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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका बहुबिधंगळु बहुप्रकारंगळुमप्पबेळगुगलु चंद्रसूर्यरत्नादिप्रकाशंगळु लोकदोळ्परिमितक्षेत्र दोळेयप्पुवाव बेळगुळिदं पवणिसल्पडद लोकालोकंगळोळावुदोंदु विगततिमिरमप्पुददु केवलदर्शनोद्योतमक्कुं। अनंतरं दर्शनमार्गयोळु जीवसंख्येयं गाथाद्वर्याददं पेळ्दपं : जोगे चउरक्खाणं पच्चक्खाणं च खीणचरिमाणं । चक्खूणमोहिकेवलपरिमाणं ताण णाणं व ॥४८७॥ योगे चतुरक्षाणां पंचाक्षाणां च क्षीणकषायचरमाणां । चक्षुषामवधिकेवलपरिमाणं तयोर्ज्ञानवत् । मिथ्यादृष्टिगुणस्थानमादियागि क्षीणकषायावसानमाद गुणस्थानत्तिगळु शक्तिचक्षुईनिगळे, व्यक्तिचक्षुद्देशनिगळे दूं। चक्षुद्देर्शनिगळुसंख्ययोळु. द्विप्रकारमप्परल्लि लब्ध्य- १० पर्याप्तकचतुरिद्रियजीवंगठ संखयोछु पंचेंद्रियलब्ध्यपप्तिजीवंगळ संख्येगे संयोगमागुत्तिरळु शक्तिगतचक्षुर्दशनिगळ संख्येयक्कुं। पर्याप्तकचतुरिद्रियजीवंगळमंपर्याप्तकपंचेंद्रियजीवंगळ संख्येयुमं संयोगमं माडुतिरळु व्यक्तिगतचक्षुर्दशनिगळ संख्ययक्कुं। तच्छक्तिव्यक्तिगतचक्षुर्शनिगळ संख्येयंतप्पल्लि त्रैराशिकं माडल्पडुवुददेते दोडे द्विचतुःपंचेंद्रियजीवंगळगेल्लमीयावल्यसंख्यातभक्तप्रतरांगुलभाजितजगत्प्रतरमात्रं फलराशियागुत्तिरलु चतुःपंचेन्द्रियद्वयक नितु जीवंगळक्कुमदु १५ बहुविधाः-तीव्रमन्दमध्यमादिभावेन अनेकविधाः बहुप्रकाराश्चोद्योताः चन्द्रसूर्यरत्नादिप्रकाराः लोकेपरिमितक्षेत्रे एव भवन्ति तैः प्रकाशैरनुपमेयः लोकालोकयोविगततिमिरो यः स केवलदर्शनोद्योतो भवति ।।४८६॥ अथ दर्शनमार्गणायां जीवसंख्यां गाथाद्वयेनाह मिथ्यादृष्टयादयः क्षीणकषायान्ताः शक्तिगतचक्षुर्दनिनः व्यक्तिगतचक्षुर्दशनिनश्च । तत्र लब्ध्यपर्याप्तचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाः शक्तिगतचक्षुर्दर्शनिनः, पर्याप्तकचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियाः व्यक्तिगतचक्षुर्दर्शनिनः । तद्यथा- २० द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियप्रमाणं सर्वं यद्यावल्यसंख्यातभक्तप्रतराङ्गुलभाजितजगत्प्रतरं तदा चतुःपञ्चेन्द्रियप्रमाणं तीव्र, मन्द, मध्यम आदिके भेदसे अनेक प्रकारके चन्द्र, सूर्य, रत्न आदि सम्बन्धी उद्योत परिमित क्षेत्रको ही प्रकाशित करनेवाले हैं। उन प्रकाशोंकी उपमा जिसे नहीं दी जा सकती ऐसा जो लोक-अलोक दोनोंको प्रकाशित करता है, वह केवल दर्शनरूप उद्योत २५ है ।।४८६।। अब दर्शन मार्गणामें जीवोंकी संख्या दो गाथाओंसे कहते हैं मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान पर्यन्त जीव दो प्रकारके हैं, शक्तिरूप चक्षुदर्शनवाले और व्यक्तिरूप चक्षुदर्शनवाले। उनमें-से लब्ध्यपर्याप्तक चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तो शक्तिरूप चक्षुदर्शनवाले हैं और पर्याप्तक चतुरिन्द्रिय व्यक्तिरूप चक्षुदर्शन वाले ३० हैं। यदि दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवोंका प्रमाण आवलीके असंख्यातवें भागसे भाजित प्रतरांगुल और उससे भाजित जगत्प्रतर प्रमाण है। तो चतुरिन्द्रिय १. भेदेनानेकप्रकारा उद्योताः प्रकाशविशेषा लोके परिमितक्षेत्र एव प्रकाशते । यो लोकालोकयोः सर्वसामान्याकारे वितिमिरः क्रमकरणव्यवधानराहित्येन सदावभासमानः स केवलदंशनाख्य उद्योतो भवति इतोऽग्रेऽयमपि पाठो दृश्यते बपुस्तके। ३५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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