलमात्रजगत्प्रतरः = २१ स च द्विगुणितः आरोहणावरोहणयोर्भवति = २१ । २
O
शुक्ललेश्यावाले जीवोंका स्पर्श स्वस्थान- स्वस्थानमें तेजोलेश्या की तरह लोकका २० असंख्यातवाँ भाग है । विहारवत्स्वस्थानमें वेदना, कषाय, वैक्रियिक और मारणान्तिक समुद्घात में चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग स्पर्श है । तैजस और आहारक समुद्धातमें संख्यात घनांगुल स्पर्श है ।। ५४९ ||
केवली समुद्घात में विशेष है। वह इस प्रकार है- दण्डसमुद्घात में स्पर्श क्षेत्रकी तरह संख्यात प्रतरांगुल से गुणित जगतश्रेणि प्रमाण है । सो वह विस्तारने और संकोचने की अपेक्षा दूना होता है । पूर्वाभिमुख स्थित या बैठे हुए कपाट समुद्घातमें संख्यात सूच्यंगुल
२५
९८
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७७८
गो० जीवकाण्डे
वै
मा ते आ
केवलि समुद्घात
उपपाद
५१ १४
१४ । १४
शु
= २१ ६-६-६
। ५३ १४ १४ १४ १४ १४ -४२२२१२-२१२० = | १४ | मत्तं अंतयुत्तराभिमुखस्थितोपविष्टकवाटसमुद्घातदोळु स्पर्श आरोहणावतरणविवयिदं द्विगुणसंख्यातसूच्यंगुलप्रमितजगत्प्रतरमात्रमक्कुं । = २१२ । प्रतरसमुद्घातदोळु स्पर्श लोकासंख्यात बहुभागमक्कु 33 मेके दोडे वातावरुद्धक्षेत्रदिदं लोकासंख्यातेक = १ भादिदं होनमादुदप्पु.
दरिदं । लोकपूरणसमुद्घातदोळु सवलोकं = स्पर्शमक्कुमदु पेळल्पदुदु । खलु नियमदिदं ५ उपपाददोळु स्पर्श किंचिदून षट्चतुर्दशभागमक्कु ६- मेक दोड शुक्ललेश्ययोळु आरणाच्युतावसानं विवक्षितमप्पूरिदं पन्नेरडनेय स्पर्माधिकारंतीद्वंदु । अनंतरं कालाधिकारमं गाथाद्वयदिदं पेळ्दपं ।
कालो छन्लेस्साणं णाणाजीवं पडुच्च सव्वद्धा ।
अंतोमुहुत्तमवरं एवं जीवं पडुच्च हवे ॥५५१।। कालः षड्लेश्यानां नानाजीवं प्रतीत्य साद्धा। अंतर्मुहूर्तोऽवरः एक जीवं प्रतीत्य भवेत्॥
तथैवोत्तराभिमुखस्थितोपविष्टकवाटस्यापि = २ १।२ प्रतरसमुद्घाते लोकासंख्यातबहुभागः a । वातावरुद्ध
क्षेत्रेण लोकसंख्यातक = १ भागेन न्यूनत्वात् । लोकपूरणसमुद्घाते सर्वलोकः = खलु नियमेन । उपपादपदे किंचिदून- षट्चतुर्दशभागः ६- आरणाच्युतावसानस्यैव विवक्षितत्वात् ॥ ५५० ॥ इति स्पर्शाधिकारः । अथ
१४
कालाधिकारं गाथाद्वयेनाहमात्र जगत्पतर प्रमाण है । वह भी विस्तारने और संकोचनेकी अपेक्षा दूना होता है। ऐसा ही उत्तराभिमुख स्थित और उपविष्ट कपाट समुद्घातका भी होता है। प्रतर समुद्घातमें लोकका असंख्यात बहुभाग प्रमाण स्पर्श है, क्योंकि वातवलयके द्वारा रोका गया क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है और वह भाग प्रतर समुद्घातमें नहीं आता। लोकपूरण समुद्घात
में नियमसे सर्वलोक स्पर्श है। उपपाद पदमें चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भाग स्पर्श है, २० क्योंकि यहाँ आरण-अच्युत पर्यन्तकी ही विवक्षा है ।।५५०॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७७९ कृष्णलेश्याप्रभृति षड्लेश्यगळगं कालं नानाजीवापेक्षयिदं सर्वाद्धियक्कुमेकजीवापेक्षेयिदं जघन्यकालमंतर्मुहूर्तमक्कुं।
उवहीणं तेत्तीसं सत्तर सत्तेव होंति दो चेव ।
अट्ठारस तेत्तीसा उक्कस्सा होंति अदिरेया ।।५५२॥ उदधीनां त्रयस्त्रिंशत् सप्तदश सप्तैव भवंति द्वावेवाष्टादश त्रयस्त्रिंशत् उत्कृष्टा भवंत्यतिरेकाः॥ ५
त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमंगळं ३३। सप्तदशसागरोपमंगळं १७ । सप्तसागरोपमंगळु ७। यथासंख्यमागि कृष्णलेश्याप्रभृत्यशुभलेश्यात्रयंगळगुत्कृष्टकालंगळप्पुवु । तेजोलेश्याप्रभृति शुभलेश्यात्रयंगळ्गे यथासंख्यमागियुत्कृष्टकालमेरडुसागरोपमंगळं पदिनेटु सागरोपमंगळं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमंगळं साधिकमधिकमागप्पुर्व ते दोडे षड्लेश्यगळ्गे व्याघातविषयविवयिदं जघन्यकालमंतर्मुहत्तगाळ समधिकमाद कृष्णलेश्याप्रभृतिषड्लेश्येगळोळु त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमादिगळुत्कृष्टकालंगळप्पुवुविते- १० करडेरडुमंतर्मुहूत्तळिदं समधिकंगळादुवे दोडे नारकदेवभवंगळतणिदं पूर्वभवचरमकालदोळं उत्तरभवप्रथमसमयदोळमंतर्मुहूर्तांतर्मुहूर्तकालमा लेश्यगळेयप्पुरिदं मत्तमिल्लिविशेषमुंटदावुदें दोडे तेजःपद्मलेश्येगळणे किंचिदून सागरोपमार्द्धमतिरेकमक्कुमेके दोडे सौधर्मकल्पं मोदल्गोंडु सहस्रारकल्पपयंतं स्वस्वोत्कृष्टस्थितिगळ मेले घातायुष्कजीवापेक्षयिंदमंतर्मुहूर्तोनार्द्धसागरोपमं सम्यग्दृष्टिगळगे पळितोपमासंख्यातेकभागं मिथ्यादृष्टिगळ्गभ्यधिकमक्कुमप्पुरिदं संदृष्टि :- १५
कृष्णादिषड्लेश्यानां कालः नानाजीवं प्रति सर्वाद्धा सर्वकालः । एकजीवं प्रति जघन्येन अन्तर्मुहूर्तो भवति ॥५५॥
उत्कृष्टस्तु सागरोपमाणि कृष्णायास्त्रयस्त्रिंशत् ३३ । नीलायाः सप्तदश १७ । कपोतायाः सप्त ७ । तेजोलेश्याया द्वे २ । पद्माया अष्टादश १८ । शुक्लायास्त्रयस्त्रिंशत् ३३ । साधिकानि भवन्ति अव्याघातविषये । तदाधिक्यं तु देवनारकभवेभ्यः पूर्वभवचरमान्तर्मुहूर्तः उत्तरभवप्रथमान्तर्मुहूर्तश्च षण्णां । तेजःपद्मयोः पुनः २० किंचिदूनसागरोपमार्धमपि, कुतः सौधर्मादिसहस्रारपर्यन्तं स्वस्वोत्कृष्टस्थितरुपरि घातायुष्कस्य सम्यग्दृष्टेरन्त
___ इस प्रकार स्पर्शाधिकार समाप्त हुआ। अब दो गाथाओंसे कालाधिकार कहते हैंकृष्ण आदि छह लेश्याओंका काल नाना जीवोंकी अपेक्षा सर्वकाल है और एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूत है ।।५५१।।
उत्कृष्टकाल कृष्णका तैंतीस सागर है, नीलका सतरह सागर है, कपोतका सात सागर । है, तेजोलेश्याका दो सागर है। पद्मका अठारह सागर है और शुक्लका तैंतीस सागर है। यह काल कुछ अधिक-अधिक होता है। इसका कारण यह है कि यह काल देव और नारकियों की अपेक्षा कहा है । सो उनके पूर्वभवके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें और उनरभवके प्रथम अन्तर्मुहूर्तमें वही लेश्या होती है,इस तरह छहों लेश्याओंका उक्त काल दो-दो अन्तर्मुहूर्त अधिक होता है। किन्तु तेजोलेश्या और पद्मलेश्यामें कुछ कम आधा सागर भी अधिक होता है,क्योंकि घातायुष्क सम्यग्दृष्टिके सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्गपर्यन्त अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे अन्तर्मुहूर्त कम आधा सागर प्रमाण स्थिति अधिक होती है। और मिथ्यादृष्टिके पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक होती है। १. ब. भवात्पूर्वोत्तरभवयोः चरमप्रथमान्तर्मुहूर्ती षण्णां ।
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१०
१५
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कृ= कृ=
उ २१२ सा ३३
ज २१
नो
२१ । २ सा १७
२१
णाणा जीवाणं
परिमूरनेय कालाधिकारं तीदु दु ।
सव्व
गो० जीवकाण्डे
क
२१ । २
सा ७
२१
काळो ।
२१ । २ सा ५
२
अनंतरमंतराधिकारमं गाथाद्वयदिदं पेदपं :
२१
()
२१
शु
२२ २१।२
सा ३७- सा ३३
२
२१
अंतरमवरुक्कस्सं किण्हतियाणं मुहुत्तअंतं तु ।
उवहीणं तेतीसं अहियं होदिति णिदिट्ठ ॥५५३॥
अंतरमवरोत्कृष्टं कृष्णत्रयाणां मुहूर्त्तो तस्तु । उदधीनां त्रयस्त्रंशदधिकं भवतीति निद्दिष्टं ॥ उतियाणं एवं वरि य उक्कस्सविरहकालो दु ।
पोग्गलपरियट्टा हु असंखेज्जा होंति नियमेण ||५५४ ॥
तेजस्तिसृणामेवं विशेषोऽस्ति उत्कृष्टविरहकालस्तु । पुद्गलपरिवर्त्तनान्यसंख्येयानि भवंति
101011
नियमेन ॥
अंतर बुदे दोडे विरहकाल में बुदाथ मल्लि कृष्णादिलेश्यात्रयक्कं जघन्यांतरमंतर्मुहूर्तमक्कुमुत्कृष्टांतरमा लेश्यात्रयक्कं प्रत्येकं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमं साधिकमक्कुमेदितु परमागमदोळपेळपट्टुदर्द' ते 'दोडे कृष्णलेयोळं तत्रोत्पत्तिक्रममिवु पूर्व्वकोटिवर्षायुष्ममनु मनुष्यं मुहूर्तोनार्धसागरोपमेण मिथ्यादृष्टेस्तु पल्यासंख्यातैकभागेन चाधिक्यात् ॥५५२॥ इति कालाधिकारः । अथान्तराधिकारं गाथाद्वयेनाह -
अन्तरं बिरहकालः कृष्णादित्रयस्य जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । उत्कृष्टेन त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि साधिकानि
विशेषार्थ — वैसे सौधर्म-ऐशान में उत्कृष्ट आयु दो सागर होती है, किन्तु आयुका अपवर्तन घात करनेवाले सम्यग्दृष्टिके अन्तर्मुहूर्त कम ढाई सागर आयु होती है । इसी तरह सहस्रार स्वर्गपर्यन्त जानना, क्योंकि घातायुष्ककी उत्पत्ति सहस्रार स्वर्गपर्यन्त ही होती है । इसी प्रकार घातायुष्क मिध्यादृष्टिके पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर आदिकी २० उत्कृष्ट स्थिति होती है ॥५५२ ||
काधिकार समाप्त हुआ। अब दो गाथाओंसे अन्तराधिकार कहते हैं
अन्तर विरहकालको कहते हैं । कृष्ण आदि तीन लेश्याओंका जघन्य अन्तर - अन्तमुहूर्त है । उत्कृष्ट अन्तर साधिक तैंतीस सागर है । वह इस प्रकार होता है - एक पूर्वकोटि
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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गर्भाद्यष्टवर्षचरमदोळंतर्मुहूर्तषट्क मुळि दुदे बागल कृष्णले श्येयोळे अंतर्मुहूत कालबोलिद्दु - नोललेश्येयं पोद्दिदं । तदा कृष्णलेश्यांतरं प्रारब्धमादुदु । आ नीललेश्येयोळंतर्मुहूर्त्तपय्यं तमि कपोतश्येयं पोद्दिदनल्लियुमंत मुहूर्तं पय्र्यंतमिद्धुं । तेजोलेश्येयं पोद्दिदनल्लियुमंतर्मुहूर्त्तमि पद्मले ये पोद्दिदनल्लियुमंतर्मुहूर्तमिवं शुक्ललेश्ययं पोद्दिदन लियु मंतर्मुहूर्तमिव अष्टवर्षचरमसमयदो संयममं कैको डु देशोन पूर्वकोटिवर्षं संयममननुपालिसि सर्व्वात्थं सिद्धियोपुट्टि अल्लि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थितियं समाप्तिमाडि बंदु मनुष्यनागि तद्द्भवप्रथमसमयं मोदगोंडु अंतर्मुहूर्त कालपर्यंत शुक्ल लेश्येयोळिदु पद्मलेश्येयं पोद्दि अल्लियुमंतर्मुहूत पय्यंतंमि तेजोलेश्येयं पोद्दि अल्लियुमंतर्मुहूत मिट्ठे कपोत लेश्येयं पोद्दि अल्लियुमंतहत 'कालमि नीललेश्ययं पोद्दि अल्लियुमंतर्मुहुत्त 'मिदु कृष्णलेश्येयं पोद्दिदनितुदशांतर्मुहूतगळिनभ्यधिक अष्टवर्षोनपूर्व्वकोटिवर्षाधिकत्रयस्त्रशत्सागरोपमंगळु कृष्णलेश्येयोळंतरमवकुं मिते नीलकपोतलेश्येगळमंतरं पेळल्पडगुमिदु विशेषं नीललेश्येयोळष्टांतर्मुहुत्त गळु कपोतलेश्येयोळु षडंतमुंहतंगळभ्यधिकंगळे दु वक्तव्यमक्कुं । तेजोलेश्ययोत्कृष्टांतोत्पत्तिक्रममिदु । कश्चिज्जीवं मनुष्यं तिथ्यंचं मेणु तेजोलेश्ययदं बंदु कपोत लेश्ययं पोद्दिदं तदा तेजोलेश्यगंतरं प्रारब्धमादुदु पश्चात् कपोतनीलकृष्णलैश्येगळोळु प्रत्येक मंतर्मुहुत्ततिर्मुहूतंगळनिदु एकेंद्रियजीवनादनल्लि आवलिय संख्यातैकभागमात्रपुद्गलपरिवर्तनंगळं परिभ्रमिसि विकलेंद्रियजीवनादनल्लि संख्यातसहस्रवर्ष
५
१०
भवन्तीति निर्दिष्टम् । तत्र कृष्णायां पूर्वकोटिवर्षायुर्मनुष्यो गर्भाद्यष्टवर्षचरमेऽन्तर्मुहूर्तषट् के अवशिष्टे कृष्णां गतः, अन्तर्मुहूर्त स्थित्वा नीलां गतस्तदा कृष्णान्तरं प्रारब्धम् । ततः नीलां कपोतां तैजसीं पद्मां शुक्लां च प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तं स्थित्वा अष्टवर्षचरमसमये संयमं स्वीकृत्य देशोनपूर्वकोटिवर्षाणि प्रतिपाल्य सर्वार्थसिद्धि गतः । तत्र त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि नीत्वा मनुष्यो भूत्वा तद्भवप्रथमसमयादन्तर्मुहूर्त शुक्लां पद्मां तैजसीं कपोतां नीलां च प्रत्येकं स्थित्वा कृष्णां गच्छति । इति दशान्तर्मुहूर्ताधिकानि अष्टवर्षोनपूर्वकोटिवर्षाधिक त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाणि उत्कृष्टान्तरं भवति । एवं नीलकपोतयोरपि किन्तु अधिकान्तर्मुहूर्ताः नीलायामष्टी, कपोतायां षडेव भवन्ति । तेजोलेश्यायां कश्चिन्मनुष्यः तिर्यग् वा स्थित्वा कपोतां गतस्तदा तेजोलेश्यान्तरं प्रारब्धम् । पश्चात्कपोतनीलकृष्णश्यासु एकैकान्तर्मुहूर्तं स्थित्वा एकेन्द्रियो भूत्वा आवल्यसंख्यातैकभागमात्र पुद्गलपरावर्तनानि भ्रान्त्वा
२०
१५
२५
वर्ष की आयुवाला मनुष्य गर्भसे लेकर आठ वर्षकी आयु पूरी होनेमें जब छह अन्तर्मुहूर्त शेष रहे, तो कृष्णलेश्या में चला गया । अन्तर्मुहूर्त तक रहकर नीललेश्या में चला गया । तब कृष्णलेश्याका अन्तर प्रारम्भ हुआ । उसके पश्चात् नील, कापोत, तेज, पद्म, शुक्ल में से प्रत्येक में अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरकर आठ वर्षोंके अन्तिम समय में संयमी हो गया। कुछ कम एक पूर्वकोटि वर्ष तक संयमका पालन करके मरकर सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुआ । वहाँ तैंतीस बिताकर मनुष्य हुआ । मनुष्यभवके प्रथम समयसे शुक्ल, पद्म, तेज, कापोत और नील-से प्रत्येक में अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता हुआ कृष्णलेइयामें चला जाता है । इस प्रकार द अन्तर्मुहूर्त अधिक और आठ वर्ष कम पूर्वकोटि वर्ष अधिक तैंतीस सागर कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट अन्तर होता है । इसी तरह नील और कापोतका भी उत्कृष्ट अन्तर होता है । किन्तु अधिक अन्तर्मुहूर्त नीलमें आठ और कापोतमें छह ही होते हैं। कोई मनुष्य या तिर्यच तेजोलेश्या में रहकर कापोतलेश्या में चला गया। तेजोलेश्याका अन्तर प्रारम्भ हो
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गो० जीवकाण्डे गळनिहुँबंदु पंचेंद्रियजीवनादनल्लि भवप्रथमसमयप्रभृतिकृष्णनीलकपोतलेश्यंगळोळ प्रत्येकमंतमुहूर्तातम्र्मुहूत्तंगळनिर्दु बंदु तेजोलेश्यय पोद्दिदनितु षडंतर्मुहूत्तलिदमधिकमप्प संख्यातसहस्रवर्षगळिनभ्यधिकमप्पावल्यसंख्यातेकभागमात्रपुद्गलपरावत्तंगळु तेजोलेश्ययोत्कृष्टांतर
मक्कं । पद्मलेश्ययोळंतरं पेळल्पडुगु। कश्चिज्जीवनु पद्मलेश्र्याय बंदु तेजोलेश्येयं पोद्दिदनागळु ५ पद्मलेश्ययंतरं प्रारंभमादुदु । आ तेजोलेश्ययोळंतर्मुहूर्त्तकालमिर्दु सौधर्मकल्पद्वयवोळ पल्या.
संख्यातेकभागाभ्यधिकद्विसागरोपमस्थितिकदेवनागिल्लि बळिचि बंदू मुन्निनंते एकेंद्रियविकलेंद्रियपंचेद्रियजीवंगळोळु पुट्टि क्रमदिदं आवलियसंख्यातेकभागमात्रपुद्गलपरावर्तनंगळं संख्यातसहस्रवषंगळ निदुर्दु पंचेंद्रियदो भविसिद प्रथमसमयं मोदलगोंडु कृष्णनोलकपोततेजोलेश्यगळोळं
तर्मुहूर्तातर्मुहूत्तंगळनिर्दु पद्मलेश्येयं पोदिदं इंतु पंचांतर्मुहूत्तळिंदमधिकमाद संख्यातसहस्र१० वर्षगळिनधिकमप्प पल्यासंख्यातेकभागाभ्यधिकसागरोपमद्वयाभ्यधिकमप्पावल्यसंख्यातैकभागमात्र
पुद्गलपरावर्तनंगळु पद्मलेश्ययोळुत्कृष्टांतरमक्कुं। शुक्ललेश्ययोमित वक्तव्यमक्कुमावोउमिदु विशेषं । शुक्ललेयर्यायदं बंदु पद्मलेश्येयं पोद्दियल्लियंतर्मुहूर्त्तमिर्दु तेजोलेश्ययं पोद्दि अल्लियुमंतर्मुहूर्तमिर्दु मुन्निनंत सौधम्मद्वयदोळु पल्यासंख्यातेकभागविंदमधिकमप्प सागरोपमद्वयमनल्लिय स्वस्थितियनिर्दु बळिचि एकेंद्रियंगळोळावल्यसंख्यातेकभागमात्रपुद्गलपरावर्तनंगळं विकलेन्द्रियो भूत्वा संख्यातसहस्रवर्षाणि भ्रान्त्वा पञ्चेन्द्रियो भूत्वा तद्भवप्रथमसमयात्कृष्णनीलकपोतलेश्यासु एकैकान्तर्मुहूर्त स्थित्वा तेजोलेश्यां गच्छति । इति षडन्तर्मुहूर्तसंख्यातसहस्रवर्षावल्यसंख्यातकभागमात्रपुद्गलपरावर्तनान्युत्कृष्टान्तरं भवति । पद्मायां कश्चिस्थित्वा तेजोलेश्यां गतस्तदा पद्मान्तरं प्रारब्धं तत्रान्तर्मुहूर्त स्थित्वा सौधर्मद्वये पल्यासंख्यातकभागाधिकसागरोपमद्वयं स्थितः च्युत्वा प्राग्वदेकविकलेन्द्रियेषु क्रमेणावल्यसंख्या
तैकभागमात्रपुद्गलपरावर्तनसंख्यातसहस्रवर्षाणि स्थित्वा पञ्चेन्द्रियभवप्रथमसमयात् कृष्णनीलकपोततेजोलेश्यासु २० एकैकान्तर्मुहूर्त स्थित्वा पां गच्छति । इति पञ्चान्तर्मुहूर्तसंख्यातसहस्रवर्षपल्यासंख्यातकभागाधिकसागरोपम
द्वयावल्यसंख्यातकभागमात्रपुद्गलपरावर्तनानि उत्कृष्टान्तरं भवति । एवं शुक्लायामपि, किन्तु शुक्लातः पद्मां गया। पश्चात् कपोत, नील और कृष्णलेश्यामें एक-एक अन्तर्मुहूर्त रहकर एकेन्द्रिय हो गया। आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गल परावर्तन काल एकेन्द्रियोंमें भ्रमण करके विकलेन्द्रिय हुआ। विकलेन्द्रियोंमें संख्यात हजार वर्ष तक भ्रमण करके पंचेन्द्रिय हुआ। पंचेन्द्रियके भवके प्रथम समयसे कृष्ण, नील, कापोतलेश्यामें एक-एक अन्तर्मुहूर्त ठहरकर तेजोलेश्यामें चला जाता है। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्त संख्यात हजार वर्षे तथा आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल परावर्तन तेजालेश्याका उत्कृष्ट अन्तर है। पद्मलेश्यामें रहकर कोई जीव तेजोलेश्यामें चला गया। तब पद्मलेश्याका अन्तर प्रारम्भ हुआ। वहाँ अन्तर्मुहूर्त तक रहकर सौधर्म युगलमें पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर तक रहा। वहाँसे च्युत होकर पहलेकी तरह एकेन्द्रिय विकलेन्द्रियों में क्रमसे आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल परावर्तन तथा संख्यात हजार वर्ष तक रहकर पंचेन्द्रिय हुआ। भवके प्रथम समयसे कृष्ण, नील, कपोत और तेजोलेश्यामें एक-एक अन्तर्मुहूर्त ठहरकर पद्मलेश्यामें जाता है। इस प्रकार पाँच अन्तर्मुहूर्त संख्यात हजार वर्ष, पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर, आवलीके असंख्यातवें भाग पुद्गल परावर्तन
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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tfsig विकल दोपुट्टि संख्यातसहस्रवर्षगळनिट्टु बंदु पंचेंद्रियजीवनागि तद्भवप्रथम समयं मोवल्गो'डु कृष्णनील कपोत तेजः पद्मलेश्येगळोळु प्रत्येकमंतर्मुहूर्त्तातिर्मुहूतंगळनिदु शुक्लश्येयं पोद्दिदोडदुत्कृष्टांत रं शुक्ललेश्येगे सप्तांतर्मुहर्त्ताधिक संख्यात वर्षसहस्राधिकमप्प पळितोपमा संख्यातैकभागाधिकसागरोपमद्वयाभ्यधिकावल्यसंख्यातैकभागमात्रपुद्गलपरावर्तनप्रमितमक्कुं
।
नील कपोत तेजो. पद्मलेश्या
अंत=कृ
२१ । १० २१ ८ अपूव ८
पू व ८
सा ३३
सा ३३
ज २१
२१
२१ । ६ पूव-८
सा ३३
२१
पदिनाळनेय अंतराधिकारंतिदु दु ।
२१ । ६
व ७०००
पुद २
aa
२१
२१ । ५
व ७००० प
सागरोप २
a
२१
शुक्ललेश्या
२१ । ७
व ७०००
सागरोप १
a
a
पुद्गल प २ पुद्गल परा २
a
a
प
a
२१
अनंतरं भावाधिकारमुमं अल्पबहुत्वाधिकार मुमंनों वे सूत्रदिदं पेदपं :भावादी छल्लेस्सा ओदइया होंति अप्पबहुगं तु । दवमाणे सिद्धं इदि लेस्सा वण्णिदा होंति ॥५५५॥
भावतः षड्लेश्या औयिका भवंति अल्पबहुकं तु । द्रव्यप्रमाणे सिद्धं इति लेश्या वर्णिता भवंति ॥
तैजसी च प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त स्थित्वा प्राग्वत् सौधर्मद्वये पल्यासंख्यातैकभागाधिकद्विसागरोपमस्थिति एकेन्द्रियेण आवल्यसंख्यातैकभागमात्र पुद्गलपरावर्तनानि विकलेन्द्रियेषु संख्यातसहस्रवर्षाणि च नीत्वा पञ्चेन्द्रियभवप्रथमसमयात् कृष्णनीलकपोततेजः पद्मलेश्यामु एकैकान्तर्मुहूतं स्थित्वा शुक्लां गच्छति तदासप्तान्तर्मुहूर्त संख्यातवर्षस हस्रपलितोपमासंख्यातैकभागाधिक सागरोपमद्वयावल्य- संख्यातैकभागमात्रपुद्गलपरावर्तनानि उत्कृष्टान्तरं भवति ॥ ५५३ - ५५४ ॥ इत्यन्तराधिकारः ॥ १३ ॥ अथ भावाल्पबहुत्वाधिकारावाह
इतना उत्कृष्ट अन्तर पद्मलेश्याका होता है। इसी प्रकार शुक्ललेश्या में भी जानना । किन्तु शुक्ल से पद्म और तेज में एक-एक अन्तर्मुहूर्त ठहरकर पहलेकी तरह सौधर्म युगलमें पल्यके असंख्यात भाग अधिक दो सागरकी स्थिति बिताकर एकेन्द्रियों में आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गल परावर्तन और विकलेन्द्रियोंमें संख्यात हजार वर्ष बिताकर पंचेन्द्रिय होता है । वहाँ भवके प्रथम समय से कृष्ण, नील, कपोत, तेज, और पद्मलेश्यामें एक अन्तमुहूर्त ठहरकर शुक्ललेश्या में जाता है। तब सात अन्तर्मुहूर्त, संख्यात हजार वर्ष, पल्यंके असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर, और आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गल परावर्तन उत्कृष्ट अन्तर होता है ॥५५४||
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गो० जीवकाण्डे __भावदिदमारु लेश्यगळु मौदयिकंगळेयप्पुवुवेक दोर्ड कषायोदयावष्टंभसंभूतयोगप्रवृत्ति लक्षणंगळप्पुरिदं । तु मत्ते अल्पबहुत्वमुं मुन्नं संख्याधिकारदोळपेळ्द द्रव्यप्रमाणदोळे सिद्धमक्कुमेके दोडा द्रव्यप्रमाणदोळु सर्वतः स्तोकंगळु शुक्ललेश्याजी वंगळसंख्यातंगळु । । । अवं नोडल्प
मलेश्याजीवंगळुमसंख्यातगुणितंगळप्पु ० ३ ववं नोडल्केतेजोलेश्याजोवंगळ संख्यातगुणितंगळप्पु ५ ० ० १ ववं नोडल्कपोतलेश्याजोवंगळनंतानंतगुणितंगळु १३- वयं नोडलु नीललेश्याजीवंगळप्पु
१३ - ववं नोडलु कृष्णलेश्याजीवंगळ्साधिकंगळप्पु १३ - वेदितु सिद्धंगाळतारुं लेश्य गळ्पदि
नारुमधिकारंगळिदं वणितंगळप्पुवु। अनंतरं लेश्यारहितजीवंगळं पेळ्दपं :
किण्हादिलेस्सरहिया संसारविणिग्गया अणंतसुहा ।
सिद्धिपुरं संपत्ता अलेस्सिया ते मुणेदव्वा ।।५५६॥ कृष्णादिलेश्यारहिताः संसारविनिर्गताः अनंतसुखाः । सिद्धिपुरं संप्राप्ता अलेश्यास्ते मंतव्याः ॥
भावेन षडपि लेश्याः औदयिका एव भवन्ति । कुतः ? कषायोदयावष्टम्भसंभूतयोगप्रवृत्तेरेव तल्लक्षणत्वात् । तु-पुनः, तासामल्पबहुत्वं पूर्वसंख्याधिकारे द्रव्यप्रमाणे एव सिन्दम् । तथाहि-शुक्ललेश्याजीवाः सर्वतः १५ स्तोका अप्यसंख्याताः । तेभ्यः पद्मलेश्या असंख्यातगुणाः । तेभ्यस्तेजोलेश्याः संख्यातगुणाः |
तेभ्यः कपोतलेश्या अनन्तानन्तगुणाः १३-तेभ्य नीललेश्याः साधिकाः १३ । तेभ्यः कृष्णलेश्याः साधिकाः
१३- । इति षडपि लेश्याः षोडशाधिकारणिता भवन्ति ॥५५५॥ अथालेश्यजीवानाह३
अन्तराधिकार समाप्त हुआ । अब भाव और अल्पबहुत्व अधिकार कहते हैं
भावसे छहों लेश्या औदयिक ही होती हैं, क्योंकि कषायके उदयसे संयुक्त योगकी २० प्रवृत्ति ही लेश्याका लक्षण है । उनका अल्पबहुत्व तो पहले संख्या अधिकारमें जो द्रव्यप्रमाण
कहा है, उसीसे ही सिद्ध है, जो इस प्रकार है-शुक्ललेश्यावाले जीव सबसे थोड़े होनेपर भी असंख्यात हैं। उनसे पद्मलेश्यावाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे तेजोलेश्यावाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे कपोतलेश्यावाले जीव अनन्तानन्तगुणे हैं। उनसे नील
लेश्यावाले जीव कुछ अधिक हैं। उनसे कृष्णलेश्या वाले जीव कुछ अधिक हैं । इस २५ प्रकार सोलह अधिकारोंसे छहों लेश्याका वर्णन किया ॥५५५।।
अब लेश्यारहित जीवोंको कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७८५ आवुवु केलवु जीवंगळगे कषायस्थानोदयंगळं योगप्रवृत्तियुमिल्लमा जीवंगळ कृष्णादिलेश्यारहितरप्पर । संसारविनिर्गताः अतुकारणदिदं पंचविधसंसारवाराशिविनिर्गत अनंतसुखाः अतींद्रियानंतसुखसंतृप्तरं सिद्धिपुरं संप्राप्ताः स्वात्मोपलब्धि लक्षणसिद्धियब परमं पोईल्पट्टरुं अलेश्यास्ते मंतव्याः अंतप्प जीवंगळु लेश्यारहिताऽयोगिकेवलिगळं सिद्धपरमेष्ठिगळुमोळरेंदु बगेयल्पडुवरु।
___इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरुमंडलाचार्य्यमहावादवादीश्वररायवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्तिगळं श्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्रवत्ति श्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्टं श्रीमत्केशवण्णविरचितगोम्मटसारकर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपि. कयोळ जीवकांडविंशतिप्ररूपणंगळोळु पंचदशं लेश्यामार्गणामहाधिकारं निगदितमायतु ॥
ये जीवाः कषायोदयस्थानयोगप्रवृत्त्यभावात् कृष्णादिलेश्यारहिताः तत एव पञ्चविधसंसारवाराशि- १० विनिर्गताः अतीन्द्रियानन्तसुखसंतृप्ताः स्वात्मोपलब्धिलक्षणं सिद्धिपुरं संप्राप्ताः ते अयोगकेवलिनः सिद्धाश्च अलेश्या जीवा इति ज्ञातव्याः ॥५५६।। इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्ररचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ तत्त्वप्रदीपिकाख्यायां
जीवकाण्डे विशतिप्ररूपणासु लेश्याप्ररूपणा नाम
पञ्चदशोऽधिकारः ॥१५॥
२०
जो जीव कषायोंके उदयस्थानसे युक्त योगोंकी प्रवृत्तिके अभावसे कृष्ण आदि लेझ्याओंसे रहित हैं और इसीसे पाँच प्रकारके संसार समुद्रसे निकल गये हैं, अतीन्द्रिय अनन्तसुखसे तृप्त हैं, तथा अपने आत्माकी उपलब्धि लक्षणवाले मुक्तिनगरको प्राप्त हो चुके हैं, वे अयोगकेवली और सिद्ध जीव लेश्यासे रहित जानना ॥५५६।। इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोभित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डकी बीस प्ररूपणाओंमें से लेश्यामार्गणा प्ररूपणा
नामक पन्द्रहवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥१५॥
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मव्यमार्गणाधिकार ॥१६॥
अनंतरं भवमार्गणाधिकारमं गाथाचतुष्टयदिदं पेन्दपं :
भविया सिद्धी जेसिं जीवाणं ते हवंति भवसिद्धा ।
तविवरीयाभव्या संसारादो ण सिझंति ॥५५७।। भव्या सिद्धियेषां ते भव्यसिद्धाः अथवा भाविनी सिद्धियेषां ते भव्यसिद्धाः। तद्विपरीता अभव्याः संसारतो न सिद्धयंति ॥
मुंबे संभविसुवंतप्प अनंतचतुष्टयस्वरूपयोग्यतयाक्के लंबरुगळिगभंव्यसिद्धरु । तद्विपरीतलक्षणमनुकळ जीवंगळऽभव्यरु । अदु कारणमागि अभव्यजीवंगळु संसारदणि पिगि सिद्धियं पडेयल्पडुवरु।
भव्वत्तणस्स जोग्गा जे जीवा ते हवंति भवसिद्धा ।
ण हु मलविगमो णियमा ताणं कणयोवलाणमिव ॥५५८॥ भव्यत्वस्य योग्याः ये जीवास्ते भवंति भव्यसिद्धाः। न खलु मलविगमो नियमास्तेषां कनकोपलानामिव॥
यस्य नाम्नापि नश्यन्ति निश्शेषानिष्टराशयः।
फलन्ति वाञ्छितार्थाश्च शान्तिनाथं तमाश्रये ॥१६॥ अथ भव्यमार्गणाधिकारं गाथाचतुष्टयेनाह
भव्या भवितुं योग्या भाविनी वा सिद्धिः अनन्तचतुष्टयरूपस्वस्वरूपोपलब्धिर्येषां ते भव्यसिद्धाः । अनेन सिद्धेर्लब्धियोग्यताम्यां भव्यानां द्वैविध्यमुक्तम् । तद्विपरीताः उक्तलक्षणद्वयरहिताः, ते अभव्या भवन्ति । अतएव ते अभव्या न सिद्धयन्ति संसारानिःसृत्य सिद्धि न लभन्ते ॥५५७॥ एवं द्विविधानामपि भव्यानां सिद्धिलाभप्रसक्ती तद्योग्यतामात्रवतामुपपत्तिपूर्वकं तां परिहरति
२०
अब चार गाथाओंसे भव्य मार्गणाधिकारको कहते हैं
भव्य अर्थात् होनेके योग्य अथवा जिनकी सिद्धि-अनन्त चतुष्टयरूप आत्मस्वरूपकी उपलब्धि भाविनी-होनेवाली है, वे जीव भव्य सिद्ध होते हैं। इससे सिद्धिकी प्राप्ति और योग्यताके भेदसे भन्योंके दो भेद कहे हैं। उक्त दोनों लक्षणोंसे रहित जीव अभव्य होते हैं। वे संसारसे निकलकर सिद्धिको प्राप्त नहीं होते ॥५५७॥
___ इस प्रकार दोनों ही प्रकारके भव्योंको मुक्तिलाभका प्रसंग प्राप्त होनेर जिनके मात्र सिद्धि प्राप्तिकी योग्यता है, उपपत्तिपूर्वक उनको मुक्ति प्राप्तिका निषेध करते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
सम्यग्दर्शनादिसामग्रियनेयिदियनंतचतुष्टयस्वरूपतेयदं परिणमिसल्के योग्यरप्प जीवंगलुनियर्मादिदं भव्यसिद्धरुगळप्परवर्गो मलविगमेदो नियवमिल्ल | कनकोपलंग तंते केलवुजीवंगळु भव्यरुगळागियु रत्नत्रयप्राप्तिरूपमप्प स्वसामग्रियं पडेयलारदिरुत्तिर्धुवु । अभव्यसमानरप्प भव्यजीवंगळु मोळवे बुदत्थं ।
णय जे भव्वाऽभव्वा मुत्तिसुहातीदणंत संसारा ।
ते जीवा णादव्वा णेव य भव्त्रा अभव्वा य ॥ ५५९ ॥
न च ये भव्याः अभव्याश्च मुक्तिसुखाः अपगतानंतसंसाराः ते जीवा ज्ञातव्याः नैव च भव्या अभव्याश्च ॥
आक्के लंबरु जीवंगळु भव्यरुगळुमन्तु अभव्यरुगळुमन्तु मुक्तिसुखाः कृत्स्नकर्मक्षयदोळं घातिकम्मैक्षयदोळं संजनितातींद्रियानंत सुखमनुळरु अतीतानंत संसारा: पेरगिक्कल्पट्ट संसारमनुक्रळ ते जीवाः आ जीवंगळु नैव भव्याः भव्यरुगळुमन्तु नैवाभव्याश्च अभव्य रुगळ मल्तु ज्ञातव्याः एंदितरियल्पडुवरु ।
१०
अनंतरं भव्यमार्गणेयोळ जीवसंख्येयं पेव्दपं :--
अवरो जुत्ताणतो अभव्वरासिस्स होदि परिमाणं । ते विहीण सव्वो संसारी भव्वरासिस्स || ५६०॥
७८७
अवरो युक्तानंतो भव्यराशेर्भवति परिमाणं । तेन विहीनः सर्व्वः संसारी भव्यराशेः । युक्तानंतजघन्य राशिप्रमाणमभव्यराशिय परिमाणमक्कुं । ज जु अ । मा अभव्यराशिहीन सर्व्वं संसारि.
ये भव्यजीवाः भव्यत्वस्य सम्यग्दर्शनादिसामग्री प्राप्यानन्तचतुष्टयस्वरूपेण परिणमनस्य योग्याः केवलयोग्यतामात्रयुक्ताः ते भवसिद्धा संसारप्राप्ता एव भवन्ति । कुतः ? तेषां मलस्य विगमे विनाशकरणे केषांचित्कनको पलानामिव नियमेन सामग्री न संभवतीति कारणात् ॥ ५५८ ॥
ये जीवा न च भव्याः नाप्यभव्याः मुक्तिसुखाः अतीतानन्तसंसाराः ते जीवा नैव भव्या भवन्ति, नाप्यभव्या भवन्ति इति ज्ञातव्याः || ५५९ ॥ अत्र जीवसंख्यामाह
जघन्ययुक्तानन्तोऽभव्य राशिपरिमाणं भवति । ज जु अ । तेन अभव्यराशिनोनः सर्वसंसारिराशिः
जो भव्यजीव भव्यत्वके अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि सामग्रीको प्राप्त करके अनन्तचतुष्टय स्वरूपसे परिणमनके योग्य हैं अर्थात् केवल योग्यतामात्र रखते हैं, वे भवसिद्ध संसारी ही होते हैं। क्योंकि जैसे कुछ स्वर्णपाषाण ऐसे होते हैं, जिनका मल दूर करना शक्य नहीं होता, उस प्रकारकी सामग्री नहीं मिलती, उसी तरह उनके भी मलको विनाश करनेवाली सामग्री नियमसे नहीं मिलती ।।५५८||
जो जीव न तो भव्य हैं और न अभव्य हैं, क्योंकि उन्होंने मुक्तिसुख प्राप्त कर लिया है और उनका अनन्त संसार अतीत हो चुका है। वे जीव न तो भव्य हैं और न अभव्य हैं ।। ५५९ ।।
इनमें जीवोंकी संख्या कहते हैं
अभव्यराशि जघन्य युक्तानन्त परिमाणवाली होती है । भव संसार राशिमें से
१. म ममिल्लदिरुत्तिरलु क ।
१५
२०.
२५
३०
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७८८
गो० जीवकाण्डे राशि भव्यराशिय परिमाणमक्कं १३-1 इल्लि संसारिजीवंगळ परिवर्तनं पेळल्पडुगुं। परिवर्तनं परिभ्रमणं संसरणमें दनातरमक्कुमदुवु द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेददि पंचविधमक्कुल्लि द्रव्यपरिवर्तनं नोकर्मकर्मपरिवर्तनभेददिदं द्विविधमकुमल्लि। नोकर्मपरिवर्तनमें बुदु मूलं शरीरंगळ्गरुं पर्याप्तिगळ्गे योग्यंगळप्पुवावु कलवु पुद्गलंगळ वोलजीवनिंदमोंदु समयदोळु कैकोळल्पट्ट ५ स्निग्धरूक्षवर्णगंधादिर्गाळदं तीवमंदमध्यमभावदिदमुं यथास्थितंगळु द्वितीयादिसमयंगळोळु निज्जीणंगळु । अगृहीतंगळनंतवारंगळं कळेदु मिश्रकंगळनू अनंतवारंगळं कळेदु मध्यदोळु गृहीतं. गळनुमनंतवारंगळं परगिक्कि आपुद्गलंगळे आ प्रकारदिदमे आ जीवन नोकर्मभावमनप्दल्पडुववन्नेवरमा समुदितं कालं नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनमक्कुमदेतेंदोडा पुद्गलपरिवर्तनकालं अगृहीत
ग्रहणाद्धिये , मिश्रग्रहणाद्धिये दुं त्रिविधमक्कुमल्लि विवक्षितनोकर्मपुद्गलपरिवर्तनमध्यदोळु १० अगृहीतंगळ ग्रहणकालमनगृहीतग्रहणाद्धिये बुदु गृहीतंगळ ग्रहणकालं गृहीतग्रहणाद्धिय बुदु । युग
पदुभयग्रहणकालं मिश्रग्रहणाद्विय बुदक्कुमिवल्लर परिवर्तनक्रममिदु । विवक्षितनोकर्मापुद्गल. परिवर्तनप्रथमसमयं मोदल्गोंडु निरंतरमगृहीतंगळननंतवारंगळं कळेदोम्में मिश्रग्रहणमक्कुं मत्तम. भव्यराशिप्रमाणं भवति १३-अत्र संसारिणां परिवर्तनमुच्यते । परिवर्तनं परिभ्रमणं संसार इत्यनन्तरम् । तत्
द्रव्यक्षेत्रकालभवभावभेदात्पञ्चधा । तत्र द्रव्यपरिवर्तनं कर्मनोकर्मभेदावेधा । तत्र नोकर्मपरिवर्तनं नाम १५ शरीरत्रयस्य षट्पर्याप्तीनां च योग्याः पुद्गलाः केनचिज्जीवेन एकस्मिन् समये गृहीताः स्निग्धरूक्षवणंगन्धादिभिः
तीव्रमन्दमध्यमभावेन यथावस्थिताः द्वितीयादिसमयेषु निर्जीर्णाः, अगृहीताननन्तवारानतीत्य मिश्रकाननन्तवारानतीव्य मध्ये गृहीताननन्तवारानतीत्य त एव पुद्गलाः तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य नोकर्मभावं गच्छेयुस्तावान् समुदितकालो नोकर्मद्रव्यपरिवर्तनं भवति । तद्यथा-तत्पुद्गलपरिवर्तनकालो गृहीतग्रहणाद्धा गृहीतग्रहणाद्धा मिश्रग्रहणाद्धेति त्रिविधः । तत्र अगृहीतग्रहणकाल: अगृहीतग्रहणाद्धा। गृहीतग्रहणकालो गृहीतग्रहणाद्धा, युगपदुभयग्रहणकालो मिश्रग्रहणाद्धा। तेषां परिवर्तनक्रमोऽयं विवक्षितनोकर्मपदगलपरिवर्तनप्रथमसमयादारभ्य निरन्तरमगृहीताननन्तवारानतीत्य सन्मिश्र ग्रहणं, पुनः निरन्तरमगृहीताननन्तवारानतीत्य सकृन्मिश्रग्रहणं
अभव्यराशिका परिमाण घटानेपर भव्यराशिका प्रमाण होता है। यहाँ संसारी जीवोंके परिवर्तन कहते हैं। परिवर्तन परिभ्रमण और संसार ये शब्द एकार्थक हैं। परिवर्तन द्रव्य,
क्षेत्र, काल, भव और भावके भेदसे पाँच प्रकारका है। उनमें से द्रव्यपरिवर्तन कर्म और २५ नोकर्मके भेदसे दो प्रकारका है। नोकर्म परिवर्तन इस प्रकार होता है-तीन शरीर छह पर्याप्तियोंके योग्य पुद्गल किसी जीवने एक समयमें ग्रहण किये। स्निग्ध- रूक्ष,वर्ण,गन्ध
आदि तथा तीव्र, मन्द या मध्यम भावसे जैसे ग्रहण किये, दूसरे आदि समयोंमें उनकी निर्जरा हो गयी। उसके पश्चात् अनन्त बार अगृहीतको ग्रहण करके छोड़े, अनन्त बार
मिश्रको ग्रहण करके छोड़े। मध्यमें अनन्त बार गृहीतको ग्रहण करके छोड़े। तब वे ही ३० पुद्गल उसी प्रकारसे उसी जीवके नोकर्म भावको जब प्राप्त हों, उतना सब काल नोकर्म द्रव्य परिवर्तन होता है।
पुद्गल परिवतेनका काल अगृहीतग्रहणाद्धा, गृहीत ग्रहणाद्धा और मिश्र ग्रहणाद्धाके भेदसे तीन प्रकार है। अगृहीत ग्रहणके कालको अगृहीत ग्रहणद्धा कहते हैं। गृहीतग्रहणके
कालको गृहीत ग्रहणद्धा कहते हैं और एक साथ गृहीत और अगृहीतके ग्रहणकालको ३५
मिश्रग्रहणद्धा कहते हैं। उनके परिवर्तनका क्रम इस प्रकार है-विवक्षित नोकर्म पुद्गल परिवर्तनके प्रथम समयसे लेकर निरन्तर अनन्त बार अगृहीतको ग्रहण करके एक बार मिश्रको ग्रहण करता है । पुनः निरन्तर अनन्त बार अगृहीतको ग्रहण करके एक बार मिश्रको
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गृहीतंगळननंतवारंगळं पेरगिक्कियोनिकर्म मिश्रग्रहणमक्कुमितनंतंगळु मिश्रग्रहणंगळप्पुवु । बळिक्कं निरंतरमवगृहीतंगळननंतवारंगळं कळेदोम्म गृहीतग्रहणमपकुमिते गृहीतंगळुमनंतंगळागुत्तं विरलु प्रथमपरिवर्तनमक्कुमल्लिदं बळिक्कं निरंतरंमिश्रकंगलमनतवारंगलकलिदुवोर्मोगृहीतग्रहणमक्कुं मतं मिश्रकंगळननंतवारंगळं परगिक्कियोम्म अगृहीतग्रहणमक्कुमितनंतंगळु अगृहीतग्रहणंगळप्पुवु । मुंद मत्तं निरंतरंमागि मिश्रकंगळननंतंगळं काळ पियोम्म गृहीतग्रहणमक्कुं ५ मिते गृहीतंगळुमनंतंगळागुत्तं विरलु द्वितीयपरिवर्तनमक्कुं।
मत्तमल्लि बळिक्कं निरंतरमागि मिश्रकंगळननंतवारंगळं परगिक्किदोम्म गृहीतग्रहणमकुं। मत्तं निरंतरमिथकंगळननंतवारंगळं कळे दोम्में गृहीतग्रहणमवकुमितुगृहीतग्रहणंगळुमनंतंगळप्पुवुल्लिबळिषकं निरंतरमागि मिश्र कंगल ननंतवारंगळं कळे दोम्म अगृहीतग्रहणमक्कुं मित अगृहीतग्रहणंगळोलमनंतंगळागुत्तं विरलु तृतीयपरिवर्तनमक्कुं। अल्लि बळिक्कं निरंतरं
पुनः निरन्तरमगृहीताननन्तवारानतीत्य सकृन्मिश्रगहणम् । एवमनन्तानि मिश्रग्रहणानि । ततः निरन्तरमगृहीताननन्तवारानतीत्य सकृत् गृहीतग्रहणम् । एवं गृहीतेष्वपि अनन्तेषु जातेषु प्रथमपरिवर्तनं भवति । ततोऽग्रे निरन्तरं मिश्रकाननन्तवारानतीत्य सकृदगृहीतग्रहणम् । पुनः निरन्तरं मिश्रकाननन्तवारानतीत्य सकृदगृहीतग्रहणम् । एवमनन्तानि अगृहीतग्रहणानि । ततः निरन्तरं मिश्रकानन्तवारानतीत्य सकृद्गृहीतग्रहणम् । एवं गृहीतेष्वप्यनन्तेषु जातेषु द्वितीयपरिवर्तनं भवति । ततोऽग्रे निरन्तरं मिश्रकाननन्तवारानतीत्य सकृद्गृहीत- १५ ग्रहणम् । पुनः निरन्तरं मिश्रकाननन्तवारानतीत्य सकृद्गृहीतग्रहणम् । एवं गृहीतग्रहणानि अनन्तानि । ततः निरन्तरं मिश्रकाननन्तवारानतीत्य सकृदगृहीतग्रहणम् । एवमगृहीतग्रहणेष्वप्यनन्तेषु जातेषु तृतीयपरिवर्तनं भवति ।
+on+
+onoro
ग्रहण करता है। इस प्रकार अनन्त बार मिश्रको ग्रहण करता है। उसके पश्चात् निरन्तर अनन्तवार अगृहीतको ग्रहण करके एक बार गृहीतका ग्रहण करता है। इस प्रकार गृहीतका भी ग्रहण अनन्त बार होनेपर प्रथम परिवर्तन होता है। इसकी संदृष्टि इस प्रकार है
| ००+ ०० + ! ०० + । ०० + | ०० + | ०० +
++ ० ) + + ० + + १ + + ० + + ० | ++ १ ++ १ | + + १ | + + ० | + + १ | + + १ | ++ १
११ + | ११ + । ११० ११ + । ११ + I ११ ० इसमें अगृहीतका चिह्न शून्य है, मिश्रका हंसपद है और गृहीतका एक अंक है। दो बार अनन्त बारका सूचक है । प्रथम परावर्तनसे मतलब है ,प्रथम पंक्तिके कोठोंकी समाप्ति हो गयी, अब आगे चलिए।
___ आगे निरन्तर अनन्त बार मिश्रको ग्रहण करके एक बार अगृहीतका ग्रहण करता है। पुनः निरन्तर मिश्रको अनन्त बार ग्रहण करके एक बार अगृहीतका ग्रहण करता है । इस तरह २५ अनन्त बार अग्रहीतका ग्रहण करता है। उसके पश्चात् निरन्तर मिश्रको अनन्त बार ग्रहण करके एक बार गृहीतका ग्रहण करता है। इस प्रकार अनन्त बार गृहीतका ग्रहण होनेपर द्वितीय परिवर्तन होता है। आगे निरन्तर मिश्रको अनन्त बार ग्रहण करके एक बार गृहीतका प्रहण करता है। पुनः निरन्तर मिश्रको अनन्त बार ग्रहण करके एक बार गृहीतको ग्रहण करता है। इस प्रकार अनन्त बार गृहीतको ग्रहण करता है। फिर निरन्तर मिश्रको अनन्त बार ३० ग्रहण करके एक बार अगृहीतका ग्रहण करता है। इस प्रकार अगृहीतका प्रहण अनन्त बार होनेपर तृतीय परिवर्तन होता है। आगे निरन्तर गृहीतको अनन्त बार प्रहण करके एक बार
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गो० जीवकाण्डे गृहीतंगळनंतवारंगळं कळिपियोमें मिश्रग्रहणमक्कुं। मत्तं गृहीतंगळनंतंवारंगळं परगिक्कियोम्में मिश्रग्रहणमक्कुं मितु मिश्रग्रहणंगळुमनंतंगळक्कुल्लि बळिकं निरंतरं गृहोतंगळननंतंगळं परगिक्कियोम्म अगृहीतग्रहणमक्कुमितु अगृहीतंगळोलमनंतंगळागुत्तं विरलु चतुर्थपरिवर्तनमक्कं। तदनंतरसमयदोळु विवक्षितनोकर्मपुद्गलपरिवर्तनप्रथमसमयगृहीतंगळु द्वितीयादिसमयं निर्जीर्णंगळावुवु कलवु नोकर्मसमयप्रबद्धपुद्गलंगळु अवेतादृशंगळे शुद्धंगळु बंदु पोर्दुववु अदिदेल्लमुं कडि नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनमक्कु। कर्मपुद्गलपरिवर्तनं पेळल्पडुगुमोदु समयदोळोद्धजीवनिदमष्टविधकर्मभावदिदमावुवुकलवु कैकोळल्प समयाधिकावलिकालप्रमितमं आबाधयं कळेदु द्वितीयादिसमयंगळोळ निजीणंगळु पूर्वोक्तक्रमदिंदमे अवे आ प्रकारदिंदमे आ जीवंगे कर्मरूपतयनेय्दुववु एन्नेवरमनितु कालं कर्मपुद्गलपरिवर्तनमक्कु उळिदंतल्ला विशेषमुं नोकर्मपरावर्तनदोळ्पेळ्दंतयक्कुमी यरडुं पुद्गलपरिवर्तनंगळ्गे कालंगळे रडु समानंगळेयप्पुविल्लि अगृहीतग्रहणकालमनंतमागियुंसव्वतः स्तोकमक्कुमेके दो. विनष्टद्रव्यक्षेत्रकालभावसंस्कारंगळतुळ्ळ पुद्गलंगळगे बहुवारं ग्रहणं घटिसददु कारणमागि इदरिदं विवक्षितपुदगलपरिवर्तनमध्यदोळु ततोऽग्रे निरन्तरंगहीताननन्तवारानतीत्य सकृन्मिश्रग्रहशम् । पुनः गृहीताननन्तवारानतीत्य सकृन्मिश्रग्रहणम् । एवं मिश्रग्रहणानि अनन्तानि । ततः निरन्तरं गृहीताननन्तवारानतीत्य सकृदगृहीतग्रहणम् । एवमग्रहीतेष्वप्यनन्तेषु जातेषु चतुर्थपरिवर्तनं भवति । तदनन्तरसमये विवक्षितनोकर्मपुद्गलपरिवर्तनप्रथमसमयगृहीताः अनन्ता द्वितीयादिसमयनिर्जीर्णा ये नोकर्मसमयप्रबद्धपुद्गलास्त एव तादृशा एव शुद्धा आगत्य आश्रयन्ति तदेतत्सर्व मिलितं नोकर्मपुद्गलपरिवर्तनं भवति । कर्मपुद्गलपरिवर्तनमुच्यते-एकस्मिन् समये केनचिज्जीवेन अष्टविधकर्मभावेन ये गृहीताः समयाधिकावलिकालमतीत्य द्वितीयादिसमयेषु निर्जीर्णाः। पूर्वोक्तक्रमेणैव त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव जीवस्य कर्मभावं प्राप्नुवन्ति तावत्कालं कर्मपुद्गलपरिवर्तनं भवति । शेषसर्वविशेषो नोकर्मपरिवर्तनवत् ज्ञातव्यः । अनयोः कालो समानौ । अत्रागृहीतग्रहणकालः अनन्तोऽपि सर्वतः स्तोक; । कुतः, बिनष्टद्रव्यक्षेत्रकालभावसंस्कारपुद्गलानां बहुबारग्रहणाघटनात् । अनेन विवक्षितपुद्गलपरिवर्तनमध्ये गृहीतानामेव बहुबारग्रहणं
१५
२०
मिश्रको ग्रहण करता है । पुनः गृहीतको अनन्त बार ग्रहण करके एक बार मिश्रको ग्रहण करता है । इस प्रकार अनन्त बार मिश्रको ग्रहण करता है। पुनः निरन्तर गृहीतको अनन्त
बार ग्रहण करके एक बार अगहीतका ग्रहण करता है। इस प्रकार अनन्त बार अगृहीतका २५ ग्रहण करनेपर चतुर्थ परिवर्तन होता है। उसके अनन्तर समयमें विवक्षित नोकमे पुद्गल
परिवर्तनके प्रथम समयमें जो अनन्त नोकम समयप्रबद्ध पुद्गल ग्रहण किये थे और द्वितीयादि समयमें जिनकी निर्जरा कर दी गयी थी, वे ही नोकर्म पुद्गल उसी रूपमें ग्रहण किये जाते हैं,तो यह सब मिलकर नोकर्म पुद्गल परिवर्तन होता है।
___ अब कर्मपुद्गलपरिवर्तन कहते हैं-एक समयमें किसी जीवने आठ कर्मरूपसे जो ३० पुद्गल ग्रहण किये और एक समय अधिक आवलीके बीतनेपर द्वितीयादि समयोंमें उनकी
निर्जरा कर दी। पूर्वोक्त क्रमसे वे ही पुद्गल उसी प्रकारसे उसी जीवके कर्मपनेको प्राप्त हों तबतकका काल कमपुद्गलपरावर्तन कहलाता है। शेष सब विशेष कथन नोकर्म परिवर्तनकी तरह जानना । इन दोनों परिवर्तनोंके काल समान हैं। यहाँ अगृहीत ग्रहणकाल अनन्त
होनेपर भी सबसे थोड़ा है । क्योंकि जिन पुद्गलोंका द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका संस्कार नष्ट हो ३५ १. म°मितु गृहीतग्रहणंगलु । २. ममं कलिदु ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गृहोतंगळ्गये बहुवारग्रहणं संभविसुगुमेदितु पेळल्पटुदक्कं ॥ उक्तं च :
सुहमट्ठिदिसंजुत्तं आसण्णं कम्मणिज्जरामुक्कं ।
पाएण एदि गहणं दव्वमणिद्दिट्टसंठाणं ॥ [ ] सूक्ष्मस्थितिसंयुक्तं आसन्नं कर्मनिर्जरामुक्तं । प्रायेणैति ग्रहणं द्रव्यमनिद्दिष्टसंस्थानमिति ॥
अल्पस्थितिसंयुक्तमु जीवप्रदेशंगोळिरुतिदुदु कर्मनिरैयदं कर्मस्वरूपमं बिडल्पटुई ५ इंतप्प पुद्गलद्रव्यमनिद्दिष्टसंस्थानं विवक्षितपरावर्तनप्रथमसमयोक्तस्वरूपमल्लदुदु जीवनिदं प्रचुरवृत्तियिदं स्वीकरिसलुपडुगुमेके दोडे द्रव्यादिचतुविधसंस्कारसंपन्नमप्पुरिदं । अगृहीतग्रहणकालमं नोडलु मिश्रग्रहणकालमनंतगुणमक्कु । ख ख । मदं नोडलु जघन्यगृहीतग्रहणकालमनंतगुणमक्कु । ख ख ख । मदं नोडलु जघन्यपुद्गलपरिवर्तनकालं विशेषाधिकमक्कुमधिकप्रमाणमिदु ख ख ख
इदनपत्तिसि इल्लि कूडिदोडिदु ज = घ ख ख ख । अदं नोडलुत्कृष्ट गृहीतग्रहणकालमनंतगुणमक्कु। १० ख ख ख ख। मदं नोडलुत्कृष्टपुद्गलपरावर्तनकालं विशेषाधिकमक्कुमा विशेषप्रमाणमिदु ख ख ख ख इदनपत्तिसि कूडिदोडिदु । ख ख ख ख। इल्लि अगृहीतमिश्रग्रहणकालंगळ
संभवतीत्युक्तं भवति । उक्तं च
. सुहुमट्ठिदिसंजुत्तं आसण्णं कम्मणिज्जरामुक्कं ।
पाएण एदि गहणं दव्वमणिद्दिट्टसंठाणं ॥१॥[ अल्पस्थितिसंयुक्तं जीवप्रदेशेषु स्थितं निर्जरया विमोचितकर्मस्वरूपं पुद्गलद्रव्यं अनिर्दिष्टसंस्थानं विवक्षितपरावर्तनप्रथमसमयोक्तस्वरूपरहितं जीवेन प्रचुरवृत्त्या स्वीक्रियते । कुतः ? द्रव्यादिचतुर्विधसंस्कारसंपन्नत्वात् । अगृहीतग्रहणकालात् मिश्रग्रहणकालोऽनन्तगुणः । ख ख । ततो जघन्यगृहीतग्रहणकालोऽनन्तगुणः । ख ख ख । ततो जघन्यपुद्गलपरिवर्तनकालो विशेषाधिकः । अधिकप्रमाणमिदं ख ख ख अपवर्त्य तत्र निक्षिप्ते
एवं ज = पु । ख ख ख ततः उत्कृष्टगृहीतग्रहणकालः अनन्तगुणः ख ख ख ख । तत उत्कृष्टपुद्गलपरावर्तनकालो २० चुका है, उनका बहुत बार ग्रहण नहीं होता है। इससे यह कहा गया है कि विवक्षित पुद्गलपरावर्तनके मध्यमें गृहीतोंका ही बहुत बार ग्रहण होता है। कहा भी है-जो कर्मरूप परिणत पुद्गल थोड़ी स्थितिको लिये हुए जीवके प्रदेशोंमें एक क्षेत्रावगाह रूपसे स्थित होते हैं और निर्जराके द्वारा कर्मरूपसे छूट जाते हैं, जिनका आकार कहने में नहीं आता तथा विवक्षित परावर्तनके प्रथम समयमें जो स्वरूप कहा है, उस स्वरूपसे रहित हो वे ही जीवके द्वारा २५ अधिकतर ग्रहण किये जाते हैं। क्योंकि वे द्रव्यादि रूप चार प्रकारके संस्कारसे युक्त होते हैं।
अगृहीत ग्रहणके कालसे मिश्र ग्रहणका काल अनन्तगुणा है। उससे गृहीत ग्रहणका जघन्य काल अनन्तगुणा है। उससे पुद्गल परिवर्तनका जघन्य काल विशेष अधिक है। जघन्य गृहीत ग्रहण कालको अनन्तसे भाजित करनेपर जो प्रमाण आवे,उतना उसमें जोड़ने- ३० पर जघन्यपुद्गल परिवर्तन काल होता है। उससे उत्कृष्ट गृहीतग्रहणका काल अनन्तगुणा
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७९२
गो० जीवकाण्डे जघन्योत्कृष्टभावमिल्लमें दितवधरिसल्पडुवुदेके वोडेतद्विध परमगुरूपदेशाभावमप्पुरिदं संवृष्टि :ज-घ। ख ख ख उ घख ख ख ख जग ।ख ख ख उ-कृख ख ख ख
मिश्रा ख ख मिश्र ख ख ५ अगृ। ख अगृ । ख
इल्लि अगृहीतक्के संदृष्टिशून्यं मिश्रक्क हंसपदं गृहीतक्कंकमल्लियं शून्यद्वय, हंसपदद्वयमुं। अंकद्वयमुं क्रमदिंदनंतंगठप्प अगृहीतवारंगळगं मिश्रवारंगळगं गृहीतवारंगळगं संदृष्टियक्कु:
० ०+ ०० + ०० १ ०० + ००+ ००१ ++ ++ ० + + १ ++ + + ++ १ ++१ + + १ + + ० + + १ + + १ + + .
११ + ११ + ११० ११ + ११ + ११० इल्लिगुपयोगियक्कु मी गाथासूत्र :
अगहिदमिस्स य गहिदं मिस्समगहिवं तहेव गहिदं च । मिस्सं गहिदागहिवं गहिदं मिस्सं अगहिदं च ॥
१५ विशेषाधिकः । तद्विशेषप्रमाणमिदं ख ख ख ख-, अपवर्त्य निक्षिसे एवं ख ख ख ख । अत्रागृहीतमिश्रग्रहण
कालयोर्जघन्योत्कृष्टभावौ न इत्यवधार्यम् । तथाविधपरमगुरूपदेशाभावात् । संदृष्टिः
उ
गू
-ख ख ख
ख
उ-पु:ख ख ख
ज = गृ = ख ख ख
ज-पु-ख ख ख मिश्र ख ख
अगृहीत अत्रागृहीतस्य संदृष्टिः शून्यं मिश्रस्य हंसपदं, गृहीतस्यांकः, अनन्तवारस्य द्विचारः । तत्संदृष्टिः
० ०+ | ००+ । ००१ । ००+ | ० ०+ | ००१ । + +० ! + +० | + +१ + + + +० | + + १ + +१ + +१ | + + + +१ | + +१ | + + .
.
२५ अत्रोपयोगिगाथासूत्र
अगहिदमिस्सं गहिदं मिस्समगहिदं तहेव गहिदं च ।
मिस्सं गहिदमगहिदं गहिदं मिस्सं अगहिदं च ॥२॥ है। उससे उत्कृष्ट पुद्गलपरावर्तन काल विशेष अधिक है। उत्कृष्ट गृहीत प्रहणकालमें ३० अनन्तसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उतना उत्कृष्ट गृहीत ग्रहणकालमें मिलानेपर उत्कृष्ट
पुद्गलपरावर्तन काल होता है। यहाँ अगृहीत ग्रहणकाल और मिश्रग्रहण कालमें जघन्य और उत्कृष्टपना नहीं है, ऐसा जानना क्योंकि उस प्रकारके उपदेशका अभाव है। यहाँ उपयोगी गाथाका अर्थ इस प्रकार है- जो द्रव्य परिवर्तनमें स्पष्ट कर आये हैं कि पहला
अगृहीतमिश्र गृहीत, दूसरा मिश्र अगृहीत गृहीत, तीसरा मिश्र गृहीत अगृहीत और चतुर्थ ३५ गृहीत मिश्र अगृहीत है। इस क्रमसे ग्रहण करता है।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७९३ १ १ ० ० "सर्वेपि पुद्गलाः खल्वेकेनाप्नोज्झिताश्च जीवेन । असकृदनंतकृत्वः पुद्गल+ ० १ + ० + + १ परिवर्तसंसारे।"
क्षेत्रपरिवर्तनमुं स्वक्षेत्रपरिवर्तनमेंदु परक्षेत्रपरिवर्तनमें दितु द्विविधमक्कुमल्लि । स्वक्षेत्र परिवर्तनं पेळल्पडुगुं । वो दानुमोवं जीवं सूक्ष्मनिगोदजधन्यावगाहनदिदं पुट्टिदातं स्वस्थितियं
१ जीविसि मृतनागि मत्तं प्रदेशोत्तरावगाहनदिदं पुट्टि इंतु द्वथादिप्रदेशोत्तरक्रमदिदं महामत्स्याव१८ गाहनपयंतंगळु संख्यातघनांगुल ६१ प्रमितावगाहन विकल्पंगळा जीवनिदमे ये नेवरं स्वीकरि. सल्पडुवुवल्लं कूडि स्वक्षेत्रपरिवर्तनमक्कुं। परक्षेत्रपरिवर्तनमेंतेंदोडे सूक्ष्मनिगोदजीवनऽपर्याप्तकं सर्वजघन्यावगाहनशरीरमनुळं लोकमध्याष्टप्रदेशंगळ तन्न शरीरमध्याष्टप्रदेशंगळं माडि पुट्टि क्षुद्रभवकालमं जीविसि मृगनागि आजीवेन मत्तमा अवगाहनदिदमरडु वारंगक्कुमंते मूरु वारंगळुमंते अत्रोपयोग्यार्यावृत्तं
सर्वेऽपि पुद्गलाः खलु एकेनातोज्झिताश्च जीवेन ।
ह्यसकृत्त्वनन्तकृत्वा पुद्गलपरिवर्तसंसारे ॥ १+ ० क्षेत्रपरिवर्तनमपि स्वपरभेदावेधा तत्र स्वक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते-कश्चिज्जीवः सूक्ष्मनिगोदजध+१० +०१
०+१ न्यावगाहनेनोत्पन्नः स्वस्थिति १ जीवित्वा मतः पुनः प्रदेशोत्तरावगाहनेन उत्पन्नः । एवं द्वयादिप्रदेशोत्तरक्रमेण
१८ महामत्स्यागाहनपर्यन्ताः संख्यातघनागल ६१ प्रमितावगाहनविकल्पाः तेनैव जीवेन यावत्स्वीकृताः तत १५ सर्व समुदितं स्वक्षेत्रपरिवर्तनं भवति । परक्षेत्रपरिवर्तनमुच्यते-सूक्ष्मनिगोदः अपर्याप्तकः सर्वजघन्यावगाहनशरीरः लोकमध्याष्टप्रदेशान् स्वशरीरमध्याष्टप्रदेशान् कृत्वा उत्पन्नः । क्षुद्रभवकालं जीवित्वा मृतः । स एव पुनस्तेनैव
उपयोगी आर्याच्छन्दका अर्थ-पुद्गलपरिवर्तनरूप संसारमें एक जीवने अनन्त बार सब पुद्गलोंको ग्रहण करके छोड़ दिया है।
क्षेत्रपरिवर्तन भी स्व और परके भेदसे दो प्रकारका है। उनमें से स्वक्षेत्रपरिवर्तनको २० कहते हैं-कोई जीव सूक्ष्म निगोदकी जघन्य अवगाहनासे उत्पन्न हुआ। अपनी स्थिति श्वासके अठारहवें भाग प्रमाण जीवित रहकर मर गया। पुनः एकप्रदेश अधिक उसी अवगाहनासे उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार दो आदि प्रदेश अधिक अवगाहनाके क्रमसे महामत्स्यकी अवगाहना पर्यन्त संख्यात धनांगुल प्रमाण अवगाहनाके विकल्प उसी जीवने जबनक धारण किये, वह सब मिलकर स्वक्षेत्र परिवर्तन होता है।
२५ अब परक्षेत्र परिवर्तनको कहते हैं-सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक सबसे जघन्य अवगाहनावाले शरीरके साथ लोकके आठ मध्य प्रदेशोंको अपने शरीरके मध्य आठ प्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ। क्षुद्रभव काल तक जीकर मरा । वही पुनः उसी अवगाहनाके साथ दुबारा, तिबारा, चौबारा उत्पन्न हुआ। इस प्रकार धनांगुलके असंख्यातवें भाग बार वहीं उत्पन्न हुआ। पुनः एक-एक प्रदेश बढ़ाते-बढ़ाते समस्त लोकको अपना जन्मक्षेत्र बना लेता ३०
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गो. जोवकाण्डे नाल्कु बारियुमंते इंतेन्नवर धनांगुलासंख्येयभागप्रमिताकाशप्रदेशंगळु अनितु वारंगळं नल्लिये जनिसि मत्तमेकैकप्रदेशाधिकभावदिदं सर्वलोकमुं तनगे जन्मक्षेत्रभावमग्दिसल्पटुदक्कुमेन्नवरमनितुकालमेल्लं कूडि परक्षेत्रपरिवर्तनमक्कुमिल्लिगुपयोगियप्प श्लोकं :
सर्वत्र जगत्क्षेत्रे प्रदेशो न ह्यस्ति जंतुनाऽक्षुण्णः। ___ अवगाहनानि बहुशो बंभ्रमता क्षेत्रसंसारे ॥ क्षेत्रसंसारदोळ बंभ्रमिसुवंतप्प जीवनिदं जगच्छेणिवनप्रमितजगत्क्षेत्रदो स्वशरीरावगाहरूपदिद मुट्टल्पडद प्रदेशमिल्ल । अवगाहना बहुवार कै कोठल्पडदुवुमिल्लि। कालपरिवर्तन पेठल्पडुगुं । उत्सप्पिणिय प्रथमसमयदोळु पुट्टिदावनानुमोर्व जीवं स्वायुः परिसमाप्तियोछु
मृतनागि मत्तमा जोवने द्वितीयोत्सप्पिणिय द्वितोयसमयदोन्पुट्टिस्वायुःक्षयवदिदं मृतनागि आ १० जीवने मत्तमा तृतीयोत्सप्पिणिय तृतीयसमयदो पुट्टि मृतनागि मतमा चतुोत्सप्पिणिय चतुर्य
समयदोळ्पुट्टिदनितु क्रमदिंद मुसप्पिणियसमाप्तमक्कुमंते अवसप्पिणियुं समाप्तमादुदक्कुमितु जन्मनैरंतयं पेळल्पटुदु । मरणक्कमत नैरंतव्यं कैकोठल्पडुगुमिदेल्लमं कूडि कालपरिवर्तनमक्कं। अवगाहनेन द्विवार तथा त्रिवार तथा चतुर्वारं एवं यावत् घनाङ्गलासंख्येयभागः तावद्वारं तत्रैवोत्पन्नः, पुनः
एकैकप्रदेशाधिकभावेन सर्वलोकं स्वस्वजन्मक्षेत्रभाव नयति । तदेतत्सर्व परक्षेत्रपरिवर्तनं भवति । अत्रोप१५ योग्यार्यावृत्तं
सर्वत्र जगत्क्षेत्रे देशो न ह्यस्ति जन्तुनाऽक्षुण्णः ।
अवगाहनानि बहुशो बंभ्रमता क्षेत्रसंसारे ॥ क्षेत्रसंसारे बम्भ्रमता जीवेन जगच्छ्रेणिधनप्रमितजगत्क्षेत्रे स्वशरीरावगाहनरूपेणास्पृष्टप्रदेशो नास्ति । अवगाहनानि बहुवारं यानि न स्वीकृतानि तानि न सन्ति ।
कालपरिवर्तनमुच्यते-कश्चिज्जीवः उत्सर्पिणीप्रथमसमये जातः स्वायुःपरिसमाप्तौ मृतः, पुद्वितीयोसर्पिणीद्वितीयसमये जातः स्वायुःपरिसमाप्त्या मृतः । पुनः तृतीयोसर्पिणीतृतीयसमये जातः तथा मृतः, पुनः चतुर्थोत्सर्पिणीचतुर्थसमये जातः । अनेन क्रमेण उत्सर्पिणी समाप्नोति तथैवावसर्पिणीमपि समाप्नोति एवं है । यह सब परक्षेत्र परिवर्तन है। इस विषयमें उपयोगी आर्याच्छन्दका अभिप्राय इस प्रकार
है-क्षेत्र संसारमें भ्रमण करते हुए इस जीवने बहुत-सी अवगाहनाओंके द्वारा समस्त जगत्२५ के क्षेत्रको अपना जन्मस्थान बनाया, कोई क्षेत्र उत्पन्न होनेसे शेष नहीं रहा। ऐसी कोई अवगाहना नहीं रही जो अनेक बार धारण नहीं की।
कालपरिवर्तन कहते हैं-कोई जीव उत्सर्पिणी कालके प्रथम समयमें उत्पन्न हुआ और अपनी आयु समाप्त होनेपर मर गया। पुनः दूसरी उत्सपिणीके दूसरे समयमें उत्पन्न हुआ और अपनी आयु समाप्त होनेसे मर गया। पुनः तीसरी उत्सर्पिणीके तीसरे समयमें ३० उत्पन्न हुआ और उसी प्रकार आयु समाप्त होनेपर मरा। पुनः चतुर्थ उत्सर्पिणीके चतुर्थ
समयमें उत्पन्न हुआ। इसी क्रमसे उत्सर्पिणीके सब समयोंमें उत्पन्न होकर उत्सर्पिणीको समाप्त करता है तथा इसी क्रमसे अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें उत्पन्न होकर अवसर्पिणी समाप्त करता है। इस प्रकार निरन्तर जन्म लेनेका कथन किया। इसी प्रकार क्रमसे उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालके सब समयोंमें मरण भी करना चाहिए। यह सब काल
२०
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इल्लिगुपयोगियप्पार्थ्यावृत्तं :
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
उत्सर्पणावसर्पणसमयावलिकासु निरवशेषासु । जातो मृतश्च बहुशः परिभ्रमन्काल संसारे ॥
उत्सर्पणावसर्पणगळ समयमालेयोळे नितोळवनितु समयंगळोळु यथाक्रर्मादि पुट्टिदनुं पो दिदनुमनंतवारं कालसंसारदो परिभ्रमित्तं जीवनुं ।
भवपरिवर्त्तनं पेळल्पडुगुं - नरकगतियोळ सर्वजघन्यायुर्दशवर्षसहस्रप्रमितमक्कु मंतप्पायददमलिये पुट्टि पोरमट्टु मत्तं संसारदोळु परिभ्रमिसि या जघन्यायुर्ष्याददमल्लिये पुट्टिदनितु दशवर्षसहस्रंगळ समयंगळे नितोळवनितु वारंगळनलिये पुट्टिदनुं मृतमादनुं । बलिकेकैकसमयाधिकभावददं त्रयस्त्रिशत्सागरोपमंगळु समानं माडल्पट्टुवु । बळिक्कमा नरकगतियिदं बंदु तिर्य्यग्गतियो अंतर्मुहूर्त्तजघन्यायुष्यदिदं पुट्टि मुन्निनंते यंतर्मुहूर्त्त समयंगळे नितोळवनितु वारं १० पट्टि मेले समयाधिक भावदिदं त्रिपल्योपमंगळमा जीवनदं परिसमाप्ति माडल्पट्टविते । मनुष्यगतियो ं त्रिपल्योपमंगळा जीवानंदमे परिसमाप्ति माडल्पडुवुवु । नरकगतियोळपेदंते देवगतियोळं दशवर्षसहस्त्रसमयसमाप्तियिदं मेले समयोत्तरक्रमायुष्यनागुत्तमेकत्रिशत्सागरोपमंगळ परिजन्मनैरन्तर्यमुक्तं । मरणस्याप्येवं नैरतयं ग्राह्यं । तदेतत्सर्वं कालपरिवर्तनं भवति । अत्रोपयोग्यार्यावृत्तं - उत्सर्पणावसर्पणसमयावलिकासु निरवशेषासु ।
७९५
जातो मृतश्च बहुशः परिभ्रमन् कालसंसारे ॥
उत्सर्पणावसर्पणयोः सर्वसमयमालायां क्रमेण उत्पन्न: मृतश्व अनन्तवारकालसंसारे परिभ्रमन् जीवः ।
भवपरिवर्तनमुच्यते - नरकगतौ सर्वजघन्यायुर्दशसहस्रवर्षाणि तेनायुषा तत्रोत्पन्नः पुनः संसारे भ्रान्त्वा तेनैव आयुषा तत्रैवोत्पन्नः । एवं दशसहस्रवर्ष समयवारं तत्रैवोत्पन्नो मृतः । पुनः एकैकसमयाधिकभावेन त्रयस्त्रशत्सागरोपमाणि परिसमाप्यन्ते । पश्चात् तिर्यग्गती अन्तर्मुहूर्तायुषा उत्पन्नः प्राग्वत् अन्तर्मुहूर्तसमयबारमुत्पन्नः उपरिसमयाधिकभावेन त्रिपल्योपमानि तेनैव जीबेन परिसमाप्यन्ते । एवं मनुष्यगतावपि त्रिपल्योपमानि तेनैव जीवेन परिसमाप्यन्ते । नरकगतिवद्देवगतावपि दशसहस्रवर्षसमयसमाप्तेरुपरि समयोत्तरक्रमेण एकत्रिंश
५
१५
परिवर्तन है । इस विषय में उपयोगी आर्यावृत्तका आशय इस प्रकार है - काल संसारमें अनन्त बार भ्रमण करता हुआ जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणीके सब समयों में क्रमसे उत्पन्न हुआ और मरा।
२५
३०
भवपरिवर्तन कहते हैं— नरकगतिमें सबसे जघन्य आयु दस हजार वर्ष है । उस आयु से नरक में उत्पन्न हुआ । पुनः संसार में भ्रमण करके उसी आयुसे वहीं उत्पन्न हुआ । इस प्रकार दस हजार वर्षके समयोंकी जितनी संख्या है, उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ और मरा । पुनः एक-एक समय बढ़ाते-बढ़ाते तैंतीस सागर पूर्ण किये। फिर तिर्यंचगति में अन्तर्मुहूर्तकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ । पहलेकी तरह अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हैं उतनी बार अन्तर्मुहूर्त की आयु लेकर उत्पन्न हुआ। फिर एक-एक समयकी आयु बढ़ाते-बढ़ाते उसी जीवने तीन पल्य तक सब आयु भोग डाली । इसी प्रकार मनुष्यगति में भी उसी जीवने तीन पल्य तककी सब आयु भोगकर समाप्त की । नरकगतिकी तरह देवगतिमें भी दस हजार वर्षके समयप्रमाण दस हजार वर्षकी आयुसे उत्पन्न होकर उसे भोगनेके पश्चात् एक-एक समयकी आयु क्रमसे बढ़ाते-बढ़ाते इकतीस सागरकी आयु पूर्ण की। इस प्रकार भ्रमण करनेके पश्चात् आकर पुनः पूर्वोक्त जघन्यस्थितिवाला नारकी होकर नया भवपरिवर्तन
२०
३५
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नरकजघन्यायुष्याद्युपरिम ग्रैवेय कावसानेषु । मिथ्यात्वसंश्रितेन हि भवस्थितिर्भाविता बहुशः ॥
नरकजघन्यायुष्यं मोदगोंडु मेरो युपरिग्रैवेयकावसानमादायुष्यस्थितिगलोळु मिथ्यात्वोदयदोळकूडिदजीवनदं भवस्थितिगळनुभविसल्पद्रुवु बहुवारं हि स्फुटमागि। भावपरितनं पेल्पडुगुंःपंचेंद्रियसंज्ञिपर्य्याप्तकं मिथ्यादृष्टि यावनानुमो जीवं स्वयोन्यस जघन्यज्ञानावरणप्रकृतिस्थितियनंतकोटिकोटियं माळकुमा जीवंगे कषायाध्यवसायस्थानं गळ संख्या तलोकप्रमितंगळु षट्स्थानपतितंगळा जघन्यस्थितिगे योग्यंगळप्पुवल्लि सर्व्वजघन्यस्थितिबंधाध्यवसायस्थाननिमित्तंगळु १० अनुभागबंधाध्यवसायस्थानंगळ संख्यात लोकप्रमितंगळप्पुवितु सर्व्वजघन्यस्थितियनु सर्व्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थानमं सर्वजघन्यमनुभागबंधाध्यवसायस्थानमुमं पोद्दिदंगे तद्योग्यस जघन्यं योगस्थानमक्कुमा स्थितिकषायाध्यवसायानुभागस्थानंगळगे द्वितीयमसंख्येय भागवृद्धियुक्तं योग
५
७९६
गो० जीवकाण्डे
समाप्ति माडल्पवितु परिभ्रमिसि बंदा जीवं पूर्वोक्तजघन्यस्थितियनारकनादनित वेल्ल मेकभवपरिवर्तनमक्कुं । इल्लिगुपयोगियप्पार्थ्यावृत्तं । -
१५
त्सागरोपमाणि परिसमाप्यन्ते । एवं भ्रान्त्वागत्य पूर्वोक्तजघन्यस्थितिको नारको जायते । तदा तदेतत्सर्व भवपरिवर्तनं भवति । अत्रोपयोग्यार्यावृत्तं --
नरक जघन्यायुष्याद्युपरिमग्रैवेयकावसानेषु । मिथ्यात्वसंश्रितेन हि भवस्थितिर्भाविता बहुशः ॥
नरकजघन्यायुष्य। द्युपरिमग्रैवेयकावसानायुष्या स्थितौ मिथ्यात्वोदयाश्रितजीवेन भवस्थितयोऽनुभविता बहुवारं स्फुटम् ।
भावपरिवर्तनमुच्यते - कश्चित्पञ्चेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तकमिथ्यादृष्टिर्जीवः स्वयोग्य सर्वजघन्यां ज्ञानावरण२० प्रकृतिस्थिति अन्तः कोटाकोटिप्रमितां बध्नाति । सागरोपमैककोट्या उपरि द्विवारकोट्या मध्यं अन्तः कोटाकोटिरित्युच्यते । तस्य जीवस्य कषायाध्यवसायस्थानानि असंख्येयलोकप्रमितानि षट्स्थानपतितानि जघन्यस्थितियोग्यानि । तत्र सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थान निमित्तानि अनुभागाध्यवसायस्थानानि असंख्येयलोकप्रमितानि । एवं सर्वजघन्य स्थिति सर्वजघन्यकषायाध्यवसायस्थानं सर्वजघन्यानुभागबन्धाध्यवसायस्थानं च प्राप्तस्य तद्योग्य सर्वजघन्यं योगस्थानं भवति । तेषामेव स्थितिकषायाध्यवसायानुभागस्थानानां द्वितीयं असंख्येय
२५ प्रारम्भ करता है । तब यह सब भवपरिवर्तन होता है । इस विषय में उपयोगी आर्याच्छन्दका अभिप्राय - मिथ्यात्व के उदयसे जीवने नरककी जघन्य आयुसे लेकर उपरिमत्रैवैयक तककी आयु प्रमाण भवस्थितियाँ अनेक बार भोगीं ।
भावपरिवर्तन कहते हैं - कोई पंचेन्द्रिय संज्ञी पर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीव अपने योग्य सबसे जघन्य ज्ञानावरणकर्मकी अन्तःकोटाकोटी सागर प्रमाण स्थितिका बन्ध करता है । ३० एक कोटि सागरके ऊपर और कोटाकोटी सागरके मध्यको अन्तःकोटाकोटी सागर कहते हैं। उस जीवके जघन्यस्थितिबन्धके योग्य छह प्रकारकी हानिवृद्धिको लिये असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसाय स्थान होते हैं । तथा सर्वजघन्य कषायाध्यवसाय स्थान में निमित्त असंख्यात लोक प्रमाण अनुभागाध्यवसाय स्थान होते हैं। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति, सबसे जघन्य कषायाध्यवसाय स्थान और सबसे जघन्य अनुभागबन्धाध्यवसाय३५ स्थानको प्राप्त जीवके उसके योग्य सबसे जघन्य योगस्थान होता है । पुनः उन्हीं स्थिति, कषायाध्यवसाय और अनुभागस्थानोंका असंख्यात भागवृद्धिको लिये हुए दूसरा योगस्थान
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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स्थानमक्कुमित संख्यात भागवृद्धि संख्यात भागवृद्धि संख्यातगुणवृद्धि असंख्यातगुणवृद्धियेंब चतुःस्थानवृद्धिपतितंगळु श्रेण्यसंख्येय भागप्रमितंगळवंते आ स्थितियने या कषायाध्यवसायस्थानम प्रतिपद्यमानंगे द्वितीयमनुभागबंधाध्यवसायस्थानमक्कुमदक्के योगस्थानंगल पूर्वोक्तंगळेयरियल्प - डुवुवु ।
इंतु तृतीयादिगळोळमनुभागाध्यवसायस्थानंगलोळु असंख्यात लोकपरिसमाप्तिपय्यंत प्रत्येकं ५ योगस्थानं गळु नडस पडुवुवुमिता स्थितिने प्रतिपद्यमानंगे द्वितीयस्थितिबंधाध्यवसायस्थानमक्कु - मदक्के अनुभागबंघाध्यवसायस्थानंगलुं योगस्थानंगळुर्मुनिनंर्तयरियल्पडुवतु तृतीयादिस्थितिबंधाध्यवसायस्थानं गळोळ संख्यात लोक मात्र परिसमाप्तिपय्यंतमा वृत्तिक्रममरियल्पडुगु :
भागयुक्तं योगस्थानं भवति । एवमसंख्यात भागवृद्धि संख्यात भागवृद्धि-संख्यातगुणवृद्धि-असंख्यातगुणवृद्धयाख्यचतुःस्थानवृद्धिपतितानि श्रेण्यसंख्येयभागप्रमितानि योगस्थानानि भवन्ति । तथा तामेव स्थिति तदेव कषाया- १० व्यवसायस्थानमा स्कन्दतो द्वितीयमनुभागवन्धाध्यवसायस्थानं भवति । तस्यापि योगस्थानानि पूर्वोक्तान्येव ज्ञातव्यानि । एवं तृतीयादिष्वपि अनुभागाध्यवसायस्थानेषु असंख्यात लोकपरिसमाप्तिपर्यन्तेषु प्रत्येकं योगस्थानानि नेतव्यानि । एवं तामेव स्थिति बघ्नतो द्वितीयं कषायाध्यवसायस्थानं भवति । तस्यापि अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च प्राग्वत् ज्ञातव्यानि । एवं तृतीयादिकषायाध्यवसायस्थानेषु असंख्यात लोकमात्रपरिसमाप्तिपर्यन्तेषु आवृत्तिक्रमो ज्ञातव्यः । ततः समयाधिकस्थितेरपि स्थितिबन्धाध्यवसाय- १५ स्थानानि प्राग्वत् असंख्येयलोकमात्राणि भवन्ति । एवं समयाधिकक्रमेण उत्कृष्टस्थितिपर्यन्तं त्रिंशत्सागरोपमकोटी कोटिप्रमितस्थितेरपि स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानानि अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानानि योगस्थानानि च ज्ञातव्यानि । एवं मूलप्रकृतीनां उत्तरप्रकृतीनां च परिवर्तनक्रमो ज्ञातव्यः । तदेतत्समुदितं भावपरिवर्तनं भवति । दृष्टिः
होता है। इस प्रकार असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, असंख्यात २० गुणवृद्धि नामक चतुःस्थान वृद्धिको लिये हुए श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण योगस्थान होते हैं । इन समस्त योगस्थानोंके समाप्त होनेपर वही स्थिति, वही कषायाध्यवसाय स्थानको प्राप्त जीवके द्वितीय अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान होता है । उसके भी योगस्थान पूर्वोक्त ही जानना । इस प्रकार तृतीय आदि असंख्यात लोकप्रमाण अनुभागस्थानोंके भी समाप्ति पर्यन्त प्रत्येक अनुभागस्थान के साथ सब योगस्थान लगाना चाहिए। उनके भी समाप्त २५ होनेपर उसी स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके दूसरा कषायाध्यवसायस्थान होता है । उसके भी अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान और योगस्थान पूर्वकी तरह जानना । इस प्रकार तृतीय आदि असंख्यात लोकप्रमाण कषायाध्यवसायस्थानोंकी समाप्ति पर्यन्त अनुभागस्थानों और योगस्थानोंकी आवृत्ति करना चाहिए। इस प्रकार सबसे जघन्य स्थिति के साथ सबकी आवृत्ति होनेपर एक समय अधिक अन्तःकोटाकोटीकी स्थिति बाँधता है । उसके भी कषायाध्यवसायस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान योगस्थान जानना । इस प्रकार एक-एक समय अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त तीस कोटा कोटी सागर प्रमाण स्थिति भी स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान और योगस्थान जानना । इसी प्रकार आठों मूल कर्मों और उनकी उत्तर प्रकृतियोंका भी परिवर्तनक्रम जानना । यह सब मिलकर भाव परिवर्तन है ।
३०
३५
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७९८
गो० जीवकाण्डे
<
२
३
सा३० को २
सा= अं= को २ कषायज. ०००=००००००० उ अनुभागज. ००%D8००००० उ योगस्थानज. ०००=३०००० उ
०००००
Ea००००००। Ba
आबाध कालसूचनात्थं दंडस्तस्योपरिस्थितत्रिकोणः तद्ज्ञानावरणद्रव्यनिषेकविन्यासः।
एकसमयाद्यधिकांतःकोटिकोटिरचना मी पेळल्पट्ट जघन्यस्थितिय समयाधिरुमप्पुदर स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळु भनिनंतसंख्यातलोकमात्रमक्कुमिनु समाधिकादिदमुत्कृष्टस्थितिपयंतं त्रिंशत्सागरोपमकोटिकोटिप्रमित१० स्थितिय स्थितिबंधाध्यवसायस्थानंगळु मनुभागबंधाध्यवसायस्थानंगळु योगस्थानंगळुमरियल्पडुव
वितल्ला मूलप्रकृतिगळ्गमुत्तरप्रकृतिगळगं परिवर्तनक्रममरियल्पडुगुमितवेल्लं कूडि भावपरिवर्तनमक्कुमिल्लिगुपयोगियप्पा-वृत्तं :
सर्वप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबंधयोग्यानि । स्थानान्यनुभूतानि भ्रमता भुवि भावसंसारे ॥
१५ अन्तःको २-
n०० ०३० को २ सा.
कषाय । जघ००5००००:००3००उ अनुभाग TETO o oo oo Sao =2oo9o0o0o 2003
| जघ००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००उ
m
योग
अत्रोयोग्यार्यावृत्तं२० विशेषार्थ-योगस्थान, अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थान, कषायाध्यवसायस्थान और
स्थितिस्थानोंके परिवर्तनसे भावपरिवर्तन होता है। आत्माके प्रदेशोंके परिस्पन्दको योग कहते है। यह प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धमें कारण होता है। इन योगोंके जघन्य आदि स्थानोंको योगस्थान कहते हैं। जिन कषाययुक्त परिणामोंसे कर्मोंमें अनुभागबन्ध होता है,
उनके जघन्य आदि स्थान अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान हैं। जिन कषाय परिणामोंसे २५ स्थितिबन्ध होता है, उनके जघन्य आदि स्थान कषायाध्यवसायस्थान हैं, इन्हींको स्थिति
बन्धाध्यवसायस्थान भी कहते हैं। कर्मोकी स्थितिके जघन्यादि स्थानोंको स्थितिस्थान कहते हैं । एक-एक स्थितिभेदके बन्धके कारण असंख्यात लोक प्रमाण कषायाध्यवसायस्थान होते हैं। एक-एक कषायाध्यवसायस्थानके असंख्यात लोक प्रमाण अनभागबन्धाध्यवसाय
स्थान होते हैं। एक-एक अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानके जगतश्रेणिके असंख्यातवें भाग ३० योगस्थान होते हैं।
इस परिवर्तन के सम्बन्धमें उपयोगी आर्याच्छन्दका अभिप्राय इस प्रकार है
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
७९९ समस्तप्रकृतिस्थितिअनुभागप्रदेशबंधयोग्यंगळप्प स्थितिबंधाध्यवसायानुभागबंधाध्यवसाययोगस्थानंगळेनितोळवनितुं पृश्वियोल भावसंसारदोळतोळल्व जीवनिदमनुभविसल्पदृवु । इल्लि स्थितिबंधाध्यवसायजघन्य मोदल्गोंडुत्कृष्टपथ्यं तमंत अनुभागबंधाध्यवसायजघन्यस्थानमोदल्गोंडु. स्कृष्टस्थानपर्यंतं योगस्थानंगळ जघन्यं मोदलगोंडुत्कृष्टस्थानपय्यंत सर्वजघन्यस्थितिसंबंधि गळमोदलागि सर्वोत्कृष्टस्थितिपय्यंतं तत्तत्संबंधिगळं स्थापिसि अक्षसंचारक्रमदिदं भावसंसारदोळनुभविसल्पट्ट स्थितिबंधाध्यवसायादिगळ्मं साधिसुवुर्दे बुदत्थं ।
इल्लि एकपुद्गलपरिवर्तनकालमनंतमक्कुमदं नोडलु क्षेत्रपरिवर्तनकालमनंतगुणं अदं नोडलु कालपरिवर्तनवारंगळनंतगुणमदं नोडलु भवपरिवर्तनकालमनंतगुणमदं नोडलं भावपरिवर्तनकालमनंत गुणमक्कुमिल्लि संदृष्टिरचयिदु :-भाव । ख ख ख ख ख
भव । ख ख ख ख काल।ख ख ख क्षेत्र । ख ख
द्रव्य । ख ओर्व जीवंगे अतीतकालदोळु भावपरिवर्तनवारंगळु अनंतंगळ । ख। अवं नोडलु भवपरिवर्तनवारंगठनंतगुगंगळवं नोडलु कालपरिवर्तनवारंगळु अनंतगुणंगळवं नोडलु क्षेत्रपरिवर्तन- १५ वारंगळु अनंतगुणंगळवं नोडलु द्रव्यपरिवर्तनवारंगळनंतगुणंगळप्पुवु । संदृष्टि :
सर्वप्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशबन्धयोग्यानि ।
स्थानान्यनुभूतानि भ्रमता भुवि भावसंसारे ॥ अत्र स्थितिबन्धाध्यवसायजघन्यात्तदुत्कृष्टपर्यन्तानि पुनः अनुभागबन्धाध्यवसायजघन्यात्तदुत्कृष्टपर्यन्तानि योगस्थानजघन्यात्तदुत्कृष्टपर्यन्तानि च सर्वजघन्यस्थितिसंबन्धीनि आदि कृत्वा सर्वोत्कृष्टस्थितिपर्यन्तं तत्तत्सबन्धी नि २० संस्थाप्य अक्षसंचारक्रमेण भावसंसारे अनुभूतस्थित्यादिस्थितिबन्धाध्यवसायादीन् साधयेदित्यर्थः । अत्रकपदगलपरावर्तनकालः अनन्तः। ततः क्षेत्रपरिवर्तनकालः अनन्तगुणः । अतः कालपरिवर्तनकालः अनन्तगुणः, ततो भवपरिवर्तनकालः अनन्तगुणः । ततो भावपरिवर्तनकालः अनन्तगुणः । संदृष्टिः
भाव ख ख ख ख ख भव ख ख ख ख काल ख ख ख एकजीवस्य अतीतकाले भावपरिवर्तनवारा अनन्ताः । तेभ्यः भवपरिवर्तनवारा क्षेत्र ख ख अनन्तगुणाः । तेभ्यः क्षेत्रपरिवर्तनवारा अनन्तगणाः। तेभ्यः द्रव्यपरिवर्तनवारा
अनन्तगुणाः । संदृष्टिः'भावसंसारमें भ्रमण करते हुए जीवने सब प्रकृतियोंके स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्धके योग्य स्थानों का अनुभव किया।'
३० सबसे जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त तत्सम्बन्धी स्थिति बन्धाध्यवसायस्थान, अनुभागबन्धाध्यवसायस्थान और योगस्थान जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त स्थापित करके जैसे पहले प्रमादोंमें अक्षसंचार कहा है, उसी क्रमसे भावसंसारमें अनुभूत स्थिति आदि सम्बन्धी स्थिति बन्धाध्यवसाय आदिको साधना चाहिए।
यहाँ एक पुद्गलपरावर्तन काल सबसे थोड़ा अर्थात् अनन्त है। उससे क्षेत्र परिवर्तन ३५ काल अनन्त गुणा है । उससे कालपरिवर्तनका काल अनन्त गुणा है। उससे भवपरिवर्तनका काल अनन्त गुणा है। उससे भावपरिवर्तनकाल अनन्त गुणा है। इसीसे एक जीवके अतीत
२५
द्रव्य ख
|
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८००
गो० जीवकाण्डे
द्रव्य, ख ख ख ख ख क्षेत्र, ख ख ख ख काल, ख ख ख भव, ख ख
भाव, ख इल्लिगुपयोगियप्पा-वृत्तमिदु ।
"पंचविधे संसारे कर्मवशाज्जैनशितं मुक्तः ।
मार्गमपश्यन् प्राणी नानादुःखाकुले भ्रमति ॥ इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरुमंडला. ५ चाय॑महावादवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्रवत्तिश्रीपादपंकजरजो.
रंजितललाटपट्टे श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटकवृत्तिजीवतत्त्वप्रदीपिकयोळु जीवकांडविंशतिप्ररूपणेयो षोडशं भव्यमार्गणाधिकार व्याकृतमायतु ।
द्रव्य ख ख ख ख ख क्षेत्र ख ख ख ख काल ख ख ख भव ख ख
भाव ख अत्रोपयोगि आर्यावृत्तमाह
पञ्चविधे संसारे कर्मवशाज्जैनदर्शितं मुक्तेः ।
मार्गमपश्यन् प्राणी नानादुःखाकुले भ्रमति ॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रकृतायां गोम्मटसारपञ्चसंग्रहवृत्ती तत्त्वप्रदीपिकाख्यायां जीवकाण्डे
विंशतिप्ररूपणासु भव्यमार्गणाप्ररूपणानाम षोडशोऽधिकारः ॥१६॥ कालमें भावपरिवर्तन सबसे थोड़े हुए अर्थात् अनन्त बार हुए। उनसे भवपरिवर्तन अनन्त गुणी बार हुए।
___ उनसे कालपरिवर्तन अनन्तगुणी बार हुए। क्षेत्रपरिवर्तन उससे भी अनन्तगुणी वार हुए और द्रव्यपरिवर्तन उनसे अनन्त गुणी बार हुए । यहाँ उपयोगी आर्याछन्दका अभिप्राय कहते है-जिनमतके द्वारा दिखाये गये मुक्तिके मागेका श्रद्धान न करता हुआ प्राणी अनेक प्रकारके दुःखोंसे भरे पाँच प्रकारके संसारमें भ्रमण करता है। इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहको भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंको वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी .. श्री अभयनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलोकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतरव प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमल रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक माषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्टके अन्तर्गत . भव्य प्ररूपणाओंमें-से भब्यमार्गणा प्ररूपणा नामक सोलहवाँ
अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥१६॥
२०
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अथ सम्यक्त्वमार्गणा ॥१७॥
अनंतरं सम्यक्त्वमार्गणाप्ररूपणमं पेन्दपं :
छप्पंचणवविहाणं अट्ठाणं जिणवरोवइट्ठाणं ।
आणाए अहिगमेण य सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।।५६१॥ षट्पंचनवविधानामांनां जिनवरोपदिष्टानां । आज्ञयाधिगमेन च श्रद्धानं भवति सम्यक्त्वं ॥
द्रव्यभेदविंद षड्विधंगळप्प अस्तिकायभेददिवं पंचविधंगळप्प पदार्थभेदविंदं नवविधंगळप्प । सर्वज्ञवीतरागभट्टारकरुळिंव पेळल्पट्ट जीवादिवस्तुगळ श्रद्धानं रुचिः सम्यक्त्वमक्कुमा श्रद्धानमावतरदिंदमें दोड आज्ञेयिवमाज़ये बुदे ते दोई "प्रमाणादिभिविना आप्तवचनाश्रयेणैष निर्णय आज्ञा" एंदें ब आयिद मेणधिगदिदमधिगमे बुबैते दोर्ड "प्रमाणनयनिक्षेपनिरुक्त्यनुयोगद्वारैविशेषनिर्णयोऽधिगमः" एंदितप्पधिगमनदिदं जिनवरोपविष्ट जीवादिवस्तुश्रद्धानं सम्यक्त्वमक्कुमा सम्यक्त्वमुं
सरागवीतरागात्मविषयत्वात् द्विधा स्मृतं ।। प्रशमादिगुणं पूर्व परं चात्मविशुद्धितः॥" -[ सो. उ. २२७ श्लो. ]
wimminwwwmarwa
कुन्थ्वादिजन्मिनां जन्मजरामृत्युविनाशिने ।
सद्बोधसिन्धुचन्द्राय नमः कुन्थुजिनेशिने ॥१७॥ अथ सम्यक्त्वमार्गणामाह
द्रव्यभेदेन षड्विधानां अस्तिकायभेदेन पञ्चविधानां पदार्थभेदेन नवविधानां च सर्वज्ञोक्तजीवादिवस्तूनां १५ श्रद्धानं रुचिः सम्यक्त्वम् । तच्छ्रद्धानं आज्ञया प्रमाणादिभिविना आप्तवचनाश्रयेण ईषनिर्णयलक्षणया, अथवा अधिगमेन प्रमाणनयनिक्षेपनिरुक्तयनुयोगद्वारैः विशेषनिर्णयलक्षणेन भवति ।
सरागवीतरागात्मविषयत्वाद् द्विधा स्मृतम् । प्रशमादिगुणं पूर्व परं चात्मविशुद्धिजम् ॥१॥ सम्यक्त्व मार्गणाका कथन करते हैं
द्रव्यभेदसे छह प्रकारके, पंचास्तिकायके भेदसे पाँच प्रकारके और पदार्थभेदसे नौ , प्रकारके जो जीव आदि वस्तु सर्वज्ञदेवने कहे हैं, उनका श्रद्धान रुचि सम्यक्त्व है। उनका श्रद्धान आज्ञासे अर्थात् प्रमाण आदिके बिना आप्तके वचनोंके आश्रयसे किंचित् निर्णयको लिये हुए होता है अथवा प्रमाण- नय निक्षेप- निरुक्ति अनुयोगके द्वारा विशेष निर्णयरूप अधिगमसे होता है। सरागी आत्मा और वीतरागी आत्माके सम्बन्धसे सम्यग्दर्शनके दो भेद हैं-सराग और वीतराग। सराग सम्यग्दर्शनके गण प्रशम.संवेग, अनकर और वीतराग सम्यग्दर्शन आत्माकी विशुद्धिरूप होता है। आप्त में, व्रतमें, श्रुतमें और र तत्त्वमें जो चित्त 'ये हैं। इस प्रकारके भावसे युक्त होता है, उसे आस्तिकोंने सम्यक्त्वसे
१. ब प्रवचनाश्रयेण ।
१०१
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८०२
गो० जीवकाण्डे तत्सम्यक्त्वं सरागवीतरागात्मविषयत्वदिदं द्विप्रकारदरिम यल्पडुगुं। पूर्व मोदल सरागात्मविषयसम्यक्त्वं प्रशमादिगुणं प्रशमसंवेगानुकंपास्तिक्याभिव्यक्तियोळकूडिदुदु । परं द्वितीयं वीतरागात्मविषयसम्यक्त्वं आत्मविशुद्धितः प्रतिपक्षप्रक्षयजनितजीवविशुद्धियिदमादुदु । आस्तिक्यमें बुदेने दोडे :
'आप्ते व्रते श्रुते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंयुतं ।
आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं सम्यक्त्वेन युते नरे॥-[ सो. उ. २३१ श्लो. ] अथवा तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं अथवा तत्वरुचिः सम्यक्त्वं ॥
"प्रदेशप्रचयात्कायाः द्रवणात् द्रव्यनामकाः।
परिच्छेद्यत्वतस्तेऽस्तित्त्वं वस्तुस्वरूपतः॥" -[ एंदितिदु सामान्यदि पंचास्तिकायषड्द्रव्य नवपदात्थंगळ्ग लक्षणमक्कुं। अनंतरं षड्वव्यंगळगधिकारनिर्देशमं माडिदपं:--
छदव्वेसु य णामं उवलक्खणुवाय अत्थणे कालो।
अत्थणखेत्तं संखा ठाणसरूवं फलं च हवे ॥५६२॥
षड्द्रव्येषु च नामानि उपलक्षणानुवादः आसने कालः। आसनक्षेत्रं संख्यास्थानस्वरूपं फलं १५ च भवेत् ॥
षड्नव्यंगळोळु नामंगळुमुपलक्षणानुवादमुं स्थितियुं क्षेत्रमुं संख्येयं स्थानस्वरूपमुं फलममेदितु सप्ताधिकारंगळप्पुवु ।
'यथोददेशस्तथा निर्देशः' एंबी न्यायदिदं प्रथमोदिष्ट नामाधिकारमं पेळ्दपं:
२०
आप्ते व्रते श्रुते तत्त्वे चित्तमस्तित्वसंयुतम् । आस्तिक्यमास्तिकैरुक्तं सम्यक्त्वेन युते नरे ॥२॥ अथवा तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । अथवा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वम् ।
प्रदेशप्रचयात्काया द्रवणाद् द्रव्यनामकाः। परिच्छेद्यत्वतस्तेऽर्थाः तत्त्वं वस्तुस्वरूपतः ॥१॥
इति सामान्येन पञ्चास्तिकायषड्द्रव्यनवपदार्थाना लक्षणम् ॥५६१॥ अथ षड्द्रव्याणामधिकारान्निदिशति
षड्द्रव्येषु नामानि उपलक्षणानुवादः स्थितिः क्षेत्र संख्या स्थानस्वरूपं फलं चेति सप्ताधिकारा . भवन्ति ॥५६२॥ अथ प्रथमोहिष्टनामाधिकारमाह
२५ भवन्ति ।
युक्त मनुष्यका आस्तिक्य गुण कहा है। अथवा तत्त्वार्थके श्रद्धानको सम्यग्दर्शन कहते हैं अथवा तत्त्वोंमें रुचिको सम्यक्त्व कहते हैं। प्रदेशोंके समूह रूप होनेसे काय कहलाते हैं। गुण और पर्यायोंको प्राप्त करनेसे द्रव्य नामसे कहे जाते हैं। जीवके द्वारा जानने में आनेसे
अर्थ कहलाते हैं और वस्तुस्वरूपके कारण तत्त्व कहलाते हैं। यह सामान्यसे पाँच 1. अस्तिकाय, छह द्रव्य और नौ पदार्थोका लक्षण है ॥ ५६१ ॥
छह द्रव्योंके अधिकारोंको कहते हैं
छह द्रव्योंके सम्बन्धमें नाम, उपलक्षणानुवाद, स्थिति, क्षेत्र, संख्या, स्थान, स्वरूप और फल ये सात अधिकार होते हैं ॥ ५६२ ॥
प्रथम उद्दिष्ट नाम अधिकार को कहते हैं
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८०३
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका जीवाजीवं दव्वं रूवारूवित्ति होदि पत्तेयं ।
संसारत्था रूवा कम्मविमुक्का अरूवगया ॥५६३॥ जीवाजीवद्रव्ये रूपारूपिणेति भवतः प्रत्येक। संसारस्था रूपाः रूपाण्येषां संतीति रूपाः कर्मविमुक्ता अरूपगताः॥
सामान्यदिदं संग्रहनयापेयिदं द्रव्यमोंदु । अदं भेविसिदोडे जीवद्रव्यमेंदु अजीवद्रव्यमेंदु ५ द्विविधमक्कुमल्लि जीवद्रव्यं रूपि जीवद्रव्यमें वुमरूपिजीवद्रव्यमेदु द्विविधमप्पुवल्लि संसारस्थंगळु रूपिजीवद्रव्यंगळप्पुवु । कमविमुक्तसिद्धपरमेष्ठिजीवंगळ अरूपगतजीवद्रव्यंगळप्पुवु । अजीवद्रव्यमु रूप्यजीवद्रव्यमें दुमरूप्यजीवद्रव्यमेंदु द्विविधमक्कु।
अज्जीवेसु य रूवी पोग्गलदव्याणि धम्म इदरो वि ।
आगासं कालो वि य चत्तारि अरूविणो होति ॥५६४॥ अजीवेषु च रूपोणि पुद्गलद्रव्याणि धर्म इतरोपि च । आकाशं कालोपि च चत्वार्यरूपाणि भवंति ॥ अजीवद्रव्यंगळोळु पुद्गलद्रव्यंगळु रूपिद्रव्यंगळप्पुवु। इल्लि
"वर्णगंधरसस्पर्शः पूरणं गलनं च यत् ।
कुवति स्कंधवत्तस्मात्पुद्गलाः परमाणवः ॥"[. एंदितु परमाणुगळ्गं पुद्गलत्वमुंटागुत्तं विरलु द्विप्रदेशादि स्कंधंगळ्गेये ग्रहणमक्कुमेके दोडे प्रदेशपूरणगलनरूपदिदं द्रवंति द्रोष्यंति अदुद्रुवन्निति पुद्गलद्रव्यमें दितु द्वयणुकादिस्कंधंगळगये पुद्गलशब्दवाच्यत्वं यथावत्तागि संभविसुगुमप्पुरिदं परमाणुविंगे "षट्केन युगपद्योगात्परमाणोः
सामान्येन संग्रहनयापेक्षया द्रव्यमेकम् । तदेव भेदविवक्षया जीवद्रव्यं अजीवद्रव्यं च । तत्र जीवद्रव्यं रूप्यरूपि च । तत्र संसारस्थाः रूपिणः, कर्मविमुक्ताः सिद्धा अरूपिणो भवन्ति । अजीवद्रव्यमपि रूप्यरूपि २० च ॥५६३॥
अजीवेषु पुद्गलद्रव्याणि रूपीणि भवन्ति धर्मद्रव्यं तथा अधर्मद्रव्यं आकाशद्रव्यं कालद्रव्यं चेति चत्वारि अरूपीणि भवन्ति । अत्र “वर्णगन्धरसस्पर्शः पूरणं गलनं च यत् । कुर्वन्ति स्कन्धवत् तस्मात्पुद्गलाः परमाणवः" इत्येवं परमाणूनां पुद्गलत्वे द्वयणुकादीनामेव कथं ? प्रदेशपूरणगलनरूपेण द्रवन्ति द्रोष्यन्ति अदुद्रवन्निति ब्रूमः । ननु
२५
सामान्यसे संग्रहनयकी अपेक्षा द्रव्य एक है। भेदविवक्षासे दो प्रकारका है-जीव द्रव्य और अजीव द्रव्य । उसमें जीव द्रव्यके दो प्रकार हैं-रूपी और अरूपी। संसारी जीव रूपी है और कर्मोसे मुक्त सिद्ध अरूपी हैं। अजीव द्रव्य भी रूपी और अरूपी होता है ।। ५६३ ॥
अजीवोंमें पुद्गल द्रव्य रूपी होते हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और काल- ३० द्रव्य ये चार अरूपी हैं।
शंका-कहा है कि 'परमाणु स्कन्धकी तरह वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शके द्वारा पूरण गलन करते हैं,अतः वे पुद्गल हैं। इस प्रकार परमाणुको पुद्गल कहनेपर द्वथणुक आदिमें पुद्गलपना कैसे घटित होता है ?
समाधान-द्वथणुक आदि प्रदेशोंके पूरण-गलन रूपके द्वारा अन्य परमाणुओंको प्राप्त ३५
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गो० जीवकाण्डे
षडंशता । षण्णां समानदेशित्वे पिंडं स्यादणुमात्रकम् ॥” [ ] एंदितु पूर्वपक्षमं माडुत्तिरलु द्रव्यात्थिकनर्याददं निरंशत्वमुं पर्य्यायात्थिकनर्यादिदं षडंशतेयक्कुमे वितु परिहारं पेळल्पट्टुवु । "आद्यंतरहितं द्रव्यं विश्लेषरहितांशकं । स्कंधोपादानमत्यक्षं परमाणुं प्रचक्षते ॥" [
आद्यंतरहितं आदियुमवसानमुमिल्लद्दु द्रव्यं गुणपर्य्यायंगळमुळ्ळुदुं विश्लेषरहितांशकं बेक्य्यलिल्लद अंशमनुडं स्कंधोपादानं स्कंधक्के कारणमप्पु अध्यक्ष इंद्रियविषयमल्ल दुदुं परमाणुं प्रचक्षते परमाणु व युवक्तव्यमागि परमागमज्ञरु पेवरु । नामाधिकारं तिदुदुवु । उवजोगो वण्णचऊ लक्खणमिह जीवपोग्गलाणं तु । गदिठाणोगवट्टण किरियुवयारो दु धम्मचऊ ||५६५ ।।
उपयोगो वर्णचतुष्कं लक्षणमिह जीवपुद्गलयोस्तु । गतिस्थानावगाहवर्त्तनक्रियोपकारस्तु धर्मचतुर्णां ॥
उपयोग वर्णचतुष्कसुं यथासंख्यमा गिह परमागमदोळु जीवंगळ्गं पुद्गलंगळगं लक्षणमक्कुं । तु मत्ते गतिस्थानावगाहवर्तन क्रियेगळे बुपकारंगळ तु मत्ते यथासंख्यमागि धर्माधर्माकाशकालंगळे' ब नाकं द्रव्यंगळ लक्षणमवकुं ।
३५
षट्केन युगपद्योगात् परमाणोः षडंशता ।
षण्णां समानदेशित्वे पिण्डं स्यादणुमात्रकम् ॥
संत्यं, द्रव्यार्थिकनयेन निरंशत्वेऽपि परमाणोः पर्यायार्थिकनयेन षडंशत्वे दोषाभावात् ।
आद्यन्तरहितं द्रव्यं विश्लेषरहितांशकम् । स्कन्धोपादानमत्यक्षं परमाणुं प्रचक्षते ॥
]
॥ ५६४ ॥ इति नामाधिकारः ।
उपयोगः जीवानां तु - पुनः वर्णचतुष्कं पुद्गलानां, इह परमागमे लक्षणं भवति । गतिस्थानावगाहनवर्तनक्रियाख्याः उपकाराः । तु पुनः यथासंख्यं धर्माधर्माकाशकालानां लक्षणं भवति ॥ ५६५ ॥
२५ शंका- यदि परमाणु एक साथ छह दिशामें छह परमाणुओंसे सम्बन्ध करता है, तो परमाणु छह अंशवाला सिद्ध होता है । यदि छहों समान देश वाले माने जाते हैं, तो छह परमाणुओंका पिण्ड परमाणु मात्र सिद्ध होता है ?
समाधान—आपका कथन यथार्थ है । द्रव्यार्थिकन यसे यद्यपि परमाणु निरंश है किन्तु पर्यायार्थिकनय से उसके छह अंशवाला होनेमें कोई दोष नहीं है। जो द्रव्य आदि और अन्तसे रहित है, जिसके अंश कभी भी अलग नहीं होते, जो स्कन्धका उपादान कारण तथा अद्रि है, उसे परमाणु कहते हैं || ५६४ ॥
करते हैं, प्राप्त करेंगे और पहले प्राप्त कर चुके हैं; इस व्युत्पत्तिके अनुसार द्वयणुकादिमें भी पुद्गलपना घटित होता है ।
इस प्रकार नामाधिकार समाप्त हुआ ।
परमागम में जीवका लक्षण उपयोग और पुद्गलोंका लक्षण वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श कहा है । तथा यथाक्रमसे गतिरूप उपकार, स्थानरूप उपकार, अवगाहनरूप उपकार और वर्तनाक्रियारूप उपकार धर्मेंद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्यका लक्षण है || ५६५॥
१. म परमागमं पेव्वुदु । २. ब सत्यं पर्या° ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका गदिठाणोग्गहकिरिया जीवाणं पोग्गलाणमेव हवे ।
धम्मतिये ण हि किरिया मुक्खा पुण साधगा होति ॥५६६॥ गतिस्थानावगाहक्रियाः जीवानां पुद्गलानामेव भवेयुः। धर्मत्रये न हि क्रियाः मुख्या पुनः साधका भवंति ॥
गतिस्थानावगाहक्रियगळेबी मूरं जीवंगळगं पुद्गलंगळगेयप्पुवु । धर्मत्रये धर्माधर्मा- ५ काशंगळे बी मूरुं द्रव्यंगळोळु न हि क्रिया क्रियेयिल्लेके दोडे स्थानचलनमुं प्रदेशचलनमुमिल्लमप्पुरदं । पुनः मत्तेने बोडे धादिद्रव्यंगळु गत्यादिगळ्गे मुख्यसाधकंगळप्पुवु अदेंते बोडे :
जत्तस्स पहं ठत्तस्स आसणं णिवसगस्स वसदी वा।
गदिठाणोग्गहकरणे धम्मतियं साधगं होदि ॥५६७॥ गच्छतः पंथाः तिष्ठतः आसनं निवसकस्य वसतिरिव गतिस्थानावगाहकरणे धर्मत्रयं १० साधकं भवति ॥
नडेवंगे बट्टियं कुल्लिप्पवंगासनमुं इप्पवंगे निवासमुदितु गतिस्थानावगाहकरणकोळ साधकंगळप्पुवंत धर्मत्रयमुं गमनादिकरणदोळु साधकमक्कुं। कारणमक्कुम बुदत्थं ।
वत्तणहेदू कालो वत्तणगुणमविय दव्वणिचयेसु ।
कालाधारेणेव य वट्ठति सव्वदव्वाणि ॥५६८॥ वर्तनाहेतुः कालो वर्त्तनगुणोपि च द्रव्यनिचयेषु । कालाधारेणैव वत्तते सर्वद्रव्याणि ॥
'गिजंतमप्प वृतू ई धातुविनत्तणदं कर्मदोळं मेण्भावदोळं स्त्रीलिंगदोळं वर्तना एंदितु शब्दस्थितियक्कु। वत्यंते वर्तनमात्रं वा वर्तना । धादिद्रव्यंगल्गे स्वपर्यायनिवृत्तियं कुरुत्तु
गतिस्थानावगाहनक्रियास्तिस्रः जीवपुद्गलयोरेव भवन्ति, धर्माधर्माकाशेषु क्रिया नहि स्थानचलनप्रदेशचलनयोरभावात् । किं तर्हि ? धर्मादिद्रव्याणि गत्यादीनां मुख्यसाधिकानि भवन्ति ॥५६६।। तद्यथा- २०
गच्छतः पन्थाः, तिष्ठतः आसने, निवसतो निवासो, यथा गतिस्थानावगाहकरणे साधका भवन्ति तथा धर्मादित्रयमपि साधकं कारणमित्यर्थः ॥५६७।।
णिजन्तात् वृतूञ्धातोः कर्मणि भावे वा वर्तनाशब्दव्यवस्थितिः वय॑ते वर्तनमात्र वेति । धर्मादि
गति, स्थिति और अवगाह ये तीन क्रियाएँ जीव और पुद्गलमें ही होती हैं। धर्म, अधर्म और आकाशमें क्रिया नहीं है। क्योंकि न तो ये अपने स्थानको छोड़कर अन्य स्थानमें २५ जाते हैं और न इनके प्रदेशों में ही चलन होता है। किन्तु ये धर्मादि द्रव्य, गति आदि क्रियाओं में मुख्य साधक होते हैं ॥ ५६६ ॥
वही कहते हैं
जैसे जाते हुएको मार्ग, बैठनेवालेको आसन, निवास करनेवालेको निवासस्थान, चलने, ठहरने, अवगाह करनेमें साधक होता है, उसी तरह धर्मादि तीन द्रव्य भी सहायक ३० कारण होते हैं ।। ५६७ ॥
णिजंत वृत्ञ् धातुसे कर्ममें अथवा भावमें वर्तना शब्द निष्पन्न होता है । सो वर्ते या वर्तन मात्र वर्तना है। धर्मादि द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायोंकी निर्वृतिके प्रति स्वयं ही
१. म वृत्तिगे णिजंतदत्तणिंद ।
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८०६
गो० जीवकाण्डे तम्मिदमे वत्तिसुत्तिर्णवक्के बाहोपग्रहमिल्लदे तवृत्त्यसंभवमप्पुरिदमा द्रव्यंगळ प्रवर्तनोपलक्षितं कालमें दितु माडिवर्तने कालदुपकारमक्कुमे दरियल्पडुवुदु । इल्लि णिच्चिगर्थमावुर्वेदोडे वर्तते द्रव्यपव्यस्तस्य वर्तयिता कालः एंदितु कालक्कर्थमादोड़े कालक्के क्रियावत्वमागि बक्कुम तोगळु अधीते शिष्यः उपाध्यायोध्यापयति एंबते कर्तृत्वमक्कुम दोडिल्लि दोषमिल्लेके दोर्ड निमित्तमात्रमादोडं हेतुकतृ व्यपदेशं काणल्पटुईं । येतीगळु कारिषोग्निरध्यापयति एंदितु कालक्क हेतुकर्तृतयक्कुमंतादोडा कालमतु निश्चयिसल्पडुगुम दोडे समयाधिक क्रियाविशेषंगळगं समयादिनित्यंगळप्प पाकादिगळ्गं समयमें दुं पाक दितित्येवमादि स्वसंज्ञारूढिसद्भावदोळं समयः कालः ओदनपाककालः एंदितध्यारोपिसल्पडुत्तिदावुदोंदु कालव्यपदेशनिमित्तमप्प मुख्यकालदस्तित्वमं पेळ्गुमेकेदोडे गौणक्के मुख्यापेक्षत्वमुंटप्पुरिदं । षड्द्रव्यंगळवर्तनाकारणं मुखकालमक्कुमा वर्तन१० गुणमुं द्रव्यनिचयंगळोळे अक्कुमंतादोडमा कालाधारदिदमे सर्बद्रव्यंगळं वत्तंते। परिणमंति
स्वपयिंगळिदं परिणमिसुतिर्पवु खलु नियमदिदं इल्लि खलुशब्दमवधारणार्थमक्कुं। इदरिंदं कालक्के परिणामक्रियापरत्वापरत्वोपकारंगळु पेळल्पदृवु ।
द्रव्याणां स्वपर्यायनिर्वृत्ति प्रति स्वयमेव वर्तमानानां बाह्योपग्रहाभावे तवृत्यसंभवात् तेषां प्रवर्तनोपलक्षितः
काल इति कृत्वा वर्तना कालस्य उपकारो ज्ञातव्यः । अत्र णिचोऽर्थः कः ? वर्तते द्रव्यपर्यायः तस्य वर्तयिता १५ काल इति । तदा कालस्य क्रियावत्त्वं प्रसज्यते अधीते शिष्यः, उपाध्यायोऽध्यापयतोत्यादिवत, तन्न
निमितमात्रेऽपि हेतुकर्तृत्वदर्शनात् कारीषोऽग्निरध्यापयतीत्यादिवत् । तहि स कथं निश्चीयते ? समयादि क्रियाविशेषाणां समय इत्यादेः समयादिनिर्वयंपाकादीनां पाक इत्यादेश्च स्वसंज्ञायाः रूढिसद्भावेऽपि तत्र काल इति यदध्यारोप्यते तन्मुख्यकालास्तित्वं कथयति गौणस्य मुख्यापेक्षत्वात् इति षड् द्रव्याणां वर्तनाकारणं मुख्यकालः ।
वर्तनगुणो द्रव्यनिचये एव, तथा सति कालाधारेणैव सर्वद्रव्याणि वर्तन्ते स्वस्वपर्यायैः परिणमन्ति खलु नियमेन। २० अत्र खलुशब्दोऽवधारणार्थः, अनेन कालस्यैव परिणामक्रियापरत्वापरत्वोपकारौ उक्तो । तौ तु जीवपुद्गल
योद्देश्येते धर्मादि-अमूर्तद्रव्येषु कथं ? इति चेदाह
वर्तन करते हैं, किन्तु बाह्य उपकारके बिना वह सम्भव नहीं है अतः उनकी वतनामें जो निमित्त मात्र होता है,वह काल है। ऐसा करके वर्तना कालका उपकार जानना। यहाँ
णिच् प्रत्ययका अर्थ है-द्रव्यकी पर्याय वर्तन करती है,उसका वर्तन करानेवाला काल है। २५ शंका-तब तो कालको क्रियावान् होनेका प्रसंग आता है । जैसे शिष्य पढ़ता है और उपाध्याय पढ़ाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि निमित्त मात्रमें भी हेतुकर्तापना देखा जाता है; जैसे (रात्रिके समयमें) कण्डेकी आग पढ़ाती है।
शंका-उस कालके अस्तित्वका निश्चय कैसे होता है ?
समाधान-समय, घड़ी, मुहूर्त आदि जो क्रिया विशेष हैं, उनमें जो समय आदिका व्यवहार किया जाता है, समय आदिसे होनेवाले पकाने आदिको जो समयपाक इत्यादि कहा जाता है।इन रूढ़ संज्ञाओंमें जो कालका आरोप है। वह मुख्य कालके अस्तित्वको कहता है क्योंकि उपचरित कथन मुख्य कथनकी अपेक्षा रखता है । इस प्रकार छह द्रव्योंकी वर्तना
का कारण मुख्यकाल है। यद्यपि वर्तना गुण द्रव्यसमूहमें ही वर्तमान है , उन्हीं में वह ३५ शक्ति है,तथापि कालके आधारसे ही सब द्रव्य वर्तन करते हैं अर्थात् अपनी-अपनी पर्याय ' रूपसे परिणमन करते हैं। यहाँ खलु अवधारणार्थक है। इससे परिणाम क्रिया और परत्व,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८०७ जीवपुद्गलंगळोळु परिणामादिपरत्वापरत्वंगळु काणल्पडुगुं । धर्माद्यमूर्त्तद्रव्यंगळोळु परिणामादिगळे ते दोर्ड पेन्दपं:
धम्माधम्मादीणं अगुरुगलहुगं तु छहिहि वड्ढीहिं । __ हाणीहि वि बड्ढंतो हायंतो वट्टदे जम्हा ॥५६९।। धर्माधर्मादीनां अगुरुलघुकस्तु षड्भिरपि वृद्धिभिर्हानिभिरपि वर्द्धमानो होयमानो वर्तते ५ यस्मात् ॥
आवुदोंदु कारणदिदं धर्माधर्मादिद्रव्यंगळ अगुरुलघुगुणाविभागप्रतिच्छेदंगळु स्वद्रव्यत्वक्के निमित्तमप्प शक्तिविशेषंगळु षड्वृद्धिळिदं षड्हानिळिदं वर्द्धमानंगळु होयमानंगळुमागुत्तं परिणमिसुववु । कारणं मुख्यकालमेयक्कुं।
ण य परिणमदि सयं सो ग य परिणामेइ अण्णमण्णेहि ।
विविहपरिणामियाणं हवदि हु कालो सयं हेदू ॥५७०॥ न च परिणमति स्वयं सः न च परिणामयति अन्यदन्यैः। विविधपरिणामिकानां भवति हु कालः स्वयं हेतुः ॥
___ सः कालः आ कालं न च परिणमति संक्रमविधानदिदं स्वकीयगुणंगळिदं अन्यद्रव्यदोळ्परिणमिसदु । यतीगळु परद्रव्यगुणंगळगे तन्नोळु संक्रमदिदं परिणमनमिल्लत मत्तं हेतु कर्तृत्वदिदं १५ अन्यद्रव्यमनन्यगुणंगळोळकूडि न च परिणमयति परिणमनमं माडिसदु । मत्तेने दोडे विविधपरिणामिकानां विविधपरिणामिगळप्प द्रव्यंगळ परिणमनक्के कालं ताने उदासीननिमित्तमक्कुं।
कालं अस्सिय दव्वं सगसगपज्जायपरिणदं होदि ।
पज्जायावहाणं सुद्धणए होदि खणमेत्तं ॥५७१॥ कालमाश्रित्य द्रव्यं स्वस्वपर्यायपरिणतं भवति । पर्यायावस्थानं शुद्धनये भवति क्षणमात्रं ॥ २०
यतः धर्माधर्मादीनां अगुरुलघुगुणाविभागप्रतिच्छेदा स्वद्रव्यत्वस्य निमित्तभूतशक्तिविशेषाः षड्वृद्धिभिर्वर्धमाना षड्ढानिभिश्च हीयमानाः परिणमन्ति ततः कारणात्तत्रापि च मुख्यकालस्यैव कारणत्वात् ॥५६९।।
स कालः संक्रमविधानेन स्वगुणैरन्यद्रव्ये न परिणमति । न च परद्रव्यगुणान् स्वस्मिन् परिणामयति । नापि हेतुकर्तृत्वेन अन्यद् द्रव्यम् अन्य गुणैः सह परिणामयति । किं तर्हि ? विविधपरिणामिकानां द्रव्याणां परिणमनस्य स्वयमुदासीननिमित्तं भवति ॥५७०॥ अपरत्व उपकार कालके ही कहे गये हैं और ये जीव और पुद्गलमें ही देखे जाते हैं ॥५६८॥
तब धर्मादि अमूर्तद्रव्योंमें वर्तना कैसे होती है।यह बतलाते हैं
यतः धर्म, अधर्म आदिमें अपने द्रव्यत्वमें निमित्त भूत शक्ति विशेष अगुरुलघु नामक गुणके अविभागी प्रतिच्छेद छह प्रकारकी वृद्धिसे वर्धमान और छह प्रकारको हानिसे हीयमान होकर परिणमन करते हैं। इस कारणसे वहाँ भी मुख्य काल ही कारण है ॥५६९।।
वह काल संक्रमविधानके द्वारा अपने गणोंसे अन्य द्रव्यके रूपमें परिणमन नहीं करता। और अन्य द्रव्यके गुणोंको अपने रूपमें भी नहीं परिणमाता। हेतुकर्ता होकर अन्य द्रव्यको अन्य द्रव्य के गुणोंके साथ भी नहीं परिणमाता। किन्तु अनेक रूपसे स्वयं परिणमन करनेवाले द्रव्योंके परिणमनमें उदासीन निमित्त होता है ॥ ५७० ।।
३०
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८०८
गो० जीवकाण्डे कालमनायिसि जीवादिसर्वद्रव्यं स्वस्वपर्यायपरिणतमक्कं । आ पायावस्थान, ऋजुसूत्रनयदो येकसमयमेयक्कुमर्थपर्यायापेक्षेयिद ।
ववहारो य वियप्पो मेदो तह पज्जओत्ति एयट्ठो।
ववहार अवठ्ठाणद्विदी हु ववहारकालो दु ॥५७२।। व्यवहारश्च विकल्पो भेदश्च तथा पर्याय इत्येकार्थः। व्यवहारावस्थानस्थितिः खलु ' व्यवहारकालस्तु॥
व्यवहारमै दोडं विकल्पमे दोडं भेदमें दडमंते पर्याय दोडमेकार्थमक्कुमल्लि व्यंजनपर्यायापेक्षेयिंद व्यवहारावस्थानस्थितिः व्यवहारमें दोडे पर्यायमेंदु पेन्दुरिंदमा पर्यायद अवस्थानदिदं वर्तमानतेयिंदमावुदोंदु स्थितियदु तु मत्त व्यवहारकालः व्यवहारकालमें बुदक्कुं।
अवरा पज्जायठिदी खण मेत्तं होदि तं च समओत्ति ।
दोण्णमणूणमदिक्कमकालपमाणं हवे सो दु ।।५७३।। अवरा पर्यायस्थितिः क्षणमात्रा भवति सैव समय इति । द्वयोरण्योरतिक्रमकालप्रमाणो भवेत्स तु॥
द्रव्यंगळ पर्यायंगळगे जघन्यस्थिति क्षणमात्रमक्कुमा स्थितिये समयमेंब संजयुळ्ळुदक्कुं। . सः आ समयमुं तु मत्ते गमनपरिणतंगळप्परडं परमाणुगळ परस्परातिक्रमकालप्रमाणमक्कुमिल्लि १५ गुपयोगियप्प गाथासूत्रमिदु :
णभएयपएसत्यो परमाणू मंदगइपवट्टतो। बीयमणंतरखेत्तं जावदियं जादि तं समयकाळो॥
कालमाश्रित्य जीवादि सर्वद्रव्यं स्वस्व-पर्यायपरिणतं भवति । तत्पर्यायावस्थानं ऋजुसूत्रनयेन एकसमयो भवति अर्थपर्यायापेक्षया ॥५७१॥
व्यवहारः विकल्पः भेदः तया पर्यायः इत्येकार्थः तु पुनः तत्र व्यञ्जनपर्यायस्य अवस्थानतया स्थितिः सैव व्यवहारकालो भवति ॥५७२।।
द्रव्याणां जघन्या पर्यायस्थितिः क्षणमात्रं भवति । सा च समय इत्युच्यते । स च समयः द्वयोर्गमनपरिणतपरमाण्वोः परस्परातिक्रमकालप्रमाणं स्यात् ॥५७३॥ अत्रोपयोगिगाथाद्वयं
णभएयपएसत्थो परमाणू मन्दगइपवर्सेतो।
बीयमणंतरखेत्तं जावदियं जादि तं समयकालो ॥१॥ कालका आश्रय पाकर जीव आदि सब द्रव्य अपनी-अपनी पर्याय रूपसे परिणमन करते हैं। उस पर्यायके ठहरनेका काल ऋजू सूत्रनयसे अर्थपर्यायकी अपेक्षा एक समय होता है ।। ५७१ ।।
व्यवहार, विकल्प, भेद तथा पर्याय ये सब एक अर्थवाले हैं। अर्थात् इन शब्दोंका ३० अर्थ एक है। उनमें-से व्यंजन पर्यायकी वर्तमान रूपसे स्थिति व्यवहार काल है ॥५७२॥
द्रव्योंकी पर्यायकी जघन्य स्थिति क्षण मात्र होती है, उसको समय कहते हैं। गमन करते हुए दो परमाणुओंके परस्परमें अतिक्रमण करने में जितना काल लगता है, उतना ही समयका प्रमाण है ।। ५७३ ।।
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८०९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका आकाशद एकप्रदेशदोलिई परमाणु मंदगतियिदं परिणतमादुदु द्वितीयमनंतरक्षेत्रमं यावद्याति यिनितु पोन्तिगेरदुगुमदु समयमेंब कालमक्कुमा नभः प्रदेशमें बुदे ते दोड:
जेत्ति वि खेत्तमेत्तं अणुणा रुंदं खु गयणदव्वं च ।
तंच पदेसं भणियं अवरावरकारणं जस्स ॥ [ ] आवुदो दु परमाणु विगे अपरापरकारणं पिंदु मुंदुम बी व्यवस्थितिगे निमित्तमप्प गगनद्रव्य- ५ मनितु क्षेत्रमात्रं परमाणुविदं व्यापिसल्पदुदु खु स्फुटमागि सः अदु प्रदेशो भणितः प्रदेशमेंदु पेळल्पटुदु। अनंतरं व्यवहारकालमं पेळ्दपं :
आवलि असंखसमया संखेज्जावलिसम्रहमुस्सासो ।
सन्थुस्सासो थोवो सत्तत्थोवो लवो भणियो ॥५७४।। आवलिरसंख्यसमया संख्येयावलिसमूह उच्छ्वासः। सप्तोच्छ्वासा स्तोकः सप्तस्तोका लवो भणितः॥
आवळि ये बुदु असंख्यातसमयंगठनु देके दोड युक्तासंख्यातजघन्यराशिप्रमाणमप्पुरिवं। संख्यातावलिसमूहमुच्छ्वासमेंबुदक्कुमाउच्छ्वासमतप्परोळे दोडे :
अड्ढस्स अणलसस्स य णिरुवहदस्स य हवेज्ज जीवस्स। उस्सासो णिस्सासो एगो पाणोत्ति आहीदो॥[ ]
१०
२०
आकाशस्य एकप्रदेशस्थितपरमाणुः मन्दगतिपरिणतः सन् द्वितीयमनन्तरक्षेत्रं यावद्याति स समयाख्यकालो भवति ॥१॥ स च प्रदेशः कियान्
जेत्तिवि खेत्तमेत्तं अणुणा रुंदं खु गयणदत्वं च ।
तं च पदेसं भणियं अवरावरकारणं जस्स ।।२।। यस्य परमाणोः अपरपरकारणं गगनद्रव्यं यावत्क्षेत्रमात्र परमाणुना व्याप्तं स्फुटं स प्रदेशो भणितः ॥२॥ अथ व्यवहारकालमाहजघन्ययुक्तासंख्यातसमयराशिः आवलिः । संख्यातावलिसमूह उच्छ्वासः । स च किंरूपः ?
अड्ढस्स अणलसस्स य णिरुवहदस्स य हवेज्ज जीवस्स । उस्सासाणिस्सासो एगो पाणोत्ति आहीदो ॥१॥
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यहाँ उपयोगी दो गाथाओंका अर्थ इस प्रकार है
आकाशके एक प्रदेश में स्थित परमाणु मन्द गतिसे चलता हुआ अनन्तरवर्ती दूसरे प्रदेशपर जितनी देर में जाता है, वह समय नामक काल है। वह प्रदेश कितना है,यह कहते हैं-आकाशके जितने क्षेत्रको एक परमाणु रोकता है, उसे प्रदेश कहते हैं। वह दूर और निकट व्यवहारमें कारण होता है।
आगे व्यवहार कालको कहते हैं
जघन्य युक्तासंख्यात प्रमाण समयोंके समूहका नाम आवली है। संख्यात आवलीके समूहका नाम उच्छ्वास है । वह सुखी, निरालसी और नीरोगी जीवका उच्छ्वास
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२५
गो० जीवकाण्डे
आढयनप्प सुखितनप्प अनालस्यनप्प निरुपहतनप्प जीवंगक्कुमावुदों दुच्छ्वासनिश्वासम - दो प्राण दितु पेळपट्टुवु । सप्तोच्छ्वासमों दु स्तोकमक्कुं । सप्तस्तोकंगळो दु लवमे बु अट्ठत्तीसद्धलवा नाली बे नालिया मुहुत्तं तु ।
बुदवकुं ।
एगसमयेण हीणं भिण्णमुत्तं तदो सेसं || ५७५ ।।
८१०
अष्टात्रिंशदर्द्धलवा: नाडी नाडिके मुहूर्त्तस्तु । एकसमयेन होनो भिन्नमुहूत्तंस्ततः शेषः ॥ मूवते दुवरे लवेगळु घळिगे बुदवकुं । द्विघळिगेगळोंदु मुहूर्त्तमवकुं । तु मत्ते एकसमर्यादंद होनमाद मुहूतं भिन्नमुहूर्तमंत मुहूर्त्तमुत्कृष्टमक्कुं । ततः मुंदे द्विसमयोनाडद्यावल्यसंख्यातैकभागपय्र्यंतमाद शेषंगळ नितुमंत मुहूतंगळे यवु ।
इल्लिगुपयोगियप्प गाथासूत्रमिदु :
ससमयमावळि अवरं समऊण मुहुत्तयं तु उक्कस्सं । मज्झासंखवियप्पं वियाण अंतोमुहुत्तमिणं ॥ [
]
समयाधिकावलि जघन्यांतम्मुहुर्तमक्कुं । समयोनमुहूर्तमुत्कृष्टांत मुंह मक्कं । मध्यदअसंख्यातविकल्पमं मध्यमांत मुंहूतंगळे विदनरि ।
दिवसो पक्खो मासो उडु अयणं वस्तमेवमादी हु | संखेज्जासंखेज्जाणं ततवो होदि ववहारो ||५७६॥
दिवसः पक्षो मास ऋतुरयनं वर्षमेवमादिः खलु । संख्याता संख्यातानंततो भवति व्यवहारः ॥
सुखिनः अनलसस्य निरुपहतस्य यो जीवस्य उच्छ्वासनिश्वासः स एव एकः प्राण उक्तो भवेत् । सप्तोच्छ्वासाः स्तोकः । सप्तस्तोका लवः ॥ ५७४||
सार्धाष्टा त्रिशल्लवा नाली घटिका । द्वे नाल्यो मुहूर्तः । स चैकसमयेन हीनो भिन्नमुहूर्तः, उत्कृष्टान्तमुहूर्त इत्यर्थः । ततोऽग्रे द्विसमयोनाद्या आवल्यसंख्या तक भागान्ताः सर्वेऽन्तर्मुहूर्ताः ||५७५॥
अत्रोपयोगि
गाथासूत्रम्
ससमयमावलि अवरं समऊणमुहुत्तयं तु उक्कस्सं । मज्झासंख वियप्पं वियाण अंतोमुहुत्तमिणं ॥ १॥
ससमयाधिकावलिः जघन्यान्तर्मुहूर्तः समयोनमुहूर्तः उत्कृष्टान्तर्मुहूर्तः । मध्यमा असंख्यातविकल्पा मध्यमान्तर्मुहूर्ताः, इति जानीहि ॥१॥
निश्वास होता है । उसीको प्राण कहते हैं। सात उच्छ्वासका एक स्तोक और सात स्तोकका एक लव होता है ।। ५७४ ॥
• साढ़े अड़तीस लवकी एक नाली होती है, उसे घटिका कहते हैं । दो नालीका मुहूर्त ३० होता है । एक समयहीन मुहूर्तको भिन्न मुहूर्त कहते हैं, यह उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है। इससे आगे दो समयहीन आदिसे लेकर आवलीके एक असंख्यात भाग पर्यन्त सब अन्तर्मुहूर्त होते हैं ।। ५७५ ।।
यहाँ उपयोगी गाथा सूत्रका अर्थ इस प्रकार है
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८११
दिवसमे दुं पक्षमेढुं मासमेढुं ऋतुमे दुमयनमे ढुं वर्ष में दित्यवमादिगळ स्फुटमागि आवल्यादिभेर्दाददं संख्याता संख्यातानंतपय्र्यंतं यथासंख्यमागि श्रुतावधिकेवलज्ञानविषयतेयिदं विकल्पंगळप्पुववेल्लं व्यवहारकालमक्कुं ।
ववहारो पुण कालो माणुसखेत्तम्मि जाणिदव्वो दु । जोइसियाणं चारे ववहारो खलु समाणोति ॥ ५७७॥
व्यवहारः पुनः कालो मनुष्यक्षेत्रे ज्ञातव्यस्तु । ज्योतिष्काणां चारे व्यवहारः खलु समान
इति ॥
व्यवहारकाल में 'बुदु मत्ते मनुष्यक्षेत्रदोळु ज्ञातव्यमक्कुमेक 'दोडे ज्योतिष्कचारदोळु व्यवहारकालं तु मते खलु स्फुटमागि समानमें दितिदु कारणमागि ।
ववहारो पुण तिविहो तीो वट्टंतगो भविस्सो दु । तदो संखेज्जावलिहद सिद्धाणं पमाणो दु || ५७८ ॥
व्यवहारः पुनस्त्रिविधोऽतीतो वर्तमानो भविष्यंस्तु । अतीतः संख्यातावलिहत सिद्धानां प्रमाणं तु ॥ व्यवहारकाल में बुदु मत्ते त्रिविधमक्कुं । अतीतकाल में दु वर्त्तमानकालमेंदु भविष्यत्कालमेदितु । अल्लि अतीतकालप्रमाणं तु मत्ते संख्यातावलियिदं गुणिसल्पट्ट सिद्धरुगळ प्रमाणमेनित- १५ नितेयक्कुमेके 'दोडे त्रैराशिक सिद्धमप्पुदरिंदमा त्रैराशिक ते बोडे अस्तूर एंटु जीवंगळु मुक्तिगे सलुत्तिरलु अरुदिगळ मेले टु समयकालमागुत्तिरलु सर्व्वजीवराशिय अनंतैकभागमात्रमप्प जीवंगळु
दिवसः पक्षः मासः ऋतुः अयनं वर्ष इत्यादयः स्फुटं आवल्यादिभेदतः संख्याता संख्यातानन्तपर्यन्तं क्रमशः श्रुतावधिकेवलज्ञानविषयविकल्पाः सर्वे व्यवहारकालो भवति ॥५७६ ॥
व्यवहारकालः पुनः मनुष्यक्षेत्रे स्फुटं ज्ञातव्यः । कुतः ? ज्योतिष्काणां चारे स समान इति २० कारणात् ||५७७॥
व्यवहारकालः पुनस्त्रिविधः अतीतोऽनागतो वर्तमानश्चेति । तु-पुनः अत्रातीतः संख्यातावलिगुणितसिद्धराशिर्भवति, कुत: ? अष्टोत्तरषट्छतजीवानां मुक्तिगमनकालोऽष्टसमयाधिकषण्मासाः तदा, सर्वजीवराश्य
एक समय अधिक आवली जघन्य अन्तर्मुहूर्त है । एक समय कम मुहूर्त उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। दोनोंके मध्यमें असंख्यात भेद हैं, वे सब अन्तर्मुहूर्त जानना ।
दिवस, पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष इत्यादि आवली आदिसे लेकर संख्यात, असंख्यात, अनन्तपर्यन्त क्रमसे श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और केवलज्ञानके विषयभूत सब विकल्प व्यवहार काल है | ५७६ ॥
व्यवहारकाल तीन प्रकारका है-अतीत, अनागत और वर्तमान । अतीतकाल संख्यात आवलीसे गुणित सिद्धराशि प्रमाण है । क्योंकि छह सौ आठ जीवोंके मुक्ति जानेका काल आठ समय अधिक छह मास है । तब समस्त जीव राशिके अनन्तवें भाग मुक्त जीवोंका
१०
व्यवहारकाल मनुष्यलोक में ही जाना जाता है, क्योंकि ज्योतिषी देवोंके चलने से ही व्यवहारकाल निष्पन्न होता है; अतः ज्योतिषी देवोंके चलनेका काल और व्यवहार काल ३० दोनों समान हैं ।। ५७७ ॥
२५
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८१२
गो० जीवकाण्डे
मुक्तिगे संद कालमैतप्पुर्वेदितु त्रैराशिकं माडि प्र। ६०८ फल मासं ६ । इ ३ बंद लब्धं संख्यातावलिहतसिद्धराशिप्रमाणमप्पुरिदं।
समयो हु वट्टमाणो जीवादो सव्वपोग्गलादो वि ।
भावी अणंतगुणिदो इदि ववहारो हवे कालो ॥५७९॥ समयः खलु वर्तमानो जीवात्सर्वपुद्गलादपि च । भावी अनंतगुणित इति व्यवहारो भवेत्कालः॥
वर्तमानकालमेकसमयमेयक्कं । सर्वजीवराशियं नोडलं सर्वपुद्गलराशियं नोडलं भावी भविष्यत्कालमनंतगुणितमक्कुमितु व्यवहारकालं त्रिविधमेंदु पेलल्पटुदु।
_कालोत्ति य ववएसो सम्भावपरूपओ हवदि णिच्चो।
उप्पण्णपद्धंसी अवरो दीहंतरट्ठाई ॥५८०। काल इति व्यपदेशः सद्भावप्ररूपको भवति नित्यः। उत्पन्नप्रध्वंसी अपरो दीर्घान्तरस्थायो॥
कालमबी यभिधानं मुख्यकालसद्भावप्ररूपकं । मुख्यकालास्तित्वमं पेन्गुं एंतेंदोडे मुख्यविल्लदिरुत्तिरलु गौणक्कभावमक्कुम तोगळु सिंहक्कभावमागुत्तिरलु वटुः सिंहः एंबिदक्कभाव१५ प्रतीति न्यायमिल्लिगमंतुटयक्कुमप्पुरिदमा मुख्यकालं नित्यमुं उत्पन्न प्रध्वंसियक्कं येक दोड
द्रव्यवदिद मुत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तमप्पुदरिंदमपरव्यवहारकालं वर्तमानकालापेक्षयिंदमुत्पन्नप्रध्वंसि
८
VVVVVVANA
नन्तकभागमुक्तजीवानां कियान् ? इति राशिकागतस्य तत्प्रमाणत्वात् । प्र ६०८ फ मा ६ इ ३ लब्धं ३ । २१॥५७८॥
वर्तमानकालः खल्वेकसमयः भावी सर्वजीवराशितः सर्वपुद्गलराशितोऽप्यनन्तगुणः, इति व्यवहारकालः २० त्रिविधो भणितः ॥५७९॥
__ काल इति व्यपदेशो मुख्यकालस्य सद्भावप्ररूपकः मुख्याभावे गौणस्याप्यभावात् सिंहाभावे वटुः सिंह इत्यादिवत् । स च मुख्यः नित्योऽपि उत्पन्नप्रध्वंसी भवति द्रव्यत्वेन उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तत्वात् । अपरः कितना काल होगा। इस प्रकार राशिक करना। सो प्रमाण राशि छह सौ आठ, फल
राशि छह महीना आठ समय । इच्छाराशि सिद्धोंकी संख्या । फलराशिको इच्छाराशिसे २५ गुणा करके उसमें प्रमाणराशिसे भाग देनेपर लब्धराशि संख्यात आवलीसे 'गुणित सिद्धराशि आती है । वही अतीत कालका परिमाण है ।। ५७८ ॥
वर्तमान कालका परिमाण एक समय है। भाविकाल सर्व जीवराशि और सर्व पुद्गलोंसे भी अनन्त गुणा है । इस प्रकार व्यवहार काल तीन प्रकारका कहा ॥ ५७९ ॥
लोकमें जो 'काल' ऐसा व्यवहार है,वह मुख्यकालके सद्भावको कहता है,क्योंकि ३० मुख्यके अभावमें गौण व्यवहार भी नहीं होता। जैसे सिंहके अभावमें यह बालक सिंह है।
ऐसा कहने में नहीं आता। वह मुख्यकाल नित्य होनेपर भी उत्पत्ति और व्ययशील है,क्योंकि द्रव्य होनेसे उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यसे युक्त है। दूसरा व्यवहारकाल वर्तमानकी अपेक्षा उत्पादव्ययशील है और अतीत-अनागतकी अपेक्षा दीर्घकाल तक स्थायी होता है। इस विषयमें उपयोगी श्लोक इस प्रकार है
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८१३ युमतीतानागतकालापेयिदं दीर्घातरस्थायियुमक्कुमिल्लिगुपयोगिश्लोकमिदु :
"निमित्तमांतरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता।
बहिन्निश्चयकालस्तु निश्चितं तत्त्वदर्शिभिः ॥" [ उपलक्षणानुवादाधिकारंतिदुदु।
छद्दव्वावट्ठाणं सरिसं तियकाल अट्ठपज्जाये ।
वेंजणपज्जाये वा मिलिदे ताणं ठिदित्तादो ॥५८१॥ षड्द्रव्यावस्थानं सदृशं त्रिकालात्यपर्यायान् । व्यंजनपर्यायान्वा मिलिते तेषां स्थितित्वात् ॥
षड्व्यं गळगमवस्थानं सदृशमेयक्कुमेके दोडे त्रिकालार्थपर्यायंगळमं मेणु व्यंजनपव्यंगळमं कूडिदोडे या षड्द्रव्यंगळगे स्थितियवकुमप्पुरिदं अर्थव्यंजनपव्यंगळे बुवुमे तुदोडे "सूक्ष्माः १० अवाग्गोचराः अचिरकालस्थायिनोऽस्य॑पर्यायाः, स्थूलाः वाग्गोचराः चिरकालस्थायिनो व्यंजनपर्यायाः" एंदितप्प लक्षणमनुळ्ळुवप्पुवु ।
एयदवियम्मि जे अत्थपज्जया विजणपज्जया चावि ।
तीदाणागदभूदा तावदियं तं हवदि दव्वं ।।५८२।। एकस्मिन् द्रव्ये ये अर्थपर्यायाः व्यंजनपर्यायाश्चापि । अतीतानागतभूताः तावत्तद्भवति १५ द्रव्यम् ॥
व्यवहारकालः वर्तमानापेक्षया उत्पन्नप्रध्वंसो अतीतानागतापेक्षया दीर्घान्तरस्थायी भवति । अत्रोपयोगी श्लोकः
निमित्तमान्तरं तत्र योग्यता वस्तुनि स्थिता ।
बहिनिश्चयकालस्तु निश्चितं तत्त्वदर्शिभिः ॥१॥ इत्युपलक्षणानुवादाधिकारः ।।५८०॥
षड्द्रव्याणां अवस्थानं सदृशमेव भवति त्रिकालभवेषु सूक्ष्मावाग्गोचराचिरस्थायर्थपर्यायेषु तद्विपरीतलक्षणव्यंजनपर्यायेषु वा मिलितेषु तेषां स्थितत्वात् ॥५८१॥ इदमेव समर्थयति
वस्तुमें रहनेवाली योग्यता तो अन्तरंग निमित्त है और निश्चय काल बाह्य निमित्त है ऐसा तत्त्वदर्शियोंने निश्चित किया है ।। ५८० ।।
उपलक्षणानुवाद अधिकार समाप्त हुआ।
छहों द्रव्योंका अवस्थान-ठहरनेका काल बराबर एक समान है,क्योंकि तीनों कालोमें होनेवाली सूक्ष्म, वचनके अगोचर और क्षणस्थायी अर्थपर्याय तथा उनसे विपरीत लक्षणवाली व्यंजन पर्यायोंके मिलनेपर उन द्रव्योंकी स्थिति होती है ।। ५८१ ।।
इसीका समर्थन करते हैं
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५
गो० जीवकाण्डे
वोदु द्रव्यदोळा केलवुवर्त्यपर्य्यायंगळं व्यंजनपर्य्यायंगळमतीतानागतकालंगळोळवत्तसुवुदु वत्तिसल्पडुवमपि शब्ददिदं वर्त्तमानपर्य्यायववेल्लमुं कूडि तत् अटु द्रव्यं भवति द्रव्यमक्कुंस्थित्यधिकारंतिर्दुदु ।
आगासं वज्जित्ता सव्वे लोगम्मि चेव णत्थि बहिं ।
वावी धमाधम्मा अवट्ठिदा अचलिदा णिच्चा || ५८३ ॥
आकाशं विवज्यं सर्व्वे लोके चैव न संति बहिः । व्यापिनौ धर्माधम्र्मो अवस्थितौ अच लितौ नित्यौ ॥
आकाशद्रव्यं पोरगागि शेषद्रव्यंगळ नितुं लोकदोळेयप्पवु । लोकदि पोरगिल्ल । आ द्रव्यंगळोळु धर्म्माधर्मद्रव्यंगळेरडुं व्यापिगळेकें दोडे लोकप्रदेशंगळेनितोळवनितं व्यापिसिवु तिलदोळ १० तैलमे तंते । अवस्थितौ स्थानचलनरहितंगळप्पुर्दारदमवस्थितंगळ, अचलितौ प्रदेशचलनरहितंगळपुर्दारंदचलितंगळ, त्रिकालदोळं नाशरहितंगळप्पुर्दारदं नित्यो नित्यंगळप्पुवु । इल्लिगुपयोगिप्प श्लोकमिदु --
८१४
२०
]
१५
एकस्मिन् द्रव्ये ये अर्थ पर्याया व्यञ्जनपर्यायाश्च अतीतानागताः अपिशब्दाद्वर्तमानाश्च सन्ति तावत् तद् द्रव्यं भवति ॥५८२ ॥ इति स्थित्यधिकारः ॥
"औपश् लेषिकवैषयिकावभिब्यापक इत्यपि ।
आधारः त्रिविधः प्रोक्तः कटाकाशतिलेषु च ॥ [
आकाशं विवर्ण्य शेषसर्वद्रव्याणि लोके एव सन्ति न तद्बहिः । तेषु धर्माधर्मी व्यापिनी सर्वलोकव्याप्तत्वात् तिले तैलवत्, अवस्थिती स्थानचलनाभावात्, अचलितौ प्रदेशचलनाभावात् नित्यो त्रैकाल्येऽपि विनाशाभावात् । अत्रोपयोगी श्लोकः
"
औपश्लेषिकवैषयिकावभिव्यापक इत्यपि ।
आधारस्त्रिविधः प्रोक्तः कटाकाशतिलेषु च ॥५८३॥
एक द्रव्यमें जितनी अतीत, अनागत और वर्तमान अर्थपर्याय तथा व्यंजनपर्याय होती है, उतना ही वह द्रव्य होता है ।। ५८२ || स्थिति अधिकार पूर्ण हुआ ।
.
