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________________ ५३८ गो. जीवकाण्डे मोदल्गोंडु तदुत्कृष्टवृद्धिपर्यंत भेदमुंटप्पुरिदमवर विन्यासं तोरल्पडुगुमते दोडे पर्यायसमासज्ञानप्रथमविकल्पदोलिई वृद्धियं तेगदु जघन्यद मेरो स्थापिसि अदर केळगे एकसारानंतैकभागवृद्धियं स्थापिसुवुदंतु स्थापिसुत्तिरलु तवृद्धिगे प्रक्षेपकमेब पेसरकु। मंते द्वितीयविकल्प दोलिई जघन्यमं मेग स्थापिसि तदधस्तनभागदोळु तद्वृद्धिप्रक्षेपकंगळे रडुमोदु प्रक्षेपकप्रक्षेपक५ मुमप्पुववं क्रमदिदं कळगे केळगिरिसुवुदु। तृतीयविकल्पदोळं जघन्यमं मेरो स्थापिसि तवृद्धि. गळप्प मूरुं प्रक्षेपकंगळं मूलं प्रक्षेपकप्रक्षेपंगळमोदु पिशुलियुमं यथाक्रमदिदं तज्जघन्यद केळगे केळ्ग स्थापिसुवुदु । चतुर्थविकल्पोळुमंते जघन्यमं मेगे स्थापिसि तदधस्तनभागदोळु तवृद्धिगळप्प नाल्कुं प्रक्षेपकंगळं षट्प्रक्षेपकप्रक्षेपकंगळं चतुःपिशुलिगळुमनोंदु पिशुलिपिशुलियुमं यथाक्रमदिद केळगे केळगे स्थापिसुवुदु । पंचमविकल्पदोळर्मत जघन्यमं मेग स्थापिसि तदधस्तनभागदोळु तवृद्धिगळप्प प्रक्षेपकंगळय्दुमं प्रक्षेपकप्रक्षेपकंगळ पत्तुं। पिशुलिगळु पत्तुमं पिशुलिपिशुलिगळेदुमनोंदु चूर्णियुमं यथाक्रमदिदं कळगे केळगे स्थापिसुवुदु । षष्ठविकल्पदोळुमंत जघन्यमं मे स्थापिसि तदधस्तनभागदोळु तत्र तवृद्धीनां तज्जघन्यमादिं कृत्वा तदुत्कृष्टवृद्धिपर्यन्तं भेदे सति तद्विन्यासो दर्श्यते । तद्यथाप्रथमविकल्पे स्थितवृद्धि पृथक्कृत्य जघन्यमुपरि संस्थाप्य तस्याधः एकवारानन्तकभागवृद्धि स्थापयेत्, तद्वृद्धेः १५ प्रक्षेपक इति नाम । तथा द्वितीयविकल्पे जघन्यमुपरि संस्थाप्य तदधस्तनभागे तद्वृद्धौ प्रक्षेपको एक प्रक्षेपक प्रक्षेपकं च अधोधो न्यस्येत् । तृतीयविकल्पे जघन्यमुपरि संस्थाप्य तद्वृद्धेस्त्रीन् प्रक्षेपकान् त्रीन् प्रक्षेपकप्रक्षेपकान् एकं पिशुलिं च अधोधो न्यस्येत् । चतुर्थविकल्पे तज्जघन्यमुपरि न्यस्य तदधस्तनभागे तद्वृद्धेश्चतुरः प्रक्षेपकान षट प्रक्षेपकप्रक्षेपकान चतरः पिशलीन एक पिशलिपिलि च अधोधो न्यस्येत । पञ्चमविकल्प आगे यहाँ अनन्त भाग वृद्धि रूप सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थान कहे हैं, २० उसका जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान पर्यन्त स्थापनका विधान कहते हैं। सो प्रथम ही संज्ञाओंको कहते हैं विवक्षित मूल स्थानको विवक्षित भागहारका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उसे प्रक्षेपक कहते हैं। उसी प्रमाणको उसी भागहारसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे,उसे प्रक्षेपक प्रक्षेपक कहते हैं । उसमें भी विवक्षित भागहारसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उसे पिशुलि २५ कहते हैं। उसमें भी विवक्षित भागहारसे भाग देने पर जो प्रमाण आवे, उसे पिशुलि-पिशुलि कहते हैं। उसमें भी विवक्षित भागहारसे भाग देनेपर जो प्रमाण आवे,उसे चूर्णि कहते हैं। उसमें भी विवक्षित भागहारका भाग देनेपर जो प्रमाण आवे, उसे चूर्णि-चूर्णि कहते हैं। इसी प्रकार पूर्व प्रमाणमें विवक्षित भागहारका भाग देनेपर द्वितीय आदि चूर्णि-चूर्णि कही जाती है । अस्तु सो पर्याय समास ज्ञानके प्रथम भेदमें ऊपर जघन्यको स्थापित करके उसके नीचे एक बार अनन्त भाग वृद्धिकी स्थापना करना चाहिए। उस वृद्धिका नाम प्रक्षेपक है। तथा दूसरे विकल्पमें जघन्यको ऊपर स्थापित करके उसके नीचे-नीचे उसकी वृद्धिके दो प्रक्षेपक और एक प्रक्षेपक-प्रक्षेपक स्थापित करें। तीसरे विकल्पमें जघन्यको ऊपर स्थापित करके उसकी वृद्धिके तीन प्रक्षेपक, तीन प्रक्षेपक-प्रक्षेपक और एक पिशुलि नीचे-नीचे स्थापित करें। ३५ चतुर्थ विकल्पमें जघन्यको ऊपर स्थापित करके उसके नीचे-नीचे उसकी वृद्धिके चार प्रक्षेपक, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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