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________________ ५ १५ १०७२ २० गो० जीवकाण्डे मणपज्जव परिहारो पढमुवसम्मत्त दोणि आहारा । देसु एकपदे णत्थित्तियसेसयं जाणे ॥ ७२९ ॥ मनः पर्यायः परिहारः प्रथमोपशमसम्यक्त्वं द्वावाहारौ । एतेष्वेकस्मिन् प्रकृते नास्तीत्य शेषकं जानीहि ॥ मनः पर्य्यायज्ञानमुं परिहारविशुद्धिसंयममुं प्रथमोपशमसम्यक्त्वमुं आहारकाहारकमिश्रमुमिव प्रकृतमात्तं बिरलुळिदुमिल्ले' दितु शिष्य नीनरियेंदु संबोधने माडल्पट्टुवु । १० छेदोपस्थापना, यथाख्यात । दर्शन चार, लेश्या छह, भव्यत्व- अभव्यत्व, सम्यक्त्व मार्गणाके पांच भेद सम्यक्मिथ्यात्वके बिना । संज्ञी-असंज्ञी, आहारक - अनाहारक, उपयोग दस-विभंग और मन:पर्यय अपर्याप्त अवस्थामें नहीं होते । मन:पर्ययज्ञानं परिहारविशुद्धिसंयमः प्रथमोपशमसम्यक्त्वं आहारकद्विकं च इत्येतेषु मध्ये एकस्मिन् प्रकृते प्रस्तुते अधिकृते सति अवशेषं उद्धरितं नास्ति न संभवतीति जानीहि [ तेषु मध्ये एकस्मिन्नुदिते तस्मिन् पुंसि तदा अन्यस्योत्पत्तिविरोधात् ] ||७२९॥ इसी तरह आगे चौदह गुणस्थानोंमें क्रमशः बीस प्ररूपणाओंका कथन संकेताक्षर द्वारा किया है । उसके पश्चात् क्रमशः चौदह मार्गणाओंमें कथन किया है । गत मार्गण में कथन करते हुए सातों नरकों में, तियंचके भेदोंमें, मनुष्योंमें, देवों में गुणस्थानोंको आधार बनाकर बीस प्ररूणाओंका कथन विस्तारसे किया है। जैसे नरकगति में नारक सामान्य, नारक सामान्य पर्याप्त, सामान्य नारक अपर्याप्त, सामान्य नारक मिथ्यादृष्टि, सामान्य नारक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि, सामान्य नारक अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि, सामान्य नारक सासादन सम्यग्दृष्टि, नारक सामान्य मिश्र, नारक सामान्य असंयत, सामान्य नारक पर्याप्त असंयत, सामान्य नारक अपर्याप्त असंयत, धर्मा सामान्य नारक, घर्मा सामान्य नारक पर्याप्त, घर्मा सामान्य नारक अपर्याप्त, धर्मामिथ्यादृष्टि, घर्मानारक अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि, धर्मा पर्याप्त सासादन, घर्मा मिश्र गुणस्थान, घर्मा असंयत गु., घर्मा पर्याप्त नारक असंयत, धर्मा नारक अपर्याप्त असंयत सम्यग्दृष्टि, द्वितीयादि पृथ्वी नारक सामान्य, द्वितीयादि पृथ्वी नारक पर्याप्त, द्वितीयादि पृथ्वी नारक अपर्याप्त, द्वितीयादि पृथ्वी नारक सामान्य मिथ्यादृष्टि, द्वितीयादि पृथ्वी नारक पर्याप्त मिथ्यादृष्टि, द्वितीयादि पृथिवो नारक अपर्याप्त मिथ्यादृष्टि, द्वितीयादि पृथिवी नारक सासादन, द्वितीयादि २५ पृथ्वी नारक सम्यग्मिथ्यादृष्टि, द्वितीयादि पृथ्वी नारक असंयत सम्यग्दृष्टि, इतने विस्तार से बीस प्ररूपणाओं का प्रत्येक में कथन किया है। इसी प्रकार तियं जगति, मनुष्यगति, देवगति, इन्द्रिय मार्गणाके भेद-प्रभेदों में बीस प्ररूपणाओंका कथन किया है । पहले हमने पं. टोडरमलजीकी टीकाके अनुसार नकशों द्वारा अंकित करनेका विचार किया था । किन्तु उनमें भी संकेताक्षरोंका ही प्रयोग करना पड़ता । और कम्पोजिंग में भी कठिनाई आ जाती । ग्रन्थका ३० भार भी बढ़ जाता, इससे उसे छोड़ दिया । संकेताक्षर समझ लेनेसे टीका को समझा जा सकता है । ] मन:पर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धि संयम, प्रथमोपशम सम्यक्त्व, आहारक, आहारकमिश्र इनमें से एक प्राप्त होनेपर उसके साथ शेष सब नहीं होते ।।७२९ ॥ १. ब प्रतौ कोष्ठान्तर्गतः पाठो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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