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________________ ९२४ गो० जीवकाण्डे विषयभेददि चतुम्विधमक्कुं। भाषापर्याप्तियोळ्कूडिद जीवक्के शरीरनामकर्मोददिदं स्वरनामकर्मोदयसहकारिकारदिदं भाषावर्गणायातपुद्गलस्कंधंगळगे चतुविधभाषारूपदिदं परिणमनं वाग्योगमक्कुमदु सत्याद्यर्थवाचकवदिदं चतुविधमक्कुमौदारिकवैक्रियिकाहारकशरीरनामकर्मोदयंगळिदमाहारवर्गणायातपुद्गलस्कंधंगळ्गे निर्माणनामकर्मोदयनिर्मापित तत्तच्छरीरपरिणमनपरिणतियोळु पुट्टिद जोवप्रदेशपरिस्पंदमौदारिकादिकाययोगमक्कुं। तच्छरीरपर्याप्तिकालं समयोनांतर्मुहूर्तपयंतं तन्मिश्रकाययोगमक्कुमवक्के मिश्रत्वव्यपदेशमे ते दोडे औदारिकादिनोकर्मशरीरवर्गणेगळनाहरिसुवल्लि स्वतः सामर्थ्याऽसंभवमप्पुरिदं कार्मणवर्गणासव्यपेक्षमप्पुरिदं मिश्रव्यपदेशमक्कुं। विग्रहगतियोळ औदारिकादिनोकर्मवर्गणेगळनाहार मागुत्तिरलु कार्मणशरीरनामकर्मोददिदं कार्मणवर्गणायातपुद्गलस्कंधंगळ्रो ज्ञानावरणादिकर्मपर्यायदिदं जीवप्रदेशंगळोळ बंधप्रघट्टदोळ पुट्टिद जीवप्रदेशपरिस्पदं कार्मणकाययोगमें बुदनितुं कूडि योगंगळ पदिनैदप्पुवु ॥ लब्ध्युपयोगलक्षणं भावमनः तद्व्यापारो मनोयोगः । स च सत्याद्यर्थविषयभेदाच्चतुर्धा। भाषापर्याप्तियुक्तजीवस्य शरीरनामोदयेन स्वरनामोदयसहकारिकारणेन भाषावर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां चतुर्विधभाषारूपेण परिणमनं वाग्योगः। सोऽपि सत्याद्यर्थवाचकत्वेन चतुर्धा । औदारिकर्वक्रियिकाहारकशरीरनामोदयः आहारवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां निर्माणनामोदयनिर्मापिततत्तच्छरीरपरिणमनपरिणती उत्पन्नजीवपरिस्पन्दः औदारिकादिकाययोगः। तत्तच्छरीरपर्याप्तिकाले समयोनान्तर्मुहूर्तपर्यन्तं तत्तन्मिश्रकाययोगः। अस्य च मिश्रत्वव्यपदेशः औदारिकादिनोकर्मशरीरवर्गणाहरणे स्वतः सामर्थ्यासंभवेन कार्मणवर्गणासव्यपेक्षत्वात् । विग्रहगती औदारिकादिनोकर्मवर्गणानां अनाहरणे सति कार्मणशरीरनामोदयेन कार्मणवर्गणायातपुद्गलस्कन्धानां ज्ञानावरणादिकमैपर्यायेण जीवप्रदेशेषु बन्धप्रघट्टके उत्पन्नजीवप्रदेशपरिस्पन्दः कार्मणकाययोगः, एवं योगाः २० पञ्चदश ॥७०३॥ जो नोइन्द्रियावरणके क्षयोपशमसे युक्त जीवप्रदेश है ; उनमें लब्धि उपयोग लक्षणवाला भावमन है। उसके व्यापारको मनोयोग कहते हैं। वह सत्य-असत्य आदि अर्थविषयक भेदसे चार प्रकारका है। भाषा पर्याप्ति से युक्त जीवके शरीर नाम कर्म के उदयसे और स्वर नाम कर्मके उदयकी सहायतासे भाषावगणाके रूपमें आये हुए पुद्गल स्कन्धोंका चार प्रकारको २५ भाषाके रूपसे परिणमन वचनयोग है। वह भी सत्य आदि अर्थका वाचक होनेसे चार प्रकारका है । औदारिक, वैक्रियिक, और आहारक शरीरनाम कर्मके उदयसे आहार वर्गणाके रूपमें आये पुद्गल स्कन्धोंका निर्माणनाम कर्मके उदयसे रचित उस-उस शरीररूप परिणमन होनेपर जो जीवमें परिस्पन्द होता है,वह औदारिक आदि काययोग है। उस-उस शरीर पर्याप्तिके कालमें एक समय हीन अन्तर्मुहूर्त काल तक औदारिक आदि मिश्रकाययोग होता ३० है। इसको मिश्र कहनेका कारण यह है कि औदारिक आदि नोकर्म शरीर वर्गणाओंके आहरणमें स्वयं समर्थ न होनेसे कार्मणवर्गणाकी अपेक्षा करता है। विग्रहगतिमें औदारिक आदि नोकर्म वर्गणाओंका ग्रहण न होनेपर कार्मण शरीर नामकर्मके उदयसे कार्मणवर्गणा रूपसे आये पुद्गल स्कन्धोंका ज्ञानावरण आदि कर्मपर्याय रूपसे जीवके प्रदेशोंमें बन्ध होनेपर उत्पन्न हुआ जीवके प्रदेशोंका हलन-चलन कार्मण काययोग है। इस प्रकार योग ३५ पन्द्रह होते हैं |७०३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org -
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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