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________________ ७२६ १० उपशांतकषायादिगुणस्थानत्रयदोळ कषायोदयरहितमागुत्तिरलुमवरोळु पेळल्पट्ट आवुदो दु लेइयेय । तु मर्त्त भूतपूर्व्वगतिन्यायात् उपशांत कषायवीतरागछद्मस्थनोळं क्षीणकषायवीतरागच्छस्थनोळं सयोगिकेवलिजिननोळं भूतपूर्वं गतिन्यार्याददमेयक्कुमथवा योगप्रवृत्तिर्मुख्येति योगप्रवृत्तिर्लेश्या येदितु योगप्रवृत्तिप्रधानत्वदिदं तस्मिन्भवे लेश्यातदकषायरोळमिंतु ५ लेश्यासंभवमक्कुं । गो० जीवकाण्डे तिन्हं दोन्हं दोन्हं छण्हं दोण्हं च तेरसण्हं च । तोय चोद्दसहं लेस्सा भवणादिदेवाणं ||५३४॥ त्रयाणां द्वयोर्द्वयोः, षण्णां द्वयोश्च त्रयोदशानां च इतश्चतुर्द्दशानां लेश्या भावनादिदेवानां । तेऊ तेऊ तह तेऊपम्मा पम्मा य पम्मसुक्का य । सुक्का य परमसुका भवणतिया पुण्णगे असहा || ५३५ ।। तेजस्तेजस्तथा तेजःपद्मे पद्मा च पद्मशुक्ले च । शुक्ला च परमशुक्ला भवनत्रया पूर्णके अशुभाः । भवनत्रयद भवनादित्रिधामरगं पर्याप्तापेक्षेय तेजोलेश्याजघन्यमक्कुं । सौधर्मेशानद्वयद वैमानिक तेजोलेश्यामध्यमांशमक्कुं । सनत्कुमारमाद्रद्वयद कल्पजर्गो तेजोलेश्योत्कृष्टांशमुं १५ पद्मलेश्याजघन्यमुमक्कुं । ब्रह्मब्रह्मोत्तरलांतवकापिष्ठशुक्रमहाशुक्रंगळे बारुकल्पंगळ कल्पज पद्मलेश्यामध्यमांशमक्कुं । शतारसहस्रारकल्पद्वयद वैमानिक पद्मलेश्योत्कृष्टमुं शुक्ल लेश्याजघन्यमुमक्कुं । आनतप्राणत आरणाच्युतंगळं नवग्रैवेयकंगळमें दितु पदिमूरर सुरगे शुक्ललेश्यामध्यमांशमक्कुमिल्लिदं मेले अनुदिशानुत्तरविमानगळ्पदिनात्कर कल्पातीतज शुक्ललेश्योत्कृष्टांश उपशान्तकषायादिनष्टकषायगुणस्थानत्रये कषायोदयाभावेऽपि या लेश्या उच्यते सा भूतपूर्वगतिन्या२० यादेव । अथवा योगप्रवृत्तिर्लेश्येति योगप्रवृत्तिप्राधान्येन तत्र लेश्या भवति ॥ ५३३ ॥ भवनत्रयादिदेवानां लेश्योच्यते । तत्र पर्याप्तापेक्षया भवनत्रयस्य तेजोजघन्यांशः । सौधर्मेशानयोः तेजोमध्यमांशः । सानत्कुमार माहेन्द्रयोः तेजउत्कृष्टांशपद्मजघन्यांशी । ब्रह्मब्रह्मोत्तरादिषट्कस्य पद्ममध्यमांशः । शतारसहस्रारयोः पद्मोत्कृष्टांशशुक्लजघन्यांशी । आनतादिचतुर्णां नवग्रैवेयकाणां च शुक्लमध्यमांशः । अत उपरि Jain Education International उपशान्त कषाय आदि तीन गुणस्थानोंमें यद्यपि कषायका उदय नहीं है और बारहवें - २५ तेरहवें में तो कषाय नष्ट ही हो गयी है। फिर भी वहाँ जो लेश्या कही जाती है, वह भूतपूर्व गतिन्याय से ही कही जाती है । अथवा योगकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं और योगकी प्रवृत्तिकी प्रधानता है, इसलिए वहाँ लेश्या है ॥५३३ ॥ ३० भवनत्रय आदि देवोंके लेश्या कहते हैं । पर्याप्तकी अपेक्षा भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके तेजोलेश्याका जघन्य अंश है । सौधर्म - ऐशान में तेजोलेश्याका मध्यम अंश है । सनत्कुमार- माहेन्द्र में तेजोलेश्याका उत्कृष्ट अंश और पद्मलेश्याका जघन्य अंश है । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर आदि छह स्वर्गों में पद्मलेश्याका मध्यम अंश है । शतार - सहस्रार में पद्मका उत्कृष्ट अंश और शुक्लका जघन्य अंश है। आनत आदि चार स्वर्गों में और नौ ग्रैवेयकों में शुक्लका मध्यम अंश है। उससे ऊपर अनुदिश और अनुत्तर सम्बन्धी चौदह विमानों में For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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