आकाशको छोड़कर शेष सब द्रव्य लोकमें ही हैं, बाहर नहीं हैं । उनमें धर्म और २५ अधर्म तिलोंमें तेलकी तरह सत्र लोक में व्याप्त होनेसे व्यापी हैं। तथा अवस्थित हैं, क्योंकि अपने स्थान से विचलित नहीं होते । प्रदेशों में हलन चलन न होने से अचलित हैं और तीनों कालों में भी विनाश न होनेसे नित्य हैं । इस विषय में उपयोगी श्लोक - आधार तीन प्रकारका कहा है -- औपश् लेषिक, वैषयिक और अभिव्यापक । इसके तीन उदाहरण है - चटाई, आकाश और तेल । अर्थात् चटाई पर बालक सोता है, यहाँ चटाई औपश्लेषिक आधार है । ३० आकाश में पदार्थ स्थित हैं, यहाँ आकाश वैषयिक आधार है । तिलोंमें तेल यहाँ अभिव्यापक आधार है । इसी तरह लोकाकाशमें धर्म-अधर्म व्यापी हैं; यहाँ अभिव्यापक आधार है ॥५८३ ||
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका लोगस्स असंखेज्जदिभागप्पहुडिं तु सव्वलोगोत्ति ।
अप्पपदेसविसप्पणसंहारे वावदो जीवो ॥५८४॥ लोकस्यासंख्येयभागप्रभृतिस्तु सर्वलोकपथ्यंतमात्मप्रदेशविसर्पणसंहारे व्यापतो जीवः ॥
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तजघन्यावगाहं मोदल्गोंडु महामत्स्यावगाहपर्यंत प्रदेशोत्तरवृद्धिक्रमंगळप्पुवु ६ ६ ६०००६११११३ वेदनायुतंगे एकप्रदेशोत्तरवृद्धिक्रमदिदं जघन्यविदं मेले ५
qala
नडदुत्कृष्टं त्रिगुणितमक्कुं ६ १११११३। मेले मत मारणांतिकसमुद्घातजघन्यं मोदगोंडु ६ १ १ १ १ १ ३ प्रदेशोत्तरक्रमदिदं नडेदुत्कृष्टस्वयंभूरमणसमुद्रबहिस्थितस्थंडिलक्षेत्रदोलिई महामत्स्यसंबंधि सप्तमपृथ्विय महारौरवनामश्रेणीबद्धरं कुरुत्तु मारणांतिकसमुद्घातदंडमुत्कृष्ठमक्कुं १५ । ४१ मी क्षेत्रक्क संदृष्टि :१२
स्वयं
अधः
सूक्ष्मनिगोदलब्ध्यपर्याप्तजघन्यात्मप्रदेशोत्तरेषु महामत्स्यपर्यन्तेषु तदुपरि प्रदेशोत्तरेषु वेदनासमुद्घातस्य १० त्रिगुणव्यासमहामत्स्यपर्यन्तेषु तदुपरि प्रदेशोत्तरेषु स्वयंभूरमणसमुद्रबाह्यस्थण्डिलक्षेत्रस्थितमहामत्स्येन सप्तमपृथ्वीमहारौरवनामाश्रेणीबद्ध प्रति मुक्तमारणान्तिकसमुद्घातस्य पञ्चशतयोजनतदधविष्कम्भोत्सेधकार्घषड्रज्ज्वायतप्रथमद्वितीयतृतीयचक्रोत्कृष्टपर्यन्तेषु तदुपरिलोकपूरणपर्यन्तेषु च अवगाहनविकल्पेषु आत्मप्रदेशविसर्पणसंहारे
सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तककी जघन्य अवगाहनासे लेकर एक-एक प्रदेश बढ़तेबढ़ते महामत्स्यपर्यन्त उत्कृष्ट अवगाहना होती है। उससे ऊपर एक-एक प्रदेश बढ़ते हुए वेदना १५ समुद्धातवाले का क्षेत्र महामत्स्यकी अवगाहनासे तीन गुणा लम्बा, चौड़ा होता है।पुनः एकएक प्रदेश बढ़ते हुए स्वयंभूरमण समुद्र के बाहर स्थण्डिलक्षेत्रमें रहनेवाला महामत्स्य सप्तम पृथ्वीके महारौरव नामक श्रेणीबद्ध बिलेकी ओर मारणान्तिक समुद्घात करता है,तब पांच सौ योजन चौड़ा, अढ़ाई सौ योजन ऊँचा तथा प्रथम मोड़ेमें एक राजू, दूसरेमें आधा राजू और तीसरेमें छह राजू लम्बा उत्कृष्टक्षेत्र होता है। उसके ऊपर केवलिसमुद्घातमें लोकपूरण २०
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गो० जीवकाण्डे इल्लि प्रथमवक्रदर्घ रज्जुवनू द्वितीयवक्रदरज्जुवनू कूडिदोडिदु -३ केळगण तृतीयवक्रवार
रज्जुगळोकूडिदोडिदु वे ५० २१ व्या ५०० २१ इंतु संख्यातप्रतरांगुलगुणितम १.१५ प्पेळुवर रज्जुगळप्पुवु । इंत यथासंभवमागि मेले केवलिसमुद्घातददंडकवाटप्रतरलोकपूरणदोलु सर्वलोकमक्कुमिल्लि पथ्यंतम्मात्मप्रदेशविसप्पणसंहारदोळु जीवद्रव्यं व्याप्तमक्कुं।
पोग्गलदव्वाणं पुण एयपदेसादि होंति भजणिज्जा।
एक्केक्को दु पदेसो कालाणूणं धुवो होदि ॥५८५।। ____ पुद्गलद्रव्याणां पुनरेकप्रदेशादयो भवंति भजनीयाः। एकैकस्तु प्रदेशः कालाणूनां ध्रुवं भवति ॥
पुद्गलद्रव्यंगळ्गे पुनः मत्तएकप्रदेशमादियागि द्वयणुकादिपुद्गलस्कंधंगळ्गे यथासंभवमागि १० प्रदेशंगळु विकल्पनीयंगळप्पुवु । अदेंतेंदोड द्वयणुकमेकप्रदेशदोळं मेणु द्विप्रदेशदोळमिक्कुं। त्र्यणुक
मेकप्रदेशदोळं द्विप्रदेशदोळं त्रिप्रदेशदोळ मेणिक्कुमित्यादि कालाणुगळ्गे तु मत्ते ओंदको वे प्रदेशक्रमं ध्रुवं नियमदिदमक्कुं।
संखेज्जासंखेज्जाणंता वा होंति पोग्गलपदेसा ।
लोगागासेव ठिदी एक्कपदेसो अणुस्स हवे ।।५८६।। १५ संख्येयाऽसंख्येयाऽनंता वा भवंति पुद्गलप्रदेशाः । लोकाकाश एव स्थितिः एकप्रदेशोऽणोभवेत् ॥
घणुकादिपुद्गलस्कंधंगळु संख्यातासंख्यातानंतपरमाणुगळनुळ्ळवप्पुवु। अंतादोडं लोकाकाशदोळ वक्कें स्थितियक्कुमणुविंगों के प्रदेशमक्कुं। सति जीवद्रव्यं व्यापृतं प्रवृत्तं भवति, सर्वावगाहनोपपादसमुद्घातानामस्य संभवात् ॥५८४॥
पुद्गलद्रव्याणां पुनः एकप्रदेशादयो यथासंभवं भजनीया भवन्ति । तद्यथा-द्वयणुकं एकप्रदेशे द्विप्रदेशे वा तिष्ठति । त्र्यणुकं एकप्रदेशे द्विप्रदेशे त्रिप्रदेशे वा तिष्ठतीति । तु-पुनः कालाणूनां एकैकस्य एकैकप्रदेशक्रमो ध्रुवो भवति ॥५८५॥
__ द्वयणुकादयः पुद्गलस्कन्धाः संख्यातासंख्यातानन्तपरमाणवः तथापि लोकाकाश एव तिष्ठन्ति । अणोरेक एव प्रदेशो भवेत् ।।५८६॥ २५ पर्यन्त क्षेत्र होता है। इस प्रकार अपने प्रदेशोंके संकोच-विस्तारसे जीवद्रव्यका क्षेत्र लोकके
असंख्यातवें भाग लेकर सर्वलोक पर्यन्त होता है,क्योंकि जीवके सब अवगाहना, उपपाद और समुद्घातके भेद होते हैं ।।५८४॥ ।
पुद्गल द्रव्योंका क्षेत्र एक प्रदेशसे लेकर यथायोग्य भजनीय होता है। यथा-द्वयणुक एक प्रदेश अथवा दो प्रदेशमें रहता है। ज्यणुक एक प्रदेश, दो प्रदेश अथवा तीन प्रदेशमें ३० रहता है। और कालाणु लोकाकाशके एक-एक प्रदेशमें एक-एक करके ध्रुव रूपसे रहते हैं ॥५८५||
द्वथणुक आदि पुद्गल स्कन्ध संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओंके समूह रूप हैं, फिर भी लोकाकाशमें ही रहते हैं । परमाणु एक ही प्रदेशी होता है ।।५८६।। १. म मागि विक।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
लोगागासपदेसा छद्दव्वेहि फुडा सदा होंति ।
सव्वमोगागासं अण्णेहि विवज्जियं होदि ||५८७ ||
लोकाकाशप्रदेशाः षड्द्रव्यैः स्फुटाः सदा भवंति । सर्व्वमलोकाकाशमन्यैव्विवज्जितं भवति ॥ लोकाकाशप्रदेशंगळंगनितोवनितुं षड्द्रव्यंगळदं सर्व्वदा स्फुटंगळप्पुवु । आलोकाकाशंगळेनितोळवनितुं अन्यद्रव्यंगळदं विवज्जितंगळवु । क्षेत्राधिकारंतिर्दुदु ।
८१७
जीवा अनंत संखाणंतगुणा पुग्गला हु तत्तो दु ।
धम्मतियं एक्क्कं लोगपसपमा कालो ॥५८८ ॥
जीवाः अनंतसंख्याः अनंतगुणाः पुद्गलाः खलु ततस्तु | धम्मंत्रयमेकैकं लोकप्रदेशप्रमा
कालः ॥
सर्व्वजीवंगळु द्रव्यप्रमाणददमनंतंगळप्पुवु । पुद्गलंगळ सर्व्वजीवराशियं नोडलुमनंतानंत- १० गुणितंगळु | धर्माधर्माका गद्रव्यंगळो दोवेयप्पुवु एक दोडखंडद्रव्यंगळप्पुदरिदं । लोकप्रदेशंगळे नितोळवनित कालाणुगळपुप्छु ।
लोगागासपदे से एक्क्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का ।
रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेदव्वा ||५८९ ॥
लोकाकाशप्रदेशे एकैकस्मिन् ये स्थिताः खलु एकैके । रत्नानां राशिरिव ते कालाणवो १५
मंतव्याः ॥
एकैक लोकाकाशप्रदेशंगळु आवुवु केलघु इरल्पटुवु वो दो दुगळागि रत्नंग राशिये तु भिन्न-भिन्नव्यक्तियदिवंते अवु कालाणुगळे दु बग यल्पडुवुवु ।
लोकाकाशप्रदेशाः सर्वे षड्द्रव्यैः सर्वदा स्फुटा भवन्ति । अलोकाकाशः सर्वोऽपि अन्यद्रव्यैर्विवर्जितो भवति ॥ ५८७॥ इति क्षेत्राधिकारः ॥
सर्वे जीवा द्रव्यप्रमाणेन अनन्ताः स्युः । तेभ्यः पुद्गलाणवः खलु अनन्तगुणाः । तु - पुनः धर्माधर्माकाशाः एक एव अखण्डद्रव्यत्वात् । कालाणवो लोक प्रदेशमात्राः || ५८८ ||
एक लोकाकाशप्रदेशे ये एकैके भूत्वा रत्नानां राशिरिव भिन्नभिन्नव्यक्त्या तिष्ठन्ति ते कालाणवो मन्तव्याः || ५८९ ॥
५
द्रव्यप्रमाणसे सब जीव अनन्त हैं। उनसे पुद्गल परमाणु अनन्त गुणे हैं । धर्म-अधर्म और आकाश अखण्ड द्रव्य होनेसे एक-एक हैं। कालाणु लोकाकाशके प्रदेश जितने हैं, उतने हैं ||५८८ ||
लोकाकाशके सब प्रदेश सर्वेदा छह द्रव्योंसे व्याप्त रहते हैं । और अलोकाकाश पूराका २५ पूरा अन्य द्रव्योंसे रहित होता है ||५८७|| क्षेत्राधिकार समाप्त हुआ ।
२०
३०
एक-एक लोकाकाशके प्रदेशपर जो एक-एक स्थित है, जैसे रत्नोंकी राशि में प्रत्येक रत्न भिन्न-भिन्न होता है, वे कालाणु जानना ॥ ५८९ ॥
१०३
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८१८
गो० जीवकाण्डे
ववहारो पुण कालो पोग्गलदव्वादणंतगुणमेत्तो ।
तत्तो अणंतगुणिदा आगासपदेसपरिसंखा ॥५९०॥ व्यवहारः पुनः कालः पुद्गलद्रव्यादनंतगुणमात्रः। ततोऽनंतगुणिताः आकाशप्रदेशपरिसंख्याः ॥ ५ व्यवहारकालमें बुदु मते पुद्गलद्रव्यमं नोडलुमनंतगुणमात्रमक्कुमदं नोडलुमनंतगुणंगळाकाशद्रव्यद प्रदेशपरिसंख्यगर्छ ।
लोगागासपदेसा धम्माधम्मेगजीवगपदेसा ।
सरिसा हु पदेसो पुण परमाणु अवट्ठिदं खेत्तं ॥५९१॥
लोकाकाशप्रदेशाः धमाधम्मकजीवप्रदेशाः सदृशाः खलु प्रदेशः पुनः परमाण्ववस्थितं १० क्षेत्र॥
लोकाकाशप्रदेशंगळं धर्मद्रव्यप्रदेशंगळुमधर्मद्रव्यप्रदेशंगळुमेकजीवप्रदेशंगळू सदृशंगळप्पुवु खलु स्फुटमागि। ई नाल्क द्रव्यंगळ प्रदेशंगळु प्रत्येकं जगच्छ्रेणीघनप्रमितंगळप्पुषु । प्रदेशमें बुदनितु प्रमाणमें दोर्ड पुनः मते पुद्गलपरमाण्ववष्टब्ध क्षेत्रेमिनिते प्रमाणमक्कुमदुकारणदिदं जघन्यक्षेत्रमं जघन्यद्रव्यमुमविभागिगेळप्पुवु । संदृष्टि :| जीव पुद्गल घ. अ. लो= मुका | व्य-का | अलोकाकाश ।
= १६ ख ख । १६ ख ख ख = | ख ख ख ३ ख ख ख ख
१६
१६ ख । १
क्षे खख ख
का अ-ख अख ख कककक
अख ख ख अख ख ख ख
YN
के
१
"ख ख
ख ख
ख
ख ख
a
ख
ख
१५ व्यवहारकालः पुनः पुद्गलद्रव्यादनन्तगुणः । ततोऽनन्तगुणिता आकाशप्रदेशपरिसंख्या ॥५९०॥
लोकाकाशप्रदेशा धर्मद्रव्यप्रदेशा अधर्मद्रव्यप्रदेशा एकैकजीवद्रव्यप्रदेशाश्च सदशाः खल संख्यया समाना एव प्रत्येकं जगच्छ्रेणिघनमात्रत्वात् । प्रदेशप्रमाणं पुनः पुद्गलपरमाण्ववष्टब्धक्षेत्रमात्रं भवति । तेन जघन्यक्षेत्रं
व्यवहारकाल पुद्गल द्रव्यसे अनन्तगुणा है। और उससे अनन्तगुणी आकाशके प्रदेशोंकी संख्या है ॥५९०॥ .
लोकाकाशके प्रदेश, धर्मद्रव्यके प्रदेश, अधर्मद्रव्यके प्रदेश और एक-एक जीवद्रव्यके २० प्रदेश संख्याकी दृष्टिसे समान ही हैं, क्योंकि प्रत्येकके प्रदेश जगत्त्रेणिके घन प्रमाण हैं।
पुद्गलका परमाणु जितने क्षेत्रको रोकता है,उतना ही प्रदेशका प्रमाण है। अतः जघन्यक्षेत्र अर्थात् प्रदेश और जघन्यद्रव्य परमाणु अविभागी हैं, उनका विभाग नहीं हो सकता । अब १. म क्षेत्रमेनितनिते । २. म°गियप्पुवु ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
८१९
क्षेत्रप्रमाणदं षड्द्रव्यंगळ प्रमाणं पेळल्पडुगुं । जीवद्रव्यंगळु प्रक श १ इ १६ लब्ध शला १६ प्रश१ । फइश १६ लब्धं लोकमुमं जीवराशियुमनपर्वात्तसिदोडिदनंत । ख ।
=
=
मिरदं फलराशियप्प लोकमं गुणिसिदोर्ड अनंतलोकप्रमितंगळप्पु । ख । पुद्गलंगळु मनंतगुणितंगवु । ख । धर्म्मद्रव्यमुमधर्मद्रव्यमुं लोकाकाशद्रव्यमुं कालद्रव्यमुं नाल्कु प्रत्येकं लोक
=
५
मात्रप्रदेशंगळप्पुवु→ व्यवहारकालं पुद्गलद्रव्यमं नोडलनंतगुणित लोकप्रमितमक्कु । ख ख ख । मदं नोडलुमलोकाकाशप्रदेशंगळु अनंतगुणितलोकमात्रमक्कुं ख ख ख ख । कालप्रमार्णादिवं षद्रव्यंगळगे प्रमाणं पेळल्पडुगुं ।
=
अ
अ
जीवद्रव्यंगळु प्र = अ । फल श १ इ १६ । लब्धशला १६ । प्रश १ फ अ । इ १६ लब्धमतीतकालमुमं जीवराशियुमनपर्वात्तसिदोडिवु । ख । ईयनंतदिदं फलराशियनतीतकालमं गुणिसि - दोडनंतातीतकालप्रमाणंगळप्पुवु । अ । ख । पुद्गलंगळु व्यवहारकालंगळुमलोकाकाशमुमनंत- १० गुणितक्रर्मादिदमतीतकालानंतगुणितंगळवु । पुअ । ख ख । व्य = का अ । ख ख ख । अलोकाजघन्यद्रव्यं चाविभागिनी स्तः । अथ क्षेत्रप्रमाणेन षद्रव्याणि मीयन्ते जीवद्रव्याणि प्र फश १, इ १६ लब्धं शला १६ । प्रश१६ श १६ लोकजीवराश्यपवर्तनेऽनन्तः । ख । अनेन फलराशि-लोके
S
गुणिते अनन्तलोका भवन्ति ख । पुद्गलाः - अनन्तगुणाः ख ख । धर्मद्रव्यमधर्मद्रव्यं लोकाकाश द्रव्यं कालद्रव्यं च लोकमात्रप्रदेशं । = | व्यवहारकाल: पुद्गलद्रव्यादनन्तगुणः ख ख ख । ततोऽलोकाकाश- १५ प्रदेशा अनन्तगुणाः = ख ख ख ख । कालप्रमाणेन जीवद्रव्याणि प्र । अ १ | फश १ | इ १६ । लब्धशलाका १६ शफ अ । इ १६ । अतीतकालजीवराश्यपवर्तने । ख । अनेन फलराश्यतीतकाले गुणिते अनन्ता
अ
अ
अतीतकाला भवन्ति । अ ख । पुद्गलो व्यवहारकालोऽलोकाकाशप्रदेशाश्च अनन्तगुणितक्रमेण अनन्तातीत
क्षेत्रप्रमाणसे छहों द्रव्योंका माप करते हैं-जीवद्रव्य अनन्तलोक प्रमाण हैं । अर्थात् लोकाकाशके प्रदेशोंसे अनन्तगुने हैं। इसके लिए त्रैराशिक करना - प्रमाणराशि लोक, फलराशि २० एक शलाका, इच्छाराशि जीवद्रव्यका प्रमाण । फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाण शिसे भाग देने पर शलाका राशिका परिमाण आया । पुनः प्रमाणराशि एक शलाका, फलराशि लोक, इच्छाराशि पूर्वशलाका प्रमाण । सो पूर्वशलाका प्रमाण जीवराशिको लोकका भाग देने पर अनन्त पाये, वही यहाँ शलाका प्रमाण जानना । इस अनन्तको फलराशि लोकसे गुणा करके प्रमाणराशि एक शलाकासे भाग देनेपर लब्ध अनन्तलोक आया । इसीसे जीवद्रव्यको अनन्त- २५ लोक प्रभाग कहा है। इसी प्रकार कालप्रमाण आदिमें भी त्रैराशिक द्वारा जान लेना चाहिए। जीवोंसे पुद्गल अनन्तगुणे हैं। धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य लोकमात्र प्रदेशवाले हैं। व्यवहारकाल पुद्गल द्रव्योंसे अनन्तगुणा है। उससे अलोकाकाशके प्रदेश अनन्तगुणे हैं। आगे कालप्रमाणसे जीवद्रव्योंका प्रमाण कहते हैं-प्रमाणराशि अतीत
१. ब ता जी अतीतकाला ।
३०
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८२०
गो० जीवकाण्डे
काश । अ । ख ख ख ख । धर्माधर्म लोकाकाशकालद्रव्यंगळु प्र।फ।पश१। इ लब्धशलाके प१ प्रश१ फ क इ । श १ लब्धं संख्यातपल्यंगळुमं लोकमुमनपत्तिसिदोर्ड इदु । इदरिदं कल्पमं फलराशियं गुणिसुत्तिरलु प्रत्येकमसंख्यातकल्पंगळप्पुव । क क । क । क । भावप्रमादिदं षड्द्रव्यंगळग प्रमाणमं पेळगुं। जीवद्रव्यंगळु प्र १६ । फ श १। इ। के। लब्धशलाकगळु के इदनपत्तिसिदोडे । ख । प्र। ख । इनितु शलाकेगळ्गे केवलज्ञानमागलु। प।के। वोदु शलाकेगेनित दु । इश।१। बंद लब्धं केवलज्ञानानंतैकभागमात्रंगळप्पुवु। वंतादोडं पुद्गलकालालोकाकाशंगळं कुरुतु भागहारभूतानंतंगळु नाल्कप्पुवु के पुद्गलंगळ
ख ख ख ख नंतगुणितंगळु के व्यवहारकालमनंतगुणितमक्कु के मलोकाकाशमनंतगुणं के
ख ख
१६
खख ख
काला भवन्ति । पु अख ख । व्य का अख ख ख। अलोक अख ख ख ख। धर्माधर्मलोकाकाशकालद्रव्याणि प्र। पफ श १ इ3 लब्धशलाका-५
प्रश १ फ क । इश a संख्यातपल्य
प लोकापवर्तने । । अनेन कल्पफलराशौ गणिते प्रत्येकं असंख्यातकल्पा भवन्ति क । क क । क । भावप्रमाणेन जीवद्रव्याणि प्र १६ फ श १ इ के लब्धशलाकाः के अपवर्तिते ख। प्रख एतावच्छलाकाभिः
M
केवलज्ञानं क के तदैकशलाकया इश १ किमिति लब्धं केवलज्ञानानन्तकभागमपि पुद्गलकालालोकाकाशापेक्षया चतुरनन्तभागहारं भवति के पुद्गलाः के व्यवहारकालः के अलोकाकाशः के
ख ख ख ख ख ख ख
ख ख १५ काल, फलराशि एक शलाका, इच्छाराशि जीवोंका परिमाण । सो लब्धराशि अनन्त शलाका
हुई। पुनःप्रमाणराशि एक शलाका, फलराशि अतीतकाल, इच्छाराशि पूर्वोक्त शलाका प्रमाण । सो फलसे इच्छाको गुणा करके प्रमाणसे भाग देनेपर लब्धराशि प्रमाण अतीतकालसे अनन्तगुणा जीवोंका प्रमाण होता है । इनसे पुद्गलद्रव्य व्यवहारकालके समय और अलोकाकाशके प्रदेश क्रमसे अनन्तगुणे होते हुए अनन्त अतीतकाल प्रमाण होते हैं। पुनः धर्मादिका प्रमाण कहते हैं-प्रमाणराशि कल्पकाल, फल एक शलाका, इच्छा लोक प्रमाण । ऐसा त्रैराशिक करनेपर लब्ध असंख्यात शलाका हुई। पुनः प्रमाणराशि एक शलाका, फलराशि कल्पकाल, इच्छाराशि पूर्वोक्त शलाका प्रमाण । ऐसा करनेपर लब्धराशि असंख्यात कल्पप्रमाण धर्म, अधर्म, लोकाकाश और काल ये चारोंको जानना । अर्थात् बीस कोड़ा-कोड़ी सागरके संख्यात
पल्य होते हैं, उतना एक कल्पकाल है। इससे असंख्यातगुणे धर्म, अधर्म, लोकाकाश और २५ कालके प्रदेश हैं। अब भावप्रमाणसे जीवद्रव्योंको बतलाते हैं-प्रमाणराशि जीवद्रव्यका
प्रमाण, फलराशि एकशलाका इच्छाराशि केवलज्ञान । लब्धप्रमाण अनन्त शलाका। पुनः प्रमाणराशि शलाकाप्रमाण । फलराशि केवलज्ञान, इच्छाराशि एक शलाका । सो लब्धराशि प्रमाण केवल ज्ञानके अनन्तवें भाग जीवद्रव्य जानने। वे पुद्गल, काल और अलोकाकाशकी
अपेक्षा चार बार अनन्तका भाग केवलज्ञानके अविभाग प्रतिच्छेदोंमें देनेसे जो प्रमाण आवे, ३० १. म पेलल्पडुगुं । २. म भूतानंतं ।
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८२१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका धर्माधर्मालोकाकाशकालद्रव्यंगळु प्रफ श १ । इ । लब्ध शलाके 3 । इल्लियु भागहारभूतलोकमुमं अवधिज्ञानविलल्पंगळप्प भाज्यभूतासंख्यातलोकमुमनपत्तिसिदोडिदु ।। मत्तं प्रश a। फ। ओ। इ। श। १। लब्धमवधिज्ञानविकल्पासंख्यातेकभागप्रमितं प्रत्येकमप्पु ओ।ओ।ओ। ओ इंतु संख्याधिकारंतिदुर्दुदु । a a a a
सव्वमरूवी दव्वं अवट्ठिदं अचलिया पदेसावि ।
रूवी जीवा चलिया तिवियप्पा होंति हु पदेसा ॥५९२॥ सर्वमरूपि द्रव्यमवस्थितमचलिताः प्रवेशा अपि। रूपिणो जीवाश्चलिताः त्रिविकल्पा भवंति प्रदेशाः॥
सवमरूपि द्रव्यं मुक्तजीवद्रव्यमुं धर्मद्रव्यमुमधर्मद्रव्यमुमाकाशद्रव्यमुं कालद्रव्यमुमें बी अरूपिद्रव्यंगळनितुं अवस्थितं स्थानचलनमिल्लदुवप्परिदमवस्थितंगळप्पुवु। प्रदेशा अपि अवर १० प्रदेशंगळं अचलिताः अचलितंगळप्पुव । रूपिणो जीवाः रूपिजीवंगळु चलिताः चलितंगळप्पुवु-। मवर प्रदेशंगळु त्रिविकल्पा भवंति खलु । विग्रहगतियोळु चलितंगळु अयोगिकेवलियोळचलितंगळु शेषजीवंगळ अष्टप्रदेशंगळचलितंगळ । __ शेषप्रदेशंगळु चलितंगळप्पवितु चलितमुमचलितमु चलिताचलितमुदितु प्रदेशंगळु त्रिविकल्पंगळप्पुवु। धर्माधर्मलोकाकाशकालद्रव्याणि । प्र= । फ श १। इ3 लब्धशलाका aa भागहारभूतलोकेन भाज्ये
अवधिविकल्पासंख्यातलोके अपवर्तिते । । पुनः प्र श फओ। इश १ लब्धोऽवधिविकल्पासंख्यातकभागः प्रत्येकं भवति ओ ओ ओ ओ ॥ इति संख्याधिकारः ॥५९१॥
a a a a अरूपि द्रव्यं मक्तजीवधर्माधर्माकाशकालभेदं सर्व अवस्थितमेव स्थानचलनाभावात । तत्प्रदेशा अपि अचलिताः स्युः । रूपिणो जीवाश्चलिता भवन्ति । तत्प्रदेशाः खलु त्रिविकल्पाः विग्रहगतो चलिताः, अयोग- २० केवलिन्यचलिताः शेषजीवानामष्टप्रदेशाः अचलिताः शेषाः चलिताः ॥५९२॥
उतने ( जीवद्रव्य ) हैं। उनसे अनन्तगुणे पुद्गल हैं। पुद्गलोंसे अनन्तगुणे कालके समय हैं, उनसे अनन्तगुणे अलोकाकाशके प्रदेश हैं। वे भी केवलज्ञानके अनन्तवें भाग ही हैं । धर्मादिका प्रमाण लानेके लिए प्रमाणराशि लोक, फलराशि एक शलाका, इच्छा अवधिज्ञानके विकल्प । लब्धप्रमाण असंख्यात शलाका हुई। पुनः प्रमाणराशि असंख्यात शलाका, फलराशि २५ अवधिज्ञानके विकल्प, इच्छाराशि एक शलाका। ऐसा त्रैराशिक करनेपर अवधिज्ञानके विकल्पोंके असंख्यातवें भाग धर्म, अधर्म, लोकाकाश, कालमें से प्रत्येकके प्रदेशका प्रमाण होता है ।।५९१शा संख्याधिकार समाप्त हुआ।
___ सब अरूपी द्रव्य-मुक्तजीव, धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश, काल अवस्थित ही हैं, वे अपने स्थानसे चलते नहीं हैं। उनके प्रदेश भी अचल हैं। रूपी जीव चलते हैं। उनके प्रदेश ३० तीन प्रकारके होते हैं-विग्रह गतिमें प्रदेश चल ही होते हैं।
____अयोगकेवली अवस्थामें अचल ही होते हैं। शेष जीवोंके आठ प्रदेश अचल और शेष प्रदेश चल होते हैं ।।५९२।।
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द्रव्य अणवः संख्याता
, प्रदेशाः
गो. जोवकाण्डे पोग्गलदव्वंहि अणू संखेज्जादी हवंति चलिदा हु ।
चरिममहक्खंधम्मि य चलाचला होति हु पदेसा ॥५९३॥ पुद्गलद्रव्ये अणवः संख्यातादयो भवंति चलिताः खलु । चरममहास्कंधे च चलाचला भवंति
पुद्गलद्रव्यदोळु अणुगळं द्वथणुकादि संख्यातासंख्यातानंतपरमाणुस्कंधंगळु चलितंगळु खलु स्फुटमागि, चरममहास्कंधदोळं प्रदेशाः परमाणुगळु चलाचला भवंति चलाचलंगळप्पुवु ।
अणुसंखासंखेज्जाणता य अगेज्झगेहि अंतरिया ।
आहारतेजभासामणकम्मइया धुवक्खंधा ॥५९४॥ अणुसंख्यातासंख्यातानंताश्चाग्राौरंतरिताः आहारतेजोभाषामनःकार्मण ध्रुवस्कंधाः ॥
सांतरणिरंतरेण य सुण्णा पत्तेयदेह धुवसुण्णा ।
बादरणिगोदसुण्णा सुहुमणिगोदा णमा महक्खंधा ॥५९५।। सांतरणिरंतरेण च शून्य प्रत्येकवेहध्रुवशून्यानि । बादरनिगोदशून्यानि सूक्ष्मनिगोदाः नभांसि महास्कंधाः॥
अणुवर्गणेगळेढुं संख्याताणुसमूहवर्गणेगळे दुमसंख्याताणुसमूहवर्गणेगळे दु : मनंत१५ परमाणुसमूहवर्गणेगळेदु आहारवर्गणेगळे दुमी याहारवर्गणे मोदलादुमल्लमुमनंतपरमाणुस्कंधं
गळ्यप्पुवु-। भग्राह्यवर्गणगळेदु तैजसशरीरवर्गणेगळेदु मग्राह्यवर्गणेगळे दु“ भाषावर्गणगळे दुमग्राह्यवर्गणगळेदुः मनोवर्गणगळे दु' मनायवर्गणेगळे दु' कार्मणवर्गणगळे दु" ध्रुववर्गणेगळेदु१४ सांतरणिरंतरवर्गणेगळे दु१५ शून्यवर्गणेगळे दु.१६ प्रत्येकशरीरवर्गण
गळे दु" ध्रुवशून्यवर्गणेगळंदु८ बादरनिगोदवर्गणगळे दुः१५ शून्यवर्गणगळे दु° सूक्ष्म २० निगोदवग्गणेगळे दु" नभोवर्गणेगळे दुःर महास्कंधवर्गणेगळे दितु पुद्गलवर्गणेगळ त्रयो
पुद्गलद्रव्ये अणवः द्वघणुकादिसंख्यातासंख्यातानन्ताणुस्कन्धाश्चलिताः खलु स्फुटम् । चरममहास्कन्धे च प्रदेशाः परमाणवः चलाचला भवन्ति ।।५९३।।।
अणुवर्गणा संख्याताणुवर्गणा असंख्याताणुवर्गणा अनन्ताणुवर्गणा आहारवर्गणा अग्राह्यवर्गणा तैजसशरीरवर्गणा अग्राह्यवर्गणा भाषावर्गणा अग्राह्यवर्गणा मनोवर्गणा अग्राह्यवर्गणा कार्माणवर्गणा ध्रुववर्गणा २५ सान्तरनिरन्तरवर्गणा शून्यवर्गणा प्रत्येकशरीरवर्गणा घ्र वशून्यवर्गणा वादरनिगोदवर्गणा शून्यवर्गणा सूक्ष्मनिगोदवर्गणा नभोवर्गणा महास्कन्धवर्गणा चेति पुद्गलवर्गणाः त्रयोविंशतिभेदा भवन्ति । अत्रोपयोगी श्लोक:
पुद्गल द्रव्यमें परमाणु और द्वथणुक आदि संख्यात, असंख्यात और अनन्त परमाणुओंके स्कन्ध चलित होते हैं । अन्तिम महास्कन्धमें प्रदेश चल-अचल हैं ॥५९३।।
अणुवर्गणा, संख्याताणुवर्गणा, असंख्याताणुवर्गणा, अनन्ताणुवर्गणा, आहारवर्गणा, ३० अग्राह्यवर्गणा, तैजसशरीरवर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, भाषावर्गणा, अग्राह्यवर्गणा, मनोवर्गणा,
अग्राह्यवर्गणा, कार्मणवर्गणा, ध्रुववर्गणा, सान्तरनिरन्तरवर्गणा, शून्यवर्गणा, प्रत्येकशरीरवर्गणा, ध्रुवशून्यवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा, सूक्ष्म निगोदवर्गणा, नभोवर्गणा, महास्कन्धवर्गणा ये तेईस प्रकारकी पुद्गलवर्गणाएँ होती हैं। इस विषयमें उपयोगी श्लोक
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८२३
कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका विशतिभेदंगळप्पुवु । इल्लिगुपयोगिश्लोकमिदु :
"मूतिमत्सु पदार्थेषु संसारिण्यपि पुद्गलाः। अकर्मकम्मनोकमजातिभेदेषु वर्गणाः॥" [
] __ मूत्तिमंतंगळप्प पदार्थगळोळं संसारिजीवनोळं पुद्गलशब्दं, अकर्मजातिगळोळं कर्मजातिगळोळं नोकर्मजातिगळोळं वर्गण' यब शब्दं वत्तिसुगुं। इल्लियणुवर्गणेगळ सुगमंगळु । संख्याताणुसमूह वर्गणेगळु द्वयणुक व्यणुकं मोदलादसदृश धनिकंगळु मेले मेलेकैक परमाणुविदधिकंगळु नडदु चरमोळु संख्यातोत्कृष्टप्रमितपरमाणुस्कंधंगळु सशनिकंगळु तद्योग्यंगळप्पुवु उ १५ । १५ । १५ । असंख्यातवर्गणेगळोछु जघन्यवर्गणेगळु सदृशधनिकंगळु । परि
M
३।३।३।३।३।३ ज २।२।२।२।२ अणु १।१।१।१।१।१ मितासंख्यातजघन्याराशिप्रमितपरमाणुस्कंधंगळप्पषु । मेलेकैकपरमाणुचयक्रमदिवं पोगि चरमदोलु द्विकवारासंख्यातोत्कृष्टराशिप्रमितपरमाणुगळ स्कंधंगळु सदृशधनिकंगळप्पुव
मूर्तिमत्सु पदार्थेषु संसारिण्यपि पुद्गलः ।
अकर्मकर्मनोकमंजातिभेदेषु वर्गणाः ॥१॥ मूर्तिमत्सु पदार्थेषु संसारिजीवे च पुद्गलशब्दो वर्तते । अकर्मजातिषु कर्मजातिषु नोकर्मजातिषु च वर्गणाशब्दो वर्तते । अत्राणुवर्गणा ( सुगमा) एकैकपरमाणुरूपा स्यात् १।१।१ । १।१ । अणुवर्गणा । संख्याताणुवर्गणा द्वयणुकादयः एकैकाण्वधिकाः, उत्कृष्टसंख्याताणुकस्कन्धपर्यन्ताः
उ १५ । १५ । ०० १५
म ३ ३ ००३
ज २ २ ०० २ असंख्याताणुवर्गणा जघन्यपरिमितासंख्याताणुकादयः एकैकाण्वधिका उत्कृष्टद्विकवारासंख्याताणुस्कन्धपर्यन्ताःहैं-पुद्गल शब्द मूर्तिमान पदार्थोंका और संसारी जीवोंका वाचक है। और वर्गणाशब्द अकर्मजातिके, कर्म जातिके और नोकर्मजातिके पुद्गलोंको कहता है।
___इनमें-से अणुवर्गणा सुगम है । एक-एक परमाणुको अणुवर्गणा कहते हैं। अन्य बाईस २० वर्गणाओंमें भेद हैं सो उनमें जघन्य और उत्कृष्ट भेद कहते हैं। द्वथणुकसे लेकर एक-एक परमाणु बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट संख्यात परमाणुओंके स्कन्ध पर्यन्त संख्याताणुवर्गणा है। उसमें जघन्य दो अणुओंका स्कन्ध है और उत्कृष्ट-उत्कृष्ट संख्यात अगुओंका स्कन्ध है। जघन्य परिमितासंख्यात परमाणुओंसे लेकर एक-एक अणु बढ़ते-बढ़ते उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात परमाणुओंके स्कन्ध पर्यन्त असंख्याताणुवर्गणा है । यहाँ जघन्य परीतासंख्यात परमाणुओंका स्कन्ध है और उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात परमाणुओंका स्कन्ध है। संख्याताणुवर्गणा और २५ असंख्याताणुवर्गणामें विवक्षितवर्गणाको लाने के लिए गुणकार नीचेकी वर्गणासे विवक्षित१. म पुद्गलंगलु । २. मणेगलेबुवप्पुवु ।
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८२४
गो० जीवकाण्डे ई संख्यातासंख्यातवर्गणेगळोळ तंतम्मघस्तनराशियिदमनंतरो
उ २५५ । २५५ । । २५५
म १६ १६ ००१६ ज १६। १६ । ००।१६ परितनराशिगळं भागिसिदोडावुदो दु लब्धमदु विवक्षितवर्गणेगे गुणकारमक्कुमदेत दोर्ड संख्यातवर्गणेगळोळु जघन्यवर्गयिद २ मुपरितनराशियं ३ भागिसि ३ बंद लब्धं द्वितीयवर्गणेयोल गुणकारमक्कुं गुण्यं जघन्यवर्गणेयक्कु २३ मिदनपत्तिसिदोडे त्र्यणुकमक्कु-३। मंते द्विचरमवर्पणयिदं चरमवर्गणेयं भागिसिदोडिदु १५ चरमवर्गणेयोळु गुणकारमक्कुं। गुण्यं द्विचरमवर्गणेयक्कु १४ १५ मिदनपत्तिसिदोर्ड चरमवणेयक्कु-१५ । मिते असंख्यातवर्गणेगळोळं द्विचरमवर्गणेयिदमुपरितनचरमवर्गणेयं भागिसिदोर्ड चरमदोळु गुणकारमक्कुं गुण्यं द्विचरम. वर्गणेयक्कु २५४ । २५५ मिदनपत्तिसिवोडे चरमवर्गणेयक्कुं । २५५ । इल्लियोंदु परमाणुवं
कूडिदोडे अनंतवर्गणेगळोळु जघन्यवर्गणे परिमितानंतजघन्यराशिप्रमाणमक्कुमेक दोडे द्विकवारा• १० संख्यातोत्कृष्टदोळोदु रूपं कूडिवोडे या स्कंधमनंतवर्गणेगळोळु जघन्यवर्गणेयप्पुरिदं । आ
जघन्यानंतवर्गणेय मेलेकैक परमाणुविंदमधिकंगळागुत्तं पोगि तदुत्कृष्टवर्गणे तज्जघन्यमं नोडलनंतगुणितमक्कुं उ २५६ ख मेलेयाहारजघन्यसहशवर्णवर्गणेगळु एकपरमाणुविंदमधिकंगळ
ज २५६
उ २५५ । २५५ ० ० २५५
...
.
म १६। १६ । ०० १६
ज १६ । १६ । ०० १६ अत्र संख्याताणुवर्गणासु असंख्याताणुवर्गणासु च विवक्षितवर्गणामानेतुं गुणकारः तदधस्तनवर्गणाया अघस्तनवर्गणाभक्तविवक्षितवर्गणामात्रः यथा व्यणुकमानेतुं द्वयणुकस्य द्वयणुकभक्तश्यणुकमात्रः २ । ३ तदनन्तरोपरि
२
१५ वर्गणामें भाग देनेसे जो प्रमाण आवे उतना है। जैसे व्यणुक लाने के लिए द्वथणुकका गुणकार
द्वयणुकसे त्र्यणुकमें भाग देनेपर जितना प्रमाण आवे, उतना है। उसके अनन्तर उत्कृष्ट असंख्याताणुवर्गणामें एक परमाणु अधिक होनेपर अनन्ताणुवर्गणाका जघन्य होता है। उसे सिद्धराशिके अनन्तवें भाग प्रमाण अनन्तसे गुणा करनेपर अनन्ताणुवर्गणाका उत्कृष्ट होता
है। उसमें एक परमाणु अधिक होनेपर उससे ऊपरकी आहारवगंणाका जघन्य होता है। उसमें २० सिद्धराशिके अनन्तवें भाग देनेपर जो लब्ध आवे, उसे जघन्यमें मिलानेपर आहारवर्गणा
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
प्पुवुत्कृष्टं । तज्जघन्यानंतैकभागद विशेषाधिकमक्कुं उ २५६ ख ख मेलणग्राह्यवणेगळोळु
आ :
ज २५६ ख
जन्यमेकपरमाणुविंदमधिकमक्कुं । तदुत्कृष्टं जघन्यमं नोडलनंतगुणितमक्कु :
उ २५६ ख १ ख ख तदनंतरोपरितनतेजःशरीरवर्गणेगळोळु जघन्यवर्गणे एकपरमाणुअग्रा :
ख
ख
ज २५६ ख १ ख
विधिक मक्कुं तदुत्कृष्टं तदनं तैकभार्गाददं विशेषाधिकमक्कुं
तनमनन्तवर्गणाजघन्यमेकाणुनाधिकं तदुत्कृष्टं ततोऽनन्तगुणं उ २५६ ख तदनन्तरोपरितनाहारवर्गणा जघन्य
०
आहा
ज २५६ ख
अगेज्ज
उ २५६ ख तेज :
०
ज २५६
८२५
--
मेकाणुनाधिकं तदुत्कृष्टं तदनन्तैकभागेनाधिकं उ २५६ ख ख तदनन्तरोपरितनाग्राह्यवर्गणाजघन्यमेकाणु
० ख
ज २५६ ख १ ख
ख
१ ख १ ख ख ख ख
जघ २५६ ख १ ख १ ख
ख
नाधिकं तदुत्कृष्टं ततोऽनन्तगुणं - २५६ ख १ ख ख तदनन्तरोपरितनतेजःशरीरवर्गणाजघन्यमेकाणुनाधिकं
o ख
उत्कृष्ट होता है । उत्कृष्ट आहारवर्गणा में एक परमाणु अधिक होनेपर उससे ऊपर की अग्राह्यaणाका जघन्य होता है । उसमें सिद्धराशिके अनन्तवें भागसे भाग देकर जो लब्ध आवे, उसे उसीमें मिला देनेपर अग्राह्यवर्गणाका उत्कृष्ट होता है। इसमें एक परमाणु अधिक होनेपर उससे
१०
१०४
५
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८२६
गो. जीवकाण्डे नंतरोपरितनाग्राहयवर्गणेगळोळु जघन्यमेकपरमाणुविंदमधिकमक्कुं । तदुत्कृष्टं तज्जघन्यम नोडलनंतगुणमक्कं उ२५६ ख १ ख १ ख ख ख तदनंतरोपरितनभाषावर्गणे
* अग्राख ख
ज २५६ ख १
ख १ ख १ ख
ख ख
गळोल जघन्यमेकपरमाणुविंदधिकमक्क, तदुत्कृष्टं तदनंतकभादि विशेषाधिकमक्क उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख ख तदनंतरोपरितनाग्राहयवाणेगळोळु जघन्य
ख ख ख ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख
भाषा:
५ तदुत्कृष्टं तदनन्तकभागेनाधिक-उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख
तेजो
: ख
ख
ज २५६ ख १ ख १ ख
तदनन्तरोपरितनाग्राह्यवर्गणाजघन्यमेकाणुनाधिकं तदुत्कृष्टं ततोऽनन्तगुणं-उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख ख ।
अगेज्ज
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ག'' གོག ༈༈ག་
ज २५६ ख १ख १ ख १ ख
तदनन्तरोपरितनभाषावर्गणाजघन्य एकाणुनाधिकं तदुत्कृष्टं तदनन्तकभागेनाधिकं
ख १ख १ ख १ख १ख १ ख
ख
ख
भाषा :
ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख
ऊपरकी तैजसशरीरवर्गणाका जघन्य होता है। उसमें सिद्धराशिके अनन्तवें भागसे भाग
देनेसे जो लब्ध आवे,उसे उसीमें मिलानेपर तैजसशरीरवर्गणाका उत्कृष्ट होता है । उसमें एक १० परमाणु अधिक होनेपर उससे ऊपरकी अग्राह्यवर्गणाका जघन्य होता है। उसमें सिद्धराशि
के अनन्तवें भागसे गुणा करनेपर उसका उत्कृष्ट होता है। उसमें एक परमाणु अधिक होनेपर
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
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मेकपरमाणुविंदधिकमक्कं तदुत्कृष्टमनंतगुणितमक्कं उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख ख ख ख
अग्रा : ख ख ख ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख
ख ख
ख तदनंतरोपरितनमनोवर्गणेगळोळु जघन्यमेकपरमाणुविदधिकमक्कुं तदुत्कृष्टमनंतेक भादि विशेषाधिकमक्कं २५६ ख ‘ख ख ख १ ख १ ख १ ख १ख तदनंतरोपरितनामनोवगर्गणा :
ख ख ख ख ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख ख ख ख ग्राह्यवर्गणेगळोळु जघन्यमेकपरमाणुविंदधिकमक्कुं तदुत्कृष्टं तज्जघन्यमं नोडलनंतगुणितमकुंःउ २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख ख १ ख ख अग्राह्य : ख
ख ख ख।
ख
ख
ज २५६ ख १ ख ख ख १ ख ख १ ख १ ख
ख ख ख तदनन्तरोपरितनाग्राह्यवर्गणाजघन्यं एकाणुनाधिकं तदुत्कृष्टं ततोऽनन्तगुणं
उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख ख
० ख ख ख। अगेज्झ :
- --- ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख
ख ख ख तदनन्तरोपरितनमनोवर्गणाजघन्यमेकाणनाधिकं तदुत्कृष्टं तदनन्तकभागेनाधिकं
उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख
ख ख मनोव :
ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख
NANAwas
तदनन्तरोपरितनाग्राह्यवर्गणाजघन्यमेकाणनाधिकं तदुत्कृष्टं ततोऽनन्तगणंउससे ऊपरकी भाषा वर्गणाका जघन्य है । उसमें सिद्धराशिके अनन्तवे भागसे भाग देनेपर जो लब्ध आवे,उसे उसीमें मिलानेपर उसका उत्कृष्ट होता है। उसमें एक परमाणु अधिक होनेपर उससे ऊपरकी अग्राह्यवर्गणाका जघन्य है। उससे अनन्तगुणा उसका उत्कृष्ट होता है। उसमें १० एक परमाणु अधिक होनेपर उससे ऊपरकी मनोवर्गणाका जघन्य होता है। उसमें सिद्धराशिके
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गो० जोवकाण्डे
तदनंतरोपरितनकार्म्मणवर्गण जघन्यमेकपरमाणुविंदधिकमक्कुं । अदरुत्कृष्टं तदनंतैकभार्गादिदं विशेषाधिकमक्कुं उ २५६ ख १ ख ख ख १ ख १ ख ख १ ख ख ख
कार्म्मण :
ख ख ख
ख ख
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ज २५६ ख १ ख ख ख ख १ ख ख ख ख
ख
तदनंतरोपरितनध्रुवव गणेगळोळु जघन्यमेकपरमाणुविदधिकमक्कं तदुत्कृष्टमनंतजीवराशिगुणित
6
मक्कुं :- उ २५६ ख १ ख ख ख १ ख १ ख १ ख ख १ ख ख १६ ख
ध्रुव :
ख ख
ख
ख
ज २५६ ख १
ख ख १ ख ख १ ख ख
०
१ ख १ ख
ख
ख ख १ ख ख १ ख ख ख
उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख ख ख ख
ख
ख
अगेज्झ
ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख ख
१ ख १ ख १ ख
ख
ख ख ख
तदनन्तरो परितनकार्मणवर्गणाजघन्यमेकाणुनाधिकं तदुत्कृष्टं तदनन्तैकभागेनाधिकं-
-
उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख ९ ख o ख ख ख. ख ख
कम्मव :
ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख ख ख ख ख
तदनन्तरोपरितन ववर्गणाजधन्यमेकाणुनाधिकं तदुत्कृष्टं ततोऽनन्तजीव राशिगुणं
उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १६ ख ० ख ख
ख
ख
ध्रुव
ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख ९ ख ख ख ख ख
ख
अनन्त भागसे भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसीमें मिला देनेपर उसका उत्कृष्ट होता है। उससे एक परमाणु अधिक होनेपर उससे ऊपरकी अप्राश्यवर्गणाका जघन्य है । उससे अनन्तगुणा उसका उत्कृष्ट है। उससे एक परमाणु अधिक होनेपर उससे ऊपरकी कार्मणवर्गणा१० का जघन्य है । उसमें सिद्धराशिके अनन्तवें भागसे भाग देनेपर जो लब्ध आवे, उसे उसीमें मिलानेपर उसका उत्कृष्ट होता है। उससे एक परमाणु अधिक उससे ऊपरकी ध्रुववर्गणाका
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदोपिका
८२९
तदनंतरोपरितनसांतरनिरंतरवर्गणेगळोळु जघन्यमेकपरमाणुवैिदधिकमक्कुं । तदुत्कृष्ट तज्जघन्यमं
नोडल नंतजीवराशि गुणितमक्कुमदक्के संदृष्टि
उ २५६ ख १ ख ख ख ख ख ख सांतर नि : ख ख ख
6
:
ज २५६ ख १ ख ख १ ख ख ख १ ख १
ख
ख
१ ख ख ख
ख
१
उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख ख ख ख ख १ शून्य : ख ख ख
ख
ख ख ख १६ ख
ख
ख ख
इल्लि विशेषं पेळल्पडुगुं । परमाणुवर्गणे मोदल्गोंड ई सांतरनिरंतरवर्गणेगळ उत्कृष्टवर्गणे पर्यंतं पदिनेदुं वर्गणेगळ सदृशधनिकवग्गणेगळ अनंतपुद्गल वर्गमूलमात्रंगळप्पुवु । पु = मुखवंतागुत्तं विशेषहोनक्र मंगळप्पुवल्लि प्रतिभागहारं सिद्धानं तैकभागमक्कुंम बिदु तदनंत रोपरितनशून्य- ५ वर्गणेगळोळु जघन्यमेकरूपाधिक मक्कुमुत्कृष्टमनंतजीवराशि गुणितमक्कुं :
--
१६ ख ख
सान्तर ० निरन्तर :
ज २५६ ख १ ख ख ख १ ख ख १ ख ख १ ख ख १
ख ख ख ख
१६ ख
ख ख १६ ख १६ ख १६ ख
ख
वितु पदिना वगळेकप्रकारदिदं सिद्धगळप्पुवु ।
तदनन्तरोपरितनसान्तर निरन्तर वर्गणा जघन्यमे काणुनाधिकं तदुत्कृष्टं ततोऽनन्तजीवराशिगुणं
१६ ख १६ ख
ख
उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १६ ख १६ ख ख ख ख
ख
ख
ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १६ ख ख ख
ख
ख
ख
अत्रायं विशेष: परमाणुवर्गणामादिं कृत्वा सान्तर निरन्तरवर्गणापर्यन्तं पञ्चदशवर्गणानां सदृशधनिकानि अनन्तगुणपुद् गलवर्गमूलमात्राण्यपि विशेषहीनक्रमाणि भवन्ति । तत्र प्रतिभागहारः सिद्धानन्तैकभागः | १० तदनन्तरोपरितन शून्य वर्गणाजघन्यं एकरूपाधिकं तदुत्कृष्टं ततोऽनन्तजीवराशिगुणं
जघन्य है । उसे अनन्तजीवराशिसे गुणा करनेपर उसका उत्कृष्ट होता है । उससे एक परमाणु अधिक उससे ऊपरकी सान्तर निरन्तरवर्गणाका जघन्य है । उसे अनन्तजीव राशि गुणा करनेपर उसका उत्कृष्ट होता है। यहाँ इतना विशेष है कि परमाणुवर्गणासे लेकर सान्तरनिरन्तरवर्गणा पर्यन्त पन्द्रह वर्गणाओंका समानधन अनन्तगुणे पुद्गलोंके वर्गमूल १५ प्रमाण होनेपर भी क्रमसे विशेषहीन है। उनका प्रतिभागहार सिद्धराशिका अनन्तवाँ भाग है ।
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गो० जीवकाण्डे
तदनंतरोपरितनप्रत्येकशरीरवर्गणे पेळल्पडुगुमदे तें दोडे ओर्व्व जीवन वोदु देहदोपचितकर्म्मनोकर्म्मस्कंधं प्रत्येकशरीरवर्गणेये बुद+कुमदर जघन्यवर्गणे यावजीवनोळक्कुमे दोडे आवनोव्वं क्षपितकम्मशलक्षर्णादिदं बंदु पूर्व कोटिवर्षायुर्मनुष्यजी बंगलोपुट्टि मनुष्यनागियंतमुहूर्त्ताधिकाऽष्टवर्षगळिदं मेले सम्यक्त्वमुमं संयममुमं युगपत्स्वीकरिसि सयोगकेवलियादोंडदेशोन५ पूर्व्वकोटियं औदारिक तैजसशरीरंगळ अस्थितिगणनेयोळ निर्ज्जरेयं माडि कार्म्मणशरीरक्कं गुणश्रेणिनिज्जैरेयं माडि चरमसमयभव्यसिद्धमप्प चरमसमयदयोगिकेवलिगे त्रिशरीरसंचयं नामगोत्रवेदनीयंगळ मेले आयुरौदारिकतैजसशरी रंगळिनधिकमाद त्रिशरीरसंचयं प्रत्येकशरीरजघन्यवयक्कं । तदुत्कृष्टवर्गणासंभव मावडेयोळे देडे नंदीश्वरद्वीपद अकृत्रिम महाचैत्यालयंगळ धूपघटंगळोळं स्वयंभूरमणद्वीपद कर्मभूमिप्रतिबद्धक्षेत्रदो नेगेवकाळिकच्चुगळोळं बादर
८३०
उ २५६ ख १ ख १ ख १ ख ख ख
o
सुण्णव :
ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १६ ख ख ख
ख
ज २५६ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १ ख १६ ख ख ख
ख
ख
ख
१६ ख
१६ ख
१६ ख
१० षोडशवर्गणा एवं सिद्धाः । तदनन्तरोपरितनप्रत्येकशरीरवर्गणा तु एकजीवस्य एकदेहोपचितकर्म नोकर्मस्कन्धः । तत्र कश्चिज्जीवः क्षपितकर्माशलक्षणः पूर्वकोटिवर्षायुः मनुष्यो भूत्वा अन्तर्मुहूर्ताधिकाष्टवर्षोपरि सम्यक्त्वसंयमी युगपत् स्वीकृत्य सयोगकेवली जातः देशोनपूर्वकोटिपर्यन्तमौदारिकतै ज सशरीरयोरवस्थितिगणनया निर्जरां कुर्वन् कार्मणशरीरस्य च गुणश्रेणिनिर्जरां कुर्वन् चरमसमयायोगिकेवली स्यात् । तस्यायुः औदारिकतैजसशरीराधिक नामगोत्रवेदनीयरूप त्रिशरीरसंचयः तज्जघन्यं भवति । नन्दीश्वरद्वीपस्य अकृत्रिम महाचैत्यालयानां १५ धूपघटेषु स्वयंभूरमणद्वीपसंभूतदवाग्निषु च बादरपर्याप्ततैजस्कायिका : एकबन्धनबद्धा असंख्यातावलिवर्गमात्राः
उत्कृष्ट सान्तरनिरन्तरवर्गणा में एक परमाणु अधिक होनेपर उससे ऊपर की शून्यवर्गणाका जघन्य होता है। उसे अनन्तगुणित जीवराशिके प्रमाणसे गुणा करनेपर उसका उत्कृष्ट होता है । इस प्रकार सोलह वर्गणा सिद्ध हुई । उससे ऊपर प्रत्येक शरीर वर्गणा है । एक जीव के एक शरीरके विस्रसोपचय सहित कर्म-नोकर्मके स्कन्धको प्रत्येक शरीरवर्गणा २० कहते हैं । शून्यवर्गणाके उत्कृष्टसे एक परमाणु अधिक जघन्य प्रत्येक शरीरवर्गणा होती है । जिसके कर्मके अंश क्षयरूप हुए हैं, ऐसा कोई क्षपितकर्माश जीव एक पूर्वकोटि वर्ष आयु लेकर मनुष्य जन्म धारण करके अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षके ऊपर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ स्वीकार करके सयोगकेवली हुआ । वह कुछ कम एक पूर्व कोटि पर्यन्त औदारिक शरीर और तैजसशरीरको अवस्थिति गणना के अनुसार निर्जरा करता हुआ और कार्मण२५ शरीरकी गुणश्रेणिनिर्जरा करता हुआ अयोगकेवलीके चरमसमयको प्राप्त हुआ । उसके आयुकर्म औदारिक और तैजस शरीर के साथ नाम गोत्र वेदनीय कर्मके परमाणुओं का समूह रूप जो तीन शरीरोंका स्कन्ध होता है, वह जघन्य प्रत्येक शरीरवर्गणा है। इस जघन्यको पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर वर्गणा होती है । नन्दीश्वर द्वीपके अकृत्रिम महाचैत्यालयोंके धूपघटोंमें और स्वयम्भूरमणद्वीपमें उत्पन्न दावाग्निमें असंख्यात
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पर्याप्ततेजस्कायिकजीवंगळेकबंधनबद्धंगळऽसंख्यातावलिवर्गप्रमितंगळवरोळु गुणितकम्मंशगळप्प जीवंगळु यदि सुष्ठु बहुकंगळप्पुवादोडमावल्यसंख्यातेकभागप्रमितंगळेयप्पुवुळिदवेल्लम गुणितकाशंगळेयप्पुवा गुणितकर्मीशंगळेकबंधनबद्धंगल बादरपर्याप्ततेजस्कायिकंगळ सविस्रसोपचयत्रिशरीरसंचयं औदारिकतैजसकार्मणशरीरसंचयं प्रत्येकवेहोत्कृष्टवर्गणयक्क :उस ३२ ख ख १३ १६ ख ८ ई प्रत्येकशरीरोत्कृष्टवर्गणेये रूपाधिकमादोर्ड ५ प्रत्येक शरीर जस ३ . ख १२ - १६ ख ३ ध्रुवशून्यवर्गणेगळोळु जधन्यवर्गणेयकुं। बादरनिगोदजघन्यवर्गणेयावेडयोळ्संभविसुगुमें दोडे
____ आवनोव्वं क्षपितकम्मशिलक्षदिदं बंदु पूर्वकोटिवर्षायुर्मनुष्यनागि पुट्टि गर्भाद्यष्टवर्षमंतर्मुहर्ताधिकंगळमेले सम्यक्त्वमुमं संयममुमं युगपत्कैकोंडु कर्मक्कुत्कृष्टगुणश्रेणिनिजरेयं देशोनपूर्वकोटिवषंबरं माडियंतर्मुहूर्तावशेषदोळु सिद्धितव्यनेंदितु क्षपकश्रेणियनेरिदोनुत्कृष्टकर्मनिजरेयं क्रियमाणं क्षीणकषायनादोनातंगे शरीरदोळु जघन्यदिदमुत्कृष्टदिदमुमेकबंधनबद्धंगळप्प १० तेषु गुणितकर्मांशाः सुष्ठु बहुत्वेऽपि आवल्यसंख्यातकभागमात्राः ८ तेषां सविस्रसोपचय त्रिशरीरसंचयस्तदुत्कृष्ट
।। - a भवति-
उ स ३२ ख ख १२- १६ ख ८ इदमेव रूपाधिकं ध्रुवशून्यवर्गणाजघन्यं
पत्तेयशरीर
०००
- ज स ख ख १२- १६ ख ३ भवति । कश्चित् क्षपितकर्माशलक्षणो जीवः पूर्वकोटिवर्षायुः मनुष्यो भूत्वा अन्तर्मुहूर्ताधिकगर्भाधष्टवर्षोपरि सम्यक्त्वसंयमौ युगपत् स्वीकृत्य कर्मणामुत्कृष्टगुणश्रेणिनिर्जरां देशोनपूर्वकोटिवर्षपर्यन्तं कुर्वन् अन्तर्मुहूर्ते सिद्धितव्यमास्ते तदा क्षपकश्रेण्यारूढः उत्कृष्टकर्मनिर्जरां कुर्वन् क्षीणकषायो जातः, तच्छरीरे जघन्येन उत्कृष्टेन १५ आवलीके वर्ग प्रमाण बादर पर्याप्त तैजस्कायिक जीवोंके शरीरोंका एक स्कन्ध रूप हैं। उनमें गुणित कर्माश जीव बहुत अधिक होनेपर भी आवलीके असंख्यातवें भागमात्र हैं। उनका औदारिक-तैजस- कार्मणशरीरोंका विस्रसोपचयसहित उत्कृष्ट संचय उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणा है। उसमें एक परमाणु अधिक होनेपर जघन्य ध्रुवशून्यवर्गणा होती है। इस जघन्यको सब मिथ्यादृष्टि जीवोंके प्रमाणको असंख्यात लोकसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, २० उससे गुणा करनेपर उत्कृष्ट भेद होता है। उससे एक परमाणु अधिक बादरनिगोद वगणा है। बादर निगोदिया जीवोंके विस्रसोपचय सहित कर्म-नोकर्म परमाणुओंके एक स्कन्धको बादरनिगोदवर्गणा कहते हैं। वह कहाँ पायी जाती है,यह कहते हैं-क्षपितकांश लक्षणवाला कोई जीव एक पूर्वकोटि वर्षकी आयुवाला मनुष्य हुआ। अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षके ऊपर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ धारण करके कुछ कम पूर्व कोटिवर्ष पर्यन्त कर्मोंकी २५ उत्कृष्ट गुणश्रेणि निर्जरा करते हुए जब सिद्ध पद प्राप्त करने में अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रहा,तब
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८३२
गो० जीवकाण्डे पुळविगळु आवल्यसंख्यातेकभागमात्रंगळेयप्पुवेके दोडल्ला स्कंधंगळोळमसंख्यातलोकमात्रपुळविगळे बुदिल्लेके दोर्ड तद्विधप्ररूपणाभावमप्पुरिदं । तदावल्यसंख्यातकभागमात्रपुळविगळोलिई निगोदशरीरंगळु त्रैराशिकसिद्ध प्र पु १ फ पु ८ लब्धप्रमितंगळप्पु ३a ८ विल्लि। प्र।
शरी १। फ जी १३- इश = a ८ लब्धं बादरनिगोदजीवंगलिवु क्षीणकषायन शरीर५ स्थंगळप्पुवु १३- = ० ८ ई जीवंगळोळु क्षीणकषायन प्रथमसमयदोळु अनंतबादरनिगोद
जीवंगळु मृतंगळप्पुवु । द्वितीयसमयदोळु प्रथमसमयदोळ्मृतमाद जीवराशियनावल्यसंख्यातैकभागदिदं भागिसिदेकभागमात्रविशेषाधिकंगळु मृतरप्पुत् ।।
इंतु विशेषाधिकादिदं मृतमप्पुवन्नेवरमावलिपृथक्त्वमन्नेवरमल्लि बलिकमावलिसंख्यातैकभागविशेषाधिकक्रमदिदं मृतंगळप्पु वन्नेवरं क्षीणकषायगुणस्थानकालमावल्यसंख्यातेकभागमात्रावशेषमक्कुमन्नेवरमल्लिदं बळिकमुपरितनानंतरसमयदोळु पळितोपमासंख्येयभागगुणित. जीवंगळु मृतंगळप्पुल्लिदं मेले संख्यातपल्यगुणितक्रमदिवं मृतंगळप्पुर्वन्नवरं क्षीणकषायचरम.
च एकबन्धनबद्धपुलवय आवल्यसंख्यातकभागमात्राः सन्ति । कुतः ? सर्वस्कन्धेषु असंख्यातलोकमात्रतत्प्ररूपणाभावात तदावल्यसंख्यातकभागपुलवीस्थितनिगोदशरीराणि प्रपु१।फ ।इपु ८ इति पैराशिकसिद्धानि
एतावन्ति ॐ a ८ एतेषु पुनः प्र श १ । फ जी १३-
इशरी = ० ८ इति त्रैराशिकलब्धाः
१५ १३- = ३ ८ बादरनिगोदजीवा एतावन्तः। एतेषु क्षीणकषायप्रथमसमये अनन्ता म्रियन्ते । द्वितीय
समयेऽनन्तमृतराशिमावल्यसंख्यातेन भक्त्वा एकभागाधिका नियन्ते । एवमावलिपृथक्त्वे गते आवलिसंख्यातकभागाधिकक्रमेण नियन्ते यावत्तद्गुणस्थानकाल आवल्यसंख्यातकभागमात्रोऽवशिष्यते । तदनन्तरसमये पलितो
क्षपक श्रेणिपर आरोहण करके कर्मोकी उत्कृष्ट निर्जरा करता हुआ क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती
हुआ। उसके शरीर में जघन्य और उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुलवी एक २० बन्धनबद्ध होती हैं। क्योंकि सब स्कन्धोंमें पुलवी असंख्यातलोकमात्र कहे हैं। एक-एक पुलवीमें असंख्यातलोकप्रमाण शरीर होते हैं। एक-एक शरीरमें सिद्धराशिसे अनन्तगुणे
और संसार राशिके अनन्तवें भाग जीव होते हैं । सो आवलीके असंख्यातवें भागको असंख्यातलोकसे गुणा करनेपर शरीरोंका प्रमाण होता है। उन शरीरोंके प्रमाणको एक
शरीरमें रहनेवाले निगोदिया जीवोंके प्रमाणसे गुणा करनेपर जितना प्रमाण हो,उतना एक २५ स्कन्धमें निगोदिया जीवोंका प्रमाण जानना। इनमें से क्षीणकषाय गणस्थानके प्रथम समयमें
अनन्त जीव स्वयं आयु पूरी होनेसे मरते हैं। दूसरे समयमें पहले समयमें मरे हुए जीवोंके प्रमाणमें आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर जो प्रमाण आवे, उतने अधिक जीव मरते हैं।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८३३ समयमन्नेवरमिल्लियावल्यसंख्यातेकभागमात्रपुळविगळोळु पृथक् पृथगसंख्यातलोकमात्रशरीरंगळिंदं समाकीणंगळोळु पल्यासंख्यातैकभागमृतजीवंगळ प्रमाणदिदं होनमागि स्थिताऽऽगुणित कमांशानंतानंतजीवंगळ अनंतानंतविलसोपचयसहितत्रिसरीरसंचयं सर्वजघन्यबादरनिगोदवर्गणेयक्कु वो बादरनिगोदजघन्यवर्गणेये एकपरमाणुविदं हीनमादुदादोडा उत्कृष्टध्रुवशून्यवर्गणेयक्कं
उ = स ख ख १२-१६ ख १३ = ८५ बादरनिगोदोत्कृष्टवर्गणेयावेडयोळु संभवि- ५
ача ध्रुवशून्यवग्गंणा : ९८०५ जस ३२० ख ख १२ १६ ख ८ सुगुमेकदोडे कर्मभूमिप्रतिबद्धस्वयंभूरमणद्वीपद मूलकाविशरीरंगळोळेकबंधनबद्धंगळप्प जगच्छे.
पमासंख्यातकभागगुणा म्रियन्ते । ततः संख्यातपल्यगुणितक्रमेण म्रियन्ते, यावत्क्षीणकषायचरमसमयस्तावत् । तत्रावल्यसंख्यातैकभागपुलविषु पृथक्पृथगसंख्यातलोकमात्रशरीराकीर्णेषु पल्यासंख्यातकभागमृतजीवप्रमाणेनोना गुणितकर्मीशानन्तानन्तजीवानामनन्तानन्तविस्रसोपचयसहितत्रिशरीरसंचयो जघन्यवादरनिगोदवर्गणा भवति इयमेवैकाणुना हीना सती उत्कृष्टध्रुवशून्यवर्गणा भवति
१०
उ . स
ख ख १२-१६ ख १३-
=०८ प
aa
धुवसुण्णा
.
ज ० स ३२ aa ख ख १२-१६
स्वयंभूरमणद्वीपस्य मूलकादिशरीरेष्वेकबन्धनबद्ध जगच्छ्रे ण्यसंख्येयभागमात्रपुलविषु स्थितानां गुणित
इस प्रकार क्षीणकषाय गुणस्थानके प्रथम समयसे लेकर आवली पृथक्त्वकाल तक आवलीके असंख्यातवें भाग अधिक जीव प्रतिसमय क्रमसे तबतक मरते हैं,जबतक क्षीणकषाय गुणस्थानका काल आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र शेष रहता है। उसके अनन्तर समयमें पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणित जीव मरते हैं। उसके पश्चात् पूर्व-पूर्व समयमें मरे १५ जीवोंको संख्यात पल्यसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो, उतने-उतने जीव क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समयपर्यन्त प्रति समय मरते हैं। सो अन्तके समयमें अलग-अलग असंख्यातलोक मात्र शरीरोंसे युक्त आवलीके असंख्यातवें भाग पुलदियों में जो गुणितकांश जीव सरे,उनसे हीन शेष जो अनन्तानन्त जीव गुणित काश रहे,उनके विस्रसोपचय सहित जो औदारिक, तैजस और कार्मण शरीरके परमाणुओंका स्कन्ध,वह जघन्य बादरनिगोदवर्गणा है। इसमें २०
१०५
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८३४
गो० जीवकाण्डे ण्यसंख्येयभागमात्र पुळविगळोळिरुतिई गुणितकम्मांशानंतानंतजीवंगळ सविनसोपचय त्रिशरीरसंचयमं कोळुत्तिरलक्कुं:
उस ३२० ख ख १२-१६ख १३ 200a बादरनिगोद ९५
ज स
ख ख १२-१६ ख १३८ प
९ ५प
ई बादरनिगोदोत्कृष्टवर्गणेयोळेकरूपमनधिक माडुत्तिरलु तृतीयशून्यवर्गणेगळो जघन्यवर्गणेयक्कुं तृतीय शून्यः जस ३२ ० ० ख ख १२- १६ ख १३-= ४८
९७५ ५ सूक्ष्मनिगोदजघन्यवर्गणेयावर्डयोलु संभविसुगुमे दोडे जलदोळु स्थलदोळमाकाशदोळमेणु
कर्माशानन्तानन्तबादरनिगोदजीवानां सविस्रसोपचयत्रिशरीरसंचयः उत्कृष्टबादरनिगोदवर्गणा भवति
उ ० स ३२ ख ख १२-१६ ख १३-=ala बादरणिगोदसरीर :
९ .
ज ० स
ख ख १२-१६ ख १३-aa८ प
a a ९ 2 .५ प
a
इयमेकरूपाधिका तृतीयशून्यवर्गणाजघन्यं भवति
-- ॥ -- तियसुण्णवग्गणा ज स ३२aaख ख १२-१६ ख १३-Bala
९
०५
एक परमाणु हीन करनेपर उत्कृष्ट ध्रुव शून्यवर्गणा होती है। तथा इस जघन्यको जगत् श्रेणिके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा होती है। स्वयम्भू
रमणद्वीपमें जो मूलक आदि सप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पतियोंके शरीर हैं, उनमें एक बन्धनबद्ध १० जगत्श्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण पुलवियोंमें रहनेवाले गुणितकर्माश अनन्तानन्त बादर
निगोद जीवोंका जो विस्रसोपचय सहित औदारिक तैजस कार्मणशरीरका उत्कृष्ट संचय है,
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२
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
८३५ एकबंधनबद्धावल्यसंख्यातेकभागमात्रपुळ विगळोळिरुत्तिई क्षपितकर्मांशानंतानंतसूक्ष्मनिगोदंगळ सविनसोपचयत्रिशरीरसंचयमं कोळुत्तिरलक्कु
सूक्ष्मनिगोद जस 3 3 ख ख १५- १६ ख १३२८४१।२१८-८२०
gay- aa इदरोळेकरूपं कळेयुत्तिरलु तृतीयशून्यवर्गणेगळोळु उत्कृष्टवर्गणेयकुं :उ स ख ख १५ १६ ख १३ - ८ = ०८ २ ० इल्लिबोधनित दं बादरनिगोदोत्कृष्टतृतीयशून्यवर्ग वर्गणयोळु पुळविगळु श्रेण्यसंख्येयभागमात्रंगळु जघन्यसूक्ष्मनिगोदवर्गणेयोलु पुळविगळु आवल्यसंख्यातकभागमानंगळदुकारणमागियुत्कृष्टबादरनिगोदवर्गयि केळगे सूक्ष्मनिगोदजधन्यवर्गणेया- ५ गलेवेळकुमे दने दोडिदु दोषमल्तेके दोडे बादरनिगोदवर्गणेगळ निगोदशरोरंगळं नोडलु सूक्ष्मनिगोदवर्गणाशरीरंगळगे सूच्यंगुलासंख्यातकभागमात्रगुणकारोपलंभमप्पुरिदं । सूक्ष्मनिगोद
जले स्थले आकाशे वा एकबन्धनबद्धावल्यसंख्यातकभागपुलविषु स्थितानां क्षपितकर्माशानन्तानन्तसूक्ष्मनिगोदानां सविस्रसोपचयत्रिशरीरसंचयः सूक्ष्मनिगोदजघन्यवर्गणा भवति ।
ज स aa ख ख १२-१६ ख १३-
८
२८० इयमेकरूपोना तृतीयशून्यवर्गणोत्कृष्टं भवति- १. aa
तिय उ ० स ० ३ ख ख १२-१६ ख १३-८ = २८ । ननु बादरनिगोदवर्गणोत्कृष्ट पुलवयः सुण्णवग्गणा
९ : ०५ श्रेण्यसंख्येयभागः सूक्ष्मनिगोदवर्गणाजघन्ये तु आवल्यसंख्यातकभागः तेन तदधोऽनेन भाव्यम् इति, तन्न-बादरनिगोदवर्गणानिगोदशरीरेभ्यः सूक्ष्मनिगोदवर्गणाशरीराणां सूच्यङ्गुलासंख्यातकभागगुणकारोपलम्भात् । सूक्ष्मवह उत्कृष्ट बादरनिगोदवर्गणा है। उसमें एक परमाणु अधिक होनेपर तीसरी शून्यवर्गणाका जघन्य होता है। वह कैसे है सो कहते हैं-जल-थल अथवा आकाशमें एकबन्धनबद्ध १५ आवलीके असंख्यातवें भाग पुलवियोंमें क्षपितकांश अनन्तानन्त सूक्ष्म निगोद जीव रहते हैं, उनके विस्रसोपचय सहित औदारिक तैजस कार्मणशरीरका संचय सूक्ष्म निगोद जघन्य वर्गणा है। उसमें एक परमाणु हीन करनेपर तीसरी शून्यवर्गणाका उत्कृष्ट होता है।
शंका-बादरनिगोदवर्गणाके उत्कृष्ट में पुलवियाँ श्रेणिके असंख्यातवें भाग कही हैं और सूक्ष्म निगोदवर्गणाके जघन्यमें आवलीके असंख्यातवें भाग कही हैं। अतः बादरनिगोद २० वर्गणासे पहले सूक्ष्म निगोदवर्गणा होनी चाहिए। क्योंकि पुलवियोंका प्रमाण बहुत होनेसे परमाणुओंका प्रमाण बहुत होना सम्भव है ? १. म चोदक ।
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८३६
गो० जीवकाण्डे दुत्कृष्टवर्गणगे संभवमावडेयोळक्कु दोडे महामत्स्यशरीरदोळु एकबंधनबद्धावल्यसंख्यातेकभागमात्रभुळविगळोळिरुतिर्द गुणितकाशानंतानंतजीवंगळसविनसोपचयत्रिशरीरसंचयमं ग्रहि
सुत्तिरलक्कुं:- उस ३२ ३ ख ख १२- १६ ख १३-८३ ० ८ सू २३
aa सूक्ष्मनिगोद मेलणेरडुवर्गणेगळु सुगमंगळदेते दोडे सूक्ष्मनिगोदुत्कृष्टवर्गणेयोळेकरूपं कूडिदोडे नभोवर्गणगळोळु जघन्यवर्गणेयक्कुं:
जस ३२ ख ख १२-१६ ख १३-८ = २ ८ सू २०
नभोवर्गणा ५ ई जघन्यवर्गणेयं प्रतरासंख्येयभागदिवं गुणिसुत्तिरलु नभोवर्गणगोत्कृष्टवर्गणयक्कुं:
उस ३२ ४ ख ख १२- १६ ख १३-८३ ० ८ सू २ ० ० नभोवग्गणा निगोदवर्गणोत्कृष्टं महामत्स्यशरीरे एकबन्धनबद्धावल्यसंख्यातकभागमात्रपुलविस्थितगुणितकर्माशानन्तानन्तजीवानां सविनसोपचयत्रिशरीरसंचयो भवति
सुहमणि उस ३२
ख ख १२-१६ ख १३-८.३८ सू २a
९ = ५ इदं एकरूपयुतं नभोवर्गणाजघन्यं भवति
-- ॥ .. णभवग्ग ज स ३२ aaख ख १२-१६ ख १३-
८
८ सू २०
२a aa ५
९
:
इदं प्रतरासंख्येयभागगुणितं नभोवर्गणोत्कृष्टं भवति
णभवग्ग उ स ३२ ० ३ ख ख १२-१६ ख १३-
८
० ८ सू २ aa
a a
.
९ ॐ ३५
समाधान-नहीं, क्योंकि बादरनिगोदवर्गणाके शरीरोंसे सूक्ष्म निगोदवर्गणाके शरीरोंका प्रमाण सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गुणित है। इससे वहाँ जीव भी बहुत हैं। अतः १० उन जीवोंके तीन शरीर सम्बन्धी परमाणु भी बहुत हैं । जघन्य सूक्ष्म निगोदवर्गणाको पल्यके
.
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८३७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ई नभ उत्कृष्टवर्गणेयोळेकरूपं कूडुतिरलु महास्कंधवर्गणेगळोळु जघन्यवर्गणेयकुं:
११
जस ३२० ख ख १२-१६ ख १३-८० ० ८ सू २a महास्कंधवर्गणा
९५ ० ० ई महास्कंधदजघन्यवरर्गयो तज्जघन्यराशियं पल्यासंख्यातदिदं खंडिसिदेकभागमं कूडुत्तिरलु महास्कंधवगर्गणेगळोळत्कृष्टवर्गणेयक्कु अप्पुरिदं :
उस ३२३ ख ख १२- १६ ख १३-८- ८-सू२० प
aaa महास्कंध
९:५३ इंतेकश्रेणियनाश्रयिसि त्रयोविंशतिवर्गणेगळ्पेळल्पटुवु ।
अत्रैकरूपे युते महास्कन्धवर्गणाजधन्यं भवति
महास्कन्ध जस ३२aaख ख १२-१६ ख १३-८=८सू २aa
अत्र अस्यैव पल्यासंख्यातेकभागे युते महास्कन्धवर्गणोत्कृष्टं भवति
महास्कन्ध उ स ३२paख ख १२-१६ ख १३-
८
८ सू२aaप a aa
a
एवमेकश्रेणिमाश्रित्य त्रयोविंशतिवर्गणा उक्ताः ॥५९४-५९५॥
असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर उत्कृष्ट सूक्ष्मनिगोदवर्गणा होती है। सो कैसे, यह कहते हैं
महामत्स्यके शरीरमें एक बन्धनबद्ध आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुलवियोंमें स्थित १० गुणितकर्माश अनन्तानन्त जीवोंके विस्रसोपचय सहित औदारिक, तैजस, कार्मण शरीरोंके परमाणुओंके स्कन्ध हैं,वहीं उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोदवर्गणा होती है। उसमें एक परमाणु अधिक करनेपर नभोवर्गणाका जघन्य होता है। इसको जगत्प्रतरके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर नभोवर्गणाका उत्कृष्ट होता है। उसमें एक बढ़ानेपर महास्कन्धवगंणाका जघन्य होता है। इसमें उसीका पल्यका असंख्यातवाँ भाग बढ़ानेपर महास्कन्धवर्गणाका उत्कृष्ट १५ होता है । इस प्रकार एक श्रेणिके रूपमें तेईस वर्गणाएँ कहीं ॥५९४-५९५॥
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८३८
गो० जीवकाण्डे उक्तार्योपसंहारमं माडुत्तं त्रयोविंशतिवर्गणेगळ्गेजघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टाजघन्य भेदमुमं तदल्पबहुत्वमुमं गाथाषट्कदिदं पेळ्दपं :
परमाणुवग्गणाम्मि ण अवरुक्कस्सं च सेसगे अस्थि ।
गेज्झमहाक्खंधाणं वरमहियं सेसगं गुणियं ॥५९६॥ परमाणुवर्गणायां नावरोत्कृष्टं च शेषकेऽस्ति । ग्राह्यमहास्कंधानां वरमधिकं शेषकं गुणितं॥
परमाणुवर्गणेयोनु जघन्योत्कृष्टविशेषमिल्लेके दोडे परमाणुगळु निम्विकल्पंगळप्पुरिदं शेषसंख्यातवर्गणादि महास्कंधावसानमाद द्वाविंशतिवर्गणेगळोळु जघन्योत्कृष्टादिविशेषं अस्ति उंदु। आ द्वाविंशतिवर्गणेगळोळू ग्राह्यमहास्कंधानां आहारतेजोभाषामनःकार्मणवर्गणेगळु
ग्राह्यमें बुदक्कुमवरुत्कृष्टवर्गणेगळं महास्कंधोत्कृष्टवर्गणेयुम बीयार वर्गणेगळु तंतम्म जघन्यमं १० नोडलु विशेषाधिकंगळु, बुळिद पदिनारं वर्गणेगळुत्कृष्टवर्गणेगळु तंतम्म जघन्यमं नोडलु गुणितंगळप्पुवु।
सिद्धाणंतिमभागो पडिभागो गेज्झगाण जेट्टठें ।
पल्लासंखेज्जदिमं अंतिमखंधस्स जेट्टठें ॥५९७॥
सिद्धानामनंतैकभागः प्रतिभागो ग्राह्याणां ज्येष्ठात्थं । पल्यासंख्येयभागोंतिमस्कंधस्य १५ ज्येष्ठात्थं ॥
ई ग्राह्यवर्गणापंचकोत्कृष्टवर्गणानिमित्तमागि प्रतिभागहारं सिद्धानंतैकभागमात्रमक्कुमा भागहारदिदं तंतम्म जघन्यमं भागिसिदेकभागमना जघन्यद मेले कूडिदोडे तंतम्मुत्कृष्टवर्गणेगळप्पुर्वे बुदत्थं । अंतिममहास्कंधोत्कृष्टवर्गणानिमित्तमागि प्रतिभागहारं पल्यासंख्यातेकभागमात्रमक्कुमावल्यासंख्यातेकभागदिदं जघन्यवर्गणेयं भागिसिदेकभागमना जघन्यदोळु कूडिदोडे
उक्तार्थमुपसंहरन् तासामेव जघन्योत्कृष्टानुत्कृष्टाजघन्यानि तदल्पबहुत्वं च गाथाषट्केनाह
परमाणुवर्गणायां जघन्योत्कृष्टे न स्तः, अणूनां निर्विकल्पकत्वात् शेषद्वाविंशतिवर्गणानां तु स्तः । तत्र ग्राह्याणां आहारतेजोभाषामनःकार्मणवर्गणानां महास्कन्धवर्गणायाश्च उत्कृष्टानि स्वस्वजघन्याद्विशेषाधिकानि शेषषोडशवर्गणानां गुणितानि भवन्ति ॥५९६।।
तत्र पञ्चग्राह्यवर्गणानामुत्कृष्टनिमित्तं प्रतिभागहारः सिद्धानन्तकभागः, तेन स्वस्वजघन्यं २५ भक्त्वा तत्रैव निक्षिप्ते स्वस्वोत्कृष्टं भवतीत्यर्थः । अन्तिममहास्कन्धोत्कृष्टनिमित्तं प्रतिभागहारः पल्यासंख्या
उक्त कथनका उपसंहार करते हुए उन्हीं वर्गणाओंके जघन्य, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और अजघन्य भेदों तथा अल्पबहुत्वको छह गाथाओंसे कहते हैं
परमाणुवर्गणामें जघन्य-उत्कृष्ट भेद नहीं है, क्योंकि परमाणु निर्विकल्प-भेद रहित होते हैं। शेष बाईस वर्गणाओंमें तो जघन्य-उत्कृष्ट हैं। उनमें से जो ग्राह्यवर्गणा, आहार३० वर्गणा, तेजसशरीरवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा, कामणवर्गणा तथा महास्कन्धवर्गणा
हैं। इनके उत्कृष्ट अपने-अपने जघन्यसे विशेष अधिक हैं, शेष सोलह वर्गणाओंके गुणित हैं ।।५९६॥
उनमें से पाँच प्रायवर्गणाओंका उत्कृष्ट लानेके लिए प्रतिभागहार सिद्धराशिका अनन्तवाँ भाग है। उससे अपने-अपने जघन्यमें भाग देकर जो लब्ध आवे, उसे उसी
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८३९ तन्महास्कंधोत्कृष्टवर्गणेयक्कुमबुदत्थं ।
संखेज्जासंखेज्जे गुणगारो सो दु होदि हु अणते ।
चत्तारि अगेज्झेसु वि सिद्धाणमणंतिमो भागो ॥५९८॥ संख्यातासंख्यातयोव्वर्गणयोग्र्गुणकारौ तौ तु भवतः खलु अनंते । चतुर्वग्रा ह्येष्वपि सिद्धानामनंतैकभागः॥
संख्यातवर्गणेयोळं असंख्यातवगंणेयोळं तंतम्मुत्कृष्टवर्गणानिमित्तमागि गुणकारं यथासंख्यमागि तु मत्त तौ आ संख्यातमुमसंख्यातमुं भवतः अप्पुवु। अदेतेदोडे संख्यातवर्गणाजघन्यराशियनुत्कृष्टसंख्यातार्द्धदिदं गुणिसिदोडे संख्यातोत्कृष्टवर्गणेयक्कु २१५ अपत्तितमिदु
२
१५ । असंख्यातवर्गणाजघन्यराशियं परिमितासंख्यातजघन्यमं तद्राशिविभक्तद्विकवारासंख्यातोस्कृष्टरार्शाियदं गुणिसुत्तिरलु तदुत्कृष्टवर्गणेयक्कु १६०२५५ मपतितमिदु २५५ । अनंतदोळम- १०
१६
ग्राह्यचतुष्टयदोळं तदुत्कृष्टवर्गणानिमित्तं गुणकारं सिद्धानंतैकभागमात्रमक्कुमा गुणकारदिदं तंतम्म जघन्यवर्गणेयं गुणिसुत्तिरलु तंतम्मुत्कृष्टवर्गणेगळप्पुबुदत्थं ।
जीवादोणंतगुणो धुवादितिण्हं असंखभागो दु ।
पल्लस्स तदो तत्तो असंखलोगव हिदो मिच्छो ॥५९९।। जीवादनंतगुणो ध्रुवादितिसृणां असंख्यातभागस्तु पल्यस्य ततस्ततोऽसंख्यलोकापहृत- १५ मिथ्यादृष्टिः॥
तकभागः ॥५९७॥
तु-पुनः संख्यातासंख्यातवर्गणयोरुत्कृष्टार्थं स्वस्वजघन्यस्य गुणकारः स संख्यातवर्गणायां स्वजघन्यभक्त
स्वोत्कृष्टमात्रसंख्यातः १५ असंख्यातवर्गणायां स्वजघन्यभक्तस्वोत्कृष्टमात्रासंख्यातो भवति २५५ ताभ्यां
१६
स्वस्वजघन्यं गुणयित्वा २ । १५ । १६ । २५५ अपवर्तिते १५ । २५५ खलु स्फुटं तयोरुत्कृष्ट स्याताम् इत्यर्थः। २०
अनन्तवर्गणायां अग्राह्यवर्गणाचतुष्के च उत्कृष्टार्थ गुणकारः सिद्धानन्तकभागः ॥५९८॥
जघन्यमें मिलानेपर अपना-अपना उत्कृष्ट होता है। अन्तिम महास्कन्धका उत्कृष्ट लानेके लिए भागहार पल्यका असंख्यातवाँ भाग है॥५९७॥
संख्याताणुवर्गणा और असंख्याताणुवर्गणामें अपने-अपने उत्कृष्ट में अपने-अपने जयन्यसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उतना ही गुणाकार होता है। उनसे अपने-अपने जघन्यको गुणा करनेपर अपना-अपना उत्कृष्ट होता है। अनन्ताणुवर्गणा और चार अग्राह्य- २५ वर्गणामें उत्कृष्ट लानेके लिए गुणाकार सिद्धराशिका अनन्तवाँ भाग है ॥५९८॥
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८४०
गो. जोवकाण्डे सर्वजीवराशियं नोडलनंतगुणितमप्प गुणकारं ध्रुवादि मूरु वर्गणेगळुत्कृष्टवर्गणानिमित्तगुणकारप्रमाणमक्कुमा गुणकारदिदं तंतम्म जघन्यवर्गणयं गुणिसुत्तं विरलु तंतम्मुत्कृष्टवर्गणगळप्पुबुदत्यं । तु मत्तं ततः अल्लिदं मेलण प्रत्येकशरीरवर्गणेगळुत्कृष्ट वर्गणानिमित्तमागि
गुणकारं पल्यासंख्यातेकभागमक्कुमा गुणकारगुणित तज्जघन्यवर्गणेये प्रत्येकशरीरवर्गणोत्कृष्ट५ वर्गणेयक्कुम बुदर्थमिल्लि पल्यासंख्यातैकभागगुणकारमें ते बोडे :-प्रत्येकशरीरस्थजीवकार्मण
शरीरसमयप्रबद्धं गुणितकाशजीवप्रतिबद्धमप्पुरिंदमुत्कृष्टयोगाज्जितमप्पुरदं । तज्जघन्यसमयप्रबद्धमं नोडलु पल्यच्छेदासंख्यातैकभागगुणितमक्कुमदक्के संदृष्टि द्वात्रिंशदंकमक्कुमप्पुरदं तज्जघन्यवर्गणेयं तद्गुणकारदिदं गुणिसुत्तिरलु तदुत्कृष्टवग्गंणेययक्कुम बुदत्थं । ततः इल्लिदं
मेलण ध्रुवशून्यवर्गणेगळोळु तदुत्कृष्टवर्गणानिमित्तगुणकारमसंख्यातलोकविभक्तसर्वमिथ्यादृष्टि१० राशियक्कु १३ मो गुणकारदिदं गुणिसिव तज्जघन्यराशि ध्र वशून्यवर्गणोत्कृष्टवर्गणाप्रमाणमे बुदत्थं।
सेढीसूईपल्लाजगपदरासंखभागगुणगारा ।
अप्पप्पण अवरादो उक्कस्सा होति णियमेण ॥६००॥ श्रेणोसूचीपल्यजगत्प्रतरासंख्यभागगुणकाराः। स्वस्वावरायाः उत्कृष्टा भवंति नियमेन ॥
श्रेण्यसंख्यातकभागमुं सूच्यंगुलासंख्यातेकभाग, पल्यासंख्यातेकभागमुं जगत्प्रतरासंख्यातैकभागमुं यथासंख्यमागि बादरनिगोदशून्य-सूक्ष्मनिगोदनभोवर्गणेगळुत्कृष्टवर्गणानिमित्तगुणकारंगळप्पुवु।
सर्वजीवराशितोऽनन्तगुणो ध्र वादितिसृणां वर्गणानां उत्कृष्टनिमित्तं गुणकारो भवति । तु पुनः तदुपरितनप्रत्येकशरीरवर्गणोत्कृष्टनिमित्तं पल्यासंख्यातकभागः। कुतः ? - प्रत्येकशरीरस्थकार्मणसमयप्रबद्धानां २० गुणितकर्मीशजीवप्रतिबद्धत्वेन जघन्यसमयप्रबद्धात् छेदासंख्येयगुणितत्वात् । तत्संदृष्टिः द्वात्रिंशत् । तथा जघन्ये
गुणिते तदुत्कृष्टं भवतीत्यर्थः । ततः ध्र वशून्यवर्गणोत्कृष्टनिमित्तं गुणकारः असंख्यातलोकभक्तसर्वमिथ्यादृष्टिराशिः १३-= a ॥५९९।।
१५
श्रेणिसूच्यङ्गुलपल्यजगत्प्रतराणामसंख्यातकभागाः क्रमशः बादरनिगोदशून्यसूक्ष्मनिगोदवर्गणोत्कृष्टनिमित्तं गुणकारा भवन्ति । तत्र शून्यवर्गणायां सूच्यङ्गुलासंख्यातगुणकारस्तु सूक्ष्मनिगोदवर्गणाजघन्ये रूपोने
ध्रुव आदि तीन वर्गणाओंके उत्कृष्ट के लिए गुणाकार समस्त राशिसे अनन्तगुणा है। उससे ऊपरकी प्रत्येक शरीरवर्गणाका उत्कृष्ट लानेके लिए पल्यका असंख्यातवाँ भागमात्र गुणाकार है। क्योंकि प्रत्येक शरीरवर्गणामें जो कार्मण शरीरके समयप्रबद्ध हैं, वे गुणितकाश जीवसम्बन्धी हैं,अतः जघन्य समयप्रबद्धसे पल्यके अर्धच्छेदोंके असंख्यातवें भाग गुणे हैं । उसकी संदृष्टि बत्तीस है। उससे जघन्यमें गुणा करनेपर उसका उत्कृष्ट होता है। ध्रुवशून्यवर्गणाके उत्कृष्टके लिए गुणाकार सब मिथ्यादृष्टियोंकी राशिमें असंख्यातलोकसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे उतना है ॥५९९॥
बादरनिगोदवर्गणा, शून्यवर्गणा, सूक्ष्मनिगोदवर्गणा और नभोवर्गणाके उत्कृष्ट लानेके लिए गुणाकार क्रमसे श्रेणिका असंख्यातवाँ भाग, सूच्यंगुलका असंख्यातवाँ भाग, पल्यका
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८४१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका आ गुणकारंगळिदं तंतम्म जघन्यवर्गणेयं गुणिसिदोडे तंतम्मुत्कृष्टवर्गणेगळप्पुबुदर्थमवरोळ शून्यवर्गणेयोल सूच्यंगुलासंख्यातगुणकारमैते दोडे :-सूक्ष्मनिगोदजघन्यवर्गणेयोळळळ सूच्यंगुलासंख्यातं तद्वर्गणयोळेकरूपहीनमागि शून्यवर्गणोत्कृष्टवर्गणेयादुदप्पुदरिना गुणकारं तज्जघन्यदोळिल्लप्पुरदं सूक्ष्मनिगोदवर्गणेयोल पल्यासंख्यातगुणकारमें तें वोडे गुणितकमांशजीवप्रतिबद्धसमयप्रतिबद्धमुत्कृष्टयोगाजितमप्पुरिदं पल्यच्छेदासंख्यातेकभागं गुणकारमप्पुरिंद। ५ ____इंतु त्रयोविंशतिवर्गणेगळेकश्रेण्याश्रितंगळु पेळल्पटुविन्नु नानाश्रेणियनायिसि पेळल्पटुपुवदेते दोड:-परमाणुवर्गणे मोदल्गोंडु सांतरनिरंतरवर्गणोत्कृष्टवर्गणावसानमाद वर्गणेगळ सदृशधनिकवर्गणेगळु अनंतपुद्गलवर्गमूलमात्रंगळागुत्तलं मेले मेले विशेषहीनंगळप्पुवल्लि प्रतिभागहारं सिद्धानंतैकभागमक्कुं। प्रत्येकदेहजघन्यसदृशधनिकंगळु वर्तमानकालदो क्षपितकाशलक्षदिदं बंदयोगिचरमसमयदोळु नाल्केयप्पुवु । ४। वुत्कृष्टवग्गंणेगळु वर्तमानकालदोळ १० एनितु संभविसुगुम दोडे स्वयंभूरमणद्वीपदकाळिकच्चु मोदलादवरोळु आवल्यसंख्यातेकभागमात्रंगळु संभविसुववु । बादरनिगोदजघन्यवर्गणेगळु वर्तमानकालदोळे नितु संभविसुगुमें दोड क्षीणकषायचरमसमयदोळु नाल्केयप्पुवु । तदुत्कृष्टवर्गणेगळु महामत्स्यादिगळोळु आवल्य
सति तदुत्कृष्टसंभवात् । सूक्ष्मनिगोदवर्गणायां पल्यासंख्यातगुणकारोऽपि तत्समयप्रबद्धानां गुणितकर्माशजीवप्रतिबद्धत्वात् । एवं त्रयोविंशतिवर्गणा एकश्रेण्याश्रिताः कथिताः। इदानीं नानाश्रेणीराश्रित्योच्यन्ते-तद्यथा- १५ परमाणुवर्गणातः सांतरनिरन्तरोत्कृष्टावसानवर्गणानां सदृशधनिकानि अनन्तपुद्गलवर्गमूलमात्राण्यपि उपर्युपरि विशेषहीनानि भवन्ति । तत्र प्रतिभागहारः सिद्धानन्तकभागः । प्रत्येकदेहजघन्यसदृशधनिकानि वर्तमानकाले क्षपितकौशलक्षणेनागत्य अयोगिचरमसमये चत्वारि । उत्कृष्टानि स्वयम्भरमणद्वीपस्य दावानलादिषु आवल्यसंख्यातकभागमात्राणि बादरनिगोदजघन्यानि वर्तमानकाले क्षीणकषायचरमसमये चत्वारि तदुत्कृष्टानि असंख्यातवाँ भाग और जगत्प्रतरका असंख्यातवाँ भाग होता है, यहाँ जो शून्यवर्गणामें २० सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग गुणाकार कहा है, उसका कारण यह है कि सूक्ष्म निगोदवर्गणाके जघन्यमें से एक घटानेपर शून्यवर्गणाका उत्कृष्ट होता है। सूक्ष्म निगोद वर्गणामें गुणाकार पल्यके असंख्यातवें भाग कहा है सो उसके समयप्रबद्ध गुणित कांश जीवसे सम्बद्ध होनेसे कहा है। इस प्रकार एक श्रेणि रूपसे तेईस वर्गणाएँ कहीं। अब नाना श्रेणियोंको लेकर कहते हैं
अर्थात् जो ये वर्गणा कही हैं,वे लोकमें वर्तमान कोई एक कालमें कितनी-कितनी पायी जाती हैं, यह कहते हैं-परमाणुवर्गणासे लेकर सान्तनिरन्तरवर्गणा पर्यन्त पन्द्रह वर्गणाएँ समानधनवाली हैं। ये पुद्गल द्रव्यराशिके वर्गमूलको अनन्तसे गुणा करनेपर जो प्रमाण हो उतनी-उतनी लोकमें पायी जाती हैं, किन्तु आगे-आगे कुछ-कुछ कम होती जाती हैं। इनमें प्रति भागहार सिद्धराशिका अनन्तवाँ भाग है अर्थात् जितनी अणुवर्गणाएँ हैं, उनमें ३० सिद्धराशिके अनन्तवें भागसे भाग देनेपर जो प्रमाण आये, उतना अणवर्गणाके परिमाण में-से घटानेपर जो प्रमाण शेष है, उतनी संख्याताणुवर्गणा जगत्में होती हैं। इसी प्रकार आगे जानना। किन्तु सामान्यसे प्रत्येक पृथक्-पृथक् वर्गणाका प्रमाण अनन्त पुद्गल राशिका वर्गमूल मात्र है। प्रत्येक शरीरवर्गणाका जघन्य वर्तमानकालमें क्षपितकाशरूपसे आकर अयोगकेवलीके अन्त समयमें पाया जाता है,सो उत्कृष्टसे चार है। उत्कृष्ट प्रत्येक शरीरवर्गणा ३५
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८४२
गो० जीवकाण्डे
संख्या तक भागमात्रंगळवु । सूक्ष्मनिगोदजघन्यवर्ग णेगळु सदृशधनिकंगळ जलदोळं स्थलदोळमाकाशदोळं मे आवल्यसंख्यातक भागमात्रंगळप्पुवु । उत्कृष्टवर्गणेगळु सूक्ष्मनिगोदसंबंधिगळ तु मत्ते वर्त्तमानकालदोळु महामत्स्यंगळोळावल्यसंख्यातैकभागमात्रंगळप्पुवु । ई मूरु सचित्तवर्गणेगळोळु जघन्यानुत्कृष्टवर्गणेगळु वर्त्तमानकालदोळ संख्यात लोकमात्रंगळप्पु वु । महास्कंधवर्गणेगळ ५ वर्त्तमानकालदो तु मत्ते एकमेयक्कुं । महास्कंधर्म बुदावुदे दोडे भवनंगळं विमानंगलुमष्टपृथ्विगळु मेरुगळं कुलशैलादिगळगे की भावमक्कुमदाव तेरदिदमसंख्यातयोजनंगळनंतरिसिद्दवक्कै - कत्वमे दोडे एक बंधन बद्धसूक्ष्मपुद्गलस्कंधंगळदं समवेतंगळगंतराभावमक्कुमरपुर्दारदं । मिस्सं पुण वहियं उवरिमं जहण्णं खु ।
इदि तेवीसवियप्पा पोग्गलदव्वा हु जिणादिट्ठा ॥ ६०१ ॥
अधस्तनोत्कृष्टा: पुना रूपाधिका उपरितनजघन्याः खलु । इति त्रयोविंशतिविकल्पाः पुद्गलद्रव्याणि खलु जिनदृष्टानि ॥
ई. त्रयोविंशतिवर्गणेगळोळु परमाणुवणेयुळियलुळिद द्वाविंशतिवरांणेगळ अधस्तनोस्कृष्टवर्गणेगळु रूपाधिकमादुवादोडे तत्तदुपरितनवर्गणेगळ जघन्यवर्गणेगळप्पूवु खलु नियमदिदम त्रयोविंशतिवर्गणाविकल्पंगळु पुद्गलद्रव्यंगळे दु जिनरुगळदं पेळल्पट्टुवु खलु स्फुट१५ महामत्स्यादिषु आवल्यसंख्यातैकभागः । सूक्ष्मनिगोदजघन्यानि वर्तमानकाले जले स्थले आकाशे वा आवल्यसंख्यातैकभागः । उत्कृष्टान्यपि महामत्स्येषु तदालापानि । अस्मिन् सचित्तवर्गणात्रये अजघन्यानुत्कृष्टानि वर्तमानकाले असंख्यातलोकमात्राणि भवन्ति । महास्कन्धवर्गणा वर्तमानकाले एका सा तु भवनविमानाष्टपृथ्वीमरुकुलशैलादीनामेकीभावरूपा । कथं संख्याता संख्यातयोजनान्तरितानामेकत्वं ? एकबन्धनबद्ध सूक्ष्मपुद्गलस्कन्धैः समवेतानामन्तराभावात् ॥ ६०० ॥
१०
२०
त्रयोविंशतिवर्गणासु अणुवर्गणातः शेषाणां अधस्तनवर्गणोत्कृष्टानि रूपाधिकानि भूत्वा तदुपरितनवर्गणानां जघन्यानि भवन्ति खलु नियमेन इति त्रयोविंशतिवर्गणाविकल्पानि पुद्गलद्रव्याणि जिनैरुक्तानि
स्वयम्भूरमण द्वीप दावानल आदि में आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पायी जाती है। बादरनिगोदवर्गणाका जघन्य वर्तमानकाल में क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिम समय में चार पाया जाता है । उत्कृष्ट बादर निगोदवर्गणा महामत्स्य आदिमें आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण २५ पायी जाती है । सूक्ष्म निगोदवर्गणाका जघन्य वर्तमानकाल में जल, स्थल अथवा आकाशमें आवलीके असंख्यातवें भाग पाया जाता है । उसका उत्कृष्ट भी महामत्स्योंमें आवलीके असंख्यातवें भाग पाया जाता है । प्रत्येक शरीर, बादरनिगोद और सूक्ष्मनिगोद इन तीन सचेतन वर्गणाओंमें अजघन्य और अनुत्कृष्ट अर्थात् मध्यमभेद वर्तमानकाल में असंख्यात लोकमात्र पाये जाते हैं। वर्तमानकाल में महास्कन्धवर्गणा एक है, वह भवनवासियोंके देवोंके विमान, आठ पृथिवियाँ, सुमेरु कुलाचल आदिका एक स्कन्धरूप है 1 शंका-उनमें तो संख्यात असंख्यात योजनका अन्तराल है, वे एक कैसे हैं ?
भवन,
३०
समाधान -- उनके मध्यमें जो सूक्ष्म पुद्गल स्कन्ध हैं, वे सब उक्त विमानादिके साथ एक बन्धनमें बद्ध होनेसे उनमें अन्तराल नहीं है ||६००||
तेईस वर्गणाओंमें-से अनुवर्गणाको छोड़कर शेष नीचेकी वर्गणाओंके उत्कृष्ट में एक ३५ अधिक करनेसे नियमसे ऊपरकी वर्गणाओंके जघन्य होते हैं । इस प्रकार जिनदेवने तेईस
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
८४३ मागि। ई त्रयोविंशतिवर्गणेगळोळ प्रत्येकवर्गणेयुं बादरनिगोदवर्गणयुं सूक्ष्मनिगोदवर्गणेयुमें 'बी मूलं वग्गणेगळु सचित्तवर्गणेगळवरोळु अयोगिचरमसमयदोळु प्रथमप्रत्येकशरीरवर्गणेयोळ जघन्यवरांणाद्रव्यं स्यादस्ति स्यान्नास्ति यद्यस्ति तदा एक मेणु द्वयं मेणु त्रयं मेणु उत्कृष्टदिदं चतुष्टयमक्कं द्वितीयवर्गणेयोळु द्रव्यं स्यादस्ति स्यान्नास्ति यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन चत्वारि भवंति इंतवस्थितक्रमदिंदमनंतवर्गणगळु सलुत्तंविरलु बळिक्कल्लि मेले ५ आवुदों दनंतरवर्गणया वर्गणयोळु द्रव्यंगळु स्यादस्ति स्यान्नास्ति यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टन पंच भवंति सदृशधनिकानि । इंतवस्थितक्रमदिदमनंतवर्गणेगळु सलुत्तं विरलु बळिक्कमावुदो दनंतरवर्गणयदरोळु वर्गणगळु कथंचिदुंदु कथंचिदिल्लि यत्तलानुमुंटक्कुमप्पोडा. गळु एक मेणु द्वयं मेणु त्रयं मेणु उत्कृष्टदिदं सदृशधनिकंगळु षड्जीवंगळप्पुवी क्रमदिदं सप्ताष्टसप्तषट्पंचचतुस्थिद्विसदृशधनिकवर्गणेगळु संभविसुववु । ई यभिप्रायव मध्यप्ररूपणे भव्यसिद्ध- १० प्रायोग्यस्थानंगळोळ गृहीतव्यमवकु-। मल्लिदं मेले यावुदोंदनंतरवर्गणेयदु संसारिजीवप्रायोग्यवर्गणयक्कुमदरोळु वर्गणगळु कथंचिढुंटु कथंचिदिल्ल एत्तलानुमुटक्कुमप्पोडागळु एक मेणु द्वयं
खलु स्फुटम् । तासु प्रत्येकबादरनिगोदसूक्ष्मनिगोदवर्गणाः तिस्रः सचित्ताः । तत्र अयोगिचरमसमये प्रत्येकशरीरजघन्यं स्यादस्ति स्यानास्ति ? यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन चत्वारि । तथा तद्वितीयवर्गणाद्रव्यं स्यादस्ति स्यान्नास्ति । यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन चत्वारि इत्यवस्थितक्रमेणा- १५ नन्तवर्गणा अतीत्य अनन्तरवर्गणाद्रव्यं स्यादस्ति स्यान्नास्ति । यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन पञ्च इत्यवस्थितक्रमेण अनन्तवर्गणा अतीत्य अनन्तरवर्गणाद्रव्यं कथञ्चिदस्ति कथञ्चिन्नास्ति । यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन षट् अनेन क्रमेण सप्ताष्ट सप्तषट् पञ्चचतुस्त्रिद्विसदृशधनिकानि भवन्ति । इयं यवमध्यप्ररूपणा भव्यसिद्धप्रायोग्यस्थानेषु ग्राह्या। अनन्तरवर्गणा सा संसारिजीवप्रायोग्या तद् द्रव्यं कथञ्चिदस्ति कथञ्चिन्नास्ति यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन आवल्यसंख्यातेकभागः इत्यवस्थित- २०
वर्गणाके भेद लिये हुए पुद्गल द्रव्योंका कथन किया है ।उनमें से प्रत्येक शरीर, बादरनिगोद और ये तीन वर्गणा.सचित्त हैं। उनका विशेष कहते हैं-उनमें-से अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें पायी जानेवाली जघन्य प्रत्येक शरीरवर्गणा लोकमें होती भी है और नहीं भी होती। यदि होती हैं,तो एक या दो या तीन या उत्कृष्टसे चार तक होती हैं। उस जघन्य वर्गणासे एक परमाणु अधिक द्वितीय प्रत्येक शरीरवर्गणा होती भी है और नहीं भी होती। यदि होती २५ हैं,तो एक या दो या तीन या उत्कृष्ट से चार होती हैं । इसी अवस्थित क्रमसे एक-एक परमाणु बढ़ाते-बढ़ाते अनन्त वर्गणाओंके होनेपर उसके अनन्तर एक परमाणु अधिक वर्गणा लोकमें होती भी है और नहीं भी होती। यदि हैं,तब एक या दो या तीन या उत्कृष्टसे पाँच होती हैं। इसी अवस्थित क्रमसे एक-एक परमाणु बढ़ाते-बढ़ाते अनन्त वर्गणाएँ बीतनेपर पुनः एक परमाणु अधिक वर्गणा होती भी है और नहीं भी होती। यदि है,तब एक या दो या ३० तीन वा उत्कृष्ट से छह होती हैं। इसी क्रमसे अनन्तवर्गणा पर्यन्त उत्कृष्ट सात, आठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन-दो वर्गणा लोकमें समान परमाणुओंके परिमाणको लिये हुए होती हैं। यह यवमध्यप्ररूपणा मोक्ष जानेवाले भव्य जीवोंके योग्य स्थानों में ग्रहण करनेके योग्य है । अब जो अनन्तरवर्गणा संसारी जीवोंके योग्य हैं , उसे कहते हैं। पूर्व में कही प्रत्येक
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८४४
गो० जीवकाण्डे मेणु त्रयं मेणु उत्कृष्टदिदमावल्यसंख्यातैकभागमात्रंगळु सदृशधनिकंगळु संभविसुवितवस्थितक्रमदिदमनंतवर्गणगळु सलुत्तं विरलु बळिकमावुदो दनंतवर्गणेयदरोळु वर्गणेगळु कथंचिदुंदु कथंचिदिल्ल एत्तलानुमुंटक्कुमप्पोडागळु एक मेणु द्वयं मेणु त्रयं मेणुत्कृष्टदिदमावल्यसंख्यातकभागमात्रंगळु सदृशधनिकंगळु घटियिसुगुमंतु घटिसुदो दं विशेषमुंटावुदे दोर्ड पूर्ववर्गणेगळं ५ नोडलिवेकवर्गायदं विशेषाधिकंगळप्पुवु ८
मत्तमी विधानदिदमेयनंतवर्गणगळु नडववु । मत्तावुदो दनंतरोपरितनवर्गणेगळोळधस्तनाधस्तनवर्गणेगळं नोडळेकैकवर्गणेगळिदं विशेषाधिकंगळप्पवितु। ई विधानदिदं नडसल्पडुवुदन्नवरं यवमध्यमन्नेवरं मत्ता यवमध्यवर्गणेगळु क्वचिदस्ति क्वचिन्नास्ति यद्यस्ति तदा
एक मेणु द्वयं मेणु त्रयं मेणु उत्कृष्टदिदमावल्यसंख्यातकभागमात्रंगळप्पुवंतागुत्तखें पूर्वोक्तक्रम१० दिदमनंतराधस्तन सदृशधनिकवर्गणेगळं नोडलेकवर्गयिदं विशेषाधिकंगळप्पुवु मत्तमिवुमनंत
वर्गणेगळवस्थितक्रमदिदं नडेववु । बळिक्क अल्लिदं मेले यावुदो दनंतरवर्गणेयदु स्यादस्ति स्यान्नास्ति यद्यस्ति तदा एक मेणु द्वयं मेणु त्रयं मेणुत्कृष्टदिंदमावल्यसंख्यातेकभागमात्रंगळप्पु
क्रमेण अनन्तरवर्गणा अतीत्य अनन्तरवर्गणाद्रव्यं कथञ्चिदस्ति कथञ्चिन्नास्ति यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं
उत्कृष्टेन आवल्यसंख्यातकभागः । अयं पूर्वस्मादेकरूपाधिक:- २ एवमनन्तवर्गणा अतीत्य अनन्तरोपरितन
वर्गणासु अधस्तनाधस्तनवर्गणाभ्यः एकैकाधिका भवन्ति । एवं यावत् यवमध्यं तावन्नेतव्यम् । यवमध्यवर्गणासदृशधनिकद्रव्यं क्वचिदस्ति क्वचिन्नास्ति यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन आवल्यसंख्यातेकभागः । अयं ततोऽप्येकरूपाधिकः । एवमनन्तवर्गणा अतीत्य अनन्तरवर्गणाद्रव्यं स्यादस्ति स्यान्नास्ति, यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन आवल्यसंख्यातकभागः । अयं पूर्वस्मादेकरूपहीनः । एवं यावदुत्कृष्टा प्रत्येकवर्गणा तावन्नेयम् । तदुत्कृष्टमपि स्यादस्ति स्यान्नास्ति यद्यस्ति तदा एक वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन
२० वगणासे एक परमाणु अधिक जो प्रत्येक वर्गणा है, वह लोकमें होती भी है और नहीं भी
होती। यदि है, तब एक या दो या तीन या उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग होती है । इसी क्रमसे एक-एक परमाणु बढ़ाते-बढ़ाते अनन्त वर्गणा बीतनेपर उससे एक परमाणु अधिक अनन्तरवर्गणा कथंचित् है, कथंचित् नहीं है। यदि है , तब एक या दो या तीन
उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग होती है। पहलेसे इसका प्रमाण एक अधिक है। २५ इस प्रकार अनन्त वर्गणा बीतनेपर अनन्तरकी ऊपरकी वर्गणाओंमें नीचे-नीचेकी वर्गणासे
एक-एक अधिक परमाणु होता है। इस प्रकार जबतक यवमध्य आये, तब तक ले जाना चाहिए। यवमध्यमें जितने परमाणुओंके स्कन्धरूप प्रत्येक वर्गणा होती है, उतने-उतने परमाणुओंके स्कन्धरूप प्रत्येक वर्गणा लोकमें होती भी हैं या नहीं भी होती ? यदि हैं,तो एक
या दो या तीन उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होती हैं। यह उससे भी , एक अधिक है। ऐसे अनन्त वर्गणा बीतनेपर अनन्तर जो वर्गणा है , वह कथंचित् है, . कथंचित् नहीं है। यदि है ,तो एक,दो या तीन या उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग है।
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
वंतागुत्तलुं पूर्ववर्गणेयं नोडलेकवर्गणेयिदं विशेषहो नंगलप्पुवितेनेवर मुत्कृष्ट प्रत्येक सदृशधनिकवर्गगळन्नेवरं आ उत्कृष्ट प्रत्येक वर्गणेयाळु वर्गणेगळु स्यादस्ति स्यान्नास्ति यद्यस्ति तदा एकं मेणु द्वयं मेणु त्रयं मेणुत्कृष्टदिदमावल्य संख्यातैकभागंगळु संभविसुर्वावतु ज्ञातव्यमक्कुं। एंती प्रत्येक वर्गणे भव्यसिद्धरुम भव्यसिद्धरमनाश्रयिसि पेळपट्टुदंते बादर निगोदवर्गणेयोळं पेळपट्टुवुदु बेरेपेकेल्लि सूक्ष्मनिगोदवर्गणेयोळेकेदोडे जलस्थलाकाशादिगलोळ सर्व्वजघन्यसूक्ष्मनिगोद - ५ वर्गणेयोळु वर्गणेगळु कथंचिदुदु कथंचिदिल्ल । एत्तलानुमुंटवकुमप्पोडागळेकं मेणु द्वयं मेणु त्रयं मेणुत्कृष्टदिदमावल्यसंख्यातै क भागमात्रंगळप्पु विन्तभव्यसिद्धप्रायोग्यप्रत्येकशरीरंगळगे पेळपट्ट विधानदिदं नडस पडुवुदेन्तेवरं यवमध्यमत्तेवरं मायवमध्यदोळमावल्यसंख्यातैकभागमात्रगळु सदृशधनिकंगळवु । मत्तं प्रत्येकशरीरवग्गंणाविधानदिदं मेले नडसल्पडुवुदेन्नेवरमुत्कृष्टसूक्ष्म
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आवल्यसंख्यार्तकभागः इति प्रत्येकवर्गणा भव्यसिद्धान् अभव्यसिद्धांश्च आश्रित्योक्ता । एवं बादरनिगोदवर्गणा - १० यामपि वक्तव्यं पृथक् कथनं नास्ति । सूक्ष्मनिगोदवर्गणायां तु जलस्थलाकाशादिषु सर्वजघन्यं कथञ्चिदस्ति कथञ्चिन्नास्ति । यद्यस्ति तदा एकं वा द्वयं वा त्रयं वा उष्कृष्टेन आवल्यसंख्यातकभागः एवम भव्यसिद्धप्रायोग्यप्रत्येक शरीरवन्नेतव्यं यावत् यवमध्यं तावत् । तत्रापि आवल्यसंख्यातैकभागसदृशधनिकानि भवन्ति । पुनः प्रत्येकवर्गणावन्नेतव्यं यावत्तद्वर्गणोत्कृष्टं तावत् । तदपि एकं वा द्वयं वा त्रयं वा उत्कृष्टेन आवल्यसंख्यातक
यह प्रमाण यवमध्य सम्बन्धी पूर्व प्ररूपणासे एक हीन है । इस प्रकार उत्कृष्ट प्रत्येक शरीर- १५ वर्गणा तक ले जाना चाहिए । अर्थात् एक परमाणुके बढ़ने से एक वर्गणा होती है । सो अनन्तअनन्त वर्गणा होनेपर उत्कृष्ट में से एक घटाना । उत्कृष्ट प्रत्येक वर्गणा पर्यन्त ऐसा करना चाहिए | उत्कृष्ट प्रत्येक वर्गणा भी लोकमें कथंचित् है, कथंचित् नहीं है। यदि है, तब एक या दो या तीन या उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भाग होती है। इस प्रकार भव्य अभव्य जीवोंकी अपेक्षा प्रत्येक वर्गणा कही । इसी प्रकार बादरनिगोद वर्गणाका भी कथन करना २० चाहिए। उसमें कुछ विशेष कथन नहीं है । जैसे प्रत्येक वर्गणा में अयोगीके अन्त समय में सम्भव जघन्य वर्गणाको लेकर भव्योंकी अपेक्षा कथन किया है, वैसे ही यहाँ क्षीणकषायके अन्त समयमें सम्भव उसके शरीरके आश्रित जघन्यबादरनिगोद वर्गणाको लेकर भव्यों की अपेक्षा कथन जानना । सामान्य संसारीकी अपेक्षा दोनों स्थानोंमें समानता सम्भव है । आगे सूक्ष्म निगोदवर्गणाका कथन करते हैं ।
२५
यहाँ भव्यकी अपेक्षा कथन नहीं है । अतः सूक्ष्म निगोदवर्गणा लोकमें हों भी न भी हों । यदि होती है, तो एक, दो या तीन उत्कृष्ट से आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है। आगे जैसे संसारियोंकी अपेक्षा प्रत्येकवर्गणाका कथन किया, वैसे ही यवमध्य पर्यन्त अनन्तानन्त वर्गणा होनेपर उत्कृष्ट में एक-एक बढ़ाना। पीछे उत्कृष्ट सूक्ष्म वर्गणा पर्यन्त एक-एक घटाना। सामान्यसे सर्वत्र उत्कृष्टका प्रमाण आवलीका असंख्यातवाँ भाग है । ३० यहाँ सर्वत्र अभव्य सिद्धोंके योग्य प्रत्येक बादर सूक्ष्म निगोदवर्गणाकी यवाकार प्ररूपणा में गुणहानिका गच्छ जीवराशिसे अनन्तगुणा जानना । नाना गुणहानि शलाकाका प्रमाण यवमध्य में ऊपर और नीचे आवलीका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण जानना । इसका अभिप्राय यह है कि संसारी अपेक्षा प्रत्येकवर्गणा, बादरनिगोदवर्गणा, सूक्ष्म निगोदवर्गणा में जो यवमध्य प्ररूपणा कही है, उसमें लोकमें पाये जानेकी अपेक्षा जितने एक-एक परमाणु बढ़ने ३५
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गो० जीवकाण्डे
निगोदवर्गणावसानमर्नवरमा उत्कृष्टसूक्ष्मनिगोदवर्गणेयोळ वग्गळु येनितु संभविसुगुम दोडो दु मेणु रडु मेणु मूरुत्कृष्टददमावल्यसंख्यातैकभागमात्रंगळ पुवल्लि सर्व्वत्रा भव्य सिद्धप्रायोग्ययवमध्यंगळा गुणहान्यध्वानं सर्वजीवंगळं नोडलनंतगुणितमक्कुं १६ ख नानागुणहा निशलाकेगळ यवमध्यदत्तणव केळगेयुं मेगेयुमावल्यसंख्यातैकभागमात्रगळ
८ ।
a
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पुढवी जलं च छाया चउरिं दिय विसयकम्मपरमाणू । छव्हियं भणियं पोग्गलदव्वं जिणवरेहिं ॥ ६०२॥
पृथ्वी जलं च छाया चतुरिद्रियविषयः कर्म्मपरमाणुः षड्विधभेदं भणितं पुद्गलद्रव्यं जिनवरैः ॥
पृथ्विये हुं जलमे दुं छाये 'दुं चक्षुरिद्रिय विषय वज्जितशेषेंद्रियचतुष्टयविषयमें दु कर्म्मम ढुं १० परमाणुमे दितु पुद्गलद्रव्यं षट् प्रकारममुळ्ळुदेंदु जिनवरिदं भणितं निरूपिसल्पटु ।
भागो भवति । तत्र सर्वत्र अभव्यसिद्ध प्रायोग्ययवमध्येषु गुणहान्यध्वानं सर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणं १६ ख नानागुणहानिशलाकायवमध्यादधः उपर्यपि आवंल्यसंख्यातैकभागः ८ ।। ६०१ ॥
a
पृथ्वी जलं छाया चक्षुषैजितशेषचतुरिन्द्रियविषयः कर्म परमाणुश्चेति पुद्गलद्रव्यं षोढा जिनवरैर्भणितम् ||६०२ ॥
१५
रूप जो वर्गणा भेद हैं, उन भेदोंका प्रमाण तो द्रव्य है । और जिन वर्गणाओंमें उत्कृष्ट पाने की अपेक्षा समानता पायी जाती है, उनका समूह निषेक है और उनका जो प्रमाण है, वह स्थिति है । तथा एक गुणहानिमें निषेकोंका जो प्रमाण है, वह गुणहानिका गच्छ है । उसका प्रमाण जीवराशि से अनन्त गुना है । तथा यवमध्य के ऊपर और नीचे जो गुणहानिका प्रमाण है, वह नाना गुणहानि है । सो प्रत्येक आवलीका असंख्यातवां भाग मात्र है ।
२०
इस प्रकार द्रव्यादिका प्रमाण जानकर जैसे निषेकोंमें द्रव्यका प्रमाण लानेका विधान है, वैसे ही उत्कृष्ट पाने की अपेक्षा समानरूप वर्गणाओंका प्रमाण यवमध्यसे ऊपर और नीचे चय घटता क्रम लिये जानना ।
शंका- यहाँ तो प्रत्येक आदि तीन सचित्त वर्गणाओंके अनन्त भेद कहे और एक-एक भेदरूप वर्गणा लोक में आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण सामान्य रूपसे कहीं । किन्तु २५ पहले मध्यभेदरूप सचित्त वर्गणा सब असंख्यात लोक प्रमाण ही कही है। सो उत्कृष्ट और जघन्यको छोड़ सब भेद मध्य भेदोंमें आ जाते हैं, वहाँ ऐसा प्रमाण कैसे सम्भव है ?
समाधान - यहाँ सब भेदोंमें ऐसा कहा है कि होते भी हैं, नहीं भी होते । यदि होते हैं, तो एक दो आदि उत्कृष्ट आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं । सो यह कथन नाना कालकी अपेक्षा है, किसी एक वर्तमान कालकी अपेक्षा वर्तमान काल में सब मध्यभेद३० रूप प्रत्येकादि वर्गणा असंख्यात लोक प्रमाण ही पायी जाती हैं; अधिक नहीं। उनमें से
किसी भेदरूप वर्गणाकी नास्ति ही है और किसी भेदरूप वर्गणा एक आदि प्रमाण में पायी जाती है। तथा किसी भेदरूप वर्गणा उत्कृष्ट प्रमाणको लिये हुए पायी जाती है ।
इस प्रकार तेईस वर्गणाओंका कथन किया ||६०१ ||
पृथ्वी, जल, छाया, चक्षुको छोड़ शेष चार इन्द्रियोंका विषय और कार्माण स्कन्ध ३५ तथा परमाणु इस प्रकार जिनेन्द्रदेवने पुद्गल द्रव्यके छह भेद कहे हैं ||६०२ ॥
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७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका बादरबादरबादर बादरसुहुमं च सुहुमथूलं च ।
सुहुमं च सुहुमसुहुमं धरादियं होदि छब्भेयं ॥६०३॥ बादरबादरं बादरसूक्ष्मं च सूक्ष्मस्थूलं च । सूक्ष्मं च सूक्ष्मसूक्ष्मं धरादिकं भवति षड्भेदं ॥
पृथ्विरूपपुद्गलद्रव्यम बादरबादरमें बुदु। छेदिसल्क भेदिसल्क अन्यत्रमोय्वडं शक्यमप्पदु बादरबादरमें बुदत्थं । जलमं बादरमे बुदु । आवुदोंदु छेदिसल्क भेदिसल्कं अशक्यमन्यत्रमोवडे ५ शक्यमदु बादरमे बुदत्थं । छायेयं बादरसूक्ष्म, बुदु । आवुदो दु छेदिसल्कं भेदिसल्कदुमन्यत्रमोय्वडशक्यमप्पुददु बादरसूक्ष्मम बुदत्थं । आवुदोंदु चक्षुरिंद्रियरहितशेषचतुरिद्रियविषयमप्प बाह्यार्थमदं सूक्ष्मस्थूलमें बुदु । कर्ममं सूक्ष्म, बुदु । आवुदो दु द्रव्यं देशावधिपरमावधिविषयमदु सूक्ष्ममेंबदत्थं । परमाणुवं सूक्ष्मसूक्ष्म, बुदु । आवुदोंदु पुद्गलद्रव्यमदु सर्वावधिविषयमेयादोड सूक्ष्मसूक्ष्ममेंबुदत्थं ।
खधं सयलसमत्थं तस्स य अद्धं भणंति देसो त्ति ।
अद्धद्धं च पदेसो अविभागी चेव परमाणू ॥६०४॥ स्कंधं सकलसमत्थं तस्य चालु भणंति देश इति । अ द्धं च प्रदेशः अविभागी चैव परमाणुः॥
स्कंध बुदु साशंगळिदं संपूर्णमक्कुमदरचमं देशमें दितु पेळ्वरु। अद्धस्यार्द्धमर्द्धार्द्धमदं १५ प्रदेशमें दु पेळ्वरु । अविभागियप्पुरिदं परमाणुवेदु पेवरु गणधरादिपरमागमज्ञानिगळ । इंतु स्थानस्वरूपाधिकारंतिदुर्दुदु ।
पृथ्वीरूपपुद्गलद्रव्यं बादरवादरं छेत्तु भेत्तुं अन्यत्र नेतुं शक्यं तद्बादरबादरमित्यर्थः । जलं बादरं, यच्छेत्तुं भेत्तुमशक्यं, अन्यत्र नेतुं शक्यं तद्बादरमित्यर्थः । छाया बादरसूक्ष्मं यच्छेत्तुं भेत्तुमन्यत्र नेतुमशक्यं तबादरसूक्ष्ममित्यर्थः । यः चक्षुर्वजितचतुरिन्द्रियविषयो बाह्यार्थः तत्सूक्ष्मस्थूलम् । कर्म सूक्ष्म, यद्रव्यं देशा- २० वधिपरमावधिविषयं तत्सूक्ष्ममित्यर्थः । परमाणुसूक्ष्मसूक्ष्मं तत्सर्वावधिविषयं तत्सूक्ष्मसूक्ष्ममित्यर्थः ॥६०३॥
___स्कन्धं सर्वांशसंपूर्ण भणन्ति तदधं च देशं, अर्धस्या, प्रदेशं अविभागिभूतं परमाणुम् ॥६०४॥ इति स्थानस्वरूपाधिकारः।
पृथ्वीरूप पुद्गल द्रव्य बादर-बादर है। जिसका छेदन-भेदन किया जा सके, जिसे एक स्थानसे दूसरे स्थानपर ले जाया जा सके, वह बादर-बादर है। जिसका छेदन-भेदन .. तो न हो सके। किन्तु अन्यत्र ले जाया जा सके, वह बादर है। छाया बादरसूक्ष्म है। जो छेदन-भेदन और अन्यत्र ले जानेमें अशक्य हो,वह बादर सूक्ष्म है। जो चक्षुको छोड़ शेष चार इन्द्रियोंका विषय बाह्य पदार्थ है,वह सूक्ष्म स्थूल है। कर्मस्कन्ध सूक्ष्म है। जो द्रव्य देशावधि और परमावधिज्ञानका विषय होता है, वह सूक्ष्म है। परमाणु सूक्ष्मसूक्ष्म है। जो सर्वावधिज्ञानका विषय है,वह सूक्ष्मसूक्ष्म है ॥६०३॥
जो सब अंशोंसे पूर्ण हो, उसे स्कन्ध कहते हैं। उसके आधेको देश कहते हैं। और २० आधेके आधेको प्रदेश कहते हैं। जिसका विभाग न हो सके,वह परमाणु है ॥६०४॥
स्थानाधिकार समाप्त हुआ। १, म चक्षुरिंद्रियविषयवज नाल्किद्रियविषयमप्प ।
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गो० जीवकाण्डे गदिठाणोग्गहकिरियासाधणभूदं खु होदि धम्मतियं ।
वत्तणकिरियासाहणभूदो णियमेण कालो दु ।।६०५॥ गतिस्थानावगाहक्रियासाधनभूतं खलु भवति धर्मत्रयं । वर्तनक्रियासाधनभूतो नियमेन कालस्तु॥
देशांतरप्राप्तिहेतुवं गतिय बुदु । तद्विपरीतमं स्थानम'बुदु । अवकाशदानमनवगाहमें बुदु । गतिक्रियावंतंगळप्पजीवपुद्गलंगळ गतिक्रियासाधनभूतं धर्मद्रव्यमक्कुं। मत्स्यगमनक्रिययोल जलमें तंते। स्थानक्रियावंतंगळप्प जीवपुद्गलंगळ स्थानक्रियासाधनभूतमधर्मद्रव्यमकुं पथिकजनंगळ स्थानक्रिययोळु च्छार्य यतते ।
अवगाहक्रियावंतंगळप्प जीवपुद्गलादिद्रव्यंगळ अवगाहक्रिययोळ साधनभूतमाकाशद्रव्य१. मक्कुमिप्पंगे वसति येतंत, इल्लिये दपं क्रियावंतंगळप्प अवगाहिजीवपुद्गलंगळगे अवकाश
दानं युक्तमक्कुमितरधर्मादिद्रव्यंगळु निष्क्रियंगळं नित्यसंबंधंगळुमवक्के तवगाहदानमें दोडतल्तु येक्कदोडुपचारदिंद तत्सिद्धियक्कुमप्पुरिदं। ये तोगळु गमनाभावमागुत्तिरलुं सर्वगतमाकाशमें दितु पेळल्पट टुदु सर्वत्र सद्भावमप्पुरिदमंते धर्मादिगळ्गे अवगाहनक्रियाभावदोळं सर्वत्र व्याप्तिदर्शनदिदमवगाहमितुपरिसल्पदुदु । मत्तम दपमेत्तलानुमवकाशदानमाकाशक्क स्वभावमा
देशान्तरप्राप्तिहेतुर्गतिः । तद्विपरीतं स्थानम् । अवकाशदानमवगाहः । गतिक्रियावतोर्जीवपुद्गलयोः तक्रियासाधनभूतं धर्मद्रव्यं मत्स्यानां जलमिव । स्थानक्रियावतोर्जीवपुद्गलयोः तक्रियासाधनभूतमधर्मद्रव्यं पथिकानां छायेव । अवगाहनक्रियावतां जीवपुद्गलादीनां तत्क्रियासाधनभूतमाकाशद्रव्यं तिष्ठतो वसतिरिव । ननु क्रियावतोरवगाहिजीवपुद्गलयोरेवावकाशदानं युक्तं धर्मादीनां तु निष्क्रियाणां नित्यसंबद्धानां तत् कथं ? इति तन्न उपचारेण तत्सिद्धः । यथा गमनाभावेऽपि सर्वगतमाकाश मित्युच्यते सर्वत्र सद्भावात तथा धर्मादीनां
अवगाहनक्रियाया अभावेऽपि सर्वत्र व्याप्तिदर्शनात् अवगाह इत्युपचर्यते ॥ २० mwwwww
एक देशसे दूसरे देशको प्राप्त होने में जो कारण है, वह गति है। उससे विपरीत स्थान है। अवकाशदानको अवगाह कहते हैं। जैसे मत्स्योंको गमनमें सहायक जल है,वैसे ही गतिरूप क्रिया करते हुए जीव और पुद्गलोंकी गतिक्रियामें सहायक धर्मद्रव्य है। जैसे छाया पथिकोंके ठहरनेका साधन है, वैसे ही ठहरने रूप क्रिया परिणत जीव पुद्गलोंको
ठहरने रूप क्रियामें साधन अधर्म द्रव्य है। जैसे निवास करनेवालोंको वसतिका साधनभूत २५ है,वैसे ही अवगाहन क्रियावाले जीव, पुद्गल आदिको उस क्रियामें साधनभूत आकाशद्रव्य है।
शंकाक्रियावान् अवगाही जीव और पुद्गलोंको ही अवकाश देना युक्त है। धर्म आदि तो निष्क्रिय हैं, नित्य सम्बद्ध हैं, उन्हें अवकाशदान कैसे सम्भव है ?
समाधान-ऐसा कथन उपचारसे किया गया है। जैसे आकाशमें गमनका अभाव ३० होनेपर भी उसे सर्वगत कहा जाता है क्योंकि वह सर्वत्र पाया जाता है। वैसे ही धर्मादिमें
अवगाह क्रिया न होनेपर भी समस्त लोकाकाशमें व्याप्त होनेसे अवगाहका उपचार किया जाता है।
१५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८४९ दोडे वनादिर्गाळवं लोष्ठादिगळगे भित्त्यादिळिदं गवादिगळगेयं व्याघातमय्यदल्पडदे काणल्पटुदल्ते व्याघातमदु कारणदिदमी याकाशकवगाहदानं कुंदल्पडुगुम दितनल्वडेक दोडे दोषमल्तप्पुदे कारणमागि।
अदेते दोडे स्थूलंगळप्प वन्नलोष्ठादिगळ्गे परस्परव्याघातमे दितिदक्के अवकाशदानसामर्थ्य कुंदल्पडदल्लि अवगाहिगळ्गेये व्याघातमप्पुरिदं वज्रादिगळ्गे मत्ते स्थूलंगळप्पुरिदं परस्परं ५ प्रत्यवकाशदानमं माळपुवल्लव दिंतु दोषक्कवकाशमिल्ल। आवुवु कलवु पुद्गलंगळु सूक्ष्मंगळवु परस्परं प्रत्यवकाशदानमं माळपुवु येत्तलानुमितादोडे इदाकाशक्कसाधारणलक्षणं मत्तेके दोड:इतरद्रव्यंगळगं तत्सद्भावमप्पुरिदमें दितनल्वडेके दोडे सर्वपदार्थगलो साधारणावगाहनहेतुत्वमी याकाशक्कसाधारणलक्षणमेदितु दोषमिल्ल। अलोकाकाशदोळु अवगाहदानमिल्लप्पुरिंदमभावमक्कुम देत्तलानुमें बोडयुक्तमेक दोड स्वभावपरित्यागमिल्लमप्पुरिदं । वर्तन क्रियासाधनभूतो १० नियमेन कालस्तु । जीवादिवर्तनक्रियावंतंगळप्प द्रव्यंगळ वर्तनक्रियासाधनभूतं तु मत्त नियदिदं कालद्रव्यमक्कुं।
अथ यदि अवकाशदानं आकाशस्य स्वभावस्तदा ववादिभिर्लोष्टादीनां भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो माभूत्, दृश्यते च व्याघातः । तेन आकाशस्य अवगाहदानं हीयते इति नाशङ्कनीयं, वजलोष्ठादीनां स्थूलत्वाद् व्याघातेऽपि अवगाहिनामेव व्याघातात् तस्य अवगाहदानसामर्थ्यह्रासाभावात् । सूक्ष्मपुद्गलानां १५ परस्परं प्रत्यवकाशदानकारणात् । यद्येवं तहि आकाशस्य तदसाधारणलक्षणं न इतरद्रव्याणामपि तत्सद्भावात इति न मन्तव्यं. सर्वपदार्थानां साधारणावगाहनहेतुत्वस्यैव आकाशस्यासाधारणलक्षणत्वात । तर्हि अलोकाकाशे अवगाहनदानाभावात् अभावः स्यात् ? तदपि न, स्वभावपरित्यागाभावात् । तु-पुनः द्रव्याणां वर्तनाक्रियासाधनभूतं नियमेन कालद्रव्यं भवति ॥
शंका-अवकाश देना आकाशका स्वभाव है,तो वन आदिसे लोष्ठ आदिका और .. दीवार आदिसे गाय आदिका व्याघात-टक्कर नहीं होना चाहिए। किन्तु व्याघात देखा जाता है,अतः आकाशके अवगाह देने की बात नहीं घटती?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए; क्योंकि वन, लोष्ठ आदि स्थूल हैं, उनका व्याघात होनेपर अवगाहियोंमें ही व्याघात हुआ। इससे आकाशके अवकाशदानको शक्तिमें कोई कमी नहीं आती, क्योंकि सूक्ष्म पुद्गल परस्परमें भी एक दूसरेको अवकाश . देते हैं। किन्तु स्थूलोंमें ऐसा सम्भव नहीं है।
शंका-यदि सूक्ष्म पुद्गल भी परस्परमें अवकाशदान करते हैं,तो अवकाश देना आकाशका असाधारण लक्षण नहीं हुआ; क्योंकि यह लक्षण अन्य द्रव्योंमें भी पाया जाता है ?
समाधान-ऐसा नहीं है क्योंकि सब पदार्थोंको अवगाह देने में साधारण कारण होना ही आकाशका असाधारण लक्षण है।
शंका-तब अलोकाकाशमें तो आकाश किसीको अवकाश दान नहीं करता,अतः वहाँ उसका अभाव मानना होगा।
समाधान--ऐसा कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ भी वह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता। तथा द्रव्योंकी वर्तनाक्रियामें साधनभूत नियमसे कालद्रव्य है ॥६०५।। १०७
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गो० जीवकाण्डे अण्णोण्णुवयारेण य जीवा वटुंति पोग्गलाणि पुणो ।
देहादीणिव्वत्तणकारणभूदा हु णिय मेण ॥६०६।। अन्योन्योपकारेण च जीवा वर्तते पुद्गलाः पुनः। देहादीनां निवर्तनकारणभूताः खलु नियमेन ॥
अन्योन्योपकारदिदं स्वामिभृत्यनाचार्यशिष्यने दितेवमादिभावदिदं वर्तनं परस्परोपग्रहमक्कुं। अन्योन्योपकारमेंबुदक्कुमेंबुदर्थमौतेंदोडे स्वामि येवं भृत्यरुगळ्गे वित्तत्यागाद्युपकारदोळु वत्तिसुगुं। भृत्यरुगळु हितातिपादनदिदमुपहितप्रतिषेधनदिदमुं वत्तिसुवरुं । आचार्य्यनुमुभयलोकफलप्रदोपदेशदर्शनदिदं तदुपदेशविहितक्रियानुष्ठानदिदमुं शिष्यरुगल्गुपकारदोलु वतिसुगं।
शिष्यरुगडं तदानुकूल्यवृत्तियिंदमुपकाराधिकारंगळोळु वत्तिसुगुं। इतन्योन्योपकारदिदं जीवंगळु १० वत्तिसुववु । च शब्ददिदमनुपकारदिदमुं वत्तिपुवु । अनुभदिदमुं वत्तिपुवु । पुद्गलाः पुनर्देहादीनां
खलु निर्वर्तनकारणभूताः नियमेन पुद्गलंगळु मत्त जीवंगळ देहादिगलनिवर्तनकारणभूतंगळप्पुवल्लिदेहग्रहदिदं कर्मनोकम्मंगळ्गे ग्रहणमक्कुं। नोकर्मकर्मवाग्मनउच्छ्वासनिःश्वासंगळ निर्वर्तनकारणभूतंगळु नियमदिदं पुद्गलंगळप्पुबुदर्थमिल्लि पूर्वपक्षमं माडिदपं कर्ममपौद्गलिकमेके दोडे
अनाकारत्वदिदं । आकारवंतंगळप्पौदारिकादिगळ्गे पौद्गलिकत्वं युक्तम दितिदक्कुत्तरमंतल्तेके दोडे १५ कर्ममुं पौद्गलिकमेयक्कुं तद्विपाकक्के मूत्तिमत्संबंधनिमित्तत्वदिदं काणल्पटुदु बीह्यादिगळ्गे उदकाविद्रव्यसंबंधप्रापितपरिपाकंगळ्गे पौद्गलिकत्वमंते कार्मणमुं लगुडकंटकादिमूत्तिमद्दव्योप
अन्योन्यमुपकारेण जीवा वर्तन्ते यथा स्वामी भृत्यं वित्तत्यागादिना, भृत्यस्तं हितप्रतिपादनाहितप्रतिषेधादिना, आचार्यः शिष्यं उभयलोकफलप्रदोपदेशक्रियानुष्ठानाभ्यां, शिष्यस्तं आनुकूल्यवृत्युपकाराधिकारैः, चशब्दात् अनुपकारानुभयाभ्यामपि वर्तन्ते । पुद्गलाः पुनः देहादीनां कर्मनोकर्मवाङ्मनउच्छ्वासनिश्वासानां निर्वर्तनकारणभूताः खलु नियमेन भवन्ति । ननु कर्मापौद्गलिकं अनाकारत्वात-आकारवतामौदारिकादीनामेव तथात्वं युक्तमिति तन्न, कर्मापि पौद्गलिकमेव लगुडकण्टकादिमूर्तद्रव्यसंबन्धेन पच्यमानत्वात् । उदकादिमूर्तद्रव्यसंबन्धेन व्रीह्यादिवत् । वाक् द्वेधा द्रव्यभावभेदात् । तत्र भाववाग् वीर्यान्तरायमतिश्रुतावरणक्षयोप
जीव परस्परमें एक दूसरेका उपकार करते हैं। जैसे स्वामी अपने धन आदिके द्वारा सेवकका उपकार करता है और सेवक हितकी बात कहने तथा अहितसे रोकने आदिके द्वारा स्वामीका उपकार करता है। गुरु इस लोक और परलोकमें फल देनेवाले उपदेश तथा क्रियाके अनुष्ठान द्वारा शिष्यका उपकार करता है और शिष्य गुरुके अनुकूल रहकर उनका उपकार करता है। पुद्गल शरीर आदि तथा कर्म-नोकमें, वचन, मन, उच्छ्वास, निश्वास आदिकी रचनामें नियमसे कारण होते हैं।
शंका-कर्म पौद्गलिक नहीं है। क्योंकि उसका कोई आकार नहीं है। आकारवाले जो औदारिक आदि शरीर हैं,उन्हें ही पौद्गलिक मानना युक्त है ?
समाधान-नहीं, कर्म भी पौद्गलिक ही है, क्योंकि लाठी, काँटा आदि मूर्तद्रव्यके सम्बन्धसे ही फल देता है जैसे पानी आदि मूर्तद्रव्यके सम्बन्धसे पकनेवाले धान मूर्त हैं।
द्रव्य और भावके भेदसे वाक् दो प्रकार की है। भाववाक् वीर्यान्तराय, मतिज्ञाना
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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
८५१ पातमागुत्तं विरलु विपच्यमानत्वदिदं पौद्गलिकमदे निश्चैसल्पडुवुदु । वाग् द्विप्रकारमक्कुं द्रव्यवाक् भाववादितल्लि भाववाक् बुदु वीर्य्यातरायमतिश्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमांगोपांगनामलाभनिमित्तत्वदिदं पौद्गलिकयक्कुमेके दोडे तदभावमागुत्तिरलु तवृत्त्यभावमप्पुरिदं । तत्सामोपेतत्वदिद क्रियावंतनप्पामनिदं प्रेय॑माणंगळप्प पुद्गलंगळु. वाक्वदिदं परिणमिसुवर्वेदितु द्रव्यवाक्कुं पौद्गलिकयक्कुं मेके दोडे श्रोत्रंद्रियविषयत्वदिदं इतरेंद्रियविषयमेनु कारणमागदें दोडे तद्ग्रहणा- ५ योग्यवदिदं घ्राणग्राह्यगंधद्रव्यदोळु रसनाधनुपलब्धियंते, अमूतं वाक्क देत्तलानुमें बेयप्पोडे युक्त मल्तेके दोड मूत्तिमद्ग्रहणावरोधव्याघाताभिभवादिदर्शनदिदं मूत्तिमत्त्व सिद्धियप्पुरिदं।
मनमुं द्विप्रकारमक्कु द्रव्यभावभेददिदल्लि भावमनस्से बुदु लब्ध्युपयोगलक्षणं पुद्गला. लंबनदिदं पौद्गलिकमक्कुं। द्रव्यमनमुं ज्ञानावरणवी-तरायक्षयोपशमांगोपांगनामलाभप्रत्ययंगळप्प गुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखमप्पात्मंगनुग्राहकपुद्गलंगळुमनस्त्वदिदं परिण- १० तंगळे दितु पौद्गलिकमक्कुं। वोवने दपं:-मनं द्रव्यांतरं रूपादिपरिणमनविरहितमणुमात्र
शमाङ्गोपाङ्गनामकर्मलाभनिमित्तत्वात् पौद्गलिका तदभावे तवृत्त्यभावात् । तत्सामोपेतत्वेन क्रियावतात्मना प्रेर्थमाणपुद्गलाः वाक्त्वेन परिणमन्तीति द्रव्यवागपि पौद्गलिकैव श्रोत्रेन्द्रियविषयत्वात् । इतरेन्द्रियविषयापि कुतो न स्यात् तद्ग्रहणायोग्यत्वात् घ्राणग्राह्ये गन्धद्रव्ये रसनाद्यनुपलब्धिवत् । अमूर्ता वाग् इत्यप्ययुक्तं मूर्तर्ग्रहणावरोधव्याघाताभिभवादिदर्शनात् मूर्तत्वसिद्धेः । मनोऽपि तथा द्वेधा । तत्र भावमनः लब्ध्युपयोगलक्षणं १५ पुद्गलालम्बनात् पौद्गलिकम् । द्रव्यमनोऽपि ज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमाङ्गोपाङ्गनामकर्मलाभप्रत्ययगुणदोषविचारस्मरणादिप्रणिधानाभिमुखस्यात्मनोऽनुग्राहकपुद्गलानां तथात्वेन परिणमनात् पौद्गलिकम् । कश्चिदाह-मनः द्रव्यान्तरं रूपादिपरिणमनविरहितमणुमात्रं, पौद्गलिकं न । आचार्य आह-तेन आत्मनः
वरण और श्रुतज्ञानावरणके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामक कर्मके उदयके निमित्तसे होनेसे पौद्गलिक है। उसके अभावमें भाववचन-बोलने की शक्ति नहीं होती। भाववचनकी २० शक्तिसे युक्त क्रियावान् आत्माके द्वारा प्रेरित पुद्गल वचन रूप परिणत होते हैं, इसलिए द्रव्यवाक् भी पौद्गलिक ही है,क्योंकि श्रोत्र इन्द्रियका विषय है।
शंका-जब वचन पौद्गलिक है,तो अन्य इन्द्रियोंका भी विषय क्यों नहीं है ?
