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________________ ५७४ गो० जीवकाण्डे अहियारो पाहुडयं एयट्टो पाहुडस्स अहियारो । पाहुडपाहुडणामं होदित्ति जिणेहि णिढेिं ॥३४१॥ अधिकारः प्राभृतकमेकाwः प्राभृतस्याधिकारः प्राभृतकप्राभृतकनामा भवतीति जिनैनिद्दिष्टं ॥ वस्तुवेब श्रुतज्ञानद अधिकारः प्राभृतक बेरडुमेकात्थंगळु । प्राभृतद अधिकारमं प्राभृतक प्राभृतकम बुदु अदुकारणदिदमेकार्थपर्यायशब्दमें दितु जिनेंद्र भट्टारकरिदं पेळल्पटुदु । स्वरुचिविरचित मल्त बुदत्थं । द्विकवारप्राभृतानंतरं प्राभृतकस्वरूपमं पेळदपरु : दुगवारपाहुडादो उवरिं वण्णे कमेण चउवीसे । दुगवारपाहुडे संउड्ढे खलु होदि पाहुडयं ।।३४२॥ द्विकवारप्राभृतकादुपरि वर्णे क्रमेण चतुविशतौ। द्विकवारप्राभृते संवृद्धे खलु भवति प्राभृतकं ॥ द्विकवारप्राभृतदिदं मेले तदुपरि पूर्वोक्तक्रमदिदं प्रत्येकमेकैकवर्णवृद्धिसहचरितपदादि___ वृद्धिळिदं चतुविशतिप्राभृतकप्राभृतकंगळु वृद्धंगळागुतिरलु रूपोनतावन्मात्रंगळु प्राभृतकप्राभृतक१५ समासज्ञानविकल्पंगळु सलुत्तं विरलु तच्चरमोत्कृष्ट विकल्पद मेले एकाक्षरवृद्धियागुत्तिरलु प्राभृतकमबं श्रुतज्ञानमक्कुं। ___अनंतरं वस्तुवेंब श्रुतज्ञानस्वरूपमं पेन्दपं वस्तुनामश्रुतज्ञानस्य अधिकारः प्राभूतकं वेति द्वो एकार्थो । प्राभूतकस्य अधिकारोऽपि प्राभृतकप्राभूतकनामा भवति ततः कारणात एकार्थः पर्यायशब्दः इति जिनेः-अर्हद्धारकैः निर्दिष्टं न स्वरुचिविरचित२० मित्यर्थः ॥३४१॥ द्विकवारप्राभृतानन्तरं प्राभृतकस्वरूपं प्ररूपयति द्विकवारप्राभृतकात्परं तस्योपरि पूर्वोक्तक्रमेण प्रत्येकमेकै कवर्णवृद्धि सहचरितपदादिवृद्धिभिः चतुर्विंशतिप्राभृतकप्राभृतकेषु वृद्धेषु रूपोनतावन्मात्रेषु प्राभृतकप्राभृतकज्ञानविकल्पेषु गतेषु तच्चरमसमासोत्कृष्टविकल्पस्य उपरि एकाक्षरवृद्धौ सत्यां प्राभृतकं नाम श्रु तज्ञानं भवति ॥३४२॥ अथ वस्तुनामश्रु तज्ञानस्वरूपमाहसमास ज्ञानके विकल्प होते हैं। उसके अन्तिम अनुयोग समासके उत्कृष्ट विकल्पके ऊपर एक अक्षरके बढ़नेपर प्राभृतक-प्राभृतक नामक श्रुतज्ञान होता है ॥३४०॥ वस्तु नामक श्रुतज्ञानका अधिकार कहो या प्राभृतक कहो, दोनोंका एक ही अर्थ है। प्राभृतकका अधिकार भी प्राभृतक-प्राभृतक नामक होता है । ऐसा अर्हन्त देवने कहा है, स्वरुचि रचित नहीं है ॥३४॥ अब प्राभृतकका स्वरूप कहते हैं प्राभृतक-प्राभृतकसे आगे उसके ऊपर पूर्वोक्त प्रकारसे प्रत्येक एक-एक अक्षरकी ३० वृद्धिके क्रमसे पद आदिकी वृद्धिके होते-होते चौबीस प्राभृतक प्राभृतकोंकी वृद्धि में एक अक्षर घटानेपर प्राभृतक-प्राभृतक समासके भेद होते हैं। उसके अन्तिम भेदमें एक अक्षर बढ़ानेपर प्राभृतक श्रुतज्ञान होता है। उसके ऊपर पूर्वोक्त क्रमसे एक-एक अक्षरको वृद्धिके क्रमसे बीस प्राभृतक नामक अधिकारोंके बढ़नेपर प्राभृतक नामक श्रुतज्ञान होता है। उसमें एक अक्षर कम करने पर उतने मात्र प्राभूतक समास ज्ञानके विकल्प ३५ होते हैं। उसके अन्तिम प्राभृतक समासके उत्कृष्ट विकल्पके ऊपर एक अक्षर बढ़नेपर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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