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________________ ६१८ गो०जीवकाण्डे विहितमुक्तं भवगुणप्रत्ययविहितं भवप्रत्ययवदिदं गुणप्रत्ययत्वदिदं पेळल्पटुदं तदिदमवधिज्ञानमिति । अंतप्पिदनवधिज्ञानमें दितु ब्रुवंति अर्हदादिगळु पेळ्वरु। सीमाविषयमनुकळवधिज्ञानं भवप्रत्ययमेंदु गुणप्रत्ययमें दितु द्विविधमक्कुम बुदुतात्पर्य । भवपच्चइगो सुरणिरयाणं तित्थेवि सव्वअंगुत्थो। गुणपच्चइगो णरतिरियाणं संखादिचिण्डंभवो ॥३७१।। भवप्रत्ययकं सुरनारकाणां तीर्थेपि सर्वांगोत्थं । गुणप्रत्ययकं नरतिरश्चां शंखादिचिह्नभवं ॥ " भवप्रत्ययावधिज्ञानं देवर्कळोळं नारकरोळं चरमभवतीर्थकरोळं संभविसुगुमदुवुमवरोळु सर्वांगोत्थमक्कू । सर्वात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवीतिरायद्वयक्षयोपशमोत्पन्नमें बुदत्थं । गुणप्रत्ययावधिज्ञानं पर्याप्तमनुष्यग्गं संज्ञिपंचेंद्रियपर्याप्ततिथ्यंचग्गं संभविसुगुमदुवुमवरोळु शंखादिचिह्नभवं नाभिप्रदेशदिदं मेगण शंखपद्मवज्रस्वस्तिकझषकलशादिशुभचिह्नलक्षितात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवील्तरायकर्मद्वयक्षयोपशमोत्थम बुदत्थं । भवप्रत्ययावधिज्ञानदोळु दर्शनविशुद्धयादिगुणसद्भावमादोडमदनपेक्षिसद भवप्रत्ययत्वमरियल्पडुगुं । गुणप्रत्ययावधिज्ञानदोळु तिर्यग मनुष्यभवसद्भावमादोडमदनपेक्षिसदे गुणप्रत्ययत्वमरियल्पडुगुं। १५ विधं भवगुणप्रत्ययविहितं-भवः नरकादिपर्यायः, गुणः सम्यग्दर्शनविशुद्धयादिः भवगुणौ प्रत्ययौ कारणे ताभ्यां विहितमुक्तं भवगुणप्रत्ययविहितं भवप्रत्ययत्वेन गुणप्रत्ययत्वेन अवधिज्ञानं द्विविधं कथितमित्यर्थः ॥३७०॥ तत्र भवप्रत्ययावधिज्ञानं सुराणां नारकाणां चरमभवतीर्थकराणां च संभवति । तच्च तेषां सींगोत्थं भवति । सर्वात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवीर्यान्तरायकमद्वयक्षयोपशमोत्थं भवतीत्यर्थः । गुणप्रत्ययं अवधिज्ञानं नराणां पर्याप्तमनुष्याणां तिरश्चां च संज्ञिपञ्चेन्द्रियपर्याप्त तिरश्चां संभवति । तच्च तेषां शङ्खादिचिह्नभवं भवति, नाभेरुपरि शङ्खपद्मवज्रस्वस्तिकझषकलशादिशुभचिह्नलक्षितात्मप्रदेशस्थावधिज्ञानावरणवीर्यान्तराय - कर्मद्वयक्षयोपशमोत्पन्नमित्यर्थः । भवप्रत्यये अवधिज्ञाने दर्शनविशुद्धयादिगुणसद्भावेऽपि तदनपेक्षयैव भवप्रत्ययत्वं ज्ञातव्यम् । गुणप्रत्ययेऽवधिज्ञाने तिर्यग्मनुष्यभवसद्भावेऽपि तदनपेक्षयैव गुणप्रत्ययत्वं ज्ञातव्यम् ॥३७१॥ अपरिमित है, वैसा इसका नहीं है। परमागममें जो तीसरा सीमा विषयक ज्ञान कहा है उसे अर्हन्त आदि अवधिज्ञान कहते हैं। भव अर्थात् नरकादि पर्याय और गुण अर्थात् २५ सम्यग्दर्शन विशुद्धि आदि ! भव और गुण जिनके कारण हैं वे भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय नामक अवधिज्ञान हैं । इस तरह अवधिज्ञानके दो भेद हैं ॥३७०॥ उनमें-से भवप्रत्यय अवधिज्ञान देवों, नारकियों और चरमशरीरी तीर्थंकरोंके होता है । तथा यह समस्त आत्माके प्रदेशोंमें वर्तमान अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय नामक दो कर्मों के क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है, इसलिए इसे सर्वांगसे उत्पन्न कहा जाता है । गुण३० प्रत्यय अवधिज्ञान पर्याप्त मनुष्योंके और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियचोंके होता है । और वह उनके शंख आदि चिह्नोंसे उत्पन्न होता है । अर्थात् नाभिसे ऊपर शंख, पद्म, वज्र, स्वस्तिक, मच्छ, कलश आदि शुभ चिह्नोंसे युक्त आत्मप्रदेशोंमें स्थित अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तराय कर्मोंके क्षयोपशमसे उत्पन्न होता है । भवप्रत्यय अवधिज्ञानमें भी सम्यग्दर्शन, विशुद्धि आदि गुण रहते हैं, फिर भी उसकी उत्पत्तिमें उन गुणोंकी अपेक्षा नहीं होती, मात्र भवधारण ३५ करनेसे ही अवधिज्ञान होता है, इसीलिए उसे भवप्रत्यय कहते हैं। गुणप्रत्यय अवधिज्ञानमें यद्यपि मनुष्य और तियचका भव रहता है, फिर भी अवधिज्ञानकी उत्पत्तिमें उसकी अपेक्षा २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001817
Book TitleGommatasara Jiva kanda Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichandra Siddhant Chakravarti, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1997
Total Pages612
LanguagePrakrit, Hindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Karma
File Size14 MB
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