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________________ ५०९ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका अनंतरं मिथ्याज्ञानविशेषलक्षणमं गाथात्रयदिदं पेळ्दपं । विसजतकूडपंजरबंधादिसु विणुवएसकरणेण । जा खलु पवट्टइ मई मइअण्णाणेत्ति णं वेति ॥३०३।। विषयंत्रकटपंजरबंधादिषु विनोपदेशकरणेन । या खलु प्रवर्तते मतिर्मत्यज्ञानमितीदं ब्रवंति ॥ विषयंत्रकूट पंजरबंध बिवु मोदलाद जीवमारणबंधनहेतुगळोळ या मतिः आवुदोंदु मति ५ परोपदेशकरणमिल्लद प्रतिसुगुमदे मत्यज्ञानमेंदु अर्हदादिगळु पेळ्वरल्लि परस्परसंयोगजनितमारणशक्तिविशिष्टतैलकर्पूरादिद्रव्यं विषमें बुदक्कुं। सिंहव्याघ्रादि क्रूरमृगंगळ धरणार्थमभ्यंतरीकृतच्छागादिजीवमनुळ्ळ काष्ठादिरचितमप्पुदु तत्पादनिक्षेपमात्रकवाटसंघटीकरणदक्षसूत्रकोलितमप्पुदु यंत्रमें बुदक्कुं । मत्स्यकच्छपमूषकादिग्रहणाय॑मवष्टब्धकाष्टादिमयं कूटमें बुदक्कुं। तित्तिरीलावकहरिणादिधारणात्य विरचितग्रंथिविशेषकलितरज्जुमयमप्प जालं पंजरमें बुदक्कुं। १० गजोष्टादिधारणार्थमवषुब्धमप्पगतमुखकोलितग्रंथिविशिष्टवारिरज्जुरचनाविशेषं बंध बुदक्कुं । आदिशदिवं पक्षिगळ पक्षमं पत्तिसि सिक्किसल्केंदु दीर्घदंडाप्रदोळ तोडद पिप्पलनिर्यासादि चिक्कणबंधमुं । गृहहरिणादिशृंगलग्नसूत्रग्रंथिविशेषादिगळ्गे ग्रहणमक्कुमुपदेशपूर्वकत्वदोळु संभवति नेतरदेशसंयतादिषु गुणस्थानेषु तथाविधतपोविशेषाभावात् ॥३०२॥ अथ मिथ्याज्ञानविशेषलक्षणं गाथात्रयेणाह १५ विषयन्त्रकूटपञ्जरबन्धादिषु जीवमारणवन्धनहेतुषु या मतिः परोपदेशकरणेन विना प्रवर्तते तदिदं मत्यज्ञानमित्यहंदादयो ब्रुवन्ति । तत्र परस्परसंयोगजनितमारणशक्तिविशिष्टं तैलकर्पूरादिद्रव्यं विषं, सिंहव्याघ्रादिक्रूरमृगधारणार्थमभ्यन्तरीकृतछागादिजोवं काष्ठादिरचितं तत्पादनिक्षेपमात्रकवाटसंपुटीकरणदक्षं सूत्रकीलितं यन्त्रं, मत्स्यकच्छपमूषकादिग्रहणार्थमवष्टब्धं काष्ठादिमयं कूटं, तित्तिरलावकहरिणादिधारणार्थविरचितं ग्रन्थिविशेषकलितरज्जुमयं जालं पजरः, गजोष्ट्रादिधारणार्थमवष्टब्धो गर्तमुखकीलितग्रन्थिविशिष्टो २० वारोरज्जुरचनाविशेषो बन्धः । आदिशब्देन पक्षिपक्षलगनाथं दीर्घदण्डानम्रक्षितपिप्पलनिर्यासादिचिक्कणमहामुनियोंके होता है, अन्य देशसंयत आदि गुणस्थान में नहीं होता क्योंकि वहाँ उस प्रकारका तपविशेष नहीं है ॥३०२॥ अब तीन गाथाओंसे मिथ्याज्ञानोंका विशेष लक्षण कहते हैं___ जीवोंको मारने और बन्धनमें हेतु विष, यन्त्र, कूट, पंजर, बन्ध आदिमें बिना २५ परोपदेशके मति प्रवर्तित होती है,वह मतिअज्ञान है, ऐसा अहंन्त भगवान् आदि कहते है। परस्पर वस्तुके संयोगसे उत्पन्न हुई मारनेकी शक्तिसे युक्त तैल, रसकपूर आदि द्रव्य विष हैं । सिंह, व्याघ्र आदि क्रूर जीवोंको पकड़ने के लिए, अन्दरमें बकरा आदि रखकर लकड़ी आदिसे बनाया गया, जिसमें पैर रखते ही द्वार बन्द हो जाता हो, ऐसा सूत्रसे कीलित यन्त्र होता है । मच्छ, कछुआ, चूहा आदि पकड़नेके लिए काष्ठ आदिसे रचे गयेको कूट कहते ३० हैं। तीतर, लावक, हरिण आदि पकड़नेके लिये रस्सीमें अमुक प्रकारकी गाँठ देकर बनाये गये जालको पंजर कहते हैं। हाथी, ऊँट आदि पकड़नेके लिए गढ़ा खोदकर और उसका मुख ढाँककर या रस्सी आदिका फन्दा लगाकर जो विशेष रचना की जाती है, उसे बन्ध कहते हैं । आदि शब्दसे पक्षियोंके पंख चिपकाने के लिए लम्बे बाँस आदिके अप्रभागमें पीपल आदिका चिकना रस गोंद वगैरह लगाना और हरिण आदिके सींगके अग्रभागमें ३५ फन्दा आदि डालना आदि लिया जाता है । इस प्रकारके कार्यों में जो बिना परोपदेशके स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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