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________________ १० कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ५७३ चउगइसरूवरूवयपडिवत्तीदो दु उवरि पुव्वं वा। वण्णे संखेज्जे पडिवत्ती उड्ढम्मि अणियोगं ।।३३९।। चतुर्गतिस्वरूपरूपकप्रतिपत्तितस्तूपरि पूर्ववत् । वर्णे संख्येये प्रतिपत्तिके वृद्ध अनुयोगं ॥ चतुर्गतिस्वरूपप्ररूपकप्रतिपत्तिकदिदं मुंदेयुमदर मेले प्रत्येकमे कैकवर्णवृद्धिक्रमदिदं संख्यातसहस्रपदसंघातप्रतिपत्तिकंगळ संवद्धंगळागत्तिरल रूपोनतावन्मात्रप्रतिपत्तिकसमासज्ञानविकल्पंगळ सलुत्तंमिरलु तच्चरमप्रतिपत्तिकसमासोत्कृष्टविकल्पद मेल एकाक्षरवृद्धियागुत्तं विरलु अनुयोगाख्यश्रतजानमक्कं । अदुवं चतुर्दशमार्गणास्वरूपप्रतिपादकानयोगमें ब शब्दसंदर्भश्रवणजातार्थ. जानम बुदत्थं । अनंतरं प्राभृतप्राभृतकम गाथाद्वयदिदं पेळ्दपर : चोद समग्गणसंजुद अणियोगादुवरि वड्ढिदे वण्णे । चउरादी अणियोगे दुगवारं पाहुडं होदि ॥३४०॥ चतुर्दशमार्गणासंयुतानुयोगादुपरि वद्धिते वर्णे । चतुराद्यनुयोगे द्विकवारं प्राभृतं भवति ॥ चतुर्दशमार्गणासंयुतानुयोगश्रुतद मेले मुंदे पूर्वोक्तक्रमदिदं प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धिळिदं चतुराद्यनुयोगंगळु संवृद्धिगळागुत्तिरलु रूपोनतावन्मात्रंगलनुयोगसमासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु तच्चरमानुयोगसमासोत्कृष्टविकल्पद मेले एकाक्षरवृद्धियागुत्तिरलु- १५ द्विकवारप्राभूतकर्म ब श्रुतज्ञानमक्कुं। चतुर्गतिस्वरूपनिरूपकप्रतिपत्ति कात् परं तस्योपरि प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिक्रमेण संख्यातसहस्रेषु पदसंघातप्रतिपत्तिकेषु वृद्धेषु रूपोनतावन्मात्रेषु प्रतिपत्तिकसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमप्रतिपत्तिकसमासोत्कृष्टविकल्पस्योपरि एकस्मिन्नक्षरे वृद्धे सति अनुयोगाख्यं श्रुतज्ञानं भवति । तच्चतुदंशमार्गणास्वरूपप्रतिपादकानुयोगसंज्ञशब्दसंदर्भश्रवणजनितार्थज्ञानमित्यर्थः ।।३३९॥ अथ प्राभृतकप्राभृतकस्य स्वरूपं गाथाद्वयेन प्ररूपयति- २० ___ चतुर्दशमार्गणासंयुतानुयोगात्परं तस्योपरि पूर्वोक्तक्रमेण प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादिवृद्धिभिश्चतुराद्यनुयोगेषु संवृद्धेषु सत्सु रूपोनतावन्मात्रानुयोगसमासज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमानुयोगसमासोत्कृष्टविकल्पस्योपरि एकाक्षरवृद्धौ सत्यां द्विकवारप्राभुतकं नाम श्रुतज्ञानं भवति ॥३४०॥ चार गतियोंके स्वरूपको कहनेवाले प्रतिपत्तिकसे आगे उसके ऊपर एक-एक अक्षरकी वृद्धिके क्रमसे संख्यात हजार पदोंके समुदायरूप संख्यात हजार संघात और संख्यात २५ हजार संघातोंके समूहरूप प्रतिपत्तिककी संख्यात हजार प्रमाण वृद्धि होनेपर उसमें से एक अक्षर कम करनेपर प्रतिपत्तिक समास ज्ञानके विकल्प होते हैं। उसके अन्तिम प्रतिपत्तिक समासके उत्कृष्ट विकल्पके ऊपर एक अक्षर बढ़ानेपर अनुयोग नामक श्रुतज्ञान होता है । चौदह मार्गणाओंके स्वरूपके प्रतिपादक अनुयोग नामक श्रुतग्रन्थके सुननेसे हुआ अर्थज्ञान अनुयोग श्रुतज्ञान है ॥३३९।। अब दो गाथाओंसे प्राभृतक-प्राभृतकका स्वरूप कहते हैं चौदह मार्गणाओंसे सम्बद्ध अनुयोगसे आगे उसके ऊपर पूर्वोक्त क्रमसे प्रत्येक एकएक अक्षरकी वृद्धिसे युक्त पद आदिकी वृद्धिके द्वारा चार आदि अनुयोगोंकी वृद्धि होनेपर प्राभृतक-प्राभृतक श्रुतज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर कम करनेपर उतने मात्र अनुयोग ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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