समाधान-वह अन्य इन्द्रियोंसे ग्रहण करनेके अयोग्य है ; जैसे घ्राण इन्द्रियसे ग्राह्य सुगन्धितं द्रव्यमें रसना आदि इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति नहीं होती।
वचन अमूर्तिक है ऐसा कहना भी अयुक्त है, क्योंकि मूर्त इन्द्रियके द्वारा शब्दका ग्रहण होता है, मूर्त दीवार आदिसे रोका जाता है, मूर्त पदार्थसे टकराता है तथा बहुत तीव्र शब्दसे मन्द शब्द दब जाता है। इससे वचन मूर्तिक सिद्ध होता है । मन भी दो प्रकारका है-भावमन और द्रव्यमन। भावमन लब्धि और उपयोग लक्षणवाला है। वह पुद्गलके अवलम्बनसे होता है, इसलिए पौद्गलिक है । द्रव्यमन भी पौद्गलिक है क्योंकि ज्ञानावरण ३०
और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्मके उदयसे जब आत्मा गुण-दोषके विचार, स्मरण आदिके अभिमुख होता है, तो उसके उपकारी पुद्गल मन रूपसे परिणमन करते हैं,इसलिए पौद्गलिक है। किसीका कहना है-मन एक पृथक् द्रव्य है, उसमें रूपादि
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गो० जोवकाण्डे मदक्के पौद्गलिकत्वमयुक्तम दितु ये दोडाचार्याने दपं-आ इंद्रियदोडनात्मंगे संबंधमुंटो मेणु संबंधमिल्लमो? येत्तलानुं संबंधमिल्लेबयप्पोडदल्तेके दोडे आत्मगुपकारमागल्वेळ्कुमाउपकारमं माडदु इंद्रियक्कं साचिव्यम सचिवत्वमुमं माडदु अथवा संबंधमुंबयप्पोडे एकप्रदेशसंबंधमप्पु
दरिदमा अणुवुमितरप्रदेशंगळोळपकारमं माडदु। अष्टवशादिना मनक्कलात चक्रदंते परिभ्रमण५ मुंटे बेयप्पोडदुर्बु संभविसदेके दोडे अणुमात्रक तत्सामर्थ्याभावमप्पुरिदं ।
अमूर्तनप्पात्मंगे निष्क्रियंगे अद्रष्टमप्प गुणमन्यत्रक्रियारंभदोळु समर्थमन्तु अहंगे काणल्पद्रुदु । वायुद्रव्यविशेष क्रियावंतमुं स्पर्शनवंतमुं प्राप्तमादुदु वनस्पतियोल परिस्पंदहेतुवक्कुं तद्विपरीतलक्षणमी यणुभ दितु क्रियाहेतुत्वाभावमक्कुं । दीर्यांतरायज्ञानावरणक्षयोपमांगोपांगनामोदयापेक्षदिदमात्मनिंदुदस्यमानकण्यम प वायुउच्छ्वासलक्षणमप्पुदु प्राणमें दु पेळल्पद्रुदु । आ वायुविंदनेयात्मंगे पोरगण वायुवनभ्यंतरीक्रियमाणनिश्वासलक्षणमपानमदु पेळल्पटुदु । इंता येरडुमात्मंग अनुग्राहिगळ प्युवेक दो जीवितहेतुत्वदिदमा मनःप्राणापानगळ्गे मूत्तिमत्वमरियल्प. डुवुदेके दोडे प्रतिघातादिदर्शनदिदं प्रतिभयहेतुगळप्पऽशनिपातादिळिदं मनक्के प्रतिघातं काण. ल्पद्रुदु। सुरादिर्गाळ स्वादिर्गाळदमप्प पूतिगंधिप्रतिभयदिंद हस्ततलपुटादिलिंदमास्यसंवरणदिदं
सम्बन्धः स्यात् न वा ? यदि न, तन्न आत्मनः उपकारेण भाव्यं तन्नोपकुर्वीत, इन्द्रियस्य साचिव्यं सचिवत्वं १५ न कुर्यात् । अथ स्यात्, तदा एकदेशसम्बन्धेन सोऽणु: इतरप्रदेशेषु नोपकुर्यात् । अथादृष्टवशेन तस्यालातचक्र
वत्परिभ्रमणं तदप्यसंभाव्यं, अणुमात्रस्य तत्सामर्थ्याभावात्, अमूर्तस्य आत्मनो निष्क्रियस्यादृष्टगुणः अन्यत्र क्रियारम्भे समर्थो न । वायुद्रव्यं हि क्रियावत् स्पर्शवत् प्राप्तवनस्पतौ परिस्पन्दहेतुः तद्विपरीतलक्षणोऽयमणुस्तादृक् क्रियाहेतुर्न स्यात् । वीर्यान्तरायज्ञानावरणक्षयोपशमाङ्गोपागनामोदयापेक्षेणात्मनोदस्यमानकण्ठ्यवायुः
उच्छ्वासलक्षणः स प्राणः । तेनैव वायुना आत्मनो बाह्यवायुरभ्यन्तरीक्रियमाणो निश्वासलक्षणः अपानः । २० तौ च आत्मनोऽनुग्राहिणी जीवितहेतुत्वात् , ते च मनःप्राणापाना मूर्तिमन्तः, मनसः प्रतिभयहेत्वशनिपातादिभिः
नहीं है तथा वह परमाणु बराबर है, पौद्गलिक नहीं है। आचार्य कहते हैं-उस अणुरूप मनका सम्बन्ध आत्माके साथ है या नहीं है। यदि नहीं है, तो वह आत्माका उपकार नहीं कर सकता और न इन्द्रियोंकी ही सहायता कर सकता है। यदि सम्बन्ध है,तो उस अण
रूप मनका सम्बन्ध आत्माके एक देशके साथ ही हो सकता है और ऐसी स्थिति में वह २५ अन्य प्रदेशों में उपकार नहीं कर सकता। यदि कहोगे कि अदृष्ट वश वह अणुरूप मन समस्त
आत्मामें अलातचक्रकी तरह भ्रमण करता है, इससे उसका सर्वत्र सम्बन्ध होता है , तो वह भी सम्भव नहीं है। क्योंकि अणुमात्र मनमें ऐसी सामर्थ्यका अभाव है। तथा अमूर्त और क्रियारहित आत्माका गुण अदृष्ट अन्य में क्रिया कराने में समर्थ नहीं है। वायु क्रियावान और
स्पर्शवान होनेसे प्राप्त वृक्षादिमें हलनचलन करने में कारण होती है। किन्तु यह अणुरूप ३० मन तो उससे विपरीत लक्षणवाला है, इसलिए उस प्रकारकी क्रिया में हेतु नहीं हो सकता।
वीर्यान्तराय और ज्ञानावरणके क्षयोपशम और अंगोपांग नामकर्मके उदयकी अपेक्षासे आत्माके द्वारा जो अन्दरकी वायु बाहर निकाली जाती है, उसे उच्छ्वास रूप प्राण कहते हैं। और उसी आत्माके द्वारा जो बाहरकी वायु भीतरकी ओर ली जाती है, उसे निश्वास
रूप अपान कहते हैं। ये प्राण अपान भी आत्माके उपकारी हैं, क्योंकि उसके जीवन में हेतु ३५ होते हैं । वे मन, प्राण अपान मूर्तिमान हैं,क्योंकि भयके हेतु वनपात आदिसे मनका, और
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८५३ प्राणापानंगळ्गे प्रतिघातं पडेयल्पद्रुदु, श्लेष्मदिदं मेणु अभिभवं काणल्पद्रुदु । अमूर्त्तक्के मूत्तिमत्तुगळिंदभिघातादिगळागवु । अदु कारणविंदमे आत्मास्तित्वसिद्धियक्कुतीगळेल्लियानुं प्रतिमाचेष्टितं प्रयोक्तृलिंगस्तित्वमनरिपुगुमंते प्राणापानादिव्यापारमुं क्रियावंतनप्पात्मनं साधिसुगुमिवल्लदेयं मत्त केलq जीवितमरणसुखदुःखनिवर्तनकारणभूतंगळु पुद्गलंगळप्पुवु। सदसद्यो. दयमंतरंगहेतुबुंटागुत्तिरलु बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवदिदमुत्पद्यमानप्रीतिपरितापरूपपरिणामं ५ सुखदुःखमेंदु पेळल्पद्रुदु। भवधारणकारणायुराख्यकर्मोदयदिदं भवस्थितियं धरिसिद जीवक्के पूर्वोक्तिप्राणपानक्रियाविशेषाव्युच्छेदं जीवितमेदु पेळल्पद्रुदु, तदुच्छेदं मरणमेंदु पेळल्पटुदु। ई सुखादिगळु जीवक्के पुद्गलंगळिदमे संभविसुववु । मूत्तिमद्धेतु सन्निधानमागुत्तिरलु तदुत्पत्तियुटप्पुरिदं । केवलं जीवंगळ शरीरादिनिर्वर्तनकारणभूतंगळु पुद्गलंगळे बुदिल्ल। पुद्गलक्कं पुद्गलंगळ निवर्तनहेतुगळप्पुवु। कांस्यादिगळ्गे भस्मादिळिदं जलादिगळ्गे कतकादिर्गाळदं १० अयःप्रभृतिगळ्गे जलादिळिदं उपकारं माडल्पद्रुदु काणल्पडुगुमप्पुरिदं। इंतु औदारिकवैक्रियिक आहारकशरीरनामकर्मोदयदिदमा मूलं शरीरंगळु मुच्छ्वासनिश्वासमुमाहारवर्गणेयिनप्पुवु । तैजसशरीरनामकर्मोदयदिदं तेजोवर्गयिदं तैजसशरीरमक्कुं। कार्मणशरीरनाम
प्राणापानयोश्च श्वादिपूतिगन्धिप्रतिभयेन हस्ततलपुटादिभिरास्यसंवरणेन श्लेष्मणा वा प्रतिघातदर्शनात्, अमूर्तस्य मूर्तिमद्भिस्तदसंभवाच्च । तत एव प्राणापानादिव्यापारादात्मनोऽस्तित्वसिद्धिः प्रयोक्तुरभावे १५ प्रतिमाचेष्टितस्येव आत्माभावे तदघटनात् । तथा सदसवेद्योदयान्तरङ्गहेतौ सति बाह्यद्रव्यादिपरिपाकनिमित्तवशेन उत्पद्यमानप्रीतिपरितापरूपपरिणामो सुखदुःखे । आयुरुदयेन भवस्थिति विभ्रतः प्राणापानक्रियाविशेष व्युच्छेदो जीवितं, तदुच्छेदो मरणम् । तान्यपि पौद्गलिकानि मूर्तिमद्धेतुसन्निधाने सति तदुत्पत्तिसंभवात् । न केवलं जीवशरीरादीनामेव निवर्तनकारणभूताः पुद्गलाः पुद्गलादीनामपि कांस्यादीनां भस्मादीभिः जलादीनां कतकादिभिः अयःप्रभृतीनां जलादिभिश्च उपकारदर्शनात् । एवमौदारिकवैक्रियिकाहारकनामकर्मोदयात् २० आहारवर्गणायातानि त्रीणि शरीराणि उच्छवासनिश्वासौ च । तैजसनामकर्मोदयात् तेजोवर्गणया तैजसशरीरम् ।
दुर्गन्ध आदिके भयसे हथेली आदिसे मुखको बन्द कर लेनेसे तथा जुकामसे प्राण अपानका प्रतिघात देखा जाता है । अमूर्तका मूर्तिमानके द्वारा प्रतिघात सम्भव नहीं है। उसी प्राण अपान आदि की क्रियासे आत्माके अस्तित्वकी सिद्धि होती है। जैसे प्रयोक्ताके अभावमें यन्त्रादि मशीनमें क्रिया सम्भव नहीं है। तथा साता-असाता वेदनीयके उदयरूप अन्तरंग २५ कारणके होनेपर बाह्य द्रव्यादिके परिपाकके निमित्तसे जो प्रीतिरूप या सन्तापरूप परिणाम उत्पन्न होता है, उसे सुख और दुःख कहते हैं। आयुकर्म के उदयसे भवमें स्थिति करते हुए श्वास-उच्छ्वास आदि क्रिया विशेषका होते रहना जीवन है और उसका छेद होना मरण है। ये भी पौद्गलिक हैं क्योंकि मूर्तिमान कारणोंके होनेपर सुखादिकी उत्पत्ति होती है। पुद्गल केवल जीवोंके ही शरीरादिकी रचनामें कारण नहीं हैं। पुद्गल पुद्गलोंका भी उपकार ३० करते हैं । भस्मसे कांसीके बरतन आदि, निर्मली आदिसे जलादि तथा जलादिसे लोहा आदि स्वच्छ होते हैं। इसी प्रकार औदारिक, वैक्रियिक और आहारक नामकर्मके उदयसे आहारवर्गणाके रूपमें आये तीन शरीर और उच्छ्वास-निश्वास, तैजस नामकर्मके उदयसे
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गो०जीवकाण्डे
कर्मोददिदं कार्मणवर्गयिदं कार्मणशरीरमक्कुं। स्वरनामकमेदिदिदं भाषावगंयिदं वचनमक्कुं। नोइंद्रियावरणक्षयोपशमोपेतमप्प संज्ञिजीवक्कंगोपांगनामोददिदं मनोवर्गणेयिदं द्रव्यमनमक्कुमेंबुदत्थं । ई यर्थमं मुंदण सूत्रद्वदिदं पेळ्दपं ।
आहारवग्गणादो तिण्णि सरीराणि होति उस्सासो।
हिस्सासो वि य तेजोवग्गणखंधा दु तेजंगं ॥६०७।। ___ आहारवर्गणायास्त्रीणि शरीराणि भवंति उच्छ्वासो। निश्वासोपि च तेजोवर्गणास्कंधातैजसांगं॥
औदारिकवैक्रियिकाहारकर्मबी मूरु शरीरंगळु उच्छ्वासनिश्वासंगमाहारवर्गणेयिंदमप्पुवु । तेजोवर्गणास्कंधदिदं तैजसशरीरमक्कुं।
भासमणवग्गणादो कमेण भासा मणं तु कम्मादो ।
अट्टविहकम्मदव्वं होदित्ति जिणेहि णिढेिं ।६०८॥ भाषामनोवग्गणातः क्रमेण भाषामनस्तु कार्मणात् । अष्टविधकर्मद्रव्यं भवतीति जिनैनिर्दिष्टं ॥
भाषावर्गणास्कंघर्गाळदं चतुविधभाषयकुं । मनोवर्गणास्कंधंगलिंदं द्रव्यमनमक्कुं। १५ कार्मणवर्गणास्कंधळिदं अष्टविधकर्मद्रव्यमक्कुम दितु जिनस्वामिगलिंदं पेळल्पटुदु ।
णिद्धत्तं लुक्खत्तं बंधस्स य कारणं तु एयादी ।
संखेज्जाऽसंखेज्जाणंतविहा णिद्धलुक्खगुणा ।।६०९॥ स्निग्धत्वं रूक्षत्वं बंधस्य कारणं त्वेकादयः। संख्येयाऽसंख्येयानंतविधाः स्निग्धरूक्षगुणाः॥
कार्मणनामकर्मोदयात् कार्मणवर्गणया कार्मणशरीरम् । स्वरनामकर्मोदयाद् भाषावर्गणया वचनं, नोइन्द्रिया२० वरणक्षयोपशमोपेतसंज्ञिनोऽङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयात् मनोवर्गणया द्रव्यमनश्च भवतीत्यर्थः ।।६०६॥ अमुमेवार्थ सूत्रद्वयेनाह
___ औदारिकवैक्रियिकाहारकनामानि त्रीणि शरीराणि उच्छ्वासनिश्वासौ च आहारवर्गणया भवन्ति । तेजोवर्गणास्कन्धः तेजःशरीरं भवति ॥६०७॥
भाषावर्गणास्कन्धेश्चतुर्विधभाषा भवन्ति । मनोवर्गणास्कन्धैः द्रव्यमनः, कार्मणवर्गणास्कन्धैरष्टविधं २५ कर्मेति जिननिर्दिष्टम् ॥६०८॥
wwww
तैजस वर्गणासे तैजस शरीर, कार्मण नामकर्मके उदयसे कार्मणवर्गणासे कामणशरीर, स्वरनामकर्मके उदयसे भाषावर्गणासे वचन और नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे युक्त संज्ञीके अंगोपांगनामकर्मके उदयसे मनोवर्गणासे द्रव्यमन बनता है ॥६०६।।
इसी अर्थको दो गाथाओंसे कहते हैं
आहारवर्गणासे औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन शरीर और उच्छ्वासनिश्वास होते हैं। तैजसवर्गणाके स्कन्धोंसे तैजसशरीर होता है ॥६०७॥ ।
भाषावर्गणाके स्कन्धोंसे चार प्रकारकी भाषा होती है। मनोवर्गणाके स्कन्धोंसे द्रव्यमन होता है और कार्मणवर्गणाके स्कन्धोंसे आठ प्रकारके कम होते हैं। ऐसा जिनदेवने कहा है ॥६०८॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८५५ बाह्याभ्यंतरकारणाक्शदिदं स्नेहपर्यायाविर्भावदिदं स्निह्यतेऽस्मिन्निति स्निग्धः स्निग्धस्य भावःस्निग्धत्वं । चिक्कणलक्षणपायमेंबदथें । तोयाजागोमहिष्युष्टिकाक्षीरघृतंगळोळु स्निग्धगुणमेंतु प्रकर्षाप्रकर्षदिदं वत्तिसुगुं । रूक्षणाद्रूक्षस्तस्य भावः रूक्षत्वं । आवुदोंदु चिक्कणलक्षणपर्यायमदर विपरीतपरिणामं रूक्षत्वमें बुदत्थं । पांसुकणिकाशर्करादिगळोळु रूक्षगुणमे तु काणल्पटुदंते परमाणुगोळं स्निग्धरूक्षगुणंगळ वृत्तियुं प्रकर्षांप्रकर्षाददमनुमानिसल्पडुगुं। स्निग्धत्वमुं रूक्षत्वमुं द्वयणुकादिपर्यापरिणमनरूपबंधक्के कारणमक्कं । च शब्दविंदं विश्लेषक्कयं कारणमक्कुं। स्निग्धगुणपरिणतपरमाणुगळ्गं रूक्षगुणपरिणतपरमाणुगळगं परस्परश्लेषलक्षणबंधमागुत्तिरलु द्वयणुकस्कंधमक्कुमबुदमितु संख्येयासंख्येयानंतप्रदेशस्कंधं योजिसल्पडुवुदु। अल्लि स्नेहगुणमेकद्वित्रिचतुःसंख्येयासंख्येयानंतविकल्पमक्कुमा प्रकारदिदमे रूक्षगुणमक्कुं। संदृष्टिः
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ED००००००००४y morn
बाह्याभ्यन्तरकारणवशात् स्नेहपर्यायाविर्भावेन स्निह्यतेऽस्मिन्नेतिस्निग्वः, तस्य भावः स्निग्धत्वं चिक्क- १. णत्वमित्यर्थः। रूक्षणात् रूक्षः, तस्य भावो रूक्षत्वं चिक्कणत्वाद्विपरीततेत्यर्थः । स्निग्धत्वं तोयाजागोमहिष्युष्ट्रिकाक्षीरघृतादिषु, रूक्षत्वं च पांशुकणिकाशर्करादिषु प्रकर्षाप्रकर्षभावेन दृश्यते तथा परमाणुष्वपि । ते स्निग्धत्वरूक्षत्वे द्वयणुकादिपर्यायपरिणमनरूपबन्धस्य चशब्दाद्विश्लेषस्य च कारणे भवतः । स्निग्धगुणपरिणतपरमाणोः रूक्षगुणपरिणतपरमाणोः स्निग्धरूक्षगुणपरिणतपरमाण्वोश्च परस्परश्लेषलक्षणे बन्धे सति द्वयणुकस्कन्धो भवतीत्यर्थः। एवं संख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशस्कन्धोऽपि योज्यः । तत्र स्नेहगुणः एकद्वित्रिचतुःसंख्येयासंख्येयानन्तविकल्पो भवति तथा रूक्षगुणोऽपि ॥६०९॥
बाह्य और अभ्यन्तर कारणके वशसे स्नेह पर्यायके प्रकट होनेसे स्नेहपन होना स्निग्ध है। उसके भावको स्निग्धता कहते हैं, जिसका अर्थ चिक्कणता है। रूखापनसे रूक्ष है। उसका भाव रूक्षता है। उसका अर्थ चिक्कणतासे विपरीत होना है। जल तथा बकरी, गाय, भैंस, ऊँटनीके दूध-घी आदिमें स्निग्धता व धूलि, रेत, बजरी आदिमें रूक्षता हीनाधिक रूपसे देखी जाती है। इसी तरह परमाणुओमें भी होती है। वह स्निग्धता और रूक्षता द्वथणुक आदि पर्याय परिणमनरूप बन्धका और 'च' शब्दसे बन्धके भेदनका कारण है। स्निग्धगुणरूप परिणत दो परमाणुके रूक्षगुणरूप परिणत दो परमाणुके और एक ग्निग्ध तथा एक रूक्षगुणरूप परिणत परमाणुके परस्परमें मिलने रूप बन्धके होनेपर द्वथणुक स्कन्ध बनता है। इसी प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी जानना। उनमें से , स्नेहगुण एक, दो, तीन, चार, संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रकारका होता है। इसी तरह रूक्षगुण भी होता है ॥६०९|| १-२. मगुगं ।
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गो० जीवकाण्डे एयगुणं तु जहण्णं गिद्धत्तं विगुणतिगुणसंखेज्जा-।
संखेज्जाणंतगुणं होदि तहा रुक्खभावं च ॥६१०॥ एकगुणस्तु जघन्यं स्निग्धत्वं द्विगुणत्रिगुणसंख्येयासंख्येयानंतगुणो भवति तथा रूक्षभावश्च ॥
आ स्निग्धत्वगुणवलियोळु तु मत्त एकगुणमप्प स्निग्धत्वं जघन्यमक्कुमदादियागि द्विगुण५ त्रिगुण संख्ययासंख्येयानंतगुणमक्कुमंते रूक्षत्वमुमरियल्पडुगुं ।
एवं गुणसंजुत्ता परमाणू आदिवग्गणम्हि ठिया ।
जोग्गद्गाणं बंधे दोण्हं बंधो हवे णियमा ॥६११॥ एवं गुणसंयुक्ताः परमाणवः आदिवर्गणायां स्थिताः। योग्यद्विकानां बंधे द्वयोब्बंधो भवेन्नियमात् ॥
ई पेळल्पट्ट स्निग्धरूक्षगुणसंयुक्तंगळप्प परमाणुगळु मोदल अणुवर्गणेयोळिरुत्तिरल्पटुवु । योग्यद्विकंगळगे बंधमप्पडयोळा एरडक्कं बंधं नियमदिंदमक्कुं । स्निग्धरूक्षत्वगुणनिमित्तमप्प बंधमविशेषदिंद प्रसक्तमादोडे अनिष्टगुणनिवृत्तिपूर्वकं विधियिसिदपरु।
णिद्धणिद्धा ण बज्झंति रुक्खरुक्खा य पोग्गला ।
णिद्धलुक्खा य बझंति स्वारूवी य पोग्गला ॥६१२।। स्निग्धस्निग्धा न बध्यते रूक्षरूक्षाश्च पुद्गलाः। स्निग्धरूक्षाश्च बध्यंते रूप्यरूपिणश्च पुद्गलाः॥
स्निग्धगुणपुद्गलंगळोडने स्निग्धगुणपुद्गलंगळ बंधमागल्पडवु । रूक्षगुणपुदगलंगळोडने रूक्षगुणपुद्गलंगळुमते बंघमागल्पडवु। इदुत्सर्गविधियक्कुमेके दोडे विशेषविधियं मुंद पेळल्पट्टपुदप्पुरिदं स्निग्धगुणपुद्गलंगळोडने रूक्षगुणपुद्गलंगल बंधमागल्पडुबुवंतप्प पुद्गलंगळु रूपि
स्निग्धगुणावल्या तु पुनः एकगुणं स्निग्धत्वं जघन्यं स्यात् । तदादिं कृत्वा द्विगुणत्रिगुणसंख्येयासंख्येयानन्तगुणं भवति तथा रूक्षत्वमपि ॥६१०॥
एवं स्निग्धरूक्ष गुणसंयुक्ताः परमाणवः अणुवर्गणायां तिष्ठति योग्यद्विकानां बन्धस्थाने तयोरेव द्वयोर्बन्धो नियमेन भवति ॥६११॥ स्निग्धरूक्षगुणनिमित्तं बन्धस्याविशेषेण प्रसक्तावनिष्टगुणनिवृतिपूर्वकं विधिं करोति
स्निग्धगुणपुद्गलै: स्निग्धगुणपुद्गलाः न बध्यन्ते । तथा रूक्षगुणपुद्गलै: रूक्षगुणपुद्गला न बध्यन्ते, २५ अयमुत्सर्गविधिः । विशेषविधेर्वक्ष्यमाणत्वात् । स्निग्धगुणपुद्गलै: रूक्षगुणपुद्गलाः बध्यन्ते ते च पुद्गलाः
स्निग्ध गुणकी पंक्तिमें एक गुण स्निग्धताको जघन्य कहते हैं। उससे लेकर दो गुण, तीन गुण, संख्यात गुण, असंख्यात गुण और अनन्त गुण रूप स्निग्ध गुण होता है। इसी प्रकार रूक्षगुण भी जानना ॥६१०।।
इस प्रकारके स्निग्ध और रूक्षगुणोंसे संयुक्त परमाणु अणुवर्गणामें विद्यमान हैं। उनमेंसे योग्य दो परमाणुओंके बन्धस्थानको प्राप्त होनेपर उन्हीं दोका बन्ध होता है ॥६११।।।।
स्निग्ध और रूक्ष गुणके निमित्तसे सर्वत्र बन्धका प्रसंग प्राप्त होनेपर अनिष्ट गुणवालोंके बन्धका निषेध करते हुए बन्धका विधान करते हैं-स्निग्धगुण युक्त पुद्गलोंके साथ स्निग्ध गुण युक्त पुद्गलोंका बन्ध नहीं होता। तथा रूक्ष गुण युक्त पुद्गलोंके साथ रूक्ष गुण युक्त
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८५७ गळुमरूपिगळुमेंब पसरतुळ्ळवप्पुवु । आ रूप्यरूपिगळं पेन्दध:
णिद्धिदरोलीमज्झे विसरिसजादिस्स समगुणं एक्कं ।
रूवित्ति होदि सण्णा सेसाणं ता अरूवित्ति ॥६१३॥ स्निग्धेतरावलिमध्ये विसदृशजात्याः समगुण एकः । रूपोति संज्ञा भवति शेषानंताः अरूपिण इति ॥
स्निग्धरूक्षगुणावळिगळ मध्यदोळु विसदृशजातियप्पुदरसमानगुणमनुलदो दे रूपियादितु 'संज्ञेयनुळ्ळुदक्कुमदल्लदुळिदेल्ला विकल्पंगळुमदक्करूपिगळे दितु संज्ञेगळप्पुवु। अदेतेंदोडे :
दोगुणणिद्धाणुस्स य दोगुणलुक्खाणुगं हवे रूवो ।
इगितिगुणादि अरूवी रुक्खस्स वि तं व इदि जाणे ॥६१४॥ द्वितीयो गुणो यस्य अथवा द्वौ गुणौ यस्य यस्मिन् वा स द्विगुणः स्निग्धाणोश्च द्विगुण- १० रूक्षाणुर्भवेद्रूपी । एकत्रिगुणादयोऽरूपिणः रूक्षस्यापि तद्वदिति जानीहि ॥
द्वितीयगुणमनुळ्ळ अथवा यरडुगुणमनुळ्ळ स्निग्धगुणाणुविंगे विसदृशजातियप्प द्विगुणरूक्षाणु रूपियदु पसेरनुळ्ळुदक्कुमुळिदेकत्रिगुणादिसर्वरक्षाणुगळ अरूपिगळेदु सरक्कुमी प्रकारदिदं द्विगुणरूक्षाणुविगे द्विगुणस्निग्धाणुरूपियक्कुमदल्लदुळिदेकत्रिगुणादिसर्वस्निग्धाणु विकल्पंगळनंतगळऽरूपिगळेदु एले शिष्य ! नीनरि।
रूपीत्यरूपीतिनामानो भवन्ति ॥६१२॥ तानेव लक्षयति
स्निग्धरूक्षगुणावल्योर्मध्ये विसदशजातेः समानगुणः एकः रूपीति संज्ञो भवति । शेषाः सर्वे अरूपीति संज्ञा भवन्ति ॥६१३॥ तदेवोदाहरति
द्वितीयो गुणो द्वौ गुणौ वा यस्य यस्मिन् वा द्विगुणः तस्य द्विगुणस्य स्निग्धाणोः द्विगुणरूक्षाणुः रूपीतिनामा भवेत् । शेषैकत्रिगुणादयः सर्वे रूक्षाणवः अरूपीतिनामानो भवन्ति । एवं द्विगुणरूक्षाणोद्विगुण- २० स्निग्धाणुः रूपी शेषकत्रिगुणादिसर्वस्निग्धाणवः अरूपीति नामानः इति जानीहि ॥६१४॥
पुद्गलोंका बन्ध नहीं होता - यह कथन सामान्य है। विशेष विधि कहेंगे। स्निग्ध गुण युक्त पुद्गलोंके साथ रूक्षगुण युक्त पुद्गल बंधते हैं। और उन पुद्गलोंका नाम रूपी और अरूपी है ॥६१२॥
उन्हींका लक्षण कहते हैं
स्निग्धगुण और रूक्षगुणोंकी पंक्तियोंके मध्यमें विजातिके समान गुणवाले एक परमाणुको रूपी नामसे कहते हैं । शेष सबकी अरूपी संज्ञा है ॥६१३।।
उसीका उदाहरण देते हैं
जिसका दूसरा गुण है या जिसमें दो गुण हैं, उसे द्विगुण कहते हैं। उस दो गण स्निग्धवाले परमाणुका दो गुण रूक्षवाला परमाणु रूपी कहलाता है। शेष एक, तीन आदि ३० रूक्ष गुणवाले सब परमाणु अरूपी नामवाले होते हैं। इसी प्रकार दो गुण रूक्षवाले परमाणुका दो गुण स्निग्धवाला परमाणु रूपी है। शेष एक, तीन आदि गुणवाले सब स्निग्ध परमाणु अरूपी जानना ।।६१४॥
१. म संज्ञिथक्कु । २. म पेसरक्कु ।
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८५८
गो० जीवकाण्डे णिद्धस्स गिद्धेण दुराहिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुराहिएण ।
णिद्धस्स रुक्खेण हवेज्ज बंधो जहण्णवज्जे विसमे समे वा ॥६१५॥ स्निग्धस्य स्निग्धेन द्वयधिकेन रूक्षस्य रूक्षेण द्वयधिकेन । स्निग्धस्य रूक्षेण भवेबंधो जघन्यवये विषमे समे वा ॥
स्निग्धपरमाणुविंगे द्विगुणाधिकस्निग्धपरमाणुविनोडने बंधमक्कुमंते रूक्षाणुविर्ग द्विगुणाधिकरूक्षाणुविनोडने बंधमक्कुं। स्निग्धाणुविंगे द्विगुणाधिकरूक्षाणुविनोडने बंधमक्कुमल्लि स्निग्धरूक्षगुणंगळ परमाणुगळोळु जघन्यमप्पेकगुणयुतपरमाणुगळं वजिसि शेषसमस्निग्धधारियोळं समक्षधारियोळं विषमस्निग्धधारियोळं विषमरूक्षधारियोळं तंतम्म तदनंतरोपरितनद्वघधिकस्निग्धरूक्षंगळ्गे बंधमक्कुं। संदृष्टिः
स्नि ०२४/६/८/१०१२००७००००० ख रू ० २ ४ ६ ८/१०१२००७००००० ख स्नि | 0 | ३/५/७ ९१११३००७००००० ख
रू | 0 | ३ ५७ ९१११३/००७००००० ख इल्लि सदृशगुणयुक्तरूपियोडने रूपिंगे बंधमिल्ल। समगुणयुक्तंगलिगे विषमगुणयुक्तंगळोडर्न बंधमिल्ले बो विशेषमरियल्पडुगुमेके दोर्ड अवरोळु द्वघधिकत्वं घटियिसदप्पुरिदं ।
स्निग्धाणोः द्विगुणाधिकस्निग्धाणुना बन्धो भवति । तथा रूक्षाणोः द्विगुणाधिकरूक्षाणुना बन्धो भवति । स्निग्धाणोः द्विगुणाधिकरूक्षाणुना बन्धो भवति । तत्र स्निग्धरूक्षगुणपरमाणुषु जघन्यं एकगुणपरमाणु
वर्जयित्वा शेषाणां समस्निग्धरूक्षधारयोविषमस्निग्धरूक्षधारयोश्च स्वस्वतदनन्तरोपरितनद्वयधिकस्निग्व१५ रूक्षाणूनां बन्धो भवति । अत्र सदृशगुणरूपिणा रूपिणः, समगुणानां विषमगुणैश्च बन्धो नेति विशेषो ज्ञातव्यः,
तेषु द्वयधिकगुणत्वाभावात् ॥६१५॥
स्निग्ध परमाणुका दो गुण अधिक स्निग्ध परमाणु के साथ बन्ध होता है। उसी प्रकार रूक्ष परमाणुका दो गुण अधिक रूक्ष परमाणुके साथ बन्ध होता है। स्निग्ध परमाणुका दो
गुण अधिक रूझ परमाणुके साथ बन्ध होता है। उन स्निग्ध गुणवाले और रूक्ष गुणवाले २० परमाणुओं में जघन्य एक गुणवाले परमाणुको छोड़कर शेष समस्निग्ध धारा और सम रूक्ष
धारामें तथा विषम स्निग्ध धारा और विषम रूक्ष धारामें अपने-अपनेसे अनन्तरवर्ती दो अधिक स्निग्ध और रूक्ष गुणवाले परमाणुओंका बन्ध होता है। यहाँ इतना विशेष जानना कि सदृश गुणवाले रूपीका सदृश गुणवाले रूपीके साथ तथा समगुणवालोंका विषम गुण
वालोंके साथ बन्ध नहीं होता। अर्थात् दोका दो गुणवालेके साथ या दो गुणवालेका पाँच २५ गणवालेके साथ बन्ध नहीं होता क्योंकि यहाँ दो अधिक गुणका अभाव है ॥६१५।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
णिद्धिदरे समविसमा दोत्तिगआदीदुउत्तरा होंति । उभयेविय समविसमा सरिसिदरा होंति पत्तेयं ॥६१६ ॥
स्निग्धेतरयोः समविषमौ द्वित्र्यादिद्वयुत्तरौ भवतः । उभयस्मिन्नपि च समविषमौ सदृशेतरौ भवतः प्रत्येकं ॥
स्निग्धरूक्षगुणंगळ समपंक्तिद्वयांकंगळं विसमपंक्तिद्वयांकंगळं प्रत्येकं द्वित्र्यादिद्वयुत्तरंगळ - ५ पुवा उभयदोळं समविषमौ रूप्यरूपिगलु सदृशांकंगळु मसदृशांकंगळु मप्पुवदे तें दोडे :- स्निग्धरूक्षसमांकपंक्तिद्वयद एरडक्केरडु नाल्कक्के नाल्कु आरक्कार एंटक्के पत्त पत्तु पक्के पन्नेरडु मोदलागि संख्याताऽसंख्यातानंतगुणयुतंगळु रूपिगळु परस्परं, आ स्निग्धरूक्षविषमांक पंक्तिद्वयद मूरक्के मूरु, अय्बक्कय्दु, एळक्केछु, ओ भतक्के वो भतु, पन्नों दक्के पन्नों दु, पदि - मूरके पदिमूरु इवु मोदलागि संख्याताऽसंख्यातानंतगुणंगळु परस्परं रूपिगळुमी सदृशंगळगतरं- १० गळु । एरडुनाका टुपत्तु पन्नेरडु मोदलागि संख्याता संख्यातानंतंगळेल्लम रूपिगळु । मूरैवेळ अभत्तु पन्नोंटु पदमूरु मोदलागि संख्यातासंख्यातानंतंगळेल्लमरूपिगळु । प्रत्येकं स्निग्धदोळं रूक्षदोळं रूपिगळ बंधमिल्ल । तत्त्वार्थदोळमंते “गुणसाम्ये सदृशानामे दितु पेळल्पटट्टुवु ।
अरूपिगळगे बंधमुटु स्वस्थानदोळं परस्थानदोळं ई यथमने प्रकारांतरदिदं पेदपरु :
स्निग्धरूक्षगुणानां समपंक्तिद्वयाङ्काः विषमपंक्तिद्वयाङ्काश्च प्रत्येकं द्वित्र्यादिद्वयुत्तरा भवन्ति । ते १५ उभयेऽपि अंकाः समविषमाः रूप्यरूपिणः सदृशाङ्काः असदृशाङ्का भवन्ति । यथा स्निघरूक्षसमाङ्क पंक्तयोः द्वयस्य द्वयं चतुष्कस्य चतुष्कं षट्कस्य षट्कं अष्टकस्य अष्टकं दशकस्य दशकं द्वादशकस्य द्वादशकं एवमादिसंख्याता संख्यातानन्तगुणयुताः, तद्विषमाङ्कपङ्क्तयोः त्रयस्य त्रयं पञ्चकस्य पञ्चकं सप्तकस्य सप्तकं नवकस्य नवकं एकादशकस्य एकादशकं त्रयोदशकस्य त्रयोदशकं एवमादिसंख्याता संख्यातानन्तगुणयुताश्च परस्परं रूपिणः । शेषाः द्विचतुः षडष्टदशद्वादशादिसंख्याता संख्यातानन्ताः । त्रिपञ्चसप्तनवैकादशत्रयोदशादिसंख्यातासंख्यातानन्ताश्चारूपिणः । प्रत्येकं स्निधे रूक्षे च रूपिणां बन्धो नास्ति । तत्वार्थेऽपि 'गुणसाम्ये सदृशानां' इति तथैव वचनात् । अरूपिणां बन्धः स्यात् स्वस्थाने परस्थानेऽपि ॥ ६१६ ॥ अमुमेवार्थं प्रकारान्तरेणाह -
२०
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२५
स्निग्ध और रूक्ष गुणवालों में से प्रत्येकमें दोको लेकर दो गुण अधिक होनेपर समपंक्ति और तीनको लेकर दो गुण अधिक होनेपर विषम पंक्ति होती है । वे दोनों ही सम और विषम रूपी और अरूपी होते हैं । जैसे स्निग्ध और रूक्ष सम अंकवाली पंक्तियोंमें दो का दो, चारका चार, छहका छह, आठका आठ, दसका दस, बारहका बारह रूपी है। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात, अनन्तगुण पर्यन्त जानना । विषम अंकवाली पंक्तियों में तीनका तीन, पाँचका पाँच, सातका सात, नौका नौ, ग्यारहका ग्यारह, तेरहका तेरह, इसी तरह संख्यात, असंख्यात और अनन्त गुणवाले परमाणु परस्परमें रूपी हैं। इनके सिवाय शेष अरूपी हैं। प्रत्येक स्निग्ध और रूक्ष में रूपीका बन्ध नहीं होता है । तत्त्वार्थ सूत्रमें भी कहा है कि गुणों की समानता सदृशों का बन्ध नहीं होता । अरूपियोंका बन्ध स्वस्थानमें अर्थात् स्निग्धका स्निग्ध के साथ, रूक्षका रूक्षके साथ और परस्थानमें अर्थात् स्निग्धका रूक्ष के साथ या रूक्षका स्निग्ध के साथ बन्ध होता है ||६१६ ॥
३०
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गो० जीवकाण्डे दोत्तिगपभवदुउत्तरगदेसणंतरदुगाण बंधो दु ।
णिद्दे लुक्के वि तहा वि जहण्णुभये वि सव्वत्थ ॥६१७॥ द्वित्रिप्रभवद्वयुत्तरगतेष्वनंतरद्विकानां बंधस्तु । स्निग्धे रूक्षेपि तथा वि जघन्योभयस्मिन्नपि
। सर्वत्र॥
१०
स्निग्धे स्निग्धदोळं रूक्षेपि रूक्षदोळं द्वित्रिप्रभवमुं द्वयुत्तरमागि नडेववरोळु उपरितनानंतरद्विकंगळगे स्निग्धद नाल्कक्कं रूक्षद नाल्कक्कं स्निग्धदेरडरोळं रूक्षदेरडरोळं बंधमक्कुं। स्निग्धदैदक्कं रूक्षदयिदक्कं स्निग्धद मूररोळं रूक्षद मूररोळं बंधमक्कु । मितागुत्तिरलु जघन्यगुणयुतदोळं बंधप्रसंगमादोडे जघन्यज्जितमप्पुभयदोळु स्निग्धरूक्षद्वयदोळ सर्वत्र बंधमरियल्पडुगुमें बुदत्य ।
णिद्धदरवरगुणाणू सपरट्टाणे वि णेदि बंधळं ।
बहिरंतरंगहेदुहि गुणंतरं संगदे एदि ॥६१८॥ स्निग्धेतरावरगुणाणः स्वपरस्थानेपि नैति बंधात्यं । बाह्याभ्यंतरहेतुभ्यां गुणांतरं संगते एति ॥
स्निग्धजघन्यगुणाणुवु रूक्षजघन्यगुणाणुवं स्वस्थानदोळं परस्थानदोळं बंधनिमित्तमागि १५ सल्लदु । बाह्याभ्यंतरहेतुर्गाळदं गुणांतरमं पोद्दि बंधक्क सल्गुं। तत्वार्थदोळं "न जघन्यगुणाना" में दितु पेळल्पटुदु।
स्निग्धे रूक्षेऽपि द्वित्रिप्रभवद्वयु त्तरक्रमेण गच्छन्ति तेषु उपरितनानन्तरद्विकानां स्निग्धचतुष्कस्य रूक्षचतुष्कस्य च स्निग्धद्वये रूक्षद्वये च बन्धः स्यात् । स्निग्वपञ्चकस्य रूक्षपञ्चकस्य च स्निग्धत्रये रूक्षत्रये च बन्धः स्यात् । एवं जघन्यगुणयुतेऽपि बन्धप्रसक्तो जघन्यजिते उभयत्र स्निग्धरूक्षद्वये सर्वत्र बन्धो ज्ञातव्य इत्यर्थः ॥६१७॥
स्निग्धजघन्यगुणाणुः रूक्षजघन्यगुणाणुश्च स्वस्थाने परस्थानेऽपि बन्धाय योग्यो न, बाह्याभ्यन्तरहेतुभिर्गुणान्तरं प्राप्तस्तु योग्यः स्यात् । तत्त्वार्थेऽपि 'न जघन्यगुणानां' इत्युक्तत्वात् ॥६१८।।
इसीको अन्य प्रकारसे कहते हैं
स्निग्ध और रूक्ष में भी दोको आदि लेकर तथा तीनको आदि लेकर दो-दो बढ़ते २५ जाते हैं। उनमें ऊपरके अनन्तरवर्ती दोका बन्ध होता है। जैसे चार गुण स्निग्धवालेका ___ दो गुण स्निग्धवाले दो गुण रूक्षवालेके साथ तथा चार गुण रूक्षवालेका दो गुण रूक्षवाले या
दो गुण स्निग्धवालेके साथ बन्ध होता है। इसी तरह पाँच गुण स्निग्ध या पाँच गुण रूक्षवालेका तीन गुण स्निग्ध या तीन गुण रूक्षवालेके साथ बन्ध होता है। इस प्रकार एक अंशयुक्त
जघन्य गुणवालोंका भी बन्ध प्राप्त होनेपर निषेध करते हैं कि जघन्यको छोड़कर स्निग्ध ३० और रूझ दोनोंमें सर्वत्र बन्ध जानना ॥६१७॥
जघन्य स्निग्ध गुणवाला या जघन्य रूक्ष गुणवाला परमाणु स्वस्थान और परस्थानमें भी बन्धके योग्य नहीं है। वही परमाणु बाह्य और अभ्यन्तर कारणोंसे यदि अधिक गुणवाला होता है,तो बन्धके योग्य होता है। तत्त्वार्थ सूत्रमें भी कहा है कि जघन्य गुणवालोंका बन्ध नहीं होता ॥६१८॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका णिद्धिदरगुणा अहिया हीणं परिणामयंति बंधम्मि ।
संखेज्जासंखेज्जाणंतपदेसाण खंधाणं ॥६१९॥ स्निग्धेतरगुणा अधिकाः होनं परिणमयंति बंधे। संख्यातासंख्यातानंतप्रदेशानां स्कंधानां ॥
संख्यातासंख्यातानंतप्रदेशंगळनुझळ स्कंधंगळ मध्यदोळु स्निग्धगुणस्कंधंगळु रूक्षगुणस्कंधंगळं अधिकाः एरडुगुणंगलिनधिकमप्पुवु। बंधे बंधमप्पागळु होनं होनस्कंधमं परिणमयंति ५ पिडिदु कोंडु बंधक बरिसुववु। तत्त्वार्थदोमिते "बंधेऽधिको पारिणामिको भवतः एंदितु काणल्पडुगुं षड्द्रव्यंगळचरमफलाधिकारं तिर्दुदु । अनंतरं पचास्तिकायंगळं पेळ्दपं:
दव्वं छक्कमकालं पंचत्थीकायसंण्णिदं होदि ।
काले पदेसपचयो जम्हा णस्थिति णिदि8 ॥६२०॥ द्रव्यं षट्कमकालं पंचास्तिकायसंज्ञितं भवति । काले प्रदेशप्रचयो यस्मान्नास्तीति निर्दिष्टं।
मुन्नं पेळल्पट्ट द्रव्यषट्कमे कालद्रव्यदिदं रहितमादोडे पंचास्तिकायम ब संजयनुळ्ळुदक्कुदेके दोडे काले कालद्रव्यदोळु प्रदेशप्रचयमावुदोंदु कारणदिदमिल्लमदु कारणदिदमितु प्रदेशप्रचय. मनु वस्तिकायगळेदु परमागमवाळु पेळल्पटुदु। अनंतरं नवपदात्थंगळं पेन्दपं:
णव य पदत्था जीवाजीवा ताणं च पुण्णपावदुगं ।
आसवसंवरणिज्जरबंधा मोक्खो य होतित्ति ॥६२१॥ नव पदार्थाः जीवाजीवास्तेषां पुण्यपापद्वयमानवसंवरनिर्जराबंधा मोक्षश्च भवतीति ॥
संख्यातासंख्यातानन्तप्रदेशस्कन्धानां मध्ये स्निग्धगुणस्कन्धाः रूक्षगुणस्कन्धाश्च द्विगुणाधिकाः ते बन्धे हीनगुणस्कन्धं परिणामयन्ति । तत्त्वार्थेऽपि "बन्धेऽधिको पारिणामिको च" इत्युक्तत्वात् ॥६१९॥ इति २० फलाधिकारः । अथ पञ्चास्तिकायानाह
प्रागुक्तद्रव्यषट्कं अकालं कालद्रव्यरहितं पञ्चास्तिकायसंज्ञकं भवति, कूतः ? कालद्रव्ये प्रदेशप्रचयो यतो नास्ति ततः कारणात् इति प्रदेशप्रचययुता अस्तिकाया इत्युक्तं परमागमे ॥६२०॥ अथ नवपदार्थानाह
संख्यात, असंख्यात और अनन्तप्रदेशी स्कन्धोंके मध्यमें दो अधिक गुणपाले स्निग्ध स्कन्ध या रूक्ष स्कन्ध बन्धके होनेपर हीन गुणवाले स्कन्धको अपने रूप परिणमाते हैं। २५ तत्त्वार्थ सूत्र में भी कहा है कि बन्धके होनेपर अधिक गुणवाला परिणामक होता है ।।६१९॥
इस प्रकार फलाधिकार समाप्त हुआ। अब पाँच अस्तिकायोंको कहते हैं
पहले कहे गये छह द्रव्योंमें-से कालद्रव्यको छोड़कर पंचास्तिकाय कहलाते हैं । क्योंकि कालद्रव्यमें प्रदेशोंका प्रचय नहीं है अर्थात् कालाणु एकप्रदेशी होता है। और परमागममें ३० प्रदेशसमूहसे युक्तको अस्ति काय कहा है ॥६२०॥
नौ पदार्थोंको कहते हैं
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८६२
गौ० जीवकाण्डे जीवाजीवाः जीवंगळुमजीवंगळु तेषां अवर पुण्यपापद्वयं पुण्यमुं पापमुमेंबेरडं आस्रवसंवरनिर्जराबंधमोक्षाः आस्रवमुं संवरमुं निर्जरयं बंधमुं मोक्षमुदितु नवपदात्थंगळप्पुवं । पदार्थशब्दं सर्वत्र संबंधिसल्पडुगुं । जीवपदात्यः अजीवपदार्थः इत्यादि ।
जीवदुगं उत्तत्थं जीवा पुण्णा हु सम्मगुण सहिदा ।
वदसहिदा वि य पावा तव्विवरीया हवंतित्ति ॥६२२।। जीवद्वयमुक्तात्थं जीवाः पुण्याः खलु सम्यक्त्वगुणसहिताः। व्रतसहिताः अपि च पापास्तद्विपरीता भवंतीति ॥
जीवपदार्थमुमजीवपदाव॑मुं मुन्नं जीवसमासेयोळं षड्द्रव्याधिकारदोळ पेन्दुदेयक्कुं। सम्यक्त्वगुणयुक्तजीवंगळ व्रतयुक्तजीवंगळं पुण्यजीवंगळप्पुवु। तद्विपरीतंगळु तद्वयरहितंगळं पाप' जीवंगळेदरियल्पडुवुवु खलु नियदिदं। चतुर्दशगुणस्थानंगळोळु जीवसंख्ययं पेळुत्तं मिथ्यादृष्टिगळं सासादनलं पापजीवंगळेदु पेळ्दपं:
मिच्छाइट्ठी पावाणंताणता य सासणगुणा वि ।
पल्लासंखेज्जदिमा अणअण्णदरुदयमिच्छगुणा ॥६२३॥ ।
मिथ्यादृष्टयः पापाः अनंतानंताश्च सासादनगुणा अपि। पल्यासंख्येयभागाः अनंतानुबंधि १५ अन्यतरोदयमिथ्यागुणाः॥
पापरूपरुगळप्प मिथ्यादृष्टिजीवंगळु किंचिदून संसारिराशिप्रमाणरप्परेके दोर्ड सासादनादितरगुणस्थानजीवसंख्युयिद होनरप्पुरिदं । अदु कारणदिदमनंतानंतगळप्पु० ॥१३॥सासादनगुण
जीवा अजीवाः तेषां पुण्यपापद्वयं आस्रवः संवरो निर्जरा बन्धो मोक्षश्चेति नवपदार्था भवन्ति । पदार्थशब्दः सर्वत्र सम्बन्धनीयः, जीवपदार्थः अजीवपदार्थः इत्यादिः ॥६२१॥
जीवाजीवपदार्थों द्वौ पूर्व जीवसमासे षड्द्रव्याधिकारे चोक्ताौँ । पुण्यजीवाः सम्यक्त्वगुणयुक्ता व्रतयुक्ताश्च स्युः । तद्विपरीतलक्षणाः पापजीवाः खलु-नियमेन ॥६२२॥ चतुर्दशगुणस्थानेषु जीवसंख्यां मिथ्यादृष्टिसासादनौ च पापजीवाविति आह
मिथ्यादृष्टयः पापाः-पापजीवाः। ते चानन्तानन्ता एव इतरगुणस्थानजीवसंख्योनसंसारिमात्रत्वात्
जीव, अजीव, उनके पुण्य और पाप दो तथा आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, बन्ध २५ और मोक्ष ये नौ पदार्थ होते हैं। पदार्थ शब्द प्रत्येकके साथ लगाना चाहिए; जैसे जीवपदार्थ, अजीवपदार्थ इत्यादि ॥६२१॥
___ पहले जीवसमासमें तथा छह द्रव्योंके अधिकारमें जीवपदार्थ और अजीवपदार्थका कथन कर दिया है। जो जीव सम्यक्त्वगुणसे युक्त हैं और व्रतोंसे युक्त हैं, वे जीव पुण्यरूप होते हैं । उनसे विपरीत लक्षणवाले अर्थात् जो न सम्यक्त्वयुक्त हैं और न व्रतोंसे युक्त हैं वे नियमसे पापरूप हैं ॥६२२॥
आगे चौदह गुणस्थानों में जीवोंकी संख्या और मिथ्यादृष्टि तथा सासादन गुणस्थानवाले जीवोंको पापी कहते हैं
मिथ्यादृष्टि जीव पापी हैं और वे अनन्तानन्त हैं; क्योंकि संसारी जीवोंकी राशिमें-से शेष तेरह गुणस्थानवी जीवोंकी संख्या घटानेपर मिथ्यादृष्टि जीवोंकी संख्या होती है ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८६३ मनुळ्ळ जीवंगळु पापजीवंगळप्पुवनंतानुबंध्यन्यतरोदयमिथ्यागुणयुतरप्पुदरिनवुवं पल्यासंख्यातेकभागप्रमाणमप्पुवु प
aar मिच्छा सावयसासणमिस्सा विरदा दुवारणता य ।
पल्लासंखेज्जदिममसंखगुणं संखगुणमसंखेज्जगुणं ।।६२४॥ मिथ्यादृष्टिश्रावकसासादन मिश्राविरताः द्विकवारानंताश्च । पल्यासंख्यातेकभागोसंख्येयगुणःऽ ५ संख्येयगुणोऽसंख्येयगुणः॥
मिथ्यादृष्टिजीवंगळु किंचिदूनसंसारिराशिप्रमितमप्पुरिदमनंतानंतगळप्पुवु ॥ १३ ॥ देशसंयतरुगळु पदिमूरुकोटि मनुष्य देशसंयतरिनधिकमप्प तिर्यग्गतिजरु पल्यासंख्यातेकभागप्रमितरप्परु ५ । धन १३ को। सासादनरुगळु मनुष्यगतिजद्विपंचाशत्कोटिसासादरिंदमधिकमप्प इतरगतित्रयजसासादनरनितुं देशसंयतरं नोडलं असंख्यातगुणमप्परु प धन ५२ को ई सासादनर- १० संख्येयं नोडलं मनुष्यगतिजमिश्ररिदं नूर नाल्कु कोटिळिंदमधिकमप्प त्रिगतिजमिश्ररु संख्यातगुणमप्परु प धन १०४ को ई मिश्रगुणस्थानत्तिजीवंगळं नोडलु मनुष्यगतिजासंयरिंदमेळ नूरु कोटिळिंदमधिकमप्प त्रिगतिजासंयतरुमसंख्यातगुणरप्परु प धन ७०० को
a alla
aa४
aa
१३- । सासादनगुणा अपि पापाः अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदयेन प्राप्तमिथ्यात्वगुणत्वात् पल्यासंख्यातकभागमात्रा भवन्ति प ॥६२३॥
१५ aa४
मिथ्यादृष्टयः किंचिदूनसंसारित्वादनन्तानन्ताः १३- । देशसंयताः त्रयोदशकोटिमनुष्याधिकतिर्यञ्चः पल्यासंख्यातकभागमात्रा:-पधन १३ को । तेभ्यः द्विपञ्चाशत्कोटिमनुष्याधिकेतरत्रिगतिसासादनाः असंख्यात
aa४० गुणाः प धन ५२ को। तेभ्यः चतुरुत्तरशतकोटिमनुष्याधिकत्रिगतिमिश्राः संख्यातगुणाः प धन १०४ को ।
a a a तेभ्यः सप्तशतकोटिमनुष्याधिकत्रिगत्यसंयता असंख्यातगुणा प धन ७०० को ॥६२४॥
सासादनगुणस्थानवाले भी पापी हैं। क्योंकि अनन्तानुबन्धीकषायकी चौकड़ीमें-से किसी भी २० एक क्रोधादिका उदय होनेसे मिथ्यात्वगुणस्थानको प्राप्त होते हैं। उनकी संख्या पल्यके असंख्यातवें भाग है ॥६२३।।
मिथ्यादृष्टि कुछ कम संसारी राशि प्रमाण होनेसे अनन्तानन्त हैं। देश संयत गुणस्थानवाले तेरह कोटि मनुष्य तथा पल्यके असंख्यातवें भागमात्र तिथंच हैं। उनसे बावन कोटि मनुष्य तथा शेष तीन गतिके सब सासादनगणस्थानवाले असंख्यातगुणे हैं। उनसे २५ एक सौ चार कोटि मनुष्य और शेष तीन गतिके सब मिश्र गुणस्थानवाले संख्यातगुणे हैं । उनसे सात सौ कोटि मनुष्य और शेष तीन गतिके अविरत गुणस्थानवाले सब असंख्यातगुणे हैं ॥६२४॥
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८६४
गो० जीवकाण्डे तिरधियसयणवणउदी छण्णउदी अप्पमत्त बे कोडी।
पंचेव य तेणबुदी णवट्ठविसयंच्छउत्तरं पमदे ॥६२५।। त्रिभिरधिकशतं नवनवतिः षण्णवतिरप्रमत्त द्विकोटि पंचैव च त्रिनवतिन्नवाष्टद्विशते षडुत्तरं प्रमत्ते॥
प्रमत्तरोळ संख्ये अय्दु कोटियं तो भत्तमरुलक्षेयं तो भत्तेटु सासिरद इन्नूरारुगळक्कुं ॥ ५९३९८२०६ ॥ अप्रमत्तरोजु संख्ये यरडुकोटियु तो भतारु लक्षेयु तो भत्तो भत्तु सासिरद नूर मूरुगळप्पुवु ॥ २९६९९१०३॥
तिसयं भणंति केई चउरुत्तरमत्थपंचयं केई ।
उवसामगपरिमाणं खवगाणं जाण तदुगुणं ॥६२६॥ त्रिशतं भणंति केचित् चतुरुत्तरमस्तपंचकं केचित् । उपशमकपरिमाणं क्षपकाणां जानीहि तद्विगुणं ॥
केलंबराचार्यरुगळु उपशमकरप्रमाणमं त्रिशतमेंदु पेळ्वरु। मत्तं केलंबराचार्यरुगळु चतुरुत्तरत्रिशतमेंदु पेळ्वरु। मत्तं केलंबराचार्यरुगळ अदु गुंदिद चतुरुत्तरत्रिशतमेंदु पेळ्वरु
॥ २९९ ॥ व ओंदु गुंदे मूनर बुदत्थं । क्षपकर प्रमाणमं तद्विगुणमं नीनरियेदु शिष्यसंबोधन१५ मक्कुमी संख्येगलोळु प्रवाह्योपदेशमप्प संख्ययं निरंतराष्टसमयंगळोळु विभागिसि पेळ्दपं:
सोलसयं चउवीसं तीसं छत्तीस तह य बादालं ।
अडदालं चउवण्णं चउवण्णं होंति उवसमगे ॥६२७॥ षोडशकं चतुविशतिः त्रिंशत् षट्त्रिंशत्तथा च द्विचत्वारिंशदष्टचत्वारिंशच्चतुःपंचाशच्चतुः पंचाशद्भवंत्युपशमके ॥
प्रमत्ते पञ्चकोट्यः त्रिनवतिलक्षाण्यष्टानवतिसहस्राणि द्विशतं षट् च भवन्ति । ५, ९ ३, ९८, २०६ । अप्रमत्ते द्विकोटिषण्णवतिलक्षनवनवतिसहस्रकशतत्रयो भवन्ति । २, ९६, ९९, १०३ ॥६२५॥
केचिदुपशमकप्रमाणं त्रिशतं भणन्ति । केचिच्च चतुरुत्तरत्रिशतं भणन्ति । केचित् पुनः पञ्चोनचतुरुत्तरत्रिशतं भणन्ति । एकोनत्रिंशतमित्यर्थः । क्षपकप्रमाणं ततो द्विगुणं जानीहि ॥६२६॥ अत्र प्रवाह्योपदेशसंख्यां निरन्तराष्टसमयेषु विभजति
प्रमत्तगुणस्थानमें पाँच कोटि तिरानबे लाख, अट्ठानबे हजार दो सौ छह ५९३९८२०६ जीव हैं। तथा अप्रमत्तगुणस्थानमें दो कोटि छियानबे लाख, निन्यानबे हजार एक सौ तीन २९६९९१०३ जीव हैं ॥६२५॥
आठवें, नौवें, दसवें, ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती उपशमश्रेणिवालोंका प्रमाण कोई आचार्य तीन सौ कहते हैं, कोई आचार्य तीन सौ चार कहते हैं और कोई आचार्य तीन सौ चारमें पाँच कम अर्थात् दो सौ निन्यानबे कहते हैं। तथा आठवें, नौवें, दसवें और बारहवें गुणस्थान सम्बन्धी क्षपकश्रेणिवाले जीवोंका प्रमाण उपशमवालोंसे दूना जानना ॥६२६।।
___आचार्य परम्परासे आगत प्रवाही उपदेश तीन सौ चारकी संख्याका निरन्तर आठ समयोंमें विभाग करते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका उपशमकरोळु षोडशमुं चतुविशतियं त्रिशतियु षट्त्रिंशतियुं द्विचत्वारिंशतियु अष्टचत्वारिंशतियुं चतुःपंचाशतियं चतुःपंचाशतियुं निरंतराष्टसमयंगळोळप्पुवु । १६ । २४ । ३० । ३६ ॥ ४२ ॥ ४८ ॥ ५४॥ ५४॥
___ बत्तीसं अडदालं सट्ठी बावत्तरी य चुलसीदी ।
छण्णउदी अठुत्तरसयमठुत्तरसयं च खवगेसु ॥६२८॥ द्वात्रिंशदष्टचत्वारिंशत् षष्टि द्वासप्ततिश्चतुरशीतिः । षण्णवतिरष्टोत्तरशतमष्टोत्तरशतक्षपकेषु ॥
क्षपकरोळु निरंतराष्टसमयंगळोळु उपशमकर संख्ययं नोडलु द्विगुणमागि द्वात्रिंशदादिगळप्पुवु । ३२ । ४८ । ६० । ७२ । ८४ । ९६ । १०८ । १०८॥ ई संख्येयं निरंतराष्टसमयंगळोळ समीकरणविधानदिदं क्षपकरु। आदि ३४। उत्तरं १२। गच्छे ८ । पदमेगेण विहीणमित्यादि १० संकलनसूत्रदिदं तरल्पट्ट लब्धप्रमितरु अष्टोत्तरषट्शतमप्पर । ६०८॥ उपशमकरुं। आदि १७ । उत्तरं।६। गच्छ ८ । इल्लियुआ सूत्रदिद तरल्पट्ट लब्धप्रमितर चतुरुत्तरत्रिशतरप्पर । ३०४ ॥
अट्ठव सयसहस्सा अट्ठाणउदी तहा सहस्साणं ।
संखा जोगिजिणाणं पंचसयविउत्तरं वंदे ॥६२९॥ अष्टव शतसहस्राणि अष्टानवतिस्तथा सहस्राणां । संख्या योगिजिनानां पंचशतं द्वयुत्तरं १५
वंदे॥
उपशमके षोडश चतुर्विंशतिः त्रिंशत् षट्त्रिंशत् द्वाचत्वारिंशत् अष्टचत्वारिंशत् चतुःपञ्चाशत् चतुःपञ्चाशत् निरन्तराष्टसमयेषु भवन्ति । १६ । २४ । ३० । ३६ । ४२ । ४८ । ५४ । ५४ ॥६२७॥
- क्षपके निरन्तराष्टसमयेषु उपशमकेभ्यो द्विगुणत्वात् द्वात्रिंशत् अष्टचत्वारिंशत् षष्टिः द्वासप्ततिः चतुरशीतिः षण्णवतिः अष्टोत्तरशतं अष्टोत्तरशतं भवन्ति । इमामेव संख्यां निरन्तराष्टसमयेषु समीकरणविधानेन २० आदिः ३४ उत्तरः १२ गच्छः ८ पदमेगेण विहीणमित्यादिनानीतधनम् । क्षपका अष्टोत्तरषट्शतं भवन्ति । ६०८ । उपशमका आदिः १७ उत्तरः ६ गच्छः ८ धनं चतुरुत्तरत्रिशतं ३०४ भवन्ति ॥६२८॥
उपशमश्रेणिपर निरन्तर चढ़नेवाले जीवोंकी आठ समयोंमें संख्या क्रमसे सोलह, चौबीस, तीस, छत्तीस, बयालीस, अड़तालीस, चौवन, चौवन होती है ॥२७॥
क्षपकश्रेणिकी संख्या उपशमवालोंसे दुगुनी होती है, इसलिए निरन्तर आठ समयोंमें २५ क्षपकश्रेणि चढ़नेवालोंकी संख्या क्रमसे बत्तीस, अड़तालीस, साठ, बहत्तर, चौरासी, छियानबे, एक सौ आठ, एक सौ आठ होती है। इसी संख्याको निरन्तर आठ समयों में समीकरण विधानके द्वारा बराबर करके पहले समयमें चौंतीस, फिर आठ समयों में बारह-बारह अधिक करनेसे आदिधन चौंतीस, उत्तर बारह और गच्छ आठ, इसको 'पदमेगेण विहीणं' इत्यादि सूत्रके अनुसार गच्छ आठमें एक घटानेसे सात रहे, दोका भाग देनेसे साढ़े तीन रहे। उत्तर बारहसे गुणा करनेपर बयालीस हुए। इसमें आदिधन चौंतीस जोड़नेसे छियत्तर हुए। इसे गच्छ आठसे गुणा करनेसे छह सौ आठ हुए। ये सब क्षपकोंका जोड़ होता है। इसी तरह उपशमश्रेणिवालोंका आदिधन सतरह, उत्तर छह, गच्छ आठका धन उससे आधा तीन सौ चार होता है ।।६२८॥
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गो० जीवकाण्डे
सयोगिजिनरुगळसंख्ये लक्षाष्टकमुमष्टानवतिसहस्रंगळु द्वयुत्तरपंचशतप्रमितमक्कु । ८९८५०२ । मिनिबरं सर्वदा वंदिसुर्वे । इल्लि निरंतर अष्टसमयंगळोळु संचिसल्पट्ट सयोगजिनरुगळाचाऱ्यांतरापेक्षयिदं सिद्धांतवाक्यदोळु "छसु सुद्धसमयेसु तिणि तिण्णि जीवा केवळमुप्पाय
यंति । दोसु समयेसु दोद्दो जीवा केवळमुप्पाययंति एवमट्टसमयसंचिदजीवा बावीसा हवंति" ५ यदितु पेळल्पट्टवारु समयंगळोळु मूरु मूरुमरडु समयंगळोळ्यरडेरडागलु जिनरुगळं मोक्षगामि
गळुमरुदिंगळ मेळेदु समयंगळोनिबरप्परबी विशेषकथनदोळु त्रैराशिकषट्कमक्कुमदेतें दोडे संदृष्टि :। फ का ८ । के-८९८५०२लब्ध मिश्रकाल ८
लब्ध का ४०८४१०६ प्रका८ फस८.इका ४०८४१८ लब्ध समयाशुद्धा
३२६७२८ फ के २२ इस ३२६७२८ ॥ लब्ध केवलिन :
लब्ध के ८९८५०२ फ के ४४ । इस ३२६७२८ । लब्ध ८९८५०२
६
प्रस८
प्रस८ फके८८ इस३२६७२८
२।२ प्रस८ फ के १७६ इस ३२६७२८
शरा२
लब्ध के ८९८५०२ लब्ध के ८९८५०२
सयोगिजिनसंख्या अष्टलक्षाष्टनवतिसहस्रद्वय त्तरपञ्चशतानि ८, ९८, ५०२ तान् सदा वन्दे । अत्र १५ निरन्तराष्टसमयेषु संचितसयोगिजिनाः आचार्यान्तरापेक्षया सिद्धान्तवाक्ये-वसुसुद्धसमयेसु तिण्णि तिग्णि जीवा
केवलमुप्पाययन्ति, दोसु समयेसु दो दो जीवा केवलमुप्पाययन्ति एवमट्ठसमयसंचिदजीवा वावीसा हवन्तीति
विशेषकथने त्रैराशिकषट्कम् । तद्यथा-प्र के २२ । फ का ६ । इ के ८, ९८, ५०२ । ल का ४०८४१, ६ ।
पुनः प्र का ६ । फ स ८ । इ का ४०८४१, ६ । ल स ३, २६, ७२८ । पुनः प्र स ८ । फ के २२ । इ ३,
सयोगी जिनोंकी संख्या आठ लाख अट्टानबे हजार पाँच सौ दो है,उन्हें सदा नमस्कार २० करता हूँ। यहाँ निरन्तर आठ समयोंमें संचित सयोगि जिनोंको संख्या अन्य आचार्यकी
अपेक्षा सिद्धान्तमें इस प्रकार कही है-छह शुद्ध समयोंमें तीन-तीन जीव केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं और दो समयोंमें दो-दो जीव केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार आठ समयोंमें संचित जीव बाईस होते हैं । यहाँ विशेष कथन छह त्रैराशिकोंके द्वारा करते हैं
१. यदि बाईस केवली छह मास आठ समयमें होते हैं, तो आठ लाख अट्ठानबे हजार पाँच सौ दो केवली कितने कालमें होंगे; ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाणराशि २२ केवली, फलराशि छह मास आठ समयकाल, इच्छाराशि आठ लाख अट्रानबे हजार पाँच सौ दो केवली। सो प्रमाणका भाग इच्छाराशिमें देनेसे चालीस हजार आठ सौ इकतालीस आये। इस संख्याको छह मास आठ समयसे गुणा करनेपर कालका प्रमाण आता है। २. छह मास
२५
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८६७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका 'इंतिदोंदु पक्षांतरमरियल्पडुगु । अनंतरनेक समयदोळु युगपत्संभविसुव क्षपकर विशेषसंख्येयुमनुपशमकर विशेषसंख्ययुमं गाथात्रयदिदं पेब्दपरु ।
होंति खवा इगिसमये बोहियबुद्धा य पुरिसवेदा य ।
उक्कस्सेणठुत्तरसयप्पमा सग्गदो य चदा ॥६३०॥ भवंति क्षपकाः एकस्मिन्समये बोधितबुद्धाश्च पुरुषवेदाश्च । उत्कृष्टेनाष्टोत्तरशतप्रमिताः ५ स्वर्गतश्च च्युताः॥
पत्तेयबुद्धतित्थयरिस्थिणqसयमणोहिणाणजुदा ।
दसछक्कवीसदसवीसट्ठावीसं जहाकमसो ॥६३१॥ प्रत्येकबुद्धतीत्थंकरस्त्रीनपुंसकमनोवधिज्ञानयुताः। दश षट्क विशति दश विशत्यष्टाविंशतिः यथाक्रमशः॥ २६, ७२८ ल । के ८, ९८, ५०२ । तथा प्र स ८। फ के ४४ । इ ३, २६, ७२८ ल । के ८, ९८,
२२
५०२ तथा प्रस८। फ के ४४ । इ३,२६,७२८ । ल के ८. ९८.५०२। तथा प्र स ८। फ के ८८ ।
आठ समयमें निरन्तर केवली उत्पन्न होनेका काल आठ समय है,तो पूर्वोक्त कालमें कितने समय हैं। ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाणराशि छह मास आठ समय, फलराशि आठ समय, इच्छाराशि छह मास आठ समयसे गुणित चालीस हजार आठ सौ इकतालीस । यहाँ १५ प्रमाणराशिके कालसे इच्छाराशिके कालका अपवर्तन करके फलराशिके आठ समयोंसे इच्छाराशि ४०८४१ को गुणा करनेपर तीन लाख छब्बीस हजार सात सौ अट्ठाईस समय होते हैं। ३-६ आठ समयोंमें विभिन्न आचार्योंके मतसे बाईस या चवालोस या अठासी या एक सौ छियत्तर जीव केवलज्ञानको उत्पन्न करते हैं,तो पूर्वोक्त तीन लाख छब्बीस हजार सात सौ अट्ठाईस समयोंमें अथवा उससे आधे अथवा चौथाई अथवा आठवे भाग समयोंमें कितने २० जीव केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं,इस प्रकार चार त्रैराशिक करना । इन चारोंमें प्रमाणराशि आठ समय है। फलराशि २२, ४४, ८८ और १७६ पृथक्-पृथक् है। तथा इच्छाराशि तीन लाख छब्बीस हजार सात सौ अट्ठाईस , उसका आधा, उसका चौथाई और उसका आठवाँ भाग पृथक्-पृथक् है । सर्वत्र फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके प्रमाणराशिसे भाग देनेपर लब्ध १. गुणितक्रमः समीचीनः प्रयोजनं वावबुध्यते । अदिंगळ मेले टुसमयदोळगे केवलज्ञानमं पडेव जीवंगळु २५ जघन्य ७२६ दिंदविप्पत्तेरडनुत्कृष्टदिने टु लक्षवु तोभत्तटु साविरदैनूररडु मध्यनानाभेदमदरोळु नात्तनाल्क ४४ भत्ते ८८ टु नूरिप्पत्ताब मूरु विकल्पमं जघन्यममं फलराशियं माडिदर मूरुमध्यमविकल्पद इच्छाराशिय हारवेत दोड इल्लिय फलराशियं इच्छाराशियं माडि अरुदिंगळ मेले टु समयंगळं फलराशियं माडि उत्कृष्टकेवलिसंख्येयं इच्छाराशियं माडलक्कं । बंद लब्ध १६३६४ यी राशियनेरडरि गुणिसियरडरि भागिसिदडे इंतक्कुं ३२६७२८ = इदु प्रतिपद =॥
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८६८
गो० जीवकाण्डे जेहावरबहुमज्झिम ओगाहणगा दु चारि अहेव ।
जुगवं हवंति खवगा उवसमगा अद्धमेदेसि ॥६३२॥ ज्येष्ठावरबहुमध्यमावगाहनकाः द्विचतुरष्टव। युगपद्भवंति क्षपकाः उपशमकाः अर्द्धमेतेषां।।
बोधितबुद्धरु क्षपकरेकसमयदोळु युगपन्नूरेंटु उपशमकरु तदर्द्धमप्परु १०८ पुवेदिगळ ५ क्षपकरु नूरे टुपशमकरु तदर्द्धमप्परु । १०८ स्वर्गदिदं बंद क्षपका युगपन्नूरे टुपशमकरु तदद्धं
५४
इ३,२६, ७२८ । ल के ८, ९८, ५०२ । तथा प्र स ८ । फ के १७६ । इ ३,२६, ७२८ । ल के ८, ९८, २२
२ । २।२ ५०२ । इदमेकपक्षान्तरम् ॥६२९॥ अथैकसमये युगपत्संभवती क्षपकोपशमकविशेषसंख्यां गाथात्रयेणाह
युगपदुत्कृष्टेन एकसमये बोधितबुद्धाः पुंवेदिनः स्वर्गच्युताश्च प्रत्येक क्षपकाः अष्टोत्तरशतम् उपशमआठ लाख अट्ठानबे हजार पाँच सौ दो आता है। नीचे इन छह राशियों को अंकित किया १० जाता है
प्रमाणराशि
फलराशि
लब्धराशि
केवली २२
इच्छाराशि
केवली ८९८५०२
काल छह मास ८ समय
काल ४०८४१४ छह मास आठ समय
८
समय
२२
१५
काल समय काल
समय छह मास ८ समय
४०८४१४ छहमास ३२६७२८
आठ समय केवली समय
केवली ३२६७२८
८९८५०२ समय केवली समय
केवली ४४ ३२६७२८ का आधा ८९८५०२ समय केवली समय
केवली
३२६७२८ का चौथाई ८९८५०२ समय केवली समय
केवली ३२६७२८ का ८९८५०२
आठवाँ भाग आगे एक समयमें एक साथ होनेवाली क्षपकों और उपशमकोंकी विशेष संख्या तीन गाथाओंसे कहते हैं
एक साथ उत्कृष्ट से एक समयमें बोधित बुद्ध क्षपक, पुरुषवेदी क्षपक, और स्वर्गसे च्युत होकर मनुष्य जन्म लेकर क्षपकश्रेणी चढ़नेवाले प्रत्येक एक सौ आठ, एक सौ आठ
८८
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मप्पुरु १०८ प्रत्येकबुद्धरु क्षपकरु पत्तुपशमकरय्वरु १० तीर्थकररु क्षपकररुवरुपशमकरु मूवरु ६ स्त्रीवेदिक्षपकरुमिप्पत्तुपशमकर्पदिबरु २० नपुंसकवेदिगळु क्षपकरु पदिबरवरर्द्धमुपशमकरु १० मनःपर्ययज्ञानिगळ क्षपकरुगलिप्पत्तु तदर्द्धमुपशमकरु २० अवधिज्ञानिगळु क्षपकरुगळिप्पत्तेंटुमुपशमकरुगळु तदर्द्धमप्परु २८ उत्कृष्टावगाहनयुतक्षपकरुगळीवरुपशमक
१०
१४
नो+ने २ जघन्यावगाहनयुतक्षपकरु नाल्वरुपशमकरीवरु ४ बहुमध्यमावगाहनयुतक्षपक- ५
रेण्बरुपामक ल्वरु ८ मितल्ला क्षपकरु ४३२ । उपशमकरु २१६ ।
अनंतरं अयोगिजिनरसंख्येयं कंठोक्तमागि पेन्दुदिल्लप्पुरिदं प्रमत्तगुणस्थानं मोदल्गोंडु अयोगकेवलिभट्टारकावसानमाद समस्तसंयमिगळ संख्येयं पेन्दडदरोळु सयोगकेवलिपय्यंत कंठोक्तमागि पेळल्पट्ट संयमिगळ संख्येयं कूडि कळेदोडे शेषमयोगिकेवलिगळ संख्येयक्कुमेंबुदं मनदोलिरिसि संयमिगळ सदसंख्येयं पेळदपं :
सत्तादी अटुंता छण्णवमज्झा य संजदा सव्वे ।
अंजलिमौलियहत्थो तियरणसुद्धे णमंसामि ॥६३३॥ सप्ताद्यष्टांतान् षण्णवमध्यांश्च संयुतान्सर्वान् । अंजलिमौलिकहस्तस्त्रिकरणशुद्धया नमस्यामि॥
सप्तांकमादियागि अष्टांकमवसानमागि षण्नवाक्कंगळं मध्यमागुळ्ळ त्रिहीननवकोटिसंयतरु- १५ गळनंजलिमौलिकहस्तनागि मनोवाक्कायशुद्धिळिदं बंदिसुर्वे ॥ एंदितु सवंसंयमिगळ संख्येयो कास्तदधं भवन्ति । पुनः प्रत्येकबुद्धाः तीर्थङ्कराः स्त्रीवेदिनः नपुंसकवेदिनः मनःपर्ययज्ञानिनः अवधिज्ञानिनः उत्कृष्टावगाहा: जघन्यावगाहाः बहमध्यमावगाहाश्च क्षपकाः क्रमशः दश षशितिः दश विशतिः अष्टाविंशतिः द्वौ चत्वारः अष्टौ, उपशमकाः तदधं भवन्ति । सर्वे मिलित्वा क्षपकाः ४३२ । उपशमकाः २१६ ॥६३०-६३२॥ अथ सर्वसंयमिसंख्यामाह
आदी सप्ताङ्क अन्तेऽष्टाङ्गं च लिखित्वा तयोर्मध्ये च षट्सु नवाङ्केषु लिखितेषु संजनितब्यूननवकोटिसंख्यामात्रान् सर्वसंयतान् अञ्जलिमौलिकहस्तोऽहं मनोवाक्कायशुद्धया नमस्यामि । ८९९९९९९७ । अत्र च होते हैं। और उपशमक इनसे आधे अर्थात् चौवन-चौवन होते हैं। पुनः आपकश्रेणीवाले प्रत्येकबुद्ध दस, तीर्थकर छह, स्त्रीवेदी बीस, नपुंसकवेदी दस, मनःपर्ययज्ञानी बीस, अवधिज्ञानी अट्ठाईस, उत्कृष्ट अवगाहनावाले दो, जघन्य अवगाहनावाले चार, बहुमध्यम २५ अवगाहनावाले आठ एक समयमें उत्कृष्ट रूपसे होते हैं। उपशमक इनसे आधे होते हैं। सो उक्त सब क्षपकोंकी संख्या मिलकर चार सौ बत्तीस होती है और उपशमकोंकी दो सौ सोलह ।।६३०-६३२॥
आगे सब संयमियोंकी संख्या कहते हैंसातका अंक आदिमें और अन्तमें आठका अंक लिखकर दोनोंके मध्यमें छह नौके ३०
२०
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८७०
गो० जीवकाण्डे ८९९९९९९७ ळिदरोळु प्रमत्ताविसयोगिकेवल्यवसानमाद गुणस्थानत्तिगळ संख्येयनेटु कोटियु तो भत्तो भत्तु लक्षमुं तो भत्तों भत्तु सासिरद मुन्नूरतों भत्तों भत्तं ८९९९९३९९ कळे युत्तिरलु शेषमयोगिकेवलिगलसंख्ये येरडुगुंदिदरुनूरक्कु ५९८ ॥ मिती पदि नाल्कुं गुणस्थानंगळोळु पेळ्द संख्येने संदृष्टिरचनेयिदु :
८९८५०२ २९९१५९८॥ २९९।५९८॥ २९९।० २९९।५९८॥
२९६९९१०३ | ५९३९८२०६ | प०४० ॥१३
५९८
५९८
प७०० को
प १०४ को
| प ५२ को
A
अ
EntertyE EE
०
|०
००००
अनंतरं चतुर्गतिगोळु मिथ्यादृष्टि सासादन मिश्रासंयतर संख्येयं साधिसुव पल्यद भाग५ हारविशेषंगळं पेन्दपं:
ओघासंजदमिस्सयसासणसम्माण भागहारा जे।
रूऊणावलियासंखेज्जेणिह भजिय तत्थ णिक्खित्ते ॥६३४।। ____ओघासंयतमिश्रकसासादनसम्यग्दृष्टीनां भागहारा ये । रूपोनावल्यसंख्यातेनेह विभज्य तत्र निक्षिप्ते ॥
देवाणं अवहारा होति असंखेण ताणि अवहरिय ।
तत्थेव य पक्खित्ते सोहम्मीसाण अवहारा ॥६३५॥ देवानामवहारा भवंति असंख्येन तानपहृत्य तत्रैव च निक्षिप्ते सौधर्मशानावहाराः। प्रमत्तादिसयोग्यवसानसंख्यायां ८९९९९३९९ अपनीतायां शेष द्वयू नषट्छतं अयोगिसंख्या भवति ।
५९८ ॥६३३।। अथ चतुर्गतिमिथ्यादृष्टिसासादमिश्रासंयतसंख्यासाधकपल्यभागहारविशेषानाह१६ अंक लिखनेपर ८९९९९९९७ तीन कम नौ करोड़ संख्या प्रमाण सब संयमियोंको मैं हाथोंकी
अंजलि मस्तकसे लगाकर मन, वचन, कायकी शुद्धिसे नमस्कार करता हूँ। यहाँ प्रमत्त गुणस्थानसे लेकर सयोग केवली पर्यन्त संख्या ८९९९९३९९ है। इस संख्याको सब संयमियोंकी संख्या में घटानेपर शेष दो कम छह सौ ५९८ अयोगियोंकी संख्या होती है ॥६३३॥
___ आगे चारों गतिके मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, मिन और असंयतसम्यग्दृष्टियों२० की संख्याके साधक पल्यके भागहार विशेषोंको कहते हैं
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८७१
गुणस्थानदोळपेद असंयतसम्यग्दृष्टि सम्यग्मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टिगळे बी मूरुं गुणस्थानंगळ आgg केलवु पल्यक्के पोक्क भागहारंगळ अ
वरूपोनावल्यसंख्यातदिदं
मि aa
सा aa४
a-१ । भागिसि भागिसि तंतम्म हारदोळे कूडल्पटुवादोडे देवोघदोळु तंतम्म भागहारंगळप्पुवु । अ aa मत्तमी देवसामान्यगुणस्थानत्रयभागहारंगळं रूपोनावल्यसंख्यातदिदं भागिि
a-१ मिaaa a-१
साaara
a-१
भागिसिदेकभागमं तं तम्म हारंगळोळ प्रक्षेपित्तं विरलु सौधम्र्मेज्ञानकल्पद्वयद असंयत मिश्रसासा- ५ दनरुगळ भागहा रंगळवु । सौधर्म्मकल्पद्वयद असंयतन भागहारंगळु प मिश्र भागहारंगळु
प
aaaa
a-१०-१
सासादनर भागहारंगळु प
अ aa
a-१
मि
एतेषु रूपोनावल्यसंख्यातेन - १
गुणस्थानोक्ताः असंयतसम्यग्मिथ्यादृष्टिसासादनानां ये पल्यासंख्यातप्रविष्टभागहारा: अ a
मिaa
अनंतरमी सौधर्मकल्पद्वयासंयतादि सासादनगुण
a axa a
a - १० - १
aaa
a-१०-१
सा a а ४
भक्त्वा एतेष्वेव निक्षितेषु देवौघे स्वस्वभागहारा भवन्ति । एतान् पुनः रूपोनावल्यसंख्यातेन भक्त्वा एकैकभागे स्वस्वहारे प्रक्षिप्ते सौधर्मेशाना संयत
१०
a-१ साaaya
a-१
गुणस्थानों में जीवोंकी संख्या कहते हुए पूर्व में जो असंयत, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादन पल्के भागहार कहे हैं, उनमें एक कम आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देनेसे जो प्रमाण आवे, उन्हें उन्हीं भागद्दारोंमें मिलानेसे देवगतिमें अपना-अपना भागहार होता है । इन भागद्दारोंको पुनः एक कम आवलीके असंख्यातव भागसे भाग देकर एक-एक १५ भाग अपने-अपने भागहार में मिलानेपर सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में असंयत मिश्र और सासादनोंके भागहार होते हैं ।
विशेषार्थ - पहले असंयतगुणस्थानमें भागहारका प्रमाण एक बार असंख्यात कहा था । उसे एक कम आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देनेसे जो प्रमाण आवे, उसे उस भागहार में मिलानेपर जो प्रमाण हो, उतना देवगतिसम्बन्धी असंयतगुणस्थानका २० भागहार जानना । इस भागहारका भाग पल्यमें देनेसे जो प्रमाण आवे, उतने देवगतिमें असंयत गुणस्थानवर्ती जीव हैं। मिश्रमें दो बार असंख्यातरूप और सासादनमें दो बार
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५
गो० जीवकाण्डे
स्थानावसानमाद गुणस्थानत्रयदोळ आवुदोंदु सासावनर हारमदं नोडलु मुंबल्लेतेडेयोळं असंयतमिश्रर हारंगळु संख्यातगुणितक्रमंगळ सासादनर हारंगळु संख्यातगुणंगळप्पुवु । सप्तमपृथ्विय गुणस्थानत्रयपय्यं तमे बी व्याप्तियं पेदपं :
८७२
सोहम्मसाणहारमसंखेण य संखरूव संगुणिदे |
उवरि असंजद मिस्स सासणसम्माण अवहारा ॥ ६३६ ॥ सौधर्म्मसासादनहारम संख्येन च संख्यरूपसंगुणिते । उपसंयतमिश्रसासादनसम्यग्दृष्टीनामवहाराः ॥
सौधर्मकल्पद्वयदसासादन सम्यग्दृष्टिगळ भागहारम
a - १० - १
शब्ददिदं मत्तमसंख्यातदिदं संख्यातरूपुर्गाळदं गुणितं माडुत्तिरलु यथासंख्यमागि मेले सानत्कु१० मारद्वयदोळऽसंयतादि अधस्तनगुणस्थानत्रयद हारंगळप्पुवु । सानत्कुमारद्वयद असंयतहारंगळु
सासादनर हारंगळु
aaaaa मिश्रहारंगळु ४ a
a - १० - १
a - १० - १
अनंतरमी गुणितक्रमदव्याप्तियं पेळदपं :
मिश्रसासादनानां भागहारा भवन्ति
aaaa
a–१, a–१
तत्सौधर्मद्वयसासादनभागहारे aaaa ४ असंख्यातेन a-१-a-१
aaa
–१, ३-१
१५ गुणिते यथासंख्यमुपरि सानत्कुमारद्वये
aaaa Yaa a-१-१
४ निदनसंख्यातदिदं च
aaaaraa४ a - १० - १
aayaa
a-१, a-१
चशब्दात् पुनरसंख्यातेन संख्यातरूपैश्च
असंख्यात मिश्रसासादनहारा भवन्ति । aaaa४a a-१-१ aaaara४ ॥ ६३६ ॥ अथास्य गुणितक्रमस्य व्याप्तिमाहa-१-३-१
असंख्यात और एक बार संख्यातरूप भागहार कहा था । उसको एक कम आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देनेसे जो प्रमाण आवे, उतना उतना उनमें मिलानेपर देवगतिमें मिश्र तथा सासादनगुणस्थानवालोंका प्रमाण लानेके लिए भागहार होता है । देवगति में २० असंयत मिश्र और सासादनके लिए जो-जो भागहारका प्रमाण कहा, उसे एक कम आवलीके असंख्यातर्वे भागसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उतना उतना उन उन भागहारों में मिलाने से सौधर्म-ऐशान स्वर्ग में अविरत मिश्र और सासादनसम्बन्धी भागहार होता है ||६३४-६३५||
सौधर्म और ऐशान में सासादनका जो भागहार है, उससे असंख्यातगुणा भागहार सानत्कुमार, माहेन्द्र स्वर्ग में असंयतसम्बन्धी है । 'च' शब्दसे इस असंयतके भागहारसे २५ असंख्यात गुणा मिश्रगुण सम्बन्धी भागहार है और उससे संख्यातगुणा सासादनसम्बन्धी भागहार है ||६३६|
आगे इस गुणितक्रमकी व्याप्ति कहते हैं
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८७३
कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका सोहम्मादासारं जोइसवणभवणतिरियपुढवीसु ।
अविरदमिस्सेअसंखे संखासंखगुणं सासणे देसे ॥६३७॥ सौधर्मादासहस्रारं ज्योतिषिकवानभावनतिर्यक्पृथ्वीषु । अविरतमिश्रेऽसंख्ये संख्य असंख्यगुणं सासादने देशसंयते ॥
सौधर्मद्वयदत्तणिदं मेळे सानत्कुमारकल्पद्वयं मोदल्गोंडु सहस्रारकल्पपय्यंतं कल्पद्वय- ५ पंचकदोळं ज्योतिषिकवानभावनतिय्यंच प्रथमद्वितीयतृतीयचतुर्थपंचमषष्ठसप्तमपृथ्वियें बी षोडश स्थानदोळमवितरोळं मिश्ररोळमसंख्यातगुणितक्रममक्कुं । सासादनरोळुसंख्यातगुणमक्कु । तिय्यंचदेशसंयतरोळसंख्यातगुणमक्कुमदे ते दोडेमु पेन्द सानत्कुमारकल्पद्वयव सासादनहारमं नोडलु ब्रह्मकल्पद्वयासंयतहारमसंख्यातगुण २००० ४०० ४३ मवं नोडलु मिश्रहारमसंख्यातगुण
a-१०-१ aaaa४ ० ० ४ ० ० मदं नोडलु सासादनर हारं संख्यातं गुणमक्कु ४०० ४००४ १० a-१० -१
०-१०-१ मदं नोडलु लांतवकल्पद्वयदऽसंयतहारमसंख्यातगुण aaaa४००४।२।३ मदं नोडलु
a-१०-१ मिश्रर हारमसंख्यातगुण २० ० ० ४ ० ० ४।२।aa मदं नोडलु सासादनहारं संख्यातगुण
-१०-१ मक्कु aaaa४ ३ ३ ४ । २००४ मदं नोडलु शुक्रकल्पद्वयासंयतहारमसंख्यातगुणमक्कु
a-१०-१ aaaa४००४।३। मदं नोडलु मिश्रहारमसंख्यातगुणमक्कुaaaaaaa४।३aa a-१०-१
३-१०-१ मदं नोडलु तत्रत्य सासादनहारं संख्यातगुणमक्कु २००४००४।३००४ मदं नोडलु १५
a-१०-१ mmm
सौधर्मद्वयादुपरि सानत्कुमारादिसहस्रारपर्यन्तं पञ्चयुग्मेषु ज्योतिष्कवानभावनतिर्यक्सप्तपृथ्वीषु चेति षोडशस्थानेषु अविरते मिश्रे त्वसंख्येयगुणितक्रमः सासादने संख्यातगुणितक्रमः, तिर्यग्देशसंयते असंख्यातगुणितक्रमश्च भवति । तथाहि-उक्तसानत्कुमारद्वयसासादनहारात् ब्रह्मद्वयस्य असंयतहारोऽसंख्यातगुणः । ततो मिश्रहारोऽसंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । अत्र संख्यातस्य संदृष्टिश्चतुरङ्कः । ततः लान्तवद्वये असंयतहारः असंख्यातगुणः । ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततः शुक्रद्धये- २०
सौधर्मसे ऊपर सानत्कुमारसे लेकर सहस्रार पर्यन्त पाँच स्वर्ग युगलोंमें और ज्योतिषी, व्यन्तर, भवनवासी, तिथंच, और सात नरक इन सोलह स्थानोंमें अविरत और मिश्रमें असंख्यात गुणितक्रम जानना। सासादनमें संख्यात गुणितक्रम जानना । और तियंच सम्बन्धी देशसंयत गुणस्थानमें असंख्यात गुणितक्रम जानना। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-सानत्कुमार, माहेन्द्र में जो सासादनका भागहार कहा,उससे ब्रह्म-ब्रह्मोत्तरमें असंयतका २५ भागहार असंख्यातगुणा है। उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है । उससे सासादनका भागहार संख्यातगुणा है। यहाँ संख्यातकी संदृष्टि चारका अंक ४ है। उससे लान्तवकापिष्ठमें असंयतका भागहार असंख्यातगणा है। उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगणा है। उससे सासादनका भागहार संख्यातगुणा है। उससे शुक्र-महाशुक्रमें असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे सासा- ३० दनका भागहार संख्यातगुणा है। उससे शतारसहस्रारमें असंयतका भागहार
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गो० जीवकाण्डे शतारकल्पद्वयासंयतहारमसंख्यातगुणमक्कु ००० ० ४ ० ० ४ ॥ ४३ मदं नोडलु तन्मिश्रहारम
a-०१-१ संख्यातमक्कु ० ० ० ४ ० ३४।४०० मदं नोडलु तत्रत्यसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु
a-१०-१ a da a ४ ३ ३ ५ । ४ ३ ३ ४ मदं नोडल ज्योतिषिकाअसंयतहारमसंख्यातगुणमक्कु
- १० - १ aaaa४०४।५० मदं न
raaaa४००४।५a -१०-१
-१०-१ मदं नोडलु तत्रत्य सासादनहारं संख्यातगुणमक्कु aada४ ३ ३ ४ : ५ ० ० ४ मदं नोडलु
-१०-१ व्यंतरासंयतहारमसंख्यातगुणमक्कु aaa ३ ३ ४ । ६० मदं नोडलु तन्मिश्रहारमसंख्यात
a-१०-१ गुणमक्कु २००० ४ ० ० ४ । ६०० मदं नोडलु तत्रत्यसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु
a-१०-१ aaa axaa४१६००४ मदं नोडलु भवनवासिकासंयतहारमसंख्यातगुणमक्कु aaaa ४०० ४।७३ -१०-१
d-१०-१ मदं नोडलु तन्मिश्रहारमसंख्यातगुणमक्कु २००३ ४ ३ ३ ४७ ० ३ मदं नोडलु तत्रत्यसासा
a-१०-१ दनहारं संख्यातगुणमक्कु aaa४००४७। । ०४ मदं नोडलु तिय्यंचासंयतहारम
-१०-१ संख्यातगुणमक्कु ० ० ० ० ४ ० ० ४ । ८ मदं नोडलु तन्मिश्रहारमसंख्यातगुणमक्कु
-१०-१ aaaa४००४।८०० मदं नोडलु तत्रत्यसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु aada४da४८ ॥ ३०४ a-१०-१
a-१०-१ मदं नोडला तिर्यग्देशसंयतहारमसंख्यातगुणमक्कुं तिर्यग्देशसंयतर (हारं नोडलु) प्रथमपृथ्विनारकाऽसंयतहारः असंख्यातगुणः । ततो मिश्रहारः असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । तत शतारद्वये
ऽसंयतहारः असंख्यातगुणः। ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततः ज्योति१५ कासंयतहारः असंख्यातगुणः । ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः। ततः सासादनहारः संख्यातगणः । ततः
व्यन्तरासंयतहारः असंख्यातगुणः । ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततः भवनवास्यसंयतहारः असंख्यातगुणः। ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततस्तिर्यगसंयतहारः असंख्यातगुणः । ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः । सासादनहारः संख्यातगुणः । ततस्ति
असंख्यातगणा है। उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगणा है । उससे सासादनका २० भागहार संख्यातगुणा है। उससे ज्योतिषीदेवोंमें असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है।
उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है । उससे सासादनका भागहार संख्यातगणा है। उससे व्यन्तरोंमें असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है । उससे सासादनका भागहार संख्यातगुणा है। उससे भवनवासियोंमें असंयतका
भागहार असंख्यातगणा है। उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे सासादनका २५ भागहार संख्यातगणा है। उससे तियचोंमें असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे
मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे सासादनका भागहार संख्यातगुणा है। उससे तियंचोंमें ही देशसंयतका भागहार असंख्यातगुणा है। जो तियचोंमें देशसंयतका भागहार
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संयतहारमुम संख्यातगुणमक्कुं
प्रथमपृथ्वि = असंयताहार
a a a ३ ४ ३ ३ ४ । ९ । मदं नोडलु तन्मिश्रहारम संख्यातगुणमक्कु aaaa४९ । a - १a - १ a - १० - १
मदं नोडलु तत्रत्यसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु
४३३४९००४ मदं नोडलु
मक्कु
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
aaaaaa४९a a - १० - १
द्वितीयपृथ्विय असंयतहारमसंख्यातगुणमक्कु a
तन्मिश्रहारम संख्यात गुण मक्कु
हारं संख्यातगुणमक्कुं
हारमसंख्यातगुणमक्कु ४००४ । ११ । मदं नोडलु तन्मिश्रहारम संख्यातगुण
a - १० - १
मदं नोडलु तत्रत्य सासादनहारं संख्यातगुणमक्कु.
aa aayaa४११ a - १० - १
० - ०१ - १
a - १०-१
४४ । १० । ३ २ ४ ।
संख्यातगुणमक्कु ३
a - १० - १
a a a ४ ३ ३ ४ । १० । । मदं नोडलु
a - १० - १
४४ । १० ।
८७५
aaaaraa४ । ११४ मदं नोडलु चतुर्थभूनारकाऽसंयतहारम संख्यातगुणमक्कु
a - १० - १
३ ३ ३ ३ ४ ० ० ४ । १२ । ० मदं नोडलु तन्मिश्रहारम संख्यातगुणमक्कु
a - १० - १
४ a - १० - १
मदं नोडलु तत्रत्यसासादन- ५
मदं नोडलु तृतीयधराऽसंयत
a - १० - १
मदं नोडलु तत्रत्यसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु ४४ । १२ । ४ मदं नोडलु a - १० - १
पंचमधराऽसंयतहारमसंख्यातगुणमक्कुं aaa a४४ । १३ । मदं नोडलु तन्मिश्रहारम -
a - १०-१
४ । १३ ।०० मदं नोडलु तत्रत्यसासादनहारं संख्यातगुण
४००४।१२।१०
१५
र्यग्देशसंयतहारः असंख्यातगुणः । अयमेव प्रथमपृथिव्यसंयतस्यापि हारः । ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततः द्वितीय पृथिव्यसंयतहारः असंख्यातगुणः । ततः मिश्रहारः असंख्यात - गुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततः तृतीयपृथिव्य संयतहारः असंख्यातगुणः । ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततः चतुर्थ पृथिव्यसंयतहारः असंख्यातगुणः । ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततः पञ्च मघरासंयतहारः असंख्यातगुणः । ततः मिश्रहारः
है, वही भागहार प्रथम नरकमें असंयतका भी है। उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है । उससे सासादनका भागहार संख्यातगुणा है। उससे दूसरे नरक में असंयतका भागहर २० असंख्यातगुणा है । उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे सासादनका भागहर संख्यातगुणा है। उससे तीसरे नरकमें असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है । उससे सासादनका भागहार संख्यातगुणा है । उससे चौथे नरक में असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे सासादनका भागहार संख्यातगुणा है। उससे पंचम नरक में असंयत भागहार असंख्यातगुणा है। उससे मिश्रका भागद्दार असंख्यातगुणा है । उससे सासादनका
२५
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८७६
गो० जीवकाण्डे मक्कु ० ० ० ० ४ । १३ । । ४ मदं नोडलं षष्ठधराऽसंयतहारमसंख्यातगुणमक्कुं।
a-१०-१ ० ० ० ० ४ ० ० ४ । १४ ० मदं नोडलु तन्मिश्रहारमसंख्यातगुणमक्कु adaa४ ३ ३ ४ । १४ ० ० ३-१०-१
०-१०-१ मदं नोडलु तत्रत्यसासादनहारं संख्यातगुणमक्कुं ० ० ० ० ४ ० ० ४ । १४ । । । ४ मदं नोडलु
०-१०-१ सप्तमधराऽसंयतहारमसंख्यातगुणमक्कु ० ० ० ० ४ ० ० ४ । १५ ३ मदं नोडलु तन्मिश्रहारम
a-१०-१ संख्यातगुणमक्कु aad a ४ ० ० ४ । १५ । । । मदं नोडलु तत्रत्यसासादनहारं संख्यातगुण
a-१०-१ मक्कु aa aa ३a ४।१५। ३ ३ ४ मनंतरमानतादिगळोळु हारमं पेळ्दपं:३-१०-१
चरमधरासाणहरा आणदसम्माण आरणप्पहुडिं ।
अंतिमगेवेज्जतं सम्माणमसंखसंखगुणहारा ॥६३८॥
चरमधरासासादनहाराः आनतसम्यग्दृष्टिनामारणप्रभृत्यंतिमद्मवेयकांतं सम्यग्दृष्टीनाम१० संख्यसंख्यगुणहाराः ॥
तत्तो ताणुत्ताणं वामाणमणुदिसाण विजयादी । __ सम्माणं संखगुणो आणदमिस्से असंखगुणो ।।६३९।।
ततस्तेषामुक्तानां वामानामनुदिशानां विजयादिसम्यग्दृष्टीनां संख्यगुणः आनतमिश्रेऽसंख्यगुणः॥ १५ असंख्यातगुणः। ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततः षष्ठधरासंयतहारः असंख्यात गुणः । ततः मिश्रहारः
असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः । ततः सप्तमधरासंयतहारः असंख्यातगुणः । ततः मिश्रहारः असंख्यातगुणः । ततः सासादनहारः संख्यातगुणः ॥६३७॥ अथानतादिषु गाथात्रयेणाह
तत्सप्तमपृथ्वीसासादनहारात् आनतद्वयासंयतहारः असंख्यातगुणः । ततः आरणद्वयाद्यन्तिमप्रैवेयकान्तदशपदासयतानां दशहाराः संख्यातगुणक्रमाः स्युः । अत्र संख्यातस्य संदृष्टिः पञ्चाङ्कः ॥६३८॥
ततोऽन्तिमवेयकासंयतहारात् आनतद्वयादितदुक्तैकादशपदमिथ्यादृष्टीनां एकादशहाराः संख्यातगुणितक्रमाः। अत्र संख्यातस्य संदृष्टिः षडङ्कः । ततः तदन्तिमवेयकवामहारात् नवानुदिशविजयादिचतुर्विमानाभागहार संख्यातगुणा है। उससे छठी पृथ्वीमें असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है । उससे मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे सासादनका भागहार संख्यातगुणा है ।
उससे सातवे नरकमें असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे मिश्रका भागहार २५ असंख्यातगुणा है । उससे सासादनका भागहार संख्यातगुणा है ॥६३७॥
आगे आनतादिमें तीन गाथाओंसे कहते हैं
सप्तम पृथ्वीसम्बन्धी सासादनके भागहारसे आनत-प्राणत सम्बन्धी असंयतका भागहार असंख्यातगुणा है। उससे आरण अच्युतसे लेकर अन्तिम प्रैवेयक पर्यन्त दस
स्थानोंमें असंयतोंका भागहार क्रमसे संख्यातगुणा संख्यातगुणा है। यहाँ संख्यातकी संदृष्टि ३० पाँचका अंक है ।।६३८॥
उस अन्तिम प्रैवेयक सम्बन्धी असंयतोंके भागहारसे आनत-प्राणत युगलसे लेकर
२०
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a-१०-१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तत्तो संखेज्जगुणो सासणसम्माण होदि संखगुणो ।
उत्तट्ठाणे कमसो पणछस्सत्तट्ठचदुरसंदिट्ठी । ६४०॥ ततः संख्येयगुणः सासादनसम्यग्दृष्टीनां भवति संख्यगुणः। उक्तस्थाने क्रमशः पंचषट्सप्ताष्ट चत्वारः संदृष्टिः॥ गाथा त्रितयं ॥
सप्तमपृथ्विसासादनसम्यग्दृष्टिय हारंगळु आनतकल्पद्वयसम्यग्दृष्टिगळ्गयु आरण अच्युतकल्पद्वयप्रभृत्यंतिमद्मवेयकपर्यातमाद सम्यग्दृष्टिगळ्गमुमसंख्यातगुण, संख्यातगुणमुं यथासंख्यमागियप्पुवदेतेदोडे सप्तमपृथ्वियसासादनसम्यग्दृष्टिय हारमं नोडलु आनतकल्पद्वयासंयतहारमसंख्यातगुणमक्कु ०० ०० ४ ० ० ४ । १६० मदं नोडलु आरणाच्युतकल्पद्वयाऽसंयतसम्यग्
-१०-१ दृष्टिहारं संख्यातगुणमक्कु ada४ ३ ३ ४ । १६ । ०५ मदं नोडलु अधस्तनाधस्तनद. नवग्रैवेयकसम्यग्दृष्टियहारं संख्यातगुणमक्कं ० ० ० ० ४ । ३ ३ ४ । १६ ।।५।५ मदं नोडलु १०
-१०-१ अधस्तनमध्यमवेयकसम्यग्दृष्टिहारं संख्यातगुणमक्कुं। ००० ० ४ ० ० ४ । १६ । ५ । ५। ५
- a-१० -१ मदं नोडलुमधस्तनोपरितनप्रैवेयकसम्यग्दृष्टिहार संख्यातगुणमक्कु aaaavaa४।१६ ० ।५।५।५।५
a - १० -१ मदं नोडलुमध्यमाधस्तनप्रैवेयकसम्यग्दृष्टिहारं संख्यातगुणमक्कु aaaaaa४।१६ ३।५।५।५।५।५
०-१०-१ मदं नोडलु मध्यम मध्यमग्रैवेयक सम्यग्दृष्टिहारं संख्यातगुणमक्कु adda ४००४।१६३।५।५।५।५।५।५
a-१०-१ मदं नोडलु मध्यमोपरितनसम्यग्दृष्टिहारं संख्यातगुणमक्कु aaaa ४ ० ० ४ । १६ । । । ५. १५
-१०-१ ५।५।५।५।५।५ मदं नोडलुपरितनाधस्तनप्रैवेयकसम्यग्दृष्टिहारं संख्यातगुणमक्कु ० ० ० ० ४ ० ० ४ । १६ । ५।५।५।५।५।५।५।५ मदं नोडलुपरितनमध्यमवेयकसम्यग्दृष्टिहारं ३-१०-१ संख्यातगुणमक्कु २aa a४ ० ० ४ । १६ । । । ५।५।५।५।५।५।५।५।५ मदं नोडलुपरितनोपरि
a-१०-१ तनवेयकसम्यग्दृष्टिहार संख्यातगुणमक्कु a aa ० ४ ० ० ४।१६ । । । ५।५।५।५।५।५।५।५।५।५
a-१०-१ संयतहारौ द्वौ संख्यातगुणक्रमी । अत्र संख्यातस्य संदृष्टिः सप्ताङ्कः । ततः विजयाद्यसंयतहारादानतद्वमिश्रहारः २० असंख्यातगुणः ॥६३९॥
___तदानतद्वयमिश्रहारात् आरणद्वयादितद्दशपदमिश्रहाराः संख्यातगुणक्रमाः । अतः संख्यातस्य संदृष्टिः अन्तिम अवेयक पर्यन्त ग्यारह स्थानों में मिथ्यादृष्टियोंके ग्यारह भागहार क्रमसे संख्यातगुणे हैं । यहाँ संख्यातकी संदृष्टि छहका अंक है । उस अन्तिम प्रैवेयक सम्बन्धी मिथ्यादृष्टियोंके भागहारसे नौ अनुदिश और विजयादि चार विमानोंमें असंयतोंके दो भागहार संख्यातगुणेसंख्यातगुणे हैं। यहाँ संख्यातकी संदृष्टि सातका अंक है। विजयादि सम्बन्धी असंयतके भागहारसे आनत-प्राणत सम्बन्धी मिश्रका भागहार असंख्यातगुणा है ॥६३९।।।
आनत-प्राणत सम्बन्धी मिश्रके भागहारसे आरण-अच्युतसे लेकर अन्तिम अवेयक
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गो० जीवकाण्डे
१०
१५
ततस्तेषामुक्तानां वामानामनुद्दिशानां विजयादिसम्यग्दृष्टीनां संख्यगुणः एंदितुपरितनोपरितनग्रैवेयकसम्यग्दृष्टिहारमं नोडल आनतकल्पद्वयं मोदमों डुपरितनोपरितन ग्रैवेयकपर्यंत माद पन्नों स्थानद वारुळ हारंगळु संख्यातगुणक्रमंगळप्पुवल्लि आनतकल्पद्वयवामरगळ हारं संख्यातगुण ५ । १० । ६ । मदं नोडलु आरणाच्युतवामरुगळ हारं संख्यातगुणमक्कु ५ ।५।१०।६। मदं नोडलधस्तनाधस्तन ग्रैवेयकबामरुगळ हारं संख्यातगुणमक्कं ।५। १० । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । अदं नोडलु अधस्तनमध्यम ग्रैवेयकवामहारं संख्यातगुणक् । । । ५ । १० । ६ । ६ । ६ । ६६ । मदं नोडलु अधस्तनोपरितनग्रैवेयक वाम हारं संख्यातगुणमक्कु | ३।५।१०। मदं नोडलुमध्यमाधस्तन ग्रैवेयकजामहारं संख्यातगुणमक्कु । ।५ । १० । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ मदं नोडलु मध्यममध्यमग्रैवेयकवामहारं संख्यातगुणमक्कु ।५।१० । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ मदं नोडलु मध्यमोपरितनग्रैवेयकवामहारं संख्यातगुणमक्कु २ । ५ । १० । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६।६।६। मदं नोडलुपरिमाधस्तन ग्रैवेयक वा महारं संख्यातगुण । । ५ । १० । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । मदं नोडलु उपरिममध्यग्रैवेयक वा महारं संख्यातगुणभवकु । ५ । १० । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६ । ६।६। मदं नोड परिमोपरिग्रैवेधकवामहारं संख्यातगुणमक्कु । ५ । १०।६।६।६।६।६।६।६।६।६।६।६। मदं नोडल अनुदिशविमानंगळ सम्यग्दृष्टिगळ हारं संख्यातगुणमक्कु । । ५ । १० । ६ । ११ ।७।। मदं नोडलु विजयादिचतुव्विमानंगल सम्यग्दृष्टिगळहारं संख्यातगुणमक्कुं |५|१०|६|११| ७ मदं नोडल आनतमिश्रेऽसंख्यातगुणः आनतकल्पद्वयमिश्रहारमसंख्यातगुणमक्कुं || ५|१०|६| १११७ ॥२॥ ॥ तत उपरि आरणाच्युतकल्पद्वयमिश्रहारं संख्यात गुणमक्कुं । । ५ । १० । ६।११ । ७ । २ । । ।८ ॥ मदं नोडलुमधस्तनाधस्तनग्रैवेयकमिश्रहारं संख्यातगुणमत्रकु २ । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । ८ ८ ८ ॥ मदं नोडलुमधस्तेनोपरितनग्रैवेयक मिश्रहारं संख्यातगुणमक्कु । २ । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । ३८।८। ८ । ८ मदं नोडलुम धस्तनोपरितनग्रैवेयक मिश्रहारं संख्यातगुणभक्कु । । । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । । ८।८।८।८। ८॥ मदं नोडल मध्यममध्यमग्रैवेयक मिश्रहारं संख्यातगुणमक्कु २५ | १० | ६ | ११७| रागटा८८८८८॥ मदं नोडलु मध्यमोपरितनग्रैवेयकमिश्रहारं संख्यातगुणमक्कु ।।५ । १० । ६ । ११ । ७ ।२। २।८।८।८।८।८ | ८ | ८ | मदं नोडलु उपरितनाधस्तन ग्रैवेयकमिश्रहारं संख्यातगुणमक्कु ॰ । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । ३ । ८टाटाटाटाट | ८ | ८ ॥ मदं नोडलु उपरितनमध्यमग्रैवेयकमिश्रहारं संख्यातगुणमवकु । । ५ । १० । ६ । ११ । ७ रागटाटाटाटाटाटाटाटा८॥ मदं नोडलुमुपरितनोपरितनग्रैवेयक मिश्रहारं संख्यातगुण मक्कु । । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । गटाटा टाटाटाटा टाटा ८८ ॥ मदं नोडलु सासादनसम्यग्दृष्टीनां संख्यगुणः एंदितु आनत कल्पद्वयसासादनहारं संख्यातगुणमक्कुं । । ५ । १० । ६ । ११ । ७ २८१०२४ ॥ अदं नोडलु आरणाच्युतकल्पद्वयसासादनहारं संख्यातगुणभक्कु ||५|१०|६|११|७|२८|१०|४|४| मदं नोडल प्रथमग्रैवेयकसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु । । ५ । १० । ६ । ११७ २२८१०२४४२४ अष्टाङ्कः । ततः तदन्तग्रैवेयक मिश्रहारात् आनताद्येकादशपदानां सासादनहाराः संख्यातगुणक्रमाः । अत्र संख्यातस्य
२०
२५
३०
पर्यन्त दस स्थानों में मिश्रगुणस्थानसम्बन्धी भागहार क्रमसे संख्यातगुणा संख्यातगुणा है । यहाँ संख्यातकी संदृष्टि आठका अंक है । अन्तिम ग्रैवेयक सम्बन्धी मिश्र के भागहारसे १. म उपरिमोपरिमं । २. मनमध्यमग्रैवेयक ।
३५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८७९
५
मदं नोडल द्वितीयग्रैवेयकसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु । । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । ३ ।८ । १० । ४ । ४ । ४ । ४ । मदं नोडलु तृतीयग्रैवेयक सासादनहारं संख्यातगुणमक्कु । । ५।१०।६ । ११ । ७ । २ । ३ । ८ । १० । ४ । ४ । ४ । ४ । ४॥ मदं नोडलु चतुत्थग्रैवेयकसासादनहारं संख्यातगुण मक्कु । २ । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । २ । ८ । १० । ४ । ४ । ४ । ४ । ४॥४॥ मदं नोडलु पंचमग्रैवेयकसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु । । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । ३ ।८ । १० । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ ॥ मदं नोडलु षष्ठग्र वेयकसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु । ३ । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । ३ | ८ | १० | ८ | टाढाटाढाटाढा ८ ॥ मदं नोडलु सप्तमग्रैवेयकसासादनहारं संख्यात गुणमक्कु । | ५|१० । ६ । ११ । ७ । २ । ३ । ८१० । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ ।। ias and drकसासादनहारं संख्यातगुणमव । । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । ३ । ८ । १० । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ ।। १० मदं नोडल नवमग्र वेयकसासादनहारं संख्यातगुणमक्कु । । ५ । १० । ६ । ११ । ७ । २ । । ।८ । १० । ४ । ११ ॥ मी पेल्पट्ट स्थानदो क्रर्मादिदमय् । ५ । मारु । ६ । मंदु | ८ | नाल्कु । ४ । संख्यातक्के संदृष्टिगळे दरि ।
मेछु ७ |
सगसग अवहारेहि पल्ले भजिदे हवंति सगरासी ।
सगसगगुणपडवणे सगसगरासीसु अवणिदे वामा || ६४१ ||
स्वस्वावहारैः पत्ये भक्ते भवंति स्वस्वराशयः । स्वस्वगुणप्रतिपन्ने स्वस्वराशिष्वपनीते
वामाः ॥
तंतम्म हारंगळदमी पेळपट्टवरिदं पल्यं भागिसल्पडुत्तिरलु तंतम्म राशिगळप्पु | तंतम्म स्थानद् गुणप्रतिपन्नरं सासादनमिश्रा संयत देशसंयतरं कूडि तंतम्म राशियोळकळियुत्तिरलु तंतम्म स्थानदो मिथ्यादृष्टिगळप्परु । अदें तें दोडे सामान्यगुणस्थानद गुणप्रतिपन्नरिदं होनमाद वामरु किंचिदूनसर्व्वं संसारिराशियवकु । १३ । देवौघगुण प्रतिपन्नरिदं हीनमाद वामरुगळु किंचिदूनसौधर्मकल्पद्वय दो गुणप्रतिपन्नरिदं होनधनांगुल तृतीयमूलगुणजगच्छ्रेणि
1
देवोघमक्कुं = 2४ । ६५ । = १ संदृष्टिश्चतुरङ्कः । एतेषूक्तपञ्चस्थलेषु संख्यातानां संदृष्टयः क्रमशः पञ्चषट्सप्ताष्टचतुरङ्का ज्ञातव्याः ॥ ६४०॥ प्रागुक्तैः स्वस्वहारैः पल्ये भक्ते सति स्वस्त्रराशयो भवन्ति । स्वस्वस्थानस्य गुणप्रतिपन्नेषु सासादनमिश्रासंयतदेशसंयतेषु मेलयित्वा स्वस्वराशावपनीतेषु शेषस्वस्वस्थाने मिथ्यादृष्टयो भवन्ति । तत्र सामान्ये
॥
किचिदूनसंसारी १३ - देवौघे किंचिदूनतद्राशि:- = १ - सौधर्मद्वये किंचिदूना घनाङ्गुलतृतीयमूल
४ । ६५=१
१५
२०
आनत आदि ग्यारह स्थानों में सासादनका भागहार क्रमसे संख्यातगुणा संख्यातगुणा है । यहाँ संख्यातकी संदृष्टि चारका अंक है। ऊपर कहे इन पाँच स्थानों में संख्यातों की संदृष्टि क्रमसे पाँच, छह, सात, आठ और चारका अंक जानना ||६४०||
३०
पहले कहे अपने-अपने भागहारोंसे पल्य में भाग देनेपर अपनी-अपनी राशि होती है । अपने-अपने स्थानके सासादन, मिश्र, असंयत और देशसंयतोंको जोड़नेपर जो राशि हो, उसे अपनी-अपनी राशि में घटानेपर जो शेष रहे, उतना अपने-अपने स्थानमें मिध्यादृष्टियों का प्रमाण होता है । सो सामान्यसे मिध्यादृष्टि कुछ कम संसारीराशि प्रमाण हैं । सामान्य
२५
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८८०
गो० जीवकाण्डे प्रमितं वामरप्परु।-३-। सनत्कुमारकल्पद्वयदोळु गुणप्रतिपन्नारदं किंचिदूनैकादशजगच्छेणिमूलभक्त जगच्छेणिप्रमितवामरप्परु। किंचिदूनक्किल्लि हारंगळु साधिकगळेदु निश्चैसुवद ११ ब्रह्मकल्पद्वयवामहं निजनवममुलभक्तजगच्छ्रेणिमात्रं किंचिदूनं वामरप्परु ९ लांतवकल्पद्वयदोळु निजसप्तममूलभक्तजगच्छेणिमात्रं किंचिदूनमागि वामरप्परु शुक्रकल्पद्वयदोळु निजपंचममूलभक्तजगच्छ्रेणिमात्रं किंचिदूनमागि वामरप्परु । ५। शतारकल्पद्वयदोळु निजचतुर्थमूलभक्तजगच्छ्रेणिमात्रं किंचिदूनमागि वामरप्पा ४ । ज्योतिष्करोळु गुणप्रतिपरिदं किंचिदूनमागि पण्णट्ठिमात्र प्रतरांगुलभक्तजगत्प्रतरमात्र वामरप्पर ।।६५= व्यंतररोळु गुणप्रतिपन्नराशित्रयहीन संख्यातप्रतरांगुल भक्तजगत्प्रतरमात्रं वामरप्परु । ४।६५-८ ११४ । भवनवासिगरोळु
गुणप्रतिपन्नराशित्रयहीनघनांगुलप्रथममूलमात्रं जगच्छेणिप्रमितं वामरुगळप्परु -१-। तिय्यंचरोळु १० गुणप्रतिपन्नराशिचतुष्टयविहीनसकलसंसारिराशितत्रत्यवामरुगळप्परु १३-। प्रथमपवियोल
गुणप्रतिपन्नराशित्रयहीनघनांगुलद्वितीयमूलगुणजगच्छ्रेणियोळु साधिकद्वादशांशविहीनमात्रं वामरुगळप्परु --२-१२। द्वितीयपृथ्विोळु गुणप्रतिपन्नराशित्रयविहीन निजद्वादशमूलभक्तजगच्छ्रेणिमात्र वामरुगळप्पु १३ तृतीयपृथ्वियोळु निजदशममूलभक्तजगच्छ्रेणिमात्र गुणप्रतिपन्नरु
गळिदं किंचिदूनमक्कु १ . चतुर्थपृथ्वियोळु गुणप्रतिपन्नरुगळिवं विहीन ३ निजाष्टममूल १५ जगच्छ्रेणिः । सनत्कुमारद्वयादिपञ्चयुग्मेषु किंचिदूना क्रमशो निजकादशमनवमसप्तमपञ्चमचतुर्थमूलभक्तजगच्छ्रेणिः,
ऊनतात्र हाराधिका ज्ञेया। ज्योतिष्के पण्णट्ठिप्रतराङ्गुलभक्तः व्यन्तरसंख्यातप्रतराङ्गलभक्तश्च जगत्प्रतरः किंचिदूनः । भवनवासिषु किंचिदूना घनाङ्गुलप्रथममूलहतजगच्छ्रेणिः । तिर्यक्षु किंचिदूनः सर्वतिर्यग्राशिः १३-।
प्रथमपृथिव्यां किंचिदूना धनाङ्गलद्वितीयमूलगुणहतजगच्छ्रेणिः साधिकद्वादशांशोना -२-१ । द्वितीयादि
१२
देवोंमें कुछ कम देवराशि प्रमाण मिथ्यादृष्टि होते हैं। सौधर्मयुगलमें घनांगुलके तृतीय २. वर्गमूलसे गुणित जगतश्रेणि प्रमाणमें से कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। सानत्कुमार
आदि पाँच युगलों में क्रमसे जगतश्रेणिके ग्यारहवें, नौवें, सातवें, पाँचवें और चौथे वर्गमूलका भाग जगतश्रेणिमें देनेसे जो प्रमाण आवे, उसमें कुछ-कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। यहाँ कमीका कारण भागहारकी अधिकता जानना। ज्योतिषीदेवोंमें पण्णट्ठिप्रमाण
प्रतरांगुलसे और व्यन्तरोंमें संख्यात प्रतरांगुलसे जगत्प्रतरमें भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, ६ उसमें कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। भवनवासियों में घनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे
गुणित जगत्श्रेणि प्रमाणमें कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। तिर्यचोंमें कुछ कम सर्वतिर्यचराशि प्रमाण मिथ्यादृष्टि हैं। प्रथम पृथिवीमें धनांगुलके दूसरे वर्गमूलसे कुछ अधिक बारहवें भागसे हीन जगतश्रेणिको गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे, उतने सब नारकी हैं; उनसे कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें क्रमसे जगतश्रेणिके बारहवें,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८८१
भक्तजगच्छेणिमात्रं वामरुगळप्परु ८ । पंचमपृथ्वियोळ गुणप्रतिपन्नराशित्रयविहीननिजषष्ठमूलभक्तजगच्छेणिमात्रं वामरुगळप्परु । ६ । षष्ठपृथ्वियोल गुणप्रतिपन्नराशित्रयविहीननिजतृतीयमूलभक्तजगच्छेणिमात्रं वामरुगळप्पुरु ३ । सप्तमपृथ्वियोळु गुणप्रतिपन्नराशित्रयविहीननिजद्वितीयमूलभक्तजगच्छ्रेणिमात्र वामरुगळप्परु। २ । आनतादिगळोलु कंठोक्तमागि पेळलपट्टरु । सर्वार्थसिद्धिविमानाहमिंद्ररु असंयतसम्यग्दृष्टिगळु । 'तिगुणा सत्तगुणा वा सव्वट्ठा माणुसी ५ पमाणादो' एंदितु संख्यातमप्परु ४२ = ४२ = ४२-३ । ३ । ७॥ मनुष्यगतियोळु देशसंयतादिगळं पेळ्दपं:
तेरसकोडीदेसे वावण्णं सासणे मुणेदव्वा ।
मिस्सावि य तद्दुगुणा असंजदा सत्तकोडिसया ॥६४२॥ त्रयोदशकोटयो देशसंयते द्विपंचाशत्कोटयः सासादने ज्ञातव्याः। मिश्राश्चापि तद्विगुणा १० भवंति असंयताः सप्तकोटिशताः॥
मनुष्यगतियोळ देशसंयतरु पदिमूरु कोटिगळप्परु । १३ को। सासादनरु द्विपंचाशत्कोटिगळप्परु । ५२ को। मिश्ररुगळु तद्विगुणमप्परु १०४ को। असंयतसम्यग्दृष्टिगळु सप्रकोटिशतप्रमितरप्परु ७०० को। प्रमत्तादिसंख्य मुन्नमे पेळल्पटुवु।।
पृथ्वीषु किंचिदूना क्रमशो निजद्वादशदशमाष्टमषष्ठतृतीयमूलभक्तजगच्छ्रेणिः। आनतादिषु कण्ठोक्तयोक्ता । १५ सर्वार्थसिद्धावहमिन्द्रा असंयता एव। ते च मानुषीप्रमाणास्त्रिगुणाः सप्तगुणा वा भवन्ति ॥६४१॥ मनुष्यगतावाह
देशसंयते त्रयोदशकोट्यो मन्तव्याः। १३ को। सासादने द्विपश्चाशत कोट्य: ५२ को। मिश्रे ततो द्विगुणाः १०४ को । असंयते सप्त शतकोट्यः ७०० को। प्रमत्तादीनां संख्या तु प्रागुक्ता ॥६४२॥ दसवें, आठवें, छठे, तीसरे और दूसरे वर्गमूलका भाग जगतश्रेणिमें देनेसे जो-जो प्रमाण .. आवे, उसमें कुछ-कुछ कम मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण है। यहाँ जो अपनी-अपनी समस्त राशिमें कुछ कम किया है सो दूसरे आदि गुणस्थानवाले जीवोंके प्रमाणको घटानेके लिए किया है। क्योंकि मिथ्यादृष्टियोंकी तुलनामें उनका परिमाण बहुत अल्प है । आनतादिमें मिथ्यादृष्टियोंका प्रमाण पहले कहा ही है। सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र असंयत सम्यग्दृष्टि ही है। मानुषियोंके प्रमाणसे उनका प्रमाण तिगुना और किन्हींके मतसे सात गुणा । कहा है ॥६४१॥
मनुष्यगतिमें कहते हैं
मनुष्य देशसंयत गुणस्थानमें तेरह कोटि जानना। सासादनमें बावन कोटि जानना। मिश्रमें उससे दुगुने अर्थात् एक सौ चार कोटि जानना । असंयतमें सात सौ कोटि जानना। प्रमत्त आदिकी संख्या पहले कही है ॥६४२।।
३०
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८८२
गो० जीवकाण्डे जीविदरे कम्मचये पुण्णं पावोत्ति होदि पुण्णं तु ।
सुहपयडीणं दव्वं पावं असुहाण दव्वं तु ॥६४३।। जीवेतरस्मिन् कर्मचये पुण्यं पापमिति भवति पुण्यंतु । शुभप्रकृतीनां द्रव्यं पापमशुभानां द्रव्यं तु॥
जीवपदार्थमं पेळ्वल्लि सामान्यदिदं गुणस्थानंगळोळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानत्तिगळं सासादनगुणस्थानवत्तिगळं पापजीवंगळु । मिश्रगुणस्थानवत्तिंगळु पुण्यपापमिश्रजीवंगळेकंदोर्ड सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रपरिणामिगळप्पुरिंदमसंयतगुणस्थानतिगळ पुण्यजीवंगळेकै दोडे सम्यक्त्वसंयुक्तजीवंगळप्पुरिदं देशसंयतगुणस्थानत्तिगळं सम्यक्त्वमुमेकदेशवतंगळोळु कूडिद
वप्पुरिदं पुण्यजीवंगळप्परु । प्रमत्ताद्ययोगिकेवलिगुणस्थानत्तिगळनितुं पुण्यजीवंगळे किंतु १. पेळ्दनंतरमजीवपदार्थमं पेळ्वल्लि कर्मचयदोलु कार्मणस्कंधदोळ पुण्यमें दुं पापमें दुमजीवपदार्थ
मेरडु भेदमक्कुमल्लि पुण्यमें बुदावुदे दोडे मत्त शुभप्रकृतिगळ द्रव्यमक्कुमा शुभप्रकृतिगळावुर्वेदोडे सद्वेद्यमुं शुभायुष्यंगळु शुभनामकर्मप्रकृतिगळुमुच्चैर्गोत्रमें बिवु शुभप्रकृतिगळे बुवक्कुं । पापमें बुदा. वुदेदोर्ड अशुभकर्मप्रकृतिगळ द्रव्यमक्कुमा अशुभप्रकृतिगळेबुवावुर्वे देवोडे अतोन्यत्पाप बी
सूत्राभिप्रायदिदमसद्वेद्यमुं नरकायुष्यमुं नोचैर्गोत्रमुमशुभनामकर्मप्रकृतिगळमें बिवशुभप्रकृति१५ गळेबुवक्कुं।
आसवसंवरदव्वं समयपबद्धं तु णिज्जरादव्वं ।
तत्तो असंखगणिदं उक्कस्सं होदि णियमेण ॥६४४॥ आस्रवसंवरद्रव्यं समयप्रबद्धस्तु निर्जराद्रव्यं । ततोऽसंख्यगुणितमुत्कृष्टं भवति नियमेन ॥
जीवपदार्थप्रतिपादने सामान्येन गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टयः सासादनाश्च पापजीवाः । मिश्राः पुण्यपापमिश्रजीवाः सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रपरिणामपरिणतत्वात । असंयताः सम्यक्त्वेन, देशसंयताः सम्यक्त्वेन देशव्रतेन च प्रमत्तादया सम्यक्त्वेन व्रतेन च युतत्वात् पुण्यजीवा एव इत्युक्ताः । अनन्तरं अजीवपदार्थप्ररूपणे कर्मचये-कार्मणस्कन्धे पुण्यं पापमिति अजीवपदार्थो द्वधा । तत्र शुभप्रकृतीनां सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणां द्रव्यं पुण्यं भवति । अशुभानां असद्वेद्यादिसर्वाप्रशस्तप्रकृतीनां द्रव्यं तु पुनः पापं भवति ।।६४३॥
जीवपदार्थ सम्बन्धी सामान्य कथनके अनुसार गुणस्थानोंमें मिथ्यादृष्टि और २५ सासादन तो पापी जीव हैं। मिश्रगुणस्थानवाले पुण्यपापरूप मिश्र जीव हैं, क्योंकि उनके
सम्यक् मिथ्यात्वरूप मिश्र परिणाम होते हैं। असंयत सम्यक्त्वसे युक्त हैं, देशसंयत सम्यक्त्व और देशव्रतसे युक्त हैं, इसलिए ये तो पुण्यात्मा जीव ही हैं और प्रमत्तादि तो पुण्यात्मा हैं ही। इसके अनन्तर अजीव पदार्थका प्ररूपण करते हैं-कार्मण-स्कन्ध पुण्यरूप भी होता है
और पापरूप भी होता है। इस प्रकार अजीव पदार्थ के दो भेद हैं। उनमें सातावेदनीय, शुभ , आयु, शुभनाम और उच्चगोत्र ये शुभ प्रकृतियाँ हैं।इनका द्रव्य पुण्यरूप है। असातावेदनीय
आदि सब अप्रशस्त प्रकृतियोंका द्रव्य पाप है ॥६४३।।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका आस्रवद्रव्यमुं संवरद्रव्यमुं प्रत्येकं समयप्रबद्धमक्कुं निर्जराद्रव्यमुं तु मत्त समयप्रबद्धर्म नोडलुमसंख्यातगुणितमुत्कृष्टमक्कुं नियमदिदं ।
बंधो समयपबद्धो किंचूणदिवड्ढमेत्तगुणहाणी ।
मोक्खो य होदि एवं सद्दहिदव्वा दु तच्चट्ठा ॥६४५॥ बंधः समयप्रबद्धः किंचिदूनद्वयर्द्धमात्रगुणहानिर्मोक्षश्च भवत्येवं श्रद्धातव्यास्तु तत्वार्थाः॥ ५
तु मत्त बंधमुं समयप्रबद्धमेयक्कुं। मोक्षद्रव्यं किंचिदूनद्वचर्द्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धंगळप्पुवेदितु तत्वार्थगळ श्रद्धातव्यंगळप्पुवु। अनंतरं सम्यक्त्वभेदमं पेळ्दपं:
खीणे दंसणमोहे जं सद्दहणं सुणिम्मलं होई ।
तक्खाइयसम्मत्तं णिच्चं कम्मक्खवणहेदू ॥६४६॥ क्षीणे दर्शनमोहे यच्छ्रद्धानं भवति सुनिर्मलं। तत्क्षायिकसम्यक्त्वं नित्यं कर्मक्षपणहेतुः॥
मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतिगळुमनंतानुबंधिचतुष्टयमुं करणलब्धिपरिणामसामर्थ्यदिदं क्षीणमागुत्तं विरलु आवुदोंदु श्रद्धानं सुनिर्मलमक्कुमदु क्षायिकसम्यग्दर्शनमें बुदक्कुमा क्षायिकसम्यग्दर्शनं नित्यं नित्यमक्कुमेके दोडे प्रतिपक्षकर्मप्रक्षदिदं पुट्टिदात्मगुणविशुद्धिरूपसम्यग्दर्शनमक्षयमप्पुरिदं प्रतिसमयं गुणश्रेणिकर्मनिराकारणमक्कुमंते पेळल्पद्रुदु। १५
दसणमोहक्खविदे सिज्झदि एक्केव तदियतुरियभवे ।
णादिच्छदि तुरिय भवं ण विणस्सवि सेस सम्मं व॥ आस्रवद्रव्यं संवरद्रव्यं च समयप्रबद्धः । निर्जराद्रव्यं तु पुनः उत्कृष्टं समयप्रबद्धान्नियमेनासंख्यातगुणं भवति ॥६४४॥
तु-पुनः बन्धोऽपि समयप्रबद्ध एव । मोक्षद्रव्यं किंचिदूनद्वयर्धगुणहानिमात्रसमयप्रबद्धं भवतीति एवं २० तत्त्वार्थाः श्रद्धातव्याः ॥६४५।। अथ सम्यक्त्वभेदमाह
मिथ्यात्वसम्यग्मिथ्यात्वसम्यक्त्वप्रकृतित्रये अनन्तानुबन्धिचतुष्टये च करणलब्धिपरिणामसामर्थ्यात क्षीणे सति यच्छद्धानं सूनिर्मलं भवति तत्क्षायिकसम्यग्दर्शनं नाम । तच्च नित्यं स्यात प्रतिपक्षप्रक्षयोत्पन्नात्मगुणत्वात् । पुनः प्रतिसमयं गुणश्रेणिनिर्जराकारणं भवति । तथा चोक्तं
आस्रवद्रव्य और संवरद्रव्य प्रबद्ध प्रमाण है। किन्तु उत्कृष्ट निर्जराद्रव्य समयप्रबद्धसे २५ नियमसे असंख्यातगुणा होता है ॥६४४॥
बन्धद्रव्य भी समयप्रबद्ध प्रमाण ही है। और मोक्षद्रव्य किंचित् हीन डेढ गुण हानिसे गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण होता है । इस प्रकार तत्त्वार्थीका श्रद्धान करना चाहिए ॥६४५।।
आगे सम्यक्त्वके भेद कहते हैं
करणलब्धि रूप परिणामोंकी सामर्थ्यसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व ३० प्रकृति इन तीन दर्शनमोहके तथा अनन्तानुबन्धी क्रोध,मान,माया,लोभके क्षय होनेपर जो अत्यन्त निर्मल श्रद्धान होता है उसका नाम क्षायिक सम्यग्दर्शन है। वह नित्य है; क्योंकि प्रतिपक्षी कर्मोके क्षयसे उत्पन्न होनेके साथ आत्माका गुण है। तथा प्रतिसमय गुणश्रेणि
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गो० जीवकाण्डे दर्शनमहं क्षपिसल्पडुत्तिरलु तदभवदोळे सिद्धिसुगुं मेणु तृतीयचतुर्त्यभवंगळो कर्मक्षयमं माळ्कुं। नाल्कनेय भवमनतिक्रमिसुवुदल्ल शेषसम्यक्त्वगळंत किंडुवुदुमल्लमदु कारणदिदं नित्यमेंदु पेळल्पटुदु साधक्षयानंतमें बुदर्थमनंतरमीयर्थमने पेन्दपं:
वयणेहि वि हेदूहि वि इंदियभयआणएहि रूवेहिं ।
वीभच्छजुगुछाहि य तेलोक्केण वि ण चालेज्जो ॥६४७|| वचनैरपि हेतभिरपींद्रियमयानकैः रूपैः। बीभत्स्यजुगुप्साभिश्च त्रैलोक्येनापि न चालनीयं ॥
कुत्सितोक्तिर्गाळदमुं कुहेतुदृष्टांतंगळिंदमुं इंद्रियंगळ्ग भयंकरंगळिंदमुं विकृतवेषंगळिंदमुं बोभत्स्यगळतणिदप्प जुगप्सिर्गाळदमुं किंबहुना त्रैलोक्येनापि मूरुं लोकदिदमुं क्षायिकसम्यक्त्वं चलिसल्पडदु । अंतप्प क्षायिकसम्यग्दर्शनमार्गक्कुम दोडे पेळ्दपरु :
दंसणमोहक्खवणापट्ठवगो कम्मभूमिजादो हु।
मणुसो केवलिमूले गिट्ठवगो होदि सव्वत्थ ॥६४८॥ वर्शनमोहक्षपणाप्रस्थापकः कर्मभूमिजातस्तु मनुष्यः केवलिमूले निष्ठापको भवति सर्वत्र ॥
दर्शनमोहक्षपणाप्रारंभकं मत्त कर्मभूमिजनक्कुमिल्लियुं मनुष्यनेयक्कुमादोडं केवलिश्रीपाद. मूलदोळु दर्शनमोहक्षपणाप्रारंभमं माळकुं। चतुर्गतिगळोळेल्लियादोडं निष्ठापिसुगु ।
अनंतरं वेदकसम्यक्त्वस्वरूपमं पेळ्दपं
दर्शनमोहे क्षपिते सति तस्मिन्नेव भवे वा तृतीयभवे वा चतुर्थभवे कर्मक्षयं करोति चतुर्थभवं नातिक्रामति । शेषसम्यक्त्ववन्न विनश्यति । तेन नित्यमित्युक्तं । साद्यक्षयानन्तमित्यर्थः । अमुमेवार्थमाह
त्सितोक्तिभिः-कुहेतुदृष्टान्तः इन्द्रियभयोत्पादकविकृतवेषः बीभत्स्यवस्तुत्पन्नजगुप्साभिः किं बहना त्रैलोक्येनापि क्षायिकसम्यक्त्वं न चालयितुं शक्यम् ॥६४७॥ तत्सम्यग्दर्शनं कस्य भवेत् ? इति चेदाह
दर्शनमोहक्षपणाप्रारम्भकः कर्मभूमिज एव सोऽपि मनुष्य एव तथापि केवलिश्रीपादमूले एव भवति । निष्ठापकस्तु सर्वत्र चतुर्गतिषु भवति ॥६४८॥ अथ वेदकसम्यक्त्वस्वरूपमाह
२०
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निर्जराका कारण होता है। कहा है-दर्शन मोहका क्षय होनेपर उसी भवमें या तीसरे अथवा चौथे भवमें कोका क्षय करके मुक्ति प्राप्त करता है। चतुर्थ भवका अतिक्रमण नहीं
करता । और न अन्य सम्यक्त्वोंकी तरह नष्ट ही होता है । इसीसे इसे नित्य कहा है । अर्थात् २५ यह सादि अक्षयानन्त होता है ॥६४६।।
इसी बातको कहते हैं
कुत्सित वचनोंसे, मिथ्याहेतु और दृष्टान्तोंसे, इन्द्रियोंको भय उत्पन्न करनेवाले भयंकर रूपोंसे, घिनावनी वस्तुओंसे उत्पन्न हुई ग्लानिसे, बहुत कहनेसे क्या, तीनों लोकोंके द्वारा भी क्षायिक सम्यक्त्वको विचलित नहीं किया जा सकता ॥६४७।।
वह क्षायिक सम्यग्दर्शन किसके होता है,यह कहते हैं
दर्शनमोहकी क्षपणाका प्रारम्भ कर्मभूमिमें उत्पन्न हुआ मनुष्य ही केवलीके पादमूलमें ही करता है । किन्तु निष्ठापक चारों गतियों में होता है ॥६४८॥
__आगे वेदक सम्यक्त्वका स्वरूप कहते हैं१. म मल्तदु ।
३०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दसणमोहुदयादो उप्पज्जइ जं पयत्थसदहणं ।
चलमलिणमगाढं तं वेदयसम्मत्तमिदि जाणे ॥६४९॥ दर्शनमोहोदयादुत्पद्यते यत्पदात्य॑श्रद्धानं । चलमलिनमगाढं तद्वेदकसम्यक्त्वमिति जानीहि ॥
दर्शनमोहनीयमप्प सम्यक्त्वप्रकृत्युदयमागुतिोडमावुदोदु तत्वार्थश्रद्धानं पुटुगुमदु चलमलिनमगाढमक्कुमदं वेदकसम्यक्त्वमें दितु एले शिष्यने नीनरि। अनंतरमुपशमसम्यक्त्वस्वरूपमुमं तत्सामग्रिविशेषभुमं गाथात्रयदिदं पेळ्दपं:
दंसणमोहुवसमदो उप्पज्जइ जं पयत्थसद्दहणं ।
उवसमसम्मत्तमिणं पसण्णमलपंकतोयसमं ॥६५०॥ दर्शनमोहोपशमतः उत्पद्यते यत्पदात्य॑श्रद्धानं । उपशमसम्यक्त्वमिदं प्रसन्नमलपंकतोयसमं ॥
अनंतानुबंधिचतुष्टयोदयाभावलक्षणाप्रशस्तोपशदिदं दर्शनमोहत्रयप्रशस्तोपशमविदं प्रसन्न- १० मलपंकतोयसमानमप्पुदावुदोंदु पदार्थश्रद्धानं पुटुगुमदु उपशमसम्यक्त्वमेंदु परमागमदोळ पेळल्पद्रुदु ।
खयउवसमियविसोही देसणपाओग्गकरणलद्धी य।
चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होदि सम्मत्ते ॥६५१॥ क्षायोपशमिकविशुद्धिदेशना प्रायोग्यकरणलब्धयश्चतस्रः सामान्याः करणलब्धिः पुनः १५ सम्यक्त्वे भवति ॥
क्षयोपशमदोळादलब्धियुं विशुद्धिलब्धियं देशनाप्रायोग्यकरणलब्धिगळमें दितु लब्धि. पंचकमुपशमसम्यक्त्वदोळप्पुववरोळु मोदल नाल्कु लब्धिगळ भव्यनोळमभव्यनोळमप्पुवप्पुरिद
दर्शनमोहनीयस्य सम्यक्त्वप्रकृतेः उदये सति यत्तत्त्वार्थश्रद्धानं चलं मलिनं अगाढं वोत्पद्यते तद्वेदकसम्यक्त्वमिति जानीहि ॥६४९।। अथोपशमसम्यक्त्वस्वरूपं तत्सामग्रोविशेषं च गाथात्रयेण आह
२० अनन्तानुबन्धिचतुष्कस्य दर्शनमोहत्रयस्य च उदयाभावलक्षणाऽप्रशस्तोपशमन प्रसन्नमलपङ्कतोयसमानं यत्पदार्थश्रद्धानमुत्पद्यते तदिदमुपशमसम्यक्त्वं नाम ॥६५०॥
क्षायोपशमिकविशुद्धिदेशनाप्रायोग्यताकरणनाम्न्यः पञ्चलब्धयः उपशमसम्यक्त्वे भवन्ति । तत्र आद्याः
दर्शनमोहनीयको सम्यक्त्व प्रकृतिका उदय होनेपर जो तत्त्वार्थ श्रद्धान चल, मलिन वा अगाढ़ होता है,उसे वेदक सम्यक्त्व जानो ॥६४९॥
उपशम सम्यक्त्वका स्वरूप और उसकी विशेष सामग्री तीन गाथाओंसे कहते हैं
अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ और दर्शन मोहकी मिथ्यात्व, सम्यक्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन तीनके उदयका अभाव लक्षणरूप प्रशस्त उपशमसे मलपंक नीचे बैठ जानेसे निर्मल हुए जलकी तरह जो पदार्थ श्रद्धान उत्पन्न होता है, उसका नाम उपशम सम्यक्त्व है ॥६५०॥
३० झायोपशमिकलब्धि, विशुद्धिलब्धि, देशनालब्धि, प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि ये पाँच लब्धियां उपशमसम्यक्त्व होनेसे पूर्व होती हैं। इनमें से आदिकी चार लब्धियाँ सामान्य
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गो० जीवकाण्डे साधारणंगळेप्पुवु । करणलब्धि भव्यनोळयप्पुरिदं सम्यक्त्वग्रहणदोळं चारित्रग्रहणदोळमक्कुं। अनंतरमीयुपशमसम्यक्त्वमं कैको ब जीवनं पेळ्दपरु :
चउगइ भव्वो सण्णी पज्जत्तो सुज्झगो य सागारो।
जागारो सल्लेस्सो सलद्धिगो सम्ममुवगमइ ॥६५२॥ चतुर्गतिभव्यः संज्ञिपर्याप्तः शुद्धश्च साकारः। सल्लेश्यो जागरिता सलब्धिकः सम्यक्त्वमुपगच्छति ॥
चतुर्गतियभव्य, संज्ञियं पर्याप्तकर्नु विशुद्धनुं भेदग्रहणमाकारमें बुददरोळकूडिदनुमप्पुरिदं साकारनुं स्त्यानगृद्धयादिनिद्रात्रयरहितनुं भावशुभलेश्यात्रयदोळन्यतमलेश्यायुतनुं करणलब्धिपरिणतनुमितप्प जीवं यथासंभवमप्प सम्यक्त्वमं पोदईगुं।
चत्तारि वि खेसाई आउगबंधेण होइ सम्मत्तं ।
अणुवदमहव्वदाई ण लहइ देवाउगं मोत्तु ।।६५३।। चतुर्णा क्षेत्राणामायुबंधेन भवति सम्यक्त्वं । अणुव्रतमहाव्रतानि न लभते देवायुष्कं मुक्त्वा ॥
नारकायुष्यमुमं तिर्यगायुष्यमुमं मनुष्यायुष्यमुमं देवायुष्यमुमं परभवायुष्यंगळं कट्टिद बद्धायुष्यरुगळप्प जीवंगळु सम्यक्त्वम स्वीकरिसुवरल्लि दोषमिल्लमणुवतमहाव्रतंगळं पडेयल्के १५ नेरेयरल्लि, देवायुबंधमाद जीवंगळ अणुव्रतमहावतंगळं स्वीकरिसुवर।
चतस्रोऽपि सामान्याः भव्याभव्ययोः संभवात् । करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् तथापि सम्यक्त्वग्रहणे चारित्रग्रहणे च ॥६५१॥ अथोपशमसम्यक्त्वग्रहणयोग्यजीवमाह--
यः चतुर्गतिभव्यः संज्ञी पर्याप्तकः विशुद्धः आकारेण भेदग्रहणेन सहितः स्त्यानगृद्धयादिनिद्रात्रयरहितः भावशुभलेश्यात्रये अन्यतमलेश्यः करणलब्धिपरिणतः स जीवो यथासंभवं सम्यक्त्वमुपगच्छति ॥६५२॥
चतुर्णा परभवायुषां एकतमबन्धेन जातबद्धायुष्कस्य सम्यक्त्वं भवत्यत्र दोषो नास्ति । अणुव्रतमहाव्रतानि तु एकं बद्धदेवायुष्क मुक्त्वा नान्ये लभन्ते ॥६५३॥ हैं-भव्य और अभव्य दोनोंके होती हैं। किन्तु अधःकरण, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण परिणाम रूप करणलब्धि भव्यके ही होती है। वह भी सम्यक्त्व और चारित्र ग्रहणके समय होती है ॥६५१॥
उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करनेके योग्य जीवको कहते हैं
जो चारों गतियों में से किसी भी गतिमें वर्तमान है। किन्तु भव्य, पर्याप्तक, विशुद्ध, साकार उपयोगवाला, स्त्यानगृद्धि आदि तीन निद्राओंसे रहित अर्थात्, तीन शुभ भाव लेश्याओंमें-से किसी एक लेश्याका धारक और करणलब्धि रूप परिणत होता है, वह जीव यथासम्भव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है ॥६५२॥
परभव सम्बन्धी चारों आयुओं में से किसी भी एक आयुका बन्ध कर लेनेपर जो जीव बद्धायु हो गया है, उसके सम्यक्त्व उत्पन्न होने में कोई दोष नहीं है। किन्तु अणुव्रत और महाव्रत एक बद्धदेवायु-जिसने परभव सम्बन्धी देवायुका बन्ध किया है-को छोड़कर अन्य आयुका बन्ध कर लेनेवाले बद्धायुष्कके नहीं होते ॥६५३॥
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
ण यमिच्छत्तं पत्तो सम्मत्तादो य जो य परिवडिदो ।
सो सासणोत्ति यो पंचमभावेण संजुत्तो ॥ ६५४ ||
न च मिथ्यात्वं प्राप्तः सम्यक्त्वतश्च यश्च परिपतितः । सासावन इति ज्ञेयः पंचमभावेन
संयुक्तः ॥
आवनोर्ध्वं जीवनु सम्यक्त्वदिदं बळिचि मिथ्यात्वमं पोईदेन्नेवरमिवन्नेवरमा जीवं ५ सासादनने दितरियल्पडुवं । दर्शन मोहनीयोदयोपशमादिनिरपेक्षापेक्षयदं पारिणामिकभावदोकू डिदनुपनेर्क दोडे चारित्रमोहनीयापेक्षेयिनातंगौ दयिकभावमप्पुदरिदं ।
सद्दद्दणासद्दणं जस्स य जीवस्स होइ तच्चेसु ।
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विरयाविरयेण समो सम्मामिच्छत्ति णायव्व ॥ ६५५ ||
श्रद्धानाश्रद्धानं यस्य च जीवस्य भवति तत्त्वेषु । विरताविरतेन समः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति १०
ज्ञातव्यः ।
जीवादिपदात्थंगळोळु आवनोठर्वजीवंगे श्रद्धानमुमश्रद्धानमुमोम्मों दलोळे संयतासंयतंग तु संयममुमसंयममुमोम्मों दलोळेयक्कुमंत । मिश्रनोळु तस्वात्थं श्रद्धानमुमतत्वार्थश्रद्धानमुमोम्मोदलोळेयक्कुमपुर्दारना जीवं सम्यग्मिथ्यादृष्टिय वितरियल्पडुवं ।
मिच्छाइट्ठी जीवो उवट्ठ पवयणं ण सद्दहदि ।
सद्दहदि असम्भावं उवहट्ठ वा अणुवहट्ठ ॥ ६५६॥
मिथ्यादृष्टिर्जीवः उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्धघाति । श्रद्धधात्य सद्भावमुपदिष्टं वाऽनुपदिष्टं ॥ मिथ्यादृष्टिजीवं उपदेशं गेय्यल्पट्टाप्तागमपदात्थंगळं नंबुवनल्लं । उपदेशं गेयल्पट्टुमनुपदेशं गेय्यल्पदुमन सद्भावमननाप्तागमपदात्थंगळं नंबुवं ।
यो जीवः सम्यक्त्वात्पतितो मिथ्यात्वं यावन्न प्राप्तः तावत् सासादन इति ज्ञेयं स च दर्शनमोहनीय- २० स्यैवापेक्षया पारिणामिकभावेन सहितः, चारित्रमोहनीयापेक्षया तस्योदयिकभाव सद्भावात् ॥६५४॥
जीवादिपदार्थेषु यस्य जीवस्य श्रद्धानमश्रद्धानं च युगपदेव देशसंयमस्य संयमासंयमवद्भवति स जीवः सम्यग्मिथ्यादृष्टिरिति ज्ञातव्यः ।। ६५५ ।।
मिथ्यादृष्टिर्जीवः उपदिष्टान् आप्तागमपदार्थान् न श्रद्दधाति । उपदिष्टान् अनुपदिष्टांश्च असद्भावान् अनाप्तागमपदार्थान् श्रद्दधाति ॥ ६५६ ॥ अथ सम्यक्त्वमार्गणायां जीवसंख्यां गाथात्रयेणाह —
जो जीव सम्यक्त्व से गिरकर जबतक मिध्यात्वको प्राप्त नहीं होता, तबतक उसे सासादन जानना । वह दर्शन मोहनीयकी अपेक्षा ही पारिणामिक भाववाला होता है । चारित्र मोहनीयकी अपेक्षा तो अनन्तानुबन्धीका उदय होनेसे औदयिक भाववाला है ।। ६५४ || जैसे देशसंयमीके एक साथ संयम और असंयम दोनों होते हैं, वैसे ही जिस जीव के जीवादि पदार्थों में श्रद्धान और अश्रद्धान दोनों ही एक साथ होते हैं, वह जीव सम्यगमिथ्यादृष्टि जानना ||६५५||
मिथ्यादृष्टि जीव जिन भगवान् के द्वारा कहे गये आप्त, आगम और पदार्थोंका श्रद्धान नहीं करता किन्तु कुदेवोंके द्वारा उपदिष्ट और अनुपदिष्ट असमीचीन मिथ्या आप्त, मिथ्या आगम और मिथ्या पदार्थोंका श्रद्धान करता है || ६५६ ||
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गो. जीवकाण्डे अनंतरं सम्यक्त्वमाग्र्गणयोळ जीवसंख्येयं गाथात्रयदिदं पेळ्दपं
वासपुधत्ते खइया संखेज्जा जइ हवंति सोहम्मे ।
तो संखपल्लठिदिए केवडिया एवमणुपादे ॥६५७॥
वर्षपृथक्त्वे क्षायिकाः संख्येया भवंति सौधर्मे। तहि संख्यपल्यस्थितिके कियन्त एव५ मनुपाते ॥
वर्षपृथक्त्वदोळ क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळु संख्यातप्रमितरु सौधर्मकल्पद्वयवोळु पुटुवरंतादोर्ड संख्यातपल्यस्थितिकनोळु एनिबरु क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळप्परेदितनुपातत्रैराशिकर्म माडुत्तिरलु प्रवर्ष ७ फ।क्षा= ७।३।१७। बंद लब्धर्मनितक्कुम दोडे :
संखावलिहिदपल्ला खड्या तत्तो य वेदगुवसमया।
आवलि असंखगुणिदा असंखगुणहीणया कमसो ॥६५८॥ संख्यातावलिहतपल्याः क्षायिकाः ततश्च वेदकोपशमकाः । आवल्यसंख्यगुणिताः असंख्यगुणहीनकाः क्रमशः॥
संख्यातावलिळिदं भागिसल्पट्ट पल्यप्रमितरु क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळप्पर प मा क्षायिक
सम्यग्दृष्टिगळं नोडलु वेदकसम्यग्दृष्टिगळुमुपशमसम्यग्दृष्टिगळं क्रमदिवमावल्यसंख्यातगुणित१५ प्रमाणरुमसंख्यातगुणहीनरुमप्पर वे ५० उ-प
२१.२१
यदि वर्षपृथक्त्वे क्षायिकसम्यग्दृष्टयः संख्याताः सौधर्मद्वये उत्पद्यन्ते तहि संख्यातपल्यस्थितिके कति इत्यनुपाते त्रैराशिके कृते त्रवर्ष ७ फ क्षा - १ । इ प १ लब्धाः ॥६५७।।
संख्यातावलिभक्तपल्यमात्रकाः क्षायिकसम्यग्दृष्टयो भवन्ति प । तेभ्यः वेदकोपशमसम्यग्दृष्टयः क्रमेण
आवल्यसंख्यातगुणितासंख्यातगुणहीना भवन्ति । दे= प उ = प॥६५८
२१ २ia
सम्यक्त्वमार्गणामें जीवोंकी संख्या तीन गाथाओंसे कहते हैं
यदि वर्षपृथक्त्व कालमें सौधर्मयुगलमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि संख्यात उत्पन्न होते हैं, तो संख्यात पल्यकी स्थितिमें कितने उत्पन्न होते हैं। ऐसा त्रैराशिक करनेपर प्रमाणराशि वर्षपृथक्त्व, फलराशि संख्यात जीव और इच्छाराशि संख्यात पल्य । सो फलराशिसे इच्छा. राशिको गुणा करके उसमें प्रमाणराशिसे भाग देनेपर जो लब्ध आया,वह कहते हैं ॥६५७॥
संख्यातआवलीसे भाजित पल्यप्रमाण क्षायिकसम्यग्दृष्टि होते हैं । क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंकी संख्याको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करनेपर वेदकसम्यग्दृष्टियों की संख्या होती है। तथा क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे असंख्यातगुणे हीन उपशमसम्यग्दृष्टि होते हैं ॥६५८॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
पल्लासंखेज्जदिमा सासणमिच्छा य संखगुणिदा हु । free at fast संसारी वामपरिमाणं ॥ ६५९ ॥ पल्यासंख्यातैकभागाः सासादनमिथ्यादृष्टयश्च संख्यातगुणिताः खलु । मिश्राः तैव्वहीनः संसारी वामपरिमाणं ॥
पल्या संख्यातैकभागप्रमितरु सासादनमिथ्या रुचिगळप्परु प मा सासादनरं नोडलु ५
aa४
सम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ संख्यातगुणितमात्ररपुरुप स्फुटमागि ई राशिपंचकविहीन संसारिराशिवामरुगळ प्रमाणमक्कुं । वा १३ ।
नवपदस्थंगळ प्रमाणं पेळल्पडुगुं । जीवंगळु । १६ अजीवंगळु पुद्गलंगळ सव्वंजीवराशियं नोडल नंतगुणमकुं । १६ ख । धर्म्मद्रव्यमों दु १ । अधर्म्मद्रव्यमों दु १ । आकाशद्रव्यमों 'दु १ । कालद्रव्यं जगच्छ्रेणिघनप्रमितमक्कु = मितजीवं गुंदि साधिक पुद्गलराशिप्रमितमक्कुं ३ पुण्यजीवं- १०
E
१६ ख
असंयतरुं देशसंयतरु कूडि प्रमत्ताद्युपरितनगुणस्थानवत्तगळं संख्यातदिदं साधिकरप्परु प ३४ अजीव पुण्यं द्वद्वंगुणहानि संख्यातेक भागमक्कु पापजीवंगळु
aaa४
a a
साधिकसिद्धराशिविहीन संसारिराशिप्रमाणमप्पह १३ । अजीवपापं द्वयर्द्धगुणहानि संख्यातबहु
पल्यासंख्यातैकभागमात्राः सासादनमिथ्यारुचयः प तेभ्यः सम्यग्मिथ्यादृष्टयः संख्यातगुणाः प
a a
३
स ० -१२-१ ตุ
aay
स्फुटं एतद्रा शिपञ्चकोन संसारराशिर्वामपरिमाणं भवति वा १३ – नवपदार्थप्रमाणमुच्यते---
१५
जीवाः १६ अजीवेषु पुद्गलाः सर्वजीवराशितोऽनन्तगुणाः १६ ख । धर्मद्रव्यमेकं । अधर्मद्रव्यमेकं । आकाशद्रव्यमेकं । कालद्रव्यं जगच्छ्रेणिधनमात्रं । एवमजीवपदार्थों मिलित्वा साधिकपुद्गलराशिमात्रः
८८९
9
१६ ख । पुण्यजीवा असंयतदेशसंयतान्मेलयित्वा तत्र प्रमत्तादीनां सख्याते युते एतावन्तः प ४ अजीवपुण्यं गुणहानिसंख्या तकभागः स १२ - १ पापजीवाः साधिक पुण्यजीव सिद्ध राशिविहीन संसारिराशिः १३ - 1
aaa४
ू
पल्यके असंख्यातवें भाग सासादन होते हैं, जिनकी रुचि मिथ्या होती है । उनसे २० सम्यग्मिथ्यादृष्टि संख्यातगुणे हैं । संसारी जीवोंकी राशिमेंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादन और मिश्र इन पाँचकी राशियोंको घटानेपर मिथ्यादृष्टियोंका परिमाण होता है। अब नौ पदार्थोंका परिमाण कहते हैं-जीव अनन्त हैं । अजीवोंमें पुद्गल समस्त जीवराशिसे अनन्तगुणा है । धर्मद्रव्य एक है । अधर्मद्रव्य एक है । आकाशद्रव्य एक है। कालद्रव्य जगतश्रेणिके घन अर्थात् लोकप्रमाण है । इस प्रकार अजीव २५ पदार्थ सब मिलकर साधिक पुद्गलराशिप्रमाण है । असंयत और देशसंयतोंके प्रमाणको प्रमत्त आदिके प्रमाण में मिलानेपर पुण्य जीवोंका प्रमाण होता है। डेढ़ गुण-हानि प्रमाण
११२
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८९०
o
भागमात्रमक्कं स १२ १ आस्त्रवपदार्थ समयप्रबद्धप्रमाणमक्कं स व संवरब्रव्यमुं समयप्रबद्ध
?
