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________________ ६०२ गो० जीवकाण्डे चतुविशतितीत्थंकरद्वादश चक्रवत्तिंगळ नवबलदेव नववासुदेव नवप्रतिवासुदेवरुगळप्प त्रिषष्टिशलाकापुरुषपुराणंगळं वर्णिसुगुं । मुंद पूवं चतुर्दशविधं विस्तदिदं पेळल्पट्टपुदु। चूलिकयुमय्दु प्रकारमक्कुमदत दोडे जलगता स्थलगता मायागता आकाशगता रूपगता एंदितिवरोळु जलगताचूलिके जलस्तंभन जलगमनाग्निस्तंभनाग्निभक्षणाग्न्यासनाग्निप्रवेशनादिकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं वर्णिसुगुं । स्थलगता चूलिकेय बुदु मेरुकुलशैलभूम्यादिगळोळु प्रवेशन शीघ्रगमनादिकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं वर्णिसुगुं। मायागता चूलिकय बुदु मायारूपेंद्रजालविक्रियाकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं वर्णिसुगुं । रूपगताचूलिकये बुदु सिंहकरितुरगरुरुनर तहरिणशशवृषभव्याघ्रादिरूपपरावर्तनकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं चित्रकाष्ठलेप्योत्खननादिलक्षणधातुवादरसवादखन्यावादादिगळं वणिसुगुं। आकाशगताचूलिकेये बुदु आकाशगमनकारणमंत्रतंत्रतपश्चरणादिगळं वणिसुगुं। परणे पेळ्द चंद्रप्रज्ञप्त्यादिगळोळु क्रमशः यथाक्रमदिदं पदप्रमाणमननंतरमे वक्ष्यमाणमनिदं जानीहि एंदितु संबोधनमध्याहाय्यं । चक्रवर्तिनवबलदेवनववासुदेवनवप्रतिवासुदेवरूपत्रिषष्टिशलाकापुरुषपुराणानि वर्णयति । पूर्व चतुर्दशविधं विस्तरेण अग्रे वक्ष्यति । चूलिकापि पञ्चविधा जलगता स्थलगता मायागता आकाशगता रूपगता चेति । तत्र जलगता चूलिका जलस्तम्भनजलगमनाग्निस्तम्भाग्निभक्षणाग्न्यासनाग्निप्रवेशनादिकारणमन्त्रतन्त्रतपश्चरणादीन् वर्णयति । स्थलगता चूलिका मेरुकुलशैलभूम्यादिषु प्रवेशनशीघ्रगमनादिकारणमन्त्रतन्त्रतपश्चरणादोन् वर्णयति । मायागता चूलिका मायारूपेन्द्रजालविक्रियाकारणमन्त्रतन्त्रतपश्चरणादीन् वर्णयति । रूपगता चूलिका सिंहकरितुरगरुरुनरतरुहरिणशशकवृषभव्याघ्रादिरूपपरावर्तनकारणमन्त्रतन्त्रतपश्चरणादीन् चित्रकाष्ठलेप्योत्खन नादिलक्षणधातुवादरसवादखन्यावादादींश्च वर्णयति । आकाशगता चूलिका आकाशगमनकारणमन्त्रतन्त्र२० तपश्चरणादीन् वर्णयति । प्रागुक्तचन्द्रप्रज्ञप्त्यादिषु क्रमशो यथाक्रमं पदप्रमाणं अनन्तरमेव वक्ष्यमाणं जानीहि इति संबोधनमध्याहार्यम् ॥३६१-३६२।। प्रथम अर्थात् मिथ्यादृष्टि, अव्रती या अव्युत्पन्न व्यक्तिके लिए जो अनुयोग रचा गया वह प्रथमानुयोग है। यह चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नौ बलदेव, नौ वासुदेव, नौ प्रति वासुदेव, इन तिरेसठ शलाका प्राचीन पुरुषोंका वर्णन करता है। चौदह प्रकारके पूर्वोके २५ सम्बन्धमें आगे विस्तारसे कहेंगे। चूलिका भी पाँच प्रकार की है-जलगता, स्थलगता, मायागता, आकाशगता और रूपगता। जलगता चूलिका जलका स्तम्भन, जलमें गमन, अग्निका स्तम्भन, अग्निका भक्षण, अग्निपर बैठना, अग्निमें प्रवेश आदिके कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण आदिका वर्णन करती है। स्थलगता चूलिका मेरु, कुलाचल, भूमि आदिमें प्रवेश करने तथा शीघ्र गमन आदिके कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण आदिका वर्णन करती है। ३० मायागता चूलिका मायावी रूप, इन्द्रजाल (जादूगरी) विक्रियाके कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण आदिका वर्णन करती है। रूपगता चूलिका सिंह, हाथी, घोड़ा, मृग, खरगोश, बैल, व्याघ्र आदिके रूप बदलने में कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण आदिका तथा चित्र, काष्ठ, लेप्य, उत्खनन आदिका लक्षण व धातुवाद, रसवाद, खदान आदि वादोंका कथन करती है। आकाशगता चूलिका आकाशमें गमन करने में कारण मन्त्र, तन्त्र, तपश्चरण आदिका कथन करती है। इन ३५ चन्द्रप्रज्ञप्ति आदिमें क्रमसे पदोंका प्रमाण आगे कहते हैं ॥३६१-३६२।। १. ब°खन्या। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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