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________________ कर्णाटवृत्ति जीवतत्त्वप्रदीपिका ७२७ मक्कुं । भवनत्रयद नित्यपर्याप्तकर्ग अशुभलेश्यात्रयमेयक्कुमिरिंदमे शेषवैमानिकनिवृत्यपर्याप्तकग्गं पर्याप्तकर्ग तंतम्म लेश्यगळेयप्पुर्वेदु सूचितमरियल्पडुगुं । एंटनेय स्वाम्यधिकारं तीर्दुदु । अनंतरं साधनाधिकारमनो दे गाथासूत्रदिदं पेळदपं । वण्णोदयसंपादिद सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । मोहृदयखओवसमोवसमरखयजजीवफंदणं भावो ।।५३६॥ वर्णोदयसंपादितशरीरवर्णस्तु द्रव्यतो लेश्या । मोहोदयक्षयोपशमोपशमक्षयजीवस्पंदनं भावः॥ ___ वर्णनामकर्मोदयसंपादितसंजनितशरीरवर्णमदु द्रव्यलेश्येयकं । असंयतरोळु मोहोददिद देशविरतत्रयदोळ मोहक्षयोपशमदिदं उपशमकरोल मोहोपशमदिदं क्षपकरोळ मोहक्षदिदं संजनितसंस्कारं जीवस्पंदमेंदु ज्ञेयमक्कुमदु भावलेश्ययक्कु। मा जीवनपरिणामप्रदेशस्पंदनदिद १० भावलेश्य माडल्पटुंदें बुदत्थं । अदु कारणदिदं योगकषायंळिदं भावलेश्य एंदितु पेळल्पटुदक्कुं। ओभत्तनेय साधनाधिकारं तिर्दुदु ॥ अनंतरं संख्याधिकारमं गाथा षट्कदिदं पेन्दपं: अनुदिशानुत्तरचतुर्दशविमानानां शुक्लोत्कृष्टांशो भवति । भवनत्रयदेवाः अपर्याप्त काले अशुभत्रिलेश्या एव, अनेन वैमानिकाः अपर्याप्तिकाले स्वस्वलेश्या एवेति सूचितं ज्ञातव्यम् ॥५३४-५३५॥ इति स्वाम्यधिकारोऽष्टमः ॥ १५ अथ साधनाधिकारमाह वर्णनामकर्मोदयेन संपादितः-संजनितः शरीरवर्णो द्रव्यलेश्या भवति । असंयतान्तगुणस्थानचतुष्के मोहस्य उदयेन, देशविरतत्रये क्षयोपशमेन, उपशमके उपशमेन, क्षपके क्षयेण च संजनितसंस्कारो जीवस्पन्दनसंज्ञः स भावलेश्या जीवपरिणामप्रदेशस्पन्दनेन कृतेत्यर्थः । तेन कारणेन योगकषायाभ्यां भावलेश्येत्युक्तम्॥५३६॥ इति साधनाधिकारो नवमः ॥ अथ संख्याधिकारं गाथाषट्केनाह शुक्ललेश्याका उत्कृष्ट अंश होता है। भवनत्रिकके देव अपर्याप्त अवस्थामें तीन अशुभ लेश्यावाले ही होते हैं। इससे यह सूचित किया जानना कि वैमानिक देवोंके अपर्याप्तकालमें अपनी-अपनी लेश्या ही होती है ।।५३४-५३५॥ आठवाँ स्वामिअधिकार समाप्त हुआ। अब साधनाधिकार कहते हैं वर्णनाम कर्मके उदयसे उत्पन्न हुआ शरीरका वर्ण द्रव्यलेश्या है। असंयत पर्यन्त चार गुणस्थानोंमें मोहके उदयसे, देशविरत आदि तीन गुणस्थानोंमें मोहनीयके क्षयोपशमसे, उपशम श्रेणीके चार गुणस्थानों में मोहनीयके उपशमसे, क्षपक श्रेणीके चार गुणस्थानोंमें मोहनीयके क्षयसे जो संस्कार उत्पन्न होता है, जिसे जीवका स्पन्द कहते हैं, वह भावलेश्या है। अर्थात् जीवके परिणामों और प्रदेशोंका चंचल होना भावलेश्या है। परिणामोंका चंचल होना कषाय है और प्रदेशोंका चंचल होना योग है । इसीसे योग और कषायसे भावलेश्या कही है ॥५३६॥ नौवाँ साधनाधिकार समाप्त हुआ। आगे छह गाथाओंसे संख्याअधिकार कहते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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