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कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका
अयोगिकेवलिभट्टारकंगे। गु १ अयो । जो १ । प । प ६ । प्रा १ | आयुष्य । ग १ । म । इं १ । पं । का १ त्र । यो ० | वे ० क ० । ज्ञा १ के। सं १ यथा । द १ के
।
भ १ । सं १ । क्षा । सं १ । आ १ अनाहार । उ२ ॥
अनाहारि सिद्धपरमेष्ठिगळगे । गु० । जो ० । प० का ० । यो ० | वे ० | क ० । ज्ञा १ । के । सं ० 1 द १ के आ १ । अनाहार । उ२ ॥
१ भ १ । स १ क्षा । सं ० । आ १ अ । सं ० । ग १ म । ई १ पं । का १ त्र
भ १ । स१क्षा । सं ० । आ १ अ । सिद्धगतिः । इं ० का ० । यो ० 1 वे ० क्षा । सं । आ १ अ । उ२ ।। ७२८ ॥
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१०७१
सं ० ।
ले ६ ।
प्रा० । गति १ सिद्धगति । इं० । । ले ० । भ० । सं १ | क्षा । सं ० ।
उ २ । अयोगकेवलिनां - गु १ अ । जी ११ । प ६ । प्रा १ आयुः । यो ० । वे ० क ० । ज्ञा १ के । सं १ य । द १ के । ले ६ |
उ २ | सिद्धानां - गु ० । जी०प० क ० । ज्ञा १ के । सं ० । द १ के ।
भा०
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भा० प्रा० सं ० । ग १ ले ० । भ० । सं १
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[ ऊपर कर्नाटक टीका और तदनुसारी संस्कृत टीकामें गुणस्थानों और मार्गणास्थानोंमें बीस प्ररूपणाओंका कथन सांकेतिक अक्षरोंके द्वारा किया है। उन संकेतोंको समझ लेनेसे उक्त प्ररूपणाओंको समझ लेना सरल है ।
प्ररूपणा और उनके संकेत अक्षर इस प्रकार हैं ।
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गु ( गुणस्थान १४ ) जी ( जीवसमास १४ ) प ( पर्याप्ति ६ ) प्रा ( प्राण १० ) सं ( संज्ञा ४ ) ग ( गति ४ ) इं ( इन्द्रिय ५ ) का ( काय ६ ) यो ( योग १५ ) वे ( वेद ३ ), क ( कषाय ४ ) ज्ञा ( ज्ञान ८ ) सं ( संयम ७ ) द ( दर्शन ४ ) ले ( लेश्या ६ ) भ ( भव्यत्व - अभव्यत्व ) स ( सम्यक्त्व ६ ) सं ( संज्ञी - असंज्ञी ) आ ( आहारक - अनाहारक ) ।
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इन बीस प्ररूपणाओं में से जहाँ जितनी सम्भव होती हैं, उनकी सूचना संकेताक्षरके आगे संख्यासूचक २० अंक लिखकर दी गयी है । जैसे पृ. ९५० में पर्याप्त गुणस्थानवालोंके गुणस्थान १४ कहे हैं । जीवसमास ७ पर्याप्त सम्बन्धी कहे हैं । पर्याप्ति ६, ५, ४ कही हैं, क्योंकि पंचेन्द्रियके छह, विकलेन्द्रियके पांच और एकेन्द्रियके चार पर्याप्तियाँ होती हैं । प्राण १०, ९, ८, ७, ६, ४, ४, १ कहे हैं, क्योंकि संज्ञीके दस प्राण होते हैं शेष के एक-एक इन्द्रिय घटती जाती है । एकेन्द्रियके चार ही प्राण होते हैं । सयोगकेवलीके चार और अयोगकेवली एक प्राण होता है । संज्ञा चारों होती हैं । गति चार, इन्द्रिय एकसे लेकर पाँच तक, २५ काय छह, योग ग्यारह ( चार मन, चार वचन, तीन पूर्णकाय योग ) होते हैं । वेद तीन, कषाय चार, ज्ञान आठ ( पाँच और तीन मिथ्या ), संयम सात ( संयम मार्गणाके सात भेद हैं), दर्शन चार, लेश्या छह, भव्यत्व - अभव्यत्व, सम्यक्त्व मार्गणाके ६ भेद, संज्ञी-असंज्ञी, आहारक होते हैं । उपयोग बारह - आठ ज्ञान, चार दर्शन । अपर्याप्त गुणस्थानवालोंके गुणस्थान पाँच हैं—मिथ्यात्व, सासादन, असंयत, प्रमत्त (आहारककी अपेक्षा), सयोगकेवली ( समुद्घात अवस्थाकी अपेक्षा ) । जीव समास सात अपर्याप्त होते हैं । पर्याप्त छह ३० पाँच चार हैं । प्राण अपर्याप्त अवस्थामें सात, सात, छह, पाँच, चार, तीन, दो होते हैं । एकेन्द्रियके तीन और समुद्घात केवलीके दो होते हैं। संज्ञा चार, गति चार, इन्द्रिय पाँच, काय छह होते हैं । योग चार होते हैं - मदारिक मिश्र, वैक्रियिक मिश्र, आहारकमिश्र, कार्मण । वेद तीन, कषाय चार, ज्ञान छह होते है कुमति, कुश्रुत, मति, श्रुत, अवधि, केवल । संयम मार्गणाके चार भेद होते हैं - असंयम, सामायिक,
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