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________________ ५ गो० जीवकाण्डे वोदु द्रव्यदोळा केलवुवर्त्यपर्य्यायंगळं व्यंजनपर्य्यायंगळमतीतानागतकालंगळोळवत्तसुवुदु वत्तिसल्पडुवमपि शब्ददिदं वर्त्तमानपर्य्यायववेल्लमुं कूडि तत् अटु द्रव्यं भवति द्रव्यमक्कुंस्थित्यधिकारंतिर्दुदु । आगासं वज्जित्ता सव्वे लोगम्मि चेव णत्थि बहिं । वावी धमाधम्मा अवट्ठिदा अचलिदा णिच्चा || ५८३ ॥ आकाशं विवज्यं सर्व्वे लोके चैव न संति बहिः । व्यापिनौ धर्माधम्र्मो अवस्थितौ अच लितौ नित्यौ ॥ आकाशद्रव्यं पोरगागि शेषद्रव्यंगळ नितुं लोकदोळेयप्पवु । लोकदि पोरगिल्ल । आ द्रव्यंगळोळु धर्म्माधर्मद्रव्यंगळेरडुं व्यापिगळेकें दोडे लोकप्रदेशंगळेनितोळवनितं व्यापिसिवु तिलदोळ १० तैलमे तंते । अवस्थितौ स्थानचलनरहितंगळप्पुर्दारदमवस्थितंगळ, अचलितौ प्रदेशचलनरहितंगळपुर्दारंदचलितंगळ, त्रिकालदोळं नाशरहितंगळप्पुर्दारदं नित्यो नित्यंगळप्पुवु । इल्लिगुपयोगिप्प श्लोकमिदु -- ८१४ २० ] १५ एकस्मिन् द्रव्ये ये अर्थ पर्याया व्यञ्जनपर्यायाश्च अतीतानागताः अपिशब्दाद्वर्तमानाश्च सन्ति तावत् तद् द्रव्यं भवति ॥५८२ ॥ इति स्थित्यधिकारः ॥ "औपश् लेषिकवैषयिकावभिब्यापक इत्यपि । आधारः त्रिविधः प्रोक्तः कटाकाशतिलेषु च ॥ [ आकाशं विवर्ण्य शेषसर्वद्रव्याणि लोके एव सन्ति न तद्बहिः । तेषु धर्माधर्मी व्यापिनी सर्वलोकव्याप्तत्वात् तिले तैलवत्, अवस्थिती स्थानचलनाभावात्, अचलितौ प्रदेशचलनाभावात् नित्यो त्रैकाल्येऽपि विनाशाभावात् । अत्रोपयोगी श्लोकः " औपश्लेषिकवैषयिकावभिव्यापक इत्यपि । आधारस्त्रिविधः प्रोक्तः कटाकाशतिलेषु च ॥५८३॥ एक द्रव्यमें जितनी अतीत, अनागत और वर्तमान अर्थपर्याय तथा व्यंजनपर्याय होती है, उतना ही वह द्रव्य होता है ।। ५८२ || स्थिति अधिकार पूर्ण हुआ । Jain Education International. आकाशको छोड़कर शेष सब द्रव्य लोकमें ही हैं, बाहर नहीं हैं । उनमें धर्म और २५ अधर्म तिलोंमें तेलकी तरह सत्र लोक में व्याप्त होनेसे व्यापी हैं। तथा अवस्थित हैं, क्योंकि अपने स्थान से विचलित नहीं होते । प्रदेशों में हलन चलन न होने से अचलित हैं और तीनों कालों में भी विनाश न होनेसे नित्य हैं । इस विषय में उपयोगी श्लोक - आधार तीन प्रकारका कहा है -- औपश् लेषिक, वैषयिक और अभिव्यापक । इसके तीन उदाहरण है - चटाई, आकाश और तेल । अर्थात् चटाई पर बालक सोता है, यहाँ चटाई औपश्लेषिक आधार है । ३० आकाश में पदार्थ स्थित हैं, यहाँ आकाश वैषयिक आधार है । तिलोंमें तेल यहाँ अभिव्यापक आधार है । इसी तरह लोकाकाशमें धर्म-अधर्म व्यापी हैं; यहाँ अभिव्यापक आधार है ॥५८३ || 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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