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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ६४९ मत्तमा परमावधिसर्वोत्कृष्टद्रव्यमं ध्रु वहारप्रमितमं । ९ । तु मत्ते ध्रुवहारदिदं भागिसिदोडोदे परमाणवक्कुमा द्रव्यं सव्र्वाविधिज्ञानविषयद्रव्यमक्कुमा सर्व्वावधिज्ञानमुं निव्विकल्पमेयक्कुमिंतु देशावधिज्ञानविषयमप्प जघन्यद्रव्यराशियोळ मध्यमयोगाज्जित नोकम्मौंदारिकशरीरसंचयसवित्र सोपचय लोक विभक्तप्रमितद्रव्यस्कंधदोळ देशावधिज्ञानद्वितीयविकल्पं मोदगोंड परमावधिज्ञान सर्वोत्कृष्टद्रव्यपय्र्यंतमदमोळ पोध्छु गंगानदीमहाप्रवाहमे तु हिमाचलदोपुट्टि पूर्वोदधि- ५. पय्र्यंतमविच्छिन्नरूपदिदं परिदु पोगि तदुदधिप्रविष्टमादुदंते ध्रु वहारमुमविच्छिन्न रूपदिदं प्रवेशिसि प्रवेशिसि परमाणुद्रव्यपर्यवसानमागि निदुदेकें दोर्ड विषयभूतपरमाणुवुं विषयियप्पसर्व्वावधिज्ञानमं निव्विकल्पकंगळप्पुर्दारद । परमोहिदव्वमेदा जेत्तियमेत्ता हु तेत्तिया होंति । तस्सेव खेत्तकालवियप्पा विसया असंखगुणिदकमा ॥ ४१६ ॥ परमावधिद्रव्यभेदाः यावन्मात्राः खलु तावन्मात्रा भवंति । तस्यैव क्षेत्रकालविकल्पाः विषया असंख्य गुणितक्रमाः ॥ परमावधिज्ञानविषयद्रव्यविकल्पंगळु यावन्मात्रंगळु तावन्मात्रंगळेयपुवु । परमावधिज्ञानविषयंगळप्प क्षेत्र विकल्पंग हुं कालविकल्पंगळं तावन्मात्रविकल्पंगळागुत्तलुं तं तम्म जघन्यविकल्पं मोदगोंड तंतमुत्कृष्टपर्यंत संख्यात गुणितक्र मंगळ पुर्वेतप्पऽसंख्यातगुणितक्रमंगळप्पुवे 'दोडे १५ पेदपं । पुनस्तत्परमावधिसर्वोत्कृष्टं द्रव्यं ९ ध्रुवहारेणैकवारं भक्तं एकपरमाणुमात्र सर्वावधिज्ञानविषयं द्रव्यं भवति । तज्ज्ञानं निर्विकल्पकमेव स्यात् । स च ध्रुवहारः गङ्गामहानद्याः प्रवाहवद्भवति-यथा गङ्गामहानदी - प्रवाहः हिमाचलादविच्छिन्नं प्रवह्य पूर्वोदधो गत्वा स्थितस्तथायंहारोऽपि देशावधिविषयजघन्यद्रव्यात्परमावधिसर्वोत्कृष्टद्रव्यपर्यन्तं प्रवह्य परमाणु पर्यवसाने स्थितः विषयस्य परमाणोः, विषयिणः परमावधेश्च निर्विकल्पक - २० त्वात् ।।४१५।। परमावधिज्ञानविषयद्रव्यविकल्पा यावन्मात्रा : तावन्मात्रा एव भवन्ति तस्य विषयभूतक्षेत्रकालविकल्पाः । तावन्मात्रा अपि स्वस्त्र जघन्यात् स्वस्वोत्कृष्ट पर्यन्तं असंख्यातगुणितक्रमा भवन्ति ॥ ४९६ ॥ कीदृगसंख्यातगुणितक्रमाः ? इत्युक्ते प्राह १० उस परमावधिके सर्वोकृष्ट द्रव्यको एक बार ध्रुवहारसे भाग देनेपर एक परमाणु मात्र . २५ सर्वावधिज्ञानका विषयभूत द्रव्य होता है । यह ज्ञान निर्विकल्प ही होता है। इसमें जघन्यउत्कृष्ट भेद नहीं है । वह ध्रुवहार गंगा महानदीके प्रवाहकी तरह है । जैसे गंगा महानदीका प्रवाह हिमाचलसे अविच्छिन्न निरन्तर बहता हुआ पूर्व समुद्र में जाकर ठहरता है, वैसे ही यह ध्रुवहार भी देशावधिके विषयभूत जघन्य द्रव्यसे सर्वावधिके उत्कृष्ट द्रव्य पर्यन्त बहता हुआ परमाणुपर आकर ठहरता है । सर्वावधिका विषय परमाणु और सर्वावधि ये दोनों ही ३० निर्विकल्प हैं || ४१५ ।। । परमावधिज्ञान के विषयभूत द्रव्यकी अपेक्षा जितने भेद कहे हैं, उतने ही भेद उसके विषयभूत क्षेत्र और कालकी अपेक्षा होते हैं फिर भी अपने-अपने जघन्यसे अपने-अपने उत्कृष्ट पर्यन्त क्रमसे असंख्यात गुणित क्षेत्र व काल होते हैं ||४१६|| किस प्रकार असंख्यात गुणित होते हैं, यह कहते हैं ८२ Jain Education International For Private & Personal Use Only ३५ www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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