प्रमितमक्कुं । स । निज्र्ज्जराद्रव्यमिदु स
बंधद्रव्यं समयप्रबद्धमकुं । स मोक्षद्रव्यं
५ पुण्यजीव पaa ४
a a
द्वयर्द्धगुणहानिप्रमितमक्कुं स १२ । संदृष्टि :
--
सामान्यजीव १६
अजी = सा
३
पापजीव १३
11=
गो० जीवकाण्डे
११२४
१२ । ६४
प । ८५
资
O
पाप १२-१
समयप्रबद्धः स । निर्जराद्रव्यमेतावत्- स
किचिदूयर्धगुणहानिः स १२ - ॥६५९ ।।
१६ ख
घुस १२ । १
a
आस्त्र स a
संव स निर्ज्ज स ० १२ == ६४ प । ८५ ।
a
अजीवपापं यर्धगुणहानिसंख्या तबहुभागः स ० १२-१
ง
आस्रवपदार्थः समयप्रबद्धः स । संवरद्रव्यं
१२ । ६४ बन्धद्रव्यं समयप्रबद्धः स । मोक्षद्रव्यं ऊ प ८५
a
बंध स
मोक्ष सं १२
१० समय प्रबद्धों में से संख्यातवें भाग अजीवपुण्यका परिमाण है । संसारी राशिमें से मिश्रकी अपेक्षा कुछ अधिक पुण्यजीवोंके प्रमाणको घटानेसे पापजीवोंका प्रमाण होता है। डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयबद्धोंमेंसे संख्यात बहुभाग अजीवपापका परिमाण है । आस्रव पदार्थ समयप्रबद्ध प्रमाण है । संवर द्रव्य समयप्रबद्ध प्रमाण है । निर्जराद्रव्य गुणश्रेणि निर्जराके उत्कृष्ट द्रव्यप्रमाण है । बन्धद्रव्य समयप्रबद्धप्रमाण है । मोक्षद्रव्य कुछ कम डेढ़ गुणहानि१५ प्रमाण है ||६५९ ॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
८९१ इंतु भगवदर्हत्परमेश्वर चारुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमान श्रीमद्रायराजगुरुमंडलाचार्य्यमहावादवादीश्वररायवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्र. वसि श्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्टे श्रीमत्केशवण्णविरचितगोम्मटसारकर्णाटवृत्तिजीवतत्त्वप्रदीपिकयोळु जीवकांडविंशतिप्ररूपणंगळोळु सप्तदशं सम्यक्त्वमार्गणामहाधिकारं व्याकृतमायतु ॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तिविरचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां जीवकाण्डे विंशतिप्ररूपणासु सम्यक्त्वमार्गणाप्ररूपणानाम
सप्तदशोऽधिकारः ॥१७॥ इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसको अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डकी बीस प्ररूपणाओंमें-से सम्यक्त्वमार्गणा प्ररूपणा नामक सत्रहवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥१०॥
१५
|
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संशिमार्गणा ॥१८॥ अनंतरं संज्ञिमार्गणाधिकारमं पेळ्दपं:
णोइंदिय आवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा |
सा जस्स सो दु सण्णी इदरो सेसिदि अवबोहो ॥६६०॥ नोइंद्रियावरणक्षयोपशमस्तज्जनितबोधनं संज्ञा। सा यस्य स तु संज्ञो इतरः शेर्षेद्रियाव५ बोधः॥
नोइंद्रियं मनस्तदावरणक्षयोपशमं संजय बुदक्क। तज्जनितबोधन मेणु संजय बुदक्कुमा संजे यावनोर्व जीवंगुटक्कुमा जीवं संज्ञि ये बुदक्कुमितरनप्पसंज्ञिजीवं शेषेद्रियंगळिदमरिवनुळ्ळनक्कुं।
सिक्खकिरियुवदेशालावग्गाहिमणोवलंबेण ।
जो जीवो सो सण्णी तब्विवरीयो असण्णी दु ॥६६१॥ शिक्षाक्रियोपदेशाळापग्राहि मनोवलंबेन । यो जीवः स संज्ञो तद्विपरीतोऽसंज्ञो तु॥
हिताहितविधिनिषेधात्मिका शिक्षा तग्राही कश्चिन्मनुष्यादिः, करचरणचालनादिरूपा क्रिया । तद्ग्राही कश्चिदुक्षादिः, चर्मपुत्रिकादिनोपदिश्यमानवधविधानादिरुपदेशस्तद्ग्राही कश्चिद्
गजादिः। श्लोकादिपाठः आलापस्तदग्राही कश्चिच्चकोरराजकीरादिः। एंदितु मनोवलंबनविदं १५ शिक्षाक्रियोपदेशालापग्राहकमावुदोंदु जीवमदु संज्ञेयबुदक्कुं। तद्विपरीतलक्षणमनुळ्ळुवसंज्ञि
निरस्तारिरजोविघ्नो व्यक्तानन्तचतुष्टयः ।
शतेन्द्रपूज्यपादाब्जः श्रियं दद्यादरो जिनः ॥१८॥ अथ संज्ञिमार्गणामाह
नोइन्द्रियं मनः तदावरणक्षयोपशमः तज्जनितबोधनं वा संज्ञा सा विद्यते यस्य स संज्ञी इतरः असंज्ञी २० शेषेन्द्रि यज्ञानः ॥६६०॥
हिताहितविधिनिषेधात्मिका शिक्षा । करचरणचालनादिरूपा क्रिया । चर्मपुत्रिकादिनोपदिश्यमानवधविधानादिरुपदेशः। श्लोकादिपाठ आलापः। तद्ग्राही मनोवलम्बेन यो मनुष्यः उक्षगजराजकीरादिजीवः स
संज्ञीमार्गणाको कहते हैं
नोइन्द्रिय मनको कहते हैं। नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमको अथवा उससे उत्पन्न हुए २५ ज्ञानको संज्ञा कहते हैं। जिसके वह संज्ञा है,वह संज्ञी है। मनके सिवाय अन्य इन्द्रियोंके ज्ञानसे युक्त जीव असंज्ञी होता है ॥६६०।।
हितका विधान और अहितका निषेध जो करती है, वह शिक्षा है। हाथ-पैरके संचालनको क्रिया कहते हैं। चमड़ेकी पेटी आदिके द्वारा हिंसादि करनेके उपदेश देनेको
उपदेश कहते हैं । श्लोक आदि पढ़नेको आलाप कहते हैं। जो मनुष्य या बैल, हाथी, तोता ___३० १. म संज्ञियं जसमासंज्ञिया ।
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जीव बुदकं ।
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
मीमंसदि जो पुव्वं कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च ।
सिक्खदि णामेणेदि य समणो अमणो य विवरीदो ॥ ६६२||
मीमांसति यः पूर्वं कार्य्यमकाय्यं च तत्त्वमितरंच । शिक्षते नाम्नैति च समनाः अमनाश्च
विपरीतः ॥
यः आवनोठवं पूवं मुन्नमे कार्याकार्य्यमं मीमांसति अरियलच्छेसुगुं । तत्त्वमितरं च शिक्षते तत्त्वमुममतत्वमुमनरिवि शास्त्रंगळोळु प्रवतसुगुं नाम्नैति च पेसरिदं केरेदोर्ड बक्कं आ जीवं समनाः समनस्कनक्कुं । विपरीतश्च विपरीतलक्षणममनुदु अमनाः अमनस्कजीवमक्कं । संज्ञिमार्ग्यणेयोऴ जीवसंख्येयं पेदपं :
:
देहि सादिरेगो रासी सण्णीण होदि परिमाणं । तेणूणो संसारी सव्वेसिमसणिजीवाणं || ६६३ ||
देवैः सातिरेको राशिः संज्ञिनां भवति परिमाणं । तेनोनः संसारी सर्व्वेषामसंज्ञिजीवानां ॥
110 = 2
चतुणिकायामरसामान्यराशि साधिकमादोडे संज्ञिजीवंगळ परिमाणमक्कु
मी
४ । ६५=१
राशिदं विहीनमप्प संसारिराशि सर्व्व असंज्ञिजीवंगळ परिमाणमक्कं । १३ - । संज्ञी नाम । तद्विपरीतलक्षणः तु पुनः असंज्ञीनाम ||६६१ ॥
यः पूर्वं कार्यमकार्यं च मोमांसति । तत्त्वमितरच्च शिक्षते । नाम्ना आहूत आयाति स जीवः समनाः समनस्को भवति । तद्विपरीतलक्षणः अमनाः अमनस्को भवति ॥ ६६२ || अत्र जीवसंख्यामाह
॥
चतुनिकायामरराशिः साधिकः संज्ञिप्रमाणं भवति =
८९३
2
४ । ६५ = शृ
तेनोनः सर्वसंसारिराशिः सर्वा -
जो पहले कार्य-अकार्यका विचार करता है, तत्त्व और अतत्त्वको सीखता है, नाम लेकर पुकारनेपर चला आता है, वह जीव मनसहित है । जो ऐसा नहीं कर सकता, वह मन • रहित है ||६६२ ||
संज्ञिपरिमाणं भवति १३ - ।।६६३ ॥
आदि जीव मनके द्वारा शिक्षा आदि ग्रहण करते हैं, वे संज्ञी हैं। जो ऐसा नहीं कर सकते, वे असंज्ञी हैं ॥६६१॥
२०
१०
१५
चार प्रकारके देवोंका जितना प्रमाण है, उससे कुछ अधिक संज्ञी जीवोंका प्रमाण है । सब संसारी राशि में से संज्ञी जीवोंके प्रमाणको घटानेपर समस्त असंज्ञी जीवोंका परिमाण होता है ||६६३ ||
२५
१. म करवोडे ।
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८९४
गो० जीवकाण्डे इंतु भगवदहत्परमेश्वरचारुचरणारविंदद्वंद्वं वंदनानंदितपुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरु भूमंडलाचार्य्यवय्यमहावादवादीश्वररायवादिपितामह सकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्टं श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटकवृत्तिजीवतत्वप्रदीपिकयोळ जीवकांडविंशतिप्ररूपणंगळोळु अष्टदशसंज्ञिमार्गणाधिकारं व्याख्यातमादुदु ॥
इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिविरचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्ती तत्वप्रदीपिका
ख्यायां जीवकाण्डे विंशतिप्ररूपणासु संज्ञिमार्गणाप्ररूपणा नाम अष्टादशोऽधिकारः ।।१८॥
इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्ती के चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमल रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डके अन्तर्गत भव्य प्ररूपणाओंमें-से संज्ञिमार्गणा प्ररूपणा नामक अठारहवाँ
अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥१८॥
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आहार मार्गणा ॥१९॥
अनंतरं आहारमार्गणयं पेन्दपं :
उदयावण्णसरीरोदयेण तद्देहवयणचित्ताणं ।
णोकम्मवग्गणाणं गहणं आहारयं णाम ॥६६४॥ उदयापन्नशरीरोदयेन तदेहवचनचित्तानां । नोकर्मवर्गणानां ग्रहणमाहारो नाम ॥
औदारिकवैक्रियिक आहारकशरीरनामकर्मप्रकृतिगळोळोदानुमो दुदयमनेय्दुत्तिरलंतप्पु- . दरुददिदमा शरीरमुं वचनमुं द्रव्यमनमुमबी नोकर्मवर्गणगळ्गे ग्रहणमाहारम बुदक्कं ।
आहरदि सरीराणं तिण्हं एयदरवग्गणाओ य ।।
भासामणाण णिंयदं तम्हा आहारयो भणिदो ॥६६५॥ आहरति शरीराणां त्रयाणामेकतरवर्गणाश्च । भाषामनसोनियतं तस्मादाहारको भणितः॥
औदारिकवैक्रियिक आहारकंगळेब मूलं शरीरंगळोळुदयक्के बंद एकतमशरोरवर्गणगळ्म भाषामनोवर्गणेगळ्मं नियतं नियतमें तप्पुदंत नियतजीवसमासदोळं नियतकालदोळं देहभाषामनोवर्गणेगळं नियतमेहेंगेहंग आहरति आहरिसुगुम दितुं आहारकने दु परमागमदोळ्पेळल्पढें ।
मल्लिफुल्लवदामोदो मल्लो मोहारिमर्दने ।
बहिरन्तःश्रियोपेतो मल्लिः शल्यहरोऽस्तु नः ॥१९॥ अथाहारमार्गणामाह
औदारिकवैक्रियिकाहारकनामकर्मान्यतमोदयेन तच्छरीरवचनद्रव्यमनोयोग्यनोकर्मवर्गणानां ग्रहणं ११ आहारो नाम ॥६६४॥
औदारिकादित्रिशरीराणां उदयागतैकतमशरीरवर्गणाः भाषामनोवर्गणाश्च नियतजीवसमासे नियतकाले च नियतं यथा भवति तथा आहरति इत्याहारको भणितः ॥६६५।।
आहार मार्गणाको कहते हैं
औदारिक, वैक्रियिक और आहारक नामकर्ममें से किसी एकके उदयसे उस शरीर, २० वचन और द्रव्यमनके योग्य नोकर्मवर्गणाओंके ग्रहणका नाम आहार है ॥६६४॥
औदारिक आदि तीन शरीरोंमें-से उदयमें आये, किसी शरीरके योग्य आहारवर्गणा, भाषावगणा, मनोवगणाको नियत जीवसमासमें और नियत कालमें नियत रूपसे सदा ग्रहण करता है, इसलिए आहारक कहते हैं ॥६६५॥
१. म दुदयमनेरिंददतप्पुरुदयदिदमा । २. म°दिताहारनेंदु ।
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८९६
१०
गो० जीवकाण्डे विग्गहगदिमावण्णा केवलिणो समुग्घदो अजोगी य ।
सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारया जीवा ॥६६६॥ विग्रहगतिमापन्नाः केवलिनः समुद्घातवंतोऽयोगी च सिद्धाश्चानाहाराः शेषा आहारका जीवाः॥
विग्रहगतियं पोद्दिद जीवंगळु प्रतरलोकपूरणसमुद्घातसयोगकेवलिगळुमयोगकेवलिगळं सिद्धपरमेष्ठिगळुमनाहारकमप्परु । शेषजीवंगळेनितोळवनितुमाहारकरेयप्परु । समुद्घातमेनित दोर्ड पेळ्दपर।
वेयणकसायवेगुन्वियो य मरणंतियो समुग्धादो ।
तेजाहारो छट्टो सत्तमओ केवलीणं तु ॥६६७॥ __ वेदनाकषायवैगुम्विकाश्च मारणांतिकः समुद्घातश्च । तेजः आहारः षष्ठः सप्तमः केवलिनां तु॥
वेदनासमुद्घातमें दुं कषायसमुद्घातमें दुं वैविकसमुद्घातमें तुं मारणांतिकसमुद्घातमें, तेजससमुद्घातमें दुमाहारकसमुद्घातमेंदु केवलिसमुद्घातमें दुवितु सप्तसमुद्घातंगळप्पुवु । अनंतरं समुद्घातम बुदेने दोडे पेळ्वपं:
मूलसरीरमछंडिय उत्तरदेहस्स जीवपिंडस्स ।
णिग्गमणं देहादो होदि समुग्धादणामं तु ॥६६८।। मूलशरीरमत्यक्त्वा उत्तरदेहस्य जीवपिंडस्य । निर्गमनं देहान् भवति समुद्घातनाम तु॥
मूलशरीरमं बिड कार्मणतैजसोत्तरदेहदजीवप्रदेशप्रचयक्के शरीरदि पोरगलगे निर्गमनं समुद्घातम बुदक्कुं
विग्रहगत्याश्रितचतुर्गतिजीवाः प्रतरलोकपूरणसमुद्घातपरिणतसयोगिजिनाः अयोगिजिनाः सिद्धाश्च मनाहारा भवन्ति । शेषजीवाः सर्वेऽपि आहारका एव भवन्ति ॥६६६॥ समुद्घातः कतिधा ? इति चेदाह
समुद्घातः वेदनाकषायवैविकमारणान्तिकतैजसाहारककेवलिसमुद्घातभेदात् सप्तधा भवति ॥६६७॥ स च किंरूपः ? इति चेदाह
मूलशरीरमत्यक्त्वा कार्मणतेजसरूपोत्तरदेहयुक्तस्य जीवप्रदेशप्रचयस्य शरीराबहिनिर्गमनं तत् २५ समुद्धातो नाम भवति ।।६६८॥
विग्रहगतिमें आये चारों गतियोंके जीव, प्रतर और लोकपूरण समुद्घात करनेवाले सयोगी जिन, और सिद्ध अनाहारक हैं; शेष सब जीव आहारक हैं ॥६६६॥
समुद्घातके भेद कहते हैं
वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस, आहार और केवली समुद्घातके भेदसे समुद्घात सात प्रकारका होता है ॥६६७।।
समुद्घातका स्वरूप कहते हैं
मूल शरीरको छोड़कर कार्मण और तैजस रूप उत्तर शरीरसे युक्त जीवके प्रदेश समूहका शरीरसे बाहर निकलना समुद्घात है ॥६६८॥ ३५ १. ब कति चे।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
आहारमा रंतियदुगं पि णियमेण एगदिसिगंतु ।
दसदिसिगदा हु सेसा पंचसमुग्धादया होंति ॥ ६६९ ||
आहारमारणांतिक समुद्घातद्वयमेकदिशिकं तु । दशदिग्गताः खलु शेषाः पंचसमुद्घाता
भवंति ॥
आहारकसमुद्घातनुं मारणांतिक समुद्घातमें बेरडुं समुद्घातंगळेकदिशिकंगळप्पुवु । शेष- ५ वेदनासमुद्घातादिपंचसमुद्घातंगळु दशदिग्गतंगळप्पुवु ।
आहारानाहारकालमं पेळदपं :
-:
अंगुल असंभाग कालो आहारयस्स उक्कस्सो ।
कम्मम्मि अणाहारो उक्कस्सं तिण्णि समया हु ॥ ६७० ||
अंगुला संख्यात भागः काल आहारस्योत्कृष्टः । काम्मंणे अनाहारः उत्कृष्टस्त्रयः समयाः खलु ॥ १० सूच्यंगुला संख्यातै क भाग मात्रकालमहारक्कुत्कृष्ट मक्कुं । त्रिसमयोनोच्छ्वासाष्टादशैकभागमात्रकाले जघन्यमकुं । कार्मणकायदोळ अनाहारक्कुत्कृष्टकालं मूरु समयंगळप्पुवु । जघन्यकाल - मेकसमयमक्कु
आहार
अनाहार
स
उ सू २ जघ ११ उत्कृष्ट सम ३ ज स १ १८
a
अनंतर माहारमार्गर्णयोळु जीवसंख्येयं पेव्वपं ।
८९७
कम्मइय कायजोगी होदि अणाहारयाण परिमाणं । व्विरहिदसंसारी सच्वो आहारपरिमाणं || ६७१ ॥
कार्मणका योगिनो भवत्यनाहारकाणां परिमाणं । तद्विरहितसंसारी सः आहारकपरिमाणं ॥
आहारमारणान्तिकसमुद्घातद्वयमेव एकदिग्गतं भवति तु पुनः शेषाः पञ्चसमुद्घाताः दशदिग्गता २० भवन्ति ।। ६६९ ।। आहारानाहारकालमाह
a
आहारकाल : उत्कृष्टः सूच्यङ्गुलासंख्या तकभागः २ । जघन्यः त्रिसमयोनोच्छ्वासाष्टादशैकभागः । अनाहारकालः कार्मणकाये उत्कृष्टः त्रिसमयः । जघन्यः एकसमयः । खलु - स्फुटं ॥ ६७० ॥ अथात्र जीवसंख्यामाह
आहारक और मारणान्तिक ये दो समुद्घात ही एक दिशा में गमन करते हैं । किन्तु २५ शेष पाँच समुद्घात दसों दिशाओं में गमन करते हैं ||६६९ ॥
आगे आहार और अनाहारका काल कहते हैं
आहारका उत्कृष्टकाल सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग है । जघन्यकाल तीन समय कम उच्छ्वासका अठारहवाँ भाग है । अनाहारका काल कार्मणकाय में उत्कृष्ट तीन समय और जघन्य एक समय है ॥६७०||
इनमें जीवोंकी संख्या कहते हैं
११३
१५
३०
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गो० जीवकाण्डे
काम्मणकाययोगिगळ अनाहारकरपरिमाणमक्कुं । तद्राशिविरहितमप्प संसारिराशि आहारकर परिमाणमक्कुमवे ते दोडे काम्मँणकाययोगकालं समयत्रयमकुं । औदारिकमिश्र - कालमंत मुंहत्तंमकुं । तत्कायकालं संख्यातगुणमक्कुं । कूडि त्रिसमयाधिक संख्यातगुणितांतम्मुंहत्तंमक्कु ३ मिदु प्रक्षेपकयोगमक्कुमंतागुत्तं विरलु 'प्रक्षेपक योगोदधृत मिश्रपेड:
२१४
८९८
३
५ प्रक्षेपकाणां गुणको भवेत्सः । येबी सूत्राभिप्रायदिदं त्रैराशिकं माडपडुगुं । २१।५ । फ १३ - । इस ३ । लब्धमनाहारकर प्रमाणमक्कुं । १३ । ३ मत्तं प्र २१ । ५ । फ १३- । इ
३
३ २१।५
१५
२ १ । ५ । लब्धमाहारकर प्रमाणमक्कुं १३ ।२१।५ वैक्रियिकाहारकंगळगं यथायोग्यमरि३ २३।५
पडुगुं ।
कार्मणका योगि जीवराशिः अनाहारकपरिमाणं भवति । तद्विरहितसंसारिराशिः आहारकपरिमाणं १० भवति । तद्यथा — योगकालः कार्मणस्य त्रिसमयाः । औदारिक मिश्रस्य अन्तर्मुहूर्तः । औदारिकस्य ततः संख्यातगुणः । मिलित्वा त्रिसमयाधिकसंख्यातगुणितान्तर्मुहूर्तः । ३- १- " प्रक्षेपयोगोद्धृतमिश्रपिण्डः प्रक्षेपकाणां २ ३ ४
3
3
गुणको भवेदिति प्र २१५ । फ१३ - इ स ३ । लब्धमनाहारकजीवप्रमाणं १३ - ३ पुनः २ १ । ५ ।
३२१।५
फ १३- । इ२१ । ५ । लब्धमाहारकजीवप्रमाणं
ज्ञातव्यम् ||६७१ ॥
योगमार्गणा में कार्मणकाय योगियोंका जितना प्रमाण कहा है, उतना ही अनाहारकोंका प्रमाण है । संसारीराशिमें से अनाहारकोंका प्रमाण घटानेपर आहारकोंका परिमाण होता है । जो इस प्रकार है - कार्मणयोगका काल तीन समय है । औदारिक मिश्र काययोगका काल अन्तर्मुहूर्त है । औदारिक काययोगका काल उससे संख्यातगुणा है । सब मिलानेपर तीन समय अधिक संख्यात गुणित अन्तर्मुहूर्त काल होता है । करण सूत्र में कहा है- प्रक्षेपको २० मिलाकर मिले हुए पिण्डसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उसे प्रक्षेपकसे गुणा करनेपर अपनाअपना प्रमाण होता है । सो उक्त तीनों योगोंके कालोंको मिलानेपर तीन समय अधिक संख्यात अन्तर्मुहूर्त काल हुआ। इसका भाग कुछ हीन संसारीराशिमें देनेपर जो प्रमाण आवे, उसे तीन गुणा करनेपर अनाहारक जीवोंका प्रमाण होता है। शेष सब संसारी आहारक जीव हैं । वैक्रियिक और आहारकवालोंका यथायोग्य जानना । उनके अल्प होने से २५ यहां उनकी मुख्यता नहीं है ||६७१ ||
१३- । २१ । ५ वैक्रियिकाहारकयोर्यथायोग्यं ३२१।५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ___ इंतु श्रीमवर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमान श्रीमद्रायराजगुरुमंडलाचार्यवयंमहावादवादीश्वररायवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्ति श्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्रवर्तिश्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्टे श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटकवृत्तिजीवतत्वप्रदीपिकयोळु जीवकांडविंशति प्ररूपणंगळोळु एकान्नविशति माहारमार्गणाधिकार निरूपितमायतु।
इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिविरचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्ती तत्त्वप्रदीपिका
ख्यायां जीवकाण्डे विशतिप्ररूपणासु आहारमार्गणाप्ररूपणानामैकानविंशोऽधिकारः ॥१९॥
इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अमयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित कलाटवाले श्री केशववीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमकरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डकी बीस प्ररूपणाओंमें-से आहारमार्गणा
प्ररूपणा नामक उन्नीसवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥१९॥
१५
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१०
उपयोगाधिकारः ॥२०॥
अनंतरंमुपयोगाधिकारमं पेदपं :
णाणं पंचविहंपि य अण्णाणतियं च सागरुवजोगो । चदुदंसणमणगारो सव्वे तल्लक्खणा जीवा ॥ ६७३॥
जीवाः ॥
ज्ञानं पंचविधमपि च अज्ञानत्रयं च साकारोपयोगः । चतुर्द्दर्शनमनाकारः सव्र्व्वे तल्लक्षणा मतिश्रुतावधिमनःपर्य्ययकेवलमेव सम्यग्ज्ञानपंचकमुं कुमतिकुश्रुतविभंग में ब मूरु तेरदज्ञानमुं साकारोपयोगमें बुदक्कं । चक्षुर्द्दर्शनमचक्षुदर्शनमवधिदर्शनं केवलदर्शनमें बी नाल्कुं दर्शनमना
१५
२५
वत्थुणिमित्तं भावो जादो जीवस्स जो दु उबजोगो ।
सो दुविहो णायव्वो सायारो चेवाणायारो || ६७२॥
वस्तुनिमित्तं भावो जातो जीवस्य यस्तूपयोगः । स द्विविधो ज्ञातव्यः साकारश्चैवानाकारः ॥ वसतो गुणपर्य्यायावस्मिन्निति वस्तु – ज्ञेयपदार्थस्तद्ग्रहणाय प्रवृत्तं ज्ञानं वस्तु निमित्तं भाव: अर्त्यग्रहणव्यापार इत्यर्थः । अर्थप्रकाशन निमित्तमागि जातः प्रवृत्तमप्प जीवस्य जीवन यस्तु आवुदु भावः परिणामः । क्रियाविशेषमदुपयोग में बुदु, अदु मत्ते साकारोपयोगर्म दुमनाकारोपयोगमेटु द्विप्रकारमे दे ज्ञातव्यमक्कु ।
अनंतर साकारोपयोग टु प्रकार में व पेदपं :
अथोपयोगाधिकारमाह
वसतः गुणपर्यायौ अस्मिन्निति वस्तु ज्ञेयपदार्थ:- तद्ग्रहणाय जातः प्रवृत्तः यो भावः - परिणामः २० क्रियाविशेषः जीवस्य स उपयोगो नाम । स च साकारोऽनाकारश्चेति द्वेधा ज्ञातव्यः || ६७२ ।। अथ साकारो
पयोगोऽष्टधा इत्याह
सुव्रतः सुव्रतैः सेव्यः सुव्रतः सुव्रताय सः ।
प्राप्तान्त्यपदो दद्यात् स्वकीयां सुव्रतश्रियम् ॥२०॥
मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलज्ञानानि कुमतिकुश्रुत विभङ्गाज्ञानानि च साकारोपयोगः । चक्षुरचक्षुर
उपयोगाधिकार कहते हैं
जिसमें गुण और पर्यायोंका वास है, वह वस्तु अर्थात् ज्ञेय पदार्थ है । उसको ग्रहण करनेके लिए जीवका जो भाव अर्थात् परिणाम होता है, वह उपयोग है । वह दो प्रकारका है - साकार और अनाकार ||६७२ ||
आगे उनके भेद कहते हैं
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये पाँच ज्ञान तथा कुमति, कुश्रुत, विभंग ये
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका कारोपयोग; बुदक्कुं। सर्वे जीवाः सर्वजीवंगळु तल्लक्षणंगळे ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणंगळेयप्पुवुमेके दोडे लक्षणक्के अव्याप्तियुमतिव्याप्पियुमसंभवियुमें बी दोषत्रयरहितत्वदिदं ।
मदिसुदओहिमणेहि य सगसगविसये विसेसविण्णाणं ।
अंतोमुत्तकालो उवजोगो सो दु सायारो ॥६७४॥ मतिश्रुतावधिमनःपर्यायैश्च स्वस्वविषये विशेषविज्ञानमंतर्मुहूर्तकाल उपयोगःस तु साकारः॥ ५
मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानंळदं तंतम्मविषयदोलु विशेषविज्ञानमंतर्मुहतकालमर्थग्रहणव्यापारलक्षणमुपयोगमक्कुमदु तु मत्ते साकारोपयोगमे बुदक्कुं।।
इंदियमणोहिणा वा अढे अविसेसिदूण जं गहणं ।
अंतोमुहुत्तकालो उवजोगो सो अणायारो ॥६७५॥ इंद्रियमनोभ्यां अवधिना वार्थानविशेषित्वा यद्ग्रहणमंतर्मुहर्तकाल उपयोगः सोऽनाकारः॥
चक्षुरिंद्रियदिदमुं मनमचक्षुरिद्रियमप्पुरिदमचक्षुद्देर्शनदिदममवधिदर्शनदिदमुं वा शब्दमुं समुच्चयात्मक्कं । जीवाद्यत्थंगळं विकल्पिसद निर्दिवकल्पदिदमावुदोंदु ग्रहणमंदतर्मुहर्त्तकालं सामान्यार्थग्रहणव्यापारलक्षणमुपयोगमदनाकारोपयोगमें बुदक्कुं॥ अनंतरंमुपयोगाधिकारदोळ जीवसंख्येयं पेळ्दपं ।
णाणुवजोगजुदाणं परिमाणं णाणमग्गणं व हवे ।
दंसणुवजोगियोणं दंसणमग्गणपउत्तकमो ॥६७६॥ ज्ञानोपयोगयुतानां परिमाणं ज्ञानमार्गणायामिव भवेत् । दर्शनोपयोगिनां दर्शनमार्गणाप्रोक्तक्रमः॥ वधिकेवलदर्शनानि अनाकारोपयोगः। सर्वे जीवाः तज्ज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणा एव तल्लक्षणस्याव्याप्त्यतिव्याप्त्यसंभवदोषाभावात् ॥६७३॥
मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानः स्वस्वविषये विशेषविज्ञानं अन्तर्महर्तकालं अर्थग्रहणव्यापारलक्षणं उपयोगः, स तु साकारोपयोगो नाम ॥६७४॥
_ चक्षुर्दर्शनेन वा शेषेन्द्रियर्मनसा च इत्यचक्षुर्दर्शनेन वा अवधिदर्शनेन वा यज्जीवाद्यर्थान् अविशेषित्वा निर्विकल्पेन ग्रहणं सोऽन्तर्मुहूर्तकालः अनाकारोपयोगो नाम ॥६७५।। अथात्र जीवसंख्यामाहतीन अज्ञान साकार उपयोग हैं। चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये २५ अनाकार उपयोग हैं। सब जीव ज्ञानदर्शनोपयोग लक्षणवाले हैं। जीवके इस लक्षणमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असम्भव दोष नहीं है ॥६७३॥ ___मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्ययज्ञानोंके द्वारा अपने-अपने विषयमें जो विशेष ज्ञान होता है । अन्तर्मुहूर्तकालको लिये हुए अर्थको ग्रहण करने रूप व्यापार जिसका लक्षण है,वह उपयोग साकार उपयोग है ॥६७४।।
चक्षुदर्शन अथवा शेष इन्द्रिय और मनरूप अचक्षुदर्शन, अथवा अवधि दर्शनके " द्वारा जीवादि पदार्थोंका विशेष न करके जो निर्विकल्प रूपसे ग्रहण होता है,वह अनाकार उपयोग है। उसका काल भी अन्तमुहूर्त है ॥६७५॥
इनमें जीव संख्या कहते हैं१.°ण व उ। मु.।
२०
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९०२
गो० जीवकाण्डे ज्ञानोपयोगयुक्तरुगळ परिमाणं ज्ञानमार्गणयोळु पेन्दतयक्कुं। दर्शनोपयोगिगळ परिमाणं दर्शनमार्गणेयो पेळ्द क्रममेयक्कुमदेते दोडे कुमतिज्ञानिगळु किंचिदून संसारिराशिप्रमाणमक्कुं। १३-कुश्रुतज्ञानिगळुमनिबरेयकुं ।१३-॥ विभंगज्ञानिगळ =मतिज्ञानिगळु प श्रुतज्ञा
___ ४।६५ निगनु प अवधिज्ञानिगछु ५० मनःपर्य्ययज्ञानिगलु १ केवलज्ञानिगनु : तियंचविभंग५ ज्ञानिगळु-६५ मनुष्यविभंगज्ञानिगळु । १। नारकविभंगज्ञानिगळु -२- देवविभंगज्ञानिगळु
३
= १ शक्ति चक्षुदर्शनिगर्छ । प्र। बि । ति । च ।प। ४ । फ। ४ इ च । ६।२। लब्ध प्रस४।६५-2
ज्ञानोपयोगिप्रमाणं ज्ञानमार्गणावत् । दर्शनोपयोगिप्रमाणं दर्शनमार्गणावत् भवेत् । तद्यथा-कुमतिज्ञानिनः
कुश्रतज्ञानिनश्च किंचिदूनसंसारिराशिः १३- विभङ्गज्ञानिनः =
। मतिज्ञानिनः प श्रुतज्ञानिनः प
a
अवधिज्ञानिनः Ha मनःपर्ययज्ञानिनः १ केवलज्ञानिनः १ तिर्यग्विभङ्गज्ञानिनः - ६५ मनुष्यविभङ्गज्ञानिनः
aa
१० १ नरकविभङ्गज्ञानिनः - २ - देवविभङ्गज्ञानिनः = १
। शक्तिचक्षुर्दर्शनिनः प्र-वि । ति । च । पं ।
____ ज्ञानोपयोगवाले जीवोंका प्रमाण ज्ञानमार्गणाके समान है और दर्शनोपयोगवाले जीवोंका प्रमाण दर्शनमार्गणाके समान है। जो इस प्रकार है-कुमतिज्ञानी और कुश्रुतज्ञानियोंका प्रमाण कुछ कम संसारीराशि है। विभंगज्ञानी पूर्ववत् जानना। मतिज्ञानी और
श्रुतज्ञानी प्रत्येक पल्यके असंख्यातवें भाग हैं। अवधिज्ञानी पूर्ववत् जानना । मनःपर्ययज्ञानी १५ संख्यात हैं। केवलज्ञानी सिद्धराशिसे अधिक हैं। तिथंच विभंगज्ञानी पल्यके असंख्यातवें
भागसे गुणित घनांगुलसे जगतश्रेणिको गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे,उतने हैं। विभंगज्ञानी मनुष्य संख्यात हैं। विभंगज्ञानी नारकी धनांगुलके दूसरे वर्गमूलसे जगतश्रेणिको गुणा करनेपर जो प्रमाण आवे, उतने हैं। देवविभंगज्ञानी सम्यग्दष्टियोंकी संख्यासे हीन ज्योतिष्कदेवोंसे अधिक हैं। शक्तिरूप और व्यक्तिरूप चक्षुदर्शनीका परिमाण गाथा
२० १. म मनिबरेयक्कुं।
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९०३
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका राशि शक्ति चक्षुद्देर्शनिगळ = २ व्यक्ति चक्षुद्देर्शनिजीवंगळु । प्र १ क = ४ इ। २ लब्ध =
अचक्षुर्दर्शनिगळु १३-अवधिदर्शनिगळु ५० केवलदर्शनिगळ ३-॥
0
इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरुभूमं. डलाचार्य्यवर्यमहावादवादीश्वरराय वादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रवत्तिश्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्रवत्तिश्रीपादपंकजरजोरंजितललाटपट्ट श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटकवृत्ति ५ जीवतत्व प्रदीपिकयोळु विशमुपयोगाधिकारं निगदितमादुदु ॥
४। फ=| इच । पं । २। इति त्रैराशिकलब्धमात्रा:- = २ = व्यक्तिचक्षुर्दशनिनः-प्र-४। फ=इ२
ar
0
इति त्रैराशिकलब्धमात्राः = २ - अचक्षुर्दर्शनिनः १३- अवधिदर्श निनः केवलिदर्शनिनः सि ३ ॥६७६॥
aa
इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिविरचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ तत्त्वप्रदीपिका
ख्यायां जीवकाण्डे विंशतिप्ररूपणासु उपयोगमार्गणाप्ररूपणा नाम विंशोऽधिकारः ॥२०॥
१५
४८७ की टीकामें कहा है। अवधिदर्शनवालोंका परिमाण अवधिज्ञानियोंके समान और केवलदर्शनियोंका परिमाण केवलज्ञानियोंके समान जानना। एकेन्द्रियसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त अनन्तानन्त जीवराशि प्रमाण अचक्षुदर्शनी हैं ॥६७६॥ इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलोंको धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमल रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक भाषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डके अन्तर्गत भव्य प्ररूपणाओंमें-से उपयोगमार्गणा प्ररूपणा नामक बीसवाँ
अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥२०॥
२०
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ओघादेशप्ररूपणाधिकारः ॥२१॥ अनंतरमुक्तविंशतिप्ररूपणेगळं यथासंभवमागि गुणस्थानंगळोळं मार्गणास्थानंगळोळं प्रत्येकं पेळ्दपं
गुणजीवा पज्जत्ती पाणा सण्णा य मग्गणुवजोगो ।
जोग्गा परूविदव्वा ओघादेसेसु पत्तेयं ॥६७७॥
गुणजीवाः पर्याप्तयः प्राणाः संज्ञाश्च मार्गणा उपयोगे योग्याः प्ररूपयितव्याः ओघादेशेषु ५ प्रत्येक
गुणस्थानमार्गणास्थानंगळोळ प्रत्येकं । गुणस्थानंगळु जीवसमासेगळं पर्याप्तिगळं प्राणंगळं संज्ञेगळं मागंणगळुमुपयोगंगळुम दीविंशतिप्रकारंगळु प्ररूपिसल्पडुववु । यथायोग्यमागि। अदते दोडे
चउ पण चोद्दस चउरो णिरयादिसु चोद्दसं तु पंचक्खे ।
तसकाये सेदिदियकाये मिच्छं गुणहाणं ॥६७८॥ चतुः पंच चतुर्दश चत्वारि नरकादिषु चतुर्दश तु पंचाक्षे। त्रसकाये शेषेद्रियकाये मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं॥
नरकतिर्यग्मनुष्यदेवगतिगळोळु यथासंख्यमागि नाल्कुमय्य, पदिनाल्डं नाल्कु गुणस्थानगळप्पुवतदोडे-नरकगतियोळु मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रासंयतगुणस्थानचतुष्टयमक्कं । तिर्यग्गतियोळु मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रऽसंयतदेशसंयतगुणस्थानपंचकमक्कं। मनुष्यगतियोळ सामान्य
नमिर्नमत्सुराधीशोऽनन्तज्ञानादिवभवः ।
हतघातिव्रजो जीयाद्यान्नः शाश्वतं पदम् ।। अथोत्तरमभिधेयं ज्ञापयति
उक्तविंशतिप्ररूपणासु गुणस्थानमार्गणास्थानयोः प्रत्येकं गुणस्थानानि जीवसमासाः पर्याप्तयः प्राणाः २० संज्ञाः, मार्गणाः उपयोगाश्च यथायोग्यं प्ररूपयितव्याः ॥६७७॥ तद्यथा
नारकादिगतिषु क्रमेण गुणस्थानानि मिथ्यादृष्ट्यादीनि चत्वारि पञ्च चतुर्दश चत्वारि भवन्ति । इन्द्रियमार्गणायां पञ्चेन्द्रिये तु पुनः कायमार्गणायां त्रसकाये च, चतुर्दश, शेषेन्द्रियकायेषु एकं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं । जीवसमासास्तु नरकगतौ संज्ञिपर्याप्तनिवृत्त्यपर्याप्तौ द्वौ । तिर्यग्गतो चतुर्दश । मनुष्यगतौ संज्ञिपर्याप्ता
बीस प्ररूपणाओंका कथन करनेके पश्चात् जो कुछ अभिधेय है उसे कहते हैं
ऊपर कही बीस प्ररूपणाओंमें-से गुणस्थान और मागणास्थानमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा और उपयोगोंकी यथायोग्य प्ररूपणा करनी चाहिये ॥६७७॥
वही कहते हैं
गतिमार्गणामें क्रमसे गुणस्थान, मिथ्यादृष्टि आदि नरक गतिमें चार, तियंचगतिमें पाँच, मनुष्यगतिमें चौदह और देवगतिमें चार होते हैं। इन्द्रियमार्गणामें, पंचेन्द्रियमें, और कायमार्गणामें त्रसकायमें चौदह गुणस्थान होते हैं। शेष एकेन्द्रियादिमें और स्थावरकायमें
२५
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका चतुर्दश गुणस्थानंगळनितुं संभविसुगुं। देवगतियोळु नरकगतियोळे तंते मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रासंयतगुणस्थानचतुष्टयं संभविसुगुं । इंद्रियमार्गणेयोळु पंचेंद्रियक्के चतुर्दशगुणस्थानंगळनितुं संभविसुगुं । कायमार्गणयोळु त्रसकायक्कयुं चतुर्दशगुणस्थानंगळनितुं संभविसुगुं। शेषंद्रियकायंगळोळु प्रत्येकमों दोंदु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमक्कुं।
|न ति | म दे। ए वि ति. च.पं.पृ.अ. ते.वा.वन त्र. गुण ४/५/१४४२११११४२ १ १ १ १ १४
जीव २१४२२४२२२२४४४४१० नरकगतियोळसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तनिवत्यपर्याप्तजीवसमासेगळेरडेयप्पुवु। तिर्यग्गतियो एकेंद्रिय- ५ बादरसूक्ष्मद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियअसंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तजीवसमासँगळु पदिनाल्कुमप्पुवु । मनुष्यगतियोळु संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तजीवसमासंगळुमेरडेयप्पुवु । देवगतियोळु संजिपंचेंद्रियपर्याप्त निवृत्त्यपर्याप्त जीवसमासेगळे रडेयप्पुवु । इंद्रियमार्गयोळेकेंद्रियदोळु बादरसूक्ष्मेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासगळु नाल्कप्पुवु। द्वींद्रियदोळु द्वींद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळु यरडेयप्पुवु। त्रींद्रियदोळु त्रींद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळेरडेयप्पुवु । चतु- १० रिद्रियदोळु चतुरिंद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासंगळेरडेयप्पुवु। पंचेंद्रियदोळु संज्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळु नाल्कप्पुवु। कायमार्गयोळु पृथ्व्यप्तेजोवायुवनस्पतिकायिकपंचकदोळु एकेंद्रियबादरसूक्ष्मपर्याप्त अपर्याप्तजीवसमासंग प्रत्येकं नाल्कुनाल्कप्पुवु। त्रसकायिकंगळोळु द्वींद्रियत्रोंद्रियचतुरिद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळु पत्तु संभविसुववु गतिमायणायां
इंद्रिय मार्गणायां कायमार्गणायां नीतिमा दे।
ए।बी। तीच ।। पृ। अ। ते । वा । व । त्र। ४।५।१४।४।
१।१।१।१।१४। १।१।१।१।१। १४ । २।१४।२।२। ४।२।२।२।४।
४।४।४।४।४।१०
पर्याप्ती द्वौ। देवगतो नरकगतिवद्द्वौ । इन्द्रियमार्गणायां एकेन्द्रिये बादरसूक्ष्मैकेन्द्रियो पर्याप्तापर्याप्ताविति १५ चत्वारः । द्वीन्द्रिये त्रीन्द्रिये चतुरिन्द्रिये च तत्तत्पर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ द्वो। पञ्चेन्द्रिये संश्यसंज्ञिनो पर्याप्तापर्याप्ताविति चत्वारः । कायमार्गणायां पृथ्व्यादिपञ्चसु एकेन्द्रियवत् चत्वारः चत्वारः, त्रसे शेषा दश ॥६७८॥ एक मिथ्यादृष्टिगुणस्थान होता है। जीवसमास नरकगतिमें संज्ञीपर्याप्त और निवृत्यपर्याप्त दो होते हैं। तियंचगतिमें चौदह होते हैं। मनुष्यगतिमें संज्ञीपर्याप्त और अपर्याप्त दो होते हैं। देवगतिमें नरकगतिके समान दो होते हैं। इन्द्रियमार्गणामें एकेन्द्रियमें बादर और २. सूक्ष्म एकेन्द्रियके पर्याप्त और अपर्याप्त होनेसे चार होते हैं। दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रियमें अपने-अपने पर्याप्त और अपर्याप्त होनेसे दो-दो होते हैं। पंचेन्द्रियमें संज्ञीअसंजीके पर्याप्त-अपर्याप्तके भेदसे चार हैं। कायमार्गणामें पृथिवीकायिक आदि पांच कायोंमें एकेन्द्रियकी तरह चार-चार जीवसमास होते हैं। त्रसमें शेष दस जीवसमास होते हैं ॥६७८॥
११४
२५
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९०६
गो. जीवकाण्डे मज्झिमचउमणवयणे सण्णिप्पहुडिं तु जाव खीणोत्ति ।
सेसाणं जोगित्ति य अणुभयवयणं तु वियलादो ॥६७९।। मध्यमचतुर्मनोवचनेषु संज्ञिप्रभृतिस्तु यावत् । क्षीणकषायस्तावत्पय्यंत शेषाणां योगिपय्यंत च अनुभयवचनं तु विकलात् ॥
मनोवचनयोगंगळोळु मध्यमंगळप्प असत्यमनोयोगमुभयमनोयोगमसत्यवचनयोगमुभयवचनयोगमेंबी नाल्करोळं मिथ्यादृष्टिसंज्ञिपंचेंद्रियमादियागि क्षीणकषायगुणस्थानपर्यंतमप्प पन्नेरडं पन्नेरडु गुणस्थानंगळुमो दोदे संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासेगळु प्रत्येकमप्पुवु । शेषसत्यमनोयोगदोळुमनुभयमनोयोगदोळं सत्यवचनयोगदोळं संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि
सयोगिकेवलिगुणस्थानपथ्यंतं पदिमूलं गुणस्थानंगळं पंचेंद्रियसंज्ञिपर्याप्तजीवसमासेगळो दोंदूं १० प्रत्येकमप्पुवु । अनुभयवचनयोगदोळ विकलत्रयमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि सयोगकेवलिंगुण
स्थानपर्यंतमाद पदिमूलं गुणस्थानंगळु द्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासगळुमय्दप्पुवु:- मनोयोग ।
वाग्योग स । अ। उ। अ
स । अ। उ। अ गु १३।१२।१२। १३
१३।१२।१२। १३ जी-१। १। १। १। ओरालं पज्जत्ते थावरकायादि जाव जोगित्ति ।
तम्मिस्समपज्जत्ते चदुगुणठाणेसु णियमेण ॥६८०॥
औदारिकः पर्याप्त स्थावरकायादि यावद्योगिपयंतं। तन्मिश्रः अपर्याप्त चतुर्गुणस्थानेषु नियमेन ॥
औदारिककाययोगमेंकेंद्रियस्थावरकायपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि सयोगकेवलिपर्यातमाद पदिमूरु गुणस्थानंगळवकुमल्लि एकेंद्रियबादरसूक्ष्मद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियासंजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासगळमेलप्पुवु ।७। औदारिकमिश्रयोगमपर्याप्तचतुग्गुणस्थानंगळोळु
मध्यमेषु असत्योभयमनोवचनयोगेषु चतुर्षु संज्ञिमिथ्यादृष्टयादीनि क्षीणकषायान्तानि द्वादश । तु-पुनः सत्यानुभयमनोयोगयोः सत्यवचनयोगे च संज्ञिपर्याप्तमिथ्यादृष्टयादीनि सयोगान्तानि त्रयोदश गुणस्थानानि भवन्ति । जीवसमासः संज्ञिपर्याप्त एवैकः । अनुभयवचनयोगे तु गुणस्थानानि विकलत्रयमिथ्यादृष्ट्यादीनि त्रयोदश । जीवसमासाः द्वित्रिचतुरिन्द्रियसंश्यसंज्ञिपर्याप्ताः पञ्च ॥६७९।।
औदारिककाययोगः एकेन्द्रियस्थावरकायपर्याप्तमिथ्यादृष्ट्यादिसयोगान्तत्रयोदशगुणस्थानेषु भवति । २५ __ मध्यम अर्थात् असत्य और उभय मनोयोग और वचन योग इन चारमें संज्ञी मिथ्या
दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त बारह गुणस्थान होते हैं। तथा सत्य और अनुभय मनोयोग
और सत्यवचनयोगमें संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थान होते हैं। जीवसमास एक संज्ञी पर्याप्त ही होता है। अनुभयवचनयोगमें विकलत्रय
मिथ्यादृष्टि से लेकर तेरह गुणस्थान होते हैं। जीवसमास दो-इन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय ३. संज्ञी -असंझी, पंचेन्द्रिय पर्याप्त रूप पाँच होते हैं ॥६७९॥
औदारिक काययोग एकेन्द्रिय स्थावरकाय पर्याप्त मिथ्यादृष्टीसे लेकर सयोगकेवली पर्यन्त तेरह गुणस्थानोंमें होता है। औदारिक मिश्रकाययोग नियमसे अपर्याप्त अवस्थामें
१५
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९०७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका नियमदिदमक्कुमा नाल्कुमपर्याप्तगुणस्थानंगळावु दोडे पेळ्दपं:
मिच्छे सासणसम्मे पुंवेदयदे कवाडजोगिम्मि ।
णरतिरिये वि य दोण्णि वि होतित्ति जिणेहि णिढेि ॥६८१।। मिथ्यादृष्टौ सासादनसम्यग्दृष्टौ पुवेदासंयते कवाटयोगिनि नरतिरश्चि च द्वावपि भवत इति जिन निदिष्टं।
मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं पुवेदोदयासंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं कवाटसमुद्घातसयोगकेवलिगुणस्थानदोमितु मनुष्यरोळं तिय्यंचरोळमा यरडुमौदारिककाययोग, तन्मिश्रकाययोगमुमप्पुर्वेदितु वीतरागसर्वरिदं पेळल्पटुदु । मत्तमौदारिकमिश्रकाययोगदोळ एकेंद्रियबादरसूक्ष्मद्वित्रिचतुरिंद्रियासंजिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियापर्याप्नजीवसमाससप्तकम सयोगिकेवलियोळु कवाटसमुद्घातदोळ औदारिकमिश्रयोगमदुर्बु कूडि जीवसमासाष्टकमक्कुं १० | औ मिश्र
४
वेगुव्वं पज्जते इदरे खलु होदि तस्स मिस्सं तु ।
सुरणिरयचउठाणे मिस्से ण हि मिस्सजोगो दु ॥६८२।। वैगुः पर्याप्त इतरस्मिन् खलु भवति तस्य मिश्रस्तु। सुरनारकचतुःस्थाने मिश्रे न हि मिश्रयोगस्तु ॥
वैक्रियिककाययोग पंचेंद्रियपर्याप्त देवनारकमिथ्यादृष्टिसासादनमिश्रासंयतगुणस्थानचतुष्टय- १५ दोळक्कुं। तन्मिश्रयोगं देवनारकमिथ्यादृष्टिसासादनासंयतगुणस्थानत्रयदोळमक्कुं। वैक्रियिकतन्मिश्रयोगः अपर्याप्तचतुर्गुणस्थानेष्वेव नियमेन ॥६८०॥ तेषु केषु ? इति चेदाह
मिथ्यादृष्टी सासादने वेदोदयासंयते कपाटसमुद्घातसयोगे, चैतेषु अपर्याप्तचतुर्गुणस्थानेषु स ओदारिकमिश्रयोगः स्यादित्यर्थः । ती योगी द्वावपि नरतिरश्चोरेवेति सर्वहरुक्तम् । जीवसमासाः औदारिकयोगे पर्याप्ताः सप्त । तेन मिश्रयोगे अपर्याप्ताः सप्त । सयोगस्य चैकः एवमष्टी ॥६८१।।
वैक्रियिककाययोगः पर्याप्तदेवनारकमिथ्यादृष्ट्यादिचतुर्गणस्थानेषु भवति खलु स्फुटम् । तु-पुनः
२०
चार गुणस्थानों में होता है ॥६८०॥
किन गुणस्थानोंमें होता है,यह कहते हैं
मिथ्यादृष्टि में, सासादनमें, पुरुषवेदके उदय सहित असंयतमें और कपाट समुद्घात सहित सयोगकेवलीमें इन चार अपर्याप्त अवस्था सहित गुणस्थानों में औदारिकमिश्रयोग २५ होता है । औदारिक और औदारिकमिश्र ये दोनों भी योग मनुष्य और तिर्यंचोंमें ही सर्वज्ञदेवने कहे हैं। औदारिक योगमें सात पर्याप्त जीवसमास होते हैं। अतः औदारिक मिश्र योगमें सात अपर्याप्त जीवसमास होते हैं और सयोगकेवलीके एक जीवसमास होता है इस तरह आठ जीवसमास होते हैं ॥६८१॥
वैक्रियिक काययोग पर्याप्त देव नारकियोंके मिथ्यादृष्टि आदि चार गुणस्थानोंमें ३० होता है । वैक्रियिक मिश्रकाय योग मिश्रगुणस्थानमें तो नहीं होता, अतः देवनारकियोंके
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९०८
गो० जीवकाण्डे काययोगदोल पंचेंद्रियसंजिपर्याप्तजीवसभासमो देयक्कुं। तन्मिश्रदोळु संज्ञिपंचेंद्रियनिवृत्त्यपर्याप्तजीवसमासमो देयक्कुं वे मि
४।
३।
आहारो पज्जत्ते इदरे खलु होदि तस्स मिस्सो दु ।
अंतोमुहुत्तकाले छट्ठगुणे होदि आहारो ॥६८३॥ आहारः पर्याप्त इतरस्मिन् खलु भवति तस्य मिश्रस्तु। अंतर्मुहूर्तकाले षष्ठगुणे भवति आहारः॥
- आहारककाययोगसंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तषष्ठगुणस्थानत्तिप्रमत्तसंयतनोळक्कुमाहारककाययोगकालमुमुत्कृष्टदिदमुं जघन्यदिदमुंमंतर्मुहूर्तकालदोळ्यक्कुं । तन्मिश्रकाययोगमुं तद्गुणस्थान
दोळे प्रमत्तगुणस्थानदोळे अंतर्मुहर्त्तकालदोळेयक्कुमदु कारणमागियाहारककाययोगदोळोदे १० गुणस्थानमुमो दे जीवसमासयुमक्कं । तन्मिश्रदोळमंते वो देगुणस्थानमुमो दे जीवसमासम्मकुं। आहारककाययोगदोळु गु १। मि गु १
जी १। जो १ ओरालियमिस्सं वा चउगुणठाणेसु होदि कम्मइयं ।
चदुगदिविग्गहकाले जोगिस्स य पदरलोगपूरणगे ॥६८४॥ औदारिकमिश्रवच्चतुर्गुणस्थानेषु भवति काम॑णं । चतुर्गतिविग्रहकाले योगिनः प्रतरलोकपूरणे ॥ १५ औदारिकमिश्रकाययोगदोळपेवंत चतुर्गुणस्थानंगळोळु कार्मणकाययोगमक्कं मदुवु
चतुर्गतिविग्रहकालदोळं सयोगकेवलिय प्रतरलोकपूरणसमुद्घातकालदोळमक्कुमदु कारणमागि कार्मणकाययोगदोळ मिथ्यादृष्टिसासादनाऽसंयतसम्यग्दृष्टि समुद्घातसयोगिभट्टारकरेंब गुणतन्मिश्रयोगः मिश्रगुणस्थाने तु न हीति कारणात् देवनारकमिथ्यादृष्टिसासादनासंयतेष्वेव भवति । जीवसमासः तयोः क्रमेण संज्ञिपर्याप्तः तन्निर्वत्यपर्याप्तः एकैकः ।।६८२।।
आहारककाययोगः संज्ञिपर्याप्तषष्ठगुणस्थाने जघन्योत्कृष्टेन अन्तर्मुहूर्तकाले एव भवति । तन्मिश्रयोगः इतरस्मिन् संश्यपर्याप्तषष्ठगुणस्थाने खलु जघन्योत्कृष्टेन तावत्काले एव भवति । तेन तयोर्योगयोस्तदेव गुणस्थानं जीवसमासः स एव एकैकः ॥६८३।।
औदारिकमिश्रवच्चतुर्गुणस्थानेषु कार्मणकाययोगः स्यात् स चतुर्गतिविग्रहकाले सयोगस्य प्रतरलोकमिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयतगुणस्थानों में ही होता है । जीवसमास उनमें-से वैक्रियिकमें २५ संज्ञीपर्याप्त और वैक्रियिकमिश्रमें संज्ञीअपर्याप्त होता है ॥६८२॥
आहारक काययोग संज्ञीपर्याप्त छठे गुणस्थानमें जघन्य और उत्कृष्टसे अन्तमुहूर्त कालमें ही होता है । आहारमिश्रकाययोग संज्ञिअपर्याप्त अवस्थामें छठे गुणस्थानमें जघन्य उत्कृष्टसे अन्तमुहूतेकाल में ही होता है। अतः उन दोनोंमें एक छठा ही गुणस्थान होता है। तथा
जीवसमास भी वही संज्ञीपर्याप्त और संज्ञीअपर्याप्त एक-एक ही होता है ॥६८३॥ ३० औदारिकमिश्रकी तरह कार्मणकाययोग चार गुणस्थानों में होता है। सो वह चार
गति सम्बन्धी विग्रहगतिके कालमें और सयोगकेवलीके प्रतर और लोकपूरण समुद्घातके
२०
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९०९
स्थानचतुष्टयमुं एकेंद्रियबादर सूक्ष्मद्वित्रिचतुरंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियसंज्ञिपंचेंद्रियजीवंगळु उत्तरभवशरीरग्रहणात्थं स्वस्वयोग्यचतुर्गतिगळगे पोपुदं विग्रहगतिय बुदा विग्रहगतियोळप्प अपर्याप्रजीवसमासिगळेळं प्रतरसमुद्घातलोकपूरण समुद्घातसमयत्रयवत्तसयोगिभट्टारकन काम्मँणकाययोगाऽ पर्याप्त जीवसमासेगडि कार्म्मणकाययोगदोळे टु जीवसमासेगळप्पुवु
का =
गु ४
जी ८
थारका पहुडी संढो सेसा असण्णिआदी य ।
यस्य पढमो भागोत्ति जिणेहि णिद्दिट्ठे || ६८५ ||
स्थावर काय प्रभृति षंढः शेषाः असंज्ञयादयश्च । अनिवृत्तेः प्रथमभागपय्र्यंतं जिनै निर्दिष्टं ॥
वेदमार्गणेयोळु स्थावर कायदोळु मिथ्यादृष्टिप्रभृतियागि षंढवेदिगळ निवृत्तिकरण गुणस्थानपंचभागंळोळु प्रथमसवेदभागवय्र्यंतमो भत्तुं गुणस्थानं गळोळप्पर । अदु कारणमागि नपुंसक - वेददोळ गुणस्थाननवक एकेंद्रियबादर सूक्ष्मद्वित्रिचतुः पंचेंद्रिय संज्ञ्य संज्ञिपर्य्याप्तजीव समासेगळ १० पदिनात्कुमga | शेषस्त्रीवेदिगळं पुंवेदिगळं संज्ञ्य संज्ञिमिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदल्गोंडऽनिवृत्तिकरणगुणस्थानद तंतम्म सवेदभागपय्र्यंतमो भत्तु गुणस्थानंगळोळप्परु । अदु कारणमागि स्त्रीवेददोळं पुंवेददोळमोंभत्तुमभवत्तं गुणस्थानंगळं । संज्ञ्यसंज्ञिपंचेंद्रियपर्थ्याप्तापर्य्या प्रजीवसमासेगळु नाल्कु नाल्कुमप्पुवु न । स्त्री । पुं
९।९।९। १४ ४ ४
थाबरका पहुडी अणिय ट्टीवितिचउत्थभागोत्ति ।
कोहति लोहो पुण सुहुमसरागोति विष्णेयो ||६८६ ॥
स्थावर काय प्रभृत्यनिवृत्तिद्वित्रिचतुर्थभागपय्र्यंतं । क्रोधत्रयं भवति लोभः पुनः सूक्ष्मसरागपध्यंतं विज्ञेयः ॥
पूरणकाले च भवति तेन तत्र गुणस्थानानि जीवसमासाश्च तद्वत् चत्वारि अष्टौ भवन्ति ॥ ६८४ ॥
वेदमार्गणायां षण्ढवेदः स्थावर काय मिध्यादृष्ट्याद्यनिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागान्तं भवति तेन तत्र गुणस्थानानि नव । जीवसमासाश्चतुर्दश । शेषस्त्रीपुंवेदी संज्ञयसंज्ञिमिथ्यादृष्ट्याद्य निवृत्तिकरणस्वस्वसवेदभाग- २० पर्यन्तं भवतः तेन तयोर्गुणस्थानानि नव नव । जीवसमासाः संज्ञयसंज्ञिनी पर्याप्तापर्याप्ताविति चत्वारः इति जिनैरुक्तम् ||६८५ ॥
कालमें होता है । इससे उसमें गुणस्थान और जीवसमास उसीकी तरह क्रमसे चार और आठ होते हैं ||६८४ ॥
१५
वेदमार्गणा में नपुंसकवेद स्थावरकायसम्बन्धी मिध्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण के २५ प्रथम सवेदभागपर्यन्त होता है। अतः उसमें नौ गुणस्थान होते हैं । जीवसमास चौदह होते हैं। शेष स्त्रीवेद और पुरुषवेद संज्ञी - असंज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण के अपनेअपने सवेद भागपर्यन्त होते हैं। इससे उनमें नौ-नौ गुणस्थान होते हैं। तथा जीवसमास संज्ञी, असंज्ञी, पर्याप्त, अपर्याप्त चार होते हैं; ऐसा जिनदेवने कहा है || ६८५||
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गो० जीवकाण्डे क्रोधमानमायाकषायत्रयंगळु
कषायमाणेोळ
स्थावर काय मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदगो निवृत्तिकरणगुणस्थानद्वित्रिचतुत्थं भागपय्र्यंतमाद गुणस्थाननवकदोळप्पुवु । अदु कारणमागि क्रोधादिकषायत्रयदोळु प्रत्येकमों भत्तुमो भत्तु गुणस्थानंगळु मे केंद्रियबाद रसूक्ष्मद्वित्रिचतुरसंज्ञिपंचेंद्रिय संज्ञिपंचंद्रियपर्य्याप्तापर्य्याप्तजीवसमासगळु पदिनात्कु पदिनाल्कुमप्पुवु । लोभ५ कषायदोळमंत स्थावर काय मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानपर्यंतमाद गुणस्थानदशकमं क्रोधाधिगळगे पेदंत चतुर्द्दशजीवसमासे गळु मप्पुवे दु क्रो । मा । मा । लो
९। ९ । ९ । १० १४ । १४ । १४ । १४
१०
९१०
परमागमदोळेरियल्पडुवु
थावरका पहुडी मदिसुदअण्णाणयं विभंगो दु । सणीपुणपडी सासणसम्मोति णायच्वो ||६८७॥
स्थावर काय प्रभृति मतिश्रुताज्ञानकं विभंगस्तु । संज्ञोपूर्णप्रभृति सासादन सम्यग्दृष्टिपथ्यं तं
ज्ञातव्यं ॥
ज्ञानमार्गणेयोळु मतिश्रुताज्ञानद्वयं स्थावर कायमिथ्यादृष्टिप्रभृतिसासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानपय्यंत मेरडेरडुगुणस्थानदोळप्पदु । एकेंद्रियबादर सूक्ष्मद्वित्रिचतुः पंचेंद्रियसंज्ञ्य संज्ञिपर्य्याप्तापर्य्यामजीवसमासेगळु प्रत्येकं पदिनाल्कु पदिनात्कुमप्वु । विभंगज्ञानमुं संज्ञिपूर्ण मिथ्यादृष्टियादि१५ यागि सासादनसम्यग्दृष्टिपथ्यतमे रडु गुणस्थानदोळप्पु । संज्ञिपंचेंद्रियपर्य्याप्त जीवसमासेयो देयप्पुडु । एंदितु परमागमदोळरियल्पडुवुदु ।
कषायमार्गणायां क्रोधमानमायाः स्थावर कायमिथ्यादृष्ट्याद्यनिवृत्ति कर णद्वित्रिचतुर्भागान्तम् । लोभः पुनः सूक्ष्मसां परायान्तम् । तेन क्रोधत्रये गुणस्थानानि नव लोभे दश ज्ञेयानि । जीवसमासाः सर्वत्र चतुर्दशैव ॥ ६८६ ॥ ज्ञानमार्गणायां मतिश्रुताज्ञानद्वयं स्थावर कायमिथ्या दृष्ट्यादिसासादनान्तं ज्ञातव्यं तेन तत्र गुणस्थाने २० द्वे । जीवसमासाश्चतुर्दश । तु-पुनः विभङ्गज्ञानं संज्ञिपूर्णमिथ्यादृष्ट्या दिसासादनान्तं तत्र गुणस्थाने द्वे ।
जीवसमासः संज्ञिपर्याप्त एवैकः ||६८७ |
कषायमार्गणा में क्रोध, मान, माया, स्थावर काय मिध्यादृष्टि से लेकर अनिवृत्तिकरणके क्रमसे दूसरे, तीसरे और चौथे भागपर्यन्त होते हैं । लोभ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानपर्यन्त होता है। इससे क्रोध, मान, मायामें नौ और लोभ में दस गुणस्थान होते हैं । जीवसमास २५ सर्वत्र चौदह होते हैं || ६८६ ॥
ज्ञानमार्गणा में कुमति, कुश्रुतज्ञान स्थावरकायमिध्यादृष्टिसे लेकर सासादनपर्यन्त जानना । इससे उनमें दो गुणस्थान होते हैं । जीवसमास चौदह होते हैं । विभंगज्ञान संज्ञीपर्याप्त मिध्यादृष्टिसे लेकर सासादन पर्यन्त जानना । इससे उसमें भी दो गुणस्थान होते हैं। जीवसमास एक संज्ञीपर्याप्त ही होता है ||६८७ ||
३० १. म दोल्पेलल्पडुवुवु ।
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२११
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सण्णाणतिगं अविरदसम्मादी छट्ठगादि मणपज्जो ।
खीणकसायं जाव दु केवलणाणं जिणे सिद्धे ॥६८८॥ सज्ज्ञानत्रिकमसंयतसम्यग्दृष्टयादि षष्ठकादि मनःपर्यायः क्षीणकषायं यावत् केवलज्ञानं जिनेसिद्धे ॥
मतिश्रुतावधि सम्यज्ञानत्रितयमसंयतसम्यग्दृष्टयादिक्षीणकषायगुणस्थानपय्यंत मो भत्तु ५ गुणस्थानंगळोळप्पुदु। संजिपंचेंद्रियपर्याप्ताऽपर्याप्तजीवसमासेगळेरडेरडप्पुवु। मनःपर्यायज्ञानं षष्टगुणस्थानत्ति प्रमत्तसंयतनादियागि क्षीणकषायपर्यंतमेळु गुणस्थानदोळप्पुदु । संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासमो देयक्कुं। केवलज्ञानं सयोगिकेवलियोलमयोगिकेवलियोळं सिद्धरोळमक्कुमल्लि संज्ञिपंचेंद्रि घपर्याप्तजीवसमासमुं समुद्घातजिननल्लि औदारिकमिश्र, कार्मणकाययोगमुमुळ्ळु. दरिंदमपर्याप्मजीवसमासमुं कूडि जीवसमासद्वयं संभविमुगु
कु। कु। वि । म । श्रु । अ । म । के २।३।२।९।९।९।७।२ १४ ॥ १४॥ १।२।२।२।१।२
अयदोत्ति हु अविरमणं देसे देसो पमत्त इदरे य ।
परिहारो सामाइयच्छेदो छट्ठादि थूलोत्ति ॥६८९॥ असंयतपय॑तमविरमणं देशे देशः प्रमत्ते इतरस्मिन्श्च । परिहारः सामायिकच्छेदोपस्थापनौ षष्ठादिस्थूलपयंतं ॥
सुहमो सुहमकसाए संते खीणे जिणे जहक्खादं ।।
संजममग्गणमेदा सिद्धे णस्थिति णिदिळें ॥६९०।। सूक्ष्मः सूक्ष्मकषाये शांते क्षीणे जिने यथाख्यातः। संयममार्गणाभेदाः सिद्धे न संति इति निर्दिष्टं।
संयममार्गयोळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदल्गोंडसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानपय्यंतं नाल्कुं गुणस्थानंगळोळविरमणमक्कुमल्लि पदिनाल्कुं जीवसमासंगळुमप्पुवु । देशसंयतगुणस्थानदोळु देश- २०
मत्यादिसम्यग्ज्ञानत्रयं असंयतादिक्षीणकषायान्तं तेन तत्र गुणस्थानानि नव । जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्त्यापर्याप्तौ द्वौ । मनःपर्ययज्ञानं षष्ठादिक्षीणकषायान्तं तेन तत्र गुणस्थानानि सप्त जीवसमासः संज्ञिपर्याप्त एवैकः । केवलज्ञानं सयोगायोगयोः सिद्धे च । तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तसयोगापर्याप्ती द्वौ ॥६८८।। __ संयममार्गणायां अविरमणं मिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतान्तचतुर्गणस्थानेषु । तत्र जीवसमासाश्चतुर्दश। देशसंयमः
मति आदि तीन सम्यग्ज्ञान असंयतसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यन्त होते हैं, इससे उनमें नौ गणस्थान होते हैं। जीवसमास संज्ञी पर्याप्त अपर्याप्त दो होते हैं। मनःपर्ययज्ञान ' छठे गुणस्थानसे क्षीणकषाय पर्यन्त होता है, अतः उसमें सात गुणस्थान होते हैं और जीवसमास एक संज्ञी पर्याप्त ही होता है। केवलज्ञान सयोगी, अयोगी और सिद्धोंमें होता है। उसमें संज्ञी पर्याप्त तथा समुद्घातगत सयोगीकी अपेक्षा संज्ञी अपर्याप्त,ये दो जीवसमास होते हैं ॥६८८॥
संयममार्गणामें असंयम मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयतपर्यन्त चार गुणस्थानों में होता १०
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९१२
गो० जीवकाण्डे संयतमुमक्कुमल्लि संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासमो देयक्कुं। सामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमंगळेरडं प्रत्येकं प्रमत्त संयतगुणस्थानमादियागऽनिवृत्तिकरणगुणस्थानपर्यंतं नाल्डं नाल्कं गुणस्थानंगळप्पुवल्लि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासमुं आहारकापर्याप्तजीवसमासमितेरडेरडु जीवसमासं
गळप्पुवु । परिहारविशुद्धि संयम प्रमत्तसंयतरोळमप्रमत्तसंयतरोळमक्कुमल्लि संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्त५ जीवपमासमोदे यक्कुमेके दोडे परिहारविशुद्धिसंयमऋद्धियुमाहारकऋद्धियुमोवनोळे संभविस
वप्पुरिदं । सूक्ष्मसांपरायसंयमं सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळेयक्कुमल्लि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासमो देयकुं। यथाख्यातचारित्रमुपशांतकषायगुणस्थानवोळं क्षीणकषायगुणस्थानवोळं सयोगिकेवलिगुणस्थानदोळमयोगिकेवलिगुणस्थानदोमितु नाल्कुं गुणस्थानंगळोळमक्कुमल्लि
संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासमुं समुद्घातकेवलिय अपर्याप्तजीवसमासमुं कूडि जीवसमासद्वय१० मक्कुं। संयममार्गणाभेदंगळु सिद्धपरमेष्ठिगळोळु संभविसुववल्तेंदु परमागमदोम्पेळल्पटुदु ।
अ। दे । सा। छ। प। सू । य । ४।१। ४।४।२।१।४। १४ । १। २।२।१।१।२।
चउरक्खथावरविरदसम्मादिट्ठी दु खीणमोहोत्ति ।
चक्खु अचक्खू ओही जिणसिद्धे केवलं होदि ॥६९१॥ चतुरिद्रियस्थावराविरतसम्यग्दृष्टितः क्षीणमोहपयंत। चक्षुरचक्षुरवधयो जिनसिद्धे केवलं भवंति ॥
१५ देशसंयतगुणस्थाने तत्र जीवसमासः संज्ञिपर्याप्त एव । सामायिकछेदोपस्थापनौ प्रमत्ताद्यनिवृत्तिकरणान्त
चतुर्गणस्थानेष । तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्ताहारकपर्याप्ती द्वौ। परिहारविशुद्धिसंयमः प्रमत्ताप्रमत्तयोरेव । तत्र जीवसमासः संज्ञिपर्याप्त एव तेन सह आहारकरेकत्वासंभवात् । सूक्ष्मसांपरायसंयमः सूक्ष्मसांपरायगुणस्थाने तत्र जीवसमासः संज्ञिपर्याप्तः । यथाख्यातचारित्रं उपशान्तकषायादिचतुर्गुणस्थानेषु
तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तसमघातकेवल्यपर्याप्तौ द्वौ । संयममार्गणाभेदाः सिद्ध न संतीति परमागमे २० निर्दिष्टम् ।।६८९-६९०।।
है,उसमें चौदह जीवसमास होते हैं। देशसंयम देशसंयत गुणस्थानमें होता है,उसमें जीवसमास एक संज्ञी पर्याप्त ही होता है। सामायिक और छेदोपस्थापना प्रमत्तसे लेकर अनिवृत्तिकरणपर्यन्त चार गुणस्थानोंमें होते हैं। उनमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त और आहारक
मिश्रकी अपेक्षा संज्ञी अपर्याप्त होते हैं । परिहारविशुद्धिसंयम प्रमत्त और अप्रमत्त गुणस्थानोंमें २५ ही होता है। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त ही होता है, क्योंकि परिहारविशद्धि संयमके
साथ आहारकऋद्धि नहीं होती। सूक्ष्मसाम्परायसंयत सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें होता है। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त ही होता है। यथाख्यातचारित्र उपशान्तकषाय आदि चार गुणस्थानोंमें होता है। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त तथा समुद्घात केवलीकी अपेक्षा
अपर्याप्त इस तरह दो होते हैं। संयममार्गणाके भेद सिद्धोंमें नहीं होते,ऐसा परमागममें ३० कहा है ॥६८९-६९०॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका दर्शनमार्गणेयोनु चक्षुदर्शनं चतुरि द्रियमिथ्यादृष्टि मोदल्गोंडु क्षीणकषायगुणस्थानपर्यंत पन्नेरडु गुणस्थानंळोळप्पुदल्लि चतुरिदियसंजिपंचेंद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासगळारप्पुवु। अचक्षुर्दर्शनं स्थावरकायमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि क्षीणकषायगुणस्थानपथ्यंत पनेरडं गुणस्थानंगळोळप्पुदल्लि पदिनाल्कुं जीवसमासेगळप्पुवु। अवधिदर्शनमसंयतसम्यग्दृष्टिगणस्थानमादियागि क्षीणकषायगुणस्थानपय्यंतमो भत्तु गुणस्थानगळा
जिपंचेंद्रिय पर्याप्तापर्याप्तजीवसमासगळेरडेयप्पुवु। केवलदर्शनं सयोगिकेवलिययोगिकेवलिगळे बरडं गुणस्थानंगळोळप्पुदल्लि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासयुं समुद्घातकेवलिय अपर्याप्तजीवसमासमुमितरडु जीवसमासेगळप्पुवु- च । अअ । के। गुणस्थानातीतरप्प सिद्धरोळं केव
१२।१२।९।२।
६ । १४ । २।२। लदर्शन नक्कुं॥ थावरकायप्पहुडी अविरदसम्मोत्ति असुहतियलेस्सा ।
सण्णीदो अपमत्तो जाव दु सुहतिण्णिलेस्साओ ॥६९२॥ स्थावरकायप्रभृत्यविरतसम्यग्दृष्टिपथ्यंतमशुभत्रयलेश्याः । संज्ञितोऽप्रमत्तं यावत् शुभत्रयलेश्याः ॥
लेश्यामागंणेयोळु अशुभत्रयलेश्यगळु स्थावरकायमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमावियागि असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानपय्यंतं नोल्कुगुणस्थानंगळोळु संभविसुववल्लि एकेंद्रियबादरसूक्ष्मद्वित्रिचतुः- १५ पंचेंद्रियसंज्यसंज्ञिपर्याप्ताऽपर्याप्तभेदविभिन्नजीवसमासेगळु पदिनाल्कुमप्पुवु । तेजःपालेश्यगळु संज्ञिमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि अप्रमत्तगुणस्थानपर्यंतमेळं, गुणस्थानंगळोळप्पुवल्लि संजिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळरडेरडप्पुवु ।
दर्शनमार्गणायां चक्षुर्दर्शनं चतुरिन्द्रियमिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तं । तत्र जीवसमासाः चतुरिन्द्रियसंश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ताः षट् । अचक्षुर्दर्शनं स्थावरकायमिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तं तंत्र जीवसमासाश्चतुर्दश । २० अवधिदर्शनं असंयतादिक्षीणकषायान्तं तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ। केवलदर्शनं सयोगायोगगणस्थानयोः तत्र जीवसमासौ केवलज्ञानोक्तो द्वौ। सिद्धेऽपि केवलदर्शनं भवति ।
___ लेश्यामार्गणायां अशुभलेश्यात्रयं स्थावरकायमिथ्यादृष्ट्याद्यसंयतान्तं तत्र जीवसमासाः चतुर्दश । तेजःपद्मलेश्ये संज्ञिमिथ्यादृष्टयाद्यप्रमत्तान्तं तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ ॥६९२॥
दर्शनमार्गणामें चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रिय मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त होता २५ है। उसमें जीवसमास चौइन्द्रिय, संज्ञी पंचेन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय,इनके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेदसे छह होते हैं। अचक्षुदर्शन स्थावरकाय मिथ्यादृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त होता है। उसमें जीवसमास चौदह होते हैं। अवधिदर्शन असंयतसे लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यन्त होता है। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं। केवलदर्शन सयोगी-अयोगी गुणस्थानोंमें होता है। उसमें दो जीवसमास होते हैं जो केवल- १० ज्ञानमें होते हैं। सिद्धोंमें भी केवलदर्शन होता है ॥६९१॥
___ लेश्यामार्गणामें तीन अशुभ लेश्या स्थावरकाय मिथ्यादृष्टिसे लेकर असंयत गुणस्थान पर्यन्त होती है। उनमें जीवसमास चौदह हैं। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या संज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त होती हैं। उसमें जीवसमास संज्ञी पर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त होते हैं ।।६९२॥
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गो० जीवकाण्डे
वरि य सुक्का लेस्सा सजोगिचरिमोत्ति होदि नियमेण । जो गिम्मि वि सिद्धे लेस्सा णत्थिति णिहिंदूं || ६९३ || विशेषोस्ति शुक्ललेश्या सयोगचरमपय्र्यंतं भवति नियमेन । गतयोगेऽपि सिद्धे लेश्या न संतीति निर्दिष्टं । ५ शुक्लेश्यो विशेषमुंटावुदे दोडे शुक्ललेश्यासंज्ञिपय्र्य्याप्त मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि सयोगिकेवलिगुणस्थानपर्यंतं पदिमूरुं गुणस्थानंगळोळप्पूदें बुदल्लि संज्ञिपंचेद्रियपर्य्याप्तापर्य्याप्तजीवसमासमुं समुद्घातकेवलिय औदारिकमिश्रकाम्मंणकाययोगकालकृतापर्य्याप्तजीवसमास कूडि जीवसमासद्वयमक्कु नियर्मादिदं । कृ । नी । क । ते । प । शु गतयोगरप्प अयोगिकेवलि४ । ४ । ४ । ७ । ७ । १३ १४ । १४ । १४ । २ । २ । २
गळोळं सिद्धपरमेष्ठिगळोळं लेश्येगळिल्ल में दिंतु परमागमदोळपेळपट्टुडु । थावर काय पहुडी अजोगिचरिमोत्ति होंति भवसिद्धा । मिच्छाइट्ठिट्ठाणे अभव्वसिद्धा हवंतीति ॥ ६९४ || स्थावरकायप्रभृत्ययोगिचरमसमयपय्यंतं भवंति भव्यसिद्धाः । मिथ्यादृष्टिस्थाने अभव्य
१०
९१४
सिद्धा भवतीति ॥
भव्यमार्गणेयोल स्थावरकायमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि अयोगिकेवलिचरमगुणस्थान१५ पर्यंतं पदिनाकुं गुणस्थानंगळोळ भव्यसिद्धरुंगळप्परल्लि पदिनात्कुं जीवसमासेगळप्पुवु । अभव्यसिद्धरुगळु मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमों बरोळेयप्पर । अल्लि पदिनाकं जीवसमासेगळप्पु भ
१४ । १ १४ । १४
मिच्छो सास मिस्सो सगसगठाणम्मि होदि अयदादो । पढमुवसमवेदगसम्मत्त दुगं अप्पमत्तोत्ति ||६९५||
मिथ्यादृष्टिः सासादनो मिश्रः स्वस्वस्थाने भवति असंयतात्प्रथमोपशमवेदकसम्यक्त्वद्विकम२० प्रमत्तपय्यंतं ॥
शुक्ललेश्यायां विशेषः । स कः ? सा लेश्या संज्ञिपर्याप्तमिथ्यादृष्ट्या दिसयोगान्तं भवति तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वावेव नियमेन केवल्यपर्याप्तस्य अपर्याप्ते एवान्तर्भावात् । अयोगिजिने सिद्धे च लेश्या न सन्तीति परमागमे प्रतिपादितम् ॥ ६९३ ॥
भव्य मार्गणायां भव्यसिद्धाः स्थावरकाय मिथ्यादृष्ट्याद्ययोगान्तं भवन्ति । अभव्यसिद्धाः मिध्यादृष्टिगुण२५ स्थाने एव भवन्ति इत्युभयत्र जीवसमासाश्चतुर्दश ।। ६९४ ||
३०
शुक्ललेश्या में विशेष है । वह संज्ञी मिध्यादृष्टि से लेकर सयोगीपर्यन्त होती है । उसमें जीवसमास संज्ञीपर्याप्त और संज्ञी अपर्याप्त दो ही नियमसे होते हैं । केवलिसमुद्घातगत अपर्याप्ता अन्तर्भाव अपर्याप्त में ही हो जाता है । अयोग केवली और सिद्धों में लेश्या नहीं होती, ऐसा परमागम में कहा है || ६९३ ||
मार्गणा भव्य स्थावरकाय मिध्यादृष्टिसे लेकर अयोगकेवली पर्यन्त होते हैं । अभव्य मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होते हैं। दोनोंमें जीवसमास चौदह ही होते हैं ||६९४ ||
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९१५ सम्यक्त्वमार्गयोळु मिथ्यादृष्टियु सासादन मिश्रनुं तंतम्म गुणस्थानदोळेयक्कुमल्लि मिथ्यादृष्टियोळु पदिनाल्कु जीवसमासेगळप्पवु। सासादनोळु येकेंद्रियबादरापर्याप्त द्विद्रियापर्याप्त त्रींद्रियापर्याप्तचतुरिंदियापर्याप्त संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्ता संजिपंचेंद्रियापर्याप्तजीवसमासेगळेळप्पुवु । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वविराधकनप्प सासादननुनुमोळने बाचार्यापेक्षयिदं संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासेयुं देवापर्याप्तजीवसमासयुमरडप्पुवु । मिश्रनोळु संजिपंचेंद्रिय- ५ पर्याप्तजीवसमासयों देयक्कु । प्रथमोपशमसम्यक्त्वमु वेदकसम्यक्त्वमुमरांयतसम्यग्दृष्टियागियागऽप्रमत्तपय्यंतं नाल्कु नाल्कु गुणस्थानंगळोळप्पुवु । अल्लि प्रथमोपशमसम्यक्त्वदोळु मरणमिल्लप्पुरदं संजिपर्याप्तपंचेंद्रियजीवसमासेयो देयक्कु । वेदकसम्यक्त्वदोळु संजिपंचेंद्रिय पर्याप्तापर्याप्तजीवसमासेगळेरडप्पुवेदोडे धर्मेय नारकापर्याप्तनुं भवनत्रयज्जितदेवापर्याप्तनुं भोगभूमिजमनुष्यतिय्यंचापर्याप्तनुं वेदकसम्यग्दृष्टियोळनप्पुरदं । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वक्के पेन्दपं ।
बिदियुवसमसम्मत्तं अविरदसम्मादि संतमोहो त्ति ।
खइगं सम्मं च तहा सिद्धोत्ति जिणेहि णिदिहूँ॥६९६॥ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमविरतसम्यग्दृष्टयाद्युपशांतमोहगुणस्थानपर्यंतं क्षायिकसम्यक्त्वं च .. तथा सिद्धपय्यंत जिनैर्निर्दिष्टं।
सम्यक्त्वमार्गणायां मिथ्यादृष्टिः सासादनः मिश्रश्च स्वस्वगुणस्थाने एव भवति । तत्र मिथ्यादृष्टौ जीवसमासाश्चतुर्दश । सासादने बादरैकद्वित्रिचतुरिन्द्रियसंश्यसंश्यपर्याप्तसंज्ञिपर्याप्ताः सप्त । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वविराधकस्य सासादनत्वप्राप्तिपक्षे च संज्ञिपर्याप्तदेवापर्याप्तावपि द्वौ। मिश्रे संज्ञिपर्याप्तः। प्रथमोपशमवेदकसम्यक्त्वे द्वे असंयताद्यप्रमत्तान्तं स्तः । तत्र जीवसमासः प्रथमोपशमसम्यक्त्वे मरणाभावात् संज्ञिपर्याप्त एवंकः । वेदकसम्यक्त्वे संक्षिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ । धर्मानारकस्य भवनत्रयवजितदेवस्य भोगभूमिनरतिरश्चोश्च अपर्याप्तत्वेऽपि २० तत्संभवात् ॥६९५॥ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वस्याह
___ सम्यक्त्वमागणामें मिथ्यादृष्टि, सासादन, और मिश्र अपने-अपने गुणस्थानमें होते हैं। मिथ्यादृष्टि में जीवसमास चौदह होते हैं। सासादनमें बादर एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञीअपर्याप्त तथा संज्ञी पर्याप्तअपर्याप्त ये सात जीवसमास होते हैं। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी विराधना करके सासादनको प्राप्त होनेके पक्षमें संज्ञीपर्याप्त और २५ देवअपर्याप्त दो जीवसमास होते हैं। मिश्रगुणस्थानमें संज्ञी पर्याप्त जीवसमास होता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व और वेदकसम्यक्त्व असंयतसे अप्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त होते हैं। प्रथमोपशम सम्यक्त्वमें मरणका अभाव होनेसे जीवसमास एक संज्ञीपयोप्त ही है। वेदक सम्यक्त्वमें संज्ञीपर्याप्त, अपर्याप्त दो होते हैं। क्योंकि धर्मा नामक प्रथम नरकमें भवनत्रिकको छोड़कर देवोंमें और भोगभूमिया मनुष्य तथा तिर्यचोंमें अपर्याप्त दशामें भी वेदक सम्यक्त्व ३० होता है ॥६९५॥
द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको कहते हैं१. मु. साविति द्वौ।
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गो०जीवकाण्डे
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमसंयतायुपशांतकषायगुणस्थानपथ्यंतमेंटु गुणस्थानंगळोळक्कुमल्लि. युपशमश्रेण्यवरोहणदोळऽप्रमत्तप्रमत्तदेशसंयतासंयतरोळु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसंभवमें दरिवुदेकदोड उपशमश्रेण्यारोहणावरोहणकालमं नोडलु तदुपशमसम्यक्त्वकालं संख्यातगुणमक्कुमेत्तलानुं चारित्रावरणोदयदिवं देशसंयतासंयतरोळु पतनमुटप्पुरिदं । अल्लि संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासेयुं देवासंयतापर्याप्तजीवसमासेयुमितेरडु जीवसमासेगळप्पुबु । क्षायिकसम्यक्त्वमसंयतादियुमयोगिकेवलिगुणस्थानमवसानमागि पंनो हुँ गुणस्थानंगळोळप्पुदल्लि। संजिपंचेंद्रियपर्याप्तभुज्यमानजीवसमासेयुं बद्घायुष्यापेक्षयिदं धम्मॅय नारकापर्याप्तनु भोगभूमिजमनुष्यतिय्यंचासंयता. पर्याप्तरं देवासंयतापर्याप्तनु संभविसुगुमप्पुदरिनपर्याप्तजीवसमासयुमितरडुजीवसमासेगळप्पुवु। संदृष्टिरचने:
मि सा मि द्वि उप्र वे क्षा गुणस्थानातीतरप्प सिद्धपरमेष्ठिगळोळं
१४ ७।१ २ । १२२ १० क्षायिकसम्यक्त्वमक्कु दितु जिनस्वामिळिदं पेळल्पद्रुदु ॥
सण्णी सण्णिप्पहुडी खीणकसाओत्ति होदि णियमेण ।
थावरकायप्पहुडी असणित्ति हवे असण्णी दु ॥६९७॥
संज्ञी संज्ञिप्रभृति क्षीणकषायपय्यंतं भवति नियमेन । स्थावरकायप्रभृति असंज्ञिपय्यंतं ___ भवेदसंज्ञी तु॥
संज्ञिमागर्गणेयोलु संजिजीवं संज्ञिमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि क्षीणकषायगुणस्थानपय्यंत पन्नेर९ गुणस्थानंगळोळप्पुवु अल्लि संज्ञिपचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासद्वयमक्कुं। तु मत्त असंज्ञिजीवस्थावरकायमिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि पंचेंद्रियासंजिमिथ्यादृष्टिपर्यंत मिथ्या
द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं असंयतायुपशान्तकषायान्तं भवति । अप्रमत्ते उत्पाद्य उपरि उपशान्तकषायान्तं गत्वा अधोवतरणे असंयतान्तमपि तत्संभवात् । तत्र जीवसमासी संज्ञिपर्याप्तदेवासंयतापर्याप्ती द्वौ । क्षायिक२० सम्यक्त्वं असंयताद्ययोगान्तम् । तत्र जीवसमासी संक्षिपर्याप्तः बद्धायुष्कापेक्षया धर्मानारकभोगभूमिनरतिर्यग्वमानिकापर्याप्तश्चेति द्वौ । सिद्धेऽपि क्षायिकसम्यक्त्वं स्यादिति जिनरुक्तम् ॥६९६॥
संज्ञिमार्गणायां संज्ञिजीवः संज्ञिमिथ्यादृष्टयादिक्षीणकषायान्तं भवति तत्र जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्ती
द्वितीयोपशम सम्यक्त्व असंयतसे उपशान्तकषाय गुणस्थानपर्यन्त होता है; क्योंकि अप्रमत्त गुणस्थानमें इस द्वितीयोपशम सम्यक्त्वको उत्पन्न करके ऊपर उपशान्तकषाय पर्यन्त २५ जाकर नीचे उतरनेपर असंयत पर्यन्त भी उसका अस्तित्व रहता है। उसमें जीवसमास
संज्ञी'पर्याप्त तथा देव असंयत अपर्याप्त दो होते हैं। क्षायिक सम्यक्त्व असंयतसे अयोगी पर्यन्त होता है। उसमें जीवसमास संज्ञीपर्याप्त होता है। किन्तु परभत्रकी आयु बाँधनेकी अपेक्षा प्रथम नरक, भोगभूमिया मनुष्य तिथंच और वैमानिक सम्बन्धी अपर्याप्त होनेसे दो
होते हैं । सिद्धोंमें भी क्षायिक सम्यक्त्व जिनदेवने कहा है ॥६९६।। ३० संज्ञीमार्गणामें संज्ञीजीव संशामिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यन्त होता
है। उसमें जीवसमास संजी पर्याप्त और अपर्याप्त दो होते हैं। असंज्ञीजीव स्थावरकायसे
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९१७ दृष्टिगुणस्थानमो देयक्कुमल्लि संजिजीवसंबंधिपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासद्वयमुळियलुळिद द्वादशजोवसमासेगळनितुमप्पुवु नियमदिवं सं। अ
१२।१ ।
२।१२। थावरकायप्पहुडी सजोगिचरिमोत्ति होदि आहारी ।
कम्मइय अणाहारी अजोगिसिद्ध वि णायव्यो ॥६९८॥ स्थावर कायप्रभृति सयोगिचरमपर्वतं भवत्याहारी। कार्मणे अनाहारी अयोगिसिद्धेपि ५. ज्ञातव्यः॥
आहारमार्गणेयोळु स्थावरकायमिथ्यादृष्टियादियागि सयोगकेवलिपयंतं पदिमूलं गुणस्थानंगळोळाहारिगळोळु आहारियक्कुमल्लि सर्वमुं जीवसमासेगळु पदिनाल्कुमप्पुवु । विग्रहगतिकार्मणकाययोगद मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टि असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानत्रयमुं प्रतरलोकपूरणसमुद्घातसयोगिगुणस्थानमुमयोगिगुणस्थानमुमितुगुणस्थानपंचकदोळमनाहारियक्कुमल्लि एफेंद्रिय- १० बादरसूक्ष्मापर्याप्तजीवसमासद्वयमुं द्वित्रिचतुरिंद्रियापर्याप्तजीवसमासत्रयमुं संजिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तद्वयमुमसंक्यपर्याप्तजीवसमासयुमितु जीवसमासाष्टकमक्कुं आ ।अ अनंतरं गुण
१४।८
स्थानंगळोळु जीवसमासयं पेळ्दपरु :
मिच्छे चोद्दसजीवा सासण अयदे पमत्तविरदे य ।
सण्णिदुर्ग सेसगुणे सण्णी पुण्णो दुखीणोत्ति ॥६९९।। मिथ्यादृष्टौ चतुर्दशजीवाः सासादने अयते प्रमत्तविरते च । संजिद्वयं शेषगुणे संज्ञिपूर्णस्तु क्षीणकषायपय्यंतं ॥
द्वौ । तु-पुनः असंज्ञिजीवः स्थावरकायाद्यसंश्यन्तमिथ्यादृष्टिगुणस्थाने एव स्यान्नियमेन तत्र जीवसमासा द्वादश संज्ञिनो द्वयाभावात् ॥६९७॥
___आहारमार्गणायां स्थावरकायमिथ्यादृष्ट्यादिसयोगान्तं आहारी भवति । तत्र जीवसमासाश्चतुर्दश २० मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतसयोगानां कार्मणयोगावसरे अयोगिसिद्धयोश्च अनाहारो ज्ञातव्यः । तत्र जीवसमासा अपर्याप्ताः सप्त । अयोगस्य चकः ॥६९८॥ अथ गुणस्थानेषु जीवसमासानाहअसंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यन्त मिथ्यावृष्टि गुणस्थानमें ही होता है। नियमसे उसमें बारह जीवसमास होते हैं,क्योंकि संज्ञी सम्बन्धी दो जीवसमास नहीं होते ॥६९७॥ ।
आहारमार्गणामें स्थावरकाय मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगकेवलिपर्यन्त आहारी होता है। उसमें जीवसमास चौदह होते हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत, और सयोगकेवली २५ के कार्मणयोगके समय तथा अयोगी और सिद्धोंमें अनाहारी जानना। उसमें जीवसमास अपर्याप्त सम्बन्धी सात होते हैं और अयोगीके एक पर्याप्त होता है ॥६९८॥
अब गुणस्थानोंमें जीवसमासोंको कहते हैं
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९१८
गो० जीवकाण्डे मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु पदिनाल्कुंजीवसमासगप्पुवु। सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळमविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं प्रमत्तविरतनोळं च शब्ददिदं सयोगकेवलिगुणस्थानदोळमितु नाल्कुं गुणस्थानंगळोळु संज्ञिपंचेंद्रियपातापर्याप्तजीवसमासद्वयं प्रत्येकमक्कुं। शेषमिश्रदेशसंयताप्रमत्ता पूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायोपशांतकषायक्षीणकषायगुणस्थानाष्टकदोळमपि-शब्ददिंदमयोगिगुणस्थानदोळमितु नवगुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं संजिपंचेंद्रियपर्याप्तजीवसमासेयो देयकुं:मि । सा । मि । अ । दे। प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी। स । अ १४ । २ । १ । २।१।२।१।१।१ ।१।१।१ ।२। १ अनंतरं माग्गंगास्थानंगळोळ जीवसमासेयं सूचिसिदपं:
तिरियगदीए चोद्दस हवंति सेसेसु जाण दोद्दो दु ।
मग्गणठाणस्सेवं याणि समासठाणाणि ||७००॥
तिर्यग्गतौ चतुर्दश भवंति शेषेषु जानीहि द्वौ द्वौ तु। मागंणास्थानस्यैवं जयानि समास१० स्थानानि ॥
__तिय्यंगतियोळ जीवसमासंगळु पदिनाल्कुमप्पुवु । शेषनारकदेवमनुष्यगतिगळोळ प्रत्येक संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तजीवसमासद्वयमक्कुं। तु मत्ते एवमी प्रकारविंद मार्गणास्थानंगळेनितोळवनितक्कुं। जीवसमासस्थानंगळु यथायोग्यमागि मुंपेळ्द क्रमदिनरियल्पडुवुवु । अनंतरं गुणस्थानंगळोळ पर्याप्तिप्राणंगळं निरूपिसिदपरु:
पज्जत्ती पाणावि य सुगमा भाविदियं ण जोगिम्मि ।
तहि वाचुस्सासाउगकायत्तिगदुगमजोगिणो आऊ ॥७०१।। पर्याप्तयः प्राणाः अपि च सुगमाः भावेंद्रियं न योगिनि । तस्मिन्वागुच्छ्वासायुः कायास्त्रिकद्विकमयोगिनः आयुः॥
मिथ्यादृष्टौ जीवसमासाश्चतुर्दश, सासादने अविरते प्रमत्ते चशब्दात् सयोगे च संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ । २० शेषाष्टगुणस्थानेषु 'दु'शब्दात् अयोगे च संज्ञिपर्याप्त एवैकः ॥६९९॥ अथ मार्गणास्थानेषु तान् सूचयति
तिर्यग्गती जीवसमासाश्चतुर्दश भवन्ति शेषगतिषु संज्ञपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ। तु-पुनः सर्वमार्गणास्थानानां यथायोग्यं प्रागुक्तक्रमेण जीवसमासा ज्ञातव्याः ॥७००॥ अथ गुणस्थानेषु पर्याप्तिप्राणानाह
मिथ्यादृष्टि में चौदह जीवसमास होते हैं । सासादन, अविरत, प्रमत्त और च शब्दसे सयोगीमें संज्ञी'पर्याप्त और अपर्याप्त दो जीवसमास होते हैं। शेष आठ गुणस्थानोंमें और २५ अपि शब्दसे अयोगकेवलीमें एक संज्ञी पर्याप्त ही होता है ॥६९९।।
अब मार्गणाओंमें जीवसमास कहते हैं :
तिर्यंचगतिमें चौदह जीवसमास होते हैं। शेष गतियों में संज्ञीपर्याप्त, अपर्याप्त दो जीव-समास होते हैं। इस प्रकार सब मागणास्थानोंमें यथायोग्य पूर्वोक्त क्रमसे जीवसमास
जानना ||७००॥ ३० गुणस्थानोंमें पर्याप्ति और प्राण कहते हैं
१. मु.°षु अपित्रयदात् ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९१९ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोवल्गोंडु पविनाल्कु गुणस्थानंगळोळु पर्याप्तिगळं प्राणंगळू पृथक्कागि पेळल्पडवेक दोर्ड सुगमंगळप्पुरिदमदतेंदोडे क्षीणकषायगुणस्थानपर्यंत प्रत्येकमारुपर्याप्तिगळं दशप्राणंगळुमप्पुबु । सयोगिकेवलिभट्टारकनोळ भावेंद्रियमिल्ल। द्रव्येद्रियापेक्षयिनारं पर्याप्तिगळोळवु वाग्बलप्राणमुमुच्छ्वासनिश्वासप्राणमुमायुःप्राणमुं कायबलप्राणमें बो नाल्कु प्राणंगळप्पुवु । उलिदिद्रिय प्राणंगळय्दुं मनोबलप्राणमुं संभविसवु। आ सयोगकेवलिगे वाग्योगं निलुत्तिरलु मूरु प्राणंगळप्पुवु । उच्छ्वासनिःश्वासनुपरतमागुत्तिरलूमेरडेप्राणंगळप्पुवु। अयोगि भट्टारकनोळ आयुष्यप्राणमो देयक्कु। पूर्वसंचितनोकर्मकर्मसंचयं प्रतिसमयमेकैकनिषेकस्थितिगळिसि चरमसमयदोळु किंचिन्न्यूनद्वयर्द्धगुणहानिमात्रनोकर्मसंचयमुं कर्मसंचयमुमुदयिसि द्रव्याथिकनयापेक्षेयिंदमयोगिचरमसमयदोळ कर्ममुं नोकर्म, कट्टवु पर्यायाथिकनयापेक्षयिननंतरसमयदोळिकडुत्तिरलु लोकाग्रनिवासि सिद्धपरमेष्ठियप्पने बुदु तात्पर्य । अनंतर गुणस्थानंगळोळु संज्ञेगळं पेळ्दपरु :
छट्ठोत्ति पढमसण्णा सकज्ज सेसा य कारणावेक्खा ।
पुढ्यो पढमणियट्टी सुहुमोत्ति कमेण सेसाओ ॥७०२॥ षष्ठपय्यंतं प्रथमसंज्ञा सका- शेषाश्च कारणापेक्षाः । अपूर्वप्रथमानिवृत्ति सूक्ष्मपय्यंतं क्रमेण शेषाश्च ॥
मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि प्रमत्तगुणस्थानपर्यंतमूलं गुणस्थानंगळोळु सकार्यमप्पाहारादिचतुःसंज्ञेगळमप्पुवा षष्ठनल्लि आहारसंज्ञे व्युच्छित्तियाय्तु । उपरितनगुणस्थानदोळऽभावमं
चतुर्दशगुणस्थानेषु पर्याप्तयः प्राणाश्च पृथक् नोच्यन्ते सुगमत्वात् । तथाहि-क्षीणकषायपर्यन्तं षट्पर्याप्तयः दश प्राणाः । सयोगजिने भावन्द्रियं न, द्रव्येन्द्रियापेक्षया षट्पर्याप्तयः वागुच्छ्वासनिश्वासायुःकायप्राणाश्चत्वारि भवन्ति । शेषेन्द्रियमनःप्राणाः षट् न सन्ति । तत्रापि वाग्योगे विश्रान्ते त्रयः । पुनः २० उच्छवासनिश्वासे विधान्ते द्वौ । अयोगे आयुः प्राण एकः । प्रासंचितनोकर्मकर्मसंचयः प्रतिसमयमेकैकनिषेक गलन् किंचिदूनद्वयर्धगुणहानिमात्रो द्रव्यार्थिकनयेन अयोगिचरमे विनश्यति पर्यायाथिकनयेन अनन्तरसमये एवेति तात्पर्यम् ॥७०१॥ अथ गुणस्थानेषु संज्ञा आह
मिथ्यादृष्टयादिप्रमत्तान्तं सकार्याः आहारादिचतस्रः संज्ञा भवन्ति । षष्ठगुणस्थाने आहारसंज्ञा
चौदह गुणस्थानों में पर्याप्ति और प्राण पृथक् नहीं कहे हैं ; क्योंकि सुगम है। यथा- २५ क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त छह पर्याप्तियाँ और दस प्राण होते हैं । सयोगकेवलीमें भावेन्द्रिय नहीं है। उनके द्रव्येन्द्रियकी अपेक्षा छह पर्याप्तियाँ हैं और वचनबल, उच्छ्वास-निश्वास, आयु और कायबल ये चार प्राण होते हैं। शेष इन्द्रियाँ और मन ये छह प्राण नहीं हैं। उन चार प्राणों में से भी वचनयोगके रुक जानेपर तीन रहते हैं, पुनः उच्छ्वास-निश्वासका निरोध होनेपर दो रहते हैं। अयोगकेवलीके एक आयुप्राण होता है। पूर्व संचित कर्मनोकर्मका संचय प्रतिसमय एक-एक निषेक गलते-गलते किंचित न्यन डेढ गणहानि प्रमाण रहता है। सो द्रव्यार्थिक नयसे तो अयोगीके अन्तिम समयमें नष्ट होता है और पर्यायार्थिक नयसे अनन्तर समयमें नष्ट होता है ।।७०१।।
गुणस्थानोंमें संज्ञा कहते हैंमिथ्यादृष्टिसे लेकर प्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त आहार आदि चारों संज्ञाएँ कार्यरूपमें ३५
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९२०
गो. जीवकाण्डे व्युच्छित्तिय बुदु, मेले अप्रमत्तादिगळोल कारणास्तित्वापेक्षयिदं। अपूर्वकरणपय्यंतं भयमैथुनपरिग्रह संज्ञगळ कार्यरहितंगळप्पुषु । आ अपूर्वकरणनोळु भयसंज्ञे व्युच्छित्तियादुदु अनिवृत्तिकरणप्रथमभागं सवेदभागे आ भाग पय्यंतं कार्यरहितंगळप्प मैथुनपरिग्रहसंज्ञगळप्पुवु । आ अनिवृत्तिकरणप्रथमभागकालदोळ मैथुनसंज्ञे व्युच्छित्तियादुदु । सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळ परिग्रह संज ५ व्युच्छित्तियादुदु । मेले उपशांतादिगुणस्थानंगळोळु कार्यरहितमादोडं संज्ञेगळिल्ल एके दोड
"कारणाभावे कार्यस्याप्यभावः" एंबी न्यादिदं संज्ञगळभावमक्कु :मि । सा । मि । अ । दे। प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी। स । अ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ३।३।२।१ । । ० । ० । ।
मग्गण उवजोगावि य सुगमा पुव्वं परूविदत्तादो ।
गदियादिसु मिच्छादी परूविदे रूविदा होति ॥७०३।। मार्गणोपयोगा अपि च सुगमाः पूर्व प्ररूपितत्वात् । गत्यादिषु मिथ्यादृष्टयादौ प्ररूपिते रूपिता भवंति ॥
___ गुणस्थानंगळ मेले मार्गणेगळुमं उपयोगमुमं पेळ्वातं सुगममेंदु पेवुदिल्लवेके बोडे पूर्वमुन्नं प्ररूपितमप्पुरदं । आवडेयोळ प्ररूपितमादुदें दोडे गत्यादिमागंणास्थानंगळोळु मिथ्या१५ दृष्टयादिगुणस्थानंगळं जीवसमासेगळं पेळल्पदृवदु कारणमागियल्लि पेळल्पडुत्तिरलिल्लियु
पेळल्पट्टवेयप्पुर्व दरिदु । आदोडं मंदबुद्धिगळनुग्रहात्थं पेळ्दपेमुमते दोडे :-नरकादिगतिनाम
व्युच्छिन्ना । शेषास्तिस्रः अप्रमत्तादिषु कारणास्तित्वापेक्षया अपूर्वकरणान्तं कार्यरहिता भवन्ति । तत्र भयसंज्ञा व्युच्छिन्ना । अनिवृत्तिकरणप्रथमसवेदभागान्तं कार्यरहिते मैथुनपरिग्रहसंज्ञे स्तः । तत्र मैथुनसंज्ञा न्युच्छिन्ना ।
सूक्ष्मसांपराये परिग्रहसंज्ञा व्युच्छिन्ना। उपरि उपशान्तादिषु कार्यरहिता अपि संज्ञा न संति कारणाभावे २० कार्यस्याप्य भावात् ॥७०२॥
गुणस्थानेषु मार्गणा उपयोगाश्च वक्तुं सुगमा इति नोच्यन्ते पूर्व प्ररूपितत्वात् । क्वेति चेत् ? मार्गणासु गुणस्थानजीवसमासेषु उक्तेषु उक्ता भवन्ति । तथापि मन्दबुद्धयनुग्रहार्थमुच्यन्ते तद्यथा
रहती हैं। छठे गुणस्थानमें आहार संज्ञाका विच्छेद हो जाता है। शेष तीन संज्ञा अप्रमत्त
आदिमें कारणका सद्भाव होनेसे हैं वैसे कार्यरहित हैं । अपूर्वकरणमें भय संज्ञाका विच्छेद २५ हो जाता है । अनिवृत्तिकरणके प्रथम सवेद भाग पर्यन्त कार्यरहित मैथुन और परिग्रह संज्ञा
रहती है। वहाँ मैथुन संज्ञाका विच्छेद हो जाता है। सूक्ष्म साम्परायमें परिग्रह संज्ञाका विच्छेद हो जाता है। ऊपर उपशान्त कषाय आदिमें कार्यरहित भी संज्ञा नहीं है। क्योंकि कारणके अभावमें कार्यका भी अभाव हो जाता है ।।७०२॥
गुणस्थानोंमें मार्गणा और उपयोगका कथन सरल होनेसे नहीं कहा है। पहले कह ३० आये हैं क्योंकि मार्गणाओंमें गुणस्थान और जीवसमासके कहनेसे उनका कथन हो जाता
है। फिर भी मन्द बुद्धियोंके अनुग्रह के लिए कहते हैं
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कर्णावृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
कर्मोदयजनितनारका पर्य्यायंगळे गतिगळप्पुदरिदं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ पर्याप्तापर्याप्त नारकरूं पर्य्याप्तापर्य्याप्त तिरियंचरुं पय्र्याप्तापर्य्याप्तमनुष्यरुं पय्र्याप्तापर्य्याप्तिदेव वर्कऴुमितु नाकु गतिजीवरुमप्परु । सासादनगुणस्थानदोळु पर्याप्तनारकरु पर्याप्तापर्य्याप्ततिय्र्य्यचरु पर्याप्तापर्याप्तमनुष्यरु पर्याप्तापर्य्याप्तदेव कंळुमप्पर । मिश्रगुणस्थानदोळ पर्य्याप्तनारकरु पर्याप्ततिय्यंचरु पर्याप्तमनुष्यरु पर्याप्तदेवर्कद्रुमप्परु | असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळ घर्मेय पर्याप्तापय्र्याप्तनारक रुळिद षड्भूमिगल पर्य्याप्तनारकरु भोगभूमिजपर्य्याप्ताऽपर्याप्ततिय्यंचरु कर्मभूमि पर्याप्ततिर्य्यचरुं भोगभूमिजपर्याप्तापय्र्याप्तमनुष्यरुं कर्म्मभूमिजपर्याप्तापर्याप्तमनुष्य भवनत्रय वज्जितपय्र्याप्ताऽपर्याप्त देववर्कद्धुं भवनत्रयपर्य्याप्तिदेवकर्कलं संभविसुवरु । देश संयत गुणस्थानदो पर्याप्तकर्मभूमिजतिय्यंचरुं मनुष्यरुं संभविसुवरु । प्रमत्तगुणस्थानदोळ पर्य्याप्तमनुष्यरुमाहारकऋद्धिप्राप्तप्रमत्तापेक्षयिदमाहारकशरीरपर्याप्तापर्याप्त मनुष्य रुमोळरु ।
अप्रमत्तगुणस्थानं मोदगोंडु क्षीणकषायगुणस्थानपय्र्यंतमारु गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं पर्याप्तमनुष्यनेयवकुं । सयोग के वलिगुणस्थानदोळ पर्याप्त मनुष्य रेयप्परु । समुद्घातकेवल्यपेक्षयदं औदारिकमिश्रकाययोगिगळं कार्म्मणकाययोगिगळप्प अपर्याप्तमनुष्यरुमप्परु । अयोगिकेवलि गुणस्थानदो पर्याप्त मनुष्यरेयपरु ।
मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । ४ । ४ । ४ । ४ । २ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ ।
नरकादिगतिनामोदय जनिता नारकादिपर्यायाः गतयः । तेन मिथ्यादृष्टौ नारकादयः पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । १५ सासादने नारकाः पर्याप्ताः शेषाः उभये । मिश्रे सर्वे पर्याप्ता एव । असंयते घर्मानारकाः उभये, शेषनारकाः पर्याप्त एव । भोगभूमितिर्यग्मनुष्याः कर्मभूमिमनुष्याः वैमानिकाश्च उभये । कर्मभूमितिर्यञ्चो भवनत्रयदेवाश्च पर्याप्ता एव । देशसंयते कर्मभूमितिर्यग्मनुष्याः पर्याप्ताः । प्रमत्ते मनुष्याः पर्याप्ताः, साहारकर्द्धयस्तु उभये । अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्ताः पर्याप्ताः । संयोगिनि उभये । अयोगिनि पर्याप्ता एव ।
१. ब सयोगिन उ । २. ब अयोगिन ।
११६
९२१
नरक आदि गतिनाम कर्म के उदयसे उत्पन्न हुई नरकादि पर्यायोंको गति कहते हैं । २० इससे मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें नारक आदि पर्याप्त और अपर्याप्त होते हैं । सासादन में नारकी पर्याप्त ही होते हैं, शेष तिर्यंच आदि पर्याप्त अपर्याप्त दोनों होते हैं । मिश्रगुणस्थान में सब पर्याप्त ही होते हैं। असंयत गुणस्थान में प्रथम नरकके नारकी पर्याप्त अपर्याप्त दोनों होते हैं। शेष नारकी पर्याप्त ही होते हैं । भोगभूमिके तियंच, मनुष्य, कर्मभूमि के मनुष्य और वैमानिक पर्याप्तक- अपर्याप्तक दोनों होते हैं। कर्मभूमिके तिर्यंच और भवनत्रिकके देव २५ पर्याप्त ही होते हैं । देशसंयत में कर्मभूमिके तियंच और मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं। प्रमत्त गुणस्थान में मनुष्य पर्याप्त ही होते हैं। आहारक ऋद्धिवाले पर्याप्त अपर्याप्त दोनों होते हैं । अप्रमत्तसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त पर्याप्त होते हैं । सयोगीमें दोनों होते हैं। अयोगी में पर्याप्त ही होते हैं ।
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गो० जीवकाण्डे एकेंद्रियादिजातिनामकर्मोदयजनितजीवपर्यायक्किद्रियव्यपदेशमक्कुमा यिद्रियमार्गणेगळेकेंद्रियादिपंचप्रकारमप्पुवु। मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु पर्याप्तापर्याप्तकद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियंगळय्दुमप्पुवु।
सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु एकेंद्रियादिपंचेंद्रियपय्यंतमादय्दुमपर्याप्तजीवंगळं पर्याप्त५ पंचेंद्रियजीवंगळुमप्पुवु । मिश्रगुणस्थानदोळु पर्याप्तपंचेंद्रियमो देयक्कुं । असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु पर्याप्ताऽपर्याप्तसंज्ञिपंचेंद्रियजीवंगळेयप्पुवु । देशसं यतगुणस्थानदोळु पर्याप्तपंचेंद्रियमो देयककुं। प्रमतगुणस्थानदोळु पर्याप्तपंचेंद्रियमो देयक्कुमल्लि आहारकऋद्धियुक्तनोळ तद्ऋद्धचपेक्षायदं पर्याप्तापर्याप्ताहारकशरीरपंचेंद्रियमुमक्कुं। अप्रमत्तगुणस्थानदोळु मेले क्षीण
कषायगुणस्थानपर्यंत आरु गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं पर्याप्तपंचेंद्रियमेयक्कुं। सयोगकेवलिगुण१० स्थानदोजुपर्याप्तपंचेंद्रियमेयक्कुमल्लि समुद्घातकेवल्यपेक्षयिदं मुं पेन्दंतऽपर्याप्तपंचेंद्रियमुमक्कुं।
अयोगिकेवलिगुणस्थानदोळु पर्याप्तपंचेंद्रियमेयकुंमि । सा । मि । अ । दे। प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ ।
पृथ्वीकायादिविशिष्टैकेंद्रियजातिस्थावरनामकर्मोददिदमुं त्रसनामकर्मोदयविदामाद जीवपर्यायक्क कायत्वव्यपदेशमक्कुमा कायत्वमुं पृथ्विकायिकमुमप्कायिकमुं तेजस्कायिक, वातकायिकमुं
वनस्पतिकायिकमुमेंदुं त्रसकायिक में दितु षड्भेदमक्कुं। मिथ्या दृष्टिगुणस्थानदोळु पर्याप्तापर्याप्त१५ षड्जीवनिकायमक्कं । सासादनगुणस्थानदोळु बादरपृथ्विअब्वनस्पत्यपर्याप्तकायिकंगळं द्वित्रिचतुः
पंचेंद्रियासंज्ञि अपर्याप्तत्रसकायिकंगळ संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्तत्रसकायिकंगळुमितु षड्जीव
एकेन्द्रियादिजातिनामोदयजनितजीवपर्यायः इन्द्रियं तन्मार्गणाः एकेन्द्रियादयः पञ्च। ताः मिथ्यादष्टी पर्याप्तापर्याप्ताः पञ्च । सासादने अपर्याप्ताः पञ्च पर्याप्तपञ्चेन्द्रियश्च । मिश्रे पर्याप्तपञ्चेन्द्रिय एव । असंयते स
उभयः । देशसंयते पर्याप्तः । प्रमत्ते पर्याप्तः । साहारकधिस्तुभयः । अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तेषु पर्याप्त एव । २० सयोगे पर्याप्तः । समुदघाते तुभयः । अयोगे पर्याप्त एव ।
पृथ्वीकायादिविशिष्टैकेन्द्रियजातिस्थावरनामोदयत्रसनामोदयजाः षड्जीवपर्यायाः कायाः। ते मिथ्यादृष्टी पर्याप्ता अपर्याप्ताश्च । सासादने बादरपृथ्व्यब्वनस्पतिस्थावरकायाः द्वित्रिचतुरिन्द्रियाऽसंज्ञित्रसकायाश्चा
एकेन्द्रिय आदि जातिनामकर्मके उदयसे उत्पन्न हुई जीवकी पर्याय इन्द्रिय है। उसकी मार्गणा एकेन्द्रिय आदि पाँच हैं। वे पाँचों मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें पर्याप्त-अपर्याप्त होते हैं। २५ सासादनमें अपर्याप्त तो पाँचों हैं,पर्याप्त एक पंचेन्द्रिय ही है। मिश्रमें पर्याप्त पंचेन्द्रिय ही है।
असंयतमें पंचेन्द्रिय पर्याप्त-अपर्याप्त दोनों है। देशसंयतमें पर्याप्त है। प्रमत्तमें पर्याप्त है आहारक ऋद्धिवाला दोनों है। अप्रमत्तसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त पर्याप्त ही है। सयोगकेवलीमें पर्याप्त है, किन्तु समुद्घातमें दोनों है। अयोगीमें पर्याप्त ही है।
पृथ्वीकाय आदि विशिष्ट एकेन्द्रियादि जाति और स्थावर नामकर्म तथा त्रसनाम३० कर्मके उदयसे उत्पन्न हुई छह जीवपर्यायोंको काय कहते हैं। वे मिथ्यादृष्टिमें पर्याप्त और
अपर्याप्त होते हैं । सासादनमें बादर, पृथिवी,जल और वनस्पति स्थावरकाय तथा दोइन्द्रिय,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
निकायमप्पुवु । मिश्रगुणस्थानदोळु पर्याप्तपंचेंद्रियत्रस कायिकमेयक्कुं । असंयतगुणस्थानदोळु पर्याप्त पर्याप्त संज्ञिपंचेंद्रियत्र स कायिकमेयक्कं । देशसंयतगुणस्थानदोळु पर्याप्तसंज्ञिपंचेंद्रियत्रसकायिक मेक्कु । प्रमत्तगुणस्थानदोळु संज्ञिपंचेंद्रियपय्र्याप्तत्रसकायिक मक्कुम लियाहारक ऋद्धिप्राप्तनोळु आहारकशरीरपंचेंद्रियपर्याप्तापर्य्याप्तत्र सकायिकमक्कु । अप्रमत्तगुणस्थानं मोदगोंड क्षीणकषाय गुणस्थानपर्यंत मारुं गुणस्थानंगळोळ प्रत्येकं पर्याप्त पंचेंद्रियत्रसकायिकमेयवकुं । सयोगकेवलिगुणस्थानदोळ पर्याप्तसंज्ञिपंचेद्रियत्रसकायिकमक्कुमल्लि समुद्घातसयोगकेवलि भट्टारकनो औदारिकमिश्रयोगमुं कार्म्मणकाययोगमुमुळ्ळु दरिदमपर्याप्तपंचेंद्रियत्रसकायिकमुमक्कुं । अयोगिकेवलिभट्टारकनोळु पर्याप्त पंचेंद्रियत्रसकायिकमक्कं
५
मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । ६।६।१ । १ । १ । १ । १ । १ । १ 1 १ । १ । १ । १ ।
९२३
पुद्गलविपाकिश रोरांगोपांगनामकम्र्मोदयंगळदं मनोवचनकाययुक्तमप्प जीवक्के कम्मैनोकर्म्मागमनकारणमप्पुदावुदो दु शक्ति जीवप्रदेशपरिस्पंदसंभूतमदु योगर्म बुदक्कुमदु मनोवचनकाय - १० प्रवृत्तिभेर्दाद त्रिविधमक्कुमल्लि वीर्य्यातरायनोइंद्रियावरणक्षयोपशर्मादिदमंगोपांगनामकम्मोंदर्याददं - मनःपर्य्याप्तियुक्तंगे मनोवर्गणायात पुद्गलस्कंधंगळगे अष्टच्छदाविदाकारदिदं हृदयदोळु निर्माणनामकर्मोदयसंपादितद्रव्यमनः पद्मपत्रग्रगलोळु नोइंद्रियक्षयोपशमजीवप्रदेशप्रचयदोळु लब्ध्युपयोगलक्षणभावेंद्रियं मनमें बुदक्कुमा मनोव्यापारमं मनोयोग में बुदा मनोयोगमुं सत्याद्यत्थं पर्याप्ताः संज्ञित्रसकायः उभयश्चेति षड्जीवनिकायः । मिश्र संज्ञिपञ्चेन्द्रियत्रसकायपर्याप्त एव । असंयते उभयः, १५ देशसंयते पर्याप्त एव । प्रमत्ते पर्याप्तः । साहारकधिस्तूभयः । अप्रमत्तादिक्षीणकषायान्तेषु पर्याप्त एव । सयोगे पर्याप्तः । ससमुद्घाते तूभयः । अयोगे पर्याप्त एव ।
अ |
१ ।
पुद्गलविपाकिशरीराङ्गोपाङ्गनामकर्मोदयैः मनोवचनकाययुक्तजीवस्य कर्मनो कर्मागमकारणा या शक्तिः तज्जनित जीव प्रदेशपरिस्पन्दनं वा योगः स च मनोवचनकायवृत्तिभेदात्त्रेधा । तत्र वीर्यान्तरायनोइन्द्रियावरणक्षयोपशमेन अङ्गोपाङ्गनामोदयेन च मनःपर्याप्तियुक्तजीवस्य मनोवर्गणायातपुद्गलस्कन्वानां अष्टच्छदारविन्दा- २० कारेण हृदये निर्माणनामोदयसंपादितं द्रव्यमनः । तत्पत्राग्रेषु नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमयुक्तजीवप्रदेश प्रचये तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय त्रसकाय अपर्याप्त होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रिय
काय दोनों होते हैं । इस प्रकार इस गुणस्थान में छहों जीवनिकाय होते हैं। मिश्र में संज्ञी पंचेन्द्रिय काय पर्याप्त ही है । असंयत में दोनों हैं । देशसंयत में पर्याप्त ही है । प्रमत्तमें पर्याप्त है । आहारक ऋद्धि सहित दोनों हैं । अप्रमत्तसे क्षीणकषायपर्यन्त दोनों हैं । सयोगी में पर्याप्त है। समुद्घात में दोनों हैं। अयोगीमें पर्याप्त ही है ।
२५
पुद्गलविपाकी शरीर और अंगोपांग नामकर्मके उदय के साथ मन-वचन-काय से युक्त जीवके कर्म- नोकर्म के आनेमें कारण जो शक्ति है अथवा उसके द्वारा होनेवाला जो जीवके प्रदेशोंका चलन है, वह योग है । वह मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति के भेदसे तीन प्रकारका है । वीर्यान्तराय और नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे तथा अंगोपांगनाम कर्मके उदयसे मन:पर्याप्ति से युक्त जीवके मनोवर्गणारूपसे आये हुए पुद्गल स्कन्धोंका आठ पांखुडीके कमलके आकार से हृदय में निर्माणनाम कर्मके उदयसे रचा गया द्रव्यमन है । उन पाँखुड़ी के अग्रभागों में
३०
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गो० जीवकाण्डे विषयभेददि चतुम्विधमक्कुं। भाषापर्याप्तियोळ्कूडिद जीवक्के शरीरनामकर्मोददिदं स्वरनामकर्मोदयसहकारिकारदिदं भाषावर्गणायातपुद्गलस्कंधंगळगे चतुविधभाषारूपदिदं परिणमनं वाग्योगमक्कुमदु सत्याद्यर्थवाचकवदिदं चतुविधमक्कुमौदारिकवैक्रियिकाहारकशरीरनामकर्मोदयंगळिदमाहारवर्गणायातपुद्गलस्कंधंगळ्गे निर्माणनामकर्मोदयनिर्मापित तत्तच्छरीरपरिणमनपरिणतियोळु पुट्टिद जोवप्रदेशपरिस्पंदमौदारिकादिकाययोगमक्कुं। तच्छरीरपर्याप्तिकालं समयोनांतर्मुहूर्तपयंतं तन्मिश्रकाययोगमक्कुमवक्के मिश्रत्वव्यपदेशमे ते दोडे औदारिकादिनोकर्मशरीरवर्गणेगळनाहरिसुवल्लि स्वतः सामर्थ्याऽसंभवमप्पुरिदं कार्मणवर्गणासव्यपेक्षमप्पुरिदं मिश्रव्यपदेशमक्कुं। विग्रहगतियोळ औदारिकादिनोकर्मवर्गणेगळनाहार मागुत्तिरलु कार्मणशरीरनामकर्मोददिदं कार्मणवर्गणायातपुद्गलस्कंधंगळ्रो ज्ञानावरणादिकर्मपर्यायदिदं जीवप्रदेशंगळोळ बंधप्रघट्टदोळ पुट्टिद जीवप्रदेशपरिस्पदं कार्मणकाययोगमें बुदनितुं कूडि योगंगळ पदिनैदप्पुवु ॥ लब्ध्युपयोगलक्षणं भावमनः तद्व्यापारो मनोयोगः । स च सत्याद्यर्थविषयभेदाच्चतुर्धा। भाषापर्याप्तियुक्तजीवस्य शरीरनामोदयेन स्वरनामोदयसहकारिकारणेन भाषावर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां चतुर्विधभाषारूपेण परिणमनं वाग्योगः। सोऽपि सत्याद्यर्थवाचकत्वेन चतुर्धा । औदारिकर्वक्रियिकाहारकशरीरनामोदयः आहारवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां निर्माणनामोदयनिर्मापिततत्तच्छरीरपरिणमनपरिणती उत्पन्नजीवपरिस्पन्दः औदारिकादिकाययोगः। तत्तच्छरीरपर्याप्तिकाले समयोनान्तर्मुहूर्तपर्यन्तं तत्तन्मिश्रकाययोगः। अस्य च मिश्रत्वव्यपदेशः औदारिकादिनोकर्मशरीरवर्गणाहरणे स्वतः सामर्थ्यासंभवेन कार्मणवर्गणासव्यपेक्षत्वात् । विग्रहगती औदारिकादिनोकर्मवर्गणानां अनाहरणे सति कार्मणशरीरनामोदयेन कार्मणवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां
ज्ञानावरणादिकमैपर्यायेण जीवप्रदेशेषु बन्धप्रघट्टके उत्पन्नजीवप्रदेशपरिस्पन्दः कार्मणकाययोगः, एवं योगाः २० पञ्चदश ॥७०३॥
जो नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे युक्त जीवप्रदेश है ; उनमें लब्धि उपयोग लक्षणवाला भावमन है। उसके व्यापारको मनोयोग कहते हैं। वह सत्य-असत्य आदि अर्थविषयक भेदसे चार प्रकारका है। भाषा पर्याप्ति से युक्त जीवके शरीर नाम कर्म के उदयसे और स्वर नाम
कर्मके उदयकी सहायतासे भाषावगणाके रूपमें आये हुए पुद्गल स्कन्धोंका चार प्रकारको २५ भाषाके रूपसे परिणमन वचनयोग है। वह भी सत्य आदि अर्थका वाचक होनेसे चार
प्रकारका है । औदारिक, वैक्रियिक, और आहारक शरीरनाम कर्मके उदयसे आहार वर्गणाके रूपमें आये पुद्गल स्कन्धोंका निर्माणनाम कर्मके उदयसे रचित उस-उस शरीररूप परिणमन होनेपर जो जीवमें परिस्पन्द होता है,वह औदारिक आदि काययोग है। उस-उस शरीर
पर्याप्तिके कालमें एक समय हीन अन्तर्मुहूर्त काल तक औदारिक आदि मिश्रकाययोग होता ३० है। इसको मिश्र कहनेका कारण यह है कि औदारिक आदि नोकर्म शरीर वर्गणाओंके
आहरणमें स्वयं समर्थ न होनेसे कार्मणवर्गणाकी अपेक्षा करता है। विग्रहगतिमें औदारिक आदि नोकर्म वर्गणाओंका ग्रहण न होनेपर कार्मण शरीर नामकर्मके उदयसे कार्मणवर्गणा रूपसे आये पुद्गल स्कन्धोंका ज्ञानावरण आदि कर्मपर्याय रूपसे जीवके प्रदेशोंमें बन्ध
होनेपर उत्पन्न हुआ जीवके प्रदेशोंका हलन-चलन कार्मण काययोग है। इस प्रकार योग ३५ पन्द्रह होते हैं |७०३॥
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९२५ तिसु तेरं दस मिस्से सत्तसु णव छट्ठयम्मि एक्कारा ।
जोगिम्मि सत्त योगा अजोगिठाणं हवे सुण्णं ॥७०४॥ त्रिषु त्रयोदश दश मिश्रे सप्तसु नव षष्ठे एकादश। योगिनि सप्तयोगाः अयोगिस्थान भवेत् शून्यं ॥
मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु आहारकाहारकमिश्रकाययोगिगळं वज्जिसि शेषत्रयोदशयोगयुक्त- ५ रप्परु । सासादनगुणस्थानदोळं अंते पदिमूरु योगयुक्तजीवंगगळप्पुवु। मिश्रगुणस्थानदोळु मतमापदिमूरुं योगंगळोळमौदारिकमिश्रवैक्रियिकमिश्रकामणकाययोगंगळं कळेदु शेष पत्तुं योगयुक्तजीवंगळप्पुवु । असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानदोळु सासादननोळपेन्दंते पदिमूरुं योगयुक्तजीवंगळप्पुवु । देशसंयताप्रमत्तापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसूक्ष्मसांपरायोपशांतकषायक्षीणकषायगुणस्थानसप्तकरोल मनोवाग्योगिगळेण्बरु मौदारिकाययोगिगळुमितु ओभत्तु योगिगळप्परु।
प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळु आहारकाहारकमिश्रयोगिगळं कूडुत्तिरलं पन्नोंदु योगयुक्तजीवंगळप्पुवु। सयोगभट्टारकरोळु सत्यानुभयमनोवाग्योगंगळु नाल्कुमौदारिकमौदारिकमिश्रकामणकाययोगमुमितु सप्तयोगयुक्तरप्परु । अयोगिकेवलिभट्टारकनोळ योगं शून्यमक्कुंमि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । १३ । १३ । १० । १३ । ९ । ११ । ९ । ९ । ९ । ९ । ९ । ९ । ७ । ० ।
__ मोहनीयप्रकृतिगळोळु नोकषायभेदंगळप्पस्त्रीपुंनपुंसकवेदोदयंगळिदं स्त्रीपुंनपुंसकवेदि- १५ गळप्पर । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदल्गोंडु अनिवृत्तिकरणसवेदभागिपर्यंतं मूस वेदिगळप्परु । अनिवृत्तिकरणगुणस्थानद्वितीय भागं मोदल्गोंडयोकेवलिगुणस्थानपय्यंतमवेदिगळप्परुमि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । ३। ३ । ३ । ३ । ३ । ३ । ३ । ३ । ३ । ० । ० । ० । ० । ० ।
उक्तपञ्चदशयोगेषु मध्ये मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतेषु त्रयोदश त्रयोदश भवन्ति आहारकतन्मिश्रयोः प्रमत्तादन्यत्राभावात । मिश्रगणस्थाने तेष्वपर्याप्तयोगत्रयं नेति दश। उपरि क्षीणकषायान्तेषु सप्तम् तत्रापि वैक्रियिकयोगाभावात नव। प्रमत्तसंयते एकादश आहारकतन्मिश्र योगयोरत्र पतितत्वात । सयोगे सत्यानुभय- २० मनोवाग्योगाः औदारिकतन्मिश्रकार्मणकाययोगाश्चेति सप्त । अयोगिजिने योगो नेति शून्यम् ।
स्त्रीपुन्नपुंसकवेदोदयः तत्तन्नामवेदा भवन्ति ते त्रयोऽपि अनिवत्तिकरणसवेदभागपर्यन्तं न तत उपरि ।
उक्त पन्द्रह योगोंमें-से मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयतोंमें तेरह-तेरह योग होते हैं। क्योंकि आहारक आहारक मिश्रयोग प्रमत्तगुणस्थानसे अन्यत्र नहीं होते। मिश्रगुण स्थानमें उनमें तीन अपर्याप्त योग न होनेसे दस योग होते है। मिश्रगुणस्थानमें उनमें-से तीन अपर्याप्त योग न होनेसे दस योग होते हैं। ऊपर क्षीणकषाय पर्यन्त सात गुणस्थानोंमें २५ वैक्रियिक काययोगके न होनेसे नौ योग होते हैं। प्रमत्तसंयतमें आहारक आहारक मिश्रके होनेसे ग्यारह योग होते हैं। सयोगकेवलीमें सत्य, अनुभय, मनोयोग और वचनयोग तथा
औदारिक, औदारिक मिश्र और कार्मण काययोग इस तरह सात होते हैं । अयोगकेवलीमें योग नहीं है । स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयसे उस-उस नामवाले वेद होते हैं । वे तीनों ही अनिवृत्तिकरणके सवेद भाग पर्यन्त होते हैं, ऊपर नहीं होते। अनन्तानुबन्धी ३०
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गो० जीवकाण्डे
चारित्रमोहनीय भेदंगळप्प क्रोधचतुष्क मानचतुष्क मायाचतुष्कलोभचतुष्कंगळे यथायोग्यमागुदयमागुत्तिर क्रोधिगळं मानिगळ मायिगळ, लोभिगळ मप्परु । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ, चतुर्गतिय नानाक्रोग मानिगळ, मायिगळ ं लोभिगळ मप्पर । सासादन गुणस्थानदोळ' चतुतिय नानाक्रोधिमानिमायिलोभिगळप्पर । मिश्रगुणस्थानदोळ, अनंतानुबंधिकषायिगळ, नाल्वरु५ ळियलुदि क्रोधत्रयजीवंगळ मानत्रयजीवंगळ मायात्रयजीवंगळ, लोभत्रयजीवंगळ, मप्परु । असंयत गुणस्थानदोळ' मिश्रगुणस्थानदोळपे दंतेयप्परु | देशसंयत गुणस्थानदोळप्रत्याख्यानकषायचतुष्टयरहितमागि क्रोधद्वययुतरुं मानद्वययुतरुं मायाद्वययुतरुं लोभद्वययुतरुमप्परु । प्रमत्तगुणस्थानं मोदगो निवृत्तिकरणगुणस्थानद्वितीयभागिपर्यंतं संज्वलनक्रोधिगळप्परु | तृतीयभागिपर्यंतं संज्वलनमानिगळप्परु | चतुर्त्यभागिपर्यंतं संज्वलनमायिगळप्परु | पंचमभागिपर्यंतं संज्वलन१० बादरलोभिगळप्परु | सूक्ष्म सांपरायगुणस्थानदो सूक्ष्मसंज्वलनलोभिगळtपरु | मेलेल्लरुमकषायि
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गळप्परु :
मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । ४ । १ ।० 1
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२
१
मति श्रुतावधिमनः पर्य्ययज्ञानावरणक्षयोपशर्मादिदं पुट्टिद सम्यग्ज्ञानचतुष्टयमुं केवलज्ञानावरण निरवशेषक्षयदिनाद केवलज्ञान मुमितैढुं सम्यग्ज्ञानंगळु मिथ्यात्वकम्र्म्मादयदोळकूडिद मतिश्रुतावधिज्ञानावरणक्षयोपशमजनितमज्ञानं गळप्प कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानमें दितज्ञानत्रयं गूडि १५ मिथ्याज्ञानिगळं सम्यग्ज्ञानिगळ मेटु प्रकारमप्पर । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानिगळु मूवरुमप्पर । सासादनगुणस्थानबोळ सम्यक्त्व संयमप्रतिबंधकमप्प अनंतानुबंध्यऽन्यतमो
o
क्रोधादीनां चतुष्कचतुष्कस्य यथायोग्योदये सति क्रोधमानमायालोभा भवन्ति । ते च मिथ्यादृष्टी सासादने च चत्वारश्चत्वारः । मिश्रासंयत योविना अनन्तानुबन्धिनस्त्रयस्त्रयः । देशसंयते विना अप्रत्याख्यानकषायान् द्वौ द्वौ । प्रमत्ताद्यनिवृत्ति करणद्वितीयभागपर्यन्तं संज्वलनक्रोधः । तृतीयभागपर्यन्तं मानः । चतुर्थ२० भागपर्यंतं माया । पञ्चमभागपर्यन्तं बादरलोभः । सूक्ष्मसांपराये सूक्ष्मलोभः । उपरि सर्वेऽपि अकषाया एव । मतिश्रुतावधिमन:पर्ययज्ञानावरणक्षयोपशमेन तत् सम्यग्ज्ञानचतुष्कं । केवलज्ञानावरणनिरवशेषक्षयेण च केवलज्ञानं, मिथ्यात्वोदय सहचरितं मतिश्रुतावधिज्ञानावरणक्षयोपशमेन कुमतिकुश्रुतविभङ्गज्ञानानि च
10
आदि चारके क्रोधादि चतुष्कका यथायोग्य उदय होनेपर क्रोध, मान, माया, लोभ होते हैं । मिथ्यादृष्टि और सासादनमें चार चार होते हैं। मिश्र और असंयत में अनन्तानुबन्धी के २५ बिना तीन-तीन होते हैं। देशसंयत में अप्रत्याख्यान कषायोंके बिना दो-दो होते हैं । प्रमत्तसे अनिवृत्तिकरणके द्वितीय भाग पर्यन्त संज्वलन-क्रोध होता है। तृतीय भाग पर्यन्त मान, चतुर्थभाग पर्यन्त माया, पंचमभाग पर्यन्त बादर लोभ रहता है। सूक्ष्म साम्पराय में सूक्ष्मलोभ होता है । ऊपर सब अकषाय ही होते हैं ।
मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण और मन:पर्यय ज्ञानावरणके ३० क्षयोपशमसे चारों सम्यग्ज्ञान होते हैं। केवल ज्ञानावरणके सम्पूर्णक्षय से केवलज्ञान होता है । मिध्यात्वका उदय रहते हुए मति श्रुत-अवधिज्ञानावरणोंके क्षयोपशम से कुमति, कुश्रुत
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९२७ दयजनितमिथ्यादृष्टिये अप्प सासादननोळं कुमतिकुश्रुतविभंगंगळप्पुवु । मिश्रगुणस्थानदोळु मिश्रमतिश्रुतावधिज्ञानंगळप्पुवु । असंयतसम्यग्दृष्टियोळु आद्यसम्यग्ज्ञानत्रितयमक्कुं। देशसंयतनोळं आद्यसम्यग्ज्ञानत्रितयमुमक्कं । प्रमत्तादिक्षीणकषायपय्यंतमाद्यसम्परज्ञानचतुष्टयमुमक्कुं योगिकेवलियोळमयोगिकेवलियोळमो देकेवलज्ञानमक्कुं-- मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ ।
___ संज्वलनकषायनोकषायंगळुमंदोददिदं संयमपरिणाममक्कुमदुर्बु व्रतधारण समितिपालन- ५ कषायनिग्रहदंडत्यागेंद्रियजयस्वरूपमक्कुमिदु सामान्यदिदं सामायिकसंयममो देयक्कुंदेदोडे । सर्वसावधाद्विरतोस्मि ये बुदरोळेल्ला संयमंगळंतर्भावमुंटप्पुरिदं। विशेषदिदमसंयममेंहूँ देशसंयममें दुं सामायिकसंयममें दुं च्छेदोपस्थापनसंयममेंदु सूक्षमतापरायसंयम दुं यथाख्यातसंयममें दितु संयम सप्तविधमकुं। मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदल्गोंडसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानपय्यंतं असंयममक्कुं । देशसंयतगुणस्थानदोलु देशमयममकुं। प्रमत्तगुणस्थानमादियागि अनिवृत्तिकरण- १० गुणस्थानपर्यंतं नाल्कं गुणस्थानदो प्रत्येकं सामायिकच्छेदोपस्थापनसंयमंगळ रडप्पुवु । प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानद्वयदोळ परिहारविशुद्धिसंयममकुं। सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळे सूक्ष्मसांपरायसंयममक्कुमुपशांतकषायक्षीणकषायसयोगाऽयोगिगुणस्थानचतुटपदोळु प्रत्येकं यथाख्यातसंयममा. देयप्पुदु
मिलित्वा अष्टौ । तत्र मिथ्यादृष्टिसासादयोः कुज्ञानत्रयम् । मिश्रे तदेव मिश्रितम् । असंयते देशसंयते वा आद्यं १५ सम्यग्ज्ञानत्रयम् । प्रमत्तादिक्षीणकषायान्तमाद्यं सम्यग्ज्ञानचतुष्कम् । सयोगायोगयोरेक केवलज्ञानमेव ।
संज्वलननोकषायमन्दोदयेन व्रतधारणसमितिपालनकषायनिग्रहदण्डत्यागेन्द्रियजयरूपसंयमभावो भवति । सच सामान्येन सर्वसावधाद्विरतोऽस्मीति गहीत: सामायिकनामैकः । विशेषेण असंयमदेशसंयमसामायिकछेदोपस्थापनपरिहारविशद्धिसूक्ष्मसांपराययथाख्यातभेदात्सप्तधा। तत्र' असंयतान्तमसंयमः । देशसंयते देशसंयमः । प्रमत्ताद्यनिवृत्तिकरणान्तं सामायिकछेदोपस्थापनौ। प्रमत्ताप्रमत्तयोः परिहारविशुद्धिरपि । सूक्ष्मसांपराये २० सूक्ष्मसांपरायसंयमः । उपशान्तकषायादिषु यथाख्यातः।
२५
और विभंगज्ञान होते हैं। सब मिलकर आठ हैं। उनमेंसे मिथ्यादृष्टि और सासादनमें तीन अज्ञान होते हैं। मिश्रमें तीनों मिश्र रूप होते हैं। असंयत और देशसंयतमें आद्य तीन सम्यग्ज्ञान होते हैं। प्रमत्तसे क्षीणकषायपर्यन्त आदिके चार सम्यग्ज्ञान होते हैं। सयोगअयोगमें एक एक केवलज्ञान होता है।
संज्वलन और नोकषायके मन्द उदयसे व्रतोंका धारण, समितियोंका पालन, कषायोंका निग्रह, दण्डोंका त्याग और इन्द्रियजयरूप संयमभाव होता है । वह सामान्यसे 'सब पापकार्योंसे विरत होता हूँ' इस प्रकार ग्रहण करनेपर सामायिकसंयम नाम पाता है। विशेषसे असंयम. देशसंयम. सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशद्धि, सक्ष्म साम्पराय और यथाख्यातके भेदसे सात प्रकारका है। असंयत गुणस्थान पर्यन्त असंयम होता है। देशसंयतमें देशसंयम है। प्रमत्तसे अनिवृत्तिकरण पर्यन्त सामायिक और छेदोपस्थापना होते हैं। प्रमत्त और अप्रमत्तमें परिहारविशुद्धि भी होता है । सूक्ष्म साम्परायमें सूक्ष्म साम्पराय संयम होता है। उपशान्तकषाय आदिमें यथाख्यात होता है।
१. म मेकेंदोडे । २. ब असंयतदेशसंयतयोश्चाद्यं ।
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गो०जीवकाण्डे मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । २ । २ । १ । १ । १ । १ । १ ।
चक्षुईर्शनावरणीयमचक्षुद्देर्शनावरणीयमवधिदर्शनावरणीयमें बी मूरु दर्शनावरणीयकर्मप्रकृतिगळ क्षयोपशमंगळिदं यथासंख्यमागि चक्षुर्दर्शनमुमचक्षुद्देर्श नमुमवधिदर्शनमेंब मूरु दर्शनगळप्पुवु । केवलदर्शनावरणीयकर्मप्रकृति निरवशेषक्षदिदं क्षायिककेवलदर्शनमुमक्कुमितु दर्शन
चतुष्टयमक्कुं। मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि मिश्रगुणस्थानपथ्यंतं प्रत्येकं चक्षुदर्शनमुमचक्षुदर्शन५ ममेंबरडं दर्शनंगळक्कुं । मिश्रनोळु मते मिश्रावधिदर्शनमुमक्कुमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानं
मोदगोंडु क्षीणकषायगुणस्थानपयंतमो भत्तु गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं चक्षुदर्शनमुमचक्षुद्दर्शनमुमवधिदर्शनमुमब मूरु दर्शनमक्कुं। सयोगिभट्टारकरोळमयोगकेवलिभट्टारकरोळं गुणस्थानातीतरप्प सिद्धपरमेष्ठिगळोळं केवलदर्शनमक्कं मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू। उ । क्षी । स । अ। सि । २ । २ । ३ । ३ । ३ । ३ । ३ । ३ । ३ । ३ । ३ । ३।१।१।१।
कषायोदयंगलिननुरंजिसल्पट्ट मनोवाक्काययोगप्रवृत्तियं लेश्यय बुदुमदऽशुभलेश्ययेंदु शुभलेश्ययें , १. द्विविधमक्कमल्लि अशुभलेश्ययु कृष्णनीलकपोतभेददिदं त्रिविधमक्कं । शुभलेश्ययु तेजः पाशुक्लभेददिदं त्रिविधमक्कुमितु षड्लेश्यगळप्पुवु ।।
मिथ्यादृष्टिगुणस्थानं मोदल्गोंडु असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानपयंतं नाल्कुं गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं षड्लेश्यगळप्पुवु। देशसंयतगुणस्थानं मोदल्गोंडु अप्रमत्तगुणस्थानपथ्यंतं मूलं गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकं मूरु शुभलेश्यगळप्पुवु । अपूर्वकरणगुणस्थानमोदल्गोंडु सयोगिकेवलि भट्टारकपर्यंत
चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनावरणीयक्षयोपशमैः केवलदर्शनावरणीयनिरवशेषक्षयेण तानि चत्वारि दर्शनानि स्युः । तत्र मिश्रगुणस्थानान्तं चक्षुरचक्षुर्दर्शनद्वयम् । असंयतादिक्षीणकषायान्तं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनत्रयम् । सयोगायोगयोः सिद्धे चकं केवलदर्शनम् ।
कषायोदयानुरञ्जितमनोवाक्कायप्रवृत्तिर्लेश्या सा च शुभाशुभभेदावधा। तत्र अशुभा कृष्णनीलकपोतभेदात् त्रेधा। शुभापि तेजःपद्मशुक्लभेदात्त्रेधा । असंयतान्तं षडपि । देशसंयतादित्रये शुभा एव । २. अपूर्वकरणादिसयोगान्तं शुक्लैव । अयोगे योगाभावात् लेश्या नास्ति ।।
सामग्रीविशेषैः रत्नत्रयानन्त चतुष्टयस्वरूपेण परिणमितुं योग्यो भव्यः । तद्विारीतोऽभव्यः । तौ च
चक्षु-अचक्षु और अवधिदर्शनावरणोंके क्षयोपशमसे तथा केवल दर्शनावरणके सम्पूर्ण क्षयसे चारों दर्शन होते हैं। उनमें से मिश्र गुणस्थानपर्यन्त चक्षु और अचक्षु दर्शन होते हैं।
असंयतसे क्षीणकषायपर्यन्त चक्षु, अचक्षु, अवधि तीन दर्शन होते हैं । संयोग, अयोग और २५ सिद्धोंमें एक केवलदर्शन होता है। कषायके उदयसे अनुरंजित मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति
लेश्या है। वह शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकार है। उनमें से अशुभ कृष्ण, नील, कापोतके भेदसे तीन प्रकार है। शुभ भी तेज, पद्म, शुक्लके भेदसे तीन प्रकार है। असंयत पर्यन्त छहों लेश्या होती हैं। देशसंयत आदि तीन गुणस्थानों में शुभलेश्या ही होती है। अपूर्वकरणसे
सयोगी पर्यन्त शुक्ललेश्या ही होती है। अयोगीमें योगका अभाव होनेसे लेश्या नहीं है। ३. सामग्री विशेषके द्वारा रत्नत्रय और अनन्तचतुष्टयस्वरूपसे परिणमन करनेके जो योग्य
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गुणस्थानषट्कदो प्रत्येकमो दे शुक्ल लेश्येयक्कुमयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थान वोळ योगमिल्लप्पुर मिल्ल मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ सामग्री
६ । ६ । ६ । ६ । ३ । ३ । ३ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । ० विशेषंगळिव सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रं गळिवमनंतज्ञानानंतदर्शन अनंतवीर्य्यानंत सुखस्वरूपनागि परिमिसके योग्यमप्पजीवं भव्यनें बनक्कुमदरविपरीतमभव्यते' बनक्कुमितु भव्या भव्य भेर्दाद जीवराशि द्विविधमकुं । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानवोळं भव्यजीवंगलुम भव्यजीवंग लुप्पु ववरोळु अभव्यजीवंगळेल्ल कूडि परीतानंतजघन्य राशियं विरळिसि तद्राशियने रूपं प्रतिकोट्टु वग्गितसंवग्गं माडि पुट्टिद राशि युक्तानंत जघन्यमक्कुमा राशिप्रमाणमभव्यजीव राशिप्रमाणमक्कुमुळिद मिथ्यादृष्टिगळनितुं भव्यजीवजातिगलक्कुमादोडं आसन्न भव्यरुं दूरभव्य रुम भव्यसमं भव्यरुमप्परु | सासादन गुणस्थानं मोदगडु क्षीणकषायगुणस्थानपर्यन्तं यन्नोंदु गुणस्थानंगळोळु भव्यजी बंगळेयप्पुवु । सयोगकेवलिभट्टारक अयोगकेवलिभट्टारकरुँ भव्यरुम भव्यरुमल्तु :मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ 1 अ । सू । उ । क्षी । २ । १ 1 १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ 1 १ । १ । १ 1 क्षयोपशमलब्धिमोदलागि करणलब्धिपय्यंतमाद परिणामपरिणतनागि अनिवृत्तिकरणपरिणामचरमसमयवो अनाविमिथ्यादृष्टियाव पक्षदोळु अनंतानुबंधिचतुः कषायंगळमं दर्शनमोहनीय मिथ्यास्वकम्मंप्रकृतिमनुपशमिसि तदनंतर समयवोळ मिथ्यात्वकम्मं प्रकृत्यंतरायामांतम्मुहूर्तं कालप्रथमसमदोळ प्रथमोपशमसम्यक्त्वमं स्वीकररिति असंयतनवकुं । मेण प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुमं देशव्रतमुमं युगपत्स्वीकरिसि देशसंयतनक्कुमथवा प्रथमोपाम सम्यक्त्वमुमं महाव्रतमुमं युगपत्स्वी करिसि १५ अप्रमत्तसंयतनक्कुमिवग्र्गळु प्रथमोपशमसम्यक्त्वग्रहणप्रथमसमयं मोदल्गों डु गुणसंक्रमविधानदिदं मिथ्यात्वप्रकृतिद्रव्यमुदय के बारदंतुपशमिसिद्दं गुणसंक्रमण भागहादिदमपकर्षसिको डु मिध्यादृष्टौ द्वौ । तत्र अभव्यराशिः जघन्ययुक्तानन्तमात्रः तेनोनः सर्वसंसारी भव्यराशिः । स च आसन्नभव्यः दूरभव्यः अभव्यसमभव्यश्चेति त्रेधा । सासादन दाक्षीणकषायान्तं भव्य एव । सयोगायोगयोर्भव्याभव्यव्यपदेशो नास्ति ।
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क्षयोपशमादिपञ्चलब्धिपरिणामपरिणतः अनिवृत्तिकरणचरमसमये अनादिमिध्यादृष्टिः अनन्तानुबन्धिनो मिथ्यात्वं चोपशमय्य तदनन्तरसमये मिथ्यात्वान्तरायामान्तर्मुहूर्त प्रथमसमये प्रथमोपशमसम्यक्त्वं प्राप्य असंयतो भवति । अथवा प्रथमोपशमसम्यक्त्व देशव्रते युगपत्प्राप्य देशसंयतो भवति । अथवा प्रथमोपशमसम्यक्त्व महाव्रते
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हो, वह भव्य है । उससे विपरीत अभव्य है । मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें दोनों होते हैं। अभव्यराशि युक्तानन्त प्रमाण है। उससे हीन सब संसारी भव्यराशि है । भव्यके तीन भेद हैं- २५ आसन्नभव्य, दूरभव्य, और अभव्यके समान भव्य । सासादनसे क्षीणकषाय पर्यन्त भव्य ही होते हैं । सयोगी और अयोगी न भव्य हैं, न अभव्य । क्षयोपशम आदि पाँच लब्धिरूप परिणामोंसे परिणत हुआ अनादिमिध्यादृष्टि अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धी और मिथ्यात्वका उपशम करके उससे अनन्तर समय में मिथ्यात्व के अन्तरायाम सम्बन्धी अन्तर्मुहूर्त के प्रथम समय में प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके असंयत होता है | मिध्यात्व के ऊपर और नीचेके निषेकोंको छोड़कर अन्तर्मुहूर्त के समय प्रमाण बीच के निषेकोंका अभाव करनेको अन्तर कहते हैं । यह अनिवृत्तिकरणमें ही होता है । अस्तु, अथवा प्रथमोपशम सम्यक्त्व और देशव्रत एक साथ प्राप्त करके देशसंयत होता है । अथवा
३०
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गो० जीवकाण्डे मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिरूपदिंदमसंख्यातगुणहीनद्रव्यक्रमदिदमंतर्मुहर्तकालं त्रिप्रकृतिगळं माळ्कु। मिथ्यात्वमं मिथ्यात्वमागिये तु माळकुमेंदोडे पूर्वस्थितियं नोडलतिच्छापनावलिमात्रस्थितिहासमं माळकुमें बुदत्थं । अनंतरमा प्रथमोपशमसम्यक्त्वकालदोळु अप्रमत्तंग प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसंख्यातसहस्रंगळप्पुवप्पुरिदं प्रमत्तगुणस्थानदोळं प्रथमोपशमसम्यक्त्वसंभवमरियल्पडुगुं। आ नाल्कुं गुणस्थानत्तिप्रथमोपशमसम्यग्दष्टिगळु तत्सम्यक्त्वकालमंतर्मुहूर्त्तदोळु षडावलिकालावशेषमादागळुत्कृष्टदिदमनंतानुबंधिकषायोदयदिदं सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानकालमारावलिप्रमाणमक्कुं। जघन्यदिनेकसमयमक्कुं। मध्यमसंख्यातविकल्पमक्कुं। एत्तलानुं भव्यतागुणविशेषदिदं सम्यक्त्वविराधने इल्लदिौंड तद्गुणस्थानस्थानकालं संपूर्णमागुत्तिरलु सम्यक्त्वप्रकृतियुदयिसि
वेदकसम्यग्दृष्टिगळ नाल्कु गुणस्थानत्तिगळप्परु। अथवा मिश्रप्रकृत्युददिदमा नाल्वरुं मिश्र१० रप्परु । मिथ्यात्वकर्मोदयमादुदादोडा नाल्कु गुणस्थानत्तिगळु मिथ्यादृष्टिगळप्परु । द्वितीयोपशम
सम्यक्त्वदोळु विशेषमुंटदावुददोडे उपशमश्रेण्यारोहणात्थं सातिशयाप्तमत्तगुणस्थानत्तिवेदकसम्यग्दृष्टिकरणत्रयपरिणामसामर्थ्यदिदमनंतानुबंधि कषायंगळगे प्रशस्तोपशममिल्लप्पुरिंदमप्रशस्तोपशमदिंदमधस्तननिषेकंगळनुत्कर्षिसि मेणु विसंयोजिसि केडिसि दर्शनमोहत्रयक्कंतर करण
दिदमंतरमं माडि उपशमविधादिदमुपामिसि अनंतरप्रथमसमयदोनु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वम १५ स्वीकरिसि उपशम श्रेणियं क्रमदिनेरुगु मेरियुपशांतकषायगुणस्थानदोळुमंतर्मुहूर्त्तकालमिद्दिळिवडं
क्रदिदमिळिदु अप्रमत्तगुणस्थानमं पोद्दि भव्यजीवं प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्रेगळं द्वितीयोपशम
यगपत्प्राप्य अप्रमत्तसंयतो भवति । ते त्रयोऽपि तत्प्राप्तिप्रथमसंयममादि कृत्वा गुणसंक्रमणविधानेन मिथ्यात्वद्रव्यं गुणसंक्रमणभागहारेण अपकृष्यापकृष्य मिथ्यात्वमिश्रसम्यक्त्वप्रकृतिरूपेण असंख्यातगुणहीनद्रव्यक्रमण
अन्तर्मुहतं कालं त्रिधा कुर्वन्ति । मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वकरणं तु पूर्वस्थितौ अतिस्थापनावलिमात्रमूनयन्तीत्यर्थः । २० तदप्रमत्तस्य प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसंख्यातसहस्रसंभवात् प्रमत्तेऽपि तत् सम्यक्त्वं स्यात् । ते अप्रमत्तसंयतं विना
त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालान्तर्मुहूर्ते जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनन्तानुबन्ध्यन्यतमोदये सासादना भवन्ति । अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्युः तदा तत्काले संपूर्णे जाते सम्यक्त्वप्रकृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टयः वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यग्मिथ्यादृष्टयः वा मिथ्यात्वोदये
प्रथमोपशमसम्यक्त्व और महाव्रतोंको एक साथ प्राप्त करके अप्रमत्तसंयत होता है । वे तीनों २५ भी उसकी प्राप्तिके प्रथम समयसे लेकर गुणसंक्रमण विधानके द्वारा मिथ्यात्वके द्रव्यको
गुणसंक्रमण भागहारके द्वारा घटा-घटाकर मिथ्यात्व मिश्र और सम्यक्त्व प्रकृतिरूपसे अन्तर्मुहूर्तकाल तक तीन रूप करता है। इनका द्रव्य उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा हीन होता है। मिथ्यात्वका मिथ्यात्वकरण तो पूर्वस्थितिमें अतिस्थापनावली मात्र कम करता है। जो
अप्रमत्तमें जाता है, वह अप्रमत्तसे प्रमत्तमें और प्रमत्तसे अप्रमत्तमें संख्यात हजार बार ३० आता-जाता है।अतः प्रमत्तमें भी प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है । अप्रमत्तसंयतके बिना शेष
तीनों ही प्रथमोपशम सम्यक्त्वके अन्तर्मुहूर्त कालमें जघन्यसे एक समय उत्कृष्टसे छह आवली काल शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभमें से किसी भी एकका उदय होनेपर सासादन होते हैं। अथवा वे चारों भी यदि भव्यत्वगुणकी विशेषतासे सम्यक्त्वकी
विराधना नहीं करते तो उस सम्यक्त्व काल पूर्ण होनेपर सम्यक्त्व प्रकृतिके उदयमें ३५ वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं या मिश्र प्रकृतिके उदय होनेपर सम्यमिथ्यादृष्टि होते हैं अथवा
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सम्यग्दृष्टियागि? माळकुमथवा केळगे देशसंयमगुणस्थानमं पोहि द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टियागिकुं. मथवा, असंयतगुणस्थानमं पोद्दि असंयतसम्यग्दृष्टियागिङमथवा मरणमादोडे देवाऽसंयतनक्कं । मेणु मिश्रप्रकृत्युददिदं मिश्रनक्कु । अनंतानुबंधिकषायोदयदिदं द्वितीयोपशमसम्यक्त्वविराधकं सासादननुमोळने बाचार्यपक्षदोळु सासादननुमक्कुमथवा मिथ्यात्वकर्मोददिदं मिथ्यादृष्टियुमक्कु बो विशेष द्वितीयोपशमसम्यक्त्वदोळरियल्पडुगुं । क्षायिकसम्यक्त्वमसंयतादिचतुर्गुण- ५ स्थानतिगळु वेदकसम्यग्दृष्टिगळकर्मभूमि जैरुमप्परवर्गळगक्कुमवर्गळं केवलि श्रुतकेवलिद्वय श्रीपादपाश्र्वदोळु सतप्रकृतिगळं निरवशेषं कोडिसि क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळप्परु । मानुषियरुम. संयतसम्यग्दृष्टिगळु देशवतिकयरुमुपचारमहावतिकेयर केवलिद्वयपादमूलदोळु समप्रकृतिगळं क्षपियिसि क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळप्परु । मितु सम्यक्त्वं सामान्यदिदमोंदु विशेषदिदं मिथ्यात्व सासादनमिश्रउपशमवेदकक्षायिक दितु षड्विधमकुं। मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळु मिथ्यारुचियक्कुं। १० सासादननोळमा सासादनरुचियक्कं । मिश्रगुणस्थानदोळ मिश्ररुचियक्कुं। असंयतगुणस्थानमादियागिअप्रमत्तगुणस्थानपथ्यंत प्रत्येकमुपशमवेदकक्षायिकंगळ्मूरु सम्यक्त्वंगळप्पुवु।
अपूर्वकरणगुणस्थानं मोदलागि उपशांतकषायगुणस्थानपथ्यंतमुपशमश्रेणियोळु नाल्कु गुणस्थानंगळोळु प्रत्येकमुपशमसम्यक्त्वमुं क्षायिकसम्यक्त्वमुमेरपुं संभविसुववु । क्षपकश्रेणियोळु
मिथ्यादृष्टयो भवन्ति । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वे विशेषः । स कः ? उपशमश्रेण्यारोहणार्थ सातिशयाप्रमत्तवेदकसम्यग्दृष्टिः करणत्रयपरिणामसामर्थ्यात अनन्तानबन्धिनां प्रशस्तोपशमं विना अप्रशस्तोपशमेन अधोनिषेकानुत्कृष्य वा विसंयोज्य क्षपयित्वा दर्शनमोहत्रयस्य अन्तरकरणेन अन्तरं कृत्वा उपशमविधानेन उप अनन्तरप्रथमसमये द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिभूत्वा उपशमश्रेणिमारुह्य उपशान्तकषायं गत्वा अन्तर्मुहूर्त स्थित्वा क्रमेण अवतीर्य अप्रमत्तगुणस्थानं प्राप्य प्रमत्ताप्रमत्तपरावृत्तिसहस्राणि करोति । वा अधः देशसंयतमो भूत्वा आस्ते । वा असंयतो भूत्वा आस्ते । वा मरणे देवासंयतः स्यात् वामिश्रप्रकृत्युदये मिश्रः स्यात् । अनन्तानु- २० बन्ध्यन्यतमोदये द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं विराधयतीत्याचार्यपक्षे सासादनः स्यात् वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टिः स्यात् इति । क्षायिकसम्यक्त्वं तु असंयतादिचतुर्गुणस्थानमनुष्याणां असंयतदेशसंयतोपचारमहाव्रतमानुषीणां
मिथ्यात्वका उदय होनेपर मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं। द्वितीयोपशम सम्यक्त्वमें विशेष कथन है। उपशम श्रेणीपर आरोहण करनेके लिए सातिशय अप्रमत्तवेदक सम्यग्दृष्टि तीन करणरूप परिणामोंकी सामर्थ्य अनन्तानुबन्धी कषायोंका प्रशस्त उपशमके बिना अप्रशस्त उपशमके २५ द्वारा नीचेके निषेकोंको उत्कर्षणके द्वारा ऊपरके निषेकोंमें स्थापित करता है अथवा विसंयोजन द्वारा अन्य प्रकृतिरूप परिणमाता है। इस तरह उनका क्षपण करके दर्शनमोहकी तीन प्रकृतियोंका अन्तरकरणके द्वारा अन्तर करके उपशम विधानके द्वारा उपशम करता है। तदनन्तर प्रथम समयमें द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होकर उपशम श्रेणीपर चढ़ता है। और उपशान्त कषाय तक जाकर वहाँ अन्तमुहूर्त तक ठहरकर क्रमसे उतरता हुआ अप्रमत्त ३० गुणस्थानको प्राप्त करके हजारों बार सातवेंसे छठेमें और छठेसे सातवेंमें आता-जाता है। अथवा नीचे उतरकर देशसंयमी या असंयमी हो जाता है। अथवा मरणकाल आनेपर असंयतदेव हो जाता है अथवा मिश्र प्रकृतिके उदयमें मिश्रगुणस्थानवर्ती हो जाता है । जिन आचार्योंका मत है कि अनन्तानुबन्धीका उदय होनेपर द्वितीयोपशम सम्यक्त्वकी विराधना करता है,उनके मतसे सासादन हो जाता है। अथवा मिथ्यात्वके उदयमें मिथ्यादृष्टि ३५ १. म जरुगलक्कमर्गुलु।
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९३२
गो० जीवकाण्डे अपूर्वकरणगुणस्थानं मोदलागि सिद्धपरमेष्ठिगळ्पय्यतं क्षायिकसम्यक्त्वमक्कुं:मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । सि १ ।१ । १ । ३ । ३ । ३ । ३ । १।१।१।२ । १ ।१ ।१ । १ नो इंद्रियावरणक्षयोपशममुतज्जनितबोधनमुं संजय बुदक्कुं अदनुळ्ळुदसंज्ञि एंबुदक्कुमितरेंद्रियज्ञानमनुळुदसंजिये बुदक्कुमितु संजियुमसंजियुम बेरडु प्रकारद जीवंगळाळु संज्ञिजीवं मिथ्यादृष्टि
गुणस्थानं मोदल्गोंड क्षीणकषायगुणस्थानपय्यंत पन्नरडु गुणस्थानंगळोळक्कुं। असंशिजीवं ५ मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळेयककुं । सयोगिकेवलिभट्टारकरमयोगिकेवलिभट्टारकर नोइंद्रियेद्रियज्ञानरहितरदरिदं संज्ञिगळुमसंजिगळुमल्तु :
मि। सा। मि । अ। ।प्र। अ। अ । अ । स । उ । क्षी। शरीरांगोपांग
२। १ । १ । १।१।१।१।१।१।१।१।१ । नामकर्मोदयजनितशरीरवचनचित्तनोकर्मवर्गणाग्रहणमाहारमें बुदक्कं । विग्रहगतियोळु समुद्घातकेवलिगुणस्थानदोळमयोगिकेवलिगुणस्थानदोळं सिद्धपरमेष्ठिगळोळं शरीरांगोपांगनामकर्मोदय
मिल्लप्पुरिदं "कारणाभावे कार्यस्याप्यभावः एंबी न्यादिदमनाहारमक्कुमिताहारानाहारंगळु १० मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळरडुमक्कुं। सासावनगुणस्थानदोळमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं सयोग
केवलिभट्टारकगुणस्थानदोळमाहारानाहारमेरडुमक्कु मुळिव मिश्रगुणस्थानं मोदलागि ओंभत्तगुणच कर्मभूमिवेदकसम्यग्दृष्टोनामेव केवलिश्रुतकेवलिद्वयश्रीपादोपान्ते सप्तप्रकृतिनिरवेशेषक्षये भवति । तत्सम्यक्त्वं सामान्येन एकं, विशेषेण मिथ्यात्वसासादन मिश्रोपशमवेदकक्षायिकभेदात षोढा। तत्र मिथ्यादृष्टौ मिथ्यात्वं ।
सासादने सासादनत्वम् । मिश्रे मिश्रत्वं । असंयतादि अप्रमत्तान्तेषु उपशमवेदकक्षायिकानि अपूर्वकरणाद्युप१५ शान्तकषायान्तेषु उपशमश्रेणी वा औपशमिकक्षायिके क्षपकश्रेणावपूर्वकरणादिसिद्धपर्यन्तमेकं क्षायिकमेव ।
___ नोइन्द्रियावरणक्षयोपशमः तज्जनितबोधनं च संज्ञा सा अस्य अस्तीति संज्ञी। इतरेन्द्रियज्ञानोऽसंज्ञी । तत्र मिथ्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायान्तं संज्ञी। असंज्ञी मिथ्यादष्टावेव । सयोगायोगयो।इन्द्रियेन्द्रियज्ञानाभावात् संश्यसंज्ञिव्यपदेशो नास्ति ।।
शरीराङ्गोपाङ्गनामोदयजनितं शरीरवचनचित्तनोकर्मवर्गणाग्रहणमाहारः । विग्रहगतो प्रतरलोकपूरण२० हो जाता है। क्षायिक सम्यक्त्व तो असंयत आदि चार गुणस्थानवर्ती मनुष्योंके असंयत,
देशसंयत या औपचारिक महाव्रती मानुषियोंके जो कर्मभूमिके जन्मे वेदक सम्यग्दृष्टि होते हैं, उनके ही केवली श्रुतकेवलीके चरणोंके समीपमें सात प्रकृतियोंका पूर्ण क्षय होनेपर होता है । वह सम्यक्त्व सामान्यसे एक है। विशेष मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, उपशम, वेदक और
क्षायिकके भेदसे छह भेदरूप है। मिथ्यादृष्टिमें मिथ्यात्व होता है। सासादनमें सासादन २५ और मिश्रमें मिश्र होता है। असंयतसे अप्रमत्तपर्यन्त उपशम, वेदक और क्षायिक सम्यक्त्व
होते हैं। अपूर्वकरणसे उपशान्त कषाय पर्यन्त उपशमश्रेणीमें औपशमिक और क्षायिक होते हैं । क्षपकश्रेणीमें अपूर्वकरणसे लेकर तथा सिद्ध पर्यन्त क्षायिक ही होता है। .
___ नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशम और उससे होनेवाले ज्ञानको संज्ञा कहते हैं। वह जिसके हो,वह संज्ञी है। जो मनके सिवाय अन्य इन्द्रियोंसे ही जानता है। वह असंज्ञी है। मिथ्या३० दृष्टिसे लेकर क्षीणकषाय पर्यन्त संज्ञी होता है। असंज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें ही होता
है । सयोगी और अयोगी मनसे नहीं जानते,इससे न वह संज्ञी कहे जाते हैं और न असंज्ञी। १. म स्थानादि ओभत्तु ।
M
~
~
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
स्थानंगळोळं आहारमो देयक्कुं । अयोगिकेवलिभट्टारकरोळं गुणस्थानातीतरप्प सिद्धपरमेष्ठिगळोळमनाहारमेयक्कुं :
मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । सि २।२ । १।२ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । १ । २ । १ । १ अनंतरं गुणस्थानंगळोळपयोगमं पेदपं :
दोन्हं पंच य छच्चेव दोसु मिस्सम्मि होंति वामिस्सा | सत्वजोगा सत्तसु दो चैव जिणे य सिद्धे य ॥ ७०५॥
द्वयोः पंच च षट् चैव द्वयोः मिश्रे भवंति व्यामिश्राः । सप्तोपयोगाः सप्तसु द्वावेव जिनयोः
सिद्धे च ॥
गुणपय्यंयवद्वस्तुग्रहणव्यापारमुपयोग में बुदकं । ज्ञानमं वस्तु पुट्टिसुदत्तुमंते पेळपट्टुवु । स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा ।
तथा ज्ञान स्वहेत्वर्थं परिच्छेद्यात्मकं स्वतः ॥ [
९३३
पर्यवस्तु तद्ग्रहणव्यापार उपयोगः । ज्ञानं न वस्तूत्थं तथा चोक्तंस्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा ।
1
'नाथलोको कारणं परिच्छेद्यत्वात्तमोवत्' । [ परो० मु०] एंदितु अंतप्पुपयोगं ज्ञानोपयोगमें दुं दर्शनोपयोग में दुं द्विविधमक्कुमल्लि कुमति कुश्रुत विभंग मतिश्रुतावधिमनः पर्य्ययकेवलज्ञान'ज्ञानोपयोग तेरनवक्कुं । चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शन में दु दर्शनोपयोगं नाल्कु तेरनक्कं । मिथ्यावृष्टिगुणस्थानदोळु कुमतिकुश्रुतविभंगमें ब मूरुं ज्ञानोपयोगंगळं चक्षुरचक्षुर्द्दर्शनमें बर दर्शनोपयोगंगळुमितु अय्दुमुपयोगंगज्ञप्पुवु । सासादनगुणस्थानदोळमंते अय्दुमुपयोगंगळप्पुवु । १५ मिश्र गुणस्थानदो मतिश्रुतावधिचक्षुरचक्षुरवधिगळं बारु मिश्रोपयोगंगळप्पुवु । असंयतसम्यग्दृष्टिसयोगे अयोगे सिद्धे च अनाहारः । तेन मिथ्यादृष्टिसासादनासं यतसंयोगेषु तो द्वौ शेषनवस्वाहारः । अयोगिसिद्धे वा अनाहारः ||७०४ || गुणस्थानेषु उपयोगमाह
५
१०
तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वतः ॥१॥
"नाथलोको कारणं परिच्छेद्यत्वात् तमोवत् इति" । स चोपयोगः ज्ञानदर्शनभेदाद्द्द्वेधा । तत्र ज्ञानोपयोगः- कुमतिकुश्रुतविभंगमतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलज्ञानभेदादष्टधा । दर्शनोपयोगः चक्षुरचक्षुरवधिशरीर और अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न शरीर वचन और मनके योग्य नोकर्म वर्गणाओंके ग्रहणको आहार कहते हैं । विग्रहगति में प्रतर और लोकपूरण समुद्घात सहित सयोगीमें, २५ अयोगी और सिद्ध अनाहारक है । अतः मिध्यादृष्टि, सासादन, असंयत और सयोगकेवली में प्रतर लोकपूरणवाले अनाहारक हैं। शेष नौ गुणस्थानोंमें आहार है। अयोगकेवली और सिद्ध अनाहारक हैं ||७०४||
२०
गुणस्थानों में उपयोग कहते हैं-
गुणपर्याय से जो युक्त है, वह वस्तु है । उसको ग्रहण करनेरूप व्यापारका नाम उपयोग ३० है | ज्ञान वस्तुसे उत्पन्न नहीं होता । कहा है- जैसे अर्थ अपने कारणसे उत्पन्न होता है, आप स्वतः ही ज्ञानका विषय होनेके योग्य होता है । उसी प्रकार ज्ञान अपने कारणसे उत्पन्न होता है और स्वतः अर्थको जाननेरूप होता है । और कहा है- अर्थ और प्रकाश ज्ञानके कारण नहीं
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९३४
गो० जीवकाण्डे गुणस्थानदोळु मतिश्रुतावधिज्ञानंगळु चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनंगळुमितारुमुपयोगंगळप्पुवु । देशसंयत. गुणस्थानदोळमसंयतंगे पेन्दतारुमुपयोगंगळप्पुवु । प्रमत्तगुणस्थानदोळु मतिश्रुतावधिमनःपर्यायज्ञानंगळं चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनमुर्मितुपयोगसप्तकमुमक्कुमंत अप्रमत्तगुणस्थानादिक्षीणकषायपर्यंतं
प्रत्येकमुपयोगसप्तकमक्कुं। सयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळु मयोगिकेवलिभट्टारकगुणस्थान५ दोळं सिद्धपरमेष्ठिगळोळं केवलज्ञानोपयोगमुं केवलदर्शनोपयोगमुमरडं युगपत्संभविसुगु:
मि । सा । मि । अ । दे । प्र । अ । अ । अ । सू । उ । क्षी । स । अ । सि । ५। ५। ६ । ६ । ६ । ७ । ७ । ७ । ७ । ७ । ७ । ७ । २ । २। २ ।
इंतु भगवदर्हत्परमेश्वरचारुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरुभूमंडलाचार्य्यमहावादवादोश्वररायवादिपितामहसकलविद्वज्जनचक्रत्तिश्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्रवत्ति - श्रीपाद
दपंकजरजोरंजितललाटपट श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटकवृत्तिजीवतत्वप्रदीपिकयोळु ओघादेशंगळोळु विशतिप्ररूपणाधिकारं प्ररूपितमाय्यतु ॥ केवलदर्शनभेदाच्चतुर्धा । तत्र मिथ्यादृष्टिसासादनयोः कुमतिकुश्रुतविभंगज्ञानचक्षुरचक्षुर्दर्शनाख्याः पञ्च । मिश्रे
तावधिज्ञानचक्षुरचक्षुरवधिदर्शनाख्याः मिश्राः षट् । असंयतदेशसंयतयोः त एव षड्मिश्राः। प्रमत्तादिक्षीणकषायान्तेषु त एव मनःपर्ययेण सह सप्त । सयोगे अयोगे सिद्धे च केवलज्ञानदर्शनाख्यौ द्वौ ॥७०५॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवतिविरचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्तौ जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां जीवकाण्डे विशतिप्ररूपणासु ओघादेशयोविंशतिप्ररूपणानिरूपणानामै कविंशोऽधिकारः ॥२१॥
१५ हैं, क्योंकि वे ज्ञेय है। जैसे अन्धकार ज्ञानका कारण नहीं है। वह उपयोग ज्ञान और दर्शनके
भेदसे दो प्रकार है। उनमें ज्ञानोपयोग कुमति, कुश्रुत, विभंग, मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञानके भेदसे आठ प्रकारका है। दर्शनोपयोग चक्षु, अचक्षु, अवधि और केवलदर्शनके भेदसे चार प्रकारका है। मिथ्यादृष्टि और सासादनमें कुमति, कुश्रुत, विभंगज्ञान और चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन ये पाँच उपयोग होते हैं। मिश्र गुणस्थानमें, मति, श्रुत, अवधिज्ञान और चक्षु, अचक्षु अवधिदर्शन ये छह मिले हुए सम्यमिथ्यात्वरूप होते हैं। असंयत और देशसंयतमें वे ही छह उपयोग सम्यकप होते हैं। प्रमत्तसे क्षीणकषाय पर्यन्त वे ही मनःपर्ययके साथ मिलकर सात उपयोग होते हैं । सयोगो अयोगो, और सिद्धोंमें केवलज्ञान और केवलदर्शन दो उपयोग होते हैं ।।७०५।।
२०
२५
इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहकी भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्त चक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोभित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिकाको अनुसारिणी संस्कृतटीका तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमलरचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक माषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकामें जीवकाण्डकी बीस प्ररूपणाओंमें-से ओघादेशमार्गणा
प्ररूपणा नामक इक्कीसवाँ अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥२१॥
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आलापाधिकारः॥२२॥
अनंतरमालापाधिकारमं पेळलुपक्रमिसुत्तमिष्टदेवतानमस्काररूपपरममंगलमनंगीकरि सुत्तं गुणस्थानदोळं मार्गणास्थानदोळं विंशतिभेदंगळ्गे प्रायोजितंगळ्गाळापत्रयमं पेळ्दपेनेदाचार्य प्रतिजयं माडिदपं:
गोदमथेरं पणमिय ओघादेसेसु वीसमेदाणं ।
जोजणिकाणालावं वोच्छामि जहाकम सुणुह ॥७०६॥ गौतमस्थविरं प्रणम्य ओघादेशेषु विंशतिभेदानां । योजितानामालापं वक्ष्यामि यथाक्रम श्रुणुत ॥
विशिष्टा गौर्भूमिग्र्गीतमा अष्टमपृथ्वी सा स्थविरा नित्या यस्य सिद्धपरमेष्ठिसमूहस्य स गौतमस्थविरः गौतमस्थविरः गौतमस्थविर एव गौतमस्थविरस्तं। अथवा गौतमो गौतमस्वामी स्थविरो यस्यासौ गौतमस्थविरः श्रीवीरवर्द्धमानस्वामी तं। अथवा विशिष्टा गौर्वाणी' गौतम १० सर्वज्ञभारती तां वेत्ति अधीते वा गौतमः। स चासौ स्थविरश्च गौतमस्थविरः गौतमस्वामी तं प्रणम्येत्यर्थः । सिद्धपरमेष्ठिसमूहमं श्रीवीरवर्द्धमानस्वामियुमं मेणु गौतमगणधरस्वामियुमं नमस्कारमं माडि गुणस्थानमागणास्थानंगळोळु मुंनं योजिसल्पट्ट विंशतिप्रकारंगळ्गाळापमं सामान्यपर्याप्तापर्याप्रमेब त्रिप्रकाराळापमं यथाक्रमदिदं पेळ्दपे केळिमें दाचार्य्य शिष्यरं शिक्षिसिदिपं । अदेते दोडे :
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नेमि धर्मरथे नेमि पूज्यं सर्वनरामरैः ।
बहिरन्तःधियोपेतं जिनेन्द्रं तच्छिये श्रये ॥२२॥ अथालापाधिकारं स्वेष्टदेवतानमस्कारपूर्वकं वक्तं प्रतिजानीते
विशिष्टा गौभूमिः गोतमा-अष्टमपृथ्वी सा स्थविरा नित्या यस्य स गोतमस्थविरः सिद्धसमूहः, गोतमस्थविर एव गौतमस्थविरः तं अथवा गौतमः गौतमस्वामी स्थविरो यस्यासौ गौतमस्थविरः श्रीवर्धमानस्वामी है. तं । अथवा विशिष्टा गौः वाणी यस्यासौ गोतमः गोतम एव गौतमः स चासौ स्थविरश्च गौतमस्थविरः तं प्रणम्य गुणस्थानमार्गणास्थानयोः प्राग योजितानां विंशतिप्रकाराणां आलापं यथाक्रमं वक्ष्यामि ॥७०६॥ तद्यथा
__ अपने इष्टदेवको नमस्कारपूर्वक आलापाधिकारको कहनेकी प्रतिज्ञा करते हैं-विशिष्ट 'गौ' अर्थात् भूमि गोतमा अर्थात् आठवीं पृथ्वी वह जिसकी स्थविर अर्थात् नित्य है, वह २५ गोतमस्थविर अर्थात् सिद्ध समूह । अथवा गौतम स्वामी जिसके गणधर हैं, वे वर्धमान स्वामी, अथवा जिसकी गौ अर्थात् वाणी विशिष्ट है, उन गौतमस्थविरको नमस्कार करके गुणस्थान और मार्गणास्थानोंमें पूर्वयोजित बीस प्रकारके आलापोंको यथाक्रम कहूँगा ॥७०६॥ १. मणी यस्यासौ गौतमः । गौतम एव गौतमः स चासौ ।
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गो. जोवकाण्डे ओघे चोदसठाणे सिद्धे वीसदिविहाणमालावा ।
वेदकसायविभिण्णे अणियट्टीपंचभागे य ॥७०७।। ओघे चतुर्दशस्थाने सिद्धे विंशतिविधानमालापाः । वेदकषायविभिन्नेऽनिवृत्तिपंचभागेषु च ॥ ५ गुणस्थानोळं चतुर्दशमार्गणास्थानदोळं प्रसिद्धोळु विंशतिविधंगळप्प गुणजीवेत्यादि
गळगे सामान्यं पर्याप्तमपर्याप्तमें ब मूरुतेरदाळापंगळप्पुवु । वेदकषायंगळिदं भेदमनुळ्ळ अनिवृत्तिकरणगुणस्थानपंचभागेगळोळं पृथगाळायंगळप्पुवेदोडे अनिवृत्तिकरणपंचभागेगळोळु सवेदावेदादि विशेषंगळुटप्पुरिदं। अनंतरं गुणस्थानंगळोळु आळापमं पेन्दपं :
ओघेमिच्छदुगेवि य अयदपमत्ते सजोगठाणम्मि ।
तिण्णेव य आलावा ससेसिक्को हवे णियमा ॥७०८।। ओघे मिथ्यादृष्टिद्विकेपि च असंयते प्रमत्ते सयोगस्थाने। त्रय एवाळापाः शेषेष्वेको भवेनियमात् ॥
__ गुणस्थानंगळोळु मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानद्वयदोळं असंयतसम्यग्दृष्टिगुण१५ स्थानदोळं प्रमत्तसंयतगुणस्थानदोळं सयोगकेवलिभट्टारकगुणस्थानदोळं प्रत्येक सामान्यं पर्याप्ता
पर्याप्तमें ब मूरु माळापंगळप्पुवु। शेषनवगुणस्थानंगळोळु पर्याप्ताळापमो देयक्कं:मि । सा । मि । अ । दे। प्र। अ । अ। अ । सू। उ । झी । स । अ ।
अनंतरमीयर्थमने विशदं माडिदपं:
गुणस्याने चतुर्दशमार्गणास्थाने च प्रसिद्ध विंशतिविधानां गुणजीवेत्यादीनां सामान्यपर्याप्तापर्याप्तास्त्रयः आलापा भवन्ति । तथा वेदकषायविभिन्नेषु अनिवृत्तिकरणाञ्चभागेषु अपि पृथक्पृथग्भवन्ति ।।७०७॥ तत्र २० गुणस्थानेष्वाह
गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टिसासादनयोः असंयते प्रमत्त सयोगे च प्रत्येकं त्रयोऽपि आलापा भवन्ति । शेषनवगुणस्थानेषु एकः पर्याप्तालाप एव नियमेन ॥७०८।। अमुमेवार्थ विशदयति
प्रसिद्ध गुणस्थान और चौदह मार्गणास्थानमें 'गुणजीवा' इत्यादि बीस प्ररूपणाओंके सामान्य, पर्याप्त, अपर्याप्त ये तीन आलाप होते हैं। तथा वेद और कषायसे भेदरूप हुए २५ अनिवृत्तिकरणके पाँच भागोंमें भी आलाप पृथक्-पृथक होते हैं ॥७०७॥
गुणस्थानों में आलाप कहते हैं
गुणस्थानोंमें-से मिथ्यादृष्टि, सासादन, असंयत, प्रमत्त और सयोगीमें-से प्रत्येकमें तीनों ही अलाप होते हैं, शेष नौ गुणस्थानोंमें एक पर्याप्त आलाप ही नियमसे होता है ।।७०८।।
३० १. म सेसेसेक्को ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
सामण्णं पज्जत्तमपज्जत्तं चेदि तिण्णि आलावा । दुवियप्पमपज्जत्तं लद्धी णिव्वत्तगं चेदि । ७०९ ॥
सामान्यपर्थ्याप्तमपर्य्याप्तं चेति त्रय एवालापाः । द्विविकल्पमपर्य्याप्तं लब्धिन्निवृत्तिश्चेति ॥ सामान्य मेंदु पर्याप्तमें दुमपर्य्याप्त में दितु आळापंगळु मूरप्पुवल्लि अपर्य्याप्ताळापं लब्ध्यपर्य्यामं निवृत्यपर्याप्त मेदितु द्विविकल्पमक्कं ।
दुविपि अपज्जतं ओघे मिच्छेव होदि णियमेण ।
सासण अयदपमत्ते णिव्वत्ति अपुण्णगं 'होदि ॥७१० ॥
द्विविधमप्यपर्य्या ओघे मिथ्यादृष्टावेव भवति नियमेन । सासादनासंयतप्रमत्ते निवृत्यपर्याप्तं भवेति ॥
९३७
द्विप्रकारमनुळऽपर्य्याप्तं ओघदोलु सामान्यदोळु मिथ्यादृष्टियोळेयक्कु नियर्मादिदं । सासादनसम्यग्दृष्टि गुणस्थानदोळमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं दोळमी भूरुं गुणस्थानंगळो नियर्माददं निवृत्यपर्याप्तमेयक्कुं ।
प्रमत्त संयत गुणस्थान
जोगं पडि जोगिजिणे होदि हु णियमा अपुण्णगत्तं तु । अवसेसणवट्ठाणे पज्जत्तालागो एक्को | ७११॥
यो प्रतियोगिजिने भवति खलु नियमादपूर्णकत्वं तु । अवशेषं नवस्थाने पर्य्याप्तालापक १५
एकः ॥
योगमं कुरुतु सयोगिकेवलिभट्टारकजिननोछु खलु स्फुटमागि अपूर्णकत्वमपर्याप्तकत्वमक्कं । तु मत्ते अवशेष नवगुणस्थानंगळोळु पर्य्याप्ताळापमो देयक्कुं । अनंतरं चतुर्द्दश मार्गणास्थानं गळोळालापमं पेळलुपक्रमिसि मोदलोळ गतिमार्गणेयोळ
पेदपं :
इस अर्थको स्पष्ट करते हैं
वे आलाप सामान्य, पर्याप्त, अपर्याप्त इस तरह तीन हैं। उसमें से अपर्याप्त आलापके भेद दो हैं - लब्ध्यपर्याप्त और निर्वृत्यपर्याप्त ॥७०९ ||
१. म चेदि । २. म चेति ।
११८
ते आलापाः सामान्यः पर्याप्तः अपर्याप्तश्चेति त्रयो भवन्ति । तत्रापर्याप्तालापः लब्ध्यपर्याप्तः निर्वृत्त्यपर्याप्तश्चेति द्विविधो भवति ॥७०९ ॥
सद्विविधोऽपि अपर्याप्तालाप: सामान्य मिथ्यादृष्टावेव भवति नियमेन । सासादनासंयतप्रमत्तेषु नियमेन निर्वृत्त्यपर्याप्तालाप एव भवति ॥७१० ॥
योगमाश्रित्यैव सयोगिजिने नियमेन खलु अपर्याप्तकत्वं भवति । तु-पुनः अवशेषनवगुणस्थानेषु एकः २५ पर्याप्तालापः ॥७११॥ अथ चतुर्दशमार्गणास्थानेषु आह
५
१०
वह दोनों ही प्रकारका अपर्याप्त आलाप नियमसे सामान्य मिथ्या दृष्टिमें ही होता ३० है । सासादन, असंयत और प्रमत्त में नियमसे निर्वृत्यपर्याप्त आलाप ही होता है || ७१०|| सयोगी जिनमें नियमसे योगकी अपेक्षा ही अपर्याप्त आलाप होता है । शेष नौ गुणस्थानों में एक पर्याप्त आलाप ही होता है ।। ७११॥
चौदह मार्गणास्थानों में कहते हैं
--
२०
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गो० जीवकाण्डे सत्तण्डं पुढवीणं ओघेमिच्छे य तिण्णि आलावा ।
पढमाविरदेवि तहा सेसाणं पुण्णमालावो ||७१२॥ सप्तानां पृथ्वीनामोघे सामान्ये मिथ्यादृष्टौ च त्रय आळापाः। प्रथमाविरतेऽपि तथा शेषाणां पूर्णालापः ॥ - सामान्यदिदं सप्तपृथ्विगळ साधारणमिथ्यादृष्टियोळु मूरुमाळापंगळप्पुवु। प्रथमपृथ्विय अविरतसम्यग्दृष्टियोळमंत मूराळापंगळप्पुवुवेक दोडे प्रथमनरकम बद्धायुष्यनप्प वेदकसम्यग्दृष्टियु क्षायिकसम्यग्दृष्टियुं पुगुगुमप्पुरिदं शेषर्ग प्रथमपृथ्विय सासादनमिश्रग द्वितीयादि पृथ्विकगळ सासादनमिश्रासंयतग्गेयुं पर्याप्ताळापमो देयककुं। उळिदारु नरकंगळोळु सम्यग्दृष्टि पुगर्ने बुदत्थं ।
तिरियचउक्काणोघे मिच्छदुगे अविरदे य तिण्णेव । __णवरि य जोणिणि अयदे पुण्णो सेसेवि पुण्णो दु ।।७१३॥
तिरश्चां चतुर्णामोघे मिथ्यादृष्टिद्विके अविरते च त्रय एव । विशेषोऽस्ति योनिमत्यसंयते पूर्णः शेषेपि पूर्णस्तु॥
तिर्यग्गतियोळु पंचगुणस्थानंगळोळु सामान्यतिथ्यंचरुगळ्गं पंचेंद्रिय तिय्यंचरुगळ्गं पर्याप्ततिव्यंचरुगळ्पं योनिमतितिव्यचरुगळ्यं इंतु नाल्कुं तेरद तिय्यंचरुगळ्गे साधारणदिदं मिथ्यादृष्टि१५ गुणस्थानदोळं सासादनगुणस्थानदोळमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं प्रत्येक मूरुमाळापंगळप्पुवल्लि
विशेषमुंटदावुदे दोडे योनिमतियसंयतगुणस्थानदोळु पर्याप्ताळापमेयक्कुमेकेदोडे बद्धतिय॑गायुष्यरप्प सम्यग्दृष्टिगळ योनिमतिगळं षंढरुमागि पुट्टरप्पुरिदं शेषमिश्रदेशसंयतगुणस्थानद्वयदोळ पर्याप्ताळापमेयक्कुं:
__ नरकगतो सामान्येन सप्तपृथ्वी मिथ्यादृष्टौ त्रयः आलापाः स्युः। तथा प्रथमपृथ्व्यविरतेऽपि त्रय २० आलापाः स्युः । बद्धनरकायुर्वेदकक्षायिकसम्यग्दृष्टयोस्तत्रोत्पत्तिसंभवात् शेषपृथ्व्यविरतानामेकः पर्याप्तालाप एव सम्यग्दृष्टेस्तत्रानुत्पत्तेः ॥७१२॥
तिर्यग्गतौ पञ्चगुणस्थानेषु सामान्यपञ्चेन्द्रियपर्याप्तयोनिमत्तिरश्चां चतुर्णा साधारणेन मिथ्यादृष्टिसासादनासंयतेषु प्रत्येकं त्रय आलापा भवन्ति । तत्रायं विशेष:-योनिमदसंयते पर्याप्तालाप एव । बद्धायुष्कस्यापि सम्यग्दृष्टेः स्त्रीषण्डयोरनुत्पत्तेः । तु-पुनः शेषमिश्र देशसंयतयोरपि पर्याप्तालाप एव ।।७१३॥
नरकगतिमें सामान्यसे सातों पृथ्वीके मिथ्यादृष्टिमें तीनों आलाप होते हैं। तथा प्रथम पृथ्वीमें अविरतमें भी तीनों आलाप होते हैं, क्योंकि जिन्होंने पहले नरकायुका बन्ध किया है, वे वेदक सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टि प्रथम नरकमें ही उत्पन्न होते हैं । शेष पृथिवियोंमें अविरतोंके एक पर्याप्त आलाप ही होता है क्योंकि सम्यग्दृष्टि मरकर उनमें जन्म नहीं लेता ॥७१२।।
तियंचगतिमें पांच गुणस्थानोंमें सामान्यतिथंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच, पर्याप्ततियंच और योनिमतीतियं च इन चारोंके सामान्यसे मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत गुणस्थानोंमें-से प्रत्येकमें तीन आलाप होते हैं। किन्तु इतना विशेष है कि असंयतमें योनिमतीतियंचमें पर्याप्त आलाप ही होता है; क्योंकि जिसने परभवकी आयुका बन्ध किया है, वह सम्यग्दृष्टि
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका तेरिच्छियलद्धियपज्जत्ते एक्को अपुण्ण आलावो।
मूलोघं मणुसतिये मणुसिणि अयदम्मि पज्जत्तो ॥७१४॥ तिर्यग्लब्ध्यपर्याप्ते एकोऽपूर्णालापः मूलौघो मनुष्यत्रये मानुष्यसंयते पर्याप्तः॥
तिय्यंचलब्ध्यपर्याप्तनोळ अपर्याप्ताळापमो देयकुं। मनुष्यगतियोळ्पदिनाल्कु गुणस्थानंगलोळु सामान्यमनुष्यपर्याप्तमनुष्ययोनिमतिमनुष्यमेंबी मनुष्यत्रयद प्रत्येकं पदिनाल्कु पदिनाल्कुं ५ गुणस्थानंगळोळु मुंपेब्दाळापं मूलौघमेयक्कुमादोड योनिमत्यसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळु पर्याप्तालापमेयक्कुमेके दोडे कारणं मुन्नं तिर्यग्गतियोळ पळ्दुदेयक्कुं। मत्तोदु विशेषमुंटदावुदे दोडे असंयतयोनिमतितिय्यंचेयरमसंयतयोनिमतिमानुषियुं प्रथमोपशमवेदकक्षायिकसम्यग्दृष्टिगळुमोळरप्पुर । भुज्यमानपर्याप्ताळापमेयककुं। योनिमतिमनुष्यरुगळय्तु गुणस्थानंगळेयप्पुरिंदमुपशमश्रेण्यवतरणदोळमा द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसंभवमिल्ल एके दोडवग्गे श्रेण्यारोहणमे घटिसद- १० प्पुरिदं ॥
मणुसिणि पमत्तविरदे आहारदुगं तु णत्थि णियमेण ।
अवगदवेदे मणुसिणि सण्णा भूदगदिमासेज्ज ॥१५॥ मानुषि प्रमत्तविरते आहारद्वयं नास्ति तु नियमेन। अपगतवेदायां मानुष्यां संज्ञा भूतगतिमाश्रित्य ॥
तिर्यग्लब्ध्यपर्याप्तके एकः अपर्याप्तालाप एव। मनुष्यगतो सामान्यपर्याप्तयोनिमन्मनुष्येषु प्रत्येक चतुर्दशगुणस्थानेषु गुणस्थानवत् मूलोषः स्यात् तथापि योनिमदसंयते पर्याप्तालाप एव । कारणं प्रागुक्तमेव । पुनरयं विशेष:-असंयततरश्चयां प्रथमोपशमकवेदकसम्यक्त्वद्वयं, असंयतमानुष्यां प्रथमोपशमवेदकक्षायिकसम्यक्त्वत्रयं च संभवति तथापि एको भुज्यमानपर्याप्तालाप एव । योनिमतीनां पञ्चगुणस्थानादुपरि गमनासंभवात् द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं नास्ति ॥७१४॥
स्त्री और नपुंसकोंमें उत्पन्न नहीं होता । तथा शेष मिश्र और देश संयत गुणस्थानोंमें भी एक पर्याप्त आलाप ही होता है ।।७१३।।
तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकमें एक अपर्याप्त आलाप ही होता है। मनुष्यगतिमें सामान्य, पर्याप्त और योनिमत मनुष्योंमें-से प्रत्येकमें चौदह गुणस्थानों में गुणस्थानवत् जानना । फिर भी योनिमत मनुष्यके असंयत गुणस्थानमें एक पर्याप्त आलाप ही होता है। कारण पहले २५ कहा ही है। पुनः इतना विशेष और है कि असंयत गुणस्थानमें तिथंचीके प्रथमोपशम और । वेदक दो ही सम्यक्त्व होते हैं। और मानुषीके प्रथमोपशम, वेदक तथा झायिक तीन सम्यक्त्व होते हैं । तथापि एक मुज्यमान पर्याप्त आलाप ही है । योनिमती पंचम गुण स्थानसे ऊपर नहीं जाती,इसलिए उसके द्वितीयोपशम सम्यक्त्व नहीं होता ।।७१४॥
१. मसालापमेयक्कुमुपशमश्रेण्यवतरणदोलु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं योनिमतिगलय्दु गुणस्थानं गलेयप्पुरिदमा ३० द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसंभवमिल्ल ।
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गो० जीवकाण्डे द्रव्यपुरुष- भावस्त्रीयुमप्प प्रमत्तविरतनोळु तु मत्त आहारकाहारकांगोपांगनामकर्मोदयं नियमदिदमिल्लं । तु शब्ददिनऽशुभवेदोदयदोळमनःपयंयज्ञानमुं परिहारविशुद्धिसंयममुं घटिसवु । भावमानुषियोळु चतुर्दशगुणस्थानंगळु घटिसुववल्लदे द्रव्यमानुषियोळग्दे गुणस्थानंगळे दरिवुदु ।
अपगतवेदनप्प अनिवृत्तिकरणमानुषियोळु संज्ञा । कार्य्यरहितमैथुनसंज्ञेयं । भूतपूर्वगतिन्यायमना५ श्रयिसियक्कुं। द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमुमं मनःपर्ययज्ञानियोळुटु । परिहारविशुद्धिसंयमिगळोळं
आहारकऋद्धिप्राप्तरोळं द्वितीयोपशमसम्यक्त्वमिल्लेके दोडे मूवत्तुं वर्षगळिल्लदे परिहारविशुद्धिसंयमक्क संभवाभावमप्पुरिदं तावत्कालमुपशमसम्यक्त्वक्कवस्थानमिल्लप्पुरदं आउदोंदु। परिहारविशुद्धिसंयमदोडने उपशमसम्यक्त्वक्कुपलब्धियक्कुंमप्पोडे । परिहारविशुद्धिसंयममं बिडदि
इंतप्पंगे उपशमश्रेण्यारोहणात्य दर्शनमोहनीयक्के उपशमनमुं संभविसुवुदल्तु । हेंगे परिहार१० विशुद्धिसंयमोडनुपशमश्रेणियोळे, द्वितीयोपशभक्के संयोगमकुं॥
रलद्धि अपज्जत्ते एक्को दु अपुण्णगो दु आलावो।
लेस्साभेदविभिण्णा सत्तवियप्पा सुरट्ठाणा ॥७१६॥ नरलब्ध्यपर्याप्ते एकस्त्वपूर्णालापः । लेश्याभेदविभिन्नानि सप्तविकल्पानि सुरस्थानानि ।।
द्रव्यपुरुषभावस्त्रीरूपे प्रमत्तविरते आहारकतदङ्गोपाङ्गनामोदयो नियमेन नास्ति । तुशब्दात् अशुभ१५ वेदोदये मनःपर्ययपरिहारविशुद्धी अपि न । भावमानुष्यां चतुर्दशगुणस्थानानि, द्रव्यमानुष्यां पञ्चवेति ज्ञातव्यं ।
अपगतवेदानिवृत्तिकरणमानुष्यां कार्यरहितमैथुनसंज्ञा भूतपूर्वगतिन्यायमाश्रित्य भवति । द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं मनःपर्ययज्ञानिनि स्यात् । न चाहारकधिप्राप्तेनापि परिहारविशुद्धौ त्रिंशद्वर्षेविना तत्संयमस्यासंभवात् तत्सम्यक्त्वस्य तु तावतकालं अनवस्थानात । अत्यक्ततत्संयमस्य उपशमश्रेणिमारोढमपि दर्शनमोहोपशमाभावाच्च तवयसंयोगाघटनात् ॥७१५॥
द्रव्यसे पुरुष और भावसे स्त्रीरूप प्रमत्त विरतमें आहारक शरीर और आहारक अंगोपागका उदय नियमसे नहीं होता। 'तु' शब्दसे अशुभ वेद स्त्री और नपुंसकके उदयमें मनःपर्ययज्ञान और परिहारविशुद्धि संयम भी नहीं होते। भावमानुषीके चौदह गुणस्थान होते हैं और द्रव्यमानुषीके पाँच ही जानना। वेद रहित अनिवृत्तिकरणमें मानुषीके कार्य
रहित मैथुन संज्ञा भूतपूर्वगति न्यायकी अपेक्षा कही है अर्थात् वेदरहित होनेसे पहले मैथुन २५ संज्ञा थी, इस अपेक्षा कही है। द्वितीयोपशम सम्यक्त्व और मनःपर्ययज्ञान जो आहारक
ऋद्धिको प्राप्त हैं अथवा परिहार विशुद्धि संयमवाले हैं ,उनके नहीं होते। क्योंकि तीस वर्षकी अवस्था हुए बिना परिहार विशुद्धि संयम नहीं होता और प्रथमोपशम इतने काल तक रहता नहीं है तथा परिहारविशुद्धि संयमको त्यागे बिना उपशम श्रेणिपर आरोहण भी नहीं
होता और दर्शन मोहका उपशम भी नहीं होता, अतः द्वितीयोपशम सम्यक्त्व भी नहीं ३० होता ।।७१५॥
१. म सुवुदल्तावुशेदु परि । २. म योलेरउक्कं संयोगमिल्लप्पुदरिंदं ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ___ मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकनोळु अपूर्णालापमोदे यक्क। लेश्यगळिदं माडल्पट्ट भेदंगाळदविभिन्नंगळप्प देवदर्कळ स्थानंगळु सप्तविकल्पंगळप्पुवु । अदेंतेंदोडे :
तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च । - एत्तो य चोद्दसण्हं लेस्सा भवणादिदेवाणं ॥ त्रयाणां द्वयोर्द्वयोः षण्णां द्वयोश्च त्रयोदशानां इतश्चतुर्दशानां लेश्याः भवनादिदेवानां ॥ ५
भवनत्रयदेवर्कळ्गं सौधर्मेशानकल्पजर्ग सानत्कुमारमाहेंद्रकल्पजग्गं ब्रह्मब्रह्मोत्तरलांतवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रषट्कल्पजग्गं शतारसहस्रारकल्पद्वयजग्गं आनतप्राणतारणाच्युतकल्पनवग्रैवे. यककल्पातीतजग्गै अल्लिदं मेलण अनुदिशानुत्तरचतुर्दशविमानसंभूतर्गमितु सप्तस्थानंगळ देवकळगे लेश्यगळ्पेळल्पट्टप्पुवु॥
तेऊ तेऊ तह तेऊ पम्मपम्मा य पम्मसुक्का य ।
सुक्का य परमसुक्का लेस्सा भवणादिदेवाणं ॥ तेजस्तेजस्तथा तेजः पञ पद्मं च पद्मशुक्ले च। शुक्ला च परमशुक्ला लेश्या भवनादि. देवानां
मुंपेळ्द सप्तस्थानंगळोळु यथासंख्यमागि भवनत्रयादिस्थानंगलोळु तेजोलेश्येयजघन्यांशमुं तेजोलेश्ययमध्यमांशमुं तेजोलेश्यय उत्कृष्टांशमुं पद्मलेश्येय जघन्यांशमै रघु पदमलेश्यय मध्य- १५ मांशमुं पद्मलेश्येय उत्कृष्टांशमुं शुक्ललेश्येय जघन्यांशमुमरडु शुक्ललेश्येय मध्यमांशमुं शुक्ललेश्येयुत्कृष्टांशमुं भवनत्रयादिदेवर्कळ लेश्यगळप्पुवु ॥
सव्वसुराणं ओघे मिच्छदुगे अविरदेय तिण्णेव ।
णवरि य भवणतिकप्पित्थीणं च य अविरदे पुण्णो ॥७१७॥ सर्वसुराणामोघे मिथ्यादृष्टिद्वये अविरते च त्रय एव । नवमस्ति भवनत्रयकल्पस्त्रीणां च २० चाविरते पूर्णः ॥
तु-पुनः, मनुष्यलब्ध्यपर्याप्ते एकः लब्ध्यपर्याप्तालाप एव । लेश्याभेदविभिन्नदेवस्थानानि सप्तविकल्पानि भवन्ति तद्यथा
तिण्हं दोण्हं दोण्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च । एत्तो य चोद्दसण्हं लेस्सा भवणादिदेवाणं ॥१॥ तेऊ तेऊ तेऊ पम्मा पम्मा य पम्मसुक्का य ।
सुक्का य परमसुक्का भवणतिया पुण्णगे असुहा ॥२॥ भवनत्रय-सौधर्मद्वय-सानत्कुमारद्वय-ब्रह्मषदक-शतारद्वय-आनतादित्रयोदश-उपरितनचतुर्दशविमानजानां क्रमशः तेजोजघन्यांशतेजोमध्यमांश-तेज-उत्कृष्टाश-पद्मजघन्यांश-पद्ममध्यमांश-पद्मोत्कृष्टांश-शुक्लजघन्यांशशुक्लमध्यमांश-शुक्लोत्कृष्टांशा भवन्ति ।।७१६॥
मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकमें एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होता है। लेझ्याभेदसे देवोंके सात स्थान होते हैं। भवनत्रिक, सौधर्मयुगल, सानत्कुमार युगल, ब्रह्म आदि छह स्वर्ग, शतार युगल, आनतादि तेरह और ऊपरके चौदह विमानवालोंके क्रमसे तेजोलेश्याका जघन्य अंश, तेजोलेश्याका मध्यम अंश, तेजोलेश्याका उत्कृष्ट अंश और पद्मलेश्याका जघन्य अंश, पद्मलेश्याका मध्यम अंश, पद्मलेश्याका उत्कृष्ट अंश और शुक्लका जघन्य अंश, शुक्लका ३५ मध्यम अंश तथा शुक्लका उत्कृष्ट अंश होता है ।।७१६।।
३०
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गो० जीवकाण्डे
सर्व्वदेवसामान्यदोळु नाल्कं गुणस्थानमक्कुंंमल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळं सासादनगुण स्थानदोळं असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं सामान्यालाप पर्याप्तळापमपर्याप्ताळापमुमें ब मूरुमाळा पंंगळप्पुवु । अल्लि विशेषमुंटदावुदे दोडे भवनत्रयदेववर्कळ कल्पवासिस्त्रीयरुगळ असंयतगुणस्थानदो पर्याप्ताळापमो देयक्कुमेर्क' दोडे तिर्य्यग्मानुष्या संयतसम्यग्दृष्टिगळु भवनत्रयदोळं ५ कल्पामरस्त्रीयरागि पुट्टर पुर्दारदं ॥
मिस्से पुण्णाला वो अणुदिस्साणुत्तरा हु ते सम्मा । अविरदतिण्णा लावा अणुद्दिसाणुत्तरे होंति ॥ ७१८॥
१०
१५
९४२
२५
मिश्रे पूर्णाळापः अनुद्दिशानुत्तराः खलु ते सम्यग्दृष्टयः । असंयतत्रितयालापाः अनुदिशानुत्तरे
भवंति ॥
बादरहु मे इंदिय बितिचतुरिंदिय असण्णिजीवाणं । ओघे पुणे तिणिय अपुण्णगे पुण अपुण्णो दु ॥७१९ ॥ बादरसूक्ष्मैकेंद्रियद्वित्रिचतुरद्रियासंज्ञिजीवानामोघे पूर्णे त्रयश्चापूर्णे पुनरपूर्णस्तु ॥ बादकेंद्रिय सूक्ष्मैकेंद्रियद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियजीवंगळ सामान्यदोळ सामान्यपर्याप्ताळापमेव माळापंगळप्पु । पर्य्याप्त नामकर्मोदयविशिष्टजीवंगळोळमा मूरमाळा२० गळवु । अपर्थ्याप्तनामकम्मोदयविशिष्टजीवंगळोळु लब्ध्यपर्याप्ताळापमो देक्कु ।
-
पेद नवग्रैवेयकावसानमाद सामान्यदेवकर्कळ मिश्रगुणस्थानदोळ पर्याप्ताळापमो देक्कु । अनुदिशानुत्तर विमानंगळहमद रेल्लरु स्फुटमागवर्गळु सम्यग्दृष्टिगळे यापुर्दारदमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळप्प सामान्याळापमं पर्याप्ताळापनुं निवृत्त्यपर्य्याप्ताळापमुमेंब मूरु माळापंगळु अनुदिशानुत्तरविमानवासिगळोळवु ।
अनंतरामद्रियमाणयोळाळापमं पेदपं :
सर्वदेवसामान्ये चतुर्गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टिसासादनयोः असंयते च त्रय आलापा भवन्ति । अयं विशेष:भवनत्रयदेवाणां कल्पस्त्रीणां च असंयते पर्याप्तालाप एव तिर्यग्मनुष्यासंयतानां तत्रोत्पत्त्यभावात् ॥ ७१७।। नवग्रैवेयकावसानसामान्यदेवानां मिश्रगुणस्थाने एकः पर्याप्तालाप एव अनुदिशानुत्तरविमानादहमिन्द्राः सर्वे खलु सम्यग्दृष्टय एव तेन असंयते त्रय आलापा भवन्ति ॥ ७१८ | अथेन्द्रियमार्गणायामाह -
तु पुनः बादरसूक्ष्मै केन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिजीवसामान्ये पर्याप्तनामोदयविशिष्टे त्रय आलापा भवन्ति । अपर्याप्तनामोदयविशिष्टे पुनः एको लब्ध्यपर्याप्तालाप एव ॥ ७१९ ॥
सब सामान्य देवोंमें चार गुणस्थानों में से मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत में तीन आलाप होते हैं । इतना विशेष है कि भवनत्रिकके देवोंके और कल्पवासी देवांगनाओंके असंयतमें पर्याप्त आलाप ही होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य उनमें उत्पन्न ३० नहीं होते ।।७१७॥
नवे
पर्यन्त सामान्य देवोंके मिश्र गुणस्थानमें एक पर्याप्त आलाप ही है ! अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी अहमिन्द्र सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अतः उनके असंयतमें तीन आलाप होते हैं ।।७१८ ।।
जो बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी ३५ सामान्य जीव पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त होते हैं, उनके तीन आलाप होते हैं । और जिनके अपर्याप्त नामकर्मका उदय है, उनके एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होता है ||७१९ ||
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सण्णी ओघे मिच्छे गुणपडिवण्णे य मूल आलावा ।
लद्धिअपुण्णे एक्को अपज्जत्तो होदि आलावो ॥७२०॥ संश्योघे मिथ्यादृष्टौ गुणप्रतिपन्ने च मूलालापाः। लब्ध्यपर्याप्त एकोऽपर्याप्तो भवत्यालापः ॥
संज्ञिपंचेंद्रियसामान्यदोल गुणस्थानपंचकमक्कुमल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळ मूला- ५ लापंगळु मूरुमप्पुवु । गुणप्रतिपन्नरप्प सासादनसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं मूलालापंगळु सामान्यपर्याप्तनिवृत्यपर्याप्तमें बमूहमालापंगळप्पुवु। मिश्रदेशसंयतगुणप्रतिपन्नरोळु मूलालापमोदे पर्याप्तालापमक्कु । संजिपंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तनोळु लब्ध्यपर्याप्तालापमों देयक्कं। अनंतरं कायमार्गणेयोळापमं गाथाद्वर्याददं पेळ्दपं ।
भू आउतेउवाऊणिच्चचदुग्गदिणिगोदगे तिण्णि ।
ताणं थूलिदरेसु वि पत्तेगे तद्दु भेदेवि ॥७२१॥ भूवप्तेजोवायुनित्यचतुर्गतिनिगोदे त्रयः । तेषां स्थूलेतरेष्वपि प्रत्येके तद्धिभेदेपि ॥
तसजीवाणं ओघे मिच्छादिगुणेवि ओघालावो ।
लद्धिअपुण्णे एक्कोअपज्जत्तो होदि आलावो ॥७२२॥ त्रसजीवानामोघे मिथ्यादृष्टिगुणेपि ओघालापः । लब्ध्यपर्याप्त एकोऽपर्याप्तो भवत्यालापः॥
संज्ञिसामान्ये पञ्चगुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टो मूलालापास्त्रयो भवन्ति । गुणप्रतिपन्नेषु तु सासादनाऽसंयतयोः सामान्यपर्याप्तनिवृत्त्यपर्याप्ताः मूलालापास्त्रयो भवन्ति । मिश्रदेशसंयतयोरेकः पर्याप्त एव मूलालापः । संज्ञिलब्ध्यपर्याप्ते एकः लब्ध्यपर्याप्तालापः ॥७२०॥ अथ कायमार्गणायां गाथाद्वयेनाह
पृथ्व्यप्तेजोवायुनित्यचतुर्गतिनिगोदेषु तद्वादरसूक्ष्मेषु च प्रत्येकवनस्पती तत्प्रतिष्ठिताप्रतिष्ठितभेदयोश्च २० आलापत्रयमेव । त्रसजीवानां सामान्येन चतुर्दशगुणस्थानेषु गुणस्थानवदालापा भवन्ति विशेषाभावात् । पृथ्व्यादिवसांतलब्ध्यपर्याप्तेषु एकः लब्ध्यपर्याप्तालाप एव ॥७२१-७२२॥ अथ योगमार्गणायामाह----
__सामान्य संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचके पाँच गुणस्थान होते हैं। उनमें से मिथ्यादृष्टि में तीन मूल आलाप होते हैं। जो ऊपरके गुणस्थानोंमें चढ़े हैं उनके सासादन और असंयतमें सामान्य पर्याप्त नित्यपर्याप्त तीन मूल आलाप होते हैं। मिश्र और देश संयतमें एक पर्याप्त २५ ही मूल आलाप है । संज्ञी लब्ध्यपर्याप्त में एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप है ।।७२०॥
कायमार्गणामें दो गाथाओंसे कहते हैं
पृथिवी, अप, तेज, वायु, नित्यनिगोद, चतुर्गतिनिगोद, इनके बादर और सूक्ष्मभेदों में प्रत्येक वनस्पति और उसके प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित भेदोंमें तीन ही आलाप होते हैं। त्रसजीवोंके सामान्यसे चौदह गुणस्थानोंमें गुणस्थानकी तरह आलाप होते हैं; कोई विशेष . बात नहीं है । पृथ्वी आदि त्रसपर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तोंमें एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होता है ॥७२१-७२२॥
योगमार्गणामें कहते हैं
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गो० जीवकाण्डे पृथ्विकायिकदोळमकायिकदोळं तेजस्कायिकदोळं वायुकायिकदोळं नित्यनिगोदजीवंगळोळं चतुर्गतिनिगोदजीवंगळोळं इवर बादरसूक्ष्मभेदंगळोळं प्रत्येकवनस्पतियोळं तद्विभेदमप्प ।
प्रतिष्ठितप्रत्येकदोळं अप्रतिष्ठितप्रत्येकदोलं ओघदोळु साधारणालापत्रयमक्कु। त्रस जीवंगळ सामान्यदोळु गुणस्थानंगळपदिनाल्कप्पुवल्लि मिथ्यादृष्टयादिगुणस्थानंगळोळु गुणस्थानदोळपेळ्दंत आळापंगळप्पुवु । विशेषमिल्ल । पश्विकायिकादित्रसकायिकजीवपय्यंतमाद लब्ध्य. पर्याप्तरोळु लब्धिअपर्याप्तालापमा देयक्कु।' अनंतरं योगमार्गणयोळ आलापमं पेळ्दपं:
एक्कारसजोगाणं पुण्णगदाणं सपुण्ण आलावो ।
मिस्सचउक्कस्स पुणो सगएक्क अपुण्ण आलावो ॥७२३।। एकादशयोगानां पूर्णगतानां स्वपूर्णालापः। मिश्रचतुष्कस्य पुनः स्वकैकोऽपूर्णः आलापः॥
पर्याप्तिगे संद मनोवाग्योरांगळे टुं औदारिकवैक्रियिकाहारकंगळेब मूमितु पन्नोंदु योगंगळगे स्वस्वपूर्णालापमोदो देयक्कुमदते दोडे सत्यासत्योभयानुभयमनः पर्याप्ताळापमुं सत्यासत्योभयानुभयभाषापर्याप्ताळापमुं औदारिकवैक्रियिकाहारकशरीरपर्याप्ताळापमुं तंतम्म
वोंदोंदेयागि पन्नोंदुयोगंगळोळु पन्नोंदे पर्याप्ताळापमप्पुबुदत्थं । मिश्रचतुष्कयोगक्के मत्ते १५ स्वस्वापर्याप्तालापमोंदोंदेयककुमौदारिकापर्याप्तवैक्रियिकापर्याप्तआहारकापर्याप्न कार्मकायापर्याप्त बाळापचतुष्टयं यथासंख्यमागोंदोंदे पेळल्पडुवुवेबुदत्यं ॥ अनंतरं वेद मार्गणादियाहारमार्गणापर्यंतमाद पत्तु मार्गणेगळोळाळापक्रम तोरिदपं ॥
वेदादोहारोत्ति य सगुणट्ठाणाणमोघ आल वो ।
णवरि य संढित्थीणं णत्थि हु आहारगाण दुगं ॥७२४॥ वेदाहारपर्यंतं च स्वगुणस्थानानामोघ आळापः । नवमस्ति च षंढस्त्रीणां नास्त्याहारकयोद्विकं ॥
वेदमागमोदल्गोंडु आहारमार्गणेपथ्यंतमाद पत्तु मार्गणेगळोळ तंतम्ममार्गगळु गुणस्थानंगळ्ग सामान्यदिदं गुणस्थानंगळोळ पेन्दाळापक्रममेयककुमादोडमोंदु नवीनमुटदावुर्देदोडे भावपंढरं द्रव्यपुरुषरं भावस्त्रीयरुं द्रव्यपुरुषरुगळप्प वेदमागंणेय सवेदानिवृत्तिकरणपथ्यंतमाद
पर्याप्तिगतानां चतुर्मनश्चतुर्वागौदारिकवैक्रियिकाहारकैकादशयोगानां स्वस्वपूर्णालापो भवति यथा सत्यमनोगोगस्य सत्यमनःपर्याप्तालापः । मिश्रयोगचतुष्कस्य पुनः स्वस्वैकापर्याप्तालापो भवति । यथा औदारिकमिश्रस्य औदारिकापर्याप्तालापः ।। ७२३॥ अथ शेषमार्गणासु आह
वेदाद्याहारान्तदशमार्गणासु स्वस्वगुणस्थानानामालापक्रमः सामान्यगुणस्थानवद्भवति किन्तु भावषण्ढ
पर्याप्त अवस्थामें होनेवाले चार मनोयोग, चार वचनयोग, औदारिक, वैक्रियिक, ३० आहारक काययोग इन ग्यारह योगोंमें अपना-अपना पर्याप्त आलाप होता है। जैसे सत्य
मनोयोगके सत्यमन पर्याप्त आलाप होता है। चार मिश्रयोगोंमें अपना-अपना एक अपर्याप्त आलाप होता है । जैसे औदारिकमिश्रके औदारिक अपर्याप्त आलाप होता है ।।७२३।।
शेष मार्गणाओंमें कहते हैं
वेदसे लेकर आहारमार्गणा पर्यन्त दस मार्गणाओंमें अपने-अपने गुणस्थानोंका आलाप३५ क्रम सामान्य गुणस्थानकी तरह होता है। किन्तु भावसे नपुंसक द्रव्यसे पुरुष और भावसे
२०
२५
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कर्णाटवृत्ति जीवात्त्वप्रदीपिका गुणस्थानंगळोळु षष्ठगुणस्थानत्तिप्रमत्तसंयतनोळाहारक आहारकमिश्र बाळापद्वयम पेन्दु ल्वेडेके दोडा गुणस्थानदोळु अशुभवेदोदयमुळ्ळरोळाहाद्धि संभविसदप्परिदं हत्यपमाणं पसत्थुदयमेंदाहारकशरीरदोळु प्रशस्तप्रकृतिगळगुवयनियममुंटप्पुरिदं । वेदमागंणयोळनिवृत्तिकरणसवेदभागिपथ्यंतमों भत्तं गुणस्थानंगळप्पुवु। मेलण नाल्कुमवेवभागिपथ्यंतं कषायमार्गणय क्रोवदों भत्तुं मानदो भत्तु मायेयो भत्तु बादरलोभवों भत्तुं मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागिई ५ गुणस्थानंगळोळं सूक्ष्मलोभक्के सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानदोळं ज्ञानमार्गणय कुमतिज्ञानदेरडं कुश्रुतज्ञानदेरडं विभंगज्ञानदेरडु मतिज्ञानदो भत्तु श्रुतज्ञानदो भत्तं अवधिज्ञानदो भत्तं मनःपर्यायज्ञानदेळं केवलज्ञानदेरडुं गुणस्थानंगळोळु। संयममार्गणेय असंयमद नाल्कुं देशसंयमदों, सामायिकद नाल्कु छेदोपस्थापनद नाल्कुं परिहारविशुद्धि संयमदेर९ सूक्ष्मसांपाएसंयमदों दुं यथाख्यातसंयमद नाल्कुं गुणस्थानंगळोळं दर्शनमागणेय चक्षुर्दशंनद पन्नेरडु गुणस्थानंगळोळमचक्षुर्दर्शनव पन्नेर९१० अवधिदर्शनदों भत्तुं केवलदर्शनदरई गुणस्थानंगळोळं लेश्यामार्गणय कृष्णनीलकपोतंगळनाल्कुं नाल्कुं गुणस्थानंगळोळं तेजःपदमंगळे गुणस्थानंगळोळं शुक्ललेश्येय पदिमूलं गुणस्थानंगळोळ भव्यमार्गणेयोळु भव्यन पदिनाल्कुमभव्यनवोंदु गुणस्थानंगळोळं सम्यक्त्वमाग्गंणेय मिथ्यात्वदों, सासादननतन्नोंदु मिश्रन तन्नोंदु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वटुं प्रथमोपशमसम्यक्त्वदनाल्कुं वेदकसम्यक्त्वद नाल्कुं क्षायिकसम्यक्त्वद पन्नोंदु गुणस्थानंगळोळं संज्ञिमार्गणेयोळु संज्ञिय १५ द्रव्यपुरुष भावस्त्रीद्रव्यपुरुषे च प्रमत्तसंयते आहारकतन्मिश्रालापौ न । 'हत्यपमाणं पससत्थुदयं” इत्याहारकशरीरे प्रशस्तप्रकृतीनामेवोदयनियमात् । वेदानामनिवृत्तिकरणसवेदभागान्तेषु क्रोधमानमायाबादरलोभानां अवेदचतुर्भागान्तेषु सूक्ष्मलोभस्य सूक्ष्मसांपराये । ज्ञानमार्गणायां कुमतिकुश्रुतविभङ्गानां द्वयोः, मतिश्रुतावधीनां नवसु, मनःपर्ययस्य सप्तसु, केवलज्ञानस्य द्वयोः, असंयमस्य चतुर्यु, देशसंयमस्य एकस्मिन्, सामायिकछेदोपस्थापनयोश्चतुर्पु, परिहारविशुद्धेर्द्वयोः, सूक्ष्मसांपरायस्य एकस्मिन्, यथाख्यातस्य चतुर्पु, चक्षुरचक्षुर्दर्शनयोः २० द्वादशसु, अवधिदर्शनस्य नवसु, केवलदर्शनस्य द्वयोः, कृष्णनीलकपोतानां चतुर्यु, तेजःपद्मयोः सप्तसु, शुक्लायास्त्रयोदशसु, भव्यमार्गणायां भव्यस्य चतुर्दशसु, अभव्यस्य एकस्मिन्, सम्यक्त्वमार्गणायां मिथ्यात्वसासादनमिश्राणामेकैकस्मिन, द्वितीयोपशमस्य अष्टसु, प्रथमोपशमवेदकयोश्चतुर्ष, क्षायिकस्य एकादशसु, संज्ञिनोखो द्रव्यसे पुरुषके प्रमत्तसंयतमें आहारक-आहारक मिश्र आलाप नहीं होते। क्योंकि 'हत्थपमाणं पसत्थुदयं' इस आगम प्रमाणके अनुसार आहारक शरीर में प्रशस्त प्रकृतियोंके २५ ही उदयका नियम है। वेद अनिवृतिकरणके सवेद भाग पर्यन्त होते हैं । क्रोध, मान, माया, बादर लोभ अनिवृत्तिकरणके वेदरहित चार भागपर्यन्त क्रमसे होते हैं। सूक्ष्मलोभ सूक्ष्मसाम्परायमें होता है । ज्ञानमार्गणामें कुमति, कुश्रुत और विभंगके दो गुणस्थान हैं । मतिश्रुतअवधिके नौ गुणस्थान हैं। मनःपर्ययके सात गुणस्थान हैं। केवलज्ञानके दो गुणस्थान हैं । असंयतके चार गुणस्थान हैं, देशसंयतका एक गुणस्थान है। सामायिक छेदोपस्थापनाके, चार गुणस्थान हैं। परिहारविशुद्धिके दो, सूक्ष्मसाम्परायका एक, यथाख्यातके चार, चक्षुदर्शन-अचक्षुदर्शनके बारह, अवधिदर्शनके नौ, केवलदर्शनके दो, कृष्ण-नील-कापोतलेश्याके चार, तेज और पद्मके सात, शुक्ललेश्याके तेरह, भव्यमार्गणामें भव्यके चौदह, अभव्यका एक, सम्यक्त्वमार्गणामें मिध्यात्व,सासादन, मिश्रका एक-एक गुणस्थान है। द्वितीयोपशमसम्यक्त्वके आठ, प्रथमोपशम और वेदकके चार, क्षायिक सम्यक्त्वके ग्यारह, संज्ञीके
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गो० जीवकाण्डे
पन्नेरहुं असंज्ञियवो गुणस्थानंगळोळ' आहारमार्गणेयोल आहारद पविमूहमनाहारवों दु गुणस्थानंगलोलं सामान्यदवं गुणस्थानंगळोळु पेद क्रर्माददमाळापंगळ पेडु कोळगे ॥ गुणजीवा षज्जत्ती पाणा सण्णा गइंदिया काया ।
जोगा वेदकसाया णाणजमा दंसणा लेस्सा ॥७२५ ॥
भव्वा सम्मत्ताविय सण्णी आहारगा य उवजोगा । जोग्गा परुविदव्वा ओघादेसेसु समुदायं ॥ ७२६ ॥
गुणजीवाः पर्याप्तयः प्राणाः संज्ञा गतींद्रियाणि कायाः । योगा वेदकषाया ज्ञानयमा दर्शनानि लेश्याः ॥
भव्याः सम्यक्त्वानि च संज्ञिनः आहारकाश्चोपयोगाः । योग्याः प्ररूपयितव्याः ओघादेशेषु १० समुदायं ॥
पदिनाल्कु गुणस्थानंगळं मूलपर्य्याप्तजीवसमासंगळेळं मूलापर्य्याप्तजीवसमासंगळे ळं संज्ञिपंचेंद्रियजीव संबंधिपर्याप्तिगळा रुमपर्य्याप्तिगळारुं । असंज्ञिजीव संबंधिगळु विकलत्रयजीवसंबंधिगळुमप्प पर्य्याप्तिगळदुमपर्याप्तिगळखुं । एकेंद्रियसंबंधिपर्य्याप्तिगळ नाल्कुमपर्य्याप्तिगळ नाकं संज्ञिपंचेंद्रिय पर्य्याप्तिजीवसंबंधिप्राणगळ पत्तु । तदपर्याप्त जीवसंबंधिप्राणं१५ गळेलं असंज्ञिपर्य्याप्तपंचेंद्रियजीव संबंधिप्राणंगळो भत्तु तदपर्याप्तप्राणंगळेळ चतुरंद्रियपर्याप्त जीव संबंधिप्राणंगळे बुं । तदपर्याप्त प्राणंगळारुं पर्याप्तत्रींद्रियजीव संबंधिप्राणंगळेळु ७। तदपर्याप्तप्राणंगळेदुं पर्य्याप्तद्वींद्रियजीव संबंधिप्राणंगळारुं । तदपर्याप्त प्राणंगळु नाकुं । पर्याप्तैकेंद्रियजीव संबंधिप्राणंगळ नालकुं । तदपर्याप्तजी व संबंधिप्राणंगळु मूरुं । पर्याप्तसयोगिकेवळिभट्टारक संबंधिप्राणंगळु नाल्कुमवावुर्वेदोडे वाक्कायायुरुच्छ्वासनिःश्वासंगळ् क्कुमा । गुण
२० र्द्वादशसु, असंज्ञिन एकस्मिन्, आहारकस्य त्रयोदशसु अनाहारकस्य पञ्चसु च गुणस्थानेषु सामान्यगुणस्थानोक्तक्रमेणालापः कर्तव्यः ॥ ७२४ ॥
गुणस्थानानि चतुर्दश, मूलजीवसमासाः पर्याप्ताः सप्त । अपर्याप्ताः सप्त । संज्ञिनः पर्याप्तयः षट् अपर्याप्तयः षट् । असंज्ञिनो विकलत्रयस्य च पर्याप्तयः पञ्च अपर्याप्तयः पञ्च । एकेन्द्रियस्य पर्याप्तयः चतस्रः अपर्याप्तयः चतस्रः । प्राणाः संज्ञिनो दश तदपर्याप्तस्य सप्त । असंज्ञिनः नव तदपर्याप्तस्य सप्त, चतुरिन्द्रियस्य २५ अष्टौ तदपर्याप्तस्य षट्, त्रीन्द्रियस्य सप्त तदपर्याप्तस्य पञ्च द्वीन्द्रियस्य षट् तदपर्याप्तस्य चत्वारः, एकेन्द्रियस्य चत्वारः तदपर्याप्तस्य त्रयः । सयोगकेवलिनः चत्वारः वाक्कायायुरुच्छ्वासनिश्वासाख्याः । तस्यैव
बारह, असंज्ञीका एक, आहारकके तेरह और अनाहारकके पांच गुणस्थानों में सामान्य गुणस्थानों में कहे गये क्रमके अनुसार आलाप कर लेना चाहिए ॥ ७२४ ॥
गुणस्थान चौदह, मूल जीवसमास चौदह उनमें सात पर्याप्त, सात अपर्याप्त, संज्ञीके ३० पर्याप्त अवस्थामें छह पर्याप्तियाँ और अपर्याप्त अवस्थामें छह अपर्याप्तियाँ, इसी प्रकार असंज्ञी और विकलत्रयके पाँच पर्याप्तियाँ, पाँच अपर्याप्तियाँ । एकेन्द्रिय के चार पर्याप्तियाँ, चार अपर्याप्तियाँ, संज्ञीके प्राण दस, संज्ञी अपर्याप्तकके सात, असंज्ञीके नौ, असंज्ञी अपर्याप्त के सात, चतुरिन्द्रियके आठ, अपर्याप्त के छह, तेइन्द्रियके सात, अपर्याप्त पाँच, दोइन्द्रियके छह, उसी अपर्याप्तके चार, एकेन्द्रियके चार, उसी अपर्याप्तके तीन । सयोग३५ केवलीके चार प्राण वचन, काय, आयु, उछ्वास - निश्वास, उसीके पुनः मिश्रकाय और आयु ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका स्थानदोळे मिश्रकाय प्राणंगळेरडं अयोगिकेवलिगुणस्थानदायुष्प्राणमोढुं नाल्कुं संज्ञेगळं नाल्कु गतिगळं अदुमिद्रियंगळु। आरुकायंगळु पर्याप्तयोगंगळ्पनों हूँ। अपर्याप्तयोगंगळु नाल्कुं मूरुवेदंगळुनाल्कुं कषायंगळ एंटु ज्ञानंगळु एळु संयमंगळु नाल्कुं दर्शनंगळु आरं लेश्यगळं यरडुं भव्यंगळुआरं सम्यक्त्वगळु येरडं संज्ञगळु यरडुमाहारंगळं। पन्नेरडुमुपयोगंगळुएंबी समुच्चयं गुणस्थानंगळोळ मार्गणास्थानंगळोळं यथायोग्यंगळागि प्ररूपिसल्पडुवुवल्लि 'संदृष्टि :- ५
गु । प । जी । ७ । अ७ । प६ प्राणंगलु १०।७।९।७।८।
१४ । अ । ६ ।प५ । अ५ । प४ । ६।७।५।६।४।४।३।४ । स २ । अ१। संज्ञेगळनाल्कु ४। गतिगळ नाल्कु ४। इंद्रिय ५। काय ६ । यो ११ । ४ । वे ३ । क । ४ । ज्ञा ८। सं७। द ४। ले ६ । भ २। सं ६ । सं २। आ २ । उ १२॥ जीवसमासेयोळु विशेषमं पेन्दपं:
ओघे आदेसे वा सण्णी पज्जंतगा हवे जत्थ ।
तत्थ य उणवीसंता इगिवितिगुणिदा हवे ठाणा ॥७२७।। ओघे आदेशे वा संज्ञिपयंता भवेयुर्यत्र तत्र चैकान्नविंशत्यंता एकद्वित्रिगुणिता भवेयुःस्थानानि ॥
सामान्यदोळं विशेषदोळं संज्ञिपय्यंतमाद मूलजीवसमासंगळावेडयोळ पेळल्पडुगुवल्लि एकानविंशतितमाद उत्तरजीवसमासस्थानविकल्पंगळु एकद्वित्रिगुणितमादोडे सर्वजीवसमास- १५
१०
स्थानविकल्पंगळप्पुवु । सा१त्र स्था १। ए १। वि।सं १९१। वि१म१।१।
पुनः मिश्रकायायुषो, अयोगस्य आयुर्नामकः । संज्ञाश्चतस्रः, गतयः चतस्रः, इन्द्रियाणि पञ्च, कायाः षट् , योगाः पर्याप्ता एकादश, अपर्याप्ताश्चत्वारः, वेदाः त्रयः, कषायाश्चत्वारः, ज्ञानानि अष्टौ, संयमाः सप्त, दर्शनानि चत्वारि, लेश्याः षट् , भव्यद्वयं, सम्यक्त्वानि षट्, संज्ञिद्वयं आहारद्वयं उपयोगा द्वादश-एते सर्वे समुच्चयं गुणस्थानेषु मार्गणास्थानेषु च यथायोग्यं प्ररूपयितव्याः ॥७२५-७२६॥ जीवसमासेषु वि
सामान्य विशेषे वा संक्षिपर्यन्ता मलजोवसमासाः यत्र निरूप्यन्ते तत्र एकानविंशत्यन्ता उत्तरजीवसमासस्थानविकल्पा एकद्वित्रिगणिताः संत; सर्वजीवसमासस्थानविकल्पा भवन्ति ।
wwwand
अयोगीके एक आयुप्राण है। संज्ञा चार, गति चार, इन्द्रियाँ पाँच, काय छह, पर्याप्तयोग ग्यारह, अपर्याप्त चार, वेद तीन, कषाय चार, ज्ञान आठ, संयम सात, दर्शन चार, लेश्या छह, भव्य-अभव्य, सम्यक्त्व छह, संज्ञी-असंज्ञी, आहारक-अनाहारक, उपयोग बारह । ये २५ सब गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें यथायोग्य प्ररूपणीय हैं ।।७२५-७२६।।
जीवसमासोंमें विशेष कहते हैं
गुणस्थानों या मार्गणाओं में जहाँ संज्ञीपर्यन्त मूल जीवसमास कहे जायें, वहाँ उन्नीस पर्यन्त उत्तर जीवसमास स्थानके विकल्पोंको एक सामान्य, दो पर्याप्त-अपर्याप्त और तीन
३०
१. म गु. जी. ५६ । ६।
१४ । ७।७। ५ ५।
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गो० जीवकाण्डे
ए १ । बि १ । ति १ च १।१।११। अ १ । ते १ । वा १ । व १।। १। पृ १ । अ१।
ते १। वा १ । व १ वि १ । स १।११। अ१ ते १। वा १ व १। वि १। अ१।सं १ । पृ१ अ १ । ते १। वा १ व १। बि १ । ति १ च १।११।१ । अ१ ते १। वा १।
व १। बि १ । ति १ च १ । अ १ । सं १।१२।१२। ते २। वा २। व २।त्र १। पृ २। अ २१ ते २ । वा २। व २ । वि १। स १।१२। अ २१ ते २। वा २१ व २ । वि १। सं १ ।
२। अ २। ते २। वा २। व २। बि १ । ति ११ च १।६१।१२। अ २ ते २। वा २। व २। बि १ । ति १ च १। ति १ च १ । अ१।सं १।१२। अ २ ते २। वा २ । नि २।
२।१। वि १। अ १। सं १।२। २। ते २॥ वा २ । नि २ च २। प्र१ । बि १।
१। १।१।१२। २। ते २। वा २। नि २ च २। प्र १ । बि १ । ति १ । च १। अ१।सं १। पृ२। अ५। ते २। वा २। नि २ च २। प्र२। बि १। ति १। च १। अ१। सं १॥
'१।२।३।४।५।६।७।८।९।१०।११। १२ । १३ । १४ । १५। १६ । १७ । १८॥ १९॥ गुणकारसामान्यविंदमोंदु १ । युति १९०।२।४।६।८।१० । १२ । १४।१६ । १८।२०। २२ । २४ । २६ ॥ २८ ॥ ३० ॥ ३२॥ ३४॥ ३६ ॥ ३८॥ गुणकाररयुति ३८०।३।६।
॥
सा १ १ १ स्था १ ए १ वि १ सं १ ए १ वि १। अ१ सं १ ए १ वि १ ति १ च १५ १११ १५ अ १ ते १ वा १ व १ १११ अ १ ते १ वा १ व १ वि १ सं ११ अ १ ते १ वा १ व १ वि १।
अ१ सं १५१ अ १ ते १ वा १ व १ वि १ ति १ च १६१।११ अ१ ते १ वा १ व १ वि १ति १ च १ अ १ सं १ पृ २ अ २ ते २ वा २ व २ १ १ २ अ २ ते २ वा २ व २ वि १ सं । १२ अ २ ते २ वा २ व २ वि १ अ १ सं १। पृ २ अ २ ते २ वा २ व २ वि १ ति १ च १६१। १२ अ २ ते २ वा २ व २ वि १ ति १ च १ अ१५१। पृ २ अ २ ते २ वा २ नि २ च २ प्र१ वि १ अ १ सं १। २ अ२ ते २ वा २ नि २ च २ प्र१ वि १ ति १ च १५१ प २ अ २ ते २ वा २ नि २ च २ प्र१ वि १ ति १ च १ अ१ सं १। पृ २ अ २ ते २ वा २ नि २ च २ प्र२ वि १ ति १ च १ अ १ सं १ । १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ १० ११ १२ १३ १४ १५ १६ १७ १८ १९ । गुणकारः सामान्यत सामान्य पर्याप्त-अपर्याप्तसे गुणा करनेपर समस्त जीवसमास स्थानके विकल्प होते हैं।
एकसे लेकर उन्नीस तकके विकल्पोंको एकसे गुणा करनेपर उतने ही रहते हैं १, २, ३, ४, २५ ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, १२, १३, १४, १५, १६, १७, १८, १९ । इन सबका जोड़ १९०
१. इवु पर्याप्तंगलोंदे भेदवु । २. पर्याप्तापर्याप्तभेददि द्विगुणंगलु। ३. इवु पर्याप्तनिवृत्यपर्याप्त. लब्ध्यपर्याप्तभेददित्रिगुणितंगलु ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ९ । १२ । १५ । १८ । २१ । २४ । २७ । ३० । ३३ । ३६ । ३९ । ४२ । ४५ । ४८ । ५१ । ५४ । ५७ ॥ गुणकार ३ युति ५७० ॥ इंतु गुणस्थानंगळोळ मार्गणास्थानंगळोळं विंशतिविधं गळु योजिसल्पडुगुमददोडे :
वीरमुहकमलणिग्गयसयलसुयग्गहणपयडणसमत्थं ।
णमिऊण गोदममहं सिद्धांतालावमणुवोच्छं ॥७२८॥ वीरमुखकमलनिर्गतसकलश्रुतग्रहणप्रकटनसमर्थं। नत्वा गौतममहं सिद्धांताळापमनुवक्ष्यामि ॥
सूत्रसूचितंगळप्प विंशतिविधंगळाळापनिरूपणे माडल्पडुवल्लि मोदळोळं गुणस्थानदिवं येळल्पडुगुमदेतेंदोडे पदिनाल्कुगुणस्थानत्तिगळं गुणस्थानातीतरुगळुमोळरु। पदिनाल्कु जीवसमासंगळनुरुमतीतजीवसमासरुगळुमोळरु षट्पर्याप्तिगळोकूडिदरुं । षडपर्याप्तियुक्तरुं १० पंचपंचपर्याप्त्यपर्याप्तियुक्तरुं। चतुश्चतुःपर्याप्त्यपर्याप्तियुक्तरुगळमोळरु । अतीतपर्याप्तरुगळुमोळरु । दशप्राण । सप्तप्राण । नवप्राण । नवप्राण । सप्तप्राण । अष्टप्राण । षट्प्राण । सप्तप्राण । पंचप्राण । षट्प्राण | चतुःप्राण। चतुःप्राण । त्रिप्राण । चतुःप्राण । द्विप्राण । एकप्राण। युतरुमतीतप्राणरुगळुमोळरु । चतुविधसंज्ञायुक्तरुं । क्षीणसंज्ञरुगळुमोळरु । चतुर्गतिजीवंगळं सिद्धगतिजीवंगळमोळरु।।
एकेंद्रियादिपंचजातियुतजीवंगळु मतीतजातिगळुमाळरु । पृथ्वीकायिकादिषट्कायिकंगळुमतीतकायिकंगळुमोळरु । पंचदशयोगयुक्तरुमयोगरुगळुमोळरु । त्रिवेदिगळुमपगतवेदगळमोळरु । एकः १ । युतिः १९०। २ ४ ६ ८१० १२ १४ १६ १८ २० २२ २४ २६ २८ ३० ३२ ३४ ३६ ३८ गुणकारः २ युतिः ३८० । ३६९१२ १५ १८२१ २४२७ ३० ३३ ३६ ३९ ४२ ४५ ४८ ५१ ५४ ५७ गुणकारः ३ । युतिः ५७० ॥७२७॥ इतोऽग्रे गुणस्थानेषु मार्गणास्थानेषु च ते गुणजीवेत्यादिविंशतिभेदा २० योज्यन्ते तद्यथा
तत्र गुणस्थानेषु यथा तावच्चतुर्दशगुणस्थानजीवाः तदतीताश्च सन्ति । चतुर्दशजीवसमासास्तदतीताश्च संति । षट् षट् पञ्च पञ्चचतुश्चतुः पर्याप्त्यपर्याप्ति जीवाः तदतीताश्च संति । दशसप्तनवसप्ताष्टषट्सप्तपञ्चषट्चतुश्चतुस्त्रिचतुद्वर्येकप्राणाः तदतीताश्च संति । चतुःसंज्ञाः तदतीताश्च संति । चतुर्गतिकाः सिद्धाश्च संति । होता है। इन्हें दोसे गुणा करनेपर सबका जोड़ ३८० होता है और तीनसे गुणा करनेपर २५ सबका जोड़ ५७० होता है ।।७२७॥
यहाँसे आगे गुणस्थानों में और मार्गणाओंमें गुणस्थान जीवसमास इत्यादि बीस भेदोंकी योजना करते हैं
. वर्धमान स्वामीके मुखरूपी कमलसे निकले सकलश्रुतको ग्रहण और प्रकट करनेमें समर्थ गौतम स्वामीको नमस्कार करके सिद्धान्तालापको कहूँगा।
गुणस्थानोंमें जैसे चौदह गुणस्थानवी जीव हैं तथा गुणस्थानसे रहित सिद्ध हैं। चौदह । जीवसमाससे युक्त जीव हैं और उनसे रहित जीव हैं। छह-छह, पाँच-पाँच, चार-चार पर्याप्ति
और अपर्याप्तिसे युक्त जीव हैं और उनसे रहित जीव हैं । दस सात, नौ सात, आठ छह, सात पाँच, छह चार, चार तीन, चार दो और एक प्राणके धारी जीव हैं और उनसे रहित जीव हैं। चार संज्ञावाले और उनसे रहित जीव हैं। चार गतिवाले और गतिरहित सिद्ध ३५
_ ३०
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९५०
गो. जीवकाण्डे चतुःकषायिगळ मकषायरुमोळरु। अष्टज्ञानिगळ मोळरु। सप्तसंयमरुगळ मतोतसंबमरगळ - मोळर। चतुर्दशनिगळुमोळरु । द्रव्यभावभेदषड्लेश्यरुगळुमलेश्यरुगळुमोळरु । भव्यसिद्धरुगळ मभव्यसिद्धरुगळुमतीतभव्याभव्यसिद्धरुगळमोठरु । षड्विधसम्यक्त्वयुक्तरुगळुमोळरु । संज्ञिगमसंशिगळुमतिक्रांतसंज्यसंज्ञिगळ मोळरु । आहारिगळ मनाहारिगळ मोळरु । साकारोपयोगयुक्तरुगधुमनाकारोपयोगयुक्तरुं । युगपत्साकारानाकारयोगयुक्तरुगळ मोळरु । इन्नु पर्याप्तविशिष्टगुणस्तानाळापं विवक्षितमागलु पदिनाल्कुं गुणस्थानिगळुमाळरु। अतीतगुणस्थानरिल्लेके दोडपर्याप्तरोल तदाळापासंभवपप्पुरिदं। पर्याप्तगुणस्थानिगळ्गे । गु१४ । जी७।५ ६।५।४ । प्रा१०।९। ८।६।७।४।४।१। सं४ । ग४। इं५ । का६ । यो११ । वे३ । क४ । ज्ञा८ । सं७ । द४ ले ६६
भ २। सं६ । सं २ । आ २। उ १२। अपर्याप्तगुणस्थानिगळ्ग। गु५ ।मि। सा। अप्र। सयोगी । जो ७।१६।५।४। प्रा ७।७।६।५।४।३।२।सं ४। ग४। इं५ का ६। योग४। औ मि। वै मि। आ मि । कार्मण । वे३। कषा ४ । ज्ञा ६ । कूकु। म। श्रु । अ
पञ्चजातयः तक्तीताश्च संति । षटकायिकास्तदतीताश्च सति । पञ्चदशयोगाः अयोगाश्च संति । त्रिवेदाः तदतीताश्च संति । चतुःकषायाः अकषायाश्च संति । अष्टज्ञानाः संति । सप्तसंयमास्तदतीताश्च संति । चतुदर्शनाः संति । द्रव्यभावषटलेश्याः अलेश्याश्च संति । भव्यसिद्धाः अभव्यसिद्धाः अतीततद्धावाश्च संति । षट्सम्यक्त्वाश्च संति । संज्ञिनोऽसंज्ञिनोऽतीततद्धावाश्च संति । आहारिणोऽनाहारिणश्च संति । साकारोपयोगाः अनाकारोपयोगाः युगपदुभयोपयोगाश्च संति । अथ पर्याप्तिविशिष्टगुणस्थानालाप उच्यते-तत्र चदुर्दशगुणस्थानिनः संति न च तदतीताः पर्याप्तेषु तदालापासंभवात्
पर्याप्तगुणस्थानिनां गु १४ । जी ७। ६५४ । प्रा१०९८७६४४१ । सं४ । ग ४ । इ ५ । का ६ । यो ११ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ८ । सं ७ । द ४ । ले ६ । भ २। स ६। सं २ । आ १ ।
भा ६ २० उ १२ । अपर्याप्तगुणस्थानिनां गु ५ मि सा अ प्रस । जी ७ अ । प ६. ५ । ४ । प्रा ७ ७ ६ ५४३२।
सं ४ । ग ४ । इ ५ । का ६ । यो ४ औमि वैमि आमि कार्म । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६ । कु कु म श्रु अ के ।
हैं । पाँच जातिवाले और उनसे रहित जीव हैं। छह कायिक जीव और उनसे रहित जीव हैं । पन्द्रह योगवाले जीव और योगरहित जीव हैं। तीन वेदवाले जीव और उनसे रहित
जीव हैं। चार कषायवाले जीव और कषायरहित जीव हैं। आठ ज्ञानवाले जीव हैं। २५ ज्ञानरहित जीव नहीं हैं। सात संयमसे युक्त जीव और उनसे रहित जीव हैं। चार दर्शन
वाले जीव हैं। दर्शनसे रहित जीव नहीं हैं। द्रव्य भाव रूप छह लेश्यासे युक्त जीव और उनसे रहित जीव हैं। भव्यसिद्ध,अभव्यसिद्ध जीव हैं और उन दोनों भावोंसे रहित जीव हैं। छह सम्यक्त्वयक्त जीव हैं। सम्यक्त्व रहित जीव नहीं हैं। संज्ञी और असंज्ञी जीव तथा दोनोंसे रहित जीव हैं। आहारी और अनाहारी जीव हैं। साकार उपयोगी, अनाकार उपयोगी और एक साथ दोनों उपयोगवाले जीव हैं। आगे गुणस्थान और मार्गणास्थानमें यथायोग्य बीस प्ररूपणा कहते हैं
विशेष सूचना-टीकाकारने गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें बीस प्ररूपणाओंका निरूपण सांकेतिक अक्षरोंके द्वारा किया है। उनको आगे अन्तमें नकशों द्वारा अंकित किया गया है।
३०
-
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९५१
भा६
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका के । स ४ । अ । सा। छ। यथा । द४ ले २ क । शु॥
भा६ सवेसि सुहमाणं कावोदं सव्वविग्गहे सुक्का ।
सम्वो मिस्सो देहो कवोदवण्णो हवे णियमा॥ भ २। सं ५। मिश्ररुचिरहित सं २ । आ २ । उ १० । विभंग ज्ञानसहित मिथ्यादृष्टिगुणस्थानत्तिगळगे गु१। जी १४ प ६।६।५।५।४।४। प्रा १०।७।९।७।८।६। ५ ७।५।६।४।४।३। सं ४ । ग ४। इं५ । का ६ । यो १३ । आहारकद्वयरहित । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु। वि। सं। १ । अ । द २। ले ६ भ२।सं १ । मि । सं २ । आ २। उ ५। पर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळगे। गु १। मि। जी ७। प ६। ५।४। प्रा १०।९।८। ७।६।४॥
सं ४ । ग ४ । ६५ । का ६। यो १० । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु। कु। वि। सं १। । द २ । ले द्र ६ । भा ६। भ २।सं १ । मि । सं २। आ १ । उ ५॥ अपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळ्गे १० गु १। मि । जि ७। पर्यो । ६।५।४ । प्रा ७।७।६।५।४।३ । सं । ४ ।ग ४ । ई ५। का ६ । यो ३ । औ मि वै मि । कार्म। वे ३ । क ४ । ज्ञा २ । सं १ ।अ। द २। ले २ क।
भा६ शुभ २।सं १ मि । सं २ । आ २ । उ ४॥
सासावनगुणस्थात्तिगळ्गे गु १ । सासा । जो २। प । अ । १६ । ६। प्रा १०।७। सं ४ । ग ४ । इं १ का १त्रयो १३ । म ४ । वा ४ । औ २।वै २ का १। वे ३ क ४। १५ ज्ञा३ । कु। कु। वि । सं १ । अ । द । २ ले ६ द्र भ१। सं १ । सा सा । सं १ । आ २।
६ भा
२०
सं ४ अ सा छे यथा । द ४ ले २ क शु ।
भा ६ भ२ । स ५ । मिश्रं न हि, सं २ आ २ उ१०। विभङ्गमनःपर्ययौ नहि, सामान्यमिथ्यादृष्टीनां । गु १ । जी १४।१६। ६ ५ ५ ४ ४ । प्रा १० ७ ९ ७ ८ ६ ७ ५ ६ ४ ४ ३ । सं ४ । ग ४ । इं५ । का ६ । यो १३ आहारकद्वयं नहि । वे ३ । क ४। ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ । द १ । ले ६ । म २ स १
भा ६ मि । सं २। आ २। उ ५ । तत्पर्याप्तानां ग १ । जी ७।५।६ ५ ४ प्रा १०९८७६४। सं४ । ग ४ । इं५ । का ६ । यो १० । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ । आ । द२।ले ६ । भ२।
भा ६ स १ मि । सं २ । आ १ । उ ५। तदपर्याप्तानां-गु १। जी ७ । प ६ ५ ४ । प्रा ७ ७ ६ ५ ४ ३ । सं४ । ग ४। इं५। का ६ । यो ३ । औमि । वैमि । का। वे ३ । क ४। ज्ञा२। सं १ अ। द २ ले २! क । शु । भ २ । स १ मि । सं २ । आ २। उ४ । सासादनानां-गु १ सासा। जी २ प । अ । भा ६ ५६।६। प्रा.। १० ७। सं४ । ग ४। इं१५ । का १। यो १३ । म ४ । वा ४ । औ २ । २ । का १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ कु, कु, वि । सं १ अ । द २ ले ६ । भ१ । स १ सासा। सं १ २।
भा६
५
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९५२
गो० जीवकाण्डे उ ५ । पर्याप्तकसासादनगुणस्थानतिगळ्गे । गु १ । सा सा | जी १।प।१६। प्रा १० । सं। ग ४ । इं१। पं। का १। त्र। यो १० । म ४। वा ४ । औ का १। वै का १। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ | कु । कु । मि । सं १ । अ । द २ ले ६ । भ १। सं १ । सा सा । सं १ । आ १। उ ५।
भा६ अपर्याप्तकसासादनगुणस्थानत्तिगळ्गे । गु१। अ। प। ६ । अ । प्रा ७ । असं ४ ग ३ । ति । म । दे । इं१। पं । का १। त्र । यो ३ । औ मि । वै मि । का । वे ३ । क ४ । ज्ञा २। कु । कु । सं । अ द २ ले २। क । शु । भ १ । सं १ । या सा। पं १ । आ २। उ४॥
भा ६ सम्यग्मिथ्यावृष्टिगुणस्थानवत्तिगळ्गे । गु१। मिश्र। जो १। प । प ६।५ । प्रा १० । सं ४। ग ४। इं१।। का १ । । । यो १०। म ४ । वा ४ । औ का १ । वै का १। वे ३ । क४। ज्ञा३। मि म। मि श्र। मि अ । सं १ । अ । द३ ले ६ भ१। १
२६
१० मिश्ररुचि । सं १ । आ १ उ ६॥
असंयतगुणस्थानवत्तिगळ्गे। गु१। अ। सं। जी २।। अ । ६६ । प्रा १०।७। सं ४ । ग ४। इं१। पं। का १२ । यो १३। म ४ । व ४। औ २। वै २। का १ । वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १ । अ । द ३ । च । अ । अ॥ ले ६ भ१ । सं ३ । उ । वे।
भा६ क्षा । सं १ । आ २। उ ६॥ १५ असंयतगुणस्थानत्तिपर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे । गु १। असं । जी १। प।१६।
प। प्रा १० । सं ४ । ग ४ । ई १ । पं। का १। त्र। यो १० । म ४ । व ४। औ का १ । वै का१ । वे३। क४। ज्ञा३।म। श्र। अ । सं १। अद३। च। अ।अ। ले ६ भ१ ।
भा६
सं३। उ । वे । क्षा। सं१। आ १६॥
उ ५। तत्पर्याप्तानां-गु १ सासा । जी१।१६। प्रा १० । सं४। ग४। इं१५ । का १ । यो १० २० म४ । वा ४ । औका १ । वैका १। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ । द २ ले ६ । भ १ ।
भा ६ स १ सासा । सं १ । आ १ । उ ५ । तदपर्याप्तानां गु १ । सासा । जी १ अ । प ६ अ । प्रा ७ अ । सं ४। ग ३ ति म दे। इं१६ । का ११ । यो ३ औमि वैमि का। वे ३ । क ४ । ज्ञा २ कू कू । सं १ अ । द २ । ले २ क शु । भ१। स १ सासा । सं १ । आ २ । उ ४॥ सम्यग्मिथ्यादृष्टीनां गु १ मिश्र । जी
भा ६ १प। प६ प । प्रा १० । सं ४ । ग ४ । १५ । का ११ । यो १० । म ४ वा ४ औका १ वैका १। २५ वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ अ । द २ । ले ६ । भ१ । स १ मिश्ररुचि । सं१। आ १। उ ५ ।
भा६ असंयतानां १ असं । जी २ प अ । प ६६ । प्रा १०७ । सं४। ग४। इं१५ का १ त्र। यो १३ म ४ वा ४ औ २ व २ । का १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ मश्रु अ । सं १ अ । द ३ च अ अ । ले ६।
भा ६ भ १ । स ३ उ वे क्षा । सं १ । आ २ । उ ६ । तत्पर्याप्तानां-गु १ अ । जी १ प । प ६ प । प्रा १० । सं ४ । ग ४ । ई १६ । का १ त्र। यो १० म ४ वा ४ औका १, वैका १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ म
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९५३
असंयत गुणस्थानर्वात अपर्याप्ता संयतसम्यग्दृष्टिगळगे । गु १ । अ सं । जो १ | अ |प | ६ । अ । प्रा ७ । अ । सं ४ | ग ४ | इं १ । पं । का १ । त्र । यो ३ । औ मि । वैमि । का। वे २ । नपुं । क ४ । ज्ञा ३ | म । श्रु अ । सं १ । अ । द ३ | च । अ । अ ले २ क । शु |
।
भा ६
भ १ । सं ३ । उ वे । क्षा । सं १ । आ २ | उ६ ॥ देश संयत गुणस्थान गिळगे गु १ ग २ । ति । म । इं १ पं । का १ त्र । यो ९ |
। देश । जी १ । प
प ६ ।
प । प्रा १० । सं ४ ।
म ४ | वा ४ । औ का १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ ।
म । श्रु । अ । सं १ | देश | द ३ | च । अ । अ ।
आ १ । उ ६ ॥
=
ले ६ भ १ | सं ३ | उ । वे । क्षा । सं १ । भा ३
।
प्रमत्तगुणस्थानवत्तप्रमत्तंगे । १ । प्र । जी २ | प | अ | १६ | ६ प्रा १० । ७ ग १ | म । इं १ । पं । का १ त्र । यो ११ । म ४ । व ४ । औ । का १ ज्ञा ४ | म । श्रु । अ । म ४ । सं३ । सा । छे । प । व ३ । च । अ । अ उ | वे । क्षा । सं १ । आ १ । उ ७ ॥
सं ४ ।
भा ३
अप्रमत्तगुणस्थानवत्त अप्रमत्तंगे गु १ । अ प्र जी १ प प ६ । प । प्रा १० | सं३ । भ | मैं |प | कारणाभावे काय्र्यस्याप्यभावः एंडु सदसद्वेद्यंगळिगे प्रमत्तनोळुदीरणे व्युच्छित्तियादुदमपुदरिदमाहारसंज्ञे अप्रमत्तनोलु संभविसदु । ग १ । म । इं १ । पं । का १ । त्र । यो ९ । १५ । म । सं ३ । सा । छे । प । व ३ । १ । उ ७ ॥
म ४ । वा ४ । औ का १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ | म । श्रु । अ च | अ | अ ले ६ भ १ । सं ३ | उ । वे । क्षा | सं १ । भा ३
अपूर्वकरण गुणस्थानवत्तगलिगे । गु १ । अ । जी १
।
प ६ । प्रा १० | सं३ । ग १ |
।
गु १ असं | जी १ अ प ६ अ का २ नपुं । क ४ । ज्ञा ३
प्रा ७ अ । सं ४ । ग ४ । म श्रु अ । सं १ अ । द ३
असं १ अ । ३ च अ अ । ले ६ | भ १ । स ३ उ वे क्षा । सं १ । आ १ । उ ६ । तदपर्याप्तानां
भा ६
। आ २ | वे ३ | क ४ । १० ले ६ भ १ । सं ३ |
इं १ पं । का १ त्र । यो ३ । औमि वैमि च अ अ । ले २ क शुभ १ । स ३ उ भा ६
क्षा । सं १ | आ १ । उ ७ । अप्रमत्तानां -गु १ अप्र जी १ प ६ प भावे कार्यस्याप्यभावात् सदसद्वेद्यानुदीरणात् अत्र आहारसंज्ञा नहि । म ४ व ४ | औका १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ म श्रु अम । सं ३
५
प्रा १० प । सं ४ । ग २ ज्ञा ३ म श्रु अ । सं १ देश । क्षा । सं १ । आ १ । उ ६ । प्रमत्तानां - गु १ प्र । जी २
वेक्षा । सं १ । २ । उ ६ | देशसंयतानां-गु १ देश । जी १ प प ६ प तिम । ई १ पं । का १ त्र । यो ९ । म ४, वा ४, औका १ । वे ३ । क ४ । ३ च अ अ । ६ । भ १ । स ३ उ वे भा ६ पअ । ६६ । प्रा १० ७ । सं ४ । ग१ म । इं १ पं । का १ त्र । यो ११ म ४ । वा ४ । औका १, आ २ | वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ म श्रु अम । सं ३ सा छेप । द ३ च अ अ । ले ६ । भ १ । स ३ उ वे
।
२५
भा ३
२०
प्रा १० । सं ३-भ में प । कारणाग१ म । ई १ पं । का १ त्र । यो ९ सा छे प । द ३ च अ अ । ले ६ ॥
भा ३
भ १ । स ३ उ वे क्षा । सं १ । आ १ । उ ७ । अपूर्वकरणानां १ अपू । जी १ । १ ६ । प्रा १० । ३०
१२०
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९५४
गो०जीवकाण्डे
म। इं१। पं । का १। त्र। यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं २। सा । छ । द३। च । अ। अ। ले ६ भ१। सं२। उ ।क्षा । सं १ । आ १ । उ ७॥
भा१
अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवत्तिप्रथमभागानिवृत्तिकरणंगे। गु १। अनि । जी १। ५६। प्रा १० । सं २। मै। ग १ । म । ई १ । का १ । यो ९। वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं २ । सा छ । ५ ८३। ले भ । सं २। ।क्षा। सं१। आ । उ७॥
भा १
अनिवृत्तिकरणगुणस्थानवत्तिद्वितीयभागानिवृत्तिकरणंगे। गु १। अनि । जि १।१६। प्रा १० । सं १।प। ग१।म। ई१ । का१यो९। वे ०। क ४ । ज्ञा ४ ।माश्रु । अ । म। सं २ । सा । छे । द३। ले ६ भ१। सं २। उ । क्षा। सं १ । आ १। उ ७॥
भा१
। जी१ । प६। प्रा १०। स १।प। ग १।म। इं१। १० का १। यो९। वे ०। क३। ज्ञा ४। सं२। सा। छ। द३। ले ६ भ१।सं २। उ।
भा १ क्षा । सं १ । आ । उ ७॥
चतुर्थभागानिवृत्तिकरणंगे। गु१। अनि । जी १। प ६ । प्रा १० । सं १।प। ग १ । म । ई १ । का १ । यो ९ । वे ० । क २ । ज्ञान ४। सं २। सा। छ । द ३। ले ६ भ१ ।
भा१ सं २। उ । क्षा। सं १ । आ १। उ ७॥ १५ पंचमभागानिवृत्तिकरणंगे। गु १ । अनि । जी १ । १६ । प्रा १० । सं १ । प।ग १ । म । इं१। ५०। का १ । । । यो ९ । वे । क १ । लो । जा ४ । सं २ । सा । छ । द ३। ले ६
भा १ भ१। सं २। उक्षा । सं१। आ१। उ७॥
सं ३ । ग १ म । ई १५ । का १ त्र । यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं २ । सा छे । द ३ च अ अ ।
। स २ । उक्षा । सं १ । आ१ । उ ७ । अनिवृत्तिकरणप्रथमभागवर्तिनांग १ अनिवत्ति । भा १ २० जी १ । प ६ । प्रा १० । सं २ मै प । ग १ म । ई १ का १ । यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं २ सा छ । द ३ । लें ६ । भ १ । स २ उक्षा । सं १। आ १। उ ७ । तद्वितीयभागवतिनां-गु १ अनि ।
भा १ जी १।१६ । प्रा १० । सं १ प । ग १ । इं१ । का १। यो ९ । वे ० । क ४ । ज्ञा ४ मश्रु अ म । सं २ सा छे । द ३ । ले ६।भ १ । स २ उ क्षा । सं १ । आ १। उ ७। तृतीयभागवर्तिनां- १
भा १ अनि । जी १।१६। प्रा १० । सं १ प। ग १ म । इं१ का १। यो ९ । वे ० । क ३ । ज्ञा ४ । २५ सं २ सा छे । द३ । ले ६ । भ१। स २ उक्षा । सं १ । आ १ । उ ७ । चतुर्थभागवर्तिनां-गु १ अनि ।
भा १ जी १।१६ । प्रा १० । सं १५ । ग १ म । इं१ । का १। यो ९ । वे ० । क २। ज्ञा ४ । सं २ सा छ । द ३ । ले ६ । भ१ । स २ उक्षा । सं१। आ१ । उ ७ । पंचमभागवर्तिनां-गु १ अनि । जी १।
भा १ प६ । प्रा १० । सं १ प । ग १ म । इं१६ । का १ । यो ९ । वे ० । क १ लो । ज्ञा ४। सं २ सा
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९५५ सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानत्तिसूक्ष्मसांपरायंगे गु १ । सू । जी १ । १६ । प्रा १० । सं १। प। इं १ । का १ । यो ९ । वे ० । कषा १ । ज्ञा ४ ॥ सं १ । सू । व ३ । लेश्ये ले ६ सं २। उ ।
भा१ क्षा । सं १ । आ १। उ ७॥
उपशालकषायगुणस्थानत्तिउपशांतकषायंगे। गु१। उ प। जी १। प६ । प्रा १०। स० । ग १। म। इं१ का १। यो ९। वे ०।क ।ज्ञा ४ । सं १। यथा । द ३। ले ६ ५
भा १ भ १। सं २। उ । क्षा। सं १ । आ १ । उ ७॥
क्षीणकषायगुणस्थानत्तिक्षीणकषायंगे। गु १। क्षी। जी १। प६। प्रा १० । स ० । ग १। म । इं १ का १ । यो ९ । वे ० । क । ज्ञा ४॥ सं १ । यथा । व३। ले ६ भ १।
भा १ सं १क्षा । सं१। आ१। उ७॥
सयोगिकेवलिगुणस्थानत्ति सयोगकेवलिभट्टारकंग गु१। जी २।१६।६। प्रा ४।२। १० स ०। ।ग १।म। इं १ का १। यो ७। म २। व २। औ २ का १। वे क । ज्ञा १॥ के। सं१। यथा ।द।के ले ६ भ१ । सं क्षा ।सं।०।आ२। उ२॥
भा१
अयोगिकेवलिगुणस्थानति अयोगकेवलिभट्टारकंगे । गु १ । अयो। जी १।१६। प्रा १॥ आयुष्य। सं। ०। ग १। म १। १।१०। का १। त्र। यो ०। वे । क ०। ज्ञा १ के। सं १। यथा । द १ के ले ६ भ१॥ सं १।क्षा । सं । ०। आ १ । अनाहार । उ २॥
भा ० अतीतगुणस्थानसिद्धपरमेष्ठिगळ्गे । गु० जी०५०। प्रा० सं। ।ग १। सिद्धिगति ।
१५
छ । द ३ । ले ६ । भ १ । स २ उ क्षा । सं १ । आ १ । उ ७ । सूक्ष्मसांपरायाणां-गु १ सू । जी १ ।
भा १ ५६ । प्रा १० । सं १५ । ग १ म । ई१ । का १ । यो ९ । वे ० । क १। ज्ञा ४ । सं १ सू । द ३ । ले ६ भ १। स २ उक्षा । सं १ । आ१। उ७। उपशान्तकषायाणां-गु १ उप । नी १ प ६। भा १ प्रा १० । सं० । ग १ म। १ । का १ । यो ९ । वे ० । क । ज्ञा ४ । सं १ यथा । द ३ । ले ६। २०
भा १ भ १ । स २ । उक्षा । सं १। आ १ । उ ७ । क्षीणकषायाणां- १ क्षी। जी १ । १६। प्रा१०। सं० । ग १ म । ई१ का १। यो ९ । वे ० । क " । ज्ञा ४ । सं १ यथा । द ३ । ले ६ । भ१।
भा १ स १क्षा । सं १ । आ १। उ७। सयोगकेवलिनां-गु१ । जी २।५ ६६ । प्रा ४२ । सं ० ग १ म । इं १ का १ । यो ७ म २ वा २ ओ २ का १। वे । क । ज्ञा १ के । सं १ यथा। द १ के। ले ६ । भ० । स १क्षा । सं० । आ २ । उ२। अयोगकेवलिनां-ग १ अयो। जी १।५ ६ । प्रा१। २५ भा १ आयुष्यं । सं ० । ग १ म । इं १ पं । का१त्र । यो ० । वे ०। क ० । ज्ञा १ के।सं १ यथा । द १ के। ले ६ । भ० । स १क्षा । सं। आ१ अनाहार । उ २। गुणस्थानातीतसिद्धपरमेष्ठिनां-गु० जी० । भा .
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९५६
गो० जावकाण्डे
भा३
इं। । का ।यो । वे।।क । ज्ञा १।के।सं। ।द १।के। ले । भ। ०।सं १। क्षा । सं। ०। आ १ । अनाहार । उ २॥
आदेशदोळु गत्यनुवाददोळु नारकरुगळ्गे सामान्याळापं पेळल्पावल्लि । गु४ । जी २। प।अ। य ६।६। प्रा १०।७। सं ४। ग १। नरकगति । ई १। का १ । यो ११ । म ४। वा ४। वै२। का १। वे१। षं। क ४। ज्ञा६। कु। कु। वि।म। श्रु । अ। सं १। । द ३। च । अ। अ। ले ३' भ२। सं६। मि। सा। भि। उ। वे।क्षा। सं १ । आ २। उ९॥
सामान्यपर्याप्तनारक गु४। जी १। प६। प्रा १०। सं ४। ग १ । न । ई१। ___ का १ । यो ९ । वे १ । ० । क ४ । ज्ञा ६ । कु। कु । वि । म । श्र। अ । सं १। अ। द ३। " च । अ।अ। ले १ कृ। भ२। सं६। मि। सा। मि । उ। वे ।क्षा । सं २। उ९॥
भा ३ सामान्यनारकापर्याप्तकंग गु २ मि । अ। जो २। प६। प्रा७ । सं ४ । ग १ । न। इं१ का १। यो २। वै।मि। का। वे१। ष ०। क ४। ज्ञा ५। कु। कु। म । श्रु । अ। सं १ । अव ३। ले २ क । शु । म २। सं३ । मि । वे । क्षा। सं १ । आ २। उ ८॥
भा ३ सामान्यनारकमिथ्यादृष्टिगळ्गे गु १। मि। जी २। प।।१६।६। प्रा १० । ७। १५ सं ४ । ग १ । न । इं १ का १ । यो ११ । वे १ । ष । क ४ । ज्ञा ३ । कु। कु। वि । सं १ । अ। द २। ले ३ भव।सं ११ मि । सं १ आ २। उ ५॥
भा३
१०
प० । प्रा० । सं ० । ग ०।इ.० । का ।से । वे ० । क ० । ज्ञा १ के । स ० । द १ के । ले । भ ० । स १ क्षा । सं . । आ १ अनाहार । २५
आदेशे गत्यनुवादे भरक - ४ | जी २.५ अ । प६। ६ प्रा १० ७ । सं४। ग १ न । २० इं१ का १ । यो ११ । म ४ वा ४ वै.२ का १ । वे १५ । क ४ । ज्ञा ६ कु, कु, वि म श्रु अ । सं १ अ। द३ च ॐ ॐाले ३ । पर्याप्तरुपरि कृष्णलेश्या एकैव अपर्याप्तकाले कपोतलेश्या विग्रहगती शुक्ललेश्या
भा. ३ इति द्रव्यलेश्यात्रय । 'भ२। स ६ मि सा मि उ वे क्षा । सं १ । आ २ । उ ९ । तत्पर्याप्तानां-गु ४ । जी १।५६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ न । ई १ । का १ । यो ९ । वे १५ । क ४। ज्ञा ६ कु कु वि म श्रु अ । सं१ अ । द ३ च अ अ । ले १ कृ । भ २। स ६ मि सा मि उ वे क्षा । सं १ । आ १ । उ ९ ।
भा ३ २५ तदपर्याप्तानां-गु २ । मि अ। जी १ प ६ अ । प्रा७ अ । सं ४ । ग १ न । ६१ का १ । यो २ बैमि क । वे १षं । क ४ । ज्ञा ५ कु कु म श्रु अ । सं १ अ । द ३ । ले २ क श । भ २। स ३ मि वेक्षा ।
भा ३ सं१ । आ २। उ८। तन्मिथ्यादृष्टीना-गु १ मि । जी२ प अ । प ६६ । प्रा १०७। सं४ । ग १न । इं१ । का १ । योग ११ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ। द २ । ले ३। भ २ । स १
भा ३
१. कृष्ण कपोत शुक्ल ।
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९५७
कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका सामान्यनारकपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगो । गु १ मि । जो १
1
। पर्थ्यो । ६ । प्रा १० ॥ सं ४ | का १ । वे १ । ष० । क ४ । ज्ञा ३ | मिव्यारुचि । सं १ । आ १ । उ ५ ॥
ग १ ॥ न । ई १ का १ । यो ९ । म ४ । वा ४ । वे कु कु । वि सं १ अ व २ ले १ कृ न २ । सं १ । | |
|
भा ३
सामान्यनारकापर्याप्तमिथ्यादृष्टिगगे। गु १ | मि । जो १ । अ । प ६ । अ । प्रा ७ । अ । सं ४ । ग १ नरक । इं १ । का १ । यो २ । वैमि । का। वे १ षं ० । क ४ । ज्ञा २ । कु । कु । सं १ | अब २ । ले २ क शुभ २ । सं १ | मिव्यारुचि । सं भा ३ अ शु
५
I
१
| अ २ | उ४ ।।
सामान्यना रकसासावनसम्यग्दृष्टिग
ग १ | ई १ का १ । यो ९ | म ४ वि सं १ | अ | द २
ले १ कृ
भा ३
भ १
न । इं १ का १ । यो ११ । अ । सं १ । अ । द३ ।
उ६॥
व ४
। सं १
१ | सा । जी १ प प ६
।
प्रा १० । सं ४ ।
1
नारकसामान्यमिश्रगे यो ९ | वे १ | ष ० | क ४ ।
गु १ | जि १ । १ ६ । प्रा १० सं ४ ज्ञा ३ । मिश्र । सं १ | अ | द ३ ।
मिश्र । सं १ । आ १ । उ ६ ॥
|
वे का १ | वे षं ० 1 क ४ ।
-
| सासावनरुचि । सं
नारकसामान्यासंयतंगे । गु १ । जी २ । प । अ ।
।
प ६ । ६ म ४ व ४ । वे २ का १ । वे १ | ष ० ३ | कृ | क | शु | भ १ । भा ३ अ शु
सं ३ | उ ।
मि । सं १ | आ २ । उ ५ तत्पर्याप्तानां १ मि जी १ प ६ का १ । यो ९ । म ४, बा ४, बँका १ । वे १ षंक ४ । ज्ञा ३
कु कु वि
१ । बा
ग १ | न
ले १ कृ
भा ३
१
प्रा
ज्ञा ३ । कु । कु ।
। उ ५ ॥
प्र १० । सं ४ सं १ अ
।
१० । ७ । सं ४ । ग १ ।
क ४ | ज्ञा ३ | म । श्रु । वे । क्षा | सं १ । आ २ ।
ई १ भ १
।
का १ । । सं १ ।
ग १ न
ई १ ।
द२ । ले १ कृ ।
भा ३
६ । प्रा१० । ४ । ग १ न । ई १ का १ । यो ९ म ४, वा ४, वैका १ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि सं १ अ । ६२ । ले १ कृ । भ १ । स १ सासादनरुचि । सं १ । आ १ उ५ । मिश्राणां
भा ३
प ६ अप्रा ७
भ २ । स १ मिथ्यारुचिः । सं १ । आ १५ तदपर्याप्तानां गु १ मि जी १ अ असं ४ | ग १ न । ई १ का १ । यो २ । वैमि का। वे १ पंक ४ । ज्ञा २ कु कु । सं १ अ । द २ ले २ । कृ शुभ २ । स १ मिथ्यारुचि । सं १ । आ २ । ४ जी १ प
२०
सासादनानां न्गु १ सा
भा ३
१०
१५
'
असंयतानां - १ । २५
गु १ मिश्र जी १ प ६ प्रा १० सं ४ ग १ नई १ का १ । यो ९। वे १ क ४ । ज्ञा ३ मिश्राणि सं १ अ । द २ । ले १ कृ । भ १ । स १ मिश्र । सं १ । आ १ । उ५ भा ३ जी २पअप ६६ प्रा १०७ । सं ४ । ग १ । ६ १ का १ । यो ११ । म ४, वा ४ व २ का १ । वे १ क ४ । शा३ मधु अ सं १ अ द ३ ले ३ क शुभ १ स ३ उ, वे क्षा सं १ । भा ३ अशुभ
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९५८
गो. जोवकाण्डे सामान्यनारकपर्याप्तासंयतंग । गु१ । जी १। १६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ न । इं१।।। का १ । यो ९ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा ३ म । श्रु । अ । सं १ अ । ३। ले १ भ १ । सम्य ३,
भा३ उ। वे । क्षा । स १ । आ १ । उ प ६॥
सामान्यनारकाऽपर्याप्तासंयतंगे। गुण १ । जी १ । अ। १६ । अ । प्रा ७ । अ । सं ४ । ५ ग१। न। इं१ का १। यो २। वै मि । का। वे १। षं । क ४ । ज्ञा ३। म । श्र।अ। सं १ । अ । द ३ ले २ क श। भ१। सं२। वे क्षा।सं १ । आ २। उ६।।
भा १ कपो घम्म य सामान्यनारकग्नें। गु ४। जी २।५।।प।६।६। प्रा १०। ७ । सं ४ । ग १ न । ई १ का १ । यो ११ । म ४ । वा ४ । वै २ । का १। वे १। षं। क ४ । ज्ञा ६ । कु। कु। वि । म । श्रु। अ। सं १ ।।द ३ ले ३ कृ । क । शु। भ २। सं६। सं १ । आ २ । उ९॥
भा १ . घमें य सामान्यनारकपर्याप्तकगें ।गु ४ । जो १। १६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । न । इं १ का १। यो ९ । म ४ । वा ४ । वैका १। वे १।ष ० । क ४। ज्ञा ६। सं १। अ। द ३। ले १ कृ भ२। सं६।सं १। आ १। उ ९॥ भा १ कृ
घम्म य सामान्यनारकापर्याप्तग्नें। गु२। मि । अ । जी १। अ । १६ । अ । प्रा ७ । अ । १५ सं४ । ग १ न । इं११ का १। यो २। वै मि । का। वे १। ष ० । क ४ । ज्ञा ५ । कु । कु। म । श्रु । अ। सं १। ।द ३॥ ले २ क शु। भ२। स३। मि। वे । क्षा ।सं १। आ २। उ८॥
भा१क
आ २ । उ ६ । तत्पर्याप्तानां-गु १ । जी १ । १६ । प्रा १० । सं४ । ग १ न । इं१ । का १। यो ९ । वे १षं । क ४ । ज्ञा ३ मश्र अ । सं १ अ । द ३ । ले १ कृ। भ१। स ३। उ वे क्षा। सं १ ।
भा ३ अ आ १ । उ ६ । तदपर्याप्तानां- १ । जी १ अ । प ६ अ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग१न । इं१ । का१ । यो । वैमि का । वे १ षं । क ४ । ज्ञा ३ म, श्र, अ । सं १ अ । द ३ । ले २ क शु । भ १ स २ वे।
भा ३ अशुभ क्षा । सं १ । आ २ । उ ६ । घर्मानारकाणां- ४ । जी २ प अ । ६६ । प्रा १० ७ । सं ४ । ग १ न । इं१ । का १ । यो ११ । म ४ वा ४ वै २ का १। वे १षं । क ४ । ज्ञा ६ कु कु वि म श्रु अ । सं १ अ । द ३ । ले ३ क क शु । भ २ स ६ । सं १ आ २ । उ ९। तत्पर्याप्तानां-गु ४ । जी १५ । प६ ।
भा १ क प्रा १० । सं४। ग १ न । ई१। का १ । यो ९ । म ४ वा ४ व का १। वे १ षं। क ४ । ज्ञा ६ । २५ सं १ अ । द ३ । ले १ कृ । भ २ । स ६ । सं १ । आ १ । उ ९ । तदपर्याप्तानां-गु २ मि अ । जी १
भा १ क अ । प ६ अ । प्रा ७ अ । सं४। ग १ न । इं१ । का१ । यो २ वैमि । का। वे १ षं। क४ । ज्ञा ५ । कु कु म श्रु अ । सं १ अ । द ३ । ले २ क शु। भ२। स ३ मि वे क्षा। सं१। आ २। उ८ ।
भा १ क
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
९५९
इं १ का १ । यो ११ सं १ । अ । द२ ।
घम्य मिथ्यादृष्टिगये। गु १ । जो २ । १६ । ६ । प्रा १० । ७ । सं ४ | गं १ । न । । म ४ । व ४ । वै २ | का १ । वे १ । ६० । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि । ले ३ कृ क शु ले ३ कृक शुभ २ । सं १ | मि । सं १ । आ २ । उ५ ।। भा १ क
धनारकपर्य्याप्तमिथ्यादृष्टिगगे। गु १ । जो १
प ६ ।
प्रा १० । सं ४ । ग १ |
५
न । इं १ । का १ । यो ९ । म ४ । वा ४ । वै का १ | वे १ । ष ० । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि । सं । १ । अ । २ । ले १ भ२ । सं १ । मिष्यारुचि । सं १ | आ १ । उ ५ ॥ भा १ क
। १ ६ । अप्रा ७ । अ
।
धम् यनारकापर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळगे । गु १ । जी १ १। ई १ का १ । यो २ । वैमि । का। वे १ । कवा ४ । ज्ञा २ । कु । कु । सं १ । अ
।
भा १ क
२ क शुभ २ । सं १ । सं १ । आ २ । उ ४ । धम्य पर्याप्त सासादनंगे गु १ । जी
१
प ६ । प्रा १० । १ व २ ले
यो ९ । वे १ क ४ । जा ३ । कु । कु । वि । ज्ञा । ।
१३५ ॥ कु । कु । वि । च । अ ॥
धम्मगे गु१ । जी १
।
९ | वे १ क ४ | ज्ञा ३ । सं १ | द २
भ २ । स १ मिध्यारुचिः सं १ सं ४ । ग १ न । १ । का १ । ले २ क शुभ २ । स १ भा १ क
।
प्र १० । सं ४ ले १ क भ १ भा १ क
कु । कु । च । अ ॥
ग १ स १
। ई १ ।
सं
१ ६ ।
ले १ कृ
भा १ क
असंयतं । १ । जी २ । १६ । ६ । प्रा १० | ७ | सं ४ | ग १ | ई १ | का १ । १५
। सं १
प्रा १०
का १ । यो ९ आ १५
तन्मिथ्यादृशां -गु १ जी २ । ६६ । प्रा १०७ । सं ४ । ग १ न । इं १ । का १ । यो ११ । म ४ वा ४ व २ का १ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि सं १ अ । द२ । ३ कृक शुभ २ ख १ भा १ क मि । १ । आ २ । ५ । तत्पर्याप्तानां १ ज १ प ६ प्रा १० का १ । यो ९ । म ४, वा ४ । वै का १ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि सं १ अ । द २
सं ४ । ग १
नई १ । ले
1
।
१ कृ ।
भा १ क
आ १५
२०
तदपर्याप्तानां १जी १ । १ ६अ। प्रा ७ अ । यो २ । वैमि का । वे १ । क ४ । ज्ञा २ कु कु । से १ । आ २ । ३४ कु कु च अ सासादनानां
सं १ अ । द२ ।
१
भ १ |
सं ४ । ग १ | ई १ कृभ १ । सं १
१ । का १ । सं । आ
।
भा १ क
सं ४ । ग १ । इं १ का १ । यो सं १ | सं १ । आ १ । उ५ ।
--
प्रा १० । सं ४ । ग १ । ई १ । का १ । यो ९ । वे १ । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि सं १ । द२ ।
ले १ कृ । भ १ । स १ । सं १ । आ १ । उ ५ कु कु विच अ । मिश्राणां
। जी १ । प ६ ।
भा १ क
सं ४ । ग
द२ । ले
गु १
। वे १ । क ४ । ज्ञा ३ कु कु असंयतानां गु १ ज २ ।
। जो १ । १६ ।
वि।सं १ । द२ । ६६ । प्रा १०७ ।
२५
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९६०
गो० जीवकाण्डे यो ११ । वे १। क ४ । ज्ञा ३ । म । अ । अ । सं १ । द ३ वे क्षा ॥ सं १ । आ २। उ ६॥
-
ले ३ कृक शु भ १। सं३। उ भा १क
घमय पर्याप्तनारकाऽसंयतंगे। गु १ । जी १। प६। प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं१। का १। यो न । वे १ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । द ३ । ले १ कृ भ १ । सं३ । उ वे । क्षा ॥ सं १ ।
भा१क ५ आ १। उ६॥
घर्म य नारकापर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे। गु १ । जी १। अ । १६ । अ। प्रा ७ । अ । सं ४ । ग १ । इं १ । का १ । यो २। मि का। वे १ । क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १। द३। ले २ क शु। भ १ । सं २ । वे । क्षा। सं १ । आ २ । उ ६ ॥
___भा १ क
द्वितीयादि पृथ्वियनारकसामान्यक्के । गु ४ । जो २।१६।६। प्रा १० । ७। सं ४ । ग १० १। इं १ । का १ । यो ११ । धे १। क ४ । ज्ञा ६ ! 'म । श्रु । अ । कु । कु । वि । सं १ । द ३ । च | अ | अ ले ३
भा १ स्वस्वभूम्यनतिक्रमेण भावापेक्षया एका । द्रव्यापेक्षया। कृक शु। भ २। सं ५। उ । वे मि । सा । मि । सं १ । आ २। उ९ । म । श्रु । अ । कु । कु । वि । च । अ । अ॥
द्वितीयादिपृश्विगळ नारकपर्याप्तगर्ग । गु ४ । जी १।१६। प्रा १० । सं४ । ग १ । इं १। १५ का १ । यो ९ । वे १। क ४ । ज्ञा ६ । म । श्रु । अ । कु । कु। वि । सं १ । द ३
भ२। सं५ । उ । वे। मि । सा। मि । सं१ । आ१ । उ १ भावापेक्षयास्वस्वभूम्यनतिक्रमेण ९। म । श्रु । अ । कु । कु । वि । च । अ । अ॥
सं ४ । ग १ । १ । का १ । यो ११ । वे १ । क ४ । ज्ञा ३ मश्रु अ । सं १ । द ३ । ले ३ कृ क श ।
भा १ क २० भ१ । स ३ उ वे क्षा । सं १। आ २ । उ६ । तत्पर्याप्तानां- १ । जी १। प६ । प्रा १० । सं४। ग १ । ई१ का १ । यो ९ । वे १। क ४ । ज्ञा ३। सं । द ३ । ले १ कृ । भ १ । स ३ उ, वे,
भा १ क क्षा, सं १ आ १, उ ६ तदपर्याप्तानां-गु १, जी १ अ, प ६ अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग १, इं१, का १, यो २ वै मि का, वे १, क ४, ज्ञा ३, म श्रु अ, सं १, द ३, ले २ क शु, भ १, स २ वे क्षा, सं १,
भा १ क आ २, उ ६, द्वितीयादिपृथ्वीनारकाणां-गु ४, जी २, प ६ ६, प्रा १० ७, सं ४, ग १, इं १, का १, २५ यो ११, वे १, क ४, ज्ञा ६ कु कु वि म श्रु अ, सं १, द ३ च अ अ, ले ३ स्वस्वभूम्यनतिक्रमेण भावापेक्षया
भा ३ एका द्रव्यापेक्षया कृ क शु, भ २, स ५ उ वे मि सा मि, सं १, आ २, उ ९ म श्रु अ कु कु विच अ अ, तत्पर्याप्तानां-गु ४, जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं १ का १, यो ९, वे १, क ४, ज्ञा ६ मश्र अ कु कु वि, सं १, द ३, ले १ कृ
भ २, स ५ उ वे मि सा मि सं १, आ १, उ म भा १ स्वस्वभम्यनतिक्रमण
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका द्वितीयाविपृथ्विनारकाप-नग्गे । गु १ । जो १। प६। अ। प्रा७ । । सं ४ । ग १ । इं १ का १ । यो २। मि । का। वे १ । क ४ । जा २। कु। क । सं १ । व २ ले २ क शु
१भा स्वस्वयोग्या भ२। सं १ । आ २ । उ ४ । कु । कु । च । अ॥
द्वितीयादिपृथ्वीनारकसामान्यमिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु१ । मि। जी २।५ । अ । १६। अ प्रा १०॥७। सं ४ । ग १ न । इं१। पं । का १।। । यो ११ । म ४। व ४ । वै २ । का १। ५ वे १ । । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु। वि।सं १।अ। द २। च । अ ले ३ कृक शु म २।
भा स्वयोग्य सं १ । मि । सं १ । आ २ । उ ५ । कु । कु । वि । च । अ॥
द्वितीयादिपृथ्वीनारकपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळगे। गु १ । जी १ । प ६। प्रा १० । सं ४ । ग १। इं १ का १ । यो ९ । वे १ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि । सं १ । द २ ले १ कृ
१ भा स्वयोग्या भ २। सं १ । मि। सं १। आ १ । उ५ ॥
द्वितीयादिपृथ्वियनारकापर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १ । जी १ । अ । १६ । अ । प्रा ७ । अ । सं ४ । ग १ । इं१ का १ । यो २ मि । का। वे १ । क ४ । ज्ञा २। कु । कु । सं १। द २ ले २। क श भ२।सं १ । मि । सं १ । आ २। उ ४ ॥ १ स्वस्वयोग्या
द्वितीयादि पृथ्वियनारकसासादनंगे। गु १। जी१।१६। प्रा १० । सं४। ग१। इं१। का १। यो ९ । वे १ । कषा ४ । ज्ञा ३। कु । कु। वि | सं १।३२ ले १ कृ भ१ । सं। १५
१ स्वस्वयोग्या सा।सं १ । आ१। उ५॥
'
श्रु अ कु कु वि च अ अ, तदपर्याप्तानां-गु १, जी १, प ६ म, प्रा ७ अ, सं ४, ग १, ई १, का १, यो २, व मि का, वे १, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १, द २, ले २ क शु भ २, स १ मि, सं १, था
भा १ स्वस्वयोग्या २, उ ४ कु कु च अ, तन्मिथ्यादृशां-गु १ मि, जी २ प अ, प ६ ६, प्रा १० ७, सं ४, ग १ न, ६१, का १, यो ११ म ४, वा, ४, व २ का १ वे १५, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं१ अ, द २ च अ, २० ले ३ कृ क शु भ २ स १ मि सं १ आ २ १, उ ५ कु कु वि च अ, तत्पर्याप्तानां-गु १, जी १, प ६, भा १ स्वस्वयोग्य प्रा १०, सं ४, ग १ इं १, का १, यो ९, वे १, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १, द २, ले १ कृ,
भा १ स्वस्वयोग्या भ २, स १ मि, सं १, आ १, उ ५, तदपर्याप्तानां-गु १, जी १ अ, प ६ अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग १, ई १, का १, यो २, मि का, वे १, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १, द २, ले २ क शु, भ २ स १ मि,
भा १ स्वस्वयोग्या सं १, आ २, उ ४, तत्सासादनानां-गु १, जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं १, का १, यो ९, २५ वे १, क ४, ज्ञा ३, कु कु वि, सं १, द २, ले १ कृ, भ १, स १, सा, सं १, मा १, उ ५
भा १ स्वस्वयोग्या १२१
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९६२
गो० जीवकाण्डे द्वितीयापृथ्वीनारकसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । जी१।१६। प्रा१०।सं ४ । गति १। इं १ का १ । यो ९ । वे १ । क ४ । ज्ञा ३ ॥ सं १। द २। ले १ भ१ । सं १। मिश्र । सं १ । आ १ । उ५॥
द्वितीयाविपृथ्वीनारकाऽसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे । गु १। जी १ । प६। प्रा १० । सं ४ । ५ ग १। इं १ का १ । यो ९ । वे १ क ४ । ज्ञा ३ । माथु । म । सं १ । अ। व३। च । ।
अ। १ भ१।सं २। उ। वे। सं १ आ।१। उ ६ । म । थु । अ। च । अ । अ॥
तिय्यंचरु पंचप्रकारमप्परवरोळु सामान्यतिथ्यंचरुगळ्गे । गु ५ । जो १४।१६।६।५। ५१४।४। प्रा १०।७।९।७।६। ५।८।६।७। ५।६।४। ४ । ३ । सं ४ । ग १ ।
ति १ ई५ का ६। यो ११। म ४ व ४ औ २ का ११ वे ३ । क ४। ज्ञा ६ माघ । । १० कु। कु। वि।सं २। अब दे। द३। च । ।अ। ले ६ द्रव्यदोळ भावदोळं भ२। सं६।
भा६ उ। वे । क्षा। मि । सा। मि । सं २। आ २। उ ९ । म । थु । य । कु। कु। वि । च । अ । अ॥
तिय्यंच सामान्यपर्याप्तकग्गे'। गु५। जी ७।१६। ५।४। प्रा १०। ९।८।७। ६।५। ४ । सं ४ । ग १ । ति । ई ५ का ६। यो ९ । वे ३। क ४ । ज्ञा ६। सं २। ३। ले ६ भ२। स ६ । सं २ । आ १ । उ ९॥
तिम्यंचसामान्यापर्याप्तकग्गें । ग३ । मि । सा। अ । जो ७।१६।५।४ । प्रा ७ । ७ । ६।५।४।३। सं ४ । ग१। ति । इं५ । का ६ । यो २। मिश्रका । वे३ । क ४। ज्ञा । म। ।अ। कु। कु। सं १ अ। व३ । च । अ । अ ले श क शुभ २ । सं ४ । मि । सा।
भा ३ अशु
तत्सम्यग्मिध्यादेशां-गु १,जी १,५६, प्रा १०,सं ४, ग १, १, का १, यो ९, वे १, ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले १,भ १, स १, मिश्र, सं १, आ १, उ ५, तदसंयतानां गु १, जी १,५६,प्रा १०,
भा १ सं ४, ग १, इं१, का १, यो ९, वे १,क ४, ज्ञा ३ मश्रु अ, सं १, अ, द ३, च अ अ । ले १भ १
भा१ स २ उ वे, सं १ आ १ उ ६ म श्रु अ च अ अ ।
पञ्चविधतिया सामान्यानां-गु ५ । जी १४ । प६६५५४४। प्रा १०७९७८६७५६ ४४३.। सं४ । ग १ ति 1 इं५ । का६। यो ११ म ४ व ४ औ २ का १। वे ३ । का ४ । ज्ञा ६ कू कवि म श्रअ । सं २ अ दे। द ३ च अ अ । ले ६ । भ २ । स ६ उ वे क्षा मि सा मि। सं २।
भा ६ बा२। उ ९ मश्रु अकुकु विच ब अ । तत्पर्याप्तानां- ५ । जी ७।५ ६५४ । प्रा १० ९८७६ । ४ । सं४। ग१ति । ६५ ।का ६ । यो ९ । वे ३ । क ४। ज्ञा ६ । सं २। द ३ ले ६ । भ २ ।
भा स ६ । सं २ । आ १। उ ९ । तदपर्याप्तानां-गु ३ मि सा अ । जी ७ । प ६५४ । प्रा ७७६५४३। सं४। ग १ ति । ई ५। का६ । यो २ मिश्र का। वे ३ । क४। ज्ञा ५ कूकूम श्रु अ। सं१।।
२५
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९६३ क्षा। वे । सं २। आ २। उ८म । । अ । कु । कु । च । अ । अ॥
तिय्यंचसामान्यमिथ्यादृष्टिगळगे । गु १। जी १४ । ५६।६।५। ५ । ४ । ४ । प्रा १० । ७।९।८।६।७।५।६। ४ । ४ । ३ । सं४।ग १। इं५ । का ६ । यो ११ । वे ३ । क ४ । ज्ञा३
वि। सं१।। द२ च । अ। ले ६ भ२। सं । मि । सं २। आ२।
उ५ । कु । कु । वि । च । अ॥
तिय्यंचसामान्यपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । जी ७ । ५६।५। ४ । प्रा १०। ९। ८।७।६।४। सं ४ । ग १ ति । ई ५ । का ६ । यो ९। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ । कु। कु । वि। सं १ । अ । द २। ले ६। भ २ । सं १ । मि । सं २ । आ १ । उ ५ ॥
तिय्यंचसामान्यापर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १ । मि । जी ७।।१६।५।४ । । प्रा ७१७।६।५।४।३। सं४। ग१। ति । ई ५। काय ६ । यो २ । मि । का । वे ३ । १० . क ४ । ज्ञा २ । कु । कु। सं १ । अ । व २ । च । अ। ले २ क शु भ२। सं १ । मि । सं २।
भा ३ अशु आ २। उ ४ । कु। कु। च । अ॥
तिय्यंचसामान्यसासादनंगे। गु१। जी २। प६।६। प्रा १०।७॥ सं४। ग १। ति । इ१ का १। यो ११ । वे ३। क ४। ज्ञा ३ । सं १ व २। ले ६ भ१ । सं १ ।
सा। सं १ । आ २। उ ५ । कु । कु । वि । च । अ॥
तियंचसामान्यसासादनपर्याप्तंगे। गु१। जी ।। १६ । प्रा १० । सं४ । ग १ । ति । इं१।। का१यो ९ । वे ३ क ४ । ज्ञा३।सं। १।।२। ले ६ भ१। सं१।
द ३ च अ अ । ले २ क शु भ२। स ४ मि सा क्षा वे । सं २। आ २। उ८। मश्रु अकुकुर
भा ३ अशुभ अभ। तन्मिथ्याशां- १। जी १४। प६६ ५५ ४४ प्रा १०७९७८६७५६४४३ सं४। ग १ । इं५ । का ६ । यो ११ । वे ३ । क ४। ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ । द २ च अ। ले ६। २०
भा ६ भ २। स मि, सं २, आ २, उ ५ कु कु विच अ। तत्पर्यासाना-गु १, जी ७, प६५४, प्रा १०९८ ७ ६ ४, सं ४, ग १ ति, इं ५, का ६, यो ९, वे ३ । क ४ ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६ भ २,
भा ६ स १ मि, स २, आ १, उ ५, तदपर्याप्तानां-गु १ मि, जी ७ अ, प ६५ ४ अ, प्रा ७७ ६५ ४ ३, सं ४, ग १ ति, इं५, का ६, यो २ मि का, वे ३, का ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, ६२ च अ, ले २, क शु, भ २, स १ मि, सं २, बा २, उ ४ कु कु च ब, तत्सासादनानां-गु १, जी २, प६६, २५ भा ३ अशुभ प्रा १०७, सं ४, ग १ ति, इं १, का १, यो ११, वे ३, क ४। ज्ञा ३, सं १, द २, ले ६, भ १, स
१ सा, सं १, आ २, उ ५ कु कु वि च अ, तत्पर्याप्तानां-7 १, जी १, ५ ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं १ पं,
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९६४
गो० जीवकाण्डे
सं१। आ १। उ ५॥
सामान्यतिय्यंचापर्याप्तसासादनंग। गु १। जी १।१६। प्रा७। सं४ । ग१। इं१॥ का १। यो २। औ मि। का। वे ३ । क ४ । ज्ञा २। सं १ । अ । व २। ले २ क शु। भ १ ।
३ अशुभ सं १ । सा । सं १ । आ २। उ ४॥ कु। कु। च । अ॥
सामान्यतिथ्यचसम्यग्मिथ्या दृष्टिगळगे। गु १। जी १ । प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं१ का १। यो ९। वे३। क ४। ज्ञा ३। सं १। द २। ले ६ भ१। सं १ । सं १
आ १। उ ५॥
सामान्यतिथ्यचासंयतंगे। गु १। जो २।१६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग१।६१। का १ । यो ११ । वे ३ । क ४। ज्ञा ३ । म। श्रु । अ । सं १ । अ । द ३ । च । अ । अ। ले ६ १० भ १ । सं३। उ । वे । क्षा। सं १ । आ २। उ.६॥
सामान्यतियचासंयतपर्याप्तंगे। गु १। जी १। प६। प्रा १०। सं४ । ग १। इं१। का १। यो ९। ३। क ४। ज्ञा ३। सं १। द३। ले ६ भ१। सं३। सं १।
आ
। उ६॥
सामान्यतिय्यंचापर्याप्तासंयतंगे । गु१। जी १। ५६। अ । प्रा ७। सं ४ । गति १। १५ इं१। का १। यो २। वे १ । पुं। क ४ । ज्ञा३। म । श्रु । अ । सं १ । अ । व ३ । च । अ । अ। ले २ क । शु। भ१। सं २।क्षा । वे । सं १ । आ २। उ६॥
मा १क
का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ थ, ६ २, ले ६, भ १, स १, सं १, आ १, उ ५, तदपर्याप्तानां
भा ६ गु १,जी १, ५६,प्रा ७, सं ४, ग १, इं १, का १, यो २ बी मि का, वे ३, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २, ले २ क शु, भ १, स १ सा, सं १, आ २, उ ४, कु कु च य । सम्यग्मिथ्यादृशां-ग १,जी १,
भा ३ अशुभ २० प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं १, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले ६ म १, स १,
भा ६ सं १, आ १, उ ५ । असंयतानां-गु १, जी २, ५ ६६, प्रा १०, ७, सं ४, ग १, इं १, का १, यो ११, वे ३, क ४, ज्ञा ३, म श्रु अ, सं १ ब, द ३ च ब अ, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, आ २, उ ६,
भा६ तत्पर्याप्तानां-गु १,जी १, प ६,प्रा १०, सं४, ग १, इं१, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३ मश्रु अ, सं १, द ३, ले ६, भ १, स ३, सं १, आ १, उ ६, तदपर्यासानां-गु १,जी १, प६अ, प्रा ७ अ,
भा६
२५ सं ४, ग १, इं१, का १, यो २, वे १ पुं, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अम, ले २ शुक,
भा १ क
-
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सामान्यतिय्यं च देशसंयतंगे । गु १ । जी १ । १ ६ । प्रा १० यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १ । दे । द ३
a |
सं १ | आ १ । उ । ६ । म । श्रु | अ | च | अ | अ ॥
५
पंचेंद्रियतिष्यं च । गु ५ । जो ४ ॥ पंचेंद्रियसंज्ञेय संज्ञिपर्य्याप्ताऽपर्याप्त ॥ प ६ । ६ । प्रा १० । ७ । ९ । ७ । सं ४ । ग १ । ति । इं १ । पं । का १ । त्र । यो ११ । वे ३ | क ४ । ज्ञा ६ । म । श्रु । अ । कु । कु । वि सं २ । अ दे । व ३ | च | अ | अ | ले ६ । भ २ । सं ६ । उ । ६ कु । वि । च | अ | अ !
३९ । म । श्रु | अ | कु |
|
| सा । मि । सं २ । आ २ । पंचेंद्रियतियंच पर्य्याप्तक । गु ५ ।
९ ।
सं ४ ।
ग १ ।
६ । ५ । प्रा १० । | दे । व ३ | च | अ | अ | ले ६ भ२ ।
ई १ का १ । यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६ । सं २ | अ
।
६
३ । च । अ । अ
।
जी २
सं ६ | उ । वे । क्षा । मि । सा । मि । सं २ । आ १ । उ ९ ॥
पंचेंद्रियतिष्यं चापय्र्याप्तकर्गे । गु ३ । मि । सा । अ । जीव २ ७ असं ४ | ग १ । इं १ । का १ यो २ । मि । का। घे ३ कु कु । सं १ अ 1
।
ले
२
भा ३
।
९६५
। सं ४ । ग १ । इं १ | का १ । ले ६ भ १ । सं २ । उ । वे । भा शुभ
सं२ । आ २ । उ ८ | म । श्रु । अ । कु
।
कु । च | अ | अ | अ ॥
कु । शु । भ२ ।
पंचेंद्रियतिर्य्यग्मिथ्यादृष्टिगर्ग । गु १ । जो ४ । संज्ञिपर्य्याप्तापर्य्याप्त । अचंज्ञिपर्याप्तापर्य्याः ।
१५
६ | ६ | ५ | ५ | प्रा १० । ७ । ९ । ७ । सं ४ । ग १ । इं १ का १ । यो ११ । वे ३ । क ४ । ३ | १ | अ | ब २ । ले ६ भ २ । सं १ | मि । सं । २ । आ २ । उ ५ ॥
६
१,
२ वे क्षा, सं १, २, उ ६ देशसंवतानां - गु १, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ दे, द
३,
जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, ई १, ले ६, भ १, स २ उ वे, सं १, आ १, भा ३ शुभ
६अ, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां - गु ५, जी ४ ९ ७, सं ४, ग १ ति, ई १ पं, का १ त्र, यो ११, वे द ३ च अ अ,
संज्ञ्यसंज्ञिपर्याप्ता पर्याप्ताः प ६६५५, प्रा १०७ ३, क ४, ज्ञा ६ म श्रु अ कु कु वि सं २ अ दे, २० ले ६, भ २, स ६, उ वे क्षा मिसामि, सं २, आ २, उ९ म श्रु अ कु कु विच अ अ, भा ६ तत्पर्याप्तानां --- ५, जी २, ६५, प्रा १०९, सं ४, ग १, इं १ का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ६, स २ अ है, द ३ च अ अ ले ६ । भ २, स ६ उ व क्षा मिसामि, सं २, आ १, उ९ म श्रु व कु कु भा ६
प ६ । ५ । अ । प्रा ७ । १० | क ४ । ज्ञा ५ । म । श्रु । अ । सं ४ | वे । क्षा । मि । सा ।
विच अ अ, तदपर्याप्तानां - गु ३ मिसा अ, जी २, १६५ अ, प्रा ७ ७ यो २ मि का, वे ३, क ४, ज्ञा ५ म श्रु अ कु कु, सं १ आ, द ३ च अ अ
।
अ सं ४, ग १, इं १ का १,
१,
क्षा मिसा, सं २, आ २, उ ८ म श्रु अकु कु व अ अ, मिथ्यादृशां गु १०७९७, सं ४, ग १, इं १ का १,
यो
११, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं
ले
भा
१,
२ क शुभ २, स ४ २५
३ अशुभ
जी ४, १६६५५, प्रा
द २, ले ६, भ २, स १
भा ६
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९६६
गो० जीवकाण्डे ___पंचेंद्रियतियेग्मिथ्यादृष्टिपर्याप्तकम्गें । ग १। जी २। सं । अ। प६। ५ । प्रा १०। ९। सं ४।ग १। १ । का १। यो।९। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु। कु। वि । सं १। अ। द २ । च । अ। ले ६ भ २। सं १ । मि । सं २ मा १। उ ५ ॥
पंचेंद्रियापर्याप्ततियेग्मिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु१। जी २। सं १।१६। सं। अ । अ । अ। ५ ५ । प्रा सं७ । असंज्ञि = अ ७। स ४ । ग १। इं१। का १। यो २ । मि का। वे ३।क ४। ज्ञा २। कु। कु। सं १। अ। द२। च । अ। ले २। क शु। भ२। सं १ मि । सं २ ।
भा ३ अ आ २ । उ ४॥
पंचेंद्रियतिय्यंक्सासादनंग। गु १ । जी २। संप अ। ५६।६। प्रा १०।७।सं ४ । ग१। इ१ का १। यो ११। वे ३ क ४ । ज्ञा ३ । सं १ व २। ले ६। भ१। सं १ । सा। १० सं १ । आर। उ ५ । । कु । कु। वि । व म॥
पंचेंद्रियतिय॑क्पर्याप्तसासादनंगे । गु १। जो १।१६। प्रा १० । सं४।ग १ । ति । इं १ का १ । यो ९ । वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । व २। ले ६ भ १ । सं १ । सा । सं १ ।
..
१५
.
.
आ१। उ ५॥
पंचेंद्रियतिम्यक्सासादनापर्याप्तये। गु१। जी १।१६।। प्रा७ । सं ४ । ग१। इं१॥ १५ का १त्र। यो २० मि। का। वे३। क४। ज्ञा२। कू। कू। सं१। अव च ।
ले २ क श भ१।सं १। सा। सं १। आ २। उ४ । कु। कु। च । अ॥ भा ३ अ शुभ __ पंचेंद्रियतिय॑ग्मिभंगे। गु १ । जी १। प६। प्रा १० । सं ४ । ग १। ई १। का १ ।
मि, सं २, आ २, उ ५, तत्पर्याप्तानां-गु १, जी २ सं अ, प ६ ५, प्रा १० ९, सं ४, ग १, ई १, का १, २० यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कू वि, सं १ अ, द २ च अ, ले ६, भ २ स १ मि, सं २, मा १, उ ५,
भा ६ तदपर्याप्तानां-गु १ जी २ सं अ, प सं ६ अ ५, प्रा सं ७, अ ७, सं ४, ग १, ई १, का १, यो २ मि का, वे ३, क ४, ज्ञा २ कू कु, सं १ अ, द२ च अ, ले २ क शुभ २, स १, सं २, आ २, उ ४,
भा ३ अशुभ सासादनानां-ग १. जी २संप अ. १६६. प्रा१०७, सं४, ग १.१. का १. यो ११. वे३, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले ६, भ १, स १ सा, सं १, आ २, उ ५ कु कु वि च अ, तत्पर्याप्तानां-गु १,
भा ६ २५ जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, ई १, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले ६, भ १,
भा ६ स १ सा, सं १, आ १, उ ५, तदपर्याप्तानां-गु १, जी १ अ, प ६, प्रा ७, सं ४, ग १, ३१, का १ त्र, यो २ मि का, वे ३, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द २ च अ, ले २ क शु, भ १, स १ सा, सं १,
भा ३ अशु आ २, उ ४ कु कु च अ, मिश्राणां-गु १, जी १, ५ ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं १, का १, यो ९,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका यो ९ । वे ३। क ४ । ज्ञा३ । मत्यादिमिश्रत्रयं । सं १ । ।
९६७ २। च । अ ले ६ भ१। स १
मिश्र सं १ । आ १। उ ५॥
मत्यादिमित्रत्रयं चक्षुरचक्षुः ॥ पंचेंद्रियंगसंयतंगे। गु १। जी २।१६।६। प्रा १०। ७। सं४। ग१। इं१ का १। यो ११ । वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । सम्यग्ज्ञानत्रयं सं १ । अ। द ३ ले ६ भ १ । सं ३ । सं १ । आ २। उ ६ ।। म । श्रु । अ । च । अ । अ॥
पंचेंद्रियतिय्यंगसंयतपर्याप्तंग। गु१। जो १। १६ । प्रा १० । सं ४ । ग १।६१। का १ । यो ९ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ । व ३। ले ६ भ१। ३। उ । वे।क्षा । सं १।
आ१। उ६॥
पंचेंद्रियतिव्यंगपर्याप्तासंयतंगे। ग १ । जो १ । अ । १६ । अ। प्रा७ । अ। सं ४ । ग १ । ति । इं१। पं । का १। त्र । यो २। मिश्र। का। वे १। पुं। क ४ । जा३। १. म। श्रु । अ । सं १ । अ । द३। च । अ । अ ले २ क शु भ १ । सं २ । क्षा । वे । सं १ ।
भा१क आ २। उ६।म। श्रु । अ । च । अ । अ॥
पंचेंद्रियतिर्यग्देशसंयतंते। गु १। जी १।१६। प्रा १० ।। सं ४ । ग १। ति । इं१। पं। का१त्र। यो ९। वे ३ क ४। ज्ञा३ । सं १। देशसंयम । द ३ ले ६ भ१।सं २।
भा३
उ। वे। सं १
आ १। उ६।म। श्रु | अ । अ । च । अ । अ॥
पंचेंद्रियतिय॑क्पर्याप्तकर्गे पंचेंद्रियतिय्यंचग पेन्दते पेन्दुकोळ्य॥ वे ३, क ४, ज्ञा ३ मत्यादिमियत्रयं, सं १ अ, द २ च अ, ले ६, भ १, स १ मिश्र, सं १, आ १, उ ५,
भा ६ मत्यादिमिश्रत्रयं चक्षुरचक्षुश्च । असंयतानां-गु १, जी २, ५६, अ ६, प्रा १०, अप्रा ७, सं ४, ग १, इं१, का १, यो ११, वे ३, क ४, ज्ञा ३ मश्रु अ, सं १ अ । द ३ ले ६। भ१। स ३ ।
भा ६ सं १ । आ २ । उ ६ म श्रु अ च अ अ । तत्पर्याप्तानां-गु १। जी १।१६ । प्रा १० । सं ४ । ग १। २० इं१ का १ । यो ९ । वे ३ क ४ । ज्ञा ३ । सं १ अ । द ३ । ले ६ भ१। स ३ उ वे क्षा। सं१।
भा ६ आ १ । उ६। तत्पर्याप्तानां १ जी १ अ, १६ अ, प्रा ७ अ, सं४। ग १ ति, ई१६, का१त्र, यो २ मि का, वे १ पुं, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले २ क शु, भ १ स २ क्षा वे,
भा १ क सं १, आ २, उ ६ मश्रु अ च अ अ, देशसंयतानां-गु १, जी १, ५६,प्रा १० सं ४, ग १ ति, ई१, पं. १, का १ त्र, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ दे, द ३, ले ६ भ १, स २ उ वे, सं १, मा १, उ ६ २५
भा ३ शु म श्रु अच अ अ, पञ्चेन्द्रियतिर्यक्पर्याप्तानां-पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वद्वक्तव्यम ।
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९६८
गो० जीवकाण्डे पंचेंद्रियतिय्यंचयोनिमतिजीवंगळ्गेगुजी ४ । संज्यसंशिपर्याप्तापर्याप्त भेदि । १६ । ।६।सं ५। ५। अ। सं। प्रा १०।७। संज्ञि ९।७। असंज्ञि । सं। ४ । ग १। इं१ का १। योग ११। वे १। स्त्री । क ४ । ज्ञा ६ । म । श्रु । अ । कु। कु। वि। सं २ । अ। दे। व ३ । च । अ । अ। ले ६ भ२। सं ५। उ। वे।मि। सा। मि । सं २। आ २। उ ९ । म । श्रु । अ।
५ कु। कु। वि। च । अ । अ॥
तिर्यग्योनिमतिपर्याप्तंजीवंगळ्गे। गु५। जी २। सं । अ । १६ । ५। प्रा १० । सं ९ । अ। सं४। ग१। ति। इं१। पं । का१त्र । यो ९ १। स्त्री। क ४ज्ञा६। म। श्र । अ। कु। कु। वि । सं २।। दे। द ३। ले ६ भ २। सं। ५ । उ वे। मि। सा। मि ।
सं २। आ १। उ९। सं३ । मि ३ व ३ । तिय॑क्पंचेंद्रिययोनिमत्यपर्याप्तगर्ग ॥ पु२। मि। १० सा । जी २। संध्यपर्याप्ता संश्यऽपर्याप्त । १६ । सं । अ । ५। अ । प्रा७ । अ ७ । अ । सं ४।
ग १। ति । ई१।। का १ । त्र॥ यो २। मिश्र । का। वे १ । स्त्री। क ४ । ज्ञा २। कु। कु। सं १। अद२। च। अ ले २कश भ२। सं २। मि। सा । सं २। आ२। उ४।
भा ३ अश कु। कु। च । अ ॥
पंचेंद्रियतिय्यंग्योनिमतिमिथ्यादृष्टिगे। गु१। मि। जी ४। संज्यसंक्षिपर्याप्तापर्याप्त । १५ प ६।६।५।५। असंज्ञि । प्रा १०।७। संज्ञि ९॥ ७। असंज्ञि । सं ४ । ग १। इं१। पं।
का १।। यो ११ । वे १। स्त्री। क ४ । ज्ञा ३ । सं १। अ। द २। ले ६ भ२।सं १ ।
मिथ्यात्व । सं २ आ २। उ ५। कु। कु। वि। च । अ॥
तिर्यग्योनिमतीनांग ५, जी४ संश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तभेदतः ५६६ सं, ५५ असं, प्रा१०७ संज्ञि ९७ असंज्ञि, सं४, ग १,६१, का १, यो ११, वे स्त्री, क ४, ज्ञा ६ म श्रु अ कु कु वि, सं २ अ दे, द ३ च ब अ, ले ६, भ २, स ५ उ वे मि सा मिश्राः , सं २, आ २, उ ९ म ७ अ कु कु वि च
१.
अ अ, तत्पर्याप्तानां ५,जी २ सं अ, प६५, प्रा १० सं.९ अ. सं४, ग १ ति. इं१ पं. का१त्र. यो ९, वे १ स्त्रो, क ४, ज्ञा ६ म श्रु अ कु कु वि, सं २ अ दे, द ३, ले ६, भ २, स ५ उ वे मि सा
मिश्राः, सं २, आ १, उ ९ स ३ मि ३ द ३, तदपर्याप्तानां--गु २ मि सा, जी २ संश्यसंज्ञिपर्याप्ती, प६
अ५ अ, प्रा ७ अ, ७ अ, सं ४, ग १ ति, ई१५, का १त्र, यो २ मिश्र का, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा २ असं अ कू कू, सं १ अ, द २ च अ, ले २ क शु, भ २, स २ मि सा, सं २, आ २, उ ४ कु कु च अ, मिथ्या
भा ३ अ शु दशां-१ मि, जी ४ संश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ताः, प६६ संज्ञि, १५ असंज्ञि, प्रा १०७ सं, ९७ असंज्ञि, सं ४, ग १ति, १५, का १ त्र, यो ११, वे १ स्त्रो, क ४, ज्ञा ३, सं १ आ, द २, ले ६, भ २, स १
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पंचेंद्रियतियंग्योनिमतिपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु१। मि। जी २। संजिपर्याप्तासंज्ञिऽपर्याप्त । प६॥ संशिप-मिगळु ५ ॥ असंज्ञिपर्याप्तिगळ प्रा १०। संजि । ९ । असंनि । सं ४ । ग१। ति। इं१।। का १।त्र । यो ९॥ १। स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ अर२॥ ले ६ भ२। १।मि। सं२आ१। उ ५॥
पंचेंद्रियतिय्यंग्योनिमत्यपर्याप्पमिथ्यादृष्टिगळ्ये। गु१ मि । जी २। संश्यपय्यातासंश्य- ५ पर्याप्त । प६। संश्यपर्याप्तिगळु । ५। असंश्यपर्याप्तिगळु प्रा ७। संज्ञि ७। असंज्ञि । सं ४॥ ग१। इं१।। का १।।यो २ । मिश्र । का। वे १ । स्त्री।क ४ । ज्ञा२। कु।कु ।सं १। अ। द २ च । अ। ले २ क शु भ२।सं १। मि । स २। आ २। उ४। कु। कु। च । अ॥
भा ३ अशु
पंचेंद्रियतिर्यग्योनिमतिसासादनंग । गु१। सा । जी २। संपल।५६।६। प्रा १० ७। सं ४ । ग १ ति। इं१।६। का १ । । । यो ११ । वे १ । स्त्री । क ४ जा ३ । सं १। १० अ। द २। ले ६ भ १ । सं १।सा । सं १ । आ २। उ ५॥०॥
पंचेंद्रियतियंग्योनिमतिसार नपर्याप्तकंगे। गु १ । जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं १ । का १ । यो ९ । वे १। स्त्रा। क ४ । ज्ञा ३। सं १ । ।२। ले ६ भ १।सं १ । सं १। १। उ५॥
पंचेंद्रियतिय्यंग्योनिमत्यपर्याप्तसासाबनंग। गु१। जी १।१६। प्रा ७। सं४।ग १।११ इं १ का । यो २। मिश्र । का। वे १ स्त्री। क ४ । ज्ञा २।सं १ व २ ले २ क शुभ १।'
भा३ अशुभ सं१।सं १। आ २। उ४ । कु। कु। च । अ॥
मिथ्यात्वं, सं २, आ २, उ ५ कु कु वि च अ, तत्पर्याप्तानां-गु १ मि, जो २ संज्यसंशिपर्याप्ती, प ६ संज्ञि ५ असंज्ञि, प्रा १० सं, ९ असंज्ञि, सं४, ग १ ति, इं१५, का१त्र, यो ९, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६, भ २, स १ मि, सं २, आ १, उ ५, तदपर्याप्तानां- १ मि, जी २ संज्य- २.
