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कर्णाटवृत्ति जोवतत्त्वप्रदीपिका
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अल्लि श्रुतज्ञानक्क नक्षरात्म अक्षरात्मकभेर्दाददं द्विभेदमक्कु मल्लि अनक्षरात्मकमप्प श्रुतभेदो पर्याय पर्याय समासलक्षण सर्व्वजघन्यज्ञानं मोदल्गोंडु स्वोत्कृष्टपर्यंतं असंख्येयलोकमात्राs ज्ञानविकल्पंगळष्ववुम संख्येयलोकमात्रवारषट्स्थान वृद्धियिदं संवृद्धंगळप्पुवु । अक्षरात्मकं श्रुतज्ञानं द्विरूपवर्गधारोत्पन्नषष्ठवार्यमप्पे कट्टमेंब पेसरनुलोड्दिनोळेनितोळवु रूपुगळ नितु मेक रूपोनंगळवुमनितुमक्षरंगलुम पुनरुक्ताक्षरंगळनाश्रयिति संख्यातविकल्पमक्कुं । विवक्षितार्थोऽभिव्यक्तिनिमित्त पुनरुक्ताक्षर ग्रहणदोलदं नोडल धिकप्रमाणमुमक्कु बुदत्थं ।
अनंतरं श्रुतज्ञान प्रकारांतरदिदं भेदप्ररूपणार्थमागि गाथाद्वयमं पेळदपं पज्जायक्खरपदसंघादं पडिवत्तियाणि जोगं च ।
दुगवारपाहुडं च य पाहुडयं वत्थु पुव्वं च ॥३१७॥ पर्यायाक्षरपद संघातं प्रतिपत्तिकानुयोगं च । द्विकवारप्राभृतं च च प्राभृतकं वस्तुपूव्वं च ॥ १० तेसिं च समासेहि य बीसविधं वा हु होदि सुदणाणं । आवरणस्स वि भेदा तत्तियमेत्ता हवंतित्ति ॥ ३१८॥
तेषां च समासैश्च विंशतिविधं वा हि भवति श्रुतज्ञानं । आवरणस्यापि भेदास्तावन्मात्रा भवतीति ॥
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श्रुतज्ञानस्य अनक्षरात्मकाक्षरात्मकौ द्वौ भेदौ, तत्र अनक्षरात्मके श्रुतज्ञाने पर्यायपर्यायसमासलक्षणे १५ सर्वजघन्यज्ञानमादि कृत्वा स्वोत्कृष्टपर्यन्तं असंख्येयलोकमात्रा ज्ञानविकल्पा भवन्ति । ते च असंख्येयलोकमात्रवारषट्स्थानवृद्ध्या संवर्धिता भवन्ति । अक्षरात्मकं श्रुतज्ञानं द्विरूावर्गधारोत्पन्नषष्टवर्गस्य एकनाम्नो यावन्ति रूपाणि एकरूपोनानि सन्ति तावन्ति अक्षराणि अपुनरुक्ताक्षराण्याश्रित्य संख्यातविकल्पं भवति । विवक्षितार्था - भिव्यक्तिनिमित्तं पुनरुक्ताक्षरग्रहणे ततोऽधिकप्रमाणं भवतीत्यर्थः ॥ ३१६ ॥ अथ श्रुतज्ञानस्य प्रकारान्तरेण भेदान् गाथाद्वयेनाह
श्रुतज्ञानके अक्षरात्मक और अनक्षरात्मक ये दो भेद हैं । अनक्षरात्मक श्रुतज्ञानके पर्याय और पर्यायसमास दो भेद हैं। इसमें सर्वजघन्य ज्ञानसे लेकर अपने उत्कृष्ट पर्यन्त असंख्यात लोक प्रमाण ज्ञानके भेद होते हैं । वे भेद असंख्यात लोकमात्र बार षट्स्थानपतित वृद्धिको लिये हुए हैं | अक्षरात्मक श्रुतज्ञानके संख्यात भेद हैं । सो द्विरूप वर्गधारामें उत्पन्न छठे वर्गका, जिसका प्रमाण एकट्ठी है, उसके प्रमाणमें से एक कम करनेपर जितने अपुनरुक्त अक्षर २५ होते हैं, उतने हैं । इसका आशय यह है कि विवक्षित अर्थको प्रकट करनेके लिए पुनरुक्त अक्षरोंके ग्रहण करनेपर उससे अधिक प्रमाण हो जाता है ||३१६ ||
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विशेषार्थ - दोसे लेकर वर्ग करते जानेको द्विरूपवर्गधारा कहते हैं । जैसे दोका प्रथम वर्ग चार होता है । चारका वर्ग सोलह होता है । सोलहका वर्ग दो सौ छप्पन होता है । दो सौ छप्पनका वर्ग पैंसठ हजार पाँच सौ छत्तीस होता है, जिसको पण्णी कहते हैं । पट्टीका वर्ग बादाल और बादालका वर्ग एकट्टी प्रमाण होता है, यही छठा वर्गस्थान है । इसमें एक कम करनेसे श्रुतज्ञानके समस्त अपुनरुक्त अक्षर होते हैं। उतने ही अक्षरात्मक श्रुतज्ञान के भेद हैं।
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अब अन्य प्रकार से श्रुतज्ञानके भेद दो गाथाओंसे कहते हैं
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