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________________ गो० जीवकाण्डे दोत्तिगपभवदुउत्तरगदेसणंतरदुगाण बंधो दु । णिद्दे लुक्के वि तहा वि जहण्णुभये वि सव्वत्थ ॥६१७॥ द्वित्रिप्रभवद्वयुत्तरगतेष्वनंतरद्विकानां बंधस्तु । स्निग्धे रूक्षेपि तथा वि जघन्योभयस्मिन्नपि । सर्वत्र॥ १० स्निग्धे स्निग्धदोळं रूक्षेपि रूक्षदोळं द्वित्रिप्रभवमुं द्वयुत्तरमागि नडेववरोळु उपरितनानंतरद्विकंगळगे स्निग्धद नाल्कक्कं रूक्षद नाल्कक्कं स्निग्धदेरडरोळं रूक्षदेरडरोळं बंधमक्कुं। स्निग्धदैदक्कं रूक्षदयिदक्कं स्निग्धद मूररोळं रूक्षद मूररोळं बंधमक्कु । मितागुत्तिरलु जघन्यगुणयुतदोळं बंधप्रसंगमादोडे जघन्यज्जितमप्पुभयदोळु स्निग्धरूक्षद्वयदोळ सर्वत्र बंधमरियल्पडुगुमें बुदत्य । णिद्धदरवरगुणाणू सपरट्टाणे वि णेदि बंधळं । बहिरंतरंगहेदुहि गुणंतरं संगदे एदि ॥६१८॥ स्निग्धेतरावरगुणाणः स्वपरस्थानेपि नैति बंधात्यं । बाह्याभ्यंतरहेतुभ्यां गुणांतरं संगते एति ॥ स्निग्धजघन्यगुणाणुवु रूक्षजघन्यगुणाणुवं स्वस्थानदोळं परस्थानदोळं बंधनिमित्तमागि १५ सल्लदु । बाह्याभ्यंतरहेतुर्गाळदं गुणांतरमं पोद्दि बंधक्क सल्गुं। तत्वार्थदोळं "न जघन्यगुणाना" में दितु पेळल्पटुदु। स्निग्धे रूक्षेऽपि द्वित्रिप्रभवद्वयु त्तरक्रमेण गच्छन्ति तेषु उपरितनानन्तरद्विकानां स्निग्धचतुष्कस्य रूक्षचतुष्कस्य च स्निग्धद्वये रूक्षद्वये च बन्धः स्यात् । स्निग्वपञ्चकस्य रूक्षपञ्चकस्य च स्निग्धत्रये रूक्षत्रये च बन्धः स्यात् । एवं जघन्यगुणयुतेऽपि बन्धप्रसक्तो जघन्यजिते उभयत्र स्निग्धरूक्षद्वये सर्वत्र बन्धो ज्ञातव्य इत्यर्थः ॥६१७॥ स्निग्धजघन्यगुणाणुः रूक्षजघन्यगुणाणुश्च स्वस्थाने परस्थानेऽपि बन्धाय योग्यो न, बाह्याभ्यन्तरहेतुभिर्गुणान्तरं प्राप्तस्तु योग्यः स्यात् । तत्त्वार्थेऽपि 'न जघन्यगुणानां' इत्युक्तत्वात् ॥६१८।। इसीको अन्य प्रकारसे कहते हैं स्निग्ध और रूक्ष में भी दोको आदि लेकर तथा तीनको आदि लेकर दो-दो बढ़ते २५ जाते हैं। उनमें ऊपरके अनन्तरवर्ती दोका बन्ध होता है। जैसे चार गुण स्निग्धवालेका ___ दो गुण स्निग्धवाले दो गुण रूक्षवालेके साथ तथा चार गुण रूक्षवालेका दो गुण रूक्षवाले या दो गुण स्निग्धवालेके साथ बन्ध होता है। इसी तरह पाँच गुण स्निग्ध या पाँच गुण रूक्षवालेका तीन गुण स्निग्ध या तीन गुण रूक्षवालेके साथ बन्ध होता है। इस प्रकार एक अंशयुक्त जघन्य गुणवालोंका भी बन्ध प्राप्त होनेपर निषेध करते हैं कि जघन्यको छोड़कर स्निग्ध ३० और रूझ दोनोंमें सर्वत्र बन्ध जानना ॥६१७॥ जघन्य स्निग्ध गुणवाला या जघन्य रूक्ष गुणवाला परमाणु स्वस्थान और परस्थानमें भी बन्धके योग्य नहीं है। वही परमाणु बाह्य और अभ्यन्तर कारणोंसे यदि अधिक गुणवाला होता है,तो बन्धके योग्य होता है। तत्त्वार्थ सूत्रमें भी कहा है कि जघन्य गुणवालोंका बन्ध नहीं होता ॥६१८॥ २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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