संज्ञिपर्याप्ती, प ६ संश्यपर्याप्तयः, ५ असंश्यपर्याप्तयः, प्रा ७ सं, ७ असंज्ञि, सं ४, ग १ ति, इं १ पं, का १ त्र, यो २ मिश्र, का, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा २ कुकु, सं १ अ,'द २ च अ, ले २ क शु, भ २, स १ मि,
भा ३ अशु सं २, आ २, उ ४, कु कु च अ, सासादनानां-- १ सा, जी २ संप अ, प ६ ६, प्रा १०, ७, सं ४, ग १ ति, १५, का१त्र, यो ११, वे१स्त्री , क४, ज्ञा ३, स १ब, द २, ले ६, भ १, स १ सा,
सं १, आ २, उ ५, तत्पर्याप्तानां-गु १, जो १, ५ ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं१, का १, यो ९, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ, द २, ले ६ भ १, स १, सं १, आ १, उ ५, तदपर्याप्तानां--गु १, जी १।
१
५६ । प्रा ७, सं ४, ग १, इं १, का १, यो २ मि का, बे १ स्त्री, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २,
१२२
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________________
गो० जीवकाण्डे
पंचेंद्रियतिय्यंग्योनिम तिमिश्रं । गु १ । मिश्र । जी १ । पंप | १६ | प्रा १० ॥ सं ४ ३ १ । ई १ । का १ । यो ९ । वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । द२ । भ १ । सं १ ॥
ले ६
६
मिश्र । सं १ । आ १ । उ ५ ॥
पंचेंद्रियतिर्य्यग्योनिमत्य संयतंग । गु १ । अ । जो १ । प ६ । प्रा १० ५ का १ । यो ९ । वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ । द ३ ।
९७०
ले ६
६
वे । सं १ । आ १ ॥ उ ६ ॥
६
। प्रा १० । सं ४ । ग १ ॥
पंचेंद्रियतिर्य्यग्योनिमतिसंयतासंयतंगे । गु १ । दे। जो १ । प इं १ । का १ । यो ९ । वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ | द ३
ले ६
भ १ । सं २ । उ ।
भा ३
वे । सं १ । आ १ । उ ६ ॥
=
प ६ । ५ । प्रा७ ।
१०
तिय्र्यक्पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तकर्गे । गु १ | मि । जी २ । सं= । अ । ७ । सं ४ । ग १ । इं १ । का १ । यो २ । मिश्र । का। वे १ । षं । क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ । द २ ले २ क शुभ २ । सं १ । मि । सं २ । आ २ । उ४ ॥
भा ३ अशु
। सं ४ । ग १ । इं १ । भ१ । २ । उ ।
मनुष्यरु चतुव्विकल्पमप्पर । अल्लि सामान्य मनुष्य । गु १४ । जी २ । ५६ । ६ । प्रा १० । ७ । सं ४ । ग १ । इं १ । का १ । यो १३ । वैक्रियिकद्वयरहितं । वे ३ । क ४ । ज्ञा ८ | १५ सं ७ । ५ ४ । ले ६ भ २ । सं ६ | सं १ । आ २ । उ १२ ॥
६
सामान्य मनुष्यपर्याप्तकर्णे । गु १४ । जी १ । प६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं १ ।
भ १, १, सं १, आ २, उ ४, कु कु च अ, मिश्राणां - गु १ मिश्र, जी १ संप, प ६,
ले २ क शु भा ३ अशुभ
प्र १०, सं४, ग१, इं १ का १, यो ९, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले ६, भ १, स १ मिश्र,
६
सं १, आ १ उ५, असंयतानां --गु १ अ, जी १, प ६, प्रा १०, सं ४ ग १ २० स्त्री, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ, द ३ ले ६ भ १, स २ उ सं१, आ १,
६
दे. जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं १ का १, यो ९, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३, सं १ दे, द ३, ले ६, भ १ स २ उवे, सं १, आ १, उ ६, तिर्यक्पञ्चेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तानां गु १ मि जी २ सं, अ,
3
भा ३
प ६५, प्रा ७ ७, सं ४, ग १, इं १ का १, यो २ मिश्र का, वे १ षं, क ४, ज्ञा २ कु कु । सं १ अ,
द २, ले २ क शु, भ २, स१मि, सं २, आ २, उ ४ चतुर्विधमनुष्येषु सामान्यानां --गु १४, जी २, भा ३ अशुभ
इं १ का १, यो ९, वे १ ६, संयतासंयतानां गु १
२५ ६६, प्रा १०, ७, सं ४, ग १, इं १ का १, यो १३ वैक्रियिकद्वयं नहि, वे ३ क ४, ज्ञा ८, सं ७, द ४, ले ६ भ २, स ६, सं १, आ २, उ१२, तत्पर्याप्तानां -गु १४, जो १, प ६, प्रा १०, सं ४, भा ६
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९७१ का १। यो ११। वे३। क ४। ज्ञा ८। सं ७। द४। ले ६ भ२। सं६। सं१। आ २। उ १२॥
सामान्यमनुष्यापर्याप्तकग्गं । गु ५ । मि । सा।।प्र।स। जी १ प ६ । अ । प्रा७ । अ। सं ४ । ग १ । इं १ । का १ । यो ३। औदारिकमिश्र आहारकमिश्र काणि । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६। म शू । अ । के। कु । कु । सं ४ । अ । सा । छे । यथाख्यात । द ४। ले क शु भ२। ५
भा६ सं ४ । मि । सा। वे । क्षा। सं १। आ २। उ १०॥ कु। कु। म। श्रु । अ । के । च । अ अ । के ।
सामान्यमनुष्यमिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । जी २।१६। ६ । प्रा १० । ७। सं४। ग १ । इं १ का १ । यो ११ । म ४ । व ४ । औ २। का १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ । द २। च । अ ले ६ भय। सं १ । मि । सं १ मा २ । उ ५॥
६
- सामान्यमनुष्यपर्याप्तमिथ्यावृष्टिगळ्गे । गु१। जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग १ । म । इं१। पं। का१त्र । यो ९। वे३।क४ । ज्ञा३ । सं १ । २ ६ भ२। सं १
मि। सं१। आ१। उ५॥
.
सामान्यमनुष्यापर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु१ । जी १ । १६ । अ प्रा७ । असं ४ । ग १ म। ई। पं। का १। त्र। यो २। औ मि का १। वे३। क ४। ज्ञा२। सं १। द२ १५ ले २। क । शु। भ२ । सं १। मि । सं १ । आ २। उ.४॥ भा ३ । अशुभ
ग १, इं १, का १, यो १०, वे ३, क ४, ज्ञा ८, स ७, द ४, ले ६, भ २, स ६, सं १, आ २, उ १२,
भा ६ तदपर्याप्तानां-गु ५, मि सा अप्रस, जी १,१६ अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग १,६१, का १, यो ३, औमि आमि का, वे ३, क ४, ज्ञा ६ म श्रु अ के कु कु, सं ४ अ सा छे यथाख्यात, द ४, ले २ क शु, भ २,
भा ६ स ४ मि सा वे क्षा, स १ मा २, उ १० कु कु म श्रुअ के च अ अके, तन्मिध्यादृशां-गु १, जी २,५६ २० ६, प्रा १०७, सं ४, ग १, इं१, का १, यो ११म ४ वा ४ औ २ का १, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ, द २ च अ, ले ६, भ २, स १ मि, सं १, मा २, उ ५, तत्पर्याप्तानां- १, जी १, प ६, प्रा १०,
सं ४, ग १ म, इं १ पं, का १ त्र, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ ब, द २, ले ६, भ २, स १ मि.
भा६ सं १, आ १, उ ५, तदपर्याप्तानां-गु १ जी १, ५ ६ अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग १ म, ई १ पं, का १ त्र, यो २ औमि का, वे ३, क ४, ज्ञा २, सं १, द २, ले २ क शु, भ २, स १ मि, सं १, आ २, उ४।
भा ३ अशुभ
२५
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९७२
गो० जीवकाण्डे सामान्यमनुष्यसासादनंगे । गु १ सा । जी २।१६।६। प्रा १०। ७ । सं ४ । ग १ । म । इं१।पं का १त्र । यो ११ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु। वि। सं १ । अ । व २ ले ६ भ १ सं १ । सा । सं १ । आ २ । उ ५॥
सामान्यमनुष्यसासादनपर्याप्तकग्गें। गु१। जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग १ । म । ५ ई पं१। कात्र। यो ९। वे३। क४। ज्ञा३। कु। कु। वि। सं १। अ। द२।
ले ६ भ१। सं १। सं १ । आ १। उ ५ ॥
१०
सामान्यमनुष्यापर्याप्तसासावनंग। गु१। सा। जी १। अ। १६ । अ । प्रा७ । अ। सं४। ग१। ई१ का १। यो २। और मिथ । का। वे३। क४। ज्ञा २। सं१। अद२। ले। क । शु। भ१ । सं १ । सा । सं १ । आ २ । उ ४ ॥ भा ३ अशुभ
सामान्यमनुष्यसम्यग्मिथ्यादृष्टिगे । गु १ । मिश्र । जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । गति १ । म। इं१।। का१त्रायो ९ । वे ३ । क ४। ज्ञा३ । सं १। अ।द २ ले ६ भ१। सं १। मिश्र । सं १ । आ १। उ ५ ।।
सामान्यमनुष्यासंयतंग । गु १ अ । जी २। प६।६। प्रा १०। ७। सं४। ग१। इं १ का १ । यो ११ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १। ३। ले ६ भ १। सं३। सं१। आ २। उ ६॥
सामान्यमनुष्यपर्याप्तासंयतग्गें । ग१। जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग १। ई १। का १। यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा३ । सं१।अ। द३। ले ६ भ १। सं३ । उ । वे । क्षा।
६
१५
___ सासादनानां-गु १ सा । जी २ । १६ ६ । प्रा १० ७ । सं ४ । ग १ म । इ १६ । का १० त्र । यो ११ । वे ३ । क ४ ज्ञा ३ कुकुवि । सं १ अ । द २ ले ६ । भ १, स १ सा, सं १ । आ २। उ ५।
भा ६ तत्पर्याप्तानां गु १ सा । जी १। प६ । प्रा १०। सं ४, ग १ म, इं१५ । का ११ । यो ९ । वे३ । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ । द २ । ले ६, भ १ । स १ सा । सं १, आ १ । उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु
भ। ६ १ सा । जी १ अ । प६अ। प्रा ७ अ । सं४। ग १ । १ । का१ । यो २ मि का। वे ३ । क४ | ज्ञा २। सं १, द २ ले २ क शु, भ १, स१ सा सं १,आ २. उ ४, सम्यग्मिथ्याशां -गु १ मि, जी १, प ६,
भा ३ अशु प्रा १०, सं ४, ग १ म, इं१, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २। ले ६, भ १ स १
भा ६ २५ मिथ । सं १ । आ१ । उ ५ । असंयतानां-गु १ असं । जी २। प६६ । प्रा १०७ । सं४ । ग १ । ई
१ । का १ । यो ११ वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ-द ३, ले । भ१, स ३,सं १, २,उ६, तत्प
र्याप्तानां-गु १, जी १, ५ ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं। पं, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ,
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सं १ | आ १ | उ ६ | म । श्रु । अ । च | अ | अ ॥
सामान्यमनुष्यापर्य्याप्तासंयतंगे । गु १ । अ । जी १ | १६ | अ | प्रा ७ | अ | सं ४ ।
१ मई १ | | का १ त्र । यो २ । मि। का। वे १ । पु । क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १ । अ । द ३ । च । अ । अ । ले २ क शु । भ १ । सं २ । वे क्षा । सं १ । आ २ । उ ६॥
भा ६
सामान्यमनुष्यसंयतासंयतंगे गु १ । जो १ ।
पं । का १ त्र । यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १
।
आ १ । उ६ ॥
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
म । श्रु । अ । म । च । अ अ ॥
सामान्यमनुष्यप्रमत्तंगे । गु १ । जो २ । ५६ ।
1
ई १ | का १ । यो ११ । म ४ । व ४ । औ का १ । आ fr स्त्रीपुन्नपुंसक । क ४ । ज्ञा ४ | सं ३ | व ३ ।
सामान्यमनुष्यप्रमत्तपर्य्याप्तों । गु १ ।
ग १ | म । इं १ | पं । का १ । त्र । यो १० । म । श्रु । अ । म । सं ३ । सा । छे । प ।
६ । ।
प्रा
दे । ब ३ ।
गु १ । जी १ सं १ दे । द ३
६ । २ । वे ३ ॥ ले ६ भ १ | भा ३ शुभ
प्र जी १ ।
प्रा १० । ७ । सं ४ ।
१० ।
सं ४ । ग १ | म । इं १ ।
ले ६ । भ १ । सं ३ | सं १ । भा ३ शुभ
म ४ । व ४ । ओ १ । व ३ । च । अ । अ ।
भा ३ शुभ
१० ७ । सं ४ । ग १ म । ई १ पं । का १ त्र । यो ११ प भावापेक्षया त्रिवेदिनः इत्यर्थः । क ४ । ज्ञा ४ । सं ३ | द ३
।
ग १ । म् ।
व्रव्यविधं पुंवेवी । भावापेक्षसं ३ | सं १ । आ
। ६ ।
९७३
क्षा | सं १ । १ । उ ७ । म । श्रु । अ । म । च | अ | अ
॥
सामान्यमनुष्यप्रमत्तापर्य्याप्तकर गु । १ । जो १ अ । प ६ । अ । । प्रा । ७ । अ । सं ४ ।
। प्रा १० । प । सं ४ ।
आ १ | वे ३ | क ४ । ज्ञा ४ ।
भ १ । सं ३ । उ ।
ले
६
भा ३ शु
द३, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, आा १, उ ६ म श्रु अ च अ अ । तदपर्याप्तानां - १ ब । जी १, ६
१ ६ अ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग १ म । ई १ पं । का १ त्र । यो २ मि का । वे १ पुं । क ४ । ज्ञा ३मश्रु अ सं १ अ । द ३ च अ अ । ले २ क शु, भ १ । स २ वे क्षा । सं १ । आा २, उ ६ । संयतासंयतानां -
१ । उ७ । १०
ले ६ भ १ ।
भा ६
प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ मई १ पं । का १ त्र । यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । २० । ले ६ । भ १ । स ३ । सं १ । १ । उ ६ । प्रमत्तानां - गु १ । जी २ प ६६ । प्रा
४ वा ४ ओ १ आ २ । वे ३ । द्रव्यपुंवेदिनः
३ । सं १ | आ १ । उ
५
१५
भा ३ शुभ प ६
सं ४ । ग १ म । इं १
७ म श्रु अ मच अ अ । तत्पर्याप्तानां गु १ प्र । जी १ प पं । का १ त्र । यो १० म ४ वा ४ यो १ बा १ । वे ३ । क ४
मा १० प । शा ४ म श्रु व म । सं ३ सा छेप । ८ २५
३ च अ अ । ले ६ | भ १ । स ३ उवेक्षा । सं १ । बा १ । उ ७ म श्रु व म ब अ अ । तदपर्याप्तानां - गु
भा ३ शु
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९७४
गो० जीवकाण्डे ग१। म । ई १। पं । का १। । यो १ । आ मि ॥ वे १ । पुं। क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ। सं २ । सा। छ। द ३ । च । अ । अ। ले १ क भ १ । सं २। वे क्षा । सं १ । आ १ । उ ६।
भा३शु म । श्रु। अ। च । अ । अ॥
सामान्यमनुष्याप्रमत्तग्गे । गु १ । जि १ । १६ । प्रा १० । सं ३। आहारसंज्ञइल्लेके दोर्ड ५ प्रमत्तनोळे असातसातावेदोदोरणग व्युच्छित्तियुंटप्पुदरिदं । ग १ । ई १ । का १ । यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं३ । द ३। ले ६ भ १ । स ३ । सं १ । आ १ । उ ७॥
भा३
मनुष्यसामान्यापूर्वकरणंगे। गु १ । जी १।५६ । प्रा १० । स ३ । ग १ । इं १ का १ । यो ९। वे ३। क ४। ज्ञा ४ । सं २। सा छे। द३। ले ६ भ १ । सं २। द्वितीयोपशम
भा १ शु क्षायिकंगळु । सं १ । आ १ । उ७॥ १० सामान्यमनुष्यप्रथमभागानिवृत्तिगे। ग १ । जी १ प ६ । प्रा १० । सं २ । मै । प । ग १ ।
इं१। का १। यो ९। वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं २। सा । छ । द ३। ले ६ भ १ । सं २। उ । क्षा । सं १ । आ १ । उ ७॥
द्वितीयभागानिवृत्तिगे। गु१ । जी १ । प६। प्रा १० । सं १। परिग्रह । ग १ । इं१। का १। यो ९ । वे क ४ । ज्ञा ४ । सं २। सा । छ । द ३ ले ६ भ१। सं २। उ।क्षा।
भा १ १५ सं १। आ १ । उ७॥
सामान्यमनुष्यतृतीयभागानिवृत्तिगे। गु १ । जो १ । प६। प्रा १० । सं १ । परिग्रह ।
१। जी १ अ । प ६ ब । प्रा ७ अ । सं४ । ग १ म।१५। का १३ । यो १ बा मि । वे १ । क ४। ज्ञा ३ म श्रु अ । सं २ सा छे । द ३ च अ अ । ले १ क भ १। स २ वे क्षा। सं१। आ १ । उ ६ म श्रु
भा ३ शु अच अ अ । अप्रमत्तानां-गु १ । जी १ । १६ । प्रा १० । सं ३ आहारसंज्ञा नहि सातासातानुदीरणात् । २० ग१। इं१ । का १ । यो ९। वे ३ । क ४ । ज्ञा४। सं३ । द३ | ले ६। भ१। स ३। सं १ । आ
१। उ ७ । अपूर्वकरणानां-ग १ । जी १ । प ६ । प्रा १० । सं ३ । ग १ । इं १ । का १ । यो ९ । वे ३। क ४ । ज्ञा ४ । सं २ सा छे । द ३ । ले ६।भ 11 स २ द्वितीयोपशमक्षायिको। सं १। आ १।
भा१ उ७ । अनिवृत्तिकरणप्रथमभागे-गु १ । जी १ । १६ । प्रा १० । सं २ मै प। ग १ । १ । का१ । यो ९। वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं २ सा छे। द ३ । ले ६ । भ१। स २ उ क्षा। सं१। आ१ । उ ७ ।
भा १ २५ द्वितीयभागे-गु १ । जी १।१६। प्रा १० । सं १ परिग्रहः । ग १ । इं १ । का १ । यो ९ । वे ० । क ४ । ज्ञा ४ । सं २ सा छे । द ३ । ले ६ । भ१ । स २ उक्षा। सं १ । आ १ । उ७। ततीयभागे
भा १
.
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भा
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९७५ ग१। इं१ का १। यो ९ । वे ०। क ३ । मा। मा। लो । ज्ञा ४ । सं२। सा। छ। द३। ले ६ भ१ । स २। उ ।क्षा।। सं १। सं १ । आ १ । उ ७॥ भा १
सामान्यमनुष्यचतुत्थंभागानिवृत्तिगे। ग १ । जो १ । १६। प्रा १० । सं १ । परिग्रह । ग १ । इ १ । का १। यो ९ । वे ० । क २। माया । लो । ज्ञा ४ । सं २। द ३। ले ६ भ१। सं २ । स १ । आ १। उ७॥
सामान्यमनुष्यपंचमभागानिवृत्तिगे। गु १ । जो १।६ । प्रा १० । सं १।ग १।१।। का १। यो ९। वे ०। क १ । लोभ । ज्ञा ४ । सं २। द३। ले ६ भ १ । सं २ । सं १।
भा१ आ १ । उ ७॥
सामान्यमनुष्यसूक्ष्मसांपरायंगे गु १ । सू । जी १ । १६ । प्रा १० । सं १ । परिग्रह । ग १। इं१ का १ । यो ९ । वे ० । क १। लो। ज्ञा ४ । सं १ । सू । द३। ले ६ भ१। सं २। १०
भा१ उ। क्षा। सं १ । १ । उ ७॥
सामान्यमनुष्योपशांतकषायंगे। गु१। उ। जी १।१६। प्रा १० । सं। । ग १। . इं १ का १ । यो ९ । वे । क । ज्ञा ४ । सं १। यथाख्यात । द३। ले ६ भ १ । सं २।
भा १ उ। भा। सं १ । आ १ । उ ७॥
सामान्यमनुष्यक्षीणकषायंगे । गु १ । जी १।।१६। प्रा १०। सं। । ग१। इं१४ १५ का १।यो ९॥ वे क । ज्ञा ४। सं १। यथाख्यात । द३ ले ६ भ१ । सं १।क्षा।
भा १ सं १ आ १। उ७॥
गु १ । जी १। प ६ प्रा १० । सं १ परिग्रहः । ग १ । इं१ । का १ । यो ९ । वे ० । क ३ मा माया लो । ज्ञा ४ । सं २ सा छे । द३ । ले ६ । भ१। स २ उ क्षा। सं१। आ१। उ ७। चतुर्थभागे
भा १ गु १ । जी १ प ६ । प्रा १० । सं १ परिग्रहः । ग १ । इं। का १ । यो ९ । वे ० । क२ मा लो। ज्ञा ४। २० सं २। द ३। ले ६। भ१। स २। सं१। आ १ । उ ७ । पंचमभागे-गु १। जी १। प६ ।
भा १ प्रा १० । सं१ । ग १ । इं१ का १ । यो ९ वे क १ लो । ज्ञा ४ । सं २। द ३ । ले ६ । भ १ ।
स २ । सं १ । आ १ । उ ७ । सूक्ष्मसांपराये---गु १ सू । जी १।५ ६ । प्रा १० । सं १ परिग्रहः । ग १। ई१ का १ । यो ९ । वे ० । क १ लो । ज्ञा ४ । सं १ सू । द ३ । ले ६ । भ १ । स २ उक्षा । सं १।
भा १ आ १ । उ ७ । उपशांतकषाये-ग १उ । जो १ प ६ । प्रा १० सं०। ग १ । १ । का १ । यो ९ । २५ वे ।क । ज्ञा ४ । सं १ यथाख्यातः । द ३ । ले ६ । भ १ । स २ उ क्षा । सं १ । आ १। उ ७ ।
भा १ क्षीणकषाये गु १ । जी १ । १६ । प्रा १० । सं . । ग १ । १ । का १ । यो ९ । वे ० । क • । ज्ञा ४ ।
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९७६
गो० जीवकाणे
सामान्यमनष्यसयोगकेवलिगे। गु१। जी २। ५६। ६। प्रा ४।२। सं। ०। ग१। ई१ का १। यो ७। म २। वा २। औ२ का १ ०।क । ज्ञा १ । सं१। १। ले ६ भ१।सं १।। बा २। उ२ भा१
सामान्यमनुष्यायोगिकेवलिगळ्गे । गु १। जी १।५ ६ । प्रा १ । आयुष्य । सं। ० । ग १ । ५ इं१ का १। यो ०। वे ० । क ० । ज्ञा १।सं १ व १। ले ६ भ १। सं १ । सं । ।
भा. अनाहार । उ२॥
पर्याप्तमनुष्यर्गे मूलोघं वक्तव्यमक्कुं । मानुषियगर्गे । गु १४ । जो २।१६।६। प्रा १०॥ ७ । सं ४ । । संज्ञारहितलं। ग १ । ई ११ का १। यो । ११ । ० । अयोगिगळु । वे १।।
वेदरहितलं । क ४। कषायरहितरं। ज्ञा ७ । म । श्रु । अ । म । के । कु। कु। वि। सं ६ । अ । १० दे। सा। छ। सू य । ४ । च । अ । अ । के। ले ६ लेश्यारहितसं । भ२। सं ६ । सं १।
। ०। रहितसंज्ञित्वरं । आ २। उ ११॥
मनःपय॑यज्ञानोपयोगरहितलं ॥ पर्याप्तमानुषियगगें। गु १४ । जी १ । १६ । प्रा १० । सं४। ०। संज्ञारहितएं। ग १ । १ का १। यो ९ । ०। योगरहितरु । वे१। स्त्री ०॥ वेवरहितरं। क ४ । ०। कषायरहितरं । ज्ञा ७।सं ६ व ४। ले ६ अलेश्यम् । भ २। सं६।
१५ सं १।। संजित्वशून्यरं ।
२। उ ११॥
wwwwwwwwwwwwwww
सं १ यथाख्यातः । द ३ । ले ६। भ१। स१क्षा । सं १ । आ १। उ ७ । सयोगिजिने-ग १ । जी २ ।
प६६ । प्रा ४२ । सं ० । ग १ । १ । का १ । यो ७ म २ वा २ औ २ का १। वे ० । क ० । ज्ञा १। सं १ । द१ । ले ६ । भ १ । स १। सं . । आ २ । २ । अयोगिजिने-गु १। जी १।१६। प्रा
भा १ १ आयुष्यं । सं . । ग १ । इं१ का १ । यो । वे क। ज्ञा १। सं १ । द१। ले ६ । भ१।
भा. २० स १ । सं ० । आ १ अनाहारः । उ २ । पर्याप्तामनुष्याणां मूलौघो वक्तव्यः । मानुषीणां-गु १४ । जी २ ।
प६६। प्रा १०७ । सं ४ शुन्यं च । ग १। १ । का १। यो ११ शुन्यं च । वे१। क ४ शुन्यं च । ज्ञा ७ म श्रु अ के कु कु वि । सं ६ अ दे सा छे सू य । द ४ चअ अके। ले ६ शून्यं च । भ२ । स ६ ।
सं १ शून्यं च । आ २ । उ ११ मनःपर्ययो नहि ।
तत्पर्याप्तानां-गु १४ । जी १ । प ६ । प्रा १० । सं ४ शून्यं च । ग १ । इं १ । का १ । यो ९ २५ शून्यं च । वे १ स्त्री शून्यं च । क ४ शून्यं च । ज्ञा ७ । सं ६ । द ४ । ले ६ शून्यं च । भ २ । स ६ । सं
१. भावस्त्रीणां ।
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९७७ मनःपर्ययज्ञानोपयोगं । स्त्रीवेदगळप्प संक्लिष्टरोल संभविसवप्पुरिदं। अपर्याप्तमानुषियगे । गु२।मि। सा। सयोग । जो १।१६। अ प्रा ७॥। सं४। ०। संज्ञारहित । ग १। इं१। का१ । यो २ मि। का। ० । अयोगरुं । १। स्त्री । ०। अवेवरूं। क४।०। अकषायरूं । मा ३ । कु। कु । के। सं २ । अ । यथाख्यातमुं । द ३ । ब । च । के । ले २। क । शु
भा ४ अ३२१ भ २ । सं ३ । मि । सा। क्षा । सं। १।०। संज्ञित्वशून्यरुं । आ २ । उ ६ । कु। फु । के। च । अ। के॥
मानुषिमिथ्याष्टिगळगे। गु१। जी २।१६।६। प्रा १०७। सं ४ ।ग १ इं? । का १। यो ११ । वै २। आ २ । शून्यं । वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा ३। कु। कु। वि। सं १। आ द २। च । अ । ले ६ । भ२।सं १। मि । सं १। आ २। उ ५ ।कु । कु। वि। च । अ॥
५
पर्याप्तमानुषिमिथ्यादृष्टिग-गु १। मि जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग १। इं१। १० का १ । यो ९ । वे१। स्त्री। क ४ । ज्ञा ३। कु । कु। वि।सं १।अ। द२। ले ६ भ२। सं १ मि । सं १ था । उ ५ ॥
अपर्याप्तमानुषिमिथ्यावृष्टिगे-गु१। जी १।१६। प्रा ७ । अ । सं ४ । ग१। इं१। का १ । यो २। नि । का। वे १ । स्त्री। क ४ । ज्ञा २। सं १ । अ । द २ । ले २ क । शु । भ२।
. भा ३ अशुभ सं १ । मि। सं १ । आ २। उ ४ ॥
मानषिसासादनंग-गु १ । सा । जी २। प६।६ । प्रा १०।७। सं ४ । ग १। इं१। का १। यो ११ । वे १ । स्त्री। क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु। वि।सं १। अ । व २। ले ६ भ १।
२०
१ शून्यं च । आ २ । उ ११ । मनःपर्ययः स्त्रीवेदिषु नहि संक्लिष्टपरिणामित्वात् । तदपर्याप्तानां-ग ३ मि सा सयोगः । जी १ प ६ अ । प्रा ७ अ । सं ४ शून्यं च । ग १ । १ । का १ । यो २ मि का शून्यं च । वे १ स्त्री । शून्यं च । क ४ । शून्यं च । ज्ञा ३ कु कु के । सं २ अ य । द ३ च ब के । ले २ क शु
भा ४ अ शु ३ शु १ भ २ । स ३ मि सा क्षा । सं १ शून्यं च । आ २ । उ ६ कु कु के च अके। मानुषीमिथ्यादृशां-गु १। जी २ प ६ ६ । प्रा १०७। सं ४ । ग १।६१ । का १ । यो ११ । वैक्रियिकद्वयाहारकद्वयं नहि । वे १ स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ कुकू वि । सं१अ । द २ च भ । ले ६। भ२। स १ मि । सं१ । आ२ । उ ५
कु कु विच अ । तत्पर्याप्तानां-गु१ मि । जी १।प६ । प्रा१०। सं ४ । ग१।१ का १ । यो ९। वे १ स्त्री। क ४ । ज्ञा ३ कु कुवि । सं १ अ । द २ ले ६ । भ२ । स १ मि । सं १ । १। उ ५। २५
तदपर्याप्तानां-गु १ मि । जी १।प६अ । प्रा ७ अ । सं४। ग १ ई१। का १ यो २ मि का। वे १ स्त्री । क ४ । ज्ञा २ । सं १ अ । द २ । ले २ क श । भ २ । स १ मि । सं १। आ२। उ४। सासा
३ अशुभ दनानां- १ सा । जी २ प ६६ । प्रा १०७ । सं ४ । ग १ । १ का १। यो ११ । वे १ स्त्री।
१२३
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९७८
१ । १ । २ । उ५ ॥
मानुषि
सासादनपर्याप्ति
१ | यो ९ | १ | स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ । द२ । ले ६
६
१० मिश्र । सं १ । आ १ । उ ५ ।।
1
आहा १ । उ ५ ।।
५
मानुषिसासादनापर्थ्याप्ति । गु १ । सा | जी १ । १६ । अ । इं १ | का १ । यो २ | वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ ।
प्रा ७ | अ | सं ४ । ग १ |
व
२
| ले २ क शु । भ १ । सं १ । भा ३ अशुभ
सा । सं १ । आ २ । उ ॥
मानुषिसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळगे । गु १ | मिश्र । जी १ । इं १ । का १ । यो ९ । वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ । द २ |
गो० जीवकाण्डे
। गु १ । सा । जी १ । १६ । प्रा १०
|
आ १ । उ ६ ॥
मानुष्यसंयतसम्यग्दृष्टिगळगे । गु१ | अ | जो १ । १ ६ । प्रा१० १ । यो ९ | १ | स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ । व ३ ।
मानुषदेशसंयतंगे । गु १ । जो १ । १६ ।
मानुषप्रमत्तसंयत
यो ९ । वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ ॥
प्रा १०
। सं ४ । ग १ | का १ । ई १ । यो
१५ ९ । वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ | दे । द ३
।
ले ६ भ १ । सं३ । सं १ । आ १ । उ६ ॥ भा ३ शुभ
क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ । द२ ।
सं४ । ग १ । इं १ ।
भ १ । सं १ | सं १ ।
६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । ले ६ । भ १ । सं १ ।
। सं ४ | ग १ | इं १ । ले ६ भ १ । सं३ । सं १ । ६
। गु १ । जी १ । १ ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं १ । का १ ।
ले ६ भ १ । स १ सा । सं १ । आ २ । उ५ । तत्पर्याप्त
६
सासादनानां -गु १ सा । जी १ । प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं १ का १ । यो ९ । वे १ स्त्री । क ४ । २० ज्ञा ३ । सं १ अ । द २ । ले ६ । भ १ । स १ सा । सं १ । आ १ ।। उ ५ । तदपर्याप्तानां - गु १ सा । जी
६
१ प ६ अ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग १ । ई १ । का १ । यो २ । वे १ स्त्री । क ४ । ज्ञा २ । सं १ अ । द२ । ले २ क शु । भ १ । स १ सा । सं १ । आ २ । उ४ । सभ्यग्मिथ्यादृष्टेः - गु
१ मिश्रं । जी १ ।
भा ३ अशुभ
सं
६ प्रा१० । सं ४ । ग १ । इं १ । का १ । यो ९ । वे १ स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । ले ६ । भ १ । स १ मिश्रं । सं १ । आ १ । उ ५ । असंयतानां गु १ अ । जी १
६
प
१ अ । द२ ।
२५ ४ । ग १ | ई १ । का १ । यो ९ । वे १ स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ अ । द ३ | ले ६ | भ १ | स
६
३ । सं १ । आ १ । उ ६ | देशसंयतस्य -गु १ । जी १ । १ ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । ई १ । का १ ।
६ । प्रा १० ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९७९ स्त्रीपुंनपुंसकवेदोदयंगळिदं। आहारद्विकं मनःपयंयज्ञानं परिहारविशुद्धिसंयममुमिल्ल । सं २। सा छ । व ३। ले ६ । भ १ । सं३ । उ । वे । क्षा । सं १। आ १। उ६॥
भा३
मानुष्यप्रमत्तसंयतग्गें । गु १ । जि १।१६। प्रा १० । सं३। आहारसंज्ञे शून्यं । ग १ । इं १ का १ । यो ९ । वे १ । स्त्री । क १ । ज्ञा ३ । सं २। ३ । ले ६ । म १। स ३ । सं १।
भा३ आ१। उ६॥
मानुष्यपूर्वकरणपणे । गु १ । जी १। ६। प्रा १० । सं३ । ग १। इं१। का १। यो ९ । वे १ । स्त्री। क ४ । ज्ञा३ । सं २। सा छे। व३ । च । अ । अ । ले ६ । भ१। सं २।
भा १ उ।क्षा । सं १। आ १। उ६॥
मानषिप्रथमभागानिवृत्तिगगर्गे।। गु१। जी १।१६। प्रा १०। सं २। मैथु। ५। ग १।६१। का १ । यो ९ । वे १ । स्त्री । क ४ । जा ३। सं २ । सा। छ। व३। ले ६ भ १ । १०
भा१ सं २। उक्षा । सं१। आ१। उ६॥
। जी १।१६। प्रा १० । सं १। ग१। ई१ का १। यो ९ । वे ० । क ४ । ज्ञा ३ । सं २ । द ३ । ले ६ । भ १।सं २। उक्षा । सं १ । १। उ ६॥
भा १
यो ९। वे १ स्त्री । क ४। ज्ञा ३। सं १ दे। द ३। ले ६ भ १। स ३ । सं १ आ १ । उ६ ।
भा ३ अशु प्रमत्तस्य-गु १ । जी १ । १६ । प्रा १० । सं४। ग१। इं१ का १। यो ९, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३, स्त्रीनपुंसकोदये आहारकद्धिमनःपर्ययपरिहारविशुद्धयो नहि सं २ सा छे, द ३ । ले ६, भ १, स ३
उ वे क्षा, सं १, आ १, उ ६, अप्रमत्तस्य-गु १, जी १, १६, प्रा १०, सं ३ आहारसंज्ञा नहि, ग १, ई १, का १, यो ९, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३, सं २, द ३, ले ६ । भ १, स ३, सं १, आ १, उ ६, अपूर्व
भा ३ करणानां-गु १, जी १, ५ ६, प्रा १०, सं ३, ग १, इं १, का १, यो ९, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३, सं २ सा छे, द ३ च अ अ, ले ६ । भ १, स २ उ क्षा, सं १, आ १, उ ६, अनिवृत्तेः प्रथमभागे-गु १, जी १, २०
भा १ ५६, प्रा १०, सं २ मै प, ग १, इं १, का १, यो ९, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३, सं २ सा छे, द ३, ले ६ ।
भा१ भ १, स २ उ क्षा, सं १। आ १ । उ ६, द्वितीयभागे-गु १, जी १, प ६, प्रा १०, सं १ परिग्रहः ग १, इं१, का १, यो ९, वे ०, क४,ज्ञा ३, सं २,६३, ले ६।भ १, स २ उक्षा , सं १, आ १, उ ६,
भा १
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९८०
गो० जीवकाण्डे
। जी१। प६। प्रा १० । सं१। ग१।१। का १ । यो ९। वे ० । क ३ । मा । या । लो । ज्ञा ३। सं २। सा । छ। द ३। ले ६ भ१।
भा १ सं २। सं १ । आ १। उ६॥
ग १। जी १। प६। प्रा १०।सं १। ग१। ई । ५ का १। यो ९ । वे ०। क २। या । लो। ज्ञा३ । सं २। द ३। ले ६ । भ १। सं २। सं १।
भा १ आ१। उ६॥
मानुषिपंचमभागानिवृत्तिगे । गु १। जी १ । प ६। प्रा १० । सं १। परिग्रह । ग १ । इं १ का १। यो ९। वे ० । क १ । बा = । लो। ज्ञा ३ । सं २। सा। छ। ३। ले ६
भा १ भ १। सं२। उ ।क्षा । सं १ । आ १। उ६॥
१०
मानुषिसूक्ष्मसांपरायंगे। गु १ । सू। जी १। प६। प्रा १० । सं १। परिग्रह । ग १ । इं १ का १।यो ९ । वे ० । क १ । सू=लो । ज्ञा ३ । सं १ । सू। द ३ । ले ६ । भ १ । सं २ ।
भा १ उ। क्षा । सं १ । आ १ । उ६॥
मानुष्युपशांतकषायंग । गु १। जी १ । प६। प्रा १० । सं। ग १। इं१। का १। यो ९। वे । क । ज्ञा ३। सं १ । यथा । व३। ले ६ । भ १ । सं २ । उ । क्षा। सं १ ।
भा १ १५ आ १। उ६॥
तृतीयभागे-गु १ । जी १ । १६ । प्रा १० । सं १। ग१ । १ । का १ । यो ९ । वे १ । क ३ । मा माया लो । ज्ञा ३ । सं २ सा छे । द ३ । ले ६ । भ १ । स २ । सं १। था । उ ६ । चतुर्थ
भा १ भागे-गु १ । जी१।१६। प्रा १० । सं १ । परि । ग १। इं१। का१। यो ९ । वे ० । क २ मा लो। ज्ञा ३ । सं २ सा छ । द ३ ले ६ । भ १ । स २ । सं १। आ १। उ६. पंचमभागे-गु १। जी १ ।
भा १ २० प६ । प्रा १०। सं १ प । ग १। इं१ । का १ । यो ९ । वे ० । क १ वा लो। ज्ञा ३ । सं २ साछे ।
द ३ । ले ६ । भ १ । स २ उक्षा । सं १ । आ१ । उ६। सूक्ष्मसांपरायस्य-गु १सू । जी १ ६ ।
प्रा १० । सं१ परिग्रहः । ग १ । १ । का १ । यो ९ । वे ०। क १। सू लो । ज्ञा३ । सं १ सू । द ३ । ले ६ । भ१ । स २ उक्षा। सं १ । आ १ । उ६ । उपशांतकषायस्य-गु १। जी १। ६।प्रा १०। भा१ सं० । ग १ । ई१ का १। यो ९ । वे ० । क । ज्ञा ३ । सं १ य । द ३ । ले ६।भ १ । स १क्षा ।
भा १
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९८१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका मानुषिक्षीणकषायंगे। गु १ । जी १। प६। प्रा १० । सं। ग १। ई१ का १ । यो ९। वे । क । ज्ञा ३। सं १। यथा । व ३। ले ६। भ१ । सं १। क्षा। सं १ ।
आ १ । उ६।
मानुषिसयोगकेवलिगे। गु १ । जी २ । १६ । ६ । प्रा ४ । २। अ। सं ० । ग १ । ई १ । का १ । यो ७ । म २। २। औ २। का १ ० । क ० । ज्ञा १। के। सं १ । यथा । व १। के ले ६। भ१।सं । क्षा। सं० । आ२। उ२।के।के।
५
भा१
मानुषिअयोगिकेवलिजिनंगे । गु १ । जी १। १६ । प्रा१। आयुष्य । सं ०। ग १। ई। ०का १। यो । क । ज्ञा १।सं १द१ ले ६ भ१। १। क्षा। सं। ।
भा०
आ १ । अनाहार । उ२। के॥
मनुष्यलब्ध्यपर्याप्तकग्ग । गु १ मि । जी १।।१६।अ। प्रा ७ । अ। सं ४ ।ग १० १। इं१ का १। यो २ मि । का। वे १। षंढ । क ४ । ज्ञा२। कु। कु। सं.१। असंयम । द २। च । अ। ले २का शु भ२। सं १ मि । सं१। आ २। उ४॥
भा ३ अशुभ इंतु मनुष्यगति समाप्तमातु ॥
देवगतियोळ वेवक्कळ्गे पेळल्पडुवल्लि । ग ४ | जी २।१६। प्रा १०।७। सं ४ । ग १। दे। इं १ का १ । । यो ११ । म ४।४। वे २ का १। वे २। स्त्रीपुं० । क ४ । ज्ञा ६। १५ म श्रुअ। कु। कु। वि। सं १ ब । र ३। च । अ । । । भ२।सं ६ । सं १ । बा २।।
भा६ उ ९ । म । श्रु । अ । कु। कु। वि । च । अ । अ॥
सं १ बा १ । उ ६ । क्षीणकषायस्य-गु १ । जी १ । १६ । प्रा १० । सं ० । ग १। इं१ । का १ यो ९। वे क । ज्ञा ३ सं१यद ३ ले ६।भ १। स १ यथा । सं १ या १ । उ६ । संयोगस्य
भा १ गु १ । जी २ । प ६। ६ । प्रा ४२ । सं ० । ग १ । १ । का १। यो ७ म २ वा २ बौं २ । का १ । २० वे । क । ज्ञा १ । के।सं १ य । द १ के। ले ६ । भ१। स १क्षा । सं १ । बा २ । उ २के के।
भा १ अयोगस्य-ग १ । जी१। प६। प्रा १ आयुः । सं० । ग१। इं१ । का१ । यो ० । वे । क । ज्ञा १ के।सं १।द १ ले ६ । भ१। स१क्षा । सं० । बा १ अनाहार । उ २ के के। मनुष्यलष्य
भा ० पर्याप्तानां-गु १ मि । जी १ अ। प६अ। प्रा ७ अ । सं४ । ग१। ई१ का १। यो २ मि का। वे १षं। क ४। ज्ञा २ कुछ। सं १अ । ६२ च । ले २क शु। म २। स १ मि । सं १। २५
भा ३ अशुभ आ २ । उ४। देवगतो- ४ । जी २ ६६,प्रा १०७। ४। ग १ दे।१५ का १त्र। यो ११ म ४ । वा ४ २ । का १ वै । वे २ स्त्री पुं। क ४ । ज्ञा ६ म ध अकु कु वि । सं १ अ । ६३
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९८२
देवसामान्यपर्याप्तकरमे ।। गु ४ । जी १
का १ । त्र । यो ९ । वे २ । क ४ । ज्ञा ६ । सं १ ।
आ १ । ४९ ॥
गो० जीवकाण्डे
प
६ । प्रा १० अ । व ३ ।
देवसामान्यापर्यातकरगें। गु ३ मि। सा
।
अ जी १ | अ | प ६ । अ । प्रा ७ । अ । सं ४ । ५ ग १ । ई १ का १ । यो २ मि का। वे २ | क ४ । ज्ञा ५ । म । श्रु । अ । कु कु । सं १ । द ३ ले २ क । शुभ २ । सं ५ | उ भा ६
वे
क्षामि । सा । सं १ ।
२ । उ ८ । म । श्रु । अ ।
कु कु च । अ अ ॥
देवसामान्यमिध्यादृष्टिगन् । गु१
मि
जी २
६
। प्रा १० । ७ ।
सं ४ ।
सं १ । अ । व २ । च । अ ।
। १६ । ग १ । ई १ का १ । यो ११ । वे २ क ४ | ज्ञा ३ । कु । कु । वि १० ले ६ । भ२ । सं १ | मि सं १ । आ २ । उ ५ भा ६
। कु । कु । वि
देवसामान्य मिथ्यादृष्टिपर्याप्तकम् । गु१ ई १ का १ । यो ९ । वे २ क ४ । ज्ञा ३ ।
सं १ | आ१ । उ ५ ॥
ले २ क शुभ २ । सं १
भा ६
| । । |
मि जी १ सं १ | अ
व
मि सं १ । आ २ । ऊ ४ ॥
1
देवसामान्यापर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळगे गु १
जी १
अ
सं ४ । ग १ | इं १ । का १ । यो २ | मि । का। वे २ । क ४ ।
१५
ले
सं ४ । ग १ | वे १ । ई १ । ६ । भ २ । सं ६ । सं १ । भा ३
च। अ ॥
प ६ । प्रा १० सं ४ ।
ले ६ भ२।
भा ३
२
२० अ । प ६ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग १ | ई १ | का १ । यो २मिका । कु । सं १ अ । द ३ । ले २ क शु । भ २ । स ५ उवेक्षा मिसा ।
भा ६ कुच अ अ । मिथ्यादृशां गु १ मि । जो २ । यो ११ | वे २ । क ४ ज्ञा ३ कु कु वि
सं
६६ । प्रा १०७ १ अ । द २ च अ
।
गु४ । जी १ सं १ अ । व ३
१ ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ दे । ई १ प । का १ त्र । यो ९ । । ले ६ । २ । स ६ । सं १ । आ १ । उ ९ । तदपमान भा ३
तत्पर्याप्तानां गु १ अ जी
१
प ६
अ
ज्ञा २ । सं १
चअ अ ले ६ । २ । ६ । सं १ । आ २ । ३९ । मधु व कु कु विच अ अ तत्पर्याप्तानां -
६
। सं ४ । ले ६ ।
भा ६
वे २ । क ४ सं १ । आ २
ग १ |
।
सं १ | मि
प्रा ७ । अ ।
अ । द २ ।
वे २ । क ४ । ज्ञा ६ ।
३ मिसा अजी १
प ६ प्रा १०
के
सं ४ ६ । भ २ । स १ मि । भा ३ शुभ
५। तदपर्यासनांगु १ ज १ अ प ६ अप्रा ७ अ सं ४ । ग १ | ई १ का १ । यो २ मि
। ज्ञा ५ म श्रु अकु । उ ८ म
अ कु
अ २ । उ ५ कु कु विच अ
ग १ । ६१ ।
२५ । । । । का १ । यो ९ । वे २ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ अ । द२ ।
सं १ । आ १ ।
ग १ । इं १ । का १ । २ । स १ मि ।
१ ।
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका देवसामान्यसासादनंगे। गु १ । सा। जी २। प६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग १। इं१। का १ । यो ११ । वे २। क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि । सं १ । अ । व २ ले ६ । भ १ ।
भा६ सं १। सा । सं १। आ २ । उ ५॥
देवसामान्यसासादनपप्तिक १। जी १। प६ । प्रा १० । सं४। ग१। ई१। का १ । यो ९ । वे २१क ४। ज्ञा ३। सं १। अ । द २। ले ६। भ१। सं १। सा। सं१। ५
भा३शु आ१। उ ५ ॥
देवसामान्यसासादनापाप्रकग्गें । गु १ । जी १ । १६ । अ । प्रा ७ । अ । सं४ । ग १। इं१ का १ । यो २ । मि । का। वे २। क ४ । ज्ञा २। सं १। द२। ले २ क । शु। भ१।
भा६ सं १ । सा । सं १ । आ २। ऊ ४ ॥
देवसामान्यसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग १। इं१। १० का १। यो ९ । वे २ । क ४ । ज्ञा ३ । सं१। अ। द २ ले ६। भ १ । सं१। मिश्र । सं १
भा३ आ १ । उ ५॥
देवसामान्यासंयत । ग१। जी २। ६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग १ । इं१। का १ । यो ११ । वे २। क ४ । ज्ञा ३। म । श्रु । अ । सं। अ । द३। ले ६ भ१। सं३ ।
भा३ सं१। आ २। उ६॥
का । वे २ । क ४ । ज्ञा २ । सं १ अ । द २। ले २ क शु । म २। स १ मि । सं १। आ २ । उ ४
भा ६ कु कु च अ । सासादनानां-गु १ सा। जी २ । प ६६। 'प्रा १०७ । सं ४ । ग१। इं१ का १ । यो ११ । वे २ क ४ । ज्ञा ३ कुकुवि । सं १ अ । द २ ले ६ । भ १ । स १ सा । सं१ । आ २ । उ ५ ।
भा६ तत्पर्याप्तानां-गु १। जी १ प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं१ का १ । यो ९ । वे २ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ अ। द २ ले ६। भ१ । स १ सा । सं१ । आ१। उ ५। तदपर्याप्तानां गु १ जी १ अ। २०
प ६ अ । प्रा ७ अ । सं४ । ग १।६१ का १। यो २ मि का । वे २ । क४ । ज्ञा २। सं१।द २ । ले २ क शु । भ १। स १ सा । सं१ । आ २ । उ ४ । सम्यग्मिथ्यादृशां-गु १। जी १ । प६ । प्रा १० ।
सं ४ । ग१। १। का १ । यो ९ । वे २। क ४ । ज्ञा ३। सं १ अ । द ३ । ले ६ । भ१। स १
भा ३ मिश्र । सं १। आ १ । उ ५। असंयतानां-१। जी २१६६ । प्रा १०७। सं४। ग१।१। का १। यो ११ । वे २ । क ४ । ज्ञा ३ म श्रु अ । सं १ अ । द ३ ले ६ । भ १ । स ३ । सं १ । आ २। २५
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९८४
गो० जीवकाण्डे देवसामान्यासंयतपर्याप्तकम्गें। गु १। जो १।१६। प्रा १०। सं ४ । ग१। ई१। का १। यो ९। २। क ४। ज्ञा ३। सं१। अ। ३। ले ६ भ१। सं३ । सं १।
भा३
आ १ । उ६॥
देवसामान्यासंयतापर्याप्तकग्गें । गु १। जी १ । १६ । अ । प्रा ७ । अ । सं ४ । ग १। ५ ६१ का १। यो २। मि । का। वे १। पु०। क ४ । ज्ञा ३ । सं १। द३। ले २ क शु
भा ३ शु भ १ । सं३ । सं १ । आ २। उ ६॥
भवनत्रयदेवकळ्गे। गु ४। जी २। प६।६। प्रा १०।७। सं४। ग१।१। का १ । यो ११ । वे २। क ४ । ज्ञा ६। सं ११ द ३। ले ६ भ२। सं ५ । उ । वे। मि ।
भा४ सा। मि । सं १। आ २। उ ९ । म । श्रु । अ । कु। कु। वि । च । अ। अ॥
भवनत्रयपतिदेवर्कळगे। ग १ । जी १।५६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं१ । का १। यो ९। वे २। क ४। ज्ञा ६ । म। श्र। अ।कु। कु। वि। सं १। व ३। ले ६ भ २ ।
भा१
सं५ । उ । वे। मि । सा। मि । सं १। आ १। उ ९॥
भवनत्रयापर्याप्तदेवक्र्कगे । ग २ । मि । सा। जी १।१६। प्रा७ । अ । सं ४ । ग १। इं १ का १ । यो २ । मि । का। वे ।२।क ४।ज्ञा २। सं १। द २। ले २ क शु भ२।
- भा ३ ब शु १५ सं२। मि। सा । सं १ । बा २। उ ४॥
उ६ । तत्पर्याप्तानां-गु १। जी १। प ६ । प्रा १० । सं४ । ग १ । इं१। का १ । यो ९ । वे २ । क४ । ज्ञा ३ ।सं १ अ । द ३ । ले ६ । भ १ । स ३ । सं १ । बा १। उ ६ । तदपर्याप्तानां-गु १जी १
भा ३ अ । १६ ब । प्रा ७ अ । सं ४ । ग १। इं१ । यो २ मि का । वे १ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । द ३ । ले २ क शु । भ १। स ३ । सं १ । आ २ । उ ६ । भवनत्रयदेवानां-गु ४ । जी २ । प ६ ६ । प्रा १०७ । भा ३ शुभ सं ४ । ग १ । ई१। का १। यो ११ । वे २। क ४। ज्ञा ६ । सं १ । द ३ । ले ६ । भ २ । स ५ उ वे
भा ४ मि सा मि । सं १ । आ २। उ ९ म श्रु अ कु कु विच अ अ । तत्पर्याप्तानां-गु ४। जी १। प६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । १ । का १ । यो ९ । वे २ । क ४ । हा ६ म श्रु अ कु कु वि। सं १ । द ३ च अ अ । ले ६ भ २ । स ५ उ वे मि सा मि । सं १ आ१।उ ९ । तदपर्याप्तानां-गु २ मि सा । जी १
२०
क ४ । जा २ । सं
।
अ । प ६ अ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग १ । १ का १ यो २ मि का । वे २। २५ द२। ले २ क श । भ२ । स २ मि सा । सं १ । आ २ । उ ४ ।
भा ३ अशु
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका भवनत्रयमिथ्यादृष्टिगगळ्गे। गु १ । मि । जी २ । प ६ । ६ । प्रा १०।७। सं ४ । ग १ । इं१ का १ । यो ११। वे २ । क ४ । ज्ञा ३। सं १। द २। ले ६ भ २। सं १ । मि । सं १।
भा४ आ २। उ ५॥
भवनत्रयपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १। जी १ । १६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं१।। का १। यो ९। वे २। का ४ । ज्ञा ३। सं १। द २। ले ६ भ २। स १ मि | सं १। ५
भा १ आ १ । उ ५॥
भवनत्रयापर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळगे । गु १ । जी १।१६ । अ । प्रा ७ । अ । सं ४ । ग१। इं १ । का १ । यो २। क ४ । ज्ञा २ । सं १ । द २। ले २। क शुभ २। सं १ । मि । सं १ ।
भा३ अ शु आ २। उ ४ ॥
भवनत्रयसासादनंग गु १ । सा । जी २।१६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग १। इं१। १० का १ । यो ११ । वे २। क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ । द २। ले ६ भ १ । सं १ । सा । सं १ ।
भा ४ आ २ । उ ५॥
भवनत्रयसासादनपर्याप्तकग्नें। गु१। जी १। ५६। प्रा १० । सं ४ । ग १।६१। का १। यो ९। वे २। क ४। ज्ञा ३। सं १। द२। ले ६ भ१। सं १। सा। सं १।
भा१
आ २। उ ५॥
भवनत्रयसासादनापर्याप्तकर्गे। गु१। जी १। १६ । अ । प्रा ७। असं ४ । ग१। इं १ । का १ । यो २। वे २१ क ४ । ज्ञा २। सं १।द २। ले २ क शु भ१। सं १ । सा।
भा ३ अशुभ सं १। आ २। उ४॥
मिथ्यादृशां-गु १ मि, जी २,५६६, प्रा १० ७, सं ४, ग १, इं१, का १, यो ११, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले ६, भ २, स १ मि, सं १, मा २, उ ५, तत्पर्याप्तानां-गु १ जी १, प ६, प्रा १०, २०
भा४। सं ४, ग १, इं १ का १, यो ९, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द ३ ले ६, भ २, स १ मि, सं १, आ १, उ ५,
तदपर्याप्तानां-गु १, जी १, ५ ६ ७, प्रा १० अ, सं ४, ग १, इं १, का १, यो २ मि का, वे २, क ४, ज्ञा २, सं १, द २, ले २ क शुभ २, स १ मि, सं १, आ २, उ ४, सासादनानांन्गु १ सा, जी २,
भा ३ अशु ६ ६, प्रा १० ७, सं ४, ग १, इं १, का १, यो ११, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १ म, द २, ले ६ भ १,
भा४ स १ सा, सं १, आ २, उ ५, तत्पर्याप्तानां-गु १, जी १, ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं १, का १, यो ९, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले ६, भ १, स १ सा, सं १, आ १, उ ५, तदपर्याप्तानां-गु १,
भा १ जी १, ५ ६ अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग १, इं १, का १, यो २, वे २, क ४, ज्ञा २, सं १, द २, च अ,
१२४
।
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९८६
गो० जीवकाण्डे भवनत्रयसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु१। जी १। प६ । प्रा १०। सं ४ ।ग १। इं१। का १। यो ९। वे २। क ४। ज्ञा ३ । सं १। द २। ले ६ भ१। सं १। मिश्र। सं १॥
भा १ आ१। उ५॥
भवनत्रयासंयतर्ग॥गु१। जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग १ । ई १ का १ । यो ९ । . वे २। क ४ । ज्ञा ३। सं १ । व ३। ले ६ म १ । सं २। उ । वे । सं १ । आ १ । उ ६ ॥
भा१ सौधम्मैशानदेवळगे। गु४। जी२।१६। ६ । प्रा १०।७। सं४ । ग१।१। का १। यो ११। वे २। क ४। ज्ञा ६ । सं १ । द ३ ले ३ पी।प। शु। भ२। स ६।
भा१ सं १। आ२। उ९॥
सौधम्मंद्वयपर्याप्तदेवक्कळगे। गु४। जी १। प६ । प्रा १०। सं४। ग १। इं१। का १। यो ९। वे २। क ४। ज्ञा ६। सं १। द३। ले १ ते भ २। सं६। सं १।
आ १। उ९॥
सौधर्मद्वयापर्याप्तदेवळगे। गु३ । मि । सा । अ। जी १।५६। अ। प्रा७ । अ। सं ४ । ग १। इं१। का १ । यो २। वे २। क ४ । ज्ञा ५। कु । कु। म । श्रु । अ । सं १ । द३ ले २ भ२।सं । उ। वे । क्षा। मि। सा। सं१। आ २। उ८। म। श्र। अ।
भा १ कु। कु। च । अ । अ॥
___सौधर्मद्वयमिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु१। जी २। ५६।६। प्रा १० । ७। सं ४। ग१। इं १ का १ । यो ११ । वे २। क ४ । ज्ञा ३। सं १। द २ ले ३ मे २। सं १। मि ।
भा१ सं १ । आ २ । उ ५॥
.
ले २ क शुभ १, स १ सा, सं १ आ २, उ ४, सम्यग्मिथ्यादृशां-गु १, जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १,
भा ३ अशु . इं १, का १, यो ९, वे २, क ४, ज्ञा ४, सं १, द २, ले ६, भ १, स १ मिश्रं, सं १, आ १, उ ५,
भा १ असंयतानां-गु १, जी १, ५ ६, प्रा १०, सं४, ग १, ई १, का १, यो ९, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द ३, ले ६, भ १, स २ उ वे, सं १, मा १, उ ६, सौधर्मशानदेवानां-गु ४, जी २, ५६, प्रा १० ७,
भा १ सं ४, ग १, इं १, का १, यो ११, वे २, क ४, ज्ञा ६, सं १ द ३, ले ३ पी क शु, भ २, स ६, सं १,
भा१ते आ २, उ ९, तत्पर्याप्तानां-गु ४, जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, ई १, का १, यो ९, वे २, क ४, ज्ञा ६, सं १, द ३ ले १ते, म २, स ६, सं १, आ १,उ ९, तदपर्याप्तानां- ३ मि स अ, जी १,
भा १ प ६ अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग १, इं १, का १, यो २, वे २, क ४, ज्ञा ५ कु कु म श्रु अ, सं १, द ३, ले २, भ २, स ५ उ वे क्षा मि सा, सं १, आ २ उ ८ म श्रु अ कु कु च अ अ, मिथ्यादृष्टीनां-गु १,
भा१
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सौधद्वय मिथ्यादृष्टिपर्य्याप्तकर्गे । गु १ । जी १ । इं १ । का १ । यो ९ । वे २ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । द२ । आ १ । ३५ ।
सौधद्वय मिथ्यादृष्टि अपर्याप्तकर । गु १ । जी १ ग १ । इं १ । का १ । यो २ । वे २ । क ४ । ज्ञा २ । सं १ । द२ ।
सं १ । आ २ । उ ४ ॥
सौधर्म्मद्वयसासादनंगे । गु१ । जी २ । ५६ । का १ । यो ११ | वे २ । क४ । ज्ञा ३ ॥ सं १ । द २
आ २ । उ५ ॥
सौधर्मद्वयपर्याप्तसासादनंगे । गु १ सा । जो
१
का १ । यो ९ | वे २ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ | द २ ।
सं १ । सा । सं १ | आ २ । उ४ ॥
सौधर्म्मद्वयसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ् । गु १ । जी १ का १ । यो ९ । वे २ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ | द २ आ १ । उ ५ ॥
९८७
प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । ले १ भ २ । सं १ | मि । सं १ । भा १
। १६ । अ । प्रा ७ । अ । सं ४ | ले २ भ २ । सं १ । मि ।
भा १
६ । प्रा १०
ले ३ भ १ ।
भा १
। ७
१,
भ१, १, १, आ १, उ ५ तदपर्याप्तानां -गु यो २मिका, वे २, क ४, ज्ञा २, सं १, द २,
।
प ६ । प्रा १० | सं४ । ग १ ले १ भ १ । सं १ । सं १ । आ १ । उ५ ॥
भा १
।
सौधर्म्मद्वयसासादनापर्य्याप्तकर्गे । गु १ । जी १ । १ ६ | अ | प्रा ७
|
अ | सं ४ । ग १ । ले २ क शुभ १ |
इं १ | का १ । यो २ । मि । का। वे २ | क ४ । ज्ञा २ । सं १ । द२ ।
भा १
सं ४ । ग १ । ई १ ।
सं १ । सा । सं १ ।
जी २,६६, १०, ७, सं ४, ग १, इं १ का १,
यो ११, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले ३, भा १ भ २, स१मि, सं १, आ २, उ५, तत्पर्याप्तानां --गु १, जो १, प ६, प्रा १०, स ४, ग १, इं १, का १, यो ९, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २ ले १, भ २, स१मि, सं १, आ १, उ १, तदपर्याप्तानांगु१, जी १, प६अ, प्रा ७ अ सं ४, ग १, इं १ का १, यो २,
भा १
भ २, स १ सं १, आ २, उ४, सासादनानां --गु १, जी २, ६, ६, प्रा १०७, का १, यो ११, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले ३, भ १, स १ सा, सं १, आ २,
भा १
। ई १ । १०
। प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ । इं १ । १५ ले १ ते भ१ । सं १ | मिश्र । सं १ ।
भा १
२, ४, ज्ञा २, सं १, द २, ले २, भा १
जी १, प६अ, प्रा ७ अ सं ४, ग १, इं १ का १, ले २ क शु, भ १, स १ सा, सं १, आ २, उ४,
भा १
सम्यग्मिथ्यादृशां - गु १, जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, ई १ का १, यो ९, वे २. क ४, ज्ञा ३, सं १,
५
सं ४, ग १, ई १, ५, तत्पर्याप्तानां
गु १ सा, जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, ई १ का १, यो ९, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द २, ले १, २५
१
२०
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________________
९८८
१५
गो० जीवकाण्डे
। गु १ । जी २ । १६ । ६ । ज्ञा ३ । सं १ । व ३ ।
ले
प्रा १० । ७ । ३ ते क । शु भा १ ते
सौधर्मद्वयासंयत
का १ । यो ११ । २ । क ४ ।
वे । क्षा । सं १ । आ २ | उ६ ॥ सौधर्म्मद्वयपर्याप्तासंयत
५ १ । यो ९ । वे २ । क ४ । ज्ञा ३
।
। गु १ | जी १ । १६ ।
ले १ भ १ भा १
सं १ । द ३
सौधर्म्मद्वयापर्य्याप्तासंयत । गु
१
इं १ । का १ । यो २ । मि । का। वे
१
।
। जी १ । प ६
पु० | क४ ।
प्रा १० । सं ४ । ग १ । ई १ । का
। सं ३ | सं
। अ ।
ज्ञा ३
।
प्रा
सं ४ । ग १ । ई १ । १ भ १ । सं३ । उ ।
सं
७ । अ ।
तिन्हं दोन्हं दोन्हं छण्हं दोन्हं च तेरसहं च । एत्तो य चोट्सहं लेस्सा भवणादिदेवाणं ॥ तेऊ तेऊ तह तेउ पम्मा पम्मा य पम्मसुक्का य 1 सुक्का य परमसुक्का लेस्सा भवणादिदेवाणं ॥
१ । आ १ । उ६ ॥
१ | द
३
सं
|
भ १ | सं३ । सं १ । आ २ । उ ६ ॥
अपर्य्याप्तकालदोळुपशमसम्यक्त्वमे तु संभविसुगुर्मदोडे पेळल्पडुगुं । श्रेणियदमवतीणंरुगळगे असंयतादिचतुग्र्गुणस्थानं गळोळ द्वितीयोपशमसम्यक्त्व सुंदरपुर्दारवं अल्लि मध्यमतेजोलेश्ययो कालंगे सौधर्मद्वयदेवक्कंळोळ उत्पन्नग्गे अपर्याप्तकालदोळपशमसम्यक्त्वमं पडेयल्प - दो
४ । ग १ ।
ले २ क शु
भा १ ते
इत्यादिसूत्रसूचितक्रमविंदमल्ल पर्याप्त कालदोळुपशम सम्यक्त्वास्तित्वमरियल्पडुगुं । असंयतसम्यग्दृष्टिगे स्त्रीवेददोळु उत्पत्ति संभविसवे वितु आतंगे पर्य्याप्ताळापमोदे वक्तव्यमक्कुमल्लि क्षायिकसम्यक्त्वमुमिल्लेके 'दोडे देवगतियोळ दर्शनमोहनीयक्षपणाभावमप्पुर्वारवनिते विशेषमरि
पडु ।
२० द २ ले १ ते, भ १, स १ मिश्र, सं १, आ १, उ५, असंयतानां - गु १, जी २, १६६, प्रा १०, ७, सं ४, १
ग १, इं १, का १, यो ११, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द ३, ले ३ ते क शु, भ १ स ३ उ वे क्षा, सं १, भा १ ते
आ २, उ ६, तत्पर्याप्तानां - १, जी १ प ६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं १ का १, यो ९, वे २, क ४, ज्ञा ३, सं १, द ३, ले १, भ १, स ३, सं १, आ १, उ ६, तदपर्याप्तानां -गु १, जी १, प ६ अ, प्रा ७ अ, भा १
सं ४, ग १, इं १, का १, यो २ मि का, वे १ पुं, क ४, ज्ञा ३, सं १, द ३ ले २ क शुभ १, स ३ सं १, भा १ ते
२५
म २, उ ६, वैमानिकेषु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं आरोहकापूर्वकरणप्रथमभागवजितोपशमश्रेण्यारोहकावरोहकाणां तदवतीर्णचतुरसंयतादीनां च तत्सम्यक्त्वमृतानां तत्तल्लेश्यया तत्रोत्पत्तेरपर्याप्तकाले संभवति, असंयतस्त्रीणामेकः पर्याप्तालाप एव सम्यग्दृष्टीनां तत्रानुत्पत्तेः पर्याप्तकर्मभूमिमनुष्याणामेव दर्शनमोहक्षपणाप्रारंभ संभवेऽपि तन्निष्ठापकानां चतुर्गतिषूत्पत्तेः क्षायिकसम्यक्त्वमत्र संभवतीति विशेषः स्मर्तव्यः ।
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९८९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका सानत्कुमारमाहेंद्रदेवळगे। गु४। जी२।१६।६। प्रा १०।७। सं४। ग १। इं१ का १। यो ११ । वे १॥ पुंस्त्रीवेदिगळ्गे सौधर्मद्वयदोळे उत्पत्तियप्पुरिदं । क ४ । ज्ञा ६ । सं १। ३। ले ४ ते प क १ शु १ भ २ । सं ६ । उ । वे। क्षा। मि। सा। मि । सं १ ।
भा २ तेप आ २। उ९॥
५
___ सानत्कुमारद्वयदेवपर्याप्तगर्ग।गु ४। जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग१। इं १ का १। यो ९ । वे १क ४। ज्ञा ६। सं १ व ३। ले २। भ२। सं६। सं १ । आ १। उ९॥
सानत्कुमारद्वयदेवापर्याप्तकग्र्गे।। गु३ । मि । सा । अ । जो १ । ।५ ६ । अ प्रा ७। अ। सं४ । ग१। इं१ का १।। यो २।वै .मिश्र १ का १। वे १। पुं०। क ४। ज्ञा ५ । कु। कु । म । श्रु । अ । सं १ अ । द ३ च । अ।अ। ले २ क शु। भ २। सं ५। मि । सा। उ। वे ।क्षा । सं १ । आ २ । उ ८॥
संप्रति मिथ्यादृष्टिप्रभूति यावदसंयतसम्यग्दृष्टि तावश्चतुर्गुणस्थानंगळ्गे सौधर्मपुवेदभंग वक्तव्यमक्कुं। ई प्रकारदिदं मेलेयुं तंतम्मलेश्यानुसारदिदं वक्तव्यमक्कुं। अनुदिशानुत्तरविमानंगळ सम्यग्दृष्टिगळ्गे सम्यक्त्वत्रयाळापं कर्तव्यमक्कुमल्लि विशेषमुंटवावुर्देवोर्ड उपशमसम्यक्त्वमं बिटु पर्याप्तकालदोळ वेदकक्षायिकसम्यक्त्वद्वयमे वक्तव्यमक्कु । रंजु देवगति समातमादुदु ॥
सिद्धगतियोल सिद्धग्गें तंते वक्तव्यमक्कुं। विशेषमुंटावुदे दोडे अस्ति सिद्धगतिस्तत्र केवल- १५ ज्ञानकेवलदर्शनक्षायिकसम्यक्त्वमनाहारमुपयोगद्वयमुटु शेषाळापमिल्ल एक दोडे सिद्धरुळगे एकद्रियादिजातिनामकर्मोदयाभावमप्पुरिवं । इंतु गतिमारगंणसमारगणे समाप्तमायतु ।
सनत्कुमारमाहेन्द्रदेवानां-गु ४, जी २, प ६ ६, प्रा १० ७, सं ४, ग १, इं १, का १, यो ११, वे १ पुं कल्पस्त्रीणां सौधर्मद्वय एवोत्पत्तेः, क ४, ज्ञा ६, सं १, द ३, ले ४ ते प क शु, भ २, स ६ उ वे
भा २ ते प क्षा मि सा मि, सं १, आ २,उ ९, तत्पर्याप्तानां-गु ४, जी १,१६, प्रा १०, सं ४, ग १, इं१, का १, २० यो ९, वे १, का ४, ज्ञा ६, सं १, द ३, ले २, भ २, स ६, सं १, आ १, उ ९ ।
तदपर्याप्तानां-गु ३ मि सा अ, जी १ अ, प६अ, प्रा १०७ अ, सं४, ग१३, १५, का १त्र, यो २ वै मि का, वे १ पुं, क ४,शा ५ कु कु म श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले २ क शु, भ २, स ५
मि सा उ वे क्षा, सं १, मा २, उ८, तन्मिथ्यादृष्टयाद्यसंयतान्तानां सौधर्मपुवेदवद्वक्तव्यं एवमुपर्यपि स्वस्वलेश्यानुसारेण योज्यं, अनुदिशानुत्तरविमानजानामसंयतालाप एव तत्राप्ययं विशेषः, पर्याप्तकाले वेदकक्षायिक- २५ सम्यक्त्वद्वयमेव, सिद्धगतो सिद्धानां यथासम्भवं वक्तव्यं, अस्ति सिद्धगतिस्तत्र केवलज्ञानदर्शनक्षायिकसम्यक्त्वानाहारोपयोगद्वयेम्यः शेषालापो नास्ति सिद्धानामेकेन्द्रियादिनामोदयाभावात, गतिमार्गणा गता।
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९९०
गो० जीवकाण्डे इंद्रियानुवाददोळ मूलौघालापमक्कुं। सामान्यैकेंद्रियंगळगे पेळल्पडुवल्लि। ग १ । मि । जो ४ । वा । सू = । प । अ । प ४। ४ । प्रा ४।३। सं ४ । ग १ । ति । इं१। ए। का ५ । त्रसरहितमागि योग ३ । औदारिक तन्मिश्रकामण । वे ११षंढ । क ४ । ज्ञा २। कु । कु । सं १। अ । द १। अचक्षु । ले ६। भ२। सं १ मि । सं। अ१। आ २। उ३ । कु। कु । अचक्षु।
भा ३ अशुभ सामान्यकेंद्रिय पर्याप्तकरगे। गु १ । मि । जि २। बा ० सू ० । १४ । प्रा ४। ए। का उ। आयुः। सं ४ । ग १ ति । इ १ ।ए । का ५॥ सरहितमागि । यो १। औ का वे १ । षंढ । क ४ । ज्ञा २। कु। कु । सं १। अ । द १। अचक्षु ले ६। भ२। सं १ । मि। सं १।
भा ३ अशु असंज्ञि । आ । उ ३ । कु । कु । अचक्षुदर्शन ॥
सामान्यैकेंद्रियापर्याप्तकग्गें । गु १ । मि। जी २ । बा। अ० सूअ। ५४। अप्रा ३ । १० असं ४ । ग १ । ति इं १ । एका ५ । यो २। मि । का। वे १।ष ० । क ४ । ज्ञा २ । कु । कु। सं १। अ। द १ । अचक्षु ले २ क शु भ२। सं १ । मि । सं १। अ सं। आ २। उ ३ ।
भा ३ अशु कु । कु । अच ॥
बादरैकेंद्रियंगळ्गे । गु१ । मि । जी २।प। अ।१४। ४ । प्रा ४।३। सं ४ । ग १। ति । इं१। ए। का ५ । यो ३ । औ । मि । का। वे १। षं । क ४ । ज्ञा २ । कु। कु।सं १ अ । १५ द१।अच। लं ६। भ२।सं १ मि। सं ११ असंज्ञि। आ २। उ३॥
भा ३ अशु बादरैकेंद्रिय पर्याप्तकग्गें । गु १। मि । जी १ । प ४ । प्रा ४ । सं ४ । ग १ । ति ई १। ए। का ५ यो १ । औ काय । वे १। षं । क ४। ज्ञा २। सं १ अ । द १ अ च ले ६ भ२।
भा३ अशु सं १ । मि । सं १ । असंज्ञि । आ १ । उ ३॥
इन्द्रियानुवादे मूलोषः-तत्र सामान्यैकेन्द्रियाणां-गु १ मि, जी ४ वा सू प अ, प ४४, प्रा ४३, २. सं ४, ग १ ति, इं १ ए, का ५ असोनहि, यो ३ औदारिकतन्मिश्रकार्मणाः, वे १५, क ४, ज्ञा २ कू कू, सं१ अ, द १ अ, ले ६ भ २, स १ मि, सं १ असंज्ञा, आ २, उ ३ कु कु अचक्षुः। तत्पर्याप्तानां-गु १ मि,
भा ३ अशु जी २ वा प सूप, प ४ ए, प्रा ४ ए का उ आयुः, सं ४, ग १ ति, इं१ए, का ५, त्रसो नहि, यो १औ, वे १ सं, क ४, ज्ञा २ कुकु, सं १ अ, द १ अच, ले ६ भ २, स १ मि, सं १ असंज्ञी, आ १, उ ३ कु कु
भा ३ अशु अचक्षुर्दर्शनं, तपपर्याप्तानां-गु १ मि, जी २ वा अ सू अ, प ४ अ, प्रा ३ ब, सं ४, ग १ ति, इं १ ए, का ५, यो २ मि का, वे १ षं, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द १ अच, ले २ क शु, भ २, स १ मि,
३ अशु सं १ असंज्ञी, आ २, उ ३ कु कु अच, बादराणां-१ मि, जी २ प अ, प ४४, प्रा ४ ३, सं ४, ग १ ति, ई १ए, का ५, यो ३ औ मि का, वे १ षं, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द १ अच, ले ६, भ २,
३ अशु स १ मि, सं १ असंज्ञो, आ २, उ ३, तत्पर्याप्तानां-गु १ मि, जी १ ५, ५४, प्रा ४, सं ४, ग १ ति, इं १
.
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका बादरैकेंद्रियापर्याप्तकम् । गु १।मि। जी १ अ । प ४।अ। प्रा३ । ए। का। आ। सं ४ । ग १ । ति । इं १ का ५ । यो २ । मि । का। वे । १। ष ०। क ४। ज्ञा २ । सं १। अ।द। अच ले २कश भ२। सं १० मि। सं १ । असंज्ञि। आ २। उ३॥
भा३ अ
इंतु बादरपर्याप्त नामकर्मोदयसहितर्गे आलापत्रयं पेळल्पद्रुदपर्याप्तनामकर्मोदयसहित बादरैफेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकग्गे पेळल्पडुवल्लि बादरैकेद्रियापर्याप्ताळापदंताळापमक्कुं॥
सूक्ष्मैंद्रियंगल्गे । गु १ । मि । जो २।प। अप ४।४। प्रा ४ । ३ । स ४ । ग १। इं१। ए। का ५ । यो ३। औ२। का १। वे १। षं। क ४। ज्ञा २ । सं १ । अ। द १। अच। ले २ क शु एक दोडे:भा३अशु
सव्वेसि सुहमाणं काओदा सव्वविग्गहे सुक्का ।
सव्वो मिस्सो देहो कवोदवण्णो हवे णियमा ॥ एंब नियममुंटप्पुरिद । भ २। सं १ । मि । सं १ । असंज्ञि । आ २। उ ३॥
सूक्ष्मैकेंद्रियपर्याप्तकग्नें। गु १। जी १ प ४। प्रा ४ । सं ४ । ग१। इं१। का ५ । यो १ । औ का । वे १ । १९। क ४। ज्ञा २। सं१। अ। द १। अच। ले६क भ२।
भा३ सं १ । मि । सं १ । असंज्ञि । आ १ । उ ३ ।।
ए, का ५, यो १ औ, वे १ षं, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द १ अच, ले ६, म २, स १ मि, सं१ १
३ अशु असंज्ञी, आ १, उ ३, तदपर्याप्तानां-गु १ मि, जी १ अ, प ४ अ, प्रा ३ ए का आ, सं ४, ग १ ति, इं १ ए, का ५, यो २ मि का, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ अच, ले २ क शु, भ २, स १ मि, स १
भा ३ अशु असंज्ञी, आ २, उ ३, एवं बादरपर्याप्तानामोदयानामेकेन्द्रियाणामुक्तं, अपर्याप्तनामोदयानां तल्लब्ध्यपर्याप्तानां तु तदपर्याप्तवद्योज्यं,
सूक्ष्माणां-गु १ मि, जी २ प अ, प ४४, प्रा ४ ३, सं ४, ग १ ति, इं १ ए, का ५, यो ३ औ २ .. का १, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ अच, ले २ क शु
भा ३ अशु-कुतः ? सवेसिं सुहमाणं काओदा सम्वविग्गहे सूक्का । सम्वो मिस्सो देहो कओदवण्णो हवे णियमा ॥१॥ सर्वेषां सूक्ष्माणां कापोता सर्वविग्रहे शुक्ला ।
सर्वो मिश्रो देहः कपोतवर्णो भवेनियमात् ॥१॥ भ २, स १ मि, सं १ असंज्ञि, आ २, उ ३, तत्पर्याप्तानां-गु १, जी १, ५४, प्रा ४, सं ४, ग १, इं १, का ५, यो १ औ, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ अचक्ष, ले १ क, भ २, सं१ मि, सं १ असंज्ञी,
भा ३ अशु
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________________
१०
तु पतनामकम्मद सहितरप्प सूक्ष्मैकेंद्रिय निर्वृत्यपर्थ्याक ५ सूक्ष्मैकेंद्रियलब्ध्यपर्य्याप्तनामकम्र्मोदयसहितग्गे सूक्ष्म केंद्रियापर्या माळापदंतक्कु । विशेषमिल्ल |
ओदे
अपर्याप्तालाप
१५
गो० जीवकाण्डे
सूक्ष्मैकेंद्रियाऽपर्य्याप्तक ं । गु १ । जी १ । प ४ । अ । प्रा ३ । ए । का। आ । सं ४ । ग १ | इं १ । का५ । यो २ | मि । का । वे १ । षं ० । क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ । व १ । अ च ले २ क शुभ २ | सं १ । मि । सं १ । असंज्ञि । आ २ | उ३ ॥
भा ३
२०
९९२
द १ । अ च
मंगळ । गु १ । मि । जी २ । प । अ
।
सं ४ । ग १ । ति ।
१ | द्वि । का १ । त्र । यो ४ । औ २ । वा १ । का १
।
वे १ । षं । क ४
।
ज्ञा २ । स १ | अ |
ले ६
।
प५ ।५ । प्रा ६
।
भा ३ अ शु पर्याप्त
।
१
१ । जी १ । प५ । प्रा ६ । सं ४ । ग १ | का १ | वे १ । षं । क ४ । ज्ञा २ । सं १ | अ | द १ | अ च ।
। भ २ । सं १ | मि । सं १ । असंज्ञि । आ २ ।
मि । सं १ | असंज्ञि । अ १ । उ ३ ॥ द्वाप
।
का १ ।
। यो २ । मि । का। वे १ । ष० । क ४ । ज्ञा २ । २ शुभ २ । सं १ | मि । सं १ | अ | आ २ | उ३ ॥ भा ३ अ शु
आलापत्रयं पेळपट्टु दु । वक्तव्यमक्कुमदु
१ । जी १ । अ । प ५ । प्रा ४ | सं
उ ३ ॥
| इं १ । का १ । यो २ ।
ले ६
। भ २ । सं १ ।
भा ३
द्वींद्रियलब्ध्यपर्याप्तंगो दे अपय्यताळापं माडल्पडुगे । श्रींद्रियंगळगे गु१ । जी २ । १५ । ५ । प्रा ७ । ५ । सं ४ । ग १ ति । इं १ त्रि । का १ क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ । व १ । अ । च ।
त्र यो ४ । औ २ वा १ । का । १ । वे १ । षं । ले ६ भ२ । सं १ | मि । सं १ | अ | भा ३
आ २ । उ ३ ॥
आ १, उ ३ । तदपर्याप्तानां -गु १, जी १ प ४ अ, का, वे १षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ च अक्षु,
४ | ग १ | ति । इं १ | द्वीं |
सं १ । अ । द १ । अ । च ।
प्रा ३ ए का आ, सं ४, ग १, इं १ का ५, यो २ मि २ क शु, भ २, स१मि, सं १ अ, आ १, उ ३ । भा ३ अशु
ले
तल्लब्ध्यपर्याप्तानां तदपर्याप्तवत्, द्वीन्द्रियाणां - गु१मि, जी २प अ, प ५५, प्रा ६, ४, सं इं १ द्वीं, का १ त्र, यो ४, औ २, वाक् १ का १ वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ च अ,
ले ६, भ २,
भा ३ अशु स १ मि, सं १ असंज्ञी, आ २, उ ३ । तत्पर्याप्तानां -गु १ मि जी १, १५, प्रा ६, सं ४, ग १ ति, इं १ द्वीं, का १ त्र, यो २, वा १ का १, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ अच, ले ६, भ २, स १ मि
२५
भा ३
सं १ अ, आ १, उ ३ । तदपर्याप्तानां -गु १, जी १, मिका, वे १षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ अ च
१५ अ, प्रा ४ अ, सं ४, ग १, इं १ का १, यो २ ले २ क शु, भ २, स १ मि सं १, आ २, उ ३ । भा ३ अ शु
1
तल्लब्ध्यपर्याप्तानां तदपर्याप्तवत् त्रीन्द्रियाणां - गु १, जी २ प ५५, प्रा७५, इं१त्रीं, का १ त्र, यो ४ औ २ वा १ का १, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ अ च,
४, ग १ ति,
सं
४, ग १ ति,
ले ६, भ २,
भा ३
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________________
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका त्रौंद्रियपर्याप्तक । गु १। जो १ । त्री।प। प ५। प्रा ७। सं ४। ग १ । ति । ई १। त्रो। का १।। यो २। औ। वा। वे१। षं। क ४। ज्ञा २। सं १। अव १। अच । ले ६ भ २। सं १ मि । सं १ । अ । आ १। उ३॥ भा३
। ५
त्रौंद्रियापनिगगें। गु१। जी १।५ ५। अप्रा ५ । अ । सं४।ग १ १ का १। यो २। मि। का। वे१।। क ४। ज्ञा २।सं १। अद१। अच। ले २ क शुभ २।सं ।
भा ३ अशु मि । सं १ । अ । आ २ । उ३॥
त्रींद्रियलब्ध्यपर्याप्तकंगयुमो प्रकारदिदमो देआळापमक्कुं॥ चतुरिंद्रियंगळगे। गु १ । मि । जी २।५ । अ प ५। ५। प्रा ८।६। सं ४ । ग १ । ति । ई १ । चतुरिंद्रिय । का १७ । यो ४ । औ २। वा १ । का १। वे १। । क ४ । ज्ञा २।सं १ । अ । द २ च अ। ले ६ भ२।
. भा३ सं १ मि । सं १। । आ २। उ ४॥
चतुरिंद्रियपर्याप्तकरें। गुमि । जी १। च। प ५। प्रा ८॥ च ४ । वा १ का १। उ१ । आ १। सं ४ । ग १ । इं १ । च । का १ । । यो २ । औदारिक का १ । वा १ । वे १षं। क४।ज्ञा २। सं१। अद२ च। अ। ले६ द्रव्य भ२। सं १।मि।सं। असं।
भा३ । अश आ१। ऊ४॥
.
१। जी१। प ५। अ। प्रा६। च४ । का१। आ१। सं ४ । ग१। इं१। च । का१। यो २। मि। का। वे १। पंक ४ । ज्ञा २। सं १।।" द २। च । अ। ले २ क शुभ २। सं १ । मि । सं १ । असं । आ २। ऊ ४ ॥
भा ३ अशु इंतु आळापत्रयं पेळल्पटु ॥
स १ मि, सं १ अ, बा २, उ ३ । तत्पर्याप्ताना-गु १ मि, जी १ त्रीप, प५, प्रा ७, सं४, ग १ ति, ई १ त्री, का१त्र, यो २ औ १ वा १, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ अच, ले ६, भ २, स १
भा३ मि, सं १ अ, आ १, उ ३। तदपर्याप्तानां-गु १, जी १, १५ अ, प्रा ५ अ, सं४, ग १, १, का १, यो २ मि का, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द १ अच, ले २ क शु, भ२, स १ मि, सं १, आ २, .
भा ३ अशु उ३ । तल्लब्ध्यपर्याप्तानां तदपर्याप्तवत्, चतुरिन्द्रियाणां- १ मि, जी २५ अ, ५५,प्रा ८, ६, सं४, ग १, ई १ चतुरिं, का १ त्र, यो ४ औ २ वा १ का, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २ च अ, ले ६,
भा ३ भ २, स १ मि, सं १ अ, आ २, उ ४। तत्पर्याप्तानां- १ मि, जी१च प, प ५, प्रा ८ च ४ वा १ का १ औ १ मा १, सं ४, ग १ ति, ई १च, का १ त्र, यो २ औ १ वा १, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २ च अ, ले ६, भ २, स १ मि, सं १ अ, आ १, उ ४ । तदपर्याप्तानां- १, जी १ अ, प ५ अ,
भा३ प्रा ६ अ, च ४, का १ आ १, सं ४, ग १, इं१ च, का १, यो २ मि का, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १
१२५
२५
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९९४
गो. जीवकाण्डे ___चतुरिद्रियलब्ध्यपर्याप्तकंगोंदे अपर्याप्ताळापं वक्तव्यमक्कुमिदरते । विशेषमिल्ल । पंचेंद्रियंगळ्ग । गु १४ । जी ४। संश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्त । प६।६।५ ५।प्रा १० । ७।९।७। सयोगि ४।२। अयोग प्रा १।सं ४।ग ४। इं१।।का १।त्र । यो १५ । वे ३ । क ४। ज्ञा ८। ७। ४। ले ६ भ२। सं६। सं २। आ २। उ १२॥
६
पंचेंद्रियपर्याप्तकर्गे गु १४ । जी २। सं अ। प६ । सं ५। अ । प्रा । १० । सं। ९ । अ। सं। ४ सयोगि।१। अयोगि। सं ४ । इं१। पं। का १। त्र। यो ११ । म ४। व ४। औ। वै। आ। वे३। क ४। ज्ञा ८। सं ७। द ४। ले ६ भ २। सं ६। सं २। आ २ । उ १२॥
पंचेंद्रियापर्याप्तकर्गे। गु५ । मि । सा । अ ।प्र। सयोग । जी २। संध्यपर्याप्त असंख्य१० पर्याप्त । ५६। सं ५। अ। असंज्ञि। प्रा ७ । संज्ञि ७ । असंजि २ । सयोग । सं ४ । ग ४ ।
इं१। पं। का १। त्र। यो ४ । औ मि १। वै मिश्र १। आहा मि १। काम १। वे ३। क ४।जा ६।म। श्रु । अ । के । कु। कु । सं ४ । अ । सा। छ। यथा । द४। च । अ। अ । के। ले २ क । शु भ२ । सं ५ । उ । वे । क्षा। मि । सा । सं २ । आ २। उ १०॥
भा ६
पंचेंद्रियमिथ्याष्टिगळगे। गु १। मि। जी ४। संक्षिपर्याप्तापर्याप्त असंज्ञिपर्याप्ता१५ पर्याप्त । प६।६।५ । ५ । प्रा १० । ७ । ९ । ७ सं ४ । ग ४ । ई १। पं । का १ त्र। यो १३ ।
आहारद्वयजि । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ ।। सं १। अ। व२। च । अ। ले ६ भ२। सं १।
मि । सं २ । आ २ । उ ५ । कु। कु। वि । च । अ॥
अ, द २ च अ, ले २ क शु, भ २, स १ मि, सं १ अ, आ २, उ ४ । तल्लब्ध्यपर्याप्तस्य तदपर्याप्तवत्,
भा ३ अशु पंचेन्द्रियाणां-गु १४, जो ४, संश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ताः, ६ ६ ६, प्रा १० ७, ९, ७, सयोगस्य ४, २, अयोगस्य २० १,सं ४, ग ४, १५, का१त्र, यो १५, वे ३, क ४, ज्ञा ८, सं७, द ४, ले ६, भ २, स. ६, सं २,
भा६ था २, उ १२ । तत्पर्याप्तानां-गु १४, जी २ सं, ब, ६ सं, ५ अ, प्रा १० सं, ९ असं, ४ सयो, १ अयो, सं ४, ग ४, इं १ पं, का १ त्र, यो ११ म ४ वा ४ बी वै था, वे ३, क ४, ज्ञा ८, सं७, द ४, ले ६, भ २, स ६, स २, बा २, उ १२ । तदपर्याप्तानां-गु ५ मि सा ब प्रस, जी २ संश्यसंज्ञिपर्याप्ती ।
प६ अ, सं ५ बसंजी, प्रा ७ संज्ञि ७ अ संज्ञि २ सयोग, सं ४, ग ४, इं१प, का१त्र, यो ४ औमि२५ आहारकमिश्र-वै-मिश्र-कार्मणा, वे ३, क ४, ज्ञा ६ म श्रु अ के कु कु, सं ४ अ स छ यथा, द ४ च अ अ के,
ले २ क शु, भ २, स ५ उ वे क्षा मि सा, सं २, या २, उ १०। मिथ्याशां-ग १ मि, जी ४
संश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ताः , प ६ ६, ५, ५, प्रा १०, ७, ९,७, सं ४ ग ४, इं १ पं, का १ कद्वयं नहि. वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ, द २ च अ, ले ६, भ २, स १ मि, सं २, आ
यो १३ आहार२, उ ५ कु कू वि
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९९५ पंचेंद्रियमिथ्यादृष्टिपर्याप्तकग्गें। ग१ । जी २ । सं। अ । ५६। ५ । प्रा १० । ९ । मं४ । ग ४। इं१ का १ । यो १० । म ४ । व ४ । औ।वै। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु। कु। वि।सं १। अ । द २। च । अ। ले ६ भ२।सं १ । मि । सं २ । आ १। उ ५ ॥
पंचेंद्रियमिथ्यादृष्टचपर्याप्तकग्नें। ग १। जी २। सं १। अ१। प६। अ । ५ । अ। प्रा ७।७ सं ४ । ग ४ । इं१। पं । का१त्र । यो ३ । औ मि । वै मि । का १। वे ३ । क ४। ५ ज्ञा २। सं १ । । व २ । अ । च। ले २ क शु । भ२।सं १ । मि । सं २। आ २। ऊ ४॥
भा ६ । अंशु सासादनसम्यग्दृष्टिमोदलादयोगिकेवलिपयंत मूलौघभंगमी प्रकारदि संजिपंचेंद्रियंगळसकलाळापंगळु वक्तव्यंगळप्पुवु ॥
असंजिपंचेंद्रियंगळगे। गु१ । मि । जी २। असंज्ञिपर्याप्तापर्याप्त । १५ । ५। प्रा९ । ७। सं ४ । ग १ । ई १ । पं । का १ । त्र। यो ४ ॥ औ २ का १। अनुभयवचन । १। वे ३ । क ४। १० ज्ञा २ । सं १ । अ । २ । च । अले ६। भ२।सं १ मि । सं १ । असंज्ञि। आ २। उ४॥
भा ३ अशुभ असंज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तकगें । गु१ मि । जी १ । १५ । प्रा ७।९ । सं ४ । ग १। ई १। पं। का १३ । यो २१ औ का १। अनुभयवचन । १। वे ३ क ४ । ज्ञा २। सं१।अ। द २। ले ६ भ२ । सं १। मि । सं १ । असंज्ञि । आ १ । उ ४॥ भा३
पंचेंद्रियासंज्यपर्याप्तकग्गें । गु१। मि । जी १।५ ५ । अ प्रा ७ । अ । सं ४। ग १ ति । १५ ई१।पं का १ त्र। यो २ । औ मि १ का १। वे ३। क ४। ज्ञा २। सं १। अ। द २। ले २ क शु भय। सं १ । मि । सं १ । असंज्ञि । आ २। उ ४॥ भा ६ अशु
जय
च अ । तत्पर्याप्तानां-गु १, जी २ सं अ, १६५, प्रा १०, ९, सं ४, ग ४, इं १, का १ यो १० म ४ वा ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ ब, द २ च अ, ले ६, भ २, स १ मि, सं २, आ १,
उ ५ । तदपर्याप्तानां- १, जी २, संश्यपर्याप्ती, प ६ अ, ५ अ, प्रा ७ ७ अ, सं ४, ग ४, इं १ पं, का १ २० त्र, यो ३ आ मि, वै मि, कार्मण, वे ३, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २, च अ, ले २ क शु, भ २, स १ मि,
भा ६ सं २, आ २, उ४।
सासादनादीनां गुणस्थानवत्, असंजिनां-गु १ मि, जी २ तत्पर्याप्तापर्याप्ती, प ५५, प्रा ९७, सं ४, ग १ ति, इं१५, का १ त्र, यो ४ बी २ का १ अनुभयवचनं १, वे ३, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २ च अ, ले ६, भ २, स १ मि, सं १ असंज्ञी, आ २, उ ४। तत्पर्याप्तानां-गु १ मि, जी १, प ५, प्रा ९, २५
भा ३ अशु सं ४, ग १ ति, इं १ पं, का १ त्र, यो २ बी १ बनुभयवाक् १, वे ३, क ४, ज्ञा २, सं १ ३, द २, ले ६,
भा४ भ २, स १ मि, सं १ असं, बा १, उ ४ । तदपर्याप्तानां-गु १ मि, जी १, ५ ब, प्रा ७ अ, सं ४, ग १ ति, इं१५, का १ त्र, यो २ ओ मि १ का १, वे ३, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २, ले २ क शुभ २,
भा ३
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गो० जीवकाण्डे
संप्रतिसामान्यपंचेंद्रियलब्ध्यपर्थ्याप्रकर्गे । गु १ | मि । जो २ । संज्ञ्यपर्य्याप्तासंज्ञ्यपर्य्याप्त ।
६ अ सं५ । अ । अ । प्रा ७ । सं । अ । ७ । अ । अ । स ४ । ग २ति । म । इं १ | पं । का १ । त्र । यो २ । औमि १ । का १ । वे १ | ष० । क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ । द२ । च । अ २ | शुभ २ । सं १ | मि । सं २ । आ २ । ऊ ४ ॥ ५ भा ३ अशु
९९६
सं ४ । २।
२०
संज्ञिपंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तकर्गे । गु १ । मि जी १
|
२ति । म । ई १ । पं । का १ । त्र ।
१ । अद २ । ले २ क शुभ २ । सं १ | मि । सं १ भा ३ अशु
।
असंज्ञिपंचेंद्रियलब्ध्यपर्याप्तक
गु
१ । मि । जो १ ।
प ५ । अ । प्रा ७ । अ सं ४ ।
१०
ग १ ति । इं १ | पं । का १ । त्र । यो २ । औ मि । का १ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ । द२ । च । अ । ले २ क शुभ २ । सं १ । मि । सं १ । असंज्ञि । आ २ । उ४ ॥
भा ३ अशु
अनिद्रियरुगळगे सिद्धगतियोळळवंत यक्कुमेक दोडे सिद्धरुगळगे एकेंद्रियादिनामकम्र्मोदयाभावमप्पुर्दारर्दामतींद्रिय मागणे समाप्तमादुदु ॥
तत्संज्ञिनां - गु१मि, जी १ प अ औमिका, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं
कायानुवादळ । १४ । जो ५७ । ९८ । ४०६ । प ६ । ६ । ५ । ५ । ४ । ४ । पा १० । १५ ७ । ९ । ७ । ८ । ६ । ७ । ५ । ६ । ४ । ४ । ३ । ४ । २ । १ । सं ४ । ग ४ । इं ५ । का ६ । यो १५ । ३ | ४ | ज्ञा८ । सं ७ | द ४ । भ२ । सं ६ । सं २ । आ २ । उ १२ ।
ले ६
प ६ प १ अ,
६
द
सं ० अ
यो २ । औ मि । का १ | वे १ । ष० ।
स१मि, सं १ असंज्ञी, आ २, उ४ । पंचेन्द्रियलब्ध्यपर्याप्तानां गु१मि, जी २ संज्ञ्यसंध्यपर्याप्तौ प ६ अ, सं ५ अ अ, प्रा ७ सं अ, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं
७ अ अ सं ४, ग २ ति म, इं १ पं, का १ त्र, १ अ, द २ च अ, ले २ क शु, भ २, स १ मि
। प ६ । अ । प्रा ७ । अ ।
प्रा ७
भा ३ अशु अ अ
२, ले
सं ४, ग २ति म ई १ पं, का १ त्र, यो २, २ क शु, भ २, स १ मि सं १ संज्ञी, आ २, उ४ । भा ३ अशु
अ
तदसंज्ञिनां-गु १ मि जी १, प १ अ, प्रा ७ वे १षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २ च अ,
सं ४, ग १ ति, इं १ पं, का १ त्र, यो २ औमि का, २ क शु, भ २, स १ मि सं १ अ, आ २, उ४ । भा ३ अशु
ले
अतीन्द्रियाणां सिद्धगतिवत् । इति इन्द्रियमार्गणा गता ।
। संज्ञि । आ २ । ऊ ४ ॥
क ४ ।
यो २ ओमि १ का १,
सं २, म २, उ४ ।
२५
कायानुवादे - १४, जी ५७९८४०६, प ६६, ५५, ४, ४, प्रा १०, ७, ९ ७, ८, ६, ७, ५, ६, ४, ४३, ४ २१, सं ४, ग ४, इं ५ का ६, यो १५, वे ३, क ४, ज्ञा ८, सं ७, द ४, ले ६, भ २ स
६
सं २, आ २, उ १२ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९९७
। गु १४ । जी १९ । ३७ | १८६ | प ६ अयोगि १ । सं ४ ।
|
५ | ४ । प्रा १० ।
ग ४ । इं ५ | का ६ । यो ११ | मिश्रभ२ । सं ६ | सं २ । आ २ । उ १२ ॥
षटुकषाय सामान्यपर्याप्तक
।
९।८।७ । ६ । सयोगि । ४ । ४ चतुष्क होनं । वे ३ | क४ | ज्ञा ८
|
सं ७ | द ४ । ले ६
६
षटुकषायसामान्यापर्य्याप्तक
५
। गु ५ । मि | सा । अ । प्र । सयो । जी ३८ । ६१ । २२० । प ६ । ५ । ४ । प्रा ७ । ७ । ६ । ५ । ४ । ३ । २ । सं ४ । ग ४ । इं ५ | चतुष्टयं । वे ३ | ४ | ज्ञा ६ ॥ मनःपव्ययविभंगरहितं । सं ४ । अ । २ शुभ २ | सं ५ । मि । सा । उ । वे । क्षा | सं २ | आ २ | उ१० । ज्ञा ६ | द ४ ॥ भा ६
का ६ । यो ४ । मिश्र सा । छे । यथा । द ४
मिथ्यादृष्टिप्रभृतिगो मूलौघभंग मक्कुमल्लि मिथ्यादृष्टि त्रिविधरुगगे कायानुवाददल्लि मूलौघदोळु पेदजीवसमासंगळु वक्तव्यंगळप्पुवु । नास्त्यन्यत्र विशेषः ॥
पृथ्वीकायंगळगे ।
१ । जी ४ । बादरपर्याप्तार्थ्याप्तसूक्ष्मपर्याप्तापर्य्याप्त । प ४ । ४ । १० प्रा ४ । ३ । सं ४ । ग १ । ति । इं १ । ए । का १ । पृ । यो ३ । औ२ । का १ । वे १ । षं । क ४ । ज्ञा २ | सं १ | अ सं । द १ । अच । ले ६ भ २ । सं १ | मि । सं १ | असं । आ २ । उ३ ॥ भा ३
1
१
पृथ्वीका पर्याप्तकरगें । गु ए । का १ पृ । यो २ । औ का । वे १
। जी २ । । षं ।
भ २ । सं १ | मि । सं १ । अ । सं । आ १ । उ३ ॥
बा । सू । १४ । प्रा ४ | सं ४ । ग १ ति । क ४ । ज्ञा २ । सं १ | अ | द १ । अ च
इं १ | ले ६
भा ३
तत्पर्याप्तानां - १४ | जी १९ । ३७ । १८६ । प ६ । ५ । ४ । प्रा १० । ९ । ८ । ७ । ६ । ४ । ४ । १ । सं ४ । ग ४ । इं ५ | का ६ । यो ११ | मिश्रत्रयकार्मणाभावात् । वे ३ । क ४ । ज्ञा ८ | सं ७ । द ४ । ले ६ । भ २ । स ६ । सं २ । आ २ । उ १२ । तदपर्याप्तानां - गु५ मि सा अप्रस । ६ जी ३८ । ६१ । २२० । ६५४ । प्रा ७७६५४३२ । सं ४ । ग ४ । ई ५ । का ६ । यो ४ त्रयो मिश्राः कार्मणश्च । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६ मनः पर्ययविभंगाभावात् । सं ४ अ सा छे । ले २ क शु । २० भा ६ मूलौघः किन्तु
यथा । द ४
भ२ । सं५ मिसा उवेक्षा । सं २ । आ २ । उ १० ज्ञा ६ द ४ । मिध्यादृष्ट्यादीनां सामान्यादित्रिविधमिध्यादृष्टीनामेव कायानुवादमूलोघोक्तजीवसमासा वक्तव्याः । अन्यत्र विशेषो नास्ति ।
१५
पृथ्वी कायिकानां - १ । जी ४ बादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्ताः । प ४४ । प्रा ४ । ३ । सं ४ । ग १ ति । ई १ ए । का १ पृ । यो ३ ओ २ का १ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २ । सं १ अ । द १ अच । ले ६
३
।
भ २ । स १ मि । सं १ असं । आ २ । उ ३ । तत्पर्याप्तानां - १ मि ४ । ग १ ति । इं १ ए । का १ पृ । यो ९ औ । वे १ षं । क ४ ।
जी २ वा सू । प ४ । प्रा ४ । २५ ज्ञा २ । सं १ अ । द १ अच ।
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९९८
गो० जीवकाण्डे पृथ्वीकायापर्याप्तकर्गे। गु १ । जी २। बा ० अ। सू ० अ। प ४ । अ । प्रा ३। अ। सं ४ । ग १ । ति । इं१। ए। का १ । पृ। यो २१ औ मि। का। वे १। षं। क ४ । ज्ञा २। सं १ । अ। द १ । अच । ले २ क शुभ २। सं १ । मि । सं १। असं । आ २। उ३॥
भा ३ अशु बादरपृथ्वीकायिकंगळगे । गु १ । जी २ । प । अ । प ४।४। प्रा ४।३। सं ४ । ग १ । ५ ति । ई १।ए। का १ । पृ । यो ३ । औ २। का । वे १ । षं । क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ । द १ । अच। ले ६ भ२। सं १। मि । सं १। असं आ २। उ३॥
भा ३ अश
बादरपृथ्वीकायपर्याप्तकग्ग । गु १। मि । जी १ । प ४ । प्रा ४ । सं ४ । ग १ । ति । इं१। ए।का १ । पृ । यो ११ औ ।
वे षं। क ४ | ज्ञा २ सं१। असं। द१। अच । ले ६ भ २। सं १ । मि । सं १। अ । आ १। उ ३ ॥ भा३
बादरापर्याप्तपृथ्वीकायंगळ्गे । गु १ । मि । जी १ । अ । प ४ । अ । प्रा ३ | अ । मं ४ । ग १ ति । इं१।ए। का१ पथ्वी । यो २।मि। का वे१। षं । क ४ । ज्ञा २ क । कु। सं १। असं । द१। अच । ले २ क शु भ२।सं १। मि । सं १ । असं । आ २। उ३॥
____भा ३ अशु बादरपृथ्वीकायलब्ध्यपर्याप्तकंगे अपर्याप्तकंग पेळवंत पेन्दुकोळगे। सूक्ष्मपृथ्वीकायंगे सूक्ष्मैकेंद्रियवंते पेळ्दुकोळगे। अल्लि विशेषमुंटवावुर्वे बोर्ड सूक्ष्मपृथ्वीकायंगेदिताळापमं माळके । १५ अप्कायिकंगळ्ये पृथ्वीकायिकंगळ्गे पेळवंत पेंन्दुको बुदु । विशेषमुंटवावुर्वे बोर्ड द्रविंद बादर
पर्याप्तियोळु शुक्ललेश्यययक्कुं। तेजस्कायिकंगळ्गे लेश्येयोळभेदमंटावुवै दोडे द्रविदं सूक्ष्मुंगळ्गे ले ६ । भ २ । स १ मि । सं १ अ । बा १ । उ ३ । तदपर्याप्तानां-गु १। जी २ वा ब सू अ । प ४ भा३ अ। प्रा ३ अ । सं ४। ग १ ति । इ१ए । का १ पृ। यो २ औमि का । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २ । सं १ अ । द १ अच । ले २ क शु । भ २ । स १ मि । सं १ अ । आ २ । उ ३ । तद्बादराणां-गु१। जी २
भा ३ अशु पअ । प ४४ । प्रा ४३ । सं ४ । ग १ ति । ई १ए । का १ पृ। यो ३ औ २ का १ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २ । सं १ अ । द १ बच । ले ६ भ २ । स १ मि । सं १ असं । आ २। उ ३ । तत्पर्याप्तानां- १
भा ३ अशु मि । जी १।१४। प्रा ४ । सं४ । ग १ ति । इं१ए । का १५। यो १ औ । वेषं। क४ । ज्ञा २। सं १ । द १ अच । ले ६ । भ २। स १ मि । सं १ अ । आ १। उ३। तदपर्याप्तानां-गु१
भा ३ मि । जी १ अ । प ४ अ । प्रा ३ अ । सं४। ग १ ति । इं१ए। का १५। यो २ मि का। वे १षं । क ४ । ज्ञा २ कु कु । सं १ अ । द १ अच । ले २ क शु । भ२ । स १ मि । सं १ असं । आ २। उ३ ।
भा ३ अशु तल्लब्ध्यपर्याप्तानां तदपर्याप्तवत् । तत्सूक्ष्माणां सूक्ष्मैकेन्द्रियवत् । अप्कायिकानां पृथ्वीकायिकवत् । किन्तु द्रव्यतो बादरपर्याप्ते शुक्ला तेजस्कायिकेषु सूक्ष्माणां पर्याप्तमिश्रकालयोः कपोता। बादराणां पर्याप्तकाले
P
-
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
९९९ कपोतमे बादरंगळ्गे पर्याप्तियोळ पीतवर्णमे उभयक्कं । विग्रहगतियोळु शुक्लमे । वातकायिकगळ्गेयुमपर्याप्तकालदोळु गोमूत्रमुद्गाव्यक्तवर्णमक्कुं । वनस्पतिकायिकंगळगे । गु १ । जी १२॥
प्रतिष्ठितप्रत्येक पर्याप्तापर्याप्त बप्रतिष्ठितप्रत्येकपर्याप्तापर्याप्त ४ । नियनिगोदबावरसूक्ष्मचतुर्गतिनिगोदबादरसूक्ष्मंगळंतु ४ क्कं पाप्तापर्याप्तभेददिदमें टुकडि पन्नेरडु । प ४। ४ । प्रा ४ । ३। सं ४ । ग १ ति । इं१। ए । का १ । वन । यो ३ । औ । का मि । वे १ । । क ४ । ज्ञा २। सं १ । अ । द १ । अच। ले ६ भ२। सं १ मि । सं १ असं । आ २। उ३॥
भा ३
५
वनस्पतिपप्तिकंगे। गु१ । जी ६। प्र।अ। नित्यनिगोद बावरसूक्ष्मपर्याप्तचतुर्गतिनिगोदबादरसूक्ष्मपर्याप्नंगळु प ४ । प्रा ४ । सं ४ । ग १ ति । ई १। ए। का १ । वन । यो १ । औ। वे १ । षं। क ४। ज्ञा२। सं १ अ । द १। अच। ले ६ भ २। सं १ मि । सं १।
भा३ अ । आ १। उ ३॥
वनस्पतिकायिकापर्याप्तकग्गै । गु १ | मि । जी ६ । अ। प ४ अ। प्रा ३ । अ । सं४। ग। ति १ । १। ए। का १ वन । यो २। मि का । वे १षं । क ४ । ज्ञा २। सं १ अ । द १ अच। ले २ कशु भ २। सं १ मि । सं १ । असं । आ २ । उ ३॥
भा३ अशु
प्रत्येकवनस्पतिगळगे। गु १ मि। जी ४ । प्रति । अप्रति । प । अ। प४।४। प्रा ४ । ३। सं४। ग १ ति । इं१ए। का १ वन । यो ३ । औ २ का ११ वे १ षं । क ४। ज्ञा २। १५ सं १ अ। द १ अच। ले ६ भ२ । सं १ मि । सं १ । असं । आ २ । उ३ ॥
भा३
पीता। उभय विग्रहगतो शुक्ला । बातकायिकानां अपर्याप्तकाले कपोता । विग्रहगतो शुक्ला । पर्याप्तकाले गोमूत्रमुद्गाव्यक्तवर्णा ।
वनस्पतिकायिकानां- १ । जी १२ प्रतिष्ठिताप्रतिष्ठितप्रत्येकबादरसूक्ष्मनित्यचतुर्गतिनिगोदाः पर्याप्तापर्याप्ताः । प ४४ । प्रा ४३ । सं४ । ग १ ति । ई१ए । का १ व । यो ३ औ २ का १। वे १ षं । २० क ४ । ज्ञा २ । सं १ अ । द १ अच । ले ६ । भ २ । स १ मि । सं १ अ । आ २ । उ ३ । तत्पर्याप्तानां
गु १ । जी ६ प्रतिष्ठिताप्रतिष्ठितप्रत्येकबादरसूक्मनित्यचतुर्गतिनिगोदाः पर्याप्ताः । ४ । प्रा ४ । सं ४ । ग १ ति । ई १ ए । का १ व । यो १ औ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २। सं १ अ । द १ अच । ले ६ । भ२ ।
स १ मि । सं १ अ। आ। उ ३ । तदपर्याप्तानां-गु १ मि । जी ६ अ । प ४ अ । प्रा ३ अ । सं४। ग १ ति । इं१ए। का १ व । यो २ मि का। वे १षं । क ४। ज्ञा२। सं १ । द १ अच । ले ६
२५
भ २। स १ मि । सं १ अ । आ २ । उ ३ । प्रत्येकानां-गु १ मि । जी ४ प्रतिष्ठिताप्रतिष्ठिती। प२ अ२५४४। प्रा ४३। सं४। ग १ ति । ई१ए। का१व । यो ३ औ २ का १। वे १ षं।
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१०००
गो. जीवकाण्डे प्रत्येकशरीरवनस्पतिपर्याप्तकग्नें। गु १। मि । जी २ प ४ । प्रा ४ । सं ४ । ग १ ति । ई १ ए। का १ वन । यो १ औ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २। सं १ अ । द १ अच। ले ६ भ२।
भा३ सं १ मि । सं १ । असं । आ २। उ ३॥
प्रत्येकशरीरापर्याप्तवनस्पतिग । ग १ मि। जी १। प ४। प्रा ३ । अ । सं ४ । ग १ति । ५ इं१ए। का १ वन । यो २। मि । का। वे १ पं । क ४ । ज्ञा २। सं १ । अ । द १ । अच
ले २क शु भ२। सं १ मि । सं १ अ | आ २। उ३ ॥ भा ३ अशु
इंतु निवृत्यपर्याप्तकगर्गे आलापत्रयं पेळल्पटुव । लब्ध्यपर्याप्तकर्शयों दे आळापमक्कुमदुर्बु प्रत्येकबादरनिगोदप्रतिष्ठितंगळगे'तु पेन्दते वक्तव्यमक्कुं ।
साधारणवनस्पतिगळ्ग १ मि। जी ८॥ नित्यचतुर्गतिबादरसूक्ष्मपर्याप्तापर्याप्त । १. ५४ । ४ । प्रा ४ । ३ । सं ४ । ग १ ति । इं १ ए। का १ वन । यो ३ । औ २ । का १ । वे १५ । क४।ज्ञा २।सं । अ । द१| अच ले ६ भ२। १। मि। सं १ अ । आ २। उ३॥
भा३
साधारणवनस्पतिपर्याप्तकगें । गु १ । मि । जो ४ । नित्यचतुर्गतिबादरसूक्ष्मपर्याप्तकर । प४। प्रा ४ । सं४ । ग १ ति । इं१ए। का १ वन । यो १ औ। वे १षं। क ४ । ज्ञा २। सं १। अ। द १। अ च । ले ६ भ२। सं १ । मि । सं १ । अ। आ १ । उ३ ॥
भा३
१५ क ४ । ज्ञा२। सं १ अ । द १ अच । ले ६ । भ२। स १ मि । सं १ असं । आ २। उ३ । तत्पर्याप्तानां
गु १ मि । जी २ । प ५४ । प्रा ४ सं ४ । ग १ ति । ई १ए । का १ व । यो १ औ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २। सं १ अ । द १ अव । ले ६ । भ२। स १ मि । सं १ असं । आ १ । उ ३। तदपर्याप्तानां
१। जी २ अ । प ४ अ । प्रा ३ अ । सं४ । ग १ ति । ई१ए। का१व। यो २ मि का। वे १षं। क४। ज्ञा२। सं१ अ । द१ अच । ले २ क शुभ २। स १ मि । सं १ असं। आ२। उ३।
२० तल्लब्ध्यपर्याप्तानां तन्निवृत्त्यपर्याप्तवत् ।
साधारणानां-गु १ मि । जी ८ बादरसूक्ष्मनित्येतरनिगोदाः पर्याप्तापर्याप्ताः। प४४। प्रा ४३ । सं४। ग १ ति। इं१ए। का १ व । यो ३ औ २ का १। वे १षं । क ४। ज्ञा २। सं१ अद१ अच । ले ६ । भ २। स १ मि । सं १ अ । आ २। उ ३। तत्पर्याप्तानां- १ मि । जी ४ बादरसूक्ष्म
नित्यचतुर्गतिनिगोदाः पर्याप्ताः । प ४ । प्रा ४ । सं ४ । ग १ ति । ई १ए । का १ व । यो १ औ । वे १ २५ । क ४। ज्ञा २। सं १ । द १ अच । ले ६ । भ२। स १ मि। सं १ अ। आ १। उ३ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१००१ साधारणवनस्पत्यपर्याप्तकणे । गु१। जी ४१ नित्यचतुर्गतिबादरसूक्ष्मापर्याप्तकरु । प४ । अ। प्रा ३ । अ।सं ४ । ग १ ति । इं१ए। का १। साधारणवनस्पति । यो २। मि१। का १। वे १षं । क४।ज्ञा २। सं१। अ । द १। अचक्षु ले २ भ२। स १ मि । सं १ ।
भा ३ असंज्ञि । आ २। उ३॥
साधारणबादरवनस्पतिगळ्गे। गु १ । मि । जी ४ । नित्यचतुर्गतिपर्याप्तापर्याप्तकरु। ५ प ४ । ४ । प्रा ४ । ३ । सं ४ । ग १ ति । इं१ए। का १ वन । यो ३ । औ २। का १। वे १षं।। क ४ । ज्ञा २। सं १ । अ। द १ अच। ले ६ भ २ । सं १। मि । सं १ । असं । आ २। उ ३ ॥
भा३
साधारणबादरपर्याप्तकर्गे । गु१ । मि। जी २। नित्यचतुर्गतिपर्याप्तकरु । १४ । प्रा ४ । सं४। ग १ ति । इं १ ए। का १ वन । यो १ । औ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २। सं १ । अ । द १ । अच ले ६ भ २।सं १। मि । सं १ असं आ १ । उ३॥
भा३
साधारणबादरापर्याप्तकग्ग्गे । गु १ । मि। जी २। साधारणबादरनित्यचतुर्गति अपर्याप्तकरु। प४। अ प्रा३। अ। सं४।ग १ ति । इ १ए। का१वन । यो २ मि का। वे १षं। क ४। ज्ञा २। सं १ अ । द १। अच ले २ क शुभ २। १। मि। सं १।
भा३ अशु असं । आ २। उ३॥
इंतु साधारणबादरवनस्पतिगे आलापत्रयं पेळल्पटुदु । आ लब्ध्यपर्याप्तकग्र्गे ओंदोदे १५ आळापमकुं । साधारणसर्वसूक्ष्मंगळ्गे सूक्ष्मपृथ्वीकायंगळगे पेळवंत पेन्दुको बुदु । अल्लि विशेष
तदपर्याप्तानां-गु १ मि। जी ४ बादरसूक्ष्मनित्यचतुर्गतिनिगोदा अपर्याप्ताः । प ४ अ । प्रा ३ । सं ४। ग १ ति । ई१ए। का १ व । यो २ मि का । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २। सं १ अ । द १ अच । ले २।
भ२ । स १ मि । सं १ असं । आ २ । उ ३ । तद्बादराणां-गु १ मि । जी ४ नित्यचतुर्गतिनिगोदाः पर्याप्तापर्याप्ताः । प ४४ । प्रा ४३ । सं ४ । ग १ ति । इं१ए। का१व । यो ३ औ २ का १। वे १ . षं । क ४। ज्ञा २। सं १ अ। द १ अच । ले ६ । भ २ । स १ मि । सं १ असं। आ २। उ३।
तत्पर्याप्तानां-गु १ मि । जी २। नित्यचतुर्गतिपर्याप्तौ । प ४। प्रा ४ । सं ४ । ग १ ति । इं १ए। का १ व । यो १ औ । वे १ षं । क ४ । ज्ञा २ । सं १ अ । द १ अच । ले ६ । भ२। स १ मि । सं १ अ ।
२५
आ १। उ३। तदपर्याप्तानां-गु १ जी २। बादरनित्यचतुर्गती अपर्याप्ती। ४ अ । प्रा३ । सं ४ । ग १ ति । इं१ए। का १ व । यो २ मि का। वे १ षं। क ४। ज्ञा२। सं १अ । द१ .. अच । ले २ क श । म २। स १ मि । सं १ अ । आ २। उ ३। तल्लब्ध्यपर्याप्तानां तन्निर्वत्त्यपर्याप्तवत ।
भा ३ अशु साधारणसर्वसूक्ष्माणां सूक्ष्मपृथ्वीकायवत् । किंतु जीवसमासाश्चत्वारः नित्यनिगोदानां चतुर्गतिनिगोदानां च
१२६
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ܐ
५
१००२
गो० जीवकाण्डे
मावुर्वेदोडे नाल्कु जीवसमासेगळं सूक्ष्मसाधारणवनस्पतिर्गे दितु वक्तव्यमक्कुं । सुळिवंते निव्विशेषमक्कुं । चतुर्गति निगोदंगळग साधारणवनस्पतिये पेव क्रममेयक्कुं । नित्यनिगोदंगळ्गमुमा क्रममेयक्कुं । अल्लिगुपयोगिगाथा :
पुढवी आदिचउण्णं केवळआहारवेवणि रथंगा । अपदिट्ठिवा हु सव्वे पदिट्ठिवंगा हवे सेसा ॥
सकाळ | गु१४ । जी १० ।
प्रा १०।७।९ । ७ । ८ । ६ । ७ । ५ । ६ । च। पं । का १ त्र । यो १५ । वे ३ । क ४ ।
आ २ । उ १२ ॥
। गु १४ । जी ५ बि । ति । च । पंसं । पंअ । प ६ । ५ । प्रा १० । ९ । १ १ १ १
१
।
८ । ७ । ६ । ४ । १ ज्ञा ८ । सं ७ । ६ ४
सं ४ | ग ४ । इं ४ । बि । ति । च । पं । का १ त्र । यो ११ । वे ३ । क ४ । ले ६ ४ २ | सं ६ | सं २ | आ २ । १२ । त्रसाऽपर्याप्त
५ ।
६ मि । सा । अ । प्र । स यो । जो ५ बि । ति । च । पं सं । अ सं प ६ । अ ५। अप्रा । ७ । १ १ १ १
"
१
इं ४ । बि । ति । च । पं । का १ त्र । यो ४ । मिश्रत्रय
पर्याप्तकर 1
सं ४ | ग ४ ।
बि । ति । च सं पं । अ पं प ६।६।५।५। २ २ २ २ २
४ । ४ । २ । ज्ञा ८ । सं ७
१ । सं ४ । ग ४ । इं ४ । बि । ति । द ४ ।
।
ले ६ भ २ । सं ६ । सं २ ।
६
७।६। ५ । ४ । २ । १५ काणयोगंगळु | वे ३
।
क ४ | ज्ञा ६ । म । श्रु । अ । के । कु । कु । सं ४ | अ । सा । छे ।
साधारणवत् । अत्रोपयोगिगाथा
पुढवादिचउन्हं केवलिआहारदेवणिरयंगा । व्यपदिट्टिदा हु सव्वे पदिट्ठिदंगा हवे सेसा ॥१॥
सकायानां - गु १४ । जी १० विति च सं असं | पं ६६ । ५५ । प्रा १०७ । ९ । ७ । ८ । ६ ।
२ २ २ २ २
२०
७ ५६ ४ । ४ । २ । १ । सं ४ । ग ४ । इं ४ विति चपं । का १ त्र । यो १५ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ८ सं ७ | द ४ । ले ६ । भ २ । स ६ । सं २ । आ २ । उ १२ । तत्पर्याप्तानां - गु १४ । जी ५ । विति च १ १ १
६
सं असं । ६५ । प्रा १०९८७६४१ । सं ४ ग ४ । इं ४ विति च पं । का १ त्र । यो ११ । वे ३ । १ १
क ४ । ज्ञा८ । सं ७ । द ४ । ले ६ । भ २ । स ६ । सं २ । आ २ । उ १२ । तदपर्याप्तानां - ५ मि
६
सा अप्र स । जी ५ वि ति च सं असं प ६ अ । ५ अ । प्रा ७ । ७ । ६ । ५ । ४ । २ । सं ४ । ग ४ । २५ ई ४ विति च पं । का १ त्र । यो ४ मिश्राः ३ कार्मणः । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६ म श्रु अ के कु कु ।
१ १ १ १
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१००३ यथा । द ४ ले २ क शु भ २। सं ५ । मि । साउ। वे । क्षा । सं २ । बा २। उ.१०॥
भा६ त्रसमिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १ । मि।। जी १०। । बि । ति । च । सं। अ। १६।६।
. २ २ २ २ २ ५। ५। प्रा १०।७।९।७।८।६।७।५।६।४।सं ४ । ग ४ । ई ४ । का १त्र । यो १३ । आहारद्वयवजितमागि। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु। कु। वि।सं १ । अ। द । २ ले ६ भ२। सं १ । मि । सं २ । आ २ । उ ५ ॥
त्रसपर्याप्तमिथ्यादृष्टिगळ्गे । ग १ । मि। जी ५। बि । ति । च । पं । अ प ६।५ ।
प्रा १०। ९।८।७।६। सं४। ग ।। ६४। बि। ति। च । पं । का १७ । यो १० ।
म ४ । वा ४ । औ १।१।३। क ४। ज्ञा३ । सं१।।
२। ले ६ भ२। संमि।
सं २। आ १ उ ५ ॥
त्रसाऽपर्याप्त मिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । मि । जो ५। बि। ति । च । सं । अप६।५। १० अ। प्रा ७।७।६।५।४। सं ४ । ग ४ । इं ४। बि । ति । च ।पं का १।त्र । यो ३ ।
औ मि । वै मि । का। वे ३।क ४ ।ना २। सं१। अव २। ले २ क शु भ२। सं १।
भा६ मि।सं २ आ २। उ४॥
सासावनसम्यग्दृष्टिप्रभृतियागि अयोगिकेवलिपथ्यंत मूलौघभंगमक्कुं॥
सं ४ अ सा छे य । द ४ ले २ क श । भ२। स ५ मि सा उपेक्षा । सं२ या २। उ १०।।
भा ३ मिथ्याशा-१ मि । जी १०वि ति च संबसं । प ६६ । ५५। प्रा १०७,९,७,८,६,७,५,
२ २ २ २ २ ६, ४, सं ४, ग ४, ६४, का १ त्र, यो १३ आहारकद्वयं नहि । वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ । द २, ले ६, भ २, स १ मि, सं २, आ २, उ ५, तत्पर्याप्तानां-ग १ मि । जी ५ वि ति च सं अ ।
प ६ । ५, प्रा १० ९८७, ६, सं ४ । ग ४, ई ४, वि ति च पं। का १ त्र, यो १० म ४ वा ४ ओ १
वै१। वे ३. क ४. ज्ञा ३.सं १. ब. द २. ले ६। भ २. स १ मि. सं २, बा १,उ ५. तदपर्याप्तानां
ग १ मि. जी ५ वि तिच संब। ५ ६.५ ब. प्रा७.७. ६.५.४. सं ४न ४.६४ वि ति च पं का १३.
यो ३ औ मि १
मि १ का १.
३ क ४. ज्ञा २. सं १ अ. द २.
ले २ क शु। भ २. स १ मि. सं २. भा६
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१००४
गो० जीवकाण्डे
अकामरुगळ्गे । गु०। जो । ५० प्रा० । सं।०॥ ग१। सिद्धगति । का । यो।
वेकज्ञा १के।सं। द १ केले० भ०। संक्षा । सं। । आ १ । अनाहार । उ २॥
त्रसलब्ध्यपर्याप्तकर्ग । गु १ । मि । जी ५। वि। ति । च । पं । अ५६।५ । प्रा ७ ।
५ ७।६। ५। ४। सं ४। ग २ ति । म । इं४। बि । ति । च ।पं
का १।। यो २। औ
मिका १वे१षं। क ४ । ज्ञा २। सं १ अ । द च । अ। ले २ क शु भ२। सं १ मि ।
भा ३ अ शु सं २। आ २। उ ४ । इंतु कायमार्गणे समाप्तमादुदु ॥
_ योगानुवाददोळु मूलौघसंगमक्कुं। विशेषमावुददोड त्रयोदशगुणस्थानंगळप्पुवु । मनोयोगि गळ्गे। गु १३ । जी १ । पं० प १।५६। प्रा १० । स ४ । ग ४ । इं१। का १ । । । यो ४ । १० नाल्कं मनोयोग। वे ३। क ४। ज्ञा ८। सं ७॥द ४ ले ६ भ२। सं ६ । सं १।
भा६ आ १। उ १२॥
मनोयोगिमिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १ मि। जो १। प६। प्रा १० । सं ४ । ग ४ । इं १ । का १ । यो ४ । नाल्कै मनोयोगंगळं । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं ११ अ । द २ ले ६ भ २।
भा६ सं १। मि । सं १ । आ १ । उ ५ ॥
__ मनोयोगिसासावनंगे। गु १। सा। जी १।प६। प्रा १० । सं ४ । ग ४। इं१। पं। का १ त्र। यो ४ । मनोयोगंगळु । वे ३। क ४ । ज्ञा ३। कु । कु। वि । सं १। अ। द २ ले ६ भ १ । सं १ । सासा । सं १ । आ १ । उ ५॥
आ २. उ ४ । सासादनाद्ययोगांतेषु मूलीघवत्, अकायानां-गु०, जी०, ५०, प्रा०, सं० ग १ सिद्धगतिः,
इं०, का०, यो०, वे०, क०, ज्ञा १ के, सं० द० ले०, भ० । स १क्षा, सं० आ १ अनाहारः, उ २, तल्लब्ध्य२० पर्याप्तानां-गु १, जी ५ वि ति च सं अ प ६, ५ अ, प्रा ७, ७, ६, ५, ४, सं ४, ग २ ति म, ई ४
वि ति च पं । का १ त्र, यो २ औ मि १ का १, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २ च अ, ले २ क शु ।
भा ३ अशु भ २ । स १ मि । सं २ । आ २ । उ४। कायमार्गणा गता।
योगानुवादे मूलोषः किंतु गुणस्थानानि त्रयोदशैव, मनोयोगिनां-गु १३, जी १,पंप, प ६, प्रा १०, सं ४ । ग ४, इं १, का १ त्र, यो ४ म, वे ३, क ४, ज्ञा ८, सं ७, द ४, ले ६ भ २, स ६, सं १ आ १,
२५ उ १२ । तन्मिथ्यादृशांगु १ मि, जी १, ५ ६, प्रा १०, सं ४, ग ४, ई १, का १, यो ४ म, वे ३, क ४,
ज्ञा ३, सं १ अ, द २ ले ६ भ २, स १ मि, सं १, आ १, उ ५ । तत्सासादनस्य-गु १ सा, जी १,५६,
प्रा १० । सं४ । ग४। इं१५, का१त्र। यो ४ म । वे३। क४। ज्ञा ३ कु कु वि। सं १ अ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१००५ मनोयोगिमिभंगे। गु१। मिश्र । जो १।१६। प्रा १०। सं ४ । ग४। इं१। पं। का १ । यो ४। मनो। वे ३ क ४। ज्ञा३ । सं १ । अ । द २। ले ६ भ१। सं १ मिश्र।
सं १ । आ १ । उ ५॥
मनोयोगि असंयतंगे गु १ । असं । जी १ । १६ । प्रा १० । सं४।ग ४।६१ का १।। यो ४ । मनो। वे ३। क ४ । ज्ञा ३। म। श्रु । अ । सं १। अ । द ३ । च । अ । अ। ले ६ ५
भा
भ १ । सं३। उ। वे । क्षा। सं १ । आ १। उ६॥
मनोयोगिदेशसंयतंगे। गु १ । दे । जी १।१६। प्रा १० । सं ४ ।ग २। ति ।म। इं१। का १। यो ४ । मनो। वे ३। क ४। ज्ञा ३। सं १ देश । द ३ ले ६ भ१। सं३ । उ । वे।
भा३। शु क्षा । सं १ । आ १। उ६॥
मनोयोगिप्रमत्तंगे। गु १ प्र। जी १। प६। प्रा १०।२४।ग १ म। इं १ का १। १० यो ४। मनोयोग। वे३।क ४ । ज्ञा ४ । म । श्र । अ। म । सं३ सा । छ। पद३ च । । अ। ले ६ भ१ । सं३ । उ । वे । क्षा। सं १ । आ१। उ७॥
भा३
मनोयोगि अप्रमत्तप्रभृति सयोगकेवलिपयंतं मूलौधभंगमक्कुं। सर्वत्रनाल्कुं मनोयोगंगळु सयोगरोळ सत्यानुभयमनोयोगद्वयं सत्यमनोयोगिमिथ्यादृष्टिप्रभृतिसयोगकेवलिपय्यंतं मनोयोगि भंगवक्तव्यमक्कुं। विशेषमावुदेदोड सत्यमनोयोगमोदे वक्तव्यमक्क। ई प्रकारमे अनुभयमनो- १५ योगिगळ्गमक्कुं । विशेषमावुर्देवोड अनुभयमनोयोगमों देयक्कुमेंबुदु ॥ द २, ले ६ । भ १, स १ सा, सं १, आ १, उ ५ । तन्मिश्रस्य-गु १ मिश्रं जी १ । प ६, प्रा १०, स ४,
ग४, ई १ पं, का १ त्र, यो ४ म, वे ३, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द २, ले ६ । भ १ स १ मिश्र,
सं १, आ १ । उ ५ । तदसंयतस्य-गु १ अ, जी १, प ६ । प्रा १०, सं ४, ग४, इं १ पं, का १ त्र, यो ४ म, वे ३, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १,
२०
आ १. उ६। तददेशसंयतस्य-ग१ दे, जी १, १६, प्रा १०, सं४, ग २ ति म, इं१५, का१त्र, यो ४ म, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ दे, द ३ च म अ, ले ६ । भ१। स ३ उ वे क्षा। सं१। आ१ ।
भा ३ शु उ ६ । तत्प्रमत्तस्य-गु १ प्र, जी १ प, प ६, प्रा १०, सं ४, ग १ म, इं१पं, का ११, यो ४ म, वे ३, क ४, ज्ञा ४ म श्रु अ म, सं ३ सा छे प, द ३ च अ अ, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा। सं १, आ १।
भा ३ उ७ । तदप्रमत्तादिसंयोगांतं मूलौधः किंतु सर्वत्र मनोयोगाश्चत्वारः सयोगे सत्यानुभयो द्वौ सत्यानुभयमनो• २५ योगिनां मिथ्यादृष्ट्यादिसयोगांतं मनोयोगिवत् किंतु योगस्थाने स्वस्वनामकः ।
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१००६
गो० जीवकाण्डे ___ असत्यमनोयोगिगळगे। गु १२। जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग ४। इं१। का १। यो १ । असत्यमनोयोग वे ३ । क ४ । ज्ञा ७। कु । कु । वि । म । श्रु । अ । म । सं७। अ। दे। सा। छ। प। सू । यथा । व ३। ले ६ भ२। सं६ । मि। सा। मि । उ। वे । क्षा । सं १
भा६ आ १ । उ १०॥
मिथ्यादृष्टिप्रभूतिक्षीणकषायपथ्यंतमसत्यमनोयोगिगळ्गमुभयमनोयोगिगळ्गं स्वस्वयोगमे वक्तव्यमक्कू इनिते विशेषमक्कं ॥
वाग्योगिगळ्गे । गु १३ । जी ५ । बि। ति । च । सं। अ।१६। ५ । प्रा १० । ९।८। ७।६। ४ । सं ४।ग ४। इं४। का१त्र। यो ४ । वचनयोगंगळु । वे ३। क ४ । ज्ञा ८ । सं ७ । व ४ । ले ६ । भ २। सं ६ । सं २ । आ १ । उ १२ ॥
वाग्योगिमिथ्यादृष्टिगळगे । गु १ । मि। जी ५१५६। ५ । प्रा १० । ९। ८।७।६। सं ४ । ग ४ । ई ४। का १। त्र। यो ४ ॥ वाग्योगंगळ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ। द२। ले ६ भ२। सं १ । मि । सं २। आ १ । उ ५॥
सासादनप्रभृतिसयोगकेवलिपय्यंतं मनोयोगिभंगं वक्तव्यमक्कुं। विशेषमिदु नाल्कुवाग्यो गंगळेंदु वक्तव्यमक्कं । सयोगरिगेयं एल्लेल्लि मनोयोगं पेळल्पटुवल्लल्लि वाग्योगं वक्तव्यमक्कुं॥
काययोगिगळ्गे । गु १३। जी १४ । प६।६।५।५ । ४ । ४ । प्रा १०।७।९।७। ८।६।७।५।६। ४।। ३ । ४ । २॥ सयोगिकेवलि। सं ४ । ग४। ई ५। का ६। यो ७॥ काययोगंगळ । वे ३ । क ४। ज्ञा ८ । सं ७ । द ४ । ले ६ । म २। सं ६ । सं २ । आ २ । उ १२ ॥
६
असत्यमनोयोगिनां-गु १२ । जी १। प६ । प्रा १० । सं४ । ग ४ । इं११ का १। यो १ २० असत्यमनः । वे ३ । क ४। ज्ञा ७ कु कु वि म श्रु अम। सं ७ अ दे सा छे पसू यथा । द ३ । ले ६ भ २।
स ६ मि सा मि उ वे क्षा । सं १ । आ १। उ १० । तन्मिध्यादृष्ट्यादिक्षीणकषायांतं योज्यं । उभयमनोयोगिनामप्येवं । स्वस्वयोग एव वक्तव्यः ।
__वाग्योगिनां-गु १३ । जी ५ वि ति च सं अ । ५ ६ ५। प्रा १० । ९। ८। ७।६। ४। सं ४ । ग ४ । इं४। का१त्र । यो ४ । वा। वे ३ । क ४ । ज्ञा ८। सं ७ । द ४। ले ६। भ २।
२५ स ६ । सं २ । या १। उ १२। तन्मिध्यादृशां-गु १ मि । जी ५। प६५। प्रा १० । ९।८।७।
६ । सं ४ । ग ४ । का१त्र। यो ४ वा। वे ३ । क ४। ज्ञा३ । सं १ ब । द २। ले ६। भ२।
स १ मि । सं २ । बा १ । उ ५ । सासादनादिसयोगांतं मनोयोगिवत् किंतु योगस्थाने वाग्योगो वक्तव्यः ।
काययोगिना---ग १३ । जी १४ । १६६ ५५४४ । प्रा १०७९७८ ६७४६ ४४३४२ । सं४। ग४ । इं५ । का६ । यो ७ कायस्य । वे ३।क४ । ज्ञा ८ । सं७ । द४ ले ६ । भ२ । स ६ ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ।
१००७ काययोगिपर्याप्तकर्ग । गु १३ । जी ७। प६।५।४। प्रा १०।९।८।७।६।४ । ४ । सं ४ । ग ४ । ई ५ । का ६। यो ३। औ। वै । आ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ८ । सं५ । द ४ । __ले ६ भ२। सं ६ । सं २। आ १ । याहारकर । उ १२ ॥
५
अपर्याप्तकाययोगिगळ्गे । गु५ । मि । सा । अ।प्र। स । जो ७ । अ। प।६।५।४। प्रा ७ । ७।६। ५ । ४ । ३।२। सं ४ । ग ४ । इं५ । का ६। यो ४ । औ मि । वै मि । आ मि। का १ । वे ३ । क ४। ज्ञा ६ । कु । कु। म । श्रु । अ। के । सं ४ । अ १ । सा १ । छे १। यथा १। द ४। ले २। क शु । भ २। सं ५। मि । सा । ऊ । वे । क्षा । सं २। आ २। उ १०॥
भा६
काययोगिमिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । मि । जी १४ । प ६ । ६ । ५ । ५ । ४ । ४ । प्रा १० । ७।९।७।८।६।७।५।६। ४ । ४ । ३ । सं ४।ग ४ । इं५ । का ६ । यो ५ ॥ आहारद्वयरहित । वे३ क ४। ज्ञा३। सं १ । अद२ ले ६ ।भ२। सं१। मि। सं। १०
आ २। उ ५॥
काययोगिमिथ्यादृष्टिपर्याप्तकग्नें। गु १। जी ७।१६।५।४। प्रा १०।९।८।७। ६।४। सं ४ । ग ४। इं५ । का ६ । यो २। औ। वै । वे ३ । क ४। ज्ञा ३। कु। कु । वि। सं १। अ । व२। ले ६ ।भ २ । सं १ । मि । सं २ । आ १ । उ ५॥
काययोगिमिथ्यादृष्टयपर्याप्तकर्ग । गु १। जो ७।१६। ५। ४ । प्रा ७।७।६।५। १५ ४।३। सं४ । ग ४। इं५ का ६ । यो ३। औ। मि । वै । मि । का । वे ३। क४। ज्ञा २। सं १ अ । २। ले २ क शु भ २। सं १ । मि। सं २। आ २। उ ४ ॥
भा६
सं २। आ २। उ१२। तत्पर्याप्तानां १३ । जी ७। १६ । ५। ४ । प्रा १०। ९।८।७।६ । ४। ४। सं४। ग४। इं५ । का ६। यो ३ औ व आ। वे ३ । क४। ज्ञा ८ सं७। द४। ले ६। भ २ । स ६ । सं २। आ १ आहारकः । उ १२ । तदपर्याप्तानां-गु ५ मि सा अ प्रस। जी २०
७ अ । प६५४। प्रा ७७६ ५४३२ । सं ४ । ग ४ । इं५ । का ६ । यो ४ औमि वैमि आमि का । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६ । कुकुम श्रु अके। सं ४ अ सा छे य । द ४ ले २ क श । भ२स ५ मि
भा ६ सा उ वे क्षा । सं २। आ २। उ १० । तन्मिथ्यादशां-गु १। जी १४ । १६६५५४४ । प्रा १०७ ९७८६७५६ ४४३ । सं ४, ग ४, इं ५, का ६, यो ५ आहारकद्वयं नहि, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ, द २, ले ६, भ २, स १ मि, सं २, आ २, उ ५। तत्पर्याप्तानां-गु१। जी ७ । प६ ५४ । प्रा २५
१०९८७६ ४ । सं ४ । ग ४ । ई ५। का६ । यो २ बी वै। वे ३। क ४। ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ । द २ । ले ६। भ२। स १ मि। सं२। आ१। उ ५। तदपर्याप्तानां-गु १ । जी ७।
प ६५४ । प्रा ७७६५४३ । सं४। ग४। इं५ का ६। यो ३ बौमि वैमि का। वे ३। क ४ ।
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१००८
गो० जीवकाण्डे काययोगिसासादनंग। गु१। सासा । जी २ प अ । प६। प्रा १०।७। सं ४। ग ४। इं१। का १ । यो ५। औ२। वै२ का १ । वे ३। क ४। ज्ञा३। सं १। अ । द२। ले ६। भ १ । सं १ । सासा । सं १ । आ २ । उ ५॥
काययोगिसासादनपर्याप्तकगर्गे । गु १। जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग ४ । ई १ । ५ का १। यो२। औ। वै। वे३।क ४। ज्ञा । सं१ अ । द २ ले ६ भ१। सं १। सा।
सं १। आ १ । उ ५॥
काययोगिसासादनापर्याप्त । गु १ । जी १। ५६ । अ । प्रा ७ । सं ४ । ग ३ । म । ति । दे। णिरयं सासगसम्मो ण गच्छ दे । इं १ । का १ । यो ३ । औ मि । वै मि । का। वे ३ । क ४ । ज्ञा २ । सं १ अ । द २। ले २ क शु । भ १ । सं १ । सासा । सं १ । आ २। उ ४ ॥
भा६
काययोगिसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १ । मिश्र । जो १।६ । प्रा १० । सं ४ । ग ४ । इं१ का १ । यो २। औ। वै। वे ३। क ४ । ज्ञा ३। सं १। अ। द २। ले ६। भ १ ।
सं१। मिश्र । सं १ । आ १ । उ ५॥
काययोगिअसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे । गु १ । असं । जी २। ५६ । ६ । प्रा १०। ७ । सं ४ । ग ४ । इं१। का १। यो ५। औ २।वै २। का १। वे ३ । क ४ ज्ञा ३ । सं १। अ । द ३ । १५ ले ६ भ१। सं३ । उ । वे।क्षा । सं १। आ २। उ६॥
ज्ञा २। सं १ अ । द२। ले २ क शु । भ २ । स १ मि । सं २ । आ २ उ ४ । तत्सासादनानां-गु १ सा।
भा ६ जी २ प अ । प ६ ६ । प्रा १० ७ । सं ४। ग ४। ई १ का १। यो ५ औ २ वै २ का १। वे ३ । क ४ । ज्ञा३ । सं १ अ। द २। ले ६ । भ१। स १ सा । सं १अ आ २। उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु १। जी १।
१६ । प्रा १० । सं ४ । ग ४ । इं १ का १ यो २ औ वै । वे ३ । क ४। ज्ञा ३ । सं १ अ । द२। २० ले ६ । भ १ । स १ सा । सं १ । आ १ । उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु १। जी १। प ६ अ । प्रा ७ ।
सं४।ग ३ मति दे। णिरयं सासणसम्मो ण गच्छदीति वचनात । इं१ का १। यो ३ औमि वैमि का । वे३ । क ४ । ज्ञा२। सं १ अ । द २ । ले २ क शु । भ १ । स १ सा। सं १ । आ २ । उ ४। सम्यग
मा ६ मिथ्यादशां-गु १ मिश्रं । जी १।१६ । प्रा १० । सं ४ । ग ४। इं१ का १ । यो २ औ वै। वे ३ । क ४ । ज्ञा३ । सं १ अ । द२। ले ६ । भ१ । स १ मिथं । सं १ अ । आ १। उ ५ । असंयतानां
, ग १ अ । जी २।५ ६६ । प्रा १०७। सं४।ग ४। इं१ । का १ । यो ५ औ २ ।वै २ का १। वे३।
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
१००९ काययोगिपर्याप्तासंयतंगे। गु१। जो १।१६। प्रा १०। सं४। ग४।६१ का १ यो २। औ वै । वे ३। क ४। ज्ञा ३ । सं १। अ। द ३। ले ६। भ१। सं ३। सं १।
६
आ १उ६॥
काययोगिअपर्याप्तासंयतंगे। गु १ । जी१।१६। अ। प्रा७ । । सं४।ग ४ । ई१। का १। यो ३। औ मि । वै मि । का। वे २ ।। पुं। क ४। ज्ञा३। सं १ । अ। द३।
५
ले २ क शु । भ १। सं३ । सं १ । आ २ । उ६॥ भा६
काययोगिदेशवतिगळगे। गु१। दे। जी १। प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग २ । म । ति । इं १ का १ । यो १ । औ का । वे ३ । क ४ । ज्ञा३ । सं १। दे। द ३ । ले ६। भ१ । सं ३ ।
भा३
सं १। आ१ । उ६॥
काययोगिप्रमत्तसंयतग्ग। गु१।प्र। जी २।१६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग१।१० म । ई १५ का १ त्र । यो ३ । औ का १ । आहारक २। वे ३।क ४ । ज्ञा ४ । सं३ । सा छ । प।३। ले ६। भ१ । सं३ । उ । ।क्षा । सं १ आ १ ७ ॥
भा३ काययोगिअप्रमत्तसंयतंग। गु१। अप्र। जी १।१६। प्रा १० । सं३ । आहाररहित । ग १। म । इं१। पं। का १ त्र। यो १। औ। वे ३। क ४।जा ४। सं३ । द३। ले ६।
भा३ भ१। सं३ । आ १ । उ७॥
क ४ । शा ३ । सं १ अ । द ३ । ले ६ । भ १। स ३ उ वे क्षा । सं १ आ २ । उ६। तत्पर्याप्तानां
ग १। जी १।१६। प्रा १० । सं४ । ग४।६१ का १ । यो २ औ वै। वे ३ क ४ । ज्ञा३ ।सं । द ३ ले ६ । भ१। स३।सं। आ१।३६। तदपर्याप्तानां-गु१। जी१।१६ अ । प्रा।
सं ४ । ग ४ । ई१। का१ । यो ३ औमि वैमि का। वे २ षं पुं। क ४ । ज्ञा ३ । सं १ अ। द३ । ले २ क शु। भ१ । स ३ । सं । २। उ६। देशवतिनां-गु १ दे। जी १।५६। प्रा १०।
सं४। ग २ म ति। इं१ का १। यो १औ। वे ३ । क ४। शा३। सं १दे।द३। ले६।
भ १ । स ३ । सं १ आ २। उ ६ । प्रमत्तानां-१ प्र। जी२।१६६। प्रा १०७। सं४।ग १ म । १६ । का१त्र । यो ३ औ १ आहा २।३ । क४।शा ४ । सं३ सा छे पद ३ ले ६ ।
भ१ । स ३ उ वे क्षा। सं १ । आ । उ७ । अप्रमत्तानां-१ अप्र। जी१।१६। प्रा १० । सं३ याहारसंज्ञा नहि । ग १ म । ई१६। का१त्र ।यो १ौ। ३ । क४। ज्ञा४। सं३ । द३।।
१२७
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१०१०
गो० जीवकाण्डे . काययोगि अपूर्वकरणप्रभतिक्षीणकषायपथ्यंतं काययोगिगळ्गे मूलौघभंगमक्क । विशेषमावुवेंदोडे औदारिककाययोगमे वक्तव्यमक्कं । काययोगि सयोगकेवलिगळ्गे। गु१। सके। जो २।५।।१६।१६। प्रा ४।२।सं। ० । ग १ । म। इं१५। का १। त्र। यो ३ । औ २ का १।०। क मा १। के। सं१। यथा। द १ के। ले ६ भ १। सं १ । क्षा।
भा१ ५ सं। । २। उ २।के।के।
औदारिककाययोगिगळ्गे। गु १३ । जी ७ । प६ । ५ । ४ । प्रा १०।९। ८ । ७।६। ४।४। ४। ग २।म। ति। ई ५। का६। यो १ । औ। वे३।क४। ज्ञा८ । सं ७। द ४ ले ६। भ२। सं६।सं २ । आ १। उ १२ ॥
औदारिककाययोगिमिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । मि। जी ७।५ ६।५। ४ । प्रा १०।९।८। १० ७।६।४। सं ४ । ग २ । ति । म । इं५ का ६ । यो १ । औ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ ।
अ। द २ ले ६। भ२। सं१ मि । सं २ आ १ । उ ५ ॥
औदारिककाययोगिसासादनंगे। गु १ । जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग २।म। ति । इं१। पं । का१त्र । यो १ । औ। ३ । क ४ । ज्ञा ३। सं १। अद २। ले ६ ।भ १।
१५
सं १ । सासा । सं १ आ १ । उ ५॥
औदारिककाययोगिसम्यगमिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ मिश्र । जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग २ । ति । म । इं१।पं । का १ त्र। यो १ । औ। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ । सं १ । अ । द २। ले ६। भ१।सं १ । मिश्र । सं १ । आ १ । उ ५॥
ले ६ । भ १ । स ३ । सं १ । बा १ । उ ७ । अग्रेऽपूर्वकरणात् क्षीणकषायपर्यतं मूलौघवत् किंतु औदारिक
०
योग एव वक्तव्यः ।
सयोगकेवलिनां-१ सा, नी २ प ब, प १६, प्रा ४२ सं०, ग १ म, इं १ पं, का १ त्र, यो ३ यो २ का १, वे.क., ज्ञा १ के, सं १ यथा, द१ के, ले ६ । भ१ स १क्षा , सं., या २,
भा १ उ २ के के। बौदारिकयोगिनां-गु १३, जी ७५, ५६, ५, ४, प्रा १०, ९, ८, ७, ६, ४,४, सं ४, ग २ म ति, इं५, का ६, यो १ औ, वे ३, क ४, ज्ञा ८, सं७, द ४, ले ६। भ २, स ६, सं २, बा १.
