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________________ गो० जीवकाण्डे सर्व्वदेवसामान्यदोळु नाल्कं गुणस्थानमक्कुंंमल्लि मिथ्यादृष्टिगुणस्थानदोळं सासादनगुण स्थानदोळं असंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळं सामान्यालाप पर्याप्तळापमपर्याप्ताळापमुमें ब मूरुमाळा पंंगळप्पुवु । अल्लि विशेषमुंटदावुदे दोडे भवनत्रयदेववर्कळ कल्पवासिस्त्रीयरुगळ असंयतगुणस्थानदो पर्याप्ताळापमो देयक्कुमेर्क' दोडे तिर्य्यग्मानुष्या संयतसम्यग्दृष्टिगळु भवनत्रयदोळं ५ कल्पामरस्त्रीयरागि पुट्टर पुर्दारदं ॥ मिस्से पुण्णाला वो अणुदिस्साणुत्तरा हु ते सम्मा । अविरदतिण्णा लावा अणुद्दिसाणुत्तरे होंति ॥ ७१८॥ १० १५ ९४२ २५ मिश्रे पूर्णाळापः अनुद्दिशानुत्तराः खलु ते सम्यग्दृष्टयः । असंयतत्रितयालापाः अनुदिशानुत्तरे भवंति ॥ बादरहु मे इंदिय बितिचतुरिंदिय असण्णिजीवाणं । ओघे पुणे तिणिय अपुण्णगे पुण अपुण्णो दु ॥७१९ ॥ बादरसूक्ष्मैकेंद्रियद्वित्रिचतुरद्रियासंज्ञिजीवानामोघे पूर्णे त्रयश्चापूर्णे पुनरपूर्णस्तु ॥ बादकेंद्रिय सूक्ष्मैकेंद्रियद्वींद्रियत्रींद्रियचतुरिद्रियासंज्ञिपंचेंद्रियजीवंगळ सामान्यदोळ सामान्यपर्याप्ताळापमेव माळापंगळप्पु । पर्य्याप्त नामकर्मोदयविशिष्टजीवंगळोळमा मूरमाळा२० गळवु । अपर्थ्याप्तनामकम्मोदयविशिष्टजीवंगळोळु लब्ध्यपर्याप्ताळापमो देक्कु । - पेद नवग्रैवेयकावसानमाद सामान्यदेवकर्कळ मिश्रगुणस्थानदोळ पर्याप्ताळापमो देक्कु । अनुदिशानुत्तर विमानंगळहमद रेल्लरु स्फुटमागवर्गळु सम्यग्दृष्टिगळे यापुर्दारदमसंयतसम्यग्दृष्टिगुणस्थानदोळप्प सामान्याळापमं पर्याप्ताळापनुं निवृत्त्यपर्य्याप्ताळापमुमेंब मूरु माळापंगळु अनुदिशानुत्तरविमानवासिगळोळवु । अनंतरामद्रियमाणयोळाळापमं पेदपं : सर्वदेवसामान्ये चतुर्गुणस्थानेषु मिथ्यादृष्टिसासादनयोः असंयते च त्रय आलापा भवन्ति । अयं विशेष:भवनत्रयदेवाणां कल्पस्त्रीणां च असंयते पर्याप्तालाप एव तिर्यग्मनुष्यासंयतानां तत्रोत्पत्त्यभावात् ॥ ७१७।। नवग्रैवेयकावसानसामान्यदेवानां मिश्रगुणस्थाने एकः पर्याप्तालाप एव अनुदिशानुत्तरविमानादहमिन्द्राः सर्वे खलु सम्यग्दृष्टय एव तेन असंयते त्रय आलापा भवन्ति ॥ ७१८ | अथेन्द्रियमार्गणायामाह - तु पुनः बादरसूक्ष्मै केन्द्रियद्वित्रिचतुरिन्द्रियासंज्ञिजीवसामान्ये पर्याप्तनामोदयविशिष्टे त्रय आलापा भवन्ति । अपर्याप्तनामोदयविशिष्टे पुनः एको लब्ध्यपर्याप्तालाप एव ॥ ७१९ ॥ सब सामान्य देवोंमें चार गुणस्थानों में से मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत में तीन आलाप होते हैं । इतना विशेष है कि भवनत्रिकके देवोंके और कल्पवासी देवांगनाओंके असंयतमें पर्याप्त आलाप ही होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि तिर्यंच और मनुष्य उनमें उत्पन्न ३० नहीं होते ।।७१७॥ नवे पर्यन्त सामान्य देवोंके मिश्र गुणस्थानमें एक पर्याप्त आलाप ही है ! अनुदिश और अनुत्तर विमानवासी अहमिन्द्र सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अतः उनके असंयतमें तीन आलाप होते हैं ।।७१८ ।। जो बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंज्ञी ३५ सामान्य जीव पर्याप्त नामकर्मके उदयसे युक्त होते हैं, उनके तीन आलाप होते हैं । और जिनके अपर्याप्त नामकर्मका उदय है, उनके एक लब्ध्यपर्याप्त आलाप ही होता है ||७१९ || Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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