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________________ ५२४ गो० जीवकाण्डे अर्थांतरज्ञानद प्रतिपादकमप्पुदु परमागमदोळु रूढमक्कुमो दानुमोंदु प्रकादिदं कथंचित् निरुक्तिसंभविप रूढिशब्ददोजहत्सार्थवृत्तिकदोळु कुशं लातीति कुशलः एंदितु कुशलादिशब्दंगलोळु निपुणाद्यत्थंगळु रूढंगला रूढार्थंगळोळ तत्कुशलशब्दनिरुक्ति येते अरियल्पडुगुमल्लि जीवोऽस्ति येदितु नुडियल्पडुत्तिरलु जीवोऽस्ति यदिती शब्दज्ञानं श्रोत्रंद्रियप्रभवमतिज्ञानमयुमा ज्ञानदिदं ५ जीवोऽस्तिशब्दवाच्यरूपात्मास्तित्वदोळु वाच्यवाचकसंबंधसंकेतसंकलनमा पूर्वकमागि आयुदोंदु ज्ञानं पुटुगुमदक्षरात्मकश्रुतज्ञानमयकुमेके दोडक्षरात्मकशब्दसमुत्पन्नवदिदं काय्यदो कारणोपचारमुळ्ळुरिदं । वातशोतस्पर्शज्ञानदिदं वातप्रकृतिगे तत्स्पर्शनदोळमनोज्ञज्ञानमनक्षरात्मकलिंगजमप्प श्रृतज्ञानमें बुदक्कुमे के दोडे शब्दपूर्वकत्वाभावमप्पुरिदं । लोगाणमसंखमिदा अणक्खरप्पे हवंति छट्ठाणा । बेरुवछट्ठवग्गपमाणं रूऊणमक्खरगं ॥३१६॥ लोकानामसंख्यमितान्यनक्षरात्मके भवंति षट्स्थानानि । द्विरूपषष्ठवर्गप्रमाणं रूपोनमक्षरग।। प्रधानं भवति । श्रूयते-थोत्रन्द्रियेण गृह्यते इति श्रुतः शब्दः, तस्मादुत्पन्नमर्थज्ञानं श्रुतज्ञानमिति व्युत्पतेरपि अक्षरात्मकप्राधान्याश्रयणात् । अथवा श्रुतमिति रूढिशब्दोऽयं मतिज्ञानपूर्वकस्य अर्थान्तरज्ञानस्य प्रतिपादकः परमागमे रूढः । यथाकथंचिन्निरुक्तिसंभवः रूढिशब्दे अजहत्स्वार्थवृत्तिके कुशं लातीति कुशल इति कुशलादिशब्देषु निपुणाद्यर्थेषु रूढेषु तन्निरुक्तिवत् । तत्र जीवोऽस्तीत्युक्ते जोवोऽस्तीति शब्दज्ञानं श्रोत्रेन्द्रियप्रभवं मतिज्ञानं भवति । तेन ज्ञानेन जीवोऽस्तीति शब्दवाच्यरूपे आत्मास्तित्वे वाच्यवाचकसंबन्धसंकेतसंकलनपूर्वक यत् ज्ञानमुत्पद्यते तदक्षरात्मकं श्रु तज्ञानं भवति, अक्षरात्मकशब्दसमुत्पन्नत्वेन कार्ये कारणोपचारात् । वातशीतस्पर्शज्ञानेन वातप्रकृतिकस्य तत्स्पर्श अमनोज्ञज्ञानमनक्षरात्मकं लिङ्गजं श्रतज्ञानं भवति, शब्दपूर्वकत्वाभावात् ॥३१५।। अथ श्रुतज्ञानस्य अक्षरानक्षरात्मकभेदौ प्ररूपयति-- २० श्रत अर्थात् शब्द है। उससे उत्पन्न अर्थज्ञान श्रुतज्ञान है। इस व्युत्पत्तिसे भी अक्षरात्मक श्रुतज्ञानकी प्रधानता लक्षित होती है । अथवा 'श्रुत' यह रूढ़ि शब्द है। परमागममें मतिज्ञानपूर्वक होनेवाले अन्य अर्थके ज्ञानको कहने में रूढ़ है। फिर भी यथायोग्य निरुक्ति होती है। रूढ़ि शब्द अपने अर्थको नहीं छोड़ते । जैसे कुशको जो लाता है,वह कुशल है।इस प्रकार कुशल आदि शब्द चतुर आदि अर्थों में रूढ़ है,फिर भी उनकी व्युत्पत्ति उसी प्रकार की जाती है। २५ इसी प्रकार श्रुतके सम्बन्ध में जानना । 'जीव है', ऐसा कहनेपर यह जो शब्दका ज्ञान होता है कि 'जीव है,' यह श्रोत्रेन्द्रियसे उत्पन्न हुआ मतिज्ञान है । और ज्ञानके द्वारा 'जीव है, इस शब्दके वाच्यरूप आत्माके अस्तित्वमें वाच्यवाचक सम्बन्धके संकेत ग्रहणपूर्वक जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अक्षरात्मक श्रुतज्ञान है । क्योंकि अक्षरात्मक शब्दसे उत्पन्न हुआ है, इस प्रकार कार्यमें कारणका उपचार किया है। तथा वायुके शीत स्पर्श के ज्ञानसे ३. वात प्रकृतिवाले मनुष्यको जो उसके स्पर्शमें 'यह मेरे लिए अनुकूल नहीं है', ऐसा जो ज्ञान होता है, वह अनक्षरात्मक लिंगजन्य श्रुतज्ञान है,क्योंकि वह शब्दपूर्वक नहीं हुआ है ।।३१५।। अब श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक भेदोंको कहते हैं १. मलनपूर्व संकलनमागि । २. म कार्यकारणो । ३. बस्त्येतद्ज्ञानं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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