भा ६ उ १२ । तन्मिथ्यादृशां-गु १ मि, जी ७, प ६५ ४, प्रा १०, ९, ८, ७, ६,४, सं ४, ग २ ति म, इं ५, का ६, यो १ ओ, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ ब, द २, ले ६ । भ २, स १ मि, सं २, आ २, उ ५।
भा ६ तत्सासादनानां-गु १, जी १, ५ ६, प्रा १०, सं४, ग २ म ति, इं १ पं, का १ त्र, यो १ ओ, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ अद २, ले ६, भ १, स १ सा, सं १, आ १, उ ५, सम्यग्मिथ्यादृशां-गु १ मिश्र,
११
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
१०११ __ औदारिककाययोगिअसंयतसम्यग्दृष्टिगे। गु १ । अ । जी १ । पंचि । ५। ५६। प्रा १० । सं ४।ग २। ति । म। इं१। पं। का ११ । यो १। औ। वे३। क ४ । ज्ञा ३। सं १ अ। द ३। ले ६ ।भ १। सं३ । सं १ । आ १। उ६॥
- औदारिककाययोगि देशवतिगळगे। गु १।। जी १। पंप । प६। प्रा १० । सं ४। ५ ग २। ति । म । इं१।पं । का१त्रयो १ । औ का । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ दे । ६३। ले ६। भ १ । सं३ । सं १ । आ १। उ६॥ भा३
प्रमत्तसंयतप्रभृति सयोगिकेवलिपय्यंतं काययोगिभंगं वक्तव्यमक्कं विशेषमावु दोडे सर्वत्रौवारिककाययोगमों दे वक्तव्यमक्कुं॥
औदारिकमिश्रकाययोगिगळगे । गु४ । मि । सा। अ । सयो। जी ७ । अ । १६ । ५ । ४ । प्रा ७।७।६।५।४।३।२। सं ४ । ग २। म । ति । इं५ । का ६ । यो १ । यो मि। १० वे ३ । क ४ । ज्ञा ६। विभंगमनःपय॑यरहितं । सं २। ब । यथा ।। ले १ क । भ२।
भा६ सं ४ । मि । सा । वे । क्षा । सं २ । आ १ । उ १०॥
औदारिकमिश्रकाययोगिमिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १ मि। जी ७। अ। प६।५।४।। प्रा ७।७।६ । ५।४।३। सं ४।ग २। ति ।म। ।का १। यो १। औ मि । वे ३। क ४ । ज्ञा २। सं १ । अ । व २। ले १ क । भ२ । सं १ मि । सं २। आ १। उ ४ ॥ १५
भा३ औदारिकसासादनमिवर्ग। गु१ । सासा । जी १। सं। पंथ । प६। प्रा ७ । सं४। ग २। ति । म । इं१ का १।।। यो ११ औ मि। वे३ क ४। ज्ञा२। सं १ । अ।
जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग २ ति म, ई १, का १त्र । यो १ ओ, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ, द २, ले ६ ।भ १, स १ मिश्र, सं १, आ १,उ ५, असंयतामां-गु १ अ, जी १५ प, प ६, प्रा १०,
सं ४, ग २ ति म, इं १ पं, का १ त्र, यो १ ओ, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ, द ३, ले ६ । भ १, स ३, २०
सं १, आ १, उ ६, देशव्रतानां-गु १ दे, जी १ पंप, प ६, प्रा १०, सं ४, ग २ ति म, इं १५, का१त्र, यो १ ओ, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ दे, द ३ ले ६, भ १, स ३, सं १, मा १, उ ६, प्रमत्तात्संयोगांतं
काययोगिवत् किंतु सर्वत्र औदारिकयोग एव वक्तव्यः ।
__ औदारिकमिश्रयोगिनां-गु ४ मि सा अस । जी ७ अ। ६ । ५ । ४ । प्रा ७। ७।६ । ५ । ४।३।२। सं४।ग २ ति म । इं५ । का ६ । यो १ औमि । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६, विभंगमनःपर्ययाभा- २५ वात । सं २ प य । द ४ ले १ क । भ २ । स ४ मि सा वे क्षा । सं २। आ१ । उ १० । तन्मिध्यादेशां
भा६ गु १ मि । जी ७ अ । प६।५ । ४ । प्रा७ । ७।६। ५ । ४।३। सं ४ । ग २ ति म । इं५। का ६ । यो १ बोमि । वे३ क ४। ज्ञा २ । सं १अ । ६२ ले १। भ२। स १ मि । सं२। बा १।
मा ३ उ४ । तत्सासादनानां-गु १ सा। जी १ सं अ। ५ ६ अ । प्रा ७। सं ४। ग २ ति म। इं१५।
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भा६
१०१२
गो० वीवकाण्डे व २। ले १। भ१। सं १ । सासा । सं १। आ १। उ ४॥
भा ३
औदारिकमिश्रकाययोगि असंयत सम्यग्दृष्टिगळगे। गु १ । असं । जी १ अ। प६। प्रा ७ । अ। सं ४ । ग २ । ति । म । इं १। पं। का १। त्र। यो १। औ मि। वे १। पुं। क ४। ज्ञा ३ । सं १ । अ । व ३। ले १ क। म१।सं २। वे । क्षा । सं १ । आ १। उ६॥
औदारिकमिश्रकाययोगिसयोगिकेवलिगळ्ग । गु १। जी १ । अ।प६। प्रा२। का १। आयु : १।सं। ।ग १। म । ई १५ का १३ । यो १ । औ मि । वे ० । क ०। ज्ञा १ । के। सं१। यथा। द१। के। ले १क। भ १ । सं१। क्षा। सं। ०। आ १। उ२॥
__ भा १ शु वैक्रियिककाययोगिगळ्गे। गु ४ । मि। सा । मि । अ। जी १ । ५। ५६। प्रा १० । सं ४ । ग २। न । दे। इं१।६। का १२ । यो १। वे का । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६ । कु । कु । १० वि । म । । । सं १ ।। ३। ले ६ भ२ । सं६। मि। सा। मि । उ । वे।क्षा।
भा६ सं १ । आ१। उ ९॥
वैक्रियिक काययोगिमिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु१। जी १ । प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग २ । न दे। इं१। पं । का१त्र। यो १।वै का। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ । कु । कु। वि । सं १ अ । द २। ले ६। सं । मि । सं१। आ १। उ ५॥
वैक्रियिककाययोगिसासादनग्ग। गु१। सा। जी १।१६। प्रा १०। सं ४ । ग २ । न दे। ई १५ का १। त्र । यो १।वै का। वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि । सं १ अ । द २। ले ६। भ १ । सं १ । सासा । सं १ मा १। उ ५॥ भा६
का १त्र । यो १ औमि । वे ३ । क ४। ज्ञा २।सं १ अ । द२। ले । भ१। स १ सा । सं १।
भा ३ अशुभ आ १ । उ ४ । तदसंयतानां-गु १ अ । जी १ अप। प६अ। प्रा ७अ । सं ४ । ग २ ति म । इं१पं। . २० का १त्र । यो १ औमि । वे१पु। क ४ । ज्ञा ३ । सं १ अ । द३। ले १ क । भ१। स २ वे क्षा।
भा ६ सं१। आ १। उ६। तत्सयोगिनां-गु १। जी १ अ। प६। प्रा २ का १ आ १। सं ० । ग १ म । इं१६ । का१त्र । यो १ औमि । वे । क ज्ञा १ के। सं१य। द १ के। ले १ क। भ १।
स १क्षा। सं . आ१।२। वैक्रियिकयोगिनां-४ मि सा मिअ। जी १५। प६ । प्रा १०। सं ४ । ग २ न दे। इं१५। का १ । यो १ वै । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६ कु कु वि म श्रु अ । सं १ । द ३ । ले ६ । म २। स ६ मि सा मि उवे क्षा।सं १ । आ१। उ ९ । तन्मिथ्याशां-१। जी १।
प६ । प्रा १० । सं४।ग २ न दे। इं१५ का १। यो १ वै। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ कुकु वि । सं१।१२। ले ६ । म २। स १ मि । सं१। आ । उ६। तत्सासादनानां १ सा । जी ।
६
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१०१३
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका वैक्रियिककाययोगिसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । मिश्र । जी १।१६। प्रा १० । सं४। ग२ न दे । इं१। पं । का१त्र । यो १। वै। का। वे ३ क ४। ज्ञा ३ । कु । कु । वि। सं १। अ । द २। ले ६। भ १ । सं १ । मिश्र । सं १ । आ १। उ ४ ।।
भा६
वैक्रियिककाययोगि असंयतसम्यग्दृष्टिगळगे। गु १ । अ सं। जो १ । प६। प्रा १० । सं ४।ग २। न दे। इं १।पं । का१त्र । यो १ । वै का। वे ३ । का ४ । ज्ञा ३। म श्र अ। सं १।अ। व ३। ले ६। भ १ । सं३ । सं १ । आ १ । उ ६॥
५
वैक्रियिकमिश्रकाययोगिगळ्ये । गु३ । मि । सा । अ। जो १।१६। अ। प्राण ७ । अ। सं ४ । ग२। न दे। इं१।पं । का१त्र । यो १ मि । वे ३। क ४ । ज्ञा ५ । कु। कु।म। श्र। अ। सं१। अ। द३ ले १। भ२। सं५ मि। सा। उवे। क्षा। सं१।
भा६ आ १। उ८॥
वैक्रियिकमिश्रकाययोगिमिथ्याष्टिगळगे । गु१। मि । जो १ । अ।१६। अ । प्रा ६ । अ । सं४। ग नदे। इं१।। का १त्र । यो १वै मि । वे ३ । क ४। ज्ञा २। सं १ । अद२ ले १। भ२।सं १ । मि । सं१ आ१। उ४॥
भा६
वैक्रियिकमिश्रकाययोगसासादनसम्यग्दृष्टिगळ्य। गु १ । सासा । जी १।। १६ । अ। प्रा७ । अ। सं४।ग १ देव । इं१।पं । का १। त्रयो १। वै मि । वे २ क ४।ज्ञा २। १५
प६ । प्रा १० । सं४। ग २ न दे। इं१५ । का१त्र। यो १वं । वे३। क ४। ज्ञा ३ कु कु वि । सं१। द २ ले ६ । भ१ । स १ सा । सं १। आ१ । उ ५ । तत्सम्यग्मिथ्याशां-- गु१ मित्रं ।
जी १।६। प्रा १० । सं४ । ग२ न दे। इं१५ का १त्र। यो १ वै। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ कुकु वि । सं १ । द२ । ले ६ भ१। स १ मिश्र। सं१। आ १। उ ५। तदसंयतानां-गु १ अ ।
जी १। १६ । प्रा १० । सं४। ग २ न दे। ई१५। का१त्र। यो १ वै। वे ३ । क ४। २० ज्ञा ३ म श्रु अ । द ३ । ले ६ । भ१। स ३ । सं१। आ १। उ६। तन्मिश्रयोगिनां-१ मि
सा अ। जी १। प६अ । प्रा ७ असं ४ । ग २ न दे। ई१५। का१त्र, यो १ मि, वे ३, क ४, सा ५ कु कु म श्रु अ, सं १ अ, द ३, ले १ क, भ २, स ५ मि सा उ वे क्षा, सं १, आ १,उ८।
भा ६ तन्मिथ्याशां-गु १ मि, जी १ अ,प६अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग २ न दे, इं१५, कात्र, यो १ वैमि, वे ३, ४,ज्ञा २, सं१म, ६२,ले १।भ २, स १ मि, सं १, मा १, ४। तत्सासादनानां-गु १ सा, २५
जी १ अ, प६अ, प्रा ७ अ, स ४, ग १ दे, ई १ पं, का १ त्र, यो १ वैमि, वे २, क ४, ज्ञा २, सं १ अ,
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१०१४
गो. जीवकाण्डे सं १ । अ । व २। ले १ क। भ१। सं १। सासा । सं १। आ १। उ४॥
भा६ वैक्रियिकमिश्रकाययोगि असंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे । गु १। जो १ । । १६ । अ । प्रा७ । अ। सं ४ । ग २ । न दे । इं १ । पं । का १ त्र। यो १। वै मि। वे २ षं पुं। क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु। अ। सं १ । अ । ६३ ले १ क । भ १ । सं ३ । उ। वे । क्षा । सं १ । आ १ । उ६ ॥
भा ४ आहारककाययोगिगळ्गे। गु १ । प्र। जी १ । प६। प्रा १० । सं ४ । ग १ । म । ई१। पं। का १ त्र । यो १ । आ का । वे १ पुं। क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं २। सा । छ । द ३। ले शु१ ।भ १ । सं २। वे । क्षा । सं १ । आ १ । उ ६॥ भा३
आहारकमिश्रकाययोगिगळ्गे। गु१। जी १। प६। अ। प्रा ७ । अ। सं ४ । ग १ । म। इं१।पं । का १ । यो १ । आ मि । वे १। पुं। क ४ । ज्ञा ३। म । श्रु । अ । सं २ । सा । १० छ। व ३ । च । । । ले १क भ१। सं २। वे क्षा। सं १ । आ १ । उ६॥
भा ३ शु कामणकाययोगिगळ्गे। गु ४ । मि । सा । अ । सयो । जी ७ । अ। ५६ । अ५ । ब ४। अ। प्रा७।७।६।५।४।३।२। सं ४ । ६५ । का ६ । यो १ का । वे ३ । क ४ । ज्ञा ६। कु। कु । म। श्रु । अ । के। सं २। अ। यथा । र ४। चअ । अ । के। ले १ शु भ२।
भी
१५
सं ५। मि । सा। उ । वे।क्षा । सं २। आ १ । अनाहार । उ १०॥
कामणकाययोगिमिथ्यादृष्टिगळगे । गु१ । मि । जी ७ । अ । १६ । ५ । ४ । अ। प्रा ७। ७।६।५।४।३। ४। ग४। इं५ । का६। यो १। का। वे३। क४ जा२। कू। कू।
द २, ले १ क । भ १, स १ सा । सं १, या १, उ ४ ।
भा ६
तदसंयतानां-ग १ अ। जी १ अ । प ६ अ, प्रा ७ अ, सं४, ग २ न दे, इं१६, का १त्र, यो १ वैमि, वे २ षं पुं, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ। द ३, ले १ क। भ १ । सं ३, उ वे क्षा,
भा ४ शु ३ क १ २० स १, आ १, उ ६ । आहारकयोगिनां-गु १ प्र, जी १। प ६, प्रा १०, सं४, ग १ म, इं १ पं, का १त्र । यो १ आ, वे १', क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं २ सा छे, द ३, ले १ शु, भ १, स २ वे क्षा, सं १,
भा ३ आ १.उ६। तन्मिश्रयोगिनां- १ प्र, जी १,प६अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग १ म, इं१५, का १त्र, यो १ आमि, वे १ पुंक ४, ज्ञा ३ मश्रु अ, सं २ सा छे, द ३ च ब अ, ले १ क । भ १, स २ वे क्षा,
भा ३ सं १ बा १,उ ६ । कार्मणयोगिनां- ४ मि सा बस, जी ७ अ, प६अ, ५ ब, ४ ब, प्रा ७, ७,६, २५ ५,४, ३, २, सं ४, ग ४, ५, का ६, यो १ का, वे ३, क ४, ज्ञा ६ कु कु म त्रु ब के, सं २ अय, द४ च व बके, ले १शु । म २, स ५ मि सा उ वे क्षा, सं २, बा १ अनाहारः, उ१० । तन्मिथ्याशां
भा ६ गु १ मि, जी ७ अ, प ६ ५ ४ अ, प्रा ७ ७ ६ ५ ४ ३, सं ४, ग ४, ई ५, का ६, यो १ का, वे ३,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०१५
सं १ । अ । दं २ | च । अ । ले १ शु । भ२ । सं १ | मि । सं २ । आ १ | अनाहार | उ ४ ॥
भा ६
काम्मँणकाययोगिसासादनसम्यग्दृष्टिगळगे । गु १ । सासा । जो १ । प ६ । प्रा ७ । सं ४ । ग३ । ति । म । दे । इं १ । का १ । यो १ । का । वे ३ | क ४ । ज्ञा २ । कु । कु । सं १ अ । द २ | ले १ शु । म १ । सं १ । सासा । सं १ । आ १ । अनाहार । उ४ ॥
भा ६
५
काम्मँणकाययोगिअसंयतसम्वृष्टिगळये । गु १ । अ । जो १ । प ६ । अ । प्रा ७ । अ । ४ । ४ । १ । का १ । यो १ । का । वे २ । ष पुं । क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १ । । अ । सं । द ३ । भ १ । सं ३ | उ । वे । क्षा | सं १ | आ १ । अनाहार । उ६॥
ले १ शु | भा ६
का
।
काययोगि सयोगिकेवलिगळ । गु १ का । आ । सं । ० । ग १ । म । इं १ । पंका १ त्र । १ | यथा । व १ । के । १ शुभ १ । सं १
भा १
सयो । जी १ । अ । १६ । अ । प्रा २ । यो १ । का । वे ० । क ४ । ज्ञा १ के । । क्षा । सं । ० । आ १ । अनाहार उ २ । १०
के । के ॥ यितु योगमाग्गंणे समाप्त मावुवु ॥
वेदमार्गणानुवाददोळु मूलौघबोळे तंते ज्ञातव्यमक्कं । विशेषमावुव दोड्डे नवगुणस्थानंगळे दु वक्तव्यमक्कं । स्त्रीविगळगे । गु ९ । जी ४ । संज्ञ्यसंज्ञिपर्य्याप्त पर्याप्तकरु | प ६ | ६ |५ । ५ । प्रा १० । ७ । ९ । ७ । सं ४ | ग ३ | म । ति । दे । इं १ | पं । का १ त्र । यो १३ ॥ आहारकद्वयरहित । वे १ | स्त्री । क ४ । ज्ञा ६ । कु । कु । वि । म । श्रु । अ सं ४ | अ | दे । सा । छे । १५ द ३ | च । अ । अ । २ । ६ । मि । सा । मि । उ ।
ले
६ ।
वे ।
क्षा ।
सं २ |
६
आ २ । उ ९ ॥
४, ज्ञा २ कुकु, सं १ अ, द २ च अ, ले १ शुभ २, स १ मि सं २, आ १ अनाहारः, भा ६
तत्सासादनानां - गु १ सा, जी १, प ६, प्रा ७, सं ४, ग ३ ति म दे, इं १ का १, यो १ का, वे ३, क ४, ज्ञा २ कुकु, सं १ अ, द २, ले १ शु, भ १, स १ सा, सं १ । आ १ अना, उ ४ । तदसंयतानां – गु १ २०
भा ६
अ, जी १ । प६अ, प्रा ७ व्य, सं४, ग ४, इं १ का १, यो सं १ अ, द ३ ले १ शु । भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, आ १
भा ६
उ ४ ।
१ का, १ व २ षं पुं, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ अना । उ ६ । तत्सयोगिनां — १ सयोगी,
जी १ अ, प६अ, प्रा २ का, आ, सं०, ग १ म, इं १ का १ त्र, यो १ का, वे ० । क ० । ज्ञा १ के, सं १ य, द १ के, ले १ शु, भ १, स १ क्षा, सं०, आ १ अना, उ २ के के, योगमार्गणा गता । वेदमार्गणानुवादे
भा १
मूलोधवत् किंतु गुणस्थानानि न चैव ।
२५
तत्र स्त्रीवेदिनां—गु ९ । जी ४ संश्यसंज्ञिपर्याप्ता पर्याप्ताः । प ६६५५ । प्रा १०७९७ । सं ४ । ३ ति । इं१पं । का १ त्र । यो १३ आहारद्वयं नहि । वे १ स्त्री । क ४ । ज्ञा ६ कु कु विम श्रु असं ४ अ दे सा छे । द ३ च अ अ । ले ६ । भ २ । स ६ मिसामि उ वे क्षा । सं २ । आ २ । ३९ ।
६
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________________
६
१०१६
गो. जीवकाण्डे स्त्रीवेदिपर्याप्रकग्नें। गु ९ । जी २।सं।।। ५६।५। प्रा १०।९। सं ४ । ग३। ति। म। दे। इं१।६। का१त्र । यो १०। म४। व ४। औ वै। वे १ । स्त्री। क ४। ज्ञा ६ । कु कु । वि । म । श्रु । अ । सं ४ । अ। दे । सा। छ। द ३ । च । अ । अ। ले ६।
भ २। ६। मि । सा । मि । उ । वे । क्षा। सं २ 1 आ १ । उ९॥ ५ स्त्रीवेदियपर्याप्तकग्गें । गु२। मि। सा। जी २। संज्यसंध्यपर्याप्तक । प६। ५।
अ प्रा७।७। सं४। ग ३। ति । म । दे। ई १। पं । का ११ । यो ३ । औमि १।वै मि। का १। वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा २ । कु।कु।सं १ । अ। व २ च । अ। ले २ क शु। भ२। सं २ । मि । सा। सं २ । आ २ । उ ४ । कु। कु। च । अ॥
स्त्रीवेदिमिथ्यावृष्टिगळ्गे। गु १। मि । जी ४। संज्यसंज्ञियपप्तिकापर्याप्तक । ५६। १. ६।५।५ । प्रा १०। ७।९।७। सं ४। ग३। ति । म । दे। ई १।। का १३ । यो १३ ।
आहारकद्वयरहित वे १ । स्त्री। क ४। ज्ञा ३ । कु।कु। वि।सं १। अ सं। २। ले ६। भ२। १। मि।सं २। आ २। उ ५॥
भा ३ अशु
६
स्त्रीवेदिमिथ्यादृष्टिपर्याप्तकग्गें। गु१जी २ । संजिपर्याप्तासंजिपर्याप्तक । ५६।५। प्रा १०१९ । सं ४ । ग३। ति । म । दे । इं१। पं। का ११ । यो १० । म ४ । ४। औ। १५ वै । वे १ । स्त्री। क ४ । ज्ञा ३ । कु। कु। वि । सं १ । असं । व २। च । । ले ६। भ२। सं १ । मि । सं २ आ १ ५ ॥
स्त्रीवेदिमिथ्यादृष्टिअपर्याप्तकग्गें । गु १। मि । जी २ । संश्यपर्याप्तासंश्यपर्याप्त।१६। ५।। प्रा ७।७। सं ४ । ग३। ति । म । ई १।५ का १ । यो ३। ो। मि।मि।
तत्पर्याप्तानां-गु ९ । जी २ सं अ । प ६ ५ । प्रा १० ९ । सं ४ । ग ३ ति म दे। ६१ पं। का १त्र । १. यो १० म ४ व ४ औ १ १। वे १ स्त्री । क४। ज्ञा ६ कुकुवि म श्रु अ। सं ४ अ दे सा छे । द ३
च अब। ले ६। भ२। स ६ मि सा मि उ वे क्षा । सं २ । बा १ । उ ९ । तदपर्याप्तानां-२ मि
सा। जी २ संश्यसंश्यपर्याप्तौ । प ६५ अ । प्रा ७७। सं४। ग ३ ति म दे। ई१५। का १ । यो ३ औमि मि का। वे १ स्त्री। क ४। ज्ञा २ कुकू । सं १अ । द २ च अ । ले २ कश। भ२ । स २
भा ३ अशु मि सा । सं २ । मा २। उ ४ कु कु च । तन्मिथ्याशां-१ मि । जी ४ संश्यसंशिपर्याप्तापर्याप्ताः । प २५ ६६५५ । प्रा १०७९७।सं ४ । ग ३ म ति दे। ई १५ का ११ । यो १३ आहारकद्वयाभावात् ।
वे १ स्त्री। क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ । द २। ले ६ । भ २ । स १ मि । सं २ । आ २। ५।
तत्पर्याप्तानां-गु १ मि । जी २ संज्यसंज्ञिपर्याप्तौ । ५६ ५। प्रा १०९। सं४। ग ३ ति म दे। इं१५। का १ । यो १० म ४ व ४ औ १ १। १ स्त्री। क ४ । ज्ञा ३ कुकुवि । सं.१ अ । द २ च । ले ६। भ२। स १। सं २। आ१। उ ५। तदपर्याप्तानां-१ मि । जी २ संश्यसंश्यपर्याप्ती।
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द
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०१७ का । वे १ स्त्री । क ४ । ज्ञा २। कु। कु। सं १। अ। द २। च । अ ले २ क शुभ२।
भा ३ अशु सं१। मि । सं २। आ २ । उ४॥
स्त्रीवेदिसासादनगें । गु१। सासा । जी २। पंचेंद्रियसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्त । ५६।१६। प्रा १०। ७ । सं ४। ग ३ । ति। म। दे। ई १। पं। का १ । । । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे १ स्त्री । क ४ । जा ३ । कु । कु । वि। सं १ । अ । द२। ले ६। भ १ सं १। सासा। ५ सं १। आ २। उ ५॥
स्त्रीवेविसासादनपर्याप्तकर्ग। गु १। सासा। जी १। संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्तक ।१६। प्रा १० । सं ४ । ग ३ ति । म । दे। इं१। पं। का १ त्र। यो १० । म ४ व ४ । औ। वै। वेस्त्री। क४। ज्ञा३। कु
। सं १अ ।द २ च । अ। ले६ भ१। सं। सासा । सं १ । आ १ । उ ५॥
स्त्रीवेदिसासादनाऽपर्याप्तकर्ग। गु१। सासा । जी १ । स पं०१६ । अ। प्रा ७ । अ । सं ४ । ग ३ । ति । म । दे। ई १ । ।का १ । यो ३। औ मि । वै मि । का। वे १। स्त्री । क ४। ज्ञा २। कु । कु। सं १। । द २ । च । अ। ले २ क शु। भ १ । सं १।
भा३ अशु सासा । सं १ । आ २। उ४॥
स्त्रीवेदिसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ्ये। ग१। मिश्र। जी१। प। प६। प्रा १० । सं ४। १५ ग ३ । ति । म । दे। इं१।। का १३ । योग १० म४ व ४ । औ१। वै१। वे १ । स्त्री। क ४। ज्ञा३। कु। कु। वि। सं १ अ । द २ । च । अ। ले ६। भ१। सं १। मिश्र ।
६
प६५ अ । प्रा ७७ । सं ४ । ग ३ ति म दे। इं१६ । का१त्र । यो ३ औमि मि का। वे १ स्त्री। क४। ज्ञा २ कु कु । सं १ । द २ च अ । ले २ क श । भ२। स १ मि । सं २। आ २। उ४ ।
भा ३ अशु तत्सासादनानां-गु १सा । जी २ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ ।प६६ । प्रा १०७। सं४। ग३ ति म दे। ई१ २० पं का ११ । यो १३ आहारद्वयाभावात् । वे १ स्त्री। क ४। ज्ञा ३ कु कु वि।सं १ अ । द २ । ले ६ ।
भ १। स १ सा । सं १। आ २ । उ ५ । तत्पर्याप्तानां-१ सा । जी १ संज्ञिपर्याप्तः । प६। प्रा१०। सं४। ग ३ ति म दे । इं१५ का १ । यो १० म ४ व ४ औ १ व १। वे १ स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ, द २ च अ । ले ६। भ१ । स १ सा । सं१। आ १। उ ५। तदपर्याप्तानां-ग
१ सा । जी १ सं अ, १६ अ, प्रा ७ अ, सं४, ग ३ ति म दे, इं१५, का १त्र, यो ३ औमि वैमि का। २५ वे १ स्त्री । क ४ । ज्ञा २ कुकु, सं १ अ, द २ चम, ले २ क शु, भ १, स १ सा, सं १, आ २, उ ४,
भा ३ अशु सम्यग्मिथ्याशां-गु१ मिश्र, जी १,१६, प्रा १०, सं ४, ग ३ ति म दे, इं१५, का१त्र, यो १० म ४ व ४ औ वै। वे१स्त्री , क ४, ज्ञा ३ कुकुवि, सं १ अ, द२ च अ, ले ६, भ१, स १ मित्रं,
१२८
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१०१८
गो० जीवकाण्डे
सं१। आ १। उ ५॥
स्त्रीवेदिअसंयतंगे। गु१ । अ । जी १।५।५६ । प्रा १० । सं ४ । ग३। ति । म । दे। इं१ का १त्र । यो १० । म ४ । व ४ । औ १। वै१। वे १। स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । म। श्रु । अ। सं १। अ। द ३। अ। च । अ। ले ६। भ १।सं ३ । उ । वे । क्षा। सं १।
६
५ आ१। उ६॥
__ स्त्रीवेदिदेशवतिकंग। गु १। दे। जी १। प। प६। प्रा १० । सं ४ । ग २ ति । म । इं १ । पं । का १त्र । यो ९ । म ४। व४। औ १। वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ। सं १ । दे। द ३। च । अ।अ। ले ६। भ१। सं३ । उ। वे । क्षा।सं १ । आ १। उ६॥
भा३ स्त्रीवेदप्रमत्तंगे। ग १। प्र। जी १। ५६। प्रा १०। सं४। ग १ । म । इं१।। १० का १त्रयो९।माव४। औ१।वे । स्त्री।क४। ज्ञा३।म। श्र । अ। स्त्रीवेदिगळप्प संक्लिष्टरोळु मनःपर्ययज्ञानमिल्ल । सं २ । सा छे । व३ । च । अ । अ । ले ६। भ१।
भा३ शु सं३ । उ । वे ।क्षा । सं १ । आ १। उ६॥
स्त्रीवेदि अप्रमत्तंगे । गु १ । अप्र । जी १।१६। प्रा १० । सं३ । आहाररहित । ग १ । म। ई १।। का ११ । यो ९ । म ४। व ४ । औ १ । वे १। स्त्री । क ४ । ज्ञा ३।।श्रु । १५ अ। मनःपर्यायमिल्ल । सं २ । सा। छे।। द३। च । अ । अ। ले ६। भ१। सं३। उ।
भा ३ शुभ वे ।क्षा । सं १ । आ १ । उ६॥
स्त्रीवेदि अपूर्वकरणंगे । गु १। अपूर्व । जी १। प६। प्रा १० । सं३ । ग १। म। ई१। पं। का १।।यो ९ । म४। व ४। औ १। वे १। स्त्री । क ४ । ज्ञा३। म । श्र।
सं १, आ १. उ ५, असंयतानां-गु १ अ। जी १५, १६, प्रा १०, सं ४, ग ३ ति म दे, इं१, का १ त्र, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले ६,
२०
भ १, स ३ उ वे क्षा।सं १, आ १, उ६। देशवतिनां १ दे, जी १,१६, प्रा १०, सं ४, ग २ ति म, इं१५, का१त्र, यो ९ म ४, व ४ औ १, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ दे, द ३ च अ अ, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, आ १, उ६, प्रमत्तानां-गु १ प्र, जी १, ५६, प्रा १०,
सं ४, ग १ म, इं१६, का १त्र, यो ९ म ४ व ४ औ १, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, संक्लिष्ट२५ त्वात् मनःपर्ययो नहि, सं २ सा छे, द ३ च अ अ, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, आ १, उ ६।
अप्रमत्तानां-ग १ अप्र, जी १,५६, प्रा १०, सं ३ आहारसंज्ञा नहि, ग १ म, ई१५ । का१त्र, यो ९, म ४ व ४ औ १, वे १ स्त्री, क४, शा ३ म श्रु अ मनःपर्ययज्ञानं नहि, सं २ सा छे, द ३ च अअ ले ६ ।भ १. स ३ उवे क्षा, सं१, आ १ । उ६अपूर्वकरणानां-गु १ अपू, जी १, १६, प्रा १०,
३ शुभ
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०१९ अ सं २ । सा छे । द ३ च । अ । अ। ले ६। भ१। सं २। उ ।क्षा । सं १ । आ १। उ ६॥
भा१ स्त्रीवेदि अनिवृत्तिकरणंगे । गु १ । अनि । जो १।१६। प्रा १० । सं २। मै। प। ग १ म। इं१। पं । का १ त्र । यो ९ । म ४ । व ४ । औ १ । वे १ । स्त्री । क ४ । ज्ञा ३। म। श्रु । अ । सं २। सा छे । द३। च । अ । अ । ले ६ भ१ । सं २। उ।क्षा । सं १ । आ १ । उ६॥
भा १ वैदिगळ्गे । गु ९। जी ४ । संश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्तकरु । १६।६।५।५। प्रा १०। ५ ७।९।७।सं ४ । ग३। ति । म । दे। इं१।। का १२ । यो १५। वे १। पुं। क ४ ज्ञा ७ । केवलज्ञानरहित । सं५ । अ । दे । सा । छे । प। द ३। च । अ । अ। ले ६ भ२। सं ६ । सं २ । आ २। उ १०॥
'वैदिपर्याप्तकंगे। गु९ । जी २। सं । अ । प६। ५ । प्रा १०।९। सं ४ । ग ३ ति । म । दे। इं१।पं । का १ त्र। यो ११। म ४ व ४। औ १। वै १। आ १। वे १ । पुं। क ४। १० ज्ञा ७ । सं ५। अ। दे । सा। छ। प। द ३। च। अ। ले ६। भ२। सं ६। सं २।
.
आ १। उ १०॥
पुंवेदि अपर्याप्तकंगे। गु ४। मि । सा । अ ।प्र। जी २।१६।५ । प्रा ७।७। सं४ । ग३ । ति । म । दे। इं१ का १। यो ४ । औ मि । वै मि । आ मि । का। वे १। पुं। क ४। ज्ञा ५ । कु । कु। म । श्रु । अ । सं । अ । सा । छ । द ३। च । अ । अ। ले २ क शु भ२। १५
भा६ सं५ । मि सा। उ । वे।क्षा । सं २। आ २ । उ ८॥
सं ३, ग १ म, इं १५, का १ त्र, यो ९ म ४ व ४ औ १, वे १ स्त्री, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं २ सा छे,
अ, ले ६, भ १, स २ उ क्षा, सं १, आ १, उ ६ । अनिवृत्तिकरणानां-१ अनि, जी १,
प ६,प्रा १०, मं २ मै प, ग १ म, ई १५, का१त्र, यो ९ म ४ ४ औ १, वे १ स्त्री। क४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं २ सा छे, द ३ च अ अ, ले ६, भ १, स २ उ क्षा, सं १, आ १, उ ६ । पुदिनां-गु ९, २.
जी ४ संश्यसंज्ञिपर्याप्तापर्याप्ताः, प६६ ५५, प्रा १०७९७, सं४, ग ३ ति म दे, ई १५, का१त्र, यो १५, वे १ पुं, क ४, ज्ञा ७ केवलज्ञानं नहि, सं ५ अ दे सा छे प, द ३ च अ अ, ले ६, भा २, स ६,
सं २, आ २, उ १०। तत्पर्याप्तानां-गु ९, जी २ सं अ, प६५, प्रा १०९। सं४, ग ३ ति म दे, इं१५ का १त्र, यो ११ म ४ व ४ औ व आहा। वे १५ । क ४, ज्ञा ५, सं५ अ दे सा छेप, द ३ च अ अ । ले ६ । भ२। स ६, सं २। आ १ । उ १० । तदपर्याप्तानां-गु ४ मि सा अप्र, जी २, २५
प६५। प्रा ७७ । सं४।ग ३ ति म दे। इं१ का १, यो ४ औमि वैमि आमि का । वे १५, क ४, ज्ञा ५ कु कु मश्रु अ । सं ३ अ सा छे, द ३ च अ अ । ले २ क शु । भ२। स ५मि सा उ वे क्षा, सं २,
भा६ आ २। उ८॥
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१०२०
गो० जीवकाण्डे
पुंवेदिमिथ्या दृष्टिगळ्गे । गु१ मि । जी ४।१६।६। ५। ५ । प्रा १०।७।९। ७। सं ४ । ग३ । ति । म । दे। इं १ । पं । का १ । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे १ । पुं। क ४ । ज्ञा ३ । कु। कु। वि । सं १।अ। द २। ले ६। भ२। सं १ मि । सं २ आ २। उ ५॥
वेदिमिथ्यादृष्टिपर्याप्तकंग। गु १मि। जी २।१६।५ । प्रा १०।९। सं ४ । ग३। ५ ति । म । दे । इं१। का १ । यो १० । म ४ व ४ । औ १। वै१। वे १। पुं। क ४ । ज्ञा३।
कु । कु। वि। सं १ । अ । द २। ले ६। भ२। सं १ मि । सं २। आ १ उ ५ ॥
पुवेदिमिथ्याष्टिअपर्याप्तकंग। गु१। मि । जी २।१६।५।। प्रा७।७। सं ४ । ग३। ति । म । दे । इं १ का १ । यो ३ । औमि । वैमि। का। वेद १ । पुं। क ४ । ज्ञा २। सं १। अ । द २। ले २ क शु। भ २। सं १। मि। सं २ आ २ । उ ४॥
भा १ पुवेदिसासादनप्रभृति प्रथमानिवृत्तिपय्यंत मूलौघभंग वक्तव्यमक्कुमल्लि विशेषमावुर्दे दोर्ड : सर्वत्र पुंवेदमोंदे वक्तव्यमकुं । सासादनमिश्रासंयत गतित्रयं वक्तव्यमक्कुं। देशसंयतंगे गतिद्वयं वक्तव्यमक्कुंमन्यत्र विशेषमिल्ल । नपुंसकवेदिगळगे। गु९ । जी १४ । १६।६।५।५। ४। ४ । प्रा १०।७।९।७। ८।६।७। ५। ६।४। ४ । ३। सं४ । ग ३। न। ति ।म।
इं ५ का ६। यो १३ । आहारद्वयरहित । वे १५ । क ४ ।ज्ञा ६ । कु। कु । वि।म। श्रु । अ। १५ सं ४।अ। दे । सा । छ । द ३ । च । अ । अ। ले ६। भ२। सं ६ । सं २। आ २। उ९॥
नपंसकवेदिपर्याप्तकंगे। गु९ । जी ७।५६ । ५। ४ । प्रा १०। ९।८।७।६। ४ । सं ४ । ग ३ । न। ति । म। इं५। का ६ । यो १०। म ४ व ४ । औ १। १। वे १५ ।
तन्मिथ्यादृशां-गु १मि, जी ४, ५६,६,५, ५, प्रा १०, ७, ९, ७, सं४, ग ३ ति म दे, इं१५, का १ त्र, यो १३ आहारकद्वयं नहि, वे १ पुं, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६, भ २,
स १ मि, सं २, आ २, उ ५। तत्पर्याप्तानां- १ मि, जी २, प ६५, प्रा १०, ९, सं४, ग ९ ति म दे, इं१' का १त्र, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे १पुं, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६, भ २,
स १ मि, सं २, आ २, उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु १ मि, जी २, ५ ६, ५, अ, प्रा ७, ७, सं ४, ग ३ ति म दे, इं १ पं, का १, यो ३ औमि वैमि का, वे १ पुं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २। ले २ क शु, भ २,
भा ६ स १ मि, सं २, आ २, उ ४ । तत्सासादनात् प्रथमानिवृत्तिपयंतं मूलोषः अत्र सर्वत्र पुंवेदो वक्तव्यः २५ सासादनमिश्रासंयतानां गतित्रयं । देशसंयतस्य गतिद्वयं, अन्यत्र विशेषो नास्ति ।।
नपंसकवेदिनांग ९। जी १४।१६।६। ५। ५।४।४ । प्रा१०।७।९।७।८।६ ७।५।६।४ । ४ । ३ । सं ४,ग ३ न ति म, इं ५, का ६ ! यो १३ आहारद्वयाभावात् । वे १ षं, क ४. ज्ञा ६ कु कु वि म श्रु अ, सं ४ अ दे सा छे, द ३ च अ अ, ले ६ भ २, स ६, सं२, आ २, उ९। तत्पर्या
प्तानां-गु ९, जी ७, ५ ६, ५, ४, प्रा १०, ९, ८, ७, ६, ४, सं ४ । ग ३ न ति म, ई ५, का ६, यो
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०२१ क ४ । ज्ञा ६ । कु । कु । वि । म । श्रु । अ । सं ४ । अ । दे। सा। छ । द ३ । च । अ । अले ६ ।
भ २। सं६। सं २। आ१। उ९॥
नपुंसकवेदिअपर्याप्तक। गु३। मि । सा। अ। जो ७।१६।५।४। प्रा ७।७। ६।५।४।३ । सं४।
ग न । ति । म। इं५ का ६। यो३। औमि। वैमि। का।
५
वे १ । षं । क ४ । ज्ञा ५ । कु । कु । म । श्रु । अ। सं १ अ ।द ३ । च । अ । अ। ले २ क शु।
भा ३ अशु भ २ सं। ४। मि। सा । वे । क्षा । सं २ । आ २। उ८॥
नसकवेदिमिथ्यादृष्टिगळ् । गु १ । मि । जी १४ । प ६।६। ५ । ५ । ४ । ४। प्रा १०। ७।९।७।८। ६।७। ५।६। ४।४।३। सं ४ । ग ३ । न । ति । म । इं ५। का ६। यो १३ । आहारकद्वयवज्जित । वे १ । नपुं । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु। वि । सं १। अ। द २। ले ६। भ२ । सं १ । मि । सं २ । आ २ । उ ५ ॥
१०
६
नपुंसकवेदिमिथ्यादृष्टिपर्याप्तकंगे । गु १ । मि । जो ७ । १६ । ५ । ४ । प्रा १० ।९।८ । ७।६। ४। सं४। ग३। न। ति । म। इं५ । का ६ । यो १० । म ४ । व ४ । औ।वै । वे १५ । क ४ ज्ञा ३ । कु । कु । वि । सं १। अ । द २। ले ६ । भ२ । सं १। मि । सं २।
आ १। उ ५॥
नपुंसकमिथ्यादृष्टि अपर्याप्तकंगे। गु १ । मि । जी ७ । प ६ । ५ । ४ । प्रा ७ । ७।६। १५ ५।४।३ । सं ४ । ग३। न । ति । म । इं५ । का ६ । यो ३ । औ मि । वै मि। का ४। वे १ ।
१० म ४ व ४ औ १ १, वे १ षं, क ४, ज्ञा ६ कु कु विम श्रु अ, सं ४ अ दे सा छे, द ३ च अ अ, ले ६ । भ २, स ६, सं २, आ १, उ ९। तदपर्याप्तानां-गु ३ मि सा अ, जी ७, प६५,४ अ, प्रा ७,७,
मि सा वे क्षा, २०
६, ५, ४, ३। ४, प्रा १०, ९, ८, ७, ६, ४, सं ४ । ग ३ न ति म, ई ५, का ६, यो ३ औमि वैमि का, वे १५, क ४,ज्ञा ५ कू कू म श्रु अ, सं १ अ, द ३ अ च अ, ले २ क शुभ २. स ४ मि सा वे क्षा. .
भा ३ अशु सं २, आ २, उ ८ । तन्मिथ्यादृशां-गु १ मि, जी १४, १६, ६, ५, ५, ४, ४, प्रा १०, ७, ९, ७, ८, ६, ७, ५, ६, ४, ४, ३, सं ४, ग ३ न ति म, इं५, का ६, यो १३ आहारद्वयं नाहि, वे १ न, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६, भ २, स १ मि, सं २, आ २ उ ५। तत्पर्याप्तानां- १ मि,
७, प ६, ५, ४, प्रा १०, ९,८७६, ४, सं ४, ग ३ न ति म, ई ५, का ६, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे १ षं, क ४, शा३ कु कु वि, सं १ अ, द २। ले ६। भ २, स १ मि, सं २, आ १, उ५। तद
पर्याप्तानां-गु १ मि, जी ७, प ६, ५, ४, प्रा ७, ७, ६, ५, ४, ३, सं ४, ग ३ न ति म, ई ५, का ६,
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१०२२
गो० जीवकाण्डे । क ४ । ज्ञा २। सं १। अ। द २। ले २ क शु । भ२। सं १ मि । सं २ । आ २। उ ४ ।
भा ३ अशु
नपुंसकसासादनंग। गु१। जी २। प६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग ३।न। ति ।म। इं१। पं । का१त्र। यो १२ । म४। व ४ औ २। वै१। कार्मण का १। वे १ नपुं। क ४ । ज्ञा ३ । कु। कु। वि। सं १ । अ । द २। च । अ। ले ६ । भ१। सं १ । सासा । सं १।
५ आ २। उ ५॥
नपुंसकवेदिसासादनपर्याप्तकंग । गु १ । सा ।। जी १। प६। प्रा १० ।। सं ४ । ग ३ । न । ति । म । इं१। पं। का १। त्र। यो १० । म ४ । व ४। औ १। वै१। वे १ नपुं। क ४। ज्ञा ३। कु। कु। वि। सं १ । अ। द २। ले ६। भ१। सं १। सा । सं १ ।
आ१। उ ५॥
नपुंसकवेदिसासादनापर्याप्तकंग। गु१। सासा । जो १।अ। प६अ। प्रा७ । । सं४।ग २ ति। म । इं १ का १। यो २। औ मि । का। वे नपुं। क ४।ज्ञा २। कु। कु। सं१।।द २। च । अ। ले २ क शु। भ १।सं १। सासा। सं१। आ २। उ४॥
भा ३ अशु
नपुंसकवेदिसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । मिश्र । जी १ । १६। प्रा १० । सं ४ । ग ३ । न। ति । म । इं१। पं । का १२ । यो १० । म ४ । व ४ । औ का । वै का । वे १ नपुं। क ४ । १५ ज्ञा ३ कु । कु। वि । सं १ । अ । द २। च । अ। ले ६। भ १।सं १ मिश्र । सं १ आ १ ।
६
उ५॥
यो ३ औमि वैमि का, वे १ षं, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २, ले २ क, शुभ २, स १ मि, सं २, आ २,
भा ३ अशु उ४, तत्सासादनानां-गु १। जी २, संप अ, प ६, ६, प्रा १०, ७, सं ४, ग ३ न ति म, इं१ पं,
का१त्र, यो १२ म ४ व ४ ओ २ व १ का १, १ ष, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द२च अ, २० ले ६, भ १, स १ सा, सं १, आ २, उ ५, तत्पर्याप्तानां-गु १ सा, जी १ प, प ६, प्रा १०, सं ४,
ग ३ न ति म, ई १ पं, का १ त्र, यो १० म ४ व ४ ओका वैका, वे १ न, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६, भ १, स १ सा, सं १, मा १, उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु १ सा, जी १ अ, प ६ अ ।
प्रा ७ अ, सं४, ग २ ति म, इं १, का १, यो २ औमि का, वे१न, क ४, ज्ञा २ कुकु, सं १ अ, द २ च अ, ले २ क शु । भ १, स १ सा, सं १, आ २,उ ४ । तत्सम्यग्मिथ्यादृष्टीना-१ मिश्र, जीप,
भा ३ अशु २५ ५६, प्रा १०, सं४, ग ३ न ति म, ई १ पं, का १ त्र, यो १० म ४, व ४ ओ १ वै. १, वे १ न, क ४,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०२३ नपुंसकवेदिअसंयतसम्यग्दृष्टिगळरो । गु१। असं । जी २।५।अ। प६।६। प्रा १० । ७। ४।ग३।न ति।म। इं१। का१। यो १२। म ४ व ४। औ का १। वैका १॥ का १ । वे १ नपुं। क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १ । अ। द ३ । च । अ । अ। ले ६ भ१।
सं३। उ।वे । क्षा। सं १ । आ २। उ ६॥
५
नपुंसकवेदि असंयतपर्याप्तकंग्गे । गु१।अ। जी १।प।प६। प्रा १०॥सं ४ । ग३। न । ति । म । इं१ का १ । यो १० । म ४ व ४ । औ१। वै१। वे १। नपुं । क ४ । ज्ञा३। म । श्रु । अ । सं १ अ । द ३। च। अ ।अ। ले ६ भ १ । सं३। उ। वे । क्षा । सं १ ।
आ१। उ६॥
नपंसकवेदिअपर्याप्तासंयतंगे। गु १ । अ। जी १। अ। प६ । अ प्रा ७ । अ । सं४।। ग१।न । इं १ का १ । यो २। वै मि १ का १ । वे १। नपुं। क ४। ज्ञा ३ । सं १।अ। १० द ३। च । अ । अ। ले २ क शु। भ १ ।सं २ । क्षा। वे । सं १ । आ २। उ ६॥
भा १ अशु नपुंसकवेदिदेशवतिगळगे । गु १ । दे। जी १ । प।५ ६ । प्रा १० । सं ४ । ग २। ति म । इं१ का १। यो ९ । म ४ । वा ४ । औ का १। वे १ नपुं। क ४। ज्ञा ३। म। श्रु । अ। सं १। दे। द ३ च । अ । अ। ले ६। भ१। सं ३ उ। वे।क्षा । सं १। आ१। उ६॥
भा ३ शु नपुंसकवेदिप्रमत्तप्रभृतिप्रथमभागानिवृत्तिपय्यंतं स्त्रीवेदिगळ भंगमक्कुं विशेषमावुदे दोडे १५ सव्वंत्र नपंसकवेदमोदे वक्तव्यमक्कुं॥
ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, च अ, ले ६, भ १, स १ मिश्र, सं १,
आ १,उ ५। तदसंयतानां
गु १ अ, जी २५ अ, १६, ६, प्रा १०, ७, सं४, ग ३ न ति म, इं१५, का १ त्र, यो १२ म ४ व ४ औ वं वैमि का, वे१न, क ४, ज्ञा ३ मश्रु अ, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले ६, भ १, स ३,
सं १, आ २, उ ६ । तत्पर्याप्तानां-गु १ अ, जी १५, प ६, प्रा १०, सं ४, ग ३ न ति म । इं १, का १, २० यो १० म ४ व ४ औ १ व १, वे१न, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले ६ । भ १,
स ३ वे क्षा, सं १, आ १, उ६। तदपर्याप्तानां-गु १ अ । जी १ अ । प६अ। प्रा. ७ अ । सं४। ग १ न। इं१ का १। यो २ वैमि का। वे १ न । क ४। ज्ञा ३ । सं १ अ । द ३ च अ अ । ले २ क शु। भ१। स २ वे क्षा। सं१। आ २ । उ६ । देशवतिनां-गु १ दे। जो १ प । प६। भा ३ अशुभ प्रा १०। ४।२ ति म । इं१ का १ । यो ९ म ४ व ४ औ १। वे १ न । क ४। ज्ञा ३ म श्रु ब।सं १ दे । द ३ च अ अ । ले ६ । भ१ । स ३ उ वे क्षा । सं १ । आ१। उ६ । प्रमत्तात् प्रथम
भा३शु भागानिवृत्यंत स्त्रीवेदिवत् किंतु वेदस्थाने नपुंसकवेद एव ।
२५
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५
१०२४
गो० जीवकाण्डे अपगतवेदग्गें । गु ६ । अ। सू। उ। खो। स । अ । जी २।५ ।१६। प्रा १०।४। २।१ । सं १ । परि । ग१। म । इं१। पं । का १३ । यो ११ । म ४ । वा ४ । औ २ का १। वे । क ४ । २।१। लो । ज्ञा ५ । म । श्रु । म । म । के । सं ४ । सा । छ। सू । यथा १द ४। च । अ। अ। के। ले ६ । भ १। सं २। उ । क्षा । सं १ । आ २। उ ९ ॥
भा ६ इंतो द्वितीयभागानिवृत्तिप्रभृति सिद्धपथ्यंत मूलौघभंगमक्कुं । मितु वेदमागणे समाप्तमादुदु॥
कषायानुवाददोळु ओघाळापं मूलौघभंगमक्कुं। विशेषमावुददोडे दशगुणस्थानंगळप्पुवु । क्रोधकषायिगळ्गे । गु ९ । जी १४ । प ६।६।५ । ५ । ४ । ४ । प्रा १०।७।९।७।८।६। ७।५।६। ४ । ४ । ३ । सं ४ । ग ४ । ई ५। का ६। यो १५। वे ३ । क १ । को। ज्ञा ७ । कु। कू। वि । म। श्रु । अ।म। सं ५ अ। दे। सा १। छ । प१। ३।च। अ । अ। ले ६ भ२। सं६। सं२। आ२। उ १०॥
क्रोधकषायिपर्याप्तकर्ग । गु९ । जी प७।१६।५ । ४ । प्रा १०।९।८।७।६।४। सं ४ ।ग ४ । इं५ । का ६ । यो ११ । म ४ । वा ४। औ का १।वै का १। आ का १। वे३।
क १। को। ज्ञा ७। कु। कु। वि । म । श्रु । अ । म । सं ५ । अ । दे । सा। छ। प । व ३। १५ च । अ।अ। ले ६ ।भ २। सं६ । सं २। आ २। उ १०॥
क्रोधकषायिकापर्याप्तकर्गे गु ४ । मि । सा। अ।प्र। जी ७। अप६।५।४।। प्रा ७।७।६।५।४।३। अ । सं ४ । ग४। इं५ का ६ । यो ४ । औमि । वैमि । आमि । का। वे ३। क १ क्रो। ज्ञा५ । कु। कु। म। श्र। अ। सं३। अ। सा। छ। द३। च।
अपगतवेदानां- ६ अनि, सू, उ, क्षी, स, अ, जी २ प अ, प ६, ६,प्रा १०,४,२,१, सं १ २० परि, ग १ म, इं १ पं, का १ त्र, यो ११ म ४ व ४ औ २ का १, वे ०, क ४, ३, २, १ लो । ज्ञा ५ म श्रु अ म के, सं४ सा छे सूय, द ४ च अ अके, ले ६, भ १, स २ उ क्षा, सं १, आ, २, उ९।
भा १ द्वितीयभागानिवृत्तितः सिद्धपर्यतं मूलौघो भवति, वेदमार्गणा गता।
___ कषायानुवादे ओधः तद्यथा-क्रोधिनां-गु ९, जी १४, १६, ६, ५, ५, ४, ४, प्रा १०, ७, ९, ७, ८, ६ ७५६, ४, ४ ३, सं ४, ग ४, ई ५, का ६, यो १५, वे ३, क १ क्रो, ज्ञा ७ कु कु वि म श्रु अ म, सं ५ अ दे सा छे य, द ३ च अअ, ले ६ भ २, स ६, सं २, आ २,उ १०। तत्पर्याप्तानां- ९,
जी ७ प, प ६, ५, ४, प्रा १०, ९, ८, ७, ६, ४, सं ४, ग ४ ई ५, का ६, यो ११, म ४, व ४, ओ वै था, वे ३, क १ क्रो, ज्ञा ७ कु कु विम श्रु अम, सं५ अ दे सा छे प, द ३ च अ अ, ले ६, भ २, स ६,
सं २, आ १, उ १०। तदपर्याप्तानां- ४ मि सा अप्र। जी ७ अ, १६, ५,४ अ, प्रा ७, ७, ६, ५,४, ३ अ, सं४, ग४, इं५, का ६, यो ४ बौमि मि बामि का, वे ३, क१ क्रो, शा ५ कुकु
.
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अ । अ । ले २ क शुभ २ । सं ५ | मि । सा । उ । वे । क्षा । सं २ । आ २ । उ ८ ॥ मा ६
1
क्रोधकषायिमिथ्यादृष्टिगळो । गु १ । मि । जी १४ । १६ । ६ । ५ । ५ । ४ । ४ । प्रा १० ७ । ९ । ७ । ८ । ६ । ७ । ५ । ६ । ४ । ३ । सं ४ । ग ४ । इं ५ । का ६ । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे ३ । क १ को । ज्ञा ३ । कु । कु । वि सं १ । अ । व २ | च । अ । ले ६ | भ२ । ६
सं १ | मि । सं २ । आ २ । उ५ ॥
क्रोधकषायिमिथ्यादृष्टिपर्य्याप्त कंगे ।
गु
९। ८ । ७ । ६ । ४ । सं ४ । ग ४ । इं ५ क १ । क्रो । ज्ञा ३ । कु । कु । वि सं १ ।
सं २ । आ १ । उ ५ ॥
१ । मि । जी ७ । प । प ६
।
५ । ४ । प । प्रा१० ।
वा ४ । औ । वै । वे ३ ।
का ६ । यो १० । म ४ । अ । द२ । च । अ ।
ले
६
१०२५
६
क्रोधकषायिमिथ्यादृष्टच पर्य्याप्त कंगे । गु १ । मि । जो ७ । अ । १६ । ५ । ४ । अ । प्रा ७ । १० ७।६।५।४ । ३ । अ । सं ४ | ग ४ | इं५ । का ६ । यो ३ । औ मि ।। वे मि । का। वे ३ । १क्रो । ज्ञा २ । कु । कु । सं १ । अ । व २ । भ२ । सं १ । मि । सं २ ।
ले २ क शु । भा ६
आ २ । उ ४ ॥
५ । ४ । प्रा १० । ९ । ८ । ७ । ६ । ४ । सं ४ । ग ४ । इं ५ वै १ । वे ३ | क १ क्रो । ज्ञा ३ कु कुवि । सं १ अ । द२च अ ।
क्रोधकषायिसासावनंगे । गु १ । सा । जी २ । प अ । प ६ । ६ । प्रा १० । ७ । सं ४ । ग ४ । इं १ । पं । का १ । त्र । यो १३ । हारद्वयवज्जित । वे ३ । क १ क्रो । ज्ञा ३ । कु । कु । १५ वि । सं १ | अ | व २ । ले ६ । भ १ । सं १ । सासा । सं १ । आ २ । उ५ ॥
६
म श्रु व्य, सं ३ अ सा छे, द ३ च अ अ ले २ क शु, भ २, स ५ मि सा उ वे क्षा, सं २
भा ६
१२९
| भ२ | सं १ | मि ।
आ २, उ ८ । तन्मिथ्यादृशां - गु१मि,
जी
१४, प ६, ६, ५, ५, ४, ४, प्रा १०७९७८६७५ ६ ४ ४ ३, सं ४, ग ४, इं ५, कां ६ । यो १३ आहारद्वयं नहि, वे ३, क १ क्रो, ज्ञा ३ कु कु वि सं १ अ,
द २ च व्ा । ले ६ । भ २ । स १ मि । सं २ । आ २ । उ ५ । तत्पर्याप्तानां - गु १ मि । जी ७ । १६ । २०
भा ६
आ १ । उ ५ । तदपर्याप्तानां - १ मि । जी ७ अ । प ६५४ छ । प्रा७ । ७ । ३ अ । सं ४ । ग ४ । इं५ । का ६ । यो ३ ओमि वैमि का । वे ३ । क १ क्रो । सं १ अ । द२ । ले २ क शुभ २ । स १ मि । सं २ । आ २ । उ४ । तत्सासादनानां भा ६
जी २-अ ६६ । प्रा १० । ७ । सं क १ को । ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ ।
। का ६ । यो १० म ४ व ४ ओ १ ले ६ । भ २ । स १ मि । सं २ | ६
५
६ । ५ । ४।
ज्ञा २ कु कु
४ | ग ४ । ई १ पं । का १ त्र । यो १३ आहारद्वयवज्यं । वे ३ | द२ । ले ६ । भ १ । स १ सा । सं १ । आ १ । उ५ । ६
गु १ सा । २५
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१०२६
गो. जीवकाण्डे क्रोधकषायिसासादनपर्याप्तकंग । गु१। सासा। जो १। ५। ५६। प्रा १० । सं४। ग ४ । इं१।। का१त्र। यो १०। म ४ । वा ४। औ। वै। वे ३ । क १ क्रो। ज्ञा ३। कु। कु। वि । सं १। अ । द २। च । अ। ले ६ भ १ । सं १ । सासा। सं १ । आ १। उ ५॥
२
क्रोधकषायिसासादनापर्याप्तकंगे। गु१। सासा । जी १। अ। ५६। अ प्रा७ । । ५ सं४ ग३। नरकगतिवन्जित । इं१५ का १ । यो ३१ औ मि। वै मि। का। वे३। क१क्रो।ज्ञा २।सं १अ । द२ ले २। भ१।सं । सासा । सं । आ २। उ४॥
भा ६ क्रोधकषायिसम्यग्मिथ्यादृष्टिगळगे। गु १ । मिश्र। जी १। प । प ६ । प्रा १० । सं४ । ग४। इं१।। का १। त्र। यो १०। वे ३ । क १को। ज्ञा३। मिश्र सं १। द२। ले ६।
भ १। सं १ । मिश्र । सं १ । आ १ । उ ५॥ । क्रोषकषायिअसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे। गु १। असं। जी २।५।।१६।६। प्रा १० ।
७। ४।ग४।१।पं । का१त्र । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे ३। क १। क्रो। ज्ञा ३ । म। श्र।अ।सं । अ। द३ च । अ अ ले ६। भ१ सं३। उ। वे। क्षा।सं ।
आ२। उ६॥
क्रोधकषाय असंयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकंगे। गु १ । असं । जी १।५।१६। प्रा १०। १५ सं ४ । ग ४। इं १ पं । का १७। यो १० । वे ३। क १ को।जा ३। म । ७ । अ । सं१।
अ । द ३ च । अ। अ। ले ६ । भ १। सं३। उ। वे । क्षा । सं १ । आ १ । उ ६॥
तत्पर्याप्तानां- १ सा। जी १५। प६ । प्रा १०1 सं४। ग४।१६। का१त्र। यो १० म४ व ४ औ वै। वे ३ । क १ क्रो। ज्ञा ३ कू कू वि। सं १ अ। द२ च अ । ले ६। भ१। स १ सा ।
सं१। आ १। उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु १ सा । जी १ अ । प ६ अ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग ३ नरक२० गतिर्नहि । ई १५ का १ । यो ३ औमि वैमि का। वे ३ । क १ को। ज्ञा २। सं १ अ।
ले २। भ१। स १ सा। सं१। आ २। उ४। सम्यग्मिध्यादेशां--ग १ मिश्रं, जी १५। ६६ ।
प्रा १० । सं४।ग ४। ई१। का१त्र । यो १० औ । वे ३ । क १ क्रो। ज्ञा ३ मिश्राणि । सं१। द २। ले ६ । भ १ । स १ मिश्र । सं १ । आ१। उ ५ । असंयतानां-गु १ अ। जी २१ अ । प६
६ । प्रा १०७। सं४। ग४। इं१५ का १त्र। यो १३ आहारद्वयं नहि। वे ३ । क १ को। ज्ञा २५ ३ मश्रु अ। सं १ अ। द३ च अ अ । ले ६ । भ१। स ३ उ वे क्षा। सं१। बा २। उ६ ।
तत्पर्याप्तानां-गु१ अ । जी १५।१६। प्रा १० । सं४।ग ४१६१५ का १७यो १०। वे ३। क १ क्रो। ज्ञा ३ मश्रु अ । सं १ । द ३ च ब अ । ले ६ । भ१। स ३ उ वे क्षा । स १ । आ १।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०२७ क्रोधकषायिअपर्याप्तासंयतंगे। ग १ । असं । जी १।अ। प६अ। प्रा७ । अ। सं ४ । ग ४। इं१। पं। का १। त्र। यो ३ । औ मि । वै मि । का। वे २।।न। क १ को। ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १। अ। ३। च । अ । । । ले २ क शु। भ१। सं३ । उ।
भा६ वे।क्षा । सं १ । आ २। उ ६ ॥
क्रोधकषायिदेशवतिकंगे। गु १ दे । जी १।प। प६। प्रा १० । सं ४ । ग२। ति ।म। ५ इं १। पं । का १७। यो ९। वे ३ । क १ क्रो। ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १। दे। ३। च । अ । अ। ले ६ । भ१। सं ३ । उ। वे ।क्षा । सं १ । आ १ । उ ६ ।।
भा ६
क्रोधकषायिप्रमत्तसंयतंगे। गु१।प्र। जी २।१६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग १ म । इं१५। का १ त्र। यो ११। म ४ । वा ४। औ १। आ २। वे ३। क १ को। ज्ञा ४ । म । श्रु । अ । म । सं३। सा। छ। प। द ३। ले ६। भ१। सं३। उ । वे । क्षा । सं १। १०
भा३ आ१। उ ७॥
क्रोधकषायाऽप्रमत्तंगे । गु १ अप्र । जी १ । १६ । प्रा १०। सं३ । भ । मै। प। ग १ । म। इं१। पं । का१त्र। यो ९। वे ३ । क १ क्रो। ज्ञा ४ । म । श्रु । अ । म । सं३ । सा। छ। प।द३। च । अ । अ। ले ६। म १। सं३ । उ। वे । क्षा ।सं १ । आ १। उ७॥
भा ३ क्रोधकषायिअपूर्वकरणंगे। गु १ अपू। जी १।५।१६। प्रा १० । सं३। भ । मै। १५ प। ग १।म। इं १ पं । का १ त्र। यो ९ । वे ३ । क १ को । ज्ञा ४ । म । श्रु । अ । म । सं २। सा। छे। व ३। च । अ ।अ। ले ६। भ १।सं २। उ । क्षा। सं १। आ १। उ ७॥
भा१
उ ६ । तदपर्याप्तानां-गु १ अ । जी १ अ । प ६ अ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग ४। ई १५ । का १त्र। यो ३ औमि वैमि का। वे २ पुन । क १ क्रो। ज्ञा ३ म श्र अ । स १अ । द ३ च अअ। ले २ क श ।
भा ६ भ १। स ३ उ वे क्षा । सं १ । आ २। उ ६ । देशव्रतानां-ग१ दे । जी १५ । प ६ । प्रा १० । सं४। २० ग २ ति म । ई १५ । का१त्र । यो ९। वे ३ । क १ क्रो। ज्ञा ३ म श्रु अ । सं १ दे। द ३ च अ अ । ले ६ । भ१ । स ३ उ वे क्षा । सं १ । आ १। उ६ । प्रमत्तानां- १ प्र। जी २ प अ । प ६६ ।
प्रा १०७। ४। ग १ म । १५ । का१त्र। यो ११ म४। ४। औ१। आ २। वे ३ । क १ क्रो। ज्ञा ४ मश्रु अ म । सं ३ सा छेप ।द ३ । ले ६ । भ१ । स ३ उ वे क्षा । सं १ । आ १। उ७।
अप्रमत्तानां-गु १ अप्र । जी १।५ ६ । प्रा १० । सं३ भ मैप । ग १ म । इं१५ का १ । यो ९ । वे ३। २५ क १ क्रो। ज्ञा४ मश्रु अम।सं ३ सा छेपाद ३च अभाले ६ भ१। स ३ उवे क्षा। सं१ । आ१।
उ७। अपूर्वकरणानां-१ अपू। जी ११।१६। प्रा १०।सं ३ भ मै प। ग १ म। इं१५। का१त्र । यो ९। वे ३ । क १ को। ज्ञा ४ मश्रुमम।सं २ सा छे। द ३ च अभ। ले। म १। स २३
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१०२८
गो० जीवकाण्डे क्रोधकषायिप्रथमानिवृत्तिकरणंगे। गु१। अनि । जी १।५।१६। प्रा १० । सं २ । मै । प।ग १ । म । इं१।६। का१त्र। यो ९। वे ३ । क १ को। ज्ञा ४ । म । श्रु । अ । म । सं २। सा। छ। द३। च । अम। ले। भ१।सं २। उ।क्षा। सं१आ । उ७॥
भा १
क्रोधकषायिद्वितीयभागानिवृत्तिकरणंगे। गु १। जो १। प६। प्रा १०। सं १। प। ५ ग १ । म । इं १।पं । का १ त्र। यो ९। वे । क १ को । ज्ञा ४ । म । श्रु । अ । म । सं २।
सा। छ। द३ च । । । ले ६। भ१। सं उ ।क्षा। सं१। आ१। उ ७॥
भा१
ई प्रकारविंदमे मानमायाकषायंगळ्गे मिथ्यादृष्टिप्रभृति अनिवृत्तिकरणपयंतं वक्तव्यमक्कं । विशेषमावुवे दोडे एल्लि एल्लि क्रोधकषायमल्लल्लि मानमायाकषायंगळ वक्तव्यंगळप्पुवु । लोभ
कषायक्कं क्रोधकषायभंगमेयवकुं । विशेषमावुवेंदोडे ओघाळापदोळ वश गुणस्थानंगळेदु वक्तव्य१० मक्कुमारु संयमगळु लोभकषायमोंदे वक्तव्यमक्कु॥
अकषायरुगळगे। गु४ । उ ।क्षी । स । अ। जी २।१६।६। प्रा १० । ४।२।१। सं।०। ग१। म। ई१। पं। कात्र। यो ११ । म ४। वा४। औ २ का १। वे ॥ क ० । ज्ञा ५। म । श्रु । अ । म । के । सं १। यथा । द ४। च । अ । अ । के। ले ६। भ १ ।
भा१ सं २। उ। क्षा । सं १ आ २। उ ९॥
अकषायसामान्यं पेळल्पटुवु। विशेषविंदमुपशांतकषायप्रभृति सिद्धपरमेष्ठिगळ्पय्यंतं सामान्यभंगगळप्पुवु । इंतु कषायमार्गणे समाप्तमादुदु ॥
शानानुवाददोळ ओघालापंगळु मूलौघभंगगळप्पुवु । कुमतिकुश्रुतशानिगळगे। गु२। मि। सा। जी १४ । प६।६।५।५।४।४।प्रा १०।७।९।७।८।६।७।५।६। ४।४।
२.
क्षा । सं१। आ १। उ७। अनिवृत्तिकरणानां प्रथमभागे-१ अनि । जी १५। १६ । प्रा १० । सं२ मैप। ग १ म । ई १५ । का१त्र। यो ९। वे ३ । क १ क्रो। ज्ञा ४ मश्रु अ म । सं २ सा छ। द ३ च अ अ । ले ६, भ१ । स २ उ क्षा। सं १ । आ१। उ७। द्वितीयभागे-ग १ । जी१।
१६। प्रा १० । सं ११ । ग १ म । १५ । का १४ । यो ९। वे ० । क १ को । ज्ञा ४ म श्रु अप। सं २ सा छ । द ३ च म अ । ले ६ । भ१। स २ उ क्षा। सं १ उ७। एवं मानमाययोरपि स्वस्वानि
२५
वृत्तिभागपयंतं वक्तव्यं किंतु क्रोषस्थाने तत्तन्नामकषायः, तथा लोभस्यापि, किंतु गुणस्थानानि दश ।
अकषायिणां-गु ४ उक्षी सा अ, जी २, ५६ ६, प्रा १० ४ २ १, सं ०, ग १ म, ई१ पं, का १त्र, यो ११ म ४ व ४ ओ २ का १, वे ०,क, ज्ञा ५, मश्रु बम के, सं१य,४ म के. ले ६। भ १, स २ उक्षा, सं १, मा २, उ९। इदं सायान्यकथनं विशेषेण उपशांतकषायात्सिद्धपर्यतं
सामान्यभंगो भवति । कषायमार्गणा गता ज्ञानानुवादे ओघालापा भवंति ।
कुमतिकुश्रुताना-गु र मि सा, जी १४, प ६ ६ ५५ ४ ४, प्रा १० ७९७८६७५६ ४४
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०२९ ३।सं ४ । ग ४ । इं५। का ६। यो १३ । वे ३। क ४ । ज्ञा २। सं १ अ । २। ले ६ । भ २।सं २ । मि । सा । सं २ । आ २ । उ ४ ॥
कुमतिकुश्रुतज्ञानिपर्याप्तकग्गें । गु२। मि । सा। जी ७।५।१६।५।४। प्रा १०। ९।८।७।६।४। सं ४ । ग ४। । का ६। यो १० । म ४ । वा ४। औ का १। वे का ११ वे ३ । क ४। ज्ञा २। कु। कु । सं १ । अ। द २। च । अ। ले ६। भ २ । सं २ । मि। ५ सा । सं २ । आ १ । उ ४ ॥
कुमतिकुश्रुतज्ञानिअपर्याप्तकग्गें। गु२। मि । सा। जो ७ । अ।१६।५।४।। प्रा ७।७।६।५। ४।३। सं४। ग ४। इं५ । का ६। यो ३। ओमि । वैमि । का। वे३। क । ज्ञा २। सं १। अ। व२। ले २ क शु। भ२ । सं २। मि । सा । सं २।
भा६ आ २। उ४॥
कुमतिकुश्रुतज्ञानिमिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु १ । मि । जो १४ । १६।६।५।५। ४। ४। प्रा १०।७।९।। ७।८।६।७। ५। ६ । ४। ४ । ३। सं४। ग४। इं५ । का ६। यो १३ । वे ३ । क ४। ज्ञा २। सं १। अ । द २। ले ६। भ२। सं १। मि। सं २। आ २। उ४॥
__कुमतिकुश्रुतज्ञानिपर्याप्त कग्गें । गु २। मि । सा । जी ७ । ५। ५६।५।४। प्रा १०। १५ ९।८।७।६। ४ । सं ४ । ग ४ । ई ५। का ६ । यो १० । म ४ । वा ४ । ओ का १। वे का १। वे ३ क ४ । ज्ञा २ । कु । कु। सं १।म । व २ च । । ले ६। भ२। सं २ मि। सा। सं २ । आ १। उ४॥
३, सं ४ । ग ४, ६५, का ६, यो १३, वे ३, क ४, ज्ञा २, सं १ ब, द २, ले ६, भ २, स २ मि सा,
सं २, आ २, उ ४ । तत्पर्याप्तानां-गु २ मि सा, जी ७ प, प ६५ ४, प्रा १० ९८७ ६ ४, सं ४, ग ४, २० ई ५, का ६, यो १० म ४ व ४ मा १ वै १, वे ३, क ४, ज्ञा २, कु कु, सं १ ब, द २ च ब, ले ६,
भ २, स २ मि सा, सं २, आ १, ४। तदपर्याप्तानां-२ मि सा, जी ७ब, ६५४, प्रा ७७६ ५४३, सं ४, ग ४, इं५, का ६, यो ३ ओमि वैमि का, वे ३, क ४, ज्ञा २, सं १ब, द २ च अ, ले २ क श । म २, स २ मि सा, सं २, आ २, उ४। तन्मिथ्यादृशा-१ मि, जी १४, १६६५५ भा ६ ४४, प्रा १०७९७८६७ ५६ ४४ ३, सं ४, ग ४, ५, का ६, यो १३ पाहावयवयं, वे ३, २५ क ४, मा २ कुकु, सं १ अ, ब २ च ब, ले ६, भ २, स १ मि, सं २, बा २, उ४। तत्पर्याप्तानां
गु १ मि, जी ७ प, प६५४प, प्रा १० ९८७६४, सं ४, ग ४, ५, का, यो १०, म ४ व ४ औ १वे १, वे ३, क ४, ज्ञा २ कुकु, सं १ अ, द २ च अ, ले ६, म २। स १ मि, सं २, बा १,
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गो० जीवकाण्डे
कुमतिकुश्रुतज्ञा निअपर्याप्तक । गु २ । मि । सा । जी ७ । अ । य६ । ५ । ४ । अ । प्रा ७ । ७ । ६ । ५ । ४ । ३ । सं ४ । ग ४ । ई ५ । का ६ । यो ३ । औ मि । वैमि । का। वे ३ । क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ । द२ । ले २ क शु । सं २ | मि । सा । सं २ । भा ६
भ २ ।
आ २ । उ ४ ॥
५
१०३०
कुमतिकुश्रुतज्ञानिमिथ्यादृष्टिगगे। गु १ । मि । जो १४ । प
६ । ६ । ५ । ५ । ४।४।
प्रा १० । ७ । ९ । ७ । ८ । ६ । ७ । ५ । ६ । ४ । ४ । ३ । सं ४ । ग ४ । इं ५ | का ६ । यो १३ । आहारकद्वयरहित । वे ३ । क ४ । ज्ञा २ | कु । कु | अ | द २ | च । अ । ले ६ | ६
। सं १
भ२ ।
सं १ | मि । सं २ । आ २ । उ ४ ॥
कुमतिकुश्रुत ज्ञानिमिथ्या दृष्टिपर्याप्त । गु १ । मि । जी ७ |प | प ६ । ५ । ४ । ५ । १० प्रा १० । ९ । ८ । ७ । ६ । ४ । सं ४ | ग ४ । इं ५ | का ६ । यो १० । म ४ । वा ४ । औ का १ । का १ | ३ | ४ | ज्ञा २ । कु । कु । सं १ । अ । द २ | च । अ ।
ले ६ | भ २ । सं १
६
मि । सं २ । आ १ । उ ४ ॥
कुमतिकुश्रुतज्ञा निमिथ्यादृष्टिअपर्याप्तकर्णे । गु १ । मि । जो ७ । अ । ग ४ । ई ५ । का ६ । यो ३ । औमि अ । द२ । च । अ । ले २ क श । भा ६
अ । प्रा७ । ७ । ६ । ५ । ४ । ३ । सं ४ १५ वे ३ । क ४ । ज्ञा २ । कु । कु । सं १
।
।
मि । सं २ । आ २ । उ ४ ॥
कुमतिकुश्रुतज्ञानिसासादनंगे । गु १ । सासा | जो २ । प । अ । प ६ । ६ । प्रा १० । ७ । सं ४ । ग ४ । ई १ पं । का १ त्र । यो १३ । आहारद्वयवजितं । वे ३ । क ४ । सं १ अ । द२ । च । अ । ले ६ | भ १ । सं १ | सासा । सं १ । आ २ उ४॥
ज्ञा २ । कु । कु ।
६
प ६ । ५।४।
। वैमि । का ।
भ२ । सं १ ।
२०
कुमतिकुश्रुतज्ञानिसासादनपय्र्याप्तकर्णे
गु१ । सासा । जो १ । प । प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग ४ । इं १ । पं । का १ त्र । यो १० । म ४ | वा ४ | औ का । वैका । वे ३ । क ४ । ज्ञा २ । कु । कु । सं १ । अ । द२ । ले ६ । भ १ । सं १ । सासा । सं १ । आ १ । उ ४ ॥
६
४ । तदपर्याप्तानां -गु १ मि, जी ७ अ प ६५४ अ, प्रा ७ ७६५४३, सं ४, ग ४, इं ५ का ६, यो ३ ओमि वैमि का, वे ३, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द २ च अ, ले २ क शु, भ २, स १ मि, सं २,
६
२५ आ २, उ ४ । तत्सासादनानां - गु १ सा, जो २ प अ प ६६, प्रा १०७, सं ४, ग ४, ई १ पं, का १ त्र, यो १३ आहारद्वयवज्यं । वे ३, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द २ च अ, द २ च अ, ले ६, भ १ ।
६
स १ सा, सं १, २, ४ । तत्पर्याप्तानां - १ सा, जी १ प, प ६, प्रा १०, सं ४, ग ४, इं १ पं, का १ त्र, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द २, ले ६, भ १, स १ सा, ६
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०३१ कुमतिकुश्रुतज्ञानिसासादनापर्याप्तकग्नें। गु १ । सास । जी १ । ।१६। अ। प्रा ७ । अ।सं ४ । ग३। ति । म। दे। इं १ । पं । का १ त्र । यो ३ । औ मि । वै मि। का। ३। क ४।ज्ञा २। कु । कु। सं १। अ। द२। ले २ क शु। भ१। सं१। सासा। सं१।
भा६ आ २। उ४॥
विभंगज्ञानिगळ्गे । गु२। मि । सा । जो १५ । प६ । प्रा १० । सं ४ । ग४। इं१। पं। ५ का १३ । यो १० । म ४ । वा ४ । औ का १। वै का १। वे ३। क ४ । ज्ञा १ । विभंग। सं१। अद२ ले ६। भ२। सं २।मि। सा। सं १ । आ१। उ३॥
विभंगजानिमि
ग । गु१। मि । जी१।१।१६। प्रा १० । सं४। ग४ । इं१।६ का १त्र। यो १०। वे ३। क ४। ज्ञा। सं १।।द २। ले ६। भ२। सं १ मि । सं १ आ १। उ३॥
१०
वनगशा
विभंगज्ञानिस
१। सासा। जी१।१।१६। प्रा १०। सं४। ग४। इं। का १ । यो १० । म ४ व ४ औ का १। वै का १। वे ३ । क ४ । ज्ञा १ । विभंग । सं १। अद २ ले ६। भ१।सं १। सासा। सं१। आ१। उ३॥
६
मतिश्रुतज्ञानिगळगे । गु९। जी २। प। अ । प६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग४। इं१ का १ त्र । यो १५ । वे ३ । क ४ । ज्ञा २ । म । श्रु । सं७ । द ३ । च । अ । अ। ले ६। १५ सं३ । उ । वे।क्षा । सं १ । आ २। उ५॥
wwwwww सं १, आ १, उ ४, तदपर्याप्तानां-गु १ सा, जी १ अ, प ६ अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग ३ ति म दे, इं१५, का १त्र, यो ३ औमि व मि का, वे ३, क ४, ज्ञा २ कुकु, सं १ अ, द २, ले २ क शु । भ १, स १ सा,
भा ६ सं १, आ २, उ ४ । विभंगज्ञानिनां-गु २ भि सा, जी १५, १६, प्रा १०, सं४, ग ४, इं१५. का १ त्र, यो १० म ४ व ४ औ १ वै १, वे ३, क ४, ज्ञा १ विभंगः । सं १ अ, द २, ले ६ । भ २, २०
स २ मि सा, स १, १, उ ३ वि च अ। तन्मिथ्यादृशां-गु १ मि, जी १ प, प ६, प्रा १०, सं ४, ग ४, ई १ पं, का १ त्र, यो १०, वे ३, क ४, ज्ञा १, सं १ अ, द २, ले ६, भ २, स १ मि, सं १, आ
१,उ ३ । तत्सासादनानां- १ सा, जी १ प, प ६, प्रा १०, सं ४, ग ४, इं१, का १, यो १०, म ४ व ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा १ विभंगः । सं १ अ, द २, ले ६ । भ १, स १ सा, सं १, आ १, उ३।
मतिश्रुतानां-गु ९, जी २ प अ । प ६६, प्रा १०७, सं ४, ग ४ । इं१। का१त्र, यो १५ । वे ३। २५ क ४ । ज्ञा २ मश्रु । सं७। द ३ च अ अ । ले ६ । भ १। स ३ उ वे क्षा। सं १, आ २। उ ५।
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१०३२
गो. जीवकामे मतिश्रुतज्ञानिपप्तिकग्गें । गु९ जी १। प। ५६। प्रा १० । सं ४ । ग ४। इं१। का १२ । यो ११ । म ४। व४। औ का १। वै का १। आ का १। ३।४। ज्ञा२। म। श्रु। सं७। ३। च । । । ले ६, भ१। सं ३। उ। । क्षा। सं १। आ १। उ ५॥
मतिश्रुतजानिअपर्याप्रकग्ग। गु २। असंयत । प्रमत्त । जो १ । अ। ५६ । प्रा७ । सं ४ । ग ४ । इं१।६। का १ । यो ४ । औ मि । वै मि। आ मि । कार्मण । वे २। पुं। नपुं। क ४ । जा २ । म । श्रु । सं ३ । ।सा । छ । द ३ । च । अ । अ। ले २ क शु। भ१।
भा ६ सं३ । उ । वे । क्षा । सं १। आ २। उ ५॥
मतिश्रुतजानिअसंयतग्गें । गु १ । असं । जी २।५ । । ५६। ६ । प्रा १०। ७। सं ४ । १० ग ४।६१।। का १ । । । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे ३ क ४ । ज्ञा २ । म । श्रु ।सं १।
अ। ३। च । । । ले ६। भ १। सं३ । उ। वे।क्षा । सं १। आ २। उ ५॥
६
मतिश्रुतज्ञानिपर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टिगळगे। गु१। अ। जी १।५।१६। प्रा १० । सं ४ । ग ४। इं१।। का ११ । यो १०। म ४ । वा ४ । औ का १। वैका १। वे ३। क ४ । ज्ञा २ । म । श्रु । सं १ । अ । व ३ । च । । । ले ६। भ१ । सं ३ । उ । वे । क्षा ।
१५ सं १। आ१। उ५॥
मतिश्रुतज्ञानिअपर्याप्तासंयतग्गें। गु१। अ। जो १। अ । प६। म। प्रा ७ । म । सं४। ग४। इं१ का १। यो ३ औ मि | वै मि । का। वे २। । नपं । क ४। ज्ञा २। म। श्रु । सं १ | अ व ३ । च । । । ले २ क शु। भ १ । सं ३ । उ। वे । क्षा । सं १ ।
भा६ आ २ उ५॥
२० तत्पर्याप्तानां-गु९। जी १५ । १६ । प्रा १० । सं ४ । ग४। इं१ का १। यो ११ म ४ व ४ औ
वैआ। वे ३ । क४। ज्ञा २ मश्र । स ७।द ३ च अब। ले६। भ१। स ३ उ वे क्षा। सं१।
बा १ । उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु २ असंयतः प्रमत्तः । जी १ ।१६। प्रा ७। सं ४ । ग ४, इं१५। का ११ । यो ४ बौमि वैमि बामि का। वे २jन । क ४। ज्ञा २ म श्रु । स ३ असा छ । द ३ च व व। ले २ क शु। भ१। स ३ उ वे क्षा। सं१। बा २ । उ ५। तदसंयतानां-गु १अ । जी २
भा६ २५ प अ । प ६६। प्रा १०७ । सं४। ग ४। इं१५ । का १ त्र। यो १३ आहारद्वयं नहि । वे ३ ।
क ४, ज्ञा २ म श्रु, सं १ अ। द ३ च अब, ले ६, भ १ स ३ उ वे क्षा, सं १, ब २, उ ५।
तत्पर्याप्तानां-गु १ अ, जी १ प, ६, प्रा १०, सं ४, ग ४, इं१५, का १त्र, यो १०, म ४, व ४, औ १, वै १, वे ३, क ४, ज्ञा २, म श्रु, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १,
३०
आ १। उ ५ । तदपर्याप्तानां-१ अ । जी १ अ। १६ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग४। इं१६। का १ । यो ३ पौमि वैमि का । वे २ पुंन । क ४। ज्ञा २ म श्रु । सं १ । द ३ च अ अ । ले २ क शु ।
भा६
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०३३ देशप्रतिप्रभृति क्षीणकषायपयंतं मूलौघभंगमक्कुं। विशेषमावुददोडे आभिनिबोधश्रुतज्ञानंगळगेदु वक्तव्यमक्कुं । अवधिज्ञानक्कमी प्रकारमेयकं । विशेषमावुदे दोडे अवधिज्ञानमो देयेंदु वक्तव्यमक्कं । मतिश्रुतज्ञानंगळेरडं निरुद्धंगळा गुत्तिरलु मतिजानश्रुतज्ञानद्वयमुं मतिश्रुतावधिज्ञानत्रय, मतिश्रुतमनःपर्ययत्रयमुं मतिश्रुतावधिमनःपर्ययज्ञानचतुष्टयमुमप्पुवु ।
मनःपर्ययज्ञानिगळगे। गु ७ । प्रअ । अ। अ। सू। उ। क्षी। जी १।५।१६। प्रा १० । सं ४ । ग १ म । इं१। पं । का ११त्र । यो ९ । वे १ | पुं। क ४ । ज्ञा १ । म । सं४ । सा। छ। सू। यथा। मनःपर्ययज्ञानिगळ्ग परिहारविशुद्धिसंयममिल्ल । द ३। च । अ । अ । ले ६। भ१ । सं३। उ। वे। क्षा। सं १ । आ १ । उ ४। म । च । अ । अ॥ इंतीक्षीणभा३ कषायपथ्यंतं नडसल्पडुवुदु ॥
५
केवलज्ञानिगळ्गे । गु२। सयोग । अयोग । जी २। प।।१६। ६ । प्रा ४ । २। १। १० सं। ० । ग १। म । इं१। पं। का १॥ त्र। यो ७। म २। व२। औ२ का १। वे । क ०। ज्ञा १। के । सं १। यथा । द १ के। ले ६। भ १ । सं १क्षा । सं। ०। आ २। उ२॥
भा१
सयोगाऽयोगिसिद्धपरमेष्ठिगळ्गे मूलौघमे वक्तव्यमक्कुं । इंतु ज्ञानमार्गणे समाप्तमादुदु ॥
संयमानुवाददोळु । गु ९ । प्र।अ।अ। अ। सू । उ। क्षो । स । अ । जी २। प। अ। ५६।६। प्रा १०।७।४।२।१। सं४।ग १ म । ई १।का १७ । यो १३ । वै २। १५ द्वयरहितं । वे ३। क ४। ज्ञा ५। म। श्रु । अ। म। के । सं ५ । सा। छ। प । सू। यथा । द ४। ले ६। भ१ ।सं३ । उ। वे।क्षा। सं १। आ२। उ ९॥
भा३
प्रमत्तसंयतंग । गु१।प्र। जी। प।अ। प६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग१। म । इं१। पं। का१त्र। यो ११। म ४३ वा ४ औ का १। आ २। वे ३। क४। ज्ञा ४ ।
भ १ । स ३ उ वे क्षा। सं १ । आ २ । उ ५ । देशवतात् क्षीणकषायपयंतं मूलौघभंगो भवति किंतु ज्ञान- २० स्थाने मतिश्रुते वक्तव्ये । अवधेरपि एवं, ज्ञानस्थाने अवधिर्वक्तव्यः । वा मतिश्रुते निरुद्धे । मतिश्रुतावधित्रयं वा मतिश्रुतमनःपर्ययत्रयं वा मतिश्रुतावधिमनःपर्ययचतुष्टयं वक्तव्यं ।
मनःपर्ययज्ञानिनां-गु ७ प्र अ अ अ सु उ क्षी। जी १५ । प ६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ म। इं १५। का १ त्र । यो ९ । वे १ । क ४। ज्ञा १ म, सं ४ सा छे सू य परिहारविशुद्धिर्नहि, द ३ च ज अ, ले ६ । भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १ । आ १ । उ ४ । सयोगायोगसिद्धेषु मूलौघः, ज्ञानमार्गणा गता, २५
__ संयमानुवादे-गु ९ प्र अ अ अ मू उक्षी स अ । जी २ प अ । प६६। प्रा १०।७।४।२। १। सं ४ । ग १ म। इं१पं । का१त्र । यो १३ वैक्रियिकद्वयं नहि। वे ३। क ४। ज्ञा ५ म श्रु अ म के।सं ५ सा छे प सू य । द ४ । ले ६ । भ१ । स ३ उ वे क्षा। सं १ । आ २ । उ ९ । प्रमत्तानां
१प्र। जी २१अप६६।१०।७।४। म १ म । इं१५, का १४ायो ११ म ४४ औ
१३०
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१०३४
गो० जीवकाण्डे म।श्रु । अ । म । सं ३ । सा। छ । प। व ३। च । अ । अ। ले ६ भ१।सं ३। उ। वे।
भा३ क्षा। सं १। आ१। उ७॥
__ अप्रमत्तसंयतंगे। ग१। अ। जी १। ५।१६। प्रा १० । सं ३ । आहारसंज्ञारहित । ग १ म । इं १ । पं । का १ त्र । यो ९ । वे ३। क ४ । ज्ञान ४ । म । श्रु । अ। म । सं ३। सा। ५ छ। ५। द ३। ले ६। भ १ । सं३। उ। वे । क्षा । सं १ । आ १ । उ७॥
भा३ अपूर्वकरणप्रभृति अयोगिकेवलिपय्यंतं मूलौघभंगमक्क । सामायिकसंयतंगे। गु ४ ।प्र। अ । अ । अ । जो २।५।।१६।६। प्रा १०१७। सं ४ । ग १। म । ई १। पं । का १ त्र। यो ११ । म ४ । वा ४ । औ का १। आ २। वे ३। क ४ । ज्ञा ४ । म । श्रु। अ । म । सं १ । सामायिक । द३। च । अ । अ। ले ६ । भ १ । सं ३ । उ । वे । क्षा। सं १ । आ १। उ७॥
भा३ अनिवृत्तिपय्यंतमूलौघभंगमक्कुं । छेदोपस्थापनसंयमक्कुमी प्रकारमे वक्तव्यमक्कुं॥
परिहारविशुद्धिसंयमिगळ्गे गु २।प्र।अ। जी १।१६। प्रा १० । सं ४। ग १। म। इं१५ । का१त्र । यो ९ । वे १ पुं। क ४। ज्ञा ३ । म । श्रु। अ। सं १ । परिहारविशुद्धि । व ३ । च । अ। अ। ले ६। भ १ । सं २। वे । क्षा। सं १ । आ १ । उ६॥
भा३ प्रमताप्रमत्तपरिहारविशुद्धिसंयतरुगळ्गे पेळल्पडुवल्लि ओघभंगमेयक्कुं। सूक्ष्मसांपराय१५ संयमक्क मूलौघभंगमेयक्कुं । यथाख्यातसंयमिगळ्गे । गु ४ । उ । क्षो । स । अ । जो २१ प। अ।
५६।६। प्रा १०। ४।२।१। सं । ०। १।म । इं पं । का १ त्र । यो ११ । म ४ । वा ४ ।
१ आ २ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ मश्रु अ म । सं ३ सा छे प। द ३ च अ अ । ले ६ । भ१।
स ३
उ वे क्षा । सं१। आ १ । उ ७ । अप्रमत्तानां-१ अप्र । जी १५ । १६ । प्रा १० । सं३ । आहारसंज्ञा नहि । ग १ म । इं१६। का १ त्र। यो ९ । वे ३। क ४। ज्ञा ४ म श्रु अ म । सं ३ सा छेप ।
३। ले६ । भ१। स ३ उवेक्षा । सं। आ १। उ७ । अपूर्वकरणादयोगिपर्यतं मलौघभंगो भवति ।
२० द ३ । ले ६।
सामायिकसंयतानां-गु ४ प्र अ अ अ । जी २५ अ । प६६। प्रा १० । ७। सं४। ग १ म । इं१५। का१त्र। यो ११ । म ४ व ४औ १ आ २। वे ३ । क४। ज्ञा ४ म श्रु अम । सं १ सामयिकं । द ३ च अ अ । ले ६ । भ१। स ३ उ वे क्षा। सं १। आ १ । उ ७ । अनिवृत्तिपयंतं
मलौघभंगो भवति । छेदोपस्थापनसंयतानामप्येवं ।
परिहारविशुद्धिसंयमिनां-२ प्र अ । जी १। ५६ । प्रा १० । सं४। ग१ म। इं१५। का १त्र । यो ९। वे१पुं। क ४। ज्ञा ३ म श्रु अ । सं १ परि। द ३ च अ अ । ले ६। भ१।
२५
स २ वे क्षा । सं १ । आ १। उ६। तत्प्रमत्ताप्रमत्तानां सूक्ष्मसांपरायसंयतानां च मूलौघभंगः ।
यथाख्यातसंयमिनां- ४ उक्षी स अ । जी २५। अप६६ । प्रा १०।४।२।१।सं ० ।
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भा१
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०३५ औ२। का १। वे ० । क । ज्ञा ५ । म। श्रु । अ। म । के। सं १ । यथा । व ४ । ले ६ । भ १ । सं २। उ ।क्षा । सं १। आ २। उ९॥
उपशांतकषायप्रभृति अयोगिकेवलिपय्यंतं मूलौघभंगमक्कुं। देशसंयमक्के ओघभंगमेयक्कुं।
असंयमरुगळ्गे । गु४। मि। सा। मि। अ। जी १४। १६ । ६। ५ । ५। ४।४। प्रा १०।७।९।७।८।६।७।५।६।४।४।३ । सं ४।ग ४ । इं५ । का ६ । यो १३। आहारकद्वयरहित । वे३। क ४। ज्ञा ६ । कु। कु। वि। म। श्रु। अ । सं १। अ । द३। ले ६। भ२। सं ६ । सं २। आ २। उ ९॥
५
असंयमिपर्याप्तकगें । गु४ । मि । सा। मि । अ । जी ७ । प । १६ । ५।४ । प्रा १० । ९।८।७।६।४। सं ४। ग ४ । इं५ । का ६। यो १० । म ४। वा ४ । औ का। वै का। वे ३ । क ४ । ज्ञा ६ । कु। कु। वि । म । श्रु । अ। सं १।अ । व३ । ले ६। भ२। सं ६। १० मि । सा। मि । उ । वे । क्षा । सं २ । आ १। उ९॥
असंयमि अपर्याप्तकंगे । ग३। मि । सा । अ । जी ७ ।।१६।५ । ४ । अ । प्रा ७।७। 1६।५ । ४।३। सं ४ । ग ४ । ई ५। का ६ । यो ३। औ मि । वै मि । का। वे ३ । क ४। ज्ञा ५ । कु। कु । म । श्रु । अ । सं १ अ । द ३। च । अ । अ। ले २ क शु। भ२। सं ५। मि। सा । उ । वे । क्षा । सं २ । मा २। उ ८॥
मिथ्यादृष्टिप्रभृति असंयतसम्यग्दृष्टिपथ्यंत मूलौघभंगमक्कं। इंतु संयममाणे समातमादुदु॥
भा६
ग १ म । इं१५ । का ११ । यो ११ म ४ व ४ औ २ का १ । वे ० । क० । सा ५म श्रु अ म के। सं १ य । द ४। ले ६ । भ १। स २ उक्षा। सं १। आ २। उ ९ । उपशातकषायादयोगपयंतं देश
संयतानां च मूलौघभंगः ।
असंयतानां-गु ४ मि सा मि अ । जी १४।१६।६।५।५।४।४। प्रा १० । ७।९। ७।८।६।७।५।६ । ४ । ४ । ३ । सं ४ । इं५ । का ६ । यो १३ आहारद्वयं नहि । वे ३ । क ४। ज्ञा ६ कु कु विम श्रु अ । सं १ अ । द ३ । ले ६ । भ २ । स ६ । सं२। आ २ । उ ९ । तत्पर्याप्तानां
गु ४ मि सा मि अ । जी ७। ६।५।४। प्रा १०।९।८।७।६। ४ । सं४। ग ४। इं५ । का ६ । यो १० म ४ व ४ औ १वै १। वे ३ । क ४। ज्ञा ६ कु कु वि म श्रु अ । सं १ अ। द ३ । ले ६। भ२। स ६ मि सा मि उ वे क्षा। सं२। आ १। उ९। तदपर्याप्तानां-३ मि सा अ।
२५
जी ७ । प६।५।४। प्रा७।७।६। ५।४।३। सं४ । ग४। ६५। का ६। यो ३ . औमि वैमि का। वे ३ क ४। ज्ञा ५ कूकूमश्रु ब। सं १ब, द ३ च अअ, ले २ क शु। भ २,
भा ६ स ५ मि सा उ वे क्षा, सं २, बा २, उ८। मिथ्यादष्टितोऽसंयतांतं मलौषभंगो भवति, संयममार्गणा गता। दर्शनानुवादे ओघालापो भवति
३०
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१०३६
गो० जीवकाण्डे
दर्शनानुवाददोळु ओघाळापं मूलौघभंगमक्कुं । चक्षुदर्शनिगळगे । गु १२ । जो ६ । सं अच
२२२
प ६।६।५ । यो १५ । वे ३ दर्श १ । च ले ६
।
५। प्रा १० । ७ । ९ । ७ । ८ । ६ सं ४ । ग ४ । इं २ । पं । च । का १ त्र । क ४ । ज्ञा ७ । केवलज्ञानरहित । सं ७ । अ । दे । सा । छे । प । सू । यथा । भ २ । सं ६ । सं २ । आ २ । उ ८ ॥
६
चक्षुदर्शनपर्य्याप्तकं । गु १२ । जो ३
।
।
ग ४ । इं २ पं च । का १ त्र । यो ११ । म ४ ७ । । कुवि । म । श्रु । अ । म । सं ७ । ले ६ | भ २ । सं ६ | मि । सा । मि । उ । वे । क्षा । सं २ । आ १ । उ ८ ॥
अ ।
६
सं ।
अ । च । प ६ । ५ । प्रा १० । ९ । ८ । सं ४ ।
१ १ १
वा ४
। औ का । वै का । आ का । वे ३ | क ४ । दे। सा । छे । प । सू ।
यथा । द १ | च।
१ १ १
३,
चक्षुर्द्दर्शनिअपर्याप्तकं । । गु ४ । मि । सा । अ । प्र । जी ३ ।
१० प्रा ७ । ७ । ६ । अ । सं ४ । ग ४ । इं २ । पं । का १ त्र । यो ४ । औ मि । वैमि । आमि । का। ३ | क४ । ज्ञा ५ | कुं । कु । म । श्रु । अ । सं ३ । अ । सा । छे । द १ च । ले २ क शु । भ २ । भा ६
५ ।। सा । उ । वे । क्षा । सं २ । आ २ । उ६ ॥
चक्षुर्द्दर्शनिमिथ्या दृष्टिगो । गु १ मि । जी ६
।
संअ च प ६ । ६ । ५ ।५ । प्रा १० ॥ २२२
७ । ९ । ७ । ८ । ६ । सं ४ । ग ४ | ई २ | पं । च । का १ त्र । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे ३ । १५ क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि १ अ । व १ । च । ले ६ भ२ । सं १ | मि । सं २
सं
आ २ | उ४ ॥
चक्षुर्दर्शनिनां - १२, जी ६, संअ च । प ६, ६, ५, ५, प्रा १०, ७, ९, ७, ८, ६, सं ४,
२२२
गं ४ । इं २ च, पं, का १ त्र, यो १५, वे ३, क ४, ज्ञा ७, कु कु वि म श्रु अ म, सं ७ अ, दे, सा, छे, प, सू, य । द १ चक्षुः, ले ६ । भ २ । स ६ मि सामि उ वे क्षा, सं २, आ २, सं ८ । तत्पर्याप्तानां६ २० गु १२, जी ३ सं अच, प ६, ५, ४११,
प्रा १०, ९, ८, सं ४, ग ४ । इं २ पंच, का १ त्र, यो ११ म ४ व १, वे ३, क ४, ज्ञा ७ कु कु विम श्रु अम, सं ७ अ दे सा छे प सू य, द १ च । ले ६ |
६
सं अ च प ६ । ५ । अ । १ १ १
जी ३
भ २ । स ६ मिसामि उ वे क्षा, सं २ । आ १ । उ ८ । तदपर्याप्तानां - ४ मि, सा, अ, प्र 1 ६, ५, अ, पा ७७, ६ अ, सं ४, ग ४, इ २ पं च । का १ त्र, यो ४ ओमि वैमि आमि का,
४, ज्ञा ५ कु कु म श्रु अ । सं ३ अ, सा छेद १ च । ले २ क शुभ २, स५ मिसा उ वे क्षा, भा ६
२५ सं २ । २ । उ ६ । तन्मिथ्यादृशां - गु १ मि । जो ६ सं अ च । प ६, ६, ५, ५, प्रा १०, ७, ९,
२२२
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________________
कर्णावृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
१०३७
चक्षुर्द्दर्शनिमिथ्यादृष्टिपर्य्याप्त कग्र्गे । गु १ । जी ३ । संपं । अप । चप । १६ । ५ । प्रा १० । ९ । ८ । सं ४ । ग ४ | ई २ | पं । च । का १ त्र । यो १० | म ४ । व ४१ औ का । वै का । वे ३ ॥ क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि | सं १ | अ | द १ । च ले ६ भ २ । सं १ | मि । सं२ ॥
६
आ १ । उ ४ ॥
चक्षुर्द्दनिअपर्याप्त कमिथ्यादृष्टिगळगे । गु १ मि । जी
३
1
। सं । अ । अ । अ । च । अ । प का १ त्र । यो ३ औमि । वैमि ।
२ । सं १ मि । सं २ ।
प६ | ५ | अ | प्रा७ । ७ । ६ । सं ४ | ग ४ । इं २ का । वे ३ । क ४ । ज्ञा २ । कु । कु । सं । अ । द
१
१
च । ले २ क शुभ
भा ६
आ २ । उ ३ ॥
चक्षुर्द्दर्शनसासादनप्रभृति क्षीणकषायपध्यंतं मूलौघभंगमक्कुं । विशेषमावुदे दोर्ड चक्षु
दर्शन दितु वक्तव्यमकुं ।
| पं । च ।
अचक्षुदर्शनिगगे । गु १२ । जी १४ । । १ ६
।
७ । ८ । ६ । ७ । ५ । ६ । ४ । ४ । ३ । सं ४ | ग ४ । ज्ञा७ । केवलरहितं । सं ७ । अ । दे । सा । छे । प । सू ।
६ । ५ । ५ । ४ । ४ । प्रा १० । ७ । ९ । इं ५ | का ६ । यो १५ । वे ३ | क ४ | यथा । द १ । अ । ले ६ | भ २ । सं ६ ।
६
सं २ । आ २ । उ ८ ॥
७, ८, ६, सं ४, ग ४, ई २ पंच, का १ त्र, यो १३ आहारकद्वयं नहि, वे ३, क ४, ज्ञा ३, कु कु वि, सं १, द १ च । ले ६ । २ । स १ मि, सं २, आ २, उ४ । तत्पर्याप्तानां --गु १ मि, जो ३ संप,
६
अचक्षुर्द्दर्शनपर्याप्त
। गु १२ । जी ७ । १
।
१६ । ५ । ४ । प्रा १०।९। ८। ७ । १५
६ । ४ । सं ४ । ग ४ । इं ५ | का ६ । यो ११ । म ४ । वा ४ । औ का । वँ का । आ का । वे ३ | क ४ । ज्ञा ७ । केवलज्ञानरहित । सं ७ । व १ अचक्षु | ले ६ | म २ | सं६ । सं २ । आ १ । उ ८ ॥
६
गु १ मि, जी ३ संग अअ चअ प ६५, प्रा ७, ७, ६, सं ४, ग ४, इं २ पंच, का १ त्र, यो ३ ओमि वैमि का, वे ३, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द १ च ले २ क शु । भ २, स १ मि सं २, आ २, उ३ | भा ६
५
अप, चप, प ६, ५, प्रा १०, ९, ८, सं ४, ग ४, ई २ पंच, का १ त्र । यो १० म ४ व ४ औ १ व १, २० वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि सं १ अ, द १ च । ले ६ । भ २, स १ मि, सं २ । आ १ । उ ४ । तदपर्याप्तानां -
६
१०
६, २, ६, सं २, आ २, उ८ । तत्पर्याप्तानां --गु १२, जी ७ प, प ६, ५, ४, प्र १०, ९, ८,
६
७, ६, ४, स ४, ग ४, इं ५ का ६, यो ११ म ४ व ४ ओ १ वे १ आ १, वे ३ क ४, ज्ञा ७ केवलं
तत्सासादनात् क्षीणकषायांतं मूलौषभंग: किंतु दर्शनस्थाने एकं चक्षुर्दर्शनमेव वक्तव्यं ।
अचक्षुर्दर्शनिनां—गु १२, जी १४, १६६५५४४, प्रा १०७, ९७, ८, ६, ७, ५, ६, ४, २५ ३, सं ४, ग ४, इं ५, का ६, यो १५, वे ३, क ४, ज्ञा ७ केवलं नहि, सं ७ अ दे सा छेप सू य, द १ अ,
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________________
१०३८
गो० जीवकाण्डे अचक्षुद्देर्शनिअपर्याप्तकर्णे । गु ४ मि । सासा। अ ।प्र। जी ७। अ । प६।५।४।३ अ। प्रा ७।७।६। ५। ४।३। सं४।ग ४ । इं५ । का ६। यो ४ । औ मि वै मि। आ मि । का। वे ३ । क ४ । ज्ञा ५ । कु । कु। म । श्रु। अ। सं३। अ। सा। छ। द १। अच । ले २ क शु । भ २ । सं५ । मि । सा। उ। वे । क्षा । सं २। आ २। उ ६ ।।
भा६
मथ्या
१। मि । जो १४ । प६।६। ५। ५।४।४। प्रा १०।७।९।७।८।६।७।५।६।४। ४।३। सं ४। ग ४। इं५। का ६ । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि । सं १ । अ। द १। अच ले ६ । भ२। सं १ मि । सं २। आ २। उ ४ ॥
अचक्षुद्देर्शनिमिथ्यादृष्टिपर्याप्तकगणे । गु१। मि। जी ७।५।१६।५।४। प्रा १०। १० ९।८।७।६। ४ । सं ४ । ग ४ । ई ५ । का ६ । यो १० । म ४ । वा ४। औ का। वे का।
वे ३। क ४। ज्ञा ३ । कु । कु । वि । सं १। अ। द १ अ च । ले ६। भ २ । सं १ मि । सं २। आ १। उ ४॥
अचक्षुद्देशनिमिथ्यादृष्टयपर्याप्तकग्गें । गु १ मि । जी ७ । अ। ५६। ५। ४ । अप्रा ७। ७।६।५।४।३। सं ४ । ग ४ । ई ५। का ६ । यो ३। औ मि । वै मि। का। वे ३। १५ क ४ । ज्ञा २। कु। कु । सं १। अ । व १। अच । ले २ क शु। भ२। सं १ मि । सं २।
भा६ आ २। उ३॥
अचक्षुद्देशनिसासादनप्रभृतिक्षीणकषायपय्यंत अचक्षु निगळगेदु वक्तव्यमवर्कु । नहि, सं ७, द १ अ, ले ६ । भ २, स ६, सं २, आ १, उ ८। तदपर्याप्तानां-गु ४ मि सा अ प, जी
२०
७ अ, प ६, ५,४ अ, प्रा ७, ७, ६, ५, ४, ३, सं४, ग ४, ५, का ६, यो ४ औमि मि आमि का, वे ३, क ४,ज्ञा ५, कु कु म श्रु अ, सं ३ अ, सा, छे । द १ अ, ले २ क शु । म २, स ५ मि सा उ वे
भा ६ क्षा, सं २, आ २, उ ६ । तन्मिथ्यादृशां-गु १ मि, जी १४, प ६, ६, ५, ५, ४, ४, प्रा १०, ७, ९, ७,८,६,७, ५, ६, ४, ४, ३, सं ४, ग ४ । इं५, का ६, यो १३ बाहारद्वयं नहि, वे ३, क ४, ज्ञा ३, कु कु वि, सं १ अ, द १ अ, ले ६, भ २, स १ मि, सं २, आ २, उ ४ । तत्पर्याप्तानां- १ मि ।
जी ७प, प ६ । ५, ४, प्रा १०, ९,८, ७, ६, ४, सं ४, ग ४, ६५, का ६, यो १. म ४ व ४ औ १ २५ वै १, वे ३ । क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द १ अ, ले ६। म २, स १ मि, सं २, आ १, उ४।
तदपर्याप्तानां- १ मि, जी ७ अ, प ६,५,४ अ, प्रा ७, ७, ६,५,४,३, सं ४, ग ४, ५, का ६, यो ३ औमि वैमि का, वे ३,क४, ज्ञा २ कूक, सं १ अ, द १ अ, ले २कश । म २, स १ मि, सं २,
आ २ उ ३ । तत्सासादनात् क्षीणकषायांतं यथायोग्यं योज्यं ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०३९ अवधिदर्शनिगळगे। गु९। जी २।प। अ। प६। ६ । प्रा १०।७। सं ४ । ग ४ । इं १ । पं । का १ त्र । यो १५ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । म। श्रु । अ । म । सं ७॥ व १। अवधिदर्शन। ले ६। भ१। सं३। उवेक्षा । सं १। आ २। उ ५॥
__ अवधिदर्शनिपर्याप्तकर्ग ।। गु ९ । जी १ प । १६ । प्रा १० । सं ४ ।ग ४ । ई१।।। का १७ । यो ११ । म ४ । व ४ । औ का। वै का। आ का । वे ३। क ४ । ज्ञा ४ । म । श्रु। अ। म । सं ७ । द १। अवधि । ले ६। भ १। सं३ । सं १। आ १ । उ ५॥
५
६
__ अवधिदर्शनिअपर्याप्तकर्गे। गु२। अ। प्र। जी १। प६। अप्रा७ । सं ४ । ग ४। इं १ पं। का १ त्र। यो ४ । औ मि । वै मि। आ मि। का। वे २। पुं । षं । क ४ । ज्ञा ३ । म। श्रु। अ। सं ३। अ। सा। छ । द १ अवधि। ले २। भ१। सं३। सं।
भा६ आ २। उ४॥
"असंयतप्रभूतिक्षीणकषायपथ्यंत अवधिज्ञानक्के पेन्दते वक्तव्यमकुं। केवलदर्शनिगे केवलदर्शनिगे केवलज्ञानिर्ग पेन्दते वक्तव्यमक्कुं । इंतु दर्शनमाग्गणे समाप्तमादुदु ॥
लेश्यानुवादवाळु गुणस्थानालापं मूलौघदंतक्कं । विशेषमावुवै वोडे अयोगिगुणस्थानमिल्ल । कृष्णलेश्याजोवंगळ्गे । गु४ । मि । सा। मि । अ । जो १४ । १६ । ६ । ५। ५ । ४।४। प्रा १० । ७।९।७।८।६।७।५।६।४। ४ । ३ । सं ४ । ग ४ । इं५ । का ६ । यो १३ । वे ३। १५ क ४ । ज्ञा ६ । कु । कु। वि । म । श्रु । अ । सं १ । अ । द ३ । च । अ । अ। ले ६। भ२।
भा १ कृ सं ६ । मि । सा । मि । उ । वे। क्षा। सं २। आ २ । उ९॥
कृष्णलेश्ययपर्याप्तकग्य । गु४ । मि। सा। मि । अ। जी ७।५।१६। ५।४।
अवधिदर्शनिनां-गु ९, जी २ प अ, प ६, ६, प्रा १०, ७, सं ४ । ग ४, इं१ पं, का १७, यो १५, वे ३, क ४, ज्ञा ४ मश्रु अम, सं७, द १ अ, ले ६ । भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, २,
१
उ ५ । तत्पर्याप्तानां-गु ९, जी १५, प ६, प्रा १०, सं ४, ग ४, इं१५, का १त्र, यो ११ म ४, व ४, ओ १, वै१, आ १, वे ३, क ४, ज्ञा ४ मश्रु अ म, सं७, द १ अ, ले ६ । भ १ । स ३, सं १, आ १,
उ ५। तदपर्याप्तानां-गु २ अ प्र, जी १ अ, प ६ अ, प्रा ७, सं ४, ग ४, ई ५, का १त्र, यो ४ औमि वैमि आमि का, वे २ पुं न, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, स ३ अ सा छे, द १ अ, ले २, भ २, स ३, सं १ । आ २, उ ४ । असंयतात् क्षीणकषायांतं अवधिज्ञानिवत् । केवलदर्शनिनां केवलज्ञानिवत् । दर्शनमार्गणा २५ गता। लेश्यानुवादे गुणस्थानालापो मूलौघवत् । अयोगिगुणस्थानं नास्ति ।
___ कृष्णलेश्यानां-गु ४ मि सा मि अ । जी १४ । प ६, ६, ५, ५, ४, ४, प्रा १०, ७, ९, ८, ६, ७, ५, ६, ४, ४, ३, सं ४, ग ४, इं५, का ६, यो १३, वे ३, क ४, ज्ञा ६ कु कु विम श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अअ, ले ६। भ२ । स ६ मि सा मि उ वे क्षा, सं २, आ २, उ ९ । तत्पर्याप्तानां
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________________
१०४०
गो० जीवकाण्डे
प्रा १०।९।८ । ७ । ६ । ४
।
सं ४ | ग ३ । म । ति । न । इं५ ।
४ । औ का । वैका । वे ३ । क ४ । । ज्ञा ६ । कु । कु । वि । म ।
द ३ । च । अ । अ ।
ले ६ भा १ कृ
आ १ । उ ९ ॥
५
अ । जी ७ । अ ।
कृष्ण लेश्याsपर्याप्तकरगे । गु ३ । मि । सा । प्रा ७ । ७ । ६ । ५ । ४ । ३ । सं ४ । ग ४ । ई ५ । का ६ । यो ३ । औ मि क ४ । ज्ञा ५ । कु । कु । म । श्रु । अ । सं
।
१ अ । द ३ ।
श्रु । अ । भ २ । सं ६ | मि । सा । मि । उ । वे ।
कृष्णलेश्यामिथ्यादृष्टिगळगे । गु १ । मि । जो १४ । १
६
१० ७।९।७।८६ । ७ । ५ । ६ । ४ । ४ । ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि
सं १ ।
आ २ । उ ५ ॥
अ ।
कृष्णलेइयामिथ्यादृष्टिपर्याप्तक
९। ८ । ७ । ६ । ४ सं ४ । ग ३ । न । ति । म । वैका । वे ३ | क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु ।
१५
वि ।
मि । सं २ । आ १ । उ ५ ॥
ले
भा १ कृ
सा । वे । पंचमादिपृथ्विगळदं बर्फ असंयतनोळ वेदकं संभविसुगुं । सं २ । आ २ । उ८ ॥
सं ४ । ग ४ ।
द२ ।
का ६ । यो १० । म ४ ।
सं १ । अ । क्षा । सं २।
२ क शु ।
।
६ । ५ ।
ले
भा १ कृ
६ | भ २ ।
। गु १ | मि । जी ७ । प
इं ५ । का ६ । यो १०
१ । अ । द२ ।
प
५ । ४ । अ ।
वैमि । का। वे ३ ।
६
भ
५ ।
।
इं ५ | का ६ । यो १३ । वे ३ ।
सं
२ | सं ३ । मि ।
४ । ४ । प्रा १० ॥
१ | मि । सं २ ॥
। जी ७ | अ | १६ | ५ | ४ | प्रा ७ । ६ । ५ । ४ । ३ । अ । सं ४ । ग ४ । इं ५ | का ६ । यो ३ । औ मि । वैमि । का । वे ३ । क ४ ।
कृष्णलेश्यामिथ्यादृष्टयपर्य्याप्तकरो । गु १ | मि
प ६ । ५ । ४ । प्रा १० ।
।
म ४ । वा ४ । औ का ले ६ | भ२ । सं १ । भा १ कृ
इं ५,
गु४मिसामि अ, जी ७ प, प ६, ५, ४, प, प्रा १०, ९, ८, ७, ६, ४, सं ४, ग ३ मति न २० का ६, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा ६ कु कु विम श्रु अ, सं १ अ, द ३, च अ अ,
ले ६,
भा १ कृ तदपर्याप्तानां - गु ३ मि सा अ, जी ७ अ प ६, का ६, यो ३ औमि वैमि का, वे ३, क ४, ज्ञा ५ सं ३, मिसा वे, पंचमादिपृथ्व्यागतासंयतेषु वेदक
भ २, स६ मि सामि उ वे क्षा, स २, आ १, उ ९ । ५, ४ अ, प्रा ७, ७, ६, ५, ४, ३, सं ४, ग ४, इं ५ कुकुम अ सं १ अ, द ३, ले २ क शुभ २, भा १ कृ सम्यक्त्वसंभवात् सं २ आ २, उ ८ । तन्मिथ्यादृशां - गु१मि, जी १४, ६, ६, ५, ५, ४, ४, प्रा १०, ७, ९, ७, ८, ६, ७, ५, ६, ४, ४, ३ । सं ४, ग ४, इं ५ का ६, यो १३ । वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६, भ २, स१मि, सं २, आ २, उ ५ । तत्पर्याप्तानां -गु १ मि जी ७ प, प ६, ५,
२५
कृ १
४, प्रा १०, ९, ८, ७, ६, ४, सं ४, ग ३ न तिम, इं ५ का ६, यो १० म ४ व ४ औ वं, वे ३, क ४, ज्ञां ३ कु कु वि सं १ अ, द २, ले ६ । भ २, स १ मि सं २, आ १, उ ५ । तदपर्याप्तानां - गु१मि, जी भा १ कृ
७ अ प ६, ५, ४ अ । प्रा ७, ७, ६, ५, ४, ३ अ, सं ४, ग ४ । इं ५ का ६, यो ३ औमि वैमि
का,
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________________
कर्णावृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका
१०४१
ज्ञा २ । कु । कु । सं १ । अ । द२ । ले २ क शु । भ २ । सं १ | मि । सं २ । आ २ | उ४ ॥ भा १ कृ
कृष्ण लेश्यासासादनंगे । गु १ । सासा । जी २ । प । अ । प ६ । ६ । प्रा १० । ७ । सं ४ । ग ४ | ई १ | पं । का १ त्र । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि । सं १ । अ । द२ । ले ६ । भ १ । सं १ । सासा । सं १ । आ २ । उ५ ॥ भा १ कृ
कृष्णलेश्यासासादनपर्थ्याप्तक
सं ४
| ग ३ ३ । क ४ ।
न त । म । इं १ | पं । का १ त्र । ज्ञा३ । कु । कु । वि।सं १ । अ । द २
। १ । सा । जी १ । १ । १६ । प्रा १० । यो १० । म ४ । वा ४ । औ का । वै का। वे ले ६ | भ १ | सं १ । सासा । सं १ । आ भा १ कृ
।
कृष्ण लेश्यासासादनापर्य्याप्तकरगें । गु१ । सा ।
जी १ । अ । प ६ । अ । प्रा ७ । अ । ४ | ३ |ति | म । दे । इं १ पं । का १ त्र । यो ३ । औमि । वैमि । का। वे ३ | क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ । द२ । ले २ क शु । भ १ । सं १ । सासा । सं १ । आ २ । ३४ ॥ १० भा १ कृ
।
कृष्णश्यामिश्रंग । गु १ मिश्र । जो १ प । प ६ प प्रा १० । सं ४ । ग ३ | न । ति । म | देवगतियोळु कृष्ण लेइये पर्याप्तकंगे संभविसदु । अपर्याप्त काल दोळिमनिल्ल । इं १ | पं । का १ त्र । यो १० । म ४ । वा ४ । औ का । वे का। ये ३ । क ४ । ज्ञा ३ । मिश्रज्ञानंगळु । सं १ । अ । द२ । च । अ । ले ६ । भ१ । सं १ | मिश्ररुचि । सं १ । आ १ । उ ५ ॥ भा १ कृ
३, क ४, ज्ञा २, कु कु स १ । सं १ अ, द २, ले २ क शुभ २, स १ मि सं २, भा १ कृ प्रा १०, ७, सं सं १ अ, द २,
तत्सासादनानां - गु १ सा, जी २ प अ प ६, ६, आहारद्वयाभावात् I वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि
कृष्णलेश्याऽसंयत सम्यग्दृष्टिगगे । गु १ । अ सं । जो २ । प । अ । ५६ । ६ । प्रा १० । १५ ७ । सं ४ । ग ३ । न । ति । म । कृष्णलेश्याऽसंयतंगे । देवगति संभविसतु । इं १ पं । का १ त्र ।
उ ५ । तत्पर्याप्तानां गु १ सा, जी १ प प ६, ४ व ४ औ वे, वे ३, क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि
प्रा १०, सं ४, ग सं १ अ, द २,
उ५ । तदपर्याप्तानां -गु १ सा, जी १ अ, प ६ अ, प्रा ७ अ यो ३ औमि वैमि का, वे ३, ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द
२ । उ ५ ॥
१३१
३ न तिम, इं १ पं, का ले ६ । भ १, सा १ सा,
भा १
४, ग ४, इं १ पं, का १ त्र, यो १३. ले ६, भ १, स १ सा, सं १, आ २, भा १ कृ
सं ४, ग २, च अ
आ २, उ४ ।
५
१ त्र. यो १० २० सं १, आ १,
३ ति म दे, इं १ पं, का १ त्र, ले २ क शु । भ १, स १ सा, भा १ कृ
सं १, २, ४ । तन्मिश्राणां - गु१ मिश्र, जी १ पं, प ६, प्रा १०, पर्याप्त कृष्णलेश्या अपर्याप्ते मिश्रगुणस्थानं च नहि । इं १ पं, का १ त्र, यो क ४, ज्ञा ३ मिश्राणि, सं १ अ, द २ च अ, ले ६, भ १, स १ मिश्र, सं १, आ १, उ ५ । तदसंयतानांभा १ कृ
१० म ४ व ४ ओ वै, वे ३, २५
गु १ असं जी २ प अ प ६, ६, प्रा १०, ७, सं ४, ग ३ न ति म तेषां देवगतिर्नहि । इं १ पं, का १ त्र,
सं
४, ग ३ न ति म, देवगती
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________________
१०४२
गो० जीवकाण्डे यो १२ । म ४ । वा ४ । औ२।वै का १ । कार्मण १ । कृष्णलेश्यासंयतसम्यग्दृष्टि भवनत्रयदोळं पुट्टनप्पुर्दारदं वैकियिकमिश्रमिल्ल। अथवा घम्मेयं बिटु मिक्क नरकंगोळं पुट्टनप्पुरिंदमंतु बैंक्रियिकमिश्रमिल्ल। घमें योळ्पुटुवडं कपोतलेश्याजघन्यांशदिदमल्लदे कृष्णलेर्यायदं पुट्टलु
संभावनेयिल्लप्पुरिंदमंतु वैक्रियिकमिधयोगं संभविसदु । वे ३। क ४। ज्ञा ३ । म । श्रु। अ। ५ सं १ । अ । व ३ । च । य ।। ले ६। भ१। सं३। उ। वे । क्षा । सं १ । आ २। उ ६॥
भा १ कृ कृष्णलेश्यासंयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकग्गें। गु १। असं । जी १। प। ५६। प्रा १० । सं ४। ग ३। न । ति । म। इं१। पं। का १ त्र। यो १०। म ४ । वा ४। औ का। वै १। क४। ज्ञा३। म श्र | असं १।।३च ।।अ। ले ६। भ१। सं३। उ। वे । क्षा।
भा१कृ सं १ । आ १। उ ६॥
कृष्णलेश्यासंयतापर्याप्तकग्गें । गु१। असं । जी १ । अ। प६। अ । प्रा ७ । । सं ४ । ग१।म। ई१। पं । का ११ । यो २ । औ मि। का १। वे १। पुं। क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १ । अ । ३ । च । अ ।अ। ले २ क शु। भ१।सं १ । वेदक । सं १।
भा १ कृ आ २। उ६॥
नीललेश्येगे कृष्णलेश्ययोळपेळवंत पेन्दु कोळगे। विशेषमावुर्दे दोर्ड सर्वत्र नोललेश्ये दु १५ वक्तव्यमक्कुं। कपोतलेश्याजीवंगळगे। गु४ । मि । सा । मि । अ । जो १४ । प ६।६।५ । ५।
४।४। प्रा १०।७।९।७।८।६।७।५।६।४ । ४।३। सं ४ । ग ४। इं५। का ६। यो १३ । म ४ । व ४ । औ २। २। का १। वे ३। क ४ । ज्ञा ६ । कु। कु। वि । म । श्रु । अ। सं१।।द।चबा ले ६। भ२। सं६मिसा । मि। उ। वे। क्षा।
भा१कृ सं२। आ २। उ९॥
०
२० यो १२ म ४ व ४ ओ २ व १ का १ तेषां सम्यग्दृष्टित्वात् भवनत्रयद्वितीयादिपृथ्वीष्वनुत्पत्तेः । धर्मोत्पन्नानां
तु कपोतलेश्या जघन्यांशित्वाद्वैक्रियिक मिश्रयोगो नहि। वे ३, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले ६ । भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, आ २, उ६। तत्पर्याप्तानां-ग १ असं, जी १ प, प६,
भा १ कृ प्रा १०,सं ४, ग ३ न ति म, इं१५, का १त्र, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे १, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, बा १, उ ६ । तदपर्याप्तानां-गु १ असं, जी
भा १ क १ अ, प६अ, प्रा ७ अ, सं४, ग १ म, इं१५। का१त्र, यो २ औमि का, वे १ पुं, क ४, ज्ञा ३ म श्रु - अ, सं १ अ, द ३, ले २ क शु । भ १, स १ वे, सं १, आ २, उ ६ । नीललेश्यानां कृष्णलेश्यावद्वक्तव्यं ।
भा १ कृ कपोतलेश्यानां-ग ४ मि सा मि अ, जी १४, १६, ६,५,५,४,४, प्रा १०, ७, ९,७,८, ६, ७,५,६,४,४, ३, सं ४, ग ४, ५, का ६, यो १३ म ४ व ४ औ २ वै २ का १, ३, क ४, ज्ञा ६ कु कु वि म श्रु म, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले ६ । भ २, सं६ मि सा मि उ वे क्षा, सं २, आ २, उ ९।
भा १क
२५
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.
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०४३ कपोतलेश्या पर्याप्तकर्ग। गु४। मि । सा। मि।अ। जी ७।५।१६। ५। ४ । प्रा १०।९।८। ७।६।४। सं ४ । ग३ । न । ति । म। अशुभलेश्याऽपर्याप्तकंग देवगति संभविसदु। भवनत्रयादिदेवकळनितुं पर्याप्तकालदोळु शुभलेश्यरेयप्पुरिदं । इं५ । का ६। यो १० । म ४ । वा ४ । औ का । वे का। वे ३ । क ४ । ज्ञा ६। कु। कु। वि । म । श्रु। अ। सं १ । अद३। ले ६। भ२।सं ६। मि । सा। मि। उ। वे । क्षा । सं २ । आ १ । उ ९॥ ५
भा १ कपोतलेश्या अपर्याप्तकग्गे । गु३। मि । सा। अ। जी ७ । अ । प ६। ५ । ४ । अ। प्रा ७।७।६।५।४।३। सं४। ग४। ६५ । का६। यो ३। औ मि । वै मि। का। वे३। क४। ज्ञा५ । कू। कू।।म। श्र। अ। सं। अ । द३। च। अ । अ। ले २ कश।
भा१क भ २ । सं २ मि । सा। वे । क्षा । सं २ । आ २। उ ८ ॥
कपोतलेश्यामिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु१।मि । जी १४।१६।६। ५। ५। ४ । ४ । प्रा १०। १० ७।९।७।८।६।७।५।६।४।४।३। सं ४ । ग ४। ई ५। का६। यो १३। वे ३। क ४। ज्ञा ३। कु। कु। वि। सं १। अ। व २। च । । ले ६। भ२। सं १। मि ।
भा१क आ२। उ ५॥
कपोतलेश्यामिथ्यादृष्टिपर्याप्तकर्गे । गु १ । मि । जो ७। ५। ५६। ५ । ४ । प्रा १०। ९।८।७।६। ४ । सं ४ । ग३। न। ति । म । ई ५। का ६ । यो १० । म ४ । वा ४ । औ १५ का। वे का। वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु। वि । सं १ ।।द २। च । । ले ६। भ२।।
भा १क सं१ मि । सं २। आ १ । उ ५॥
तत्पर्याप्तानां-गु ४ मि सा मि अ, जी ७५, १६, ५, ४, प्रा १०, ९,८, ७, ६,४, सं ४, ग ३ न ति म, देवगतिर्नहि भवनत्रयदेवानामपि पर्याप्तकाले शुभलेश्यत्वात, इं५, का ६, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा ६ कु कु वि म श्रु अ, सं १ अ, द ३, ले ६ । भ २, स ६ मि सा मि उ वे क्षा, सं २, आ १,
भा १ कृ उ ९ । तदपर्याप्तानां-गु ३ मि सा अ, जी ७ अ, प ६, ५, ४ अ । प्रा ७, ७, ६, ५, ४, ३, सं ४, ग ४, इं ५, का ६, यो ३ औमि वैमि का, वे ३, क ४, ज्ञा ६ कु कु वि म श्रु अ, सं १ अ, द ३ च अ अ, ले २ क शु, भ २, स ४ मि सा वे क्षा, सं २, आ २, उ८। तन्मिथ्याशां -गु १ मि, जी १४, प भा१क ६, ६, ५, ५, ४, ४, प्रा १०, ७, ९, ७, ८, ६, ७, ५, ६, ४,४, ३, सं ४, ग ४, ५, का ६, यो १३, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २ च अ, ले ६। भ २, स १ मि, सं २, आ २, उ ५।
भा १क तत्पर्याप्तानां-गु १ मि, जी ७ प, प३,५,४,प्रा १०,९,८,७,६, ४, सं ४, ग ३ न ति म, इं५, का १, यो १० म ४ व ४ ओवै, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कू वि, सं१म, द २ च अ, ले ६ । भ २,
भा १ क
२५
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१०४४
गो० जीवकाण्डे कपोतलेश्यामिथ्यादृष्टचपर्याप्तकग्नें। गु १ मि । जी ७ ।। प६। ५ । ४ । अ । प्रा ७। ७।६।५। ४ । ३ । सं ४ । ग ४। ई ५ । का ६ । यो ३ । औ मि । वै मि । का। वे ३। क ४ । ज्ञा २। कु । कु । सं १ । अ । द २। ले २। क शु । भ २। सं १ । मि । सं २ । आ २। उ ४॥
भा १क कपोतलेश्यासासादनसम्यग्दृष्टिगळ्गे । गु १। सा सा । जी २।अ । प६।६। प्रा १० । ५ ७। सं ४। ग ४ । इं१। पं। का १ । यो १३। वे ३। क ४ । ज्ञा ३। कु। कु । वि। सं १ । म । द २। च । अ। ले ६ । भ १। सं १ । सा। सं १। आ २। उ ५॥
भा १क कपोतलेश्यासासादनपर्याप्तकग्गें । गु १। सा।जी। प।१६। प्रा १० । सं४। ग ३ । न । ति । म । इं१।६। का१त्र । यो १०। म ४। वा ४ । औ का। वै का। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३। कु । कु। वि।सं १। अ। द २। च । अ। ले ६। भ१। सं १। सा।
भा १ कृ १० सं १ । आ १ । उ ५॥
कपोतलेश्यासासादनापर्याप्तकरौं । गु १ । सा। जी १। अ।प।६। अ । प्रा ७। अ। .. सं ४ । ग ३ । ति । म । दे। इं। पं। का १त्र । यो ३। औ मि । वै मि। का। वे३। क४। ज्ञा २ । कु । कु । सं १।। द २। च। अ। ले २ क शु। भ१। सं १ । सासादनरुचि ।
भा १क सं १। आ २। उ ४॥ १५ कपोतलेश्यासम्यग्मिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १ । मिश्र । जी १ । प।१६। प्रा १०। सं ४ ।
ग३। न । ति । म । देवगतियोळशुभलेश्य पर्याप्तकंग संभविसदु । ई१।। का१त्र। यो १० । म ४ । वा ४ । औ का। वै का। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । मिश्रज्ञानंगळ । सं १ । । २। ले ६। भ१। सं १ । मिश्र । सं १ । आ १ । उ ५ ॥ भा१क
२०
.
