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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका णिद्धिदरे समविसमा दोत्तिगआदीदुउत्तरा होंति । उभयेविय समविसमा सरिसिदरा होंति पत्तेयं ॥६१६ ॥ स्निग्धेतरयोः समविषमौ द्वित्र्यादिद्वयुत्तरौ भवतः । उभयस्मिन्नपि च समविषमौ सदृशेतरौ भवतः प्रत्येकं ॥ स्निग्धरूक्षगुणंगळ समपंक्तिद्वयांकंगळं विसमपंक्तिद्वयांकंगळं प्रत्येकं द्वित्र्यादिद्वयुत्तरंगळ - ५ पुवा उभयदोळं समविषमौ रूप्यरूपिगलु सदृशांकंगळु मसदृशांकंगळु मप्पुवदे तें दोडे :- स्निग्धरूक्षसमांकपंक्तिद्वयद एरडक्केरडु नाल्कक्के नाल्कु आरक्कार एंटक्के पत्त पत्तु पक्के पन्नेरडु मोदलागि संख्याताऽसंख्यातानंतगुणयुतंगळु रूपिगळु परस्परं, आ स्निग्धरूक्षविषमांक पंक्तिद्वयद मूरक्के मूरु, अय्बक्कय्दु, एळक्केछु, ओ भतक्के वो भतु, पन्नों दक्के पन्नों दु, पदि - मूरके पदिमूरु इवु मोदलागि संख्याताऽसंख्यातानंतगुणंगळु परस्परं रूपिगळुमी सदृशंगळगतरं- १० गळु । एरडुनाका टुपत्तु पन्नेरडु मोदलागि संख्याता संख्यातानंतंगळेल्लम रूपिगळु । मूरैवेळ अभत्तु पन्नोंटु पदमूरु मोदलागि संख्यातासंख्यातानंतंगळेल्लमरूपिगळु । प्रत्येकं स्निग्धदोळं रूक्षदोळं रूपिगळ बंधमिल्ल । तत्त्वार्थदोळमंते “गुणसाम्ये सदृशानामे दितु पेळल्पटट्टुवु । अरूपिगळगे बंधमुटु स्वस्थानदोळं परस्थानदोळं ई यथमने प्रकारांतरदिदं पेदपरु : स्निग्धरूक्षगुणानां समपंक्तिद्वयाङ्काः विषमपंक्तिद्वयाङ्काश्च प्रत्येकं द्वित्र्यादिद्वयुत्तरा भवन्ति । ते १५ उभयेऽपि अंकाः समविषमाः रूप्यरूपिणः सदृशाङ्काः असदृशाङ्का भवन्ति । यथा स्निघरूक्षसमाङ्क पंक्तयोः द्वयस्य द्वयं चतुष्कस्य चतुष्कं षट्कस्य षट्कं अष्टकस्य अष्टकं दशकस्य दशकं द्वादशकस्य द्वादशकं एवमादिसंख्याता संख्यातानन्तगुणयुताः, तद्विषमाङ्कपङ्क्तयोः त्रयस्य त्रयं पञ्चकस्य पञ्चकं सप्तकस्य सप्तकं नवकस्य नवकं एकादशकस्य एकादशकं त्रयोदशकस्य त्रयोदशकं एवमादिसंख्याता संख्यातानन्तगुणयुताश्च परस्परं रूपिणः । शेषाः द्विचतुः षडष्टदशद्वादशादिसंख्याता संख्यातानन्ताः । त्रिपञ्चसप्तनवैकादशत्रयोदशादिसंख्यातासंख्यातानन्ताश्चारूपिणः । प्रत्येकं स्निधे रूक्षे च रूपिणां बन्धो नास्ति । तत्वार्थेऽपि 'गुणसाम्ये सदृशानां' इति तथैव वचनात् । अरूपिणां बन्धः स्यात् स्वस्थाने परस्थानेऽपि ॥ ६१६ ॥ अमुमेवार्थं प्रकारान्तरेणाह - २० ८५९ २५ स्निग्ध और रूक्ष गुणवालों में से प्रत्येकमें दोको लेकर दो गुण अधिक होनेपर समपंक्ति और तीनको लेकर दो गुण अधिक होनेपर विषम पंक्ति होती है । वे दोनों ही सम और विषम रूपी और अरूपी होते हैं । जैसे स्निग्ध और रूक्ष सम अंकवाली पंक्तियोंमें दो का दो, चारका चार, छहका छह, आठका आठ, दसका दस, बारहका बारह रूपी है। इसीप्रकार संख्यात, असंख्यात, अनन्तगुण पर्यन्त जानना । विषम अंकवाली पंक्तियों में तीनका तीन, पाँचका पाँच, सातका सात, नौका नौ, ग्यारहका ग्यारह, तेरहका तेरह, इसी तरह संख्यात, असंख्यात और अनन्त गुणवाले परमाणु परस्परमें रूपी हैं। इनके सिवाय शेष अरूपी हैं। प्रत्येक स्निग्ध और रूक्ष में रूपीका बन्ध नहीं होता है । तत्त्वार्थ सूत्रमें भी कहा है कि गुणों की समानता सदृशों का बन्ध नहीं होता । अरूपियोंका बन्ध स्वस्थानमें अर्थात् स्निग्धका स्निग्ध के साथ, रूक्षका रूक्षके साथ और परस्थानमें अर्थात् स्निग्धका रूक्ष के साथ या रूक्षका स्निग्ध के साथ बन्ध होता है ||६१६ ॥ ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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