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________________ ५७२ गो० जीवकाण्डे समासज्ञानोत्कृष्टविकल्पद मेले एकाक्षरमे वृद्धमागुत्तिरलु संघातश्रुतज्ञानमक्कुं-प १००० १ मिदुर्बु चतुर्गतिगळोळोंदु गतिस्वरूपनिरूपकमध्यमपदसमुदायरूपसंघातश्रवणजनितार्थज्ञानमक्कं । अनंतरं प्रतिपत्तिकश्रु तज्ञानस्वरूपमं पेळ्दपं: एक्कदरगदिणिरूवयसंघादसुदादु उवरि पुव्वं वा । वण्णे संखेज्जे संघादे उड्ढम्मि पडिवत्ती ॥३३८ । एकतमगतिनिरूपकसंघातश्रुतादुपरि पूर्ववत् । वर्णे संख्येये संघाते वृद्ध प्रतिपत्तिः॥ पूर्वोक्तप्रमाणमप्प एकतमगतिनिरूपकसंघातश्रुतद मेले पूर्वपरिपाटियिदमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितमप्पेकैकपदवृद्धिक्रमदिदं संख्यातसहस्रपदमात्रसंघातंगळु संख्यातसहस्रप्रमितंगळु रूपोन__ संघातसमासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु तच्चरमसंघातोत्कृष्टविकल्पद प १०००१ । १००० १-१ १० वृद्धिय मेले एकाक्षरवृद्धियमेलेयागुत्तिरलु प्रतिपत्तिकमें ब तज्ञानमक्कु १६=१०००।१।१०००१ । इदु, नारकादिचतुर्गतिस्वरूपसविस्तरप्ररूपकप्रतिपत्तिकाख्यग्रंथश्रवणसंजातार्थज्ञान में दितु निश्चैसल्पडुवुदु । अनंतरमनुयोगश्रुतज्ञानमं पेळ्दपरु चरमस्य पदसमासज्ञानोत्कृष्टविकल्पस्य उपरि एकस्मिन्नक्षरे वृद्धे सति संघातश्र तज्ञानं भवति १५ १६ = १०००१ तच्चतसृणां गतीनां मध्ये एकतमगतिस्वरूपनिरूपकमध्यमपदसमदायरूपसंघातश्रवणजनितार्थज्ञानं ॥३३७।। अथ प्रतिपत्तिकश्र तज्ञानस्वरूपं निरूपयति पूर्वोक्तप्रमाणस्य एकतमगतिनिरूपकसंघातच तस्य उपरि पूर्वोक्तप्रकारेण एकैकबर्णवृद्धिसहचरितैकैकपदवृद्धिक्रमेण संख्यातसहस्रपदमात्रसंघातेषु संख्यातसहस्रेषु रूपोनेषु संघातसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमस्य संघातसमासोत्कृष्टविकल्पस्य १६%=१०००१।१०००१-१ एतस्योपरि एकस्मिन्नक्षरे वृद्धे सति प्रति२० पत्तिकं नाम श्रुतज्ञानं भवति १६ = १०००।१०००। तच्च नारकादिचतुर्गतिस्वरूपसविस्तरप्ररूपक प्रतिपत्तिकाख्यग्रन्यश्रवण जनितार्थज्ञानमिति निश्चेतव्यम् ॥३३८॥ अथानुयोगश्रुतज्ञानं प्ररूपयतिहै । इस प्रकार प्रत्येक एक पदके अक्षर मात्र विकल्पोंके बीतनेपर पदज्ञानके चतुगुने-पंचगुने होते-होते संख्यात हजार गुणित पदमात्र पदसमास ज्ञानके विकल्पोंमें एक अक्षर घटानेपर जो प्रमाण रहे, उतने पदसमास ज्ञानके विकल्प होते हैं। अन्तिम पदसमास ज्ञानके उत्कृष्ट २५ विकल्पके ऊपर एक अक्षर बढ़ानेपर संघात श्रुतज्ञान होता है। सो चार गतियों में से किसी एक गतिके स्वरूपका कथन करनेवाले मध्यमपदके समुदायरूप संघात श्रुतज्ञानके सुननेसे जो अर्थज्ञान होता है,वह संघात श्रुतज्ञान है ।।३३७॥ अब प्रतिपत्ति श्रुतज्ञानका स्वरूप कहते हैं पूर्वोक्त प्रमाण किसी एक गतिके निरूपक संघात श्रुतके ऊपर पूर्वोक्त प्रकारसे एक३० एक अक्षरकी वृद्धिपूर्वक एक-एक पदकी वृद्धिके क्रमसे संख्यात हजार पदप्रमाण संख्यात हजार संघातमें होते हैं। उनमें एक अक्षर कम करनेपर संघात श्रुतज्ञानके विकल्प होते हैं। उसके अन्तिम संघात समासके उत्कृष्ट विकल्प के ऊपर एक अक्षर बढ़ानेपर प्रतिपत्ति नामक श्रुतज्ञान होता है। नारक आदि चार गतियों के स्वरूपका विस्तारसे कथन करनेवाले प्रतिपत्तिक नामक ग्रन्थके सुननेसे होनेवाला अर्थज्ञान प्रतिपत्ति श्रुतज्ञान होता है ।।३३८।। ३५ अब अनुयोग श्रुतज्ञानको कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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