स १ मि, सं २, आ १,उ ५। तदपर्याप्तानां-गु १मि , जी ७ अ, प ६,५, ४, अ, प्रा ७,७, ६, ५, ४, ३, सं ४, ग ४, ई ५, का ६, यो ३ औमि वैमि का, वे ३, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १, सं १ अ, द २, ले २ क
भा १ क शु । भ २, स १ मि, सं २, आ २,उ४ । तत्सासादनानां-गु१ सा, जी २ प अ, प ६, ६, प्रा १०,७, सं ४, ग ४, इं१५, का१त्र, यो १३, वे ३ क ४, ज्ञा ३, कु कु वि, सं १ अ, द २ च अ, ले ६।
भ १, स १ सा, सं १, आ २, उ ५। तत्पर्याप्तानां-गु १ सा, जी १ प, प ६, प्रा १०, सं ४, ग ३ न
ति म, इं१६,का १ त्र, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २ च अ, २५ ले ६, भ १, स १ सा, सं १, आ १, उ ५। तदपर्याप्तानां- १ सा, जी १ अ, प६अ, प्रा ७ अ,
भा १क सं ४, ग ३ ति म दे, इं१६, का १ त्र, यो ३ ओमि वैमि का, वे ३, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द २ च अ, ले २ क शु, म १, स १ सा, सं १, आ २, उ ४। सम्यग्मिथ्यादृशां-गु १ मिश्रं, जी १प,
भा १क प ६, प्रा १०, सं ४, ग ३ न ति म, देवगतिर्नहि, ई १५, का१त्र, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे ३,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०४५ कपोतलेश्याऽसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे । गु १ । असं । जी २५ ।म। प६।६। प्रा १० । ७। सं ४ । ग ३ । न । ति । म । ई १ । पं । का १ त्र । यो १३ । औ २ । वै२। म ४ । वा ४। का १। वे३। क ४। ज्ञा३।म। श्र। अ। सं१। अद३। ले ६ भ१। सं । सं १।
भा१क आ १। उ६॥
कपोतलेश्यासंयतसम्यग्दृष्टिपप्तिकंगे। गु १। असं । जी १ ५। ५६। प्रा १०। ५ सं ४ । ग३। न ति म। इं१५। का१त्र। यो १०। म ४। वा ४। वै का। औ का। वे३। क ४ । ज्ञा३।म श्र अ । सं १ अद। ले ६। भ१। सं३ । सं१। आ२। उ६॥
भा१क
कपोतलेश्याऽसंयताऽपय्य
१। असं। जी १ अ । प६। अप्रा ७अ । सं४। ग ३। न । ति । म । इं१।। का १ । यो ३। औमि । वै मि। का। वे २। पुं। नपुं। क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । । द३। ले २ क श । भ १। सं २।। क्षा। सं१। आ २। उ६॥ १०
भा१क
तेजोलेश्याजीवंगळगे। गु७। जी २। प। अ। ५६।६ । अ । प्रा १०१७। सं४। ग३। म ति दे। १।। का १ त्र। यो १५। वे३। क४। ज्ञा ७। केवलराहत । स अ । दे। सा। छ। पद३। ले ६। भ२। सं६। सं १ आ २। उ१०॥
भा १ ते
४। ज्ञा ७ । केवलरहित । सं५ ।
तेजोलेश्यापर्याप्त करनें । गु ७ । जी १।५।१६ । प्रा १० । सं४।ग ३ । ति। म । दे। इं १ पं। का १ त्र। यो ११ । म ४। वा ४। औ का १। वै १ । आ १। वे ३। क ४। १५ ज्ञा ७ । केवलरहित । सं ५। अ । दे। सा। छ। प। द ३ । ले ६। भ२। सं ६ । सं १। ।
भा १ ते आ१। उ १०॥
क ४, ज्ञा ३ मिश्राणि, सं १ अ, द २, ले ६, भ १, स १ मिश्र, सं १, आ १, उ ५। असंयतानां
भा १ क गु १ अ, जी २ प अ, प ६, ६, प्रा १०, ७, सं ४, ग ३ न ति म, इं१५, का १त्र, यो १३ म ४ व ४ औ २ वै २ का १, ३, क ४, ज्ञा३ म श्र अ, सं १ अ, द ३, ले ६, भ १, स ३, सं १, आ २, २०
भा १क उ६। तत्पर्याप्तानां-गु १ अ, जी १५, प ६, प्रा १०, सं४, ग ३ न ति म, ई१५, का१त्र, यो १० म ४ व ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३, ले ६, भ १, स ३, सं १,
भा १ क अ १, उ६ । तदपर्याप्तानां-१ अ, जी १ब, प६अ, प्रा ७ अ, सं४, ग ३ न ति म, ई१५, का १ त्र, यो ३ औमि वैमि का, वे २, पुन, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ, द ३, ले २ क शु। भ१, स २
भा १ क वे क्षा। सं १, आ २, उ ६ । तेजोलेश्यानां-ग ७, जी २१ अ, प ६६, प्रा १० ७, सं४, ग३ ति म २५ दे, इं१६, का १ त्र, यो १५, वे ३, क ४, ज्ञा ७ केवलं नहि, सं ५ अ दे सा छेप, द ३, ले ६, भ २,
भा १ते स ६, सं १, आ २, उ १० । तत्पर्याप्तानां-गु, जी १प, प ६, प्रा १०, सं ४, ग ३ ति म दे,
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१०४६
गो० जीवकाण्डे
तेजोलेश्याऽपर्याप्तकरण । गु४ । मि । सा । अ।प्र। जी १। अ। प६ । अ। प्रा ७। अ । सं ४ । ग २। म । दे। इं१६। का १ । यो ४ । औ मि। वैमि आमि । का। वे २। स्त्री। पुं। क ४। ज्ञा ५ । कु। कु । म । श्रु । अ। सं३ । अ । सा। छे । द ३ । ले ६ क शु ।
भा १ ते भ २ । सं५ । मि । सा । उ । वे । क्षा । सं १ । आ २ । उ ८॥
तेजोलेश्यामिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १ । मि। जी २। प । अ। प६।६। प्रा १० । ७ । सं ४ । ग ३ । ति। म । दे। इं १। पं । का १ त्र । यो १२। म ४ । वा ४ । औ का। 4 का। वै मि । काम्म॑ण । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु। वि । सं १ । अ । द २। ले ६ भ २। सं १ ।
भा १ ते मि । सं १ । आ २। उ ५॥
तेजोलेश्यामिथ्यादृष्टिपर्याप्तकम्। गु१। मि। जी १।प। प६। प्रा १० । सं ४ । १० ग ३। ति । म । दे । ई १ पं। का १ । यो १० । म ४ । वा ४। औ का। वै का। वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । कु । कुवि । सं १ । द २। ले ६। भ २ । सं मि । सं १ । आ १ । उ ५ ॥
भा १ ते
तेजोलेश्यामिथ्यादृष्टि अपर्याप्तकर्ग । गु १। मि । जी १ अ । ५६ । अ। प्रा ७ । अ। सं ४ । ग १ दे । इं १ । पं । का १ त्र। यो २। मि । का। वे २ । स्त्री। पुं । क ४। ज्ञा २। कु । कु। सं १। अव २। ले २ क शु । म २। सं १ मि । सं १ । आ २। उ ४॥
भा१ते
तेजोलेश्यासासादनसम्यग्दृष्टिगळ्गे । गु १ । सासा । जी २।५।। प६।६। प्रा १०। ७ । सं ४ । ग ३। ति म दे। इं१ ।। का १ त्रयो १२। म ४ । वा ४१ औ का १। वै२।
ई १ पं, का १ त्र, यो ११ म ४ व ४ औ वै आ, वे ३, क ४, ज्ञा ७ केवलं नहि, सं ५ अ दे सा छे प, द ३ । ले ६ । भ २, स ६, सं १, मा १, उ १० । तदपर्याप्तानां-गु ४। मि सा अप्र, जी १ अ, प ६ अ,
भा १ ते प्रा ७ अ, सं ४, ग २ म दे, इं १ पं, का १ त्र, यो ४ औमि वैमि आमि का, वे २ स्त्री पुं, क ४, ज्ञा ५ २० कु कु म श्रु अ, सं ३ असा छे, द ३, ले २ क शु, भ २, स ५ मि सा उ वे क्षा, सं १, मा २, उ८।
भा १ ते तन्मिथ्यादृशां-गु १ मि, जी २५, अ, प६६, प्रा १० ७, सं ४, ग ३ ति म दे, इं१५, का१त्र, यो १२ म ४ व ४ औ वै वैमि का, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६। भ २, स १ मि,
भा १ ते सं १, आ २, उ ५ । तत्पर्याप्तानां-गु १मि, जी १५, १६, प्रा १०, सं ४, ग ३ ति म दे, इं१५, का १ त्र. यो १० म ४ व ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६। भ२ । स १
भा १ ते मि । सं १ मा १। उ ५। तदपर्याप्तानां- १ मि । जी १ अ । प६अ । प्रा ७ अ । सं ४। ग १ दे। ई १५ । का१त्र। यो २ वैमि का। वे २ स्त्री पुं। क ४। ज्ञा २ कु कु। सं १ अ । द २। ले २ क शु । भ २ । स १ मि । सं १ मा २ । उ ४ । सासादनानां-गु १ सा। जी २ प अ । प ६६ । भा १ ते
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का १ | वे ३ । क ४ सासादनरुचि । सं १ ।
२। उ ५ ॥
तेजोलेश्यासासावनपर्याप्तकर ं । गु १ । सा ग ३ । ति म वे। ई १। पं । का १ त्र । यो क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि सं १ | द२ ।
१० ।
उ५॥
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०४७
। ज्ञा ३ । कु । कु । वि सं १ अ व २ ले ६ | भ १ | सं १
भा १ ते
तेजोलेश्यासम्यग्मिथ्यादृष्टिगगे। गु १
1
ति । म दे । ई १ का १ । यो १० । वे ३
सं १ | मिश्र सं १ । आ १ । उ५ ॥ 1
तेजोलेश्यासासावनापर्थ्यातकम् । गु १ । सासा
जी १ अ प ६ । अ । प्रा७ । अ ।
सं ४ । ग १ | वे ई १ । पं । का १ त्र । यो २ मि । का। वे २ स्त्री पुं । क ४ । ज्ञा २ । सं १ । अ । द२ । ले २ क शुभ १ । सं १ । सासा । सं १ । आ २ । उ४ ॥ भा १ ते
तेजोलेश्यासंयतसम्यग्दृष्टिगळगे । गु १
सं ४ । ग ३ । ति । म । वे । इं १ । का १ । यो १३ ले ६ | भ१ । सं ३ । सं १ । आ २ । उ६ ॥ भा १ ते
प्रा १०७ । सं ४ ग ३ति म दे । ई१ वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ कु कुवि । सं १ अ । द२ ।
ले ६ । भ १ । सं १ भा १ ते
जी १ प म ४ । वा ४ ।
भ १ स १ स सं १ ग ३तिम दे । ई १
।
मिश्र जी १ क ४ । ज्ञा ३ ।
अ सं
प प ६
सं १ | अ | द २
|
तेजोलेश्यापर्याप्तासंयतग्गे गु १ असं जी १ प प ६ । प्रा १०
६ । प्रा १० औ का। वे का।
सं १ । आ १ । उ ५ । तदपर्याप्तानां १ सा जी १ अ प ६अ। इं१पं । का१त्र । यो २ वैमि का । वे २ स्त्री पुं । क ४ । ज्ञा २ । सं
ग ३ विम दे सं १ अद२
। सासा । सं १ । आ १ ।
I
जी २ । प । अ । प ६ । ६ । प्रा १० । ७ । । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ । द ३ ।
सम्यग्मिथ्यादृशां गु. १ मिश्र
आ २ उ ४ का १त्र यो १० म ४ व ४ वे औ। वे ३
प्रा १०
का १ त्र । यो १२ म ४ व ४ ओ१ वे २ का १ । ले ६ । भ १ । स १ सा । सं १ । आ २ । उ ५ । भा १ ते तत्पर्याप्तानां १ सा जी १६ । प्रा १० | सं४ १० म४ व ४ ओ वै । वे ३ क ४ । ज्ञा २ कु कु वि
सं ४ | वे ३ ।
सं ४ | ग ३ |
ले ६ | भ १ |
भा १ ते
सं ४ ।
ई १ पं ले ६ भ १ भा १ ते
प्रा ७ अ १ अ
।
१ पं । का १ त्र । यो १३ । वे ३ । बा २ उ ६ । तत्पर्याप्तानां गु १ अ
ग ३ ।
का १ । यो स १ सा ।
सं ४ । ग १ दे
द२ । ले २ क शु | भा १ ते
जी १ प
प ६ । प्रा १० सं ४ ।
क ४ । ३ । सं १ अ । द२ ।
५
ले ६ । भ १ । स १ मिश्रं । सं १ । आ १ । उ ५ । असंयतानां - गु १ अ । जी २प । अ । प६६ । भा १ ते
२५
प्रा १०७ । सं ४ । ग ३ विम दे। ई द ३ ले ६- १ ३ । सं १ भा १ ते
४ । ज्ञा ३ । सं १ अ । जी ११ १६ । प्रा
१०
१५
२०
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१०४८
गो.जीवकाणे
ति। म । दे। इं १ का १ । यो १० । म ४ । वा ४ ॥ औ का । वै का। वे३। क ४। ज्ञा३। सं १।। ३। ले ६ । भ१। सं३ । सं १ मा १। उ६॥
भा १ ते
तेजोलेश्याअपर्याप्तासंयतग्गे । गु १। अ। जी १। अ।१६।। प्रा ७ । म । सं४ । ग २।म। दे। इं१ का १। यो ३१ औ मि । वै मि । का। वे१। पं । क ४। ज्ञा३। सं १। ५ अ । द ३। ले २। भ१। सं३ । सं १ । आ २। उ ६॥
भा१ते
तेजोलेश्यादेशवतिगळ्गे। गु १ । दे। जी १। प । १६ । प्रा १० । सं ४। ग २ । ति । म। इं१ का १ । यो ९ । म ४ । वा ४ । औ का। वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १। दे। द३ ले ६। भ१।सं। सं१। आ१। उ६॥
भा १ते
तेजोलेश्या-प्रमत्तरों' । गु१प्र। जी २।प। अप६।६। प्रा १० । ७। सं ४ । ग१। १० माई १ का १। यो ११। वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं३ । सा। छ। प। द३। ले ६। भ१।
भा १ ते सं३। सं १ । आ १ । उ ७॥
तेजोलेश्याप्रमत्त । गु १। अप्र। जो १ । ५।१६। प्रा १० । सं ३ । ग १। म। ई १ का १। यो ९। वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । म । श्रु । अ। म । सं३ । सा। छ। प । द३। ले ६ ।भ१। सं३। सं १। आ १। उ ७॥ भा१ते
१५ १० । सं४ । ग ३ ति म दे । इं१ का १ । यो १० म ४ व ४ औ व । वे ३ । क ४। ज्ञा ३ । सं १ अ। द ३ । ले ६ । भ१ । स ३ । सं१ । आ १ । उ ६ ।
भा १ ते
तदपर्याप्तानां-ग १ अ। जी १ अ । प६अ। प्रा ७ अ । सं४। ग २ म दे। ई१ । का १ । यो ३ औमि वैमि का। वे १ पुं। क ४। ज्ञा ३ । सं १ अ। द ३ । ले २ । भ१। स ३ । सं १।
भा १ ते आ २। उ६ । देशवतिनां-गु १ दे। जी १५।१६। प्रा १० । सं ४ । ग २ ति म । इं१ का १। यो ९ म४ व ४ औ। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ म श्रु अ । सं १ दे। द ३ । ले ६ । भ१। स ३ । सं १ ।
भा १ते आ १ । उ६ । प्रमत्तानां-गु १ प्र। जी २ प अ । प ६।६ । प्रा १० । ७। सं४। ग १ म । इं१। का १। यो ११ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं३ सा छेप । द ३ । ले ६ । भ१। स ३ । सं १ । आ १ ।
भा १ ते उ ७। अप्रमत्तानां-१ अ प्र। जी १५। ५६। प्रा १० । सं३ । ग १ म। इं१। का १ यो ९। वे ३। क४। ज्ञा ४ मश्रु अम। सं३ सा छे प। द ३। ले ६। भ१। स ३ । सं ।
भा १ ते
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०४९ पद्मलेश्याजीवंगळ्गे । गु७। जी २ । प। अ।प६।६। प्रा १० । ७। सं ४ । ग ३ । ति । म। दे। १ का १। यो १५ । वे ३। ४। ज्ञा ७। सं५। अ। दे। सा। छ। प। द३ ले ६। भ२। सं ६ । सं १। आ २। उ १०॥
भा १ पद्म
पद्मलेश्यापर्याप्तकग्नें। गु७। जी १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग ३ । ति । म । दे। इं१ का १। यो ११ । म ४ । वा ४ । औ का । वै का। आ का। वे ३ । क ४ । ज्ञा । सं५। अ। दे। सा। छ। पद३।।ले ६। भ२। सं६। सं१। आ १। उ १०॥
भा १ पद्म पद्मलेश्याऽपर्याप्तकर्गे । ४। मि । सा । अ । प्र । जी १। अ । प ६। अ। प्रा ७। अ। सं ४ । ग २। म । दे। इं१। पं। का १ त्र। यो ४ । औ मि । वै मि। का । आ मि। वे १। पुं । क ४। ज्ञा ५ । कु। कु । म। श्रु। अ। सं३। अ। सा। छ। द ३। ले २ क शु।
भा १ पद्म भ २ । सं ५ । मि । सा। उ । वे । क्षा। सं १ । आ २। उ ८॥
पद्मलेश्यामिथ्यादृष्टिगळगे । गु १ । मि । जी २ । प । अ । प ६।६। प्रा १०। ७ । सं ४ । ग ३ । ति । म । दे । इं १ का १। यो १२। म ४ । वा ४ । औ का १ । वै २। का१। वे ३ । क ४। ज्ञा ३। कु। कु । वि । सं १। अ। द २। ले ६। भ२। सं १। मि । सं १।
भा १प आ २। उ५॥
पद्मलेश्यामिथ्यादृष्टिपर्याप्तंग गु १। जी १।प। प६। प्रा १० । सं ४ । ग ३ । ति । १५ म। दे । इं १ । का १ । यो १० । म ४ । वा ४ । औ का। वै का। वे ३। क ४। ज्ञा ३ । कु । कु । वि । सं १। अ। द २। ले ६। भ२। सं १ । मि । सं १ । आ १ । उ ५ ॥
भा१प
आ १ । उ ७ । पद्मलेश्यानां-गु ७ । जी २ प अ. प ६ ६ । प्रा १०७ । सं ४ । ग ३ ति म दे । इं १ का १ । यो १५ । वे ३ । क ४। ज्ञा ७ । सं ५ अ दे सा छेप । द ३ । ले ६ । भ २। स ६ ।
भा १५ सं १। आ २ । उ १०। तत्पर्याप्तानां- ७ । जी १ । १६ । प्रा १० । सं ४ । ग ३ ति म दे। इं१। २० का १। यो ११ म ४ व ४ औ व आ। वे ३ । क ४। ज्ञा ७ । सं ५ अ दे सा छेप । द ३। ले ६।
भा १५ भ २ । स ६ । सं १ । आ १। उ १०। तदपर्याप्तानां-गु ४ मि सा अप्र। जी १ अ। प ६ अ । प्रा ७ अ। सं४। ग २ म दे । इं१५ का १त्र। यो ४ औमि मि आमि का। वे१। क४। ज्ञा ५ कु कु म श्रु अ । सं ३ अ सा छे। द३ । ले २ क श । भ २ । स ५ मि सा उ वे क्षा। सं १ ।
भा१प आ २ । उ ८। तन्मिथ्यादृशां-गु १ मि । जी २१ अ । १६।६। प्रा १० । ७ । सं ४। ग ३ ति २५ म दे । इं१ । का १। यो १२ म ४ व ४ औ १ वै २ का । वे ३ । क ४। ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ । द २। ले ६। भ२। स १ मि । सं १। आ २। उ ५। तत्पर्याप्तानां-गु१ मि । जी ११।१६।
भा १ प प्रा १० । सं४। ग ३ ति म दे। ई१ । का १। यो १० म ४ व ४ औ १ व १। वे ३। क ४ ।
१३२
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________________
गो० जीवकाण्डे
पद्मलेश्यामिभ्यादृष्टचपय्यप्तक
। गु १ । मि । जी १ । अ
। प६ । अ । प्रा ७ । अ ।
सं ४ । ग १ | वे । ई १ का १ । यो २ । वैमि । का। वे १ । पुं । क ४ । ज्ञा २ । कु । कु । सं १ । ब । द२ । भ२ । सं १ | मि । सं १ । आ २ । उ४ ॥
२कशु |
१०५०
१५
पद्मलेश्यासासादनगे ।
५ ग ३ । ति । म । वे । इं १ । का १ घे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि 1
आ २ । उ ५ ॥
भा १ प
पद्मलेश्यासासावनपर्य्याप्त क
ग ३ । ति । म । दे । इं १ । का १ । १० क ४ । ज्ञा ३ । कु ।
कु ।
आ १ । उ ५ ॥
सं ४ । ग १ | वे । सं १ । ब । व २ |
|
१ । सासा । जो २ |प | अ | प ६ । ६ । प्रा १० । ७ । सं ४ | वा ४ । औ का १ । वे का २ । का १ । ले ६ | भ१ । सं १ । सा । भा १ प
सं १ । अ । द२ ।
सं १ ।
वि
सं
। यो १२ । म ४
। गु १ । सा । जी १ ।
जी १ । ६ अ । प्रा ७ अ ज्ञा २ कु कु । सं १ अ । द२ ।
१ अ । द२ ।
पद्मलेश्यासास।दनाऽपर्य्याप्तकेंगे। गु१ । सा । जी १ ।
यो १० । म ४ । वा ४
।
औ का १ ।
। ले ६ ।
भा १ प
पद्मलेश्यासम्यग्मिथ्यादृष्टिगगे । गु१ |
मिश्र ।
जो
३ । ति । म । दे । इं १ । का १ । यो १० । वे ३ । क ४। ले ६ | भ १ | सं १ | मिधरुचि । सं १ । आ १ । उ५ ।। भा १५
तत्सासादनानां - १ सा । जी २ प अ । यो १२ म ४ व ४ औ १ वै २ का १ । वे ३
१ । १६ ।
६ ।
प्रा १०
वै का १
भ १ । सं १ । सासा ।
।
अ । प
६ । अ । प्रा ७ । अ ।
ई १ । का १ । यो २ । वैमि । का। वे १ । पं । क ४ । ज्ञा २ । कु । कु ले २ क शु । भ १ । सं १ । सं . १ । आ २ । ३४ ॥ भा १ प
।
सं ४ |
२ । स १ मि । सं १ । आ १ । उ ५ । तदपर्याप्तानां --गु १
भा १ प
ज्ञा ३ कु कुवि । सं १ अ । द २ । ले ६ । मि । जी १ अ प ६ अ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग १ दे । ई १ पं । का १ त्र । यो २ वैमि का । वे १ पुं । २० क ४ । ज्ञा २ कु कु । सं १ अ । द २ । ले २ क शुभ २ । स १ मि । सं १ । आ २ । उ ४ । भा १ प
६६ । प्रा १०७ । सं ४ । ग ३ ति म दे । । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ । द २
।
वे ३ ।
इं १
सं १ ।
१ । प प ६ । प्रा १० । सं ४ । ज्ञा ३ । मिश्र । सं १ । अ । द२ ।
स १ सा । सं १ अ | आ २ । उ ५ । तत्पर्याप्तानां -गु १ सा । जी १ । १ । प ६ । प्रा१० । सं ४ ॥ ३ति मदे । इं १ । का १ । यो १० म ४ व ४ औ १ व १ । वे ३ | क ४ । ज्ञा ३ कु कुवि । २५ सं १ अ । द २ । ले ६॥ भ१ । १ सा । सं १ । आ १ । उ ५ । तदपर्याप्तानां गु १ सा । भा १ प
का १ ।
ले ६ । भ १ ।
भा १
सं ४ । ग १ दे । ई १ । का १ । यो २ वैमि का । वे १ पुं । क ४ । ले २ क शु । भ १ । स १ सा । सं १ । आ २ । ४ । सम्यग्मिथ्यादृशां - भा १ प
गु १ मिश्रं । जी १ । १ ६, प्रा १० | सं४ । ग ३ ति म दे । इं १ । का १ । यो १० । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३
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________________
भा१प
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका पद्मलेश्याऽसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे। गु १। असं । जी २।प। म । ५६।६। प्रा १० । ७। सं ४। प।ग ३। ति । म । दे। इं१ । का १ । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे ३ । क ४। ज्ञा ३। म। श्रु । अ। सं १ । अ। व २। ले ६। भ१। सं३। उ। वे । क्षा । सं १। आ २ | उ ६॥
पद्मलेश्याऽसंयतपर्याप्तकर्ग।१ । अ । जी१। प। प६। प्रा १० । सं४। ग३ । ति । म । दे । १ का १। योग १०। म ४ । वा ४ । ओ का । वै का । वे ३। क ४ । ज्ञा ३। ५ सं१।अ। ३। ले ६। भ१।सं । उ। वे क्षा।सं। आ१। उ६॥
भा १५ पद्मलेश्याऽसंयताऽपर्याप्तकर्गे । गु१ । असं । जी १। अ। १६ । अ। प्रा७ । अ । सं ४ । ग२।म। दे । इं१। का १। यो ३ । औ मि । वे मि । का। वे १ । क ४ । ज्ञा ३।म। श्रु । अ। सं १ । अ । व ३। ले २ क शु। भ१ । सं३ । उ । वे । क्षा । सं १ । २। उ६॥
भा १५ पालेश्यादेशवतिगळ्गे गु१। वेश । जी १।५।१६। प्रा १० । सं४ । ग२ म । ति । इं१ का १। यो ९। वे ३। क ४ । ज्ञा३। म । श्रु । अ । सं १ । देश ।। ३। ले ६। भ१।१० सं३।सं १ । आ १। उ६॥
पद्मलेश्या-प्रमत्तसंयतग्गें । गु १।प्र। जी २। प।।प६।६। प्रा १०१७।सं ४ । गति १।म। इं१ का १। यो ११ । म ४॥वा । औ का १ । आ का २। वे ३। क ४। ज्ञा४।म। श्रु । अम। सं३। सा। छ। पाद३। ले ६ । भ१।सं। उ। वे। क्षा।
भा१प सं१। आ१। उ७॥
भा १५
मिश्राणि, सं १ अ । द २। ले ६। भ१ । स १ मिथं । सं १ । आ १, उ ५। असंयतानां-१ अ, जी
मा १५ २ प म, प ६, ६, प्रा १०,७, सं ४, ग३ ति म दे, ई १, का १। यो १३ आहारकद्वयाभावात, वे ३, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, आ २, उ ६ । तत्पर्याप्तानां--- १ अ ।
मा १५ जी १५ । प६। प्रा १० । सं ४, ग ३ ति म दे। इं१ का १। यो १० म ४ व ४ औका का। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं१अ । द ३ । ले ६ । भ१। स ३ उ वे क्षा। सं १। आ१। उ६। तद
भा १५ पर्याप्तानां-गु १ अ, जी १ अ, प६अ, प्रा ७ अ, सं४, ग २ म दे, इं१, का १, यो ३ औमि वैमि का, वे १j, क ४, ज्ञा ३ मश्रु अ, सं १ अ, द ३ । ले २ क शु, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १,
मा १५ आ २ उ ६ । देशव्रतानां-१ दे। जो १ प, प ६, प्रा १०, सं४, ग २ ति म, ई१। का १ । यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३ मश्रु अ, सं १ दे, द ३ । ले ६। म १, स ३, सं १, आ १, उ६ ।
भा १५ प्रमत्तानां-गु१प्र, जी २ प अ, प६,१,मा १०७, सं४, ग १ म, ई, का१ । यो ११ म४५. ४ औ १ २, वे ३, क ४ । ज्ञा ४ मश्रुम । सं३ सा छेप । द३ । है ६। भ२। स ३ उदेक्षा,
भाप
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१०५२
गो० जीवकाण्डे पद्मलेश्येय अप्रमत्तर्ग। गु १ । अप्र। जी १ । १६ । प्रा १० । सं ३। गति १ । म । ई १। पं। का १ । । । यो ९ । म ४ । वा ४ । औ का १। वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । म । श्रु । अ । म । सं ३ । सा। छ : पद ३। ले ६। भ १। सं३। उ। वे । क्षा । सं १ । आ १ । उ ७ ॥
भा१प
शुक्ललेश्याजीवंगळगे। गु १३ । जी २। प ।। ५६।६। प्रा १० । ७। ४।२। ५ सं ४ । ग३। ति । म। दे। इं१। का१। यो १५। वे ३। क ४ । ज्ञा ८ । सं ७। द ४।
ले ६। भ २। सं ६। सं १ । आ २। उ १२ ॥ भा१शु
शुक्ललेश्यापर्याप्तकर्गे। गु १३ । जी १। प । प ६ । प्रा १०। ४ । सं४। ग ३ । ति । म । दे। इं१ । का १। यो ११ । म ४ । वा ४। औका। वै का। आ का। वे ३ । क ४ । ज्ञा८। सं ७६४। च । अ। अ। के। ले ६। भ२। ६।सं १। आ १ । उ १२॥
भा १ शु शुक्ललेश्या अपर्याप्तकग्नें। गु५ । मि । सा । अ । प्र । सयो। जो १ । अ । प ६। अ। प्रा ७ । २ । सं ४ । ग २ । म । दे। इं। का १ । यो ४ । औ मि । वै मि । का। आ । मि । वे १ । पुं। क ४ । ज्ञा ६ । सं ४ । अ । सा। छ। य । द ४। ले २ क शु। भ२। सं ५। मि । सा ।
भा १ शु उ। वे । क्षा । सं १ । आ २ । उ १०॥
शुक्ललेश्यामिथ्यादृष्टिगळ्ग । गु१।मि। जी २।५ । अ । प६।६। प्रा १०। ७ । सं ४ । १५ ग ३ । ति । म । दे। इं १ का १ । यो १२ । म ४ । वा ४ । औ का १। वै का २। कार्म का १। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३। कु। कु । वि। सं १। अ। द २। ले ६। भ२। सं १ ।
भा१शु मि। सं १ । आ २। उ ५॥
२०
सं १, आ १। उ ७ । अप्रमत्तानां-गु १ अप्र, जी १५, १६। प्रा १०, सं ३, ग १ म । इं १ पं । का १त्र । यो ९ म ४ व ४ औ १ । वे ३, क ४, ज्ञा ४ म श्रु अ म । सं ३ सा छे प । द ३ । ले ६ ।
भा १५ भ १ । स ३ उ वे क्षा । सं १। आ १ । उ ७ । शुक्ललेश्यानां-गु १३ । जी २ प अ । प६।६। प्रा १० । ७ । सयोग ४ । २ । सं ४ । ग ३ ति म दे, इं१ । का१ । यो १५ । वे ३ ।। ४ । ज्ञा ८ । सं ७ । द ४, ले ६ । भ २ । स ६ । सं १, आ २, उ १२ । तत्सर्याप्तानां-गु १३ । जी १ प, प ६,
भा १ शु प्रा १०४, सं ४, ग ३ ति म दे, इं१, का १, यो ११ म४ व ४ औ १ १, आ १। वे ३, क ४, ज्ञा ८। सं७, द ४ च अ अ के, ले ६ । भ २, स ६, सं१। आ १, उ १२ । तदपर्याप्तानां-ग ५, मि सा अप्रस,
भा १ शु जी १ अ, प ६ अ, प्रा ७, २, सं ४, ग २ म दे, इं १, का १ यो ४ औमि वैमि आमि का, वे १ पुं, क ४, ज्ञा ६, सं ४ अ सा छे य, द ४ ले २ क शु । म २, स ५ मि सा उ वे क्षा, सं १, आ २, उ १० ।
भा १ शु तन्मिथ्यादृशां-गु १ मि, जी २ प अ, प ६ ६, प्रा १०, ७, सं ४, ग ३ ति म दे, इं १, का १, यो १२ म ४ व ४ औ १ व २ का १, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, व २, ले ६, भ २, स १ मि, सं १,
भा १शु
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०५३ शुक्ललेश्यामिथ्यादृष्टिपर्याप्तकगें । गु१। मि। जी१। ।१६। प्रा १०। सं४। ग ३ । ति । म । दे। इं १ । का १। यो १० । म ४। वा ४। औ का १। वै का १। वे३। क ४ । ज्ञा३ । कु। कु। वि।सं १ अ । द २ । ले ६। भ२। सं ११ मि । सं१। आ १।
भा१शु उ५॥
शुक्ललेश्यामिथ्यादृष्टयपर्याप्तकग्गें । ग १ । मि । जी १ । अ । ५६।।६। प्रा७ । अ । सं ४ । ग १। दे। इं१ । का १ । यो २। वै मि १। का १। वे १। पुं। क ४। ज्ञा २। ५ कु। कु । सं १ । अ । द २। ले २ क शु। भ२। सं १ । मि सं १ । आ २। उ ४॥
भा १ शु शुक्ललेश्यासासादनग्गें। गु१। सासा। जी २।५।अ। प६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग३। ति। म। दे। इं १। का १ । यो १२ । म ४ । वा ४। औ का १। वै २। का १। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि।सं १ । अ । द २। ले ६ भ१ । सं १ । सासा।
भा १ शु सं १: आ २। उ ५॥
शुक्ललेश्यापर्याप्तसासादनसम्यग्दृष्टिगळगे । गु१ । सासा। जो१५६। प्रा १० । सं४। ग ३ । ति । म । दे। इं १ का १ । यो १० । म ४ । वा ४ । औ का १। वैक्रि का १। वे ३ । क४। ज्ञा३।क। वि। सं१। अ। द २ ले ६ भ१। सं१। सासा सं १।
भा १ शु आ १। उ ५॥
शुक्ललेश्यासासादनापर्याप्तकगें। गु१। सासा। जी १। अ।१६।। प्रा ७ । अ। १५ सं ४ । ग १ दे । इं.१ का १ । यो २। वै मि । का १ । वे १ । पुं। क ४ । ज्ञा २। क । कु। सं१। अ। द२ ले २ कशी भ१। सं१। सासा । सं १। आ २। उ४॥
भा१शु
आ २, उ ५। तत्पर्याप्तानां-गु १ मि, जी १ प, प ६, प्रा १०, सं ४, ग ३ ति म दे, इं१, का १, यो १० म ४ व ४ औ १ व १, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २,ले ६, भ २, स १,सं १,
भा १शु आ १, उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु १ मि, जी १ अ, प ६ । प्रा ७, सं४, ग १ दे। ई १, का १, यो २, वैमि २० का, वे १ पुं, क ४, ज्ञा २ कु कु, सं १ अ, द २, ले २ क शु। म २, स १ मि, सं १, आ २, उ ४।
भा १शु सासादनानां-गु १ सा, जी २ प, अ, १६, ६, प्रा १०, ७ । सं ४ । ग ३ ति म दे, ई १, का १, यो १२ म ४ व ४ औ १ वै २ का १, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कू वि, सं १ अ, द २। ले ६ ।
भा १ शु भ १, स १ सा, सं १, आ २, उ ५। तत्पर्याप्तानां- १ सा, जी १ प, प ६, प्रा १०, सं४, ग ३ ति म दे, इं१, का १, यो १० म ४, व ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ,। द २, ले ६, २५
भा १ शु म १, स १ सा, सं १, मा १,। उ ५। तदपर्याप्तानां-गु १ सा, जी १ब, प ६ ब, प्रा ७ अ, सं४, ग १ दे, इं १, का १। यो २ वैमि का। वे १५, क ४, ज्ञा २ कुकु, सं १ अ द २, ले २ क शु ।
भा१शु
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१०५४
गो० जीवकाण्डे शुक्ललेश्यासम्यग्मिध्यादृष्टिगळ्ग । गु १ मिश्र । जो १।५।१६। प्रा १० । सं ४। ग ३। । ति। म । दे। इं१ का १। यो १० । म ४। वा ४। औ का १ का १। वे ३। क४। ज्ञा ३ । मिश्र । सं १ । अ । व २। ले ६। भ १ । सं१। मिश्र । सं १ । आ १। उ ५ ॥
भा१शु शुक्ललेश्याऽसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे गु१। असं। जो २। प । अ। प६ । ६ । प्रा १० । ५ ७ । सं ४। ग ३ । ति । म। वे । इं १ का १। यो १३ । आहारद्वयज्जित वे ३। क ४ । ज्ञा३।म। श्र। अ। सं१। अ। ३। ले६। भ१. सं३। उ। वे। क्षा। सं ।
भा१शु आ २। उ६॥
शुक्ललेश्याऽसंयतसम्यग्दृष्टिपातक । गु१। असं । जी १।५।१६। प्रा १०। ___ सं४। ग३। ति । म । दे। इं१। का १। यो १० । म ४ । वा ४ । औ का १ । वे का १ । १० वे ३। क ४ । ज्ञा ३। म। श्रु। अ । सं १ । अ। ३। ले ६। भ१। सं३। सं १ ।
भा १ शु आ १। उ६॥
शुक्ललेश्याऽसंयतसम्यग्दृष्टयपर्याप्तकरगें । गु १। असं। जी १। अ। ५६। अ प्रा ७ । सं ४ । ग २ । म । दे । इं १ का १ । यो ३ । औ मि । मि । का। वे १। पुं। क ४ । ज्ञा ३। म । श्रु । अ । सं १ । । ३। ले २ क शु। म १। सं३। उ । वे।क्षा । सं १।
भा १श १५ आ २। उ६॥
शुक्ललेश्यादेशवतिगळगे गु१। देश । जी।१।१६। प्रा १० । सं ४ ग २। ति । म। इं१। का १ । यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३। म । श्रु । अ । सं १ । देश । व ३। ले ६ ।
भा१शु भ १। सं३ । सं १ । आ १ ६ ॥
भ १, स १ सा। सं १ । आ २ । उ ४। सम्यग्मिथ्याशां-१ मिश्रं । जी १५।१६। प्रा १० । सं४। ग३ ति म दे। इं१ का १, यो १० म ४ व ४ औ वं। वे ३, क ४, ज्ञा ३ मिश्राणि । सं १ अ । द २ । ले ६ । म १, स १ मिश्र । सं १। १ । उ ५। असंयताना- १ । जी २५
मा १ शु अ। ६६।६। प्रा १० । ७ । सं४, ग ३ ति म दे। ई १, का १। यो १३ थाहारद्वयाभावात् । वे ३। क ४ । ज्ञा ३ मश्रुम । सं१।६३, ले ६। भ१। स ३ उ देक्षा। सं १ मा २ ।
मा १शु उ ६। तत्पर्याप्तानां-गु १ अ । जी १५। प६। प्रा १० । सं ४ । ग ३ ति म दे। इं१। का १। यो १० म ४ व ४ औ वै। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ मश्रु म । सं १म। द ३ ।ले ६ । भ१। स ३ ।
भा१शु सं १ मा १। उ६ । तदपर्याप्तानां-ग १अ । जी १ अ। प६अ। प्रा७ । सं ४ । ग २ म दे। ई१। का १। यो ३ औमि वैमि का। वे १ पुं। क४। ज्ञा ३ मश्रुम । सं १ अ। द ३ । ले २ क । श। भ१। स उ वे क्षा। सं १ मा २। उ ६। देशवतानां-गु १ दे। जी १५ । भा १ शु प६ । प्रा १० । सं४। ग २ तिम, ई१५। का१त्र। यो ९ । वे३। क४। ज्ञा ३ म श्रम।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
शुक्ललेश्याप्रमत्तसंयत । गु १ । प्र । जो २ । प ।
।
४ । म । इं १ का १ । यो ११ । म४ । वा ४ । औ का १ । आ २ | वे ३ । सं३ । सा । छे । प । ब ३ । भ १ । ३ । सं १ । बा १ । उ ७ ॥
ले ६ | भा १ शु
शुक्ललेश्याअप्रमत्तसंयतं । गु १ । अप्र । जी १ ।
।
म । इं १ | का १ । यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ | सं ३ । सा । छे
सं ३ । सं १ । आ १ । उ७ ॥
शुक्ललेश्या अकरणप्रभृतिसयोगकेवलिगुणस्थानपय्यंतं ओघभंगमेयक्कुं । अलेइयरप्प अयोगकेवलिसिद्धपरमेष्ठिगळिगे ओघभंगमकुं । इंतु लेश्यामाग्गंणे समाप्तमावुवु ॥
अभव्यप्तक
४ । सं ४ । ग ४ । इं ५ ज्ञा ३ । कु । कु ।
वि
भव्यानुवाददोळ भव्यरुगळगे ओघभंगमक्कं । मभव्यसिद्धरुगळगे । गु १ । मि । जो १४ । प६।६।५ । ५।४ । ४ । प्रा १० । ७ । ९।७।८६ । ७। ५ । ६ । ४ । ४ । ३ । सं ४ | ग ४ । इं ५ | का ६ । यो १३ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि सं १ । अ । व २ ॥ ले ६ | भ १ | अभव्य । सं १ । मिथ्या । सं २ । आ २ । उ ५ ॥
६
।
सं १ अ । व २
।
भा १ शु सिद्धानां च ओघमंगो भवति । लेश्यामार्गणा गता ।
१०५५
६ । ६ । प्रा १० । ७ ।
क ४ । ज्ञा ४ ।
६ । प्रा१० । सं ३ । ग १ | । प । व ३ । ले ६ । भा १ शु
भ१ ।
।
१ । मि । जी ७ ।
१६ । ५ । ४ । प्रा १० । ९ । ८।७।६। का ६ । यो १० । म ४ । वा ४ । औ का १ । वै का १ । वे ३ । क ४ । मि । सं २ । १५
। भ १ । अभव्य । सं १
ले भा ६
जी ७ । १६५४ । प्रा १०९८७६४ । सं ४ । वे ३ । क ४ । शा ३ कु कु वि । सं १ अ । द२ ।
आ १ । उ५ ॥
सं १ | ३ | ६ | भ १ । स ३ । सं १ । आ १ । उ ६ । प्रमत्तानां - गु१प्र । जी २१ । अ ।
भा १ शु
प६६ । प्रा १०, ७ । सं ४ । ग १ म । ई १ । का १ । यो ११ म ४ व ४ ओ १ । आ २ । वे ३ | क ४ । ज्ञा ४ । सं३ । सा छे प, द ३ । ले ६ । भ १ । स ३ । सं १ । बा १ । उ ७ । अप्रमत्तानां -गु १ भा १ शु अजी १ । १६ । प्रा१० । सं३ । ग १ म । ई १ । का १ । यो ९ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ । सं ३ सा २० छे प । द ३ । ले ६ । भ १ । स ३ । सं १ । आ १ । उ ७ । अपूर्वकरणात्सयोगपर्यंतानां अलेश्यायोगि
५
भव्यानुवादे भव्यानामोघभंगः | अभव्यानां - गु १ मि । जो १४ प ६६५५४४ । प्रा १०७ ९ ७, ८ ६ ७ ५ ६ ४ ४ ३, सं ४ । ग ४ । इं ५ । का ६ । यो १३ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ कु कु वि । सं १ अ । द२ । ले ६ । १ अ स १ मि । ६
सं २ । आ २ । उ५ । तत्पर्याप्तानां गु १ मि । २५
ܐ
ग ४ । इं ५ । का ६ । यो १० म ४ व ४ औ वै । ले ६ । भ १ छ । स १ मि । सं २ । आ १ । ६
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१०५६
गो०जीवकाण्डे
अभव्यापर्याप्तकग्गें । गु १। मि। जी ७। अ। ५६। ५। ४ । प्रा ७। ७।६। ५। ४।३। अ । सं४। ग४ इं५ । का ६। यो ३ । औ मि। वै मि । का। वे ३ । क ४ । ज्ञा २। सं १। अ। द २। ले २ क शु। भ१। अभव्य । सं १ । मि । सं २। आ २। उ४॥
भा६ भव्यरुमभव्यरुमल्लद सिद्धपरमेष्ठिगळ्गे गुणस्थानातीतर्गे मुं पेन्दतेयकुं। इंतु भव्य५ मारगंणे समाप्तमादुदु ।
सम्यक्त्वानुवाददोळु सम्यग्दृष्टिगळ्गे । गु ११ । असंयतादि । जी २। प । अ।१६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग ४।६१पं । का १ त्र । यो १५ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ५ । म । श्रु । अ । म। के। सं द४। ले। भ१। सं३ । उ। वे।क्षा । सं१। आ २। उ९॥
भा६
सम्यगदृष्टिपर्याप्तकग्गें । गु१। जी १।१६। प्रा १०। ४ । १। सं ४ । ग ४ । इं१। १० का १।यो ११ । म४। व४ औ का। वै का। आ का। वे३। क ४ज्ञा ५। म। श्र। अ। म।के।सं। द४। ले ६ भ१। सं३। उवे।क्षा। सं१। आ१। उ९॥
भा६
सम्यग्दृष्टि अपर्याप्तकंगें । गु३। अ।प्र। सयो। जी १ । अ। १६ । अ। प्रा ७ । अ२।४। ग४ । इं१।६। का१त्र। यो ४ । औ मि। वै मि । आ मि । काम्म । वे २।
न । क ४। ज्ञा ४।म। श्र। अ। के। सं४।अ। सा। छ। यथा। द ४ च । अ । अ के। १५ ले २ शुक। भ १। सं३ । उ । वे । क्षा। सं १ । आ २। उ८॥ भा ४ क ते पशु
असंयतसम्यग्दृष्टिप्रभृति अयोगिकेवलिपयंतं मूलौघभंगमक्कं ।।
उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु १ मि । जी ७ अ । प६५ ४ अ । प्रा ७७६ ५४३ अ। सं४ । ग ४ । इं५ । का ६ । यो ३ औमि वैमि का। वे ३ । क४। ज्ञा २ कू कु। सं १ अ । द २ ले २ क श ।
भा ६ २० भ १ अ । स १ मि । सं २ । आ २। उ ४ । भव्याभव्यलक्षणरहितसिद्धानां प्राग्वत । भव्यमार्गणा गता।
सम्यक्त्वानुवादे सम्यग्दृष्टीनां-गु ११ असंयतादीनि । जी २ प अ । प ६ ६ । प्रा १०७ ४ २ १ । सं ४, ग ४, इं१५, का १ त्र, यो १५ । वे ३, क ४, ज्ञा ५ म श्रु अ म के, सं७, द ४ ले ६, भ १,
भा६ स ३ उ वे क्षा, सं १, आ २, उ ९ । तत्पर्याप्तानां-गु ११, जी १, प६ ४, प्रा १०४१, सं ४,
ग ४, ई १, का १, यो ११ म ४ व ४ औ वै आ, वे ३ । क ४, ज्ञा ५ म श्रु अ म के, सं ७ । द ४, २५ ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा। सं१। आ २। उ ९। तदपर्याप्तानां-गु ३ अ प्रस। जी १ अ।
प६अ। प्रा ७ अ । २ । सं ४ । ग४। इं१५ का १ । यो ४ औमि वैमि आमि का । वे २ नपं । क ४ । ज्ञा ४ म श्रु अके। सं ४ अ सा छे य। द ४ च अ अ के। ले २ क शु। भ१। स ३ उ वे
भा४ क्षा । सं १ । आ २ । उ ८। असंयतादयोगिपर्यंत मूलौधभंगः ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०५७ क्षायिकसम्यग्दृष्टिगळ्गे। गु ११ । जी २।१६।६। प्रा १० । ७। ४ । २।१। सं ४ । ग ४ । इं१।पं । का १२ । यो १५ । वे ३। क ४ । ज्ञा ५ । सं७। द ४। ले ६। भ १ । सं १ । सं १ । आ २ । उ९॥
क्षायिकसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकग्गें । गु ११ । जी १।१६। प्रा १० । ४ । १ । सं ४ ।ग ४। इं१। का १ । यो ११। म ४ । वा ४ । औ का १।वैका १। आ का १।वे ३ । क ४। ज्ञा ५। ५ म । श्रु । अ । म । के। सं७। द ४ । ले ६ भ १। सं १।क्षा । सं १ । आ १ । उ९॥
भा६
क्षायिकसम्यग्दृष्टयपर्याप्तकग्गें। गु३ । अ ।प्र। सयो । जी १ । अ। १६ । अ। प्रा ७।२। सं४।ग ४। १६ । का१त्र । यो४ औ मि। वै मि । आ मि । काम्म। वे२। न। पुं। क ४ । ज्ञा ४ । म । श्रु । अ। म । के। सं ४ । अ । सा। छे । यथा। द४। च । । अ। के। ले २ क शु । भ१। सं १ । क्षा । सं १। आ २। उ८॥
भा६
क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंयतंगे। गु१। अ। जी २। प। अ।१६।६। प्रा १०।७। सं ४ । ग ४। इं१। पं । का १ त्र। यो १३ । आहारद्वयरहित । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु। अ । सं १ । अ। द३। च । अ । अ। ले ६ । भ१ । सं १ । क्षा । सं १ । आ २। उ६॥
भा६ क्षायिकसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकासंयतरें। ग१। असं। जी १।१६। प्रा १० । सं४।। ग ४। इं१६ । का १ त्र। यो १० । म ४ । वा ४। औ का।वै का। वे ३ । क ४। ज्ञा ३। १५ म । श्रु। अ। सं १। अ। द३ च । अ। अ। ले ६ । भ१। सं १। क्षा। स । सं १।।
भा६ आ१। उ६॥
क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां-गु ११ । जी २ प ६६ । प्रा १० ७४२१। सं ४ । ग ४। इं१६ । का १त्र । यो १५ । वे३ । क ४। ज्ञा५ । सं७ । द४ । ले ६। भ१। स १क्षा । सं१। आ २।
उ ९। तत्पर्याप्तानां-गु ११ । जी १ । १६ । प्रा १०४१। सं ४ । ग ४ । ई१ का १ । यो ११ म ४ व ४ औ वै आ, वे ३ । क ४। ज्ञा ५ म श्रु अ म के। सं७ । द ४। ले६। भ१। स १क्षा।।
सं १ । आ १ । उ ९ । तदपर्याप्तानां-गु ३ अप्रस। जी १ अ। १६ । प्रा ७.२। सं४ । ग ४ । इं१५। का१त्र । यो ४। औमि मि आमि का। वे २ न, पुं। क४। ज्ञा ४ म श्रु अके। सं ४ अ सा छे य । द ४ च अ अ के । ले २ क शु भ १ । स १क्षा । सं १। आ २ । उ ८ । तदसंयतानां
भा ६ गु १ अ । जी २ प अ । प ६६ । प्रा १०७ । सं ४ । ग ४ । इं१५ । का१त्र। यो १३ आहारद्वयाभावात् । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ मश्रु अ । सं १ अ । द ३ च अ अ । ले ६ । भ १। स १ क्षा। सं १। २५
आ २ । उ ६ । तत्पर्याप्तानां-गु १ अ। जी १ ६ । प्रा १० । सं४ । ग ४। ई१६ । का१त्र। यो १० म ४ व ४ औ ११। वे ३ । क४। ज्ञा ३ मश्रु अ । सं १ अ । द३ च अअ। ले६ ।
१३३
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१०५८
गो० जीवकाणे ___ क्षायिकसम्यग्दृष्टयसंयतापर्याप्तकग्गें। गु१। असं। जी १। अ। ५६। अ। प्रा ७। असं ४ । ग ४। इं१। पं। का १ त्र। यो ३। औ मि। वै मि । का। वे २। न । पुं। क ४। ज्ञा ३ । म । श्रु । अ। सं १ । अ । द ३ । च । अ । अ। ले २ क शु। भ १।सं १।
भा४कते पशु क्षा । सं १। २। उ६॥
क्षायिकसम्यग्दृष्टिदेशवतिगळ्गे। गु १ । देश । जी १।५।१६। प्रा १० । सं ४ । ग१। म।ई १। पं। का १ । यो ९ । म ४ । वा ४ । औ का १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु। अ।सं १। दे। द३। च । अ ।अ। ले ६। भ १ । सं १ । क्षा । सं १ । आ १ । उ ६ ।।
भा३ क्षायिकसम्यग्दृष्टिप्रमत्तप्रभृति सिद्धपयंतमोघभंगमक्कुं॥
वेदकसम्यग्दृष्टिगळगे । गु ४ । अ । दे। प्रा। जी २५ । अ। प६।६। प्रा १०। १० ७। सं ४ । ग ४ । इं १ । पं । का १ ३ । यो १५ । वे ३। क ४ । ज्ञा ४ । म । श्रु। अ म । सं५ । । दे। सा । छ।प। ३। ले ६ भ१।सं १। वेदक । सं१। आ २। उ७॥
भा६ वेदकसम्यग्दृष्टिपतिकग्गें । गु४ । अ । दे। प्र। अ। जी १।५।१६। प्रा १० । सं ४ । ग४। इं १ का १। यो ११ । म ४ । वा ४ । औ १ । वै १। का १। वे ३ । क ४। ज्ञा ४।म।श्रु । अ। म । सं ५ । अ । दे। सा । छ । प। द ३। ले ६ । भ१। सं १ । वेदक ।
भा६ १५ सं १ । आ १। उ ७॥
वेदकसम्यग्दृष्टि अपर्याप्तकग्गें । गु२। असं । प्रम । जी १ अ । प६। अ। प्रा । सं ४। ग ४। इं१६ । का १ त्र। यो ४ । औ मि । वै मि । आ मि का। वे २।न।पुं। क ४। ज्ञा ३। म श्रु अ। सं ३ अ । सा। छ। द३। ले ६। भ१। सं १। वेदक । सं १ । आ २।
भा६
२० भ १ । स १क्षा । सं१। आ १ । उ ६ । तदपर्याप्तानां-१ म। जी १ अ । प६अ। प्रा ७ अ ।
सं४। ग४। इं१५। का१त्र । यो ३ औमि वैमि का। वे २ न पुं। क ४। ज्ञा ३ मश्रु अ । सं १ अद३ च अस। ले २ क शु। भ१। स १क्षा । सं १ । आ २ । उ ६ । तद्देशव्रतानां
भा ४ क ते पशु गु१ दे। जी ११।१६। प्रा १०। सं४। ग १ म। इं१पं। का १४। यो ९ म४। व ४। औ। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ मश्रु अ । सं १ दे । द ३ च अ अ । ले ६ । भ१। स १ क्षा। सं १ । आ १।
भा ३ २५ उ ६ । प्रमत्तात्सिद्धपयंतं ओघभंगो भवति ।
वेदकसम्यग्दृष्टीना-गु ४ अ दे प्रअ । जी २। १६६। प्रा १०७ । सं४। ग ४। इं१५ । का१त्र। यो १५ । वे ३ । क ४। ज्ञा ४ मश्रु अ म । सं५ अ दे सा छेप । द३ ले ६। भ१।
स१ वे। सं १ । आ २। उ७। तत्पर्याप्तानां-गु ४ अ दे प्रअ । जी १५, १६, प्रा १०, सं४।
ग४, इं१, यो ११ म ४ व ४ औ १वै १, आ १, वे ३, ४, ज्ञा ४ म श्रु अम, सं५ अ दे सा छेप, ३० द३, ले ६, भ १, स१वे, सं १, आ १, उ७। तदपर्याप्तानां-गु २ अ प्र, जी १ अ, प ६, प्रा ७,
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०५९ वेदकसम्यग्दृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे। गु १ । असं । जी २५।। ५६।६। प्रा १० । ७। सं ४ । ग ४ । इं १ पं । का ११ । यो १३ । म ४ । वा ४ । औ २। वै२। का १। वे ३ । क४। ज्ञा३।म। श्रु । अ । सं १।अ। द३। ले६। भ१। सं। वे। सं१ । आ ।
भा६ उ६॥
वेदकसम्यग्दृष्टयसंयतपर्याप्तकरों। गु१। जी १ । प६। प्रा १०। सं४। ग४। ५ इं १ का १ । यो १० । म ४ । वा ४। औ का १। वै का १। वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । म । श्र। अ।सं १ । असंयम । द ३। ले ६। भ१।सं १। वे । सं १। आ १। उ ६॥
भा ६ वेदकसम्यग्दृष्टयपर्याप्तासंयतसम्यग्दृष्टिगळगे। गु १ । अ। जो १ । अ । ५६। प्रा । अ । सं ४ । ग ४। इं१। का १ । यो ३। औ मि । वै मि। का। वे २। षं। पुं। क ४ । ज्ञा ३।म। श्रु । अ । सं १ ।अ। द३। ले २।भ १।सं १। वे । सं १ । आ २। उ ६॥ १०
भा ६ वेदकसम्यग्दष्टिदेशवतिगळ्गे। गु १ । देश । जी १।५।१६। प्रा १० । सं४। ग२। ति । म । इं १।। का १ त्र। यो ९। म ४ । वा ४। औ का १। वे ३ । क ४ ।ज्ञा ३। सं १। देश । द३। ले ६। भ १। सं १। वे ।सं १। आ१। उ६॥
भा३ वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तग्नें। गु१। प्रम। जी२। पअ । प६।६। प्रा १०। ७। सं ४। ग१।म। १। पं। का १त्र। यो ११। म४ । वा ४। औ १। आ २ । वे ३। १५ क ४ । ज्ञा ४ । म । श्रु। अ। म । सं३ । सा । छ। प। द३। ले ६ । भ १ । सं १ । वेद ।
भा३ सं १। आ १। उ७॥
सं ४, ग ४, ई १ पं, का १ त्र, यो ४ औमि वैमि आमि का, वे २ न पुं, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं ३ अ सा छ, द ३, ले २, भ १, स १ वे, सं १, बा १, उ६। तदसंयतानां- १ अ, जी २ प, अप ६,६।
प्रा १०,७ सं ४, ग ४, इं १ पं, का १ त्र, यो १३ म ४ व ४ औ २ नं २ का १, वे ३, क ४, ज्ञा ३ म.श्रु अ, सं १ अ, द ३, ले ६, भ १, स १ वे, सं १, आ २, उ ६। तत्पर्याप्तानां-ग १ अ, जी १ प, प ६,
२०
प्रा १०, सं ४, ग४, इं १, का १त्र, यो १०, म ४ व ४ औ १ व १, वे ३, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३, ले ६, भ १, स १ वे, सं १, बा १, उ ६ । तदपर्याप्तानां-गु १ अ, जी १ अ । प ६ अ,
प्रा ७ अ, सं ४, ग ४, इं १, का १, यो ३ औमि वैमि का, वे २ षं पुं, क ४, ज्ञा ३ म श्रु अ, सं १ अ, द ३, ले २ क शु, भ १, स १ वे, सं १, आ २, उ ६ । देशव्रतानां-गु १ दे, जी १ प, प ६, प्रा १०, २५
भा ६ सं ४, ग २ ति म, इं १ पं, का १ त्र, यो ९ म ४ व ४ ओ, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ दे, द ३ ले ६,
भ १, स १ वे, सं १, आ १,उ ६ । प्रमत्तानां १ प्र, जी २ प अ, प६६,प्रा १०७, सं ४, ग १ म, इं१५, का १त्र, यो ११ म ४ व ४ औ १, मा २, वे ३, क ४, ज्ञा ४ म श्रुब म, सं ३ सा छे प,
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१०६०
गो० जीवकाण्डे वेदकसम्यग्दृष्टयप्रमतसंयतग्गें। गु १। अप्र। जी १। ५६। प्रा १०। सं३ । ग १ म। इं१५। का१त्र । यो ९। वे ३। क ४। ज्ञा ४ । सं३ । सा। छ । ५। द ३ । ले ६। भ १ । सं १। वे । सं १ । आ १ । उ७॥
भा३
उपशमसम्यग्दृष्टिगळ्ग । गु८। जी २१प । अ । प६।६। प्रा १०।७। सं ४ग ४। ५ ई १। का १। यो १२। म ४ । वा ४। औ का १ । २। का १। वे ३। क ४। ज्ञा ४ । सं६ । अ । दे । सा। छ । सू । य। द३। ले ६। भ १ । सं १ उ । सं १। आ २। उ ७॥
भा ६ उपशमसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकग्गं । गु८। । दे। प्र । अ अ । सू। उ । जी १। प६। प्रा १० । सं ४ । ग४ । इं१। का १। यो १०। म ४ । व ४। औ का १। वै का १। वे ३। क ४ । ज्ञा ४ । म । श्रु । अ । म । स ६। अ । दे । सा । छ। सू। य । द ३। ले ६। भ१।
भा६ १० सं १। उ। सं १। आ १। उ ७॥
उपशमसम्यग्दृष्टयपर्याप्तकग्गें । गु१। असंयत । जी १ । अ। ५६। अ। प्रा७। सं ४ । ग १ । दे। इं१ का १ । यो २। वै मि । का। वे १। पुं। क ४ । ज्ञा ३। सं १। । द३। ले २ क शु। भ १।सं १। उ।सं १। आ २। उ६॥
भा ३ शुभ
उपशमसम्यग्दष्टयसंयतग्गं । गृ१ असंयत । जी२।।। ५६।६। प्रा १०॥ १५ ७। सं ४ । ग ४ । इं१ का १ । यो १२। म४। वा ४। औ का १। २। का१ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३।म श्रु । अ।सं १। ।द ३ ले ६। भ१। सं १। उ । सं १ । आ २। उ६॥
भा६
द ३, ले ६, भ १, स १ वे, सं १, आ १, उ ७ । अप्रमत्तानां
-गु १ अ, जी १, प ६, प्रा १०,
सं ३, ग १ म, इं १ पं, का १ त्र, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ४, सं ३ सा छे प, द ३, ले ६ । भ १,
स १ वे, सं १, आ १, उ ७। उपशमसम्यग्दृष्टीनां-गु ८, जी २ प अ, प६६, प्रा १०७, सं ४, ग ४, ई१ का ११ । यो १२ म ४ व ४ औ १ व २ का १। वे ३।क ४ । ज्ञा ४ । सं ६ अ दे सा छे सू य । द ३ । ले ६ । भ १ । स १ उ । सं १। आ २। उ ७। तत्पर्याप्तानां-गु ८ अ दे प्र अ अ अ
सू उ । जी १। प६ । प्रा १० । सं४। ग४। इं१। का१। यो १० म ४ व ४ औ वै। वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ म श्रु अ म । सं ६ अ दे सा छे सू य । द ३ । ले ६ । भ१। स १ उ। सं १ । आ १ ।
उ ७। तदपर्याप्तानां-गु १ अ। जी १ अ। ६ अ । प्रा ७। सं ४ ग १ दे। १। का १। यो २ वैमि का। वे१पुं। क४ । ज्ञा ३ । सं १ अ । द ३ । ले २ क श । भ१ । स १३ । सं १ मा १ ।
भा ३ शु उ६ । असंयतानां-१ अ । जी २ । प ६६ । प्रा १०७ । सं४।ग४।१ का १ । यो १२ म ४ व ४ औ १ व २ का १ । वे३ । क ४ । ज्ञा ३ म श्रु अ । द ३ ले ६। भ१। स १ । १ । आ २। उ६।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०६१ उपशमसम्यग्दृष्टयसंयतपर्याप्तकग्नें। गु१। अ । जी १। ५६। प्रा १० । सं४। ग ४ । ई १ का १ । यो १० । म ४ । वा ४ । औ का १। वै का १। वे ३। क ४। ज्ञा ३ । सं १। । ३। ले ६। भ १। सं १। उ । सं १। आ १। उ६॥
भा६ उपशमसम्यग्दृष्टयसंयतापर्याप्तकग्गें । गु १ । अ। जी १ । १६ । अ। प्रा ७ । सं ४ । ग १। दे। इं१ । का १४ । यो २।वै मि १ । का १। वे १ पुं। क ४ । ज्ञा ३ । सं १। अ। । द३। ले २ क शु। भ१। सं१। उ । सं१। आ २। उ६॥
भा ३
उपशमसम्यग्दृष्टिदेशवतिगळ्गे। गु १। दे । जी १ । प६। प्रा १०। सं ४ । ग २। ति। म। १ । का१ । यो ९। म ४ व ४। का १। वे ३।क ४। ज्ञा३। सं १। दे। द३। ले ६। भ १ । सं १ । उ । सं १ । आ १ । उ ६॥ भा३
उपशमसम्यग्दृष्टिप्रमत्तग्ग। गु१। प्रम। जो१। प६। प्रा १० । सं ४ । ग १ । म। इं१। का १। यो ९। म ४ । व४। औ का १। वे ३। क ४ । ज्ञा ४ । म । श्र। अ। म। १० सं २। सा। छ। द ३। ले ६। भ १ । सं १। उ । सं १ । आ १। उ ७ ॥
भा३ उपशमसम्यग्दृष्टिअप्रमत्तसंयतपणे। गु १। अप्र। जी १। ५६। प्रा १० । सं ३ । ग १ म। इं१। का १। यो ९। म ४ । वा ४। औ का १। वे ३। क ४। ज्ञा ४ । सं२। सा । छ। द ३ । ले ६। भ १ । सं १ । उ। सं १। आ १। उ ७॥
भा २ उपशमसम्यग्दृष्टि अपूर्वकरणप्रभृति उपशांतकषायछप्रस्थवीतरागपयंत ओघभंगमक्कुं। मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्ररुचिगळ्गे ओघभंगमेयप्पुवु | इंतु सम्यक्त्वमार्गण समाप्तमादुदु ॥
तत्पर्याप्तानां-१ अ । जी १।५६ । प्रा १० । सं४ । ग ४ । इं१ का १। यो १० म ४ व ४ औ १ वै१ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३। सं १ अ । द ३ ले ६ । भ १। स १ उ । सं १। आ १ । उ ६ ।
२०
तदपर्याप्तानां-गु १ अ । जी १ अ । प ६ अ । प्रा ७ । सं ४ । ग १ दे। इं१ । का १ त्र । यो २ वैमि का । वे १ पुं । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ अ । द ३ । ले २ क शु । भ १। स १ उ । सं १। आ २ । उ ६।
भा ३ देशव्रतानां-गु १ दे। जी १।१६। प्रा १० । सं४। ग २ ति म । इं१ का १। यो ९ म ४ व ४ औ १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ दे । द ३। ले ६ । भ१। स १ उ । सं १। आ १ । उ६ ।
२५
प्रमत्तानां- १ प्र । जी १।प६ । प्रा १० । सं ४ । ग १ म । इं१ का १ । यो ९ म ४ व ४ । औ १। वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ म श्रु अ म । सं २ सा छे । द ३। ले ६ । भ १ । स १ उ । सं १ । आ १ । उ ७।
भा ३ अप्रमत्तानां-ग १ अ। जी १ । प ६ । प्रा १० । सं३ । ग १ म । इं१ । का १त्र। यो ९ म४ व ४ औ। वे ३ । क ४। ज्ञा ४ । सं २ सा छे। द ३। ले ६ । भ १ । स १उ। सं १। बा १। उ ७।
भा ३ अपूर्वकरणादुपशांतकषायपयंतमोघभंगः । तथा मिथ्यादृष्टिसासादनमिश्ररुचीनामपि । सम्यक्त्वमार्गणा गता।
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१०६२
गो. जीवकाण्डे संज्ञानुवाददोळ । संशिगळ्गे । गु १२। जी २। प। अ। प६।६। प्रा १०। ७। सं। ४ग ४ । १ का १। यो १५ ।। वे ३। क४। ज्ञा ७ । सं७। द३ ले ६। भ२।
भा६ सं ६। सं १ । आ २ । उ १०॥
संजिपर्याप्तकर्गे । गु१२। जी १। प६। प्रा १०। सं ४। ग ४। इं१। का १। ५ यो ११ । म ४ । वा ४ । औ का १ । वै का १ । आ का १ । वे ३ । क ४ । ज्ञा ७ । सं७। द ३ ।
ले ६। भ२। सं६। सं१। आ । उ१०॥ भा६
संध्यपर्याप्तकर्णे। गु ४ । मि । सा । अ।प्र। जी १। अ।प६अ। प्रा७। सं४। ग ४। इं१। का १। यो ४। औ मि १।वै
मिआ मि १ । का १। वे ३ । क ४ । ज्ञा ५। कु । कु। म । श्रु । अ । सं३ । अ । सा । छे । व ३ । ले २ क शु । भ २ ।सं ५ 1 मि । सा । उ।
भा६ १० वे । क्षा । सं १ । आ २। उ ८॥
संजिमिथ्यादृष्टिगळ्गे । गु१। मि । जो २।५ । अ। ५६।६। प्रा १०।७। सं४। ग ४। इं१। पं । का १ त्र । यो १३। आहारद्वयरहित । वे ३ क ४। ज्ञा३ । कु । कु। वि। सं १। अ । द २। ले६। भ२। सं १ मि । सं १ वा २। उ ५॥
भा ६
संज्ञिमिथ्यादृष्टिपर्याप्तकग्गें गु १। मि । जी१।१६। प्रा १० । स ४ । ग४। इं१। १५ का १। यो १० । म ४। वा ४ । औ का १। वै का १। वे ३।क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु। वि।
सं १। अ । द २ ले ६। भ२। सं १ । मि । सं। आ १ | उ ५॥
संयनुवादे संज्ञिनां- १२ । जी २ प अ । प६६ । प्रा १०७। सं४। ग ४ । इं१ । का १ । यो १५। वे ३ । क ४। ज्ञा ७ । सं ७। द ३ । ले ६। भ२।स६। सं१। आ २। उ१०।
तत्पर्याप्तानां-गु १२। जी १।१६। प्रा १० । सं४। ग४। इं१ का १। यो ११ म ४ व ४ औ वै आ। वे ३। ४। ज्ञा ७ । सं ७ । द ३ । ले ६।भ २ । स ६ । सं १ मा १। उ १० । तदपर्याप्तानां
गु ४ मि सा अप्र। जी १ अ। प ६ अ । प्रा ७ अ। सं ४ । ग ४ । ई १ का १। यो ४ औमि वैमि आमि का । वे ३ । क ४ । ज्ञा ५ कु कु म श्रु अ। सं ३ असा छ । द३ । ले २ क श । भ२ । स ५ मि
भा६ सा उ वे क्षा । सं १। आ २ । उ ८ । तन्मिथ्यादृशां-१ मि । जी २ अप६६। प्रा १० । ७ । सं ४ । ग ४। इं१। का १। यो १३ आहारद्वयाभावात् । वे ३ । क ४। ज्ञा ३ कुकुवि । सं १ अ। द२। ले ६ । भ२। स १ मि । सं१। आ २। उ ५। तत्पर्याप्तानां-१ मि । जी१।१६।
प्रा १० । सं ४ । ग ४। इं१ का १। यो १० म ४ व ४ औ वै। वे ३ क ४। ज्ञा ३ ककवि ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०६३ संजिमिथ्यादृष्टयपर्याप्तकग्गें । गु १। मि। जो १। अ। ५६। प्रा ७। सं४। ग ४ । इं १।पं । का १त्र । यो ३ । औ मि १। वै मि १ का १। वे ३ । क ४। ज्ञा २। कु। कु। सं १ । अ । द २ च । । ले २ क शु। भ२। सं १ । मि । सं १ । आ २। उ ४ ॥
भा६
संक्षिसासादनंगे। गु १। सासा । जी २।प। अप६। ६ । प्रा १०। ७। सं ४।ग ४।। इं १ । पं। का १ त्र। यो १३ । म ४ । वा ४ । औ २।वै २। का १ । वे ३। क ४ । ज्ञा ३। ५ कु । कु। वि । सं १ । अ। द २। ले ६। भ १ । सं १। सासा। सं १ । आ २। उ ५॥
भा६
संज्ञिपर्याप्तकसासादनंगे। गु१। सासा । जी१।प। प६। प्रा १०। सं४। ग४। इं१। पं। का १७। यो १०। म ४ । वा ४। औ का १। वै१। वे ३। क ४। ज्ञा ३ । कु। कु। वि।सं १ । अ।द २। ले ६ भ१।सं १। सा। सं १। आ १ । उ ५ ॥
भा ६
संज्ञिसासादनसम्यग्दष्टयपर्याप्तकग्गे। ग१ सासा। जी१। अ। प६। अप्रा७। १० अ । सं४ । ग ३ । ति । म । दे। इं १ का १ । यो ३१ औ मि । वै मि । का। वे ३। क ४ । ज्ञा २। कु.। कु । सं १ । अ । द २। ले २ क शु। भ१। सं १ । सासा । सं १ । आ २। उ४॥
भा६ संज्ञिमिश्रंगे । गु १। मिश्र । जी १ । १।१६। प्रा १० । सं ४ । ग ४ । ई १ । का १ । यो १० । म ४। व ४ । औ का १। वै का १। आहारकद्वयमिश्रद्वय-कार्मणरहित । वे ३ । क ४। ज्ञा३। मिश्र । सं १ अ । द २। ले ६। भ १। सं १ । मिश्र। सं १ । आ १ । उ ५॥ १५
भा६
सं १ अ । द २ । ले ६ । भ २ । स १ मि । सं १ । आ १ । उ ५। तदपर्याप्तानां-गु १ मि । जी १ अ ।
प६ । प्रा ७ । सं ४ । ग ४। इं१६ । का ११ । यो ३ औमि वैमि का । वे ३ । क ४ । ज्ञा २ कु कु । सं १ अ । द २ । ले २ क शु । भ२ । स १ मि । सं१ । आ २ । उ ४ । सासादनानां-गु १ सा । जी २।
प६ ६ । प्रा १०७। सं ४ । ग ४।६१ का १४। यो १३ म ४ व ४ औ २ वै २ का १। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ कु कु वि। सं १ अ। द२। ले ६ । म १। स १ सा। सं१। आ २। उ ५।
.
तत्पर्याप्तानां- १ सा । जी १।१६ । प्रा १० । सं४। ग४। इं१६ । का१त्रयो १० म४०४ औ११। वे ३ । क४। ज्ञा ३ कू कू वि। सं१ अ। द २। ले ६ । भ१। स १ सा । सं१।
आ १ । उ ५ । तदपर्याप्तानां- १ सा । जी १ अ । प६अ। प्रा ७ अ । सं ४ । ग ३ ति म दे । इं१। का १ । यो ३ औमि वैमि का । वे ३ । क ४ । ज्ञा २ कु कु । सं १ अ । द२ । ले २। भ१। स १ सा ।
सं १। आ २। उ ४ । मिश्राणां- १ मिश्र । जी १५ । प६ । प्रा १० । सं ४ । ग४। इं१ का १। २५
यो १०। औदारिकमिश्र-वैक्रियिकमिश्रकार्मणाहारकद्वयाभावात् । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ मिश्राणि । सं १ म ।
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गो० जीवकाण्डे
संज्ञ्य संयतसम्यग्दृष्टिगळगे । गु १ । असं | जी २ । ५ । अ । प६ । ६ । प्रा १० । ७ । सं ४ । ग ४ । इं १ | का १ । यो १३ । आहारद्वयरहित । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १ । अ । व ३ । ले ६ | भ १ । ३ । सं १ । आ २ । उ ६ ॥
भा ६
संज्ञिपर्याप्ता संयत सम्यग्दृष्टिगगे । गु १ । अ सं । १ प ६ । प्रा१० । सं ४ । ग ४ । ५ इं १ । काय १ । यो १० । म ४ । वा ४ । औ का । का | वे ३ | क ४ । ज्ञा ३ । म । श्र । अ । सं १ । अ । द ३ । ले ६ । भ १ । सं ३ । । आ भा ६
१ । उ ६ ॥
१०६४
१०
संत्य पर्याप्तासंयत सम्यग्दृष्टिगग । गु१ । असं । जी १ । इं १ | का १ | यो ३ । औ मि । वैमि । कामं । वे २ । न पुं । क ४ । ज्ञा ३ । सं १ । अ । द ३ । ले २ क शु। भ १ । सं ३ । सं १ । आ २ । उ ६ ॥
भा ६
संज्ञिदेशवतिप्रभृतिक्षीणकषायपय्यंतं मूलौघभंगमक्कुं ।
असंगिगे । गु १ मि । जी १२ । संज्ञिद्वयरहित प५ ।५ । ४ । ४ । प्रा ६ । ७ । ५ । ६ । ४ । ४ । ३ । सं ४ । ग १ ति । इं ५ औ २ भयवाग्योग १ | वे ३ । क ४ । ज्ञा २ । कु । कु । सं १ ले ६ ।
का ६ । यो ४ ।
।
अ । द २ ।
=
४ अशुभ।
१५
सं १ | मि । सं १ । आ २ । उ ४ ॥ असंज्ञिपर्य्याप्तकं । गु१ । मि । जो ६ । अ । संज्ञ्यपर्याप्त रहित प५ । ४ । प्रा ९ । ८ । ७ । ६ । ४ । सं ४ । ग १ । ति । इं ५ । का ६ । यो २ । औ का १ । अनुभयवचन । वे ३ । ४ । ज्ञा २ । कु । कु । सं १ । अ । व २ । ले ६ । भ२ । सं १ | मि । सं १ । भा३ । अशुभ | ते १
प ६ । प्रा ७ । सं ४ । ग ४ । म । श्रु । अ ।
असंज्ञित्वं । आ १ | उ ४ ॥
द २ | ले ६ | भ १ । स १ मिश्रं । सं १ । आ १ । उ ५ । असंयतानां - गु १ अ । जी २५ अ । ६ । ६
२०
६ । प्रा१० । ७ । सं ४ । ग ४ । इं १ । का १ । यो १३ आहारकद्वयाभावात् । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ म श्रु अ । सं १ अ । द ३ । ले ६ । भ १ । स ३ । सं १ । आ २ । उ ६ । तत्पर्याप्तानां - गु १ अ । जी १ । ६
६ प्रा१० । सं ४ । ग ४ । इं १ । का १ । यो १० । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ म श्रु अ । सं १ अ । द ३ च अ अ । ले ६ | भ १ । स ३ उ वे क्षा । सं १ । आ १ । उ ६ । तदपर्याप्तानां - गु १ अ । जी १ अ । ६
९ । ७ । ८ । का १ । अनुभ २ ।
प६ । प्रा७ अ । सं ४ । ग ४ । ई १ । का १ । यो ३ औमि वैमि का क वे २ पुं । न । क ४ । ज्ञा ३ म श्रु अ । सं १ अ । द ३ च अ अ । ले २ क शु । भ १ । स ३ । सं १ । आ २ । उ ६ । देशव्रतात्क्षीणकषायभा ६
२५
पर्यंतं मूलौघभंगः ।
असंज्ञिनां-गु १ मि । जी १२ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तो नहि । प ५५ । ४४ । ७ । ५ । ६ । ४ । ४ । ३ । सं ४ । ग १ ति । इं५ । का ६ । यो ४ । ओ २ वे ३ । क ४ । ज्ञा २ कु कु । सं १ अ । द २ ले ६ । भ १ । स १ मि । भा ४३ शु १
सं
प्रा ९ । ७ । ८।६।
का १ अनुभयवचनं ।
१ । आ २ । उ४।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्वप्रदीपिका असंध्यपर्याप्तकंगे। गु१ । मि । जो ६ । अ । प ५ । ४ । अ प्रा७ । ६।५।४। ३। सं ४ । ग १ ति । इं५। का ६। यो २। औ मि । का। वे ३। क ४। ज्ञा २। सं १ । अ । द २। ले २ क शु। भ २। सं १ मि । सं १ । असंज्ञि । आ २। उ ४॥
भा ३ अशु
संज्यसंशिव्यपदेशरहितसयोगायोगि 'सिद्धरुगळ्गे मूलौघभंगमक्कु । इंतु संज्ञिमागणे समाप्तमादुदु ॥
आहारानुवाददोळु आहारिगळ्गे । गु १३ । जो १४ । प६।६। ५। ५ । ४। ४ । प्रा १० । ७।९।७।८।६।७।५।६।४।४।३।४।२। सं ४ । ग ४ । ई ५ का ६। यो १४ । कार्मणकाययोगरहित । वे ३ । क ४। ज्ञा ८। सं ७। व ४ । ले ६। भ२। सं६। सं २।
आ १। उ १२॥
आहारिपर्याप्तकग्गें । गु १३ । जी ७। ५६५।४। प्रा १०।९।८।७।६। ५। १० ४।४। ४।ग ४। ५। का६। यो ११ । म४३ वा ४। औ का। का। मा का। वे ३ । क ४। ज्ञा ८ । सं ७ । द ४। ले ६ । भ २। सं ६ । सं २। बा १ । उ १२॥
भा६ आहारिअपर्याप्तकंगे। गु५ । मि । सा।।प्र। सयो । जी ७ । अ।१६।५ । ४ । अ। प्रा ७।७।६।५।४।३।२। सं ४ ।ग ४। ५।का ६। यो ३१ औ मि । वै मि । आ मि । वे ३। क ४। ज्ञा ६। कु। कु। म। श्रु । अ। के। सं ४ । अ। सा। छ। यथा । द ४। १५ ले १ क । भ२। सं ५। मि । सा । उ। वे । क्षा। सं २ आ १। उ १०॥ भा६
तत्पर्याप्तानां-गु १ मि । जी ६ संज्ञिपर्याप्तो नहि । प ५ । ४ । प्रा ९।८।७।६। ४ । सं४ । ग १ति । इं५। का ६। यो २ औ । अनुभयवचनं । वे ३ । क ४। ज्ञा २ कु कु । सं १अ । द २। ले ६। म २। स १
भा ४ अ ३ शु १ मि । सं १ अ। आ१। उ ४ । तदपर्याप्तानां- १ मि । जी ६ अ । प ४ अ । प्रा७ । ६ । ५। ४ । ३ । सं ४ । ग १ ति । इं५ । का ६ । यो २ औमि का। वे ३ । क ४ । ज्ञा २।सं १ अ । द २ ले २ क शु। २०
भा ३ अशु भ २ । स १ मि । सं १ अ। आ २ । उ४। संज्ञासंज्ञिव्यपदेशरहितानां सयोगायोगिसिद्धानां मूलौघभंगः । संज्ञिमार्गणा गता।
आहारानुवादे आहारिणां-गु १३, जी १४, ५ ६, ६, ५, ५, ४, ४, प्रा १०, ७, ९, ७, ८, ६, ७, ५, ६, ४, ४, ३, ४, २, सं ४, ग ४, ६५, का ६, यो १४ कार्मणो नहि, वे ३, क ४, ज्ञा ८, सं ७, द ४, ले ६, भ २, स ६, सं २, आ १, उ १२ । तत्पर्याप्तानां-गु १३, जी ७, प ६, ५, ४, प्रा १०, ९, ८, ७, २५
६, ४, ४, सं ४, ग ४, इं ५, का ६, यो ११ म ४ व ४ औ वै आ, वे ३, क ४, ज्ञा ८, सं ७, द ४, ले ६,
भ २, स ६, सं २, आ १, उ १२ । तदपर्याप्तानां-गु ५ मि सा अप्र स, जी ७ अ, प ६,५, ४, प्रा ७, ७,६, ५, ४, ३, २, सं ४, ग ४, ई ५, का ६, यो ३ औमि वैमि आमि, वे ३, क ४, ज्ञा ६ कु कु म श्रु अ के, सं ४ अ सा छे यथा, द ४, ले १ क, भ २, स ५ मि साउवे क्षा, सं २, आ१, उ १० ।
भा६ १३४
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१०६६
गो० जीवकाण्डे आहारिमिथ्यादृष्टिगळ्गे। गु १ । मि । जी १४ । प ६।६।५ । ५।४।४। प्रा १० । ७।९।७।८।६।७।५।६।४।४ । ३ । सं ४ । ग ४ । ई ५। का ६। यो १२ । आहारकद्वयरहित । कार्मणरहित । वे ३। क ४। ज्ञा ३ । कु। कु। वि। सं १ । अ । द २। ले ६ ।
भा६ भ २।सं १ मि । सं २। आ १। उ ५॥
आहारिमिथ्यादृष्टिपर्याप्तकंग । गु १ । जी ७।५ । ५६ । ५।४। प्रा १०।९।८।७। ६।५।४। सं ४ । ग ४। इं५ । का ६। यो १०। आहारद्वयमिश्रयोगत्रयरहित । वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । कु। कु। वि । सं १। अ । द २। ले ६। भ२ । सं १ । मि। सं २ । आ १।
भा६
आहार्यपर्याप्तकमिथ्यादृष्टिगळगे । गु १। मि । जो ७।१६।५ । ४ । प्रा ७ । ७।६। १० ५।४।३। सं ४ । ग ४ । इं५ । का ६। यो २ । औमि । वै मि । वे ३। क ४। ज्ञा २। कु।
कु। सं १ अ। द २। ले १ क। भ२। सं १ मि । सं २। आ १। उ ४॥
भा६
आहारिसासादनसम्यग्दृष्टिगळ्गे। गु१। सासा । जी २। प ।।१६।६। प्रा १० । ७। सं ४ । ग ४ । इं १ का १ । यो १२ । म ४। वा ४ । औ २ वै २। वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु। वि।सं १।अ। द २। ले ६। भ १ । सं १। सासा । सं १ । आ १। उ ५॥
भा६
आहारिसासादनसम्यग्दृष्टिपर्याप्तकंगें। गु१। सासा । जो १।१६। प्रा १०। सं ४। ग ४। इं१। का १ । यो १० । म ४। वा ४। औ का। वै का। वे ३। क ४ । ज्ञा ३ । कु । कु । वि।सं १ अ । द २। ले ६ । भ१।सं १। सासा । सं१। आ १। उ५॥
भा६
मिथ्यादृष्टीनां-गु १ मि, जी १४, ६, ६, ५, ५, ४, ४, प्रा १०, ७, ९, ७, ८, ६, ७, ५, ६, ४, ३,
सं ४, ग ४, ई ५, का ६, यो १२ आहारद्वयकार्मणाभावात्, वे ३, क ४, ज्ञा ३, कु कु वि, सं १ अ, द २, २० ले ६, भ २, स १ मि, सं २, आ १, उ ५ । तत्पर्याप्तानां-गु १ मि, जी ७ प, प ६, ५, ४, प्रा १०, ९,
८, ७, ६, ४, सं ४, ग ४, इं ५, का ६, यो १० आहारकद्वयमिश्रत्रयाभावात्, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६, भ २, स १ मि, सं २, आ १, उ ५ । तदपर्याप्तानां-गु १ मि, जी ७, प ६, ५, ४,
प्रा ७, ७, ६, ५, ४, ३, सं ४, ग ४, ५, का ६, यो २ औमि वैमि, वे ३, क ४, ज्ञा २ कुकु, सं १ अ, द २, ले १ क, भ २, स १ मि, सं २, आ १, उ ४। सासादनानां-गु १ सा, बी २ प अ, प ६, ६,
भा६ प्रा १०,७, सं ४, ग ४, ६१, का १, यो १२ म ४ व ४ औ २, वै २, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २, ले ६, भ २, स १ सा, सं १, आ १, उ ५ । तत्पर्याप्तानां-गु १ सा, जी १, प ६, प्रा १०,
२५
सं ४, ग ४, इं १, का १, यो १०, म ४ व ४ औ १ वै १, वे ३, क ४, ज्ञा ३ कु कु वि, सं १ अ, द २,
|
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०६७ आहारिसासादनसम्यग्दृष्टिअपर्याप्तकंग । गु १ । सासा। जी १ । अ । प ६ । अ । प्रा ७ । असं ४ । ग३। ति । म । दे। इं १ का १ । यो २१ औ मि । वै मि। वे ३। क ४ । ज्ञा २। सं १ अ । द २। ले १ क। भ १ ।सं १ । सासा । सं १। आ १ । उ ४॥
भा६ आहारिमिभंगे। गु १ । मिश्र । जी १ । पाप ६ । प्रा १० । सं ४।ग ४ । ई १ का १।। यो १० । म ४ वा ४। औ का। वै का। वे ३। क ४। ज्ञा३ मिश्र । सं१।। द२। ५ ले ६ । भ १ । सं १ । मिश्र । सं १ । आ १। उ ५ ॥ भा६
आहारिअसंयतसम्यग्दृष्टिगळ्गे । गु १ असं । जी २।५ अ। ५६।६। प्रा १० । ७ । सं ४ । ग ४ । ई १ का १। यो १२ । म ४ । वा ४। औ २।वै २। वे ३ । क ४। ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १ । अद३। ले ६।भ १ । सं३। उ। वे । क्षा । सं १ मा १ । उ६॥
भा६
आहाय्यंसंयतसम्यग्दृष्टिपर्याप्त कंगे । गु१। असं । जी १। ५६। प्रा १०। सं४। १० ग ४। इं१ का १। यो १० । म ४ । वा ४। औ का। वै का। वे ३। क ४। ज्ञा ३ । म। श्रु।अ।सं १अ । द ३। ले ६। भ१। सं३ । सं १। आ १ । उ ६॥
भा ६
आहाय्यंसंयतसम्यग्दृष्टयपर्याप्तकंगे। गु१ । असं । जी १। अ। प६। अ। प्रा ७ । अ। सं४ ।ग ४। इं१ का १। यो २। औ मि । वै मि । वे २। क ४ । ज्ञा३। म । श्रु । अ । सं १ । अ। द३। ले १ क । भ १ । सं ३ । सं १ । आ १ । उ ६॥
भा ६
ले ६, भ १, स १ सा, सं १, आ १, उ ५। तदपर्याप्तानां-
१ सा, जी १ अ, प ६ अ, प्रा ७ अ, सं४,
ग ३ ति म दे, ई १, का १, यो २ औमि वैमि, वे ३, क ४, ज्ञा २, सं १ अ, द २, ले १ क, भ १,
भा६ स १ सा, सं १, मा १, उ४। मिश्राणा- १ मिश्रं, जी १५, १६, प्रा १०, सं४. ग ४, इं १, का १, यो १० म ४ ४ औ १ १, वे ३, क ४, ज्ञा ३ मिश्राणि, सं १ अ, द २, ले ६, भ १, स १ मिश्र,
सं १, आ १, उ ५ । असंयतानां-गु १ अ, जी २ प म, प६६,प्रा १०, ७,सं ४, ग ४, इं१, का १, २० यो १२ म ४, ४ औ २ वै २, वे ३, क ४, ज्ञा ३ मश्रु अ, सं १ अ, द ३, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा,
सं १, १,उ६। तत्पर्याप्तानां-गु १ अ, जी १,५६, प्रा १०, सं४, ग ४,६१, का १,यो १० म ४ व ४ औ वै, वे ३, क ४, ज्ञा ३ म श्रुअ, सं १ अ, द ३, ले ६, भ १, स ३, सं १, आ १, उ६ ।
तदपर्याप्ताना- १ अ, जी १ अ, प ६ अ, प्रा ७ अ, सं ४, ग ४, इं १, का १, यो २ ओमि वैमि, वे २ पं, न, क ४, ज्ञा ३, सं १ अ, द ३ त्रअ अ, ले १ क, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, आ १, उ६।
२५
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१०६८
गो० जीवकाण्डे ___ आहारिदेशसंयतंगे। गु १ । देश। जी १।१६। प्रा १०।७। सं४ । ग२। ति । म। इं१। का १। यो ९ । म ४ । वा ४ । औ का १। वे ३ । क ४ । ज्ञा ३ । म । श्रु । अ । सं १। देश । द ३। ले ६। भ १। सं३। सं १। आ १। उ ६॥
भा३ आहारिप्रमत्तसंयतंग । गु१।प्र। जी २ ५। अप६।६। प्रा १०। ७ । सं। ग १ ५ म। इं १ का १ । यो ११ । म ४ । वा ४ । औ १ । आ २। वे ३ । क ४ । ज्ञा ४ ।म। श्रु । अ । म। सं३। सा। छ। ५।द३। ले ६।भ १ । सं३।सं १ । आ १। उ ७॥
भा३ आहायंप्रमत्तसंयतंग । गु १ । अप्र। जी १। प६। प्रा १० । सं३ । ग १। म । ६१ । का १ । यो ९ । वे ३। क ४। ज्ञा ४ । सं३ । सा। छ। प । द३। ले ६। भ१। सं३ ।
भा ३ सं १ । आ १। उ ७॥
आहाय्यंपूर्वकरणंगे। गु १ अपू। जो १। ५६। प्रा १० । सं३। ग १ म। इं १ । का १। यो ९। वे ३। क ४ । ज्ञा ४ । सं २। सा। छ। व३। ले ६। भ १। सं २।
भा१ उ।क्षा । सं १ । आ १ । उ७॥
आहारिप्रथमभागानिवृत्तिगळ्गे । गु१। अनि । जी १ । प ६। प्रा १० । सं २। मै। प॥ ग १।म। इं१। पं। का १त्र । यो ९। वे ३। क ४। ज्ञा ४। सं २। सा। छ। व३। १५ ले ६ । भ१ । सं २। उ। क्षा। सं १ । आ १ । उ७॥ भा १
शेषचतुरनिवृत्तिकरणार्गे ओघभंगमक्कुं ॥
आहारिसूक्ष्मसांपरायसंयतंगे। गु १। सू । जी १। प६। प्रा १० । सं १ । परिग्रह । ग १ । म । १।। का १ । यो ९। वे ०। क १ । सूक्ष्मलोभ । ज्ञा ४ । सं १ । सू । व ३।
देशव्रतानां-गु १, जी १, प ६, प्रा १०, सं ४, ग २ ति म, इं १, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ३, सं १ दे, द ३, ले ६, भ १, स ३ उ वे क्षा, सं १, आ १, उ ६ । प्रमत्तानां-गु १ प्र, जी २ प अ, प ६,
२०
६, प्रा १०, ७, सं ४, ग १ म, इं१, का १, यो ११ म ४ व ४ औ १ आ २, वे ३, क ४, ज्ञा ४ म श्रु अम, सं ३ सा छे प, द ३, ले ६, भ १, स ३, सं १, आ १, उ ७। अप्रमत्तानां-गु १ अ, जो १, ६,
भा ३ प्रा १०, सं ३, ग १ म, इं १, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ४, सं ३ सा छे प, द ३, ले ६, म १, स ३,
सं १, मा १, उ ७ । अपूर्वकरणानां-गु १ अ, जी १, ५ ६, प्रा १०, सं ३, ग १ म, इं १, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ४, सं २ सा छे, द ३, ले ६, भ १, स २ उ क्षा, सं १, आ १, उ ७ । अनिवृत्तीनां
२५
प्रथमभागे-गु १ अ, जी १, प ६, प्रा १०, सं २ मै प, ग १ म, इं १, का १, यो ९, वे ३, क ४, ज्ञा ४, सं २ सा छे, द ३, ले ६, भ १, स २ उ क्षा, सं १, बा १, उ ७ । शेषचतुर्भागेष्वोधभंगः, सूक्ष्मसांपरायाणां
गु १ सू, जी १,१६, प्रा १०, सं १ प, ग १, ई १, का १, यो ९ वे ०, क १, सूक्ष्मलोभः, ज्ञा ४, सं १
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१०६९
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ले ६। भ१। सं२। उ । क्षा। सं १ । आ १। उ७॥ भा १
आहायुपशांतकषायवीतरागछग्रस्थंगे। गु १ । उप । जो १। ५६। प्रा १०। सं । ग १ । म । ई १। पं। का १ त्र । यो ९ । म ४ । वा ४ । औ का १ । वे ० । क । ज्ञा ४। म श्र। अम। सं१। यथा। द३। च । अ । अ। ले ६। भ१। सं२।उ। क्षा। सं।
भा १ आ १। उ ७ ॥
आहारिक्षीणकषायछद्मस्थवीतरागंग । गु१। क्षीण । जी १। प६। प्रा १० । सं ०। ग १। म । इं१। पं । का१त्र । योग ९ । वे ०। क ०। ज्ञा ४ । सं १ । यथा। द ३ ले ६।
भा १ भ १।सं १क्षा । सं १ । आ १। उ ७॥
आहारिसयोगकेवलिभट्टारकंगे। गु १ सयोग के । जी २।५ । अ । प ६।६। प्रा ४।२। सं० । ग १। म। इं१। पं। का १ । । । यो ६। म २। वा २। ओ २। वे । क । १० ज्ञा १ । के । सं १ । यथा । द १ के। ले ६। भ १। सं १ ।क्षा। सं ०। आ १ । उ २॥
भा
१
ई प्रकारदिवं सयोगकेवलिभट्टारकंगे पर्याप्तापर्याप्ताळापद्वयं वक्तव्यमप्पुदु ॥
अनाहारिगळ्गे । गु५ । मि सा । अ । सयोग अयोगि। जी । ८ । एकेंद्रियबादरसूक्ष्मद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियसंज्यसंज्ञिगळेब अपर्याप्तकर अयोगिकेवलिरहितमागि। ५६।५।४। प्रा ७।७। ६। ५। ४।३। २। १। सं ४ । ग ४ । इं५ । का ६ । यो १। काम॑ण । वे ३। क ४। १५ ज्ञा ६ । कु । कु। म । श्रु । अ । के । सं २। असंयममुं यथाख्यातमुं। द४। ले १ शु। भ२।
भा ६ सं ५। मि । सा। उ। वे । क्षा । सं २ । आ १ | अनाहार उ १०॥
सू, द ३, ले ६, भ १, स २, उ क्षा, सं १, आ १, उ ७ । उपशांतकषायाणां-गु १ उ, जी १, प ६,
प्रा १०, सं०, ग १ म, इं १, का १, यो ९ म ४ व ४ ओ, वे ०, क ४, ज्ञा ४ म श्रु अ म, सं १ य, द ३ च अ अ, ले ६, भ १, स २ उ क्षा, सं १, आ १, उ ७ । क्षीणकषायाणां-गु १ क्षी, जी १, प ६,
प्रा १०, सं ४, ग १ म, इं १, का १ त्र, यो ९, वे ०, क °, ज्ञा ४, सं १ य, द ३, ले ६, भ १, स १ क्षा,
र
सं १, आ १, उ ७ । सयोगिकेवलिनां-गु १ सयो, जी २ प अ, ५ ६ ६, प्रा ४, २, सं ०, ग १ म, इं १, का १त्र, यो ६ म २ व २ ओ २, वे०, क., ज्ञा १के, सं १ य, द१ के, ले ६, भ १, स १क्षा,
सं०, आ १, उ२ । एषामपर्याप्तालापोऽपि वक्तव्यः ।
अनाहारिणां-गु ५ मि सा अ स अ, जी ८ सप्ताऽपर्याप्ता एकोऽयोगिनः, १६, ५, ४, प्रा ७ ७ ६ २५ ५४३२१, सं४, ग ४, ५, का ६, यो १, वे १, क ४, ज्ञा ६ कु कु म श्रु अ के, सं २ अ य, द ४,
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१०७०
गो०जीवकाण्डे
अनाहारकमिथ्यादृष्टिगळ्ग । गु १। मि। जी ७। प६। ५ । ४ । प्रा ७।७।६।५। ४।३। सं४। ४। ५। का६। यो । कार्म। वे क ४ ज्ञा २। क।क। सं । अ।द २। ले १ शु। भ२। सं१।मि। सं २। आ १ । अनाहार उ ४॥
भा६
अनाहारिसासादनसम्यग्दृष्टिगळगे। गु १। सासा। जी१। अ । प ६। प्रा७ । सं ४ । ५ ग३। ति । म । दे। इं१। पं। का १ त्र । यो १ । कार्मणकाय । वे ३ । क ४। ज्ञा २। कु । कु। सं १ । अ । द २। ले १।शु । भ १ । सं १ । सासा । सं १ । आ १ । अनाहार । उ ४ ॥
भा६ अनाहारि असंयतसम्यग्दृष्टिगळगे । गु १ । असं। जी १ । अ। ५६। अ। प्रा ७ । अ । सं ४ । ग ४ । इं १ । पं । का १४ । यो १ । कार्मणकाय। वे २। षं। पुं। क ४। ज्ञा ३ । म। श्रु। अ । सं १ । अ । द ३। ले १ शु। भ १। सं३ । सं १। आ १ । अनाहार । उ ६॥
____भा ६ अपर्याप्तकवदिदमुं प्रमत्तसंयतंगे। गु १। जी १। ५६। प्रा७। सं ४। ग १ म। इं १ । पं । का १ त्र । यो १। आहारमिश्रमप्पुरिंदमौदारिकापेक्षेयिननाहारियकुं। वे १। पुं। क ४ । ज्ञा ३। म। श्रु। अ । सं २। सा। छ। द३। ले १ क। भ१। सं३ । सं १॥
भा३ आ १। उ६॥
अनाहारिसयोगिकेवलिगळये। गु १ सयोग। जी १। अ।१६। अप्रा२। कायबल । १५ आयुष्य । सं। ०। ग १। म। इं। पं। का १ त्र । यो १ । कार्मण । वे ० । क ० । ज्ञा १ के । सं १ । यथा । द १ के। ले १। भ१। सं १ । क्षा। सं ० । आ १ । अनाहार । उ २ ।।
भा १
ले ६, भ २, स ५ मि सा उ वे क्षा, सं २, आ १, उ १० । तन्मिथ्यादृशां-गु १ मि, जी ७, प ६ ५ ४, भा ६ प्रा ७७६ ५४३। सं४ । ग ४ । इं५ । का ६ । यो १ का । वे३। क ४। ज्ञा २ कु कु । सं १ अ । द २। ले १श । भ२। स १ मि। सं २। आ १ अ । उ४। सासादनानां- १ सा। जी १ अ।
भा ६ २० प६ । प्रा ७ । सं४।ग ३ ति म दे। इं१५। का१त्र। यो १ का । वे ३। क ४। ज्ञा २ कु कु । सं १ अ । द २। ले १ शु । भ १। स १ सा। सं १ अ । आ १ अ । उ ४। असंयतानां-ग १ अ ।
भा६ जी १ अ । १६ अ । प्रा ७ अ । सं ४ । ग ४ । १५ । का१त्र। यो १ का । वे २ पं । षं। क ४ । ज्ञा ३ म श्रु अ। सं१। द ३ । ले १ शु। भ१ । स ३ । सं १ । आ १ अ । उ ६। प्रमत्तानां
गु १ प्र । जी १ । १६ । प्रा ७ । सं ४ । ग १ म । ई १ । का १। यो १ आमि तेन औदारिकापेक्षया२५ ऽनाहारः वे १ पुं। क ४ । ज्ञा ३ म श्रु अ । सं २ सा छे । द ३ । ले १ क। भ१। स २। सं१।
भा ३ आ १। उ६। सयोगिकेवलिनां-गु १ स । जी १ अ । प ६ अ । प्रा २। कायबलं । आयुष्यं । सं . । ग १ म । इं१५। का १ त्र। यो १ का। वे ० । क । ज्ञा १ के। सं १ य । द १ के। के ।
भा १
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अयोगिकेवलिभट्टारकंगे। गु १ अयो । जो १ । प । प ६ । प्रा १ | आयुष्य । ग १ । म । इं १ । पं । का १ त्र । यो ० | वे ० क ० । ज्ञा १ के। सं १ यथा । द १ के
।
भ १ । सं १ । क्षा । सं १ । आ १ अनाहार । उ२ ॥
अनाहारि सिद्धपरमेष्ठिगळगे । गु० । जो ० । प० का ० । यो ० | वे ० | क ० । ज्ञा १ । के । सं ० 1 द १ के आ १ । अनाहार । उ२ ॥
१ भ १ । स १ क्षा । सं ० । आ १ अ । सं ० । ग १ म । ई १ पं । का १ त्र
भ १ । स१क्षा । सं ० । आ १ अ । सिद्धगतिः । इं ० का ० । यो ० 1 वे ० क्षा । सं । आ १ अ । उ२ ।। ७२८ ॥
१०७१
सं ० ।
ले ६ ।
प्रा० । गति १ सिद्धगति । इं० । । ले ० । भ० । सं १ | क्षा । सं ० ।
उ २ । अयोगकेवलिनां - गु १ अ । जी ११ । प ६ । प्रा १ आयुः । यो ० । वे ० क ० । ज्ञा १ के । सं १ य । द १ के । ले ६ |
उ २ | सिद्धानां - गु ० । जी०प० क ० । ज्ञा १ के । सं ० । द १ के ।
भा०
भा० प्रा० सं ० । ग १ ले ० । भ० । सं १
५
[ ऊपर कर्नाटक टीका और तदनुसारी संस्कृत टीकामें गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें बीस प्ररूपणाओंका कथन सांकेतिक अक्षरोंके द्वारा किया है। उन संकेतोंको समझ लेनेसे उक्त प्ररूपणाओंको समझ लेना सरल है ।
प्ररूपणा और उनके संकेत अक्षर इस प्रकार हैं ।
१५
गु ( गुणस्थान १४ ) जी ( जीवसमास १४ ) प ( पर्याप्ति ६ ) प्रा ( प्राण १० ) सं ( संज्ञा ४ ) ग ( गति ४ ) इं ( इन्द्रिय ५ ) का ( काय ६ ) यो ( योग १५ ) वे ( वेद ३ ), क ( कषाय ४ ) ज्ञा ( ज्ञान ८ ) सं ( संयम ७ ) द ( दर्शन ४ ) ले ( लेश्या ६ ) भ ( भव्यत्व - अभव्यत्व ) स ( सम्यक्त्व ६ ) सं ( संज्ञी - असंज्ञी ) आ ( आहारक - अनाहारक ) ।
१०
इन बीस प्ररूपणाओं में से जहाँ जितनी सम्भव होती हैं, उनकी सूचना संकेताक्षरके आगे संख्यासूचक २० अंक लिखकर दी गयी है । जैसे पृ. ९५० में पर्याप्त गुणस्थानवालोंके गुणस्थान १४ कहे हैं । जीवसमास ७ पर्याप्त सम्बन्धी कहे हैं । पर्याप्ति ६, ५, ४ कही हैं, क्योंकि पंचेन्द्रियके छह, विकलेन्द्रियके पांच और एकेन्द्रियके चार पर्याप्तियाँ होती हैं । प्राण १०, ९, ८, ७, ६, ४, ४, १ कहे हैं, क्योंकि संज्ञीके दस प्राण होते हैं शेष के एक-एक इन्द्रिय घटती जाती है । एकेन्द्रियके चार ही प्राण होते हैं । सयोगकेवलीके चार और अयोगकेवली एक प्राण होता है । संज्ञा चारों होती हैं । गति चार, इन्द्रिय एकसे लेकर पाँच तक, २५ काय छह, योग ग्यारह ( चार मन, चार वचन, तीन पूर्णकाय योग ) होते हैं । वेद तीन, कषाय चार, ज्ञान आठ ( पाँच और तीन मिथ्या ), संयम सात ( संयम मार्गणाके सात भेद हैं), दर्शन चार, लेश्या छह, भव्यत्व - अभव्यत्व, सम्यक्त्व मार्गणाके ६ भेद, संज्ञी-असंज्ञी, आहारक होते हैं । उपयोग बारह - आठ ज्ञान, चार दर्शन । अपर्याप्त गुणस्थानवालोंके गुणस्थान पाँच हैं—मिथ्यात्व, सासादन, असंयत, प्रमत्त (आहारककी अपेक्षा), सयोगकेवली ( समुद्घात अवस्थाकी अपेक्षा ) । जीव समास सात अपर्याप्त होते हैं । पर्याप्त छह ३० पाँच चार हैं । प्राण अपर्याप्त अवस्थामें सात, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो होते हैं । एकेन्द्रियके तीन और समुद्घात केवलीके दो होते हैं। संज्ञा चार, गति चार, इन्द्रिय पाँच, काय छह होते हैं । योग चार होते हैं - मदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र, आहारकमिश्र, कार्मण । वेद तीन, कषाय चार, ज्ञान छह होते है कुमति, कुश्रुत, मति, श्रुत, अवधि, केवल । संयम मार्गणाके चार भेद होते हैं - असंयम, सामायिक,
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५
१५
१०७२
२०
गो० जीवकाण्डे
मणपज्जव परिहारो पढमुवसम्मत्त दोणि आहारा । देसु एकपदे णत्थित्तियसेसयं जाणे ॥ ७२९ ॥
मनः पर्यायः परिहारः प्रथमोपशमसम्यक्त्वं द्वावाहारौ । एतेष्वेकस्मिन् प्रकृते नास्तीत्य शेषकं जानीहि ॥
मनः पर्य्यायज्ञानमुं परिहारविशुद्धिसंयममुं प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुं आहारकाहारकमिश्रमुमिव प्रकृतमात्तं बिरलुळिदुमिल्ले' दितु शिष्य नीनरियेंदु संबोधने माडल्पट्टुवु ।
१० छेदोपस्थापना, यथाख्यात । दर्शन चार, लेश्या छह, भव्यत्व- अभव्यत्व, सम्यक्त्व मार्गणाके पांच भेद सम्यक्मिथ्यात्वके बिना । संज्ञी-असंज्ञी, आहारक - अनाहारक, उपयोग दस-विभंग और मन:पर्यय अपर्याप्त अवस्थामें नहीं होते ।
मन:पर्ययज्ञानं परिहारविशुद्धिसंयमः प्रथमोपशमसम्यक्त्वं आहारकद्विकं च इत्येतेषु मध्ये एकस्मिन् प्रकृते प्रस्तुते अधिकृते सति अवशेषं उद्धरितं नास्ति न संभवतीति जानीहि [ तेषु मध्ये एकस्मिन्नुदिते तस्मिन् पुंसि तदा अन्यस्योत्पत्तिविरोधात् ] ||७२९॥
इसी तरह आगे चौदह गुणस्थानोंमें क्रमशः बीस प्ररूपणाओंका कथन संकेताक्षर द्वारा किया है । उसके पश्चात् क्रमशः चौदह मार्गणाओंमें कथन किया है ।
गत मार्गण में कथन करते हुए सातों नरकों में, तियंचके भेदोंमें, मनुष्योंमें, देवों में गुणस्थानोंको आधार बनाकर बीस प्ररूणाओंका कथन विस्तारसे किया है। जैसे नरकगति में नारक सामान्य, नारक सामान्य पर्याप्त, सामान्य नारक अपर्याप्त, सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि, सामान्य नारक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि, सामान्य नारक अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि, सामान्य नारक सासादन सम्यग्दृष्टि, नारक सामान्य मिश्र, नारक सामान्य असंयत, सामान्य नारक पर्याप्त असंयत, सामान्य नारक अपर्याप्त असंयत, धर्मा सामान्य नारक, घर्मा सामान्य नारक पर्याप्त, घर्मा सामान्य नारक अपर्याप्त, धर्मामिथ्यादृष्टि, घर्मानारक अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि, धर्मा पर्याप्त सासादन, घर्मा मिश्र गुणस्थान, घर्मा असंयत गु., घर्मा पर्याप्त नारक असंयत, धर्मा नारक अपर्याप्त असंयत सम्यग्दृष्टि, द्वितीयादि पृथ्वी नारक सामान्य, द्वितीयादि पृथ्वी नारक पर्याप्त, द्वितीयादि पृथ्वी नारक अपर्याप्त, द्वितीयादि पृथ्वी नारक सामान्य मिथ्यादृष्टि, द्वितीयादि पृथ्वी नारक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि, द्वितीयादि पृथिवो नारक अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि, द्वितीयादि पृथिवी नारक सासादन, द्वितीयादि २५ पृथ्वी नारक सम्यग्मिथ्यादृष्टि, द्वितीयादि पृथ्वी नारक असंयत सम्यग्दृष्टि, इतने विस्तार से बीस प्ररूपणाओं
का प्रत्येक में कथन किया है। इसी प्रकार तियं जगति, मनुष्यगति, देवगति, इन्द्रिय मार्गणाके भेद-प्रभेदों में बीस प्ररूपणाओंका कथन किया है ।
पहले हमने पं. टोडरमलजीकी टीकाके अनुसार नकशों द्वारा अंकित करनेका विचार किया था । किन्तु उनमें भी संकेताक्षरोंका ही प्रयोग करना पड़ता । और कम्पोजिंग में भी कठिनाई आ जाती । ग्रन्थका ३० भार भी बढ़ जाता, इससे उसे छोड़ दिया । संकेताक्षर समझ लेनेसे टीका को समझा जा सकता है । ]
मन:पर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम, प्रथमोपशम सम्यक्त्व, आहारक, आहारकमिश्र इनमें से एक प्राप्त होनेपर उसके साथ शेष सब नहीं होते ।।७२९ ॥
१. ब प्रतौ कोष्ठान्तर्गतः पाठो नास्ति ।
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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
१०७३ विदियुवसमसम्मत्तं सेडीदो दिण्ण अविरदादीसु ।
सगसगलेस्सामरिदे देव अपज्जत्तगेव हवे ॥७३०॥ द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं श्रेणितोऽवतीर्णाविरतादिषु । स्वस्वलेश्यामृते देवापर्याप्तके एव भवेत् ॥
असंयतादिगळोळु द्वितीयोपशमसम्यक्त्वसंभवमें बुदुपशमश्रेणियिदमिळिदु संक्लेशवश- ५ दिदमसंयमादियोळ परिपतितरादरोळंदु निश्चैसूदू । आ द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टिगळप्प असंयतादिगळु तंतम्म लेश्यगळोळकूडि मृतरादरादोडे देवापर्याप्तकासंयतसम्यग्दृष्टिगळे नियमदिदमप्परेक दोड बद्धदेवायुष्यंगल्लदे मरणमुपशमश्रेणियोळु संभविसदु । इतरायुस्त्रयबद्धायुष्यंगे देशसंयममुं सकलसंयममुं संभविसदप्पुरदं ।
सिद्धाणं सिद्धगई केवलणाणं च सणं खइयं ।
सम्मत्तमणाहारं उवजोगाणक्कमपउत्ती ॥७३१॥ सिद्धानां सिद्धगतिः केवलज्ञानं च दर्शनं क्षायिक, सम्यक्त्वमनाहारः उपयोगयोरक्रमप्रवृत्तिः ॥
- सिद्धपरमेष्ठिगळ्गे सिद्धगतियुं केवलज्ञानमुं केवलदर्शनमुं क्षायिकसम्यक्त्वमुं अनाहारमुं। ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयक्कक्रमप्रवृत्तियुमरियल्पडुगुं । अमूर्त्तसिद्धपरमेष्ठिगळुः
गुणजीवठाणरहिया सण्णापज्जत्तिपाणपरिहीणा ।
सेसणवमग्गणूणा सिद्धा सुद्धा सदा होति ॥७३२॥ गुणजीवस्थानरहिताः संज्ञापर्याप्तिप्राणपरिहोनाः । शेषनवमार्गणोनाः सिद्धाः शुद्धास्सदा भवंति ॥
amaram. २० द्वितीयोपशमसम्यक्त्वं संभवति । केषु ? उपशमश्रेणितः संक्लेशवशादधः असंयतादिषु अवतीर्णेषु । ते च असंयतादयः स्वस्वलेश्यया म्रियते तदा देवापर्याप्तासंयता एव नियमेन भवंति । कुतः ? बद्धदेवायुष्कादन्यस्य उपशमश्रेण्या मरणाभावात् । शेषत्रिबद्धायुष्काणां च देशसकलसंयमयोरेवासंभवात् ॥७३०॥
सिद्धपरमेष्ठिनां सिद्धगतिः केवलज्ञानं केवलदर्शनं क्षायिकसम्यक्त्वं अनाहारः ज्ञानदर्शनोपयोगयोरक्रमप्रवृत्तिश्च भवति ॥७३१॥
संक्लेश परिणामोंके वश उपशमश्रेणिसे नीचे उतरनेपर असंयत आदि गुणस्थानों में द्वितीयोपशम सम्यक्त्व होता है। वे असंयत आदि जब अपनी-अपनी लेश्याके अनुसार मरण करते हैं,तो नियमसे देवगतिमें अपर्याप्त असंयत ही होते हैं, क्योंकि जिसने देवायुका बन्ध किया है, उसके सिवा अन्यका उपशमश्रेणिमें मरण नहीं होता। जिन्होंने देवायुके सिवाय अन्य तीन आयुमें-से किसी एकका भी बन्ध किया है , उसके तो देशसंयम और सकलसंयम ही नहीं होते 11७३०॥
सिद्ध परमेष्ठीके सिद्धगति, केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक सम्यक्त्व, अनाहार और ज्ञानोपयोग दर्शनोपयोगकी एक साथ प्रवृत्ति, इतनी प्ररूपणाएँ होती हैं ।।७३१॥ Jain Education Intern234
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१०७४
गो० जीवकाण्डे चतुर्दशगुणस्थानरहितरं चतुर्दशजीवसमासरहितरं चतुःसंज्ञारहितलं षट्पर्याप्तिरहितरं दशप्राणरहितलं सिद्धगति ज्ञानदर्शनसम्यक्त्वमनाहारमेंब मार्गणापंचकमल्लदुळिद नव मार्गणारहितरं सिद्धपरमेष्ठिगळ द्रव्यभावकमरहितरप्पुरिदं सदा शुद्धरुमप्पर।
णिक्खेवे एयढे णयप्पमाणे णिरुत्तिअणियोगे ।
मग्गइ वीसं मेयं सो जाणइ अप्पसब्भावं ॥७३३॥ निक्षेपे एकार्थे नयप्रमाणे निरुक्त्यनुयोगे। मृगयति विंशतिभेदं स जानाति जोक्सद्भावं ॥
नामस्थापनाद्रव्यभावतो यब निक्षेपदोळ प्राणभूतजीवसत्वमें बेकायंदोळं द्रव्यात्थिकपर्यायात्थिकमेंब नयदोळं मतिश्रुतावधिमनःपव्यज्ञानकेवलमेंब प्रमाणदोळं जीवति जीविष्यति
जीवितपूर्वो वा जीवः एंब निरुक्तियोळं किं कस्स केण कत्थ व केवचिरं कति विहा य भावाइ' १० एंब अनुयोगदोळं 'निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः साध्या' एंब नियोगोळं आवना
नोव्वं भव्यं गुणस्थानादिविंशतिभेदमं तिळिगुमातं जीवसद्भावमनरिगुं।
चतुर्दशगुणस्थानचतुर्दशजीवसमासरहिताः चतुःसंज्ञाषट्पर्याप्तिदशप्राणरहिताः सिद्धगतिज्ञानदर्शनसम्यक्त्वानाहारेभ्यः शेषनवमार्गणारहिताः सिद्धपरमेष्ठिनो द्रव्यभावकर्माभावात् सदा शुद्धा भवंति ॥७३२॥
नामादिनिक्षेपे प्राणभूतजीवसत्त्वलक्षणैकार्थे द्रव्याथिकपर्याथिकनये मतिज्ञानादिप्रमाणे जीवति १५ जीविष्यति जीवितपूर्वी वा जीव इति निरुक्ती 'किं कस्स केण कत्थवि केव चिरं कतिविहा य भावा' इति च
निर्देशस्वामित्वसाधनाधिकरणस्थितिविधानतः साध्या इति च नियोगिप्रश्ने यो भव्यः गुणस्थानादिविंशतिभेदान् जानाति स जीवसद्भावं जानाति ॥७३३॥
सिद्ध परमेष्ठी चौदह गुणस्थान, चौदह जीवसमास, चार संज्ञा, छह पर्याप्ति, दस प्राण इन सबसे रहित होते हैं। तथा सिद्धगति, ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व और अनाहारके २० सिवाय शेष नौ मार्गणाओंसे रहित होते हैं। और द्रव्यकर्म-भावकर्मका अभाव होनेसे सदा शुद्ध होते हैं ।।७३२॥
नामादि निक्षेपमें, एकार्थमें, द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक नयमें, मतिज्ञानादि प्रमाणमें, निरुक्ति और अनुयोगमें जो भव्य गुणस्थान आदि बीस भेदोंको जानता है वह जीवके
अस्तित्वको जानता है । नामस्थापना द्रव्यभावनिक्षेप प्रसिद्ध है। प्राणी, भूत, जीव, १५ सत्त्व ये चारों एकार्थक हैं। इन चारोंका अर्थ एक ही है। जो जीता है, जियेगा और
पूर्वमें जी चुका है, यह जीव शब्दकी निरुक्ति है-जो उसे त्रिकालव” सिद्ध करती है। जीवका स्वरूप क्या है, स्वामी कौन है, साधन क्या है, कहाँ रहता है, कितने काल तक रहता है, कितने उसके भेद हैं, इस प्रकार निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और
विधान ये अनयोग हैं। इनके उत्तरमें जो बीस भेदोंको खोजकर जानता है, उसे आत्माके ३. अस्तित्वकी श्रद्धा होती है ॥७३३॥
१. ब नियोगे यो।
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१०७५
कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अज्जज्जसेणगुणगणसमूहसंधारि अजियसेणगुरु ।
भुवणगुरू जस्स गुरू सो राओ गोम्मटो जयउ ॥७३४ ॥ आव्र्यसेनगुणगणसमूह संघार्यजितसेनगुरुर्भुवनगुरुय॑स्य गुरुः स राजो य गोम्मटो जयतु॥
इंतु भगवदर्हत्परमेश्वर चारुचरणारविंदद्वंद्ववंदनानंदितपुण्यपुंजायमानश्रीमद्रायराजगुरु- ५ भूमंडलाचार्य्यमहावादवादीश्वररायवादिपितामह सकलविद्वज्जनचक्रवत्तिश्रीमदभयसूरिसिद्धांतचक्रत्ति श्रीपादपंकजरजोरंजित ललाटपटुं श्रीमत्केशवण्णविरचितमप्प गोम्मटसारकर्णाटकवृत्तिजीवतत्त्वप्रदीपिकयोळ आळापाधिकारं निरूपितमादुदु ॥
गणनगलिदिई गुणगणमणिभूषण धर्मभूषणश्रीमुनि स-1 दगणियुपरोधदि नानोणद्दे गुणि गोम्मटसारवृत्तियं केशणं ।
आर्यायसेनगुणगणसमूहसंधार्यजितसेनगुरुः भुवनगुरुर्यस्य गुरुः स राजा गोम्मटो जयतु ॥७३४॥ इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तचक्रवर्तिविरचितायां गोम्मटसारापरनामपञ्चसंग्रहवृत्ती जीवतत्त्वप्रदीपिकाख्यायां जीवकाण्डे विशतिप्ररूपणासु ओघादेशयोविंशतिप्ररूपणालाप नाम
द्वाविंशतिमयोऽधिकारः समाप्तः ॥२२॥
____ आर्य आर्यसेनके गुण और गणसमूहको धारण करनेवाले अजितसेन-जो तीन । जगत्के गुरु हैं-वे जिसके गुरु हैं,वह गोम्मटराज चामुण्डराय जयवन्त हों ॥७३४॥ इस प्रकार आचार्य श्री नेमिचन्द्र विरचित गोम्मटसार अपर नाम पंचसंग्रहको भगवान् अर्हन्त देव परमेश्वरके सुन्दर चरणकमलोंकी वन्दनासे प्राप्त पुण्यके पुंजस्वरूप राजगुरु मण्डलाचार्य महावादी श्री अभयनन्दी सिद्धान्तचक्रवर्तीके चरणकमलोंकी धूलिसे शोमित ललाटवाले श्री केशववर्णीके द्वारा रचित गोम्मटसार कर्णाटवृत्ति जीवतत्व प्रदीपिकाकी अनुसारिणी संस्कृतटीका
२० तथा उसकी अनुसारिणी पं. टोडरमल रचित सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका नामक माषाटीकाकी अनुसारिणी हिन्दी भाषा टीकाजीवकाण्डके अन्तर्गत बीस प्ररूपणाओं में से पालाप प्ररूपणा नामक बाईसवाँ
अधिकार सम्पूर्ण हुआ ॥२२॥
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प्रशस्ति
स्वस्ति श्रीनृपशालिवाहन शके १२०६ वर्षे क्रोधिनाम संवत्सरे फाल्गुणमासे शुक्लपक्षे शिशिरतों उत्तरायणे अद्यां षष्ठिभ्यां तिथौ बुधवारे सत्तावीसघटिका उपरांतिक सप्तम्यां तिथौ अनुराधानक्षत्रे तीस घटिका उपरांतिक ज्येष्ठा नक्षत्रे व्याघातनामयोगे वह घटिका उपरांतिक हर्षणनामयोगे बवकरणे सत्तावीस घटिका यस्मिन् पंचांगसिद्धि तत्र मोळेद शुभस्थाने श्रीपंच परमेष्ठिदिव्यचैत्यालयस्थिते, श्रीमत्केशवण्ण विरचितमप्प गोम्मटसारकर्नाटकवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिकयालु जीवकांड
संपूण्नमादुदु । मंगळं भूयात् ॥ श्री श्री श्री॥
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गो. जीवकाण्डगाथानुक्रमणी
गाथा
पृष्ठ
गाथा
पृष्ठ १८८ १८२
१०८ १०३ ५६०
१३६ ७३४
७८७
३७९ ३८२
६२४ ६२४ ६२६ ६२५
३८१
६७१
५६४ ४५३ ५७५
६८ ३५८ ६२९ ३५१ ३०१
४५१ ५२३ ३८७ ५२० ३७० २३८
७१९ ६२९ ७१८
६१७
६४
अइ भीमदंसणेण य अज्जज्जसेणगुणगण अज्जवमलेच्छमणुए अज्जीवेसु य रूवी अट्ठण्हं कम्माणं अट्टत्तीसद्धलवा अट्टवियकम्मवियला अट्ठारस छत्तीस अट्ठव सयसहस्सा अडकोडिएयलक्खा अण्णाणतियं होदि हु अणुलोहं वेदंतो अणुलोहं वेदंतो अणुसंखासंखेज्जा अण्णोण्णुवयारेण य अत्थक्खरं च पदसं अत्थादो अत्यंतर अत्थि अणंता जीवा अद्धत्तेरस वारस अप्पपरोभयबाधण अपदिट्ठिदपत्तेया अपदिट्ठिद पत्तेयं अयदोत्ति छलेस्साओ अयदोत्ति हु अविरमणं अवरद्दव्वादुवरिम अवरपरित्तासंखे अवरमपुण्णं पढमं अवरा पज्जाय ठिदी बवरद्ध अवरुवार अवरुवरि इगिपदेसे अवरुवरिम्मि भणंतम
४७४ ५९४ ६०६ ३४८ ३१५ १९७ ११५ २८९ २०५
अवरे वरसंखगुणे २७० अवरोग्गाहणमाणे १०७५ अवरो जुत्ताणतो १५१ अवरोगाहणमाणे ८०३ अवरोहिखेत्तदीहं ६७२ अवरोहिखेत्तमज्झे ८१० अवरं तु ओहिखेत्तं १३७ अवरं दव्वमुरालिय ५९८ अवरंसमुदा सोह
अवरं होदि अणंतं ५८१ अवरंसमुदा होंति ५०७ अवहीयदित्ति ओही १२६ अव्वाघादी अंतो ६८६ असहाय णाणदंसण ८२२ असुराणमसंखेज्जा ८५० असुराणमसंखेज्जा ५७८ असुहाणं वरमज्झिम
अहमिदा जह देवा ३३० अहिमुहणियमिय बोहण २०४ अहियारो पाहुडयं ४८० ३३९ १६८ ७२५ आउड्ढरासिवारं
आगासं वज्जित्ता ६२८ आणदपाणदवासी १८९ आदिमछट्ठाणम्हि य १६९ बादिम समत्तता ८०८ बादेसे संलीणा १८६ बाभीयमासुरक्खं १८. भामंतणी आणवणी ५२९ मायारे सूदयणे
४२७ ४२८ ५०१ १६४ ३०६ ३४१
३७४ १२८ ६५९ ६५९ ७०२ २९३ ५१२ ५७४
९८
२०४
३३६ ८१४
९११
५८३
६६० ५५२
१०
३२७
५०
५१०
५७३ १०६ १०२ ३२३
३०४ २२५ ३५६
५९१
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१०७८
गो० जीवकाण्डे
पृष्ठ
गाथा
३०९
५१७
४१७ ४२२ २१३ ४०० ४५८ ३८३
२५० ३३१ २३७
३८५ ५५७
५७४
२१२
६६४
४०५
१२२
८९५ २५६ ३१६
१८५
२५१ ६४४ २७०
३४५
आवलि असंखभागा आवलि असंखभागा आवलि असंखभागे आवलि असंखभागो आवलि असंखभागं आवलि असंखभागं आवलि असंखसमया आवलि असंखसंखे आवलियपुधत्तं पुण आवासया हु भव अ० आसव संवर दव्वं आहार कायजोगा आहरदि अणेण गुणी आहरदि सरीराणं आहारदसणेण य आहार मारणंतिय आहार य उत्तत्थं आहारवग्गणादो आहारसरीरिदिय आहारस्सुदएण य आहारे सुद्दयणे आहारो पज्जत्ते
५७६
गाथा ६५० ६५६ ईहणकरणेण जदा ३४७ ६३८
उक्कस्सट्ठिदि चरमे ६२७ उक्कस्ससंखमेत्तं ८०९ उत्तम अंगम्हि हवे ३४६ उदयावण्णसरीरो ६४२ उदये दु अपुण्णस्स य ३८६ उदये दु वणप्फदिक ८८२
उप्पापुव्वग्गेणिय ४६० उवजोगो वण्णचऊ ३७४ उवयरण दंसणेण य ८९५ उववादगब्भजेसु य २६९ उववादमारणंतिय ८९७ उववादा सुरणिरया ३७५ उववादे अच्चित्तं ८५४ उववादे पढमपदं २५१ उववादे सीदुसणं ३७२ उव्वंकं चउरंक
उवसमसुहुमाहारे उवसंत खीणमोहो उवसंते खीणे वा उवहीणं तेत्तीसं
५६५
८०४
२३९
२७१
१३५
१३८
९२ १९९ १० ८५
१६० ३३१ १६० १५७ ७७६
२४०
६०७
५४९
१५८
२३५
३२५
६८३
१० ४७५ ५५२
५३० २७६
४० ६८६ ७७९
२७८ ४२०
४८८ १६७
१५१ एकाम्ह कालस
इगिदुगपंचेयारं इगिपुरिसे बत्तीसं इच्छिदरासिच्छेदं इगिवण्णं इगिविगले इगिवितिचखचडवारं इगिवितिचपणखपण इगिवीसमोहखवणुव इह जाहि वाहियावि य इंदिय कायाऊणि य इंदिय काये लीणा इंदिय णोइंदिय जो इंदियमणोहिणा वा
६९५ २९७ ११९ ५५३ ५२१
३२९
५९८ ४६८ एइंदिय पहदीणं ६५३ एइंदियस्स फुसणं
एकम्हि कालसमये एक्कं खलु अटुंके एक्कचउक्कं चउवी
एक्कट्ठ चदुचदु छस्स० २६९ एक्कदरगदिणिरूवय २६७ एक्कारस जोगाणं
३६ एक्कं समयबद्धं ६६८ एगणिगोदसरीरे ९०१ एदम्हि गुणट्ठाणे
५८३
४७ १३४ १३२
३१४ ३५४ ३३८ ७२३ २५४. १९६
५७२ ९४४ ४०६ ३२६ ११२
Page #593
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथानुक्रमणी
१०७९
गाथा
पृष्ठ
पृष्ठ
गाथा ४९२
३९८ १२ ३३५
६१०
एदम्हि विभज्जूते एदे भावा णियमा एयक्खरादु उवरि एयगुण तु जहण्णं एयदवियम्मि जे अ एयपदादो उरि एया य कोडिकोडी एयंतबुद्धदरसी एवं असंखलोगा एवं उवरि विणेओ एवं गुणसंजुत्ता एवं तु समुग्धादे
६३८ अंतरभावप्पबहु
४३ अंतरमवरुक्कस्सं ५७. अंतोमुहृत्तकाल ८५६ अंतोमुहुत्तमेत्ते ८१३ अंतोमुत्तमेत्ता ५७१ अंतोमुहुत्तमेत्तो २०५ अंतोमुहुत्त मेत्तं
६९७ ७८० ११२ ११३ ४४९ ८१
२६२
५८२ ३३७
२५३
३८७
३३२ १११
१२६
६१ ३६८
५४७
६१२ ६६२ ५७८ ८९७
४३३ ३४९ ६७१ ४१०
ओ
२४१
२४७ ६३४ ७२७ ७०७ ७०८
८७० ९४७
२६४ ५०२ ५२९
ओगाहणाणि गाणं ओघासंजदमिस्सय ओघे ओदेसे बि य ओघे चोदसठाणे ओघे मिच्छदुगे विय ओरालिय उत्तत्थं ओरालिय मिस्सं वा मोरालिय वेगुम्विय ओरालिय वरसंचं ओरालं पज्जत्त ओहिरहिया तिरिक्खा
३७५ ४५३ ७०३ ७२३ ६४५
२३१
४०८
४१२
६८४ २४४
५६५
कदकफलजुदजलं वा ८५६
कप्पववहारकप्पा ७६२ कप्पसुराणं सग सग
कमवण्णुत्तरवढिय
कम्मइयकायजोगी ३८२ कम्मइयवग्गणं धुव
कम्मेव कम्मभावं कम्मोरालियमिस्स य काऊ णीलं किण्हं काऊ काऊ काऊ
कालविसेसेणावहिद ९०८ काले चउण्ह उड्ढी
कालो छल्लेस्साणं
कालोत्ति य ववएसो ९०६ कालं अस्सिय दव्वं ६७७ किण्हचउक्काणं पुण
किण्हतियाणं मज्झिम
किण्हवरंसेण मुदा ६३२ किण्हा णीला काऊ ५३१ किण्हादिरासिमावलि ६३८ किण्हादिलेस्सरहिया ८९७ किण्हं सिलासमाणे ६३९ किमिरायचक्कतणुमल ६४६ कुम्मुण्णयजोणीए ६३४ केवलणाणाणंतिम ३०१ केवलणाणदिवायर ६४२ कोडिसयसहस्साई ३६६ कोहादिकसायाणं
५५१ ५८.
२५६
७७८ ८१२
६८० ४६२
८०७
a
५७१ ५२७ ५२८ ५२४ ४९३
५३७ ५५६
७२२ ७२२ ७२० ६९८ ७२८ ७८४ ४८३ ४७९
अंगुलअसंखगुणिदा अंगुलअसंखभागे अंगुलअसंखभागे अंगुलअसंखभागो अंगुलअसंखभागं अंगुलमसंखभागं अंगुलअसंखभागं अंगुलबसंखभागं अंगुलमावलियाए अंगोवंगुदयादो
३२६ ३९९ ६७० ४०१ ४०९
२९२
२८७
८२
५३९
१५५ ७३१
१७२
४०४ २२९
१२८ २०४
२९०
Page #594
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८०
गो० जीवकाण्डे
गाथा
कंदस्स व मूलस्स व
१८९
८८६
ख
८७६
६५१
गाथा ६५२ ४६१ ६३८ ३३३ ५१६ ४३८
खयउवसमियविसोही खवगे य खोणमोहे खींणे दंसणमोहे खेत्तादो असुहतिया खंधा असंखलोगा खंधं सयलसमत्थं
dG०
له سه له
५३८
१९४ ६०४
३२५
७१० ६६४ ६७० ५७३ ७०७
३४० ५०९
१४२ १४६ ४१८
पृष्ठ ३२० चदुगदि भव्वो सण्णी
चदुगदिमदिसुदबोहा ८८५
चरमधरासाणहरा चरिमुव्वंकेणवहिद चागी भद्दो चोक्खो चितियचितियं वा
चितियमचिभियं वा ८४७
चोद्दस मग्गण संजुद चंडो ण मुंचइ वेरं
चंदरवि जंबुदीव य २७५ २७८ ६५१ छटाणाणं आदी ६०३ छट्ठोत्ति पढम सण्णा ८०५ छद्दव्वावठाणं ८४८ छद्दव्वेसु य णामं १५८ छप्पयणीलकवोदसु ४७० __ छप्पंच णवविहाणं ६७३ छप्पं चाधियवीसं
छस्सद जोयणकदिहिद ३३ छस्सयपण्णासाई ९४६ छादयदि सयं दोसे ९०४ छेत्तूण य परियायं
३२८ ७०२ ५८१ ५६२
५५३ ९१९ ८१३ ८०२ ६९९
६०५
८७
गइ इंदियेसु काये गइ उदयजपज्जाया गच्छसमा तक्का लिय गतनम मनगं गोरम गदिठाणोग्गह किरिया गदिठाणोग्गहकिरिया गब्भजजीवाणं पुण गब्भण पुइत्थि सण्णी गाउय पुधत्तमवरं गुणजीवठाणरहिया गुणजीवा पज्जत्ती गुणजीवा पज्जत्ती गुणजीवा पज्जत्ती गुणपच्चइगो छद्धा गूढसिरसंधि पव्वं गोमयथेरं पणमिय
४९५
५६१
8 ܘܐ
२८० ४५५ ७३२
११६ १५६
३६६
२०५ २८५ ६०४ ४६५ ६८४
७२५
२७४
६७७
४७१
३७२ १८७
७०६
२२२ १९३
घण अंगुल पढमपदं
३३९ ६७८ ६९१
९३५ जणवद सम्मदिठवणा
जत्थेक्क मरइ जीवो २९०
जम्मं खलु सम्मुच्छण जह कंचण मग्गिगयं
जहखादसंजमो पुण ५७३ जह पुण्णापुण्णाई ९०४ जह भारवहो पुरिसो ९१२ जम्हा उवरिम भावा ५८२ जाइजरामरणभया ६९२ जाई अविणाभावी ३०० जाणइ कज्जाकज्जं ८८६ जाणइ तिकालविसए
३५९ ३२२ १५५ ३३५ ६८३ २५१ ३३५
२०३ ४६८ ११८ २०२ ४८
चउगइसरूवरूवय चउपण चोइस चउरो चउरक्खथावरविरद चउसद्रुिपदं विरलिय चक्खूण जं पयासइ चक्खू सोदं घाणं चत्तारिवि खेत्ताई
८०
३५३
१५२
२८२
४८४ १७१
१८१ ५१५
३११ ७०९ ५०५
२९९
Page #595
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथानुक्रमणी
१०८१
गाथा १४१ ६२२ ५८८ ४७८
गाथा २१९ २९८ ४५६ ५३० १४७
५६३
३५७ ५०१ ६७३ ७२३ २७८ ९४० ३६३ ३०३ ४०८
३२४
२४९ .
२२६
१७४
६४३ ६३२
२५५ ६२१
८६१
७०
३१९
जाहि व जासु व जीवा जीवदुगं उत्तटुं जीवा अणंतसंखा जीवा चोइस भेया जीवाजीवं दव्वं जीवाणं च य रासी जोवादोणंतगुणा जीवादो गंतगुणो जीविदरे कम्मचये जेट्टावरबहुमज्झिम जेहिं अणेया जीवा जेहिं दु लक्खिज्जते जेसि ण संति जोगा जोइसियवाणजोणिणि जोइसियादो अहिया जोइसियंताणोही जोगपउत्ती लेस्सा जोगे चउरक्खाणं जोगं पडि जोगिजिणे जो णेव सच्चमोसो जो तसवहाउ विदो जत्तस्स पहं ठत्तस्स जंबूदीवं भरहो जं सामण्णं गहणं
२७३
५२६ ९१४ ७७७ ९०१ ९०० ४७९
५५० ६७६ ६७३ २८८
२७७
५४० ४३७ ४९०
३८
४८७
७३४
७११ २२१
२७४ णय सच्चमोसजुत्तो ८६२ णरतिरिय लोहमाया ८१७ णरलोएत्ति य वयणं ६८८ णरतिरियाणं ओघो ८०३ ण रमति जदो णिच्चं ५३० णरलद्धि अपज्जत्ते ३८४ णवमी अणक्खरगदा ८३९ णवि इंदियकरणजुदा ८८२ णवरिय दु सरीराणं ८६८ णव य पदत्था जीवा १४२ णवरि विसेसं जाणे
३९ णवरि य सुक्का लेस्सा ३०८ णवरि समुग्धादम्मि य ४६७ णाणुवजोगजुदाणं ७३१ णाणं पंचविहं पिय ६६४ णारयतिरिक्खणरसुर ६९७ णिक्खित्त विदियमेतं ६९३ णिक्खेवे एयत्थे ९३७ णिच्चिदरमादु सत्तय ३५८ णिद्दा पयले गढे
६० णिहावंचणबहुलो ८०५ णिहेसवण्णपरिणा ३२६ णिद्धत्तं लुक्खत्तं
णिद्धणिद्धा ण वझंति णिद्धदरोलीमज्झे णिद्धस्स गिद्धेण दुराहिएण णिद्धिदरगुणा अहिया णिद्धिदरवरगुणाणु
णिद्धिदरे समविसमा ७२५ णिम्मूलखंघसाहु व २७१ णियखेत्ते केवलिदुग
७८ णिरया किण्हा कप्पा ७१० णिस्सेस खीणमोहो ७८७ णीलुक्कस्संसमुदा ७०९ णेरड्या खलु संढा ८०७ वित्थी व पुंमं ८८० णो इंदिय आवरण
१०७५ १५९ ११८ ७०८ ६९७ ८५४
५११
५६७
१९५
४८२
६०९ ६१२ ६१३
६१५ ६१९
ठाणेहिंवि जोणीहि
७४
६१८
८५७ ८५८ ८६१ ८६० ८५९ ७०७ ३७३
५३३ १३९
५०८ २३६ ४९६
६९९
ण?कसाये लेस्सा णटुपमाए पढमा णट्ठासेसपमादो ण य कुणइ पक्खवायं ण य जे भग्वाभग्वा णय पत्तियह परं सो ण य परिणमदि सयं सो ण य मिच्छत्तं पत्तो
१६
१२७ ७२०
५२५
५१७ ५५९ ५१३ ५७० ६५४
२७५ ६६०
८९२
Page #596
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८२
गो. जीवकाण्डे
गाथा
णोइंदियत्ति सण्णा णोइंदियेसु विरदो णोकम्मुरालसंचं
गाथा ७०० ७१३ १४८
३७७
९१८ ९३८ २७९ ३०८ ७०१
१८०
५०० ६२६ ७०४
२६३ १४
८६४
९२५
६८५
७८० ७३३
३९७ ६३९ ४३६ ६४० १६२ ४६९
५५४ ५४२ ५४६ ५३५ ५०३ २५८ ३५२
७२६ ७०३ ४११ ५८१ ८८१ ९३९
१८४
१५८ १०५
६६८ तिरिय गदीए चोहस
५९ तिरिय चउक्काणोघे ६२२ तिरियंति कुडिलभार
तिविपंचपुण्णपमाणं
तिव्वतमा तिव्वतरा ४५० तिसयं भणंति केई
४५ तिसु तेरं दस मिस्से ६३७ तीसं वासो जम्मे ८७६ तेउतियाणं एवं ६६३ तेउदु असंखकप्पा ८७७ तेउस्स य सट्ठाणे २९० तेऊ तेऊ तेऊ ६८३ तेऊ पम्मे सुक्के
तेजा सरीरजेठें ३१४ तेत्तीस वेंजणाई २८६ तेरस कोडी देसे १८४ तेरिच्छिय लद्धिय प ६७३ तेवि विसेसेणहिया १४३ तेसिं च समासेहिं ९४३ तो वासय अज्झयणे ३४० तत्सुद्धसलागाहिद ३०४ ३८३ १८३ थावरकायप्पहुडी ४५९ पावरकायप्पहुडी ४५६ थावरकायप्पहुडी ३८१ थावरकायप्पहुडी ११८ थावरकायप्पहुडी २९१ पावरकायप्पहुडी ४६६ थावरसंखपिपीलिय २८९ थोवा तिसु संखगुणा २९९
७१४ २१४
४५४
३४९
५२५
५९५
३५७ २६८
तज्जोगो सामण्णं तत्तो उवरि उवसम तत्तो कम्मइयस्सिगि तत्तो ताणुताणं तत्तो लांतव कप्प० तत्तो संखेज्जगुणो तत्तो एगारणवसग तदियकसायुदयेण य तदियक्खो अंतगदो तदेहमंगुलस्साय तललीनमधुगविमलं तन्वड्ढीए चरिमो तम्विदियं कप्पाणम तसचदुजुगाणमज्झे तसजीवाणं ओघे तसरासिपुढविषादी तसहीणो संसारी तस्समयबद्धवग्गण तस्सुवरि इगिपदेसे तहिं सेसदेवणास्य तहि सव्वे सुद्धसला ताणं समयपबद्धा तारिस परिणामट्ठिय तिगुणा सत्तगुणा वा तिणकारि सिट्ठपाग तिण्णिसयजोयणाणं तिण्णिसयसठिविरहिद तिण्णिसया छत्तीसा तिण्हं दोण्हं दोण्हं तियकालविसयरूवि तिरधियसयणवणउदी तिरिए अवरं ओघो
४९८
७२२ २०६ १७६ २४८ १०४
९०९
९०९
२६९ २६७
९१०
२४६
९१३
६८५ ६८६ ६८७ ६९२ ६९४ ६९८ १७५ २८१
९१४ ९१७
३०३
२७६ १६०
४७०
१७०
२५६
व
१२२ ५३४
६७०
४४१ ६२५ ४२५
६२२
७२६ दव्वं खेत्तं कालं ६६७ दश्वं खेत्तं कालं ८६४ दव्वं छक्कमकालं ६५८ दस चोदसठ्ठअट्ठा
४५० ३७३ ६२०
८६१ ५७५
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दस विहसच्चे वयणे
दस सण्णीणं पाणा दहिगुडमिव वा मिस्सं
दिण्णच्छेदेण वहिद
दिण्णछेदे वहिद
दिवसो पक्खो मासो
दीव्वंति जदो णिच्चं दुगतिगभवा हु अवरं
दुगवारपाडा
दुविहं पि अपज्जत्तं
देवाणं अवहारा
देवेह सादिरेगो
देवहि सादिरेया
देवहि सादिरेया
देस विरदे पमत्त
सोहिस्स य अवरं
देसाव हिवरदवं
देसोहि अवरदवं
देसोहि मज्झभेदे
गुणद्धिस्य
दोहं पंच य छक्के
दोत्तिग पभवदुउत्तर
दंसणमोहक्खवणा
दंसणमोहुदयादो
दंसणमोहुवसमदो
दंसणवयसामाइय
घणुवी सदसयकदी
धम्मगुणमग्गणाय धम्माधम्मादोणं
घुदको सुंभयवत्थं अवरूवेण य
घुवहार कम्मवग्गण
धुवहारस्स पमाणं
लिग छक्कट्ठाणे
घ
गाथा
२२०
१३३
२२
२१५
४२१
५७६
१५१
४५७
३४२
७१०
६३५
६६३
२६१
२७९
१३
३७४
४१३
३९४
३९५
६१४
७०५
६१७
६४८
६४९
६५०
४७७
१६८
१४०
५६९
५८
४०२
३८५
१८८
२९४
गाथानुक्रमणी
पृष्ठ
३५७
२६७
५२
३५१
६५४
८१०
२८१
६७४
५७४
१९३७
८७०
८९३
२९८
२७३
पच्चक्खाणुदयादो
पच्चवखाणे विज्जा
पज्जत्त मणुस्साणं
८०७
१२१
६३९
६२८
६३०
४८८
पज्जत्तसरीरस्स य
पज्जत्तस्स य उदये
पज्जत्ती पट्टवणं
पज्जत्ती पाणावि य
४.४८
४६९
४४
६२१
६४८
६३६
६३७
८५७
९३३
८६०
८८४
८८५
८८५ पत्तेयबुद्ध तित्थ
६८७
पज्जायक्तरपदसं
परिवादी सोही
पडिवादी पुण पढमा
पढमक्खो अंतगदो
पढमुवसम सहिदाए
पढमं पमदपमाणं
पणजुगले तससहिये
पण उदिया व
पणदाल पणतीस
पण्णवणिज्जा भावा
पणिदरस भोयणेण
पणुवीस जोइणाई
पमदादिच उण्हजुदी
पम्मस्स य सट्ठाणस
पक्क समुद
परमाणसिट्ठियमट्ठ
परमाणु आदिया
परमाणुवग्गणम्मि प
परमाणूहि महि
परमावहिस्स भेदा
परमावहिस्स भेदा
परमावहिवरखेत्ते
परमोहिदव्यभेदा
पल्लतियं उवहीणं
गाथा
३०
३४६
१५९
१२६
१२१
१२०
ܕ
३१७
३७५
४४७
४०
१४५
३७
७६
३४७
३६५
३३४
१३७
४२६
६३१
४८०
५४८
५२१
४४८
४८५
५९६
२४५
३९३
४१४
४१९
४१६
२५२
१०८३
पृष्ठ
५९
५७६
२८८
२६०
२५५
२५३
९१८
५२५
६२१
६६९
७०
२७७
६५
१४८
५७७
६०४
५६९
२७०
६५८
८६७
६८८
७७-६
७१८
६६९
६९२
८३८
३७९
६३५
६४८
६५२
६४९
३८७
Page #598
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८४
गो. जीवकाण्डे
गाथा
पृष्ठ
पृष्ठ ५१८ ३०६
५१७
४६३ २६० ६५९ ४८१
गाथा ३११ १७९ ३१० ४८६ ४९७ २३३ २५९
६९२
७००
२०९
४४७
६०३
८४७
५०७ ३१३ १२५ १८२ २००
३१३ ३०४
१४९
९४२
६०२
१८३ १७७
७२ ७१९ ४६७ ४६६ ३५० ११३ १२९
६८२ ६८१
पल्लसमऊण काले पल्लासंखघणंगुल पल्लासंखेज्जाहय पल्लासंखेज्जदिमा पल्लासंखेज्जदिम पल्लासंखेज्जवहिद पस्सदि ओही तत्य अ पहिया जे छप्पुरिसा पुक्खरगहणे काले पुढविदगागणिमारुद पुढवी आऊ तेऊ पुढवीआदिचउण्हं पुढवी जलं च छाया पुण्णजहण तत्तो पुरुगुणभोगे सेदे पुरुमहदुदारुरालं पुरुसिच्छिसंढवेदो पुवापुवप्फ पुन्वं जलथलमाया पुह पुह कसायकालो पोग्गल दवम्हि अणू पोग्गल दव्वाणं पुण पोग्गलविवाइदेहो पोतजरायुजअंडज पंचक्खतिरिक्खाओ पंचतिहिचउविहेहि पंचरसपंचवण्णा पंचवि इंदियपाणा पंचसमिटो तिगुत्तो पंचेव होंति णाणा
१०० २७३ २३० २७१
५८०
२०४
२६४
६४७ बहुवत्ति जादिगहणे ६७८ बहुभागे समभागो ४४७
बहु बहुविहं च खिप्पा ८८९ बहुविहबहुप्पयारा ६८९ बादर आऊ तेऊ ३४३ बादर तेऊ वाऊ
बादर पुण्णा तेऊ ७०७ बादर बादर बादर ५२० बादर सुहुमुदयेण २५८ बादर सुहमा तेसि ३१२ बादर सुहुमेंदिय ३३३ बादर सुहुमे इंदिय ८४६ बादर संजलणुदये
बादर संजलणुदये
बारुत्तरसयकोडी ३६७ बावीस सत्ततिण्णि य ४६२ बाहिर पाणेहिं जहा १२१ बितिचदुाण्णजहण्णं ६०० बितिच पमाणमसंखे ४९९ बिदियुवसमसम्मत्तं ८२२ बिदियुवसमसम्मत्तं सेडोदो ८१६ बिहि तिहिचदुहि पंचहि ३५४ बिंदावलिलोगाण १५७
बीजे जोणिभूदे १६० बेसदछप्पणंगुल ६८७ ६८८ भत्तं देवी चंदप्पह २६६ भरहम्मि अद्धमासं ६८४ भवणतियाणमघोषो ५०६ भवपच्चइगो ओही
भवपच्चइगो सुरणिर
भव्वत्तणस्स जोग्गा २९७
भव्वा सम्मत्ताविय ७६०
भविया सिद्धी जेसि
भावाणं सामण्णवि ८८३ भावादो छल्लेस्सा ८६५ भासमणवग्गणादो
३६२ २९६ ५९३ ५८५
१७८
९१५ १०७३
७३०
१९८
२१०
३४५
३२७
९१
५४१
४७६ ४७९
२२३ ४०६
३५९ ६४३
१३०
४७२
६२०
६१८
७८६
फासरसगंधरूवे फासं सव्वं लोयं
३७३ ३७१ ५५८ ७२५ ५५७ ४८३
९४६
५४५
७८६
बंधो समयपबद्धो 'बत्तीसं अब्दालं
७८६ ८५४
६२८
६०८
Page #599
--------------------------------------------------------------------------
________________
भिण्णसमय
ह
भू आउ तेउ वाऊ
भू आउ तेउ वाऊ भोगापुण्णगसम्मे
मग्गणउवओगावि य
मज्झिम अंसेण मुदा
मज्झिम चउमणवयणे
मज्झिमदव्वं खेत्तं
मज्झिम पदक्रवहिद
मण दव्ववग्गणाण
मण दव्ववग्गणाणवि
मणपज्जवं च णाणं
मणपज्जवं च दुविहं
मणपज्जयपरिहारो
मणवयणाणं मूल मणवयणाण पडती
मणसहियाणं वयणं
मण्णंति जदो णिच्चं
मसिणि मत्तविरदे
मदि आवरण खओव
ओहिमणेहिय
मरणं पत्थेइ रणे
मरदि असंखेज्जदिमं
मसुरं बुबिंदु सूई
मायालोहे रदिपु मिच्छाइट्ठी जीवो
मिच्छाइट्ठी जीवो
मिच्छाइट्ठी पावा
मिच्छा सावयसासण मिच्छे खलु ओदइओ मिच्छेचोद्दस जीवा
मिच्छे सासणसम्मे
मिच्छोदयेण मिच्छ
मिच्छो सासणमिस्सो मिच्छो सासणमिस्सो
म
गाथा
५२
७३
७२१
५३१
७०३
५२२
६७९
४५९
३५५
४५२
३८६
४४५
४३९
७३९
२२७
२१७
२२८
१४९
७१५
१६५
६७४
५१४
५४४
२०१
६
१८
६५६
६२३
६२४
११
६९९
६८१
१५
९
६९५
गाथानुक्रमणी
पृष्ठ
११२
१४६
९४३
७२४
२८०
९३९
२९४
९०१
मिच्छंत्तं वेदंतो
मिस्सुद संमिस्सं
मिस्से पुण्णालाओ
मीमंसदि जो पुव्वं
९२०
७१९
९०६
६७५
५९१
६७२
६२९
रूऊणवरे अवरु
६६८ रूवुत्तरेण तत्तो
६६५
१०७२
३६४
३५५
३६६
७०९
७४६
३३३
३७
४८
मूलग्गपोरबीजा
मूले कंदे छल्ली
मूलसरीरमछंडिय मंद बुद्धिविहीणो
याजकनामेनानन
रूसइ दिइ अण्णे
लद्धि अपुण्णं मिच्छे
four अप्पी कीरह
साक्काद
लेस्साणं खलु अंसा
लोगागासपदेसा
लोगागासपदेसा
लोगागासपदेसे
लो गाणमसंखेज्जा
लोगाणमसंखमिदा
लोगस्स असंखेज्जदि
८८७
८६२
वग्गणरासिपमाणं
८६३
वण्णोदय संपादिद
४२
वण्णोदयेण जणिदो
९१७
वत्तणहेदू कालो
९०७
वत्तावत्तपमादे
४६ वत्थुणिमित्तं भावो
४०
वत्थुस्स पदेसादो वदसमिदिकसायाणं
९१४
य
ल
गाथा
१७
३०२
७१८
६६२
१८६
१८८
६६८
५१०
३६४
१०७
११०
५१२
१२७
४८९
५०५
५१८
५८७
५९१
५८९
४९९
३१६
५८४
३९२
५३६
४९४
५६८
३३
६७२
३१२
४६५
१०८५
पृष्ठ
४८
५०८
९४२
८९३
३१७
३१९
८९६
७०८
६०३
१८७
१९१
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२६०
६९६
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८१७
८१८
८१७
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५२४
८१५
६३५
७२७
६९८
८०५
६१
९००
५१९
६८१
Page #600
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८६
गो० जीवकाण्डे
गाथा ६४७ ५२६ ५७७ ५९०
गाथा २०७ ४३४ ५४३ ६८८ ४६४ १६९
पृष्ठ ३४१ ६६२ ७३५ ९११ ६७८ २९९ ९४३ ९१६ ९३८
५७८ ५७२ ४८६
७२०
६९७ ७१२
३६० ६५७ ४४०
३४ . ६६६
२६
५७
४२४
वयणेहिं वि हेहि वरकाओदंसमुदा ववहारो पुण कालो ववहारो पुण कालो ववहारो पुण तिविहो ववहारो य वियप्पो वहुविह वहुप्पयारा वापणनरनोनानं वास पुधत्ते खइया विउलमदी वि य छद्धा विकहा तहा कसाया विग्गहगदिमावण्णा वितिवपपुण्णजहणं विवरीयमोहिणाणं विविहगुणइड्ढिजुत्तं विसजंतकूड पंजर विसयाणं विसईणं वीरमुहकमलणिग्गय वीरियजुदमदिखउवस वीसं वीसं पाहुड वेगुन्वं पज्जत्ते वेगुम्विय वरसंचं वेगुन्वियउत्तत्थं वेगुग्विय आहारय वेंजण अत्थ अवग्गह वेणुवमूलोरब्भय वेदस्सुदीरणाए वेदादाहारोत्ति य वेयणकसायवेगु वेसदछप्पण्णंगुल
६५७ २७६ ८६९ १४० ८८७ ३५६
३०५ २३२ ३०३
६५५ २१८ २६५
३०८
४५३
८१२
पृष्ठ ८८४ सग सग असंखभागो ७२१ सग सग खेत्तपदेसस ८११ सट्ठाणसमुग्धादे ८१८ सण्णाणतिगं अविरद ८११ सण्णाणरासि पंच य ८०८ सण्णिस्स वारसोदे ६९२ सण्णी ओघे मिच्छे ५९९ सण्णो सण्णिप्पहडि ८८८ सत्तण्डं पुढवीणं ६६६ सत्तण्हं उवसमदो
६२ सत्तमखिदिम्मि कोसं ८९६ सत्तदिणा छम्मासा १६६ सत्तादी अद्वैता ५११ सदसिवसंखो मक्कडि ३७० सद्दहणासद्दहणं ५०९ सम्भावमणो सच्चो ५१५ समयत्तय संखावलि ९४९ समयो हु वट्टमाणो
सम्मत्तरयणपन्वय ५७५ सम्मत्तमिच्छपरिणा ९०७ सम्मत्तुप्पत्तीए ४१० सम्मत्तदेसघादी ३७१ सम्मत्तदेससयल ३७६ सम्माइट्ठी जीवो ५१३ सम्मामिच्छृदयेण य ४७८ सव्वमरूवी दव्वं ४६४ सव्वसमासो णियमा ९४४ सव्वसमासेणवहिद
सव्वसुराणं ओघे ७३३ सम्वावहिस्स एक्को
सम्वेऽवि पुन्वभंगा
सब्वेसि सुहमाणं ६६० सम्वोहित्तिय कमसो
सव्वं च लोयनालि १४९ सव्वंग अंग संभव ८७९ सागारो उवजोगो ७१ सामाइय चउवीस
२०
७२८ १३१ ३४३ ६८२ २५७ २३४ २४२
२४
२५
२८३
४७४
२७
५९२
८२१
३३०
२८६ २७२ ७२४ ६६७ ५४१
२९७ ७१७
५०० ९४१
४१५
६४८
६५७
४३० २२४
सक्कीसाणा पढमं सक्को जंबूदीवं सगजुगुलम्हि तसस्स य सग सग अवहारेहि सगमाणेहिं बिभत्ते
४९८ ४२३ ४३२ ४४२
६६७ ३८
६४१ ४१
३६७
६१२
Page #601
--------------------------------------------------------------------------
________________
गाथानुक्रमणी
१०८७
गाथा २८५ ५१९
२६६
८८
६२७
पृष्ठ ४७७ ७१८ ५७० ४५५
५२ ८६४ ८७२ ८७३ ६६३ ७०५ ७०४ ६८३
६३६
६३७ ४३५
५०४ ४७०
५९७ ७३१
६४१
४०३
८१ ६५८
१५४ ८८८
६४३
सामण्ण जीव तसथा सामण्णा णेरड्या सामण्णा पंचिंदी सामण्णेण तिपंती सामण्णेण य एवं सामण्णं पज्जत्तम साहियसहस्समेकं साहारणमाहारो साहरणवादरेसु साहारणोदयेण सिक्खा किरियुवदेसा सिद्धाणंतिमभागो सिद्धाणं सिद्धगई सिद्धं सुद्ध पणमिय सिलपुढविभेदधुली सिल सेल वेणुमूल. सीदी सट्ठी तालं सीलेसि संपत्तो सुक्कस्स समुग्धादे सुण्णं दुग इगि ठाणे सुत्तादो तं सम्म सुदकेवलं च णाणं सुहदुक्खसुबहुसस्सं सुहमणिगोद अपज्ज. सुहमणिगोद अपज्ज. सुहमणिगोद अपज्ज. सुहमणिगोद अपज्जा सुहमणिगोद अपज्ज सुहमणिगोद अप० सुहमेदरगुणगारो सुहमणिवातेआभू सुहमेसु संखभागं सुहमो सुहुमकसाए सेढी सूई अंगुल सेढी सूई पल्ला सेलग किण्हे सुण्णं
गाथा पृष्ठ
१४७ सेलटिकट्ठवेत्ते १५३ २८२ सेसठ्ठारस अंसा १५० २८१ सोलस सय चउतीसा ७८ १५० सोवक्कमाणुवक्कम
१५९ सो संजमं ण गिण्हदि ९३७ सोलसयं चउवीस
१६३ सोहम्मसाणहारम १९२ ३२२ सोहम्मादासारं २११ ३४६ सोहम्भीसाणाणम १९१ ३२१ संकमणे छट्ठाणा
८९२ संकमणं सट्ठाणप ८३८ संगहियसयलसंजम १०७३ संखा तह पत्थारो
२६ संखातीदा समया २८४ ४७६ संखावत्तय जोणी २९१ ४८२ संखावलिहिदपल्ला १२४ २५७ संखेओ ओघोत्ति य
१२९ संखेज्जपमे वासे ७५८ संखेज्जासंखेज्जा ४८९ संखेज्जासंखेज्जे
५८ संठाविदूण रूवं ३६९ ६१६ संजलणणोकसाया २८२ ४७३ संजलणणोकसाया
५२८ संपुण्णं तु समग्गं ३२१ ५२८ संसारी पंचक्खा ३२२ ५२९ सांतरणिरंतरेण य
१६१ १७३ ३०२ ३७८ ६२३ हिदि होदि हु दश्वमणं १०१ १७० हेट्ठा जेसि जहणं
१६७ हेट्ठिम छप्पुढवीणं २०८ ३४१ हेट्ठिम छप्पुढवीणं ६९० ९११ हेट्ठिम उक्कसं पुण १५७ २८६ होदि अणंतिमभागो
८४० होंति अणियट्टिणो ते २९३
४८७ होंति खवा इगिसमये इति जीवकाण्डप्रकरणस्याकारादिक्रमणिकासूची ।
४०७ ५८६
८१६
५४५ २९५
५९८
-tu
२८
0
४२
७८
३२०
४६० १५५
६७६ २८४ ८२२
९४
६६७
९७
२८३
११२ १५४ १२८ ६०१ ३८९
२६२
८४२
६३०
५७
१२० ८६७
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________________
गो० जीवकाण्डटीकागतपद्यानुक्रमणी
२३३
२३४
७९५
२४३
२३१
२३२
अइवठेहि रोमं [ति. प. १११२० ] अगहिदमिस्सं गहिदं अज्ज समुच्छिगिगम्भे अज्झवसाण णिगोद सरीरे अट्ठरस महाभासा [ति. प. ११६१ ] अट्ठारस ठाणेसु अठेहिं गुणदत्वेहिं [ति. प. १११०४ ] अड्ढस्स अणलसस्स अणुभागपदेसेहिं [ ति. प. १३१२] अण्णेहि अणंतेहिं [ ति. प. ११७५ ] अद्धारपल्लच्छेदो [ति. प. १६१३१] अभंतर दवमलं [ति. प. १११३ ] अभिमतफलसिद्ध अरिहाणं सिद्धांणं [ति. प. १११९] अवरं मज्जिम उत्तम [ति.प. १११२२] अवाच्यानामनन्तांशो अहवा भेदगयं [ति. प. १३१४ ] अहवा मंगं सौख्यं [ति. प. १३१८]
२२४ उच्छेह अंगुलेण [ति. प. ११११०] ७९२ उत्तम भोगखिदीए [ति. प. ११११९] १५३ उत्सर्पणावसर्पण ६९२ उप्पज्जदि जो रासी [वि. सा. ७३ ]
२१ २३५
एक्करसवण्णगंघ [ति. प. १२९७ ] एक्कक्क रोमग [ ति. प. १११२५ ] एत्थावसप्पणीए [ति. प. १।६८ ] एदस्स उदाहरणं [ति. प. १।२२ ] एदासिं भासाणं [ति. प. ११६२ ] एदेहि अण्णेहि [ ति. प. ११६४ ] एदाणं पल्लाणं [ति.प. १११३० ]
एवं अणेयभेदं [ ति. प. १।२७ ] २३५
ओ ५६९ ओसण्णासण्णा जे [ति. प. ११०३]
औ ३ औपश्लेषिक
१२
२३३
१२
८१४
आ
२३१
२५९ २१
अंताइ मज्झहोणं [ति. प. ११९८ ] अंताइ सूइजोग्गं [त्रि. सा. ३१५ ]
२४०
आढ्यानलसानुपहत आदिम संघणणजुदो [ ति. प. ११५७ ] आद्यन्तरहितं द्रव्यं आप्ते व्रते श्रुते [ सो. उ. २३१ ] आयुरन्तर्मुहूर्तः
८०४
८०२
कः प्रजापतिरुद्दिष्टः कणपधराधरधीरं [ति. प. ११५१]
कत्तारो दुवियप्पो [ ति. प. ११५५ ] २८ कम्ममहीए बालं [ति.प. १०६] १५३ करितुरगरहाहिवई [ ति. प. ११४३ ] २४ केवलणाणदिवायर [ति.प. ११३३] १७ क्षणिकं निर्गुणं चैव
mr wrm
इगिचउदुगसुण्णं इगिविगले इगसीदी इय मूलतंतकत्ता [ ति. प. १३८०] य सक्खा पच्चक्खं [ति. प. ११३८]
१६
१४०
Page #603
--------------------------------------------------------------------------
________________
पद्यानुक्रमणी
णिण्णट्ठरायदोसा [ ति. प. १९८१ ] २३१ णिभूसणाउहंवर [ ति. प. १५८ ]
२४
खंदं सयलसमत्थं [ति. प. १९५]
१८
२३३
५४५
गणरायमंतितलवर गालयदि विणासयदि [ति.प. ११९] गुणपरिणदासणं [ति. प. १०२१] गुणयारद्धच्छेदा [ त्रि. सा. १०५]
२४२, २४९
तच्चिय पंचसयाई [ति. प. १११०८] तत्तो रूवहियकमे तदप्पलब्धमाहात्म्यं तव्वग्गे पदरंगुल [ति. प. १२१३२ ] तसरेणु रथरेणु [ति. प. १११०५] तिरियपदे रूउणे तिविकप्पमंगुलं तं [ति. प. १११०७ ]
२४२ २३२ ५४५ २३३
घणलोगगुणसलागा
चउविह उवसग्गेहिं [ति. प. ११५९] चामर दुंदुहिपीठ [ ति. प. १११३ ]
२३३
२३४
२२
२३३ २४६
छक्खंड भरहणाहो [ति. प. १४८ ]
ट्ठकदीए उरि छद्दव्वणवपदत्थे [ति. प. ११३४ ] छहि अंगुले हि पादो [ ति. प. १३१३४ ]
१८
२१
दंडपमाणंगुलए [ ति. प. १११२१ ] दसणमोहे णठे [ति. प. १७३ ] दीवोवहि सेलाणं [ति. प.१११११]
दुगुण परित्तासंखेण [ त्रि. सा. १०९] २८९
दुविहो हवेइ हेदु २८९
दुसहस्समउडबद्धाण [ति. प. ११४६ ] ३४
देवमणुस्सादीहिं [ति. प. ११३७ ] दोअट्ठ सुण्ण तिय
देहावट्ठिद केवल २२२ दोण्णि वियप्पा हुँति हुति. प. १११०] ५९२ दो भेदं च परोक्खं [ति. प. १३३९] २३३ २३
नरकजघन्यायुष्या ८०९
नानात्मीयविशेषेषु २५
निमित्तमान्तरं तत्र २३०
१७ २३५
१७
१७
जणिदं इदं पडिदं [ति. प. १४० ] जत्युद्देसे जायदि [त्रि. सा. ८०] जदं चरे जदं चिट्ठे जस्सि जस्सि काले [ति. प. १।१०९] जादे अणतणाणे [ति. प. १७४ ] जेत्ति वि खेत्तमेत्तं जो ण पमाणणएहिं [ ति. प. १२८२] जो जो रासी दिस्सदि [त्रि. सा. ८८] जोयण पमाण संठिद [ति. प. ११६० ]
ठावणमंगलमेदं [ ति. प. १०२० ]
ण
णाभएयपदेसत्थो णाणं होदि पमाणं [ति. प. १४८३ ] पाणावरणप्पहडिय [ ति. प. ११७१ ] पामाणि ठावणामओ [ति. प. १११८] पासदि विग्धं भीदी [ति.प. श२७]
पंचबुर सहियाई [ वसु. भा. ५७ ] ६८७ पंच सयराजसामी [ति.प. ११४५] १८ पंचविधे संसारे
८०० पढमे मंगलकरणे [ति.प. १२२९ ] ८०८ पत्तेयभंगमेगं
५८५ २५ पदमेत्ते गुणयारे [त्रि. सा. २३१ ]
७६७ २३ परमाणूहि यणंताणंतेहि [ति. प. ११०२२३२ १३ परिणिक्कमणं केवल १५ परिहारद्धिसमेतः
६८६
Page #604
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०९०
गो०जीवकाण्डे
२३० १३ रूऊण सला वारस ११ रोमहदं छक्केस [ त्रि.सा. १०४] ४६३
७६४ २४०
पल्लं समुद्द उवमं पावं मलेत्ति भण्णइ [ ति. प. १११७ ] पुण्णं पूद पवित्ता [ ति. प. १२८] पुंवेदं वेदंता पुरिसा [ सिद्धभ ६ ] पुन्विलाइरियेहि [ति. प. १११६ ] पुग्विल्लाइरियेहिं उत्तो [ ति. प. ११८ ] पूरंति गलंति जदो [ति. प. १९९] पूर्वापरविरुद्धादे प्रदेशप्रचयात् काया प्रथमवयसि पीतं
२४०
लवणंबुहि सुहुमफले [ त्रि. सा. १०३ ] लोयालोयाण तहा [ ति. प. १७७ ]
२३१
२२ ८०२ २६
V
Mr
७६४
बाहिरसूईवग्गं [ त्रि. सा. ३१६ ] बाहिरसूईवलय [ त्रि. सा. ३१८ ] बेकिक्कूहिं दंडो
७६५
.
३४
ur
२४७
२४९
२०
वग्गादुवरिमवग्गे [त्रि. सा. ७४ ] २४४ वण्णरसगंधपासे [ति. प. १११०.] २३२ वररयणमउडधारी [ति. प. १२४२] वर्णगन्धरसस्पर्शः ववहाररोमरासिं [ ति. प, १११२६ ] ववहारुद्धारद्धा वासस्स पढममासे [ति. प. ११६९] विघ्नं नाशयितुं विघ्नोघाः प्रलयं यान्ति विउले गोदमगोत्ते [ति. प. १७८] विरलिज्जमाणरासिं [त्रि. सा. १०७ ] २३७, २४३,
२४५, २४९ विरिएण तहा खाइम [ ति. प. १७२] २३ विरलिदरासिच्छेदा [त्रि. सा. १०८] २४९ विरलिदरासीदो पुण [त्रि. सा. ११०, १११] २४०
३५२, ३९४, ७७० विविहत्थेहि अणंतं [ति. प. १५३ ] विविह वियप्पं दव्वं [ति. प. ११३२] विस्साणं लोगाणं [ति. प. १०२२ ] व्येकपदोत्तरघातः
भज्जमिददुगगुणु भज्जस्सद्धच्छेदा [ त्रि. सा. १०६ ] भव्वाण जेण एसा भवणतियाण विहारो भावणवेतर जोइसिय [ति.प. १०६३] भावसुदपज्जएण [ ति. प. ११७९ ] भावियसिद्धताणं भिंगारकलसदप्पण [ति. प. १२११२ ]
७७४
२९६ १८
मंगलणिमित्तहेऊ मंगल पज्जाएहिं [ ति. प. १२२८ ] मलविद्धमणिव्यक्ति [ लघीय. ५७ श्लो.] महमंडलियाणं [ति. प. ११४१] महमंडलीयणामो [ति. प.११४७] महवीरभासिदत्थो [ ति. प. ११७६ ] मूर्तिमत्सु पदार्थेषु मेरुव्व णिप्पकंप मोहो खाइयसम्म
२४ ८२३
शमबोधवृत्ततपसां [ आत्मानु० १५ ] श्रेयोमार्गस्य संसिद्धि : [ आसप० २]
१३८ षट्केन युगपद् योगात्
१७
यथा च पितृशुद्धधा यदीन्द्रस्यात्मनो लिङ्गं यद्यपि विमलो योगी
३१ सक्खापच्चक्खपरंपर [ ति. प. ११३६ ] २९६ सट्ठी सत्तसएहिं [वि. सा. १४० ] ११ सत्तणवसुण्णपंच य
७५७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
सत्तासीदिचतुस्सद [ त्रि. सा. १३९]
सत्यादिमज्झ अवसाणए [ति. प. १।३१ ]
सदाशिवः सदाऽकर्मा
समयं पडि एक्क्कं [ ति प १।१२७] समवासवग्गे [ति. प. १।११७] समेऽप्यनन्तशक्तित्वे
सरागवीतरागात्म [ सो. उ. २२७ ] सर्वत्र जगत् क्षेत्रे
सर्वेऽपि पुद्गलाः खलु सर्वथा स्वहितमाचरणीयं
सर्वप्रकृतिस्थित्यनु ससमयमावलि अवरं साधु रराज कीर्तेरेणां को
पद्यानुक्रमणी
७५७
१६
१४०
२३६
२३४
सुदणाणभावणाए [ति प. ११५० ] सुद्दखरकुजलतेवा
सुरखे रमणहरणे [ति. प. ११६५ ] सुरखेयरमणुवाणं [ति प १५२ ]
सुहुमं च णामकम्मं
५६ सुहुमट्ठिदिसंजुत्तं
८०१
O
सेद जलरेणु [ति.प. १1११ ] सेदरजादिमण [ ति. प. १५६ ] सोक्खं तित्राणं [ ति प १।४९ ] स्थान एव स्थितं
७९४
७९३
१०
७९८
स्याद्वादकेवलज्ञाने [ आप्तमी. १०५ ] स्वकारितेऽर्हचैत्यादौ
८१०
२८७ स्वहेतुजनितोऽप्यर्थ [ लघीय० ५९ श्लो. ]
१०९१
१९
१५३
२२
२०
१३८
७९१
१२
२१
१९
५६
६१७
५५
९३३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्ट शब्द-सूची
६००
५७०
अवाय
५१७ अविनाभावसम्बन्ध ५२१ अविभागप्रतिच्छेद १२२ अविरतसम्यग्दृष्टि ४०, ४३, ५९ अष्टाङ्क ५३१,५५३,५५५,५६७ असंख्यात गुणवृद्धि ५३१ असंख्यात भागवृद्धि ५३१ असंख्याताणुवर्गणा ८२३ असंज्ञी
८९२, ९३२ असंयत अस्तिनास्तिप्रवाद
अनुत्तरोपपादिकदश अनुपक्रमकाल
४५६ अनुपक्रमायुष्क अनुभागकाण्डकोत्करण १०४ अनुभयवचन ३६२, ३६३ अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान
२२८ अनुमान
५२० अनुयोगश्रु.
५७३ अन्तकृद्दशांग अन्तर्मुहुर्त अन्योन्याभ्यस्तराशि १२२ अपकर्ष ७११,७१२ अपगतवेद अपर्याप्तक
२५१ अपूर्वकरण ४१, ११२, ११३,
११८ अपूर्वस्पर्धक १२१, १२२, १२५ अप्रतिष्ठित प्रत्येक ३१७ अप्रत्याख्यानावरण ४७३
५७
८१०
आ
अक्रियावाद अक्षर (के भेद) ५६८ अक्षर समास अक्षरात्मक श्रु. ५२४ अक्षित अगस्त्य अगाढ ( दोष) अङ्ग बाह्य
६१२ अग्रायणीयपूर्व
६०५ अचक्षुदर्शन
६९२ अचित्त (योनि) अज्ञान मिथ्यात्व अज्ञानवाद
६०० अण्डज
१५७ अणु वर्गणा
८२३ अधःप्रवृत्तकरण ८०,८१,१०४ अद्धापल्योपम २३९ अध्रुव
५१९ अनन्तगुणवृद्धि
५३१ अनन्तभागवृद्धि अनक्षरात्मक श्रु. अनन्तानुबन्धी ५७, ४७४ अनन्ताणुवर्गणा ८२४ अननुगामी अनवस्थित
६२० अनाकार उपयोग अनाहारक
८९६ अनिवृत्तिकरण ४१,११९,१२० अनिसृत
५१९ अनुकृष्टि अनुक्त
५१९ अनुगामी
६१९
.
अप्रमत्त विरत १४१,४४,७८
५२३
आकारयोनि
१५४ आकाशगता ६०२ आक्षेपणीकथा आचारांग
५९२ आत्मप्रवाद
६०८ मात्मांगुल
२३२ बादेश
३४, ३५ आभीत आयुप्राण
२६६ आवली
२१६, ८०९ आश्वलायन
६०० आसुरक्ष
५१० आस्तिक्य
८०२ आहारककाययोग ३७४ आहारपर्याप्ति
२५२ आहारक मिश्रकाययोग ३७५ आहार संज्ञा
२६९ बाहारक
८९५
, संयत । अप्रतिपाति अभिनिबोषिक (मतिज्ञान) ५१२ अयोगकेवलिजिन ४१, १२८ अर्थपद अक्षर श्रु. ५६६, ५६८ अर्थावग्रह
५१४ अवग्रह
५१५ अवधिज्ञान
६१७ अवसन्नासन्न २३१ अवधिदर्शन
६९२ अवस्थित
६२०
६२१
८४
इन्द्र (स्वे. गुरु)
४७
Page #607
--------------------------------------------------------------------------
________________
विशिष्ट शब्द-सूची
१०९३
इन्द्रिय इन्द्रिय पर्याप्ति इन्द्रिय प्राण
९२२ २५२, २६५
२६६
ईश्वर ( दर्शन ) ईहा
१४० ५१५
गतिमार्गणा
२७८ गर्भ (जन्म) १५५, १५८, १६०
३३, ३४ गुणकारशलाका २२३ गुणप्रत्यय
६१८ गुणश्रेणिनिर्जरा १०४, ११८ गुण संक्रमण १०४, ११८ गुणस्थान
३९,४२
८०९
उच्छ्वास उत्तराध्ययन उभयाननुगामी उभयानुगामी उपयोग
६१९
गुणहानि
१२२
गुणहानि आयाम
१२२
९००
घनांगुल
२४२, २४४
ऋजुमति ६६५, ६५८, ६६९,
६७१
कपोत लेश्या
७०९ कर्मप्रवाद
६१० कल्पव्यवहार ६१५ कल्प्याकल्प्य
६१५ कल्याणवाद
६११ कर्मपद्गलपरिवर्तन
७९० कषाय
४७३ काय
९२२ कायबल प्राण २६६ कायमार्गणा
३११ कारणविपर्यास कार्मणकाययोग ३७५, ९२४ कालद्रव्य ८०६, ८०७ काल परिवर्तन ७९४ काल सामायिक कालाणु
८१७ कुंथुमि
६०० कृतिकर्म
६१४ कृष्णलेश्या
७०७ केवलज्ञान
६७६ केवलदर्शन केवलि-समुद्घात कोत्कल कौशिक क्रियावाद क्रियाविशालपूर्व क्षायिक
३९, ५५ क्षायिक सम्यक्त्व ४३,५७,८८४,
تی
चक्षुदर्शन
५१९
६१४
एकज्ञान एकविधज्ञान एकान्तमिथ्यात्व एलापुत्र
६९२ चतुरंक १३१, ५५३, ५५५ चतुर्विंशतिस्तव चन्द्रप्रज्ञप्ति
६०१ चल ( दोष) चारित्रमोह ४४, ४५
६००
६९३ ७५५
ऐन्द्र दत्त
चूणि
५३८
५९९
६००
चूणिचूर्णि चूलिका
५३८ ६०२
ओघ
३४
छेदोपस्थापना
६८४
ज
औदयिक
३९, ४३ औदारिक काययोग ३६८,९२४ औदारिकमिश्र
३६९ औपमन्यव औपशमिक औपशमिक सम्यक्त्व ४३, ५७
८८५
क्षायिकसम्यग्दृष्टी ८० क्षायोपशमिक ३९,४३ क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ५४ क्षायोपशमिक संयम क्षीणकषाय ४१, १२७ क्षिप्र (ज्ञान) ५१९ क्षेत्र सामायिक ६१३ क्षेत्राननुगामी
६१९ क्षेत्रानुगामी
जगत्प्रतर
२४२ जगतश्रेणी
२४२ जघन्य अनन्तानन्त २१४ जघन्य असंख्यातासंख्यात २१० जघन्य परीतासंख्यात २०८ जघन्य परीतानन्त २११ जघन्य युक्तानन्त २१४ जघन्य युक्तासंख्यात २१० जतुकर्ण
६०० जनपदसत्य
३५९
६००
५९९
कठ कण्ठेविद्धि कपाट समुद्घात कपिल
७५५
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१०९४
गो०जीवकाण्डे
जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति जरायुज
१५७ जलगता
६०२ जीवसमास ३३, ३४,४२,१४२
द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि ७९,
९३१ द्विरूपघनधारा
२२१ द्विरूपघनाघनधारा २२३ द्विरूपवर्गधारा २१५, ५३० द्वीपसागर-प्रज्ञप्ति ६०१
१५३
६००
५९५
जैमिनि ज्ञातृधर्मकथा ज्ञानप्रवाद ज्ञानमार्गणा ज्ञानोपयोग
५०६ ५०५ ९३३
धारणा ध्रुव (ज्ञान) ध्रुवभागहार
५१७
५१९ ६२८, ६३०
५३८
५२१
२३१
२७९
तर्क तापस तियंचगति तेजोलेश्या जसकाय असनालो त्रिलोकबिन्दुसार
७१०
२३१ २३२ ६१२
३५९
६०१
परिग्रहसंज्ञा २७१ परिहारविशुद्धि ६८४, ६८५ पर्याप्तक २५१, २५५ पर्याप्ति ३४, ३५, २५१ पर्यायज्ञान ५२७, ५२९, ५५२ पर्यायसमास ५२९, ५५२ पल्य पाराशर
६०० पारिणामिक भाव ४२, ४३ पिशलि
५३८ पिशुलि पिशुलि पुण्डरीक
६१५ पुद्गल पूर्वस्पर्धक १२१, १२५ पप्पलाद
६०० पोत
१५७ प्रक्षेपक
५३८ प्रक्षेपक प्रक्षेपक ५३८ प्रथमानुयोग प्रतिपाती
६२१ प्रतिपत्तिसमास प्रतराकाश
२१७ प्रतरांगुल २१६, २४२, २४४ प्रतरावली
२१६ प्रतिक्रमण प्रतिपत्तिश्रु. प्रतीत्यसत्य
३६० प्रत्यक्ष
५२१ प्रत्यभिज्ञान ५२०, ५२१ प्रत्याख्यानपूर्व प्रत्येक शरीर प्रत्येकशरीरवर्गणा ८३० प्रमत्तविरत ४१, ४४, ६१ प्रमाणपद
५७० प्रमाणांगुल प्रमाद प्ररूपणा
३३, ३५ प्रवचन
४८
नष्ट नारायण
६०० नानागुणहानि
१२२ नारकगति
२७८ नामसत्य नाम सामायिक निगोदकायस्थिति
२२८ नित्यनिगोद
३३० निर्वृत्यक्षर ५१८, ५६९ निर्वृत्यपर्याप्त २५५, २६१ निर्वेजनी कथा निषिद्धिका
५१९ नीललेश्या
७०८ नोकर्म पुद्गलपरिवर्तन ७९० नोकर्मशरीर
७५५
५७३
५९७
निसृत
६१५
५७२
दण्डसमुद्घात दृष्टिवाद दर्शन
६९१ दर्शनमोह दर्शनोपयोग दशवकालिक देवगति
२८१ देशविरत ४०, ४१, ४४, ६७ देशावधि ६२०, ६२२ दोगुणहानि
१२२ द्रव्य नपुंसक
४६३ द्रव्य पुरुष
४६३ द्रव्य प्राण
२६४ द्रव्यमन
६६७, ९९३ द्रव्यलेश्या
६९८ द्रव्य सामायिक द्रव्य स्त्री द्रव्येन्द्रिय २९४, २९६
प
पंचांक ५३१, ५५३, ५५५ पदश्रुतज्ञान
५७० पदसमासश्रु.
५७२ पद्मलेश्या परक्षेत्र परिवर्तन परमाणु
२३१, ८०४ परमावधि ६२०,६४८ परिकर्म
६०१
२३२
६१३
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विशिष्ट शब्द-सूची
१०९५
प्रश्नव्याकरण प्रस्तार प्राण ३४,३५,२६४,२६६,८०९ प्राभृतश्रु.
५७४ प्राभृतप्राभृत प्राभृतसमास
लब्ध्यक्षर लब्ध्यक्षर श्रु. लब्ध्यपर्याप्तक लव लेश्या
५६८,५६९ ५२९, ५५७ २५६, २६१
८१० ६९६, ९२८
५७३
२८०
५७४
बहुज्ञान
५१८ बहुविध
५१८ बादरकृष्टि १२१, १२५ बादर निगोदवर्गणा ८३१,८३३ बुद्धदर्शी
४७
६००
मतिज्ञान ५२१, ५२३ मध्यमपद
५७० मनःपर्यय ६६५, ६६७ मनःपर्याप्ति २५३, २६५ मनुष्यगति मनप्राण २६५, २६६ मरीचि
६०० मलिन ( दोष) मस्करी
४७, १४० महाकल्प्य
६१५ महापुण्डरीक
६१५ माठर माध्यन्दिन मान्थ पिक मायागता मार्गणा ३४, ३७४ मिथ्यात्व
४६, ४८ मिथ्यात्वप्रकृति मिथ्यादृष्टि ४०,४२,४८,८८७ मिश्र ( गु) ४०, ४२, ५३ मिश्र (योनि) १५६ मुण्ड मुहूर्त
२५९, ८१० मैथुनसंज्ञा
२७० मौद
६०० मौद्गलायन
६००
६०० ६००
२७०
७९५ ६१८
" ur ur ro
६१९
४६२ ४६२
२१८
भट्टाकलंक भयसंज्ञा भवपरिवर्तन भवप्रत्यय भवानुगामी भवाननुगामी भव्य भावनपुंसक भावपुरुष भावप्रमाण भावप्राण भावमन भावसामायिक भावसत्य भावस्त्री भावेन्द्रिय भाषापर्याप्ति भावपरिवर्तन भावलेश्या भाववाक् भेदाभेद विपर्यास
वचन प्राण २६५, २६६ वचनयोग
९२४ वन्दना
६१४ वर्ग
१२२ वर्गणा १२२, ३८० वर्धमान
६२० वशिष्ठ वसु
६०० वस्तु श्रु.
५७५ वस्तुसमास
५७६ वाड्वलि
६०० बादरायण
६०० वाल्कल
६०० वाल्मीकि
६००. विक्षेपणीकथा
५९७ विद्यानुवाद विपरीत मिथ्यात्व विपाकसूत्र
५९८ विपुलमति ६६५-६७२ विभंगज्ञान
५११ विरताविरत विवृत ( योनि) विस्तार विस्रसोपचय
३८४ विहारवत्स्वस्थान वीतरागसम्यग्दर्शन ८०१ वीर्यानुप्रवाद
६०५ वेदमार्गणा
४६२ वेदकसम्यक्त्व ४३, ५४,८८५ वेदक सम्यग्दृष्टि
७९
६१०
२६४
९२४ ६१३ ३६० ४६२
२९४ २५३, २६५
७९६ ७२७ ८५० ४९
यथाख्यात याज्ञिक योग
१५६
४७ ३५४, ३५५, ९२२
१५४, १५९
योनि
रामायण
६०२
मण्डलि (दर्शन) मति अज्ञान
रूपगता रूपसत्य रोमश रोमहषिणी
१४० ५०९
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१०९६
गो० जीवकाण्डे
सिद्ध
४५
वैक्रियिक काययोग ३७० वैक्रियिक मिश्रका. ३७१ वैनयिक
६१४ वैनयिकवाद वैशेषिक
१४० व्यंजनावग्रह व्यवहारकाल ८०८, ८११ व्यवहारपल्य व्यवहारपल्योपम २३६ व्यवहारसत्य
३६० व्याख्याप्रज्ञप्ति व्याख्याप्रज्ञप्ति (अंग) ५९५ व्याघ्रभूति
६०० व्यास
४२, १३७ सिद्धगति
२८२ सिद्धपरमेष्ठी सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक
५२८, ५२९ ५३० सूक्ष्मकृष्टि १२१, १२५ सूक्ष्मसांपराय (गु.) ४१, १२१,
१२५, १२६ सूक्ष्मसांपराय संयम ६८६ सूच्यंगुल २१६, २४२, २४४
५२१
२३५
६०१
७१३
८१
१४६
शरीरपर्याप्ति २५२, शाकल्य
६०० शीत (योनि) शुक्ललेश्या
७१० श्वासोच्छ्वास २६१, २६६ श्रुत अज्ञान
५१० श्रुतज्ञान
५२३
संयतासंयत संयम
६८१ संवृति सत्य संवृत (योनि) १५६ संवेजनी कथा
५९७ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष सत्यदत्त
६०० सत्यप्रवाद सत्यमनोयोग
३५६ सत्यवचनयोग
३५७ सदाशिव
१४० ५३१, ५५३, ५५४ सप्रतिष्ठित प्रत्येक समय
८०८ समवायांग
५९४ समयप्रबद्ध
३८० समुद्घात ७३५, ८९६ सम्यक्त्व सम्यक्त्व (प्रकृति) ५४, ५७ सम्यग्दृष्टि
४० सम्यक् मिथ्यात्व प्र. ५१ सम्यमिथ्यादृष्टि ५२, ८८७ सयोगकेवलिजिन ४१, १२८ सरागसम्यग्दर्शन सर्वावधि ६२०, ६२१ साकार उपयोग ९०१ सागरोपम २४१, २४९ सातिशयाप्रमत्त ७९,८० सात्यमुनि साधारणशरीर ३१६, ३२१ सान्तरमार्गणा
२७६ सामायिक
६१३ सामायिक संयम सासादन गु. ४३, ५० सासादनसम्यग्दृष्टि ४०,५०,५१,
सूत्र कृतांग
५९३ सूर्यप्रज्ञप्ति सोपक्रमकाल ४५६ सोपक्रमायुष्क स्तोक स्थलगता
६०२ स्थापनाक्षर ५६८, ५६९ स्थानांग
५९३ स्थापना सत्य
३५९ स्थापनासामायिक स्पर्श (क्षेत्र) स्मृति स्वक्षेत्र परिवर्तन स्वरूपविपर्यास ४९ स्वस्थानाप्रमत्त स्वस्थान स्वस्थान ७३५ स्विष्ठिक्य
६०० स्थितिकाण्डकोत्करण १०४ स्थितिबन्धापसरण स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान २२७
६१३ ७६० ५२१
७९३
षडंक
५३१, ५५३, ५५५
स
३४
संक्षेप संख्याताणुवर्गणा ८२३ संख्यातगुणवृद्धि संख्यात भागवृद्धि संघात श्रु. संज्ञा ३४, २६९, ९३२ संज्ञी ८९२, ९३२ संज्वलनकषाय ४७५ संभावनासत्य संमूर्छन (जन्म)१५५,१५८,१६०
हरिश्मश्रु हारीत हीयमान
६०० ६०० ६२०
८८७
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भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जैनधर्म-दर्शन, सिद्धान्त एवं
आचारपरक ग्रन्थ गोम्मटसार, जीवकाण्ड (भाग 1 और 2) (कर्णाटिकी वृत्ति, संस्कृत टीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित) गोम्मटसार, कर्मकाण्ड (भाग 1 और 2) (कर्णाटिकी वृत्ति, संस्कृत टीका एवं हिन्दी अनुवाद सहित) सर्वार्थसिद्धि सम्पादन-अनु. : सिद्धान्ताचार्य पं. फूलचन्द्र शास्त्री तत्त्वार्थराजवार्तिक (भाग 1 और 2) मूल : भट्ट अकलंक सम्पादन-अनु. : डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य सत्यशासनपरीक्षा (संस्कृत), मूल : आचार्य विद्यानन्द सम्पादन-अनु : डॉ. गोकुलचन्द्र जैन प्रमाणप्रमेयकलिका (संस्कृत), मूल : नरेन्द्र सेन षड्दर्शनसमुच्चय सम्पादन-अनु. डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य षट्खण्डागम-परिशीलन : पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री SAMAYASAR (समयसार) Edited by A. Chakravarti Structure And Functions of Soul In Jainism -Dr. S.C. Jain श्रावकप्रज्ञप्ति (सावय पण्णत्ति) सम्पादन-अनु. : पं. बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री मूलाचार (प्राकृत, संस्कृत, हिन्दी), दो भागों में सम्पादन-अनु. : आर्यिकारत्न ज्ञानमती धर्मामृत (अनगार, सागार) ज्ञानदीपिका पंजिका एवं हिन्दी अनुवाद सहित सम्पादन-अनु. : सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री आराधना-समुच्चयो योगसारसंग्रहश्च (संस्कृत) मूल : रविचन्द्र; गुरुदास ध्यानस्तव (संस्कृत, अंग्रेजी), मूल : भास्करनन्दि गीतवीतराग (संस्कृत), मूल : पण्डिताचार्य सम्पादन : डॉ. आ.ने. उपाध्ये ज्ञानपीठ पूजांजलि (जैन पूजा, व्रत, स्तोत्रपाठ आदि संग्रह) जिनवाणी (प्राकृत-हिन्दी) सम्पादन-अनु. : डॉ. हीरालाल जैन
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