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________________ ८३२ गो० जीवकाण्डे पुळविगळु आवल्यसंख्यातेकभागमात्रंगळेयप्पुवेके दोडल्ला स्कंधंगळोळमसंख्यातलोकमात्रपुळविगळे बुदिल्लेके दोर्ड तद्विधप्ररूपणाभावमप्पुरिदं । तदावल्यसंख्यातकभागमात्रपुळविगळोलिई निगोदशरीरंगळु त्रैराशिकसिद्ध प्र पु १ फ पु ८ लब्धप्रमितंगळप्पु ३a ८ विल्लि। प्र। शरी १। फ जी १३- इश = a ८ लब्धं बादरनिगोदजीवंगलिवु क्षीणकषायन शरीर५ स्थंगळप्पुवु १३- = ० ८ ई जीवंगळोळु क्षीणकषायन प्रथमसमयदोळु अनंतबादरनिगोद जीवंगळु मृतंगळप्पुवु । द्वितीयसमयदोळु प्रथमसमयदोळ्मृतमाद जीवराशियनावल्यसंख्यातैकभागदिदं भागिसिदेकभागमात्रविशेषाधिकंगळु मृतरप्पुत् ।। इंतु विशेषाधिकादिदं मृतमप्पुवन्नेवरमावलिपृथक्त्वमन्नेवरमल्लि बलिकमावलिसंख्यातैकभागविशेषाधिकक्रमदिदं मृतंगळप्पु वन्नेवरं क्षीणकषायगुणस्थानकालमावल्यसंख्यातेकभागमात्रावशेषमक्कुमन्नेवरमल्लिदं बळिकमुपरितनानंतरसमयदोळु पळितोपमासंख्येयभागगुणित. जीवंगळु मृतंगळप्पुल्लिदं मेले संख्यातपल्यगुणितक्रमदिवं मृतंगळप्पुर्वन्नवरं क्षीणकषायचरम. च एकबन्धनबद्धपुलवय आवल्यसंख्यातकभागमात्राः सन्ति । कुतः ? सर्वस्कन्धेषु असंख्यातलोकमात्रतत्प्ररूपणाभावात तदावल्यसंख्यातकभागपुलवीस्थितनिगोदशरीराणि प्रपु१।फ ।इपु ८ इति पैराशिकसिद्धानि एतावन्ति ॐ a ८ एतेषु पुनः प्र श १ । फ जी १३- इशरी = ० ८ इति त्रैराशिकलब्धाः १५ १३- = ३ ८ बादरनिगोदजीवा एतावन्तः। एतेषु क्षीणकषायप्रथमसमये अनन्ता म्रियन्ते । द्वितीय समयेऽनन्तमृतराशिमावल्यसंख्यातेन भक्त्वा एकभागाधिका नियन्ते । एवमावलिपृथक्त्वे गते आवलिसंख्यातकभागाधिकक्रमेण नियन्ते यावत्तद्गुणस्थानकाल आवल्यसंख्यातकभागमात्रोऽवशिष्यते । तदनन्तरसमये पलितो क्षपक श्रेणिपर आरोहण करके कर्मोकी उत्कृष्ट निर्जरा करता हुआ क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती हुआ। उसके शरीर में जघन्य और उत्कृष्टसे आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुलवी एक २० बन्धनबद्ध होती हैं। क्योंकि सब स्कन्धोंमें पुलवी असंख्यातलोकमात्र कहे हैं। एक-एक पुलवीमें असंख्यातलोकप्रमाण शरीर होते हैं। एक-एक शरीरमें सिद्धराशिसे अनन्तगुणे और संसार राशिके अनन्तवें भाग जीव होते हैं । सो आवलीके असंख्यातवें भागको असंख्यातलोकसे गुणा करनेपर शरीरोंका प्रमाण होता है। उन शरीरोंके प्रमाणको एक शरीरमें रहनेवाले निगोदिया जीवोंके प्रमाणसे गुणा करनेपर जितना प्रमाण हो,उतना एक २५ स्कन्धमें निगोदिया जीवोंका प्रमाण जानना। इनमें से क्षीणकषाय गणस्थानके प्रथम समयमें अनन्त जीव स्वयं आयु पूरी होनेसे मरते हैं। दूसरे समयमें पहले समयमें मरे हुए जीवोंके प्रमाणमें आवलीके असंख्यातवें भागसे भाग देकर जो प्रमाण आवे, उतने अधिक जीव मरते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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